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Friday, November 20, 2009

10. मगही कहानी संग्रह "मगही कथा सरोवर" में ठेठ मगही शब्द

मकस॰ = "मगही कथा सरोवर", सम्पादक - प्रो॰ अभिमन्यु प्रसाद मौर्य एवं प्रो॰ दिलीप कुमार; मौर्य प्रकाशन, रामलखन महतो रोड, पुराना जक्कनपुर, पटना-800 001; पहिला संस्करण - 1992; मूल्य - 12 रुपये; 66 पृष्ठ ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और दोसर पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 217

ई कथा-संग्रह में कुल 9 कहानी हइ । पहिला सम्पादक के "दू सबद" पृ॰5-6 के बाद कहानीकार आउ कहानी के सूची नीचे देल अनुसार हइ ।
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क्रम सं॰ कहानीकार (जन्म तिथि - निधन तिथि)    कहानी      पृष्ठ
1 डॉ॰ राम प्रसाद सिंह (10 जुलाई 1933) प्रोफेसर के रंगल कोट 07-11
2 डॉ॰ श्यामनन्दन शास्त्री हंसराज (26 नवम्वर 1939) राम के वनवास 12-18
3 डॉ॰ स्वर्णकिरण (16 मार्च 1934 - 15 अक्टूबर 2009) फुलमतिया 19-27

4 प्रो॰ राम पारिख (10 मई 1932) बुतरुआ चढ़ल अकास 28-36
5 प्रो॰ राम नरेश वर्मा (2 जनवरी 1940 - 15 अक्टूबर 2006) कचोट 37-41
6 प्रो॰ अभिमन्यु प्रसाद मौर्य (30 सितम्बर 1951) सावित्री 42-47

7 डॉ॰ किरण अर्याणी मित्रा (1 अप्रैल 1953) अप्पन घर 48-53
8 प्रो॰ दिलीप कुमार (2 जनवरी 1961) जा दमाद, जा ! 54-60
9 प्रो॰ राम बुझावन सिंह (1 अप्रैल 1920) एक पर चढ़ जा तीन-तीन 61-66
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1 साहित्त (= साहित्य) (एही से थियेटर, सिनेमा आउ टेलिविजन के एतना परचार हे । साहित्त के अध्ययन भी मन बहलाव के नीमन साधन हे ।) (मकस॰5.7)
2 नीमन (एही से थियेटर, सिनेमा आउ टेलिविजन के एतना परचार हे । साहित्त के अध्ययन भी मन बहलाव के नीमन साधन हे ।) (मकस॰5.7)
3 जिनगी (जब से मनुस के जिनगी हे तबे से खिस्सा या कहानी के चलनसार हे । कउनो के कोई बात जब समझ में न आवे त ओकरा कथा सुना के समझावल जाहे ।) (मकस॰5.10)
4 जथारथ (= यथार्थ) (एकर माने ई न हे कि कहानी जीवन के हूबहू चित्र भर हे । कहानी के पात्र के सुख-दुख से पाठक पर जेतना असर पड़ऽ हइ, ओतना जथारथ में कहाँ होवऽ हइ । अगर कथा में जथारथ हूबहू रख देवल जाय, तब ओकरा में कलात्मकता कहाँ रह जायत ।) (मकस॰5.20, 21)
5 अइसन (आज के जमाना में दू नम्बर के पइसा कमा के एगो किरानी भी प्रोफेसर से जादे सुखी जीवन बिता रहल हे । अइसन परिस्थिति मे प्रोफेसर जइसन ऊँच आउ सम्मानित पद पर आसीन बेकती के मानसिक दशा कइसन हो सकऽ हे, एही बात के मार्मिक चित्रण ई कहानी में कइल गेल हे ।; अइसन रूपवती के अइसन दुल्हा ? किस्मत के बात हे । भोलानाथ के पहिलका जनम के संचित पुन्न के ई फल कहल जायत ।) (मकस॰7.22; 24.15)
6 जइसन (आज के जमाना में दू नम्बर के पइसा कमा के एगो किरानी भी प्रोफेसर से जादे सुखी जीवन बिता रहल हे । अइसन परिस्थिति मे प्रोफेसर जइसन ऊँच आउ सम्मानित पद पर आसीन बेकती के मानसिक दशा कइसन हो सकऽ हे, एही बात के मार्मिक चित्रण ई कहानी में कइल गेल हे ।) (मकस॰7.22)
7 कइसन (आज के जमाना में दू नम्बर के पइसा कमा के एगो किरानी भी प्रोफेसर से जादे सुखी जीवन बिता रहल हे । अइसन परिस्थिति मे प्रोफेसर जइसन ऊँच आउ सम्मानित पद पर आसीन बेकती के मानसिक दशा कइसन हो सकऽ हे, एही बात के मार्मिक चित्रण ई कहानी में कइल गेल हे ।) (मकस॰7.23)
8 बेरा (= बेला, समय) (उनका अब नौकरी से रिटायर होवे के बेरा आ रहल हल । सोच में परल हलन कि अब का करे के चाही ।) (मकस॰8.1)
9 भिरू ( साठ भिरू पहुँच के भी नवजवान लउकऽ हलन । कहले जाहे कि लोग के देह बुढ़ा जाहे बाकि मन न बुढ़ाये । वर्मा जी के मने बूढ़ा हो गेल हल, तन तो जवान लउकऽ हल ।) (मकस॰8.2)
10 बुढ़ाना (साठ भिरू पहुँच के भी नवजवान लउकऽ हलन । कहले जाहे कि लोग के देह बुढ़ा जाहे बाकि मन न बुढ़ाये । वर्मा जी के मने बूढ़ा हो गेल हल, तन तो जवान लउकऽ हल ।) (मकस॰8.3)
11 इन साल (= इमसाल, वर्तमान वर्ष) (उनकर ई रंगल कोट आज पाँच बरस से चलल आ रहल हल हे । ऊ गत जाड़ा में सोचऽ हलन कि इन साल जरूरे कोट बदल लेम, नया बना लेम । बाकि कभी लइका, कभी लइकी के कोट या सूटर बनावे के चक्कर में वर्मा के अप्पन कोट के बजट फेल कर जाय ।; इन साल प्रो॰ वर्मा निहचय कइलन कि ऊ अप्पन कोट जरूर बना लेतन ।; ई तरी इनो साल उनकर 4-5 सौ रुपइया अनचाहल रूप से खरचा हो गेल ।) (मकस॰8.7, 11, 24)
12 लइका (उनकर ई रंगल कोट आज पाँच बरस से चलल आ रहल हल हे । ऊ गत जाड़ा में सोचऽ हलन कि इन साल जरूरे कोट बदल लेम, नया बना लेम । बाकि कभी लइका, कभी लइकी के कोट या सूटर बनावे के चक्कर में वर्मा के अप्पन कोट के बजट फेल कर जाय ।) (मकस॰8.8)
13 लइकी (उनकर ई रंगल कोट आज पाँच बरस से चलल आ रहल हल हे । ऊ गत जाड़ा में सोचऽ हलन कि इन साल जरूरे कोट बदल लेम, नया बना लेम । बाकि कभी लइका, कभी लइकी के कोट या सूटर बनावे के चक्कर में वर्मा के अप्पन कोट के बजट फेल कर जाय ।) (मकस॰8.8)
14 सूटर (= स्वेटर) (उनकर ई रंगल कोट आज पाँच बरस से चलल आ रहल हल हे । ऊ गत जाड़ा में सोचऽ हलन कि इन साल जरूरे कोट बदल लेम, नया बना लेम । बाकि कभी लइका, कभी लइकी के कोट या सूटर बनावे के चक्कर में वर्मा के अप्पन कोट के बजट फेल कर जाय ।) (मकस॰8.8)
15 जगुन (उनकर ई रंगल कोट आज पाँच बरस से चलल आ रहल हल हे । ऊ गत जाड़ा में सोचऽ हलन कि इन साल जरूरे कोट बदल लेम, नया बना लेम । बाकि कभी लइका, कभी लइकी के कोट या सूटर बनावे के चक्कर में वर्मा के अप्पन कोट के बजट फेल कर जाय । ई तरी पूरे पाँच बरस निकल गेल । दू दफे तो एकर रंगाई हो गेल हे । कई जगुन तो रफ्फू भी हो गेल हे ।) (मकस॰8.10)
16 निहचय (= निश्चय) (इन साल प्रो॰ वर्मा निहचय कइलन कि ऊ अप्पन कोट जरूर बना लेतन ।; अब ऊ सोचलन हे कि नौकरी से रिटायर होवे पर बचत कोष के पइसा से अप्पन कोट बनौतन । ई निहचय करके रोज अप्पन कॉलेज करे लगलन ।) (मकस॰8.11; 9.6)
17 मुसहरा (ई महीना में मुसहरा मिलते ऊ कोट जरूर बना लेतन । पइसा घरे रहला पर उठ-पठ जाहे ।) (मकस॰8.13)
18 उठना-पठना (ई महीना में मुसहरा मिलते ऊ कोट जरूर बना लेतन । पइसा घरे रहला पर उठ-पठ जाहे।) (मकस॰8.14)
19 गते-गते (ई महीना में मुसहरा मिलते ऊ कोट जरूर बना लेतन । पइसा घरे रहला पर उठ-पठ जाहे। इहे सोचइत गते-गते कॉलेज चलल जाइत हलन कि रहते में डाकिया उनका एगो चिट्ठी देलक ।) (मकस॰8.14)
20 रहता (= रस्ता; रास्ता) (ई महीना में मुसहरा मिलते ऊ कोट जरूर बना लेतन । पइसा घरे रहला पर उठ-पठ जाहे। इहे सोचइत गते-गते कॉलेज चलल जाइत हलन कि रहते में डाकिया उनका एगो चिट्ठी देलक ।) (मकस॰8.15)
21 मोसहरा (= मुसहरा) (मोसहरा मिलला पर मकान मालिक के करजा देके घर खरचा ला भी तो पूरा न बचल । इन साल भी उनकर कोट बनावे के मनसूबा बिला गेल ।; अप्पन मोसहरा तो बेटा के पढ़ाई आउ घर-खरचा से जादे कहिनो भेवे न कयल । तइयो उनका संतोष हे कि बेटी के बिआह हो गेल आउ लइकन सब पढ़-लिख गेलन ।) (मकस॰9.1, 12)
22 कहिनो (अप्पन मोसहरा तो बेटा के पढ़ाई आउ घर-खरचा से जादे कहिनो भेवे न कयल । तइयो उनका संतोष हे कि बेटी के बिआह हो गेल आउ लइकन सब पढ़-लिख गेलन ।) (मकस॰9.13)
23 पेन्हना (पुरनका रंगल कोट पेन्ह के ऊ कइसे जैतन हल ? रंगला पर भी रफ्फू साफे लउकऽ हल ।) (मकस॰9.20)
24 पुरनका (पुरनका रंगल कोट पेन्ह के ऊ कइसे जैतन हल ? रंगला पर भी रफ्फू साफे लउकऽ हल ।; फिन तुरते प्रो॰ वर्मा सोचलन कि क्लर्क से कोट माँगे में ठीक न हे, से ऊ अप्पन पुरनके रंगल कोट पेन्ह के पाटी में चल गेलन ।) (मकस॰9.26)
25 लउकना (पुरनका रंगल कोट पेन्ह के ऊ कइसे जैतन हल ? रंगला पर भी रफ्फू साफे लउकऽ हल ।; तबलची ई गीत के मरम समझ गेल आउ ओकरा एगो उपाय भी लउक गेल ।) (मकस॰9.21; 66.5)
26 पाटी (= पार्टी) (फिन तुरते प्रो॰ वर्मा सोचलन कि क्लर्क से कोट माँगे में ठीक न हे, से ऊ अप्पन पुरनके रंगल कोट पेन्ह के पाटी में चल गेलन ।; बिजली के तेज रोशनी में उनकर रंगल कोट के रंग जादे चमक रहल हे, रफ्फू साफ लउक रहल हे । वर्मा के मन पाटी से उचट गेल । ऊ चाहे लगलन कि पाटी कखने खतम हो जाय आउ रात में उल्लू नियन उनका देने घूरइत आँख से उनका छुटकारा मिल जाय ।; 'ई तो आज जतरे बिगड़ गेल, कइसन मनहूस पाटी से भेंट भेल ?' एतना सोच के सरदार फिन गरजल, 'त एक काम कर ! तोहनी गा-बजा के गीत सुनाव, आखिर कुछ तो हम्मर जतरा बनाव ।') (मकस॰9.27; 10.7, 9; 65.1)
27 एकटकिए (ऊ सब प्रो॰ वर्मा के एकटकिए देख रहलन हे । बिजली के तेज रोशनी में उनकर रंगल कोट के रंग जादे चमक रहल हे, रफ्फू साफ लउक रहल हे । वर्मा के मन पाटी से उचट गेल ।) (मकस॰10.5)
28 भूर (= भूड़, छेद) (वर्मा जी तो कँपकँपाइत हलन । लगइत हल कि उनकर कोट में सैकड़न भूर हो गेल हे । बरफ नियन हवा घुस के हिरदा के कँपा देइत हे ।) (मकस॰10.20)
29 बिछउत (= बिछउती, छिपकिली) (राम बाबू के देखते प्रो॰ वर्मा कहलन - 'एगो बिछउत चढ़ गेलो हल । ओकरा झार देइत हियो ।' राम बाबू बोललन - 'हँ-हँ, बड़ा बढ़िया कइली, हग देत त चितकाबर हो जाइत ।') (मकस॰11.1)
30 हगना (राम बाबू के देखते प्रो॰ वर्मा कहलन - 'एगो बिछउत चढ़ गेलो हल । ओकरा झार देइत हियो ।' राम बाबू बोललन - 'हँ-हँ, बड़ा बढ़िया कइली, हग देत त चितकाबर हो जाइत ।') (मकस॰11.2)
31 महत (= महत्त्व) (पढ़ावे ओलन भी हमरा काफी मानऽ हथ । जिनगी में पइसे सब कुछ न हे । आउ हम पइसा के महत कहिना देली ?) (मकस॰11.17)
32 केवाँड़ी (कइसे तो ऊ अप्पन दूरा पर पहुँच गेलन आउ रोज नियन 'पिंकी' न पुकार के अनचके में जोर से उनकर मुँह से निकल गेल - 'रंगल कोट' आउ दूरा के केवाँड़ी थपथपावे लगलन त पिंकी ओने से हुलकल ।) (मकस॰11.27)
33 हुलकना (कइसे तो ऊ अप्पन दूरा पर पहुँच गेलन आउ रोज नियन 'पिंकी' न पुकार के अनचके में जोर से उनकर मुँह से निकल गेल - 'रंगल कोट' आउ दूरा के केवाँड़ी थपथपावे लगलन त पिंकी ओने से हुलकल ।) (मकस॰11.27)
34 ओने (= ओद्धिर, उधर) (कइसे तो ऊ अप्पन दूरा पर पहुँच गेलन आउ रोज नियन 'पिंकी' न पुकार के अनचके में जोर से उनकर मुँह से निकल गेल - 'रंगल कोट' आउ दूरा के केवाँड़ी थपथपावे लगलन त पिंकी ओने से हुलकल ।) (मकस॰11.27)
35 मुदा (= लेकिन) (बासन्ती फूँकइत-फूँकइत बेहाल हल, मुदा चूल्हा हल कि सुलगे के नामे न ले रहल हल । हाली-हाली फूँकला से धुआँ के रेला आउ जोर से उठ रहल हल आउ खिड़की माँहे बाहर असमान में फैल रहल हल ।; दू-चार फूँक चूल्हा में का मारलक कि कहे हे, फुँकायल जा रहली हे । हमरो देह हे, मुदा एतना कोमल कहाँ से होवे । ई तो पत्थर हे, पत्थर ।) (मकस॰13.1; 14.2)
36 माँहे (बासन्ती फूँकइत-फूँकइत बेहाल हल, मुदा चूल्हा हल कि सुलगे के नामे न ले रहल हल । हाली-हाली फूँकला से धुआँ के रेला आउ जोर से उठ रहल हल आउ खिड़की माँहे बाहर असमान में फैल रहल हल ।) (मकस॰13.3)
37 असमान (= आसमान, आकाश) (बासन्ती फूँकइत-फूँकइत बेहाल हल, मुदा चूल्हा हल कि सुलगे के नामे न ले रहल हल । हाली-हाली फूँकला से धुआँ के रेला आउ जोर से उठ रहल हल आउ खिड़की माँहे बाहर असमान में फैल रहल हल ।) (मकस॰13.3)
38 रेघी (धुआँ लगे से ओकर बड़-बड़ आँख लाल हो गेल हल । पपनी सभन पर अँसुअन के रेघी छलछलायल हल ।) (मकस॰13.6)
39 बुतरू (ऊ ऊपर ताकलक । छत पर बड़की बहू गोदी के बुतरू के अँचरा में ढँकले थपकी दे-दे के सुतावइत हल ।; माला-मिठाई लेले लाइन में लगल लोग आउ सड़क के किनारे लिलकल नंग-धड़ंग बुतरू के देख के ओकर मन में सोच के बवंडर फिन उठल । भारत के भविस दाना-दाना ला तरसे आउ मूरत पर मिठाई बरसे, ई चलनसार कब तक रहत ?) (मकस॰13.6; 41.5)
40 हीआँ (एगो झटका से ओकर शरीर तनल, मुँह ऊपर उठल आउ सुने में आयल - 'अहे, जरा हीओं आवऽ । खाली बइठे से कइसे काम चलतवऽ ? हीआँ तो फूँकइत-फूँकइत हमहीं फुँका रहली हे आउ ... ।') ( (मकस॰13.12)
41 फुँकाना (एगो झटका से ओकर शरीर तनल, मुँह ऊपर उठल आउ सुने में आयल - 'अहे, जरा हीओं आवऽ । खाली बइठे से कइसे काम चलतवऽ ? हीआँ तो फूँकइत-फूँकइत हमहीं फुँका रहली हे आउ ... ।'; दू-चार फूँक चूल्हा में का मारलक कि कहे हे, फुँकायल जा रहली हे । हमरो देह हे, मुदा एतना कोमल कहाँ से होवे । ई तो पत्थर हे, पत्थर ।) (मकस॰13.13; 14.1)
42 अनखा (~ में कनखा) (अनखा में कनखा एगो तोरे तो लइका हवऽ ।) (मकस॰13:18)
43 कनखा (अनखा में ~) (अनखा में कनखा एगो तोरे तो लइका हवऽ ।) (मकस॰13:19)
44 महरानी (= महारानी) ('आय हाय ! हम झूठ बोलऽ ही । अपने तो सत्त के महरानी हथ, सत्त के मूरत !' मसाला के थाली उठइले बासन्ती बोललक ।) (मकस॰14.4)
45 एत्ता (= इतना; यहाँ) ('भला हम का बोलली हे जे ई एत्ता बोल रहल हे । फुसरी के भोकंदर एही कहा हे ।) (मकस॰14.10)
46 फुसरी (~ के भोकंदर) (भला हम का बोलली हे जे ई एत्ता बोल रहल हे । फुसरी के भोकंदर एही कहा हे ।) (मकस॰14.10)
47 भोकंदर (फुसरी के ~) (भला हम का बोलली हे जे ई एत्ता बोल रहल हे । फुसरी के भोकंदर एही कहा हे ।) (मकस॰14.11)
48 एही (= एहे; यही) (भला हम का बोलली हे जे ई एत्ता बोल रहल हे । फुसरी के भोकंदर एही कहा हे ।; भोरे तड़के तिरभुवन दूकान चल गेलन । रोज के एही काम हल । मेन रोड पर चावल-दाल के खिचड़ी-परोस एगो दूकान हल ।) (मकस॰14.11; 15.6)
49 छोटकी (छोटकी काहे बाज आइत हल । महाभारत ठन गेल आउ देरी तक चलते रहल । दरवाजा पर अगल-बगल से आयल सुनेवला के भीड़ लग गेल । जेत्ते मुँह ओत्ते बात । कोई बड़की के तरफदारी करऽ हल त कोई छोटकी के ।) (मकस॰14.14, 17)
50 जेत्ते (= जितना ही) (~... ओत्ते) (छोटकी काहे बाज आइत हल । महाभारत ठन गेल आउ देरी तक चलते रहल । दरवाजा पर अगल-बगल से आयल सुनेवला के भीड़ लग गेल । जेत्ते मुँह ओत्ते बात । कोई बड़की के तरफदारी करऽ हल त कोई छोटकी के ।) (मकस॰14.16)
51 ओत्ते (= उतना ही) (जेत्ते ... ~) (छोटकी काहे बाज आइत हल । महाभारत ठन गेल आउ देरी तक चलते रहल । दरवाजा पर अगल-बगल से आयल सुनेवला के भीड़ लग गेल । जेत्ते मुँह ओत्ते बात । कोई बड़की के तरफदारी करऽ हल त कोई छोटकी के ।) (मकस॰14.16)
52 बड़की (छोटकी काहे बाज आइत हल । महाभारत ठन गेल आउ देरी तक चलते रहल । दरवाजा पर अगल-बगल से आयल सुनेवला के भीड़ लग गेल । जेत्ते मुँह ओत्ते बात । कोई बड़की के तरफदारी करऽ हल त कोई छोटकी के ।) (मकस॰14.16)
53 खिचड़ी-परोस (~ दोकान) (भोरे तड़के तिरभुवन दूकान चल गेलन । रोज के एही काम हल । मेन रोड पर चावल-दाल के खिचड़ी-परोस एगो दूकान हल ।) (मकस॰15.7)
54 ओरझना (= उलझना, व्यस्त होना) (उनकर ध्यान एगो पुरान बही खाता से ओरझल हल । ओकरा पर से ध्यान हटाके नजर ऊपर उठैलन - 'का बात हे ? आज किरायेदार कन तगादा करे न गेल ?') (मकस॰15.25)
55 कन (= पास) (उनकर ध्यान एगो पुरान बही खाता से ओरझल हल । ओकरा पर से ध्यान हटाके नजर ऊपर उठैलन - 'का बात हे ? आज किरायेदार कन तगादा करे न गेल ?'; रो-कलप के माय कन पइसा मांगे गेली । उ कहाँ से देत हल ? कहलक, 'बेटी ! अप्पन भाग से सुख होय चाहे दुख । विवाह हो गेलवऽ, बर्दास्त करऽ, जा !') (मकस॰15.26; 53.7)
56 तगादा (तिरभुवन ओकरा पर ई भार सौंपलन हल कि रोज दिन एक चक्कर लगा अइहऽ, ताकि तगादो हो जाय आउ ऊ भाग भी न पावे । बाकि आज ऊ तगादा करे न गेल ।; उनकर ध्यान एगो पुरान बही खाता से ओरझल हल । ओकरा पर से ध्यान हटाके नजर ऊपर उठैलन - 'का बात हे ? आज किरायेदार कन तगादा करे न गेल ?') (मकस॰15.17, 18, 26)
57 हुनकर (= म॰ उनकर, उनखर; हि॰ उनका) (भउजी बड़ हथ । हुनकर आदर हम दुन्नो परानी करऽ ही । पर एकर ई माने तो न हे कि एगो के जिनगी खाली अराम में कटे आउ दूसर के खटइत-खटइत मौत हो जाय ।; औरत-बानी में तनि बतकुच्चन हो गेलई त ओकर मानी त न हे कि हमनी के भी तन जाय के चाही । ऊ सब हमनी के बात पर चलतन कि हमनी हुनकर हुकुम बजायम ? जदि हुनका भला सीख के बात कोई न बतायत त लड़ाई-झगड़ा के अलावे हुनकर कोई काम हो सकऽ हे ? आउ लोर तो हुनकर पपनी पर रहऽ हे ।) (मकस॰16.5, 17, 18, 19)
58 परानी (भउजी बड़ हथ । हुनकर आदर हम दुन्नो परानी करऽ ही । पर एकर ई माने तो न हे कि एगो के जिनगी खाली अराम में कटे आउ दूसर के खटइत-खटइत मौत हो जाय ।) (मकस॰16.5)
59 अराम (= आराम) (भउजी बड़ हथ । हुनकर आदर हम दुन्नो परानी करऽ ही । पर एकर ई माने तो न हे कि एगो के जिनगी खाली अराम में कटे आउ दूसर के खटइत-खटइत मौत हो जाय ।) (मकस॰16.6)
60 खटना (= कठिन शारीरिक परिश्रम  करना) (भउजी बड़ हथ । हुनकर आदर हम दुन्नो परानी करऽ ही । पर एकर ई माने तो न हे कि एगो के जिनगी खाली अराम में कटे आउ दूसर के खटइत-खटइत मौत हो जाय ।) (मकस॰16.7)
61 गरिआना (भउजी बड़ हथ । हुनकर आदर हम दुन्नो परानी करऽ ही । पर एकर ई माने तो न हे कि एगो के जिनगी खाली अराम में कटे आउ दूसर के खटइत-खटइत मौत हो जाय । फिर जइसन-जइसन बोल के ऊ हमरा गरिऔलन आउ बोललन हे, ऊ सुनके हम्मर दिल चूर-चूर हो गेल हे ।) (मकस॰16.8)
62 औरत-बानी (औरत-बानी में तनि बतकुच्चन हो गेलई त ओकर मानी त न हे कि हमनी के भी तन जाय के चाही ।) (मकस॰16.16)
63 तनि (= तनी; थोड़ा) (औरत-बानी में तनि बतकुच्चन हो गेलई त ओकर मानी त न हे कि हमनी के भी तन जाय के चाही ।) (मकस॰16.16)
64 बतकुच्चन (औरत-बानी में तनि बतकुच्चन हो गेलई त ओकर मानी त न हे कि हमनी के भी तन जाय के चाही ।) (मकस॰16.16)
65 तनना (औरत-बानी में तनि बतकुच्चन हो गेलई त ओकर मानी त न हे कि हमनी के भी तन जाय के चाही ।) (मकस॰16.17)
66 हुनका (औरत-बानी में तनि बतकुच्चन हो गेलई त ओकर मानी त न हे कि हमनी के भी तन जाय के चाही । ऊ सब हमनी के बात पर चलतन कि हमनी हुनकर हुकुम बजायम ? जदि हुनका भला सीख के बात कोई न बतायत त लड़ाई-झगड़ा के अलावे हुनकर कोई काम हो सकऽ हे ?; जदि हुनका सब से कुच्छो गड़बड़ हो जाय त हम सब के सम्हारे के मोल हे न कि आउ बिगाड़े के ।) (मकस॰16.18, 21)
67 कचकुच ('बाकि अब बिगड़ल बात सम्हर न सकऽ हे !' पशुपति बोललक -'अब पानी माथा से ऊपर गुजर गेल हे आउ एकाध रोज के कचकुच होवे त सम्हारल जा सकऽ हे । रोज के नरघट्टा से भला हे कि चूल्हा अलगे जले ।..') (मकस॰16.24)
68 नरघट्टा ('बाकि अब बिगड़ल बात सम्हर न सकऽ हे !' पशुपति बोललक -'अब पानी माथा से ऊपर गुजर गेल हे आउ एकाध रोज के कचकुच होवे त सम्हारल जा सकऽ हे । रोज के नरघट्टा से भला हे कि चूल्हा अलगे जले ।..') (मकस॰16.25)
69 महमूली (= मामूली) (औरतानी महमूली बात सुरसा के मुँह नियन फैलते जा रहल हल आउ ओके रोके के कोई नुस्खा न सूझ रहल हल ।) (मकस॰17.5)
70 ओकना-रोकना (औरतानी महमूली बात सुरसा के मुँह नियन फैलते जा रहल हल आउ ओके रोके के कोई नुस्खा न सूझ रहल हल ।) (मकस॰17.6)
71 दरोज्जा (पशुपति दरोज्जा के पीछु ठाढ़ मेहरारु के ताकलक आउ मेहरारू ओकरा ।) (मकस॰18.16)
72 पीछु (= पीछे) ( पशुपति दरोज्जा के पीछु ठाढ़ मेहरारु के ताकलक आउ मेहरारू ओकरा ।) (मकस॰18.16)
73 फरहर (फुलमतिया अप्पन माय-बाप के एकलौती बेटी हल - देखे में खूबसूरत, काम-काज में फरहर, बोलचाल में तेज ।) (मकस॰20.2)
74 बराती (= बारात) (गाँव के मुखिया जी ढेर सहायता कइलन आउ फुलमतिया के बराती लोगन के अप्पन दलान में ठहरौलन । शादी सादा ढंग से भेल, कोई के दूसे के मौका न मिलल ।) (मकस॰20.9)
75 दूसना (गाँव के मुखिया जी ढेर सहायता कइलन आउ फुलमतिया के बराती लोगन के अप्पन दलान में ठहरौलन । शादी सादा ढंग से भेल, कोई के दूसे के मौका न मिलल) (मकस॰20:10)
76 असमान-जमीन (~ के फरक ) (फुलमतिया के मरद आउ फुलमतिया के देवर में असमान-जमीन के फरक । देवर शहर में रहके मेडिकल में पढ़ऽ हल आउ ओकर मरद के पढ़ाई काटऽ हल ।) (मकस॰20:13)
77 पिअरकी (फुलमतिया के समान देह के रंग पिअरकी गोराइवाला न हल, बाकि ऊ देखे में कउनो जबुन न हल।) (मकस॰21.11)
78 जबुन (फुलमतिया के समान देह के रंग पिअरकी गोराइवाला न हल, बाकि ऊ देखे में कउनो जबुन न हल।) (मकस॰21.12)
79 बज्झल (= फँसा हुआ; व्यस्त) (कउनो तरह के काम-धंधा रहत तब न भोलानाथ बज्झल रहतन । बाकि ऊ अप्पन समय के बेकार में एन्ने-ओन्ने बितावइत हलन ।) (मकस॰21.17)
80 एन्ने-ओन्ने (कउनो तरह के काम-धंधा रहत तब न भोलानाथ बज्झल रहतन । बाकि ऊ अप्पन समय के बेकार में एन्ने-ओन्ने बितावइत हलन ।; भोलानाथ के पइसा के जरूरत हल । जे कुछ पइसा ससुराल से मिलल हल, सब खरच हो गेल हल । हाथ खाली हो गेल । एन्ने-ओन्ने से पइसा झीट के लावऽ हलन, ओकरा फूँक-ताप जा हलन) (मकस॰22.17, 21)
81 झीटना (भोलानाथ के पइसा के जरूरत हल । जे कुछ पइसा ससुराल से मिलल हल, सब खरच हो गेल हल । हाथ खाली हो गेल । एन्ने-ओन्ने से पइसा झीट के लावऽ हलन, ओकरा फूँक-ताप जा हलन ।) (मकस॰22.21)
82 फूँकना-तापना (भोलानाथ के पइसा के जरूरत हल । जे कुछ पइसा ससुराल से मिलल हल, सब खरच हो गेल हल । हाथ खाली हो गेल । एन्ने-ओन्ने से पइसा झीट के लावऽ हलन, ओकरा फूँक-ताप जा हलन ।) (मकस॰22.22)
83 हाथ-जाँगर (नाथ, हम्मर बाबूजी गरीब आदमी हथ । ऊ कहाँ से देतन । अप्पन हाथ-जाँगर के भरोसा चाही । पइसा तो हाथ के मइल हे ।) (मकस॰23.2)
84 अब्बर (~ पर जब्बर) (भोलानाथ तो अब्बर पर जब्बर के कहाउत लागू करथ । बात-बात में बिगड़ना, बात-बात में गलत इल्जाम लगाना । अप्पन ढेंढर पर ध्यान न देके फुलमतिया के फूली निहारना उनकर काम रह गेल ।) (मकस॰23.12)
85 जब्बर (अब्बर पर ~) ( भोलानाथ तो अब्बर पर जब्बर के कहाउत लागू करथ । बात-बात में बिगड़ना, बात-बात में गलत इल्जाम लगाना । अप्पन ढेंढर पर ध्यान न देके फुलमतिया के फूली निहारना उनकर काम रह गेल ।) (मकस॰23.12)
86 ढेंढर (= ढेंढ़; आँख के ढेले पर उमड़ा विकृत मांसपिंड, आँख की एक विकृति) (मु॰ अप्पन ढेंढर न देखे बाकि दोसर के फुल्ला निहारे) (भोलानाथ तो अब्बर पर जब्बर के कहाउत लागू करथ । बात-बात में बिगड़ना, बात-बात में गलत इल्जाम लगाना । अप्पन ढेंढर पर ध्यान न देके फुलमतिया के फूली निहारना उनकर काम रह गेल ।) (मकस॰23.14)
87 फूली (= फुल्ला) (मु॰ अप्पन ढेंढर न देखे बाकि दोसर के फुल्ला निहारे) (भोलानाथ तो अब्बर पर जब्बर के कहाउत लागू करथ । बात-बात में बिगड़ना, बात-बात में गलत इल्जाम लगाना । अप्पन ढेंढर पर ध्यान न देके फुलमतिया के फूली निहारना उनकर काम रह गेल ।) (मकस॰23.14)
88 चर-फर (तेज-तर्रार हलथिन । बोले-चाले में चर-फर । दोसरा के भलाई ला अपना के अर्पित कइले हलथिन ।) (मकस॰23.19)
89 बाम (~ फूटना; ~ कबरना; ~ उखड़ना) (एक दिन पइसा ला भोलानाथ फुलमतिया के छड़ी से मारलन । पीठ पर बाम फूट गेल । बेचारी बेहोश हो गेल, तब छुटकारा मिलल ।) (मकस॰23.23)
90 जाँतना (सुरसती देवी पानी के छींटा देलन, नाक जाँतलन तब जाके फुलमतिया के होश आयल । सुरसती देवी पुछलन, 'काहे मार पड़लउ तोरा ?') (मकस॰23.25)
91 पुन्न (= पुण्य) (अइसन रूपवती के अइसन दुल्हा ? किस्मत के बात हे । भोलानाथ के पहिलका जनम के संचित पुन्न के ई फल कहल जायत ।) (मकस॰24.16)
92 साथी-संघाती (ऊ अब रोज घरे पहुँच के कलह मचावे लगलन । पहिले साथी-संघाती से करजा लेके काम चलौलन । एक दिन अप्पन माय के एक ठो गहनो बेच देलन । बाकि जब पइसा के कमी भेल तो फिन तड़ंग बाँधलन ।) (मकस॰24.21)
93 तड़ंग (~ बाँधना) (ऊ अब रोज घरे पहुँच के कलह मचावे लगलन । पहिले साथी-संघाती से करजा लेके काम चलौलन । एक दिन अप्पन माय के एक ठो गहनो बेच देलन । बाकि जब पइसा के कमी भेल तो फिन तड़ंग बाँधलन ।) (मकस॰24.23)
94 अधमरू (ऊ घर में गेलन आउ एक ठो लाठी ले अइलन । फिन दे लाठी, फुलमतिया के पीठ फाड़ देलन । बेचारी अधमरू हो गेल ।) (मकस॰25.5)
95 सनहा (सीधे थाना में पहुँच के सनहा लिखवा देलन आउ कहलन, 'सामने के घर के परिवारिक कलह से नींद हराम हो गेल हे । एकर इलाज जल्दी से होवे के चाही । रोज मार-पीट, लप्पड़-थप्पड़, अब लाठी से मार । बेचारी औरत हे या गाय ?') (मकस॰25.9)
96 परिवारिक (= पारिवारिक) (सीधे थाना में पहुँच के सनहा लिखवा देलन आउ कहलन, 'सामने के घर के परिवारिक कलह से नींद हराम हो गेल हे । एकर इलाज जल्दी से होवे के चाही । रोज मार-पीट, लप्पड़-थप्पड़, अब लाठी से मार । बेचारी औरत हे या गाय ?') (मकस॰25.9)
97 जनानी (दरोगा जी फुलमतिया से पूछलन - 'तूहीं इनकर जनानी ह ?' - 'जी दरोगा जी !' - 'ई छड़ी-लाठी से रोज मारऽ हथ ?'; जइसे घर चलइत हे, चले द । घर में एगो घरनी हे त बड़ी नीमन बात हे । जहिया दू गो जनानी रहे लगतन, नीन हराम हो जायत ।) (मकस॰26.6; 57.3)
98 ठढ़मुरकी (यशोदा लाल के काठ मार गेल । ग्रामसेविका देवी जी के ठढ़मुरकी लग गेल ।; दोकान के साज-सजावट देखके लोग दंग रह जाथ । रंग-रंग के मूरत देखके ठढ़मुरकी लग जाये । मन बिना कुछ खरीदले उहाँ से न हटे ।) (मकस॰27.8-9; 31.26)
99 मजमा (दरोगा जी कहलन, 'ठीक हे सीतानाथ आउ भोलानाथ ! दुन्नो थाना में चलऽ । थाना में पूछ-ताछ होयत । हियाँ मजमा बटोरे के जरूरत न हे ।') (मकस॰27.11)
100 टुइयाँ ('ले ल मोल, ले ल मोल, माटी के मूरत अनमोल । टके-टके हँड़िया, पाँच टके भँड़िया आउ टका के बीस गो टुइयाँ ॥') (मकस॰29.3)
101 अवाज (= आवाज) ('ले ल मोल, ले ल मोल, माटी के मूरत अनमोल । टके-टके हँड़िया, पाँच टके भँड़िया आउ टका के बीस गो टुइयाँ ॥' शेखर के अवाज में जादू हल । रहगीर ई सुनके ताके लगथ ।) (मकस॰29.4)
102 रहगीर (= राहगीर) ('ले ल मोल, ले ल मोल, माटी के मूरत अनमोल । टके-टके हँड़िया, पाँच टके भँड़िया आउ टका के बीस गो टुइयाँ ॥' शेखर के अवाज में जादू हल । रहगीर ई सुनके ताके लगथ ।; एक बार अइसहीं पास के बजार से सौदा-सुलुफ करके रात में दू गो अहीर ऊ गाँव के पास से गुजर रहलन हल कि दू गो रंगदार के फेरा में पड़ गेलन । दुन्नो रहगीर पर लाठी भिड़ा देलन आउ छीन-छोर करे लगलन ।) (मकस॰29.4; 62.13)
103 मट्टी (= मिट्टी) (मट्टी के मूरत अइसन हल कि देखनिहार देखइत रह जाथ । बाल-बुतरू के तो ओहिजा भीड़ लगल रहऽ हल ।) (मकस॰29.6)
104 देखनिहार (मट्टी के मूरत अइसन हल कि देखनिहार देखइत रह जाथ । बाल-बुतरू के तो ओहिजा भीड़ लगल रहऽ हल ।) (मकस॰29.6)
105 बाल-बुतरू (मट्टी के मूरत अइसन हल कि देखनिहार देखइत रह जाथ । बाल-बुतरू के तो ओहिजा भीड़ लगल रहऽ हल ।) (मकस॰29.6-7)
106 ओहिजा (= उस जगह, वहाँ) (मट्टी के मूरत अइसन हल कि देखनिहार देखइत रह जाथ । बाल-बुतरू के तो ओहिजा भीड़ लगल रहऽ हल ।) (मकस॰29.7)
107 दरोजा (भड़ारी, कुम्हार के टोला । भुवन पंडित के खपरइल घर । ओकर आगे फूस के दरोजा में चाक आउ बंगइठी । चिक्कन-चिक्कन लुह-लुह ताजा बनल मट्टी के दीया, ढकनी, चुक्का-टहरी आउ खपड़ा ।) (मकस॰29.9)
108 बंगइठी (भड़ारी, कुम्हार के टोला । भुवन पंडित के खपरइल घर । ओकर आगे फूस के दरोजा में चाक आउ बंगइठी । चिक्कन-चिक्कन लुह-लुह ताजा बनल मट्टी के दीया, ढकनी, चुक्का-टहरी आउ खपड़ा ।) (मकस॰29.9)
109 चिक्कन (भड़ारी, कुम्हार के टोला । भुवन पंडित के खपरइल घर । ओकर आगे फूस के दरोजा में चाक आउ बंगइठी । चिक्कन-चिक्कन लुह-लुह ताजा बनल मट्टी के दीया, ढकनी, चुक्का-टहरी आउ खपड़ा ।) (मकस॰29.9)
110 लुह-लुह (भड़ारी, कुम्हार के टोला । भुवन पंडित के खपरइल घर । ओकर आगे फूस के दरोजा में चाक आउ बंगइठी । चिक्कन-चिक्कन लुह-लुह ताजा बनल मट्टी के दीया, ढकनी, चुक्का-टहरी आउ खपड़ा ।) (मकस॰29.9)
111 दीया (= दीपक) (भड़ारी, कुम्हार के टोला । भुवन पंडित के खपरइल घर । ओकर आगे फूस के दरोजा में चाक आउ बंगइठी । चिक्कन-चिक्कन लुह-लुह ताजा बनल मट्टी के दीया, ढकनी, चुक्का-टहरी आउ खपड़ा ।) (मकस॰29.10)
112 ढकनी (भड़ारी, कुम्हार के टोला । भुवन पंडित के खपरइल घर । ओकर आगे फूस के दरोजा में चाक आउ बंगइठी । चिक्कन-चिक्कन लुह-लुह ताजा बनल मट्टी के दीया, ढकनी, चुक्का-टहरी आउ खपड़ा ।) (मकस॰29.10)
113 चुक्का-टहरी (भड़ारी, कुम्हार के टोला । भुवन पंडित के खपरइल घर । ओकर आगे फूस के दरोजा में चाक आउ बंगइठी । चिक्कन-चिक्कन लुह-लुह ताजा बनल मट्टी के दीया, ढकनी, चुक्का-टहरी आउ खपड़ा ।; हँड़िया-पतिला, चुक्का-टहरी, बसना आउ एक-से-एक रंग-बिरंग के सुराही गढ़े में भुवन बड़ा माहिर हल ।) (मकस॰29.10, 12)
114 हँड़िया-पतिला (भुवन के छोटा परिवार हल । अपने, घरनी आउ एगो बुतरू - नाम हल शेखर । हँड़िया-पतिला, चुक्का-टहरी, बसना आउ एक-से-एक रंग-बिरंग के सुराही गढ़े में भुवन बड़ा माहिर हल ।) (मकस॰29.11-12)
115 माउग-भतार (भुवन गरीब हल । मटिये एकर धन-संपत्ति । माउग-भतार कमाके परिवार चलावइत हल ।) (मकस॰29.19)
116 जुग-जमाना (भुवन गरीब हल । मटिये एकर धन-संपत्ति । माउग-भतार कमाके परिवार चलावइत हल । जुग-जमाना के लहर केकरा न लगे । भुवन के लालसा होयल - 'शेखर एक्के गो बुतरू हे, एकरा पढ़ा-लिखा के बढ़िया अदमी काहे न बना देऊँ ? पढ़-लिखके ऊ अच्छा कमइनी करत त हमनी के बुढ़ारी सुख से कट जायत ।') (मकस॰29.20)
117 अदमी (= आदमी) (भुवन गरीब हल । मटिये एकर धन-संपत्ति । माउग-भतार कमाके परिवार चलावइत हल । जुग-जमाना के लहर केकरा न लगे । भुवन के लालसा होयल - 'शेखर एक्के गो बुतरू हे, एकरा पढ़ा-लिखा के बढ़िया अदमी काहे न बना देऊँ ? पढ़-लिखके ऊ अच्छा कमइनी करत त हमनी के बुढ़ारी सुख से कट जायत ।'; 'जा दमाद, जा !' शीर्षक कहानी में ई देखावल गेल हे कि बेटा न रहला पर भी अदमी के निराश होवे के जरूरत न हे । अप्पन नाम अमर करे ला दुनिया में दोसर उपाय भी हे ।) (मकस॰29.21; 54.24)
118 कमइनी (= कमाई) (भुवन गरीब हल । मटिये एकर धन-संपत्ति । माउग-भतार कमाके परिवार चलावइत हल । जुग-जमाना के लहर केकरा न लगे । भुवन के लालसा होयल - 'शेखर एक्के गो बुतरू हे, एकरा पढ़ा-लिखा के बढ़िया अदमी काहे न बना देऊँ ? पढ़-लिखके ऊ अच्छा कमइनी करत त हमनी के बुढ़ारी सुख से कट जायत ।') (मकस॰29.22)
119 माहटर (= मास्टर) (शेखर पढ़े में तेज निकलल । ओकर पढ़ाई-लिखाई, बात-वेवहार से माहटर बड़ा खुश रहऽ हलन ।) (मकस॰30.1)
120 देखा-हिसकी (तड़क-भड़क पहनावा केकरा न मोहे । गरीब के लइकन के मन मचल जाहे आउ ऊ अमीरवन के देखाहिसकी करे लगऽ हथ ।) (मकस॰30.6)
121 लखेरा (पढ़ावे में गरीब के रीढ़ टूट जाइत हे, आउ लइकन तो बिगड़ के माटी हो जाइत हथ । बेकार, लखेरा, नालायक ।) (मकस॰30.10)
122 रितु (= ऋतु) (असाढ़ के महीना । पावस रितु । अकास करिया बादल से घिरल । उमस भरल कुचकुच अन्हरिया रात । शेखर के हाथ मूरत में रंग भरे में तेजी से चल रहल हल ।) (मकस॰32.11)
123 करिया (= काला) (असाढ़ के महीना । पावस रितु । अकास करिया बादल से घिरल । उमस भरल कुचकुच अन्हरिया रात । शेखर के हाथ मूरत में रंग भरे में तेजी से चल रहल हल ।) (मकस॰32.11)
124 कुचकुच (~ अन्हरिया) (असाढ़ के महीना । पावस रितु । अकास करिया बादल से घिरल । उमस भरल कुचकुच अन्हरिया रात । शेखर के हाथ मूरत में रंग भरे में तेजी से चल रहल हल ।) (मकस॰32.12)
125 अन्हरिया (कुचकुच ~ ) (असाढ़ के महीना । पावस रितु । अकास करिया बादल से घिरल । उमस भरल कुचकुच अन्हरिया रात । शेखर के हाथ मूरत में रंग भरे में तेजी से चल रहल हल ।) (मकस॰32.12)
126 बेथनायल (एकाएक 'विश्व कला प्रदर्शनी' समापत के दिन के घोषणा हो गेल । मिस हेलेन के माथा में एगो कसके झटका लगल । मन में कसक पैदा हो गेल । ऊ बेथनायल शेखर से मिलल आउ कहे लगल, 'शेखर ! अब ई मेला तो समापत होय पर हे । हमनी एक-दूसरा से बहुत दूर हो जायम ।') (मकस॰33.23)
127 सुकवार (मिस हेलेन ! तूँ एतना सुकवार हऽ । हमर गँवइ सभ्यता आउ गरम देस के आबहवा में कइसे मेल खयबऽ ?) (मकस॰34.3)
128 नेहाल (अब ले हम्मर बियाह तो न होयल हे आउ तोरा अइसन साथी पाके हम नेहाल हो जायम, एकरा में तनिको शक न हे ।) (मकस॰34.7)
129 पलखत (सपना में तोरे देखऽ ही आउ तोरे विचार में डूबल रहऽ ही । पलखत पावऽ ही तऽ तोरा से मिले चल आवऽ ही ।) (मकस॰34.10)
130 सनेस (= सन्देश) (रमेश के लगल कि ई धारा आपस के खाई के पाट के समरस समाज के रचना ला आगे बढ़े के सनेस अदमी के दे रहल हे ।) (मकस॰39.7)
131 हाह (अदमी के तो हाहे न भरे । जेकरा पास जेतने जादे हो हे ऊ ओतने हाय-तोबा मचयले रहऽ हे ।) (मकस॰39.12)
132 बेअगर (= बेअग्गर; व्यग्र) (गंगा के संतोषी आउ दानी सोभाव के बात सोचला पर रमेश के लगल, भला जउन गंगा अदमी के बहुत कुछ दे रहल हे ओकरा ऊ पइसा देवे ला बेअगर काहे हे ?) (मकस॰39.15)
133 छूछ (अगर ई गंगा से कुछो परापत न होइत त एकर किनारे जमघट काहे लगइत ? अनेकन गाँव-नगर कइसे बसइत ? छूछ के पूछ करताहर भला के हे ?) (मकस॰39.17)
134 निहोरा (रमेश के बचपन के बात याद परल । दादा जब कातिक पुनिया के गंगा स्नान करे पटना जा हलन, तब दादी उनका साफ सीसी देके गंगाजल लावे ला निहोरा करऽ हलन ।) (मकस॰40.9)
135 गाहे-बगाहे (रमेश के बचपन के बात याद परल । दादा जब कातिक पुनिया के गंगा स्नान करे पटना जा हलन, तब दादी उनका साफ सीसी देके गंगाजल लावे ला निहोरा करऽ हलन । उनकर लावल गंगाजल ऊ घर में जोगा के रखऽ हलन आउ गाहे-बगाहे बाल्टी भर पानी में दू-चार बून डालके शुद्ध करऽ हलन ।) (मकस॰40.10)
136 पवित्तर (= पवित्र) (रमेश पहिले सुनऽ हल कि ढेर दिन तक सीसी में रखला पर भी गंगाजल खराब न होवऽ हे । बाकि आज दोसर के पवित्तर करेवला गंगाजल खुद्दे प्रदूषित हो रहल हे ।) (मकस॰40.15)
137 लिलकल (माला-मिठाई लेले लाइन में लगल लोग आउ सड़क के किनारे लिलकल नंग-धड़ंग बुतरू के देख के ओकर मन में सोच के बवंडर फिन उठल । भारत के भविस दाना-दाना ला तरसे आउ मूरत पर मिठाई बरसे, ई चलनसार कब तक रहत ?) (मकस॰41.5)
138 भविस (= भविष्य) (माला-मिठाई लेले लाइन में लगल लोग आउ सड़क के किनारे लिलकल नंग-धड़ंग बुतरू के देख के ओकर मन में सोच के बवंडर फिन उठल । भारत के भविस दाना-दाना ला तरसे आउ मूरत पर मिठाई बरसे, ई चलनसार कब तक रहत ?) (मकस॰41.6)
139 गोतनी (मगह में केकरो पुतोह के नाम न धरल जाय । दुलहिन कहे के रेवाज भी न हे । सास-ससुर होथिन चाहे बड़ गोतनी, बहुरिया के हँकएतन त कनिया चाहे कनेवा कहतन ।) (मकस॰43.2)
140 हँकाना (मगह में केकरो पुतोह के नाम न धरल जाय । दुलहिन कहे के रेवाज भी न हे । सास-ससुर होथिन चाहे बड़ गोतनी, बहुरिया के हँकएतन त कनिया चाहे कनेवा कहतन ।) (मकस॰43.2)
141 कनिया (मगह में केकरो पुतोह के नाम न धरल जाय । दुलहिन कहे के रेवाज भी न हे । सास-ससुर होथिन चाहे बड़ गोतनी, बहुरिया के हँकएतन त कनिया चाहे कनेवा कहतन ।) (मकस॰43.3)
142 कनेवा (मगह में केकरो पुतोह के नाम न धरल जाय । दुलहिन कहे के रेवाज भी न हे । सास-ससुर होथिन चाहे बड़ गोतनी, बहुरिया के हँकएतन त कनिया चाहे कनेवा कहतन ।) (मकस॰43.3)
143 फलना (~ ... चिलना) (गाँव के लोग केकरो घरुआरी के बारे में बतिअयतन त ओकर मरद के नाम साथे जोड़ देतन । फलना के जोरु चाहे चिलना के मेहरारू ।) (मकस॰43.4)
144 चिलना (फलना ... ~) (गाँव के लोग केकरो घरुआरी के बारे में बतिअयतन त ओकर मरद के नाम साथे जोड़ देतन । फलना के जोरु चाहे चिलना के मेहरारू ।) (मकस॰43.5)
145 घुघनी (पंचम पूछलक - 'चचा ! अपने कउन सेवा से प्रसन्न होतथिन ?' जवाब में एक बोतल दारू लावे के हुकुम भेल । पंचम पहिले तनि सकुचयलक, बाकि फिन बजार से एक बोतल दारू आउ घुघनी ले अयलक । बाद में चपरासी चचा अप्पन साहेब से कहके पंचम के किरानी बनवा देलन ।) (मकस॰44.8)
146 कीनना (बजार में एक बोतल दारू कीनलन । कमेसर अचरज से पूछऽ हे - 'पंचू भाई ! ई आदत तोरा कहिया से पड़ गेलउ ?') (मकस॰44.24)
147 जौरहीं (= साथ में ही) (पंचम खुश होके बोललन - 'हमनी दुन्नो लंगोटिया यार आज से बोतल-भाई हो गेली ।' तउन दिन से दुन्नो यार के यारी आउ बढ़ गेल । दिन भर अप्पन काम करके रात जौरहीं बितावे लगलन । भट्ठी में दुन्नो हाथ जोड़ैले जा हलन आउ अधरतिया में गोड़ हिलावइत लउटऽ हलन । न इनका बाल-बच्चा के फिकिर, न जोरु-जाँता के चिन्ता ।) (मकस॰45.6)
148 जोरु-जाँता (तउन दिन से दुन्नो यार के यारी आउ बढ़ गेल । दिन भर अप्पन काम करके रात जौरहीं बितावे लगलन । भट्ठी में दुन्नो हाथ जोड़ैले जा हलन आउ अधरतिया में गोड़ हिलावइत लउटऽ हलन । न इनका बाल-बच्चा के फिकिर, न जोरु-जाँता के चिन्ता ।) (मकस॰45.8)
149 अखनी (ऊ जब अस्पताल में हलन त उनकर घरुआरी सावित्री संकल्प कइलक कि अखनी ऊ अप्पन मरद के मरे न देत ।) (मकस॰46.1)
150 जन-मजूर (अप्पन संकल्प के साकार करे ला सावित्री अंगना से बाहर निकलके कमेसर के कारबार देखे लगल । सातो दुकानदार के समझा-बुझा के ई बात पर राजी करा लेलक कि किराया कमेसर के बजाय सावित्री के हाथ में मिलत । एकरा अलावे जन-मजूर के मदद से खेती के काम भी खुदे सम्हारे लगल ।) (मकस॰46.6)
151 अगारू ('तोरा जइसन मन करे अउसने करऽ । बाकि एगो बात कान खोलके सुन ल । आज से दारू पीये ला तोरा हाथ में रुपइया न मिलतवऽ ।' - 'तोरा अगारू हम भीख थोड़हीं माँगइत ही । हम अपने कमा ही ।') (मकस॰46.15)
152 बिलाना (तोहर देह के रक्षा करे के जिम्मा हमनियो के हे । अब हमनी तोहर देह के बिलाय न देबुअ ।') (मकस॰46.24)
153 रसे-रसे (शराब एगो अइसन जहर के नाम हे जे रसे-रसे शरीर के खइते जा हे आउ भीतर से खोखला बनइते जा हे ।) (मकस॰47.5)
154 जौरे (= साथ में) (कमेसर के दोसर खिस्सा हे । अब ऊ एकदमे चंगा हो गेलन हे । अप्पन बाल-बुतरू जौरे सुख से जिनगी बितावित हथ । सभे से कहऽ हथिन - 'हम्मर जिनगी तो हम्मर घरनी के बचावल हे । आगे भी हम ओकरे कहल करम ।'; लल्लू सोचे लगलन, 'अब हमनी के धरम-करम कइसे चलत ।' एतने में कल्लू अइलन । उनका जौरे गाँव के एगो सबसे बेसी पढ़ल-लिखल नवजवान रजन भाई भी हलन ।) (मकस॰47.14; 54.24)
155 घरनी (कमेसर के दोसर खिस्सा हे । अब ऊ एकदमे चंगा हो गेलन हे । अप्पन बाल-बुतरू जौरे सुख से जिनगी बितावित हथ । सभे से कहऽ हथिन - 'हम्मर जिनगी तो हम्मर घरनी के बचावल हे । आगे भी हम ओकरे कहल करम ।') (मकस॰47.15)
156 गाँव-जेवार (गाँव-जेवार के लोग ई परिवार के कथा दोसर किसिम से बतइतन । खाली उनका पता चले के देरी हे कि दूर देश से आन गाँव के अदमी आयल हथन । बस, शुरू हो जइतन ।) (मकस॰47.21)
157 करमजली (लऽ ! आ गेलइ एगो आउ महाजन । करमजली नइहर से तो एगो ठिकरो न लइलक हे, आउ हमनी के सिर पर ठोक देलक हे बेटियन के फौज ।) (मकस॰49.12)
158 नइहर (लऽ ! आ गेलइ एगो आउ महाजन । करमजली नइहर से तो एगो ठिकरो न लइलक हे, आउ हमनी के सिर पर ठोक देलक हे बेटियन के फौज ।) (मकस॰49.12)
159 नासपीटी ('जो गे नासपीटी, मुँहझौंसी ! न लूर के, न काम के, ससुरार जयबे तो लात जूता खयते दिन जतऊ।' वाह रे आशीर्वाद ! ई आशीर्वाद सुनते-सुनते सब थेथरा गेल हे ।) (मकस॰49.21)
160 मुँहझौंसी ('जो गे नासपीटी, मुँहझौंसी ! न लूर के, न काम के, ससुरार जयबे तो लात जूता खयते दिन जतऊ।' वाह रे आशीर्वाद ! ई आशीर्वाद सुनते-सुनते सब थेथरा गेल हे ।) (मकस॰49.21)
161 लूर ('जो गे नासपीटी, मुँहझौंसी ! न लूर के, न काम के, ससुरार जयबे तो लात जूता खयते दिन जतऊ।' वाह रे आशीर्वाद ! ई आशीर्वाद सुनते-सुनते सब थेथरा गेल हे ।) (मकस॰49.21)
162 थेथराना ('जो गे नासपीटी, मुँहझौंसी ! न लूर के, न काम के, ससुरार जयबे तो लात जूता खयते दिन जतऊ।' वाह रे आशीर्वाद ! ई आशीर्वाद सुनते-सुनते सब थेथरा गेल हे ।) (मकस॰49.23)
163 टैम (= टाइम) (दादी दिन-रात पंडित जी के घर अगोरले रहे हे । कहऽ हे - 'चाहे जेतना खरच होय, पूजा-पाठ में कमी न होवे । घर में एक टैम के चूल्हा न जले, कोई बात न हे, काहे कि ई कुलछनी सब के जादे खिलावे-पिलावे से शरीर आउ मुस्टंड हो जायत ।') (मकस॰50.6)
164 मुस्टंड (दादी दिन-रात पंडित जी के घर अगोरले रहे हे । कहऽ हे - 'चाहे जेतना खरच होय, पूजा-पाठ में कमी न होवे । घर में एक टैम के चूल्हा न जले, कोई बात न हे, काहे कि ई कुलछनी सब के जादे खिलावे-पिलावे से शरीर आउ मुस्टंड हो जायत ।') (मकस॰50.8)
165 सामता (~ रंग) (लोग आवऽ हथ । हमरा गुड़िया नियर सजा के देखावल जाहे । कभी चला के, कभी पढ़ा के । तरह-तरह के सवाल पूछल जाहे । कभी पइसा आड़े आवे हे, त कभी हम्मर सामता रंग ।) (मकस॰51.20)
166 देह-काठी (लोग आवऽ हथ । हमरा गुड़िया नियर सजा के देखावल जाहे । कभी चला के, कभी पढ़ा के । तरह-तरह के सवाल पूछल जाहे । कभी पइसा आड़े आवे हे, त कभी हम्मर सामता रंग । अइसे हम्मर मुँह के गठन खराब न हे, देह-काठी भी ठीके हे, बाकि दुधिया गोराई के डिमांड हे ।) (मकस॰51.21)
167 ससुरैतिन (~ बेटी) (माय-बाप, भाई-बहिन सब दोसर हो गेलन । ताज्जुब तब होल जब माय भी हमरा ससुरैतिन बेटी समझ के दोसर समझे लगल ।) (मकस॰52.13)
168 गोस्सा (~ बरना) (बस । उनका एतना गोस्सा बरल कि ऊ हमरा लाते-मुक्के खाने लगलन । बोललन, 'कइसन औरत ठोक देलक एकर बाप हम्मर भाग में ? तोरा लेके का हम चाटी ?') (मकस॰52.23)
169 करेजा (~ पर मूँग दरना) (उधर से सास अइलन । ऊ भी दू मुक्का जमाके दहाड़लन, 'जो गे कलमुँहीं ! जब कुछ हइये न हउ त हम्मर करेजा पर मूँग काहे ला दरे हें ? जो अप्पन बाप के घरे ।') (मकस॰53.1)
170 दरना (= दररना; दलना) (उधर से सास अइलन । ऊ भी दू मुक्का जमाके दहाड़लन, 'जो गे कलमुँहीं ! जब कुछ हइये न हउ त हम्मर करेजा पर मूँग काहे ला दरे हें ? जो अप्पन बाप के घरे ।') (मकस॰53.1)
171 गोस्सा-गोस्सी (रोज-रोज नइहर से रुपइया लावे ला सास से उलाहना मिलइत रहे हे । एक दिन गोस्सा-गोस्सी में हमरा सब लोग मिल के एतना मारलन कि हम बेहोश हो गेली । जब होश आयल त देखली कि हम अस्पताल में जरल पड़ल ही ।) (मकस॰53.17)
172 जरल (= जला हुआ) (रोज-रोज नइहर से रुपइया लावे ला सास से उलाहना मिलइत रहे हे । एक दिन गोस्सा-गोस्सी में हमरा सब लोग मिल के एतना मारलन कि हम बेहोश हो गेली । जब होश आयल त देखली कि हम अस्पताल में जरल पड़ल ही ।) (मकस॰53.19)
173 इसकूल (जहानाबाद जिला के उत्तरी सीमा पर एगो गाँव हे गोसाईं टोला । गाँव में हर जाति के लोग रहऽ हथिन । आपस में मेल-मिलाप खूब रहऽ हे । गाँव में नलकूप, खेल के मैदान आउ लइकन के पढ़े-लिखे ला इसकूल बनल हे ।; 'नाम-निशान तो बिना बेटा के भी रह सकऽ हे चचा !' अबकी रजन भाई बोललन, 'अप्पन नाम से कोई धरमशाला, अनाथालय, इसकूल, कॉलेज या मंदिर बनवा द । ओकरा जे भी देखतन, अपने के जरूर याद करतन ।') (मकस॰55.3; 59.11)
174 बिपत (~ के पहाड़ टूटना) (दुन्नो के बाबूजी बचपने में इनका छोड़के दुनिया से चल गेलन हल । उनका पर बिपत के पहाड़ टूट गेल ।) (मकस॰55.9)
175 बझल (दे॰ बज्झल) (उनका नोकरि पर जाय के कारण कल्लु भाई के पढ़ाई छुट गेल । ऊ घर के काम-काज में बझल रह गेलन ।) (मकस॰55.12)
176 तइयो (एक दिन राघोपुर से अगुआ अइलन आउ लल्लु के बिआह तय हो गेल । नोकरी करऽ हलन तइयो लल्लू भाई तिलक-दहेज के बात न कइलन ।) (मकस॰55.16)
177 तिलक-दहेज (एक दिन राघोपुर से अगुआ अइलन आउ लल्लु के बिआह तय हो गेल । नोकरी करऽ हलन तइयो लल्लू भाई तिलक-दहेज के बात न कइलन ।) (मकस॰55.16)
178 सोभाव (सोभाव से बड़ी सीधा-सादा हलन । गाँजा-भाँग या बीड़ी-खइनी कुछो न खा-पीयऽ हलन ।) (मकस॰56.4)
179 अगुअई (जउन दिन ऊ घरे पहुँचलन ओही दिन एगो अगुआ आ गेल कल्लू के अगुअई करे । लल्लू कल्लू के सामने शादी के बात छेड़लन ।) (मकस॰56.25)
180 नीन (जइसे घर चलइत हे, चले द । घर में एगो घरनी हे त बड़ी नीमन बात हे । जहिया दू गो जनानी रहे लगतन, नीन हराम हो जायत ।) (मकस॰57.3)
181 जोत-जीरात (दुन्नो भाई में मेल-मिलाप बनल रहल । जोत-जीरात बढ़इत रहल । दस बिगहा से पच्चीस बिगहा जमीन हो गेल ।) (मकस॰57.6)
182 कोर-कसर (फगुनी भी कल्लू के बड़ी दुलार करऽ हल । खाय-पीये में कउनो कोर-कसर न होवे दे हल । सब सेवा करे लागी ऊ एक पाँव पर ठड़ी रहऽ हल ।) (मकस॰57.10)
183 ठड़ी (फगुनी भी कल्लू के बड़ी दुलार करऽ हल । खाय-पीये में कउनो कोर-कसर न होवे दे हल । सब सेवा करे लागी ऊ एक पाँव पर ठड़ी रहऽ हल ।) (मकस॰57.10)
184 दारू-ताड़ी (लल्लू के महीना तो बढ़ गेल हल, बाकि लत खराब हो गेल । दारू-ताड़ी पीये लगलन आउ साथी लोग के पियावे लगलन ।) (मकस॰57.20)
185 आनाकानी (लल्लू के लाख आनाकानी करे पर भी कल्लू दुन्नो लइकी के पढ़ा-लिखा के बियाह कर देलन आउ चैन से जीवन बितावे लगलन । इनका तकलीफ एक्के बात के हल कि लल्लू भइया ताड़ी-दारू पीयऽ हथ ।) (मकस॰57.28)
186 ताड़ी-दारू (लल्लू के लाख आनाकानी करे पर भी कल्लू दुन्नो लइकी के पढ़ा-लिखा के बियाह कर देलन आउ चैन से जीवन बितावे लगलन । इनका तकलीफ एक्के बात के हल कि लल्लू भइया ताड़ी-दारू पीयऽ हथ ।; चोर सब भी मंगनी के मस्ती में माथा डोलावे लगलन । उनकर मगज में तो पहिलहीं से ताड़ी-दारू ठूँस के भरल हल ।) (मकस॰58.2; 65.18)
187 कोंहरा (= कोंहड़ा) (समय के फेरा देखऽ ! एक दिन फगुनी अँगना में सीढ़ी लगा के छप्पर पर के कोंहरा तूरइत हल । उतरे में ओकर गोड़ लुगा में अझुरा गेल आउ ऊ छप्पर पर से अँगना में फेंका गेल । कोंहरा आउ फगुनी के माथा दुन्नु फट गेल ।) (मकस॰58.4, 5)
188 लुगा (समय के फेरा देखऽ ! एक दिन फगुनी अँगना में सीढ़ी लगा के छप्पर पर के कोंहरा तूरइत हल । उतरे में ओकर गोड़ लुगा में अझुरा गेल आउ ऊ छप्पर पर से अँगना में फेंका गेल । कोंहरा आउ फगुनी के माथा दुन्नु फट गेल ।) (मकस॰58.4)
189 अझुराना (समय के फेरा देखऽ ! एक दिन फगुनी अँगना में सीढ़ी लगा के छप्पर पर के कोंहरा तूरइत हल । उतरे में ओकर गोड़ लुगा में अझुरा गेल आउ ऊ छप्पर पर से अँगना में फेंका गेल । कोंहरा आउ फगुनी के माथा दुन्नु फट गेल ।) (मकस॰58.4)
190 उहँई (फगुनी के मरे के बाद ओकर दुन्नो बेटी आउ दमाद उहँई रहे लगलन । लल्लू आउ कल्लू उनका बड़ी लाड़-पयारसे रखे लगलन । बाकि दुन्नो दमाद में पटवे न करऽ हल ।) (मकस॰58.8)
191 दमाद (= दामाद) (फगुनी के मरे के बाद ओकर दुन्नो बेटी आउ दमाद उहँई रहे लगलन । लल्लू आउ कल्लू उनका बड़ी लाड़-पयारसे रखे लगलन । बाकि दुन्नो दमाद में पटवे न करऽ हल ।; कल्लू चुपचाप मुस्काइत हथन । बाकि लल्लू के बिन बोलले न रहल गेल । कहलन, 'एगो बोर्ड आउ बनाके गाँव के सिवाना पर टाँग द, जेकरा पर लिखल रहे 'जा दमाद, जा !') (मकस॰58.10; 60.28)
192 बिदुकना (ओठ ~) (एक दिन दुन्नो दमाद आपस में खूब गुत्थम-गुत्थी कइलन । लल्लू आउ कल्लू के ई बड़ी खराब लगल । उ लोग दुन्नो दमाद के बहुत बुरा-भला कहलन । दमादन के ओठ बिदुक गेल ।) (मकस॰58.21)
193 बउआ (कल्लू भी हँ में हँ मिलौलन, 'रजन बउआ के सलाह हमरा तो बेस लगइत हे । बाकि भइया ! दुन्नो बचियन लागि भी कुछ सोचतहुँ हल ।') (मकस॰59.14)
194 ओखनी (= ओकन्हीं) (ओखनी दुन्नो ला सोचे के कोई जरूरत न हे । तूँहीं न दुन्नो के बड़का घर में बिआह करले हें, कल्लू ! दुन्नो के कोई चीज के कमी न हइ ।) (मकस॰59.16)
195 सिवाना (= सीमा) (कल्लू चुपचाप मुस्काइत हथन । बाकि लल्लू के बिन बोलले न रहल गेल । कहलन, 'एगो बोर्ड आउ बनाके गाँव के सिवाना पर टाँग द, जेकरा पर लिखल रहे 'जा दमाद, जा !') (मकस॰60.27)
196 जर-जमीन्दारी (समय हमेशा एक्के जइसन तो रहे न ! जर-जमीन्दारी खतम हो गेल, त उनकर ऐयाशी बदमाशी में ढल गेल आउ जमीन्दारी रंगदारी में ।) (मकस॰62.5)
197 रंगदारी (समय हमेशा एक्के जइसन तो रहे न ! जर-जमीन्दारी खतम हो गेल, त उनकर ऐयाशी बदमाशी में ढल गेल आउ जमीन्दारी रंगदारी में ।) (मकस॰62.6)
198 बजार (= बाजार) (एक बार अइसहीं पास के बजार से सौदा-सुलुफ करके रात में दू गो अहीर ऊ गाँव के पास से गुजर रहलन हल कि दू गो रंगदार के फेरा में पड़ गेलन ।) (मकस॰62.11)
199 सौदा-सुलुफ (एक बार अइसहीं पास के बजार से सौदा-सुलुफ करके रात में दू गो अहीर ऊ गाँव के पास से गुजर रहलन हल कि दू गो रंगदार के फेरा में पड़ गेलन ।) (मकस॰62.11)
200 रंगदार (एक बार अइसहीं पास के बजार से सौदा-सुलुफ करके रात में दू गो अहीर ऊ गाँव के पास से गुजर रहलन हल कि दू गो रंगदार के फेरा में पड़ गेलन ।) (मकस॰62.12)
201 छीन-छोर (~ करना) (एक बार अइसहीं पास के बजार से सौदा-सुलुफ करके रात में दू गो अहीर ऊ गाँव के पास से गुजर रहलन हल कि दू गो रंगदार के फेरा में पड़ गेलन । दुन्नो रहगीर पर लाठी भिड़ा देलन आउ छीन-छोर करे लगलन ।) (मकस॰62.13)
202 चोर-चिलार (अइसे तो चाँदनी रात में रात भर राह चालू रहऽ हे । अँधेरिया में तनि कम हो जाहे, चोर-चिलार के डर से ।; ऊ लोग बैरगिया नाला के करामात न जानऽ हलन, आउ मन ढीठ भी हल कि हमनी नौ गो के जमात ही । कोई चोर-चिलार का करत ?; बन्दर का जाने आदी के सवाद ? ओइसहीं चोर-चिलार का जाने गीत-गवनई के राग-रस ? बाकि गीत सुनके भैंस भी पगुराय लगे हे । चोर सब भी मंगनी के मस्ती में माथा डोलावे लगलन ।) (मकस॰63.12; 64.1; 65.15)
203 शादी-बियाह (एक बार के खिस्सा हे । जेठ महीना के अधरतिया हल । शादी-बियाह के लगन खूब जोर पकड़ले हल । दिन में तो कम, बाकि रात में संझिये से ढोल-ढमाका आउ तरह-तरह के अंगरेजी बाजा के शोर-शराबा सुनाई पड़इत रहऽ हल ।) (मकस॰63.16-17)
204 ढोल-ढमाका (एक बार के खिस्सा हे । जेठ महीना के अधरतिया हल । शादी-बियाह के लगन खूब जोर पकड़ले हल । दिन में तो कम, बाकि रात में संझिये से ढोल-ढमाका आउ तरह-तरह के अंगरेजी बाजा के शोर-शराबा सुनाई पड़इत रहऽ हल ।) (मकस॰63.18)
205 बरात (= बारात) (चाँदनी रात में दूर गाँव से बरात में शामिल होवे ला नाचे गावे वालन नौ साजिन्दा के जमानत ओही रस्ता पकड़के चलल जा हल, जे बैरगिया नाला से होके गुजरऽ हल ।) (मकस॰63.22)
206 साजिन्दा (चाँदनी रात में दूर गाँव से बरात में शामिल होवे ला नाचे गावे वालन नौ साजिन्दा के जमानत ओही रस्ता पकड़के चलल जा हल, जे बैरगिया नाला से होके गुजरऽ हल ।) (मकस॰63.23)
207 माल-जाल (ऊ लोग बैरगिया नाला के करामात न जानऽ हलन, आउ मन ढीठ भी हल कि हमनी नौ गो के जमात ही । कोई चोर-चिलार का करत ? आउ छीनत तो तबला-सरंगी लेके का करत ? माल-जाल तो हमनी के पास कुछ हे न !) (मकस॰64.2)
208 अंगेरी (ऊ लोग ई न जानऽ हलन कि चोर के अंगेरी (केतारी के फुनगी) भी मीठा लगऽ हे । जब सिर पर शामत सवार हो जाहे, तब अकिल भी मरा जाहे । साजिन्दा सब के माथा पर ऊ रात में शामत सवार हल, जे बैरगिया नाला के रस्ता धर के जा रहलन हल ।) (मकस॰64.3)
209 ढनढन (सूखल ~) (गरमी में ऊ नाला में एक्को बूँद पानी न हल, अइसहीं सूखल ढनढन करइत हल ।) (मकस॰64.11)
210 गेठरी (गवइयन सब के तो होशे उड़ गेल । बढ़इत डेग ठमक गेल आउ गेठरी नियर सब एक जगह जमा हो गेलन । एतने में तीन गो लठधर जवान सामने आ धमकल ।) (मकस॰64.14)
211 फाँड़ा (ऊ चोर सरदार फिन गरजल, 'हमनी मरभूक्खा ही कि चूड़ा-चाउर चबावऽ ही ?' एतना बोलके ऊ गवइयन के कमर टटोले लगल । सब अप्पन-अप्पन कमर के धोती के फाँड़ा सरकाके देखा देलन । चोर सरदार के कुच्छो हाथ न लगल ।) (मकस॰64.24)
212 गीत-गवनई (गवइयन के जान में जान आयल, 'चलऽ, सस्ते छुटली ।' तबलची तइयार हो गेल, 'ठीक कहऽ ही सरकार ! हमनी से गीत-गवनई सुनके अप्पन जतरा बना ल । हमनी आउ का देबुअ ?'; बन्दर का जाने आदी के सवाद ? ओइसहीं चोर-चिलार का जाने गीत-गवनई के राग-रस ? बाकि गीत सुनके भैंस भी पगुराय लगे हे । चोर सब भी मंगनी के मस्ती में माथा डोलावे लगलन ।) (मकस॰65.5, 15-16)
213 केंकिआना (एतना कहके सब नौ साजिन्दा अप्पन-अप्पन वाज-साज लेके तइयार हो गेलन आउ सुर-तान मिलावे लगलन । सारंगी सनसनाय लगल, कंसी केंकिआय लगल, तबला धमके लगल ।) (मकस॰65.9)
214 झिहिर-झिहिर (~ पुरवइया) (ऊ महफिल में चोर सरदार समधी नियर पगड़ी बाँधले हल, जेकर अगल-बगल में दुन्नो चोर ओकर सार-बहनोई नियर जमल हल । सामने झिहिर-झहिर पुरवइया में तान छिड़ल हल ।) (मकस॰65.13-14)
215 गरदा (~ करके धर देना) (ई चोर सब तीने गो हे आउ हमनी नौ गो ही । एक-एक चोर पर तीन-तीन गवइयन चढ़ बइठीं त ई सब के गरदा करके धर दीं ।) (मकस॰66.7)
216 हुमचना (तीनो चोर के तो नशे फट गेल । बाकि तब तक तो उनकर गरदन पर उनकरे लाठी के दुन्नो तरफ से दबाके दू गो गवइयन बइठ गेलन हल आउ एक-एक गवइया एक-एक चोर के सीना पर चढ़के हुमच रहल हल । आखिर चोरे के लाठी से तीनो चोर के घाठी पड़ गेल आउ जे कुछ ऊ सब के गाँठ में हल, ऊ सब के गँठियाके गवइयन अप्पन रस्ता धर लेलन ।) (मकस॰66.21)
217 घाठी (तीनो चोर के तो नशे फट गेल । बाकि तब तक तो उनकर गरदन पर उनकरे लाठी के दुन्नो तरफ से दबाके दू गो गवइयन बइठ गेलन हल आउ एक-एक गवइया एक-एक चोर के सीना पर चढ़के हुमच रहल हल । आखिर चोरे के लाठी से तीनो चोर के घाठी पड़ गेल आउ जे कुछ ऊ सब के गाँठ में हल, ऊ सब के गँठियाके गवइयन अप्पन रस्ता धर लेलन ।) (मकस॰66.21)

Saturday, November 14, 2009

12. जरल पर नीमक

लघुकथाकार - डॉ॰ सी॰ रा॰ प्रसाद

स्कूटर पर सवार एगो पति-पत्नी जाइत हलन । पीछे से एगो कार वाला रगड़ते पार हो गेल । दुन्नो फेंका गेलन । स्कूटर डैमेज हो गेल । पति के ठेहुना फूटल, शर्ट-पैंट रगड़ा के फट गेल । पत्नी के सलवार-समीज फट गेल । कमर-पीठ में चोट लगल । खून भी बहइत हल ।

दू गो राहगीर मिल के रोड पर फेंकायल जोड़ी के उठा के सामने वला मंदिर के सीढ़ी पर बइठा देलन । दुन्नो दरद से कराह रहलन हल ।

एही बीच उनकर मोबाइल पर फोन आयल । पति कराहइत फोन रिसीव कैलन - 'हलो !'
'जमीन खरीदे ला बात करे खातिर आज चलबऽ ?'
'न हो पंकज । आज स्कूटर पर हम्मर एक्सीडेंट हो गेलक ।'
'जादे चोट हवऽ का ? आ जइयो ?'
'न हो ! अइसे नाक-थोथुन टूट गेल हे । बाकि आवे के जरूरत न हई ।'
'एही से न कहऽ हिवऽ कि कार खरीद लऽ ! जाड़ा-गरमी-बरसात, हर मौसम में अराम रहतवऽ । दुपहिया में बैलेंस मिलऽ हई ? ठोकर लगते फेंका जयबऽ ।'

घायल पति फोन काट के जेभी में रख लेलक । फोन पर मिलल सलाह जरल पर नीमक जइसन परपराय लगलकातो एम॰बी॰ए॰ पास नौजवान साठ हजार के महीना कमा हे । बाकि कब, कहाँ, का बोले के चाही, ई पढ़ाई कब होयत ?

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१५, अंक-११, नवम्बर २००९, पृ॰१२ से साभार]

Sunday, November 08, 2009

12. कलेसरा

कहानीकार - वीर प्रकाश 'आनन्द', ग्राम-साहबेगपुर, पो॰-चिन्तामनचक, मोकामा, जिला- पटना-८०३ ३०२

कलेसरा अब श्री कौलेश्वर बाबू बन गेल हे । पहिले ऊ फटीचर नियन एन्ने-ओन्ने मारल-फिरल चलो हल । कुत्तो ओकरा नय पूछो हलय । कभी-कभी खूब अनगरे ताड़ के पेड़ से ताड़ी चोरा के पी ले हल आउ नगरपालिका के नाली में चुभुर-चुभुर करते रहऽ हल ।

एक दिन सोमरू के नयकी तेसरकी मौगी जब परदा करे ले मकय के खेत में गेलय हल, तब ओकर पिछवत्ती में नुकल कलेसरा ओकरा साथ छेड़खानी कैलक आउ हल्ला होवे पर ओकर कान के बाली लुझुक के जे गाँव छोड़ के भागल से भागले रह गेल । तहिया से ओकर चाल-चहट केकरो देखय ले नय मिलल ।

जिले जेवार के हलथिन राधेश्याम बाबू । ऊ अपना के बिहार सरकारे कहावो हलथिन । न जाने देश-विदेश से ऊ की-की समान एन्ने-ओन्ने करो हलथिन कि उनका लोग बड़का स्मगलर कहो हलन । केत्ते बार पुलिस उनका पकड़े ले परोगराम बनैलक, मुदा ऊ हरदम आँख में धूरी झोंक के भागिए जा हला । कुच्छो रहय, हलखिन बेचारा गरीब ले भगमाने । शादी-विवाह, मरला-हरला में सबके सहायता कर दे हलथिन ।

कलेसरा उनकरे हीं आके रहो लगल । उनकर विस्वास पाके ऊ उनकर काम-धाम देखे लगल । ऊ तो मर गेला, मुदा उनकरे परताप से कलेसरा अभियो बम-बम हे ।

पन्द्रहो-बीस बरस के बाद ऊ गाँव आल हे । साधु सिंह, जे पी-पा के अप्पन सभे जमीन-जायदाद बेच-बाच के उड़ा देलकन हे उनकरे रोड पर के चरकठवा चकोलवा खेत पूरा दाम दे के कलेसरा खरीद लेलक हे । ओकरा में चारो बगल से छरदेवाली दे करके दूमहला मकान बना लेलक हे, जे दूरे से झकाझक झलके हे ।

कलेसरा के अभी गाँव में बड़ी पूछ हे, काहे कि ऊ ठकुरबाड़ी आउ कालीथान के संगमरमर से पाट देलक हे । सबके मुफत के गाँजा पिलावो हे । चाह के केतली तो हरदम गरमे रहऽ हे । बड़का-बड़का जे कहा हला, ऊहो सुत-उठते ओकरे भिर जाके चाहे पियऽ हका । दिन भर ओजै बैठ के ताश खेलइत रहो हका । अब कलेसरा के पिछला पाप गंगाजी के पानी के तरह पवित्तर हो गेल ।

जब नगरपालिका के चुनाव होवे लगल, गाँव के लोग के कहे पर ऊहो अप्पन नाम से नोमनेसन कर देलक आउ बाट कमिसनर बन गेल । ओकर मन तो अब आउ भी बढ़ गेल हे । चेयरमैन के चुनाव घड़ी सभे बाट कमिसनर के पैसा से खरीद के चेयरमैन भी बन गेल । अब बतावो भला जब ऊ चेयरमैन बनिए गेल तो बड़का-बड़का सभे पाटी के नेता-लीडर ओकरा भिर काहे नय पहुँचथिन ? दरोगा-निसपिट्टर, सीओ-बीडियो तो ओकरा सलामे ठोकऽ हथिन । रोज झुंड-के-झुंड रंग-बिरंगा अदमी ओजो जुटल रहऽ हथिन ।

सोमरू अब दम्मा के रोगी बन के दिन भर कलेसरे के बंगला पर खों-खों खाँसइत रहऽ हे । ओकरा घरे जाय के जरूरतो नय हे, काहे कि ओकर तेसरकी मौगी सुरसतिया से जनमल चउदह बरिस के छौंड़ी बसन्ती सुबह-शाम ओकरा कलौआ पहुँचा दे हय । सुरसतिया ओकरा खूब माँग-टीका सजा के भेज दे हय । साँझ के बसन्ती देरी से घरे लौटो हय, काहे कि कलेसरा बड़ी-बड़ी देर तक एगो रूम में बैठके की गिटपिट करो हय, ई तो ऊहे दुन्नो जानय । ई जरूर हय कि घरे लौट के ऊ सुरसतिया के अँचरा में दस-बीस देइए दे हय । बूढ़वा सोमरू भी टुकुर-टुकुर निहारते रह जा हय । ई बात सभे जानो हय, मुदा बोलतय के ? कलेसरा अब ऊ कलेसरा थोड़े हय ? अब तो ऊ श्री कौलेश्वर बाबू हो गेलय ।

जेतना भी ठीका-वीका होवऽ हय, कलेसरे ले हय । रुपइया के तो ऊ ठेक बाँध देलक हे । अबकी ऊ एमेले के बोटा-बोटी में खड़ा होवे ले चाहऽ हे । जइसन जमाना हय, एक दिन ऊ मिनिस्टरो बनिए जात ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१, अंक-६, दिसम्बर १९९५, पृ॰१५-१६ से साभार]