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Monday, May 28, 2012

58. "मगही पत्रिका" (वर्ष 2002: अंक 8-9) में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द


मपध॰ = मासिक "मगही पत्रिका"; सम्पादक - श्री धनंजय श्रोत्रिय, नई दिल्ली/ पटना

पहिला बारह अंक के प्रकाशन-विवरण ई प्रकार हइ -
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वर्ष       अंक       महीना               कुल पृष्ठ
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2001    1          जनवरी              44
2001    2          फरवरी              44

2002    3          मार्च                  44
2002    4          अप्रैल                44
2002    5-6       मई-जून             52
2002    7          जुलाई               44
2002    8-9       अगस्त-सितम्बर  52
2002    10-11   अक्टूबर-नवंबर   52
2002    12        दिसंबर             44
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मार्च-अप्रैल 2011 (नवांक-1) से द्वैमासिक के रूप में अभी तक 'मगही पत्रिका' के नियमित प्रकाशन हो रहले ह ।

ठेठ मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर पृष्ठ संख्या, चउठा कॉलम संख्या (एक्के कॉलम रहलो पर सन्दर्भ भ्रामक नञ् रहे एकरा लगी कॉलम सं॰ 1 देल गेले ह), आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति संख्या दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (अंक 1-7 तक संकलित शब्द के अतिरिक्त) - 225

ठेठ मगही शब्द:
1    अंगा (= कमीज) ("आ संकर जी ! भूल-चूक माफ करिहऽ । बाबू हो, अब कइसे निकली । ओ हो !! अंगबो फट गेल ।")    (मपध॰02:8-9:39:2.27)
2    अंधरचटकी (मगही साहित्य में नुक्कड़ नाटक लिखा रहल हे । प्रकाशित नुक्कड़ नाटक में प्रो॰ अलखदेव प्र॰ अचल के 'नेता जी के बेमारी', वासुदेव प्रसाद के 'अभियान', डॉ॰ राजदेव प्रसाद के 'अंधरचटकी' हे ।)    (मपध॰02:8-9:15:1.13)
3    अगड़म-बगड़म (खेमावाद-जातिवाद अगड़म-बगड़म सब के किनारे करऽ इया ओकरा सीरा घर में रख दऽ, मगही के प्रचार-प्रसार के बाद जरूरत पड़तो त मूड़ी झुकैते रहिहऽ ।)    (मपध॰02:8-9:5:1.25)
4    अगे (एतना जल्दी का हे बेटा ? एक तो एतना दिन पर अइलें आउ तुरतम्मे जाइ ले कइले हें । अगे सीमा ! तनी भइया लगी खाय परस के लाउ गे । अभी खइवो-पीवो नऽ कइलक आउ पटना जाइ लागी बेदम हे ।)    (मपध॰02:8-9:31:3.18)
5    अधकचरा (पच्छिम के नकल के बाद जे नया अधकचरा संस्कृति उभरल हे ओकरा से शिक्षक के थोड़े आदर कमल हे ।)    (मपध॰02:8-9:6:1.20)
6    अनगिनती (= अनगिनत) (पंडा सरकार एक सो एकामन-एकामन ले के तीनों के पाँच मिनट में फ्री कर देलन । जल लेके मंदिल चल पड़ली । अनगिनती अदमी ... । तरा-उपरि हो रहल हल मंदिल में जाय ले ।)    (मपध॰02:8-9:39:2.13)
7    अनगुत्ता (अनगुत्ता फरीच होतहीं उठली । तीनो गोटा सिवगंग में डुबकी लगावे ल चल देली । सुरूज उगे वला हलन ।)    (मपध॰02:8-9:38:3.12)
8    अनाज-पानी (~ बारना = खाना-पीना छोड़ देना) (ई बात तो पते के कहलहो, बाकि इंदरसेनो बड़ करमठ आउ सच्चा बात लगी खूब संघर्ष करे वाला अदमी हइ । अबरी जहाँ घुरैलहो कि ई अनाज-पानी बार के दुआरी पर बैठ जइतो ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.3)
9    अपनहूँ (= खुद भी; आप भी) (ई सुन के परोफेसर साहेब तुरंते गेट खोल देलन आउ उनखा ला के एगो कुरसी पर बइठौलन । अपनहूँ चउकी पर बइठ के जानकारी लेवे लगलन ।)    (मपध॰02:8-9:27:2.8)
10    आँख (~ में कान) (मंजु माय के टुअर आउ बाप के दुलारी बेटी हल । ओकर बाप चनेसर बाबू आँख में कान ई बेटी पर जान नेउछावर कइले रहऽ हलन ।)    (मपध॰02:8-9:21:1.3)
11    आउ-त-आउ (राजकुमारी के चेहरा उतर गेल हल आउ उ गरीब-गुरुआ नियन देखे में लग रहल हल । हाल जाने पर राजा के मालूम भेल कि उनकर बड़का दमाद गलत ससरंग में पड़के पूरा जमीन-जयजात लुटा देलन । आउ-त-आउ अप्पन राज कहल भी गिरमी रख देलन ।)    (मपध॰02:8-9:24:2.16)
12    आझ (= आज) (शम्मी के पटना अयला महीनों हो गेल हे । आझ ओकर इयाद सता रहल हल काहे कि इधर उ बातूनी भी हो गेल हे आउ आझे ओकर जन्म दिन भी हे ।; आवे वला सुरमई शाम आझ अधिक सुनहला लग रहल हल काहे कि बला के हादसा अनजाने ही टल गेल हल ।)    (मपध॰02:8-9:29:1.25, 27, 30:3.32)
13    इनभरसिटी (= यूनिवर्सिटी) (एक बात जान लऽ कि ई दुनियाँ में जे कुछ भी पावल जाहे, ओकरा लगी बहुत कुछ चुकावे पड़े हे । जे जेतना बड़का चीज पैता, उ ओतने बड़गो चीज चुकैता । भीम के हम मंगनी के दे देलिए हऽ कि ? ओकरे बदौलत तो हम ई लठ के जमाना में इनभरसिटी में राज-पाट कर रहलिये हे । कम-से-कम साल में एक लाख रुपैया तो जरूरे ।)    (मपध॰02:8-9:17:1.31)
14    इरखा (= ईर्ष्या) (कउन छउँड़किन के इरखा नञ् होवऽ होत मंजु से । कउन नउजवान के आँख तर सपना नञ् आवऽ होत मंजु के । बस, गाँव के रीत आउ नाता-गोता के बन्हन उनकर गोड़ बान्हले रहऽ हल, जे से ऊ मंजु दने कोय उरेब कदम नञ् उठावऽ हलन ।)    (मपध॰02:8-9:21:1.18)
15    उख-बिख (बेटी से उरीन होके उनकर मन में चइन नञ् । काहे नञ्, हाथ के खेलउना जे छीन के उड़ चलल मोहन चनेसर बाबू से । किलकते घर अब झात-झात करे लगल हल । हरसल जी उख-बिख करते रहे ।)    (मपध॰02:8-9:21:2.12)
16    उतरवारी (परोफेसर साहब अप्पन कोठरी में बइठ के अखबार पढ़ रहलन हल । एहे बीच उनखर उतरवारी गेट पर आके एगो बाइस-तेइस बरिस के लइका पुकारलक ।)    (मपध॰02:8-9:27:1.14)
17    उलझल (बालक के प्रशंसा आउर आनंद के कल्पित संसार में उलझल माय इया खेलौनियाँ अपन काम ला समय निकाल ले हे ।)    (मपध॰02:8-9:11:1.3)
18    एकामन (= इक्यावन) (पंडा सरकार एक सो एकामन-एकामन ले के तीनों के पाँच मिनट में फ्री कर देलन । जल लेके मंदिल चल पड़ली । अनगिनती अदमी ... । तरा-उपरि हो रहल हल मंदिल में जाय ले ।)    (मपध॰02:8-9:39:2.11)
19    ओइजे (= ओज्जे; वहीं) (कउलेज के शिक्षक के हड़ताल लंबा होल जा रहल हल । बेरोजगार बनल हम्मर मन भी ओइजे भटकल हल । चाय-कॉफी के स्थान लस्सी ले लेलक हल । लस्सी वाला चार रुपये गिलास वसूल रहल हल । जी चाहऽ हल कि एकआध गिलास गड़प जाउँ पर खाली जेब के अइसन बड़गो कुरबानी कयल हमर बस के बात न हल ।)    (मपध॰02:8-9:29:1.16)
20    ओझराना (ऊ देखलक कि मंजु अपन जगहा पर नञ् हे, ओकर बौस भी नञ् दिखलन । मन ओझराय लगल मोहन के ।; पर-परसाद, बर-बद्धी ले के मरते-चुरइते घर अइली । अखनिओ जब बाबाधाम  के इयाद आवऽ हे त मन ओझरा जाहे । सोंचे लगऽ ही - का करी अब ! ... करबइ की, सावन में नञ् जइबइ । दिक्कत-सिक्कत ल तीरिथ छोड़ दे अदमी ।)    (मपध॰02:8-9:23:1.21, 40:1.30)
21    ओढ़ना-बिछौना (ई कागज-पत्तर के साथ ओढ़ना-बिछौना काहे लगी लेले ऐला हे ?)    (मपध॰02:8-9:19:1.4)
22    ओतना (= उतना)  (जेतना ... ओतना) (हमर मन में उनका प्रति जेतना घृणा होवे के चाही ओतना हो रहल हल ।)    (मपध॰02:8-9:30:1.20)
23    औझड़ (मातृ-हृदय वात्सल्य भाव से भरल हे । बच्चा हो-रो के औझड़ पकड़ले हे । ओकरा सुतावे ला मधुर-कंठ से लोरी गावइत हे - " आव गे खुदबुदी चिरइयाँ, बउआ के सुताव । आधा रोटी रोज देबउ, टिकरी महीना ।"; गीत के सुमधुर स्वर संगीत में ऊ मीठा थपकी के सुखानुभूति करे हे । फलतः रोना आउर औझड़ छोड़ के निद्रादेवी के गोद में विश्राम करे लगे हे ।)    (मपध॰02:8-9:10:1.13, 20)
24    कइसउँ (= कइसहूँ; किसी तरह) (समेसर कइसउँ एक हजार रुपइया भेज देलक सुधीर हीं । अइसे खाय-पीये के कोय कमी न हल मुदा जब से समेसर सुधीर के पटना में नाम लिखइलक हल तब से कट्ठा-दु-कट्ठा खेत भी बेचे पड़ गेल हल काहे कि उहे तऽ एगो सहारे हल, नौकरी तऽ हल नञ् ।)    (मपध॰02:8-9:31:3.1)
25    कइसहूँ (= किसी तरह) ("त हमरा अइसन राह बता देल जाय कि हम्मर गुजर-बसर कइसहूँ हो जाय । पेट भरे के जरिया निकल जाय ।" अप्पन मुँह बनाके ऊ बोललन ।)    (मपध॰02:8-9:28:1.31)
26    कइसूँ (= कइसहूँ) (हम्मर सब परीक्षा बढ़ियाँ गेल । पी.टी. आउ मेन्स, अब एगो अन्तिम में औपचारिकता निभावे खातिर तनी पूछताछ करत । फेन हम्मर नौकरी पक्का आउ नौकरी के डिप्टी शुरू हो जात । ई लेल एतना खरच करवे कइलऽ तऽ अबरी भर कइसूँ दस हजार रुपइया के जोगाड़ करके जल्दी भेज दऽ, काहे कि जानवे करऽ हऽ, केतनउ पढ़े में तेज रहला पर दक्षिणा तो देवहीं पड़ऽ हे न ।)    (मपध॰02:8-9:33:3.5)
27    कचूर (हरियर ~) ("अहो ई पनिया हरियर कचूर काहे लगऽ हइ भरोसी ?" रामजीवन चकचेहा के बोलल, "बाप रे ! एतना जमड़ी आउ काय । लगऽ हइ सालों एकर सफाय नञ् होवऽ हइ ।")    (मपध॰02:8-9:38:3.17)
28    कनहूँ (= किधर भी) (हम नोकरी लेल एन्ने-ओन्ने बड़ी दउड़ल चलली, बाकि कनहूँ जोखे न लगल ।)    (मपध॰02:8-9:27:3.14)
29    कमयाबी (= कामयाबी) (रामजीवन आउ हम कोय तरह से आगे बढ़ली । पंडा आउ पुलिस के दसो डंटा पड़ल देह पर । प्रभु के किरपा ! मंदिल में जल फेंके में कमयाबी मिल गेल । चलऽ पार लग गेल ।)    (मपध॰02:8-9:39:2.32)
30    करे-करे (= धीरे-धीरे) (इंदरसेन गोड़ छू के प्रणाम कर के बड़ी हताश भाव से करे-करे चल दे हे ।)    (मपध॰02:8-9:18:1.30)
31    कलउआ (= कलेवा) (घुमते-घामते पहर रात गेले पंडा बाबा हीं लउटली । फेर हाँथ-मुँह धो के बचल-खुचल कलउआ के उधार कइली, तीनो गोटा ।)    (मपध॰02:8-9:38:2.8)
32    कसाय (= कसाई) ("गीता ! हमरा लगे हे दाल में कुछ काला हे । अबरी रुपइया हम नऽ भेजब ।" कुछ सोचइत समेसर बोलल हल । - "अजी तों बाप हऽ कि कसाय ? बेटा के नौकरी लगे वला हे आउ तों कहऽ हऽ, पैसा नञ् भेजब ?" किचकिचा के गीता बोलल ।)    (मपध॰02:8-9:33:3.24)
33    कामर (= काँवर) (परसाल बाबाधाम जाय के मोका मिल गेल । कौल-करार करके भरोसी आउ रामजीवन के भी साथ कइली । सावन के महिन्ना ! कामर ले के सुलतानगंज से जल बोजली ।)    (मपध॰02:8-9:38:1.16)
34    काय (= काई; moss) ("अहो ई पनिया हरियर कचूर काहे लगऽ हइ भरोसी ?" रामजीवन चकचेहा के बोलल, "बाप रे ! एतना जमड़ी आउ काय । लगऽ हइ सालों एकर सफाय नञ् होवऽ हइ ।"; "दुत्तोरी के ! काय रहे इया पिल्लू परल रहे । हमरा की मतलब हे ।" भरोसी लपरवाही से बोलल ।)    (मपध॰02:8-9:38:3.20, 24)
35    किचकिचाना ("गीता ! हमरा लगे हे दाल में कुछ काला हे । अबरी रुपइया हम नऽ भेजब ।" कुछ सोचइत समेसर बोलल हल । - "अजी तों बाप हऽ कि कसाय ? बेटा के नौकरी लगे वला हे आउ तों कहऽ हऽ, पैसा नञ् भेजब ?" किचकिचा के गीता बोलल ।)    (मपध॰02:8-9:33:3.27)
36    किरिया-करम (बड़ बेटी के जवाब हल - तू राजा हऽ आउ हम्मर बाबू जी भी हऽ । तू ही न हम्मर जीवनदाता होलऽ । एने छोट बेटी के जवाब हल कि हम्मर जीवनदाता भगवान हथ जिनकर किरिया-करम से हम्मर जीवन चलऽ हे ।)    (मपध॰02:8-9:24:2.7)
37    किसैनी (डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री 1952 ई॰ में 'नया गाँव' नाम के एगो सामाजिक नाटक लिखलन जेकरा में किसान आउ किसैनी पात्र रूपी पत्रकार के सामने भारत के नवजागरण के झाँकी मगही में पेश करऽ हे ।)    (मपध॰02:8-9:13:2.8)
38    किहाँ (= के यहाँ) ("अपने किहाँ मसौढ़ी तरफ के गुरु बाबा आवऽ हलन न । हम उनखे पोता ही ।" ऊ तेज अवाज में बोललन ।; जादे उनखर खायन-पीअन हमरे किहाँ होवऽ हल । हालाँकि गाँव में ढेर मनी जजमान हलन उनखर ।)    (मपध॰02:8-9:27:2.23, 29)
39    कुआटर (= क्वार्टर) (स्थान: गिरधारी के कुआटर के एगो कमरा । समय: 10 बजे दिन ।)    (मपध॰02:8-9:16:1.21)
40    कुटुम (हम अभी तीन बरिस बेटन के बिआह न करब । दुनु बेटन के भी इहे राय हल । मगर कुटुम रोज-रोज आवइत हल । शुकन दुन्नु बेटन हीं तार भेजलन, बेटा हम तो हियाँ फजहत में पड़ल ही । एक जा हथ तो दूसरे आके दुरा पर बइठल रहऽ हथ । हम लाख कहइत ही कि अभी हम बेटन के बिआह न करब, मगर कुटुम लोग जिद्द पर अड़ल हथ ।)    (मपध॰02:8-9:25:2.10, 24)
41    कुलम (= कुल्लम; कुल मिलाकर) (पटना में आज गाड़ी चेकिंग में मनोहर बाबू पकड़ा गेलन । ... उनका पर जुरमाना हल हेलमेट न पेहने के, जेकरा लगी कुलम 100 रुपए उनका देवे ला कहल गेल । देखते-देखते नितिमा बढ़ते गेल ।)    (मपध॰02:8-9:19:1.26)
42    के (= कै; कितना; को; का) (धोखा ! कइसन धोखा ? हम्मर बेटी कोय गैर के त नञ् ने हे । हम कुछ करी, हम त एतना पढ़ा भी देली आउ मुड़ी उठा के देखऽ त टोला-पड़ोस में के गो बेटी के पढ़ा रहलन हे लोग ।)    (मपध॰02:8-9:32:3.17)
43    केधरो (= कहीं भी, किसी तरफ भी) (अजी सोचऽ हऽ का ? देखऽ, दिन जमाना भी खराब हे, जुआन लइकी के घर में रखे के नञ् चाही, नञ् केधरो पढ़े जाय देवे के चाही । हम्मर बात नञ् मानवऽ तऽ फेन लइका खोजे में जुत्ता खिया जइतो । फेन तखने कहवऽ कि कहीं लइके नञ् मिल रहल हे सीमा खातिर ।)    (मपध॰02:8-9:32:3.25)
44    कौची (दे॰ कउची) (बाकि गरीब अदमी कहाँ से, कौची-कौची देतै ? एकर बाल-बच्चा के तो आँखो में आँजन करे लगी दूध नञ् मिलऽ हइ आउ अप्पन बिलैया तो दूध पीले बिना बिसकुटो नञ् खा हइ ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.12)
45    खखन (= जल्दीबाजी) ("खाली न रहइत, त हम एन्ने-ओन्ने काहे ला मारल चलइती हल । हमरा तो खनदानी पैसा लचारी में न करे पड़इत हे, परोफेसर साहेब । हम अपने के नजीक अइली हे एहे लेल । कुछ दे देती हल, त हमरा लेल बड़ी अच्छा रहित ।" - ऊ खखन में कह गेलन ।)    (मपध॰02:8-9:28:1.24)
46    खटनी (= खटइया; बहुत जादा काम-काज) (थोड़े-बहुत हाथ खुलला के बाद मोहन मंजु के भी मुंबई ले आल । ओकर बारह-चउदह घंटा के खटनी चाँद हाँथ में लेतहीं दूर हो जाय । हाँ, चाँद से कउनो कम थोड़े हल मंजु ।)    (मपध॰02:8-9:22:1.6)
47    खनदान (= खानदान) ('त हमरा पास दोसर कउनो उपायो तो नऽ हे । हम करी तो का करी ? मजूरी करिए न सकी हम । हम्मर खनदान के लोग कहिनो अइसन काम न कैलन । लोग का कहतन ? एकरो तो डर हे ।' - बड़ी लचारी देखा के ऊ बोललन ।)    (मपध॰02:8-9:28:1.8)
48    खनदानी (= खानदानी) ("खाली न रहइत, त हम एन्ने-ओन्ने काहे ला मारल चलइती हल । हमरा तो खनदानी पैसा लचारी में न करे पड़इत हे, परोफेसर साहेब । हम अपने के नजीक अइली हे एहे लेल । कुछ दे देती हल, त हमरा लेल बड़ी अच्छा रहित ।" - ऊ खखन में कह गेलन ।)    (मपध॰02:8-9:28:1.20)
49    खरची-बरची (छोटू नारायण सिंह के 'धुरखेली', सतीश कुमार मिश्र के 'बिजली सिंह', 'तब हम गाँव चलब',  'इलाज', बाबूलाल मधुकर के 'खरची-बरची', 'गाँव के बटोहिया', 'घर के सफाई', रामेश्वर प्र॰ के 'मुनिया चाचा', डॉ॰ नरेश प्र॰ वर्मा के 'तूफान सिंह' नाटक के प्रसारण रेडियो से हो चुकल हे ।)    (मपध॰02:8-9:15:1.3)
50    खामखाह ("इनसे क्यों नहीं करवाते कोई फिल्म मोहन ? घर में रखकर खामखाह इनका कैरियर खतम कर रहे हो ।" - "सोचेंगे साहब ।" मोहन छुट्टी पावे के अंदाज में बोलल ।)    (मपध॰02:8-9:22:3.16)
51    खाय (= खाइक; खाना, भोजन) (एतना जल्दी का हे बेटा ? एक तो एतना दिन पर अइलें आउ तुरतम्मे जाइ ले कइले हें । अगे सीमा ! तनी भइया लगी खाय परस के लाउ गे । अभी खइवो-पीवो नऽ कइलक आउ पटना जाइ लागी बेदम हे ।)    (मपध॰02:8-9:31:3.19)
52    खाहिंस (= ख्वाहिश, इच्छा, कामना) (घुरी-घुरी संविधान के अष्टम अनुसूची में जुड़े के गोहार आउ साहित्य अकादमी में हेले के खाहिंस कउन बूता पर चाहऽ हऽ, इहो विचारना जरूरी हो ।)    (मपध॰02:8-9:5:1.15)
53    खियाना (= खिआना; घिसना) (अजी सोचऽ हऽ का ? देखऽ, दिन जमाना भी खराब हे, जुआन लइकी के घर में रखे के नञ् चाही, नञ् केधरो पढ़े जाय देवे के चाही । हम्मर बात नञ् मानवऽ तऽ फेन लइका खोजे में जुत्ता खिया जइतो । फेन तखने कहवऽ कि कहीं लइके नञ् मिल रहल हे सीमा खातिर ।)    (मपध॰02:8-9:32:3.27)
54    खींस (~ निपोड़ना) ("सरकार, ई मंतर हिंदी में काहे बोले लगली ?" भरिसी पुछलक । - "अरे छोड़ऽ जजमान । ... बाबा हिंदी थोड़े नञ् बुझऽ हथ । फेर हिंदी तो हमर मातृभाषा हे । माय से भी बढ़ के होवऽ हे संसार में कुछ ।" पंडा सरकार खींस निपोड़ते बोललन ।)    (मपध॰02:8-9:39:2.9)
55    खुट-बुट (मन ~ करना) (कल मंजु मोहन के साथ आउट-डोर शूटिंग पर जा रहल हे । ओकर मन रात भर खुट-बुट करते रहल - 'नाया दुनियाँ ! नाया लोग ! पता नञ् कइसन होत हुआँ के सब कुछ ।')    (मपध॰02:8-9:22:2.6)
56    खेलाड़ी (= खिलाड़ी) (ओकर चिंता तू मत करऽ । हमरा तू ओतना कच्चा खेलाड़ी समझऽ हऽ । अबरी जे तेसरका बेरी लिख के लैतै ने, ओकरे पर ओकरा डिग्री देला देवै ।)    (मपध॰02:8-9:18:2.23)
57    खेलौनियाँ (बालक के प्रशंसा आउर आनंद के कल्पित संसार में उलझल माय इया खेलौनियाँ अपन काम ला समय निकाल ले हे ।)    (मपध॰02:8-9:11:1.3)
58    खोंटा-पिपरी (तीनो मारली डुब्बी शंकर भगमान के नाम ले के । बाहर निकलतहीं चन्नन-चाटी ल ढेर मनी पंडा लोग खोंटा-पिपरी नियन घेर लेलन । जइसे-तइसे उनकनहिन से निपटते चुराल-छेंछाल अपन पंडा सरकार हीं अयली ।)    (मपध॰02:8-9:39:1.4)
59    खोदना-खादना (अब बारी मंडली के आखरी सदस्य कृष्णाजी के बोल क हल, बाकि ऊ बिलकुल्ले चुप्प । बहुत्ते खोद-खाद करे पर कहलन, भाय ! हम कोय कलाकार न हली । नाटक मंडली के हमर दोस्त लोग पकड़ ले हलन तऽ हम उनकर चेहरा पर रंग-रोगन पोत के उनकर कंघी चोटी कर दे हली । प्रियदर्शी जी के मुँह से हठात् निकलल, तब तो माने पड़त कि हमनी सब में चोटी के कलाकार तोहीं हऽ ।)    (मपध॰02:8-9:28:2.30)
60    गर-गलबात (अभी आके ऊ अपन मेहरारू गीता संग गर-गलबात कर रहलन हल कि डाकिया आल आउ एगो चिट्ठी देके चल गेल ।)    (मपध॰02:8-9:31:1.24)
61    गरीब-गुरुआ (= गरीब-गुरबा) (राजकुमारी के चेहरा उतर गेल हल आउ उ गरीब-गुरुआ नियन देखे में लग रहल हल । हाल जाने पर राजा के मालूम भेल कि उनकर बड़का दमाद गलत ससरंग में पड़के पूरा जमीन-जयजात लुटा देलन । आउ-त-आउ अप्पन राज कहल भी गिरमी रख देलन ।)    (मपध॰02:8-9:24:2.14)
62    गहीड़ (= गहरा) (अचोक्के अवाज आल - "लाइट ... ।" मोहन हड़बड़ा के लाइट करे लगल । ई हड़बड़ी में ओकर गोड़ ठीक से टिकल नञ् रह सकल, ऊ छोट जगहा पर । ऊ लड़खड़ा गेल । फेर कि - लोघड़इते चल गेल ऊ पहाड़ी से निच्चे सैंकड़ो फुट गहीड़ खाई में । सेट पर कोहराम मच गेल । कोय तरह से घायल मोहन के उप्पर लावल गेल ।)    (मपध॰02:8-9:23:1.30)
63    गाहे-बेगाहे (कइसहुँ साल-माल कट गेल । ई बीच गाहे-बेगाहे बेटी के देख आवऽ हलन चनेसर बाबू । थोड़े दिन मन में थीर रहे । फेर मन बिलोला के बिलोले । सल-सल भर के दिन-रात कटना मोहाल हो गेल हल अब उनका लगी ।)    (मपध॰02:8-9:21:2.24)
64    गिरमी (= गिरवी) (राजकुमारी के चेहरा उतर गेल हल आउ उ गरीब-गुरुआ नियन देखे में लग रहल हल । हाल जाने पर राजा के मालूम भेल कि उनकर बड़का दमाद गलत ससरंग में पड़के पूरा जमीन-जयजात लुटा देलन । आउ-त-आउ अप्पन राज कहल भी गिरमी रख देलन ।; "अजी तों बाप हऽ कि कसाय ? बेटा के नौकरी लगे वला हे आउ तों कहऽ हऽ, पैसा नञ् भेजब ?" किचकिचा के गीता बोलल । मगर समेसर शांत करइत बोलल, "भेजब नञ् बलुक अबरी हमहीं रुपइया लेके जाम ।" - "अच्छा तऽ जल्दी करऽ ! लऽ इ सबके बेच दऽ, नञ् पूरे त चलऽ खेत गिरमी रख दऽ आउ चलऽ भोरे वला गाड़ी से ।" गहना आउ दस कट्ठा खेत गिरमी रख के दस हजार रुपइया लेके समेसर आउ गीता दुनहुँ पटना बेटा हीं चल देलन ।)    (मपध॰02:8-9:24:2.17, 33:3.33, 36)
65    गुमकी (~ नाधना) (भर रस्ता गुमकी नाधले रहल ऊ । होटल के कमरा में आके चुप्पी तोड़लक - "देखलऽ मंजु हम कहलियो हल ने । ... अब डाइरेक्टर साहेब खुद अइतन तोरा पास ।" - "ए भाय ! हमरा अच्छा नञ् लगो ई सब ।" मंजु थोड़े उदास नियन बोलल ।)    (मपध॰02:8-9:22:3.24)
66    गोड़ (गोड़ लागी गुरुदेव !; एक दिन सीमा के इसकुल के हेड मास्टर साहेब अइलन । सीमा दौड़ के गोड़ लगल । फेन सीमा के माय-बाबू जी के बोलावल गेल । माहटर साहेब पुछलथिन - "सीमा इसकुल काहे नञ् जा रहल हे ?")    (मपध॰02:8-9:17:2.33, 32:3.36)
67    गोयठा (~ में घी सुखाना) (खोसी से पागल होइत माहटर साहेब बोल रहलन हल - "अब बेटी सीमा के नौकरी लगे से कोय रोक नञ् सके हे ।" ई सुन दुनहुँ के खोसी के ठेकाना नञ् रहल अउ माहटर साहेब के गोड़ पर गिर गेल अउ कानइत समेसर बोलल, "हमरा माफ कर दऽ माहटर साहेब । हम सुधीर में बेकार गोयठा में घी सुखइली । हम गीता के बात में आके सीमा के पढ़ाय छोड़ा देली हल ।")    (मपध॰02:8-9:34:3.4)
68    घटी (= घाटा, हानि) ("अरे लगऽ हइ पिल्लू पड़ गेलो ह एकरा में ।" भरोसी बोलल । - "हाँ, की कहियो ।" - "बाप रे ! तब तो बड़ी घटी में पड़ गेलऽ ।" - "नञ्, घटी की होतइ । तू तो जबरिया अदमी हहो । तोरा से की छिपाना । एकरा तनी रौदा देखा देबइ । फेर सब खतम । ... टेस्ट करके देखहो ने, पेंड़बा खराब लगऽ हो ?)"    (मपध॰02:8-9:40:1.9, 11)
69    घिघियाना (= गिड़गिड़ाना) ("देखऽ, फारम भरा रहल हे । मैटिक के परीच्छा देवे वाला लइका-लइकी ही भर सकऽ हे । कम से कम फरम्मा तो भरवा दऽ ।" हेड सर घिघिया के बोललन । - "हम कहली न माहटर साहेब कि अब हमरा से न होत । एन्ने खरचा करम कि ओन्ने ।")    (मपध॰02:8-9:33:1.32)
70    घुराना (= लौटाना, वापस भेजना) (ई बात तो पते के कहलहो, बाकि इंदरसेनो बड़ करमठ आउ सच्चा बात लगी खूब संघर्ष करे वाला अदमी हइ । अबरी जहाँ घुरैलहो कि ई अनाज-पानी बार के दुआरी पर बैठ जइतो ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.3)
71    चकचेहाना ("अहो ई पनिया हरियर कचूर काहे लगऽ हइ भरोसी ?" रामजीवन चकचेहा के बोलल, "बाप रे ! एतना जमड़ी आउ काय । लगऽ हइ सालों एकर सफाय नञ् होवऽ हइ ।")    (मपध॰02:8-9:38:3.19)
72    चन्न-चाटी (तीनो मारली डुब्बी शंकर भगमान के नाम ले के । बाहर निकलतहीं चन्नन-चाटी ल ढेर मनी पंडा लोग खोंटा-पिपरी नियन घेर लेलन । जइसे-तइसे उनकनहिन से निपटते चुराल-छेंछाल अपन पंडा सरकार हीं अयली ।)    (मपध॰02:8-9:39:1.3)
73    चमरढोल (बाबू हो, ई कंपटीसन के जुग हो । ढाक-ढोल के साथ चमरढोल नञ् चलतो, कार्नेट आउ ट्रंपेट के साथ मसका फुँकवऽ त थुड़ी-थुड़ी होतो । ई ले समय के साथ चलऽ ।)    (मपध॰02:8-9:5:1.27)
74    चला-चली (चला-चली के बेरा में भरोसी बोलल, "चलऽ थोड़े परसाद ले ली ।" हमनहीं भी राजी हली । बजार नगीचे हल । एगो दोकान के बड़का बोड देखाय पड़ल - 'पटना मिष्टन भंडार' । तीनों ठमक गेली।)    (मपध॰02:8-9:39:3.16)
75    चिक्कन (= चिकना) (बालक के हृदयहारी छवि से, ओकर सुकोमल चिक्कन शरीर से, कमल जइसन आँख से, चाँद अइसन मुखड़ा से माँ के हृदय में आनंद हिलकोरा ले हे ।)    (मपध॰02:8-9:11:1.10)
76    चुराल-छेंछाल (तीनो मारली डुब्बी शंकर भगमान के नाम ले के । बाहर निकलतहीं चन्नन-चाटी ल ढेर मनी पंडा लोग खोंटा-पिपरी नियन घेर लेलन । जइसे-तइसे उनकनहिन से निपटते चुराल-छेंछाल अपन पंडा सरकार हीं अयली ।; "रामजीवन ! ... भरोसी !!" बाप रे अब कन्ने खोजी ऊ सबके । चलऽ डेरे चली । धड़की कम करते अपन पंडा सरकार हीं चल पड़ली बाबा भोला के परनाम करके । डेरा अइली । थोड़के देर में चुराल-छेंछाँल रामजीवन आउ भरोसी भी पहुँचलन ।)    (मपध॰02:8-9:39:1.6, 3.6)
77    चूड़ा (= चिवड़ा) (एकरा देखलहो नञ् ! एक तो एते दिन पर अइवो कइलै आउ ओकरो में मोटका चूड़ा छुच्छे लेले अइलै । छाली भरल दही तो दूर के बात हइ, एको गो तिलकुटो नञ् ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.11)
78    चोटी-पाटी (मंजु जब चोटी-पाटी करके चले ल तइयार होल त मोहन देखते रह गेल । "मंजु तू हमर नोकरी छोड़ा देवऽ । कम से कम आज तो लोकेशन पर हम ठीक से काम नञ् कर सकऽ ही ।")    (मपध॰02:8-9:22:2.10)
79    चौंकी (अरे ! ई पलंग हिले के अवाज कहाँ से आ रहल हे ? ... हम तो चौंकी पर सुतल ही । ओह ! ई सामने वला दुआरी से । के हे भाय ! छोड़ऽ ! कोय रहे, हमरा की मतलब हे !)    (मपध॰02:8-9:38:2.25)
80    छठी (सब परिजन अपन-अपन ढंग से खुशी व्यक्त करऽ हथ । कोई नाचे हे, कोई गावे हे, कोई नेग माँगे हे । एही वातावरण में जन्मोत्सव, छठी, बरही जइसन अनेक लोकाचार होवऽ जा हे ।)    (मपध॰02:8-9:9:2.15)
81    छाली (~ भरल दही; ~ खेत) (एकरा देखलहो नञ् ! एक तो एते दिन पर अइवो कइलै आउ ओकरो में मोटका चूड़ा छुच्छे लेले अइलै । छाली भरल दही तो दूर के बात हइ, एको गो तिलकुटो नञ् ।; गीता, सुधीर के पढ़ावे में बड़ी खरच पड़ रहल हे, बीघा भर छाली खेत त बिक चुकल । एकर अलावे कभी तीसी, कभी मसुरी, कभी सरसो, कभी चाउर बेच-बेच के ओकरा पइसा जुटा रहली हे । आउ न जनि अभी केतना खरच लगत ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.12, 32:1.25)
82    छुच्छे (एकरा देखलहो नञ् ! एक तो एते दिन पर अइवो कइलै आउ ओकरो में मोटका चूड़ा छुच्छे लेले अइलै । छाली भरल दही तो दूर के बात हइ, एको गो तिलकुटो नञ् ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.11)
83    छौड़ा-पूता (गिरधारी: ... नंबर तीन, ओकर परीक्षक हमहीं बनवै । नंबर चार, उहे लड़कावा से अप्पन पिंकी के हाथो पीअर करे के वादा मुरारी जी कैलखीं हे । होलै 'एक पंथ चार काज' कि नञ् ?  - शशि: वाह ! एकरा तो 'एक पंथ पाँच काज' कहवै । काहे कि अपन पिंकिओ तो ... । कमूआ छौड़ा-पूता जे नै करै ।)    (मपध॰02:8-9:18:2.18-19)
84    जइसीं (= जइसहीं; जैसे ही) (पटना पहुँचते साँझ हो गेल । जइसीं बाजार पहुँचलन तइसीं दु गो पियाँक हाथ में बोतल लेले टगल झुमइत आ रहल हल । गौर से देखलक त ओकरा में एगो सुधीर भी हल ।)    (मपध॰02:8-9:34:1.4)
85    जउर (दे॰ जौर) (वादा मोताबिक तो ई लघुकथा होवे चाहऽ हल बकि अफसोस हे कि हम 48 पेज भर स्तरीय 'लघुकथा' जउर करे में असमर्थ रहली । हम्मर आउ डॉ॰ सी॰रा॰ प्रसाद जी के कोरसिस रहत कि हम फेर कभियो लघुकथा अंक दी अपने सब के ।)    (मपध॰02:8-9:4:1.2)
86    जजमान (= यजमान) (हम्मर मन का कहत परोफेसर साहेब ? सोंचित ही हम अप्पन पुरनके जजमनिका ओला पेशा शुरू करी । जजमानन से फिर से सरोकार बनावी ।; "सरकार ! ... बाबा ... तनी उठथिन न ! ... जरी जल संकलप करवे के हलइ ।" रिरियाल बोलली हल । केबाड़ी खुल गेल । भकुआले पंडा सरकार बाहर अइलन । 'अस्नान करके आ गेली जजमान लोग ?' पंडा सरकार बड़ी परेम से बोललन ।)    (मपध॰02:8-9:27:3.28, 39:1.21)
87    जबरिया ("भाय, पंड़वा तो लेबे करबइ । तनी पियास लगल हे ... पानी देबहो । जबरिए अदमी हऽ । हमहुँ पटने के हीओ ।" बात जमाबे ल भरोसी बोलल । - "पानी के इंतजाम तो नञ् हइ बाकि आवऽ अंदर । ... जब जबरिया ह तऽ ।" धूर्त निअन बोलल ऊ ।)    (मपध॰02:8-9:39:3.28, 31)
88    जमड़ी ("अहो ई पनिया हरियर कचूर काहे लगऽ हइ भरोसी ?" रामजीवन चकचेहा के बोलल, "बाप रे ! एतना जमड़ी आउ काय । लगऽ हइ सालों एकर सफाय नञ् होवऽ हइ ।")    (मपध॰02:8-9:38:3.20)
89    जरिया ("त हमरा अइसन राह बता देल जाय कि हम्मर गुजर-बसर कइसहूँ हो जाय । पेट भरे के जरिया निकल जाय ।" अप्पन मुँह बनाके ऊ बोललन ।)    (मपध॰02:8-9:28:1.32)
90    जहाँ (= अगर, यदि) (ई बात तो पते के कहलहो, बाकि इंदरसेनो बड़ करमठ आउ सच्चा बात लगी खूब संघर्ष करे वाला अदमी हइ । अबरी जहाँ घुरैलहो कि ई अनाज-पानी बार के दुआरी पर बैठ जइतो ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.3)
91    जाम (= जमा) (ओकर चंचलता आउ तेज बुद्धि के इयाद हमरा अइसे झकझोर देलक जइसे कब के जाम पड़ल गर्दा के विंडोबा उड़ा ले जाहे ।)    (मपध॰02:8-9:29:2.12)
92    जुआन (= जवान) (अजी सोचऽ हऽ का ? देखऽ, दिन जमाना भी खराब हे, जुआन लइकी के घर में रखे के नञ् चाही, नञ् केधरो पढ़े जाय देवे के चाही । हम्मर बात नञ् मानवऽ तऽ फेन लइका खोजे में जुत्ता खिया जइतो । फेन तखने कहवऽ कि कहीं लइके नञ् मिल रहल हे सीमा खातिर ।)    (मपध॰02:8-9:32:3.23)
93    जुत्ता (= जूता) (अजी सोचऽ हऽ का ? देखऽ, दिन जमाना भी खराब हे, जुआन लइकी के घर में रखे के नञ् चाही, नञ् केधरो पढ़े जाय देवे के चाही । हम्मर बात नञ् मानवऽ तऽ फेन लइका खोजे में जुत्ता खिया जइतो । फेन तखने कहवऽ कि कहीं लइके नञ् मिल रहल हे सीमा खातिर ।)    (मपध॰02:8-9:32:3.27)
94    जेतना (= जितना) (जेतना ... ओतना) (हमर मन में उनका प्रति जेतना घृणा होवे के चाही ओतना हो रहल हल ।; इहाँ के सब समेचार निमन हे, उहाँ के समेचार भी ठीके होत । बाबू जी एवं माय के मालूम कि हम खूब मन लगा के पढ़ रहली हे । रुपइया हमरा हीं झर गेल हे, ई लेल जेतना जल्दी हो सके एक हजार रुपइया भेजे के कोरसीर करऽ ।)    (मपध॰02:8-9:30:1.20, 31:2.15)
95    जोग (= योग्य) (पंडा सरकार तो जोग अदमी हथ । फेर इनखर हाँथ से सब पवीत्तर ।)    (मपध॰02:8-9:39:2.1)
96    जोगाड़ (हम्मर सब परीक्षा बढ़ियाँ गेल । पी.टी. आउ मेन्स, अब एगो अन्तिम में औपचारिकता निभावे खातिर तनी पूछताछ करत । फेन हम्मर नौकरी पक्का आउ नौकरी के डिप्टी शुरू हो जात । ई लेल एतना खरच करवे कइलऽ तऽ अबरी भर कइसूँ दस हजार रुपइया के जोगाड़ करके जल्दी भेज दऽ, काहे कि जानवे करऽ हऽ, केतनउ पढ़े में तेज रहला पर दक्षिणा तो देवहीं पड़ऽ हे न ।; समइया से बाबाधाम जाय ले कइले हली मुदा जोगाड़ नञ् बइठल हल । बड़ ने भाग, गरीब के कहियो हिंछा पूरल हे ।)    (मपध॰02:8-9:33:3.6, 38:1.9)
97    जोगाना (आज जरूरत हे कि शिक्षक अपन पहचान के समझथ आउ उनका युग-युग से जे आदर मिलते आल हे, ओकरा पहिले के तरह जोगा के रखथ ।)    (मपध॰02:8-9:6:1.22)
98    झउहर (माय ला तो बच्चा ही सब कुछ हे । ... कभी पलना पर झुलावे हे, कभी लोरी गा के थपकी देइत ओकरा सुतावे हे, कभी चाँद तारा के नाम लेके आउर प्रकृति के दूसर उपादान से रिश्ता जोड़ के बालक के झउहर छोड़ावे हे, गीत गा-गा के फुसला मना के खाना खिलावे हे ।)    (मपध॰02:8-9:10:2.19)
99    झर-झमेला (हेलमेट के बदले 100 रुपया हमरा हीं नञ् हे । - 'त ठीके बाऽ, चलऽ पुलिस असटेशन' जोरदार अवाज में मोछइला पुलिस कहलक, बकि रसते में नञ् जाने का होल कि पुलिसिया के बड़का बाबू कुछो कहलन त मनोहर बाबू के उ कहलक कि पचासो गो नञ् हवऽ, दे द ... काहे ला थाना-पुलिस के झर-झमेला में पड़ईथ ।)    (मपध॰02:8-9:19:2.25)
100    झात-झात (बेटी से उरीन होके उनकर मन में चइन नञ् । काहे नञ्, हाथ के खेलउना जे छीन के उड़ चलल मोहन चनेसर बाबू से । किलकते घर अब झात-झात करे लगल हल । हरसल जी उख-बिख करते रहे ।; के हे भाय ! छोड़ऽ ! कोय रहे, हमरा की मतलब हे ! अपन केबाड़ी लगा ले ही । केबाड़ी लगबे अइली त जरी बाहरी हुलुक ले ही । सगरो झात-झात । बकि सामने वला कोठली में इंजोर हइ !)    (मपध॰02:8-9:21:2.11, 38:3.2)
101    टांटी (  ("देखऽ, फारम भरा रहल हे । मैटिक के परीच्छा देवे वाला लइका-लइकी ही भर सकऽ हे । कम से कम फरम्मा तो भरवा दऽ ।" हेड सर घिघिया के बोललन । - "हम कहली न माहटर साहेब कि अब हमरा से न होत । एन्ने खरचा करम कि ओन्ने ।" माहटर साब ठिसुआल उहाँ से चल देलन । सीमा देखते रह गेल मगर आँख से टांटी के धार नियन बहते रोक न सकल ।)    (मपध॰02:8-9:33:2.2)
102    टास (= टास्क) (सुधीर दिया तो ओकरे मुँह से सुन के जानल, समेसर आउ गीता, कि पढ़े में तेज हे, मगर सीमा दिया तो बढ़ियाँ से आउ सच जानो हल कि इसकुल भर में पढ़े में ऊ सबसे तेज हे, काहे कि हेड मास्टर साहेब भी कत्ते बार कह चुकलन हल । आउ देखऽ भी हल कि सीमा घर के काम-काज निपटा के बिना कहले पढ़े लऽ बइठ जा हल आउ इसकुल भी कहियो नागा नञ् करो हल । हाँ भले उ ट्युसन कहीं नञ् पढ़ो हल मुदा माहटर साहेब के देल टास सब बना के ले जा हल ।)    (मपध॰02:8-9:32:1.20)
103    टुअर (मंजु माय के टुअर आउ बाप के दुलारी बेटी हल । ओकर बाप चनेसर बाबू आँख में कान ई बेटी पर जान नेउछावर कइले रहऽ हलन ।)    (मपध॰02:8-9:21:1.1)
104    टुप-टुप (~ जवाब) (समेसर के बोलती बंद हो गेल गीता के टुप-टुप जवाब सुन के । सोच में डुब गेल ऊ ।)    (मपध॰02:8-9:32:3.20)
105    ठठरी (आखिर एक रोज रामजी हीं से बोलहटा आ गेल चनेसर बाबू के । देखते-देखते उनकर प्राण-पंछी उड़ गेल । मंजु बाप के ठठरी पर पछाड़ खा-खा के घंटों बजड़ते रहल । कोय तरह से मोहन आउ गाँव के लोग तीर-घींच के मट्टी से अलग कइलन ।)    (मपध॰02:8-9:21:3.8)
106    ठरमुड़की (= ठकमुरकी) (आँख से लोर त दुनहुँ परानी के डबडबा गेल, ठरमुड़की अइसन खाड़ हलन कि हेड माहटर साहेब टोकलन - "अरे समेसर भाई ! एन्ने दुनहुँ परानी कहाँ अइलऽ हे । आवऽ, पहिले मिठाय खा ।")    (मपध॰02:8-9:34:2.2)
107    ठेकाना (= ठिकाना) (खोसी से पागल होइत माहटर साहेब बोल रहलन हल - "अब बेटी सीमा के नौकरी लगे से कोय रोक नञ् सके हे ।" ई सुन दुनहुँ के खोसी के ठेकाना नञ् रहल अउ माहटर साहेब के गोड़ पर गिर गेल अउ कानइत समेसर बोलल, "हमरा माफ कर दऽ माहटर साहेब । हम सुधीर में बेकार गोयठा में घी सुखइली । हम गीता के बात में आके सीमा के पढ़ाय छोड़ा देली हल ।")    (मपध॰02:8-9:34:2.15)
108    डिप्टी (= ड्यूटी, कार्यालयीन काम) (हम्मर सब परीक्षा बढ़ियाँ गेल । पी.टी. आउ मेन्स, अब एगो अन्तिम में औपचारिकता निभावे खातिर तनी पूछताछ करत । फेन हम्मर नौकरी पक्का आउ नौकरी के डिप्टी शुरू हो जात ।)    (मपध॰02:8-9:33:3.3)
109    डुब्बी (= डुबकी) (तीनो मारली डुब्बी शंकर भगमान के नाम ले के । बाहर निकलतहीं चन्नन-चाटी ल ढेर मनी पंडा लोग खोंटा-पिपरी नियन घेर लेलन । जइसे-तइसे उनकनहिन से निपटते चुराल-छेंछाल अपन पंडा सरकार हीं अयली ।)    (मपध॰02:8-9:39:1.1)
110    ढाऊँस (= ढौंसा) (दौड़ते-हाँफते, खेलते-हँसते, बोल-बम करते दू दिन में बाबाधाम पहुँचली । मुदा जइते-जइते झोला-झोली हो गेल हल । जा के अपन पंडा जी हीं टिकली । सुइया पहाड़ के कंकड़-पत्थल गोड़ के फुला के ढाऊँस कर देलक हल । घाव के दरद गोड़ आउ सउँसे देह में समाल हल ।)    (मपध॰02:8-9:38:1.25)
111    ढाक-ढोल (बाबू हो, ई कंपटीसन के जुग हो । ढाक-ढोल के साथ चमरढोल नञ् चलतो, कार्नेट आउ ट्रंपेट के साथ मसका फुँकवऽ त थुड़ी-थुड़ी होतो । ई ले समय के साथ चलऽ ।)    (मपध॰02:8-9:5:1.27)
112    तइसीं (= तइसहीं; वैसे ही) (पटना पहुँचते साँझ हो गेल । जइसीं बाजार पहुँचलन तइसीं दु गो पियाँक हाथ में बोतल लेले टगल झुमइत आ रहल हल । गौर से देखलक त ओकरा में एगो सुधीर भी हल ।)    (मपध॰02:8-9:34:1.4)
113    तनी ("भाय, पंड़वा तो लेबे करबइ । तनी पियास लगल हे ... पानी देबहो । जबरिए अदमी हऽ । हमहुँ पटने के हीओ ।" बात जमाबे ल भरोसी बोलल । - "पानी के इंतजाम तो नञ् हइ बाकि आवऽ अंदर । ... जब जबरिया ह तऽ ।" धूर्त निअन बोलल ऊ ।)    (मपध॰02:8-9:39:3.27)
114    तरा-उपरि (पंडा सरकार एक सो एकामन-एकामन ले के तीनों के पाँच मिनट में फ्री कर देलन । जल लेके मंदिल चल पड़ली । अनगिनती अदमी ... । तरा-उपरि हो रहल हल मंदिल में जाय ले ।)    (मपध॰02:8-9:39:2.14)
115    तीरना-घींचना (आखिर एक रोज रामजी हीं से बोलहटा आ गेल चनेसर बाबू के । देखते-देखते उनकर प्राण-पंछी उड़ गेल । मंजु बाप के ठठरी पर पछाड़ खा-खा के घंटों बजड़ते रहल । कोय तरह से मोहन आउ गाँव के लोग तीर-घींच के मट्टी से अलग कइलन ।)    (मपध॰02:8-9:21:3.11)
116    तीरिथ (= तीर्थ) (मने मन सोंचे लगली हम - 'त ई पिलुए भरल बेचऽ हइ यहाँ पेंड़ा आउ मिठाय सब कोय । ... छोड़ऽ । तीरिथ हइ । परसाद के दुसे के नञ् चाही ।'; पर-परसाद, बर-बद्धी ले के मरते-चुरइते घर अइली । अखनिओ जब बाबाधाम  के इयाद आवऽ हे त मन ओझरा जाहे । सोंचे लगऽ ही - का करी अब ! ... करबइ की, सावन में नञ् जइबइ । दिक्कत-सिक्कत ल तीरिथ छोड़ दे अदमी ।)    (मपध॰02:8-9:40:1.19, 33)
117    तेसरका (ओकर चिंता तू मत करऽ । हमरा तू ओतना कच्चा खेलाड़ी समझऽ हऽ । अबरी जे तेसरका बेरी लिख के लैतै ने, ओकरे पर ओकरा डिग्री देला देवै ।)    (मपध॰02:8-9:18:2.23)
118    थुड़ी-थुड़ी (= थुरी-थुरी) (~ होना) (बाबू हो, ई कंपटीसन के जुग हो । ढाक-ढोल के साथ चमरढोल नञ् चलतो, कार्नेट आउ ट्रंपेट के साथ मसका फुँकवऽ त थुड़ी-थुड़ी होतो । ई ले समय के साथ चलऽ ।)    (मपध॰02:8-9:5:1.28)
119    दान-दछिना (थोड़े अराम करके पंडा सरकार के दान-दछिना दे के बिदा लेली ।)    (मपध॰02:8-9:39:3.14)
120    दिक्कत-सिक्कत (पर-परसाद, बर-बद्धी ले के मरते-चुरइते घर अइली । अखनिओ जब बाबाधाम  के इयाद आवऽ हे त मन ओझरा जाहे । सोंचे लगऽ ही - का करी अब ! ... करबइ की, सावन में नञ् जइबइ । दिक्कत-सिक्कत ल तीरिथ छोड़ दे अदमी ।)    (मपध॰02:8-9:40:1.32)
121    दुत्तोरी (~ के !) ("दुत्तोरी के ! काय रहे इया पिल्लू परल रहे । हमरा की मतलब हे ।" भरोसी लपरवाही से बोलल ।; "दुत्तोरी के ! डिब्बो गिर गेल ।" भरोसी घबराल बोलल ।; "अहो लगऽ हइ धोकड़िए के तो काट लेलकइ ।" - "आँय ! दुत्तोरी के !")    (मपध॰02:8-9:38:3.24, 39:2.23, 40:1.24)
122    दुब्बर (= दुर्बल; दुबला) (हमर हर कदम भारी पड़े लगल काहे कि शायद अपन माँ होयत हल त अपन दुब्बर शरीर में भी जगह दे देवीत हल बाकि हियाँ त भारी-भरकम शरीर वाली कानून के माँ हलन ।)    (मपध॰02:8-9:30:2.25)
123    दुसना (मने मन सोंचे लगली हम - 'त ई पिलुए भरल बेचऽ हइ यहाँ पेंड़ा आउ मिठाय सब कोय । ... छोड़ऽ । तीरिथ हइ । परसाद के दुसे के नञ् चाही ।')    (मपध॰02:8-9:40:1.19)
124    देन्ने (= दन्ने; की ओर, तरफ) (एतना कह के रामबचन बाबू माहटर साहेब देन्ने ताकलन ।)    (मपध॰02:8-9:40:3.10)
125    दोकनदार (= दुकानदार) ("की भाई, पेंड़ा कइसे हइ ?" पूछली - "साठ रूपइए किलो । केतना दीओ ?" हाली से पुछलक दोकनदार ।)    (मपध॰02:8-9:39:3.25)
126    धड़की (= धड़कन) ("रामजीवन ! ... भरोसी !!" बाप रे अब कन्ने खोजी ऊ सबके । चलऽ डेरे चली । धड़की कम करते अपन पंडा सरकार हीं चल पड़ली बाबा भोला के परनाम करके ।)    (मपध॰02:8-9:39:3.2)
127    धरना (= रखना) (समय के सोहबत आउ बाप के दुलार के साथ मंजु जवानी में कदम धइलक । देखते बने एकर रूप । रूपे नञ्, लोग-बाग मंजु के गुन के भी कायल हलन ।)    (मपध॰02:8-9:21:1.10)
128    धुरखेली (छोटू नारायण सिंह के 'धुरखेली', सतीश कुमार मिश्र के 'बिजली सिंह', 'तब हम गाँव चलब',  'इलाज', बाबूलाल मधुकर के 'खरची-बरची', 'गाँव के बटोहिया', 'घर के सफाई', रामेश्वर प्र॰ के 'मुनिया चाचा', डॉ॰ नरेश प्र॰ वर्मा के 'तूफान सिंह' नाटक के प्रसारण रेडियो से हो चुकल हे ।)    (मपध॰02:8-9:14:3.34)
129    धुरे-धुर (= एक-एक धुर करके) (इहे लागी त कहऽ ही, पढ़ाय छोड़ा दऽ, मैट्रिक पास करत त फेन कउलेज में नाम लिखावे कहत अउ कउलेज में बेटी के नाम लिखइवऽ तऽ खरच तो बढ़वे करतो । दमाद भी एम.ए. खोजे पड़तो अउ जानऽ हऽ ने कि एम.ए. लइका के तिलक केतना हे, धुरे-धुर बिक जइतो ।)    (मपध॰02:8-9:32:3.9)
130    न जनि (= न जाने) (गीता, सुधीर के पढ़ावे में बड़ी खरच पड़ रहल हे, बीघा भर छाली खेत त बिक चुकल । एकर अलावे कभी तीसी, कभी मसुरी, कभी सरसो, कभी चाउर बेच-बेच के ओकरा पइसा जुटा रहली हे । आउ न जनि अभी केतना खरच लगत ।)    (मपध॰02:8-9:32:1.29)
131    नजीक (= नगीच; नजदीक) ("खाली न रहइत, त हम एन्ने-ओन्ने काहे ला मारल चलइती हल । हमरा तो खनदानी पैसा लचारी में न करे पड़इत हे, परोफेसर साहेब । हम अपने के नजीक अइली हे एहे लेल । कुछ दे देती हल, त हमरा लेल बड़ी अच्छा रहित ।" - ऊ खखन में कह गेलन ।)    (मपध॰02:8-9:28:1.22)
132    नट-गुलगुलिया (दुन्नु गोतनी में सदा लड़ाई, बतकुच्चन होते रहऽ हल । टोला-पड़ोस लड़ाई-झगड़ा सुन के उबइत हलन । कहइत हलन कि ई घर तो इंसान के का रहत ? एकदम नट-गुलगुलिया के भेल हे । रात-दिन कलह, कहिया ई घर भूत के डेरा बनत ?)    (मपध॰02:8-9:26:3.14)
133    नराज (= नाराज) (हे निंदा {? निंदिया} मइआ, तू कहाँ ह ? ई गरीब से काहे नराज हऽ ? हम आँख मुनले तोर असरा देखले ही ।)    (मपध॰02:8-9:38:2.19)
134    नाता-गोता (कउन छउँड़किन के इरखा नञ् होवऽ होत मंजु से । कउन नउजवान के आँख तर सपना नञ् आवऽ होत मंजु के । बस, गाँव के रीत आउ नाता-गोता के बन्हन उनकर गोड़ बान्हले रहऽ हल, जे से ऊ मंजु दने कोय उरेब कदम नञ् उठावऽ हलन ।)    (मपध॰02:8-9:21:1.21)
135    नितिमा (पटना में आज गाड़ी चेकिंग में मनोहर बाबू पकड़ा गेलन । ... उनका पर जुरमाना हल हेलमेट न पेहने के, जेकरा लगी कुलम 100 रुपए उनका देवे ला कहल गेल । देखते-देखते नितिमा बढ़ते गेल ।)    (मपध॰02:8-9:19:1.27)
136    नेग (सब परिजन अपन-अपन ढंग से खुशी व्यक्त करऽ हथ । कोई नाचे हे, कोई गावे हे, कोई नेग माँगे हे । एही वातावरण में जन्मोत्सव, छठी, बरही जइसन अनेक लोकाचार होवऽ जा हे ।)    (मपध॰02:8-9:9:2.14)
137    नैवेद (= नैवेद्य) (उ तो ठीके कहलहो ! बाकि, हमहूँ तो लाचार ने हियै ! तोहरे बाबू जी से तो कर्जा लेके ढेरे नैवेद मंत्री-देवता पर चढ़ैनू हे तब तो कौलेज से इनभरसिटी ट्रांसफर भेल हे । आखिर डिगरिया तो ओकरे ने देखैवै जे या तो दक्षिणा देतै या जेकर बल पर यहाँ धाक जमैले हियै ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.6)
138    परना (= पड़ना) ("अहो ई पनिया हरियर कचूर काहे लगऽ हइ भरोसी ?" रामजीवन चकचेहा के बोलल, "बाप रे ! एतना जमड़ी आउ काय । लगऽ हइ सालों एकर सफाय नञ् होवऽ हइ ।" .... "दुत्तोरी के ! काय रहे इया पिल्लू परल रहे । हमरा की मतलब हे ।" भरोसी लपरवाही से बोलल ।)    (मपध॰02:8-9:38:3.25)
139    पर-परसाद (पर-परसाद, बर-बद्धी ले के मरते-चुरइते घर अइली । अखनिओ जब बाबाधाम  के इयाद आवऽ हे त मन ओझरा जाहे । सोंचे लगऽ ही - का करी अब ! ... करबइ की, सावन में नञ् जइबइ । दिक्कत-सिक्कत ल तीरिथ छोड़ दे अदमी ।)    (मपध॰02:8-9:40:1.27)
140    पर-परसानी (सच्चो लोकेशन पर 'एक अनार आउ चउदह बिमार' वला बात हो गेल । बड़का-छोटका सब स्टाफ कम-से-कम एक बेरी तो जरूरे मंजु के पर-परसानी पूछ गेलन । ई बात अलग हे कि मंजु सबके जवाब नञ् में देलक ।)    (मपध॰02:8-9:22:3.9)
141    परसाल (= गत वर्ष) (समइया से बाबाधाम जाय ले कइले हली मुदा जोगाड़ नञ् बइठल हल । बड़ ने भाग, गरीब के कहियो हिंछा पूरल हे । मुदा औघड़दानी के मरजी । परसाल बाबाधाम जाय के मोका मिल गेल ।)    (मपध॰02:8-9:38:1.13)
142    परोफेसर (= परफेसर; प्रोफेसर) (परोफेसर साहब अप्पन कोठरी में बइठ के अखबार पढ़ रहलन हल । एहे बीच उनखर उतरवारी गेट पर आके एगो बाइस-तेइस बरिस के लइका पुकारलक ।; अईं जी ! चोरी करे में लाज हे कि कमा के खाय में । अप्पन पेट पाले खातिर कउनो काम कर सकऽ हथ लोग । दुनियाँ काम से खाली हे का ? - परोफेसर साहेब उनखा से सवाल कैलन ।)    (मपध॰02:8-9:27:1.11, 28:1.16)
143    पसेना (= पसीना) (मोहन बोलते-बोलते हँफे लगल । ओकर सउँसे देह में पसेना चुचुआय लगल ।)    (मपध॰02:8-9:23:2.30)
144    पाँत (जब खाय लगऽ हलन, त हमरा जरूर बोला ले हलन । हमनी दुन्नों एक्के पाँत में बइठ के खा हली ।)    (मपध॰02:8-9:27:3.5)
145    पियाँक (= पियक्कड़) (पटना पहुँचते साँझ हो गेल । जइसीं बाजार पहुँचलन तइसीं दु गो पियाँक हाथ में बोतल लेले टगल झुमइत आ रहल हल । गौर से देखलक त ओकरा में एगो सुधीर भी हल ।)    (मपध॰02:8-9:34:1.5)
146    पियास (= प्यास) ("भाय, पंड़वा तो लेबे करबइ । तनी पियास लगल हे ... पानी देबहो । जबरिए अदमी हऽ । हमहुँ पटने के हीओ ।" बात जमाबे ल भरोसी बोलल । - "पानी के इंतजाम तो नञ् हइ बाकि आवऽ अंदर । ... जब जबरिया ह तऽ ।" धूर्त निअन बोलल ऊ ।)    (मपध॰02:8-9:39:3.27)
147    पुरनका (हम्मर मन का कहत परोफेसर साहेब ? सोंचित ही हम अप्पन पुरनके जजमनिका ओला पेशा शुरू करी । जजमानन से फिर से सरोकार बनावी ।)    (मपध॰02:8-9:27:3.26)
148    पूरना ("अजी तों बाप हऽ कि कसाय ? बेटा के नौकरी लगे वला हे आउ तों कहऽ हऽ, पैसा नञ् भेजब ?" किचकिचा के गीता बोलल । मगर समेसर शांत करइत बोलल, "भेजब नञ् बलुक अबरी हमहीं रुपइया लेके जाम ।" - "अच्छा तऽ जल्दी करऽ ! लऽ इ सबके बेच दऽ, नञ् पूरे त चलऽ खेत गिरमी रख दऽ आउ चलऽ भोरे वला गाड़ी से ।")    (मपध॰02:8-9:33:3.32)
149    फजहत (= फजीहत) (हम अभी तीन बरिस बेटन के बिआह न करब । दुनु बेटन के भी इहे राय हल । मगर कुटुम रोज-रोज आवइत हल । शुकन दुन्नु बेटन हीं तार भेजलन, बेटा हम तो हियाँ फजहत में पड़ल ही । एक जा हथ तो दूसरे आके दुरा पर बइठल रहऽ हथ ।)    (मपध॰02:8-9:25:2.12)
150    फरीच (= फरीछ) (अनगुत्ता फरीच होतहीं उठली । तीनो गोटा सिवगंग में डुबकी लगावे ल चल देली । सुरूज उगे वला हलन ।)    (मपध॰02:8-9:38:3.12)
151    फारम (= फॉर्म) ("देखऽ, फारम भरा रहल हे । मैटिक के परीच्छा देवे वाला लइका-लइकी ही भर सकऽ हे । कम से कम फरम्मा तो भरवा दऽ ।" हेड सर घिघिया के बोललन ।)    (मपध॰02:8-9:33:1.28, 31)
152    फिलिम (= फिल्म) (मंजु जब चोटी-पाटी करके चले ल तइयार होल त मोहन देखते रह गेल । "मंजु तू हमर नोकरी छोड़ा देवऽ । कम से कम आज तो लोकेशन पर हम ठीक से काम नञ् कर सकऽ ही ।" - "अच्छा ! ... कउनो शंकराचार्य पर फिलिम बनते हइ ! बतइते हलऽ कि तिन-तिन हिरोइन काम कर रहल हे ।" मंजु चम्हला के बोलल ।; तूँ नञ् जानऽ हऽ कि फिलिम लाइन में कोय सुंदर लड़की के साथ की बेहबार होवऽ हे । की-की घटऽ हे ओकरा साथ ।)    (मपध॰02:8-9:22:2.27, 23:2.26)
153    फुसलाना-मतलाना (इंदरसेन अइले हल, अपन थीसिस लेवे लगी । ओकरा फुसला-मतला के बिदा कर देलिअइ ।)    (मपध॰02:8-9:17:1.18)
154    फेनु (= फिन, फेन, फेर; फिर) (भारत जहान में धरम-स्थल के मोहाल नञ् हे । बकि सब जगह देवी-देउता के दरसन ले, के जा सकऽ हे । फेनु तीरथ करे के भी एगो उमर होवऽ हे । हमरा ल उमर बढ़ाना आउ धन उगाहना तो मोसकिल हल, मुदा तीरथ-परयाग के हिंछा हेठुआ मनी ।)    (मपध॰02:8-9:38:1.4)
155    फेर (= फिर) (घुमते-घामते पहर रात गेले पंडा बाबा हीं लउटली । फेर हाँथ-मुँह धो के बचल-खुचल कलउआ के उधार कइली, तीनो गोटा ।)    (मपध॰02:8-9:38:2.7)
156    बंदोवस (= बंदोबस्त, इंतजाम) (बेटा के बड़ाय हकीकत मान के समेसर खोस दिल से रुपइया के बंदोवस में घर से निकल पड़ल आउ एगो महाजन हीं पाँच रुपये सैकड़ा महीना पर डेढ़ हजार रुपया लाके सुधीर के दे देलक ।)    (मपध॰02:8-9:32:1.4)
157    बचल-खुचल (घुमते-घामते पहर रात गेले पंडा बाबा हीं लउटली । फेर हाँथ-मुँह धो के बचल-खुचल कलउआ के उधार कइली, तीनो गोटा ।)    (मपध॰02:8-9:38:2.8)
158    बजड़ना (आखिर एक रोज रामजी हीं से बोलहटा आ गेल चनेसर बाबू के । देखते-देखते उनकर प्राण-पंछी उड़ गेल । मंजु बाप के ठठरी पर पछाड़ खा-खा के घंटों बजड़ते रहल । कोय तरह से मोहन आउ गाँव के लोग तीर-घींच के मट्टी से अलग कइलन ।)    (मपध॰02:8-9:21:3.9)
159    बझाना (= फँसाना) (बड़ी प्रेम से दूध पिलावइत पशु के बच्चा छुए से तो अइसन रगेदल जैबऽ कि जान छोड़ा के भागे पड़तवऽ । शायद सृष्टि के जीव के दुनिया में बझा के रखे ला, भगवान अइसन प्रेम के विधा कैलन हे ।)    (मपध॰02:8-9:9:1.9)
160    बतीसा (बालक के जन्म होते ही सब तरफ आनंद-बधाई के वातावरण पसर जाहे । फिर तो चारों तरफ सोंठउरा, बतीसा के हलुआ, आदी, गुड़ आदि परिजन और पड़ोसियो के घर में बाँटल जाय लगे हे ।)    (मपध॰02:8-9:9:2.1)
161    बन्हन (कउन छउँड़किन के इरखा नञ् होवऽ होत मंजु से । कउन नउजवान के आँख तर सपना नञ् आवऽ होत मंजु के । बस, गाँव के रीत आउ नाता-गोता के बन्हन उनकर गोड़ बान्हले रहऽ हल, जे से ऊ मंजु दने कोय उरेब कदम नञ् उठावऽ हलन ।)    (मपध॰02:8-9:21:1.22)
162    बर-बद्धी (पर-परसाद, बर-बद्धी ले के मरते-चुरइते घर अइली । अखनिओ जब बाबाधाम  के इयाद आवऽ हे त मन ओझरा जाहे । सोंचे लगऽ ही - का करी अब ! ... करबइ की, सावन में नञ् जइबइ । दिक्कत-सिक्कत ल तीरिथ छोड़ दे अदमी ।)    (मपध॰02:8-9:40:1.27)
163    बरही (= प्रसूता को प्रसव के बारहवें दिन स्नान आदि कराने का विधान; शिशु जन्म के बारहवें दिन का आयोजन) (सब परिजन अपन-अपन ढंग से खुशी व्यक्त करऽ हथ । कोई नाचे हे, कोई गावे हे, कोई नेग माँगे हे । एही वातावरण में जन्मोत्सव, छठी, बरही जइसन अनेक लोकाचार होवऽ जा हे ।)    (मपध॰02:8-9:9:2.15)
164    बलइया (कउलेज में ऊ मनोविज्ञान के छात्रा हल । ले रे बलइया ! हेड औफ डिपाटमेंट तक ह्युमन साइकलोजी भूल जा हलन, जब मंजु क्लास करऽ हल । उनखर चेहरा पर वुमन साइकलोजी साफ पढ़ल जा सकऽ हल ।)    (मपध॰02:8-9:21:1.26)
165    बाल-बुतरू (आज के हाइ-टेक जुग में बाल-बुतरू शिक्षक के अलावे टी.वी. आउ इंटरनेट से बहुत्ते बात जान-सिख रहल हे ।)    (मपध॰02:8-9:6:1.17)
166    बिरीत (= वृत्ति, रोजगार) (देखऽ, करबऽ तो तूँ अपने मन के बात, बाकि हमरा लगऽ हो कि जजमनिका बिरीत में अब कउनो जान न रह गेलो हे । ई जमाना में एकरा से गुजर-बसर होवे के न हो ।)    (मपध॰02:8-9:28:1.1)
167    बिलोला (= बिलेला; जिसका कोई सहारा न हो; यों ही भटकने वाला) (कइसहुँ साल-माल कट गेल । ई बीच गाहे-बेगाहे बेटी के देख आवऽ हलन चनेसर बाबू । थोड़े दिन मन में थीर रहे । फेर मन बिलोला के बिलोले । सल-सल भर के दिन-रात कटना मोहाल हो गेल हल अब उनका लगी ।)    (मपध॰02:8-9:21:3.1)
168    बे-लाज-बीज (ई तो सामने के दुआरी से अवाज आ रहल हे । बकि एतना रात गेले ई बे-लाज-बीज, के हँस रहल हे ?)    (मपध॰02:8-9:38:2.17)
169    बेहबार (= व्यवहार; दे॰ बेहवार) ("हमरा तो तोर बौस के बेहबार भी ठीक नञ् लगलो । ... घुरी-घुरी दुनहुँ बाँही पकड़ के 'ठीक हो न', 'कैरी ऑन' करते रहऽ हलन । हमरा तो झरकी बरे उनका पर, जब ऊ बिना कारन के पीठ पर हाँथ रख दे हलन ।" मंजु मोहन के पीठ सहलइते बोलल ।; तूँ नञ् जानऽ हऽ कि फिलिम लाइन में कोय सुंदर लड़की के साथ की बेहबार होवऽ हे । की-की घटऽ हे ओकरा साथ ।)    (मपध॰02:8-9:23:1.5, 2.28)
170    बोजना (परसाल बाबाधाम जाय के मोका मिल गेल । कौल-करार करके भरोसी आउ रामजीवन के भी साथ कइली । सावन के महिन्ना ! कामर ले के सुलतानगंज से जल बोजली ।)    (मपध॰02:8-9:38:1.17)
171    बोड (= बोर्ड) (चला-चली के बेरा में भरोसी बोलल, "चलऽ थोड़े परसाद ले ली ।" हमनहीं भी राजी हली । बजार नगीचे हल । एगो दोकान के बड़का बोड देखाय पड़ल - 'पटना मिष्टन भंडार' । तीनों ठमक गेली।)    (मपध॰02:8-9:39:3.19)
172    भकुआना (= घबड़ाना, भ्रमित होना) ("सरकार ! ... बाबा ... तनी उठथिन न ! ... जरी जल संकलप करवे के हलइ ।" रिरियाल बोलली हल । केबाड़ी खुल गेल । भकुआले पंडा सरकार बाहर अइलन ।)    (मपध॰02:8-9:39:1.19)
173    भरल (छाली ~ दही) (एकरा देखलहो नञ् ! एक तो एते दिन पर अइवो कइलै आउ ओकरो में मोटका चूड़ा छुच्छे लेले अइलै । छाली भरल दही तो दूर के बात हइ, एको गो तिलकुटो नञ् ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.12)
174    भुतलाना (= भुलाना) (लेकिन इ बढ़ियाँ तो नहिएँ कैलहो । तों तो इंदर वाला कगजा भीम के दे देलहो हे आव एकरा कह देलहो कि भुतला गेलो । जानऽ हकहो ! इंदर बेचारा किताब खरीदे लगी अप्पन जोरू के जेवर तक बेच देलके हे ।)    (मपध॰02:8-9:17:1.22)
175    भोरउआ (माय, तनी जल्दी डेढ़ हजार रुपइया दे दे, हम भोरउआ गाड़ी से पटना चल जइबउ । हमरा तनिको फुरसत नञ् हे ।)    (मपध॰02:8-9:31:3.13)
176    भोरछावर (एतना होवे पर भी बाल सुलभ चपलता, मनोरंजन, विनोद, हास्यप्रियता आउर खेल-कूद के प्रति विशेष आग्रह ओकरा में वर्तमान रहे हे । आउर बालक के हर रूप पर माँ ओतने भोरछावर देखाई पड़े हे । पुत्र ओकर प्राण हे, ऊ दूर रहे, चाहे पास ।)    (मपध॰02:8-9:12:2.19)
177    मंगनी (= मुफ्त, फोकट के) (एक बात जान लऽ कि ई दुनियाँ में जे कुछ भी पावल जाहे, ओकरा लगी बहुत कुछ चुकावे पड़े हे । जे जेतना बड़का चीज पैता, उ ओतने बड़गो चीज चुकैता । भीम के हम मंगनी के दे देलिए हऽ कि ? ओकरे बदौलत तो हम ई लठ के जमाना में इनभरसिटी में राज-पाट कर रहलिये हे । कम-से-कम साल में एक लाख रुपैया तो जरूरे ।)    (मपध॰02:8-9:17:1.30)
178    मनलग्गी (परसाल बाबाधाम जाय के मोका मिल गेल । कौल-करार करके भरोसी आउ रामजीवन के भी साथ कइली । सावन के महिन्ना ! कामर ले के सुलतानगंज से जल बोजली कि बस रे बस ! एकरे कहऽ हे - एक तीर से दू शिकार । मनलग्गी भी आउ तीरीथ भी ।)    (मपध॰02:8-9:38:1.19)
179    मसका (~ फुँकना) (बाबू हो, ई कंपटीसन के जुग हो । ढाक-ढोल के साथ चमरढोल नञ् चलतो, कार्नेट आउ ट्रंपेट के साथ मसका फुँकवऽ त थुड़ी-थुड़ी होतो । ई ले समय के साथ चलऽ ।)    (मपध॰02:8-9:5:1.27)
180    मसुरी (= मसूर) (गीता, सुधीर के पढ़ावे में बड़ी खरच पड़ रहल हे, बीघा भर छाली खेत त बिक चुकल । एकर अलावे कभी तीसी, कभी मसुरी, कभी सरसो, कभी चाउर बेच-बेच के ओकरा पइसा जुटा रहली हे । आउ न जनि अभी केतना खरच लगत ।)    (मपध॰02:8-9:32:1.27)
181    महराज (= महाराज) (अपन दधीचि से कहूँ कि मुनि महराज ! अपने के अकादमी में जउन सेलरी पेड स्टाफ मक्खी हउँकइत रहऽ हे, ओकरा में से एगो के उपयोग पुस्तकालय हेतु करके परम यश के भागी बनऽ !)    (मपध॰02:8-9:5:1.33)
182    महरानी (= महारानी) (राजा हरिनाथ के कउनो चीज के कमी न हल । भरल-पूरल राज, आज्ञाकारी परजा, मन लायक महरानी आउ दू गो बेटी के साथे उनकर जीवन मौज-मस्ती से गुजर रहल हल ।)    (मपध॰02:8-9:24:2.2)
183    महातम (= माहात्म्य) (घुरी-घुरी संविधान के अष्टम अनुसूची में जुड़े के गोहार आउ साहित्य अकादमी में हेले के खाहिंस कउन बूता पर चाहऽ हऽ, इहो विचारना जरूरी हो । दुनियाँ भर के दार्शनिक आत्ममंथन के खूब महातम बतइलन हे । ई ले तूहूँ कभी आत्ममंथन कर के देखऽ कि कउन काबू से हिंस्सा चाहऽ हऽ साहित्य अकादमी में । अभी भी मगही के बजट बिहार सरकार बंगला, भोजपुरी आउ मैथिली से कम के रखले हे ।)    (मपध॰02:8-9:5:1.16)
184    माहटर ("देखऽ, फारम भरा रहल हे । मैटिक के परीच्छा देवे वाला लइका-लइकी ही भर सकऽ हे । कम से कम फरम्मा तो भरवा दऽ ।" हेड सर घिघिया के बोललन । - "हम कहली न माहटर साहेब कि अब हमरा से न होत । एन्ने खरचा करम कि ओन्ने ।" माहटर साब ठिसुआल उहाँ से चल देलन ।)    (मपध॰02:8-9:33:1.33, 36)
185    मिठाय (= मिठाई) (आँख से लोर त दुनहुँ परानी के डबडबा गेल, ठरमुड़की अइसन खाड़ हलन कि हेड माहटर साहेब टोकलन - "अरे समेसर भाई ! एन्ने दुनहुँ परानी कहाँ अइलऽ हे । आवऽ, पहिले मिठाय खा ।" - "कौन खोसी में माहटर साहेब ?" धीरज बाँध के समेसर बोललन ।)    (मपध॰02:8-9:34:2.5)
186    मूड़ी (= सिर) (~ झुकाना; ~ गोतना) (खेमावाद-जातिवाद अगड़म-बगड़म सब के किनारे करऽ इया ओकरा सीरा घर में रख दऽ, मगही के प्रचार-प्रसार के बाद जरूरत पड़तो त मूड़ी झुकैते रहिहऽ ।)    (मपध॰02:8-9:5:1.26)
187    मेहरी (शुकन अप्पन जनाना से घर आवइ पर कहथ तो उनखर मेहरी कहलन - अजी, तू कइसन हऽ ? अप्पन बेटन के कुटुम के काहे न तू भी दु लाख सुझावऽ ? जेकरा घर सुधिया के विवाहइ ले जा हऽ, तोहर बेटवन से थोड़े अच्छा हे ।; मगर शुकन के मेहरी जइसन कहथ, शुकन न चाहइत हलन ।)    (मपध॰02:8-9:25:3.30, 26:1.9)
188    मोछइला (हेलमेट के बदले 100 रुपया हमरा हीं नञ् हे । - 'त ठीके बाऽ, चलऽ पुलिस असटेशन' जोरदार अवाज में मोछइला पुलिस कहलक, बकि रसते में नञ् जाने का होल कि पुलिसिया के बड़का बाबू कुछो कहलन त मनोहर बाबू के उ कहलक कि पचासो गो नञ् हवऽ, दे द ... काहे ला थाना-पुलिस के झर-झमेला में पड़ईथ ।)    (मपध॰02:8-9:19:2.22)
189    मोटका (एकरा देखलहो नञ् ! एक तो एते दिन पर अइवो कइलै आउ ओकरो में मोटका चूड़ा छुच्छे लेले अइलै । छाली भरल दही तो दूर के बात हइ, एको गो तिलकुटो नञ् ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.11)
190    रगेदना (बड़ी प्रेम से दूध पिलावइत पशु के बच्चा छुए से तो अइसन रगेदल जैबऽ कि जान छोड़ा के भागे पड़तवऽ ।)    (मपध॰02:8-9:9:1.7)
191    रहता (= रस्ता; रास्ता) (ओकरे बात में आके हम बेटा-बेटी में फरक कर देली । हम सोअरग के रहता छोड़ के नरक में चल गेली । हमरा माफ कर दऽ माहटर साहेब, माफ कर दऽ ।)    (मपध॰02:8-9:34:3.9)
192    रौदा (= धूप) ("अरे लगऽ हइ पिल्लू पड़ गेलो ह एकरा में ।" भरोसी बोलल । - "हाँ, की कहियो ।" - "बाप रे ! तब तो बड़ी घटी में पड़ गेलऽ ।" - "नञ्, घटी की होतइ । तू तो जबरिया अदमी हहो । तोरा से की छिपाना । एकरा तनी रौदा देखा देबइ । फेर सब खतम । ... टेस्ट करके देखहो ने, पेंड़बा खराब लगऽ हो ?")    (मपध॰02:8-9:40:1.13)
193    लइका (= लड़का) (अजी सोचऽ हऽ का ? देखऽ, दिन जमाना भी खराब हे, जुआन लइकी के घर में रखे के नञ् चाही, नञ् केधरो पढ़े जाय देवे के चाही । हम्मर बात नञ् मानवऽ तऽ फेन लइका खोजे में जुत्ता खिया जइतो । फेन तखने कहवऽ कि कहीं लइके नञ् मिल रहल हे सीमा खातिर ।)    (मपध॰02:8-9:32:3.26)
194    लइकी (= लड़की) (जुआन ~) (अजी सोचऽ हऽ का ? देखऽ, दिन जमाना भी खराब हे, जुआन लइकी के घर में रखे के नञ् चाही, नञ् केधरो पढ़े जाय देवे के चाही । हम्मर बात नञ् मानवऽ तऽ फेन लइका खोजे में जुत्ता खिया जइतो । फेन तखने कहवऽ कि कहीं लइके नञ् मिल रहल हे सीमा खातिर ।)    (मपध॰02:8-9:32:3.24)
195    लगी (= ल, लागी, लेल; के लिए) (इंदरसेन अइले हल, अपन थीसिस लेवे लगी । ओकरा फुसला-मतला के बिदा कर देलिअइ ।; लेकिन इ बढ़ियाँ तो नहिएँ कैलहो । तों तो इंदर वाला कगजा भीम के दे देलहो हे आव एकरा कह देलहो कि भुतला गेलो । जानऽ हकहो ! इंदर बेचारा किताब खरीदे लगी अप्पन जोरू के जेवर तक बेच देलके हे ।; ई मामले में तों अभी कच्चा हकऽ ! एक बात जान लऽ कि ई दुनियाँ में जे कुछ भी पावल जाहे, ओकरा लगी बहुत कुछ चुकावे पड़े हे ।; कइसहुँ साल-माल कट गेल । ई बीच गाहे-बेगाहे बेटी के देख आवऽ हलन चनेसर बाबू । थोड़े दिन मन में थीर रहे । फेर मन बिलोला के बिलोले । सल-सल भर के दिन-रात कटना मोहाल हो गेल हल अब उनका लगी ।)    (मपध॰02:8-9:17:1.18, 23, 28, 21:3.4)
196    लठ (एक बात जान लऽ कि ई दुनियाँ में जे कुछ भी पावल जाहे, ओकरा लगी बहुत कुछ चुकावे पड़े हे । जे जेतना बड़का चीज पैता, उ ओतने बड़गो चीज चुकैता । भीम के हम मंगनी के दे देलिए हऽ कि ? ओकरे बदौलत तो हम ई लठ के जमाना में इनभरसिटी में राज-पाट कर रहलिये हे । कम-से-कम साल में एक लाख रुपैया तो जरूरे ।)    (मपध॰02:8-9:17:1.31)
197    लपरवाही (= लापरवाही) ("अहो ई पनिया हरियर कचूर काहे लगऽ हइ भरोसी ?" रामजीवन चकचेहा के बोलल, "बाप रे ! एतना जमड़ी आउ काय । लगऽ हइ सालों एकर सफाय नञ् होवऽ हइ ।" .... "दुत्तोरी के ! काय रहे इया पिल्लू परल रहे । हमरा की मतलब हे ।" भरोसी लपरवाही से बोलल ।)    (मपध॰02:8-9:38:3.26)
198    लहकना (जेठ के दुपहरिया में लहकल बस के छत में छुअइते उनकर माथा गरम हो गेल ।)    (मपध॰02:8-9:40:2.7)
199    लेले-देले (इंदरसेन नयका विषय पर पूरा लिख के लेले-देले पहुँच जाहे ।)    (मपध॰02:8-9:17:2.29)
200    लौकना (= दिखाई देना) (हम्मर मन का कहत परोफेसर साहेब ? सोंचित ही हम अप्पन पुरनके जजमनिका ओला पेशा शुरू करी । जजमानन से फिर से सरोकार बनावी । तभिए गुजर-बसर हो सकऽ हे । एकरा अलावे तो आउ कउनो रस्ते न लौक रहल हे हमरा ।)    (मपध॰02:8-9:27:3.30)
201    विंडोबा (ओकर चंचलता आउ तेज बुद्धि के इयाद हमरा अइसे झकझोर देलक जइसे कब के जाम पड़ल गर्दा के विंडोबा उड़ा ले जाहे ।)    (मपध॰02:8-9:29:2.12)
202    संकलप ("सरकार ! ... बाबा ... तनी उठथिन न ! ... जरी जल संकलप करवे के हलइ ।" रिरियाल बोलली हल । केबाड़ी खुल गेल । भकुआले पंडा सरकार बाहर अइलन ।; 'हे राम जी ! ई की भेल ।" मने मन छगुने लगली हम । सरकार बिन स्नाने-पूजा के संकलप करावे लगलन ।)    (मपध॰02:8-9:39:1.19, 31)
203    सज्जल (= 'सजना' का भू॰कृ॰, सजा हुआ) (ओह ! अइसन सज्जल बजार जेकर बरनिका नञ् । अदमी के हल्ला-गुल्ला इलहदे । एक जमा एतना अदमी कहाँ देखली हल ।)    (मपध॰02:8-9:38:2.3)
204    सफाय (= सफाई) ("अहो ई पनिया हरियर कचूर काहे लगऽ हइ भरोसी ?" रामजीवन चकचेहा के बोलल, "बाप रे ! एतना जमड़ी आउ काय । लगऽ हइ सालों एकर सफाय नञ् होवऽ हइ ।")    (मपध॰02:8-9:38:3.21)
205    समाना (= अ॰क्रि॰ घुसना; स॰क्रि॰ घुसाना) (दौड़ते-हाँफते, खेलते-हँसते, बोल-बम करते दू दिन में बाबाधाम पहुँचली । मुदा जइते-जइते झोला-झोली हो गेल हल । जा के अपन पंडा जी हीं टिकली । सुइया पहाड़ के कंकड़-पत्थल गोड़ के फुला के ढाऊँस कर देलक हल । घाव के दरद गोड़ आउ सउँसे देह में समाल हल ।)    (मपध॰02:8-9:38:1.27)
206    समेचार (= समाचार) (इहाँ के सब समेचार निमन हे, उहाँ के समेचार भी ठीके होत । बाबू जी एवं माय के मालूम कि हम खूब मन लगा के पढ़ रहली हे । रुपइया हमरा हीं झर गेल हे, ई लेल जेतना जल्दी हो सके एक हजार रुपइया भेजे के कोरसीर करऽ ।)    (मपध॰02:8-9:31:2.10, 11)
207    सरकार ("सरकार, ई मंतर हिंदी में काहे बोले लगली ?" भरिसी पुछलक । - "अरे छोड़ऽ जजमान । ... बाबा हिंदी थोड़े नञ् बुझऽ हथ । फेर हिंदी तो हमर मातृभाषा हे । माय से भी बढ़ के होवऽ हे संसार में कुछ ।" पंडा सरकार खींस निपोड़ते बोललन ।)    (मपध॰02:8-9:39:2.3, 9)
208    ससरंग (= संगति) (राजकुमारी के चेहरा उतर गेल हल आउ उ गरीब-गुरुआ नियन देखे में लग रहल हल । हाल जाने पर राजा के मालूम भेल कि उनकर बड़का दमाद गलत ससरंग में पड़के पूरा जमीन-जयजात लुटा देलन । आउ-त-आउ अप्पन राज कहल भी गिरमी रख देलन ।)    (मपध॰02:8-9:24:2.16)
209    साब (= साहब, साहेब)  ("देखऽ, फारम भरा रहल हे । मैटिक के परीच्छा देवे वाला लइका-लइकी ही भर सकऽ हे । कम से कम फरम्मा तो भरवा दऽ ।" हेड सर घिघिया के बोललन । - "हम कहली न माहटर साहेब कि अब हमरा से न होत । एन्ने खरचा करम कि ओन्ने ।" माहटर साब ठिसुआल उहाँ से चल देलन ।)    (मपध॰02:8-9:33:1.36)
210    सुकुन (डॉ॰ संपत्ति आर्याणी, वीणा मिश्रा, चंचला रवि आउ साधना भारती से पहिल बेर 'मगही पत्रिका' में महिला लेखिका के हाजरी लग रहल हे । हमरा ले ई बड़ी सुकुन के बात हे ।; आज जरूरत हे कि शिक्षक अपन पहचान के समझथ आउ उनका युग-युग से जे आदर मिलते आल हे, ओकरा पहिले के तरह जोगा के रखथ । जेकरा में समाज भी सुकुन अनुभव करत आउ उहो गौरव महसूस करतन ।)    (मपध॰02:8-9:4:1.8, 6:3.23)
211    सुन्नर (= सुन्दर) (सुधिया अप्पन ससुर घर गेल । ऊ घर में लाख-लाख रुपया दहेज लेके उनखर ससुर दुन्नु बेटन के बिआह कइलन हल । मगर दुन्नु पुतहु न तो पढ़ल-लिखल हल आउ न सुन्नर ।)    (मपध॰02:8-9:26:3.4)
212    सोंठउरा (= जच्चा के स्वास्थ्य लाभ ला सोंठ के बनल खाद्य पदार्थ) (बालक के जन्म होते ही सब तरफ आनंद-बधाई के वातावरण पसर जाहे । फिर तो चारों तरफ सोंठउरा, बतीसा के हलुआ, आदी, गुड़ आदि परिजन और पड़ोसियो के घर में बाँटल जाय लगे हे ।)    (मपध॰02:8-9:9:2.1)
213    हखीं (= हखिन, हथिन; हैं) (बी.एच.यू. में हमरे एगो लंगोटिया यार हखीं 'मुरारी जी' । उहे हमरा परीक्षक बनैलखीं हे ।)    (मपध॰02:8-9:18:1.17)
214    हमनहीं (= हमन्हीं; हमलोग) ("सरकार ! ... बाबा ... तनी उठथिन न ! ... जरी जल संकलप करवे के हलइ ।" रिरियाल बोलली हल । केबाड़ी खुल गेल । भकुआले पंडा सरकार बाहर अइलन । 'अस्नान करके आ गेली जजमान लोग ?' पंडा सरकार बड़ी परेम से बोललन । - "जी सरकार !" हमनहीं तीनों एक स्वर से बोलली ।)    (मपध॰02:8-9:39:1.24)
215    हमहूँ (= हम भी) (" ... जब खाय लगऽ हलन, त हमरा जरूर बोला ले हलन । हमनी दुन्नों एक्के पाँत में बइठ के खा हली । उनखर चेहरा आझो हम्मर जेहन में हे ।" उनखर बात सुनके हमहूँ सभे बात भख देली ।)    (मपध॰02:8-9:27:3.7)
216    हरियर (= हरा) (~ कचूर) ("अहो ई पनिया हरियर कचूर काहे लगऽ हइ भरोसी ?" रामजीवन चकचेहा के बोलल, "बाप रे ! एतना जमड़ी आउ काय । लगऽ हइ सालों एकर सफाय नञ् होवऽ हइ ।")    (मपध॰02:8-9:38:3.17)
217    हरियाना (= हरा होना) (खिड़की में से हवा लगल, त बूढ़ा बाबा के मन तनि सा हरिआयल ।)    (मपध॰02:8-9:40:2.14)
218    हलऽ (~ लऽ) (खोसी से उछलइत गीता बोलल - "अजी जल्दी से दस हजार रुपइया कहीं से ला के भेज दऽ । हलऽ लऽ ई कनवाली, ई बेसर, ई पायल सब बेच के दे दऽ !")    (मपध॰02:8-9:33:3.15)
219    हाजरी (= हाजिरी, उपस्थिति) (डॉ॰ संपत्ति आर्याणी, वीणा मिश्रा, चंचला रवि आउ साधना भारती से पहिल बेर 'मगही पत्रिका' में महिला लेखिका के हाजरी लग रहल हे । हमरा ले ई बड़ी सुकुन के बात हे ।)    (मपध॰02:8-9:4:1.7)
220    हिंछा (= इच्छा) (भारत जहान में धरम-स्थल के मोहाल नञ् हे । बकि सब जगह देवी-देउता के दरसन ले, के जा सकऽ हे । फेनु तीरथ करे के भी एगो उमर होवऽ हे । हमरा ल उमर बढ़ाना आउ धन उगाहना तो मोसकिल हल, मुदा तीरथ-परयाग के हिंछा हेठुआ मनी । समइया से बाबाधाम जाय ले कइले हली मुदा जोगाड़ नञ् बइठल हल । बड़ ने भाग, गरीब के कहियो हिंछा पूरल हे ।)    (मपध॰02:8-9:38:1.7, 11)
221    हिंस्सा (= हिस्सा) (घुरी-घुरी संविधान के अष्टम अनुसूची में जुड़े के गोहार आउ साहित्य अकादमी में हेले के खाहिंस कउन बूता पर चाहऽ हऽ, इहो विचारना जरूरी हो । दुनियाँ भर के दार्शनिक आत्ममंथन के खूब महातम बतइलन हे । ई ले तूहूँ कभी आत्ममंथन कर के देखऽ कि कउन काबू से हिंस्सा चाहऽ हऽ साहित्य अकादमी में । अभी भी मगही के बजट बिहार सरकार बंगला, भोजपुरी आउ मैथिली से कम के रखले हे ।)    (मपध॰02:8-9:5:1.16)
222    हिआँ (= हियाँ; यहाँ) (मुरझायल मन से राजा जइसहीं छोट बेटी हिआँ गेलन देखलन खूबे बड़गर भवन में बेटी झुलुआ झूल रहल हे, चारों दने नौकर-चाकर लगल हे आउ दुआरी पर दूगो द्वारपाल खाड़ हे ।)    (मपध॰02:8-9:24:2.17)
223    हियाँ (= यहाँ) (हम अभी तीन बरिस बेटन के बिआह न करब । दुनु बेटन के भी इहे राय हल । मगर कुटुम रोज-रोज आवइत हल । शुकन दुन्नु बेटन हीं तार भेजलन, बेटा हम तो हियाँ फजहत में पड़ल ही । एक जा हथ तो दूसरे आके दुरा पर बइठल रहऽ हथ ।)    (मपध॰02:8-9:25:2.12)
224    हुलुकना (हम तो चौंकी पर सुतल ही । ओह ! ई सामने वला दुआरी से । के हे भाय ! छोड़ऽ ! कोय रहे, हमरा की मतलब हे ! अपन केबाड़ी लगा ले ही । केबाड़ी लगबे अइली त जरी बाहरी हुलुक ले ही । सगरो झात-झात । बकि सामने वला कोठली में इंजोर हइ !)    (मपध॰02:8-9:38:3.1)
225    हेठुआ (~ मनी) (भारत जहान में धरम-स्थल के मोहाल नञ् हे । बकि सब जगह देवी-देउता के दरसन ले, के जा सकऽ हे । फेनु तीरथ करे के भी एगो उमर होवऽ हे । हमरा ल उमर बढ़ाना आउ धन उगाहना तो मोसकिल हल, मुदा तीरथ-परयाग के हिंछा हेठुआ मनी ।)    (मपध॰02:8-9:38:1.8)
 

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