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Saturday, November 14, 2009

12. जरल पर नीमक

लघुकथाकार - डॉ॰ सी॰ रा॰ प्रसाद

स्कूटर पर सवार एगो पति-पत्नी जाइत हलन । पीछे से एगो कार वाला रगड़ते पार हो गेल । दुन्नो फेंका गेलन । स्कूटर डैमेज हो गेल । पति के ठेहुना फूटल, शर्ट-पैंट रगड़ा के फट गेल । पत्नी के सलवार-समीज फट गेल । कमर-पीठ में चोट लगल । खून भी बहइत हल ।

दू गो राहगीर मिल के रोड पर फेंकायल जोड़ी के उठा के सामने वला मंदिर के सीढ़ी पर बइठा देलन । दुन्नो दरद से कराह रहलन हल ।

एही बीच उनकर मोबाइल पर फोन आयल । पति कराहइत फोन रिसीव कैलन - 'हलो !'
'जमीन खरीदे ला बात करे खातिर आज चलबऽ ?'
'न हो पंकज । आज स्कूटर पर हम्मर एक्सीडेंट हो गेलक ।'
'जादे चोट हवऽ का ? आ जइयो ?'
'न हो ! अइसे नाक-थोथुन टूट गेल हे । बाकि आवे के जरूरत न हई ।'
'एही से न कहऽ हिवऽ कि कार खरीद लऽ ! जाड़ा-गरमी-बरसात, हर मौसम में अराम रहतवऽ । दुपहिया में बैलेंस मिलऽ हई ? ठोकर लगते फेंका जयबऽ ।'

घायल पति फोन काट के जेभी में रख लेलक । फोन पर मिलल सलाह जरल पर नीमक जइसन परपराय लगलकातो एम॰बी॰ए॰ पास नौजवान साठ हजार के महीना कमा हे । बाकि कब, कहाँ, का बोले के चाही, ई पढ़ाई कब होयत ?

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१५, अंक-११, नवम्बर २००९, पृ॰१२ से साभार]

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