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Wednesday, September 30, 2009

8. बेटवा हमरे, पुतोहियो हमरे

कहानीकार - श्री तारकेश्वर भारती

पौ फटवे कैल हल कि झन-झन-झन थाली बजे लगल भुनेसर के घर में, आउर होवे लगल कि भुनेसर के घरवाली के बुतरू होल हऽ । आय-माय-दाय के भीड़ लगे लगल, बुतरू के मुँह देखे ला । तुलाही चाची बोललन - पाँच बरीस पर अँचरा खुलल बेचारी भुनेसर वाली के; संकर जी के किरपा भेल; जिये, बचे, लखिया होवे । धुरियारी मामा कहलन - लेल-देल बप्पे नियर होतै छौंड़ाकँझली फुआ कह उठलन - नै चाची, ममुआँ के मुठान पर है । देखऽ हो नै, नकिया उनकरे ऐसन उठल हइ ! बड़की फुआ डाँट के बोललन - भक् ! भकचोंधरी, सूझऽ हौ तोरा कुछ ? मैये से मिलल है । लइका के रंग के बारे में भी, जेतना मुँह ओतना बात । कोय कहे गोर होतै, कोय कहै करिया । कुछ-कुछ धमसनमा छौंड़ा नियर होतै । अन्त में ई बात पर ई सब कोय आ टिकलन कि लइका न माय नियर करिया होतै न बाप नियर गोर; साँवर होतै । रहल नै गेलन तो पछियारी नानी मूड़ी हिलैते अप्पन कोठरी से निकसिये अइलन आउर 'सबके नीपल गेलो दहाय, अब के नीपल देख गे दाय' कहावत सिद्ध करे ले बोललन - तोहनी सब की जाने गेला ? बुतरू कैक रंग बदले हे । अभी कुछ नै कहल जा सकै हे । मुदा होतै गोरे । कैसनो होवै, हमरे ऐसन दाँत टूटै, जियै, बचै, एक से एकीस होवै । तब लइका के दादी बोल उठलन - हँऽ माय, बड़ गंगा-गजाधर नेवलूँ तब भगवान पोता के मुँह देखौलन हे । सब मिल असीस देहू । कैसनो होवै, 'घी के लड़ुआ टेढ़ो भला' । सोहनी चाची बराबर खोरनी लेले रहऽ हलन आउर जरन्त एक नम्मर के । बुतरू देख के नाक-भौं सिकोड़ के आउर मुँह बिचका के बोललन - ऐसे जे कहऽ सब, मुदा हमरा मुँहदेखली नै बोले आवे हे । बुतरू सतमासु लगऽ हे । काहे कि कनैया के तो भरपेट खाइयो ला नै मिलऽ हलै । आउर छौंड़ा कार तो अलकतरे होतै । सोहनी के बात पर कोहार मच गेल । उकटा-पुरान के बजार गरम हो गेल । दलान पर से भुनेसर आउर गाँव के दस-पाँच आदमी जुट गेलन तब रोक-थाम हो गेल । सोहन चाची घसक गेली । रजमतिया फुआ बोलली - 'एक छौंड़ा आ गेल, लुतरी लगा गेल, अपने परा गेल', इहे बात हो गेल, आउ की !

कि झुमइत-झामइत आ पहुँचल रमरतिया, मुनिया, धनिया आउर चुनियाँ, लचकइत-मटकइत आउर जवानी के जोस में उमहल हुरदंग मचइते । ई सब में मेठ हल, बोले में तेज आउर नटखट, रमरतिया । बरस पड़ल - काकी, दादी, नानी, सब हटऽ इहाँ से; ठिके कहल गेल हे कि "जहाँ बुढ़ियन के संग, तहाँ खरची के तंग, (आउर) जहाँ लइकन के संग, तहाँ बाजे मिरदंग" । सब सठिया गेलन हे । ओकर सिकायत ओकरा से, अउर ओलहन, खटपट । भुनेसर भइया के बेटा भेलैन हे । ई खुसिआली में गीत-गौनी होवे के चाही । ई गियान-धियान केकरो नै । आउर उठल सोहर –

"अँगना जे लिपली दहावही आउरे पहापही हे, ललक देखली नैहरवा के बाट, भइया मोर आवथी हे" । गीत समापत होल कि चुहल आउर धमाचौकरी मचे लगल आउर हा-हा-ही-ही-हु-हु-हु होवे लगल आउर घंटो चलल । फिर पान खा-खा के सब अपन घर के रास्ता लेलन ।

दुख में दिन पहाड़ आउर सुख में दिन हवा हो जा हे । गीत-नाध में भोर से रात आउर रात भिनसरवा होते-होते छो दिन हो गेल आउर आज छठियार हे । दाय के हँकार पड़ल - अँगना, ओसारा आउर दलान लीपे ला; नफर के पुकार भेल गंगाल में पानी भरे ला; आउर नाउन के बुलाहट गेल नोह टूँगे ला । अप्पन-अप्पन काम में सब जुट गेलन ।

नाउन परसौती मालकिन के नोह टूँगते-टूँगते अप्पन आमदनी के ब्योंत लगावे लगल, काहे कि 'आदमी में नउआ आउर पंछी में कउआ' बड़ बुधगर होवे हे ।

त बहूजी ! जल्दी से बताहू ने कि छठियार के नेउता कहाँ-कहाँ जइतै । हम्मर मरदनमा के की जानी छुट्टी हइ कि नै है । बतावल रहतै तो, नै होतै, हम्हीं दे ऐतियइ हल ।

तूँ बउड़ाही हें की गे ! कहाँ-कहाँ नेवता जइतै, ई भी पूछे के बात हे ?
तइयो बहूजी, बताइये देतहो हल तो बेस बात हलै ।
तो सुन, ..... नेवता बस तीने जगह ....... कहाँ-कहाँ ? ---
हम्मर नैहर एक; सुनला ?
हँऽ मलकिनी, उहाँ तो जरूरे जाय के चाही ।
दू, उनकर ससुरार; सुनला ?
हँऽ-हँऽ, सुनलियै ने तब !
तीसर जगह बबुआ के ननिहाल । याद कइलें ? हाँ मलकिनी, समझ गेलियै, नेउतवा तीने जगह जइतै ।

बहू बुदबुदाल - 'दुनियाँ-जहान से हमरा कौन मतलब हे !' कि कोना में बैठल भुनेसर के माय फट पड़लन - देख तो निगोड़ी के ! खाली अप्पन नैहर तकलक । हम्मर बेटी-दमाद के नेउता हम्मर पोता के छठियार में नै जात, ई हमरा से बरदास नै हो सके हे । बाप रे बाप ! ई कैसन कुलच्छनी हम्मर घर में ढुक गेल कि हम्मर कुल-परिवार के पराया समझे हे !!

कि दाल-भात में ऊँट के ठेहुन बन के सोहनी चाची आ विराजलन आउर 'पूछ नै ताछ, हम दुलहिन के चाची' बन के बोल उठलन –

ठीके तो कहऽ हथिन भुनेसर के माय ! बाप रे बाप ! करकस्सा होवऽ हे तो ऐसन । कुल-परिवार आउ अप्पन नाता-गोता के जे कलमुँहीं नै चिन्हे, ओकरा तो घर से निकास देवे के चाही । बस, धधकल आग में घी पड़ गेल । लियो-लियो बोल देला पर कुतवो लड़े लगऽ हे, आदमी के कौन ठिकाना ! सास-पुतोह कमर कस के मैदान में आ गेलन, एक दूसर के बखिया उघाड़े लगलन । भाय-बाप-भतीजा के सराध होवे लगल, दुन्नो के कुल में कालिख पोताय लगल । गाली-गलौज के नाली के सड़ाँध से भला आदमी के नाक फटे लगल ।

हल्ला-गुल्ला सुन के भुनेसर आ जुमलन । माय के मुँह से निकलल गारी ओकर काने से टकरा गेल । ऊ समझलक कि सब कसूर माय के हे । मौका देख के भुनेसर के बहू विलाप कर के छाती पीटे लगल । भुनेसर 'नै आव देखलक नै ताव', उठौलक डंटा आउ माय के पीठ पर तड़ा-तड़ बजावे लगल । कैसे तो भुनेसर के लँगोटिया यार लोहा सिंह पहुँच गेल आउ डंटा छीन के छप्पर पर फेंक देलक आउ डाँट-फटकार के ओकरा बाहर लैलक, नै तो बुढ़िया उहँइँ ढेर हो जइतै हल । भुनेसर बहू कोठरी में जाके दुबक गेल आउर उहँइँ सुबकते रहल ।

करे के तो करिये गुजरल, मुदा भुनेसर के ई बात के बड़ी कचोट हे । गुस्सा बहुत चंडाल होवे हे । बाद में जब ओकरा ई मालूम होल कि कसूर खाली माये के नै हे आउर गारी देवे में दुन्नो पलड़ा बराबर हल, तो ओकरा एक साथ हजार बिच्छा डंक मारे लगल ।

भुनेसर के माय दरद-पीरा से कानते-रोते आउ ई कहते रामलखन बाबू के इहाँ जा रहल हे कि 'हाय ! भुनेसरा के ओढ़नी के बयार लग गेल ! हम ई जनतियो हल रे छौंड़ा, कि तूँ हमर ई हाल करमे तो सउरिये में नून चटा देतियो हल । निपुतरी रहतूँ से अच्छा । निगोड़ी नीमक पढ़ के खिला देलक हे भुनेसर के, तबे न ऊ ऐसन बेदरदा निकलल ! मरदाना मर गेला तो हम केतना दुख उठा के आउर केतना जतन से ओकरा पाललूँ-पोसलूँ आउ खेत गिरमी रख के बिआहो कर देलूँ ! ऊ हम्मर नै होल !

रामलखन बाबू भुनेसर के गोतिया हथिन । सौ सवा सौ चास-वास हन । बाग हन, बगीचा हन । गाँव के मुखिया ओही चुना हथ । समाजवादी देस भारत में अबहियो पद-परतिष्ठा अमीरे के मिलऽ हे । गरीबो के कहियो नसीब होत, ई तो भवानी जानथिन !

बुढ़िया जा पहुँचल ड्योढ़ी पर । रामलखन बाबू चौकी पर बैठल हलन । देख के बुढ़िया लोर ढारे लगल आउर फिर अँचरा से लोर पोछ के बोलल - देखऽ बड़का बाबू, निगोड़ा भुनेसरा मेहरी के कहना में हमरा बड़ी मार मारको हे, दरद से हम बेहाल हो रहलियो हे । तोहर दरबार में केस करऽ हियो । ओकरा ऐसन सजाय दऽ कि ओकरा छठी के दूध इआद आ जाय । हाय राम ! छछात कलजुग कि भठजुग आ गेल बड़का बाबू !

आयँ ! भुनेसर मारको हे तोहरा ? देखियो कने मारको हे । बुढ़िया पीठ उघार के देखा देलक । बाप रे बाप ! दाग उखड़ल हो । ई अनियाय ! ई जुलुम ! भुनेसरा तो खानदान के नाम डुबा देलक । आउर एकरा में जिला-जेवार के भी नामहँसी हे । हम ई जुलुम नै बरदास कर सकऽ ही । हम भुनेसरा के आझे जात से खारिज करऽ ही । आझ से हुक्का-तमाकू बन्द ।

आयँ ! की बोलला बड़का बाबू ? जात से खारिज ? हुक्का-तमाकू बन्द ? वाह रे ! कौन बेटा जनमल हे हम्मर बेटा के हुक्का-तमाकू बन्द करे वाला ? कि ओकरा मुँह में कारिख लगल हे ? कुल में कउनो दाग लगल हे, जे कोय मोछकबरा भुनेसरा के हुक्का-तमाकू बन्द कर देत ? एतने बात हे कि हमरा दू डंटा मार बैठल । हमरा बेटा हे, तब नै मारलक ! जे निगोड़ा-निगोड़ी के 'न आगे नाथ न पाछे पगहा' है, ओकरा के मारतै ? ले, देखऽ इन्साफ । रहे दऽ अप्पन इन्साफ ! बेटवा हमरे, पुतोहियो हमरे । रखऽ अप्पन नियाव, हम अप्पन घर जाही ।

रामलखन बाबू हक्का-बक्का । ड्योढ़ी के कोना में खड़ा भुनेसर आउर भुनेसरबहू सब सुन रहल हल । घर जाके माय के हरदी-चूना भुनेसर लगावे लगल आउ बहू गोड़ में कड़ुआ तेल लगवे लगल ।

["इंटरमीडिएट मगही गद्य-पद्य संग्रह (भाषा आउ साहित्य)" (1984), बिहार मगही अकादमी, पटना, पृ॰ 5-8 से साभार]

7. कलमुँही

कहानीकार - प्रभात वर्मा

'अइँगे कलमुँही, एक्के गो काम में एतना-एतना देर लगइमी, त आउ सभ कम्मा तोर बप्पा आके करतउ गे ? महरनिआ अभी सुतले हउ, उठतउ तऽ खाहीं ला खोजतउ ।' - कड़कल अवाज में हकड़ले कलवतिया गरजल । ओकर नाक के बड़ा गो रोल-गोल के नथिया, गोस्साल मुँह पर हिल-डोल के ओकर गोस्सा आउ बढ़ा रहल हल ।

घर के अँगना में बनल कुइआँ तर हठुआ मन जउर थारी-लोटा, छिपली-कटोरा, खेर-पुआर के लुनडा से रस्से-रस्से मइँजते, लछमिनिआ के हाथ सउतेली मउसी के गरजना सुन के तेजी से चले लगल ।
'सुन ले, बरतनमा मइँज के घरवा दुअरवा बोहार-सोहार के चुल्हवा जोर दीहें, आउ मुनुआ के बाउँ लागी नहता, रोटी और करमी के साग पका के खेतवा जा के पहुँचा अइमहीं ।'

कलवतिया अउडर करते जा रहल हल - 'अपना सभ ला मकइआ के दरबा पका लीहें, हमर पेट ठीक नञ लग रहल हे, हमरा लागी नउका चउरा दू डिब्बा पका दीहें, मुनुआ ओकरे में खा लेत ।'
अप्पन अउडर सुनइला के बाद कलवतिया घर से निकस के बहरी चल देलक ।

लछमिनिआ पर कलवतिया के गोस्सा इया अउडर के कोय बिसेस परभाउ नञ परल, काहे कि रोजीना के तो एही कम्मे हल ।

लछमिनिआ अभी बरतन खँघारियो न सकल हल कि भीतर कोना में खटिया पर से उठ के ओकर बूढ़ी मउसी ललतिया कोठरी से निकस के ओसरा पर अइते कहलक - 'अगे लाछो, आझ हम्मर तबीअत ठीक नऽ लग रहलो हे । बरतनमा मइँज के जरी गउसलवा चल जइहऽ, आउ गोइठा ठोक अइहऽ, तब खइका पकइहऽ, इया जे करे के होतबऽ, करिहऽ ।'

बरतन मइँजला-खँघारला के बाद, कोठरी-ओसरा बोहार-सोहार के लछमिनिआ खांची उठा के गोबर थापे गउसलवा दने चल देलक ।
ओकर गउसलवा के सटले हीरामन जी के मजूर जगेसर के बेटी तेतरी, अप्पन मालिक के गउसाला के बहरी दुआरी पर ढेर सन गोबर जउर कर के अप्पन लूगा ठेहुना तक उठा के कमर में खोंसले गोड़ से गोबर आहिन करे में लगल हल ।

लछमिनिआ के गउसाला दने अइते देख के तेतरी मुस्कुरइते बोलल - 'आवऽ सखी, आझ देरी कर देलहू ! सुतले रह गेलऽ काऽ ?'
आउरो पूछलक - 'आझ ललतिया मउसी कहीं गेलथुन हे का ? कलवतिया मउसी तो हिरामन जी के बेकतिया से गप्प लड़ावे में लगल हलथुन ।'

लछमिनिआ तेतरी के कउनो बात के जवाब देले बिना, अप्पन गउसलवा के केवाँड़ी खोल के भीतर घुस गेल । गोबर जउर कइला के बाद, नाद वाला पानी से गोबर सान के गोल-गोल लोइया बना लेलक आउर तब खांची में लोइया उठा के गउसाला के पीछे देवाल पर गोइठा ठोके पहुँच गेल ।
तेतरी भी गोबर सानला के बाद लोइया बना के गउसाला के पीछे पहुँच गेल हल ।
लछमिनिआ के मुरझाल चेहरा देखते तेतरी समझ गेल कि कलवतिया अप्पन गोस्सा भोरे-भोरे एकरे पर उतारलक होत ।

आउ ऊ, अपनापन जतइते, लछमिनिआ से पूछलक 'का हे सखी, आझो कौनो बात होलो हे का ? तोर मुँह उतरल हो !'
'कहिया न होवऽ हे ? जब भगमाने हमर करम में, मार-गारी खाएला लिख देलन हे तऽ एकरा के मेटत ? बात-गारी तो सुनहीं के पड़त !' - लछमिनिआ गोबर के लोइया देवाल पर कस के मारते बोलल ।
तेतरी बात आगे बढ़इते बोलल - 'से तो ठीके कहइत हऽ भाय ! तोर दुख के समझे-बूझे वाला भी तो कोय नञ हे !'

आउर जानल-सुनल बात बतिअइते कहलक - 'जहिया तूँ जलम लेलऽ ओही दिन तोर माय सउरिये में तोरा तेआग देलथुन । बाप करेजा में साट के पाले लगलथुन, तऽ भगमान दुइए बरीस में हुनखो अपना हियाँ बोला लेलथिन ।'
आगे, आह भरइत बोलल - 'तोर धन-जमीन देख के मउसा-मउसी तोरा पाले-पोसे के बीरा उठइलथुन आउ सब धन-दौलत हथिअइला के बाद, आझ तोर की हाल बनइले हथ, से हम का पूरा गाउँ-घर के लोग देख-सुन रहलथुन हे ।'

तेतरी लछमिनिआ के मउसा-मउसी के गुन बखानते कहलक - 'हिनखनी से मुँह लगावे लागी केकर माय बिआल हे भाय ?'
आउ लछमिनिआ के भभिख के बात-बतइते कहलय - 'सखी, हम सुनली हे कि दुख तो गाड़ी के पहिया नियन होवऽ हे जे घूमते रहे हे । हमर मन कहऽ हे कि तोरो जिनगी में सुख आई आउ तूँहो राज करबऽ ।'
आउर लछमिनिआ के बड़ाई करते कहलक - तूं तो पढ़ल-लिखल लड़की हऽ । जौन मरद से तोर बियाह होत ऊ तर जात । तोरा कुच्छो के कमी न होतो ।'

अप्पन पढ़ाई के बड़ाई सुन के लछमिनिआ के जीउ हुलस गेल आउ लोइया हाथ पर थपथपइते बोलल - 'हमरा सतमे तक पढ़े में कउन गंजन न सहे पड़ल हे ! मैटरिको तक पढ़ जइतूँ हल तऽ हिनखनी के मार-गारी खाय के न पड़ित ! कौनो काम कर के जिनगी निबाह लेतूँ हल ।'
'से तो तूँ अनेरे बोलऽ हऽ सखी ! जेतना पढ़ गेलऽ ऊहे बहुत हो । कोई लड़की आझ तक, बिना मरदाना के, खाली अप्पन कमाई से जिनगी निबाहलक हे, जे तूँ निबाह लेब ?' बीचे में ठुमकइत मुसकुरइते तेतरी बोलल, आउ उहाँ से चल देलक ।

तेतरी के बात सुन के लछमिनिआ के लगल कि गाउँ के इसतिरी समाज में पढ़ल-लिख के कमाए के चलन अभिओ गान्हीए बाबा के जुग वाला चल रहल हे ।
आउ ऊहो बचल लोइया देवाल पर साट के, खाँची उठा के, गउसाला के केमारी लगइलक आउर घर दने सोझ हो गेल ।

अभी लछमिनिआ थोड़के दूर गेल होत कि ओकर कान में ललतिया आउ कलवतिया मउसी के गरजे-भोकरे के अवाज सुनाइ पड़ल, जे अप्पने में लड़ रहलन हल ।
ललतिया कह रहल हल - 'आवे दे आझ मुँहझउँसा के जे तोरा माथा पर चढ़ा के रखले हउ ! पूछऽ हिउ कि तूँ हमरा पर राज चलावे लागी चाहऽ हें ! हमरा पर तूँ अइने हे, हम तोरा पर नञ अइलिअउ हे । हम तोर मलिकाउँ नऽ मानबउ ।'
ललतिया के ई बात सुन के कलवतिया के तेवर चढ़ गेल आउ ओहू गरजते-डकरते कहलक - 'हम केकरो पर काहे लागी राज चलयबइ ! हम तो तोहनी के खरीदल लउँड़ी हिअउ ! कर-कर के देबउ आउ तूँ सब परल-परल खइहें !'

आउ ऊ आँख में लोर भर के घोछिआल अवाज में बोलल - 'कोढ़फुटवा एही सब करम करावे लागी हमरा इहाँ लइलको हे !'
ललतिया भिरे जा के कलवतिया हाथ चमकइते कहलक - 'खाली बेटिये जलमा-जलमा के ढेगार देले हल ! हम नञ अइतिअउ हल तऽ बंसो न चलतो हल ।'
कलवतिया ई तरह से ललतिया के तीन गो बेटी आउ अप्पन आवे के कारन उजागर कइलक ।

दुन्नो के लड़ाई-झगड़ा देखे लागी टोला-टाँटी के अउरत-मरद सभ दुआरी पर जउर हो गेलन हल ।
ओही में से एगो बूढ़ी बोले लगल - 'ई सभ करनी बिनेसरे के हे, जेकरा एगो अउरत से मन नञ भरल तऽ एगो आउ अउरत ले आल हे, घर में कुहराम मचावे लागी !'
'ई तो एगो बहाना हे कि पहिलकी से खाली बेटिये जलमऽ हल, ओकरा से बेटा जलमे के आसे नऽ रह गेल हल । अब भोगे अप्पन करनी ।'

आउ बूढ़ी अप्पन बात के पुस्टी में एगो कहाउतो सुना देलक, कहलक कि "ई जे कहल गेल हे कि 'एगो जोरू के मरद लड़ुआ, आउ दूगो जोरू के मरद भड़ुआ' से झूठ थोड़े हे !" बाहरी अमदी के बोल सुन के कलवतिया के चेहरा आउर तमतमा गेल आउर ऊ लछमिनिआ के दुआरी पर बट्टा ले के खड़ा देखलक तऽ बढ़नी उठाके ओकरे दने दहाड़ते दउड़ पड़ल ।
'एही कलमुँही के चलते हमरा ई सभ सुने पड़ऽ हे ! पकावे कहलूँ तऽ इआर हीं चल गेल ! जहिया भोरे-भोरे एकर मुँह देख ले ही, तहिया एही सभ हमरा पर बीतऽ हे !'
आउ गारी-वारी बकते अप्पन गोस्सा लछमिनिआ पर दनादन उतारे लगल ।

लछमिनिआ रोते-कलपते मार खा-खा के छटपटाय लगल तइयो कलवतिया के झाड़ू चलाना बन्द न होल तऽ आगू बढ़के एगो जुआन मरदाना, कलवतिया के हाथ से बढ़नी छीन के एक दने फेंकते, ओजा जउर लोग के सुनइते बोलल -
'ई बेचारी अखनी कउन गलती कइलके हल जे एकरा मार के धुन देलकई ! ई तो ओही बात होल कि "सभ के अरी-धरी गोपाल के सिर परी ।" '

आउ लछमिनिआ के पच्छ लेते बोलल - 'हिनखनी सभ ई अभागी के माय-बाप के छोड़ल धनो-दउलत पर साँप निअन कुंडली मारले बइठल हथिन, आउ एकरे पर चउबिसो घंटा अनियाव करते रहऽ हथिन ! जइसन ई सभ ई टूअर के कलपउले हथिन, ओकर निआव भगमाने करथिन !'
कलवतिया जब देखलक कि ओजा जउर लोग ओकर बिरूध बोल रहलन हे, तऽ ऊ अंट-संट बकते, घर से बाहर निकस के चल देलक ।

आउ एकरे साथ, दुआरी पर जउर लोग भी बिनेसर आउ हुनखर बेकतन के सोभाउ-बेवहार के चरचा करइत अप्पन-अप्पन घर के रहता धर लेलन ।
रह गेल उहाँ बेचारी बढ़नी के मार से छेदे-छेद हाल देह, बुने-बुने रीसल खून में लपटल, रोते-कलपते लछमिनिआ जे चूल्हा जोरे के जोगाड़ में लग गेल हल ।
समय तो सेकिन, मिनट, घड़ी-घंटा बनके दिन, हफ्ता, महीना आउ साल करके बीतते जा हे, बीत जा हे, आउ जिनगी बचपन, जमानी आउ बुढ़ापा बनके कट जा हे ईहे परकिरती के नियम हे । लछमिनिओ, परकिरती के एही नियम से बन्हल, समय के साथ, बचपना छोड़ के जमानी में पहुँच गेल हल ।

ओकर बिआह के चिन्ता भी बिनेसर के हल । मगर ई जुग में बिना पैसा के तो गुड़बो-गुड़ियो के बियाह नञ होवऽ हे । तऽ सुथर लछमिनिआ के कोई अच्छा लइका बियाह लागी भला कहाँ से मिलतई हल !

एही से अप्पन सभ जोगाड़ भिड़इला के बाद भी बिनेसर हाथ-पर-हाथ धर के घरे बइठ गेल हल ।

मउका देख के कलवतिया लछमिनिआ के बियाह अप्पन एगो दूर के नतइती में ठीक करिये देलक ।

ई बियाह में बिनेसर के कुछो लगे-लगावे के नञ हल, उलटे दू हजार रुपया नगद भेंटे वाला हल ।

एतना बात जरूर हल कि जउन लइका से लछमिनिआ के बियाह होवे वाला हल, ऊ जीवन के पचास बरीस पार कर चुकल एगो भरल-पुरल गिरहस्त हलन । हुनखा बेटा-पुतोह आउ नाती-पोता के कमी नञ हल । आउर उ अमदी अप्पन तेसरकी अउरत के छोड़ के चउथा बियाह लागी उताहुल होल हलन ।

हुनखर बुढ़उती के मुराद पूरा करे खातिर लछमिनिआ के सुख नेउछावर करे ला कलवतिया के साथे बिनेसरो फट से तइयार हो गेल हल ।
जल्दिये लछमिनिआ के बियाह बूढ़ रामऔतार से धनेसरघाट के बजरंगबली के मन्दिल में बाबाजी के दान-दछिना दे के, पोथी-पतरा से सतफेरवा लगा के हो गेल ।

कनिञा बनल लछमिनिआ ससुराल पहुँचल तऽ उहाँ के दिरिसे देखके ओकर करेजा धक-धक करे लगल ।
ओकरा दुआरी पर कोय, परछे लागी तो दूर, देखे लागी भी नञ आल ।

बियाह के मउका पर जउन खुसी आउ उतसो गरीब-गुरबा हीं भी देखल जा हे, ऊ सभ इहाँ कुच्छो नञ हल ।
डोली से उतरला के बाद लछमिनिआ के एगो कोठरी में बइठा देल गेल, जहाँ न कोय अउरत ओकरा देखे गेल न कौनो मरद ।

रात खनी रामऔतार अइलन । देखके लछमिनिआ अप्पन माथा पीट लेलक । बाकि, एही अप्पन नसीब समझ के, धीरे-धीरे लछमिनिआ रामऔतार के हिरदा से अपना जीवन-सरबस मान के हुनखर सेवा में लग गेल ।

मगर भगवान से लछमिनिआ के ईहो सुख नञ देखल गेल । तिसरको महीना नञ बीते पाओल कि रामऔतार अप्पन "कैंसर" के बीमारी से खाट धर लेलन । डागडर-बैद के दवा-दारू चले लगल ।
लछमिनिआ-रामऔतार के खाट पर गिरला के दिन से अन्न-पानी तेयाग के दिन-रात हुनखर सेवा में जुटल रहल ।

मगर बिधाता के आगू केकर चलल हे । रामऔतार अप्पन भरल-पुरल दुनिया के साथ अभागी लछमिनिआ के अकेलुआ कर के भगवान के घरे चल गेलन ।
लछमिनिआ के माथा के सेनुर पोंछा गेल आउ हाथ के चूड़ी फूट गेल । बिलख-बिलख के रोते लछमिनिआ के ढारस देवेवाला भी कोय नञ हल ।

मरद के मरला पर रामऔतार के बेटा-पुतोह ओकरा हाथ पकड़ के घर से बाहर निकास देलक आउ कहलक - 'तूँ कलमुँहीं हे ! हम्मर घर में अइते बाप के गरस गेने । लछमिनिआ केतनो कहलक कि ई दुआरी छोड़के हमरा ला आउ कहीं ठउर न हे । हमरा पनाह लेबे दऽ । बाकि ओकर एक्को बात कोय सुने ला तैयार नञ होल । हार के ऊ मउसा के घरे लउट गेल ।

कलवतिया ओकरा अइते देखलक तऽ दरवाजा के बीचो-बीच खड़ा होके गरजते बोलल -
'इहाँ का लेवे अइने हें गे "कलमुँहीं" ! जलमते माय-बाप के खइने, आउ बिआहते भतारो के खा गेने ! अब तोरा लागी कहीं जगह नञ हउ । ई घर के दरवाजा भी तोरा लागी बन्न हो गेलउ । अब जहाँ तोर हिच्छा, जोऽ ।' रोते गिड़गिड़इते दुन्नो हाथ जोड़ के लछमिनिआ कहलक -
'मउसी, हम्मर ई में कउन दोस हे ? जब हम्मर करमलेख भगमान कोइला से लिख देलथिन हे, तऽ हम कउची करिअइ ?'

आउ ऊ केतनो कहलक - 'हमरा ई घर से नञ भगावऽ मउसी, तोहनिए हम्मर पालनहार हऽ, तोहनी के छोड़के हमरा कउन पनाह देत ?' मगर कलवतिया के दिल नञ पसीजल आउ ऊ लछमिनिआ के घर में घुसे नञ देलक ।

जब मउसा-मउसी भी ओकरा सहारा देवे लागी तैयार नञ होलन तब हार-पार के लछमिनिआ सोचलक - 'भगमान के एतवर गो दुनियाँ में कहीं-न-कहीं हमरो ठउर-ठिकाना मिलवे करत, आउ भगमाने पर असरा करके ऊ कोय काम-धाम पावे खातिर उहाँ से चल देलक ।

बुझाल मन लेले लछमिनिआ आरी-पगारी पार करइत, अप्पन भाग आउ भगमान के कोसइत घंटा भर में सहर जाय वाला रोड पर पहुँच गेल ।

पों-पों के अवाज करइत आ रहल एगो बस के हाथ दे के रुके के इसारा कइलक । बस ओकरा लगे आके रुक गेल । लछमिनिआ ओकरा पर लपक के चढ़ गेल ।

बस जब लछमिनिआ के लेले सहर पहुँच गेल आउ ओकरा चउराहा पर उतार देलक, तब ओकरा कठमुरती लग गेल । पुरुब-पच्छिम, उत्तर-दक्खिन ओकरा बुझाइए न रहल हल, आउ बड़गाँव के छठिया मेला नियन भीड़-भड़क्का देख के ऊ भउचक हो गेल ।

एगो मकान के घिरसीढ़ी पर जा के बइठ के सोचे लगल - 'कहाँ जाऊँ, का करूँ ?'

जउन अमदी के नजर घिरसीढ़ी पर बइठल लछमिनिआ पर जाय ऊ ओकर चेहरा-मोहरा पर लठ्ठो हो के निहारते रह जा हल । अमदी सभ के अपना दने ताकते देख के लछमिनिआ लजा के अप्पन मूड़ी झुका ले हल । तभिए, लछमिनिआ के नजर खद्दर के कुरता, पइजामा पहिनले, कन्हा में झोला लटकइले, लमहर-लमहर केस रखले, एगो लम्मा-तगड़ा नउजवान पर चल गेल, जे रसे-रसे अप्पन राह धइले चलल जा रहल हल ।

लछमिनिआ के इयाद हो आल - 'एक बेर जब इसकूल में अइसने पोसाक पहिनले, एगो अमदी आल हल तऽ गुरुजी बतइलन हल - 'ई नेताजी हखिन...., अइसन अमदी अप्पन दुख-दरद के चिन्ता नञ करके, देस आउ समाज के लोग के दुख मिटा के, हुनखा सुखी बनावे में अप्पन जिनगी गुजार दे हथ ।'

लछमिनिआ सोचलक - 'ई सहर में हमरा हिनखा से जरूर मदद मिलत, आउ एहे सोच के ऊ नेताजी लगे लपक के पहुँच गेल । आउर नेताजी के रोके ला अप्पन दुन्नो हाथ जोड़ के परनाम करइत कहलक -
'नेताजी, हम गरीब अमदी ही । ई सहर में हम्मर अप्पन अमदी कोय नञ हे । हम सतमा तक पढ़ल-लिखल ही । गाउँ से इहाँ कोई नउकरी पावे लागी अइली हे । तूँ हम्मर मदत कर के कोय जोगाड़ लगा दऽ । हम तोर उपकार कभियो नञ भुलइवो ।'

नेताजी अपना सामने गोर-बुर्राक खूब सुन्नर नउजुवती के भरल-गदरायल देह, आउ लम्मा-लम्मा केस देखलन तऽ हुनखर मुँह में पानी आ गेल । अप्पन ठोर पर जीभ फेरइत बोललन - 'हाँऽ-हाँऽ हम तोर मदत जरूर करबो ।' आउ पूछलन - 'इहाँ रहे के कउन जगह हो तोर ?'
'इहाँ रहे के भी हमरा कोय जगह नञ हे । तूँ ही कोय इन्तजाम कर देतऽ हल ।' - लछमिनिआ कहलक ।
'ठीक हो, तूँ हमरा साथे चलऽ, तोर रहे-सहे के आउ काम-धन्धा के भी उपाय हम करवा देबो ।'

आउ नेताजी एगो रिक्सावाला के बोला के लछमिनिआ के रिक्सा पर बइठे लागी कह के, अपने भी रिक्सा पर सवार हो गेलन । रिक्सावाला नेताजी के बतावल अस्थान दने अप्पन रिक्सा मोड़ देलक ।

सहर के भीड़-भड़क्का से दूर भट्टी-अइँटा से घेरल देवार आउ टीन के छप्पर से बनल एगो झोपड़ी तर आके रिक्सा रोकवा के नेताजी लछमिनिआ के उतरे ला कहलन, आउ जेबी से पइसा निकास के रिक्सावाला दने बढ़ा देलन ।

नेताजी झोपड़ी में लटकल ताला खोल के लछमिनिआ के साथे भीतर घुस गेलन ।

भीतर चउकी पर चद्दर बिछल हल आउ एक कोना में टेबुल-कुरसी पड़ल हल । चारो तरफ, जेन्ने-तेन्ने कागज के टुकड़ा छितराल हल, आउ ऊबड़-खाबड़ जमीन सरदल हल ।

साँझ हो गेल हल, एही से कोठरी में अन्हार फइल गेल हल । नेताजी दियासलाय से मोमबत्ती जला के लछमिनिआ से ई कह के बाहर चल देलन कि - 'तूँ घबरइहऽ नञ, हम खाना-ऊना के इन्तजाम कर के तुरते आ रहलिओ हे ।'

हुनखा गेला के बाद लछमिनिआ के मन में कय तरह के विचार आवे-जाय लगल ।

एक मन कहे कि ई अकेलुआ अमदी लगे रात गुजारना ठीख न हे, इहाँ से भागहीं में कुसल हे । तऽ तुरते दोसर विचार आवे कि एगो सहारा देवे वाला मिल गेल हे, एकरा छोड़के जहाँ-तहाँ मारल चले में कउन होसियारी हे ? फिन, ई तो बदमासो नियन नञ लगऽ हे । आउ, एकरो तो माय-बहिन होतई नञ । कोय के इज्जत बिना मरजी के थोड़े लूट लेत ?

लछमिनिआ एही उख-बिख मेम पड़ल हल कि नेताजी के जूता के धप-धप के अवाज से ऊ समझ गेल कि नेताजी आ रहलन हे । नेताजी हाथ में अलमुनिया के थारी में खाना लेले कोठरी में घुस के लछमिनिआ से कहलन -
'लऽ खा लऽ, आउ अराम करऽ । बिहने पहर सुपरटेंडेंट साहब हीं चले पड़तो । अभीए टेलीफून से बतिया लेलियो हे । तोरा लागी कोय न कोय के जोगाड़ ऊ जरूर कर देथुन ।'

लछमिनिआ नेताजी के ई सभ बात सुन के अप्पन दिल में आल एक सन्देह के विचार के धिक्कारे लगल ।
'देखऽ तो, केतना अच्छा अमदी हथ नेताजी ! आउ एगो हम्मर छुद्दर विचार हे कि जखनी से ई मिललन हे, तखनिये से अंट-संट सोच रहलूँ हे ।'
'दीन-दुखिया के दरद आखिर भगवाने न दूर करऽ हथ ! हो सकऽ हे, हिनखा हम्मर मदत लागी भगमाने भेजलन होत । बज्जर पड़उ हम्मर छुद्दर विचार पर । ई तरह से अपना के धिक्कार के ऊ आगू थारी में रखल रोटी तरकारी जोरे दाल में बोर-बोर के खाय लगल ।

नेताजी अप्पन कुरता-पइजामा खोल के लुंगी-गंजी पहिन लेलन आउ लछमिनिआ लगे बइठ के ओकर जीवन के हाल खोद-खोद के जाने लगलन ।

लछमिनिआ अप्पन जीमन में बीतल बात फारे-फार हुनखा सुना देलक आउ खइला के बाद हाथ अँचा के थारी एक दने घुसका देलक ।

लछमिनिआ के दुख-दरद के कहानी सुन के नेताजी के आँख में लोर छलछला आल । भरल अवाज में ढारस देते ऊ कहलन -
'लछमी जी, तोर करम में जे दुख लिखल हल उ सभ दुख तूँ काट चुकलऽ । अब हमरा रहते तोरा कोय दुख नञ उठावे पड़तो । आउ जरूरत पड़तो तऽ हम तोरा अपनावे लागी भी हरदम तैयार रहबो ।'
फिन लछमिनिआ से पूछलन - 'तोरा इहाँ रहे में कोय एतराज तो नञ हो ?'

लछमिनिआ हुनखर कोय बात के जवाब नञ देलक तऽ नेताजी ओकरा सूते ला कह के चल गेलन ।
थकल लछमिनिआ के चउकी पर पसरते नीन आ गेल, आउ ऊ दीन-दुनिया से बेखबर हो गेल ।

औचके ओकर नीन उचट गेल । बुझाल कि पाउँ से लेके जाँघ, पेट आउ छाती पर से सरसराइत कोय चीज गाल तक पहुँच गेल हे ।

ऊ आँख खोललक तऽ अन्हार में नेताजी के परछाहीं बुझाल जे चउकी पर बइठ के अप्पन हाथ से ओकर देह नाप रहल हल । ऊ चंडाल निकलल ।

लछमिनिआ घबरा के उठे ला चाहलक तऽ ओकर नाक में, दारू के गमक समा गेल, आउ नेताजी दुन्नो हाथ से कस के ओकरा चउकी पर चाँत देलन । ऊ छटपटाल, निकस के भागे ला चाहलक, मगर नेताजी के ताकत के आगू ओकर एको नञ चलल । नेताजी अप्पन मनमानी करिए के छोड़लन । रोते-कलपते लछमिनिआ के जीमन बनावे के ढारस देके, ओकरा सूते लागी कह के, नेताजी भी ओही चउकी पर मुँह घुमा के सूत रहलन ।
मगर लछमिनिआ रात-भर न सूत सकल; अप्पन भाग पर रोते-सिसकते विचार के ऊह-पूह में भोर ले बैठल रह गेल । लछमिनिआ नेताजी के साथ कय दिन से आफिसे-आफिस घूमते रहल, मगर कहीं कोय काम-धाम ओकरा नञ मिलल । आश्वासन भले कय एक जगह मिल गेल हल ।

आउ एक दिन, लछमिनिआ के एक जगह बइठा के, तुरते आवे लागी कह के जे गेलन, तऽ फिन लउट के नञ अइलन ।

नेताजी के नञ लउटला पर निरास लछमिनिआ हुनखर खोज हर जानल-पछानल जगह पर कइलक, मगर कहीं हुनखर पता नञ चलल ।

जहाँ दुन्नो अब तलक रह रहलन हल, उहँउ बाहर ताला लटकल हल ।
थक-हार के लछमिनिआ अप्पन दुखड़ा अस्पताल के सुपरिंटेंडेंट साहेब के सुनावे पहुँच गेल जहाँ नेताजी ओकरा तीन-चार बार घुमा रहलन हल ।

सुपरिंटेंडेंट साहेब, लछमिनिआ के दुख सुन के, आउ ओकरा पढ़ल जान के ओकर नाम नर्स ट्रेनिंग इस्कूल में दू बरीस ला लिखवा देलन । लछमिनिआ खुस हल कि कहीं ठउर तो मिलल ।

ट्रेनिंग इस्कूल होस्टल में रहइत लछमिनिआ के पाँचो महीना नञ गुजरल होत कि एक दिन साँझ के ओकर पेट में दरद उठल आउ माथा चकराए लगल । ओकर ई हाल देख के साथी सभ दउड़ के डगडरनी साहेब के बोला लइलन ।

डगडरनी साहेब ओकर जाँच कइलन आउ बतइलन कि ऊ माय बने वाली हे ।

डगडरनी साहेब के बात सुन के लछमिनिआ के लगल कि कोय ओकरा असमान से उठा के जमीन पर पटक देलक हे । आउ दुनियाँ-जहान के लोग ओकरा ... कलमुँहीं...कलमुँहीं कह के चिढ़ा रहलन हे ।

बाकी तइयो, लछमिनिआ जिनगी से हार न मानलक । अप्पन जीवन से कलमुँहीं के दाग मिटावे लागी ऊ मन में पक्का निसचय कइल हे आउ आगे बी किस्मत से जूझते चले ला अपना के तैयार कर चुकल हे ।

["निरंजना" (स्मारिका), अप्रैल १९८३, पृ॰ ५५-५९ से साभार ]

Saturday, September 12, 2009

5. मगही भासा : मानकता के कसउटी पर

लेखक - विनीत कुमार मिश्र 'अकेला'

जेकर माध्यम से अदमी अप्पन मन के विचार इया भाव दोसरा के बतला सके ऊ भासा कहलावऽ हे । मन में उठल भाव के हमनी दू तरह से बता सकऽ ही - एगो लिख के आउ दोसर बोल के । अइसे तो भासा के एगो आउ ढंग से भी व्यक्त कर सकऽ ही, जेकरा संकेत कहल जा हे । बाके ई विधा के प्रयोग बड़ी कम होवऽ हे । संसार में बहुते किसिम के भासा बोलल आउ लिखल जा हे । एही में से कुछ भासा अप्पन प्रचार-प्रसार आउ कार्यशैली से अन्तरराष्ट्रीय स्तर के पहचान बना लेवऽ हथ । अंग्रेजी, अरबी, हिन्दी आउ न जानी केतने भासा एकर उदाहरन हथ ।

सुरुआत में कोई भी भासा स्थानीय ही रहऽ हे । जब कोई भासा के स्थानीय स्तर पर लोग बोलऽ हथ त ओकरा बोली कहल जा हे । एकरे परिस्कृत आउ संसोधित करके भासा के रूप देवल जा हे । स्थान विशेष में ही कोई भी भासा के बोलल आउ समझल जा हे । भासा के ई विशेषता होवऽ हे कि ओकरा लिखे आउ बोले में एकरूपता पावल जा हे । कुछ-कुछ भासा अइसनो हथ जिनकर लिपि एक्के हे, बाकि लिखे आउ पढ़े के ढंग में अंतर रहऽ हे । अप्पन देश में हिन्दी के जइसन ही मगही, मैथिली आउ भोजपुरी भासा के लिपि भी देवनागरी हे, तइयो लिखे, पढ़े आउ बोले में मौलिक अंतर देखल जा सकऽ हे ।

जब कोई बोली भासा के रूप लेवे लगऽ हे, तब सबसे पहिले जरूरत पड़ऽ हे ओकरा क्षेत्र विशेष में जहाँ ऊ मूल रूप में बोलल जा हे, उहाँ एकरूपता लावे के । मानक भासा के रूप में कोई भी भासा अप्पन स्थान तबे बना पावऽ हे जब ऊ भासा के लेखन विधा में एकरूपता के समावेश होय । ऊ लेखन तबे स्तरीयता के पहचान करावत जब क्रियापद में मौलिक अंतर न पावल जाएत । हर भासा स्थान विशेष के टोन आउ बोली के ही निमन रूप होवऽ हे । बोली इया टोन के बारे में ई प्रसिद्ध उक्ति हे कि 'चार कोस पर पानी आउ आठ कोस पर बानी बदल जा हे' । ई चलते बिना एकरा में एकरूपता इया समानता लयले धड़ाधड़ साहित्य लेखन के काम जारी रखे से मूल स्वरूप के साथ खेलवाड़ हो जा हे । क्षेत्र-विशेष से ऊपर उठला पर भासा के पहचान में दिक्कत आवऽ हे । बाद के समय में भासाई आंदोलन चलावे आउ अप्पन मांग सरकारी महकमा के सामने रखे में भी परेशानी के सामना करे पड़ऽ हे ।

अब तनि ई संदर्भ में 'मगही भासा' के रख के देखल जाय । आज मगही भासी लोग एकरा संविधान के अठमा अनुसूची में दर्ज करावे लागी जी-तोड़ कोसिस कर रहलन हे । मगही क्षेत्र के हर मंच, हर सम्मेलन, हर मगही पत्रिका आउ हर रचनाकार के कलम से बस एही बात एतिघड़ी कहल आउ लिखल जा रहल हे । ई निमन बात हे, बाकि एकरा पर पहिले विचार करे पड़त । आज अगर कहीं पर भी कोई अदमी मगही भासा के एकरूपता के मुद्दा बनावल चाहलन जेकरा कि एतिघड़ी सख्त जरूरत हे, त ई कहके दबा देवे के कोरसिस करल जा हे कि अभी एकर कोई खास जरूरत न हे, समय अएला पर सब ठीक हो जाएत ।

अरे भाई ! जब सब समये से ठीक हो जाइत हल, तब ई मगही-भासा-आंदोलन के का जरूरत हल ? समय से सरकारो के नींद टूटत हल आउ मगही भासा अठमा अनुसूची में सामिल हो जाइत हल । तब कहबऽ कि ई कइसे संभव हे, बिना लगले-भिड़ले कोई काहे देत ? ठीक ओइसहीं समझऽ कि भासा के एकरूपता भी खाली समय पर टारे से न आवत, एकरो ला निमन नियम-कानून बनावे पड़त, जन जागरन करे पड़त । सम्मेलन, मंच आउ पत्र-पत्रिका, किताब आदि के माध्यम से बोल आउ लिख के लोग-बाग के बतावे पड़त । सुरू-सुरू में हर भासा के अइसन दिक्कत के सामना करे पड़ऽ हे । एकरा ला समाज के बुद्धिजीवी वर्ग, शिक्षाविद्, रंगकर्मी आउ क्षेत्र विसेस के सभे लोग के आगे आवे पड़त । खास करके साहित्यकार लोग के तो विसेस भूमिका निभावहीं पड़त । जब तक लेखन के शैली में समानता न आवत, मगही भासा असली रूप न पावत ।

अब प्रश्न ई उठऽ हे कि एकर मानक रूप का होवत, कइसन होवत ? ठीक प्रश्न हे । एकरा पर जादे बहस के जरूरत न हे । पहिले तो एकरा ला मगध क्षेत्र के सभे जिला स्तर पर गठित मगही संगठन के बैठक आयोजित करल जाए । ओकरा में विचार करके एगो निमन निर्णय लेवल जाए । पुनः एगो राज्यस्तरीय सभा में एकमत से क्षेत्र विसेस के बोली इया टोन के मानक मानल जाए । अइसे तो हम मगध क्षेत्र के लगभग सभे जगह पर गेली हे । कुछ भाग छूट भी रहल हे । हमरा देखे में पुरनका गया जिला (पच्छिम गया, जहानाबाद, दक्षिणी नवादा, पूर्वी पटना, उत्तरी औरंगाबाद, उत्तरी-पूर्वी अरवल) के भासा ही मूल मगही भासा के टोन इया बोली के सम्हारले हे । कारन, ई क्षेत्र मगध के केन्द्र में पड़ऽ हे । आज ई क्षेत्र विसेस के रचनाकारन के रचना अगर पढ़ल, समझल आउ मनन करल जाए तब मगही भासा के मानक रूप बनावे में कोई विसेस दिक्कत के सामना न करे पड़त ।
एकरा से ई अर्थ न लगावल जाए कि खाली एही क्षेत्र के लेखक स्तरीय लेखन करऽ हथ, दोसर देन्ने के न । एन्ने के लेखन में क्रियापद के निमन प्रयोग कैल जा हे । लोग-बाग से मिले के क्रम में ई विषय पर जब भी बातचीत होएल हे, सभे क्षेत्र के लोग स्वीकार कएलन हे कि जहानाबाद इया कहऽ पुरनका गया के भासा ही मूल मगही भासा हे ।

मगही भासा के मानक रूप बनावे ला सबसे पहिले सभे मगहियन भाई, रचनाकार लोग के गुटवाद, क्षेत्रवाद आउ टोन के संकीर्ण भावना से ऊपर उठ के सोचे पड़त । फिर अगर उपरोक्त सुनावल गेल विचार निमन बुझाय तब सभे बड़का-बड़का रचनाधर्मी भाषाविद् लोग एक जगह पर बइठ के मनन करथ । ई तरह से अस्सी प्रतिशत क्रियापद पुरनका गया क्षेत्र के आउ बीस प्रतिशत सीमान्त मगध क्षेत्र के टोन इया बोली मिला के मगही भासा के एगो मानक रूप बनावल जाए । फिर ओही मानक के मान के मगही भासा-साहित्य में रचना मगध के हर क्षेत्र से होय । ई तरह से अप्पन भासा के रचना एगो मानक साहित्य के रूप में दिखे लगत ।

आज बिहार सरकार इंटरमिडिएट आउ सभे विश्वविद्यालय में मगही के भासा के रूप में मान्यता दे देलक हे । आगे आवे ओला समय में मध्य आउ उच्च विद्यालय में भी एकर पढ़ाई होयत । अगर रचना के निमन न बनावल जाएत, अइसहीं खिचड़िया टोन में बनल रहत, त एकर भविस ठीक न दिखऽ हे । मगही क्षेत्र के ही अगर अलग-अलग स्थान के रचना देखीं, त लगबे न करत कि दुनहूँ एक्के भासा में लिखल गेल हे ।

मगध क्षेत्र से मगही भासा में मासिक पत्रिका के रूप में स्थापित 'अलका मागधी' जे चउदह बरिस से ऊपर के कार्यकाल पूरा कर लेलक हे, के लगतरिए प्रकाशन से भी मगही-साहित्य-लेखन में एकरूपता आएल हे । क्षेत्रीय भासा में एक सौ पैंसठ से जादे अंक निकल के एकर संपादक मौर्य जी एगो इतिहासो बना देलन मगही में । सुरुआत में संपादक जी रचना पर विशेष ध्यान न देवऽ हलन, खास करके क्रियापद पर । हो सकऽ हे कि प्रसिद्धि पएले रचनाकार के रचना में हेरफेर करे से घबरा होतन, जेकरा चलते जउन क्षेत्र के जइसन रचना आएल, छाप देलन । ई से पत्रिका पढ़े में पाठक लोग के क्षेत्रीय भासाई अंतर स्पष्ट बुझा हल । कोई भी भासा ला ई एगो सोचनीय विषय हे ।

बाद में पत्रिका में निखार आएल । संपादक अप्पन संपादकीय शक्ति के पहचानलन आउ ओइसने प्रयोग कएलन जइसन एक समय में हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी कएलन हल । जब पत्रिका में केनहूँ के रचना छपे, जादे अंतर न पावल जा हे । इहाँ पर हम ई कहल चाहम कि कोई भी रचना के मूल तो मूल हे, ओकरा में अंतर कइसे आवत ? अंतर तो बस क्रियापद में ही पावल जा हे । हमनी सब रचनाकार बन्धु क्रियापद में ही एकरूपता लाईं । अब तो नयकन रचनाकार चाहे ऊ केनहूँ के रहथ, के रचना में जादे अंतर देखे में न आवे ।

ई तरह से आज हर स्तर पर भासाई टोन के अंतर मेटावे के जरूरत हे । भासा तबे परिस्कृत हो के अप्पन असली स्वरूप प्राप्त करत जब लेखन शैली में एकरूपता दिखत । पत्र-पत्रिका जहाँ से भी निकले ओकर भासा शैली इया टोन एक्के रहे के चाहीं । बाहरी लोग के बात छोड़ऽ, स्थानीय लोग भी जब मगही भासा के अलग-अलग पत्रिका, जइसे - अलका मागधी, बिहान, सारथी, टोला-टाटी, मगधभूमि आदि देखतन आउ पयतन कि ई पत्रिका के शैली अइसन आउ ओकर ओइसन हे, तब बिना चक्कर में पड़ले न रहतन ।

भासा के स्तर पर सरकार से मान्यता लेवे के पहिले ई विषय पर गम्भीर मनन के आवश्यकता हे । तबे हम्मर ई मगही आंदोलन सफल होएत । अगर ई स्तर पर मगही भासा एक हो के मजबूत दिखाई देवे लगत, तब हमनी के आगे बढ़े, अप्पन अधिकार के पावे से फिर कोई न वंचित कर सकऽ हे ।

--- अलका मागधी, बरिस-१५, अंक-५, मई २००९, पृ॰ ५-७ से साभार