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Thursday, October 22, 2009

11. फर्ज

लघुकथाकार - हरीन्द्र विद्यार्थी

पटना टीसन पर अन्हेरा गहराय लगल हल । अइसे तो टीसन पर अनदिनो अँटान न रहे, बाकि एक जगह कुछ जादे भीड़ देख के चन्दू ठुमक गेल। दूगो वर्दीधारी पुलिस के खड़ा देख के ओकर उत्सुकता आउ बढ़ गेल । बीच में एगो गोर सुन्नर महिला आउ बगल में एगो पान चबावित अधवइस औरत बइठल हल ।

गोरकी तिरिया बोलल - "न जानि कन्ने हम्मर भाई छूट गेल । ई घड़ी रात के हम कहाँ जाऊँ ?"

"रात के कहाँ जयबऽ ? जहन्ना जाना ठीक नऽ हो । तूँ पटने रुक जा । बिहान होतो त चल जइहऽ ।" एगो सिपाही बोललक ।
"हँ बाबू ! पटने रुक जाही । बाकि जायम कहाँ ?"
अधवइस औरत टुभकल - "चल ! हमरा साथ रात भर रहिहें, फिन सबेरे चल जइहें । बाकि डेरा हम्मर हियाँ से दूर हउ । तब तक हमरे साथ रह ।"
"इनके साथ रिक्शा में चल जो ! न तो हम तोरा, जहाँ कह, हुएँ पहुँचा देवउ ।" अधवइस सिपाही बोलल ।
जवनका सिपाही खइनी पर ताल देके बोललक - "हँ, बढ़ियाँ तो हउ । अइसन भला अदमी थोड़े ई जुग में मिलतउ ?"

ऊ गोरकी तिरिया थोड़ा घबड़ायल, फिन बोलल - "नऽ बाबुन, हम रात भर टीसने पर गुजार देम ।"

"टीसन पर कइसे रहबे ? चल, हम तोरा थाना में पहुँचा दे हिअउ ।" सिपाही जी तुनकलन ।
कुछ जातरी ई माजरा देख के गते मुसकयलन । ओकरे में से एगो उमरदराज अदमी बोलल - "ई तो छोकरी हई रे, चललई ई सब के रतभोज !"
"चल, छोड़ ई तमाशा ! हियाँ तो रोज के एही नजारा हउ । केकर-केकर हिसाब रखबे ? चल, गाड़ी पर सीट ले लेवल जाय ।" दोसर जातरी बोलल ।

चन्दू सोचे लगल कि चुपचाप चलल जाय इया ई महिला के ऊ फन्दा से निकालल जाय । थोड़ा आगे बढ़ल त ओकरा इयाद आल कि गोरकी के बगल में बइठल बुढ़िया तो ई शहर के चर्चित एजेण्ट हे । ऊ लउट आल आउ भीड़ भिर आके गोरकी तिरिया से पूछलक - "कहाँ घर हउ ?"
"जहानाबाद, काको में ।" उत्तर मिलल ।

चन्दू थोड़ा हिम्मत बाँध के बोललक - "देख, ई शहर बड़का मंडी हउ । हियाँ रोज औरत के खरीद-बिक्री होवऽ हउ । रात भर अकेले रह गेले त गिद्ध सब तोरा नोच के खा जतउ । सबेरे कहूँ पर बेहोश पावल जयमें इया लाश बरामद होतउ । चुपचाप गाड़ी धर के जहन्ना लउट जो । हमरा फर्ज बुझयली त तोरा समझा रहलियो हे । अब जइसन तोर मर्जी ।"

"नऽ नऽ बाबू ! हम जहन्ने चल जायम ।" एतना कह के ऊ गाड़ी में चढ़ गेल ।
चन्दू डेरा में लउट के जब अप्पन घरनी के ई लीला सुनयलक तब ओकर घरनी बोललन - "रात में जहन्ना ? ऊ कउन बड़ा सुधरल जगह हई ?"

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰ ७-८ से साभार]

Saturday, October 17, 2009

9. लमरी न भंजल

लघुकथाकार - दिलीप कुमार

बिहटा स्टेशन पर जब बिपत नाना रेलगाड़ी से उतरलन तब उनकर पाकिट में एक सौ के एगो लमरी हल । ऊ सोचलन कि अगर लमरी भंज जायत तब सब रुपइया खरच हो जायत । एही से ऊ बस पर चढ़ के उतर गेलन आउ पैदले चले ला मन में ठान लेलन ।

२० किलोमीटर चल के अप्पन नाती हीं पहुँच गेलन । उनकर नाती चेतन नाना के देखइते प्रणाम कैलक आउ स्वागत सत्कार में लग गेल ।

एक घंटा के बाद बिपत नाना अप्पन नाती से कहलन - "बउआ ! तीन गो रुपइया हमरा पइंचा दे दऽ ! हम कभी आयम तब लेले आयम इया केकरो से भेजवा देम । काहे कि मियाज हम्मर बिलकुल थकल हे । अभी पाँच किलोमीटर जाय ला हे । जीप पर चढ़ के चल जायम ।"

एतना कहला पर चेतन तीन गो रुपइया नाना के देके कहलक - "काहे लागी तीन गो रुपइया भेजवऽ नाना ! तीन गो रुपइया बड़का चीज हे ?"

"देख नाती ! हमरा पइसा के कमी नऽ हे ।" पाकिट में से लमरी हाथ में निकाल के देखावइत कहे लगलन, "देख, एगो लमरी हे । लेकिन एकरा भंजा न रहली हे, काहे कि खरचा हो जायत । हम बिहटे से इहाँ तक भूखे-पियासे पैदले चल अइली हे । अब तनिये दूर ला एकरा भंजा दीं !"

"नऽ नाना ! भंजयबऽ काहे ला ? जीप के भाड़ा देहीं देलिवऽ, खाना-पीना होहीं गेलवऽ । ई लमरिया हमरा दे दऽ ! खुदरा पइसा हमरो से खरच हो जाहे । एकरा नाना के असीरवाद समझ के रखले रहम । बिसवास करऽ, हम एकरा भंजे न देबुअ ।" एतना कह के चेतन नाना के हाथ से लमरी लेके अप्पन पाकिट में रख लेलक ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰२४ से साभार]

Friday, October 16, 2009

8. ममता के देवी

लघुकथाकार - कृष्ण चन्द्र चौधरी

फेंकनी अप्पन गोदी में दू महीना के बुतरू लेले दुआरी पर बइठल हल । बुतरू बोखार से तलफइत हल । ओकर हालत देख के फेंकनी के चेहरा पर चिंता के छाँह पसरल हल ।

फेंकनी के मरद चार दिन से दतवन बेचे शहर गेल हलन । फेंकनी के हाथ में एक्को पइसा नयँ हल जे दवा-दारू करा सकऽ हल । ओझा-गुनी से भी कोई फयदा नयँ होल ।

फेंकनी पइसा लेल दसो दुआरी हो आल हल, मुदा कहीं से पइसा नयँ मिलल हल । मिलतइ हल भी कहाँ से ? सउँसे भुईं टोली के एक्के हालत हल । हाँफइत बुतरू पर नजर पड़ल त फेंकनी के आँख लोर से भर गेल ।

ओही घड़ी सुकनी बूढ़ी काँख में पोटली दबयले उहाँ आ खड़ा होल । दिन भर भीख माँग के आल हल, से थक गेल हल । तनि सुस्ताय ला बइठ के पूछलक -"फेंकनी ! तूँ काहे रोवइत ह ?"

"हम्मर बुतरू बेमार हे माय ! हाथ में एक्को पइसा नयँ हे । दवा-दारू कहाँ से करा सकऽ ही ?" फेंकनी सुबकते बतयलक ।

"हम पइसा देइत हियो, कोई डागडर से जाके देखावऽ ।" कह के सुकनी अप्पन पोटली खोललक आउ दस रुपइया के नोट ओकर हाथ पर रख देलक । फेंकनी के लगल कि गाँव-गाँव माँग-चाँग के खाय ओली सुकनी बूढ़ी भीखमंगनी नयँ हे, बलुक ममता के देवी हे ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰२७ से साभार; पत्रिका में प्रकाशित लघुकथा के मूल शीर्षक - "देवी"]

Thursday, October 15, 2009

7. सफाई के असर

लघुकथाकार - डॉ॰ सी॰ रा॰ प्रसाद

राजधानी नाम के रह गेल हे । सगरो गंदगी भरल हे । दस बजे दिनो में रोड किनारे लोग झाड़ा फिरइत देखल जा सकऽ हथ । पेशाबखाना पखाना जहाँ-तहाँ बनल हे, लेकिन ओहू में एतना गंदगी कि नाक फट जाय । करमचारी के वेतन देवे ला निगम आउ सरकार के पास कातो पइसे न हे ।

एगो घर के बगल में लोग पेशाब कर दे हलन । एक दिन मकान मालिक उहाँ लिख देलन - "भाई लोग ! इहाँ पेशाब न करल जाय ।"

बाकि केकरो पर कोई असर न होवल । तब उहाँ लिखायल - "इहाँ पेशाब करे वला दंड-जुर्माना के भागी होयतन ।"

तइयो कोई फरक न पड़ल । एन्ने-ओन्ने ताकइत नजर बचा के लोग उहईं पेशाब करिये दे हलन । पेशाब से देवाल के नीचे के मट्टी राख-पतवार गीला रहे लगल । सड़न से बदबू दूर-दूर तक फैले लगल । मकान मालिक के कै गो से बाता-बाती, गाली-गलौज तक हो गेल । ऊ खिसिया के लिखवयलन - 'देखऽ गदहा मूतइत हवऽ !"

तबो जोर से लगला पर रहगीर उहईं पेशाब करे से बाज न आवइत हलन आउ लिखलका के अनदेखा कर दे हलन । तब मकान मालिक एगो गमकल गारी लिख देलन - "अरे मादर ... गदहा ! इहाँ मत मूत ।"

काहे ला कउनो पर असर पड़ो । पेशाब-पखाना रोकल जा सकऽ हे ? कुत्ता सूअर अइसन लोग ओहीं पर पनढार करते रहलन । काहे कि उहाँ कूड़ा-कचरा फट्टल प्लास्टिक से गंदगी के अम्बार लगल रहऽ हल ।

एक दिन मकान मालिक के का मन में आयल कि ऊ सब लिखल मेटवा देलन । कूड़-कचरा बाहर फेंकवा देलन । ऊ जगह के साफ-सुथरा कराके मट्टी भरवा के लीप-पोत के सुन्दर बना देलन । उहाँ दस गो मट्टी के गमला में फूल लगवा के सजवा देलन । नया-नया ईंटा, चूना से लाइनिंग करवा देलन ।

अब उहाँ फूल के खुशबू फैल गेल हे, तुलसी के पौधा लग गेल हे । सफाई के अइसन असर होल कि अब एक्को अदमी उहाँ पेशाब करे के हिम्मत न करऽ हे ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१०, अंक-५, जनवरी २००४, पृ॰६ से साभार]

Wednesday, October 14, 2009

8. मगही-व्याकरण के क्षेत्र में डॉ॰ सम्पत्ति अर्याणी के योगदान

लेखक - रामनाथ शर्मा, अमहरा, पटना

मगही-व्याकरण, ओकर शब्द-भंडार, ध्वनि, कहाउत, मुहावरा, रचना आउ भाषा-वैज्ञानिक पक्ष आदि के सम्पन्न बनावे में जउन लोग के हाथ रहल हे ओकरा में अंगरेज विद्वान फैलन, फ्रेडरिक, केलॉग आउ डॉ॰ ग्रियर्सन के नाम आदर के साथ लेल जाहे । हिन्दुस्तानी लोग में विश्वनाथ प्रसाद, डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री, राजेन्द्र कुमार यौधेय, डॉ॰ सम्पत्ति अर्याणी, डॉ॰ युगेश्वर, डॉ॰ ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन', राजेश्वरी प्रसाद सिन्हा 'अंशुल', डॉ॰ सरयू प्रसाद, डॉ॰ त्रिभुवन ओझा, डॉ॰ रामानुग्रह शर्मा, डॉ॰ कुमार इन्द्रदेव, डॉ॰ सरोज कुमार त्रिपाठी, डॉ॰ जगदीश प्रसाद, डॉ॰ राम प्रसाद सिंह आउ डॉ॰ उमेशचन्द्र मिश्र के नाम विशेष रूप से उल्लेख लाइक हे ।

अइसे तो ई सबके भरपूर योगदान रहबे कैलक, बाकि राजेन्द्र कुमार यौधेय आउ डॉ॰ सम्पत्ति अर्याणी के अप्पन आत्म पहचान आउ महत्त्व हे । ई लोग अप्पन मातृभाषा मगही में लिख के विशेष आदर के पात्र बनलन आउ लोग तो अंगरेजी इया हिन्दी भाषा के माध्यम से ऊ काम कैलन । मगही भाषा के लिखवइया में भी हम डॉ॰ सम्पत्ति अर्याणी, एम॰ए॰ (हिन्दी आउ पालि), डी॰लिट्॰, पूर्व रीडर, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, पटना विश्वविद्यालय के सबसे ऊपर स्थान मानऽ ही । हमरा समझ से मगही व्याकरण के क्षेत्र में उनका ओहे स्थान मिले के चाही जे हिन्दी-व्याकरण के क्षेत्र में पं॰ कामता प्रसाद गुरु, साहित्य वाचस्पति, व्याकरणाचार्य के मिलल ।

अर्याणी जी के पहिले जउन लोग लिखलन उनकर रचना सब अंग से पूरा न भेल । जइसे यौधेय जी के 'मगही भासा के बेआकरन', पहिला भाग प्रकाशित तो ३० अगस्त १९५६ के भेल, बाकि ओकरा हम ग्रियर्सन साहेब के ढंग पर लिखल मानऽ ही । ५६ पेज के रचना में १९१ नियम आयल हे । ईमानदार लेखक के सराहना ई लेल करे लाइक हे कि ऊ निवेदन में स्पष्ट कर देलन हे - "हम डाक्टर ग्रियर्सन साहेब के रिनी ही । उनकर बेआकरन के केतना बात हम लेली हे । नियम २२, २४, २५, २६, ३३, ३९, ४०, ६८, ६९, ८१, ८८, ९२ से ९७ तक आउ १२९ से १३८ तक में देल विचार करीब-करीब बिल्कुले उनकरे गिरामर के विचार हे ।" फिर भी ऊ काफी बड़ाई के पात्र हथ । १९५६ में उनका निअन आउ के भेल ? उनकर व्याकरण पटना जिला में दक्खिनी हिस्सा आउ गया जिला के बोलल जाय ओली मगही के आधार पर हे । एकरा में पूरा मगही क्षेत्र न आयल ।

जहाँ तक अंशुल जी के ५ जुलाई १९७० में मलयज प्रकाशन, गया से छपल 'मगही-व्याकरण' के बात हे, इहे कहल जा सकऽ हे कि छब्बीस पेज के ई रचना व्याकरण सम्बन्धी सब बात के अपना में समावेश न कर सकल हे । फिन एकरा में कैथी लिपि में लिखल मगही के आधार पर अप्पन विचार के सुनिश्चित कैलन हे । इनका कहनाम हे - "देवनागरी की वर्तनी मगही भी स्वीकार कर ले, यह मुझे मान्य नहीं ।" ई रचना खड़ी बोली में हे, जे बतावऽ हे कि व्याकरणकार के झुकाव मगही के प्रति न हे । ई कहऽ हथ - "प्रस्तुत पुस्तिका में मैं मगही भाषा के व्याकरण के निर्माण की दिशा में कुछ संकेत करने जा रहा हूँ ।"

अब रहल बात डॉ॰ युगेश्वर के व्याकरण के सम्बन्ध में । ओकर नाम हे 'मगही भाषा' । ई भारतीय साहित्य संस्थान, काशी विद्यापीठ, वाराणसी-२ से दिसम्बर १९६९ में प्रकाशित भेल । एकर आधार हे लेखक के एम॰ए॰ के थीसिस । ई मैथिली, भोजपुरी आउ दोसर भारतीय भाषा के सहारे लेके तइयार कैल गेल हे । एकरा में मगही के बड़ा क्षेत्र के समेटल गेल हे । लेखक मगही के ध्वनि-समूह, प्रत्यय, संज्ञा, लिंग, वचन, कारक रूप, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, अव्यय आउ पूर्वी मगही पर ठीक से प्रकाश डाललन हे ।

शोध-प्रबन्ध के माध्यम से जउम लोग मगही भाषा , व्याकरण, ध्वनि, शब्दावली आदि के बारे में विचार कैलन, ओकरा में डॉ॰ सम्पत्ति अर्याणी (मगही भाषा और साहित्य), श्रीकान्त शास्त्री (पटना एवं गया में बोली जानेवाली मगही का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन), डॉ॰ ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन' (मगही अर्थविज्ञान का विश्लेषणात्मक निर्वचन), डॉ॰ त्रिभुवन ओझा (बिहारी बोलियों का तुलनात्मक अध्ययन), डॉ॰ सरयू (मगही वर्तनी तथा ध्वनि), डॉ॰ लक्ष्मण प्रसाद सिन्हा (मगही एवं भोजपुरी की क्रियाएँ), डॉ॰ शिवरानी (मगही की कृषक एवं ग्रामोद्योग शब्दावली), डॉ॰ जगदीश प्रसाद (मगही कहावतों का विश्लेषणात्मक अध्ययन), डॉ॰ रामानुग्रह शर्मा (मगही कहावतों का समाजशास्त्रीय अध्ययन), डॉ॰ उमेशचन्द्र मिश्र (मगही क्रियापदों का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन) आदि के नाम आवऽ हे ।

लेकिन व्याकरणिक पक्ष के दृष्टि से डॉ॰ सम्पत्ति अर्याणी के छोड़ के आउ लोग के रचना के सर्वांगपूर्ण न कहल जा सके । इहे तरह से डॉ॰ उमाशंकर भट्टाचार्य के 'मगही कहाउत संग्रह' आउ जयनाथ पति, महावीर सिंह के 'मगही मुहावरा और बुझौवल' एकपक्षीय रचना हे । जहाँ तक अंगरेज लेखक के सवाल हे, ई कहल जा सकऽ हे कि एकरा में जॉर्ज ग्रियर्सन मार्गदर्शक के काम कैलन । उनकर रचना 'सेवन ग्रामर्स ऑफ द डायलेक्ट्स ऐण्ड सबडायलेक्ट्स ऑफ द बिहारी लैंग्वेज' के तीसरा भाग, 'बिहार पीजेंट लाइफ', 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया' के पचमा भाग आउ 'ए कम्पेरेटिव डिक्शनरी ऑफ बिहारी लैंग्वेज' के सदा इयाद कैल जायत । रेवरेण्ड एच॰एम॰ केलॉग के रचना 'ए ग्रामर ऑफ दी हिन्दी लैंग्वेज' में १४ बोली के शब्द आउ धातु रूप के वर्णन करे में मगही के भी बखान भेल हे । इहे तरह से फैलन के योगदान मगही कहाउत के संग्रह करे में आउ हॉर्नले के शब्दकोश निर्माण में भेल । क्रिश्चियन मिशन प्रेस, कलकत्ता कैथी लिपि के सहारा लेके मगही व्याकरण निकाललक । बाकि ऊपर के सब रचना अंगरेजी में हे ।

ऊपर के पृष्ठभूमि में अब डॉ॰ सम्पत्ति अर्याणी के मगही के व्याकरण क्षेत्र में योगदान देखल जाय । इनकर लिखल सात किताब में मगही-व्याकरण आउ रचना स्थान पौलक हे । ई हे –

१. मगही भाषा और साहित्य - बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना
२. मगही व्याकरण कोश - हिन्दी साहित्य संसार, दिल्ली
३. मगही व्याकरण आउ रचना - संदीप प्रकाशन, पटना
४. मगही व्याकरण प्रबोध - संदीप प्रकाशन, पटना
५. मगही व्याकरण चन्द्रिका - संदीप प्रकाशन, पटना
६. मगही रचना चन्द्रिका - संदीप प्रकाशन, पटना
७. मगही निबन्ध सौरभ - मगही अकादमी, बिहार

साहित्य रचना डी॰लिट्॰ के थीसिस पर आधारित हे । खड़ी बोली में । विक्रमाब्द २०३२ में प्रकाशित डिमाई साइज । पेज संख्या ५७२ (मूल्य २७.५० । एकर भाषा-खंड के दोसर, तेसर अध्याय में 'आधुनिक मगही भाषा का सर्वेक्षण' आउ 'मगही शब्द-भण्डार' के विवेचन कैल गेल हे ।

दोसर रचना 'मगही व्याकरण कोश' डी॰लिट्॰ उपाधि ला स्वीकार कैल गेल 'मगही भाषा और साहित्य' शीर्षक शोध-प्रबन्ध के एक अंश हे । खड़ी बोली में हे । १९६५ में छपल । पृष्ठ संख्या १५४ । एकरा में मगही के ध्वनि, व्याकरण आउ शब्दकोश स्थान पौलक हे । विवेचन सराहे जुकुर हे ।

इहे तरह से 'मगही व्याकरण आउर रचना' नाम के २६३ पन्ना के विशाल ग्रंथ में लेखिका बहुत बढ़िया से व्याकरण के ध्वनि, शब्द, विकारी शब्द, रसर्वनाम, विशेषण, क्रिया, अव्यय, शब्द-रचना, समास, वाक्य-रचना, वाक्य-विग्रह, वाक्य-परिवर्तन, पद-परिचय आउ विराम-चिह्न के आउ रचना-खंड में संक्षेपण, व्याख्या, अपठित गद्यांश, भावार्थ, अर्थ इया आशय, पल्लवन, पत्रलेखन, अनुवाद आउ साहित्य के विविध विधा के ठीक से वर्णन कैलन हे । मूल्य चालीस रुपइया हे । प्रकाशन काल २१ मार्च १९९२ ई॰ । मगही व्याकरण के क्षेत्र में ईहे रचना मील के पत्थर हे ।

अइसहीं इनकर अन्य रचना भी मगही व्याकरण के क्षेत्र में इनकर योगदान के लाजवाब प्रमाण हे । १९८९ ई॰ में मुद्रित 'मगही निबन्ध सौरभ' के अन्तर्गत 'मगही साहित्य में भाषा-प्रयोग', 'पटना सिटी के मगही' आउ 'भोजपुरी आउर मगही भाषा के तुलनात्मक विवेचन' शीर्षक निबन्ध विदुषी लेखिका के व्याकरण आउ भाषा सम्बन्धी प्रेम के सूचक हे । सम्पत्ति जी कई पत्र-पत्रिका में भी मगही व्याकरण विषयक लेख लिख के अप्पन योगदान के अच्छा परिचय देलन हे ।

इनकर व्याकरण सम्बन्धी सब रचना के पढ़ला पर पता चलऽ हे कि मगही व्याकरण इनका पास पहुँच के सब तरह से पूर्णता पौलक हे । रचना के भी एही हाल हे । लगऽ हे, ई कोई पक्ष के न छोड़लन ।

हमरा जानकारी में अचानक कोई अइसन व्यक्ति पैदा न भेल जे मगही व्याकरण ला एक साथ एतना किताब लिखलक । इनकर सब रचना अनमोल तो हइए हे, मगही जगत के बहुमूल्य धरोहर भी हे । इनकर व्याकरण आउ रचना के टक्कर लेवे वाला कोई रचना न हे, ऊ भी मातृभाषा मगही के साथे-साथ हिन्दी में भी । इनकर हरेक रचना 'गागर में सागर' इया 'बूंद में समुन्दर' हे , सर्वांगपूर्ण हे, मगही के सब शिष्ट रूप आउ प्रयोग के विवेचन करके स्थिरता लावे वाला भी हे । ओकरा पढ़ला पर मगही के स्वरूप के पूरा पता चल जाहे ।

कुल मिलाके हम कह सकऽ ही कि मगही व्याकरण के साथ मगही रचना के क्षेत्र में डॉ॰ सम्पत्ति अर्याणी के योगदान के कभी भुलायल न जायत । इनकर व्याकरण मगही के सब व्याकरण के अपेक्षा जादे सर्वांगपूर्ण, व्यापक, प्रामाणिक आउ शुद्ध हे । इनका मगही के सर्वसम्मत व्याकरणकार सिद्ध करे में हमरा बहुत खुशी हो रहल हे ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-७, अंक-१२, दिसम्बर २००१, पृ॰११-१२,१८ से साभार]

Tuesday, October 13, 2009

1. मगध के गौरव - तथागत अवतार तुलसी

सबसे कम उम्र का प्रोफ़ेसर?
शुक्रवार, 20 जून, 2003 को 20:50 GMT
http://www.bbc.co.uk/hindi/southasia/030620_indianprodigy_at.shtml

महज 21 साल की आयु में डॉक्ट्रेट
दैनिक पत्रिका "अमर उजाला", बृहस्पतिवार, 27 अगस्त 2009
http://www.amarujala.com/Vishesh/detail.asp?newsid=5783253

अब डॉ॰ तुलसी ....
Tuesday, September 15, 2009
http://himalayidharohar.blogspot.com/2009/08/blog-post_08.html

अब फरवरी २००० में तथागत जी के साथ साक्षात्कार पर एक दृष्टि डालल जाय –

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-६, अंक-२, फरवरी २०००, पृ॰५-६ से साभार]

मगह के गौरव: तथागत अवतार तुलसी

तोड़लक मगहिया विश्व-रेकाड

मगहिया बुतरू चढ़ल अकास
….. …. …
"अलका मागधी" के संवाददाता अरुण कुमार गौतम तथागत के साक्षात्कार लेलन हे । पढ़ऽ उनकर बातचीत -

गौतम: तोहर पूरा नाम का हवऽ तथागत ?
तथागत: तथागत अवतार तुलसी ।

गौतम: तोहर गाँव कहाँ हवऽ ?
तथागत: गया जिला के खिजरसराय प्रखण्ड में बदरा ।

गौतम: तोहर बाबूजी आउ माय के का का नाम हवऽ ?
तथागत: प्रो॰ तुलसी नारायण प्रसाद आउ श्रीमती चंचला प्रसाद ।

गौतम: तूँ मैट्रिक कब, केतना उमर में आउ कउन इसकूल से पास कैलऽ ?
तथागत: १९९७ ई॰ में, नौ बरिस छौ महीना के उमर में, जिला पब्लिक इसकूल, नई दिल्ली से ।

गौतम: कउन डिविजन से आउ नंबर केतना प्रतिशत हवऽ ?
तथागत: फस्ट डिविजन से, उनहत्तर (६९) प्रतिशत आयल ।

गौतम: मैट्रिक परीक्षा देवे से पहिले तूँ कउन वर्ग में पढ़ऽ हलऽ ?
तथागत: छठा वर्ग में

गौतम: त तोरा मैट्रिक परीक्षा देवे के परमिशन कइसे मिललवऽ ?
तथागत: दिल्ली उच्च न्यायालय आउ सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ।

गौतम: गिनिज बुक ऑफ द वर्ल्ड रेकाड में तोहर नाम कब आउ कउन बात ला दर्ज भेलवऽ ?
तथागत: १९९८ ई॰ में । अब तक ले संसार भर में सबसे कम उमर में मैट्रिक पास करे के चलते ।

गौतम: फिन तूँ बी॰ एस-सी॰ ऑनर्स कब, कउन विषय से, केतना उमर में आउ कउन विश्वविद्यालय से पास कैलऽ ?
तथागत: १९९८ ई॰ में, भौतिकी से दस बरिस छौ महीना के उमर में, पटना विश्वविद्यालय से ।

गौतम: कउन डिविजन से आउ नंबर केतना प्रतिशत अलवऽ ?
तथागत: फस्ट दिविजन से, नंबर बहत्तर (७२) प्रतिशत आयल ।

गौतम: एम॰ एस-सी॰ कब, कउन विषय से, केतना उमर में आउ कउन विश्वविद्यालय से पास कैलऽ ?
तथागत: १९९९ ई॰ में, भौतिकी से, इगारह बरिस दस महीना के उमर में, पटना विश्वविद्यालय से ।

गौतम: कउन डिविजन से आउ नंबर केतना प्रतिशत अलवऽ ?
तथागत: फस्ट डिविजन से । नंबर एकहत्तर (७१) प्रतिशत आएल हे जबकि अठहत्तर (७८) प्रतिशत आवे ला चाहऽ हल ।

गौतम: त फिन अठहत्तर (७८) प्रतिशत ला का कर रहलऽ हे ?
तथागत: दुबारा कॉपी जँचवावे के प्रयास में लगल ही ।

गौतम: अच्छा तथागत, तोहर सफलता के रहस्य का हे ?
तथागत: पढ़ाई के प्रति गहरा अभिरुचि आउ पापाजी के उचित मार्गदर्शन ।

गौतम: तोहर माय बाबूजी नौकरी में हथुन ?
तथागत: जी हँ । पापाजी एगो सरकारी कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर हथ आउ मम्मी एगो बालिका उच्च विद्यालय में अंग्रेजी शिक्षिका ।

गौतम: तूँ कै गो भाई-बहिन ह ? ऊ लोग के नाम का का हइन ?
तथागत: हम बिना बहिन के तीन गो भाई ही । बड़का दुन्नो भाई के नाम हे पिता महेश्वर तुलसी आउ विश्व पुरुष तुलसी ।

गौतम: दुन्नो भइया कउन इयर में पढ़ऽ हथुन ?
तथागत: दुन्नो भइया आई॰ एस-सी॰ में पढ़ऽ हथ ।

गौतम: जब तोहर नाम गिनिज बुक ऑफ द वर्ल्ड रेकाड में दर्ज भेलवऽ त ई बात जान के तोरा कइसन बुझलवऽ ?
तथागत: हमरा पढ़ाई में लगन के अच्छा परिणाम आउ संसार में नाम होय के बात जान के बड़ा खुशी भेल ।

गौतम: अब तक ले तोहरा बारे में केतना पत्र-पत्रिका में छपलवऽ हे ?
तथागत: देश-विदेश के एक सौ से भी जादे पत्र-पत्रिका में ।

गौतम: सरकार के तरफ से तोहरा कोई प्रोत्साहन मिललवऽ ?
तथागत: जी ! जब लालू प्रसाद जी बिहार के मुख्यमंत्री हलन तब एगो कम्प्यूटर आउ ८० हजार रुपइया देलन हल ।

गौतम: अब आगे तोहर का लक्ष्य हवऽ ?
तथागत: भौतिकी से पी॰ एच-डी॰ करके भौतिकी के क्षेत्र में कठिन सवाल के जवाब ढूँढ़म ।

गौतम: एक बार एगो पत्रिका में तोरा बारे में पढ़ली कि तूँ भगवान बुद्ध के अवतार ह ! त ई बात सच हे ?
तथागत: हम ई बात के सच न जानऽ ही, बाकि हम्मर पापाजी के हमरा बारे में एही अध्ययन हे ।

गौतम: तूँ पूजा पाठ आउ भाग्य भगवान में विश्वास करऽ ह ?
तथागत: नऽ ! हम तो पूजा पाठ के ढकोसला मानऽ ही आउ कर्म में विश्वास करऽ ही ।

गौतम: आजकल बिहार में भ्रष्टाचार आउ नरसंहार के घटना जादे घट रहल हे । तोहर राय में ई सब कइसे रुकत ?
तथागत: ई दुन्नो बात से बिहार के नाम देश-विदेश में बदनाम हो रहल हे । ई सब तबे रुकत जब इहाँ के लोग में आत्म-सुधार के भावना जगत ।

गौतम: तूँ छात्र लोग के का संदेश देवऽ ?
तथागत: हम संदेश एही देम कि सब लोग मन लगा के पढ़थ आउ जिनगी में आगे बढ़थ ।

गौतम: अच्छा तथागत ! नया साल में हम तोहर उज्ज्वल भविष्य आउ निरंतर विकास के मंगल कामना करइत अब तोहरा से बिदा लेवल चाहइत ही । तूँ साक्षात्कार देलऽ ई बात ला हम 'अलका मागधी' परिवार के अलावे अखिल भारतीय मगही साहित्य सम्मेलन के तरफ से भी संगठन सचिव होवे के नाते तोरा बहुत-बहुत धन्यवाद दे रहली हे, कारण कि तूँ मगह में जनम लेके मगध के मान भी बढ़ैलऽ हे ।
तथागत: जी, धन्यवाद !

Monday, October 12, 2009

6. बोलती बंद हो गेल

लघुकथाकार - विशेश्वर मिश्रा 'विकल'

हम आकस्मिक अवकाश में हली । हेडमास्टर साहेब भी हमरा छुट्टी देले हलन । क्षेत्रीय पदाधिकारी के औचक निरीक्षण भेल । हम्मर दरखास्त के नजरअंदाज करके हमरा औफिस बोलावल गेल । अगला दिन औफिस में मिलला पर पदाधिकारी जी कहलन - "बड़ा बाबू से मिल लऽ !"

बड़ा बाबू से मिलली त ऊ हमरा से एक हजार रुपइया घूस माँगलन । आके साहेब के सामने घिघिअइली, "छुट्टी में रहला पर भी बड़ा बाबू एक हजार माँगइत हथ ।"

"छुट्टी केकरा कहल जाहे से तो हम जानवे न करीं । नौकरी बचावे ला हवऽ त कम से कम पाँच सौ रुपइया लगवे करतवऽ ।" साहेब के बात सुन के हम्मर बोलती बंद हो गेल

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰२७ से साभार]

1. मगध के गौरव स्थल - बराबर पहाड़

मगध के गौरव स्थल - बराबर (बाणावर) पहाड़

लेखक - दिनेश वर्मा

मगह के धरती पर कइगो ऐतिहासिक, धार्मिक आउ पुरातात्त्विक कलाकृति धरोहर के रूप में विराजमान हे । जहानाबाद जिला के बराबर पहाड़ी आउ ओकरा पर बनल सिद्धेश्वर नाथ के मन्दिर भी ऊ सब धरोहर में से एक हे । जनश्रुति के अनुसार मगधनरेश बाणासुर के नाम पर पहाड़ी के नाम बाणावर पड़ल । बाद में ई 'बराबर' के रूप में प्रसिद्ध होयल । 'महाभारत' में वर्णन हे कि बाणासुर के राजधानी यहीं पर बेला स्टेशन से चार मील पश्चिम सोनितपुर में हल जेकरा आजकल लोग सोनपुर कहऽ हथ ।

बाणासुर रोज दिन बाबा सिद्धेश्वर नाथ के पूजा करऽ हलन । एकरा खातिर ऊ एगो सुरंग के निर्माण सोनितपुर से बराबर तक करवैलन हल । यहीं पर बाणासुर के लड़की ऊषा आउ भगवान श्रीकृष्ण के बेटा प्रद्युम्न के बिआह के लेके श्रीकृष्ण आउ बाणासुर में भीषण लड़ाई होयल हल । बाणासुर के मदद स्वयं भगवान शंकर करलन हल । ई लड़ाइये के बीच में श्रीकृष्ण एगो बात बतिअयलन कि बाणासुर राक्षस हे, एकरा अपने के मदद न करे के चाही । तब शंकर जी आउ श्रीकृष्ण युद्ध क्षेत्र में ही अप्पन भक्त के महत्त्व खातिर बाणासुर से वचन मांगलन । ओहे घड़ी से बाणासुर के नाम पर पहाड़ी के नाम बाणावर पड़ल आउ बाद में बराबर कहावे लगल ।

लेकिन इतिहासकार ई बात से संतुष्ट न होवऽ हथ । इनका अनुसार एकर उत्पत्ति ई॰पू॰ तीसर शताब्दी में सम्राट् अशोक के काल में मानल जा हे । कोइ-कोई इतिहासकार एकर उत्पत्ति सातवीं शताब्दी में होवे के बात स्वीकारऽ हथ । ई पहाड़ी आउ ओकरा पर बनल सिद्धनाथ मन्दिर पटना गया रेलखण्ड के मखदुमपुर आउ बेला के बीच से पूरब दिशा में लगभग ४ मील के दूरी पर हे । उहाँ हथियाबोर बावनसीढ़ी आउ पतालगंगा के रस्ता से लोग ऊपर जा हथ । पतालगंगा पहाड़ी के अन्दर से एगो झरना झरइत रहऽ हे, जेकर पानी नीचे आके एगो जलकुंड में जमा होइत रहऽ हे । ध्यान न देवे के चलते कुंड आजकल मट्टी से भरल हे । जनश्रुति के अनुसार एकर जल पवित्तर समझ के सिद्धेश्वर नाथ पर चढ़ावल जाहे ।

बराबर पहाड़ी के नीचे दक्खिन आउ पूरब के कोण पर सतघरवा नाम के गुफा हे जे पुरातात्त्विक विचार से महत्त्वपूर्ण मानल जाहे । प्रसिद्ध लोमश ऋषि के गुफा भी यहीं पर हे । सतघरवा के पूरा घेरा ५०० फीट लम्बा, १२० फीट चौड़ा आउ ३५ फीट ऊँचा हे । एकरा में कारीगरी के उत्कृष्ट नमूना देखते बनऽ हे । २७२ ई॰ पूर्व समय लोमश ऋषि के मानल जाहे । एकरा पर हथियो के चित्र छत पर अलंकृत हे । यहीं पर सुदामा गुफा भी हे । एकर निर्माण सम्राट् अशोक २५७ ई॰ पू॰ में अप्पन राज्य के बारहवाँ बरस में संत महात्मा के ठहरे ला करैलन हल । एही कारण हे कि एकरा 'संत घर' कहल जाहे । आजकल अपभ्रंश के रूप में लोग एकरा सतघरवा कहऽ हथ ।

लोमश ऋषि गुफा आउ सुदामा गुफा के विपरीत दिशा में कर्ण के झोपड़ी हे । ई १० फीट ऊँचा, ३५ फीट लम्बा आउ ६ फीट मोटा देवाल से घिरल हे । इहाँ से एक किलोमीटर पर नागार्जुन पहाड़ी हे, जेकरा में वेदायिक आउ वापयायिक गुफा हे । एकर निर्माण अशोक के ज्येष्ठ बेटा दशरथ २३७ ई॰पू॰ में करैलन हल ।

ई सब धार्मिक आउ ऐतिहासिक तथ्य के बावजूद पर्यटक के ठहरे लागी आउ उनकर सुरक्षा के प्रबन्ध ला कोई खास इन्तजाम न हे । जिला प्रशासन के ध्यान देवे के चाही । दूसर समस्या ई हे कि क्रैशर वाला लोग एकर अस्तित्वे खतम करल चाहऽ हथ । उनकर गतिविधि पर रोक लगावे के चाही । सरकार के तरफ से बंगला आउ पेय जल व्यवस्था होयल हे । एकरा आउ आकर्षक बनावे ला जनता के सहयोग लेवे के चाही आउ जनता के भी कर्तव्य हे कि प्रशासन के मदद करे । तबे ई महान पर्यटन केन्द्र, ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक आउ धार्मिक धरोहर के दर्शन करके लोग गद्गद् आउ निहाल भी हो जयतन ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-५, अंक-१२, दिसम्बर १९९९, पृ॰१३-१४ से साभार]

Saturday, October 10, 2009

5. हैसियत

लघुकथाकार - डॉ॰ अभिमन्यु प्रसाद मौर्य

शिवनाथ जी आज बहुत खुश हथ । अप्पन लंगोटिया इयार शम्भु जी के मोटर कार पर कपड़ा बजार जाइत हथ ! रस्ता में शम्भु जी पूछ बइठलन - "सब ठीक ठाक हो गेलई हे न शिवनाथ भाई !"

"हँ शम्भु भाई ! सब तय हो गेलई हे । आठ भर सोना, एगो मोटर साइकिल, कलर टीवी, फ्रीज के अलावे डेढ़ लाख नगद देवे ला हई । एकरा अलावे दरवाजा के शोभा में बाजा-बत्ती हमरे करे ला हे ।"

शम्भु जी कहलन - "इंजीनियर लड़का के एतना से कम का देबहू ?"

शिवनाथ जी हामी भरलन - "एही से तो हम एतना देवे ला तइयारो हो गेली । आज लड़का के पसन्द से कपड़ा दिलावे जाइत ही ।"

दुन्नो इयार के हथुआ मार्केट पहुँचला के बाद लड़का अप्पन बाबूजी के जौरे रिक्शा से उतरलन । राम सलाम भेल । चारो एगो निमन होटल में बइठ के नश्ता कैलन । फिन एगो बड़का कपड़ा दोकान में घुसलन तब दू घंटा के बाद खरीदारी करके निकललन । बारह हजार रुपइया के कपड़ा किनाएल ।

शिवनाथ जी एगो खाली रिक्शा पर कपड़ा के पैकेट रख के चालक के कहलन - "बाबू लोग के पोस्टल-पार्क पहुँचा देहू ।"

लड़का के बाबूजी कहलन - "शिवनाथ बाबू ! अभी लड़की के कपड़ा लेवे ला तो बाकिये हे ।"
शिवनाथ जी हड़बड़ायल बोललन - "ऊ सब जनानी लोग के काम हे । अपने के घरुआरी हइए हथन । ओही अप्पन पसन्द से कीन लेतन ।"
"से कइसे होयत ? लड़की के कपड़ा भी अपने कीन के हमरा दे दीं । कन्या निरीक्षण में हम ओही चढ़ा देम ।"

अबकी शम्भु बाबू चउँक गेलन । कहलन - "लड़का के कपड़ा हमनी देली, से तो ठीक हे बाबू साहेब ! बाकि लड़की के कपड़ा तो अपने के देवे पड़त । एही रेवाज हे ।"

"हम ई सब कुछ न जानी । हम खाली लड़का लेके बरात में चल आयम । बेटी-दमाद के का देवे ला हे, से अपने समझीं ।"

शम्भु जी कुछ कहतन हल, ओकरा से पहिलहीं शिवनाथ जी हाथ जोड़ के लड़का के बाबूजी से कहलन - "अपने जब अइसन बात कहइत हथिन तब तो हमरा बुझायत हे कि ई बियाहे न होयत ।"

शम्भु जी फिन चउँकलन आउ शिवनाथ जी के समझावे लगलन - "ई का कहइत ह शिवनाथ भाई ! लड़की के कपड़ा में पाँच हजार से जादे नऽ लगतवऽ ।"

"बात खाली पाँच हजार रुपइया के नऽ हई शम्भु भाई ! हम सोचइत ही कि हमरे देवल डेढ़ लाख रुपइया में से जउन हम्मर बेटी पर एतनो खरचा न कर सकऽ हे, ऊ परिवार के हैसियत दरअसल डेढ़ लाख दहेज के लायक हइये न हे ।"

शम्भु जी उनका समझावे के अन्तिम प्रयास केलन - "कोई भी निरनय जल्दीबाजी में न लेवे के चाही ।"

"हम कोई आवेश में ई निरनय न ले रहली हे । हम सोच-समझ के ई कदम उठावइत ही । विचार करे के बात ई हे कि जउन लोग बियाहो में अप्पन पुतोह के एगो साड़ी नऽ दे सकऽ हथ, उनका हीं रह के तो हम्मर बेटी जिनगी भर कपड़ा ला तरस जायत ।" एतना कह के शिवनाथ जी रिक्शा पर से कपड़ा के पैकेट उठयलन आउ शम्भु जी के कार में रख देलन ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰९-१० से साभार]

4. सच के जाँच

लघुकथाकार - कृष्ण कुमार भट्टा

गाड़ी जइसहीं नवादा टीसन से खुलल, हम्मर नजर एगो कड़कड़िया सौटकिया नोट पर पड़ल । अभी हम ओकरा उठावे ला करिये रहली हल कि एगो अदमी के लात से ठेला के ऊ आउ करगी लग गेलथूक बिगे के बहाने हम ऊ नोट उठा लेली । सोचली के जेकर होयत ऊ बेचारा के नींद न आयत, ई लागी ठीक पहचान करके ई रुपइया दे देवे के चाही ।

हम्मर दिमाग में एक बात आयल, फिन हम सौ के नोट जेभी में रखके पचसटकिया कड़कड़िया नोट निकाल के सभे से कहली - "भाई जी, ई रुपइया किनकर हे ?"
तीन चार अदमी कहे लगलन - "हम्मर हे ! ई नोट हम्मर हे ।"
हम कहली -"केकरो भी होयत, त एक्के अदमी के न होयत ? सच-सच बोलऽ, त रुपइया दे देबुअ ।"

बाकि ऊ सब अप्पन दावा पर अड़ल हलन ।

एतने में एगो अदमी जे दूर में बइठल हल, धड़फड़ायल अयलक, बाकि नोट देख के चुप हो गेल ।

हमहीं उनका से पुछली - "का भाई जी, ई नोट तोहरे हवऽ का ?"
ऊ अदमी कपस के कहलक - "न भाई जी ! ई नोट हम्मर न हे । हम्मर नोट सौटकिया हेरायल हे आउ ई पचसटकिया हे ।"

बस, जेभी से सौटकिया नोट निकाल के ऊ अदमी के देके सभे से कहली - "भाई साब ! ई नोट इनकरे हे । काहे कि नोट पचास के नञ, सौ के मिलल हमरा । हम तो सब के जाँच करे के खातिर ई चाल चलली हल ।" सब लोग के मुड़ी लाज से झुकल रह गेल ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰८ से साभार]

Friday, October 09, 2009

3. बोझ

लघुकथाकार - अशोक कुमार भास्कर

रश्मि सत्तर रुपइया के एगो किताब लेके एक सौ रुपइया के नोट दोकानदार के देलक । दोकानदार रसीद आउ पचास रुपइया के एगो नोट बढ़ा देलक । रश्मि हड़बड़ी में बाकी तीस रुपइया समझ के चल आयल ।

ओकरा ऊ घड़ी एगो झटका लगल जब लौज में आके देखलक कि दोकानदार तीस रुपइया के जगह पर पचास के एगो नोट दे देलक हल । जब ऊ लौज के सभे सहेली से ई बात कहलक तब सभी खुशी से उछल पड़लन । ऊ लोग रश्मि से कहलन, "एकरा में से कुछ खरचा-पानी कर ।"

लेकिन रश्मि के ई बात पसन्द न आयल । ऊ छो-पाँच में पड़ गेल । समझ में न आ रहल हल कि कउची करे आउ कउची न करे । ऊ रुपइया ओकर मन में पहाड़ नियन बोझ बनल हल ।

रश्मि ऊ रुपइया लउटा देवे ला सोच लेलक । हलाँकि पइसा के बहुत कड़की चल रहल हल, तइयो दूसरका दिन सबेरहीं ऊ दोकान पर पहुँच गेल, जहाँ से कल्हे किताब ले गेल हल । देखलक कि ओही बूढ़ा दोकान खोलले बइठल हे । रश्मि जइतहीं कहलक - "का बूढ़ा बाबा ! दोकान चलावे के हो कि एकर भट्ठा बइठा देवे के हो ?"

बूढ़ा दोकानदार तनी-मनी सकल चीन्ह रहल हल । लेकिन ऊ बात ओकर भेजा में न अँट रहल हल । ओकर जवाब न मिलला पर रश्मि फिन कहलक -"कल्ह जउन किताब ले गेलियो हल, ओकरा में तूँ बीस रुपइया जादे देलऽ हल । लऽ ! पकड़ऽ अप्पन बीस रुपइया ।"

बूढ़ा दोकानदार के ई समझ में न आ रहल हल कि ई जुग में अइसन नेक सोचे वला कन्ने से निकल गेल । बूढ़ा एक टक से रश्मि के निहारइत रहल आउ रश्मि पइसा देके अप्पन मन के बोझ उतार लेलक । रश्मि के चेहरा पर आत्मसन्तोष साफ झलक रहल हल ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰२८ से साभार]

Thursday, October 08, 2009

11. घृणा के अंत

कहानीकार - सच्चिदानन्द प्रसाद

हरि महतो जब अप्पन पुरान मट्टी के घर के मरम्मत करे ला सोचलन, तब उनकर पत्नी कहलन, "बनावते ह, त मजबूत पक्का के मकान काहे न बना लेहऽ ?"

हरि महतो सोचलन, "ठीक हे, हम ईंटे के मकान बनावऽ ही !"

ओकर बाद से हरि महतो रुपइया के जोगाड़ करे में लग गेलन । बड़ी मुश्किल से उनका आफिस से दस हजार रुपइया करजा मिल गेल । लेकिन जब घर बनावे में हाथ लगैलन, तब उनकर सामने रहे वला मँगरू गड़ेरी से बरदास्त न होयल । ऊ न चाहऽ हल कि ओकर घर के सामने कोई पक्का के मकान बनावे । आउ हरि महतो से तो मँगरू के पुराना दुश्मनी हल । जब से हरि महतो ई घर खरीदलन हल तबे से मँगरू भगत के मन में इनका प्रति घृणा के भाव भर गेल हल । मँगरू भगत आउ उनकर जात बेरादरी के लोग ई बात से बहुत दुखी हलन कि गड़ेरी के घर महतो खरीद लेलक । आज जब हरि महतो काम लगैलन तब मँगरू के फिर मोका मिलल तंग करे के ।

मकान बनावे में अड़ंगा लगावे के विचार से मँगरू हरि महतो से कहलन, "तूँ अप्पन घर के नींव इहाँ से छौ फीट पीछे हट के दे ।"
एतना सुन के हरि महतो कहलन, "काहे ? हम छौ फीट पीछे काहे हटीं ?"
तब मँगरू भगत कहलन, "इहाँ से तूँ अप्पन घर के नींव देबऽ तब हम्मर आलिशान मकान के शोभा बिगड़ जायत । हम चाहऽ ही कि हम्मर घर के सामने कम से कम बीस फीट फैल रस्ता रहे ।"
"ई कइसे होतवऽ भगत जी ! तूँ तो अप्पन ईंचे-ईंच जमीन में घर बना लेलऽ आउ गली में सीढ़ी बना लेलऽ । जहाँ पर हम अप्पन घर के नींव दे रहली हे उहाँ से भी आठ फीट जमीन हम्मर रस्ता में जा रहल हे ।" - हरि महतो जवाब देलन ।

हरि महतो के बात सुनके मँगरू भगत के गोस्सा आ गेल । ऊ गरजलन, "अरे हरिया ! तोरा एतना हिम्मत हो गेलउ कि तूँ हम्मर बातो काट देले आउ हमरे बेईमान बनावऽ हें । देखऽ हिहउ कि तूँ कइसे घर बना लेहें ।"

हरि महतो आउ मँगरू भगत के तूँ-तूँ मैं-मैं के शोरगुल से गाँव के आउ लोग जमा हो गेलन । भीड़ इकट्ठा हो गेल । एतने में गड़ेरी जात के नेता समझू भगत भी उहाँ आ गेलन । समझू भगत महाधूर्त आउ ईर्ष्यालु प्रकृति के आदमी हथन । उनकर प्रबल इच्छा रह़ हल कि गाँव के कउनो आदमी न विकास करे, न हम्मर परिवार से जादे पढ़े-लिखे आउ न ही कोई के पास हमरा से जादे धन-दौलत होवे । मँगरू के प्रगति भी समझू के आँख के किरकिरी बनल हल । समझू सोचइते हलन कि मँगरू के कउन झंझट में फँसा के कंगाल बनावीं आउ आज मौका मिलिये गेल ।

समझू भगत भीड़ चीर के आगे अयलन आउ दुन्नो के समझावे लगलन । समझू के बात सुने आउ समझे ला कोई तइयार न हलन । लड़ाई बढ़ते जाइत हल । इहाँ तक कि बाता-बाती से लड़ाई बढ़ के हाथा-पाई पर आ गेल । समझू भगत कुछ आउ लोग के सहयोग से झगड़ा जे शांत कराके मँगरू भगत के अप्पन घरे ले गेलन ।

दूसरा दिन गड़ेरी जात के सभा होल । ओकरा में समझू भगत अध्यक्ष पद से बोले ला शुरू कैलन, "हम सब आज एगो बड़ी गम्भीर मसला पर बात करे ला इहाँ बइठली हे । हरि महतो जहाँ से अप्पन घर के नींव दे रहलन हे, उहाँ से घर बनला पर कुइयाँ आउ मंदिर तक जाय के रस्ता बहुत पतला हो जायत । हम सब मिल के उनका मकान बनावे से रोके ला सोचली हे । मामला थाना में दे देवल जाय । ई लागी एगो दरखास्त दरोगा बाबू के नाम लिखल गेल हे । अपने सबसे हम्मर आग्रह हे कि सब कोई ई दरखास्त पर दस्तखत कर दऽ ..." ।

बीचे में एगो समझदार युवक खड़ा हो के बोलल, "हरि महतो के साथ ई व्यवहार करला पर उनका साथे बहुत अन्याय हो जायत काका ! हरि बाबू समय पड़ला पर हमनी के बहुत काम अयलन हे । इहाँ तक कि मधेसर भगत के नौकरी भी लगवा देलन आउ बहुत लइकन के पढ़े-लिखे में भी सहायता कैलन हे ।"

"अबे, चुप रह ! तोर जइसन लोग तो हरिया के सिर पर चढ़ा देलक हे, न तो ओकरा एतना हिम्मत हल कि ऊ हमरा से हाथापाई कर लेत हल ?" मँगरू तैस में आके बोललन आउ ऊ लड़का के जबरदस्ती बइठा देलन ।

"समझू भइया ठीक कहइत हथ ।" जब मँगरू ताव देलन, तब बइठक में बइठल सब लोग दरखास्त पर दस्तखत कर देलन । दरखास्त थाना में दे देवल गेल ।

X X X X X X X X X

हरि महतो के मकान में काम तेजी से लगल हल । आज तीसरा दिन काम चल रहल हल आउ उधर आज फिर समझू भगत के दलान में गड़ेरी समाज के बइठक लगल हल । समझू भगत कहे लगलन, "भाई लोग ! आज हमनी ई स्थिति में आ गेली हे कि अगर चाहीं त हरिया के घर-दुआर उखार के गाँव से बाहर फेंक दीं । लेकिन पहिले हमनी ओकरा समझायम । जब न मानत तब हरिया आउ ओकर परिवार के हमनी मिल के खूब पीटम ।"

आपस में राय मशविरा करके समझू, मँगरू आउ झलकू पहिले हरि महतो के दुआरी पर पहुँचलन आउ मीठा शब्द में बोललन, "हरि भाई ! तूँ तो जानइते हऽ कि आगे कुइयाँ आउ मंदिर हे, जहाँ गाँव घर के लोग स्नान-ध्यान करे जा हथ । अगर इहाँ से घर बनयवऽ तब आवे जाय के रस्ता पतला हो जायत आउ सबके आवे-जाय में दिक्कत होयत । येही से हम तीनो कहे अइली हे कि इहाँ से छौ फीट पीछे हटके अप्पन घर बनावऽ ।"

"समझू जी ! अपने गड़ेरी जात के मानिन्दा अदमी ही । हब अपनहीं बतातिन कि जब हम्मर ई मकान मेम अब तक चार हजार रुपइया खरच हो गेल हे तब तो पीछे घसके से हमरा केतना घाटा हो जायत ? जहाँ तक रस्ता के सवाल हे, तब इहाँ से भी चउदह फीट रस्ता बचल हे । हमरा साथे उचित न्याय करूँ ।" - हरि महतो भी मोलायम होके बोललन ।
हरि महतो के बात सुनइते समझू तुरन्त कहलन, "तब हम्मर एही फैसला हवऽ कि तूँ छौ फीट पीछे हटके घर बनावऽ ।"
"ई तो हमरा साथ सरासर अन्याय हे समझू बाबू ! हम ई बात माने ला तइयार न ही ।"
"समझू भइया के बात न मान के तूँ अच्छा न करइत हें हरिया ! इनकर बात मान ले, न तो बड़ी पछतावे पड़तउ ।" - मँगरू बीचे में टपक गेल ।
"बात जादे बढ़ावे के कोई जरूरत न हे मँगरू भाई ! हमनी फिर से ई मुद्दा के ऊपर सोच विचार करके आयम ।" कहते तीनो चल गेलन ।

समझू के दलान पर युवा दल के सभे सदस्य जमा हइये हलन । मौका से लाभ उठाहीं लेवे में समझू भगत मुनासिब समझलन । युवा दल के सम्बोधित करके कहे ला शुरू कैलन, "हरिया हमनी के बात न मान के हम्मर समाज के बड़ी अपमान कैलक हे । ई बेइज्जती बरदास्त के बाहर के बात हे । ई मुद्दा पर गम्भीरता से विचार कैला के बाद हम युवा दल के नेता आउ सदस्य गण के आवाहन करइत ही कि तूँ लोग हरिया के दिमाग ठीक करे के प्रयास करऽ !"

समझू भगत के ई समझावल युवा दल के नेता आउ सदस्य गण के नासमझ बना देलक । ई लोग आव देखलन न ताव, तुरन्त हरि महतो के दरवाजा पर हंगामा करे लगलन आउ मजूरा मिस्त्री के मारे पीटे लगलन ।

हरि महतो के ई घटना के अंदेशा हल, काहे कि इनका बैठक में लेवल गेल निरनय के पूरा जानकारी मिल गेल हल । एही से ऊ भी बीस-तीस लठैत जवान चुपके से अप्पन घर में बोला के रखले हलन । जब उनका से बरदास्त न होयल, तब अप्पन अदमी के बोलैलन आउ कहलन, "देखऽ हम्मर जवान ! एक्को दुश्मन बच के न जाय । जेतना चाहऽ ओतना ई लोग के पीटइत जा ।"

मार-पीट जम के होयल । दुन्नो तरफ के पिटैलन, लेकिन युवा दल के सदस्य के जादे मार पड़ल । ई झगड़ा में मँगरू के बेटा के माथा फूट गेल । ओकरा बेहोश हो के गिरते सब भाग खड़ा होलन । पुलिस आयल आउ केस हो गेल । ई झगड़ा के चलते हरि महतो के घर तो न बनल, लेकिन करजा के पइसा केस लड़े में काम जरूर आ गेल ।

मँगरू के बेटा के माथा के घाव तो ठीक हो गेल, लेकिन ऊ पागल हो गेल । अप्पन बेटा के पागलपन के इलाज में मँगरू दर-दर भटकइत चललन । एक तो मोकदमा के करजा, ऊपर से बेटा के इलाज । कुल मिला के मँगरू के कुल जमा पूँजी खरच हो गेल । बेचारा के करजा लेवे के बारी आ गेल । मन मार के मँगरू आखिर समझू भगत के इहाँ करजा ला पहुँचहीं गेलन । समझू पाँच सौ रुपइया देके कहलन, "जरूरत पड़ला पर आउ रुपइया माँग लिहऽ । हिचकिचइहऽ मत ।"

जब उधार के रुपइया लेके मँगरू चललन तब उनका अप्पन दुर्दशा के अनुभव होयल । आज से पहिले मँगरू कोई के सामने हाथ न फैलैलन हल । ई झगड़ा में युवा दल के जउन-जउन सदस्य पड़लन, उनकर पढ़ाई-लिखाई तो छूटिये गेल, केस मुकदमा में भी काफी खरचा भेल । ई लोग भी सूद पर समझू भगत से करजा लेके केस मुकदमा से छुटकारा पयलन ।

X X X X X X X X X

समझू के आँख मँगरू के आलीशान मकान पर पड़ल हल । ऊ ई मकान के हड़पे के उपाय सोचइत हलन कि एतने में झलकू आ गेलन । झलकू के देखते समझू के आँख में चमक आ गेल । झलकू के कुरसी पर बइठा के चाह-पानी मँगैलन आउ अप्पन कूटनीतिक चाल के पहिला तीर छोड़लन, "गाँव घर के का हाल-चाल हे झलकू भाई ?"

"अइसे तो सब ठीक-ठाक हइ भइया ! लेकिन एगो बात हमरा समझ में न आवइत हे कि एतना कुछ करला पर भी हरिया के अइंठन न गेल । अबहियों ऊ ओइसहीं टेढ़िया के चलइत हे ।"
समझू कहलन,"अगर तूँ चाहबऽ झलकू भाई, तब हरिया के घमंड जरूर चूर हो जायत ।"
"से कइसे भइया !" झलकू तपाक से पूछलक ।
"एकरा लागी तोरा हरिया के विरोध में एगो झूठा गवाही देवे पड़तो ।" समझू अप्पन समझ के परिचय जब देलन तब झलकू झूठा गवाही देवे ला तइयार हो गेलन ।

झलकू के झूठा गवाही रंग लैलक । हरि महतो के एक साल के सजाय हो गेल । उनका जेल जाइते समझू भगत के सलाह पर मँगरू अप्पन तीन-चार अदमी के साथ एक दिन रात में हरि महतो के घर पर धावा बोल देलन । हरि महतो के दुन्नो बेटा घरे में हलन, से मुकावला तगड़ा हो गेल । एही बीच मँगरू के पगला बेटा भी उहाँ आ गेल । हरि महतो के छोटका बेटा अइसन लाठी मारलक कि मँगरू के बेटा सोमनाथ माथा धर के बइठ गेल । ई देखइते मँगरू के गुस्सा बढ़ गेल । ऊ तुरंत तमंचा निकाल के हरि महतो के छोटका बेटा के गोली मार देलन । गोली छूटइते समझू भगत पुलिस लेके घटना स्थल पर पहुँच गेलन । सब धरा गेलन ।

हत्या के जुर्म में मँगरू भगत के उम्र कैद के सजाय हो गेल । जब मामला ठंढा हो गेल, तब एक दिन समझू भगत सोमनाथ के एगो कागज देके कहलन, "जे उचित समझऽ से करऽ ।"
कागज के देखतहीं सोमनाथ के होश उड़ गेल । ओकरा समझ में आ गेल कि समझू भगत के समझ केतना खतरनाक हे । दरअसल समझू भगत मँगरू से जेल जाय के पहिले लिखवा लेलन हल कि हम तीस हजार रुपइया करजा दे पावे में असमर्थ ही, अगर हम्मर बेटा भी करजा उतारे में असमर्थ हो जायत तब तूँ हम्मर मकान के मालिक हो जयबऽ ।

X X X X X X X X X

हरि महतो आउ मँगरू भगत जेल में पत्थर तोड़इत-तोड़इत एकदम से टूट गेलन हे । बेटा से मकान वला बात सुन के मँगरू के रहल-सहल गरूर भी टूट गेल काहे कि उनकर आलिशान मकान के मालिक समझू भगत बन गेलन हल । एक दिन दुपहरिया के खाना खयला के बाद मँगरू दुखी मन से हरि महतो के पास पहुँचलन आउ उनकर पैर पकड़ के फूट-फूट के रोवे लगलन ।

हरि महतो व्यंग्यात्मक लहजा में बोललन, "का होलवऽ मँगरू भाई ? हम्मर बेटा के मार के भी तोर दिल में ठंढक अभी न पहुँचल हे ? आउ कुछ कसर बाकी रह गेल हवऽ त ओहू दूर कर लऽ हमरा मार के ।"

"धन जन के मदान्धता मानवता के विनाश के कारण बनऽ हे हरि भाई ! ई बात आज अच्छा से समझ गेली हे । हमरा अप्पन धन, जन, गोतिया, भाई आउ जात बेरादरी पर बहुत घमंड हल । एकरे जोर पर हम तोरा धूल-धूसरित करल चाहइत हली । लेकिन तोरा बरबाद करे के चक्कर में हम लुटा गेली । समझू पर हमरा बड़ी भरोसा हल, लेकिन ऊ हमरा लूट के आउ उलटे छूरा से मूड़ लेलक ।" मँगरू अप्पन आँसू पर काबू पावे के कोरसिस करइत-करइत कहलन ।

"का हो गेलवऽ मँगरू ? समझू भगत के आज तूँ शिकायत काहे करइत ह ?"

"समझू के बात मान के हम तोर घर पर चढ़ाई करे गेली आउ हम्मर हाथ से तोर बेटा के हत्या हो गेल । इहाँ हम जेल में पत्थर तोड़इत ही आउ आज समझू हम्मर मकान के बाजाप्ता मालिक हो गेल । समझू हम्मर सब धन हड़प गेल आउ तोर हँसइत खेलइत परिवार पर वज्रपात कर के हमनी दुन्नो के जिनगी वीरान खंडहर में बदल देलक । हम तोरा साथ जे जघन्य अपराध कइली हे, एकरा लागी तोरा से माफी माँगे के लायक तो न ही, लेकिन तइयो हरि भाई, हम एतना निर्लज्ज ही कि तोरा से माफी माँगे में तनिको शरमाइत न ही ।" एतना कह के मँगरू फिर से फूट-फूट के रोवे लगलन ।

सब बात सुन के हरि महतो के हिरदय द्रवित हो गेल । पैर पर गिरल मँगरू के उठा के गला से लगा लेलन आउ कहलन, "आज हमनी के दिल मिल गेल मँगरू भाई ! हमरा अब तोरा से कोई शिकायत न हे ।"

आज प्रेम रूपी निर्मल गंगा जल से दुन्नो के मन के घृणा रूपी मैल धुल गेल हल । ई लोग के देख के लगइते न हे कि ई दुन्नो कभी एक दूसर के दुश्मन हलन ।

--- अध्यक्ष, रसायन विभाग, पी॰एन॰के॰ कॉलेज, अछुआ, पालीगंज, पटना

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१, अंक-४, अक्टूबर १९९५, पृ॰१५-१९ से साभार]

Sunday, October 04, 2009

10. गोस्सा के फेर में

कहानीकार - रामशरण प्रसाद मेहता

भादो के महीना हल, घुच-घुच अँधरिया । हाथो न लउकऽ हल । बाकि ताव में रमेश लपकल जाइत हलन । कहीं ऊँच-नीच पर पैर पड़ जा हल तो रमेश आरी पर से धान के खेत में लोघड़ जा हलन । मन तो न करऽ हल आगे बढ़े के बाकि ससुरार के लोग से नोंक-झोंक में ऊ अधिराते में निकल गेलन हल ।

उनकर मेहरारू चंपा भी अप्पन मरद के खोजे ला चलल जाइत हल । उनकर माय-बाबूजी रोकलन, 'तूँ औरत जात होके ई अँधेरिया रात में कहाँ जयमें । कल्हे तोरा ससुरार पहुँचा देबउ ।'

रमेश राते में अप्पन घरे पहुँच गेलन । बिहाने होके उनकर ससुर चंपा के पहुँचा देलन । चंपा के देख के रमेश बजार जाय के बहाने घर से निकल जयतन हल बाकि चंपा समझ गेल आउ रमेश के पीछा धर लेलक । चंपा के पीछे-पीछे आवइत देख के रमेश उलटावे के कोशिश कैलन । बाकि चंपा लउटे ला तइयार न होलक । खीस में रमेश ओके दू-चार झापड़ जमा देलन ।

चंपा रोवइत गोसायल घरे लउट गेल आउ रमेश बजार के तरफ चल गेलन । अब चंपा घर में जाके गेहूँ में देवे वला कीटनाशक दवाई खा गेल आउ रात में स्वर्ग सिधार गेल । गाँव वला लोग मिल के राते में ओकरा जला देलन ।

कल होके ई समाचार चंपा के नइहर भेजा देवल गेल । अब का हल ? चंपा के बाबूजी थाना में जाके केस कर देलन ।

गाँव में पुलिस पहुँच गेल । जउन लोग लाश के जलौलन हल ओकरा में से कुछ लोग छुतका मेटावे ला माथा घोंटवा लेलन हल । पुलिस जेकर माथा घोटावल देखऽ हल ओकरे पक‍ड़ ले हल । अब तो जेतना लोग अप्पन माथा घोंटवैलन हल ऊ पछताय लगलन आउ कोठी में लुकायल रहऽ हलन । कउन जाने कब पुलिस आ जाय ।

अगला दिन फिर पुलिस आ गेल । एगो बूढ़ अदमी अप्पन बंगला पर बैठल हलन । उनकर लइका कहलक, 'बाबूजी ! पुलिस आवइत हवऽ । घर में चल जा ।'
बुजुर्ग कहलन, 'हम तो अप्पन लड़की के मरे के छुतका में बाल मुड़वइली हे । हमरा पुलिस का करत ।'
उनकर बेटा कहलन, 'पुलिस के का पता हे कि तूँ केकर छुतका में माथा घोंटवैलऽ हे । पुलिस के तो माथा घोंटायल के सर्टिफिकेट मिल जाय के चाहीं, फिर तो जेल में खिचड़ी पचावहीं पड़तवऽ ।'
उनका पर अप्पन बेटा के बात के कुच्छो प्रभाव न पड़ल, तो उनकर बेटा जबरदस्ती भर अकवार के उनका घर में ठेल के दरवाजा बाहर से बंद कर देलन ।

पुलिस के एक्को अदमी हाथ न लगल । ऊ दूसर नियम अपनयलक । जेकर घर में खाना में हरदी तेल नय पड़ऽ हल, ओकरा पकड़े लगल । अब जे भी हरदी तेल नय दे हल, ऊ पकड़ाय के डर से हरदी तेल भी देवे लगल । फिर पुलिस के एक्को अदमी हाथ न आयल तो अब तेसर नियम अपनैलक कि जे आदमी अप्पन घर-दुआर लीपत इया धोवत ओकरे पकड़ल जाय । अब पकड़ाय के भय से कोई भी न घर दुआर धोलक आउ न लिपलक ।

लोग के मन में भूत से जादे भय हो गेल पुलिसे से । छुतका अब ताखा पर रखा गेल हल ।

एक दिन रमेश के घर कुर्की-जप्ती के वारण्ट भी आ गेल । रमेश चाहइत हे कि केतनो रुपइया खरच हो जाय बाकि सजाय न होवे, काहे कि सजाय होला पर नौकरी खतम हो जायत । बाकि रमेश के ससुर चाहइत हथ कि कइसहूँ रमेश के नौकरी खतम हो जाय । एही चक्कर में दुन्नो तरफ से काफी पैरवी चल रहल हे ।

केस के फैसला तो बाद में होयत, बाकि गाँव पर बड़ी प्रभाव पड़ल हे । मेहरारू लोग के भाव बढ़ल हे आउ मरद लोग में सुधार होयल हे । लोग अप्पन मेहरारू के बड़ी परेम से रखऽ हथ । लड़ाई झगड़ा के नौबत से दूर रहे ला चाहऽ हथ । मेहरारू पर तनिको रोब न जमावऽ हथ । सोचऽ हथ कि एगो के अभी औरत के मारे के फेर में छुटकारा न होयल हे, अइसन न कि दूसर केस हमर घर में हो जाय ।

[ मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-२, अंक-१, जनवरी १९९६, पृ॰१५-१६ से साभार]

Friday, October 02, 2009

3. वोट न देबो नेताजी !

कवि - उमेश प्रसाद 'उदय'

रोज नया मुद्दा अपना के गली-गली में टहलऽ हऽ !
वोट न देबो नेताजी, नित-दिन दल तूँ बदलऽ हऽ !

गोली, बम, बारूद ढेर के ढेरे हम जुटइली हल ।
बूथ-बूथ पर पुलिस भाई से लाठी भी हम खइली हल ।
विधान सभा आउ संसद में बइठल रसगुल्ला छीलऽ हऽ ।
वोट न देबो नेताजी, नित-दिन दल तूँ बदलऽ हऽ !

काँग्रेस से जनता दल, जनता दल से तूँ बसपा में,
हिन्दु के बिगुल बजत तब दउड़ल जयबऽ भाजपा में ।
ई पलड़ा से ऊ पलड़ा पर करके हमरा छलऽ हऽ !
वोट न देबो नेताजी, नित-दिन दल तूँ बदलऽ हऽ !

पहिन के खादी धोती कुरता, आवऽ ह तूँ कार पर ।
किसिम-किसिम के किरिया खाके रखलऽ हाथ मजार पर ।
ई घर में हवऽ तोहर जड़, ऊ घर में तूँ पलऽ हऽ !
वोट न देबो नेताजी, नित-दिन दल तूँ बदलऽ हऽ !

लूट-पाट, हिंसा, अपहरण अइसन-अइसन काम हे ।
राजनीति के तिकड़मबाजी दुनिया में बदनाम हे ।
खून चूस के, देश बेच के, रावण बन के पलऽ हऽ !
वोट न देबो नेताजी, नित-दिन दल तूँ बदलऽ हऽ !

केकर-केकर नाम धरूँ हम, सभे के ई चाल हे ।
आज के अइसन नेता से हम्मर देश बेहाल हे ।
भाषण में जनहित वाणी, शासन में तूँ छलऽ हऽ !
वोट न देबो नेताजी, नित-दिन दल तूँ बदलऽ हऽ !

[ मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-२, अंक-३, मार्च १९९६, पृ॰५ से साभार]

9. साली के बरतुहारी

कहानीकार - सुरेन्द्र कुमार जमुआर

अइसे तो हमरा अप्पन बहिन, भगिनी आउ भतीजी के बरतुहारी करे के मौका मिल चुकल हे, बाकि अप्पन एगो साली के बिआह ला बरतुहारी करे में तो गजबे के अनुभव होल हे । हालाँकि हम्मर अप्पन, चचेरी, ममेरी आउ फुफेरी साली के संख्या बीस से कम नऽ हे, बाकि हम आज तक खाली अप्पन दू गो साली के बिआह ला बरतुहारी कयले ही । बाकी दू गो साली के बिआह ला हम्मर ससुर जी के ओतना दउड़े-धूपे नऽ पड़ल । बड़ा आसानी आउ बढ़ियाँ से बिआह हो गेल । हम्मर तेसरकी साली में थोड़ा-बहुत परेसानी जरूर होल, मगर हम्मर चौठकी साली नियन ओतना दउड़े-धूपे नऽ पड़ल । चार-पाँच तुरी तेसरकी साली के बरतुहारी में जाय पड़ल ।

एक रोज के बात हे कि साँझ के लड़का वाला के इहाँ बइठकी जमल, ऊ भी तीन-चार घंटा । लड़का वाला के तरफ से जब रंग-बिरंग के फरमाइस होवे लगल तब हमर मिजाज जरूर गरमायल, बाकि जाहिर होवे नऽ देली । हम्मर ससुर जी निहायत सीधा-सपाटा आदमी हथ । उनका कुच्छो माँग होवे पर "नऽ" कहे के हिम्मते नऽ पड़ऽ हल । हम उनखा एकरगी ले जा के कहली कि 'माँग ओतने मानल जाय, जेतना हमनी सब के अउकात हे, आउ जेकरा पूरा करे के सौख रखऽ ही ' । आपस में सलाह करके हम दुन्नो फिन सबके सामने अयली । हमनी सबके पार्टी में हम्मर बूढ़ा ददिया ससुर जी, दुन्नो साढ़ू आउ एगो सयान साला सामिल हलन । लड़का वाला के पार्टी के तरफ से जब अंधाधुंध माँग होवे लगल, तब हमरा, अपन समाज आउ बिरादरी पर बड़ा दुख होल आउ गुस्सा भी आयल । तइयो, हम बड़ा परहेज करके जवाब देली कि दुनियाँ में चीज के कमी नऽ हे । माँग तो ढेरो कैल जा सकऽ हे । ओकर कौनो अंत हे ? बाकि लड़की वाला कौ मजबूरी भी तो समझे के चाही । हम फिन कहली कि 'हम्मर ससुर जी के छौ गो लड़की आउ चार गो लड़का हे । तीन लड़की के बिआह बढ़ियाँ से कर देलन आउ बाकी तीनों के बिआह भी सुन्दर ढंग से करतन । हमर ससुर जी से जे बन पड़त, जरूर पूरा करतन । हम अप्पन बिआह के इयाद करित कहली कि "जब हम्मर बिआह के बात चलित हल, तब हम्मर बाबूजी इया मइया, कुच्छो चीज ला, मनमाना फरमाइस नऽ करलन हल । जे मिलल से हँसी-खुसी मंजूर कर लेलन । घड़ी खरिदावे ला हम्मर ददिया ससुर खुद अपने साथे बजार ले गेल हलन । हम अपने संगे एगो भाई के भी ले लेली हल । हम कम दाम वाला घड़ी पसन्द कैलूँ, हालाँकि हम्मर भाई भारी दाम के घड़ी खरीदे ला जोर देलक हल । पर हम अप्पन बात पर अड़ल रहलूँ । हमरा ला नीमन साइकिल खरीद के रखा गेल हल । जब हमर ससुराल वालन के मालूम होल कि हम साइकिल चलावे नऽ जानऽ ही, तब हमरा साइकिलो नऽ मिलल । तइयो हम कुछ नऽ कहली । खीर खाए के बेरा आयल, तब हम बिना रुसले-फुसले खा लेली , हालाँकि ऊ घड़ी हमर एगो ममेरा बड़ा भाई, जे हमरा साथे बइठल हला, हलके सनी चिकोटी काट के, कनखी मारके, आउ कान में फुसफुसा के कहलका हल कि बिना फर्स्ट क्लास सोना के अँगूठी लेले खीर मत खइहें । जब हम ई संस्मरण सुनैली तब लड़कावाला के पार्टी में थोड़ा मोलाइमियत आयल, माँग कुछ कम होल आउ बिआह तय हो गेल ।

अब हम अप्पन चउठकी साली के बिआह ला बरतुहारी के अनुभव सुनावइथी । इनखर बरतुहारी में बहुत जगह जाय के मौका मिलल । बाकि दू जगह तो बड़ा अद्भुत अनुभव होल । एगो जगह जब बातचीत चलित हल तब हम बातचीत के आखिरी दौर में लड़कावाला के घर पर पहुँचली । हमरा साथे हमर ससुराल के चार बेकत हलन । हमरा पहुँचे के पहिले हमर ददिया ससुर आउ फुफेरा ससुर दु-तीन बइठकी लड़कावाला के इहाँ कर चुकलन हल । जब हम अप्पन साथी सब के संगे भोर सात बजे लड़कावाला के घरे पधारली तब लड़का के बाबूजी, हमनी के दरवाजा खटखटैला पर, हाथ में एगो खाली तसला लेले आउ मुँह में कूची रगड़ते, केमारी खोललन आउ बइठे ला इसारा कयलन । अँगना में मुँह से थूक-खखार फेंक के फिन ऐलन आउ ई कह के चल गेलन कि हम दू मिनट में आवइथी । ऊ झटपट हमनी के मन बहलावे ला अप्पन एगो दमाद के भेज देलका । घंटा-भर एन्ने-ओन्ने के बात होल, तब दमाद साहेब फिन अन्दर चल गेला । लड़का के पिता जी से हमरा परिचय करावल गेल । पहिले तो हम्मर ददिया ससुर जी रमायन के कुछ दोहा-चौपाई बाँचलन, दु गो उर्दू के सेर सुनौलन, आउ अँगरेजियो में दु-चार गो बात कहलन । लड़का के पिता जी हाथ चमका के आउ मुँह बिचका के कहलका - "हमरा दिमाग में ई बात के सुबहा बइठ गेल हे कि टीपन गड़बड़ हे ।" हम उनखा हर तरह से समझइली, बाकि उनखा दिमाग से सुबहा के कीड़ा नऽ निकलल । हमनी तब साफ कह देली कि खुद तकलीफ करके लड़की के देख लेल जाय, आउ टीपन पंडित जी से चेक करवा लेल जाय, तब सुबहा मिट जायत । आखिर ऊ तइयार नहिंए होलन । लाचार हमनी सब लौट अयली । एतना दिन दौड़-धूप में समय, सक्ति आउ पइसा बेकारे खरच होल । परेसानी तो होबे कैल । लोग लड़की के रूप, गुन, सुभाव का देखतन, पहिले उनका मन-लायक फैसन के रंग-बिरंग चीज होवे के चाही । लड़कीवाला पूरा करे तो करे, न तो झख मारे । इमानदारी से कमाय वाला आउ खाली माहवारी वेतन पर गुजर करे वाला आदमी अप्पन बेटी के बिआह अइसन हालत में कइसे कर सकऽ हे ? औकात रहे साढ़े बाइस, पर लड़कावाला के दिमाग, पता नऽ काहे, असमान में घुमइत रहऽ हे । दोसर जात में विवाह करे के हिम्मत होवे के चाही लड़का के मन में । हो सकऽ हे कि लेन-देन के फेर में माय-बाप अप्पन बेटा के बिआह बुढ़ौठ में रचावथ आउ बेटा के इच्छा के खेयाल तनिको नऽ करथ । अइसने एगो मजेदार किस्सा सुनावइत ही ।

चउठी साली क दोसर बरतुहारी में हमरा जे अनुभव होल, ओकरा हम जिनगी में सायदे भूलम । लगातार चार महीना लड़कावाला के इहाँ हमरा तो दउड़े के परबे करल, हमर ससुरालवाला लोग भी खूब परेसान होलका । लड़का के पता-ठेकाना हमरे एगो बहनोई से मिलल । एक दिन हम अप्पन एगो साढ़ू जौरे लड़कावाला के इहाँ पहुँचली । बातचीत होल । लड़का के पिता जी दुनियाँ-भर के लाभ-काफ बतिऔलका । कहलका कि हम्मर लड़का तो लाख में एक हे, हालाँकि ऊ अप्पन लड़का तीन महीना के बाद देखैलका । लड़का कोई खास सुन्दर आउ होनहार नऽ हल । सधारने लगल । लड़का के टीपन वास्ते उनखा घरे हमरा बीसियों दफे दउड़े पड़ल । ऊ हरसट्ठे बहाना मार दे हलन । टीपन बइठ गेल तब हम अप्पन ससुर, साढ़ू, साला, सबके लिया गेली । लड़का के बाबू, हमनी के उनखा इहाँ पहुँचे पर, सबसे पहिले घर में घुस जा हलन । ऊ दू गो बेटा रहला पर भी दोसर बीबी बियाह के ले अयलन हल, जेकर कोख से एक्को संतान पैदा नऽ होल हल । दोसरकिए बीबी के इसारा कयला पर ऊ बाहर आवऽ हलन आउ लेन-देन के बात करइत-करइत कुच्छो-कुच्छो पूछे लगी फिन अन्दर चल जा हलन । उनखर ई ड्रामा देख के हमर दिमाग में एगो घोर मउगमेहरा के तस्वीर उभर जा हल । अप्पन बीबी से मसविरा कयले पर ऊ फाइनल बात हमनी के बतावऽ हलन । अप्पन अइसन लच्छन से ऊ हमनी के बड़ा पसोपेस में डालले हलन । कौनो सवाल पर 'हँ' इया 'नऽ' ऊ साफ कहबे नऽ करऽ हलन ।

हमनी सब लड़की के फोटो तो सुरूए में दे देली हल । बाकि लड़का के फोटो देवे में ऊ एक महीना लगा देलन हल । ऊ एगो तांत्रिक बाबा के जबरदस्त भक्त हलन । ऊ ई बात भी कह देलका हल कि बिना बाबा के आसिरबाद या आर्डर के, बिआह तय नऽ हो सके हे । एही सबसे, बाद में, लड़का के बाबू हमरा बड़ा गड़बड़ आउ लीचड़ टाइप आदमी बुझाए लगलन । कभीओ कुछ, कभीओ कुछ ।

एक रोज अइसन भेल कि हमनी छेंका-रसम करे ला उनखा हीं पहुँचली । बाहर दरवाजा पर हमनी के देख के ऊ फट से अन्दर दाखिल हो गेलन आउ दू मिनट के बाद बाहर आ के, खाली हम्मर हाथ पकड़ के, घर के पिछवाड़ा वाला मैदान में ले गेलन । सब कोई उनकर ई हरकत देख के दंग हलन । खैर । बातचीत होल । ऊ अप्पन असली मंसा खोले नऽ चाहित हलन । डेढ़-दू घंटा खड़े बात होल, पूरा कसरत हो गेल । ओन्ने, दोसर दने, हमर ससुर जी अप्पन बेटा आउ दमाद के साथ सड़क पर बइठल हलन । हमनी सब खुसी में बाबा महादेव के चढ़ावल परसाद उनखा हीं ले गेली हल । ऊ बड़ा खुसामद कयला पर मीठा परसादी के पैकेट लेवे ला तइयार होलन । फिन, जब हमनी सब एकाध सप्ताह के बाद उनखा हीं गेली तो हमनी के चढ़ावल ओही परसाद ऊ हमनी खिला देलन । ई हरकत से ऊ हमरा बड़ा टोटकाबाज आउ तपाकी बुझैलन । अइसन बेपेंदी के लोटा वाला आदमी के चक्कर में पड़के हमनी के बुरा हाल हल । लड़की के बिआह के बात हल, आउ बा बहुत आगे बढ़ गेल हल, न तो उनखर हमनी के साथ जइसन सलूक होल, जीउ करित हल कि अइसन बेसर्म आउ लालची आदमी के डट के खबर लेल जाय ।

छेंका के रसम पूरा होला पर जब एक रोज अप्पन एगो छोटका साला जौरे थोड़ा एड्वांस देवे ला उनखा हीं पहुँचली तो ऊ घर पर नऽ हलन । उनखर मेहरारू बड़ा तेबर में कहलन कि 'एतना पइसा से का होयत ! तिलक के बारह आना हिस्सा एकट्ठे दे देथी तो हमरा एगो कोठरी बन जायत आउ घर के मरम्मत करवा देम' । हम मने-मन लोछिया के लौट अयली । फिन दू दिन के बाद उनखा हीं गेली । पुआ-पुरी खैला आउ चाय-पान कैला के बाद, लड़का के बाबू से हम ई बात सुन के दंग रह गेली कि "कल-परसों तक तिलक के सब पइसा गिन देथी । सब पइसा हमरा मिल जायत तो बिआह हो गेल समझल जाय । असली तो पइसा हे । फलाँ दिन खाली बरात ले जा के सेन्दुरकराई के रसम पूरा कर देवल जायत । अगर परसों तक गछल पइसा नऽ मिलल तो एही मानल जायत कि लड़का अपने के बन्धन में नऽ रहत । कहे के मतलब कि बिआह के बात खुद-ब-खुद कट जायत । बिआह तो साल भर के बादे होयत । काहे कि हम अप्पन बड़का बेटा के बात नऽ टाल सकऽ ही ।" उनखर ई बात से हम हक्का-बक्का रह गेली आउ मने-मन तकलीफ-भरल करोध के भाव समेटले उनखा से अन्तिम बिदा ले लेली । एकर बाद उनखर घर पर फिन आज तक नऽ गेली । भगवान के बहुत सुकुर हे कि अइसन कुटुम में हम्मर साली के बिआह होते-होते रह गेल ।

["इंटरमीडिएट मगही गद्य-पद्य संग्रह (मातृभाषा)" (1984), बिहार मगही अकादमी, पटना, पृ॰ 87-90 से साभार]