विजेट आपके ब्लॉग पर

Thursday, April 17, 2014

108. "सारथी॰" (वर्ष 2012: अंक-17) में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



सारथी॰ = मगही पत्रिका "सारथी॰"; सम्पादक - श्री मिथिलेश, मगही मंडप, वारिसलीगंज, जि॰ नवादा, मो॰ 08084412478; मार्च 2012,  अंक-17; कुल 40 पृष्ठ ।

ठेठ मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर पृष्ठ संख्या, आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति संख्या दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (‘मगही पत्रिका के अंक 1-21, बंग मागधीके अंक 1-2, 'झारखंड मागधी', अंक 1 एवं  सारथी, अंक-16 तक संकलित शब्द के अतिरिक्त) - 533

ठेठ मगही शब्द ( से तक):
272    दउगल (~ आना) ('ठीक हे । चलऽ हो, भैंस के हाँकऽ । घंटा दू घंटा में कोय गाम मिलवे करतइ ।' पतित दा सुरफरायत कहलका ।/ भैंस हँका गेल । आगू-आगू भैंस, पीछू-पीछू चरवाह । सूरज डूब गेल । अन्हार दउगल आ रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:11:1.54)
273    दम-दाखिल (पहुँचइ के समाद भेंटइते इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. आनन्द वर्धन गाड़ी लेले दम-दाखिल  भे गेला । टोली डॉ. आनन्द के साथे हुनखर आवास इन्दिरापुरम् पहुँचल ।)     (सारथी॰12:17:31:3.23)
274    दम्म सना (तभी माथा पर मोटरी लेने सोमरा दम्म सना हाजिर ! मोटरी नीचे रखके आग में हाथ सेदो लगलइ । शनीचर पुछलकइ - "मोटरिया में की हिकउ ?")    (सारथी॰12:17:17:1.12-13)
275    दम्म-दाखिल (= दम-दाखिल) (एक तुरी वारसलीगंज टीसन के दू नम्बर पलेटफारम पर ऊ खड़ा हला । एक नम्बर पलेटफारम पर हम आउ मिथिलेश जी दम्म-दाखिल होलूँ । ऊ जइसहीं देखलका, टप्प से कूद गेला लाइन पर । हमर अचरज के सीमा नञ् रहल जब देखलूँ कि एक्के टप्पा में चढ़ गेला पलेटफारम पर जइसे बेंग उछलो हइ । तहिये हम जानलूँ कि गुरु जी कुश्ती लड़वइया हला - नामी-गिरामी ।)    (सारथी॰12:17:35:1.13)
276    दल (= दाल) (कोय कहि रहल हल, "छहाछित गहिलवा मइया आ गेलथिन । देखलहीं, मुँहाँ में जइसइँ दल देलकइ कि मनकमना पूरा हो गेलइ । भाय, देवी-देवता में भारी जश हइ ।"; एक मुट्ठी ओकर मेहरारू के देवइत कहलका, "सबेरे नहा-सोना के सबसे पहिले पाँच दाना दल दुन्नूँ खा ले । रोज बिना नागा के साथ सुतिहें । जब तक दल खतम नञ् हो जाय, कहइँ आन-जान बंद । जो, तोर मनकमना पूरा हो जइतउ ।")    (सारथी॰12:17:11:3.28, 43)
277    दलदल (~ काँपना) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे ।)    (सारथी॰12:17:7:1.13)
278    दलपूड़ी (युवती बारी-बारी दुन्नूँ दने हाथ बढ़इते गेल आउ कभी पकवान, कभी कचौड़ी, कभी दलपूड़ी, कभी निमकी मिलइत गेल । ऊ युवती मुँह भी चला रहल हल आउ बचल अपन गोदी में रखते भी जा रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:30:1.18)
279    दहाज (= जहाज) (चल्हवा के साँस घरघराए लगल । फिनो बड़बड़ाए लगल चल्हवा । "बेदामी ! ए बेदामी ... कुछ सुनइत हवऽ तोरा ? ... सुनऽ ... धेयान लगाके सुनऽ । दहाज आवे के अवाज आवइत हइ ... आवइत हइ राजा ।" सुनके चेहा गेलइ बेदामी ।)    (सारथी॰12:17:6:2.32)
280    दही (~ जमना) (हप्ते दिन बाद बीझना के बोलाके बाझो सिंह कहलन, 'अरे बीझना ! एन्ने देख रहलिअउ हे, बड़ी मनबढ़ू होल जाहीं । खेत-खंधा पर ध्याने नञ्, बैल-धुर उपासले, एक ड्राम चाउर फटके ले हइ ऊहो तोर माय सास पुतोह के हाथ में दहिए जम रहलउ हे । हमरा ई सब करवे ले दोसर मजदूर रखहीं पड़त त शादी-बियाह, मरी-गमी आउ डेढ़ कट्ठा घेवारी ... । सबसे चोथू हमरे बूझऽ हीं ।' बीझना के लगल कि बाझो सिंह अपन उकात दिखा रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:23:1.17)
281    दाखिल-खारिज (हम्मर लोकनाथ बाबू के एन्ने चाल-ढाल, पहनावा-ओढ़ावा में बहुते बदलाव आ गेल ह । दोस-मोहिम आउ चौक-चौराहा पर उनखे चरचा हो रहल हे । ... दादा-भैया के बिलौक के काम रहे चाहे बैंक के, तुरते सधावे में लग जा हका । लोन-ऊन, दाखिल-खारिज अइसन पैरवी ले तुरते दौड़ जा हका ।)    (सारथी॰12:17:36:1.18)
282    दादनी (= अग्रिम राशि, पेशगी) (आसिन के महीना जब एकलगायत त्योहार मनावे ल परदेस से कमा-कमा के सब लौट रहल हल, पड़िया घर-दुआर, देवता-देवी छोड़के माउग-मरद, बाले-बच्चे अइँटाखोल जाय ले तैयार हे । एक जुटी पर दस हजार, ओकरा में पाँच हजार से बेसी दादनी, जे पहिलहीं अँचरा के खुँटी से ससर गेल हल । भट्ठा पर चढ़े घड़ी पाँच हजार से कमे हाथ लगल ।)    (सारथी॰12:17:20:1.17)
283    दाम-साठ (~ करना) (बीझना बजार से गुजर रहल हल कि फुटपाथ के एगो दोकान पर ठमकि गेल । अइना, कंघी, नारा, सेनुर, टिकुली, चूड़ी, लहठी आउ ऊहे 32 नम्बर जइसन ढेर जीनीस जहाँ-तहाँ टाँगल हल । दोकान पर पड़िया जइसन-जइसन ढेर लड़की भीड़ लगइले दाम-साठ करे में मसगुल ।)    (सारथी॰12:17:22:2.6)
284    दाया-माया (= दया-माया) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । गारी-गलौज तो मानऽ ओकर बपौती हे । मन नञ् पारे कि हाथ से पइसा छीन ले । देबइ घरी मेल्हा-मेल्हा के बोलतो कि कइसउँ ले ले । फेर लेला पर तो जइसे हुँड़ार-सियार हो जइतो ।)    (सारथी॰12:17:8:1.43)
285    दिन-गुन (~ तय होना) (दोनो तरफ से पसीन हो गेल । सब कुछ दिन-गुन तय हो गेल । बरियात सजल । हाय रे बरियात !)    (सारथी॰12:17:18:2.19)
286    दिन-दुपहरिया (हम्मर लोकनाथ बाबू के एन्ने चाल-ढाल, पहनावा-ओढ़ावा में बहुते बदलाव आ गेल ह । दोस-मोहिम आउ चौक-चौराहा पर उनखे चरचा हो रहल हे । ... बेसी मूड में रहऽ हका त चाय के साथ पकौड़ियो मँगा दे हका । कोय दमगर गनमान्य आ जाय पर उजर चाहे करिया रसगुल्ला के भी दौर चल जाहे । सबेरे आउ दिन-दुपहरिया के घर के बैठका पर चौकड़ी जमे से अलग ।)    (सारथी॰12:17:36:1.11)
287    दिमगगर (= दिमाग+गर) (एक हाँक पर लुझन हाथ जोड़ले, टेहुना से ऊपर झुकके 'जी मालिक !' कहऽ हल त रोम-रोम में वफादारी झलक जा हल । ई नयका पीढ़ी जनु काहे गुमनगर आउ दिमगगर होल जाहे । बाप के संस्कार पूत में नञ् आवे के मतलब जरूर कहँय कुछ पक रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:21:1.9)
288    दियाँ (= दपर, दबर) (गद ~ बइठ जाना) (चानो का कहलका, "तों सब एजइ अन्हार में रूकि जो !" सब 'हउ' कहलक कि भैंस गद दियाँ बइठ गेल । चानो का कहलका, "जब बोलइबो, तबे सब अइहऽ ।")    (सारथी॰12:17:11:2.31)
289    दुन्नूँ (मन के पीड़ा आँख के लोर बनि गेल । ओकर लोराल आँखि तर दुन्नूँ नन्हकन के चेहरा घूमि गेल । ओकर करेजा खुंडी-खुंडी हो गेल । ऊ काँपि उठल । देह के रोइयाँ गनगना गेल - आज भी चूल्हा जरावे भर कमाय न भेल !)    (सारथी॰12:17:15:1.37)
290    दुमकना (आगू में गुरगेट हल । पतित दा के गाभिन भैंस ओकरे रूख कइले जा रहल हल । ई देखइत पतित दा के कलेजा मुँह के आ गेल । ऊ आव देखलका न ताव, बड़ी वेग से पानी काटले बढ़ऽ लगला जइसे कोय गाय अपन बछड़ू दने दुमकऽ हे ।)    (सारथी॰12:17:10:3.36)
291    देह-गात (अदमी आउ जनावर दुन्नूँ थकि के थउआ । कछार लउकऽ लगल ... जय गंगे ... अब की ! / कछार पर सब थकि के चितंग । किनखो देह-गात के होश-हवाश नञ् । पीड़ा से अंग टूट रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:11:1.5)
292    दोगनाना (भूख से सब व्याकुल हलन । सबके भूख आउ दोगना गेल, काहे कि जेकर असरा में भूख सुसुप्त हल, ऊहे अलोप गेल । तेल घटला से दीप के लौ भड़कि उठऽ हे, ओइसइँ कलौ हेरइला से सबके भूख धधकि उठल ।)    (सारथी॰12:17:11:1.23)
293    दोगली (~ गाय) (केसर महतो कहो हलथिन, 'बेचारा कापो भइया ... ।' आझ कापो चा 'बेचारा' हो गेलथिन । अट्ठारह बीघा के जोतदार कापो चा - आझ बेचारा । दू जोड़ा हाथी नियन बैल, दू गो दोगली गाय, एगो गुजराती भैंस गोंड़ी पर शोभो हलइ कापो चा के । देवना बराहिल ... ई कड़कड़िया मोंछ, छोफिट्टा जुआन, सिलेब रंग एकदम पकिया ।)    (सारथी॰12:17:13:1.23)
294    दोमना (हम हनुमान मंदिर में फर्श पर लोघड़ि गेलूँ । फुर-फुर हावा लगि रहल हल । थकान के चलते हमरा नींद दोम देलक । साँझ के ऊहे बाबा जगइलन, 'उठ उठ हो,  बड़े सरकार आ रहलखूँ हे ।')    (सारथी॰12:17:27:1.32)
295    दोलची (ओकर माय अपराधी भाव से बूढ़ा के आँख में झाँकलन आउ बेटी के हौले डाँटइत अपन गोदी में खींच लेलन । ऊ बच्ची के गील चड्डी उतारि के बगल धैल अपन प्लास्टिक के दोलची में डाल देलन ।)    (सारथी॰12:17:25:1.2)
296    दौरा (दे॰ दउरा) (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । चौड़ा पाड़ वाला कथई रंग के दू गो साड़ी, सिलल-सिलावल साया-बिलौज, तीन भर के पायल, रंगन-रंगन के चार डिब्बा चूड़ी, अलता, अइना, कंघी, पाउडर दौरा नियर साज के पेठा देलन हल ।)    (सारथी॰12:17:21:1.37)
297    धउड़ना (दे॰ धउगना) (जब जंगल में सड़क बने लगल त देह पर तनि रोगन चढ़ल । सब जन्नी-मरद, हियाँ तक कि छोट-छोट बाल-बुतरू से लेके अधअदमी तक के काम मिल गेल हल । सड़क बनावे में ठिकेदार आउ ओकर आदमी मजूर खोजे खातिर गाँव-गाँव धउड़ऽ हल ।)    (सारथी॰12:17:8:2.6)
298    धपधप्पी (= तेज गति से चलने से कदमों की आहट) (रात में कत्तेक टरक, बस रूकऽ हे । रात भर चूल्हा जरते रहऽ हे । गली-गुच्ची में अन्हारो में धपधप्पी होते रहऽ हे । ओकर माथा झनझना गेल आउ लगल कि गली के धपधप्पी सुनके नीन टूटल आउ बूढ़-पुरनियाँ के बात कान में गूँजे लगल - "अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।")    (सारथी॰12:17:9:2.12, 14)
299    धाड़ा (शनीचर पुछलकइ - "मोटरिया में की हिकउ ?"/ सोमरा बोलल, "चिनियाबेदाम ।"/ शनीचर ओकरा हाथ से उठाके देखलकइ - मानो तौलइत कहलकइ, 'लगऽ हइ पाँच सेर से ऊपर हइ । एक धाड़ा ने हो जाय ?)    (सारथी॰12:17:17:1.20)
300    धिरकाना (= धमकी देना) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । गारी-गलौज तो मानऽ ओकर बपौती हे । मन नञ् पारे कि हाथ से पइसा छीन ले । देबइ घरी मेल्हा-मेल्हा के बोलतो कि कइसउँ ले ले । फेर लेला पर तो जइसे हुँड़ार-सियार हो जइतो ।)    (सारथी॰12:17:8:1.43-44)
301    नउका (= नयका, नया) (महुआ कत्तेक दिन से टपक रहल हे । ई समय में पूरा इलाका महमह करे लगऽ हे । महुआ के महक से मन भर जा हे आउ फेर पुरनका महुआ भी ताजा हो जाहे । नउका महुआ के महक से मन जब बउँखऽ हे त आदमी पुरनका महुआ निकाल के रात-विरात तक सिझइते रहऽ हे ।)    (सारथी॰12:17:9:2.34)
302    नज्जर (= नजर; दृष्टि) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । ... घर-अंगना हिअइतो । बेटी-बहू पर नज्जर गड़इतो । हिसाब-किताब में जित्ते गाय गिले ले तइयार ।)    (सारथी॰12:17:8:1.49)
303    नटलील्ला (नेटुआ के नाच आउ मानर के थाप तो मुसहरी से उपहिए गेल । ओकर जगह बैंजो के धुन पर ताशा के थाप, साथ में लौंडा ... । जीन्स ढिल्ला करऽ, नटलील्ला करऽ आउ 'चोलिया के हूक लगा द राजा जी' जइसन संगीत के साया में शादी संपन्न ।)    (सारथी॰12:17:21:1.47)
304    नतीजा (~ करना = परेशान करना) (पड़िया तो घरे आके खटिया पर ढह गेल आउ भोकार पार के काने लगल । ऊ मने-मन बीझना आउ बाझो सिंह में फरक जोड़े लगल । बीझना ! हम्मर भतार ! ... मोछमुतवा के जनु के सहका देलकइ कि बियाह के बाद से नतीजा कर रहल हे । आउ बाझो सिंह ! ओकर आँख समांग बिला जाय निपुतरा के । आझ हमरा कोय करम के नञ् छोड़त हल ।)    (सारथी॰12:17:23:2.46)
305    ननकिलाट (हम्मर लोकनाथ बाबू के एन्ने चाल-ढाल, पहनावा-ओढ़ावा में बहुते बदलाव आ गेल ह । ... परसों ऊ मटका के कुरता, ननकिलाट के चूड़ीदार पइजामा पहिनले आउ ऊपर से बंडी डालले चाय दोकान पर पहुँचला ।)    (सारथी॰12:17:36:1.30)
306    ननद-भोजाय ('रोज चरावे में की हइ । तों घर के काम करहीं, हम चरइबइ ।' - 'हूँ, घर के काम ! ननद-भोजाय दू-दू गो मिलके काम रहऽ हे आउ एतना बड़ाय । हम तो एकल्ले ने गोरूअन के चरावऽ हिअउ । साँझ के पत्ता भी ले-ले आवऽ ही, रात में खिलावे खातिर । तों कइले हें ?' बात ई हे कि सउँसे गाँव के जनावर एक्के सहेर में चरऽ हे । तिलका के खेले के भी समय मिल जा हे ।; ओकर हालत देखके बाऊ बोललन, 'घर के याद आवऽ हउ ? होवऽ हइ हो, पहिले-पहिल ने जा रहलहीं हे, एहे लेल । घबड़ाय के बात नञ् हइ हो । घर में दू गो ननद-भोजाय हइये हइ । गाय-गोरू के घास गढ़के खिलावत नञ् । समद देलिए हे । भूखल गोरू पग्गह तोड़ दे हे ।')    (सारथी॰12:17:7:2.1, 9:3.20)
307    नन्ना (= नान्ना; नाना) (हाँ ... हाँ ! बोल बिटिया ... बोल - नान्ना ! बोल, बोल नान्ना ! बच्ची खुशी से किलकइत कभी माय के देखे त कभी बुजुर्ग के । ओकरा दू दुधिया दाँत उगि आल हल । ओकरे चमकावइत ऊ किलकल ... आउ चनकइत बोलल - नन्ना ! नवयुवती माय आउ बुजुर्ग दुन्नूँ निहाल हो गेलन ।)    (सारथी॰12:17:25:2.1)
308    नन्हकन ('नन्हका' का बहु॰) (मन के पीड़ा आँख के लोर बनि गेल । ओकर लोराल आँखि तर दुन्नूँ नन्हकन के चेहरा घूमि गेल । ओकर करेजा खुंडी-खुंडी हो गेल । ऊ काँपि उठल । देह के रोइयाँ गनगना गेल - आज भी चूल्हा जरावे भर कमाय न भेल !)    (सारथी॰12:17:15:1.37)
309    नरकटिया (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।)    (सारथी॰12:17:10:1.20)
310    नरभसाना (एक रोज डॉ॰ शंभु फोन कइलथिन - 'किरण जी, कारू गोप चल गेलथुन ।' उनखर भरभराल अवाज सुनके ई पूछे के बउसाव नञ् परल कि ... 'कहाँ ... ?' दिमाग सनसनाय लगल, माथा घूमो लगल ... देह थिरा गेल ... नरभसा के आँख मुन लेलूँ ।)    (सारथी॰12:17:34:1.19)
311    नान्ना (= नाना) (ऊ बच्ची के बुट्टी भर के मुट्ठी अपन हाथ में थामि रखलक हल आउ थोड़े झुकइत बच्ची के चेहरा से अपन मुँह सटा के हौले-हौले, आगू-पीछू झुकि-झुकि के बुजुर्ग दने इशारा करि के ओकर जुबान से बोलावे के जतन करि रहलन हल - बोल बुनियाँ ... नान्ना ! बोल ... नान्ना ! बुजुर्ग के चेहरा ममता के उजास फेंकइत खुशी से झलमल-झलमल करि रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:25:1.25, 26)
312    नापल-जोखल (सपना भी उकाते के देखके उड़ान भरऽ हे, एकदम नापल-जोखल । घोड़ा पर सवार राजकुमार महल के अँटारी से झाँकइत राकुमारी के गोदी उठाके फुर्रऽऽऽ जइसन सपना भला बीझना के आँख पर कहाँ से बइठत, मुदा ओकर सपना भी कम अजगुत नञ् रहऽ हल ।)    (सारथी॰12:17:20:3.38-39)
313    नारा (बीझना बजार से गुजर रहल हल कि फुटपाथ के एगो दोकान पर ठमकि गेल । अइना, कंघी, नारा, सेनुर, टिकुली, चूड़ी, लहठी आउ ऊहे 32 नम्बर जइसन ढेर जीनीस जहाँ-तहाँ टाँगल हल । दोकान पर पड़िया जइसन-जइसन ढेर लड़की भीड़ लगइले दाम-साठ करे में मसगुल ।)    (सारथी॰12:17:22:2.3)
314    नावा (= नाया; नया) (तहिया से कहियो होटल के रोटी त कहियो सालन आउ अइसइँ कुछ ने कुछ आवे लगल । तिलका पूछे त सब के एक्के जवाब । एक दिन भउजी के नावा लाल रंग के साड़ी देख के चउँकल । ऊ दिन कुछ नञ् पूछ सकल ।)    (सारथी॰12:17:9:2.28)
315    नितरो-छितरो (कापो बाबू के नजर दूर लहलहाइत धान के गहराइल आउ संस्कार बस शरम से झुकल बाली पर अँटक गेल । भर छाती के बाउग धान देखके नितरो-छितरो हो जा हल मन ।)    (सारथी॰12:17:13:2.14)
316    निपुतरा (एक जुटी पर दस हजार, ओकरा में पाँच हजार से बेसी दादनी, जे पहिलहीं अँचरा के खुँटी से ससर गेल हल । भट्ठा पर चढ़े घड़ी पाँच हजार से कमे हाथ लगल । ओकरा पर ऊ निपुतरा बाझो सिंह महीना दिन से आँख गड़इले जब बागीबरडीहा टीसन पर ऊ छेक लेलक, सब लूर-बुद्धि हेरा गेल । एगो सिंघाल पाठा तो खूँटा से खोलिए लेलक हल, बत्तीस सौ रुपया ऊपर से टांकले । "ले जो रे निपुतरा" बुदबुदाल आउ अचरा से खोल के बत्तीस सौ रुपैया गिन देलक ।; पड़िया, बाझो सिंह आउ बत्तीस नम्बर में ओझराल बीझना के कान सनसनाय लगल, 'हम्मर कोय कसूर नञ् हे । हम तो निपुतरा बाझो सिंह के कुमारे में देखवो नञ् कइली ।')    (सारथी॰12:17:20:1.20, 26, 22:2.21)
317    निपुतरा (पड़िया तो घरे आके खटिया पर ढह गेल आउ भोकार पार के काने लगल । ऊ मने-मन बीझना आउ बाझो सिंह में फरक जोड़े लगल । बीझना ! हम्मर भतार ! ... मोछमुतवा के जनु के सहका देलकइ कि बियाह के बाद से नतीजा कर रहल हे । आउ बाझो सिंह ! ओकर आँख समांग बिला जाय निपुतरा के । आझ हमरा कोय करम के नञ् छोड़त हल ।)    (सारथी॰12:17:23:2.48)
318    निमाहना (बाऊ के लगल जइसे तिलका अब बुतरू नञ् हे । समझावइत कहलन, "ईम साल केसरी के निमाह दिअइ तब भार हौला हो जाय । जुगाड़ बइठे तब ने । हम तो दोवाहो खोज रहलिए हे ।")    (सारथी॰12:17:8:3.11)
319    निहोरा-पाती (ई दुनो ओने निहोरा-पाती में लगल हल तब तक ओने ओकर मरीज दम तोड़ चुकलइ हल ।/  आखिर लहाश घर लाको सब विध-वेहवार करके मँड़रिया पर जला देलक । तेरह दिन में घरजाना करके पाक हो गेल ।)    (सारथी॰12:17:18:3.52)
320    नून-रोटी (मन के पीड़ा आँख के लोर बनि गेल । ओकर लोराल आँखि तर दुन्नूँ नन्हकन के चेहरा घूमि गेल । ओकर करेजा खुंडी-खुंडी हो गेल । ऊ काँपि उठल । देह के रोइयाँ गनगना गेल - आज भी चूल्हा जरावे भर कमाय न भेल ! हे भगवान ! काहे लक्ष्मी मइया ? केकरो छप्पर फारि के त केकरो नून-रोटी भी नञ् !)    (सारथी॰12:17:15:1.42)
321    पंद्रहियाँ (बाझो सिंह के हरवाहा लुझन अप्पन जिनगी खपा देलक ड्योढ़ी पर । एक रोज सानी लगइते नयका बिरनामा भैंसा दुन्नू टाँग के बीच सींग घुसा के अइसन पटका मारलक कि फेन ऊ नञ् उठल । एक पंद्रहियाँ से जादे खटिया पर पड़ल-पड़ल सौंसे देह बेड सोर से भर गेल तब लुझन बोलावे लगल मौत के ।)    (सारथी॰12:17:20:1.35)
322    पग्गह (= पगहा) (ओकर हालत देखके बाऊ बोललन, 'घर के याद आवऽ हउ ? होवऽ हइ हो, पहिले-पहिल ने जा रहलहीं हे, एहे लेल । घबड़ाय के बात नञ् हइ हो । घर में दू गो ननद-भोजाय हइये हइ । गाय-गोरू के घास गढ़के खिलावत नञ् । समद देलिए हे । भूखल गोरू पग्गह तोड़ दे हे ।')    (सारथी॰12:17:9:3.22)
323    पच् दनी (नरेन्दर सोचऽ हे - ठगबनीजी के घोषणा ! गरीब के पूछ कहउँ नञ् । बड़का लेल विज्ञापन । पैसा-वलन के पूछ । ऊ ई अंधेर व्यवस्था पर पच् दनी थूक दे हे ।)    (सारथी॰12:17:16:1.10)
324    पछियाही (अगहन महीना के छोटगर दिन चार बजल कि साँझ भरल । लरम-लरम जाड़ा में सुरूज के लरम-लरम किरण पछियाही टोला में समा रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:20:2.40)
325    पटकम-पटकी (= पटका-पटकी) (एन्ने लालटेन के बरनल में करासन चढ़ गेल हल । भभक-भभक के कभी तेज त कभी मद्धिम अन्हार आउ इंजोर में पटकम-पटकी । भभकते-भभकते लालटेन बुता गेल ।)    (सारथी॰12:17:21:2.36)
326    पटपटाना (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।)    (सारथी॰12:17:27:3.35)
327    पटवारी ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी । / "याद हो ने पटवारी जी, खेते ले ने महेसरा दुसाध के मूड़ी काट लेलहो हल । सौंसे गाम साथ देलको हल । ई अलग बात हइ कि तों केसवा जीत गेलहो, बाकि केतना दिन जेल में रहलहो हल ?")    (सारथी॰12:17:13:3.13, 15)
328    पटेंगन (बरियात देखके गाँव के लोग सिहा गेल । नेटुआ के नाँच । हाय रे नाँच ! कमाल के नाँच हलइ ! कुटुम समितगर हलइ । खूब खियैलकइ - सूअर के मांस-भात । दारू-ताड़ी के नदी बहा देलकइ - जे जत्ते खा ! जत्ते पीयऽ ! बरियात पीको ओघड़ गेला जे जहाँ के तहाँ पटेंगन ।)    (सारथी॰12:17:18:2.43)
329    पट्टेदार (साँझ के महरानी थान में मिटिंग लगल । गाम के जेठ-रैयत, बटइदार आउ पट्टेदार सभे जुटलथिन हल - भागवत बाबू, तिरपित बाबू, रामशरण बाबू, एकादश बाबू, मनीजर साहेब, पटवारी जी, तोखी सिंह, दशरथ सिंह, कापो सिंह, किसुन महतो, रामस्वरूप पांडे, ओगैरह तीनो टोला के लोग ।)    (सारथी॰12:17:13:2.31)
330    पतलडेर (सोमरा अप्पन छोटका अँखिया से देखलकइ, बड़का मूँद के,  कहलकइ, "हमरा तो दुन्नो से लखा दे हइ बाबू ! तब हमरा काना कइसे कहलहीं ?" शनीचर कहलकइ, "तों कान नै हहीं, डेर हहीं । मौगी होतउ पतलडेर । देखतउ तोरा, लगतउ दोसरा के देखब करऽ हइ । देखतउ पूरब, तब लगतउ दक्खिन देख रहलइ ह आर कि !"; लड़की देखो लगला । मिले तो जादातर काना  ले कानी । ई तो तइये हलइ मुदा ई बढ़िया कद-काठी-सोलिट देह वाली चाहऽ हलखिन से नै मिल रहल हल । आखिर उहे मिल गेल । तनी बेटवे नियर पतलडेर । बान्हि के कि कहना ? ... घोड़ कटार बान्हि । कार कसौटी पाथल सन । ओकरा में हीरा के चमक जइसे भीतर से फूल रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:18:1.54, 2.14)
331    पत्तर (भोरगरे जानवर खुट्टा से खुल गेल । सबके हाथ में तेल पिलावल लाठी, जेकरा में पत्तर ठोकल, गोवा लगल । गंगा के किछार पर भीड़ जमा होवऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:10:2.7)
332    परवर (= परवल) (नहा-धो के तैयार भेलूँ त भोज के पंगत लग गेल । चूड़ा, दही, चीनी के मगहिया भोज । ऊपर से जी फेरन परवर के भुंजिया ।)    (सारथी॰12:17:31:3.28)
333    पराना (= भागना) (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल ।)    (सारथी॰12:17:11:2.46)
334    पलटौनी (ओकर माय अपराधी भाव से बूढ़ा के आँख में झाँकलन आउ बेटी के हौले डाँटइत अपन गोदी में खींच लेलन । ऊ बच्ची के गील चड्डी उतारि के बगल धैल अपन प्लास्टिक के दोलची में डाल देलन । ऊ बच्ची के दोसर चड्डी न पेन्हइलन । के जाने ओकरा पास दोसर पलटौनी हल कि नञ् ?)    (सारथी॰12:17:25:1.4)
335    पल्लह (सोमर कलकत्ता चल आयल । ... कोय तरह से पेट चलइ लायक एक दोकान में नौकरी लग गेल । काम करो लगल । मुदा डाल के छूटल बानर आर घर के छूटल आदमी पल्लह नै पावऽ हइ, से हाल । कलकत्ता के पानी एकरा नै सूट कइलकइ, बेमार हो गेलइ ।)    (सारथी॰12:17:19:3.12)
336    पहनावा-ओढ़ावा (हम्मर लोकनाथ बाबू के एन्ने चाल-ढाल, पहनावा-ओढ़ावा में बहुते बदलाव आ गेल ह । दोस-मोहिम आउ चौक-चौराहा पर उनखे चरचा हो रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:36:1.2)
337    पहमे (पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे । बाहरी आदमी एकदम नञ् अइतो । गामे के आदमी पहमे समाद जइतो आउ काम पर जाय वलन सब झोंड़ के झोंड़ शहरे अइतो । समाद देवे वला आदमी के सब कुछ समदल रहऽ हे । मर-मजूरी के सब बात तय ।)    (सारथी॰12:17:9:1.20)
338    पहुरा (सोमर कहलकइ, "तब कर दहीं काहे नै बाबू ?" शनीचर कहलकइ, "बियहवा करभीं तब सातो पहुरा बिक जइतउ । बड़ी खतगर सुगरी खोजके लइलिअउ हे । एकर माय बारह बच्चा बियावऽ हइ, एक बेरी में देखऽ हीं, पहिलठ में सात बच्चा बिअइलइ । सोचलिअइ हल - पाँचो के खस्सी खोला देबइ । दू गो सुगरी अगिला साल मोखि जइतइ । बस झरइत नै झरतइ । खसिया के बेचके अगिला साल तोर बियाह ।'; सोमरा कहलकइ, "तब छोड़ दे बाबू । हमर पहुरे बिक जायत, तब हम नै बियाह करब ।"; सोमरा कहलकइ, "तब जल्दी बियहवा कर दहीं बाबू । बिक जाय पहुरा कोय फिकिर नै ।")    (सारथी॰12:17:18:1.13, 21, 35)
339    पाछूहिया (आगू सोमरा हेलल, मागु से कहलक - लुगवा ऊपरि करि लिहें, तों हमरा से नाटा हहीं, सड़ीवा भींग जइतउ ! जब पूरा बीच आयल तब औरतिया पूरा कपड़ा पेट पर चढ़ा लेलक । सोमरा पीछे घूम के देखलक । मौगी कुरोध के बोललइ, "दुर्रर्र ने जाय छुछुन्नर ! ... हम बे नगन होल जाही । ई पाछूहिया को की देखऽ हीं ?" सोमरा कहलकइ, "अरे देखऽ हिअइ - हमर सातो पहुरा कहाँ हइ ?")    (सारथी॰12:17:18:3.4)
340    पिरकी (लुझन चार दिन से आँख नञ् खोललक । खाना-पीना भी बंद । बीझना के माय अँचरा पसार के बोलल - "हे देवता, देवी, गाम गोसइयाँ, पान के पिरकी फेंक देही चाही निंगल जाही ! हे बीझना के बाऊ ! अब केकर असरा देख रहलऽ हे ... !" लुझन के चेहरा से दरद के भाव उपहि गेल ।)    (सारथी॰12:17:20:2.8)
341    पिलावल (तेल ~ लाठी) (भोरगरे जानवर खुट्टा से खुल गेल । सबके हाथ में तेल पिलावल लाठी, जेकरा में पत्तर ठोकल, गोवा लगल । गंगा के किछार पर भीड़ जमा होवऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:10:2.7)
342    पिलुआ (= छोटा बच्चा) (अब लाली धपे लगल हल । रतचलवन जानवर कोर पकड़ लेलक हल । खाली सियार, वनबिलाड़ या खिखिर धउगइत-भागइत एन्ने-ओन्ने झलक जा हल । सियार या वनबिलाड़ डगर काटलक त बाउ थुकथुका के आगू बढ़इत बुदबुदाय लगऽ हल - 'या जंगलिया माय, तनि सहाय रहिहऽ । एगो पिलुआ साथ हको । अइते पाठी चढ़इवन ।')    (सारथी॰12:17:7:3.7)
343    पुछार (ओकर दुन्नूँ बुतरू आके दुइयो पट्टी लिपटि गेल । ऊ थकान अउ उदासी भूलि के चिलकन में ओझरा गेल । / 'बाऊ ! हमरा भइया मारलको ।' / 'नञ् बाऊ ! ई झुट्ठे कहऽ हो !' / 'चलहीं त मइया से पुछार करा दे हिअउ ।' / 'तोहीं ने पहिले ढकललहीं ?' / 'तों मुँहाँ दुसलहीं, तब ने ढकललिअउ ।')    (सारथी॰12:17:15:2.17)
344    पुरइनी (संसार में रहके भी एकर कारिख से बच्चल, पुरइनी के पात नियन कादो से अनछुअल । कहियो उनखर मुँह से कोय फूहड़ गप्प या कुबोल या गोसायल बोली हम नञ् सुनलूँ ।)    (सारथी॰12:17:34:3.43)
345    पूड़ी-बुनिया ("आह ! न आवल चाहित हलइ । लोग के कहे में आ गेली । सोचइत हली कि कम्बल मिलला पर जाड़ा ठीक से कटत । भर हिन्छा पूड़ी-बुनिया खायब ... बाकिर ... ।" पछतावे लगल बेदामी ।)    (सारथी॰12:17:6:1.15)
346    पेन्हावा-ओढ़ावा (एक रोज डॉ॰ शंभु फोन कइलथिन - 'किरण जी, कारू गोप चल गेलथुन ।' उनखर भरभराल अवाज सुनके ई पूछे के बउसाव नञ् परल कि ... 'कहाँ ... ?' दिमाग सनसनाय लगल, माथा घूमो लगल ... देह थिरा गेल ... नरभसा के आँख मुन लेलूँ मुदा आँख के आगू उनखर मोहिनी रूप, पेन्हावा-ओढ़ावा आउ सबसे जादे उनखर खुँट्टी केतारी के जड़ी जइसन मीठगर बोली आकार लेवो लगल ।)    (सारथी॰12:17:34:1.21)
347    पोरगर-पोरठगर (~ लकड़ी) (बाऊ जी परदेस आउ बस बाल-बच्चे घर में । ... गरमी के दिन में बीड़ी के पत्ता तोड़ऽ हे । अइसे सब मिलके लकड़ी चूनऽ हल । पोरगर-पोरठगर लकड़ी नञ् काट पावऽ हल । ई लेल झाड़ियो-झूरी चून ले हल । ओकरे में से चून-बिछ के कहियो मइया हाट पहुँचा दे हल ।)    (सारथी॰12:17:8:1.21)
348    फट्टल-चिट्टल (साँझ के ऊहे बाबा जगइलन, 'उठ उठ हो,  बड़े सरकार आ रहलखूँ हे ।' हम हड़बड़ा के उठ गेलूँ । उनखे दर्शन ले त हमर आँख तरसि रहल हल । देखऽ ही त पाँच साढ़े पाँच फीट के लमहर पक्कल बाल-दाढ़ी, दुन्नूँ ठेहुना पर फट्टल-चिट्टल कपड़ा लपेटले खाली गोड़ में पायल, नाक में बुलाकी, माथा में चन्दन, कान में कनबाली पेन्हले चार-पाँच चेला-चाटी साथ सरयू तट से चलल आब करऽ हथ ।)    (सारथी॰12:17:27:1.37)
349    फरछो-फुरछी (जइसहीं गुरु जी माइक के सामने खड़ा होवो हला, मैदान फरछो-फुरछी । फिन गुरु जी दमाही करो लगो हला - 'तोहर जिनगी सुधर जइतउ रे मैना नटराज नियन' । सभा सन्न । सुनेवला के चेहरा खिल जा हल ।)    (सारथी॰12:17:34:3.25)
350    फसील (दे॰ फसिल) (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।)    (सारथी॰12:17:10:1.20)
351    फारिग (दे॰ फरागत) (हम धार संग तइरइत पलटि के देखली, सब नहा-नहा के फारिग हो चुकलन हल ।)    (सारथी॰12:17:27:1.8)
352    फुर-फुर (~ हावा) (हम हनुमान मंदिर में फर्श पर लोघड़ि गेलूँ । फुर-फुर हावा लगि रहल हल । थकान के चलते हमरा नींद दोम देलक । साँझ के ऊहे बाबा जगइलन, 'उठ उठ हो,  बड़े सरकार आ रहलखूँ हे ।')    (सारथी॰12:17:27:1.31)
353    फुलंगी (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे । नीचू में खेत आउ तनि ऊपर में चउड़गर जगह । तेकर ऊपर पहाड़ के फुलंगी ।; कवि-गोष्ठी में जब सुनताहर उबो लगो हलो, झुको लगो हला, तउ गुरु जी के बोलावल जा हल - 'जाग गे बहिना, तोड़ अपन निन्दिया ।' की पता हल कि हमनी के जगाके ई अपने सुत जइता ... गढ़गर नीन में, ... लमहर नीन में । आझ ऊ अपन खोंता फुलंगी पर बना लेलका ।)    (सारथी॰12:17:7:1.20, 35:1.36)
354    फेद-फेदी (बात ई हे कि सउँसे गाँव के जनावर एक्के सहेर में चरऽ हे । तिलका के खेले के भी समय मिल जा हे । सहेर के देखइ लेल फेराफेरी बाँध दे हे आउ गोरखिया सब मारे गुल्ली-डंडा, फेद-फेदी आउ कहियो हाथी-घोड़ा के खेल ।)    (सारथी॰12:17:7:2.9)
355    फेरन (जी ~) (नहा-धो के तैयार भेलूँ त भोज के पंगत लग गेल । चूड़ा, दही, चीनी के मगहिया भोज । ऊपर से जी फेरन परवर के भुंजिया ।)    (सारथी॰12:17:31:3.28)
356    फौदारी ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।)    (सारथी॰12:17:13:3.11)
357    बउँखना (दे॰ बौंखना) (महुआ कत्तेक दिन से टपक रहल हे । ई समय में पूरा इलाका महमह करे लगऽ हे । महुआ के महक से मन भर जा हे आउ फेर पुरनका महुआ भी ताजा हो जाहे । नउका महुआ के महक से मन जब बउँखऽ हे त आदमी पुरनका महुआ निकाल के रात-विरात तक सिझइते रहऽ हे ।)    (सारथी॰12:17:9:2.35)
358    बउखल (= बउँखल) (उनखर नजर गोपाल-माय के सेनूर भरल मांग पर जाके ठहर गेल । आँख में याद के बादर उमड़ल-घुमड़ल आउ दू बून पानी बरसा देलक ... रंथी पर ... । / 'राम नाम सत्त हे - सबके इहे गत्त हे ।' / आझ भोरहीं से कापो चा के मन बउखल हल ... कहलखिन हल - "ऐं हो, हमरा अगिया के देतइ ?")    (सारथी॰12:17:14:3.36)
359    बजब (झुनकी के एगो सरंगी हल । एक दिन अपन माय के सरंगी देवइत कहलन, "हले, ई सरंगिया रखि दे । हम कनउ से अइबउ ने त ई अपने-अपने बजऽ लगतउ ।" कहि के घर से निकलि गेला । माय ओकरा कोठी पर रखि देलथी । दू-चार दिन के बाद एक दिन सरंगी अपने आप बजऽ लगल त माय कहलकी, "अहे बड़की, सुनहीं ने, सरंगिया बजब करऽ हउ । बुझा हउ बड़का आ रहलउ हे । ओकरो सिधवा लगा दहीं ।" सुनऽ ही, माय के बोलते-बोलते झुनकी अपन अंगना में ठाढ़ हला ।)    (सारथी॰12:17:28:2.2)
360    बटइदार (साँझ के महरानी थान में मिटिंग लगल । गाम के जेठ-रैयत, बटइदार आउ पट्टेदार सभे जुटलथिन हल - भागवत बाबू, तिरपित बाबू, रामशरण बाबू, एकादश बाबू, मनीजर साहेब, पटवारी जी, तोखी सिंह, दशरथ सिंह, कापो सिंह, किसुन महतो, रामस्वरूप पांडे, ओगैरह तीनो टोला के लोग ।)    (सारथी॰12:17:13:2.31)
361    बड़गर-बड़गर (~ गाछ) (पहाड़ के उँचगर जगह पर चढ़के तिलका तनि पाछू हिअइलक । जंगल के बड़गर-बड़गर गाछ में डूबल गाँव नञ् लखाल । ओकरा लगे लगल कि जइसे गाँव छूटल जा हे ।)    (सारथी॰12:17:7:3.9)
362    बतकुच्चह (दे॰ बतकुच्चन) (ऊ थकान अउ उदासी भूलि के चिलकन में ओझरा गेल । / 'बाऊ ! हमरा भइया मारलको ।' - 'नञ् बाऊ ! ई झुट्ठे कहऽ हो !' - 'चलहीं त मइया से पुछार करा दे हिअउ ।' - 'तोहीं ने पहिले ढकललहीं ?' - 'तों मुँहाँ दुसलहीं, तब ने ढकललिअउ ।' - 'ढकललहीं तब कुतवा पर नञ् टगि गेलिअइ ? काटि लेते हल तब ?' - 'कटलकउ तो नञ् ने ?' - 'अउ काटि लेते हल तब ?' - 'काटतउ हल तब ने मारतहीं हल ?'/ नरेन्दर के बतकुच्चह पर हँसी आ गेल ।)    (सारथी॰12:17:15:2.25)
363    बदे (हम बुतरुए से झुनकिया बाबा के बदे ढेर खिस्सा सुनइत आवऽ हली, बकि उनखर दर्शन के सौभाग्य प्राप्त भेल जब हम अपन माय के साथ, जे उनखर शिष्या हल, अयोध्या गेली ।; हमरा ढेर रात तक नींद न आल । हम झुनकी बाबा बदे सोचइत रहि गेली । हमर मन जिज्ञासा से भरि गेल हल, जेकर सही उत्तर सूझ न रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:26:1.7, 27:2.31)
364    बभनचूड़ा (< बाभन + चूड़ा) (लौटती बेरा ऊ मोगलसराय में कहलथिन - 'किरण जी, हमर गोबरलिटिया झर गेलो, तों अपन बभनचूड़वा निकालहो ने ... ।' हम उनखर मुँहा हिअइते रह गेलूँ हल ।)    (सारथी॰12:17:34:2.37)
365    बरनल (= बर्नर, burner) (एन्ने लालटेन के बरनल में करासन चढ़ गेल हल । भभक-भभक के कभी तेज त कभी मद्धिम अन्हार आउ इंजोर में पटकम-पटकी । भभकते-भभकते लालटेन बुता गेल ।)    (सारथी॰12:17:21:2.34)
366    बलसुनरी (~ मट्टी) ("भागवत बाबू ! अपने गाम के जेठ-रैयत हथिन । सोचथिन कि एन.टी.पी.सी. चालू हो गेल । हठुआमनी दमगर-दमगर राकस नियन चिमनी से धुइयाँ निकसो लगल, बिजली तैयार होवो लगल - सौंसे खेत-पथार के ऊपर से मोटका-मोटका तार टंगना नियन टंगा गेल - चउगिरदा करका बादर छुट्टा साँढ़ नियन टहलो लगल - जउन खेत में मिरचाय, रेंड़ी, बैंगन उपजो हे, ऊ बलसुनरी मट्टी पर कोयला के करका पौडर बिछ जइतो । की करभो तखने ?" चुप्पी के वातावरण में अपन शंखनाद कइलका कापो सिंह ।)    (सारथी॰12:17:13:3.39)
367    बलेसर (= pressure) (दिन भर लुबुर-लुबुर बकड़ी नियर खइते रहऽ हइ । जाने दिन-रात में दस बेरी खा हइ कि बीस बेरी । ऊ अनाज खा हइ ? हमरा तो लगऽ हे अनजा के सूँघऽ हइ । तब देखऽ हीं सूतल-सूतल पेट बाढ़ि गेलइ । ई कि हिको तब चीनी के बेमारी । ई कि तब हाट बलेसर तब पाद बलेसर । कुल बलेसर ओकरे पर चढ़ले हइ ।")    (सारथी॰12:17:17:2.2, 3)
368    बहरभूँइ (= (विशेष रूप से औरत का) शौच के लिए बाहर जाना) (खा-पी के बाहरे बथान पर सुत गेल । अधरात के नीन टूटल । एन्ने-ओन्ने हिअइलक त देखऽ हे कि सामने वला घर के केबाड़ी खुलल हे । एकाध जन्नी के अनइ-जनइ भी देखलक । पहिले तो लगल कि बहरभूँइ के बात होत ।)    (सारथी॰12:17:9:3.5)
369    बान्हि (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।"; लड़की देखो लगला । मिले तो जादातर काना  ले कानी । ई तो तइये हलइ मुदा ई बढ़िया कद-काठी-सोलिट देह वाली चाहऽ हलखिन से नै मिल रहल हल । आखिर उहे मिल गेल । तनी बेटवे नियर पतलडेर । बान्हि के कि कहना ? ... घोड़ कटार बान्हि । कार कसौटी पाथल सन । ओकरा में हीरा के चमक जइसे भीतर से फूल रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:18:1.7, 2.14, 15)
370    बामा (= बायाँ) (बीझना बियाह के बात सुनके हरिया गेल आउ ठोर पर नाचइत मुस्की नुकावे ले मुँह बामा पट्टी घुमा लेलक ।)    (सारथी॰12:17:21:1.19)
371    बार (= बाल) (पड़िया के चेहरा पर खतरा से निपटे वला भाव चिपक गेल, साँस में अलगे धाह आउ आँख में खून के छिटका । छाती के दुन्नू फूल चट्टान के माफिक जम गेल हल । मरद के सीना पर बार त जन्नी के सीना पर चट्टान ।)    (सारथी॰12:17:23:3.33)
372    बिजनसिया (= business करने वाला; व्यापारी) ("बाकि आझ के दौर में एकर (खेत-पथार के) भेलू घट गेल हे, बाऊजी । एगो बिजनसिया तनी गो दोकान देके कोय भी किसान से बढ़ियाँ खा-पेन्ह रहल हे । आझ सबसे बड़का चीज पइसा हे । एकरे से तरक्की संभव हे । तोर विचार सड़ गेलो हे ।")    (सारथी॰12:17:14:1.20)
373    बिरनामा (= बिरना; प्रजनन के लिए छोड़ा गया भैंसा) (बाझो सिंह के हरवाहा लुझन अप्पन जिनगी खपा देलक ड्योढ़ी पर । एक रोज सानी लगइते नयका बिरनामा भैंसा दुन्नू टाँग के बीच सींग घुसा के अइसन पटका मारलक कि फेन ऊ नञ् उठल ।)    (सारथी॰12:17:20:1.32)
374    बिसित (पड़ोस के मोदखाना से आधा किलो मोटका चावल आउ पाव भर आलू आल । गोलहत उतरइत-उतरइत बुतरू-बानर पाँच तुरी भंसा हुलकि आल । हर बार - 'सीझऽ दे, खइहें' के भरोसा पर दुइयो भाय नाक में सीझइत भात के भाप भरि लउटि आवे आउ कठघोड़ा में बिसरि के बिसित हो जाय ।; कुछ औरत अपन आँख मुनले जोर-जोर से ताली बजा-बजा मगन गावइत दिख रहलन हल । कुछ एकदम लुज-लुज बूढ़ी बुतरू-सन चकित खिड़की के बाहर के नजारा देखे में बिसित हलन ।; कुछ औरत अपन आँख मुनले जोर-जोर से ताली बजा-बजा मगन गावइत दिख रहलन हल । कुछ एकदम लुज-लुज बूढ़ी बुतरू-सन चकित खिड़की के बाहर के नजारा देखे में बिसित हलन ।)    (सारथी॰12:17:16:1.31, 24:1.21)
375    बिसुरना (माय के गोदी से बच्ची सरकि के हिलइत-डुलइत डिब्बा में डगमगाइत खड़ी रहइ के चेष्टा करि रहल हल । अपन माय के घुटना थम्हले ऊ तुरी-तुरी लुढ़कि के गिर जा रहल हल । एक-दू तुरी ओकर थकल-चूरल माय ओकरा उठइलन, मुदा तेसर तुरी ऊ खिजलाके बेटी के पीठ पर एगो हौले धौल जमा देलन । बच्ची सहमल आउ एने-ओन्ने मासूम-सन निहारइत अपन होठ चुनियावइत सिकोड़के बिसुरे लगल ।)    (सारथी॰12:17:24:3.17)
376    बिहने (~ से संझउकी तक) (चद्दर नञ् रहे के चलते ऊ कत्तेक बार रूसल हल । गोरू बंधल के बंधले छोड़ दे हल । तहिया दीदी चरावे ले जा हल आउ बिहने से संझउकी तक जंगले में चरइते रह जा हल ।)    (सारथी॰12:17:7:1.38)
377    बीयन (= बिन्ना, पंखा) (इंतजार के घड़ी बीतल । सुनीता पहिले एक्के थरिया में गोलहत काढ़ि के बाँस के बीयन से सेरावऽ लगल । कुच्चा के कुद्दी दुइयो के हाथ में दे देलक ।)    (सारथी॰12:17:16:1.34)
378    बुझौअल (बीझना के घर-गिरहस्ती संभाले लेल पड़िया कनियाय बनके आ गेल । बीझना आउ पड़िया के बियाह में बाझो सिंह के बढ़-चढ़ के हिस्सा लेना सउँसे गाम में बुझौअल बनल हल ।)    (सारथी॰12:17:21:1.53)
379    बुट्टी (ऊ बच्ची के बुट्टी भर के मुट्ठी अपन हाथ में थामि रखलक हल आउ थोड़े झुकइत बच्ची के चेहरा से अपन मुँह सटा के हौले-हौले, आगू-पीछू झुकि-झुकि के बुजुर्ग दने इशारा करि के ओकर जुबान से बोलावे के जतन करि रहलन हल - बोल बुनियाँ ... नान्ना ! बोल ... नान्ना ! बुजुर्ग के चेहरा ममता के उजास फेंकइत खुशी से झलमल-झलमल करि रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:25:1.20)
380    बुढ़खुट्टा (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! कल्ह गेलिअइ पोखरिया में नहाय ले । झिगुलिया नहा को पीड़िया पर पुतली बदलब करऽ हलइ, अनचोक्के हमर नजरिया ओने चल गेलइ । छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! एने की हुलकइ हें, लहँगा ले लुलके हें । देबउ अँखिये में टकुआ भोंकि । हमरा नजर लगावइ हें, जुअन पिट्टा ! तोरा जुआनी में आग धर दिअउ ! तोर सरधा में गरदा पोरि दिअउ । देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।")    (सारथी॰12:17:17:3.49)
381    बुनी-पानी ("अगे मइया ! जोर से बुनी-पानी आवइत हइ बिलटुआ के बाबू ! उठऽ-उठऽ, अब इहाँ से डेरा खंभा कबाड़ऽ ।" अकबकाएल बोललक मेहरारू ।)    (सारथी॰12:17:5:1.42)
382    बूँट-खेसारी ("तोर मुँह काहे लटकल हो, कापो ... ?" / "मुँह लटकावे के तो बात हइये हइ, मनिज्जर साहेब । ई धरती हम्मर माय ... हमनी एकर बेटा ... ई माय हमरा से छिना जायत ... एकर धरती पर गेहूम के बाली, बूँट-खेसारी के हरियरी कइसे झूमत ... ई बाउग, ई मकई के पेड़ ... बुढ़ारियो में भुट्टा, मखाना आउ लावा कहाँ से चलतइ मनीजर साहेब ? एकलाश लाल नियन दू रूपिया में एगो भुट्टा खरीदवऽ की ?")    (सारथी॰12:17:13:3.1)
383    बैक-पैक (= backpack, rucksack; a bag with two shoulder straps which allow it to be carried on the back, used by hikers) (ऊ हिंदी चीनी युवती हमरा आगू में हल । ओकरा पास बस एगो बैक-पैक हल । वहमें ओकर कौची-कौची हल, भगवान जानथ, बकि हम ई जानऽ हली कि वहमाँ ओकर दू साँझ के खाना जरूर हे ।)    (सारथी॰12:17:30:2.27)
384    बैल-धुर (हप्ते दिन बाद बीझना के बोलाके बाझो सिंह कहलन, 'अरे बीझना ! एन्ने देख रहलिअउ हे, बड़ी मनबढ़ू होल जाहीं । खेत-खंधा पर ध्याने नञ्, बैल-धुर उपासले, एक ड्राम चाउर फटके ले हइ ऊहो तोर माय सास पुतोह के हाथ में दहिए जम रहलउ हे । हमरा ई सब करवे ले दोसर मजदूर रखहीं पड़त त शादी-बियाह, मरी-गमी आउ डेढ़ कट्ठा घेवारी ... । सबसे चोथू हमरे बूझऽ हीं ।' बीझना के लगल कि बाझो सिंह अपन उकात दिखा रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:23:1.15)
385    बैल-धूर (बाझो सिंह के देहरी से जुड़ल रहइ लेल भी ई जरूरी हे । आखिर घटल-बढ़ल उनइस-बीस वहइँ से ने पूरा होवऽ हे । बीझना के काँधा पर भी पालो रखा गेल हल । समय से पहिले जुआन हो गेल । दिन भर के हरवाही बैल-धूर के सानी-पानी, मालिक के दियल डेढ़ कट्ठा घेरवारी सब ओकरे जिम्मे ।)    (सारथी॰12:17:20:3.26)
386    बोथा (दे॰ बोथ; बोत) (बरखा त करिया नाग नियन सरसरायल बढ़ल आवइत हल आउ अब त देह पर बुनी गिरे लगल हल । तनीए देर में आदमी भींज के बोथा हो जइतन ।)    (सारथी॰12:17:5:1.48)
387    बोथाना (= बोत/ बोथ होना) (तिलका बाऊ साथ रपेटले जा रहल हल, एकदम भाउठे-भाउठे । ई लेल कखनउँ सोता तो कखनउँ झार-झंखार आउ कखनउँ पहाड़ियो पर चढ़े पड़ऽ हल । कातिक महीना रहइ के चलते ठेहुना तक सीत से बोथा गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:7:2.48)
388    बोहनी (ओकर हाथ ओइसइँ जेभी से बहरा गेल, जइसे तातल खिचड़ी छूके अंगुरी । सड़क के किनारे पसरल सामान पर ओकर नजर ठहरि गेल । ऊ मने मन बुदबुदा हे - 'सब कुछ त ओइसइँ धइल हे । एगो पैंट आउ एगो फराके त बिक पाल ... सबेरे-सबेरे के बोहनी । औने-पौने भाव लगा देलूँ ।')    (सारथी॰12:17:15:1.16)
389    भभकना (एन्ने लालटेन के बरनल में करासन चढ़ गेल हल । भभक-भभक के कभी तेज त कभी मद्धिम अन्हार आउ इंजोर में पटकम-पटकी । भभकते-भभकते लालटेन बुता गेल ।)    (सारथी॰12:17:21:2.34)
390    भर (~ थरिया; ~ छाती; ~ मुँह नञ् बोलना) (तिलका के आँख तर गाँव, गाँव के सिमाना आउ पहाड़ पर से गिरइत झरना अइते रहल । ओकरा लगे लगल, अगर झरना के पानी सोझिया के गाँव दने मोड़ दे तो खेती-पाती हो सकऽ हे । अब तो गरमियो में धान रोपा हे, गरमा धान । फेर भर थरिया भात । ई दोना भर से भारी । परदेस की खातिर ?; कापो बाबू के नजर दूर लहलहाइत धान के गहराइल आउ संस्कार बस शरम से झुकल बाली पर अँटक गेल । भर छाती के बाउग धान देखके नितरो-छितरो हो जा हल मन ।; अभी पड़िया के गोड़ के अलता मेटाल भी नञ् हल कि बीझना बिदके लगल । जनु ओकर कान में के कौन मंतर फूँक देलक हे कि पड़िया से भर मुँह बोले नञ् ।)    (सारथी॰12:17:9:3.28, 13:2.13, 21:2.5)
391    भाउठे-भाउठे (तिलका बाऊ साथ रपेटले जा रहल हल, एकदम भाउठे-भाउठे । ई लेल कखनउँ सोता तो कखनउँ झार-झंखार आउ कखनउँ पहाड़ियो पर चढ़े पड़ऽ हल ।)    (सारथी॰12:17:7:2.45)
392    भिजुर (दे॰ भिजुन) (गोपाल रपरपाल चल गेल माय भिजुर । एकलौता बेटा ... माय के बिगाड़ल बेटा ... ओइसे त सब्भे बेटा माय के दुलरूआ होवे हे ।)    (सारथी॰12:17:14:1.52)
393    भिड़कल (तिलका उठल आउ घर दने सोझिया गेल । केबाड़ी भिड़कल मिलल । घर हेलल । एकदम सुनहटा । अँगना आउ ओसरा दुन्नो जगह के खटिया खाली देखलक ।)    (सारथी॰12:17:9:3.9)
394    भुक्खल-पियासल (गोपाल के बरबादी के सातो अध्याय खतम हो गेल हल, गोपाल के माय के करेजा फट गेल हल, बाकि कापो चा के करेजा तो पहिलहीं फट चुकल हल ... अब की फटत ? कापो चा पत्थल हो गेला हल । चार दिन के बाद भुक्खल-पियासल गोपाल के माय के बलड-परेसर लो हो गेल आउ डॉक्टर आवे से पहिलहीं ऊ बेटा के ठमा चल गेली ।)    (सारथी॰12:17:14:3.23)
395    भुनभुनाना (समझइलक गोपाल जी के भासो । गोपाल जी के मिजाज सनसना गेल । भुनभुनइते घर पहुँचल - "ऐं बाऊजी, तोरा की मतलब हो ? सौंसे गाम-गिराम इलाका में खुशी के लहर उठ रहल हे, आउ एगो तों विरोध कर रहलहो हे । सभे हमर माथा खराब कइले हइ ।")    (सारथी॰12:17:14:1.6)
396    भुररना (सोमर कहलकइ, "... देखऽ हिअइ, अपना किसना के, साँझ-बिहान चूड़ा साथ भूँज के मिला के खा हइ, ऊपर से चाह पीयऽ हइ सुड़ु ! ... वइसइँ हमहूँ खाय ले चाहऽ हिअइ ।" शनीचर कहलकइ, "तों सबेरे किसान के काम करे ले जइभीं । दिन भर कोदार पारो, भूख लगतउ, अनाज तो अनाज, माटी समेत पेट में पच जइतउ । ... ऊ अर देश के दुश्मन हिकइ, अदना के कमाय-खाय वाला । जे दिन चलउ, अगिया पर भुरर के खा जो । ओकरा जइसन बनइ ले सोचवो नञ् कर ।"; अब करीब-करीब बदाम घूर के छितराल आग पर भुरर गेले हल । दुइयो खाय लगल चुपचाप ।)    (सारथी॰12:17:17:2.9, 3.37)
397    भूलल-भटकल (= भुलाल-भटकल; भूला-भटका) (एक तुरी फिन नरेन्दर बाजार के देखलक बगुला-सन लिलकल आँखि से । एक से एक बढ़ि के सजल-सजावल गड़कल दोकान । सामान के अम्बार लगल । मोट-मोट सेठ के हँसोतइ से फुरसत नञ् ... नोट पर नोट ... गड्डी पर गड्डी ... धन के बारिस । ओने स्वर्ग, एने नरक । अगल-बगल के दोकान में भूलल-भटकल गाहक । दोकान के रौनक गाहक !)    (सारथी॰12:17:15:1.31)
398    भेंभा (घुंघरैला केश गरदन पर झूलो हल ... भेंभा नियन । धोती-कुरता, गोड़ में जुत्ता ... एगो छाता आउ एगो करका बेग जरूरी । बेग भी कइसन ... बरसाती बेंग जइसन ।)    (सारथी॰12:17:34:1.38)
399    भेलू (= value) ("बाकि आझ के दौर में एकर (खेत-पथार के) भेलू घट गेल हे, बाऊजी । एगो बिजनसिया तनी गो दोकान देके कोय भी किसान से बढ़ियाँ खा-पेन्ह रहल हे । आझ सबसे बड़का चीज पइसा हे । एकरे से तरक्की संभव हे । तोर विचार सड़ गेलो हे ।")    (सारथी॰12:17:14:1.19)
400    भोंजल (हिसाब जोड़े-नारे में ~) (हिसाब जोड़े-नारे में मइया एकदमे भोंजल हे । ऊकी, तहिया फूफा के हाथ बाऊ रुपइया भेजइलका हल । महाजन आल आउ तीन-तेरह करके कुल्ले हथिया लेलक ।)    (सारथी॰12:17:8:1.36)
401    भोरगरे (भोरगरे जानवर खुट्टा से खुल गेल । सबके हाथ में तेल पिलावल लाठी, जेकरा में पत्तर ठोकल, गोवा लगल । गंगा के किछार पर भीड़ जमा होवऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:10:2.6)
402    भौंरी (" ... तूफान लगऽ हे हमर जिनगी के झंझरी नइया डुबाके छोड़त । हम कतनो जोर लगावऽ ही, लहर के थपेड़ हमरा भौंरी में घेरि के डुबा देवे चाहऽ हे । हम भीतरे-भीतर भौंरी में डुबइत अदमी के बेचैनी-सन अनुभव करऽ ही सुनीता !" नरेन्दर बोलि के मूड़ी गोति लेलक अउ दुन्नूँ हाथ से अपन माथा हँसोतऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:15:3.32, 33)
403    मँड़ारी (= श्मशान, मुर्दाघाट; सुनसान स्थान) (ई दुनो ओने निहोरा-पाती में लगल हल तब तक ओने ओकर मरीज दम तोड़ चुकलइ हल ।/  आखिर लहाश घर लाको सब विध-वेहवार करके मँड़रिया पर जला देलक । तेरह दिन में घरजाना करके पाक हो गेल ।)    (सारथी॰12:17:19:1.2)
404    मंझोलका (महुआ हइ अंगूरी ... ! मगर ओकर पानी उतरल कि गेन्हाय लगल आउ जानवर-धूर सूअर-मकार थोथुन मारइ लेल तैयार । एने ओकर पानी बन गेल शराब, जे देशी-विदेशी में मिलके चटकदार बोतल से लेके फीरीज तक बड़का, छोटका, मंझोलका सबके लार टपकावे ले तैयार ।)    (सारथी॰12:17:20:1.10)
405    मउगबेचवा (बीझना बेगर हुँकारी भरले खँचिया आउ हँसुआ लेके बधार देने सोझिया गेल । ओकर आँख तर चमारी के बेटा फुदना के मोबाइल नाचे लगल, 'गाना, फोटू, आउ वी.डी.ओ. ... मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए ... मगर साला ऊ फुदना ! मोबाइल छुए में छुआइन हो जा हलइ ।' मन में छो-पाँच, 'बाझो सिंह से मोबाइल लेबइ त जाने कहाँ-कहाँ धासन गिरतइ । ई सब पड़िये खातिर लग्गी बझा रहल हे सरवा ... । हमरा मउगबेचवा समझ लेलके हे कीऽऽ ... !')    (सारथी॰12:17:23:1.7)
406    मखाना ("तोर मुँह काहे लटकल हो, कापो ... ?" / "मुँह लटकावे के तो बात हइये हइ, मनिज्जर साहेब । ई धरती हम्मर माय ... हमनी एकर बेटा ... ई माय हमरा से छिना जायत ... एकर धरती पर गेहूम के बाली, बूँट-खेसारी के हरियरी कइसे झूमत ... ई बाउग, ई मकई के पेड़ ... बुढ़ारियो में भुट्टा, मखाना आउ लावा कहाँ से चलतइ मनीजर साहेब ? एकलाश लाल नियन दू रूपिया में एगो भुट्टा खरीदवऽ की ?")    (सारथी॰12:17:13:3.3)
407    मटका (= मोटा खुरदुरा रेशमी कपड़ा) (हम्मर लोकनाथ बाबू के एन्ने चाल-ढाल, पहनावा-ओढ़ावा में बहुते बदलाव आ गेल ह । ... परसों ऊ मटका के कुरता, ननकिलाट के चूड़ीदार पइजामा पहिनले आउ ऊपर से बंडी डालले चाय दोकान पर पहुँचला ।)    (सारथी॰12:17:36:1.30)
408    मठभेर (हमर नजर बेचारगी के एगो सजीव मूर्ति पर टिकि गेल । ओकर हाथ में कार्ड के बंडल हल । ऊ एक्कक कार्ड सब मोसाफिर के आगू में डालि डिब्बा भर नाप गेलन । अइसन कार्ड आउ वितरक से पहिल मठभेर त हल नञ् ।)    (सारथी॰12:17:29:2.5)
409    मतिछिन (ओने यमुना सिंह मतिछिन नियन गामे-गाम भटकइत चलऽ हला । उनखर हरकत से घरइया सब परेशान हो गेला । ईहे क्रम में एक दिन यमुना सिंह नरहट गाँव पहुँच गेला । वहाँ के लोग-बाग उनखा पागल समझि के ढेला-ढक्कर करऽ लगला । उनखर माथा-ताथा फूट गेलन । गाँव वलन उनखा मार-पीट के गाँव से भगा देलक ।)    (सारथी॰12:17:27:3.27)
410    मनकमना (कोय कहि रहल हल, "छहाछित गहिलवा मइया आ गेलथिन । देखलहीं, मुँहाँ में जइसइँ दल देलकइ कि मनकमना पूरा हो गेलइ । भाय, देवी-देवता में भारी जश हइ ।"; एक मुट्ठी ओकर मेहरारू के देवइत कहलका, "सबेरे नहा-सोना के सबसे पहिले पाँच दाना दल दुन्नूँ खा ले । रोज बिना नागा के साथ सुतिहें । जब तक दल खतम नञ् हो जाय, कहइँ आन-जान बंद । जो, तोर मनकमना पूरा हो जइतउ ।")    (सारथी॰12:17:11:3.28, 45)
411    मनझान (अगल-बगल के दोकान में भूलल-भटकल गाहक । दोकान के रौनक गाहक ! उठती हाट के मानसिकता में नरेन्दर मनझान सोच रहल हल - 'अब समेट लेवे के चाही ।')    (सारथी॰12:17:15:1.33)
412    मनपसन्दी (सिपाही नरेन्दर के पैर से ढकेल दे हे । नरेन्दर सड़क पर खँचिया से गिरल कोंहड़ा सन ओघड़ा जा हे । सिपाही मनपसन्दी कपड़ा लेके चलि जा हे ।)    (सारथी॰12:17:16:3.11)
413    मनिज्जर (दे॰ मनीजर) ("तोर मुँह काहे लटकल हो, कापो ... ?" / "मुँह लटकावे के तो बात हइये हइ, मनिज्जर साहेब । ई धरती हम्मर माय ... हमनी एकर बेटा ... ई माय हमरा से छिना जायत ... एकर धरती पर गेहूम के बाली, बूँट-खेसारी के हरियरी कइसे झूमत ... ई बाउग, ई मकई के पेड़ ... बुढ़ारियो में भुट्टा, मखाना आउ लावा कहाँ से चलतइ मनीजर साहेब ? एकलाश लाल नियन दू रूपिया में एगो भुट्टा खरीदवऽ की ?")    (सारथी॰12:17:13:2.48)
414    ममराना (= ममोराना, मचुराना; ऐंठा जाना, सिलवट पड़ना) (माय अपन गेठरी में हमर सामान सरियावे ले माँगलक त हम कहली, 'हम अपन थैला अलगे ले जाम ।' हम जानऽ हली कि माय के गेठरी में हमर पैंट-शर्ट ममरा जात ।)    (सारथी॰12:17:26:1.20)
415    मरचाय (= मिरचाय, मिचाय; मिरची) (दू-चारि दाना दुन्नो खइलकइ - तातल लगल । फुकि-फुकि को । तब सोमरा कहलकइ - "बाबू, एकरा में मरचाय रहतइ हल तब उड़ि चलतइ हल ।"; शनिचर पुछलकइ, "की भेलउ रे ?" / "बाबू ! इ मरचाय नै, बिख हइ । तनी गो में कान झनझना गेलउ ।" सोमरा बोलल ।)    (सारथी॰12:17:17:3.6, 28)
416    मरना-हेराना (ई सब घर में मरे-हेराय के केऽ पूछे ... गाड़ी चल पड़ल अपन गति से । गेंठ कलउआ मधुरी चाल मगर बीझना के माय के एके चिन्ता । बीझना के बियाह हो जात तब गंगा नहा लेम ।)    (सारथी॰12:17:20:3.16)
417    मर-मजूरी (पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे । बाहरी आदमी एकदम नञ् अइतो । गामे के आदमी पहमे समाद जइतो आउ काम पर जाय वलन सब झोंड़ के झोंड़ शहरे अइतो । समाद देवे वला आदमी के सब कुछ समदल रहऽ हे । मर-मजूरी के सब बात तय ।)    (सारथी॰12:17:9:1.23)
418    मर-मिठाय (तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल ।)    (सारथी॰12:17:9:1.10)
419    मरहीना (दे॰ मरहिन्ना) (मरहीना काटे ले बीझना गोहाल से खचिया आउ हँसुआ लेके जइसहीं बहराल, बाझो सिंह हाँक देलन, 'ए बीझन ! सुन तो एन्ने ।' / 'आझ बीझना से बीझन, की बात हे !' ऊ आके सामने ठाढ़ हो गेल, ने राम ने सलाम !; बाझो सिंह के लगल कि अबरी निशाना ठीक बइठल हे । ऊ बोललन - 'एक आदमी से केतना काम उसरइतइ, दुन्नु सास पुतोह के कल भेज दिहें । आउ हाँ !  इमलिया तर वला खेत के सभे मरहीना काटके कल साँझ तक ले आना हउ । ओकरा में हर चढ़ावे के हइ ।')    (सारथी॰12:17:22:3.22, 23:1.30)
420    मरी-गमी (=मरनी-हरनी) (हप्ते दिन बाद बीझना के बोलाके बाझो सिंह कहलन, 'अरे बीझना ! एन्ने देख रहलिअउ हे, बड़ी मनबढ़ू होल जाहीं । खेत-खंधा पर ध्याने नञ्, बैल-धुर उपासले, एक ड्राम चाउर फटके ले हइ ऊहो तोर माय सास पुतोह के हाथ में दहिए जम रहलउ हे । हमरा ई सब करवे ले दोसर मजदूर रखहीं पड़त त शादी-बियाह, मरी-गमी आउ डेढ़ कट्ठा घेवारी ... । सबसे चोथू हमरे बूझऽ हीं ।' बीझना के लगल कि बाझो सिंह अपन उकात दिखा रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:23:1.19)
421    मलकल (~ चलना) ('बस एक टप्पा आउ नुनु । तनि मलकले चल । एकदम नूर के दम जाय के चाही ।' । फेर तनि ठहर के, 'मिलतइ हो ... पूरी, जिलेबी आउ आलू बैगन के तरकरियो । भर दोना । हहर मत ।'; 'तनि मलकले चल । फेर हुआँ भी लमहर लइन लगावे पड़तउ । ढेरकुनी ने पहुँच जा हइ ।' बाऊ टिटकारी मारलन ।)    (सारथी॰12:17:7:1.1, 8:2.54)
422    मागु (= मौगी; औरत; पत्नी) (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।")    (सारथी॰12:17:18:1.4, 5)
423    माथा-ताथा (ओने यमुना सिंह मतिछिन नियन गामे-गाम भटकइत चलऽ हला । उनखर हरकत से घरइया सब परेशान हो गेला । ईहे क्रम में एक दिन यमुना सिंह नरहट गाँव पहुँच गेला । वहाँ के लोग-बाग उनखा पागल समझि के ढेला-ढक्कर करऽ लगला । उनखर माथा-ताथा फूट गेलन । गाँव वलन उनखा मार-पीट के गाँव से भगा देलक ।)    (सारथी॰12:17:27:3.32)
424    माथे (नरेन्दर निराश जेभी में हाथ नाके दिन भर के बिकरी अंदाजऽ लगल - दस के दू गो नोट आउ कुछ सिक्का ... बस ... ईहे कुल तीस के माथे ।)    (सारथी॰12:17:15:1.10)
425    माने-मतलब (जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । ... बूढ़-पुरनियाँ के हाथ पर दू पइसा अइलो नञ् कि साँझे-बिहने चाह पीअइ ले हाजिर । बूढ़ आदमी चाह के सवाद के साथ-साथ बातचीत के माने-मतलब भी बूझे लगलन । अन्हार-पन्हार में चलइ वला खिस्सा-गलबात पर उनकर कान खड़क जा हल ।)    (सारथी॰12:17:8:3.54)
426    माय-बहीन (~ उकटना) (कापो चा त घरो से बहराय में तेरह तुरी सोचो हथ । / "की बाबा, फटफटिया चढ़भो ... ?" / कापो चा बिन देखले माय-बहीन उकटे लगो हला । कभी-कभार त एका अद्धा फेंक भी दे हला - लगो चाहे नञ् ।)    (सारथी॰12:17:13:1.13)
427    मास-मछली (रात सपना में भी हम झुनकिये बाबा के देखलूँ । ऊ हमरा से पूछ रहला हल, 'मास-मछली नञ् ने खाहीं ?' सपना में हम कान पकड़ लेली हल आउ जीभ काट लेली हल ।)    (सारथी॰12:17:27:2.39)
428    मिंझराना (= मिलना, मिल जाना, मिश्रित होना) (दिन भर चिल्लायत-चिल्लायत नरेन्द्र के कंठ सूख गेल । ऊ अपना के थकल-हारल बैल-सन बूझि रहल हल । अझका दिन भी अकारथ गेल । साँझ आल आउ रात में मिंझराके आउ सियाह हो गेल, जेकरा शहर के रोशनी धात्-धात् करि रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:15:1.4)
429    मिरचाय (= मिरचाइ, मरचाय; मिरची) (शनिचर कहलकइ - "जो ने, करगे में मनोज सिंह वाला मरचइया फरि को लुथड़ी भेल हइ । अरिया तर छोड़के एक मुट्ठा घीचि लिहें । असली सीटिया मिरचाय हइ । तनी गो खइभीं, कान झनझना देतउ ।")    (सारथी॰12:17:17:3.11)
430    मुट्ठा (शनिचर कहलकइ - "जो ने, करगे में मनोज सिंह वाला मरचइया फरि को लुथड़ी भेल हइ । अरिया तर छोड़के एक मुट्ठा घीचि लिहें । असली सीटिया मिरचाय हइ । तनी गो खइभीं, कान झनझना देतउ ।")    (सारथी॰12:17:17:3.10)
431    मुनाना (= बन्द होना; बन्द करवाना) (चिमनी से निकसइत करका बादर घेर लेलक कापो चा के - करका नाग नियन । फाँय-फाँय ... ई हरियर नियन कउची निकस रहल हे ... एकर मुँह से अरे ... ई त जहर लगे हे ... नाग के जहर । कापो चा के देह थरथराय लगे हे ... आँख मुना जा हे ।)    (सारथी॰12:17:13:1.41)
432    मुसपैलटी (= म्युनिसिपैलिटी; municiplaity) ("लइकन के फिकिर हलइ बेदामी । हमनी के जाड़ा तो अइसहीं कट जा हे । बता तूहीं हमनी के भर पेट खाए-पहिने के मिलऽ कहाँ हे ? मुसपैलटी के दरमाहा त नाली के बाढ़ हे बेदामी - आयल आउ गेल । ओह ! अभी दारू रहतइ हल न ... त ... ।" चल्हवा कहलक ।)    (सारथी॰12:17:6:1.20)
433    मेल्हाना (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । गारी-गलौज तो मानऽ ओकर बपौती हे । मन नञ् पारे कि हाथ से पइसा छीन ले । देबइ घरी मेल्हा-मेल्हा के बोलतो कि कइसउँ ले ले । फेर लेला पर तो जइसे हुँड़ार-सियार हो जइतो ।)    (सारथी॰12:17:8:1.46)
434    मोखना (1. दे॰ मखना; 2. (गूह आदि) मोखना) (सोमर कहलकइ, "तब कर दहीं काहे नै बाबू ?" शनीचर कहलकइ, "बियहवा करभीं तब सातो पहुरा बिक जइतउ । बड़ी खतगर सुगरी खोजके लइलिअउ हे । एकर माय बारह बच्चा बियावऽ हइ, एक बेरी में देखऽ हीं, पहिलठ में सात बच्चा बिअइलइ । सोचलिअइ हल - पाँचो के खस्सी खोला देबइ । दू गो सुगरी अगिला साल मोखि जइतइ । बस झरइत नै झरतइ । खसिया के बेचके अगिला साल तोर बियाह ।')    (सारथी॰12:17:18:1.18)
435    मोछक्कड़ (तभिये मोछक्कड़ सिपाही अपन महीना उगाहे आ गेल हे - "महीना दऽ !" / नरेन्दर मुँह ताकइत चुप हे । - "काहे रेऽ ? जल्दी कर कि दी डंडा ?" - "बिकरी न हे सिपाही जी ! पइसा होवत त पहुँचा देब ।")    (सारथी॰12:17:16:2.51)
436    मोछमुतवा (पड़िया तो घरे आके खटिया पर ढह गेल आउ भोकार पार के काने लगल । ऊ मने-मन बीझना आउ बाझो सिंह में फरक जोड़े लगल । बीझना ! हम्मर भतार ! ... मोछमुतवा के जनु के सहका देलकइ कि बियाह के बाद से नतीजा कर रहल हे । आउ बाझो सिंह ! ओकर आँख समांग बिला जाय निपुतरा के । आझ हमरा कोय करम के नञ् छोड़त हल ।)    (सारथी॰12:17:23:2.45)
437    मोदखाना (पड़ोस के मोदखाना से आधा किलो मोटका चावल आउ पाव भर आलू आल । गोलहत उतरइत-उतरइत बुतरू-बानर पाँच तुरी भंसा हुलकि आल । हर बार - 'सीझऽ दे, खइहें' के भरोसा पर दुइयो भाय नाक में सीझइत भात के भाप भरि लउटि आवे आउ कठघोड़ा में बिसरि के बिसित हो जाय ।)    (सारथी॰12:17:16:1.25)
438    रउद (= रउदा, रौदा) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे ।)    (सारथी॰12:17:7:1.15, 18)
439    रउदा (दे॰ रौदा) (बाऊ के टिटकारी सुनके तिलका तनि मनसूआ भरके चाल बढ़ा देलक । गोड़ त दनादन उठ रहल हल । रतगरे जगे पड़ल हल । नञ् तो ऊ रउदा उगला तक सुतले रहऽ हल ।)    (सारथी॰12:17:7:1.9)
440    रज-गज ("भैया लोग ! एन.टी.पी.सी. खुल रहलो हे । सरकार जमीन ले लेतो । ओकर अढ़ाइ गुना दाम देतो । सभे के रज-गज होतो ।" एकरा पर तोखी सिंह चउँकलथिन - "देखलहो नञ्, राजगीर में बारूद फैक्ट्री खुललइ । सिठौरा राजा हो गेलइ । जेकर बाप के घास गढ़ते-गढ़ते घट्टा पड़ गेलइ हल, ओकर जाल-जलमल फटफटिया चढ़ रहलो हे ।")    (सारथी॰12:17:13:2.40)
441    रजिन्नर (= राजेन्द्र) (ऊ हड़बड़ा गेलन आउ अपन पैर के पास रखल प्लास्टिक के झोला उठावइत, धूरी भरल चप्पल में अपन पाँव फँसा के अपन घरवली से कहलन - अरे, रजिन्नर नगर टीसन आ गेलउ, चल, जल्दी उतर ।)    (सारथी॰12:17:25:2.17)
442    रतगरे (बाऊ के टिटकारी सुनके तिलका तनि मनसूआ भरके चाल बढ़ा देलक । गोड़ त दनादन उठ रहल हल । रतगरे जगे पड़ल हल । नञ् तो ऊ रउदा उगला तक सुतले रहऽ हल ।)    (सारथी॰12:17:7:1.8)
443    रतचलवन (~ जानवर) (अब लाली धपे लगल हल । रतचलवन जानवर कोर पकड़ लेलक हल । खाली सियार, वनबिलाड़ या खिखिर धउगइत-भागइत एन्ने-ओन्ने झलक जा हल । सियार या वनबिलाड़ डगर काटलक त बाउ थुकथुका के आगू बढ़इत बुदबुदाय लगऽ हल - 'या जंगलिया माय, तनि सहाय रहिहऽ । एगो पिलुआ साथ हको । अइते पाठी चढ़इवन ।')    (सारथी॰12:17:7:3.1)
444    रसद-बुतात (साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला । .. तय भेल कि पाँच अदमी आगू टरेन से जायत रसद-बुतात लेके आउ पाँच पांडव जानवर साथ गंगा हेलता ।)    (सारथी॰12:17:10:1.48)
445    राछसीनी (= रछसीनी; राक्षसी) (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।)    (सारथी॰12:17:10:1.22)
446    रात-विरात (= रात-बेरात) (महुआ कत्तेक दिन से टपक रहल हे । ई समय में पूरा इलाका महमह करे लगऽ हे । महुआ के महक से मन भर जा हे आउ फेर पुरनका महुआ भी ताजा हो जाहे । नउका महुआ के महक से मन जब बउँखऽ हे त आदमी पुरनका महुआ निकाल के रात-विरात तक सिझइते रहऽ हे ।)    (सारथी॰12:17:9:2.36)
447    राय-छितिर (एक दन्ने जउन समाज में जात-पाँत, अगड़ा-पिछड़ा, हिन्दू-मुसलमान के झंझट अपन हाट लगइले हे, आपसी मतभेद के भाँग कुँइए में घोराल हे, एक-दोसर के टंगरी खींचे में हम डगरा के बैंगन हो रहलूँ हें, राय-छितिर हो रहलूँ हें, गुरुजी के गरहाजिरी अखरो हइ ।)    (सारथी॰12:17:34:2.47)
448    रोइयाँ (= रोआँ) (मन के पीड़ा आँख के लोर बनि गेल । ओकर लोराल आँखि तर दुन्नूँ नन्हकन के चेहरा घूमि गेल । ओकर करेजा खुंडी-खुंडी हो गेल । ऊ काँपि उठल । देह के रोइयाँ गनगना गेल - आज भी चूल्हा जरावे भर कमाय न भेल !)    (सारथी॰12:17:15:1.39)
449    लंगौटी (= लंगोटी) (तोर माय बच्चे में मर गेलउ । ... हम मन कड़र करि लेलों । - रे मन ! एक बेरी जेकर आगू लंगौटी खोललों, ऊ बेचारी चलि देलक भगवान घर । अब फेर दोसरा आगे लंगौटी खोलना मर्द के काम नै हिकइ । बेटा के कछौटा के पक्का होवे के चाही । दोसरा साथ जइबइ तब मरलो पर ओकर आत्मा कहँड़इत रहतइ ।)    (सारथी॰12:17:17:2.41, 43)
450    लखाना (= लक्षण दिखना, अनुमान होना) (पहाड़ के उँचगर जगह पर चढ़के तिलका तनि पाछू हिअइलक । जंगल के बड़गर-बड़गर गाछ में डूबल गाँव नञ् लखाल । ओकरा लगे लगल कि जइसे गाँव छूटल जा हे ।)    (सारथी॰12:17:7:3.10)
451    लगनगर (शनीचर पुतहू के मरला दिन से बड़ी दुखी रहो लगला । उनकर कहना - ऊ नड़ी लगनगर हल । हुकुम के ताले हाजिर रहइ हल । बड़ी सेवा करइ हल ।)    (सारथी॰12:17:19:1.5)
452    लगू (शनीचर पुछलकइ - "मोटरिया में की हिकउ ?"/ सोमरा बोलल, "चिनियाबेदाम ।"/ ... सोमरा कहलकइ, "हाँ बाबू ! सुधीर सिंह कहलकइ, उखाड़ दे सोमर । उखाड़ देलिअइ । पाँच सेर लगू मजूरी में देलकइ आर लोढ़ लेलिअइ । अब जा हियो बनावे ले । की बनइयो ? गोलहत्थे बना दियो बाबू ?")    (सारथी॰12:17:17:1.24)
453    लग्गी (~ बझाना) (बीझना बेगर हुँकारी भरले खँचिया आउ हँसुआ लेके बधार देने सोझिया गेल । ओकर आँख तर चमारी के बेटा फुदना के मोबाइल नाचे लगल, 'गाना, फोटू, आउ वी.डी.ओ. ... मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए ... मगर साला ऊ फुदना ! मोबाइल छुए में छुआइन हो जा हलइ ।' मन में छो-पाँच, 'बाझो सिंह से मोबाइल लेबइ त जाने कहाँ-कहाँ धासन गिरतइ । ई सब पड़िये खातिर लग्गी बझा रहल हे सरवा ... । हमरा मउगबेचवा समझ लेलके हे कीऽऽ ... !')    (सारथी॰12:17:23:1.6)
454    लम्बोतरा (धसल गाल, लम्बोतरा चेहरा, झमराल लगि रहल हल । ऊ अपन गोदी में लगभग एकाध साल के दुब्बर-पातर बेटी सम्हारले हल ।)    (सारथी॰12:17:24:2.3)
455    लवरना (तनीए देर पहिले अइसन भीड़ हल कि साँस लेवे में दिक्कत होइत हल । आउ ऊ भीड़ तीन बजे दिन से हल । आउ अब आस छोड़ के गोल के गोल लवर रहल हल लोग । राजा जी के आवे ल हलइन ।)    (सारथी॰12:17:5:1.12)
456    लस्टम-पस्टम (बीझना के घाव भी अभी हरियरे । ऊ टेवानले हल कि बाझो सिंह के ड्योढ़ी पर दुन्नू के लस्टम-पस्टम करते देख लूँ, ओजय दुन्नू के कुट्टी-कुट्टी काटके जमुई जंगल में पाटी जैन कर लेम । बाझो सिंह के लठैत आउ गुंडा कि थाना पुलिस से भी निपटे ले एक्के उपाय - लाल झंडा जिन्दाबाद !)    (सारथी॰12:17:22:1.49)
457    लहराना (घूर ~) (शनीचर घूर लहराके ताप रहल हल, साथे सोच रहल हे, "साँझ पड़लइ, सोमर कहाँ अँटक गेलइ ?")    (सारथी॰12:17:17:1.5)
458    लहाश (= लहास, लाश) (ई दुनो ओने निहोरा-पाती में लगल हल तब तक ओने ओकर मरीज दम तोड़ चुकलइ हल ।/  आखिर लहाश घर लाको सब विध-वेहवार करके मँड़रिया पर जला देलक । तेरह दिन में घरजाना करके पाक हो गेल ।)    (सारथी॰12:17:19:1.1)
459    लिलकल (एक तुरी फिन नरेन्दर बाजार के देखलक बगुला-सन लिलकल आँखि से । एक से एक बढ़ि के सजल-सजावल गड़कल दोकान । सामान के अम्बार लगल ।)    (सारथी॰12:17:15:1.26)
460    लुथड़ी (शनिचर कहलकइ - "जो ने, करगे में मनोज सिंह वाला मरचइया फरि को लुथड़ी भेल हइ । अरिया तर छोड़के एक मुट्ठा घीचि लिहें । असली सीटिया मिरचाय हइ । तनी गो खइभीं, कान झनझना देतउ ।")    (सारथी॰12:17:17:3.9)
461    लुबुर-लुबुर ("आर किसना के बात करऽ हीं ? ऊ अर आदमी हिकइ रे ... हे भगवान हो ! दिन भर लुबुर-लुबुर बकड़ी नियर खइते रहऽ हइ । जाने दिन-रात में दस बेरी खा हइ कि बीस बेरी । ऊ अनाज खा हइ ? हमरा तो लगऽ हे अनजा के सूँघऽ हइ ।")    (सारथी॰12:17:17:1.47)
462    लूर-बुद्धि (एक जुटी पर दस हजार, ओकरा में पाँच हजार से बेसी दादनी, जे पहिलहीं अँचरा के खुँटी से ससर गेल हल । भट्ठा पर चढ़े घड़ी पाँच हजार से कमे हाथ लगल । ओकरा पर ऊ निपुतरा बाझो सिंह महीना दिन से आँख गड़इले जब बागीबरडीहा टीसन पर ऊ छेक लेलक, सब लूर-बुद्धि हेरा गेल । एगो सिंघाल पाठा तो खूँटा से खोलिए लेलक हल, बत्तीस सौ रुपया ऊपर से टांकले । "ले जो रे निपुतरा" बुदबुदाल आउ अचरा से खोल के बत्तीस सौ रुपैया गिन देलक ।)    (सारथी॰12:17:20:1.23)
463    लूल-लांगड़ (अरे बेदामी ! का करबऽ । देख न केतना लूल-लांगड़ आउ कोढ़ी-काबर निराश लउट गेलन । दिन भर मांगतन, ऊ भी छूटल । अब त कम्बल मिलतो न । कम्बल त गूलर के फूल हो गेल । बाकिर सोचऽ ... का जनी अबधुर राजा आ जथी आउ कम्बल बाँटे लगतथी त हमनी के बड़का मोटरी हो जायत ।)    (सारथी॰12:17:5:3.1)
464    लेल-देल (ओकर आँख एगो लड़की पर ठहर गेल, जे हाथ में जीनीस लेले दोकनदार से कह रहल हल, ई तो चौतीस हइ, हमरा बत्तीस चाही । ओकर कदकाठी लेल-देल पड़िये नियर ।)    (सारथी॰12:17:22:2.11)
465    लोन-ऊन (हम्मर लोकनाथ बाबू के एन्ने चाल-ढाल, पहनावा-ओढ़ावा में बहुते बदलाव आ गेल ह । दोस-मोहिम आउ चौक-चौराहा पर उनखे चरचा हो रहल हे । ... दादा-भैया के बिलौक के काम रहे चाहे बैंक के, तुरते सधावे में लग जा हका । लोन-ऊन, दाखिल-खारिज अइसन पैरवी ले तुरते दौड़ जा हका ।)    (सारथी॰12:17:36:1.18)
466    लोरकायन, लोरकाइन (वहाँ के दिरिस त अजीबोगरीब हल । चार गो डिलैट बरि रहल हल । सो दू सो के मजमा जुटल हल । जन्नी-मरदाना, बुतरू, जुआन, बूढ़ा-बूढ़ी सब तमाशा देखि रहल हल गोल घेरा बनाके । ऊ घेरा में एगो अदमी हाथ में लाठी लेले नाच रहल हल । कुछ गवइया लोरकायन गा रहल हल ।; ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल । भगत के छोम्मा इन्द्री जाग गेल । ऊ लोरकाइन के लय में गावे लगल - "मइया तूहीं गहिलवा नञ् रे जान । हमरा ऊपर तूहीं होवें सहइया रे जान ॥")    (सारथी॰12:17:11:2.28, 47)
467    लोराल (= लोरायल; अश्रुपूर्ण) (मन के पीड़ा आँख के लोर बनि गेल । ओकर लोराल आँखि तर दुन्नूँ नन्हकन के चेहरा घूमि गेल । ओकर करेजा खुंडी-खुंडी हो गेल । ऊ काँपि उठल । देह के रोइयाँ गनगना गेल - आज भी चूल्हा जरावे भर कमाय न भेल !)    (सारथी॰12:17:15:1.36)
468    विध-वेहवार (ई दुनो ओने निहोरा-पाती में लगल हल तब तक ओने ओकर मरीज दम तोड़ चुकलइ हल ।/  आखिर लहाश घर लाको सब विध-वेहवार करके मँड़रिया पर जला देलक । तेरह दिन में घरजाना करके पाक हो गेल ।)    (सारथी॰12:17:19:1.1)
469    शामर (= सामर, साँवला) (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।")    (सारथी॰12:17:18:1.7)
470    संझउकी (दे॰ संझौकी) (चद्दर नञ् रहे के चलते ऊ कत्तेक बार रूसल हल । गोरू बंधल के बंधले छोड़ दे हल । तहिया दीदी चरावे ले जा हल आउ बिहने से संझउकी तक जंगले में चरइते रह जा हल ।)    (सारथी॰12:17:7:1.38)
471    संझकी (~ बेला) (अगहन महीना के छोटगर दिन चार बजल कि साँझ भरल । लरम-लरम जाड़ा में सुरूज के लरम-लरम किरण पछियाही टोला में समा रहल हल । संझकी एन्ने पूरब से टोहले घरे-घर पैंसते दक्खिन टोला में बुझन के खटिया तर पसर गेल । बीझना भी सवेरगरे खर-खरिहानी लगाके बाप भिजुन पहुँच गेल हल ।; 'तूँ भी बाझो सिंह के मजूरा हीं, कोय ऐरा-गैरा के नञ् । कहऽ हे खिसवा में से हाल, आझकल के पूछे मोबाइल ! आझ संझकी बेला आ जइहें । दू हजार में तो बढ़िया मोबाइल कैमरा वला मिल जा हइ एकदम सील पैक ।'; संझकी जब बीझना नञ् आल त बाझो सिंह बूझ गेल ... । 'काम, शाम- दाम से नञ्, दंड-भेद से ही बनत ।')    (सारथी॰12:17:20:2.41; 22:3.48, 23:1.9)
472    सइजगर (= ठीक साइज वाला) ('अच्छा ! ऊ जीनीस जे पेठइलियो हल ऊ कइसन लगलो ?' पड़िया बूझ न रहल हल ई बुझउअल । / 'अरे ! ऊहे 32 नम्बर वला, सइजगर हलो ने ?' पड़िया के कान झनझनाय लगल ... । / मलिकवा केतना छीछोर अदमी हइ ! ऊ घर दने दउरी लेले बढ़े लगल । पीछे-पीछे बाझो सिंह बी बढ़े लगल ।)    (सारथी॰12:17:23:2.3)
473    सच्चोक (सच्चोक आवश्यकता हे उनखर गीतन के सहेजइ के, पुस्तकाकार  या कैसेट में । एकरा लेल मगही अकादमी के सहयोग देवे के चाही, काहे कि कारू गोप मगही साहित्य के एगो अलोधन हलन ।; 'एक दिन तोहूँ चल जइहऽ तिलक ।' भउजी हँसइत कहलकी ।/ भउजी के बात याद अइते ओकरा लगे लगल कि सच्चोक में भउजी आगरों जानऽ हली । पहिले बाऊ परदेस कमाय ले जा हलन । भइया, हम, दीदी आउ मइया घर पर ।)    (सारथी॰12:17:2:1.49, 8:1.3)
474    सजल-सजावल (एक तुरी फिन नरेन्दर बाजार के देखलक बगुला-सन लिलकल आँखि से । एक से एक बढ़ि के सजल-सजावल गड़कल दोकान । सामान के अम्बार लगल ।)    (सारथी॰12:17:15:1.27)
475    सत-पत (लैन होटल ! बूढ़-पुरनियाँ के चर्चा के विषय । सब के एक्के बात, 'अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।')    (सारथी॰12:17:9:1.6)
476    सत्त (= सत; सत्य) (उनखर नजर गोपाल-माय के सेनूर भरल मांग पर जाके ठहर गेल । आँख में याद के बादर उमड़ल-घुमड़ल आउ दू बून पानी बरसा देलक ... रंथी पर ... । / 'राम नाम सत्त हे - सबके इहे गत्त हे ।' / आझ भोरहीं से कापो चा के मन बउखल हल ... कहलखिन हल - "ऐं हो, हमरा अगिया के देतइ ?")    (सारथी॰12:17:14:3.35)
477    सना (दे॰ सनी, सन) (दम्म ~) (तभी माथा पर मोटरी लेने सोमरा दम्म सना हाजिर ! मोटरी नीचे रखके आग में हाथ सेदो लगलइ । शनीचर पुछलकइ - "मोटरिया में की हिकउ ?")    (सारथी॰12:17:17:1.13)
478    सनीमा (= सिनेमा) (हमरा नींद कहाँ ! हम त टुक-टुक आवइत-जाइत लोग-बाग, गाड़ी देखइ के अनबेरा में उठल, बइठल, घूमइत समय बितावऽ लगलूँ । गाड़ी आवे, रुके, पसिंजर उतरे, चढ़े । लाल-लाल अंगा पेन्हले कुली के माथा पर भारी-भारी समान ! हमरा लेल सब कुछ सनीमा से कम आकर्षक न हल ।)    (सारथी॰12:17:26:2.17)
479    समदल (पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे । बाहरी आदमी एकदम नञ् अइतो । गामे के आदमी पहमे समाद जइतो आउ काम पर जाय वलन सब झोंड़ के झोंड़ शहरे अइतो । समाद देवे वला आदमी के सब कुछ समदल रहऽ हे । मर-मजूरी के सब बात तय ।)    (सारथी॰12:17:9:1.23)
480    समाद (पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे । बाहरी आदमी एकदम नञ् अइतो । गामे के आदमी पहमे समाद जइतो आउ काम पर जाय वलन सब झोंड़ के झोंड़ शहरे अइतो । समाद देवे वला आदमी के सब कुछ समदल रहऽ हे । मर-मजूरी के सब बात तय ।; पहुँचइ के समाद भेंटइते इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. आनन्द वर्धन गाड़ी लेले दम-दाखिल  भे गेला । टोली डॉ. आनन्द के साथे हुनखर आवास इन्दिरापुरम् पहुँचल ।)    (सारथी॰12:17:9:1.20, 22, 31:3.21)
481    समितगर (बरियात देखके गाँव के लोग सिहा गेल । नेटुआ के नाँच । हाय रे नाँच ! कमाल के नाँच हलइ ! कुटुम समितगर हलइ । खूब खियैलकइ - सूअर के मांस-भात । दारू-ताड़ी के नदी बहा देलकइ - जे जत्ते खा ! जत्ते पीयऽ ! बरियात पीको ओघड़ गेला जे जहाँ के तहाँ पटेंगन ।)    (सारथी॰12:17:18:2.40)
482    समुंदर (= समुद्र) (आगू सोमरा हेलल, मागु से कहलक - लुगवा ऊपरि करि लिहें, तों हमरा से नाटा हहीं, सड़ीवा भींग जइतउ ! जब पूरा बीच आयल तब औरतिया पूरा कपड़ा पेट पर चढ़ा लेलक । सोमरा पीछे घूम के देखलक । मौगी कुरोध के बोललइ, "दुर्रर्र ने जाय छुछुन्नर ! ... हम बे नगन होल जाही । ई पाछूहिया को की देखऽ हीं ?" सोमरा कहलकइ, "अरे देखऽ हिअइ - हमर सातो पहुरा कहाँ हइ ?")    (सारथी॰12:17:18:3.10)
483    सरगनइ (कारू गोप बोल उठला - डॉ॰ आनन्द मगध के पूत नञ्, महान सपूत हथी । इनखा पर मगध आउ मगही के अभिमान हे । धरना के सरगनइ श्री विष्णु देव प्रसाद 'सजल' कइलन ।)    (सारथी॰12:17:32:1.52)
484    सरियाना (हमरा रात के यात्रा ठीक नञ् लगतो । झकझक इंजोर में देखइत गेलूँ, बकि अन्हार में ई सुविधा कहाँ ! हम मनुआय लगलूँ । अइसन में हमरा नींद आ जइतो । हम अउँघऽ लगलूँ त हमरा ऊपर के सीट पर चढ़ा देल गेल । गेठरी-मोटरी सरियाके हम सुते भर जगह बनइलूँ आउ चोर-पाकिट पर हाथ रखले बैल-पगहा बेचि के सुत गेलूँ ।)    (सारथी॰12:17:26:2.37)
485    सवाद (= स्वाद) (जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । ... बूढ़-पुरनियाँ के हाथ पर दू पइसा अइलो नञ् कि साँझे-बिहने चाह पीअइ ले हाजिर । बूढ़ आदमी चाह के सवाद के साथ-साथ बातचीत के माने-मतलब भी बूझे लगलन । अन्हार-पन्हार में चलइ वला खिस्सा-गलबात पर उनकर कान खड़क जा हल ।; ओने बड़का बाऊ के बोली सवाद के चहकल - माड़ भात ! माड़ भात !! माड़ भात !!!)    (सारथी॰12:17:8:3.53, 16:1.23)
486    सवेरगरे (= सबेरगरे; सुबह-सुबह) (अगहन महीना के छोटगर दिन चार बजल कि साँझ भरल । लरम-लरम जाड़ा में सुरूज के लरम-लरम किरण पछियाही टोला में समा रहल हल । संझकी एन्ने पूरब से टोहले घरे-घर पैंसते दक्खिन टोला में बुझन के खटिया तर पसर गेल । बीझना भी सवेरगरे खर-खरिहानी लगाके बाप भिजुन पहुँच गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:20:2.43)
487    सहसगर (= साहसी) (ई सब गाँव अइसन हे कि तनि दूर निकल जा त एकदम्मे इड़ोत । बुतरू में गोरू लेके जंगल दने जा हल त गाँव भुला जा हल । मुदा एतना दुख नञ् होवऽ हल । घर लउटइ के भरोसा ओकरा में हिम्मत भरऽ हल । भरोसा आदमी के सबसे सहसगर साथी होवऽ हे ।; साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला । .. तय भेल कि पाँच अदमी आगू टरेन से जायत रसद-बुतात लेके आउ पाँच पांडव जानवर साथ गंगा हेलता । चानो का कलका, 'मंगलामुखी सदा सुखी । कल हाँका हो जाय के चाही ।' जोड़ल गेल - पचीस भैंस, पाँच अदमी । सब के सब जुआन, एकलौठा, कसरती, पहलवान ! चेथरूआ सबसे छोट भले हल, मुदा हल सहसगर, लमहर, छरहर, पट्ठा छोंड़ा ।)    (सारथी॰12:17:7:3.24, 10:2.5)
488    सहेता (= सहायता) (हम दुन्नूँ तूफान से उबरइ के जतन करम । अपन बौसाह भर करेजा के टुकड़न के सागर में डुबइ ले थोड़े ने छोड़ देम ? तूँ अपना के एकल्ला आउ असहाय मत बूझऽ । भगवान हमर सहेता जरूर करतन ।)    (सारथी॰12:17:15:3.46)
489    साथी-संगी (बाऊ आउ भइया तो परदेसे में । काम-किरिया खातिर अइलन । काम-किरिया करके बाऊ चल गेलन हल आउ भइया भउजी के कहला पर रुक गेल हल । मुदा जब पइसा-कउड़ी ओरिआल त एक महीना के बाद ओहो परदेसे । हाँ, जब तक रहलन हल, तिलका के मउज । दोसरे-तेसरे कुछ चक्खी-पक्खी होइये जा हल । गाम-गिराम के साथी-संगी अघाल रहऽ हल ।)    (सारथी॰12:17:8:3.42)
490    सामुन (= साबुन) (गोंड़ी सून हो गेल हल ... घरे-घर टरेक्टर आ गेल हल - हर जोते ले । सभे के पक्का मकान ... हाथ मटियावे ला लाइफबाय सामुन, खड़ाम के जगह हवाई चप्पल, औरतन के सीधा पल्ला अब उलट गेल हल ... अँचरा विन्डोबा हो गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:14:2.50)
491    सालन (जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । मारे ओरे-धारी खटिया बिछल रहऽ हे । कुरसी-टेबुल भी । तरकारी आउ सालन भुंजाय के गंध चारों दने उड़इत रहऽ हल । बूढ़-पुरनियाँ के हाथ पर दू पइसा अइलो नञ् कि साँझे-बिहने चाह पीअइ ले हाजिर ।)    (सारथी॰12:17:8:3.50)
492    सिंघाल (~ पाठा) (एक जुटी पर दस हजार, ओकरा में पाँच हजार से बेसी दादनी, जे पहिलहीं अँचरा के खुँटी से ससर गेल हल । भट्ठा पर चढ़े घड़ी पाँच हजार से कमे हाथ लगल । ओकरा पर ऊ निपुतरा बाझो सिंह महीना दिन से आँख गड़इले जब बागीबरडीहा टीसन पर ऊ छेक लेलक, सब लूर-बुद्धि हेरा गेल । एगो सिंघाल पाठा तो खूँटा से खोलिए लेलक हल, बत्तीस सौ रुपया ऊपर से टांकले । "ले जो रे निपुतरा" बुदबुदाल आउ अचरा से खोल के बत्तीस सौ रुपैया गिन देलक ।)    (सारथी॰12:17:20:1.24)
493    सिझाना (महुआ कत्तेक दिन से टपक रहल हे । ई समय में पूरा इलाका महमह करे लगऽ हे । महुआ के महक से मन भर जा हे आउ फेर पुरनका महुआ भी ताजा हो जाहे । नउका महुआ के महक से मन जब बउँखऽ हे त आदमी पुरनका महुआ निकाल के रात-विरात तक सिझइते रहऽ हे ।)    (सारथी॰12:17:9:2.36)
494    सिठौरा ("भैया लोग ! एन.टी.पी.सी. खुल रहलो हे । सरकार जमीन ले लेतो । ओकर अढ़ाइ गुना दाम देतो । सभे के रज-गज होतो ।" एकरा पर तोखी सिंह चउँकलथिन - "देखलहो नञ्, राजगीर में बारूद फैक्ट्री खुललइ । सिठौरा राजा हो गेलइ । जेकर बाप के घास गढ़ते-गढ़ते घट्टा पड़ गेलइ हल, ओकर जाल-जलमल फटफटिया चढ़ रहलो हे ।")    (सारथी॰12:17:13:2.43)
495    सिरहटिया (जब पड़िया मुस्की छोड़ऽ हल त लगऽ हल कि बसमतिया धान के ढेरी में एक सूप सिरहटिया रख देल गेल हे । बीझना के बुझइवे नञ् करे कि बात कहाँ से शुरू करूँ ।)    (सारथी॰12:17:21:2.26)
496    सिलल-सिलावल (= सीयल-सिलावल) (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । चौड़ा पाड़ वाला कथई रंग के दू गो साड़ी, सिलल-सिलावल साया-बिलौज, तीन भर के पायल, रंगन-रंगन के चार डिब्बा चूड़ी, अलता, अइना, कंघी, पाउडर दौरा नियर साज के पेठा देलन हल ।)    (सारथी॰12:17:21:1.35)
497    सिलेब (~ रंग) (अट्ठारह बीघा के जोतदार कापो चा - आझ बेचारा । दू जोड़ा हाथी नियन बैल, दू गो दोगली गाय, एगो गुजराती भैंस गोंड़ी पर शोभो हलइ कापो चा के । देवना बराहिल ... ई कड़कड़िया मोंछ, छोफिट्टा जुआन, सिलेब रंग एकदम पकिया ।)    (सारथी॰12:17:13:1.26)
498    सीझना (= सिद्ध होना, ठीक से पकना) (पड़ोस के मोदखाना से आधा किलो मोटका चावल आउ पाव भर आलू आल । गोलहत उतरइत-उतरइत बुतरू-बानर पाँच तुरी भंसा हुलकि आल । हर बार - 'सीझऽ दे, खइहें' के भरोसा पर दुइयो भाय नाक में सीझइत भात के भाप भरि लउटि आवे आउ कठघोड़ा में बिसरि के बिसित हो जाय ।)    (सारथी॰12:17:16:1.28, 29)
499    सीटिया (~ मिरचाय) (शनिचर कहलकइ - "जो ने, करगे में मनोज सिंह वाला मरचइया फरि को लुथड़ी भेल हइ । अरिया तर छोड़के एक मुट्ठा घीचि लिहें । असली सीटिया मिरचाय हइ । तनी गो खइभीं, कान झनझना देतउ ।")    (सारथी॰12:17:17:3.11)
500    सीधपनइ (हम उनखा 'गुरु जी' कहो हलिअइ, इ चलते नञ् कि ऊ मास्टर हलथिन । ई कहे के पीछु हमर एगो पवित्र भावना हलइ, एगो धारणा हलइ कि उनखा में गुरुता हइ, विचार के दृढ़ता हइ, चरित्र के उत्तमता हइ, रहन-सहन के सीधपनइ हइ आउ हइ भीड़-भाड़ में अलग पहिचान करावे के सामर्थ्य ।)    (सारथी॰12:17:34:3.7)
501    सीधा-सपट्टा (ऊ फेन बुदबुदाल, 'लुझनावली तो दू-चार दिन में मनइते-फुसलइते, डरइते-धमकइते आँट में आ गेल हल, जानय पड़िया के अँटावइ ले कौन-कौन बेलना बेले पड़त । लुझना तो सीधा-सपट्टा हमर एहसान से दबके मुँह गड़इले खोंखे के भी हिम्मत नञ् करऽ हल, मुदा ससुरा ई बीझना के आँख से तो आगे टपकइत रहऽ हे ।')    (सारथी॰12:17:22:2.49)
502    सुकुर-सुकुर (अगहन के शुरूह में ठंढा धीरे-धीरे धरती पर दुलहिन जइसन सुकुर-सुकुर पँव रख के उतर रहल हल । साँझ के समय झुरझुरी सन लगो लगल हल ।)    (सारथी॰12:17:17:1.2)
503    सुगरी (सोमर कहलकइ, "तब कर दहीं काहे नै बाबू ?" शनीचर कहलकइ, "बियहवा करभीं तब सातो पहुरा बिक जइतउ । बड़ी खतगर सुगरी खोजके लइलिअउ हे । एकर माय बारह बच्चा बियावऽ हइ, एक बेरी में देखऽ हीं, पहिलठ में सात बच्चा बिअइलइ । सोचलिअइ हल - पाँचो के खस्सी खोला देबइ । दू गो सुगरी अगिला साल मोखि जइतइ । बस झरइत नै झरतइ । खसिया के बेचके अगिला साल तोर बियाह ।')    (सारथी॰12:17:18:1.13, 17)
504    सुड़ु (= सुड़ुक) (सोमर कहलकइ, "... देखऽ हिअइ, अपना किसना के, साँझ-बिहान चूड़ा साथ भूँज के मिला के खा हइ, ऊपर से चाह पीयऽ हइ सुड़ु ! ... वइसइँ हमहूँ खाय ले चाहऽ हिअइ ।")    (सारथी॰12:17:17:1.36)
505    सुत्तल-बइठल (गया के मोसाफिरखाना देखि के त हम दंग रहि गेलूँ । ... चारो पट्टी बइठे के बेंच बनल, पानी, पाखाना के सुविधा अलग । सब सुरक्षित जगह टेबके डेरा जमा लेलन ... बीच में गेठरी-मोटरी, चारो पट्टी सुत्तल-बइठल साथी । हमरा नींद कहाँ !)    (सारथी॰12:17:26:2.11)
506    सुनहटा (= सन्नाटा) (तिलका उठल आउ घर दने सोझिया गेल । केबाड़ी भिड़कल मिलल । घर हेलल । एकदम सुनहटा । अँगना आउ ओसरा दुन्नो जगह के खटिया खाली देखलक ।)    (सारथी॰12:17:9:3.9)
507    सुरफराना (जानवर त खेती के जान हे । जान बचावइ ले जान के बाजी लगाना त लाजिमे हल । / गंगा हेलवइया में पतिपदा सबसे सेसर हला । ऊ जब कमर कसलका त चानो का, रमेसर, बलेसर आउ चेथरूआ भी सुरफराल । सब में चेथरूआ सबसे कचेड़ हल । साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला ।; 'ठीक हे । चलऽ हो, भैंस के हाँकऽ । घंटा दू घंटा में कोय गाम मिलवे करतइ ।' पतित दा सुरफरायत कहलका ।)    (सारथी॰12:17:10:1.42, 11:1.52)
508    सेंगरना (= जमा होना, इकट्ठा होना, बचत होना) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । ... हिसाब-किताब में जित्ते गाय गिले ले तइयार । तिलका-घर के की, सब के सब अइसइँ लंगो-तंगो । परदेस के कमाय महाजने के हाथ या अइला पर जलसा-जुलूस में खतम । कुछ सेंगरे तब ने ।)    (सारथी॰12:17:8:1.54)
509    सेदना (= सेंकना, आग तापना) (तभी माथा पर मोटरी लेने सोमरा दम्म सना हाजिर ! मोटरी नीचे रखके आग में हाथ सेदो लगलइ । शनीचर पुछलकइ - "मोटरिया में की हिकउ ?")    (सारथी॰12:17:17:1.14)
510    सेराना (= ठंढा होना; ठंढा करना) (इंतजार के घड़ी बीतल । सुनीता पहिले एक्के थरिया में गोलहत काढ़ि के बाँस के बीयन से सेरावऽ लगल । कुच्चा के कुद्दी दुइयो के हाथ में दे देलक ।)    (सारथी॰12:17:16:1.34)
511    सोझियाना (तिलका उठल आउ घर दने सोझिया गेल । केबाड़ी भिड़कल मिलल । घर हेलल । एकदम सुनहटा । अँगना आउ ओसरा दुन्नो जगह के खटिया खाली देखलक ।)    (सारथी॰12:17:9:3.8)
512    सोन्ह (= सोन्हा, सोंधा, सुगंधित) (पूछ बइठल, 'ई होटल वला तरकारी दीदी ?' दीदी चुप रहल । भउजी बोलली, 'होटल वला लकड़ी ने खरीदलक हे । पइसा लावे गेलियो त सोन्ह धमकल । ई लेल तराकारियो ले लेलूँ ।' तहिया से कहियो होटल के रोटी त कहियो सालन आउ अइसइँ कुछ ने कुछ आवे लगल ।; ऊ आझ भी अशरीरी रूप में मौजूद हका - मगहिया माटी के सोन्ह महक बनके, हरेक कवि-गोष्ठी में माँ सरस्वती के प्रतिनिधि बनके, सब मगही कवियन के प्रेरणा स्रोत बनके । चउगरदा उनखर थिरकन आउ खनकल आवाज सूक्ष्म सत्ता के रूप में प्रतिध्वनि होते रहे हे - हमनी के आत्मा में ।)    (सारथी॰12:17:9:2.23, 35:1.39)
513    सोरिअइले (पड़िया अन्हार होवे के अनेसा में गुदगुदी महसूस कर रहल हल, 'आझ तो पुछिए लेबइ कि काहे तूँ हमरा से फड़कल रहऽ ह ।' मन में ढेर बात सोरिअइले मगर बीच-बीचे से ओझरा जाय । ढिबरी के तरेंगनी उजास में भीतरी मन के पियास बढ़ल जा रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:21:3.37)
514    सोवाँसा (= साँस) ('चिंता न करऽ सुनीता ! हम जिनगी के युद्ध में रोज-रोज हार रहलूँ हे ।' नरेन्दर लमहर सोवाँसा लेवइत बोलल ।)    (सारथी॰12:17:15:3.22)
515    सोहराय (बनछिल्ली में कुछ खेत हे । धान उपजऽ हे । धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन ।)    (सारथी॰12:17:8:1.7)
516    हँकाना ('ठीक हे । चलऽ हो, भैंस के हाँकऽ । घंटा दू घंटा में कोय गाम मिलवे करतइ ।' पतित दा सुरफरायत कहलका ।/ भैंस हँका गेल । आगू-आगू भैंस, पीछू-पीछू चरवाह । सूरज डूब गेल । अन्हार दउगल आ रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:11:1.53)
517    हउ (चानो का कहलका, "तों सब एजइ अन्हार में रूकि जो !" सब 'हउ' कहलक कि भैंस गद दियाँ बइठ गेल । चानो का कहलका, "जब बोलइबो, तबे सब अइहऽ ।")    (सारथी॰12:17:11:2.30)
518    हड़बड़ाल (मरहीना काटे ले बीझना गोहाल से खचिया आउ हँसुआ लेके जइसहीं बहराल, बाझो सिंह हाँक देलन, 'ए बीझन ! सुन तो एन्ने ।' / 'आझ बीझना से बीझन, की बात हे !' ऊ आके सामने ठाढ़ हो गेल, ने राम ने सलाम ! / 'तोर माय कह रहलो हल कि छप्पर पर खपड़ा चढ़ावे ले हइ ! कत्ते पैसा लग जइतउ ओकरा में ?' वइसहीं मुँह बामा पट्टी घुमा के बोलल बीझना, 'ई सब मइया जानऽ हइ, हमरा नञ् मालुम ।' कहके ऊ बढ़े लगल । बाझो सिंह फेन रोकलन ।  / 'हड़बड़ाल काहे जा रहलहीं हे ।')    (सारथी॰12:17:22:3.33)
519    हड़हड़ी (माँ केला लेलन आउ एक गुच्छा ऊपर चढ़ा देलन । हम धीरे-धीरे स्वाद लेवे लगलूँ । हमरा अच्छा लग रहल हल । छिलका सहेज के नीचे माय दने बढ़ा देलूँ आउ फेनो अलसा गेलूँ । गाड़ी के हड़हड़ी में खोवल कखने आँख लगि गेल कुछ पता न चलल ।)    (सारथी॰12:17:26:2.46)
520    हदियाना (ऊ झुनकी पर गोसाय लगल - हमर बेटवा के पगला देलक । नञ् जनु की करि देलक कि जगवे नञ् करऽ हे । फिन त ओजा भारी हंगामा भे गेल । हल्ला-हसरात होवइत रहल, बकि लड़का त नञ् जगल । आदमी सब हैब-गैब में। झुनकी सबके समझा रहला हल, "मत हदिया, ऊ बनारस घूम के आ रहलो हे ।")    (सारथी॰12:17:28:1.38)
521    हल्ला-हसरात (ऊ झुनकी पर गोसाय लगल - हमर बेटवा के पगला देलक । नञ् जनु की करि देलक कि जगवे नञ् करऽ हे । फिन त ओजा भारी हंगामा भे गेल । हल्ला-हसरात होवइत रहल, बकि लड़का त नञ् जगल । आदमी सब हैब-गैब में। झुनकी सबके समझा रहला हल, "मत हदिया, ऊ बनारस घूम के आ रहलो हे ।")    (सारथी॰12:17:28:1.36)
522    हाँका (साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला । .. तय भेल कि पाँच अदमी आगू टरेन से जायत रसद-बुतात लेके आउ पाँच पांडव जानवर साथ गंगा हेलता । चानो का कहलका, 'मंगलामुखी सदा सुखी । कल हाँका हो जाय के चाही ।')    (सारथी॰12:17:10:2.1)
523    हाट बलेसर (= high blood-pressure) (दिन भर लुबुर-लुबुर बकड़ी नियर खइते रहऽ हइ । जाने दिन-रात में दस बेरी खा हइ कि बीस बेरी । ऊ अनाज खा हइ ? हमरा तो लगऽ हे अनजा के सूँघऽ हइ । तब देखऽ हीं सूतल-सूतल पेट बाढ़ि गेलइ । ई कि हिको तब चीनी के बेमारी । ई कि तब हाट बलेसर तब पाद बलेसर । कुल बलेसर ओकरे पर चढ़ले हइ ।")    (सारथी॰12:17:17:2.2)
524    हाल-फिलहाल (एन्ने हाल-फिलहाल मगध विश्वविद्यालय के मगही विभागाध्यक्ष डॉ॰ भरत सिंह के संपादन में दू गो मगही संकलन प्रकाशित होल हे । डॉ॰ भरत जी के प्रयास महत्वपूर्ण हे काहे कि इ दुन्नो संकलन में लगभग हालिया तीन दशक के मगही कहानी के मिजाज के तासीर के बढ़िया प्रतिनिधित्व हो गेल हे ।; दुन्नो संकलन में हाल-फिलहाल में कहानी लेखन के क्षेत्र में सक्रिय लगभग सब्भे रचनाकारन के प्रतिनिधित्व हो जाय में थोड़े बहुत ही कसर बाकी रह गेल हे ।)    (सारथी॰12:17:37:1.1, 11)
525    हाहे-फाफे (दे॰ हाँफे-फाँफे) (ई दिसम्बर के पहिल सप्ताह के एगो सर्द साँझ हल । राजगीर-दानापुर पसिंजर राजगीर से खुलके खंडहर उजाड़ हो गेल सिलाव टीसन पर ठहरवे कइल हल कि छाती तक पक्कल दाढ़ी लहरइते ऊ बुजुर्ग हाहे-फाफे लपकले डिब्बा में हेलि गेल ।)    (सारथी॰12:17:24:1.5)
526    हिआना (= हियाना; दृष्टि डालना, ध्यान से किसी तरफ देखना) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । ... घर-अंगना हिअइतो । बेटी-बहू पर नज्जर गड़इतो । हिसाब-किताब में जित्ते गाय गिले ले तइयार ।)    (सारथी॰12:17:8:1.49)
527    हिन्छा (= हिंछा; इच्छा) ("आह ! न आवल चाहित हलइ । लोग के कहे में आ गेली । सोचइत हली कि कम्बल मिलला पर जाड़ा ठीक से कटत । भर हिन्छा पूड़ी-बुनिया खायब ... बाकिर ... ।" पछतावे लगल बेदामी ।)    (सारथी॰12:17:6:1.14)
528    हीत-चीत (संझकी एन्ने पूरब से टोहले घरे-घर पैंसते दक्खिन टोला में बुझन के खटिया तर पसर गेल । बीझना भी सवेरगरे खर-खरिहानी लगाके बाप भिजुन पहुँच गेल हल । टोला-टाटी के हीत-चीत भी जुमल । केकर हाथ के पानी पैठ होत । बुझन के साँझ चढ़ि गेल हल । माने एकरे औरदा पूरा ।)    (सारथी॰12:17:20:2.45)
529    हेराल (ऊ एक पैग आउ ढारके कंठ से नीचे ससार लेलक आउ बामा हाथ से चुटकी बजइलक ... चुट ... । ओकरा जइसे कोय हेराल जीनीस मिल गेल हे ।)    (सारथी॰12:17:22:3.2)
530    हेलवइया (जानवर त खेती के जान हे । जान बचावइ ले जान के बाजी लगाना त लाजिमे हल । / गंगा हेलवइया में पतिपदा सबसे सेसर हला । ऊ जब कमर कसलका त चानो का, रमेसर, बलेसर आउ चेथरूआ भी सुरफराल । सब में चेथरूआ सबसे कचेड़ हल । साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला ।)    (सारथी॰12:17:10:1.40)
531    हेलवार (भोरगरे जानवर खुट्टा से खुल गेल । सबके हाथ में तेल पिलावल लाठी, जेकरा में पत्तर ठोकल, गोवा लगल । गंगा के किछार पर भीड़ जमा होवऽ लगल । सबके मुँह से एक्के सबद - 'चल, आज हाँका हइ भाय !' सले-सले पाँचो हेलवार भैंस जोहिअइले गंगा के किछार पर पहुँच गेल ।; ओने सब हेलवार होश में आल त भूख से अँतड़ी कुलबुलाय लगल । चेथरूआ चिल्लाल - 'अजी पतित का ! कन्ने गेलहो जी ?')    (सारथी॰12:17:10:2.11, 11:1.15)
532    हैब-गैब (बड़े सरकार किशोर शरण जी दने निहारि के कहलन, 'अहो किशोरी, बुतरुआ पर ध्यान रखिहीं', आउ बाबा आगू बढ़ि गेला । हम त हैब-गैब में हली उनखर रूप-रंग देखि के ... ममता से भरल ! दया के प्रतिभूति !; ऊ झुनकी पर गोसाय लगल - हमर बेटवा के पगला देलक । नञ् जनु की करि देलक कि जगवे नञ् करऽ हे । फिन त ओजा भारी हंगामा भे गेल । हल्ला-हसरात होवइत रहल, बकि लड़का त नञ् जगल । आदमी सब हैब-गैब में। झुनकी सबके समझा रहला हल, "मत हदिया, ऊ बनारस घूम के आ रहलो हे ।")    (सारथी॰12:17:27:2.1, 28:1.37)
533    हौल-हौल (कछार पर सब थकि के चितंग । किनखो देह-गात के होश-हवाश नञ् । पीड़ा से अंग टूट रहल हे । इनखा सब से अलग पतित दा अपना गब्भिन भैंस भिजुन हला, जे कछार पर आके बइठ गेल हल । पतित दा के करेजा हौल-हौल करि रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:11:1.9)
 

107. "सारथी॰" (वर्ष 2012: अंक-17) में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



सारथी॰ = मगही पत्रिका "सारथी॰"; सम्पादक - श्री मिथिलेश, मगही मंडप, वारिसलीगंज, जि॰ नवादा, मो॰ 08084412478; मार्च 2012,  अंक-17; कुल 40 पृष्ठ ।

ठेठ मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर पृष्ठ संख्या, आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति संख्या दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (‘मगही पत्रिका के अंक 1-21, बंग मागधीके अंक 1-2, 'झारखंड मागधी', अंक 1 एवं  सारथी, अंक-16 तक संकलित शब्द के अतिरिक्त) - 533

ठेठ मगही शब्द ( से तक):
1    अँटाना (= आँट में लाना) (ऊ फेन बुदबुदाल, 'लुझनावली तो दू-चार दिन में मनइते-फुसलइते, डरइते-धमकइते आँट में आ गेल हल, जानय पड़िया के अँटावइ ले कौन-कौन बेलना बेले पड़त । लुझना तो सीधा-सपट्टा हमर एहसान से दबके मुँह गड़इले खोंखे के भी हिम्मत नञ् करऽ हल, मुदा ससुरा ई बीझना के आँख से तो आगे टपकइत रहऽ हे ।')    (सारथी॰12:17:22:2.48)
2    अंगइठी (अइसइँ जब सब कष्टी के कष्ट सुन लेलका त कहलका, "अब हम जइबइ, जल पिलाव ।" / उनखा जल पिलावल गेल, अंगइठी लेलका फेन स्वभाविक रूप में आ गेला । लोग-बाग उनखा घेर लेलक । सवाल पर सवाल पूछऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:11:3.50)
3    अइठकी-बइठकी (नरेन भाय त ऊ यात्रा में एगो सवाल छोड़ि के दोसर दिन चलि देलन बकि हमर नीन हरि गेलन । चिंतन मनन चलऽ लगल । अइठकी-बइठकी भेल आउ निर्णय भेल कि 'सारथी' के फेनु प्रकाशित करावल जाय ।)    (सारथी॰12:17:2:1.29)
4    अइसइँ (दे॰ अइसहीं, अइसीं) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । ... हिसाब-किताब में जित्ते गाय गिले ले तइयार । तिलका-घर के की, सब के सब अइसइँ लंगो-तंगो । परदेस के कमाय महाजने के हाथ या अइला पर जलसा-जुलूस में खतम । कुछ सेंगरे तब ने ।; अइसइँ जब सब कष्टी के कष्ट सुन लेलका त कहलका, "अब हम जइबइ, जल पिलाव ।" / उनखा जल पिलावल गेल, अंगइठी लेलका फेन स्वभाविक रूप में आ गेला । लोग-बाग उनखा घेर लेलक । सवाल पर सवाल पूछऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:8:1.51, 11:3.47)
5    अउने-पउने (दे॰ औने-पौने) (गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे । गाँव के जमीन पानी बिन तरासल हे । नहर, कुआँ, बोरिंग पर केकरो धियान नञ् । खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे ।)    (सारथी॰12:17:9:1.28)
6    अगवे (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । ... अगवे गेहुँम के आँटा आउ डबल स्टीम सीतवा चाउर आध मन के करीब बीझना के माय ड्योढ़ी से लेके आल हल ।)    (सारथी॰12:17:21:1.41)
7    अड्डी (~ मारके बइठ जाना) ('तूँ अपना के हारल काहे बूझऽ हा ? दुर्दिन कि हमर जिनगी में अड्डी मारके बइठ जइतन ? ई आल हे त जइबे करत । अन्हरिया रात आवऽ हे सबेरा लावइ ले, याद रखि ला ।' तनी तनइत सुनीता बोलल ।)    (सारथी॰12:17:15:3.24)
8    अदंक (= आतंक, डर, भय) (तिलका शहर पहुँच गेल । ... पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल । तहिया हरदम माय के गोझनउठे धइले रहऽ हल । बाऊ साथे आल त परदेसे जाय लेल । ऊ धरमसाला के आगू पहुँचल । देखलक कि सैकड़ों आदमी ओरे-धारी लैन लगइले हे । पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे ।)    (सारथी॰12:17:9:1.19)
9    अद्धा (= वि॰ आधा; सं॰ आधा भाग; ईंट आदि का आधा भाग; शराब की आधी बोतल; शराब का नपना) (कापो चा त घरो से बहराय में तेरह तुरी सोचो हथ । / "की बाबा, फटफटिया चढ़भो ... ?" / कापो चा बिन देखले माय-बहीन उकटे लगो हला । कभी-कभार त एका अद्धा फेंक भी दे हला - लगो चाहे नञ् ।)    (सारथी॰12:17:13:1.14)
10    अधअदमी (जब जंगल में सड़क बने लगल त देह पर तनि रोगन चढ़ल । सब जन्नी-मरद, हियाँ तक कि छोट-छोट बाल-बुतरू से लेके अधअदमी तक के काम मिल गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:8:2.3-4)
11    अधखुलल (कुछ औरत अपन आँख मुनले जोर-जोर से ताली बजा-बजा मगन गावइत दिख रहलन हल । कुछ एकदम लुज-लुज बूढ़ी बुतरू-सन चकित खिड़की के बाहर के नजारा देखे में बिसित हलन । उनखर पिचकल गाल वला मुँह खुलल हल । किनखो मुँह के कोर से लार गिर रहल हल । कभी-कभार उनखर अधखुलल मुँह से गावल भजन के एकाध टुकड़ी हउले से फिसलि जा हल ।)    (सारथी॰12:17:24:1.24)
12    अधछेछर (नरेन्दर करवट बदलि लेलक हे । अहल-बहल सोंचते-सोंचते फेनो नींद आ जाहे । अधछेछर नींद में फेनो सपना देखऽ लगऽ हे । ऊ पटना में अपन बड़का भइया के पास हे । खाय-पीये मिल जाहे बकि भाभी के ताना के साथ ।)    (सारथी॰12:17:16:2.34)
13    अधमने (थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:24:3.32)
14    अनइ-जनइ (खा-पी के बाहरे बथान पर सुत गेल । अधरात के नीन टूटल । एन्ने-ओन्ने हिअइलक त देखऽ हे कि सामने वला घर के केबाड़ी खुलल हे । एकाध जन्नी के अनइ-जनइ भी देखलक । पहिले तो लगल कि बहरभूँइ के बात होत ।)    (सारथी॰12:17:9:3.5)
15    अनबेरा (हमरा नींद कहाँ ! हम त टुक-टुक आवइत-जाइत लोग-बाग, गाड़ी देखइ के अनबेरा में उठल, बइठल, घूमइत समय बितावऽ लगलूँ । गाड़ी आवे, रुके, पसिंजर उतरे, चढ़े । लाल-लाल अंगा पेन्हले कुली के माथा पर भारी-भारी समान !)    (सारथी॰12:17:26:2.13)
16    अनमनाल (गाड़ी रुकल । भीड़ में ऊ दुन्नूँ औरत-मरद अन्हार में बदलि गेल । बुजुर्ग के चेहरा पर स्याह परछाईं तैर रहल हल, ठिसुआल सन । ऊ सामने के खिड़की से अनमनाल अंदाज में लटफरेम के अन्हार दने घूरऽ लगलन ।)    (सारथी॰12:17:25:2.33)
17    अन्हार-पन्हार (जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । ... बूढ़-पुरनियाँ के हाथ पर दू पइसा अइलो नञ् कि साँझे-बिहने चाह पीअइ ले हाजिर । बूढ़ आदमी चाह के सवाद के साथ-साथ बातचीत के माने-मतलब भी बूझे लगलन । अन्हार-पन्हार में चलइ वला खिस्सा-गलबात पर उनकर कान खड़क जा हल ।)    (सारथी॰12:17:9:1.1)
18    अन्होर (दे॰ 'अनोर') (तड़ाक ... । बीझना ओकर गाल पर एक चमेटा जड़ देलक हल । मगर ई सब बात के तो लमहर पाँख होवऽ हे, उड़ते-फिरते सउँसे गाम अन्होर । केकरा-केकरा चमेटा मारले चले बीझना ?)    (सारथी॰12:17:21:3.23)
19    अपसोवारथी ("अइसे काहे बोलइत ह जी ! अपसोवारथी वाला बात ! ... लोग कहइत हलथी कि ढेर कम्बल आयल हइ बाँटे खातिर ... टरके-टरक आयल हइ ।" बेदामी कहलक ।)    (सारथी॰12:17:5:3.29)
20    अबधुर (= अबधर; अब तक, अभी) (अरे बेदामी ! का करबऽ । देख न केतना लूल-लांगड़ आउ कोढ़ी-काबर निराश लउट गेलन । दिन भर मांगतन, ऊ भी छूटल । अब त कम्बल मिलतो न । कम्बल त गूलर के फूल हो गेल । बाकिर सोचऽ ... का जनी अबधुर राजा आ जथी आउ कम्बल बाँटे लगतथी त हमनी के बड़का मोटरी हो जायत ।)    (सारथी॰12:17:5:3.5)
21    अरखना-परखना (कभी-कभार उनखर अधखुलल मुँह से गावल भजन के एकाध टुकड़ी हउले से फिसलि जा हल । ऊ जउन कदर वातावरण में डूबके अरख-परख रहलन हल, ओकरा देखइत ई नञ् लगि रहल हल कि ऊ गुरु-स्तुति में मन लगा रहलन हे ।)    (सारथी॰12:17:24:1.27)
22    अरूआ (~ लड़की) (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?")    (सारथी॰12:17:19:1.15)
23    अलंग ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।)    (सारथी॰12:17:13:3.10)
24    अलगइले (= अलगाना+'ले' प्रत्यय; उठइले; उठाए हुए) (आझ बीझना पर ईहे 32 नम्बर पहाड़ बनके गिरल हे । बाझो सिंह के कइसे पता चलल कि पड़िया 32 नम्बर के पेन्हऽ हइ ? एकर माने तेतरा के बात सोलह आना सच हे । ऊ कह रहल हल, 'बाझो सिंह अइसहीं नञ् तोर बियाह में गोड़ अलगइले हलउ । ऊ तोर मेहरारू के कुमारे में नाप-जोख ... ।'; बीझना के माय ई सब जानऽ हल कि नञ् पता नञ्, मुदा महीना दिन पुरते-पुरते पड़िया नयकी कनियाय से नयकी कमिनियाँ बन गेल । बाझो सिंह भी एहे दिन देखे ल ने ओकर बियाह में गोड़ अलगइले हल ।)    (सारथी॰12:17:21:3.14, 22:1.22)
25    अलता (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । चौड़ा पाड़ वाला कथई रंग के दू गो साड़ी, सिलल-सिलावल साया-बिलौज, तीन भर के पायल, रंगन-रंगन के चार डिब्बा चूड़ी, अलता, अइना, कंघी, पाउडर दौरा नियर साज के पेठा देलन हल ।; अभी पड़िया के गोड़ के अलता मेटाल भी नञ् हल कि बीझना बिदके लगल । जनु ओकर कान में के कौन मंतर फूँक देलक हे कि पड़िया से भर मुँह बोले नञ् ।)    (सारथी॰12:17:21:1.37, 2.2)
26    अहियात (घाट से थोड़े हटि के पतित पावनी सरयू नदी कलकल प्रवाहित हो रहलन हल । हम त जादे से जादे सकरी, टाटी नदी देखली हल, जे बरसात में त अहियात हो जाहे आउ बकिये सालो भर सुक्खल के सुक्खल । फाँकऽ बालू !)    (सारथी॰12:17:26:3.43)
27    अहो (= उम्र या दरजा में कम लोगों को संबोधित करने में प्रयुक्त शब्द) (ऊ रुकि के पुछलन, 'कहाँ घर हउ नुनु ?' - 'वारिसलीगंज', हम मुस्कुरायत कहली । - 'तूँ डॉ॰ प्रकाश के बेटा हीं हो ?' ऊ पुछलन, 'आउ कोय अइलउ हे ?' - 'मइयो अइलइ हे ।' बड़े सरकार किशोर शरण जी दने निहारि के कहलन, 'अहो किशोरी, बुतरुआ पर ध्यान रखिहीं', आउ बाबा आगू बढ़ि गेला । हम त हैब-गैब में हली उनखर रूप-रंग देखि के ... ममता से भरल ! दया के प्रतिभूति !)    (सारथी॰12:17:27:1.52)
28    आँख-समांग (~ बिला जाना) (बीझना ! हम्मर भतार ! ... मोछमुतवा के जनु के सहका देलकइ कि बियाह के बाद से नतीजा कर रहल हे । आउ बाझो सिंह ! ओकर आँख समांग बिला जाय निपुतरा के । आझ हमरा कोय करम के नञ् छोड़त हल । एगो नफरत के शिकार बनइले हल त एगो वासना के । ई मरद जात, जनानी के देह के गिंजन करइ लेल ही जलमल हे कीऽ ?)    (सारथी॰12:17:23:2.47)
29    आँट (~ में नञ् आना) (बाझो सिंह एकसरे दलान पर बइठके बूँट के खस्सी जइसन चखना पर अंग्रेजी दारू चढ़ा रहल हल । दू-चार पैग के बाद आँख गोल-गोल हो गेल जेकरा में खून अब टपके कि तब । ... दू महीना से जादे हो गेल । पड़िया अभी तक आँट में नञ् आल । ऊ थूक निगलइत बुदबुदाय लगल, 'पड़िया ! आझ तोर जुआनी के रस भी दारुए में पिलाके पी जइबउ ।'; ऊ फेन बुदबुदाल, 'लुझनावली तो दू-चार दिन में मनइते-फुसलइते, डरइते-धमकइते आँट में आ गेल हल, जानय पड़िया के अँटावइ ले कौन-कौन बेलना बेले पड़त । लुझना तो सीधा-सपट्टा हमर एहसान से दबके मुँह गड़इले खोंखे के भी हिम्मत नञ् करऽ हल, मुदा ससुरा ई बीझना के आँख से तो आगे टपकइत रहऽ हे ।')    (सारथी॰12:17:22:2.41, 47)
30    आँधी-बतास ("देखऽ बेदामी ... भोट के बेरा रहतइ हल न, त रजवा जरूर अतउ हल । आँधी-बतास में उड़ के भी, बाढ़ में दहा के भी ... कइसहूँ पहुँचतउ हल । आके फुसलतउ हल, घिघिअतउ हल बाकिर अभी ?" चल्हवा बड़बड़ाइत हल आउ ओकर साँस धौकनी नियन चले लगल हल ।)    (सारथी॰12:17:6:2.17)
31    आगरों ('एक दिन तोहूँ चल जइहऽ तिलक ।' भउजी हँसइत कहलकी ।/ भउजी के बात याद अइते ओकरा लगे लगल कि सच्चोक में भउजी आगरों जानऽ हली । पहिले बाऊ परदेस कमाय ले जा हलन । भइया, हम, दीदी आउ मइया घर पर ।; हिसाब जोड़े-नारे में मइया एकदमे भोंजल हे । ऊकी, तहिया फूफा के हाथ बाऊ रुपइया भेजइलका हल । महाजन आल आउ तीन-तेरह करके कुल्ले हथिया लेलक । महाजनो के जइसे आगरों हो जइतो । केकरा हीं पइसा अइलो, केकरा हीं नञ् अइलो या केकरा कहिया अइतो, जइसे तार लगल हे ।)    (सारथी॰12:17:8:1.3, 40)
32    आन्हर-कान (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?")    (सारथी॰12:17:19:1.16)
33    आर (= बड़ी आरी) ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।)    (सारथी॰12:17:13:3.10)
34    आल-औलाद (मौगी कुरोध के बोललइ, "दुर्रर्र ने जाय छुछुन्नर ! ... हम बे नगन होल जाही । ई पाछूहिया को की देखऽ हीं ?" सोमरा कहलकइ, "अरे देखऽ हिअइ - हमर सातो पहुरा कहाँ हइ ?" मौगी कहलकइ, "दुर्र हो ! ... लाजो नै लगऽ हइ मर्दवा के ! ... चलें ने घर में खूब दीया बत्ती बारके देखइत रहिहें । सात पहुरा कि,  ई अइसन समुंदर हइ कि एकरा में तों, तोर आल-औलाद सब समा जइतउ, पता नै चलतउ ।" कनियाय घर अइली - सलियाने बच्चा ।; मागु से कहलकइ - तों ठीक कहलहीं हल ! एकरा में तोर सातो पहुरा कि, तोर आल-औलाद सब समा जइतउ ।)    (सारथी॰12:17:18:3.11, 19:3.36)
35    आहि-उपाय (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।)    (सारथी॰12:17:27:3.38)
36    इन्द्री (= इन्द्रिय) (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल । भगत के छोम्मा इन्द्री जाग गेल ।)    (सारथी॰12:17:11:2.47)
37    इसपिरेस (= एक्सप्रेस) (जमात एगो खलिया बेंच हथियाके बइठ गेल । पता चलल - साढ़े ग्यारह बजे रात के एक नम्बर लटफरेम पर गाड़ी आवत ... इसपिरेस ! एकर पहिले हम इसपिरेस पर नञ् चढ़लूँ हल ।)    (सारथी॰12:17:26:1.47, 48)
38    उकात (= औकात) (बाझो सिंह के अदमी आवे तब ... दरद के दू-चार गोली या कभी-कभी सुइया भोंकवा दे । पलस्तरा करावे के ने ओकर उकात, ने बाझो सिंह के कोय मतलब । रहल हरवाहा के बात, तो लुझन के छोटका बेटा बीझना छौड़गरे हल, जे अपन बाप के झाड़ा-पखाना करवाके मालिक के हुकुम बजावे ले चलिए जा हल ।; सपना भी उकाते के देखके उड़ान भरऽ हे, एकदम नापल-जोखल । घोड़ा पर सवार राजकुमार महल के अँटारी से झाँकइत राकुमारी के गोदी उठाके फुर्रऽऽऽ जइसन सपना भला बीझना के आँख पर कहाँ से बइठत, मुदा ओकर सपना भी कम अजगुत नञ् रहऽ हल ।; नोट के धाह तो बड़का-बड़का के चुंगार दे हे, ई कंगलवा बीझना के की उकात । दू-चार हजार खरच करवइ कि पड़िया हम्मर गोदी में ।)    (सारथी॰12:17:20:1.44, 3.37, 22:3.6)
39    उजलत (= हड़बड़ी, जल्दीबाजी; देर होने की वजह से झुंझलाहट) (हम किशोरी शरण जी के साथ जा रहलूँ हल । ओतबड़ पंगत में मंत्रोच्चार चलि रहल हल । व्यवस्था के तारीफ ... कोय हर-हर खर-खर नञ् । कोय उजलत नञ्, कोय कमी नञ् । छप्पन प्रकार ! अपूर्व स्वाद ! आत्मा तृप्त ।)    (सारथी॰12:17:27:2.20)
40    उजास (पड़िया अन्हार होवे के अनेसा में गुदगुदी महसूस कर रहल हल, 'आझ तो पुछिए लेबइ कि काहे तूँ हमरा से फड़कल रहऽ ह ।' मन में ढेर बात सोरिअइले मगर बीच-बीचे से ओझरा जाय । ढिबरी के तरेंगनी उजास में भीतरी मन के पियास बढ़ल जा रहल हल ।; ऊ बच्ची के बुट्टी भर के मुट्ठी अपन हाथ में थामि रखलक हल आउ थोड़े झुकइत बच्ची के चेहरा से अपन मुँह सटा के हौले-हौले, आगू-पीछू झुकि-झुकि के बुजुर्ग दने इशारा करि के ओकर जुबान से बोलावे के जतन करि रहलन हल - बोल बुनियाँ ... नान्ना ! बोल ... नान्ना ! बुजुर्ग के चेहरा ममता के उजास फेंकइत खुशी से झलमल-झलमल करि रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:21:3.38, 25:1.27)
41    उथायल-बथायल (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?")    (सारथी॰12:17:19:1.16)
42    उनइस-बीस (बाझो सिंह के देहरी से जुड़ल रहइ लेल भी ई जरूरी हे । आखिर घटल-बढ़ल उनइस-बीस वहइँ से ने पूरा होवऽ हे । बीझना के काँधा पर भी पालो रखा गेल हल । समय से पहिले जुआन हो गेल । दिन भर के हरवाही बैल-धूर के सानी-पानी, मालिक के दियल डेढ़ कट्ठा घेरवारी सब ओकरे जिम्मे ।)    (सारथी॰12:17:20:3.23)
43    उबना-डूबना (ताली के गड़गड़ाहट में कापो बाबू के कुछ नञ् बुझायल । असमंजस में उबे-डूबे रहला हल कि तिरबेनी सिंह टोकलका, "की हो भयवा, कुछ बुझलहीं ?" / "नञ् यार, की बात हइ ?" / "इहाँ एन.टी.पी.सी. खुलतइ । कोयला से बिजली बनतइ ।")    (सारथी॰12:17:13:2.2)
44    उमकना ("नञ् बेटा, तोरा नञ् पता हउ कि बीमार बाप आउ माय ले, सिरहाना में बइठल बेटा कतना बेसकीमती होवो हइ । ओइसहीं आरी पर किसान के देखके खेत झुमऽ लगो हइ, ओकर मन के उद्गार उमक जा हइ फसल के रूप में । इहे हमर संस्कार हइ, बेटा ।"; छप्पर से टाँगल लालटेन निकाल के पड़िया के आगू कइलक त लाज बांध तोड़के उमके लगल । सिर से नोंह तक रेशमी रूइया के फाहा बनल पड़िया बीझना के छुअन से समटाल जा रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:14:1.39, 21:2.21)
45    उरमना ('खाय के मन नञ् हउ, सुतऽ दे ।' - 'दुइयो कौर खा ल । खाली पेट फेन गैस्टिकवा उरम्हि जइतो ... लेनी के देनी ... पइसा ने कौड़ी ।')    (सारथी॰12:17:16:1.43)
46    उसराना (= उसरना; काम आगे बढ़ना, प्रगति दीख पड़ना) (बाझो सिंह के लगल कि अबरी निशाना ठीक बइठल हे । ऊ बोललन - 'एक आदमी से केतना काम उसरइतइ, दुन्नु सास पुतोह के कल भेज दिहें । आउ हाँ !  इमलिया तर वला खेत के सभे मरहीना काटके कल साँझ तक ले आना हउ । ओकरा में हर चढ़ावे के हइ ।')    (सारथी॰12:17:23:1.28)
47    उस्सठ (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । गारी-गलौज तो मानऽ ओकर बपौती हे ।)    (सारथी॰12:17:8:1.42)
48    ऊकी (= उका, उकी) (हिसाब जोड़े-नारे में मइया एकदमे भोंजल हे । ऊकी, तहिया फूफा के हाथ बाऊ रुपइया भेजइलका हल । महाजन आल आउ तीन-तेरह करके कुल्ले हथिया लेलक ।)    (सारथी॰12:17:8:1.37)
49    ऊराते (ऊपर नीचे सोचते पढ़ते ऊराते उठल, अप्पन झोरा में थोड़े सा सामान समेट के रखलक आर गाँव छोड़के चल देलक कइएक उदेस लेके ।)    (सारथी॰12:17:19:2.38)
50    एकलगायत (आसिन के महीना जब एकलगायत त्योहार मनावे ल परदेस से कमा-कमा के सब लौट रहल हल, पड़िया घर-दुआर, देवता-देवी छोड़के माउग-मरद, बाले-बच्चे अइँटाखोल जाय ले तैयार हे । एक जुटी पर दस हजार, ओकरा में पाँच हजार से बेसी दादनी, जे पहिलहीं अँचरा के खुँटी से ससर गेल हल । भट्ठा पर चढ़े घड़ी पाँच हजार से कमे हाथ लगल ।)    (सारथी॰12:17:20:1.12)
51    एकलगायते (बाझो सिंह एकसरे दलान पर बइठके बूँट के खस्सी जइसन चखना पर अंग्रेजी दारू चढ़ा रहल हल । दू-चार पैग के बाद आँख गोल-गोल हो गेल जेकरा में खून अब टपके कि तब । ठोर पर जीभ एकलगायते नाच रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:22:2.39)
52    एकलगौरी (सावन के महीना । एकलगौरी बारिस से नदी-नाला उमता गेल । गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब !; हम भी जुआनी में अइसन छलांग लगावऽ हली बकि एक्के बेर । फिन रुकके दोहरा सकऽ हली मुदा ई छोकरा त एकलगौरी करवटिया छलांग लगइते रहल । देखताहर सब भौंचक हलन ।)    (सारथी॰12:17:10:1.14, 30:2.17)
53    एकलौठा (साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला । .. तय भेल कि पाँच अदमी आगू टरेन से जायत रसद-बुतात लेके आउ पाँच पांडव जानवर साथ गंगा हेलता । चानो का कहलका, 'मंगलामुखी सदा सुखी । कल हाँका हो जाय के चाही ।' जोड़ल गेल - पचीस भैंस, पाँच अदमी । सब के सब जुआन, एकलौठा, कसरती, पहलवान ! चेथरूआ सबसे छोट भले हल, मुदा हल सहसगर, लमहर, छरहर, पट्ठा छोंड़ा ।)    (सारथी॰12:17:10:2.3)
54    एका (= एकाक; एकाध) (कापो चा त घरो से बहराय में तेरह तुरी सोचो हथ । / "की बाबा, फटफटिया चढ़भो ... ?" / कापो चा बिन देखले माय-बहीन उकटे लगो हला । कभी-कभार त एका अद्धा फेंक भी दे हला - लगो चाहे नञ् ।)    (सारथी॰12:17:13:1.14)
55    एकागो (सरकार के नाक में दम करे आउ कोय अहम् फैसला नञ् लेवे देवे में हम्मर भूमिका अहम् । मोका मिलत तो बाप-दादा के नाम पर एकागो बंदरगाह, हवाई अड्डा, स्टेडियम या कौलेज खोलवावे के काम सुनिश्चित समझऽ ।)    (सारथी॰12:17:36:2.44)
56    एज्जइ (= एज्जे; यहीं) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे । नीचू में खेत आउ तनि ऊपर में चउड़गर जगह । तेकर ऊपर पहाड़ के फुलंगी । बाल-बुतरू के खेलइत देखऽ तो लगतो कि ओकरा पहाड़ अपन गोदी में खेला रहल हे । सबसे पहिले एज्जइ रउद आवऽ हे ।)    (सारथी॰12:17:7:1.23)
57    एतबार (दे॰ एतवार) (~ के ~ = प्रत्येक रविवार को) (बाऊ जी परदेस आउ बस बाल-बच्चे घर में । ... गरमी के दिन में बीड़ी के पत्ता तोड़ऽ हे । अइसे सब मिलके लकड़ी चूनऽ हल । पोरगर-पोरठगर लकड़ी नञ् काट पावऽ हल । ई लेल झाड़ियो-झूरी चून ले हल । ओकरे में से चून-बिछ के कहियो मइया हाट पहुँचा दे हल । एतबार के एतबार हाट लगऽ हे ।)    (सारथी॰12:17:8:1.24, 25)
58    एत्तेक (बनछिल्ली में कुछ खेत हे । धान उपजऽ हे । धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।)    (सारथी॰12:17:8:1.10)
59    ओइसनकी (ऊ जउन कदर वातावरण में डूबके अरख-परख रहलन हल, ओकरा देखइत ई नञ् लगि रहल हल कि ऊ गुरु-स्तुति में मन लगा रहलन हे । ओइसनकी बस बरबस समवेत गावल जाय वला भजननुमा गुरु-स्तुति में एकाध टप्पा अलबलायत दोहरा देवे के कोशिश भर करि रहलन हल ।)    (सारथी॰12:17:24:1.30)
60    ओतबड़ (दे॰ 'एतबड़' भी) (= उतना बड़ा) (हम किशोरी शरण जी के साथ जा रहलूँ हल । ओतबड़ पंगत में मंत्रोच्चार चलि रहल हल । व्यवस्था के तारीफ ... कोय हर-हर खर-खर नञ् । कोय उजलत नञ्, कोय कमी नञ् । छप्पन प्रकार ! अपूर्व स्वाद ! आत्मा तृप्त ।)    (सारथी॰12:17:27:2.18)
61    ओतुने (= ओत्ते; वहीं पर) (हमर सर्वप्रिय जगह सरयू के किनारे हनुमान मंदिर हल । ओतुने कुइयाँ पर बइठ गेलूँ ।)    (सारथी॰12:17:28:2.22)
62    ओरे-धारी (एतबार के एतबार हाट लगऽ हे । गाँव से तनिक दूर पर हाट हे । एकाध बेरा तिलको हाट गेल हे । मारे जमघट । मुरगा-मुरगा के लड़ाय । समान बेचइ वला ओरे-धारी लैन लगइले । कपड़ा-लत्ता से लेके खाय-पीअइ के सब समान ।; अब तो सड़क पकिया हो गेल हल । गाड़ी-छागड़ चले लगल । जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । मारे ओरे-धारी खटिया बिछल रहऽ हे ।; तिलका शहर पहुँच गेल । ... पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल । तहिया हरदम माय के गोझनउठे धइले रहऽ हल । बाऊ साथे आल त परदेसे जाय लेल । ऊ धरमसाला के आगू पहुँचल । देखलक कि सैकड़ों आदमी ओरे-धारी लैन लगइले हे । पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे ।)    (सारथी॰12:17:8:1.28, 3.48, 9:1.15-16)
63    ओहयँ (दे॰ ओहईं) (दीदी के पहुना परदेस कमाय गेलन आउ एक दिन मालूम होल कि कोय दोसर जन्नी साथ ओहयँ रह गेलन । दीदी केतना कानऽ हल । ओहे बच्छर माय खटिया पर गिरल से उठिये गेल ।)    (सारथी॰12:17:8:3.21)
64    औरदा (संझकी एन्ने पूरब से टोहले घरे-घर पैंसते दक्खिन टोला में बुझन के खटिया तर पसर गेल । बीझना भी सवेरगरे खर-खरिहानी लगाके बाप भिजुन पहुँच गेल हल । टोला-टाटी के हीत-चीत भी जुमल । केकर हाथ के पानी पैठ होत । बुझन के साँझ चढ़ि गेल हल । माने एकरे औरदा पूरा ।)    (सारथी॰12:17:20:2.47)
65    औसान (= आसान) ('खैर, ऊ नीसा में रहतन त हम्मर काम औसान भी हो सकऽ हे ।' ऊ दौड़के आल आउ आगू में खाड़ होके बोलल, 'एतना देरी काहे कर देहो ?'; पड़िया के देखके लार टपक गेल होत आउ मांग में सेनुर नञ् देखके हमरा साथ हिसाब-किताब बइठा देलक । नजर तर रखइ ले कमिनियाँ बनावे से औसान की हो सकऽ हे भला ? मौका मिलते हाथ साफ, मगर बाझो सिंह ! हमहूँ लुझन के औलाद ... कहते-कहते लगल कि बीझना के मुँह पर कोय हाथ रख देलक हे ।)    (सारथी॰12:17:21:3.52, 22:2.31)
66    कखनउँ (= कभी) (तिलका बाऊ साथ रपेटले जा रहल हल, एकदम भाउठे-भाउठे । ई लेल कखनउँ सोता तो कखनउँ झार-झंखार आउ कखनउँ पहाड़ियो पर चढ़े पड़ऽ हल ।)    (सारथी॰12:17:7:2.45, 46)
67    कचेड़ (जानवर त खेती के जान हे । जान बचावइ ले जान के बाजी लगाना त लाजिमे हल । / गंगा हेलवइया में पतिपदा सबसे सेसर हला । ऊ जब कमर कसलका त चानो का, रमेसर, बलेसर आउ चेथरूआ भी सुरफराल । सब में चेथरूआ सबसे कचेड़ हल । साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला ।)    (सारथी॰12:17:10:1.43)
68    कछौटा (तोर माय बच्चे में मर गेलउ । ... हम मन कड़र करि लेलों । - रे मन ! एक बेरी जेकर आगू लंगौटी खोललों, ऊ बेचारी चलि देलक भगवान घर । अब फेर दोसरा आगे लंगौटी खोलना मर्द के काम नै हिकइ । बेटा के कछौटा के पक्का होवे के चाही । दोसरा साथ जइबइ तब मरलो पर ओकर आत्मा कहँड़इत रहतइ ।)    (सारथी॰12:17:17:2.44)
69    कछौटी (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।")    (सारथी॰12:17:18:1.7)
70    कज्जउ-कज्जउ (दे॰ कज्जो-कज्जो) (अब तो सड़क पकिया हो गेल हल । गाड़ी-छागड़ चले लगल । जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । मारे ओरे-धारी खटिया बिछल रहऽ हे ।)    (सारथी॰12:17:8:3.47)
71    कटघुरनी (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।")    (सारथी॰12:17:18:1.6)
72    कठकुक्कुर (चार दिन के बाद भुक्खल-पियासल गोपाल के माय के बलड-परेसर लो हो गेल आउ डॉक्टर आवे से पहिलहीं ऊ बेटा के ठमा चल गेली । गाम में हाहाकार मच गेल । सभे के लगल ... अब कापो चा भी ... बाकि नञ् ... कापो चा के करेजा कठकुक्कुर हो गेल हल । आँख में एक्को बून लोर नञ् ... खाली भासो के कहलखिन - "अंतिम बार चल के देखा दे ।")    (सारथी॰12:17:14:3.28)
73    कठघोड़ा (पड़ोस के मोदखाना से आधा किलो मोटका चावल आउ पाव भर आलू आल । गोलहत उतरइत-उतरइत बुतरू-बानर पाँच तुरी भंसा हुलकि आल । हर बार - 'सीझऽ दे, खइहें' के भरोसा पर दुइयो भाय नाक में सीझइत भात के भाप भरि लउटि आवे आउ कठघोड़ा में बिसरि के बिसित हो जाय ।)    (सारथी॰12:17:16:1.30)
74    कतबड़ (= केतबड़; कितना बड़ा) (अचक्के चेथरूआ भिजुन एगो सोंस उपराल । ऊ हड़बड़ा के कहलक, 'बाप रे बाप ! कतबड़ गो सोंस हइ कका ! सुनऽ हिअइ कि एकरा फूँकला से अदमी के देह फूलि जा हइ ... कहइँ ... ।' बलेसर हँसइत कहलक, 'सोंस डेरगूह जानवर होवऽ हइ । ऊ त अदमी के देखइते मातर भागऽ हइ ।')    (सारथी॰12:17:10:3.25)
75    कथक्कड़ी (= कथा-वार्ता कहने की क्रिया या तरीका) (उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।)    (सारथी॰12:17:14:2.28)
76    कद-काठी-सोलिट (~ देह वाली लड़की) (लड़की देखो लगला । मिले तो जादातर काना  ले कानी । ई तो तइये हलइ मुदा ई बढ़िया कद-काठी-सोलिट देह वाली चाहऽ हलखिन से नै मिल रहल हल । आखिर उहे मिल गेल । तनी बेटवे नियर पतलडेर । बान्हि के कि कहना ? ... घोड़ कटार बान्हि । कार कसौटी पाथल सन । ओकरा में हीरा के चमक जइसे भीतर से फूल रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:18:2.12)
77    कनकनाना (= ?) (हमर गाड़ी के समय हो गेल । ध्वनि विस्तारक यंत्र से प्रचार होवऽ लगल - वाराणसी अयोध्या जाने वाले यात्री ध्यान दें ... ! बिड़नी के खोंता नियन यात्री कनकना गेलन । सामान समटाय लगल ... छूटे नञ् ... बढ़ियाँ से ... एक साथ ... आगू चलऽ ... आगू चलऽ ... जेनरल बोगी, ... भीड़ होतो ... !)    (सारथी॰12:17:26:2.23)
78    कपड़िया (~ दोकान) (ऊ निर्णय लेहे - खेती में जान न देब । ऊ धनबाद आ गेल हे । केशवचन्द साहू के कपड़िया दोकान में नौकरी करऽ लगल हे ।)    (सारथी॰12:17:16:2.42)
79    कबड्डी (ले ~ भागना) (ऊ ले कबड्डी टेहुना तक साड़ी उठाके भागे लगल । बाझो सिंह ई हरकत ले तैयार नञ् हल । ओकरा नञ् जाने कौन मशीन के बोल्ट ढील हो गेल हल कि आँख तर अंधार लगे लगल ।)    (सारथी॰12:17:23:2.33)
80    कबाड़ना (= उखाड़ना) ("अगे मइया ! जोर से बुनी-पानी आवइत हइ बिलटुआ के बाबू ! उठऽ-उठऽ, अब इहाँ से डेरा खंभा कबाड़ऽ ।" अकबकाएल बोललक मेहरारू ।)    (सारथी॰12:17:5:1.44)
81    कब्जियाना (गाड़ी के हड़हड़ी में खोवल कखने आँख लगि गेल कुछ पता न चलल । ऊ त हमरा ठीक नो बजे माय जगइलन, "शंभूऽऽ ! उठ जा बेटा ... ! अयोध्या आ गेलो नुनु ।" हम हड़बड़ा के नीचे आ गेलूँ आउ सामान कब्जिया लेलूँ ।)    (सारथी॰12:17:26:3.2)
82    कमिनियाँ (बीझना के माय ई सब जानऽ हल कि नञ् पता नञ्, मुदा महीना दिन पुरते-पुरते पड़िया नयकी कनियाय से नयकी कमिनियाँ बन गेल । बाझो सिंह भी एहे दिन देखे ल ने ओकर बियाह में गोड़ अलगइले हल ।; पड़िया के देखके लार टपक गेल होत आउ मांग में सेनुर नञ् देखके हमरा साथ हिसाब-किताब बइठा देलक । नजर तर रखइ ले कमिनियाँ बनावे से औसान की हो सकऽ हे भला ? मौका मिलते हाथ साफ, मगर बाझो सिंह ! हमहूँ लुझन के औलाद ... कहते-कहते लगल कि बीझना के मुँह पर कोय हाथ रख देलक हे ।)    (सारथी॰12:17:22:1.37, 2.30)
83    करका (~ धुइयाँ; ~ बादर; ~ नाग) (जइसहीं कोय भोंपू के अवाज या गाड़ी के सीटी कापो चा के कान के चदरा से टकरा हे, मन बउख जाहे कापो चा के । घर के बगले में एन.टी.पी.सी. के घेरबारी हे । घेरबारी में घेराल मोटगर मोटगर उँचगर चिमनी से करका धुइयाँ निकलके कापो चा के दिलोदिमाग पर छा जाहे ।; चिमनी से निकसइत करका बादर घेर लेलक कापो चा के - करका नाग नियन ।)    (सारथी॰12:17:13:1.7, 36, 37)
84    करगे (शनिचर कहलकइ - "जो ने, करगे में मनोज सिंह वाला मरचइया फरि को लुथड़ी भेल हइ । अरिया तर छोड़के एक मुट्ठा घीचि लिहें । असली सीटिया मिरचाय हइ । तनी गो खइभीं, कान झनझना देतउ ।")    (सारथी॰12:17:17:3.8)
85    कलौ (= कलउ, कलउआ; कलेवा) (सब के कलौ हो ... पक्का चार दिन के खोराकी । सब के जमा करि के बोरिया में बान्ह देलियो हे । एकरा तूँ अपन मुरेठा पर रख लिहऽ । तोरा छोड़के कोय एकरा पार नञ् करि सकऽ हे ।; ओने सब हेलवार होश में आल त भूख से अँतड़ी कुलबुलाय लगल । चेथरूआ चिल्लाल - 'अजी पतित का ! कन्ने गेलहो जी ?'/ 'की हलउ रेऽऽ ?' पतित दा लपकल अइला । उनखर मूड़ी पर मोटरी नञ् देखिके चेथरूआ पुछलक, 'कलौ वला मोटरिया कका ?' / 'जाऽऽ !' अकचकायल पतित दा के मुँह से निकलल ।; 'ओकर फिकिर छोड़ऽ । तोहनी सबके खाय, सुते आउ कलौ के इन्तजाम हम आजे रात करि देबो । पहिले चलऽ तो, तब ने हमर करिश्मा देखबऽ ।')    (सारथी॰12:17:10:3.1, 11:1.20, 2.15)
86    कष्टी (= कष्ट; कष्ट पाने वाला, दुखी) (कष्टी के लमहर कतार लगि गेल । केकरो बीमारी हे, त केकरो घर नञ् बनि रहल हे । केकरो नौकरी नञ् लगि रहल हे, त केकरो बदली नञ् हो रहल हे ।; अइसइँ जब सब कष्टी के कष्ट सुन लेलका त कहलका, "अब हम जइबइ, जल पिलाव ।" / उनखा जल पिलावल गेल, अंगइठी लेलका फेन स्वभाविक रूप में आ गेला । लोग-बाग उनखा घेर लेलक । सवाल पर सवाल पूछऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:11:3.31, 47)
87    कहतो-महतो (लैन होटल ! बूढ़-पुरनियाँ के चर्चा के विषय । सब के एक्के बात, 'अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।')    (सारथी॰12:17:9:1.7)
88    काच-कीच (रमेसर बोलल, 'एक त करैला, दोसर नीम पर चढ़ल । भूख के मारे खड़ा त होल नञ् जाहे आउ ऊपर से भैंस हाँकले काच-कीच में केक्कर समांग से चलबइ ?')    (सारथी॰12:17:11:1.45)
89    काना (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! कल्ह गेलिअइ पोखरिया में नहाय ले । झिगुलिया नहा को पीड़िया पर पुतली बदलब करऽ हलइ, अनचोक्के हमर नजरिया ओने चल गेलइ । छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! एने की हुलकइ हें, लहँगा ले लुलके हें । देबउ अँखिये में टकुआ भोंकि । हमरा नजर लगावइ हें, जुअन पिट्टा ! तोरा जुआनी में आग धर दिअउ ! तोर सरधा में गरदा पोरि दिअउ । देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।")    (सारथी॰12:17:17:3.43)
90    किछार (सावन के महीना । एकलगौरी बारिस से नदी-नाला उमता गेल । गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय !)    (सारथी॰12:17:10:1.16, 17)
91    कुच्चा (इंतजार के घड़ी बीतल । सुनीता पहिले एक्के थरिया में गोलहत काढ़ि के बाँस के बीयन से सेरावऽ लगल । कुच्चा के कुद्दी दुइयो के हाथ में दे देलक ।)    (सारथी॰12:17:16:1.34)
92    कुमर ठिल्ला (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! कल्ह गेलिअइ पोखरिया में नहाय ले । झिगुलिया नहा को पीड़िया पर पुतली बदलब करऽ हलइ, अनचोक्के हमर नजरिया ओने चल गेलइ । छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! एने की हुलकइ हें, लहँगा ले लुलके हें । देबउ अँखिये में टकुआ भोंकि । हमरा नजर लगावइ हें, जुअन पिट्टा ! तोरा जुआनी में आग धर दिअउ ! तोर सरधा में गरदा पोरि दिअउ । देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।")    (सारथी॰12:17:17:3.44)
93    केता (= केत्ता; कहाँ; कितना) (गुरगेट भैंस के छूए-छूए पर हो गेल मुदा पतित का भी धैल पतित हला । भैंस के सींग पकड़िके ओकर रूख बामा दने कइलका आउ डुबकी मारि के खींचऽ लगला । ऊ अपन सब ताकत झोंक देलका । नतीजा भेल भैंस गुरगेट से बचि गेल । एकरे में उनखर माथा के मोटरी केता गिर गेल, उनका कुछ पता नञ् ।)    (सारथी॰12:17:10:3.48)
94    कोंखा (भर ~ चरना) (चद्दर नञ् रहे के चलते ऊ कत्तेक बार रूसल हल । गोरू बंधल के बंधले छोड़ दे हल । तहिया दीदी चरावे ले जा हल आउ बिहने से संझउकी तक जंगले में चरइते रह जा हल । खाय लेल साथ ले जा हल । साँझ के घर अइला पर कहऽ हल, 'देख तो, कइसन भर कोंखा चरले हे । अइसन कहियो चरलउ हल ?')    (सारथी॰12:17:7:1.42)
95    कोचना (~ चाटना) (ई बड़का घर के मरद जात, जेकर छूअल पानी नञ् पीए, ओकर कोचना भी चाटे ले तैयार ! ... छीः ... ।)    (सारथी॰12:17:23:3.23)
96    कोठी-कनरा (पहिले भी ई गाम संपन्न हल ... धन-धान्य से भरल-पूरल हल ... गाय-भैंस से गोंड़ी अघाल हल । मुदा अब ... मुआवजा मिलला के बाद जैसे ई गाम जादे विकास करि गेल हल ... कुछ मायने में । घर से कोठी-कनरा खतम हो गेल हल आउ डराम आ गेल हल अनाज रखे ला ।)    (सारथी॰12:17:14:2.46)
97    कोढ़ी-काबर (अरे बेदामी ! का करबऽ । देख न केतना लूल-लांगड़ आउ कोढ़ी-काबर निराश लउट गेलन । दिन भर मांगतन, ऊ भी छूटल । अब त कम्बल मिलतो न । कम्बल त गूलर के फूल हो गेल । बाकिर सोचऽ ... का जनी अबधुर राजा आ जथी आउ कम्बल बाँटे लगतथी त हमनी के बड़का मोटरी हो जायत ।)    (सारथी॰12:17:5:3.1)
98    कोदार (= कुदार, कुदाल) (" .. तब देखऽ हीं सूतल-सूतल पेट बाढ़ि गेलइ । ई कि हिको तब चीनी के बेमारी । ई कि तब हाट बलेसर तब पाद बलेसर । कुल बलेसर ओकरे पर चढ़ल हइ । तों सबेरे किसान के काम करे ले जइभीं । दिन भर कोदार पारो, भूख लगतउ, अनाज तो अनाज, माटी समेत पेट में पच जइतउ ।")    (सारथी॰12:17:17:2.5)
99    कौनी (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।)    (सारथी॰12:17:10:1.20)
100    खड़ाम (= खड़ाऊँ) (गोंड़ी सून हो गेल हल ... घरे-घर टरेक्टर आ गेल हल - हर जोते ले । सभे के पक्का मकान ... हाथ मटियावे ला लाइफबाय सामुन, खड़ाम के जगह हवाई चप्पल, औरतन के सीधा पल्ला अब उलट गेल हल ... अँचरा विन्डोबा हो गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:14:2.51)
101    खतगर (सोमर कहलकइ, "तब कर दहीं काहे नै बाबू ?" शनीचर कहलकइ, "बियहवा करभीं तब सातो पहुरा बिक जइतउ । बड़ी खतगर सुगरी खोजके लइलिअउ हे । एकर माय बारह बच्चा बियावऽ हइ, एक बेरी में देखऽ हीं, पहिलठ में सात बच्चा बिअइलइ । सोचलिअइ हल - पाँचो के खस्सी खोला देबइ । दू गो सुगरी अगिला साल मोखि जइतइ । बस झरइत नै झरतइ । खसिया के बेचके अगिला साल तोर बियाह ।')    (सारथी॰12:17:18:1.13)
102    खदबद (= बहुत अधिक; पूरी तरह भरा) (नवादा से आगू पहिल तुरी जा रहलूँ हल । गया जंक्शन देखि के त हम चकड़बम रहि गेलूँ - बाप रे बाप ! लैन पर लैन, गाड़ी पर गाड़ी, लटफरेम पर लटफरेम, खदबद टीटी !)    (सारथी॰12:17:26:1.35)
103    खमौनी (= ठेकुआ) (अयोध्या के सबसे बड़गो पहचान भगवान राम के भक्त महाबली हनुमान ! से, उतरते के साथ हमर नजर उनखे पर पड़ि गेल, जे एगो यात्री के बगल से खमौनी के गठरी लेके यात्री-शेड के ऊपर छड़पि गेलन ।)    (सारथी॰12:17:26:3.6)
104    खरकना (= घसकना, सरकना; चुपचाप चला जाना; पानी आदि की धारा या वेग का घटना; व्यय होना) (चल्हवा के बेजाय मन देखके बेदामी के बेचैनी हो गेल । ऊ खरकले उठल । अपन लूगा के दम लगाके गारलक आउ चल्हवा पर फइला देलक । चल्हवा पर निशा नियन नींद सवार हो गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:6:2.23)
105    खर-खरिहानी (अगहन महीना के छोटगर दिन चार बजल कि साँझ भरल । लरम-लरम जाड़ा में सुरूज के लरम-लरम किरण पछियाही टोला में समा रहल हल । संझकी एन्ने पूरब से टोहले घरे-घर पैंसते दक्खिन टोला में बुझन के खटिया तर पसर गेल । बीझना भी सवेरगरे खर-खरिहानी लगाके बाप भिजुन पहुँच गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:20:2.43)
106    खराने (बाझो सिंह के नीसा अब नीन में बदलल जा रहल हल जे आँख के पिपनी पर ठहर गेल आउ ओजय खराने चौकी पर सुत गेल मगर ठोर पर 'प ... ड़ि ... या ! प ... ड़ि ... या !' के शब्द खर्राटा के रूप ले लेलक हल ।)    (सारथी॰12:17:22:3.16)
107    खाना-पेन्हना ("बाकि आझ के दौर में एकर (खेत-पथार के) भेलू घट गेल हे, बाऊजी । एगो बिजनसिया तनी गो दोकान देके कोय भी किसान से बढ़ियाँ खा-पेन्ह रहल हे । आझ सबसे बड़का चीज पइसा हे । एकरे से तरक्की संभव हे । तोर विचार सड़ गेलो हे ।")    (सारथी॰12:17:14:1.21)
108    खायक ('सुतिहा नञ् ... खायक बनावऽ हियो', सुनीता बोलल । ऊ सोच रहल हल - अब की करे के चाही ? नरेन्दर के दशा देखि के ओकर भूख त परा गेल हल, बकि दुइयो छौंड़न ?)    (सारथी॰12:17:16:1.13)
109    खावा-खरची (दीदी के पहुना परदेस कमाय गेलन आउ एक दिन मालूम होल कि कोय दोसर जन्नी साथ ओहयँ रह गेलन । दीदी केतना कानऽ हल । ओहे बच्छर माय खटिया पर गिरल से उठिये गेल । माय के बीमार पड़ला पर बाऊ आउ भइया अइलन हल । कुछ दिन तक घर में रहलन मुदा खावा-खरची के चोंचा पड़े लगल त पहिले भइया गेलन ।)    (सारथी॰12:17:8:3.25)
110    खिंड़ना (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।)    (सारथी॰12:17:27:3.39)
111    खिखिर (= खरगोश की जाति का लंबे कान और मटमैले रंग का एक जंगली जीव; ~ के मान = बहुत उपजाऊ जमीन) (अब लाली धपे लगल हल । रतचलवन जानवर कोर पकड़ लेलक हल । खाली सियार, वनबिलाड़ या खिखिर धउगइत-भागइत एन्ने-ओन्ने झलक जा हल । सियार या वनबिलाड़ डगर काटलक त बाउ थुकथुका के आगू बढ़इत बुदबुदाय लगऽ हल - 'या जंगलिया माय, तनि सहाय रहिहऽ । एगो पिलुआ साथ हको । अइते पाठी चढ़इवन ।')    (सारथी॰12:17:7:3.2)
112    खिटखिटाना (बुढ़ारी में त अइसहों बूढ़ा खिटखिटा जा हथ, बाकि कापो चा - कापो चा खिटखिटाय वला बूढ़ा नञ् हला ।)    (सारथी॰12:17:13:1.16, 17)
113    खिसियाल (आजकल बीझना बड़ी खिसियाल रहऽ हो, की बात हे ? पड़िया बोलल, 'जी, चउरा लावे जा रहलिए हे ।' - 'अरे छोड़ो ने !  चउरा तो जइवे करतइ । अच्छा ई बतावो, बीझना से बियाह करके खुश ह ने ?' पड़िया मूड़ी गोतले, ने हाँ ने हूँ ।)    (सारथी॰12:17:23:1.48)
114    खिस्सा-गलबात (जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । ... बूढ़-पुरनियाँ के हाथ पर दू पइसा अइलो नञ् कि साँझे-बिहने चाह पीअइ ले हाजिर । बूढ़ आदमी चाह के सवाद के साथ-साथ बातचीत के माने-मतलब भी बूझे लगलन । अन्हार-पन्हार में चलइ वला खिस्सा-गलबात पर उनकर कान खड़क जा हल ।)    (सारथी॰12:17:9:1.2)
115    खुंडी-खुंडी (मन के पीड़ा आँख के लोर बनि गेल । ओकर लोराल आँखि तर दुन्नूँ नन्हकन के चेहरा घूमि गेल । ओकर करेजा खुंडी-खुंडी हो गेल । ऊ काँपि उठल । देह के रोइयाँ गनगना गेल - आज भी चूल्हा जरावे भर कमाय न भेल !)    (सारथी॰12:17:15:1.38)
116    खुसुर-फुसुर (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल ।)    (सारथी॰12:17:11:2.46)
117    खूँटना (अँचरा ~) (नरेन्दर अपन गठरी साइकिल पर रखि के बाजार दने सोझिया जा हे । / सुनीता जगल त गठरी साइकिल न देखि के बुदबुदायल, "एते सबेरे ! बिन खइले !" ऊ सोंचऽ लगल - खइतन हल की ? घर में हइये की हल ? अइसे कते दिन चलत ? अब हमरो अँचरा खूँटऽ पड़त ।)    (सारथी॰12:17:16:3.40)
118    खेती-पाती (गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे । गाँव के जमीन पानी बिन तरासल हे । नहर, कुआँ, बोरिंग पर केकरो धियान नञ् । खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे ।; तिलका के आँख तर गाँव, गाँव के सिमाना आउ पहाड़ पर से गिरइत झरना अइते रहल । ओकरा लगे लगल, अगर झरना के पानी सोझिया के गाँव दने मोड़ दे तो खेती-पाती हो सकऽ हे ।)    (सारथी॰12:17:9:1.28, 3.26)
119    गँठियाना (नरेन्दर भारी मन से पसरल अंगा, पैंट, फराक समेटलक आउ गँठियाके साइकिल पर रखि घर दने सोझिया गेल ।)    (सारथी॰12:17:15:1.44)
120    गंगकिनारी ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।)    (सारथी॰12:17:13:3.10)
121    गड़कल (एक तुरी फिन नरेन्दर बाजार के देखलक बगुला-सन लिलकल आँखि से । एक से एक बढ़ि के सजल-सजावल गड़कल दोकान । सामान के अम्बार लगल ।)    (सारथी॰12:17:15:1.27)
122    गढ़गर (~ नीन) (थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।; कवि-गोष्ठी में जब सुनताहर उबो लगो हलो, झुको लगो हला, तउ गुरु जी के बोलावल जा हल - 'जाग गे बहिना, तोड़ अपन निन्दिया ।' की पता हल कि हमनी के जगाके ई अपने सुत जइता ... गढ़गर नीन में, ... लमहर नीन में । आझ ऊ अपन खोंता फुलंगी पर बना लेलका ।)    (सारथी॰12:17:24:3.31, 35:1.34)
123    गत्त (= गत; गति) (उनखर नजर गोपाल-माय के सेनूर भरल मांग पर जाके ठहर गेल । आँख में याद के बादर उमड़ल-घुमड़ल आउ दू बून पानी बरसा देलक ... रंथी पर ... । / 'राम नाम सत्त हे - सबके इहे गत्त हे ।' / आझ भोरहीं से कापो चा के मन बउखल हल ... कहलखिन हल - "ऐं हो, हमरा अगिया के देतइ ?")    (सारथी॰12:17:14:3.35)
124    गद (~ दियाँ बइठ जाना) (चानो का कहलका, "तों सब एजइ अन्हार में रूकि जो !" सब 'हउ' कहलक कि भैंस गद दियाँ बइठ गेल । चानो का कहलका, "जब बोलइबो, तबे सब अइहऽ ।")    (सारथी॰12:17:11:2.30)
125    गदगदाना (= गद्गद होना) (धर्म के विज्ञान-सम्मत व्याख्या जेतना सहज ढंग से ऊ करो हला - मन गदगदा जा हल । जइसन उनखर शरीर लचकदार, ओइसन उनखर बोली खनकदार ।)    (सारथी॰12:17:34:3.10)
126    गपियाना (एक रोज रेणु जी पटना के कॉफी हाउस में अप्पन मित्र मंडली संगे बइठल गपिया रहलन हल । एगो नौजवान नौसिखुआ कहानीकार ललक के रेणु जी के अप्पन एगो ताजा लिखल कहानी देलन पढ़े ला आउ उनखर राय जाने ला चाहलन ।)    (सारथी॰12:17:3:1.38)
127    गब्भिन (= गाभिन) (भैंस पानी के सीना चीरि के सरकऽ लगल जइसे हवा के सीना चीरइत जहाज । चेथरूआ गब्भिन भैंस के पकड़ले हल । ऊ ओकर पीठ पर डंडा मारके धारा छोड़ाब करऽ हल । पतित दा चिकरला, 'अरे ... रे ... रे ... ! गब्भिन हइ । ओकरा पीठ पर मत मारहीं । ओकरा छोड़ आउ दोसर के पकड़, नञ त ऊ छँटि जइतइ ।')    (सारथी॰12:17:10:3.16, 19)
128    गर-गोरू (पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे । बाहरी आदमी एकदम नञ् अइतो । गामे के आदमी पहमे समाद जइतो आउ काम पर जाय वलन सब झोंड़ के झोंड़ शहरे अइतो । समाद देवे वला आदमी के सब कुछ समदल रहऽ हे । मर-मजूरी के सब बात तय । गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:9:1.25)
129    गल-गलवात (दे॰ गर-गलबात) (अकादमी के गेट पर गाछ के छाहुर में मन के बात मने में दबइले ठकुआयल ठाढ़ हली । एतने में पटना से श्री घमंडी राम, श्री हरीन्द्र विद्यार्थी आउ श्री राजकुमार 'प्रेमी' हमरा सभे के खोजइत पहुँचला । गल-गलवात होवो लगल ।)    (सारथी॰12:17:31:3.49)
130    गली-गुच्ची (रात में कत्तेक टरक, बस रूकऽ हे । रात भर चूल्हा जरते रहऽ हे । गली-गुच्ची में अन्हारो में धपधप्पी होते रहऽ हे । ओकर माथा झनझना गेल आउ लगल कि गली के धपधप्पी सुनके नीन टूटल आउ बूढ़-पुरनियाँ के बात कान में गूँजे लगल - "अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।")    (सारथी॰12:17:9:2.12)
131    गाड़ी-छागड़ (जंगल के आदमी सब मने-मन मलपूआ पकावऽ हल । काम भी मिल गेल आउ गाड़ी-छागड़ चलत । सहर एकदम्मे नजीक हो जात । कुछ दिन के बाद मिट्टी उलटे वली मसीन आ गेल । तेकर बाद आदमी के काम छिना गेल ।)    (सारथी॰12:17:8:2.12)
132    गाम-गराम ('जे पेट देलथिन, आहार ऊहे देथिन । अब दिन ढलल जा हे । चलऽ, कोय गाम-गराम में डेरा डालल जाय ।' चानो का बोलला ।)    (सारथी॰12:17:11:1.41)
133    गारी-घिन्ना (ऊ निर्णय लेहे - खेती में जान न देब । ऊ धनबाद आ गेल हे । केशवचन्द साहू के कपड़िया दोकान में नौकरी करऽ लगल हे । ईमानदारी से दोकान के काम में लगल हे । ओकरा पर चोरी के इलजाम लगि गेल हे ... लांछन ... गारी-घिन्ना ... मार-पीट ।)    (सारथी॰12:17:16:2.45)
134    गिरथाइन (हइ घरनी, घर भागत हइ, बिन घरनी घर पादत हइ । गिरथाइन रहतउ हल, सब ओरिया जइतउ हल । तोर माय बच्चे में मर गेलउ । बहुत बरतुहार अइलइ कि (हम फेर बियाह कर लूँ, लेकिन) हम मन कड़र करि लेलों ।)    (सारथी॰12:17:17:2.12)
135    गुमटी ( तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल ।; "तोर बाऊजी सठिया गेलथुन हें यार । हमनी के बड़ भाग कि ई एरिया में एन.टी.पी.सी. खुल रहलइ हे । विकास के समुन्दर उमड़तइ - चकाचक रोड - चोबीसो घंटा बिजली - इनकम बढ़ जइतइ हमनी के - एगो गुमटियो रखके अच्छा कमा लेतइ लोग ।")    (सारथी॰12:17:9:1.11, 14:1.3)
136    गुमनगर (= गुमान+गर) (एक हाँक पर लुझन हाथ जोड़ले, टेहुना से ऊपर झुकके 'जी मालिक !' कहऽ हल त रोम-रोम में वफादारी झलक जा हल । ई नयका पीढ़ी जनु काहे गुमनगर आउ दिमगगर होल जाहे । बाप के संस्कार पूत में नञ् आवे के मतलब जरूर कहँय कुछ पक रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:21:1.9)
137    गुरगेट (= भँवरी, भँवर) (आगू में गुरगेट हल । पतित दा के गाभिन भैंस ओकरे रूख कइले जा रहल हल । ई देखइत पतित दा के कलेजा मुँह के आ गेल । ऊ आव देखलका न ताव, बड़ी वेग से पानी काटले बढ़ऽ लगला जइसे कोय गाय अपन बछड़ू दने दुमकऽ हे ।; गुरगेट भैंस के छूए-छूए पर हो गेल मुदा पतित का भी धैल पतित हला । भैंस के सींग पकड़िके ओकर रूख बामा दने कइलका आउ डुबकी मारि के खींचऽ लगला । ऊ अपन सब ताकत झोंक देलका । नतीजा भेल भैंस गुरगेट से बचि गेल ।)    (सारथी॰12:17:10:3.31, 42, 47)
138    गूँड़ (= गुड़) (~ गोबर होना) (भैंस हँका गेल । आगू-आगू भैंस, पीछू-पीछू चरवाह । सूरज डूब गेल । अन्हार दउगल आ रहल हल । आसमान में बादर भी अपन तंबू तानि रहल हल । चानो का कहलका, 'गोड़ झारके चल । कहइँ पानी पड़ऽ लगलउ त सब गूँड़ गोबर हो जइतउ ।')    (सारथी॰12:17:11:2.4)
139    गेठरी-मोटरी (गया के मोसाफिरखाना देखि के त हम दंग रहि गेलूँ । ... चारो पट्टी बइठे के बेंच बनल, पानी, पाखाना के सुविधा अलग । सब सुरक्षित जगह टेबके डेरा जमा लेलन ... बीच में गेठरी-मोटरी, चारो पट्टी सुत्तल-बइठल साथी । हमरा नींद कहाँ !; हमरा रात के यात्रा ठीक नञ् लगतो । झकझक इंजोर में देखइत गेलूँ, बकि अन्हार में ई सुविधा कहाँ ! हम मनुआय लगलूँ । अइसन में हमरा नींद आ जइतो । हम अउँघऽ लगलूँ त हमरा ऊपर के सीट पर चढ़ा देल गेल । गेठरी-मोटरी सरियाके हम सुते भर जगह बनइलूँ आउ चोर-पाकिट पर हाथ रखले बैल-पगहा बेचि के सुत गेलूँ ।)    (सारथी॰12:17:26:2.11, 37)
140    गेहूम (दे॰ गोहूम) ("तोर मुँह काहे लटकल हो, कापो ... ?" / "मुँह लटकावे के तो बात हइये हइ, मनिज्जर साहेब । ई धरती हम्मर माय ... हमनी एकर बेटा ... ई माय हमरा से छिना जायत ... एकर धरती पर गेहूम के बाली, बूँट-खेसारी के हरियरी कइसे झूमत ... ई बाउग, ई मकई के पेड़ ... बुढ़ारियो में भुट्टा, मखाना आउ लावा कहाँ से चलतइ मनीजर साहेब ? एकलाश लाल नियन दू रूपिया में एगो भुट्टा खरीदवऽ की ?")    (सारथी॰12:17:13:3.1)
141    गैंठि (दे॰ गैंठी, गेंठी) (शनीचर कहलकइ, "सातो पहुरा बहुरा लिहें ।" सोमर गैंठि बान्हि लेलकइ - "बाबू ! हम पहुरा बहुरा के रहबउ । बाबू गैंठिया बान्हि लेलिअउ ।")    (सारथी॰12:17:19:1.29)
142    गैस्टिक ('खाय के मन नञ् हउ, सुतऽ दे ।' - 'दुइयो कौर खा ल । खाली पेट फेन गैस्टिकवा उरम्हि जइतो ... लेनी के देनी ... पइसा ने कौड़ी ।'; ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:16:1.43, 50)
143    गोझनउठा (तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल । तहिया हरदम माय के गोझनउठे धइले रहऽ हल । बाऊ साथे आल त परदेसे जाय लेल ।)    (सारथी॰12:17:9:1.13)
144    गोड़-हाथ (~ करना) ("सोमरा कहलकइ, "तब छोड़ दे बाबू । हमर पहुरे बिक जायत, तब हम नै बियाह करब ।" शनीचर कहलकइ, "बियहवा भी जरूरी हइ । मौगी बड़ी सुख देतउ । खाय ले बना देतउ, जन-फरजन होतउ । बेमार पड़भीं तब गोड़-हाथ करि देतउ । हमरो सेवा करत ।")    (सारथी॰12:17:18:1.24)
145    गोबरलिट्टी (< गोबारा + लिट्टी) (एगो उज्जर रंग के गमछा, लंगोट आउ लिट्टी जरूर रहतो । अपन लिटिया के ऊ 'गोबरलिट्टी' कहो हलथिन ... गोबरलिट्टी ।; लौटती बेरा ऊ मोगलसराय में कहलथिन - 'किरण जी, हमर गोबरलिटिया झर गेलो, तों अपन बभनचूड़वा निकालहो ने ... ।' हम उनखर मुँहा हिअइते रह गेलूँ हल ।)    (सारथी॰12:17:34:1.46, 47, 2.36)
146    गोरखिया (बात ई हे कि सउँसे गाँव के जनावर एक्के सहेर में चरऽ हे । तिलका के खेले के भी समय मिल जा हे । सहेर के देखइ लेल फेराफेरी बाँध दे हे आउ गोरखिया सब मारे गुल्ली-डंडा, फेद-फेदी आउ कहियो हाथी-घोड़ा के खेल ।; उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।)    (सारथी॰12:17:7:2.8, 14:2.24)
147    गोलका (= गोल आकार वाला) (उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।)    (सारथी॰12:17:14:2.23)
148    गोलहत (पड़ोस के मोदखाना से आधा किलो मोटका चावल आउ पाव भर आलू आल । गोलहत उतरइत-उतरइत बुतरू-बानर पाँच तुरी भंसा हुलकि आल । हर बार - 'सीझऽ दे, खइहें' के भरोसा पर दुइयो भाय नाक में सीझइत भात के भाप भरि लउटि आवे आउ कठघोड़ा में बिसरि के बिसित हो जाय ।; इंतजार के घड़ी बीतल । सुनीता पहिले एक्के थरिया में गोलहत काढ़ि के बाँस के बीयन से सेरावऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:16:1.26, 33)
149    गोलहत्थे (शनीचर पुछलकइ - "मोटरिया में की हिकउ ?"/ सोमरा बोलल, "चिनियाबेदाम ।"/ ... सोमरा कहलकइ, "हाँ बाबू ! सुधीर सिंह कहलकइ, उखाड़ दे सोमर । उखाड़ देलिअइ । पाँच सेर लगू मजूरी में देलकइ आर लोढ़ लेलिअइ । अब जा हियो बनावे ले । की बनइयो ? गोलहत्थे बना दियो बाबू ?")    (सारथी॰12:17:17:1.26)
150    गोवा (= गोब्बा) (भोरगरे जानवर खुट्टा से खुल गेल । सबके हाथ में तेल पिलावल लाठी, जेकरा में पत्तर ठोकल, गोवा लगल । गंगा के किछार पर भीड़ जमा होवऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:10:2.8)
151    गोसइयाँ (ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल । कमजोर अइसन भे गेल हल कि बाजार जाना बंद हो गेल हल । तहियो घर के हाल गोसइयें जानऽ हलन । सुनीता के प्यार नरेन्दर के जिअइले हल ।)    (सारथी॰12:17:16:1.54)
152    गोसाल (= गोस्सा में; क्रुद्ध) (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:11:2.45)
153    घटल-बढ़ल (बाझो सिंह के देहरी से जुड़ल रहइ लेल भी ई जरूरी हे । आखिर घटल-बढ़ल उनइस-बीस वहइँ से ने पूरा होवऽ हे । बीझना के काँधा पर भी पालो रखा गेल हल । समय से पहिले जुआन हो गेल । दिन भर के हरवाही बैल-धूर के सानी-पानी, मालिक के दियल डेढ़ कट्ठा घेरवारी सब ओकरे जिम्मे ।)    (सारथी॰12:17:20:3.22)
154    घट्टा (= घट्ठा) ("भैया लोग ! एन.टी.पी.सी. खुल रहलो हे । सरकार जमीन ले लेतो । ओकर अढ़ाइ गुना दाम देतो । सभे के रज-गज होतो ।" एकरा पर तोखी सिंह चउँकलथिन - "देखलहो नञ्, राजगीर में बारूद फैक्ट्री खुललइ । सिठौरा राजा हो गेलइ । जेकर बाप के घास गढ़ते-गढ़ते घट्टा पड़ गेलइ हल, ओकर जाल-जलमल फटफटिया चढ़ रहलो हे ।")    (सारथी॰12:17:13:2.44)
155    घरजाना (= प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति का भोज; सार्वजनिक काम के लिए हर परिवार से एक आदमी से काम अथवा उसके बदले एक मजदूर की मजदूरी लेने का प्रचलन) (ई दुनो ओने निहोरा-पाती में लगल हल तब तक ओने ओकर मरीज दम तोड़ चुकलइ हल ।/  आखिर लहाश घर लाको सब विध-वेहवार करके मँड़रिया पर जला देलक । तेरह दिन में घरजाना करके पाक हो गेल ।)    (सारथी॰12:17:19:1.3)
156    घरैतिन (शनीचर घूर लहराके ताप रहल हल, साथे सोच रहल हे, "साँझ पड़लइ, सोमर कहाँ अँटक गेलइ ? ... कखने खाय ले बनइतइ ? दोसर कोय खाय बनावइ वाली घरैतिन भी तो नञ् हइ जेकरा भरोसे बइठल हइ ।"; शनीचर कहलकइ, "बेटा ! कमाय के हिसकी करी, खाय के नञ् । ऊ बड़का हिकइ, तों मजूरा । बेंगा घोड़वा के हिसकी नाल ठोकइलकइ, बेंगा के पेटे फाटि गेलइ, से हाल । ओकरा पक्का हइ, घर में घरैतियन, साधन हइ रखइ के, तों सुखा के धरि देभीं, चूहा खा जइतउ । मुँह फारि के रहि जइबें ।")    (सारथी॰12:17:17:1.10, 42)
157    घीचना (= घींचना; खींचना) (शनिचर कहलकइ - "जो ने, करगे में मनोज सिंह वाला मरचइया फरि को लुथड़ी भेल हइ । अरिया तर छोड़के एक मुट्ठा घीचि लिहें । असली सीटिया मिरचाय हइ । तनी गो खइभीं, कान झनझना देतउ ।")    (सारथी॰12:17:17:3.10)
158    घुड़की (~ मारना) (बाऊ के टिटकारी सुनके तिलका तनि मनसूआ भरके चाल बढ़ा देलक । गोड़ त दनादन उठ रहल हल । रतगरे जगे पड़ल हल । नञ् तो ऊ रउदा उगला तक सुतले रहऽ हल । बस, पोवार में घुड़की मारले हथ, हाथ-गोड़ ममोरले सूतल रहऽ हल । भउजी या दीदी ऊपर से गेनरा धर दे हे ।)    (सारथी॰12:17:7:1.10)
159    घुमनइ (बनछिल्ली में कुछ खेत हे । धान उपजऽ हे । धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।)    (सारथी॰12:17:8:1.11)
160    घुरी (= घड़ी, समय, बखत) (धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।)    (सारथी॰12:17:8:1.14)
161    घेरबारी (दे॰ घेरवारी) (जइसहीं कोय भोंपू के अवाज या गाड़ी के सीटी कापो चा के कान के चदरा से टकरा हे, मन बउख जाहे कापो चा के । घर के बगले में एन.टी.पी.सी. के घेरबारी हे । घेरबारी में घेराल मोटगर मोटगर उँचगर चिमनी से करका धुइयाँ निकलके कापो चा के दिलोदिमाग पर छा जाहे ।)    (सारथी॰12:17:13:1.5, 6)
162    घेराल (= घेरा हुआ) (जइसहीं कोय भोंपू के अवाज या गाड़ी के सीटी कापो चा के कान के चदरा से टकरा हे, मन बउख जाहे कापो चा के । घर के बगले में एन.टी.पी.सी. के घेरबारी हे । घेरबारी में घेराल मोटगर मोटगर उँचगर चिमनी से करका धुइयाँ निकलके कापो चा के दिलोदिमाग पर छा जाहे ।)    (सारथी॰12:17:13:1.6)
163    घेवारी (हप्ते दिन बाद बीझना के बोलाके बाझो सिंह कहलन, 'अरे बीझना ! एन्ने देख रहलिअउ हे, बड़ी मनबढ़ू होल जाहीं । खेत-खंधा पर ध्याने नञ्, बैल-धुर उपासले, एक ड्राम चाउर फटके ले हइ ऊहो तोर माय सास पुतोह के हाथ में दहिए जम रहलउ हे । हमरा ई सब करवे ले दोसर मजदूर रखहीं पड़त त शादी-बियाह, मरी-गमी आउ डेढ़ कट्ठा घेवारी ... । सबसे चोथू हमरे बूझऽ हीं ।' बीझना के लगल कि बाझो सिंह अपन उकात दिखा रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:23:1.19)
164    घोड़ कटार (लड़की देखो लगला । मिले तो जादातर काना  ले कानी । ई तो तइये हलइ मुदा ई बढ़िया कद-काठी-सोलिट देह वाली चाहऽ हलखिन से नै मिल रहल हल । आखिर उहे मिल गेल । तनी बेटवे नियर पतलडेर । बान्हि के कि कहना ? ... घोड़ कटार बान्हि । कार कसौटी पाथल सन । ओकरा में हीरा के चमक जइसे भीतर से फूल रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:18:2.15)
165    चउगरदा (दे॰ चउगिरदा, चउगिरदी) (ऊ आझ भी अशरीरी रूप में मौजूद हका - मगहिया माटी के सोन्ह महक बनके, हरेक कवि-गोष्ठी में माँ सरस्वती के प्रतिनिधि बनके, सब मगही कवियन के प्रेरणा स्रोत बनके । चउगरदा उनखर थिरकन आउ खनकल आवाज सूक्ष्म सत्ता के रूप में प्रतिध्वनि होते रहे हे - हमनी के आत्मा में ।)    (सारथी॰12:17:35:1.42)
166    चउगिरदा (दे॰ चउगिरदी) ("भागवत बाबू ! अपने गाम के जेठ-रैयत हथिन । सोचथिन कि एन.टी.पी.सी. चालू हो गेल । हठुआमनी दमगर-दमगर राकस नियन चिमनी से धुइयाँ निकसो लगल, बिजली तैयार होवो लगल - सौंसे खेत-पथार के ऊपर से मोटका-मोटका तार टंगना नियन टंगा गेल - चउगिरदा करका बादर छुट्टा साँढ़ नियन टहलो लगल - जउन खेत में मिरचाय, रेंड़ी, बैंगन उपजो हे, ऊ बलसुनरी मट्टी पर कोयला के करका पौडर बिछ जइतो । की करभो तखने ?" चुप्पी के वातावरण में अपन शंखनाद कइलका कापो सिंह ।)    (सारथी॰12:17:13:3.37)
167    चउरगर (दे॰ चउड़गर, चौड़गर) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे ।)    (सारथी॰12:17:7:1.14)
168    चउल (~ मारना) (तिलका मुँह फुलाके चउल मारऽ हल, 'हाँ, तों तो गढ़के खिलावऽ हीं ने, हम तो बस घुमइले चलऽ हिअइ। हइ ने ? एक दिन गोरू चरावे गेलें तो एतबड़ बड़ाय । रोज चराहीं तब ने बुझाव ।' - 'रोज चरावे में की हइ । तों घर के काम करहीं, हम चरइबइ ।')    (सारथी॰12:17:7:1.44)
169    चकड़बम (नवादा से आगू पहिल तुरी जा रहलूँ हल । गया जंक्शन देखि के त हम चकड़बम रहि गेलूँ - बाप रे बाप ! लैन पर लैन, गाड़ी पर गाड़ी, लटफरेम पर लटफरेम, खदबद टीटी !)    (सारथी॰12:17:26:1.33)
170    चकाचक (अब तो सड़क पकिया हो गेल हल । गाड़ी-छागड़ चले लगल । जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । मारे ओरे-धारी खटिया बिछल रहऽ हे ।; तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल ।; "तोर बाऊजी सठिया गेलथुन हें यार । हमनी के बड़ भाग कि ई एरिया में एन.टी.पी.सी. खुल रहलइ हे । विकास के समुन्दर उमड़तइ - चकाचक रोड - चोबीसो घंटा बिजली - इनकम बढ़ जइतइ हमनी के - एगो गुमटियो रखके अच्छा कमा लेतइ लोग ।")    (सारथी॰12:17:8:3.48, 9:1.9, 14:1.2)
171    चक्खी-पक्खी (बाऊ आउ भइया तो परदेसे में । काम-किरिया खातिर अइलन । काम-किरिया करके बाऊ चल गेलन हल आउ भइया भउजी के कहला पर रुक गेल हल । मुदा जब पइसा-कउड़ी ओरिआल त एक महीना के बाद ओहो परदेसे । हाँ, जब तक रहलन हल, तिलका के मउज । दोसरे-तेसरे कुछ चक्खी-पक्खी होइये जा हल । गाम-गिराम के साथी-संगी अघाल रहऽ हल ।)    (सारथी॰12:17:8:3.41)
172    चखना (बाझो सिंह एकसरे दलान पर बइठके बूँट के खस्सी जइसन चखना पर अंग्रेजी दारू चढ़ा रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:22:2.36)
173    चनका-बुन (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।)    (सारथी॰12:17:27:3.36)
174    चमचमी (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । चौड़ा पाड़ वाला कथई रंग के दू गो साड़ी, सिलल-सिलावल साया-बिलौज, तीन भर के पायल, रंगन-रंगन के चार डिब्बा चूड़ी, अलता, अइना, कंघी, पाउडर दौरा नियर साज के पेठा देलन हल । ओकरा में एगो चमाचम डिब्बा फूल काढ़ल चमचमी से पैक कइल अलगे से धइल हल ।)    (सारथी॰12:17:21:1.39)
175    चरवाह (= चरवाहा) ('ठीक हे । चलऽ हो, भैंस के हाँकऽ । घंटा दू घंटा में कोय गाम मिलवे करतइ ।' पतित दा सुरफरायत कहलका ।/ भैंस हँका गेल । आगू-आगू भैंस, पीछू-पीछू चरवाह । सूरज डूब गेल । अन्हार दउगल आ रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:11:1.54)
176    चस्का-चरणवार (ठीके में ऊ गाम तरक्की कर गेल हल । ई विकास के विन्डोबा गोपाल के भी लग गेल । गुटखा, सिकरेट, दारू आउ जुआ के चस्का-चरणवार लगते गेल ।)    (सारथी॰12:17:14:3.7)
177    चहकल (सवाद के ~) (ओने बड़का बाऊ के बोली सवाद के चहकल - माड़ भात ! माड़ भात !! माड़ भात !!!)    (सारथी॰12:17:16:1.24)
178    चाँपना (= चापना; दाबना) ('आझ तो पड़िया रानी ! हमरो पियास मेटावो पड़तउ ।' पड़िया अकबकाल चिल्हरे लगल त बाझो सिंह दहिना हाथ से मुँह चाप देलक आउ गोदी में उठाके चौकी पर आस्ते से सुता देलक । मुँह चाँपले चिरौरी शुरू । 'देख पड़िया ! तोरा कुमारे में बजार जइते देखलिअउ हल । तखनिए हमर जी में तूँ समा गेलें हल ।')    (सारथी॰12:17:23:2.18)
179    चापना (= चाँपना; दाबना) ('आझ तो पड़िया रानी ! हमरो पियास मेटावो पड़तउ ।' पड़िया अकबकाल चिल्हरे लगल त बाझो सिंह दहिना हाथ से मुँह चाप देलक आउ गोदी में उठाके चौकी पर आस्ते से सुता देलक । मुँह चाँपले चिरौरी शुरू । 'देख पड़िया ! तोरा कुमारे में बजार जइते देखलिअउ हल । तखनिए हमर जी में तूँ समा गेलें हल ।')    (सारथी॰12:17:23:2.16)
180    चितंग (अदमी आउ जनावर दुन्नूँ थकि के थउआ । कछार लउकऽ लगल ... जय गंगे ... अब की ! / कछार पर सब थकि के चितंग । किनखो देह-गात के होश-हवाश नञ् । पीड़ा से अंग टूट रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:11:1.4)
181    चिरचिरी (भेलइ ई कि साँझ चार बजे से ओकरा दरद शुरूह भेलइ । डगरिन तेल से पिछलइकइ । कोय कहलकइ - सूअर के तेल मरीच गरम करके पिला दहो, सेहो कइलकइ । ... कोय कहलकइ - चिरचिरी के उखाड़के माथा के बाल में बाँध दहीं, छट दो को बच्चा हो जइतइ, ओकरो से कोय फायदा नै ।)    (सारथी॰12:17:18:3.22)
182    चुंगारना (नोट के धाह तो बड़का-बड़का के चुंगार दे हे, ई कंगलवा बीझना के की उकात । दू-चार हजार खरच करवइ कि पड़िया हम्मर गोदी में ।)    (सारथी॰12:17:22:3.5)
183    चुग्गा (= पक्षियों दिया जाने वाला दाना या अनाज का कण) (पता नञ् कजा, कखने आउ कइसे हम्मर मानस पिंजड़ा में चुग्गा खातिर एगो पखेरू घुस गेल आउ जोगल चुग्गा के चुगइत रहल । एक्कर पता त हमरा 9 अगस्त 2007 के साँझ में चलल, जब हम अप्पन घर पहुँचली । चुग्गा के दाना खतम भे गेल त ऊ पखेरू बाहर निकलइ लेल फड़फड़ाय लगल ।)    (सारथी॰12:17:31:1.17, 20)
184    चुनियाना (माय के गोदी से बच्ची सरकि के हिलइत-डुलइत डिब्बा में डगमगाइत खड़ी रहइ के चेष्टा करि रहल हल । अपन माय के घुटना थम्हले ऊ तुरी-तुरी लुढ़कि के गिर जा रहल हल । एक-दू तुरी ओकर थकल-चूरल माय ओकरा उठइलन, मुदा तेसर तुरी ऊ खिजलाके बेटी के पीठ पर एगो हौले धौल जमा देलन । बच्ची सहमल आउ एने-ओन्ने मासूम-सन निहारइत अपन होठ चुनियावइत सिकोड़के बिसुरे लगल ।)    (सारथी॰12:17:24:3.17)
185    चूनना-बिछना (= चुनना-बिछना) (बाऊ जी परदेस आउ बस बाल-बच्चे घर में । ... गरमी के दिन में बीड़ी के पत्ता तोड़ऽ हे । अइसे सब मिलके लकड़ी चूनऽ हल । पोरगर-पोरठगर लकड़ी नञ् काट पावऽ हल । ई लेल झाड़ियो-झूरी चून ले हल । ओकरे में से चून-बिछ के कहियो मइया हाट पहुँचा दे हल ।)    (सारथी॰12:17:8:1.23)
186    चेधगर (= ?) (बचवा चारो चेधगर हो गेलइ । कुछ-कुछ करो लगलइ । मालिक के काम में लगइ कि तुरत काम झारि दइ ।)    (सारथी॰12:17:19:2.8)
187    चोंचा (दीदी के पहुना परदेस कमाय गेलन आउ एक दिन मालूम होल कि कोय दोसर जन्नी साथ ओहयँ रह गेलन । दीदी केतना कानऽ हल । ओहे बच्छर माय खटिया पर गिरल से उठिये गेल । माय के बीमार पड़ला पर बाऊ आउ भइया अइलन हल । कुछ दिन तक घर में रहलन मुदा खावा-खरची के चोंचा पड़े लगल त पहिले भइया गेलन ।)    (सारथी॰12:17:8:3.26)
188    चोटगर (~ हथौड़ा) (चिरईं पालनिहार के हँका-हँका के बता दी, हमहूँ एगो सतरंगी पखेरू पालि के तोहर जमात में शामिल भे गेलूँ हे । एतनइँ में, विवेक चोटगर हथौड़ा दइत मन के हुकुम देलक ई पखेरू के मगही के अंगना से खुलल अकास तक आजाद परवाज लेल अप्पन मानस-पिंजड़ा के दरवाजा खोल द ।)    (सारथी॰12:17:31:1.28)
189    चोथू (हप्ते दिन बाद बीझना के बोलाके बाझो सिंह कहलन, 'अरे बीझना ! एन्ने देख रहलिअउ हे, बड़ी मनबढ़ू होल जाहीं । खेत-खंधा पर ध्याने नञ्, बैल-धुर उपासले, एक ड्राम चाउर फटके ले हइ ऊहो तोर माय सास पुतोह के हाथ में दहिए जम रहलउ हे । हमरा ई सब करवे ले दोसर मजदूर रखहीं पड़त त शादी-बियाह, मरी-गमी आउ डेढ़ कट्ठा घेवारी ... । सबसे चोथू हमरे बूझऽ हीं ।' बीझना के लगल कि बाझो सिंह अपन उकात दिखा रहल हे ।)    (सारथी॰12:17:23:1.20)
190    चोन्हीं (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।")    (सारथी॰12:17:18:1.4)
191    चोबीस (= चौबीस) ("तोर बाऊजी सठिया गेलथुन हें यार । हमनी के बड़ भाग कि ई एरिया में एन.टी.पी.सी. खुल रहलइ हे । विकास के समुन्दर उमड़तइ - चकाचक रोड - चोबीसो घंटा बिजली - इनकम बढ़ जइतइ हमनी के - एगो गुमटियो रखके अच्छा कमा लेतइ लोग ।")    (सारथी॰12:17:14:1.2)
192    चौड़गर (खिड़की के बाहर घुप्प अन्हार लटफरेम पर खड़ी माय के चेहरा पर चौड़गर मुस्कान जगमगाय लगल । अपन माय के गोदी में टिकल बच्ची जोर से किलकइत हवा में अपन दहिना तरहत्थी उछाल के फिन कहलक - नान्ना !)    (सारथी॰12:17:25:3.16)
193    चौपट्टी (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।)    (सारथी॰12:17:27:3.40)
194    छप्पल (= छपा हुआ) (तिलका देखलक कि ठेकेदार के आदमी एगो छप्पल फारम पर एकाएकी टिप्पी ले रहल हे । ऊ तनि दूरिये में खड़ा हो गेल । ढेर देरी तक खड़ा रहल । खड़ा-खड़ा ओकर गोड़ थुम्ह गेल । थकल तो हइये हल । भूख भी लग गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:9:1.36)
195    छहाछित (= साक्षात्) (ऊ अदमी आदर सनल गील आवाज में बोलल, 'तूँ हमरा ले छहाछित भगमान ह ।'/ 'तूँ के ह ?' चानो का हकबकायल पुछलका ।; कोय कहि रहल हल, "छहाछित गहिलवा मइया आ गेलथिन । देखलहीं, मुँहाँ में जइसइँ दल देलकइ कि मनकमना पूरा हो गेलइ । भाय, देवी-देवता में भारी जश हइ ।")    (सारथी॰12:17:10:1.6, 11:3.26)
196    छहेछात (= साक्षात्) (नहा-धो के तैयार भेलूँ त भोज के पंगत लग गेल । चूड़ा, दही, चीनी के मगहिया भोज । ऊपर से जी फेरन परवर के भुंजिया । डॉ. आनन्द के नेह-सनेह अउ अपनापन के कोय ओर-छोर नञ् हल । डॉ. आनन्द त छहेछात आनन्द के प्रतिमूर्ति हथिन ।)    (सारथी॰12:17:31:3.31)
197    छान-पग्गह (= छान-पगहा) (परदेस की खातिर ? बाऊ बोलइ ले चाह रहलन हल कि तिलका कहे लगल, 'हम शहर नञ् जाम बाउ । घरो में तो एक आदमी चाही । हरियर खेती देखके गाय-गोरू रात में छान-पग्गह तोड़ते रहऽ हे ।)    (सारथी॰12:17:9:3.23)
198    छिनाना ("तोर मुँह काहे लटकल हो, कापो ... ?" / "मुँह लटकावे के तो बात हइये हइ, मनिज्जर साहेब । ई धरती हम्मर माय ... हमनी एकर बेटा ... ई माय हमरा से छिना जायत ... एकर धरती पर गेहूम के बाली, बूँट-खेसारी के हरियरी कइसे झूमत ... ई बाउग, ई मकई के पेड़ ... बुढ़ारियो में भुट्टा, मखाना आउ लावा कहाँ से चलतइ मनीजर साहेब ? एकलाश लाल नियन दू रूपिया में एगो भुट्टा खरीदवऽ की ?")    (सारथी॰12:17:13:2.49)
199    छीछोर ('अच्छा ! ऊ जीनीस जे पेठइलियो हल ऊ कइसन लगलो ?' पड़िया बूझ न रहल हल ई बुझउअल । / 'अरे ! ऊहे 32 नम्बर वला, सइजगर हलो ने ?' पड़िया के कान झनझनाय लगल ... । / मलिकवा केतना छीछोर अदमी हइ ! ऊ घर दने दउरी लेले बढ़े लगल । पीछे-पीछे बाझो सिंह बी बढ़े लगल ।)    (सारथी॰12:17:23:2.5)
200    छुआइन (बीझना बेगर हुँकारी भरले खँचिया आउ हँसुआ लेके बधार देने सोझिया गेल । ओकर आँख तर चमारी के बेटा फुदना के मोबाइल नाचे लगल, 'गाना, फोटू, आउ वी.डी.ओ. ... मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए ... मगर साला ऊ फुदना ! मोबाइल छुए में छुआइन हो जा हलइ ।')    (सारथी॰12:17:23:1.3)
201    छुकछुकाल (हमरा अभियो याद हे, हमर पसिंजर गाड़ी छो नम्बर के प्लेटफारम पर रुकल हल । कुछ गाड़ी रुकल हे, कुछ छुकछुकाल आ रहल हे, त कुछ जा रहल हे, ... गाड़ी के हौरन ... भोंऽऽऽ ! ... पटरी के खटखट !)    (सारथी॰12:17:26:1.38)
202    छुछुन्नर (= छछून्दर) (आगू सोमरा हेलल, मागु से कहलक - लुगवा ऊपरि करि लिहें, तों हमरा से नाटा हहीं, सड़ीवा भींग जइतउ ! जब पूरा बीच आयल तब औरतिया पूरा कपड़ा पेट पर चढ़ा लेलक । सोमरा पीछे घूम के देखलक । मौगी कुरोध के बोललइ, "दुर्रर्र ने जाय छुछुन्नर ! ... हम बे नगन होल जाही । ई पाछूहिया को की देखऽ हीं ?" सोमरा कहलकइ, "अरे देखऽ हिअइ - हमर सातो पहुरा कहाँ हइ ?"; डाकदर कहलकइ, "जाव, सरकार से कहो । साला नेता ! घोषणा करेगा लम्बा-लम्बा और काम छुछुन्नर वाला ।")    (सारथी॰12:17:18:3.3, 51)
203    छोंड़ा (= छौंड़ा) (साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला । .. तय भेल कि पाँच अदमी आगू टरेन से जायत रसद-बुतात लेके आउ पाँच पांडव जानवर साथ गंगा हेलता । चानो का कहलका, 'मंगलामुखी सदा सुखी । कल हाँका हो जाय के चाही ।' जोड़ल गेल - पचीस भैंस, पाँच अदमी । सब के सब जुआन, एकलौठा, कसरती, पहलवान ! चेथरूआ सबसे छोट भले हल, मुदा हल सहसगर, लमहर, छरहर, पट्ठा छोंड़ा ।)    (सारथी॰12:17:10:2.5)
204    छोड़ल-छाड़ल (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?")    (सारथी॰12:17:19:1.16)
205    छोफिट्टा (~ जुआन) (अट्ठारह बीघा के जोतदार कापो चा - आझ बेचारा । दू जोड़ा हाथी नियन बैल, दू गो दोगली गाय, एगो गुजराती भैंस गोंड़ी पर शोभो हलइ कापो चा के । देवना बराहिल ... ई कड़कड़िया मोंछ, छोफिट्टा जुआन, सिलेब रंग एकदम पकिया ।)    (सारथी॰12:17:13:1.25)
206    छोम्मा (= छठा) (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल । भगत के छोम्मा इन्द्री जाग गेल ।)    (सारथी॰12:17:11:2.47)
207    जंगलिया (अब लाली धपे लगल हल । रतचलवन जानवर कोर पकड़ लेलक हल । खाली सियार, वनबिलाड़ या खिखिर धउगइत-भागइत एन्ने-ओन्ने झलक जा हल । सियार या वनबिलाड़ डगर काटलक त बाउ थुकथुका के आगू बढ़इत बुदबुदाय लगऽ हल - 'या जंगलिया माय, तनि सहाय रहिहऽ । एगो पिलुआ साथ हको । अइते पाठी चढ़इवन ।')    (सारथी॰12:17:7:3.6)
208    जन-फरजन ("सोमरा कहलकइ, "तब छोड़ दे बाबू । हमर पहुरे बिक जायत, तब हम नै बियाह करब ।" शनीचर कहलकइ, "बियहवा भी जरूरी हइ । मौगी बड़ी सुख देतउ । खाय ले बना देतउ, जन-फरजन होतउ । बेमार पड़भीं तब गोड़-हाथ करि देतउ । हमरो सेवा करत ।")    (सारथी॰12:17:18:1.24)
209    जन्नी-मरदाना (वहाँ के दिरिस त अजीबोगरीब हल । चार गो डिलैट बरि रहल हल । सो दू सो के मजमा जुटल हल । जन्नी-मरदाना, बुतरू, जुआन, बूढ़ा-बूढ़ी सब तमाशा देखि रहल हल गोल घेरा बनाके । ऊ घेरा में एगो अदमी हाथ में लाठी लेले नाच रहल हल । कुछ गवइया लोरकायन गा रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:11:2.24)
210    जमतगर (संयोग से ऊहे डिब्बा में आठ-दस जन्नी-मरद अयोध्या तक के सहयात्री भे गेलन । जमतगर हो गेला से हमर मन गद्गद् हो गेल । हमर विचार से यात्रा एकल्ले के चीज न हे ।)    (सारथी॰12:17:26:1.28)
211    जर-जमीन (खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे । सुनल जाहे कि पहिले कल-करखाना चलावइ लेल मजूर बसावल जा हल । अब तो किसान के जर-जमीन हथिया के ओकरा मजूर बनावइ के चलन हो गेल हे ।)    (सारथी॰12:17:9:1.31)
212    जाल-जलमल ("भैया लोग ! एन.टी.पी.सी. खुल रहलो हे । सरकार जमीन ले लेतो । ओकर अढ़ाइ गुना दाम देतो । सभे के रज-गज होतो ।" एकरा पर तोखी सिंह चउँकलथिन - "देखलहो नञ्, राजगीर में बारूद फैक्ट्री खुललइ । सिठौरा राजा हो गेलइ । जेकर बाप के घास गढ़ते-गढ़ते घट्टा पड़ गेलइ हल, ओकर जाल-जलमल फटफटिया चढ़ रहलो हे ।")    (सारथी॰12:17:13:2.45)
213    जित्ते (= जिन्दा/ जीवित ही) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । ... घर-अंगना हिअइतो । बेटी-बहू पर नज्जर गड़इतो । हिसाब-किताब में जित्ते गाय गिले ले तइयार ।)    (सारथी॰12:17:8:1.50)
214    जिनोर (दे॰ जिनोरा) (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।)    (सारथी॰12:17:10:1.20)
215    जियान (ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:16:1.52)
216    जीतिया (उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।)    (सारथी॰12:17:14:2.25)
217    जीनीस (= जिनिस; वस्तु, चीज, सामान) ('अच्छा ! ऊ जीनीस जे पेठइलियो हल ऊ कइसन लगलो ?' पड़िया बूझ न रहल हल ई बुझउअल । / 'अरे ! ऊहे 32 नम्बर वला, सइजगर हलो ने ?' पड़िया के कान झनझनाय लगल ... । / मलिकवा केतना छीछोर अदमी हइ ! ऊ घर दने दउरी लेले बढ़े लगल । पीछे-पीछे बाझो सिंह बी बढ़े लगल ।)    (सारथी॰12:17:23:1.54)
218    जुअन पिट्टा (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! कल्ह गेलिअइ पोखरिया में नहाय ले । झिगुलिया नहा को पीड़िया पर पुतली बदलब करऽ हलइ, अनचोक्के हमर नजरिया ओने चल गेलइ । छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! एने की हुलकइ हें, लहँगा ले लुलके हें । देबउ अँखिये में टकुआ भोंकि । हमरा नजर लगावइ हें, जुअन पिट्टा ! तोरा जुआनी में आग धर दिअउ ! तोर सरधा में गरदा पोरि दिअउ । देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।")    (सारथी॰12:17:17:3.46)
219    जुअनका (मीटिंग खतम । सभे कापो बाबू के बात से सहमत हला बाकि एन.टी.पी.सी. के लोभ - विकास के सपना सबके भरमइले रहल । जब गाम के जुअनकन ई बात सुनलक तउ अलगे माहौल हल ।)    (सारथी॰12:17:13:3.46)
220    जुटी (आसिन के महीना जब एकलगायत त्योहार मनावे ल परदेस से कमा-कमा के सब लौट रहल हल, पड़िया घर-दुआर, देवता-देवी छोड़के माउग-मरद, बाले-बच्चे अइँटाखोल जाय ले तैयार हे । एक जुटी पर दस हजार, ओकरा में पाँच हजार से बेसी दादनी, जे पहिलहीं अँचरा के खुँटी से ससर गेल हल । भट्ठा पर चढ़े घड़ी पाँच हजार से कमे हाथ लगल ।)    (सारथी॰12:17:20:1.16)
221    जुठकठार (अभी पड़िया के गोड़ के अलता मेटाल भी नञ् हल कि बीझना बिदके लगल । जनु ओकर कान में के कौन मंतर फूँक देलक हे कि पड़िया से भर मुँह बोले नञ् । ... कभी लगे कि दौड़के घर जाऊँ आउ पड़िया के अकवार के प्यार के झुलुआ में झुलते रहूँ, कभी लगे कि जुठकठार पड़िया में हमरा लेल बचल की हे ? ओकरा कोहबर रात याद आवे लगल ।)    (सारथी॰12:17:21:2.10)
222    जेठ-रैयत (साँझ के महरानी थान में मिटिंग लगल । गाम के जेठ-रैयत, बटइदार आउ पट्टेदार सभे जुटलथिन हल - भागवत बाबू, तिरपित बाबू, रामशरण बाबू, एकादश बाबू, मनीजर साहेब, पटवारी जी, तोखी सिंह, दशरथ सिंह, कापो सिंह, किसुन महतो, रामस्वरूप पांडे, ओगैरह तीनो टोला के लोग ।)    (सारथी॰12:17:13:2.31)
223    जेभी (= जेब) (ओकर हाथ ओइसइँ जेभी से बहरा गेल, जइसे तातल खिचड़ी छूके अंगुरी । सड़क के किनारे पसरल सामान पर ओकर नजर ठहरि गेल । ऊ मने मन बुदबुदा हे - 'सब कुछ त ओइसइँ धइल हे । एगो पैंट आउ एगो फराके त बिक पाल ... सबेरे-सबेरे के बोहनी । औने-पौने भाव लगा देलूँ ।')    (सारथी॰12:17:15:1.11)
224    जैन (बीझना के घाव भी अभी हरियरे । ऊ टेवानले हल कि बाझो सिंह के ड्योढ़ी पर दुन्नू के लस्टम-पस्टम करते देख लूँ, ओजय दुन्नू के कुट्टी-कुट्टी काटके जमुई जंगल में पाटी जैन कर लेम । बाझो सिंह के लठैत आउ गुंडा कि थाना पुलिस से भी निपटे ले एक्के उपाय - लाल झंडा जिन्दाबाद !)    (सारथी॰12:17:22:1.51)
225    जोगना (= यत्न से रखना) ("बेटा, कुल आउ कपड़ा जोगे के चाही । ई खेत नञ् हम्मर हे, नञ् तोहर । ई पुरखन के धरोहर हे, संस्कार हे । एकरा जोगावो, तभिये नाम होतो । बाप-दादा के पगड़ी बेचके फटफटिया चढ़बऽ, त पुरखन की कहथुन ?")    (सारथी॰12:17:14:1.47)
226    जोड़ना-नारना (हिसाब ~) (हिसाब जोड़े-नारे में मइया एकदमे भोंजल हे । ऊकी, तहिया फूफा के हाथ बाऊ रुपइया भेजइलका हल । महाजन आल आउ तीन-तेरह करके कुल्ले हथिया लेलक ।)    (सारथी॰12:17:8:1.36)
227    जोतदार (= जोतनुआ, जोतनू, जोतमल; किसान, कृषक, खेतिहर) (केसर महतो कहो हलथिन, 'बेचारा कापो भइया ... ।' आझ कापो चा 'बेचारा' हो गेलथिन । अट्ठारह बीघा के जोतदार कापो चा - आझ बेचारा । दू जोड़ा हाथी नियन बैल, दू गो दोगली गाय, एगो गुजराती भैंस गोंड़ी पर शोभो हलइ कापो चा के । देवना बराहिल ... ई कड़कड़िया मोंछ, छोफिट्टा जुआन, सिलेब रंग एकदम पकिया ।)    (सारथी॰12:17:13:1.21)
228    जोहनइ (बनछिल्ली में कुछ खेत हे । धान उपजऽ हे । धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।)    (सारथी॰12:17:8:1.12)
229    जोहिआना (भोरगरे जानवर खुट्टा से खुल गेल । सबके हाथ में तेल पिलावल लाठी, जेकरा में पत्तर ठोकल, गोवा लगल । गंगा के किछार पर भीड़ जमा होवऽ लगल । सबके मुँह से एक्के सबद - 'चल, आज हाँका हइ भाय !' सले-सले पाँचो हेलवार भैंस जोहिअइले गंगा के किछार पर पहुँच गेल ।)    (सारथी॰12:17:10:2.11)
230    झंझुआना (रात जब निसबद होल त टोला में कुत्ता झंझुआय लगल । पड़िया सच्चे अनुमान लगइलक कि ऊ आ रहलथिन हे ।)    (सारथी॰12:17:21:3.45)
231    झक्क (~ सफेद) (ऊ अब भी अपन बगल में बइठल, सीना पर दाढ़ी लहरायत बुजुर्ग के जरी शक भरल निगाह से देखि रहल हल । उज्जर दाढ़ी-मोंछ के बीच से झाँकइत ऊ बूढ़ा के आत्मविश्वास से भरल झक्क सफेद मुस्कुराहट जनु ऊ थकल-परेशान माय के कहईं हौले से थिरथम्मन कइलक । थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:24:3.28)
232    झखुराही (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।")    (सारथी॰12:17:18:1.4)
233    झाड़ा-पखाना (बाझो सिंह के अदमी आवे तब ... दरद के दू-चार गोली या कभी-कभी सुइया भोंकवा दे । पलस्तरा करावे के ने ओकर उकात, ने बाझो सिंह के कोय मतलब । रहल हरवाहा के बात, तो लुझन के छोटका बेटा बीझना छौड़गरे हल, जे अपन बाप के झाड़ा-पखाना करवाके मालिक के हुकुम बजावे ले चलिए जा हल ।)    (सारथी॰12:17:20:1.47)
234    झाड़ी-झूरी (बाऊ जी परदेस आउ बस बाल-बच्चे घर में । ... गरमी के दिन में बीड़ी के पत्ता तोड़ऽ हे । अइसे सब मिलके लकड़ी चूनऽ हल । पोरगर-पोरठगर लकड़ी नञ् काट पावऽ हल । ई लेल झाड़ियो-झूरी चून ले हल । ओकरे में से चून-बिछ के कहियो मइया हाट पहुँचा दे हल ।)    (सारथी॰12:17:8:1.23)
235    झुरझुरी (अगहन के शुरूह में ठंढा धीरे-धीरे धरती पर दुलहिन जइसन सुकुर-सुकुर पँव रख के उतर रहल हल । साँझ के समय झुरझुरी सन लगो लगल हल ।)    (सारथी॰12:17:17:1.3)
236    झौहर-झौहर (~ कानना) (एतना कहते-कहते सोमर आँख बंद कर लेलक । सोमरा बाल-बच्चा समेत झौहर-झौहर कानो लगल । गाँव जानलक । अप्पन किसान अइलइ - कफन ले पैसा देलकइ । मुर्दा चला को उतरी पिन्हने दोसर दिन किसान यहाँ पहुँचल - मालिक ! बाबू के लड्डू-पूड़ी करि दइ ले चाहऽ हिअइ चौरासी के भोज ।")    (सारथी॰12:17:19:1.33)
237    टप्पा ('बस एक टप्पा आउ नुनु । तनि मलकले चल । एकदम नूर के दम जाय के चाही ।' । फेर तनि ठहर के, 'मिलतइ हो ... पूरी, जिलेबी आउ आलू बैगन के तरकरियो । भर दोना । हहर मत ।')    (सारथी॰12:17:7:1.1)
238    टरके-टरक (= ट्रक के ट्रक) ("अइसे काहे बोलइत ह जी ! अपसोवारथी वाला बात ! ... लोग कहइत हलथी कि ढेर कम्बल आयल हइ बाँटे खातिर ... टरके-टरक आयल हइ ।" बेदामी कहलक ।)    (सारथी॰12:17:5:3.32)
239    टीकस (= टिकस; टिकट) (बड़का भइया भी गाड़ी चढ़ावे साथ अइलन हल । ऊहे टीकस भी कटा देलन आउ गाड़ी चढ़े-चढ़े घरी तक एक किलो संतरा भी हमरा थमा देलन ।)    (सारथी॰12:17:26:1.25)
240    टीटी (= T.T.E.) (नवादा से आगू पहिल तुरी जा रहलूँ हल । गया जंक्शन देखि के त हम चकड़बम रहि गेलूँ - बाप रे बाप ! लैन पर लैन, गाड़ी पर गाड़ी, लटफरेम पर लटफरेम, खदबद टीटी !)    (सारथी॰12:17:26:1.35)
241    टुनमुन (~ बच्ची) (सफेद दाढ़ी वला बुजुर्ग आउ ओकर गोदी में बइठल टुनमुन बच्ची के आपस में तालमेल बइठावे में कोय जादे समय न लगल ।)    (सारथी॰12:17:24:3.35)
242    टेबना (= चुनना, परखना, टटोलना) (गया के मोसाफिरखाना देखि के त हम दंग रहि गेलूँ । ... चारो पट्टी बइठे के बेंच बनल, पानी, पाखाना के सुविधा अलग । सब सुरक्षित जगह टेबके डेरा जमा लेलन ... बीच में गेठरी-मोटरी, चारो पट्टी सुत्तल-बइठल साथी । हमरा नींद कहाँ !)    (सारथी॰12:17:26:2.10)
243    टेवानले (बीझना के घाव भी अभी हरियरे । ऊ टेवानले हल कि बाझो सिंह के ड्योढ़ी पर दुन्नू के लस्टम-पस्टम करते देख लूँ, ओजय दुन्नू के कुट्टी-कुट्टी काटके जमुई जंगल में पाटी जैन कर लेम । बाझो सिंह के लठैत आउ गुंडा कि थाना पुलिस से भी निपटे ले एक्के उपाय - लाल झंडा जिन्दाबाद !)    (सारथी॰12:17:22:1.48)
244    टोनगर (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।)    (सारथी॰12:17:10:1.22)
245    टोला (पछियारी टोला में बीझना के कान नञ् देवल जाय । सगरे एक्के चर्चा ... बीझना वली बाझो सिंह तर बिलउज खोल के अंदर के जिनिस देखा रहल हल कि बाझो सिंह ओकरा ड्योढ़ी से भगा देलक, ई कहके कि हम तोर बाप दाखिल हियो आउ तूँ हमरा बदनाम करे लेल अइलऽ हे ?; एन्ने दक्खिन टोला में अलगे चर्चा - बाझो सिंह बीझना वली से ड्योढ़ी पर जोर-जबरदस्ती कर रहल हल कि बीझना वली एक लात मारके भाग आल ।; पछियारी टोला के हो-हल्ला में दक्खिन टोला के खुसुर-फुसुर बिला गेल ।)    (सारथी॰12:17:23:3.5, 12, 17)
246    ठइयाँ (= ठामा; जगह) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे ।)    (सारथी॰12:17:7:1.14)
247    ठकुआयल (अकादमी के गेट पर गाछ के छाहुर में मन के बात मने में दबइले ठकुआयल ठाढ़ हली । एतने में पटना से श्री घमंडी राम, श्री हरीन्द्र विद्यार्थी आउ श्री राजकुमार 'प्रेमी' हमरा सभे के खोजइत पहुँचला । गल-गलवात होवो लगल ।)    (सारथी॰12:17:31:3.45)
248    ठगबनीजी (नरेन्दर सोचऽ हे - ठगबनीजी के घोषणा ! गरीब के पूछ कहउँ नञ् । बड़का लेल विज्ञापन । पैसा-वलन के पूछ । ऊ ई अंधेर व्यवस्था पर पच् दनी थूक दे हे ।)    (सारथी॰12:17:16:1.7)
249    ठाँव-कुठाँव (भूख पहिला सवाल रहऽ हे आउ ओकरा खातिर ऊँच-नीच, ठाँव-कुठाँव सब लाँघे पड़ऽ हे । जीअइ लेल तो जहरो ने पीअ हे आदमी । इज्जत ढोवइ वलन भूख के आगू हार रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:8:2.46)
250    ठिठियाल (~ चलना) (लैन होटल ! बूढ़-पुरनियाँ के चर्चा के विषय । सब के एक्के बात, 'अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।')    (सारथी॰12:17:9:1.8)
251    ठिसुआल (गाड़ी रुकल । भीड़ में ऊ दुन्नूँ औरत-मरद अन्हार में बदलि गेल । बुजुर्ग के चेहरा पर स्याह परछाईं तैर रहल हल, ठिसुआल सन । ऊ सामने के खिड़की से अनमनाल अंदाज में लटफरेम के अन्हार दने घूरऽ लगलन ।)    (सारथी॰12:17:25:2.32)
252    डगराना (= लुढ़कना; लुढ़काना) (एक दन्ने जउन समाज में जात-पाँत, अगड़ा-पिछड़ा, हिन्दू-मुसलमान के झंझट अपन हाट लगइले हे, आपसी मतभेद के भाँग कुँइए में घोराल हे, एक-दोसर के टंगरी खींचे में हम डगरा के बैंगन हो रहलूँ हें, राय-छितिर हो रहलूँ हें, गुरुजी के गरहाजिरी अखरो हइ ।)    (सारथी॰12:17:34:2.47)
253    डगरिन (कनियाय घर अइली - सलियाने बच्चा । एगारह साल में एगारह बच्चा । सब तो एकर जान छोड़के चल देलकइ, हाथ में बच गेलइ चार । दू बेटा - दू बेटी । बारहवाँ में बेचारी अपने चलि देलकइ ।/  भेलइ ई कि साँझ चार बजे से ओकरा दरद शुरूह भेलइ । डगरिन तेल से पिछलइकइ । कोय कहलकइ - सूअर के तेल मरीच गरम करके पिला दहो, सेहो कइलकइ ।)    (सारथी॰12:17:18:3.18)
254    डराम (= ड्राम, dram) (पहिले भी ई गाम संपन्न हल ... धन-धान्य से भरल-पूरल हल ... गाय-भैंस से गोंड़ी अघाल हल । मुदा अब ... मुआवजा मिलला के बाद जैसे ई गाम जादे विकास करि गेल हल ... कुछ मायने में । घर से कोठी-कनरा खतम हो गेल हल आउ डराम आ गेल हल अनाज रखे ला ।)    (सारथी॰12:17:14:2.47)
255    डिलैट (वहाँ के दिरिस त अजीबोगरीब हल । चार गो डिलैट बरि रहल हल । सो दू सो के मजमा जुटल हल । जन्नी-मरदाना, बुतरू, जुआन, बूढ़ा-बूढ़ी सब तमाशा देखि रहल हल गोल घेरा बनाके । ऊ घेरा में एगो अदमी हाथ में लाठी लेले नाच रहल हल । कुछ गवइया लोरकायन गा रहल हल ।)    (सारथी॰12:17:11:2.23)
256    डेर (= डेब, ऐंचा, भेंगा, बकड़ेर, कनडेब; देखते समय एक आँख झपकाने या बंद रखने वाला; एक सींग ऊपर और दूसरी नीचे वाला मवेशी, सरगपताली; एक ओर मुड़े टोंड का हल; ऊपर-नीचे जलने वाली (लौ)) (सोमरा अप्पन छोटका अँखिया से देखलकइ, बड़का मूँद के,  कहलकइ, "हमरा तो दुन्नो से लखा दे हइ बाबू ! तब हमरा काना कइसे कहलहीं ?" शनीचर कहलकइ, "तों कान नै हहीं, डेर हहीं । मौगी होतउ पतलडेर । देखतउ तोरा, लगतउ दोसरा के देखब करऽ हइ । देखतउ पूरब, तब लगतउ दक्खिन देख रहलइ ह आर कि !")    (सारथी॰12:17:18:1.53)
257    डेरगूह (अचक्के चेथरूआ भिजुन एगो सोंस उपराल । ऊ हड़बड़ा के कहलक, 'बाप रे बाप ! कतबड़ गो सोंस हइ कका ! सुनऽ हिअइ कि एकरा फूँकला से अदमी के देह फूलि जा हइ ... कहइँ ... ।' बलेसर हँसइत कहलक, 'सोंस डेरगूह जानवर होवऽ हइ । ऊ त अदमी के देखइते मातर भागऽ हइ ।')    (सारथी॰12:17:10:3.28)
258    ढिकली (सीढ़ी के ऊपर मंदिर में बाबा किशोरी शरण जी हमनियें के इंतजार करि रहलन हल । प्रसाद में खोवा के बनल चउड़गर-चउड़गर दू-दू गो लाय आउ मिसरी के बड़-बड़ ढिकली मिलल । ऊहे हमर सब के बालभोगी भेल ।)    (सारथी॰12:17:27:1.13)
259    ढेंउस (= ढउँसा, ढौंसा, ढाउँसा) (घुंघरैला केश गरदन पर झूलो हल ... भेंभा नियन । धोती-कुरता, गोड़ में जुत्ता ... एगो छाता आउ एगो करका बेग जरूरी । बेग भी कइसन ... बरसाती बेंग जइसन । बेंग भी नञ् कहो ... बरसाती ढेंउस नियन ।)    (सारथी॰12:17:34:1.42)
260    ढेरकुनी (= ढेरमनी; बहुत सारा) ('तनि मलकले चल । फेर हुआँ भी लमहर लइन लगावे पड़तउ । ढेरकुनी ने पहुँच जा हइ ।' बाऊ टिटकारी मारलन ।)    (सारथी॰12:17:8:3.1)
261    ढेला-ढक्कर (~ करना) (ओने यमुना सिंह मतिछिन नियन गामे-गाम भटकइत चलऽ हला । उनखर हरकत से घरइया सब परेशान हो गेला । ईहे क्रम में एक दिन यमुना सिंह नरहट गाँव पहुँच गेला । वहाँ के लोग-बाग उनखा पागल समझि के ढेला-ढक्कर करऽ लगला । उनखर माथा-ताथा फूट गेलन । गाँव वलन उनखा मार-पीट के गाँव से भगा देलक ।)    (सारथी॰12:17:27:3.31)
262    ढेह (= ढेव; समुद्र का ज्वार; पानी की लहर, तरंग, हलफा) (मइया गंगा अपन मस्त चाल में बह रहली हल । हरेक ढेह में सोना आउ चाँदी के मिलावट हल आउ एन्ने कापो सिंह के मन ढेह उठ रहल हल - "अब तोंहीं कुछ करहो मइया । ई बउड़हवन के मति-गति देहो । गंगोतरी से गंगा-सागर तक तोरा गेन्हावे के ठीका लेलको हे ।"; ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:13:2.20, 22, 16:1.49)
263    तइरनइ (सरयू देखि के हम अचंभित रहि गेली ... चैत में कलकल धारा ! हम ऊ स्वर्गिक छटा निहारइत सोचऽ लगली - काश ! एजइ हमर घर रहत हल कि रोज डुबकी लगइतूँ हल । तइरनइ हमर कमजोरी हे !)    (सारथी॰12:17:26:3.48)
264    तरासल (गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे । गाँव के जमीन पानी बिन तरासल हे । नहर, कुआँ, बोरिंग पर केकरो धियान नञ् । खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे ।)    (सारथी॰12:17:9:1.27)
265    तसमय (= तसमई; खीर; दूध में उबला हुआ शक्कर मिला चावल) (झटपट सब इन्तजाम हो गेल । सब छक के घी वाला छानल पूरी आउ तसमय खइलका । कठौती पर शुद्ध घी के पकवान गमछी में बान्हलका आउ भर खर्राटा मार के सुतला ।)    (सारथी॰12:17:12:1.4)
266    तिअन-तासन (मइया हाट से तिअन-तासन लेल अलुआ, नोन, तेल, मिरचाय के साथे-साथ मिठगर चीजो लेले आवऽ हल । हरदी तो उपजवे करऽ हे । कहियो-कहियो सालन भी आवऽ हल । ऊ दिन तो मानऽ तेहवार हो जा हल ।)    (सारथी॰12:17:8:1.31)
267    तुरिया (कत्तेक ~) (तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल ।)    (सारथी॰12:17:9:1.12)
268    तेजपत्ता (= चतपत्ता; चतपताय) (ओने सुनीता खौलल पानी में तलछट चाय के पत्ती तरहत्थी पर लेके डालि देलक । चीनी झरि गेल हल । ऊ चुटकी भर निम्मक अउ तेजपत्ता देके छानि देलक । दू कप में ढारि के उठल आउ एगो नरेन्दर के थमाके दोसरका में खड़े-खड़े होठ लगा देलक ।)    (सारथी॰12:17:15:2.44)
269    थक्कल-हारल ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।)    (सारथी॰12:17:13:3.13)
270    थिरथम्मन (ऊ अब भी अपन बगल में बइठल, सीना पर दाढ़ी लहरायत बुजुर्ग के जरी शक भरल निगाह से देखि रहल हल । उज्जर दाढ़ी-मोंछ के बीच से झाँकइत ऊ बूढ़ा के आत्मविश्वास से भरल झक्क सफेद मुस्कुराहट जनु ऊ थकल-परेशान माय के कहईं हौले से थिरथम्मन कइलक । थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।)    (सारथी॰12:17:24:3.30)
271    थुम्हना (तिलका देखलक कि ठेकेदार के आदमी एगो छप्पल फारम पर एकाएकी टिप्पी ले रहल हे । ऊ तनि दूरिये में खड़ा हो गेल । ढेर देरी तक खड़ा रहल । खड़ा-खड़ा ओकर गोड़ थुम्ह गेल । थकल तो हइये हल । भूख भी लग गेल हल ।)    (सारथी॰12:17:9:1.39)