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Friday, December 31, 2010

18. पगली

कहानीकार - वासुदेव प्रसाद

टीसन के एकांत सुनसान जगह में एगो बुढ़िया बराबर देखाई पड़ऽ हल । ऊ अपने-आप कुछ बुदबुदाइत रहऽ हल । लइकन ओकरा पर बराबर ढेला-ढुकुर फेंकित रहऽ हलन । बुढ़िया ओखनी पर झुंझुआइत लाठी लेके ओखनी के खदेड़े लगऽ हल ।

केकरो से ऊ कुच्छो न बोलऽ हल आउ न कुछ मांगबे करऽ हल । राह चलते रहगीर भले कुच्छो ओकरा दे दे हलन । कउनों-कउनों खाय के बाद बचल-खुचल जुट्ठा ओकरा देके आगे बढ़ जा हलन । हम ओकरा उहाँ बइठल देखऽ हली जरूर, बाकि हम्मर धेआन ओकरा पर जयबे न करऽ हल ।

एक दिन हम ओही राह से गुजर रहली हल । एगो दोसर अदमी हमरा से आगे-आगे चल रहल हल । बुढ़िया ओकरा देख के अप्पन मोटरी-गेठरी उठाके चले ला चाहलक । ई देख के हम्मर कान खड़कल आउ हम्मर मन में सवाल उठ खड़ा भेल । हम सोचे लगली कि का बात हे एकरा में ? बुढ़िया एकरा देख के भागल काहे चाह रहल हे ? हम ई बात के जाने ला ऊ अदमी से पूछ बइठली - 'तोरा देख के बुढ़िया भागल चाह रहल हे, का बात हे एकरा में भाई ?'

ऊ हमरा से उपेच्छा भरल बात बोलल - 'नऽ, कउनो खास बात न हे एकरा में ।'

हम्मर मन में संका उभरे लगल । हम कुतूहल से फिन पूछ देली -'एकरा में खास बात तो जरूरे बुझा रहल हे भाई ! काहे कि आउ केकरो देख के ई न भागे, बाकि तोरा देख के काहे भागल चाहऽ हे ?'

लचारी में उनखा अप्पन मुँह खोलहीं पड़ल । बड़ी (मन) मसोस के ऊ कहलन -'का कहिओ भाई साहेब ! कहे में कइसन तो लगऽ हे, बाकि अपने पूछ रहलऽ हे, त बतावहीं पड़ रहल हे । बात अइसन हे कि बुढ़िया हमरे बगले के गाँव के हे । आझो एकर भरल-पूरल परिवार हे । सभे परिवार बेस तरह से खा-पी रहलन हे । बुढ़िया के मरदाना अलख रेलवे में नोकरी करऽ हल ।'

'नोकरी करऽ हल रेलवे में !' हम जरी चकचेहा के बोलली ।

'हँ भाई, हम झूठ काहे ला बोलम । बुढ़िया उहईं रहऽ हल अलखे के साथे । ऊ घड़ी बड़ी देखनगर हल ई । बड़ी मौज-मस्ती में एकर दिन कटऽ हल । ई अप्पन मरद के साथे रेलवे पास पर देस के मुख-मुख सहर में घुमियो लेलक हे । एकर सभे लइकन उहईं पलयलन-पोसयलन । अलख चार-पाँच बरिस पहिले नोकरी से रिटयर हो गेलन । रिटायर होवे के बाद घरे चल अयलन । रिटायर होवे के बाद बेस पइसा मिलल हल । ओकरे से इनखर बेटन कारबार फैला लेलन हे आउ जरो-जमीन खरीद लेलन हे । एखनी के मकानो देखे लायक हे गाँव में । आझो कुछ कमी न हे एखनी के घर पर ।'

हम बीचहीं में टोक देली उनखा -'तऽ ई इहाँ अइसन हलत में काहे पड़ल हे ?'
'ओहे तो बता रहलिओ हे, भाई ! एकरा चार बेटा हथ । सभे मुस्तंड, कमाए धमाए ओलन । सादी-बिआहो हो गेल हे सभे के । सभे बाल-बच्चेदार हथ । चारो अब जुदा भे गेलन हे, बाकि एक बात जरूर हे एकरा में ।' दबल जबान से बोललन ऊ ।

'कउन बात ?' हम जरी जोर देके पुछली ।

'बुढ़िया के चारो पुतोह लड़ाकिन हथ । हर-हमेसे ऊ सब एकरा साथे टंटा पसारले रहऽ हलन । कउनो बेटन के धेआन नऽ हल एकरा पर । उल्टे ओखनी एकरे उल्लु-दुयू करइत रहऽ हलन, डाँट-फटकार सुनावइत रहऽ हलन । कहिनों भर-पेट खाय ला न मिलऽ हल बेचारी के । कभी-कभार डंडो खाय पड़ऽ हल । बुढ़िया के जे आधा पेंसन ओला पइसा मिलऽ हल, ओखनियें झटक ले हलन । चाहो पानी ला पइसा न रहऽ हल एकरा किहाँ ।' एक्के साँस में बोल गेल ऊ ।

'अइसन बात ! हो सकऽ हे भाई ! जमाना के अइसने हवा हे ।' हम कबीरदास के बोली में बोलली ।

ऊ आगे बतौलन - 'एक दिन सांझ के एगो ममूली बात पर बुढ़िया के बेस ठोकाई कैलन लोग । माथा में चोट आ गेल आउ दहिना कान के ऊपर ओला चमड़ा थोड़ा सा फटिओ गेल, जेकरा से खून बहे लगल । बाकि केकरा परवाह हल बुढ़िया के दसा पर । सभे अप्पन-अप्पन रंग में रंगल हलन ।

बुढ़िया कइसहूँ रात काटलक । भोरे ओकरा पर केकरो नजर नऽ पड़ल । तहिना से ई इहईं पागल होके पड़ल हे । अब एकर हालत देखइते ह अप्पन आँख से । इलाका के कउनो चीन्हल-जानल अदमी पर जब एकर नजर पड़ऽ हे, तब ई कटल चाहऽ हे ओखनी से ।' आँख में लोर भर के बोललन ऊ ।

सभे बात हम्मर समझ में आ गेल । हम अप्पन मने में सोचे लगली -'कइसन जमाना आ गेल हे कि अप्पन पेट काट-काट के, देह सुखा के अप्पन बुतरुअन के लोग पालऽ-पोसऽ हथ । ओकर ई नतीजा हे ? भविस में आउ का होयत, से एकरे से साफ जाहिर हो रहल हे । लगऽ हे कि आगे अन्हार आउ बढ़वे करत ।'

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१६, अंक-३, मार्च २०१०, पृ॰१६-१७ से साभार]

Saturday, December 25, 2010

बिहार के प्रथम फिल्मकार और मगही फिल्म के निर्माता गिरिश रंजन

dated: 16-09-2010
[ इसी साक्षात्कार के कुछ उद्धृत अंश -

प्रश्न. आपकी पहली फिल्म कौन सी थी ?

उत्तर. मैंने पहली फिल्म बनाई मगही में जिसका नाम था “मोरे मन मितवा” l कुल मिला कर मगही में दो ही फिल्म बनी है l

प्रश्न. बिहार के सामान्य ज्ञान की किताबों में आपकी चर्चा बिहार के प्रथम फिल्मकार के रूप में है l क्या इससे आपको गर्व महसूस नहीं होता है?

उत्तर. जी, मैंने तो किताब ही नहीं देखी है, आप बता रहे हैं तो मुझे अभी पता चला l बिहार में फिल्म का इतिहास बहुत पुराना है, मैं ये क्रेडिट लेना नहीं चाहता l ऐसी बात नहीं है l राजा द्रोण ने 1934 में फिल्म बनाई, उसके बाद मैंने फिल्म बनायी l ये अलग बात है कि उनकी फिल्म और मेरी फिल्मों में आसमान जमीन का अंतर है l
..................

प्रश्न. इन दिनों बिहार में भोजपुरी फिल्में काफी बन रही हैं l उन फिल्मों की गुणवत्ता के बारे में आपकी क्या राय है ?

उत्तर. बोगस है l भोजपुरी फिल्में लोग पंजाब में, हरियाणा में देखते हैं क्योंकि उनका अपना लगाव है लेकिन इनको standardise नहीं किया जा रहा l मैंने कहीं पढ़ा है कि लगभग 200 फिल्में बनती हैं भोजपुरी भाषा में एक साल में l लेकिन अगर यही फिल्में बिहार में बने तो बिहार के कलाकार, बिहार के टेक्नीशियन सारे लोग अपनी पहचान बनाने में सक्षम होंगे l लेकिन उनका स्तर अभी बहुत ही घटिया है l अभी क्षेत्रीय फिल्मों, जैसे बांग्ला, तमिल, तेलगु का स्तर ग्रहण करने में बहुत वक्त लगेगा l]

करियर और अपनी संस्कृति को अलग नहीं कर सकता: गिरीश रंजन

Interviewer: राजेश कुमार
Interviewee: गिरीश रंजन

(15 जून, 1934 ई. को पंछी, शेखपुरा में स्व. अलख नंदन प्रसाद जी के घर बालक गिरीश रंजन का जन्म हुआ l छ: भाई-बहनों में सबसे बड़े गिरीश रंजन ने इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद ही फिल्मों की दुनिया को अपना कैरियर चुना l प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे, मृणाल सेन, तरुण मजूमदार, तपन सिन्हा आदि के साथ काम करते हुए उन्होंने सफलता की बुलंदियों को छुआ l सन् 1975 में गिरीश रंजन ने ‘डाक बंगला’ फिल्म का निर्माण एवं निर्देशन किया जिसे ‘बेलग्रेड फिल्म फेस्टिवल’ में आधिकारिक प्रविष्टि मिली l 1978 में इनकी फिल्म आई ‘कल हमारा है’ जो पूरी तरह बिहार के कलाकारों एवं तकनीशियनों के सहयोग से बनी फिल्म थी l मूलतः डाक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाने वाले गिरीश रंजन बिहार की भूमि एवं संस्कृति को पूर्णत: समर्पित हैं l ‘वि रासत’ एवं ‘बिहार इतिहास के पन्नों में’ इनकी चर्चित डाक्यूमेंट्री फ़िल्में हैं l बिहार के प्रति इनका लगाव इस कदर है कि पैसा और ग्लैमर भी इन्हें मुंबई नहीं खींच पाया l सुधि पाठकों के समक्ष गिरीश रंजन जी से राजेश कुमार की बात-चीत प्रस्तुत हैl)

प्रश्न. आपका फ़िल्मी जीवन काफी लंबा है l जीवन के इस पड़ाव पर आप कैसा महसूस करते हैं ?

उत्तर. एक लंबे दौर से फिल्म निर्माण से मैं जुड़ा हुआ हूँ और उसके बाद जिन्दगी की बात जब सोचता हूँ, खाता हूँ, पीता हूँ, तो फिल्म की ही बात सोचता हूँ, सोता हूँ तो फिल्म में ही सोता हूँ और भगवान ने अगर शक्ति दी तो और भी फ़िल्में बनाऊंगा l

प्रश्न. क्या आप अपने जीवन, अपनी फ़िल्मी कैरियर से संतुष्ट हैं ?

उत्तर. हाँ बिल्कुल, इसमें कोई दो मत नहीं है l

प्रश्न. क्या वजह थी फिल्मों के प्रति आकर्षण का ? क्या आपने ग्लैमर और पैसे की ललक में फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश किया ?

उत्तर. नहीं ऐसी बात नहीं है l देखिये, जिस जमाने में मैंने फिल्म ज्वाइन किया था, फिल्म से मैं जुड़ा था, उस जमाने में फिल्म दो लाख की बनती थी और अच्छी फ़िल्में बनती थी l पैसे की ललक ने हमको बहुत ज्यादा आकर्षित नहीं किया l उसका कारण यह है कि देखिए मै एक अत्यंत ही भावुक किस्म का आदमी हूँ l शायद इसका कारण, मेरा पारिवारिक परिवेश भी हो सकता है; हमने अपने पिताजी को मात्र 16 वर्ष की उम्र में खो दिया l बड़ी कठिनाइयों के बावजूद पढ़ाई-लिखाई हुई l अगर एक संवेदनहीन व्यक्ति है तो वो रचनाकार हो ही नहीं सकता है l मेरे पास यही साधन है कि मैं बहुत ही संवेदनशील इंसान हूँ l और मैं एक–एक फिल्म को देख करके अत्यंत ही द्रवित होता था, रोता था सिनेमा हॉल में बैठकर के आंसू पोंछता था और तब मुझे लगता था कि मेरे अंदर की जो संवेदनाएं हैं उन्हें अंतत: अगर अभिव्यक्ति मिल सकती है तो उसका एकमात्र माध्यम सिनेमा ही है l

प्रश्न. क्या हम आपके इस तर्क से यह स्थापना दे सकते हैं कि भावना एवं कला में अन्योन्याश्रय संबंध है ?

उत्तर. जैसा कि मैंने कहा कि एक संवेदनहीन व्यक्ति है तो वह कभी कलाकार नहीं बन सकता, दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं l अब इस पर निर्भर करता है कि आप किन विधाओं में अपनी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं l

प्रश्न. आपने सत्यजीत रे के साथ काम किया है, जो बड़े महान फिल्मकार है, उनको ऑस्कर अवार्ड से भी नवाजा गया है l इनके अलावा आपने और किन-किन फिल्मकारों के साथ काम किया है ?

उत्तर. मेरा यह सौभाग्य रहा है कि उन दिनों के गिने- चुने topmost फिल्मकार थे उनके साथ काम किया है l सत्यजीत रे के अलावा मृणाल सेन, तपन सिन्हा, ऋषिकेश मुखर्जी, तरुण मजुमदार, राजेन्द्र दा इत्यादि महान फिल्मकारों के साथ काम करने का अवसर मिला है l

प्रश्न. आपने बहुत सारे अच्छे-अच्छे फिल्मकारों के साथ काम किया जैसे सत्यजीत रे, मृणाल सेन आदि l उस जमाने के फिल्मकार और आज के फिल्मकारों में क्या अंतर महसूस करते हैं ?

उत्तर. दृष्टीकोण का फर्क है l बांग्ला फिल्मों को छोड़े हुए एक अरसा गुजर गया लेकिन मेरी अपनी अनुभूति यह कहती है कि आज जब मैं बांग्ला फिल्मों को देखता हूँ तो बहुत ही स्तरहीन फ़िल्में दिखाई पड़ती हैं l और वह अच्छा नहीं है l क्यूँ ऐसा हो गया ? फिल्म की एक सबसे बड़ी बात यह है कि फिल्म एक बहुत ही costly मीडिया है l यह कथाकारों की तरह या चित्रकारों की तरह नहीं कि कैनवास लाया और उसे रंगों में सजा दिया l फिल्म में तो लाखों-लाख रुपया लगता है l और जब तक कि आपकी पटकथा बहुत तगड़ी और अच्छी न हो तब तक फिल्म के चलने और न चलने के बीच की जो दुविधा है वह दुविधा बरक़रार रहती है और आदमी compromise करता है और compromise करके हल्की फ़िल्में बनाता है ताकि गंभीर चिंतन की आवश्यकता दर्शकों को न हो l यही कारण है कि फिल्म का स्तर गिरता चला जाता है l

प्रश्न. साठ-सत्तर के दशक में अधिकतर कलात्मक फिल्में बना करती थीं लेकिन आज इक्कीसवी सदी में जो फिल्मे बन रही हैं उन पर तकनीक काफी हावी होता जा रहा है l आप क्या ये महसूस करते हैं कि तकनीकी विकास ने कलात्मक पक्ष को कहीं पीछे छोड़ा हैं ?

उत्तर. नहीं, मैं तो उल्टा ही कहूँगा कि तकनीकी विकास एक कलाकार की पूरी जो दृष्टि है उसे अच्छी तरह जागृत करती है l उसका कारण है l अगर तकनीक की बात करें तो आप महाभारत सीरियल को ही ले लीजिए l आज आप भले ही उसे DVD पर देख लें लेकिन जिस समय यह धारावाहिक छोटे परदे पर आ रहा था पूरा शहर वीरान हो जाता था l आज भी अच्छी फिल्में बन रही हैं जैसे अभी मैंने परसों ही देखा है ‘पीपली लाइव’ लगा कि एकदम ही सामाजिक फिल्म है l अगर आपने नहीं देखा है तो देख लीजिए कि कैसे ग्रामीण कलाकार, नए-नए लोग हैं और अच्छी फिल्म बनी है l तो विषयों का जो चुनाव है, यह दुर्भाग्य है हमारा कि हम ग्लैमरस फ़िल्में ज्यादा बनाते हैं, बनाते रहेंगे लेकिन कुछ फ़िल्में अभी भी हैं जो बढ़िया, अच्छी बन कर के आ रही हैं l तो जहाँ तक तकनीक का जो प्रश्न है, यह तकनीक अच्छी तरह से इस्तेमाल करने के बाद वह फिल्म में चार-चाँद लगा देता है l

प्रश्न. आज के फिल्मकारों में कौन फिल्मकार या कौन कौन सी फिल्मों से आप बहुत प्रभावित महसूस करते हैं ?

उत्तर. देखिए, ऐसा है कि नाम तो मै बहुत भूलता हूँ लेकिन जैसे WEDNESDAY फिल्म आई थी, आप उस फिल्म को देखें, बहुत ही अच्छी फिल्म बनाई है l इसी तरह से “रंग दे बसंती”, फिर हॉकी पर जो फिल्म बनी “चक दे इंडिया” ये सब कितनी अच्छी फिल्में हैं l इस तरह से और भी हैं l अंत में “पीपली लाइव” को देख लीजिए आप, बहुत अच्छी फिल्म बनाई है l

प्रश्न. आपकी पहली फिल्म कौन सी थी ?

उत्तर. मैंने पहली फिल्म बनाई मगही में जिसका नाम था “मोरे मन मितवा” l कुल मिला कर मगही में दो ही फिल्म बनी है l

प्रश्न. बिहार के सामान्य ज्ञान की किताबों में आपकी चर्चा बिहार के प्रथम फिल्मकार के रूप में है l क्या इससे आपको गर्व महसूस नहीं होता है?

उत्तर. जी, मैंने तो किताब ही नहीं देखी है, आप बता रहे हैं तो मुझे अभी पता चला l बिहार में फिल्म का इतिहास बहुत पुराना है, मैं ये क्रेडिट लेना नहीं चाहता l ऐसी बात नहीं है l राजा द्रोण ने 1934 में फिल्म बनाई, उसके बाद मैंने फिल्म बनायी l ये अलग बात है कि उनकी फिल्म और मेरी फिल्मों में आसमान जमीन का अंतर है l

प्रश्न. आपने डाक्यूमेंट्री फिल्में भी बनाई हैं जैसे विरासत, बिहार इतिहास के पन्नों में, आदि l इन सब में बिहार की संस्कृति पर काफी जोर दिया गया है, कोई खास वजह ?

उत्तर. बिहार मेरी जन्मभूमि है और बिहार के प्रति मेरे मन में असीम श्रद्धा है l बिहार को जानने की और सम्पूर्ण रूप से समझने की इच्छा रही है मेरी l मैं बहुत जानना चाहता हूँ लेकिन मैं फिल्मकार हूँ l मैं फिल्में बनाता हूँ ताकि अपनी भावनाओं को उसमें सामाहित कर सकूँ और दूसरे के ह्रदय में उसे प्रविष्ट करूँ l यही मेरा उद्देश्य रहा है l आज का युवा, आज का नौजवान कितना है जो बिहार की संस्कृति को जानता है l बिहार की ऐसी बहुत सारी बातें हैं, संस्कृति है जो बिहार के विद्वानों ने किताबों में लिख दी लेकिन कुछ ही लोग उस तरह की किताबें पढ़ते हैं जिनसे कि उन्हें बिहार की थोड़ी-बहुत जानकारी हो l जैसे कि दिनकर जी ने संस्कृति के ऊपर जो किताब लिखी है आप अगर उनकी इस किताब के कुछ पन्नों को रोज पढ़ें तो आप भारतीय संस्कृति को जान पायेंगे l मैंने यही प्रयास अपनी फिल्मों के माध्यम से किया है ताकि आप कम से कम समय में अपनी संस्कृति को जान सकें l

प्रश्न. आज के युवा जो मध्यमवर्गीय परिवार या जो निम्नवर्गीय परिवार से आते हैं, वो अपने करियर की समस्या से जूझ रहे हैं l ऐसे में इतिहास की, संस्कृति की क्या प्रासंगिकता है उनके लिए ?

उत्तर. देखिए करियर अपनी जगह है l अगर सिर्फ करियर है तो फिर आप शादी-ब्याह में लोक-गीत क्यों गाते हैं ? फिर आप शादी-ब्याह या कोई भी तीज-त्यौहार हो तो आप क्यों नाक से लेकर मांग तक सिंदूर लगा करके उत्सव मनाते हैं l ये कब कहा गया कि आप अपनी संस्कृति को मत जानिए l तो कल को आप ये कहेंगे कि मैं सिर्फ मैं ही हूँ, मैं अपने बाप को क्यों जानूँ, अपने दादा को क्यों जानूँ, अपने परदादा को क्यों जानूँ ? ये तो कोई बात ही नहीं हुई l ऐसी स्थिति में अपनी संस्कृति संरक्षित करने की जरुरत है l जैसे संस्कृत लुप्तप्राय है वैसे ही संस्कृति भी लुप्त हो जायेगी l ऐसे में आज के युवा का यह दायित्व है कि वो इस बारे में जाने l हम क्या कर सकते है, हमने फिल्म बना दिया, आपके सामने रख दिया, लो देखो और जानो l

प्रश्न. आपने बिहार को ही अपनी कर्मभूमि के रूप में क्यों चुना ?

उत्तर. क्यों भाई, हर आदमी मुंबई ही चला जाये, कोई जरुरी है l मुंबई में जो करोड़ों-करोड़ की फिल्में बन रही हैं उन फिल्मों में मैं कहाँ हूँ ? मैं तो विडियो पर फिल्में बनाता हूँ जिसे लोग देखते हैं l सरकार के लिए फिल्में बनाता हूँ, सरकार जिसे PRO के माध्यम से कॉलेजो में, पंचायतों में दिखाते रहते हैं l अब इससे कौन कितना ग्रहण करता है यह तो हरेक व्यक्ति की अपनी बौद्धिकता पर निर्भर करता है l

प्रश्न. कहा जाता है कि किसी भी उद्द्योग का विकास बाजार के आस-पास होता है l फिर हिंदी फिल्मों के लिए तो बाजार बिहार और यूपी जैसे क्षेत्र हैं, किन्तु फिर भी हिंदी फिल्मों का विकास मुंबई में क्यों हुआ वह तो हिंदी-भाषी क्षेत्र भी नहीं है ?

उत्तर. दादा साहेब फाल्के ने जो फिल्म बनाई थी उन्होंने मराठी में क्यों नहीं बनाई थी, पहली फिल्म भी उन्होंने “राजा हरिश्चंद्र” हिंदी में ही बनाई थी l यह बिहार का दुर्भाग्य है, उत्तर प्रदेश का दुर्भाग्य है कि यहाँ के लोग जो भी हुआ बम्बई भाग गए और सरकार ने भी कभी भी film development corporation की स्थापना की कोशिश नहीं की l

प्रश्न. इन दिनों बिहार में भोजपुरी फिल्में काफी बन रही हैं l उन फिल्मों की गुणवत्ता के बारे में आपकी क्या राय है ?

उत्तर. बोगस है l भोजपुरी फिल्में लोग पंजाब में, हरियाणा में देखते हैं क्योंकि उनका अपना लगाव है लेकिन इनको standardise नहीं किया जा रहा l मैंने कहीं पढ़ा है कि लगभग 200 फिल्में बनती हैं भोजपुरी भाषा में एक साल में l लेकिन अगर यही फिल्में बिहार में बने तो बिहार के कलाकार, बिहार के टेक्नीशियन सारे लोग अपनी पहचान बनाने में सक्षम होंगे l लेकिन उनका स्तर अभी बहुत ही घटिया है l अभी क्षेत्रीय फिल्मों, जैसे बांग्ला, तमिल, तेलगु का स्तर ग्रहण करने में बहुत वक्त लगेगा l

प्रश्न. नब्बे के दशक में ग्लोब्लाइजेशन का दौर आया इसका बिहार की अर्थवयवस्था के साथ-साथ समाज और संस्कृति पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा, इसे किस रूप में आप देखते हैं ? क्या ये अच्छा प्रभाव है या बुरा प्रभाव है ?

उत्तर. बिहार का जहाँ तक सवाल है- आप पर दूसरी संस्कृति का प्रभाव क्यों पड़ता है ? दूसरी संस्कृति का प्रभाव तभी आप पर पड़ता है जब आप, आपकी संस्कृति, कमजोर होती है l आज आप बांग्ला संस्कृति पर पंजाबी संस्कृति का प्रभाव नहीं देखते लेकिन बिहार में सबसे पहले देखते हैं l यहाँ शादी में भी भांगड़ा टाइप का नाच करते हैं l मुझे ये लगता है कि चुकि हम अपनी संस्कृति को नहीं जानते हैं और उसकी गहराई में पहुंचना नहीं चाहते हैं इसलिए हम छिछले हैं; हम पर दूसरी संस्कृतियाँ जो इतनी हल्की होती हैं हम पर हावी हो जाती हैं l

प्रश्न. आप हमें अपनी भावी योजनाओं के विषय में कुछ बताइए ?

उत्तर. बिहार से तो जुड़ा हुआ हूँ मैं और मेरी सारी योजनाएं भी, चाहे वो डाक्यूमेंट्री हो या फीचर फिल्म सब बिहार से जुड़ीं होती है l एक फिचर फिल्म की भी योजना मैं बना रहा हूँ l राजा राधिका रमन की कहानी पर आधारित फिल्म की पटकथा तैयार है, बस फाइंनेसर की तलाश है, मिल जाये तो काम शुरू करूँगा और उसमें यही मेरी शर्त है कि सारे कलाकार और तकनीशियन बिहार के ही हों और यह पूरी फिल्म बिहार की हो l

प्रश्न. जो युवा आज फिल्म की दुनिया में प्रवेश करना चाहते हैं उन्हें आप क्या मार्गदर्शन देना चाहेंगे ?

उत्तर. बिहार के युवा को अपनी संस्कृति का ज्ञान होना चाहिए l जब तक आप अपनी संस्कृति को नहीं जानेंगे, उसकी मर्यादा नहीं जानेंगे तब तक आप भटकते रहेंगे l इसलिए आवश्यक है कि आप अपनी संस्कृति अपने इतिहास का अध्ययन करें, आपके पास किताबें है पढ़ने के लिए, जानने-समझने के लिए l नहीं तो फिर वही होगा की दो-चार फिल्मों के बाद आपकी उर्जा समाप्त l

1. घोड़-सिम्मर मुदा घुड़सवार

लेखक - नरेन्द्र प्रसाद सिंह

बिहार से झारखंड के अलग होयला पर बासोडीह आउ सतगामा प्रखंड बनल, जे नवादा जिला के अभिन्न अंग हलइ । झारखंड के भौगोलिक संरचना पठारी हे, जहाँ वनिज आउ खनिज सम्पदा के अकूत भंडार छिपल-पड़ल हे । एकर ऐतिहासिक, सांस्कृतिक आउ पौराणिक पृष्ठभूमि भी अजूबे हे ।

नवादा जिला के छाती पर बहेवला 'सकरी' नदी झारखंड के घोरंजी गाँव से निकसल हे, जे देवरी प्रखंड में पड़ऽ हे । देवरी आउ सतगामा प्रखंड के एगो नाला विभक्त करऽ हे, जेकरा 'दरसनिया' कहल जाहे । 'किउल' मुदा 'कोयल' नदी के उद्गम-स्थल भी एजुने हे, जे 'जमुई-झाझा' से गुजरइत 'किउल-लक्खीसराय' शहर के छुअइत गंगा में मिल जाहे । ई तरह से 'सकरी' आउ 'किउल' नदी के उद्गम-स्थान आसे-पड़ोसे हे ।

'घोड़-सिम्मर' के ऐतिहासिकता पर नजर गड़यला से ढेर मानी पुरनकन बात अइना जइसन लउके लगऽ हे । पुरनकन लोग के कहनाम हे कि झारखंड के समुले दक्खिनी भाग ठाकुर अजीत सिंह के जागीर हल, जे 'गलवाती-घराना' के टिकैत हलन । तखने गलवाती-घराना के राजा के टिकैत कहल जा हल आउ हिनखर निचलौका पीढ़ी के ठाकुर । 'सतगामा-टिकैत' वंशज के टाइटिल 'देव' आउ गलवाती-टिकैत वंशज के टाइटिल 'सिंह' होवऽ हलइ । 'देव' देवत्व मुदा धरम-करम आउ 'सिंह सिंहत्व मुदा बहादुरी के प्रतीक मानल जा हलन ।

ठाकुर अजीत सिंह बड़ कुशल, वीर, बुद्धिमान, नीडर आउ धार्मिक प्रवृत्ति के मानुस हलन । हिनखा में सिंहत्व आउ देवत्व दुनहूँ गुन हल । ई शिव के अनन्य भक्त भी हलन, इहे से घंटो महादेव के अराधना में लवलीन रहऽ हलन । शंकरजी हिनखा वरदान में एगो उड़न्त-घोड़ा आउ सरिता देलन हल, जेकर नाम तखने 'शंकरी' आउ अखने 'सकरी' हे । लोग कहऽ हथ कि ई शिव के पुजला के बाद पहिले घोड़वे के खिलावऽ हलन, तब्बे अन्न-जल ग्रहण करऽ हलन । हिनखर सबसे प्रिय भोजन दूध-दही में पकल-पकावल महुआ होवऽ हलइ, जे पौष्टिकता में भरपूर मानल जाहे ।

मगह में एगो कहाउत खूबे प्रचलित हे - 'बढ़े बंस त घटे प्रीति ।' ठाकुर अजीत सिंह के साथ भी इहे होयल आउ घराना के मान-मरजादा के बचावे खातिर हिनखर वंशज अन्यत्र जाके बस गेलन । फिर कहाउत बनल - 'घटल घटवार त टिकल टिकैत’, मुदा जे टिकैत दोसर-तेसर जगह जाके बस गेलन, ऊ घटवार आउ जे टिकले रहलन, ऊ टिकैत बनल रहलन ।

कहल जाहे कि दशा दसे बरिस रहऽ हे, इहे हाल ठाकुर के साथ भी होयल । तइयो ई शिव के पूजा मरते दम तक नञ् छोड़लन । एक दिन हिनखर मन में शिवलिंग स्थापित करे के प्रेरणा जगल, त बासोडीह के बगले में सकरी नदी के दक्खिनी छोर पर काला प्रस्तर के शिवलिंग स्थापित कर देलन । हिनखे पूर्वज (? वंशज) बाद में इहाँ एगो मंदिर भी बनवैलन । घुड़सवार ठाकुर अजीत सिंह दोआरा स्थापित स्थल के नाम 'घोड़-सेवार' मुदा अपभ्रंश में 'घोड़-सिम्मर' कहल जाहे, जे देखे जुकुर हे । हियाँ के पत्थल पर खुदल अति प्राचीन लिपि आज तलुक नञ् पढ़ल गेल, जेकरा से दर्शक के दरद बढ़ले जाहे । आस-पड़ोस में हजारन के संख्या में देवी-देवतन के क्षत-विक्षत मुरती गिरल-पड़ल हे, जेकरा पर गहन खोज आउ शोध होवे के चाही, तब्बे 'घोड़-सिम्मर' के समझना जादे आसान होयत ।

ठाकुर अजीत सिंह खाली शिवभक्ते नञ्, देशभक्तो हलन । ई अप्पन जागीर के बचावे खातिर आजीवन अंग्रेजवन से लोहा लेते रहलन । तइयो भला होनी के कउन टाल सकऽ हे । एक दिन अकासवानी होयल कि पूजा खातिर सकरी नदी में असनान लागी मत जा, तइयो ई चलिए गेलन आउ अंग्रेज दोआरा पसारल जाल में फँस गेलन । अंग्रेज सिपाही हिनखा सकरी के घाटे पर मौत के घाट दतार देलक आउ नदी के पानी हिनखर खून से लाल रत-रत भे गेल । तखनौ हिनखर करेजा आधा मन के हल, जेकरा देख के अंग्रेज दाँत तर अंगुरी चाँप लेलन हल । हिनखर मउअत के बाद अंग्रेज जागीर पर कब्जा कर लेलक । बहादुर घोड़सवार जेजा मारल गेलन हल, ऊ स्थान 'घोड़-सिम्मर' आझो अप्पन व्यथा कहे ला अकुला रहल हे ।

घोड़-सिम्मर में छितरायल अनगिनत पाषाण के घोराही, मुदा मथानी के अखनौं देखल जा सकऽ हे । एकरा से लगऽ हे कि तखने हियाँ के लोग के मुख्य पेशा पशुपालन हलइ, तब्बे न पत्थल के मथानी दूध से छाछ निकाले में काम आवऽ होयत । नोतन मुदा नो तन के रसरी तो जंगली लत्तर के छिलकोइया से बनावल जा होतइ, जे मथानी आउ खंभा में लपेटल जा होतइ ।

आझो शिवरात के दिन हुआँ चार दिवसीय लमहर मेला लगऽ हे, जहाँ लाखो लोग के जलाभिषेक, पुष्पाभिषेक आउ बेल-पत्र चढ़ाते देखल जा सकऽ हे । घोड़-सिम्मर के सटले 'बेला' गाँव हे जहाँ बेल के बगइचा हलइ, जे ठाकुरे साहेब लगौलन हल । लोक-मान्यता हे कि शिवरात के दिन साच्छात पारवती भी पास के देवरी पहाड़ पर चढ़ के भक्तन के कलियान करे आवऽ हथ ।

चाहे कारन जे रहे, घोड़-सवार ठाकुर अजीत सिंह दोआरा स्थापित शिवलिंग स्थल के घोड़-सिम्मर मुदा घोड़-सवार कहना तनिक्को गलत नञ् हे । एकरा पर्यटन के मानचित्र पर लावे के चाही आउ अति प्राचीन लिपि के पढ़े के चाही, तब्बे ई आलेख में उलझल रहस्य से परदा उठ सकऽ हे ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१६, अंक-१, जनवरी २०१०, पृ॰७-८ से साभार]



Monday, December 20, 2010

46. मगही साहित्य के सूर्य थे मथुरा प्रसाद नवीन

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/bihar/4_4_7048671_1.html
मगही साहित्य के सूर्य थे नवीन
18 Dec 2010, 08:28 pm
बड़हिया (लखीसराय), संसू. : शनिवार को स्थानीय निरीक्षण भवन में मगही के कबीर बड़हिया निवासी मथुरा प्रसाद नवीन की नौवीं पुण्यतिथि के अवसर पर साहित्य सर्जना परिषद के तत्वावधान में स्थानीय स्तर का कवि सम्मेलन सह विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। कवि सम्मेलन की अध्यक्षता बीएनएम कालेज के पूर्व प्राचार्य डा. सत्येन्द्र अरूण ने की जबकि मंच संचालन पूर्व नगर भाजपा अध्यक्ष रामप्रवेश कुमार ने किया। कवि सम्मेलन का उद्घाटन क्षेत्रीय विधायक विजय कुमार सिन्हा ने दीप प्रज्जवलित करके किया। कवि सम्मेलन में उपस्थित लोगों को संबोधित करते पूर्व एडीएम अवधेश नारायण सिंह ने कहा कि नवीन जी में दैवीय शक्ति थी। उनकी कविता स्वत: स्फूर्त हुआ करती थी। मौलिकता ही उनकी पहचान थी। उन्होंने तत्कालीन परिस्थिति के आधार पर अनेक कविताएं लिखी। सहित्यकार डा. सत्येन्द्र अरूण नें मथुरा प्रसाद नवीन जी को मगही साहित्य का सूर्य बताते हुए कहा कि नवीन जी ग्रामीण समस्याओं पर हमला बोलते हुए हमर गांव हो आला बबुआ हमर गांव हो आला, बेटा हो बंदूक उठइले बाप जपो हो माला..आदि कविता के माध्यम से प्रकाश डाला था। इस अवसर पर राममूरत कुमार, डा. रामानंद सिंह, महिला महाविद्यालय के प्राचार्य डा. मुरलीधर सिंह, अरूण कुमार सिंह, विभूति सिंह, सागर सिंह, सुरेन्द्र प्रसाद सिंह, शंकर कुमार, डा. शिवदानी सिंह, संजय कुमार सिंह आदि उपस्थित थे।

Saturday, December 11, 2010

45. मार्च में आयोजित होगा प्रथम मगही महोत्सव

मार्च में आयोजित होगा प्रथम मगही महोत्सव
06 Dec 2010, 10:04 pm
शेखपुरा : राज्य में मगही भाषा को उचित सम्मान दिलाया जायेगा। इसी योजना के तहत पटना में मार्च महीने में राज्य स्तर का पहला मगही महोत्सव मनाया जायेगा। यह घोषणा रविवार को जिले के शेखोपुरसराय प्रखंड के महबतपुर गांव में आयोजित मगही कवि सम्मेलन में बिहार मगही अकादमी के अध्यक्ष उमाशंकर शर्मा उर्फ कवि जी ने की। कवि जी जिला मगही मंडप द्वारा आयोजित मगही कवि सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में आये थे। समारोह की अध्यक्षता मगही कवि मिथिलेश जी ने की। इस अवसर पर प्रथम सत्र में मगही अकादमी के अध्यक्ष का नागरिक अभिनंदन किया गया तथा दूसरे सत्र में कवि सम्मेलन आयोजित की गयी। अगहन महीने की ठंड के बीच मगही कवि सम्मेलन आधी रात एक बजे तक चला। जिसमें मगही कवियों ने अपनी रचनाओं ने वर्तमान सामाजिक व्यवस्था से लेकर प्रशासन में क्रियाकलाप तथा राजनीतिक की दिशा-दशा पर प्रहार किया। इस सम्मेलन में शेखपुरा, नवादा, नालंदा, गया, पटना जिलों से आये करीब तीन दर्जन मगही कवियों ने अपनी रचना पेश की। मगही मंडप की डा.किरण कुमारी पूर्व जिप अध्यक्ष ने बताया कि 10 दिसम्बर से पटना में होने वाले पुस्तक मेले में मगही रचनाओं के लिए एक विशेष स्टाल लगाया जायेगा।