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Wednesday, September 30, 2009

8. बेटवा हमरे, पुतोहियो हमरे

कहानीकार - श्री तारकेश्वर भारती

पौ फटवे कैल हल कि झन-झन-झन थाली बजे लगल भुनेसर के घर में, आउर होवे लगल कि भुनेसर के घरवाली के बुतरू होल हऽ । आय-माय-दाय के भीड़ लगे लगल, बुतरू के मुँह देखे ला । तुलाही चाची बोललन - पाँच बरीस पर अँचरा खुलल बेचारी भुनेसर वाली के; संकर जी के किरपा भेल; जिये, बचे, लखिया होवे । धुरियारी मामा कहलन - लेल-देल बप्पे नियर होतै छौंड़ाकँझली फुआ कह उठलन - नै चाची, ममुआँ के मुठान पर है । देखऽ हो नै, नकिया उनकरे ऐसन उठल हइ ! बड़की फुआ डाँट के बोललन - भक् ! भकचोंधरी, सूझऽ हौ तोरा कुछ ? मैये से मिलल है । लइका के रंग के बारे में भी, जेतना मुँह ओतना बात । कोय कहे गोर होतै, कोय कहै करिया । कुछ-कुछ धमसनमा छौंड़ा नियर होतै । अन्त में ई बात पर ई सब कोय आ टिकलन कि लइका न माय नियर करिया होतै न बाप नियर गोर; साँवर होतै । रहल नै गेलन तो पछियारी नानी मूड़ी हिलैते अप्पन कोठरी से निकसिये अइलन आउर 'सबके नीपल गेलो दहाय, अब के नीपल देख गे दाय' कहावत सिद्ध करे ले बोललन - तोहनी सब की जाने गेला ? बुतरू कैक रंग बदले हे । अभी कुछ नै कहल जा सकै हे । मुदा होतै गोरे । कैसनो होवै, हमरे ऐसन दाँत टूटै, जियै, बचै, एक से एकीस होवै । तब लइका के दादी बोल उठलन - हँऽ माय, बड़ गंगा-गजाधर नेवलूँ तब भगवान पोता के मुँह देखौलन हे । सब मिल असीस देहू । कैसनो होवै, 'घी के लड़ुआ टेढ़ो भला' । सोहनी चाची बराबर खोरनी लेले रहऽ हलन आउर जरन्त एक नम्मर के । बुतरू देख के नाक-भौं सिकोड़ के आउर मुँह बिचका के बोललन - ऐसे जे कहऽ सब, मुदा हमरा मुँहदेखली नै बोले आवे हे । बुतरू सतमासु लगऽ हे । काहे कि कनैया के तो भरपेट खाइयो ला नै मिलऽ हलै । आउर छौंड़ा कार तो अलकतरे होतै । सोहनी के बात पर कोहार मच गेल । उकटा-पुरान के बजार गरम हो गेल । दलान पर से भुनेसर आउर गाँव के दस-पाँच आदमी जुट गेलन तब रोक-थाम हो गेल । सोहन चाची घसक गेली । रजमतिया फुआ बोलली - 'एक छौंड़ा आ गेल, लुतरी लगा गेल, अपने परा गेल', इहे बात हो गेल, आउ की !

कि झुमइत-झामइत आ पहुँचल रमरतिया, मुनिया, धनिया आउर चुनियाँ, लचकइत-मटकइत आउर जवानी के जोस में उमहल हुरदंग मचइते । ई सब में मेठ हल, बोले में तेज आउर नटखट, रमरतिया । बरस पड़ल - काकी, दादी, नानी, सब हटऽ इहाँ से; ठिके कहल गेल हे कि "जहाँ बुढ़ियन के संग, तहाँ खरची के तंग, (आउर) जहाँ लइकन के संग, तहाँ बाजे मिरदंग" । सब सठिया गेलन हे । ओकर सिकायत ओकरा से, अउर ओलहन, खटपट । भुनेसर भइया के बेटा भेलैन हे । ई खुसिआली में गीत-गौनी होवे के चाही । ई गियान-धियान केकरो नै । आउर उठल सोहर –

"अँगना जे लिपली दहावही आउरे पहापही हे, ललक देखली नैहरवा के बाट, भइया मोर आवथी हे" । गीत समापत होल कि चुहल आउर धमाचौकरी मचे लगल आउर हा-हा-ही-ही-हु-हु-हु होवे लगल आउर घंटो चलल । फिर पान खा-खा के सब अपन घर के रास्ता लेलन ।

दुख में दिन पहाड़ आउर सुख में दिन हवा हो जा हे । गीत-नाध में भोर से रात आउर रात भिनसरवा होते-होते छो दिन हो गेल आउर आज छठियार हे । दाय के हँकार पड़ल - अँगना, ओसारा आउर दलान लीपे ला; नफर के पुकार भेल गंगाल में पानी भरे ला; आउर नाउन के बुलाहट गेल नोह टूँगे ला । अप्पन-अप्पन काम में सब जुट गेलन ।

नाउन परसौती मालकिन के नोह टूँगते-टूँगते अप्पन आमदनी के ब्योंत लगावे लगल, काहे कि 'आदमी में नउआ आउर पंछी में कउआ' बड़ बुधगर होवे हे ।

त बहूजी ! जल्दी से बताहू ने कि छठियार के नेउता कहाँ-कहाँ जइतै । हम्मर मरदनमा के की जानी छुट्टी हइ कि नै है । बतावल रहतै तो, नै होतै, हम्हीं दे ऐतियइ हल ।

तूँ बउड़ाही हें की गे ! कहाँ-कहाँ नेवता जइतै, ई भी पूछे के बात हे ?
तइयो बहूजी, बताइये देतहो हल तो बेस बात हलै ।
तो सुन, ..... नेवता बस तीने जगह ....... कहाँ-कहाँ ? ---
हम्मर नैहर एक; सुनला ?
हँऽ मलकिनी, उहाँ तो जरूरे जाय के चाही ।
दू, उनकर ससुरार; सुनला ?
हँऽ-हँऽ, सुनलियै ने तब !
तीसर जगह बबुआ के ननिहाल । याद कइलें ? हाँ मलकिनी, समझ गेलियै, नेउतवा तीने जगह जइतै ।

बहू बुदबुदाल - 'दुनियाँ-जहान से हमरा कौन मतलब हे !' कि कोना में बैठल भुनेसर के माय फट पड़लन - देख तो निगोड़ी के ! खाली अप्पन नैहर तकलक । हम्मर बेटी-दमाद के नेउता हम्मर पोता के छठियार में नै जात, ई हमरा से बरदास नै हो सके हे । बाप रे बाप ! ई कैसन कुलच्छनी हम्मर घर में ढुक गेल कि हम्मर कुल-परिवार के पराया समझे हे !!

कि दाल-भात में ऊँट के ठेहुन बन के सोहनी चाची आ विराजलन आउर 'पूछ नै ताछ, हम दुलहिन के चाची' बन के बोल उठलन –

ठीके तो कहऽ हथिन भुनेसर के माय ! बाप रे बाप ! करकस्सा होवऽ हे तो ऐसन । कुल-परिवार आउ अप्पन नाता-गोता के जे कलमुँहीं नै चिन्हे, ओकरा तो घर से निकास देवे के चाही । बस, धधकल आग में घी पड़ गेल । लियो-लियो बोल देला पर कुतवो लड़े लगऽ हे, आदमी के कौन ठिकाना ! सास-पुतोह कमर कस के मैदान में आ गेलन, एक दूसर के बखिया उघाड़े लगलन । भाय-बाप-भतीजा के सराध होवे लगल, दुन्नो के कुल में कालिख पोताय लगल । गाली-गलौज के नाली के सड़ाँध से भला आदमी के नाक फटे लगल ।

हल्ला-गुल्ला सुन के भुनेसर आ जुमलन । माय के मुँह से निकलल गारी ओकर काने से टकरा गेल । ऊ समझलक कि सब कसूर माय के हे । मौका देख के भुनेसर के बहू विलाप कर के छाती पीटे लगल । भुनेसर 'नै आव देखलक नै ताव', उठौलक डंटा आउ माय के पीठ पर तड़ा-तड़ बजावे लगल । कैसे तो भुनेसर के लँगोटिया यार लोहा सिंह पहुँच गेल आउ डंटा छीन के छप्पर पर फेंक देलक आउ डाँट-फटकार के ओकरा बाहर लैलक, नै तो बुढ़िया उहँइँ ढेर हो जइतै हल । भुनेसर बहू कोठरी में जाके दुबक गेल आउर उहँइँ सुबकते रहल ।

करे के तो करिये गुजरल, मुदा भुनेसर के ई बात के बड़ी कचोट हे । गुस्सा बहुत चंडाल होवे हे । बाद में जब ओकरा ई मालूम होल कि कसूर खाली माये के नै हे आउर गारी देवे में दुन्नो पलड़ा बराबर हल, तो ओकरा एक साथ हजार बिच्छा डंक मारे लगल ।

भुनेसर के माय दरद-पीरा से कानते-रोते आउ ई कहते रामलखन बाबू के इहाँ जा रहल हे कि 'हाय ! भुनेसरा के ओढ़नी के बयार लग गेल ! हम ई जनतियो हल रे छौंड़ा, कि तूँ हमर ई हाल करमे तो सउरिये में नून चटा देतियो हल । निपुतरी रहतूँ से अच्छा । निगोड़ी नीमक पढ़ के खिला देलक हे भुनेसर के, तबे न ऊ ऐसन बेदरदा निकलल ! मरदाना मर गेला तो हम केतना दुख उठा के आउर केतना जतन से ओकरा पाललूँ-पोसलूँ आउ खेत गिरमी रख के बिआहो कर देलूँ ! ऊ हम्मर नै होल !

रामलखन बाबू भुनेसर के गोतिया हथिन । सौ सवा सौ चास-वास हन । बाग हन, बगीचा हन । गाँव के मुखिया ओही चुना हथ । समाजवादी देस भारत में अबहियो पद-परतिष्ठा अमीरे के मिलऽ हे । गरीबो के कहियो नसीब होत, ई तो भवानी जानथिन !

बुढ़िया जा पहुँचल ड्योढ़ी पर । रामलखन बाबू चौकी पर बैठल हलन । देख के बुढ़िया लोर ढारे लगल आउर फिर अँचरा से लोर पोछ के बोलल - देखऽ बड़का बाबू, निगोड़ा भुनेसरा मेहरी के कहना में हमरा बड़ी मार मारको हे, दरद से हम बेहाल हो रहलियो हे । तोहर दरबार में केस करऽ हियो । ओकरा ऐसन सजाय दऽ कि ओकरा छठी के दूध इआद आ जाय । हाय राम ! छछात कलजुग कि भठजुग आ गेल बड़का बाबू !

आयँ ! भुनेसर मारको हे तोहरा ? देखियो कने मारको हे । बुढ़िया पीठ उघार के देखा देलक । बाप रे बाप ! दाग उखड़ल हो । ई अनियाय ! ई जुलुम ! भुनेसरा तो खानदान के नाम डुबा देलक । आउर एकरा में जिला-जेवार के भी नामहँसी हे । हम ई जुलुम नै बरदास कर सकऽ ही । हम भुनेसरा के आझे जात से खारिज करऽ ही । आझ से हुक्का-तमाकू बन्द ।

आयँ ! की बोलला बड़का बाबू ? जात से खारिज ? हुक्का-तमाकू बन्द ? वाह रे ! कौन बेटा जनमल हे हम्मर बेटा के हुक्का-तमाकू बन्द करे वाला ? कि ओकरा मुँह में कारिख लगल हे ? कुल में कउनो दाग लगल हे, जे कोय मोछकबरा भुनेसरा के हुक्का-तमाकू बन्द कर देत ? एतने बात हे कि हमरा दू डंटा मार बैठल । हमरा बेटा हे, तब नै मारलक ! जे निगोड़ा-निगोड़ी के 'न आगे नाथ न पाछे पगहा' है, ओकरा के मारतै ? ले, देखऽ इन्साफ । रहे दऽ अप्पन इन्साफ ! बेटवा हमरे, पुतोहियो हमरे । रखऽ अप्पन नियाव, हम अप्पन घर जाही ।

रामलखन बाबू हक्का-बक्का । ड्योढ़ी के कोना में खड़ा भुनेसर आउर भुनेसरबहू सब सुन रहल हल । घर जाके माय के हरदी-चूना भुनेसर लगावे लगल आउ बहू गोड़ में कड़ुआ तेल लगवे लगल ।

["इंटरमीडिएट मगही गद्य-पद्य संग्रह (भाषा आउ साहित्य)" (1984), बिहार मगही अकादमी, पटना, पृ॰ 5-8 से साभार]

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