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Monday, October 01, 2012

68. कहानी संग्रह "कनकन सोरा" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



कसोमि॰ = "कनकन सोरा" (मगही कहानी संग्रह), कहानीकार श्री मिथिलेश; प्रकाशक - जागृति साहित्य प्रकाशन, पटना: 800 006; प्रथम संस्करण - 2011  ई॰; 126 पृष्ठ । मूल्य 225/- रुपये ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 1963

ई कहानी संग्रह में कुल 15 कहानी हइ ।


क्रम सं॰
विषय-सूची 
पृष्ठ
0.
कथाकार मिथिलेश - प्रेमचंद आउ रेणु के विलक्षण उत्तराधिकारी
5-8
0.
अनुक्रम
9-9



1.
कनकन सोरा
11-18
2.
टूरा
19-25
3.
हाल-हाल
26-31



4.
अदरा
32-43
5.
अदंक
44-56
6.
सपना लेले शांत
57-60



7.
संकल्प के बोल
61-67
8.
कान-कनइठी
68-75
9.
डोम तऽ डोमे सही
76-87



10.
छोट-बड़ धान, बरोबर धान
88-97
11.
अन्हार
98-104
12.
बमेसरा के करेजा
105-109



13.
निमुहा धन
110-113
14.
पगड़बंधा
114-116
15.
दरकल खपरी
117-126

ठेठ मगही शब्द ("" से "" तक):

342    खँचिया (ओकर जीह में पचास बरिस पहिले के अँटकल सवाद पनियाय लगल ... घुट् ! ओकर आँख तर खरिहान-उसार के अंतिम लिट्टी नाच गेल - गोल-गोल डमारा के आँच पर सीझइत लिट्टी । लिट्टी कि छोटका बेल ! बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी ।; मुँह के जब्बड़ आउ देह के सब्बड़ रहे तब गाड़ी पर जा सकऽ हे, नञ् तो भर रस्ता ढकलइते रहऽ । किसिम-किसिम के अदमी अउ तरह-तरह के समान, परैया के मिट्ठा, कस्ठा के गोइठा, दूधवला के अलगे ताव, गठरी-मोटरी, खँचिया से लेके आम-अमरूद सब ... । समय आवे पर मारामारी, लऽ खा लत्तम-मुक्का, लट्ठम-लाठी ।; चारो अनाज अलग-अलग लुग्गा में बान्हलक आउ खँचिया में सरिया के माथा पर उठावइत बोलल, "चल....हम तलाय पर से आवऽ हिअउ।")    (कसोमि॰21.2; 37.1; 120.19)
343    खंगहारना (= दे॰ खंघारना; पानी से साफ करना) (किसन कटोरा खंगहार के झोला में रखलक अउ एगो फट्टल चद्दर बिछा के सूत गेल ।)    (कसोमि॰25.21)
344    खंडा (माथा पर हाथ धइले पोखन मने मन हिसाब लगा रहलन हल - दू खंडा घरवली के, फुफ्फा से हथ पइँचा पाँच हजार । बचल-खुचल पाँच कट्ठा गिरवी रख देम, चलो फुर्सत । कमाम आउ खाम । धरती माय के दया भेत तऽ दू साल में फुफ्फा से फारिग ।; ओकरा याद आल - सुरमी के हिस्सा तऽ बेकारे बनइलूँ । दिन भर निकौनी । बेचारी कोल्हू के बैल नियन जुतल हे । बाप-घर से जे भी दू खंडा लइलक हल, खा-पी गेल ।)    (कसोमि॰62.9; 80.10)
345    खंती (= खनती, खनित्र) (बजार निसबद । मुंडे दोकान भिर रुक गेल । चुल्हा चाटइत खौरही कुतिया झाँव-झाँव करऽ लगल - आक् थू ... धात् ... धात् । पिलुआही ... नञ् चिन्हऽ हीं । बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे ।)    (कसोमि॰82.6)
346    खंधा (बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक । डमारा के ढेरी, हसनपुर के जनेगर पहाड़ । ओकरे से उसार के लिट्टी बनऽ हल । एक खंधा के सब खरिहान से उगाही होवऽ हल ।; अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा ।; - उनकर सिलसिला अब अलगे हन । घर तऽ खाली हिस्सा लेबइ ले आवऽ हथिन । - छोटका कहाँ गेलथुन ? - ऊ बेचारा खंधा पर पटौनी में हो । रात के दस-बारह बजे अइथुन आउ खा-पी के चल जइतो ।; कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान ! दू सेर कच्ची से कीलो पर पहुँचलइ । किसान के मारा तऽ डाँड़ा तोड़ले रहऽ हइ । एक साल उपजलो तऽ चार साल सुखाड़ । अबरिए देखहो ने, पहिले तऽ दहा देलको, अंत में एक पानी ले धान गब्भे में रह गेलो । लाठा-कूँड़ी से कते पटतइ । सब खंधा में टीवेल थोड़वे हो ।)    (कसोमि॰23.24; 37.27; 38.1; 72.19; 73.2)
347    खखनना (आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । …खेसाड़ी लेल तऽ जी खखन गेल । दाल खइला तऽ आखवत बीतल । जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके ।)    (कसोमि॰78.23)
348    खटना (= देह से कठिन परिश्रम करना) ("कहैंगा तब खिसिआयँगा तो नञ् ?" - "चोरी-डकैती कइलें होमे तऽ हमर मरल मुँह देखिहें ।" - "अरे, कमाया हैं रे .. बजार का नल्ली साफ किया ... दू सो रुपइया में ... तीन रात खट के ।" सुरमी के लगल जइसे नाली के थोका भर कादो कोय मुँह पर मार देलक हे - "डोम ... छी ... तूँ तऽ डोम हो गेलें । आक् थू ... !")    (कसोमि॰87.4)
349    खटिया-बिछौना (मास्टर साहब वारसलीगंज के धनबिगहा प्राथमिक विद्यालय में पढ़ावऽ हथ । रोज रेलगाड़ी से आवऽ जा हथ । खाना घरे से ले ले हथ । दिन भर के थकल रग-रग टूटऽ हे । अइते के साथ धोती-कुरता खोल के लुंगी बदल ले हथ आउ दुआरी पर खटिया-बिछौना बिछा के आधा घंटा सुस्ता हथ ।)    (कसोमि॰98.8)
350    खट्टा-तीता (मास्टर साहब के गोस्सा सथा गेल । उनखर ध्यान बरखा दने चल गेल । जलमे से ओकर पेट खराब रहऽ हइ । दवाय-बीरो से लेके ओटका-टोटका कर-कराके थक गेला मुदा ... । कत्ते बेरी चलित्तर बाबू अपन मेहरारू के समझइलका हे - बुतरू के पेट माय के खान-पान पर निर्भर करऽ हे । तों खट्टा-तीता छोड़ दऽ ... तऽ देखहो, एकर पेट ठीक होवऽ हइ कि नञ् ।)    (कसोमि॰99.25)
351    खड़खड़ाना (सुकरी चौपट्टी नजर घुमइलक । ताड़ के पेड़ पुरबइया से खड़खड़ा रहल हल । थोड़के-थोड़के दूर पर टिवेल के केबिन, बिजली तार के जाल । तिरकिन आदमी अपन-अपन काम में विसित ।)    (कसोमि॰38.3)
352    खड़हु-खाँड़ (बासो टेंडुआ टप गेल । - पार होलें बेटा, पिच्छुल हउ । - हइयाँऽऽ ... । मुनमा टप गेल । - हम हर साल भदवी डाँड़ खा हिअइ बाऊ । जे खाय भदवी डाँड़ ऊ टपे खड़हु-खाँड़ । दुन्नू ठकुरवाड़ी वला अलंग धइले जा रहल हे ।)    (कसोमि॰95.18)
353    खड़ाँव (असेसर दा घर दने चल गेला । बनिहार एक लोटा पानी आउ हवाई चप्पल रख गेल । खड़ाँव के चलन खतम हो गेल हे । पहिले काठ के चट्टी चलऽ हल, बकि ओहो उपह गेल । फुफ्फा सोचऽ हथ - पहिले नौकर खड़ाँव रख के चल नञ् जा हल, गोड़ो धोवऽ हल बकि अब तो सब-कुछ बदल गेल हे ।)    (कसोमि॰70.1, 3)
354    खड़ी (= खड़ा) (लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।)    (कसोमि॰47.7)
355    खनदानी (= खानदानी) (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ ।)    (कसोमि॰58.20)
356    खन्धा (= खन्हा; दे॰ खंधा) (एक दिन नदखन्हा में खेसाड़ी काढ़ रहलियो हल । तलेवर सिंह रोज भोरे मेलान खोलथुन । तहिया गाय के सहेर ओहे खन्धा हाँकलथुन । सौंसे पारी कल्हइ कढ़ा गेलइ हल । पम्हा चटइते हमर पारी भिजुन अइलथुन अउ खैनी खाय ले बैठ गेलथुन ।)    (कसोमि॰111.15)
357    खन्हा (= खंधा) (बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो । खन्हा कटल हो, एकर खेत गाय-गोरू बरबाद करते रहलो ।; ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।)    (कसोमि॰58.23; 80.3)
358    खपरी (खपरी के लड़ाय विस्तार लेवे लगल हल । भेल ई कि हुसैनमावली के बूँट भूँजइ के हल । रोटियानी-सतुआनी लेल घठिहन अनाज के भुँझाय-पिसाय घरे-घर पसरल हल । अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल ।; शान्त होबइ के तऽ हो गेल बकि दुन्नू तहिया से कनहुअइले रहऽ हल। आझ मँझली के काम आ पड़ल। अनाज भुंजइ के एगो छोटकिये के पास खपरी हल। खा-पी के छोटकी के अवाज देलक, "अहे छोटकी ... जरी खपरिया निकालहो तो।" - "हम्मर खपरी दरकल हे।")    (कसोमि॰117.1; 123.1, 2, 3)
359    खर (= अधिक/ कड़ा सेंका/औंटा हुआ) (ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल । दूध औंटे में छोलनी चलइत रहे के चाही, नञ् तऽ सब माल छाली में जमा हो जाहे । छोलनी चलला से माल मिलइत गेलो, दूध औंटाइत गेलो । ओकर नाक में खर औंटल दूध के गंध भर गेल ।)    (कसोमि॰22.3)
360    खर (= भूरा रंग आ जाने तक थोड़ा अधिक पका हुआ जिससे थोड़ा अधिक स्वादिष्ट हो जाय) (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।)    (कसोमि॰78.10)
361    खरंगना (घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात । ई लेल सबेरे उठल आउ बोझड़ी के खरिहान में पसार देलक । पछिया खुलल हल, खरंगते कि देरी लगत !)    (कसोमि॰119.6)
362    खरंजा (= खड़ंजा, खड़ैंजा) (मोसाफिरखाना से बाहर भेला तऽ बजार सुत्तल । लछमी जी के मंदिर बजार भर के अंगना । छूटल-बढ़ल राही-मोसाफिर ओकरे में रात गमावे । ऊहो ओज्जइ गेला आउ बैग से चद्दर निकाल के बिछा देलका । सौंसे छत पर लगे जइसे मुरदा पड़ल हे, रेल-दुर्घटना वला मुरदा । अइँटा के खरंजा नियन सरियावल ।)    (कसोमि॰28.20)
363    खरची (बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो । खन्हा कटल हो, एकर खेत गाय-गोरू बरबाद करते रहलो । कोढ़ हइ कोढ़ ! कइसूँ सालो भर के के खरची चल गेलो तऽ बहुत ।)    (कसोमि॰58.24)
364    खरहाना (= खरहन, खरहना, खरहन्ना; बिना बिछावन का {आसन, चारपाई आदि}) (बड़की उठके भित्तर चलली बिछौना निकालइ लेल । मेहमान अँगना में बिछल खटिया पर खरहाने में बैठ गेला । - खरहाना में दमाद बइठऽ हइ तऽ ससुरार दलिद्दर होवऽ हइ, गोड़ लगिअन । छोटकी सरहज गोदैल के ऊपर उचकइते बोलल आउ ढिबरी मेहमान के आगू वला मोखा पर धर देलकी । मेहमान संकोच में उठ गेला ।)    (कसोमि॰74.4, 5)
365    खरिहान-उठाय (चल-चल ! दस-बीस गो दतमन लेले अइहें बथान पर । आज खरिहान उठाय हइ रे ! चक्खी-पक्खी चलतइ ।)    (कसोमि॰21.22)
366    खरिहान-उसार (ओकर जीह में पचास बरिस पहिले के अँटकल सवाद पनियाय लगल ... घुट् ! ओकर आँख तर खरिहान-उसार के अंतिम लिट्टी नाच गेल - गोल-गोल डमारा के आँच पर सीझइत लिट्टी ।)    (कसोमि॰20.26)
367    खरूहट (ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।)    (कसोमि॰80.4)
368    खलड़ी (आज ऊ समय आ गेल हे । सितबिया हनहनाल बमेसरा दुआर चलल । बड़ तर बमेसरा मांस के पैसा गिन रहल हल । ओकरा बगल में कत्ता आउ खलड़ी धइल हल । कटोरा में अचौनी-पचौनी । सितबिया लहरले सुनइलक - हमर घर के हिसाब कर दे ।)    (कसोमि॰108.15)
369    खह-खह (धंधउरा में अलुआ पकऽ हइ ? एकरा ले तो भुस्सा के आग चाही ... भंभीरा ... खह-खह ।)    (कसोमि॰16.11)
370    खायक (दुन्नू के मेहरारू गाँव में हवेली कमा हल । होवे ई कि अपन-अपन हवेली से लावल खायक अपने-अपने बाल-बच्चा के खिलावे । बुतरू तऽ बुतरुए होवऽ हे, भे गेल आगू में खड़ा । निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय ।)    (कसोमि॰105.7)
371    खाय-पानी (घर जाके मुनियाँ गोड़ धोलक आउ भंसा हेल गेल । घर में खाय-पानी ईहे करऽ हे । एकरा साँझे नीन अइतो । बना-सोना के खा-पी के सुत गेलो ।)    (कसोमि॰65.21)
372    खिंड़ना (असमान ~) (लोटा उठा के एक घूँट पानी लेलक आउ चुभला के घोंट गेल ... घुट्ट । ऊ फेनो एगो बीड़ी सुलगइलक आउ कस पर कस सुट्टा मारऽ लगल । भित्तर धुइयाँ से भर गेल । नीसा धुइयाँ नियन असमान खिंड़ल आउ ओकरे संग बिठला के मन ।; दही तरकारी गाम से जउर भेल । हलुआइ आल आउ कोइला के धुइयाँ अकास खिंड़ल । करमठ पर किरतनियाँ खूब गइलन । सब पात पूरा । अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका ।)    (कसोमि॰81.4; 115.2)
373    खिखनी (समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।)    (कसोमि॰58.27)
374    खिल्ली (पान के खिल्ली के खिल्ली मुँह में दाबइत मौली उठ गेल हल अउ खिस्सा खतम कइलक - बाकि सुन लऽ, छकड़जीहा एकर अहसान मानतो ? माने चाहे मत माने, हम ओकरा थोड़े, निमुँहा के बचबइ ले चल गेलिअइ !)    (कसोमि॰113.6)
375    खिसिआना (= गुस्सा करना) ("कहैंगा तब खिसिआयँगा तो नञ् ?" - "चोरी-डकैती कइलें होमे तऽ हमर मरल मुँह देखिहें ।" - "अरे, कमाया हैं रे .. बजार का नल्ली साफ किया ... दू सो रुपइया में ... तीन रात खट के ।" सुरमी के लगल जइसे नाली के थोका भर कादो कोय मुँह पर मार देलक हे - "डोम ... छी ... तूँ तऽ डोम हो गेलें । आक् थू ... !"; ऊ तऽ धैल हँथछुट, देलको एक पैना धर । मन लोहछिया गेलो । खाली हाथ, खिसियाल गेलियो लटक । तर ऊ, ऊपर हम । गोरखियन सब दौड़ गेलो । ऊहे सब गहुआ छोड़इलको । तहिया से धरम बना लेलियो - कोय मतलब नञ् ।; छोटकी खिसिया के मुँह में तीन-चार चाँटा जड़ देलक। छउँड़ा के विरोध बढ़इत गेल।)    (कसोमि॰87.1; 111.25; 125.18)
376    खिस्सा (= किस्सा) (कल होके बीट के दिन हल । दुन्नू साथे सिरारी टिसन आल अउ केजिआ धइलक । गाड़ी शेखपुरा पहुँचइ-पहुँचइ पर हल । खिड़की से गिरहिंडा पहाड़ साफ झलक रहल हे । लाजो के पिछला भदवी पुनियाँ के खिस्सा याद आवऽ लगल ।)    (कसोमि॰49.11)
377    खीर-पुड़ी (तरसल के खीर-पुड़ी, लिलकल के सैयाँ । जल्दी बिहान मतऽ होइहा गोसइयाँ ॥)    (कसोमि॰64.26)
378    खुट्टी (= खूँटी) (बचल दारू पीके सुरमी खलिया कटोरा भुइयाँ में धइलक कि बिठला खुट्टी में टंगल मानर उतार के गियारी में पेन्हलक आउ थाप देलक ।; गैंठ देल भुदानी थैला के कंधा से उतार के खुट्टी में टाँगइत चलित्तर बाबू अपन मेहरारू से पुछलका - कइसन हइ बरखा ? हले ले, दे देहीं दवइया, आधा-आधा गोली तीन बेरी । सीसियावला जइसे चलऽ हइ, चले  दहीं ।)    (कसोमि॰86.10; 98.1)
379    खुनियाँ (असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् । - खुनियाँ नञ्, मनसूगर कहो । बैल अइसने चाही, जे गोंड़ी पर फाँय-फाँय करइत रहे । नेटुआ नियन नाचल नञ् तऽ बैल की । सौखी लाठी के हाथ बदलइत बोलल ।)    (कसोमि॰68.7, 9)
380    खुरखुराना (आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... । पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल ।)    (कसोमि॰16.27)
381    खुरखुरी (कम्मल कहतो, पहिले हमरा झाँप तब तोरा झाँपबउ । कम्मल पर गेनरा रख के दुन्नू गोटी घुकुर जाम । पोबार ओढ़इ में उकबुका जाही । बीच-बीच में मुँह निकाले पड़तो । खुरखुरी से हाली-हाली नीन टूट जइतो ।)    (कसोमि॰17.21)
382    खुल्ला (= खुला) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।")    (कसोमि॰11.2)
383    खूँड़ी (= खूड़; खुर) (एतने में पंडित जी बोलला - बउआ, खूट के माथा पर के पगड़ी उतार के रखऽ अउ असिरवाद लऽ । हितेसरा के कुछ नञ् सूझ रहल हल कि केक्कर माथा पर पगड़ी रखे के चाही । ओकरा अपन चाचा के देख के माथा सन्न-सन्न करे लगल । ऊ सोंचलक कि गाय के खूँड़ी पर रखम तऽ रखम बकि चाचा के माथा पर नञ् । एतने में ओकर नजर फुफ्फा पर चल गेल । ऊ निहचे कइलक । ईहे ठीक ।)    (कसोमि॰115.20)
384    खूट (= खानदान) (पगड़ी बन्हा गेल एक ... दू ... तीन ... । फेरा पर फेरा ! फेरा-फेरी लोग आवथ आउ एक फेरा देके अच्छत छींटथ आउ टिक्का देके चल देथ । बानो भी उठल आउ फेरा देलक । हितेसरा के मन में आँन्हीं चल रहल हल । एतने में पंडित जी बोलला - बउआ, खूट के माथा पर के पगड़ी उतार के रखऽ अउ असिरवाद लऽ ।; पंडित जी बोलला - पगड़ी अपने खूट {खनदान} के माथा पर रखे के चाही हल ।)    (कसोमि॰115.17; 116.3)
385    खेत-खंधा (रस्ता में मकइ के खेत देखलका तऽ ओहे हाल । सगरो दवा-उबेर । उनकर माथा घूम गेल । ऊ पागल नियन खेत के अहरी पर चीखऽ-चिल्लाय लगला - हाल-हाल ... हाल-हाल । उनकर अवाजे नञ् रुक रहल हल । ढेर देरी तक हँकारते रहला । खेत-खंधा के लोग-बाग दंग ।)    (कसोमि॰26.17)
386    खेत-पथार (बड़का भाय ललटेन गोल में रख के अगाड़ी में अइला आउ दोल से हाथ धोके गमछी से पोछऽ लगला । इनकर ध्यान भइया दने गेल कि खेती-बारी के बारे में सोचऽ लगला । अइसे ई खेत-पथार पर नञ् जा हथ । खेती के भार भइए पर, मुदा साँझ के सब समाचार ले ले हला । नगदी के भार इनके पर हल ।; बुलकनी के दुन्नू बेटा हरियाना कमा हे । बेटी दुन्नू टेनलग्गू भे गेल हे । खेत-पथार में भी हाथ बँटावे लगल हल । छोटकी तनि कड़मड़ करऽ हल । ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे ।)    (कसोमि॰102.1; 118.19)
387    खेती-गिरहस्ती (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !)    (कसोमि॰61.3)
388    खेती-बारी (बड़का भाय ललटेन गोल में रख के अगाड़ी में अइला आउ दोल से हाथ धोके गमछी से पोछऽ लगला । इनकर ध्यान भइया दने गेल कि खेती-बारी के बारे में सोचऽ लगला । अइसे ई खेत-पथार पर नञ् जा हथ । खेती के भार भइए पर, मुदा साँझ के सब समाचार ले ले हला । नगदी के भार इनके पर हल ।)    (कसोमि॰101.27)
389    खेतुरी (बिठला किसान छोड़ देलक हे । मन होल, गेल, नञ् तऽ नञ् ! जने दू गो पइसा मिलल, ढुर गेल । बन्हल में तऽ अरे चार कट्ठा खेतुरी आउ छो कट्ठा जागीर । एकरा से जादे तो बिठला एन्ने-ओन्ने कमा ले हे । ने हरहर, ने कचकच ।)    (कसोमि॰80.6)
390    खेर ("अहे छोटकी ... जरी खपरिया निकालहो तो।" - "हम्मर खपरी दरकल हे।"  - "देहो ने, हिफाजत से भुंजवो ।" - "नञ् ने देवो ... फेन मुड़ली बेल तर। ने गुड़ खाम ने कान छेदाम। सो बेरी के बेटखउकी से एक खेर दू टूक। साफ कहना सुखी रहना।")    (कसोमि॰123.6)
391    खेलउनियाँ (= खिलौना; खेलाने वाला) (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज । तहिया छिकनी चिकनी हल । केकर मजाल कि आँख उठा दे मेहरारू पर ! आज तऽ गाम भर के खेलउनियाँ बन गेल ।)    (कसोमि॰14.23)
392    खेलनइ (= खेलना) (पलट के असेसर दा देखऽ हथ तऽ रजौलीवला बंगला पर चढ़ रहला हे । साफ धोती आउ घोड़वा रंग के ऊनी के कुरता, कंधा पर उनिए के तहाल चद्दर, एक हाथ में जूट के झोला आउ दोसर में बगुली छेंड़ी । बुतरू-बानर अनजान आदमी के देख अकचका गेल । ओकर खेलनइ बंद हो गेल ।)    (कसोमि॰69.12)
393    खेलौनियाँ (दे॰ खेलउनियाँ) (मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन । अउ कोय बोलत हल तऽ सौखी ओकरा पटक के भुरकुस कर देत हल बाकि बलनेकी सिंह पर हाथ उठाना साधारन बात नञ् हे । ई नञ् हल कि बलनेकी सिंह गामागोंगा हलन । ऊ तऽ गाँव भर के खेलौनियाँ हलन ।)    (कसोमि॰30.3)
394    खेसाड़ी (जइसन खरिहान तइसन सूप । सब अनाज बूँट, खेसाड़ी, गहुम, सरसो, राय, तीसी ...। सब बजार में तौला देलक अउ ओन्ने से जरूरत के समान आ गेल ।; - खुनियाँ नञ्, मनसूगर कहो । बैल अइसने चाही, जे गोंड़ी पर फाँय-फाँय करइत रहे । नेटुआ नियन नाचल नञ् तऽ बैल की । सौखी लाठी के हाथ बदलइत बोलल । - नसलबो हरियाना नञ् हइ । दोगलवा थरपारकर बुझा हइ । देखऽ हीं नञ्, लभिया तनि लटकल हइ । - एकरा से कि, खेसड़िया खा दहो, हट्टी चढ़ा देबइ ।; आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । … खेसाड़ी लेल तऽ जी खखन गेल । दाल खइला तऽ आखवत बीतल ।)    (कसोमि॰23.25; 68.14; 78.23)
395    खेसाड़ी-केराय (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।)    (कसोमि॰61.13)
396    खोंइछा (तहिना छिकनी चिकनी हल । चिक्को ... कमासुत । खेत छोड़ऽ हल तऽ खोंइछा भर साग तोड़ के रान्हो हल । माँड़ के झोर, ललका भात, लोइया भर साग खा के डंफ ।; खोंइछा भर गेल तऽ ढेरी पर उझल देलक । अइसइँ लाल-लाल मिचाय से मुट्ठी भराइत रहल, मुट्ठी के मिचाय खोंइछा में धराइत रहल, खोंइछा के मिचाय ढेरी पर उझलाइत रहल । खेत के बुट्टीवली साड़ी एक रंग भे गेल ... हरियर कचूर ।)    (कसोमि॰14.26; 39.12, 14)
397    खोंट (~ के लड़ाय) (कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन । हमरो गोस्सा आ गेलो । ई सब खोंट के लड़ाय लेना हल । हम भी उकट के धर देलियन । चराबे के चरैबे करे, रात भर रतवाही । बोझा के कबाड़े वला भी धरमराजे बनइ ले चलला हे ।)    (कसोमि॰111.22)
398    खोंटा-पिपरी  (पगली, देखऽ हीं नञ्, हमरा चारियो पट्टी से खोंटा-पिपरी  आउ मधुमक्खी काट रहलइ हे । तों खड़ी-खड़ी देखऽ हें, झाड़ आउ देख ओन्ने - नघेतवा में कौआ मकइया खा रहलउ हे । उड़ाव ... हाल-हाल, हाल ... ।; तितकी रौदा में बैठ के लटेरन से सूत समेट रहल हल । कल बीट के दिन हल । तितकी जल्दी-जल्दी हाथ चला रहल हल । ओकर आँख तर बीट के भीड़ नाच रहल हल । चारियो पट्टी से खोंटा-पिपरी नियन बिटनी सब के भीड़ । जादेतर लड़किए रहऽ हल, तीन हिस्सा ।)    (कसोमि॰29.14; 44.13)
399    खोंढ़ड़ (= खोंढ़र, कोटर) (छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम ! ऊ तऽ बोतले से सगाय कइलक हे, ढेना-ढेनी तऽ महुआ खोंढ़ड़ से अइलइ हे । अबरी आवे, ओकरा पूछऽ हीअइ नोन-तेल लगा के ।)    (कसोमि॰35.13)
400    खोंता (= खोंथा; घोंसला) (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।)    (कसोमि॰16.13)
401    खोढ़र (= खोंढ़र; कोटर) (तितकी गुमसुम केराय पीटे में लग गेल । ऊ भीतरे-भीतर भुस्सा के आग सन धधक रहल हल - जाय दुन्नू माय-बेटी कोकलत, भला हम तऽ महुआ खोढ़र से अइलिए हे । जब ने तब हमरे पर बरसइत रहतउ । दीदी तऽ दुलारी हइ । सब फूल चढ़े महादेवे पर ।)    (कसोमि॰120.1)
402    खोरनी (= आग आदि उकटने की छड़ी) (चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे । भुस्सा के झोंकन अउ लहरइठा के खोरनी । चुल्हा के मुँह पर घइला के गोलगंटा कनखा ... खुट् ... खुट् ।; अँगना में बड़की धान उसर रहली हल । भुस्सा के झोंकन, लहरैठा के खोरनी, खुट् ... खुट् ... । बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल ।)    (कसोमि॰16.15; 73.23)
403    खोस (= खुश) (मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू ।; असेसर दा उठ के भित्तर चल गेला आउ बाबूजी के बिछौना बिछवऽ लगला । फुफ्फा उतर करके गोड़ छुलका । - के हऽ ? पछान के - पहुना ... खोस रहो, कहलका आउ माथा पर हाथ रखइत पुछलका - आउ सब ठीके हइ ने ? - सब असिरवाद हइ ।)    (कसोमि॰33.25; 73.9)
404    खौरही (मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन । के पूछे खीर ! कल हमहूँ मुँह चंभला-चंभला कहले चलवन - हमर बाल-बच्चा धइल चिकनजीह हो । फुसलैते-फुसलैते खिलैलियो । गींज-मथ के दू कौर खैलको, बस । खौरही कुतिया के फबलइ ।; बजार निसबद । मुंडे दोकान भिर रुक गेल । चुल्हा चाटइत खौरही कुतिया झाँव-झाँव करऽ लगल - आक् थू ... धात् ... धात् । पिलुआही ... नञ् चिन्हऽ हीं ।)    (कसोमि॰37.25; 82.4)
405    गंजाना (= 'गांजना' का प्रे॰) (भइया से पुछलका - सितवा में ऐब देखऽ हिओ ददा । - आउ दहीं सलफिटवा । खटिया पर बइठइत भइया बोलला । - हरी खाद देबइ ले कहऽ हिओ तऽ सुनबे नञ् करऽ हो । उरीद-ढइँचा गंजाबे के चाही, गोबर डाले के चाही मुदा ... ।)    (कसोमि॰102.7)
406    गइँठ (दे॰ गैंठ) (बड़का बीच-बिचाव कइलक, "बुतरू के बात पर बड़का चलत तऽ एक दिन भी नञ् बनत। ई बात दुन्नू गइँठ में बान्ह लऽ। तनि-तनि गो बात पर दुन्नू भिड़ जा हऽ, सोभऽ हो? की कहतो टोला-पड़ोस ?")    (कसोमि॰122.24)
407    गइँठी (= गेंठी; गाँठ) (माय सिक्का से ठेकुआ के कटोरा उतारे लगल। एगो पोलिथिन में सतुआ आउ ठेकुआ के गइँठी देलक कि तितकी अपन कपड़ा आगू में रख के लपकल घर से बहरा गेल।)    (कसोमि॰124.18)
408    गछना (= मान लेना, स्वीकार करना) (- माय । - कीऽ ? - एगो बात कहिअउ ? गोसैमहीं नञ् ने ? - कहीं ने । - पहिले गछहीं, नञ् गोसैबो । - अच्छा, नञ् गोसैबो ।; ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने । एक परतार तो डीह पर बासोबास के जमीनो खोजलिओ । एक कट्ठा के पाँच गुना गौंढ़ा देबइ ले गछलियो, तइयो मुँह सोझ नञ् ।)    (कसोमि॰47.14; 110.6)
409    गजड़ा (= गाजर) (सितबिया एगो अप्पन घर के सपना ढेर दिना से मन में पालले हल । इन्सान के रहइ ले एगो घर जरूर चाही । कमा-कजा के आत तऽ नून-रोटी खाके निहचिंत सुतत तो ! छोटका बड़का से बोलल आउ बड़का एगो झगड़ाहू जमीन लिखा के दखल भी करा देलक । लिखताहर के अपन चचवा से नञ् पटऽ हलइ, से से गजड़ा भाव में लिख देलकइ ।)    (कसोमि॰106.14)
410    गजरा-मुराय (= गजड़ा-मुरय; गाजर-मूली) (रुक-रुक के माय बोलल - बेटी, मत कनउँ जो । हम्मर की असरा ! कखने ... । फेन एकल्ले गाड़ी पर जाहें ... दिन-दुनिया खराब ।- तों बेकार ने चिंता करऽ हें । ई कौन बेमारी हइ । एकरो से कड़ा-कड़ा तऽ आजकल ठीक भे जाहे । अउ हम्मर चिंता छोड़ । हम गजरा-मुराय हिअइ कि कोय मचोर लेतइ ।; याद पड़ल - करूआ दोकान । अगहन में तिलबा, तिलकुट, पेड़ा अर रखतो, गजरा-मुराय भाव में धान लेतो, लूट ... । बड़की सूप में धान उठइलकी आउ लपकल दोकान से दू गो तिलकुट आउ दालमोठ ले अइली ।; दोकान बेचइ ले जा तऽ गरजू बूझतो । बेचो गजरा-मुराय के भाव ।)    (कसोमि॰51.18; 74.26; 110.14)
411    गट्टा (= कलाई) (मोटरी खुल गेल । एकएक चीज के सब छू-छू के देखलन अउ बड़ाय कइलन । मोटरी फेनो बन्हा गेल मुदा ई की ? मोटरी बुच्चा के हाथ । बुच्चा लपकल गाँव दने सोझिया गेल । लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल ।; पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।)    (कसोमि॰55.12; 84.12)
412    गठरी-मोटरी (मुँह के जब्बड़ आउ देह के सब्बड़ रहे तब गाड़ी पर जा सकऽ हे, नञ् तो भर रस्ता ढकलइते रहऽ । किसिम-किसिम के अदमी अउ तरह-तरह के समान, परैया के मिट्ठा, कस्ठा के गोइठा, दूधवला के अलगे ताव, गठरी-मोटरी, खँचिया से लेके आम-अमरूद सब ... । समय आवे पर मारामारी, लऽ खा लत्तम-मुक्का, लट्ठम-लाठी ।)    (कसोमि॰37.1)
413    गड़ना (= चुभना; टीसना; खोंचा मारना) (लाज से ~) (तीन रुपइया तऽ भेल बकि एतने में अदरा भेत ? काहे नञ् गया चली । खरखुरा में जो काम मिले । आजकल हुआँ सब्जी आउ मिरचाय तोड़इ के काम मिल जा हइ । दिन भर तोड़ऽ, साँझ के हाथ पर पइसा । गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े ।; मुनियाँ लाज से गड़ जा हल, छुईमुई ! ओकरा लगे - भाग जाय कनउँ, चल जाय कि कोय चिन्हल नञ् मिले, कोय नञ् टोके । ओकरा एकांत अच्छा लगऽ हल ।; ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।)    (कसोमि॰37.14; 65.1; 80.4)
414    गड़ी-छोहाड़ा (फलदान में जाय ले पाँच गो भाय-गोतिया के कल्हइ समद देलक हे । सरेजाम भी भे गेल हल । मुनिया-माय काँसा के थारी में फल-फूल, गड़ी-छोहाड़ा के साथ कसेली-अच्छत सान के लाल कपड़ा में बान्ह देलक हल । कपड़ा के सेट अलग एगो कपड़ा में सरिआवल धैल हल ।)    (कसोमि॰63.15)
415    गत (= दुर्गति) (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।")    (कसोमि॰79.25)
416    गतसिहरी (ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।")    (कसोमि॰13.24)
417    गति-मति (एतना बोलके बुलकनी भउजाय दने मुड़ल आउ माथा पर हाथ रखइत बोलल, "हमर सुगनी के गति-मति दीहऽ गोरइया बाबा ।" एतनो पर जब भउजाय सुग से बुग नञ् कइलक तऽ बुलकनी भाय से बोलल, "जा हिअउ बउआ ... घर में ढेना-ढेनी हउ ।")    (कसोमि॰118.13)
418    गन (मेहरारू टूटल डब्बू के बनावल मलसी में घुन्नी भर तेल रख के जाय लगली कि मास्टर साहब टोकलका - सुनऽ, महीना में एक कीलो तेल से जास्ती नञ् अइतो, ओतने में पुरावऽ पड़तो । देखऽ हो नञ्, महँगी असमान छूले जा हइ । तीस-बत्तीस तऽ करूआ तेल भे गेलइ गन । अजी अइसन जमाना आ रहलो ह कि हमाँ-सुमाँ के ड्रौपर से गिन के पाँच बूँद कड़ाही में देवऽ पड़तो ।; असमाँवली के दूध-घी, तीअन-तिलौरी दे, चाहे मत दे, अँचार-मिचाय जरूर चाही । मास्टर साहब आजिज हो गेला हे मेहरारू के आदत से - जो, मर गन, हमरा की लेमें, बकि बाला-बचवा पर ध्यान दऽ ।)    (कसोमि॰99.14; 100.2)
419    गनउरा (दे॰ गनौरा) (जब ने तब हमरे पर बरसत रहतउ। दीदी तऽ दुलारी हइ। सब फुल चढ़े महादेवे पर । ओकरे मानऽ हीं तऽ ओहे कमइतउ। हम तऽ अक्खज बलाय हिअउ। फेंक दे गनउरा पर। नञ् जाम कोकलत। कय तुरी नहा अइलूँ हे।)    (कसोमि॰120.3)
420    गनगनाना (गाड़ी लूप लैन में लगल । उतर के दुन्नू रपरपाल बढ़ल गेल । गुमटी पर के चाह दोकान सुन्न-सुनहटा । ओलती से टंगल लालटेन जर रहल हल । दुन्नू बढ़इत गेल ... बढ़इत गेल । गाँव के पार निसबद ... रोयाँ गनगना गेल ।)    (कसोमि॰42.7)
421    गनौरा (मुनमा बाप के हाथ से लाठी लेके साँप उठइलक आउ गनौरा पर फेंकइ ले चल गेल । मुनमा माय गीरल लत्ती से परोर खोजऽ लगल - नोंच देलकइ । हलऽ, देखहो तो, कतना भतिया हइ ... फूल से भरल ।; गोहाल के छप्पर पर बइठल कौआ काँव-काँव करऽ लगल । कौआ के भोज गनौरा पर ।)    (कसोमि॰89.18; 90.15)
422    गबड़ा (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।; बजार के नल्ली सड़क से ऊँच हल । नल्ली के पानी सड़क पर आ गेल हल । एक तुरी सड़क के गबड़ा में सुक्खल पोहपिता के थंब पानी पर उपलाल हल । एगो मेहरारू गोड़ रंगले, चप्पल पेन्हले आल आउ सड़िया के गोझनउठा के उठावइत लकड़ी बूझ के चढ़ गेल । गोड़ डब्ब ।; ओकर नाक फटइत रहल, कुदार चलइत रहल ... चलइत रहल । चान डूब गेल तऽ छोड़ देलक - बस कल्ह । नाधा तऽ आधा । गबड़ा में कुदार-खंती धो के कापो सिंह के डेवढ़ी गेल आउ बचल दारू घट् ... घट् ... पार !)    (कसोमि॰76.5; 82.12; 83.1)
423    गब्भा (कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान ! दू सेर कच्ची से कीलो पर पहुँचलइ । किसान के मारा तऽ डाँड़ा तोड़ले रहऽ हइ । एक साल उपजलो तऽ चार साल सुखाड़ । अबरिए देखहो ने, पहिले तऽ दहा देलको, अंत में एक पानी ले धान गब्भे में रह गेलो । लाठा-कूँड़ी से कते पटतइ । सब खंधा में टीवेल थोड़वे हो ।)    (कसोमि॰73.2)
424    गमछी (ऊ चुन-चान के डमारा लइलक आउ जेभी से सलाय निकाल के पत्ता सुलगइलक । ओकरा पर डमारा सरिया के गमछी पर आँटा सानलक अउ चार लोइया तइयार कर लेलक ।; थोड़के दूर पर खरिहान हल । डीजल मसीन हड़हड़ाल - थ्रेसर चालू । खरिहान में कोय चहल-पहल नञ् । भुस्सा के धुइयाँ, सब कोय गमछी से नाक-मुँह तोपले । कहाँ गेल बैल के दमाही ।; घर आके सुकरी देखऽ हे - बेटी ताड़ के चटाय पर करबटिया देले धनुख सन पड़ल हे । गमछी माथा से गोड़ तक चटाय पर धनुख के डोरी नियन तनल हे । बेटा बहिन के देह पर गोड़ धइले चितान बान सन पड़ल हे । सुकरी सले-सले ढिबरी मिंझा बगल में पड़ गेल ।; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।)    (कसोमि॰20.8; 23.20; 43.1; 92.23)
425    गमाना (= गँवाना, गुजारना) (काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला । मोसाफिरखाना से बाहर भेला तऽ बजार सुत्तल । लछमी जी के मंदिर बजार भर के अंगना । छूटल-बढ़ल राही-मोसाफिर ओकरे में रात गमावे ।)    (कसोमि॰28.17)
426    गया (= तीरिथ, तीरथ; तीर्थ-स्थान) (~ करना) (एक्कक पाय जोड़ के गया कइलन आउ बचल सेकरा से घर बनैलन । एक दफा में अइँटा अउ दोसर दफा में ढलइया । हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल ।)    (कसोमि॰27.14)
427    गरई (= गड़ई, गरचुट्टी, गड़चुट्टी मछली) (गौंसे गरई ... जुगुत से टेंगरा । एगो गोटहन गरई भर मुट्ठी धर के अपन मुँह भिजुन ले गेल अउ चुचकारऽ लगल ।; आ सेर लगि गरई चुन के बिठला नीम तर चल गेल आउ सुक्खल घास लहरा के मछली झौंसऽ लगल - "गरई के चोखा ... रस्सुन ... मिचाय आउ घुन्नी भर करुआ तेल । ... उड़ चलतइ !")    (कसोमि॰77.2, 3, 10, 11)
428    गर-गलबात (दुन्नू एगो सीरमिट के खलिया बेंच पर बैठ के गलबात करऽ लगल । जगेसर दिल्ली में नौकरी करऽ हे । एक महिना के छुट्टी पर घर आ रहल हल । अइसइँ घर-दुआर आउ गाँव-गिराँव के गर-गलबात करइत दुन्नू पाव रोटी खइलक आउ चाह पीलक ।)    (कसोमि॰41.22)
429    गरजू (= गरजाह, गरजी; जिसको गरज या जरूरत हो) (सुकरी खेत भिजुन ठमक गेल । किसान पुछलक - काम खोजऽ हीं ? सुकरी तनि देर तक ठमकल ताकइत रहल फेनो रस-रस केबिन दने बढ़ल । सुकरी कि नौसिखुआ हे ! धड़फड़ात तऽ बूझत गरजू हे । - कत्ते लेमहीं ... दस तो बज गेलउ ।; दोकान बेचइ ले जा तऽ गरजू बूझतो । बेचो गजरा-मुराय के भाव ।)    (कसोमि॰38.19; 110.14)
430    गरपटल (आउ चौपाल जगल हल । गलबात चल रहल हल - की पटल, की गरपटल, सब बरोबर, एक बरन, एक सन लुहलुह । तनी सन हावा चले कि पत्ता लप्-लप् । ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात !)    (कसोमि॰61.9)
431    गरमोगरी (= गड़मोगली) (चलित्तर बाबू के सचकोलवा गोस्सा आ रहल हल, मसमसाल, रैंगनी के काँटा पर गरमोगरी देके पाड़इवला, खजूरवला सट्टा से देह नापइवला । उनखा अपन जमाना याद आ रहल हल - चहलवला मास्टर साहब अइसइँ पीटऽ हला ।)    (कसोमि॰101.1)
432    गरवैया (= गोरैया) (रात नीन में ढेर सपना देखलक - ढेरो सपना । भोर घर के सुग्गा 'मुन्नी ... मुन्नी' रटऽ लगल कि हड़बड़ा के उठल । अभी अन्हार-पन्हार हल । अँगना में आके देखलक - ललाय धप रहल हल । नीम पर कौआ डकऽ लगल । ओहारी तर के गरवैया कचबच करऽ लगल ।)    (कसोमि॰66.5)
433    गरियाना (= गाली देना) (छँउड़न सब के तऽ टेलिफोन लगल रहऽ हइ । जइसहीं बजार हेललियो कि सहेर भर "आछीः आछीः" कइले लंगो-तंगो कर देतो । मन जर जइतो तऽ निरघिन करऽ लगवो । ढेलो फेकवो ... तइयो कि भागतो ? बिना गरिअइले हमरो करेजा नञ ठंढइतो ।)    (कसोमि॰13.2)
434    गरीब-गुरवा (सुकरी सोचऽ लगल - सबसे भारी अदरा । आउ परव तऽ एह आल, ओह गेल । अदरा तऽ सैतिन नियन एक पख घर बैठ जइतो, भर नच्छत्तर । जेकरा जुटलो पनरहो दिन रज-गज, धमगज्जड़, उग्गिल-पिग्गिल । गरीब-गुरवा एक्को साँझ बनइतो, बकि बनइतो जरूर ।; ऊ साल बैसखा में गाँव भर के आदमी जमा भेल । पंचैती में हमरा नञ् रहल गेलो । कह देलिअइ - तऽ गाँव में गरीब-गुरबा नञ् ने बसतइ ? भेलो बवाल । मजमा फट गेलो । तहिया से कुम्हरे के कब्जा हइ ।)    (कसोमि॰33.12; 112.23)
435    गलगुल (~ होना) (लक्कड़ सिंह भिर कुत्ता लगऽ हे - धात् ... धात् । जनु कोय मोसाफिर होत । सीताराम भिजुन गलगुल हो रहल हे । जमालपुर-गया पसिंजर के घंटी हो गेल हे ।)    (कसोमि॰81.15)
436    गलबात (बकि बलेसरा के तऽ भट्ठा के चस्का ! साल में एका तुरी अइतो । सुकरी नारा-फुदना पर लोभाय वली नञ् हे । हम कि सहरे नञ् देखलूँ हे ! कानपुर कानपुर ! गया कि कानपुर से कम हे ? पितरपछ में तऽ दुनिया भर के आदमी ... रंगन-रंगन के ... देस-विदेस के ... गिटिर-पिटिर गलबात ... पंडा के चलती ।; दुन्नू एगो सीरमिट के खलिया बेंच पर बैठ के गलबात करऽ लगल । जगेसर दिल्ली में नौकरी करऽ हे । एक महिना के छुट्टी पर घर आ रहल हल । अइसइँ घर-दुआर आउ गाँव-गिराँव के गर-गलबात करइत दुन्नू पाव रोटी खइलक आउ चाह पीलक ।; चाह के अंतिम घूँट पीके चलित्तर बाबू उठला आउ डोल-डाल ले अहरा पर चल गेला । भादो के अहरा डब-डब ! अलंग पर हलफा पछाड़ खा रहल हल । एक्का-दुक्का आदमी दिसा-फरागत से निपट के जजा-तजा बइठल खेती के गलबात कर रहल हल ।)    (कसोमि॰35.8; 41.20; 101.15)
437    गली-कुच्ची (लोग-बाग सिहरइत सूरूज के देखइ ले गली-कुच्ची में निकल गेल हल । मिठकी इनार पर डोल-बाल्टी के ढुनमुन्नी सुन के चिकनी के नीन टूटल - "जाऽ ! ई तऽ रउदा उग गेलइ । एऽऽह, नञ सुनऽ हो ?")    (कसोमि॰18.7)
438    गल्ली (= गली) (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।; किसुन लखीसराय टीसन से दिन भर में टुघरल, उठइत-बइठइत गाँव आल । गाँव पसर गेल हल । गल्ली के ढेर नक्सा बदल गेल हल । पुरान बंगला तऽ एक्को गो नञ मिलल ।; जहिया से काशीचक खादी भंडार में अपन नाम दरज करइलक हे, गल्ली घुमनइ बंद कर देलक हे ।)    (कसोमि॰13.11; 19.7; 44.5)
439    गहीर (= गहीड़; गहरा; गड्ढा) (बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो । ऊ तऽ हमरे नियन जीव, चिढ़ावइत रहथ, कान बहीर पीठ गहीर कइले फुर्र ... फुर्र भागल गेलियो । छँउड़न सब के तऽ टेलिफोन लगल रहऽ हइ । जइसहीं बजार हेललियो कि सहेर भर "आछीः आछीः" कइले लंगो-तंगो कर देतो ।)    (कसोमि॰12.26)
440    गहुआ (~ छोड़ाना) (ऊ तऽ धैल हँथछुट, देलको एक पैना धर । मन लोहछिया गेलो । खाली हाथ, खिसियाल गेलियो लटक । तर ऊ, ऊपर हम । गोरखियन सब दौड़ गेलो । ऊहे सब गहुआ छोड़इलको । तहिया से धरम बना लेलियो - कोय मतलब नञ् ।)    (कसोमि॰111.27)
441    गहुम (= गोहूम; गोधूम, गेहूँ) (जइसन खरिहान तइसन सूप । सब अनाज बूँट, खेसाड़ी, गहुम, सरसो, राय, तीसी ...। सब बजार में तौला देलक अउ ओन्ने से जरूरत के समान आ गेल ।; मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।)    (कसोमि॰23.25; 78.9)
442    गहुमन (= गोहमन साँप) (रस-रस ओकर हाथ दारू दने ओइसइँ बढ़ल जइसे डोंरवा साँप धनखेती में बेंग दने बढ़ऽ हे । कटोरी भर दारू ढार के एक्के छाँक में सिसोह गेल । नाक सिकोड़ के उपरइला ठोर पर गहुमन के फन नियन टक लगा देलक ।)    (कसोमि॰80.23)
443    गहूम (दे॰ गोहूम, गोहुम) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही । - दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी ।; - अच्छा, वनतारा तर गहूम लगइमहीं, खाद के आधा रहलउ । - समंगा ने इ, बिहनियाँ कहाँ से लइबइ ? - देबउ, बकि उपजला पर डेउढ़िया लेबउ ।)    (कसोमि॰61.14; 69.2)
444    गाँव-गिराँव (दुन्नू एगो सीरमिट के खलिया बेंच पर बैठ के गलबात करऽ लगल । जगेसर दिल्ली में नौकरी करऽ हे । एक महिना के छुट्टी पर घर आ रहल हल । अइसइँ घर-दुआर आउ गाँव-गिराँव के गर-गलबात करइत दुन्नू पाव रोटी खइलक आउ चाह पीलक ।)    (कसोमि॰41.22)
445    गांजना (परेमन भी अब बुझनगर भे गेल हे । लड़ाय दिन से ओकरा में एगो बदलाव आ गेल हे । पहिले तऽ चचवन से खूब घुलल-मिलल रहऽ हल । गेला पर पाँच दिना तक ओकरे याद करते रहतो हल, बकि ई बेरी ओकरा हरदम गौरव-जूली से लड़ाय करे के मन करते रहतो, कन्हुआइत रहतो, ... सगरखनी ... गांजिए देबन ... घुमा के अइसन पटका देबन कि ... ।)    (कसोमि॰71.20)
446    गाछ (= पेड़) (बागवला खेत लिखबइवला गाछो लिखबइ ले चाहऽ हल बकि बासो अड़ गेल । ढेर बतकुच्चह भेल हल नवादा कचहरी में । बासो बोलल हल - जीअइ ले तऽ अब कुछ नहियें बचल, जरइ ले तऽ लकड़ी रहऽ दऽ । आम के पाँच गाछ । सेनुरिया तऽ कलम के मात करऽ हे । छुच्छे गुद्दा, भुटनी गो आँठी । गाछ से गिरल तऽ गुठली छिटक के बाहर । एने से सब आम काशीचक में तौला दे हल ।)    (कसोमि॰89.26; 90.2)
447    गाछ-बिरिछ (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।)    (कसोमि॰76.3)
448    गाना-गोटी (सुकरी फुदनी के समदइत बजार दने निकल गेल - हे फुदो, एज्जइ गाना-गोटी खेलिहऽ भाय-बहिन । लड़िहऽ मत । हम आवऽ हियो परैया से भेले ।; "तितकी के खोज तऽ। मियाँ के दउड़ मस्जिद तक। आउ कहाँ जइतउ। सरधावा के साथ गानागोटी खेलऽ होतउ पंकड़िया तर।")    (कसोमि॰33.15; 121.10)
449    गाम (= गाँव) (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।; दुनिया में जे करइ के हलो से कइलऽ बकि गाम तो गामे हको । एज्जा तो तों केकरो भाय हऽ, केकरो ले भतीजा, केकरो ले बाबा, केकरो ले काका । एतने नञ, अब तऽ केकरो ले परबाबा-छरबाबा भे गेला होत । सोंचइत किसुन गाम से बहरा गेल ।)    (कसोमि॰13.10; 19.17, 19)
450    गामागोंगा (मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन । अउ कोय बोलत हल तऽ सौखी ओकरा पटक के भुरकुस कर देत हल बाकि बलनेकी सिंह पर हाथ उठाना साधारन बात नञ् हे । ई नञ् हल कि बलनेकी सिंह गामागोंगा हलन । ऊ तऽ गाँव भर के खेलौनियाँ हलन ।)    (कसोमि॰30.3)
451    गाय-गोरू (ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।)    (कसोमि॰80.4)
452    गारना (कल्लू दोकान पर बइठल सँड़सी से कपड़ा में छानल चाह के सिट्ठी गारलक आउ केतली में समुल्ले चाह उझल के आग पर चढ़ावइत पुछलक - चाहो दिअइ ? - दहीं ने दूगो । तानो गोप बोलइत मौली महतो दने मुँह घुमइलक ।)    (कसोमि॰111.1)
453    गाहक (= ग्राहक) (सुकरी जमालपुर गुमटी भिजुन पहुँच गेल । साधू जी के दोकान, बेंच गाहक से भरल हल ।; दोकान में दू गाहक आउ आ गेल हल । मौली तनि घसक के बात आगू बढ़इलक - हमर आन-जान देखो हो, हे केकरो दुआरी पर ? हमरा ठोकर लगल हे ।)    (कसोमि॰35.16; 111.11)
454    गाही (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज । तहिया छिकनी चिकनी हल । केकर मजाल कि आँख उठा दे मेहरारू पर ! आज तऽ गाम भर के खेलउनियाँ बन गेल ।)    (कसोमि॰14.21)
455    गिटिर-पिटिर (~ गलबात) (बकि बलेसरा के तऽ भट्ठा के चस्का ! साल में एका तुरी अइतो । सुकरी नारा-फुदना पर लोभाय वली नञ् हे । हम कि सहरे नञ् देखलूँ हे ! कानपुर कानपुर ! गया कि कानपुर से कम हे ? पितरपछ में तऽ दुनिया भर के आदमी ... रंगन-रंगन के ... देस-विदेस के ... गिटिर-पिटिर गलबात ... पंडा के चलती ।)    (कसोमि॰35.8)
456    गियारी (= गला; गरदन) (आजकल दहेज के आग में ढेर बहू जर रहल हे । जानइ हमर सुगनी के भाग ! माय के गियारी भर गेल, आँख में लोर ।; बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।)    (कसोमि॰52.1; 77.24)
457    गिरथामा (अइते के साथ धोती-कुरता खोल के लुंगी बदल ले हथ आउ दुआरी पर खटिया-बिछौना बिछा के आधा घंटा सुस्ता हथ । घरनी रूटीन नियन काम करऽ हथ । पहिले एक लोटा पानी आउ गमछी धर जा हथ । दस दाना कच्चा-पकल बूँट के साथ नीबूवली चाह आउ बीड़ी रख के अपन गिरथामा में लग जा हथ ।)    (कसोमि॰98.11)
458    गिलना (= बिना चबाए निगलना) (बुलकनी के ध्यान गेल - तितकी ? ऊ एने-ओने ताकऽ लगल तऽ देखऽ हे, घुनलगउनी महुआ चून रहल हे । कस के हँकइलक - "तितकीऽऽऽ ! कहाँ मर गेलहीं गे ! चुटकी भर महुआ से पेट भरतउ ? गिल्ले घरी आगुए थरिया लेके दमदाखिल होमें ... चल !")    (कसोमि॰119.20)
459    गींजना-मथना (मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन । के पूछे खीर ! कल हमहूँ मुँह चंभला-चंभला कहले चलवन - हमर बाल-बच्चा धइल चिकनजीह हो । फुसलैते-फुसलैते खिलैलियो । गींज-मथ के दू कौर खैलको, बस । खौरही कुतिया के फबलइ ।)    (कसोमि॰37.25)
460    गील (= गिल्ला; गीला) (ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल । बिठला के पीठ चुनचुनाय लगल - कत्ते तुरी माय धउल जमइलक हल । बाउ मारऽ हल माय के तऽ बिठला डर से भगोटी गील कर दे हल ।)    (कसोमि॰84.14)
461    गुज-गुज (खुशी में भूल गेल साँप-बिच्चा के भय । ओकर मन में हाँक के हुलस हल, मुँह में गूँड़-चाउर के मिठास आउ कान में फुटोऽऽ रे फुटोऽऽ के अजगुत संगीत । ओकर आँख तर खंधा नाच रहल हे - गुज-गुज ... टार्च ... लालटेन ।)    (कसोमि॰93.13)
462    गुजुर-गुजुर (अदमी से बचइ ले बिठला उठल सल्ले-सल्ले पिप्पर तर नीचू उतर के मस्जिद गली धइलक । चोर नियन ... गमछी से मुँह झाँपले । खाली अँखिए बाहर गुजुर-गुजुर !)    (कसोमि॰81.18)
463    गुड़कना (ऊ गुड़क-गुड़क के बालू सरिअइलक आउ माथा दने तनि ऊँच कर देलक । बालू के बिछौना, बालू के तकिया । अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल । दूध, रावा आउ लिट्टी मिल के सीतल परसाद हो गेल ।; अंगुरी के नोह पर चोखा उठा के जीह पर कलट देलक । भर घोंट पानी ... कंठ के पार । बचल दारू कटोरा में जइसइँ ढारइ ले बोतल उठइलक कि सुरमी माथा पर डेढ़ किलो के मोटरी धइले गुड़कल कोठरी के भित्तर हेलल ।)    (कसोमि॰20.22; 84.27)
464    गुड़की (= घुड़की) (लाजो के ढेर रात तक नीन नञ् आल । ऊ मने-मन छगुनइत रहल - काड ... चरखा ... रुइया ... नेयार ... सजावट ... माय के बेमारी ... भइया के बेरोजगारी ... बाउ के खस्ता हाल ... बड़की दी आउ जीजा जी के बिगड़इत रिस्ता ... करजा के भार से चँपइत बाउ ... करजदार के गुड़की । ओकरा लगल कि ई सब मिल के एगो तलाय बन गेल हे ।)    (कसोमि॰46.10)
465    गुदानना (= जी में लगाना) (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।)    (कसोमि॰84.20)
466    गुद्दा (= गूदा) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही । - दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी । - बाजी कपार के गुद्दा । खाद-पानी, रावा-रत्ती जोड़ला पर मूर पलटत ।)    (कसोमि॰61.15)
467    गुमन-ठेहउना (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।")    (कसोमि॰11.2)
468    गुमनठेहुना (एकरे माउग कहऽ हइ आउ तोरे नियन भतार होवऽ हइ ? चुप्पे कमाय ले जइतो गुमनठेहुना  ... तोर जुआनी में आग लगउ मोछकबरा । कमइलें तऽ एकल्ले भित्तर में ढारऽ लगलें ।)    (कसोमि॰85.8)
469    गुरपिंडा (दोसर दिन से सब देखलक कि मुनियाँ के दरबज्जा पर साँझ-सुबह पढ़ाय के आउ दुपहर में सिलाय-फड़ाय के गुरपिंडा खुल गेल ।)    (कसोमि॰67.24)
470    गुरुअइ (उनकर मेहरारू इनखा से आजिज रहऽ हली इनकर स्वभाव से । मर दुर हो, अइसने मरदाना रहऽ हे । कहिओ माउग-मरद के रसगर गलबात करथुन ? खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन !)    (कसोमि॰101.6)
471    गुलठियाना (बिछौना बिछ गेल । मैल-कुचैल तोसक पर रंग उड़ल चद्दर । ओइसने तकिया आउ तहाल , तेल पीअल रजाय जेकर रुइया जगह-जगह से टूट के गुलठिया गेल हे ।)    (कसोमि॰69.26)
472    गूँड़ (= गुड़; दे॰ गूड़) (हमरा ले की लइमहीं, माय ? गूँड़ खइला कते दिन भे गेलइ ! तिलसकरतिए में ने लैलहीं हल ?; याद पड़ल बेटिया गूँड़ दिया कहलक हल । गूँड़ तऽ गामो में मिल जात ... चाउर ले लेम । दू मुट्ठी दे देम, रसिया तैयार, ऊपर से दू गो मड़वा । बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही ।)    (कसोमि॰33.17; 37.17)
473    गूँड़-चाउर (खुशी में भूल गेल साँप-बिच्चा के भय । ओकर मन में हाँक के हुलस हल, मुँह में गूँड़-चाउर के मिठास आउ कान में फुटोऽऽ रे फुटोऽऽ के अजगुत संगीत । ओकर आँख तर खंधा नाच रहल हे - गुज-गुज ... टार्च ... लालटेन ।; मुँह में गूँड़-चाउर । दुन्नू हाथ उठइले हँका रहल हे - बड़-छोट धान बरोबर, एक नियन ... सितवा, पंकज, सकेतवा, ललजड़िया, मंसूरी, मुर्गीबालम । / मंसूरी के बाल फुटतो एक हात के ... सियार के पुच्छी ।)    (कसोमि॰93.12; 96.16)
474    गूँड़ना (= गूड़ना) (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।)    (कसोमि॰78.7, 10)
475    गूड़ (= गुड़) (झोला से गूड़ के पुड़िया निकाललक आउ दूध में दे देलक । सोचलक - तनी सथा देही । तब तक सुतइ के इंतजाम भी कर ली ।)    (कसोमि॰20.20)
476    गूड़ना (ऊ गुड़क-गुड़क के बालू सरिअइलक आउ माथा दने तनि ऊँच कर देलक । बालू के बिछौना, बालू के तकिया । अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल । दूध, रावा आउ लिट्टी मिल के सीतल परसाद हो गेल ।)    (कसोमि॰20.24)
477    गूह-मूत (आउ गमछी से नाक-मुँह बंद करके बिठला बहादुर उतर गेल जंग में - खप् ... खप् ... खट् । अइँटा हइ । ई नल्ली की नञ् ... एक से एक गड़ल धन-रोड़ा, सीसी, बोतल, सड़ल आलू-पिआज, गूह-मूत, लुग्गा-फट्टा हइ । की नञ् । रंगन-रंगन के गुड़िया-खेलौना, पिंपहीं-फुकना, बुतरू खेलवइवला फुकना, जुत्ता-चप्पल ... बिठला कुदार के चंगुरा से उठा-उठा के ऊपर कइले जाहे । गुमसुम ... कमासुत कर्मयोगी । दिन रहत हल तऽ कुछ चुनवो करतूँ हल ।)    (कसोमि॰82.22)
478    गे (बुलकनी के ध्यान गेल - तितकी ? ऊ एने-ओने ताकऽ लगल तऽ देखऽ हे, घुनलगउनी महुआ चून रहल हे । कस के हँकइलक - "तितकीऽऽऽ ! कहाँ मर गेलहीं गे ! चुटकी भर महुआ से पेट भरतउ ? गिल्ले घरी आगुए थरिया लेके दमदाखिल होमें ... चल !")    (कसोमि॰119.19)
479    गेआन (= ज्ञान) (पिंडा बबाजी के आगू में फलदान के थरिया उदास । तखनञ् मुनियाँ आंतीवल भौजी के घर से आल । ऊ छन भर में सब बात समझ गेल । जेकरा पर बीतऽ हे ओकरा जल्दी गेआन भे जाहे । आगरो एकरे ने कहल जाहे ।)    (कसोमि॰67.15)
480    गेठबंधन ("घरहेली भेल, खूब धूमधाम से । गाँव भर नेउतलन हल । भला, ले, कहीं तो, घरहेली में के नञ् खइलक ? राँड़ी-मुरली सब के घर मिठाय भेजलन हल बिहान होके । पुजवा नञ् भेलइ तऽ की ? पुजवो में तऽ नञ् अदमियें खा हइ । से की देवतवा आवऽ हइ खाय ले । हाँ, पंडित जी के गेठबंधनमा नञ् मिललन, भले कहीं ।" नयका कामरेड संतू बोलल ।)    (कसोमि॰30.13)
481    गेनरा (= गेंदरा) (चिकनी एगो ओढ़रा से पाँच गो अलुआ निकाल के बोरसी में देलक अउ कथरी पर गेनरा ओढ़ के बइठ गेल । ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।"; साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !; बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे । कापो सिंह के केबाड़ खुलल । डेउढ़ी में दारू के बोतल आधा खाली कर देहे आउ फुसफुसा के बोलऽ हे - "बाँसा अर दे दऽ आउ जा के सुत्तऽ । अब हम रही कि बजार के नल्ली । जे होतइ, देख लेबइ । सब तऽ गेनरा ओढ़ के घी पीअ हइ कापो बाबू ।")    (कसोमि॰13.23, 25; 47.25; 82.9)
482    गेन्ह (= गन्ह; गन्ध) (~ तोड़ना) (ऊ एगो लमहर सोंवासा छोड़लक । ओकरा लगल - नल्ली के सब निकालल नरक ओकर पेट में जाके गेन्ह तोड़ रहल हे, जे ओकर नाक-मुँह से निकल के सउँसे बजार गेन्हइले हे ।)    (कसोमि॰83.4)
483    गेन्हाना (- ललितवा गेन्हा देलकइ । गाँव भर हहारो भे गेलइ । तितकी बोलल । - से तो ठीके कहऽ हीं । कइसन भे गेलइ मायो । लाजो बात मिललइल ।; ऊ एगो लमहर सोंवासा छोड़लक । ओकरा लगल - नल्ली के सब निकालल नरक ओकर पेट में जाके गेन्ह तोड़ रहल हे, जे ओकर नाक-मुँह से निकल के सउँसे बजार गेन्हइले हे ।)    (कसोमि॰48.8; 83.5)
484    गैंठ (= गाँठ) (गैंठ देल भुदानी थैला के कंधा से उतार के खुट्टी में टाँगइत चलित्तर बाबू अपन मेहरारू से पुछलका - कइसन हइ बरखा ? हले ले, दे देहीं दवइया, आधा-आधा गोली तीन बेरी । सीसियावला जइसे चलऽ हइ, चले  दहीं ।)    (कसोमि॰98.1)
485    गैरमजरुआ (= गरमजरुआ) (ई बात नञ् कि ओकरा से हमरा गैरमजरुआ जमीने लेके झगड़ा हे, से से ऊ हमरा अच्छा नञ् लगऽ हे, भलुक ओकर स्वभावो से हमरा घिरना हे ।)    (कसोमि॰110.1)
486    गोंड़ी (= सूखा चारा डालने की मिट्टी की लंबी नाद, चरन) (असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् । - खुनियाँ नञ्, मनसूगर कहो । बैल अइसने चाही, जे गोंड़ी पर फाँय-फाँय करइत रहे । नेटुआ नियन नाचल नञ् तऽ बैल की । सौखी लाठी के हाथ बदलइत बोलल ।; बुलकनी तीसी के तेल पेड़ा के लइलक हल। एक किलो के तेल के डिब्बा ओसरा पर रख के गाय के पानी देखावइ ले गोंड़ी पर चल गेल हल। रउदा में गाय-बछिया हँफ रहल हल। पानी पिला के आल तऽ देखऽ हे कि छोटकी के तीन साल के छउँड़ी तेल के डिब्बा से खेल रहल हे।)    (कसोमि॰68.6, 9; 122.12)
487    गोइठा (बुढ़िया बोरिया उझल के एक-एक चीज बकछियावऽ लगल । तीन गो गोइठा एक दने करइत, "छँउड़ापुत्ता मुलुर-मुलुर ताकइत रहतो । मुत्तइ ले गेला हल । लम्हबन सब जो बनइ ले देय ! देखलको नञ कि आछिः ... केतनो माय-बहिन एक करबो, ठीं ... ठीं ... ठीं ... हँसतो ।"; इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ? चुनाटल देवाल में तऽ गोइठा ठोकवा के बिझलाह बना देलहीं ।; मुँह के जब्बड़ आउ देह के सब्बड़ रहे तब गाड़ी पर जा सकऽ हे, नञ् तो भर रस्ता ढकलइते रहऽ । किसिम-किसिम के अदमी अउ तरह-तरह के समान, परैया के मिट्ठा, कस्ठा के गोइठा, दूधवला के अलगे ताव, गठरी-मोटरी, खँचिया से लेके आम-अमरूद सब ... । समय आवे पर मारामारी, लऽ खा लत्तम-मुक्का, लट्ठम-लाठी ।)    (कसोमि॰11.7; 29.24; 36.27)
488    गोझनउठा (= गोझनौटा) (बजार के नल्ली सड़क से ऊँच हल । नल्ली के पानी सड़क पर आ गेल हल । एक तुरी सड़क के गबड़ा में सुक्खल पोहपिता के थंब पानी पर उपलाल हल । एगो मेहरारू गोड़ रंगले, चप्पल पेन्हले आल आउ सड़िया के गोझनउठा के उठावइत लकड़ी बूझ के चढ़ गेल । गोड़ डब्ब ।)    (कसोमि॰82.14)
489    गोझनौटा (= गझनवट, गझनौटा, गझनौटी; साड़ी या धोती का नाभि से नीचे आगे की ओर लटकता भाग या छोर) (लाजो एक टक ढिबरी के टेंभी देख रहल हे । ओकरा लगल टेंभी ओकर गोझनौटा धर लेलक हे ... धायँ-धायँ । अगिन परीक्षा । लाजो सीता भे गेल । लाजो के माँग के सेनुर दीया के टेंभी भे गेल - दपदप ! लाजो उठके भित्तर चल गेल ।)    (कसोमि॰52.3)
490    गोटहन (गौंसे गरई ... जुगुत से टेंगरा । एगो गोटहन गरई भर मुट्ठी धर के अपन मुँह भिजुन ले गेल अउ चुचकारऽ लगल ।)    (कसोमि॰77.3)
491    गोटी (= गोटा) (दुन्नू ~) (कम्मल कहतो, पहिले हमरा झाँप तब तोरा झाँपबउ । कम्मल पर गेनरा रख के दुन्नू गोटी घुकुर जाम । पोबार ओढ़इ में उकबुका जाही ।)    (कसोमि॰17.19)
492    गोठौर (= गोथार; ढेर) (ऊ इमे साल भादो में रिटायर होलन हल । रिटायर होवे के एक साल पहिलइँ छुट्टी लेके घर अइलन हल । एगो कउन तो विभाग के मनिजर हलन मुदा ऊ तो परांते भर के हौलपिट हलन । कमाय पर रहतन हल तऽ रुपइया के गोठौर लगा देतन हल मुदा कंठी नञ् तोड़लन ।)    (कसोमि॰27.12)
493    गोड़ (= पैर) (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।"; किसन के धेयान अपन गोड़ के बेयाय दने चल गेल । चुक्को-मुक्को बैठला से तनतनाय लगल हल । ककड़ी नियन फट्टल गोड़ ... सीऽऽऽ ... । ओकर धेयान बरगद दने गेल आउ सोचलक कि खइला के बाद एहे बड़ के दूध अपन बेयाय में लगा लेम ।; - गोड़ लगियो चाची, बोलइत लाजो जाँता भिजुन चल गेल आउ खजूर के झरनी से जाँता झारऽ लगल । - मकइ पिसलहो हल कि चाची ? - हाँ, नुनु ।)    (कसोमि॰12.4; 22.8, 9; 45.22)
494    गोड़लग्गी (= पैर छूना) (असेसर दा लपक के गोड़लग्गी कइलका आउ चौकी पर अपन समटल बिछौना बिछावइत सर-समाचार पूछऽ लगला । - घरे से आवऽ हथिन ? - हाँ, गया वली गड़िया से ! नवादा कोट में काम हलइ ।)    (कसोमि॰69.14)
495    गोड़-हाथ (चलित्तर बाबू हाजरी बना के इसकूल से पैदले चल देलका हल । गोड़-हाथ धोके कुल्ली-कलाला कइलका आउ आँख पर एक लोटा पानी के छिट्टा मारलका । आँख मिचाय नियन लहर रहल हल । जाँघ तड़-तड़ फटे ।)    (कसोमि॰98.14)
496    गोड़ाटाही (लटफरेम के भेंभा बजल - डिजिया खुलइ में आधा घंटा देरी । रात भे जात !  डेढ़ कोस जमीन । ऊ लटफरेम पर गोड़ाटाही करे लगल - कोय साथी-संघाती जो मिल जाय । नञ् भेत तऽ भौठे-भौठे निकल जाम । आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे ।; तनी देरी एन्ने-ओन्ने गोड़ाटाही करइत रहल आउ फेन अपन काम में जुट गेल ... ओहे कत्ती ... ओहे खेल ।; बानो जौनारे दिन साँझ के माथा मुड़ैले हुलकी मारलक । गाँव भर दुरदुरैलक । ठिसुआल बानो घर-बंगला गोड़ाटाही करइत रहल । ओकरा से फेन कोय नञ् बोलल । बरहमजौनार बित गेल निक-सुख ।)    (कसोमि॰41.6; 83.25; 115.7)
497    गोतना (= झुकाना) (गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले । अनचक्के ओकर ध्यान अपन गोड़ दने चल गेल । हाय रे गारो ! फुट्टल देबाल ... धोखड़ल । ऊ टेहुना में मुड़ी गोत के घुकुर गेल ।; किसान टोकलक - कलउआ अर नञ् हउ ? - अइसइँ चल अइलिअइ किसान ... जइबइ तऽ खइबइ । - हले ले, कुछ खा ले । सुकरी मूड़ी गोतले बोलल - नञ् भइया, रहऽ दऽ !; तेल के मलवा घर में पहुँचा के चलित्तर बाबू अइला आउ लचपच कुरसी खीच के बुतरू-बानर भिजुन चश्मा लगा के बैठ गेला । - देखहो, मुनमा बइठल हो । - दादा हमरा मारो हो । - बरकाँऽऽ बारह ... । - पढ़ऽ हें सब कि ... । चलित्तर बाबू डाँटलका । सब मूड़ी गोत लेलक ।)    (कसोमि॰16.6; 39.24; 102.3)
498    गोतनी (माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल । तीनियों गोतनी के हड़कुट्टन भेल । छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।"; आवे घरी छोटकी गोतनी अपन बकरी से कह रहल हल, "गिआरी में घंटी टुनटुनइले चलऽ हल । बाप के हल ? खोल लेलकउ ने करुआमाय । अनका माल पर भेल झमकउआ, छीन-छोर लेलक तऽ मुँह भे गेल कउआ ।"; रनियाँ उठल आउ चाची के गोदी से पुटुआ के छीनइत बोलल, "तूँ दुन्नू गोतनी लड़ऽ हें, लड़, बकि हमरा बुतरुअन के लड़इ ले काहे सिखावऽ हें चाची? पुटुआ हमरे गोदी में मेला देखे जात....भेलउ ने।")    (कसोमि॰117.17; 119.7; 125.21)
499    गोतिया (बाउ के भी बात जँचल अउ फिरिस लेके चलल भंडार । साथ में सरपंच साहेब के भी ले लेलक । नजदीकी गोतिया हलन से हइये हलन, होशियार भी ।; पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।; बानो पिंडा बबाजी के आगू बैठल । पंडित जी बिध-बिधान कैलका अउ पगड़ी बाँधइ ले गोतिया के हँकैलका ।)    (कसोमि॰54.27; 62.24; 115.12)
500    गोतिया-नइया (उनकर अइसन रूप गाँववला कहियो नञ् देखलकन हल । नौकरी करो हला, बड़गो ओहदा पर । गाँव आवऽ हला गाड़ी से । राते अइला - पराते गेला । अब पिलसुल मिलऽ हन । घर बनइलका, गोतिया-नइया देखइत रहलन ।; करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे । गोतिया-नइया पूछथ - काम-धाम कइसे भे रहल हे ? फिरिस अर बन गेल ? चचवा कहाँ गेलउ ? तेरहे दिन में पाक होबइ के हउ ।)    (कसोमि॰26.6; 114.9)
501    गोतिया-भाय ("डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?" बोल के बिठला लड़खड़ाल सुरमी के हाथ पकड़ले कोठरी से निकस के नीम तर आल आउ मुसहरी भर के हँका-हँका के कहे लगल - "गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !")    (कसोमि॰87.11)
502    गोतियारी (बड़की अखइना लेवे आल हल तऽ कचहरी गरम देखलक। बात सवाद के बोलल, "खपरी दरके के पहिले तोर दुन्नू के मन दरक गेलउ। की करमहीं, अब तोरा दुन्नू के बइना-पेहानी से चल के गोतियारी भी खतम भे जइतउ। की करमहीं, दुनिया के चलन हइ। गोतिया-सुतुआ नान्हें ठीक।")    (कसोमि॰123.15)
503    गोतिया-सुतुआ (बड़की अखइना लेवे आल हल तऽ कचहरी गरम देखलक। बात सवाद के बोलल, "खपरी दरके के पहिले तोर दुन्नू के मन दरक गेलउ। की करमहीं, अब तोरा दुन्नू के बइना-पेहानी से चल के गोतियारी भी खतम भे जइतउ। की करमहीं, दुनिया के चलन हइ। गोतिया-सुतुआ नान्हें ठीक।")    (कसोमि॰123.16)
504    गोदाल (= गुदाल; हो-हल्ला) (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक ! आन गाँव के लोग तऽ बुझतन, लड़ाइये हो रहल हे बकि की मजाल कि केकरो से केकरो मनमोटाव हो जाय !)    (कसोमि॰61.4)
505    गोदी (= गोद) (रनियाँ उठल आउ चाची के गोदी से पुटुआ के छीनइत बोलल, "तूँ दुन्नू गोतनी लड़ऽ हें, लड़, बकि हमरा बुतरुअन के लड़इ ले काहे सिखावऽ हें चाची? पुटुआ हमरे गोदी में मेला देखे जात....भेलउ ने।")    (कसोमि॰125.20, 22)
506    गोदैल (= दूध पीता बच्चा; स्वयं न चलने योग्य उम्र का; गोद में रहने या खेलने वाला) (बड़की उठके भित्तर चलली बिछौना निकालइ लेल । मेहमान अँगना में बिछल खटिया पर खरहाने में बैठ गेला । - खरहाना में दमाद बइठऽ हइ तऽ ससुरार दलिद्दर होवऽ हइ, गोड़ लगिअन । छोटकी सरहज गोदैल के ऊपर उचकइते बोलल आउ ढिबरी मेहमान के आगू वला मोखा पर धर देलकी । मेहमान संकोच में उठ गेला ।)    (कसोमि॰74.6)
507    गोरइया बाबा (दे॰ गोरैया बाबा) (एतना बोलके बुलकनी भउजाय दने मुड़ल आउ माथा पर हाथ रखइत बोलल, "हमर सुगनी के गति-मति दीहऽ गोरइया बाबा ।" एतनो पर जब भउजाय सुग से बुग नञ् कइलक तऽ बुलकनी भाय से बोलल, "जा हिअउ बउआ ... घर में ढेना-ढेनी हउ ।")    (कसोमि॰118.13-14)
508    गोरखिआ (= गोरखिया; चरवाहा) (सौंसे पारी कल्हइ कढ़ा गेलइ हल । पम्हा चटइते हमर पारी भिजुन अइलथुन अउ खैनी खाय ले बैठ गेलथुन । बाते-बात बोललथुन - कहि तो देइ कोय कि हम केकरो जजात चरैलिअइ हे । ई काम कोनिए पर के गोरखिअन के हे ।)    (कसोमि॰111.18)
509    गोरखी (ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।)    (कसोमि॰88.17)
510    गोराय (= गोरापन, गोराई) (बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल । उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।)    (कसोमि॰73.26)
511    गोरैया बाबा (गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े । ओकर गोड़ में पाँख लग गेल हल - जानथ गोरैया बाबा ! दोहाय सलेस के ... लाज रखो ! बाल-बच्चा बगअधार होत । कह के अइलूँ हें ... काम दिहऽ डाक बबा !)    (कसोमि॰37.15)
512    गोल (बड़का भाय पढ़ताहर बुतरू के गोल से ललटेन उठइलका आउ गोरू बान्हइ ले चल गेला । चलित्तर बाबू सोचऽ लगला - जब माहटरे के दुहारी के ई हाल हे कि पढ़ताहर लेल एगो अलग से ललटेन के इन्तजाम नञ् हे, त दोसर के की हाल होत ।; बड़का भाय ललटेन गोल में रख के अगाड़ी में अइला आउ दोल से हाथ धोके गमछी से पोछऽ लगला ।)    (कसोमि॰101.18, 25)
513    गोलगंटा (= गोल आकार का) (चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे । भुस्सा के झोंकन अउ लहरइठा के खोरनी । चुल्हा के मुँह पर घइला के गोलगंटा कनखा ... खुट् ... खुट् ।; बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।)    (कसोमि॰16.15; 77.23)
514    गोलटाही-तेपटाही (ऊ फेनो सोचऽ लगल - हमर बेटी तिलकाही नञ् सही, बेंचुआ भी तऽ नञ् कहावत ! कुल-खनदान पर गोलटाही-तेपटाही के भी तऽ कलंक नञ् ने लगत । बेटा बंड तऽ बंडे सही । से अभी के देखलक हे । पढ़ाय कोय कीमत पर नञ् छोड़ाम ।)    (कसोमि॰62.17)
515    गोवा (= गोबा, गोब्बा; लाठी के छोर पर लगा पीतल आदि का ढक्कन) (मुनमा अकाने हे - हाँक ! हाँका पड़ो लगलो बाऊ । - जो कहीं परसादा बना देतउ । बासो बोलल आउ उठ के पैना खोजऽ लगल । धरमू उठ के चल गेल । बासो गोवा देल लाठी निकाल लेलक । मुनमा कटोरा में परसाद लेले आ गेल ।; बासो अकुला जाहे । ऊ भर जोम लाठी भुइयाँ में दे मारऽ हे । एक बित्ता में गोवा धरती में धँस गेल हे । बासो खींच के आगू बढ़ जाहे ।)    (कसोमि॰95.10; 97.11)
516    गोसाना (= गुस्सा करना) (- माय । - कीऽ ? - एगो बात कहिअउ ? गोसैमहीं नञ् ने ? - कहीं ने । - पहिले गछहीं, नञ् गोसैबो । - अच्छा, नञ् गोसैबो ।)    (कसोमि॰47.12, 14, 15)
517    गोहाल (= गोशाला) (मौली महतो पिछला बात के छोर पकड़लक - अजुबा, अजुब्बे ने भे गेलइ भइया । जेकरा से बोल ने चाल, ओकरा गोहाल में जनइ अजुब्बे ने हइ भइया ! हमरो नञ् बुझा रहल हे कि कइसे हमर गोड़ ओन्ने मुड़ गेल ।)    (कसोमि॰111.6)
518    गोहुम (= गेहूँ) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।)    (कसोमि॰61.12)
519    गौंढ़ा (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ?; अरे हम एतना दे देबइ कि लाजो के ढेर दिन सास-ससुर भिर हाथ नञ् पसारऽ पड़तइ । ढेर होतइ तऽ गौंढ़ा बिकतइ । जा बेटी, राज करो ।; ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने । एक परतार तो डीह पर बासोबास के जमीनो खोजलिओ । एक कट्ठा के पाँच गुना गौंढ़ा देबइ ले गछलियो, तइयो मुँह सोझ नञ् ।)    (कसोमि॰51.22; 52.10; 110.6)
520    गौंसे (गौंसे गरई ... जुगुत से टेंगरा । एगो गोटहन गरई भर मुट्ठी धर के अपन मुँह भिजुन ले गेल अउ चुचकारऽ लगल ।)    (कसोमि॰77.2)
521    घइला (= घड़ा) (चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे । भुस्सा के झोंकन अउ लहरइठा के खोरनी । चुल्हा के मुँह पर घइला के गोलगंटा कनखा ... खुट् ... खुट् ।)    (कसोमि॰16.15)
522    घटघटाना (= गटगटाना) (अलमुनियाँ के थारी में मकइ के रोटी आउ परोर के चटनी । - तनि निम्मक-मिरचाय दीहें । कौर तोड़इत बासो बोलल । मुनमा चटनी में बोर के पहिल कौर मुँह में देलक - हरहर तीत ! कान रगड़इत कौर निंगललक आउ घटघटा के पानी पीअ लगल ।)    (कसोमि॰94.5)
523    घटमाँघेट (भुइयाँ में डंटा बिस्कुट पटक के बुढ़िया उठ गेल आउ अलमुनिया के थारी ला के फेनो मोटरी खोलऽ लगल । एक ... दू ... तीन ... चार रोटी ... चाउर ... सेव ... झरूआ अउ नञ जानू की की । मिलल-जुलल घटमाँघेट ।; लाजो के ढेर रात तक नीन नञ् आल । ऊ मने-मन छगुनइत रहल - काड ... चरखा ... रुइया ... नेयार ... सजावट ... माय के बेमारी ... भइया के बेरोजगारी ... बाउ के खस्ता हाल ... बड़की दी आउ जीजा जी के बिगड़इत रिस्ता ... करजा के भार से चँपइत बाउ ... करजदार के गुड़की । ओकरा लगल कि ई सब मिल के एगो तलाय बन गेल हे । सब के अलग-अलग रंग । फेनो सब रंग घटमाँघेट हो गेल हे ।)    (कसोमि॰13.18; 46.12)
524    घटल-बढ़ल (बँटवारा के बाद से छोट-छोट बात पर बतकुच्चन होवइत रहऽ हल। घटल-बढ़ल जहाँ टोला-पड़ोस में अइँचा-पइँचा चलऽ हे, वहाँ अँगना तऽ अँगने हे। कुछ दिन तऽ ठीक-ठाक चलल बकि अब अनदिनमा अउरत में महाभारत मचऽ हे।; जइते के साथ अपन दुखड़ा सुनइलक। तरेंगनी के भी एकर सिकायत सुन के अच्छा लग रहल हल। ऊ हुलस के कहलक, "मायो, हइये हइ एकछित्तर दू भित्तर। ले आवऽ अनाज आउ भुंज लऽ। घटल-बढ़ल गाँव में चलवे करऽ हे।")    (कसोमि॰122.7; 123.22)
525    घठिअन (दे॰ घठिहन) (अस्पताल से लउट के बुलकनी जोजना बनइलक - घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात ।)    (कसोमि॰119.2)
526    घठिहन (= घटिया, नीचे दर्जे का) (आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । नूरीचक भी हाथ बार देलक । कहनी हल - "मरूआ रे तूँ सकरा के लड़ुआ, तूहीं पालनहार रे । तोरा छोड़लिअउ नूरीचक में, आगुए अइलें बिहार रे ॥"; खपरी के लड़ाय विस्तार लेवे लगल हल । भेल ई कि हुसैनमावली के बूँट भूँजइ के हल । रोटियानी-सतुआनी लेल घठिहन अनाज के भुँझाय-पिसाय घरे-घर पसरल हल । अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल ।; अस्पताल से लउट के बुलकनी जोजना बनइलक - घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात ।)    (कसोमि॰78.17; 117.2)
527    घनगर (= घना) (डाकबबा भिर कत्ते तुरी छिन-छोर होल हे । जय डाकबबा, पार लगइहऽ । पार भे गेल । जय डिहबाल, पार लगइहऽ । अइसइँ गोहरावइत बढ़ल गेल । दुन्नू कौलेज मोड़ के घनगर बगैचा में पहुँच गेल । कुचकुचिया कुचकुचाल । जगेसर आगू, सुकरी पीछू ।)    (कसोमि॰42.10)
528    घर-गिरथामा (ऊ घर-गिरथामा करके सिलाय-फड़ाय वली बटरी लेलक आउ भौजीघर चल गेल । ... भौजी राते कहलकी हल - कल अइहऽ, नए डिजैन के बिलौज काटइ ले सिखा देबो । उनखा दोंगा में सिलाय मसीन मिलल हल ।)    (कसोमि॰66.7)
529    घर-गिरहस्थी (- तऽ सुन । एकरा हमर नाम से लिख दे । केस खतम भेला पर फेन हम तोरा नामे पलटा देबउ, तब पक्का भेतउ । / सितबिया के बात जँच गेल । कुछ तऽ राहत मिलत । घर-गिरहस्थी के साथे-साथ कोट-कचहरी के खरचा पार नञ् लग रहल हल । सोंच-समझ के हामी भर देलक ।)    (कसोमि॰107.6)
530    घर-घेरवारी (फेन भागल-भागल एहे गाम । चाच-चाची के तऽ फूटलो नजर नञ् सोहाय । ओकर नजर बचल-खुचल घर-घेरवारी पर हल । किसना के देख के दुन्नू के करेजा पर साँप लोटऽ लगल ।)    (कसोमि॰22.20)
531    घर-दुआर (दुन्नू एगो सीरमिट के खलिया बेंच पर बैठ के गलबात करऽ लगल । जगेसर दिल्ली में नौकरी करऽ हे । एक महिना के छुट्टी पर घर आ रहल हल । अइसइँ घर-दुआर आउ गाँव-गिराँव के गर-गलबात करइत दुन्नू पाव रोटी खइलक आउ चाह पीलक ।)    (कसोमि॰41.22)
532    घरहेली (= गृहप्रवेश) (घरहेली भेल, खूब धूमधाम से । गाँव भर नेउतलन हल । भला, ले, कहीं तो, घरहेली में के नञ् खइलक ? राँड़ी-मुरली सब के घर मिठाय भेजलन हल बिहान होके । पुजवा नञ् भेलइ तऽ की ? पुजवो में तऽ नञ् अदमियें खा हइ । से की देवतवा आवऽ हइ खाय ले ।; बचल पैसा से तीन डिसमिल आउरो जमीन भे गेल, फेन एगो ओसरा-भित्तर अलग से । फूस के छप्पर देके ओसरा में देव-पित्तर करके घरहेली भी कर लेलक । पान नञ् तऽ पान के डंटिए सही ।)    (कसोमि॰30.9, 10; 107.19)
533    घरी (= घड़ी, समय) (गारो बोरसी उकटऽ लगल कि चिकनी आगू से खींच लेलक - "अलुआ हइ, खाय घरी सबद्दा सुझतो ।" - "चोखा बनइमहीं कि चिक्को ?"; किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल ।; सुत्तल दू आदमी बतिया रहल हल - रात लटफरेम पर रह जइबइ अउ भोरगरे डोल-डाल से निपट के ओकिलवा से मिल लेबइ । सबसे पहिले चौवालीस करइ के चाही । सार सब दिन बाहर रहलन अउ मरे घरी कब्जा करे चललन हे ।)    (कसोमि॰14.15; 19.2; 28.24)
534    घसकना (= निकल देना) (मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन । ... बलनेकी सिंह के बात पर सब के हँसी आ गेल । सौखी सिंह कखने घसक गेल, कोय नञ् देखलक ।)    (कसोमि॰30.8)
535    घिघियाना (= गिड़गिड़ाना) ("केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । कत्ते घिघिअइला पर किसोरबा देलक हल । ऊ चकइठबा पसिया छँउड़ापुत्ता अइसन ने बोरिया पकड़ के खींचलक कि लोघड़ाइयो गेलूँ अउ सउँसे गिलास चाह सुपती पर उझला गेल ।"; लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल । बाउ घिघिआइत रहला, लोराइत रहला, चिल्लाइत रहला अउ अंत में शान्त हो गेला ।; मँझली समझ गेल। बिदकल घोड़ी सम्हरेवली नञ् हे। मुदा अब होवे तऽ की। तारल अनाज भुंजइ बिना खराब भे जात। आग लगे अइसन परव-तेवहार के। ओकरो पर ई अजलत के कोकलत वला मेला। हमरे नाम से नइहरो में आग लग गेलइ। अब गाँव में केकरा-केकरा भिजुन घिघियाल चलूँ ?)    (कसोमि॰11.17; 55.13; 123.12)
536    घिरना (= घृणा) (ई बात नञ् कि ओकरा से हमरा गैरमजरुआ जमीने लेके झगड़ा हे, से से ऊ हमरा अच्छा नञ् लगऽ हे, भलुक ओकर स्वभावो से हमरा घिरना हे ।)    (कसोमि॰110.3)
537    घिसिआना (= अ॰क्रि॰ घसीटा जाना; स॰क्रि॰ घसीटना) (जगेसर माथा-हाथ धैले गाँव दने चलल जा हल । सुकरी पीछू धइले घिसिआल । कौन केकरा से की कहे ! बिन अवाजे सब कुछ सुन रहल हल ।)    (कसोमि॰42.23)
538    घिसियाना (= घसीटना) (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।"; "एजा कि घुकरी मारले हें । सुलगो देहीं । जो ने बारा तर ... तापिहें तलुक ।" मन में कुछ सोच के गारो उठल अउ गोड़ घिसिअइले मड़ुकी से बाहर भे गेल ।)    (कसोमि॰12.4; 13.5)
539    घीन (~ लगना; ~ बरना) (बाउ बजार से टौनिक ला देलथुन हे । कहऽ हथिन - अंडा खो । हमरा अंडा से घीन लगऽ हउ । - अमलेटवा खाहीं ने । पूड़ी नियन लगतउ, बलुक कचौड़िया नियन नोनगर-तितगर । हम तऽ कते तुरी खइलिअइ हे । बरौनियाँ में तो सब कोटरवा में बनऽ हइ ।)    (कसोमि॰57.10)
540    घुकरी (= घुकड़ी; ठंढ के कारण देह को सिकोड़ कर बैठना) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । ..." बुढ़वा दने देख के - "एजा कि घुकरी मारले हें । सुलगो देहीं । जो ने बारा तर ... तापिहें तलुक ।")    (कसोमि॰13.3)
541    घुकुरना (= ठंढ के कारण सिकुड़ना) (ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।"; फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल । लाजो नल्ली पर से रपटल आके ओढ़ना में घुकुर गेल । ढेर रात तक ऊ बाँह लाजो के देह टोबइत रहल, टोबइत रहल ।)    (कसोमि॰13.25; 46.26)
542    घुज्ज (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।; बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के । अन्हार ... घुज्ज अन्हार । समली अकुला जा हल ।)    (कसोमि॰27.26; 59.13)
543    घुट् (ओकर जीह में पचास बरिस पहिले के अँटकल सवाद पनियाय लगल ... घुट् ! ओकर आँख तर खरिहान-उसार के अंतिम लिट्टी नाच गेल - गोल-गोल डमारा के आँच पर सीझइत लिट्टी ।)    (कसोमि॰20.26)
544    घुट्ट (पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक । ... एक टुकरी रोटी मुँह में लेके चिबावऽ लगल । चोखा घुलल मुँह के पानी लेवाब ... मिचाय-रस्सुन के रबरब्बी ... करूआ तेल के झाँस ... पूरा झाल ... घुट्ट । अलमुनियाँ के कटोरी में दारू ढार के बिन पानी मिलइले लमहर घूँट मारलक ।)    (कसोमि॰80.17)
545    घुनलगउनी (बुलकनी के ध्यान गेल - तितकी ? ऊ एने-ओने ताकऽ लगल तऽ देखऽ हे, घुनलगउनी महुआ चून रहल हे । कस के हँकइलक - "तितकीऽऽऽ ! कहाँ मर गेलहीं गे ! चुटकी भर महुआ से पेट भरतउ ? गिल्ले घरी आगुए थरिया लेके दमदाखिल होमें ... चल !")    (कसोमि॰119.18)
546    घुन्नी (~ भर = बिलकुल जरा-सा) (मुनियाँ एक मुट्ठी भात-दाल के ऊपर घुन्नी भर तरकारी लेके खाय ले बैठल कि देख के माय टोकलक - बगेरी भे गेलें मुनियाँ ! जुआन-जहान एतने खाहे ?; आ सेर लगि गरई चुन के बिठला नीम तर चल गेल आउ सुक्खल घास लहरा के मछली झौंसऽ लगल - "गरई के चोखा ... रस्सुन ... मिचाय आउ घुन्नी भर करुआ तेल । ... उड़ चलतइ !"; बिठला घुन्नी भर लोइया के पाछिल टिकरी ताय पर रख के रोटी गिनऽ लगल ।; मेहरारू टूटल डब्बू के बनावल मलसी में घुन्नी भर तेल रख के जाय लगली कि मास्टर साहब टोकलका - सुनऽ, महीना में एक कीलो तेल से जास्ती नञ् अइतो, ओतने में पुरावऽ पड़तो ।)    (कसोमि॰65.23; 77.12; 78.27; 99.11)
547    घुमनइ (= घूमना) (जहिया से काशीचक खादी भंडार में अपन नाम दरज करइलक हे, गल्ली घुमनइ बंद कर देलक हे ।)    (कसोमि॰44.5)
548    घुरउर (दे॰ घुरौर) (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !)    (कसोमि॰61.2)
549    घुरना (= लौटना, वापस आना) (फेन भागल-भागल एहे गाम । चाच-चाची के तऽ फूटलो नजर नञ् सोहाय । ओकर नजर बचल-खुचल घर-घेरवारी पर हल । किसना के देख के दुन्नू के करेजा पर साँप लोटऽ लगल । टोला-पड़ोस में मांग के खाय बकि चाचा घर घुर के नञ् जाय ।)    (कसोमि॰22.22)
550    घुरी (= तुरी, मरतबा, दफा, बार) (ऊ बकरी तऽ सुकरी के तार देलक । हर घुरी तीन बच्चा ... चार बच्चा । पाठा सब के खस्सी बना दे आउ बकरीद में गया जाके भंजा ले ।)    (कसोमि॰34.20)
551    घुरौर (बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी । घुरौर के चौपट्टी घंघेटले लोग-बाग । तीस-चालीस हाथ मसीन नियन लिट्टी कलट रहल हे, बुतरू-बानर देख रहल हे, कूद रहल हे, लड़ रहल हे, हँस रहल हे, डंड-बैठकी कर रहल हे । रह-रह के घुरौर भिजुन आवऽ हे, नाचऽ हे, फानऽ हे । टहल-पाती भी बुतरुए कर रहल हे ।)    (कसोमि॰21.3, 6)
552    घुसियाना (= घुसाना) (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।")    (कसोमि॰12.5)
553    घोंट (= घूँट) (अंगुरी के नोह पर चोखा उठा के जीह पर कलट देलक । भर घोंट पानी ... कंठ के पार । बचल दारू कटोरा में जइसइँ ढारइ ले बोतल उठइलक कि सुरमी माथा पर डेढ़ किलो के मोटरी धइले गुड़कल कोठरी के भित्तर हेलल ।)    (कसोमि॰84.25)
554    घोघा (सास छेकुनी के सहारे दरवाजा तक गेली आउ केबाड़ी के एक पल्ला साट के घोघा देले हुलकली । फुफ्फा समझ गेला । चौंकी से उतर के गेला आउ गोड़ लगके फेनो चौंकी पर बैठ गेला ।)    (कसोमि॰71.24)
555    घोघी (रनियां सब गंदा कपड़ा सरिया के साफ करइ लेल तलाय पर चलल कि माय टोकलक, "बासिए मुँह हें कुछ खा नञ् लेलें?" - "घोघी में फरही ले लेलिए हे.....फाँकते चल जइबइ।" बोलइत घर से बहराय लगल।)    (कसोमि॰121.7)
556    घोरनी (अगहन आ गेल । जइसे-जइसे दिन नजकिआल जाहे, बाउ के छटपट्टी बढ़ल जाहे । पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी ।)    (कसोमि॰54.15)
557    घोरही (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।)    (कसोमि॰13.11)
558    घोराना (सुतरी के पलंगरी ~) (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ? पिपरा तर के जरसमने की हउ ? कुल बिक जइतउ तइयो नञ् पुरतउ । अलंग-पलंग छोड़ । सुतरी के पलंगरी साचो से घोरा ले ।; अगहन आ गेल । जइसे-जइसे दिन नजकिआल जाहे, बाउ के छटपट्टी बढ़ल जाहे । पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी ।)    (कसोमि॰51.24; 54.14)
559    घोलसार (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक ! आन गाँव के लोग तऽ बुझतन, लड़ाइये हो रहल हे बकि की मजाल कि केकरो से केकरो मनमोटाव हो जाय ! कल होके फेन ओतने घोलसार, ओतने जिन्दा, ओतने गलबात !)    (कसोमि॰61.6)
560    चँताना (= दबना) (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।)    (कसोमि॰88.2)
561    चंगुरा (आउ गमछी से नाक-मुँह बंद करके बिठला बहादुर उतर गेल जंग में - खप् ... खप् ... खट् । अइँटा हइ । ई नल्ली की नञ् ... एक से एक गड़ल धन-रोड़ा, सीसी, बोतल, सड़ल आलू-पिआज, गूह-मूत, लुग्गा-फट्टा हइ । की नञ् । रंगन-रंगन के गुड़िया-खेलौना, पिंपहीं-फुकना, बुतरू खेलवइवला फुकना, जुत्ता-चप्पल ... बिठला कुदार के चंगुरा से उठा-उठा के ऊपर कइले जाहे । गुमसुम ... कमासुत कर्मयोगी । दिन रहत हल तऽ कुछ चुनवो करतूँ हल ।)    (कसोमि॰82.24)
562    चंभलाना (मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन । के पूछे खीर ! कल हमहूँ मुँह चंभला-चंभला कहले चलवन - हमर बाल-बच्चा धइल चिकनजीह हो । फुसलैते-फुसलैते खिलैलियो । गींज-मथ के दू कौर खैलको, बस । खौरही कुतिया के फबलइ ।)    (कसोमि॰37.23)
563    चउआ (= पैर के तलवे का उँगली के नीचे का हिस्सा) (परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल । माहटर साहब के सट्टी खाके अइसइँ अइँठ गेल हल - आँख मुनले, मुँह तीत कइले, जइसे बुटिया मिचाय के कोर मारलक ... लोरे-झोरे ।)    (कसोमि॰88.13)
564    चकइठ (= मोटा-ताजा; मजबूत) ("केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । कत्ते घिघिअइला पर किसोरबा देलक हल । ऊ चकइठबा पसिया छँउड़ापुत्ता अइसन ने बोरिया पकड़ के खींचलक कि लोघड़ाइयो गेलूँ अउ सउँसे गिलास चाह सुपती पर उझला गेल ।")    (कसोमि॰11.17)
565    चकइठगर (पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।)    (कसोमि॰84.11)
566    चकरघिन्नी (सुकरी के गैंठ खाली, पेट खाली, घर खाली, सब खाली मुदा सुकरी के मन में आँधी । ओकर माथा चकरघिन्नी हो गेल । सोचलक, जौन खेत में कम मजूर होत, ओकरे में चिरौरी करम ।)    (कसोमि॰38.10)
567    चकुना (= चकइठ; मोटा, पृथुल) (अंजू भिजुन कल्हइ अपन मुट्ठी कसके बान्हलक अउ खोल के देखइलक हल - देखहीं अंजू, हमर देहा में खून आ रहले हे कि नञ् ! अंजू ओकर तरहत्थी अपन हाथ में लेके गौर से देखइत बोलल - खाहीं-पीहीं ने, थोड़के दिन में चितरा जइम्हीं ... चकुना । समली के हँसी आ गेल ।)    (कसोमि॰59.17)
568    चकैठवा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।")    (कसोमि॰79.25)
569    चक्खी-पक्खी (चल-चल ! दस-बीस गो दतमन लेले अइहें बथान पर । आज खरिहान उठाय हइ रे ! चक्खी-पक्खी चलतइ ।)    (कसोमि॰21.22)
570    चचा (= चाचा) (ऊ खाली मुसक के रह जा हला । कभी-कभार कहऽ हला - जमाना बदल गेलइ चचा !)    (कसोमि॰27.20)
571    चटगर (= स्वादिष्ट) (एगो कउन तो विभाग के मनिजर हलन मुदा ऊ तो परांते भर के हौलपिट हलन । कमाय पर रहतन हल तऽ रुपइया के गोठौर लगा देतन हल मुदा कंठी नञ् तोड़लन । चाभे से चाभे, इनका लेल तऽ दाले-रोटी आउ चोखा चटगर रहल, बस !)    (कसोमि॰27.13)
572    चट्टी (असेसर दा घर दने चल गेला । बनिहार एक लोटा पानी आउ हवाई चप्पल रख गेल । खड़ाँव के चलन खतम हो गेल हे । पहिले काठ के चट्टी चलऽ हल, बकि ओहो उपह गेल ।)    (कसोमि॰70.2)
573    चढ़नइ (मलकल टीसन पहुँच गेल । लटफरेम पर मोटरी धइलक । रस-रस भींड़ बढ़े लगल । देखते-देखते तिल धरे के जगह नञ् रहल । ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे ।)    (कसोमि॰36.22)
574    चद्दर (= चादर) (किसन कटोरा खंगहार के झोला में रखलक अउ एगो फट्टल चद्दर बिछा के सूत गेल ।)    (कसोमि॰25.21)
575    चनैल (जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके । अब कि चढ़त कपार । ठउरी-ठउरी छिलका । रहल-सहल जीराखार ले लेलक । रह चनैलवा मुँह बिदोरले । मछली तऽ चढ़तो उलटी धार में ।)    (कसोमि॰78.26)
576    चपरा (= चपड़ा; बड़ा कुदाल) (बजार निसबद । मुंडे दोकान भिर रुक गेल । चुल्हा चाटइत खौरही कुतिया झाँव-झाँव करऽ लगल - आक् थू ... धात् ... धात् । पिलुआही ... नञ् चिन्हऽ हीं । बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे ।)    (कसोमि॰82.6)
577    चभलाना (मेहमान रस-रस नस्ता करइत रहला । उनखर सब दाँत जवाब दे देलक हल । नीचे-ऊपर एक जगह चौआ बचल हल । चभला-चभला खइते रहला आउ बड़की सरहज से उखड़ल-उखड़ल गलबात करइत रहला ।)    (कसोमि॰75.5)
578    चमकाना (मुँह चमका-चमका के बोलना) (भला ले, कहीं तो रिब्बन के सौख चरचरैलो हल । एते तो यार-दोस्त हलउ, माँग लेतऽ हँल केकरो से, तोरा की ? डिल्ली से ला देतउ हल । अगे, बाढ़ो लाल वला पेन्हला से के ललचइतउ ! तितकी मुँह चमका-चमका के बोल रहल हल जइसे लालती ओकरा सामने हे अउ तितकी ओकरा ओलहन दे रहल हे ।; माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल । ओकर सनेह के अँचरा तार-तार भे गेल । अब तऽ पुतहू अँचरा कस के मुँह चमका-चमका आउ हाथ उलार-उलार के ओलहन देवऽ लगल, " बुढ़िया के बस चलइ तऽ हुसेनमा के मटिया तलक कोड़ के बेटिया हियाँ पहुँचा देय ।")    (कसोमि॰48.15; 117.14)
579    चर-चर (= चार-चार) (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।)    (कसोमि॰23.20)
580    चरचराना (कोय चीज के सौख ~) (भला ले, कहीं तो रिब्बन के सौख चरचरैलो हल । एते तो यार-दोस्त हलउ, माँग लेतऽ हँल केकरो से, तोरा की ? डिल्ली से ला देतउ हल । अगे, बाढ़ो लाल वला पेन्हला से के ललचइतउ ! तितकी मुँह चमका-चमका के बोल रहल हल जइसे लालती ओकरा सामने हे अउ तितकी ओकरा ओलहन दे रहल हे ।)    (कसोमि॰48.12)
581    चरन्नी (= चवन्नी) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर ! किसुन नीचे से गोड़ लग के लौटल जा हल । साँझ के ढेर मेहरारू संझौती दे के लौट रहली हल । एकरा भिखमंगा समझ के ऊ सब परसाद आउ पन-सात गो चरन्नी देबइत आगू बढ़ गेली ।)    (कसोमि॰19.15)
582    चरुआ (= चरूई; घड़ा) (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।)    (कसोमि॰16.14)
583    चलती (फुफ्फा के आख तर ससुर के पुरनका चेहरा याद आ गेल - पाँच हाथ लंबा, टकुआ नियन सोझ, सिलोर । रोब-दाब अइसन कि उनका सामने कोय खटिया पर नञ् बैठऽ हल । मुँह खोलऽ हला तऽ मधु चूअ हल । उनकर चलती के जमाना में फुफ्फा आवऽ हला तऽ देवता नियन पूजल जा हला आउ आज ... !)    (कसोमि॰72.5)
584    चा (= चाचा) (भुइयाँ में गिरल दतमन देख के साहो-चा पुछलका - के दतमन तोड़ऽ हऽ ?; एक तूरी जरी सा दूध उधिआल कि पन्नू चा डाँटलका  - उधिआल दूध पानी । माल नीचे, छिछियायन गंध नाक में । मिलतो कि सोपाड़ा ?; ओकरा फेन खरिहान के उछाड़ो वला महाभोज याद आ गेल । सरवन चा कहलका हल - टूरा, कल हमर खरिहान अइहें, फेन लिट्टी-दूध चलतइ । सरवन चा के खरिहान पुरवारी दफा में हल । एजा इयारी में अइला हल । पारो चा उनकर लंगोटिया हलन ।)    (कसोमि॰21.14; 22.6; 25.11, 13, 14)
585    चाँच (= बाँस की फट्ठियों की चौड़ी पट्टी, पटरा या मचान; चँचरी) (बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।; - सँभल के बेटा, निसैनी कमजोर हउ । - कुछ नञ्, तों देखते तऽ रहीं । / बासो माथा पर से पथिया लेके चाँच पर खपड़ा उझललक आउ लउटा के नेवारी सरिआवऽ लगल ।)    (कसोमि॰93.16, 22)
586    चाँड़ (हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !)    (कसोमि॰96.4)
587    चाँतना (= दबाना) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।"; ऊ करवट बदललक । ओढ़ना खाट से कम चउड़ा । लाजो के देह बाहर भे गेल, पीठ उघार । बामा हाथ से पीठ के ओढ़ना चाँत के कर जोड़ल तरहत्थी दुन्नू जाँघ तर लेके सूत गेल ।)    (कसोमि॰12.22; 47.3)
588    चाउर (= चावल) (भुइयाँ में डंटा बिस्कुट पटक के बुढ़िया उठ गेल आउ अलमुनिया के थारी ला के फेनो मोटरी खोलऽ लगल । एक ... दू ... तीन ... चार रोटी ... चाउर ... सेव ... झरूआ अउ नञ जानू की की । मिलल-जुलल घंटमांघेट ।; याद पड़ल - बेटिया गूँड़ दिया कहलक हल । गूँड़ तऽ गामो में मिल जात ... चाउर ले लेम । दू मुट्ठी दे देम, रसिया तैयार, ऊपर से दू गो मड़वा । बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही ।; - ए मुनमा-माय, आज हाँक हइ । - ने चाउर हइ, ने मिट्ठा ! - परोरिया बेच ने दे, हो जइतउ । - के लेतइ ? झिंगा-बैंगन रहते हल तऽ बिकिओ जइते हल । घर-घर तऽ परोर हइ ।; बुलकनी कहलक, "हे छोटकी, चउरा बेचवा दीहोक....छो किलो हो।"  छोटकी गियारी घुमा के बुलकनी के देखलक आउ मुसक गेल। - "थाली मोड़ पर झिल्ली किना दिहोक.....मूढ़ी साथे हइ।" मुसकइत बुलकनी छोटकी के समदलक।)    (कसोमि॰13.17; 37.18; 91.17; 125.26)
589    चाउर-आँटा (आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । नूरीचक भी हाथ बार देलक । कहनी हल - "मरूआ रे तूँ सकरा के लड़ुआ, तूहीं पालनहार रे । तोरा छोड़लिअउ नूरीचक में, आगुए अइलें बिहार रे ॥")    (कसोमि॰78.17)
590    चाथन-चुगली (- दवइया टैम पर देहीं कि ओहो नञ् ? - पूछ लेहुन बड़की से ! - पुछवइ की ! दस दुहारी बुलइ से तोरा फुरसत मिलइ तब तो ! दिन-रात चाथन-चुगली । घर में बैठ के दस के चाथन-चुगलीवला से बाल-बच्चा पर असर पड़ऽ हे ।)    (कसोमि॰100.12)
591    चान (= चाँद) (ओकर नाक फटइत रहल, कुदार चलइत रहल ... चलइत रहल । चान डूब गेल तऽ छोड़ देलक - बस कल्ह । नाधा तऽ आधा । गबड़ा में कुदार-खंती धो के कापो सिंह के डेवढ़ी गेल आउ बचल दारू घट् ... घट् ... पार !)    (कसोमि॰83.1)
592    चानी (= चाँदी) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।)    (कसोमि॰77.24)
593    चाभना (एगो कउन तो विभाग के मनिजर हलन मुदा ऊ तो परांते भर के हौलपिट हलन । कमाय पर रहतन हल तऽ रुपइया के गोठौर लगा देतन हल मुदा कंठी नञ् तोड़लन । चाभे से चाभे, इनका लेल तऽ दाले-रोटी आउ चोखा चटगर रहल, बस !)    (कसोमि॰27.12, 13)
594    चास (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ । बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो ।; बेचारी के की नञ् हलइ - घर, एक बिगहा चास, बेटा-बेटी बाकि मनिएँ हेरा गेलइ ।)    (कसोमि॰58.21; 105.1)
595    चाह (= चाय) (अइसईं बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल । दलकी मेटल तऽ कान पर के बुताल बीड़ी निकाल के तितकी से सुलगइलक अउ चुटकी से पकड़ के एक कस खींचइत फेनो रवऽ लगल - "केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । .. ऊ चकइठबा पसिया छँउड़ापुत्ता अइसन ने बोरिया पकड़ के खींचलक कि लोघड़ाइयो गेलूँ अउ सउँसे गिलास चाह सुपती पर उझला गेल ।"; गाड़ी लूप लैन में लगल । उतर के दुन्नू रपरपाल बढ़ल गेल । गुमटी पर के चाह दोकान सुन्न-सुनहटा । ओलती से टंगल लालटेन जर रहल हल ।)    (कसोमि॰11.16; 12.1; 42.5)
596    चाह-घुघनी (बाल-बच्चा के मुँह देख के धीरज धइलक - पोसा जात तऽ मट्टी उधार हो जात । ईहे सब सोच के घर-जमीन सब बेच देलक आउ चल आल नइहरवे ... भइवे के ओठर धर के जिनगी काटम । भतीजवो सब अल्लो-मल्लो कर लेलकइ । बेचारी बजार में चाह-घुघनी बेच के पेट पाले लगल ।)    (कसोमि॰106.6)
597    चाह-पान (कल्लू गाहक के चाह देके पान लगावे लगल । ऊ चाह-पान दुन्नू रखे । ओकर कहनइ हल - चाह के बिआह पाने साथ ।)    (कसोमि॰112.6)
598    चिकनइ (= चिकनाई) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।)    (कसोमि॰77.23)
599    चिकन-चुरबुर (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।)    (कसोमि॰79.18)
600    चिकनजीह (= चिकनकोर) (मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन । के पूछे खीर ! कल हमहूँ मुँह चंभला-चंभला कहले चलवन - हमर बाल-बच्चा धइल चिकनजीह हो । फुसलैते-फुसलैते खिलैलियो । गींज-मथ के दू कौर खैलको, बस । खौरही कुतिया के फबलइ ।)    (कसोमि॰37.24)
601    चिक्कन (=चिक्कण, चिकना) (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ । बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो ।; ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।)    (कसोमि॰58.20; 89.1)
602    चित-पट (बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो । खन्हा कटल हो, एकर खेत गाय-गोरू बरबाद करते रहलो । कोढ़ हइ कोढ़ ! कइसूँ सालो भर के के खरची चल गेलो तऽ बहुत । कोय काम पड़ गेलो तऽ चित-पट ।)    (कसोमि॰58.25)
603    चितराना (अंजू भिजुन कल्हइ अपन मुट्ठी कसके बान्हलक अउ खोल के देखइलक हल - देखहीं अंजू, हमर देहा में खून आ रहले हे कि नञ् ! अंजू ओकर तरहत्थी अपन हाथ में लेके गौर से देखइत बोलल - खाहीं-पीहीं ने, थोड़के दिन में चितरा जइम्हीं ... चकुना । समली के हँसी आ गेल ।)    (कसोमि॰59.17)
604    चितान (= चिताने) (घर आके सुकरी देखऽ हे - बेटी ताड़ के चटाय पर करबटिया देले धनुख सन पड़ल हे । गमछी माथा से गोड़ तक चटाय पर धनुख के डोरी नियन तनल हे । बेटा बहिन के देह पर गोड़ धइले चितान बान सन पड़ल हे । सुकरी सले-सले ढिबरी मिंझा बगल में पड़ गेल ।; तितकी तेजी से चरखा घुमा के अइँठन देवइत बोलल - एकरा से सूत मजगूत होतउ । जादे अइँठमहीं तऽ टूट जइतउ, मुदा कोय बात नञ् । टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान ।)    (कसोमि॰43.2; 45.19)
605    चित्ते (= चिताने) (पनियाँ बदल दहीं ... महकऽ हइ, बोलइत बाबूजी खटिया पर बैठ गेला आउ सले-सले चित्ते लोघड़ गेला । फुफ्फा सिरहाना में लोटा रख के पोथानी में बैठ गेला । - जलखइ भेलइ ? बाबूजी पूछऽ हथ । असेसर, पहुना के घर दने ले जाहुन ।)    (कसोमि॰73.16)
606    चिन्नी (= चीनी) ("बरतन अर पर धेयान रखिहें। देख, एगो थरिया, एगो लोटा, एगो गिलास आउ पलास्टिक के मग रख दे हिअउ। निम्मक-मिचाय, अमउरी आउ चिन्नी भी दे देलिअउ हे।" थइला के चेन लगवइत माय बोलल।)    (कसोमि॰125.6)
607    चिन्हना (= पहचानना) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।; "हम किसना ही ।" - "कौन किसना ?" - "नञ चिन्हऽ हो ?" - "के, टूरा रेऽऽ ?" - "हाँ ।"; 'चिन्हऽ हीं नञ्', कहइत लाजो गाछ भिजुन चल गेल । टहपोर इंजोरिया में अमरूद के गाछ के छाहुर ... इंजोरिया आउ छाहुर के गलबात ।)    (कसोमि॰19.1, 3; 21.18; 46.16)
608    चिमकी (अइसीं बारह बजते-बजते काम निस्तर गेल। सुरूज आग उगल रहल हल । रह-रह के बिंडोबा उठ रहल हल,  जेकरा में धूरी-गरदा के साथ प्लास्टिक के चिमकी रंगन-रंगन के फूल सन असमान में उड़ रहल हल। पछिया के झरक से देह जर रहल हल।)    (कसोमि॰120.15)
609    चिरइँ-चिरगुन (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।)    (कसोमि॰76.2)
610    चिरौरी (= अनुनय-विनय; विनयपूर्वक किया गया आग्रह) (सुकरी के गैंठ खाली, पेट खाली, घर खाली, सब खाली मुदा सुकरी के मन में आँधी । ओकर माथा चकरघिन्नी हो गेल । सोचलक, जौन खेत में कम मजूर होत, ओकरे में चिरौरी करम ।)    (कसोमि॰38.11)
611    चुकड़ी (~ ढारना) (अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल । ... "बचल ! एकरे डर ... लेके सले कलाली चल देतो । कमइतो न कजइतो ... चुकड़ी ढारतो ।")    (कसोमि॰11.6)
612    चुक्को-मुक्को (किसन के धेयान अपन गोड़ के बेयाय दने चल गेल । चुक्को-मुक्को बैठला से तनतनाय लगल हल । ककड़ी नियन फट्टल गोड़ ... सीऽऽऽ ... । ओकर धेयान बरगद दने गेल आउ सोचलक कि खइला के बाद एहे बड़ के दूध अपन बेयाय में लगा लेम ।; बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे । मछली के देखते मातर ओकर जीह से पानी टपकतो ... सीऽऽऽ ... घुट्ट । ऊ चुक्को-मुक्को मड़ुकी में बइठल चुनइत जाहे आउ गुनगुनाइत जाहे ।)    (कसोमि॰22.8; 76.6)
613    चुचुआना (हमरा ले की लइमहीं, माय ? गूँड़ खइला कते दिन भे गेलइ ! तिलसकरतिए में ने लैलहीं हल ? - बेस, कहके सुकरी मने-मन छगुनइत बहराल अउ डाकथान वला रस्ता पकड़लक । बादर चुचुआ गेल हल । मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल ।)    (कसोमि॰33.21)
614    चुनचुनाना (ऊ तऽ गाँव भर के खेलौनियाँ हलन । की बूढ़, की बुतरू, ऊ सब से मजाक करऽ हलन । सच बात कहइ में तऽ उनखर जोड़ नञ् । हँसइते-हँसइते भी चुनचुनाय वली बात भी मिठाय नियन निगला दे हलन ।; ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल । बिठला के पीठ चुनचुनाय लगल - कत्ते तुरी माय धउल जमइलक हल । बाउ मारऽ हल माय के तऽ बिठला डर से भगोटी गील कर दे हल ।)    (कसोमि॰30.5; 84.13)
615    चुनना-चानना (ऊ चुन-चान के डमारा लइलक आउ जेभी से सलाय निकाल के पत्ता सुलगइलक । ओकरा पर डमारा सरिया के गमछी पर आँटा सानलक अउ चार लोइया तइयार कर लेलक ।)    (कसोमि॰20.7)
616    चुनाटल (= चुनेटल; चूना लगाया हुआ) (एन्ने भीड़ में अलग-अलग चरचा । - बेचारा, इमानदारिए में चल गेला । ठीक कहऽ हइ, सुधा के मुँह में कुत्ता मूते । इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ? चुनाटल देवाल में तऽ गोइठा ठोकवा के बिझलाह बना देलहीं ।)    (कसोमि॰29.23)
617    चुभदी (= चुबदी; छोटा-सा गड्ढा) (ऊ गुड़क-गुड़क के बालू सरिअइलक आउ माथा दने तनि ऊँच कर देलक । बालू के बिछौना, बालू के तकिया । अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल । दूध, रावा आउ लिट्टी मिल के सीतल परसाद हो गेल ।)    (कसोमि॰20.24)
618    चुभलाना (लोटा उठा के एक घूँट पानी लेलक आउ चुभला के घोंट गेल ... घुट्ट ।)    (कसोमि॰81.2)
619    चूड़ा (= चिवड़ा) (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।)    (कसोमि॰13.10)
620    चूहा-पेंचा (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।)    (कसोमि॰76.4)
621    चूहा-बगेरी (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ । बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो ।)    (कसोमि॰58.23)
622    चैती (गाँव में केकरो घर पूजा होवऽ हल, किसुन हाजिर । जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ओकरा ढेर भजन याद हल - नारंदी, चौतल्ला, चैती, बिरहा, झुम्मर ... कत्ते-कत्ते । आरती में तो औसो के साथ दे ।)    (कसोमि॰23.6)
623    चोटी-पाटी (चान उग गेल हल। सोनफहक भेल कि बुलकनी दुन्नू बेटी के जगा देलक, "रानीऽऽऽऽ....तीतो उठ जा। डीअम्मा भोरगरे आवऽ हउ। चोटी-पाटी कर ले। नहइमें तऽ धामे पर।")    (कसोमि॰124.15)
624    चोराना-नुकाना (- तों की लेलहीं ? लाजो से तितकी पुछलक । - हमरा की पैसा हलउ । तों जानवे करऽ हीं, परसाल धानधुर्रा मरिए गेलउ । रहऽ हलउ तऽ मइयो चोरा-नुका के दे दे हलउ । लाजो बुझनगर सन गाल पर हाथ धइले बोलल ।)    (कसोमि॰48.18)
625    चौआ (= मुँह के दोनों किनारे वाला सबसे चौड़ा दाँत; पैर के तलवे का वह भाग जो उँगलियों के नीचे पड़ता है; अंगूठा रहित हाथ की चार उँगलियों की चौड़ाई की नाप) (मेहमान रस-रस नस्ता करइत रहला । उनखर सब दाँत जवाब दे देलक हल । नीचे-ऊपर एक जगह चौआ बचल हल । चभला-चभला खइते रहला आउ बड़की सरहज से उखड़ल-उखड़ल गलबात करइत रहला ।)    (कसोमि॰75.5)
626    चौकिता (गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल । ... बूढ़-पुरनियाँ कहऽ हलन - गाँव के घर चौकिता होवे के चाही, आगू में गोसाला । ऊ खाली मुसक के रह जा हला ।)    (कसोमि॰27.19)
627    चौखुट (एगो चौखुट मिचाय के खेत में दू गो तोड़नी लगल हल । खेत पलौटगर । लाल मिचाय ... हरियर साड़ी पर ललका बुट्टी ।)    (कसोमि॰38.12)
628    चौतल्ला (गाँव में केकरो घर पूजा होवऽ हल, किसुन हाजिर । जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ओकरा ढेर भजन याद हल - नारंदी, चौतल्ला, चैती, बिरहा, झुम्मर ... कत्ते-कत्ते । आरती में तो औसो के साथ दे ।)    (कसोमि॰23.6)
629    चौपटी (= चौ-पट्टी; चारो तरफ) (ऊ बन्नूक लेके अपन घर के चौपटी दौड़ऽ लगला आउ हाल-हाल चिल्लाइत रहला, चिल्लाइत रहला । थक गेला तऽ भित्तर जाके लोघड़ा गेला ।)    (कसोमि॰31.2)
630    चौपट्टी (= चारो ओर) (सुकरी चौपट्टी नजर घुमइलक । ताड़ के पेड़ पुरबइया से खड़खड़ा रहल हल । थोड़के-थोड़के दूर पर टिवेल के केबिन, बिजली तार के जाल । तिरकिन आदमी अपन-अपन काम में विसित ।)    (कसोमि॰38.3)
631    छँउड़ा-पुत्ता (बुढ़िया बोरिया उझल के एक-एक चीज बकछियावऽ लगल । तीन गो गोइठा एक दने करइत, "छँउड़ापुत्ता मुलुर-मुलुर ताकइत रहतो । मुत्तइ ले गेला हल । लम्हबन सब जो बनइ ले देय ! देखलको नञ कि आछिः ... केतनो माय-बहिन एक करबो, ठीं ... ठीं ... ठीं ... हँसतो ।"; ऊ चकइठबा पसिया छँउड़ापुत्ता अइसन ने बोरिया पकड़ के खींचलक कि लोघड़ाइयो गेलूँ अउ सउँसे गिलास चाह सुपती पर उझला गेल ।)    (कसोमि॰11.8, 17)
632    छँटुआ (सुकरी मिचाय के भरल मुट्ठी खोंइछा में धइलक आउ डाड़ा कस के अँचरा खोंसलक । पाँच बजे काम से छुट्टी भेल । किसान छँटुआ बैगन-मिचाय अइसइँ मजूरनी के दे देलक ।)    (कसोमि॰39.26)
633    छइत (= छइते, अछइत; रहते) (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?)    (कसोमि॰35.2)
634    छकड़जीहा (पान के खिल्ली के खिल्ली मुँह में दाबइत मौली उठ गेल हल अउ खिस्सा खतम कइलक - बाकि सुन लऽ, छकड़जीहा एकर अहसान मानतो ? माने चाहे मत माने, हम ओकरा थोड़े, निमुँहा के बचबइ ले चल गेलिअइ !)    (कसोमि॰113.7)
635    छकना (तहिया तीन दिना पर हिंछा भर खइलक हल किसना । दूध-लिट्टी रावा । छक के सोवो आदमी के भोज । कठौती पर कठौती । छप्-छप् दूध । लुल्हुआ डूब जाय - सड़ाक् ... सपाक् ... सपाक् ... सपाक् ।)    (कसोमि॰22.24)
636    छक् (~ दियाँ) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ? धथफथाल बासो उतरल आउ डंटा लेके आगू बढ़ल । ऊ मुनमा के खींच के पीछू कर देलक । - ओज्जइ हउ ... सुच्चा । हमर हाथा पर ओकर भाफा छक् दियाँ लगलउ । एतबड़ गो । मुनमा अपने डिरील जइसन दुन्नू हाथ बामे-दहिने फैला देलक ।)    (कसोमि॰89.7)
637    छगुनना (हमरा ले की लइमहीं, माय ? गूँड़ खइला कते दिन भे गेलइ ! तिलसकरतिए में ने लैलहीं हल ? - बेस, कहके सुकरी मने-मन छगुनइत बहराल अउ डाकथान वला रस्ता पकड़लक ।; अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा ।)    (कसोमि॰33.19; 37.26)
638    छटछट (= तेज-तर्रार; तेज औजार से 'छटछट' काटने की आवाज) (ओकरा इयाद पड़ल - मोरहर में कभी-कभार दहल-भसल लकड़ी भी आ जाहे । सुकरी एक तुरी एकरे से एगो बकरी छानलक हल । तहिया सुकरी छटछट हल । दूरे से देखलक आउ दउड़ पड़ल । ... सुकरी उड़नपरी सन यह ले, ओह ले, ... छपाक् । बकरी पकड़ा गेल ।; ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।)    (कसोमि॰34.3; 89.1)
639    छट-छट (जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे । झाखुर-माखुर केस-दाढ़ी । केकरो छाड़न फट्टल-पुरान अंगा-लुंगी । देह माधे ठठरी ! छट-छट गेल हल, लुंज-पुंज आल !)    (कसोमि॰19.5)
640    छटपट्टी (= छिटपिट्टी; व्याकुलता, परेशानी) (अगहन आ गेल । जइसे-जइसे दिन नजकिआल जाहे, बाउ के छटपट्टी बढ़ल जाहे । पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी ।)    (कसोमि॰54.14)
641    छड़क्का ("चल-चल ! दस-बीस गो दतमन लेले अइहें बथान पर । आज खरिहान उठाय हइ रे ! चक्खी-पक्खी चलतइ ।" - "बेस, बढ़ऽ ने, आवऽ हियो" कहके किसना हाली-हाली छड़क्का तोड़ऽ लगल अउ उतर के दरबर मारले बथान पर पहुँच गेल ।)    (कसोमि॰21.23)
642    छनउआ (= तेल में छानकर बनाया हुआ पकवान) (- तेलो तो झरल हइ ... देखऽ हिओ । - एक्को महीना तो नञ् ने पूरऽ हो ? - एन्ने नाता-कुटुम में जास्ती उठ गेलइ । - नाता-कुटुम कि तोरा नञ् जानऽ हथ, जे झाँपइ ले छनउआ खिलावऽ हो ।)    (कसोमि॰99.4)
643    छनउआ-मखउआ (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।)    (कसोमि॰79.19)
644    छप् (ओकर अंगुरी ओइसहीं चल रहल हल जइसे ओकर बिन दाँत के मुँह । जीह तऽ छुरी-कतरनी । जेकरा पइलक छप् ... बिन देखले ... केजा कटत के जाने !)    (कसोमि॰13.20)
645    छप्-छप् (तहिया तीन दिना पर हिंछा भर खइलक हल किसना । दूध-लिट्टी रावा । छक के सोवो आदमी के भोज । कठौती पर कठौती । छप्-छप् दूध । लुल्हुआ डूब जाय - सड़ाक् ... सपाक् ... सपाक् ... सपाक् ।)    (कसोमि॰22.24)
646    छरदेवाली (ओहे साल बँटवारा भेल हल। तीनियों एक्के घर में रहऽ हल। एक्कक भित्तर हिस्सा पड़ल हल। अँगना एक्के हल। छोटकी छरदेवाली देवे चाहऽ हल।; महाभारत तऽ बाते से सुरू होवे हे, बान तऽ चलऽ हे अंत में। आउ अंत में दुन्नू भिड़इ-भिड़इ के भेल कि हल्ला सुन के बड़का हाथ में सन काटइ के डेरा लेले आ धमकल। छोटकी सब दोस ओकरे पर मढ़ देलक, "अपन अँगना रहत हल तऽ आज ई दिन नञ् देखे पड़त हल।" धरमराज बनला हे तऽ सम्हारऽ मँझली के। नञ् तऽ छरदेवाली पड़ के रहतो।")    (कसोमि॰121.27; 122.22)
647    छरबिन्हा (= छरबिन्दा; काले रंग का एक जहरीला कीड़ा जिसकी पीठ पर छह गोल सफेद बुंदके होते हैं) ("सितलहरी के डंक छरबिन्हा नियन होवऽ हइ । देखऽ हीं नञ, छरबिन्हा झारइ में धुइयाँ पिलावल जा हइ ।")    (कसोमि॰15.17, 18)
648    छराना (= अ॰क्रि॰ छारा जाना; स॰क्रि॰ छरवाना) (लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।)    (कसोमि॰46.19)
649    छहरना (= तितर-बितर होना, फैलना) (ओकर जिनगी पानी पर के तेल भे गेल, छहरइत गेल । आउ छहरइत-छहरइत, हिलकोरा खाइत-खाइत फेनो पहुँच गेल अपन गाँव, अपन जलमभूम ।)    (कसोमि॰25.1, 2)
650    छाँक (रस-रस ओकर हाथ दारू दने ओइसइँ बढ़ल जइसे डोंरवा साँप धनखेती में बेंग दने बढ़ऽ हे । कटोरी भर दारू ढार के एक्के छाँक में सिसोह गेल । नाक सिकोड़ के उपरइला ठोर पर गहुमन के फन नियन टक लगा देलक ।)    (कसोमि॰80.22)
651    छाड़न (= उतरन) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे । झाखुर-माखुर केस-दाढ़ी । केकरो छाड़न फट्टल-पुरान अंगा-लुंगी ।)    (कसोमि॰19.4)
652    छान-पगहा (तितकी आवे के तऽ आल, बकि टुघरइत । माय के गोस्सा कपार चढ़ गेल, "छिछिअइली, सोगपरउनी । लगऽ हइ देह में समांगे नञ् हइ । मन करऽ हइ इहे अइँटवा से कपार फोड़ दिअइ । चल, केराव पीट । कोकलत जाय ले इहे छान-पगहा तोड़ा रहल हे । मोहनभोग बना के कलउआ देबउ कि इहे बूँटा-केरइया, गहुमा के सतुआ ।")    (कसोमि॰119.24)
653    छाम-छीन (खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन ! हम तऽ माउग हिअन । माउग कि तोर खाली टासे बनइते रहतो ! ओकरा आउ कुछ मन करऽ हइ कि नञ् ! छाम-छीन नञ्, बकि सिनुरा-टिकुली नञ् ? सोहागिन के बाना चूड़ी भी लावइ से अजुरदा ।)    (कसोमि॰101.8)
654    छारना (= छप्पर छाना; छप्पर की मरम्मत करना) (मुनमा-माय खाय बना के पथिया उठवऽ लगल । मुनमा के हाथ पर पहिल पथिया । - सँभल के बेटा, निसैनी कमजोर हउ । - कुछ नञ्, तों देखते तऽ रहीं । / बासो माथा पर से पथिया लेके चाँच पर खपड़ा उझललक आउ लउटा के नेवारी सरिआवऽ लगल । अइसीं जब तीन पहर बीत गेल तऽ मुनमा-माय टोकलक - खाके छारिहऽ ... मुनमा भुक्खल हइ ।; बासो गमछी से हाथ पोछइत निसैनी चढ़ऽ लगल । चाँच पर बैठ के पहिले खैनी लगइलक अउ फाँक के छारइ में जुम गेल ।; नयका छारल ओसरा पर फेन खटिया बिछ गेल । माय साँझ-बत्ती देके मोखा पर दीया रख के अंदर चल गेल ।)    (कसोमि॰93.24; 94.14; 95.1)
655    छाली (ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल । दूध औंटे में छोलनी चलइत रहे के चाही, नञ् तऽ सब माल छाली में जमा हो जाहे । छोलनी चलला से माल मिलइत गेलो, दूध औंटाइत गेलो । ओकर नाक में खर औंटल दूध के गंध भर गेल ।)    (कसोमि॰22.2)
656    छाहाछीत (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।)    (कसोमि॰84.19)
657    छाहुर (= छहुरा; छाया) ('चिन्हऽ हीं नञ्', कहइत लाजो गाछ भिजुन चल गेल । टहपोर इंजोरिया में अमरूद के गाछ के छाहुर ... इंजोरिया आउ छाहुर के गलबात ।; सोमेसर बाबू के डेवढ़ी के छाहुर अँगना में उतर गेल हल । कातिक के अइसन रौदा ! जेठो मात ! धैल बीमारी के घर । घरे के घरे पटाल । रंगन-रंगन के रोग ... कतिकसन ।)    (कसोमि॰46.17; 92.9)
658    छिछिअइली (तितकी आवे के तऽ आल, बकि टुघरइत । माय के गोस्सा कपार चढ़ गेल, "छिछिअइली, सोगपरउनी । लगऽ हइ देह में समांगे नञ् हइ । मन करऽ हइ इहे अइँटवा से कपार फोड़ दिअइ । चल, केराव पीट । कोकलत जाय ले इहे छान-पगहा तोड़ा रहल हे । मोहनभोग बना के कलउआ देबउ कि इहे बूँटा-केरइया, गहुमा के सतुआ ।")    (कसोमि॰119.22)
659    छिछियायन (एक तूरी जरी सा दूध उधिआल कि पन्नू चा डाँटलका  - उधिआल दूध पानी । माल नीचे, छिछियायन गंध नाक में । मिलतो कि सोपाड़ा ?)    (कसोमि॰22.7)
660    छिछोर (= क्षुद्र, नीच, दुष्ट) (दर-दर के ठोकर खाके ऊ दिन भर जे कमयलक ओक्कर दूध, गुड़ आदि खरीद के लौट रहल हल कि छिछोर चोरवन सब अन्हार से निकल के ओकर सब समान छीन लेलक ।)    (कसोमि॰6.26)
661    छिछोहरा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।")    (कसोमि॰79.24)
662    छिटाना-बुनाना (अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा । सालो भर हरियर कचूर ! खेत के बिसतौरियो नञ् पुरलो कि दोसर फसिल छिटा-बुना के तैयार ।)    (कसोमि॰38.2)
663    छिट्टा (= छींटा) (चलित्तर बाबू हाजरी बना के इसकूल से पैदले चल देलका हल । गोड़-हाथ धोके कुल्ली-कलाला कइलका आउ आँख पर एक लोटा पानी के छिट्टा मारलका । आँख मिचाय नियन लहर रहल हल । जाँघ तड़-तड़ फटे ।)    (कसोमि॰98.15)
664    छिनकना (घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे । नाक छिनकइत बुढ़िया उठ गेल आउ धरोखा पर धइल ढिबरी जरा के दोसर कान पर से सउँसे बीड़ी निकाल के सुलगा लेलक आउ हाली-हाली सुट्टा खींचऽ लगल ।)    (कसोमि॰14.7)
665    छिन-छोर, छीन-छोर (लटफरेम के भेंभा बजल - डिजिया खुलइ में आधा घंटा देरी । रात भे जात !  डेढ़ कोस जमीन । ऊ लटफरेम पर गोड़ाटाही करे लगल - कोय साथी-संघाती जो मिल जाय । नञ् भेत तऽ भौठे-भौठे निकल जाम । आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे ।; दुन्नू बढ़इत गेल ... बढ़इत गेल । गाँव के पार निसबद ... रोयाँ गनगना गेल । डाकबबा भिर कत्ते तुरी छिन-छोर होल हे । जय डाकबबा, पार लगइहऽ ।)    (कसोमि॰41.8; 42.8)
666    छिनरहवा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।")    (कसोमि॰79.24)
667    छिपली (याद पड़ल - करूआ दोकान । अगहन में तिलबा, तिलकुट, पेड़ा अर रखतो, गजरा-मुराय भाव में धान लेतो, लूट ... । बड़की सूप में धान उठइलकी आउ लपकल दोकान से दू गो तिलकुट आउ दालमोठ ले अइली । तरकारी ले टमाटर आउ फुलकोबी भी ले अइली । छिपली में मेहमान के देके भुइयाँ में बइठ गेली ।)    (कसोमि॰75.3)
668    छिरिआना (ईहे बीच एक बात आउ भेल । सितबिया के बगल में दाहु अपन जमीन बेचइ के चरचा छिरिअइलक । कागज पक्का हल, कोय लाग-लपेट नञ् ।)    (कसोमि॰107.9)
669    छिलका (= नदी के मार्ग में सिंचाई के लिए लगाया हुआ मिट्टी का अस्थायी बाँध) (जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके । अब कि चढ़त कपार । ठउरी-ठउरी छिलका । रहल-सहल जीराखार ले लेलक । रह चनैलवा मुँह बिदोरले । मछली तऽ चढ़तो उलटी धार में ।)    (कसोमि॰78.26)
670    छुईमुई (= एक लतरने वाला पौधा जिसे छूने पर पत्ते और डालियाँ मुरझा-सी जाती हैं, लजौनी, लाजवंती) (मुनियाँ लाज से गड़ जा हल, छुईमुई ! ओकरा लगे - भाग जाय कनउँ, चल जाय कि कोय चिन्हल नञ् मिले, कोय नञ् टोके । ओकरा एकांत अच्छा लगऽ हल ।)    (कसोमि॰65.1)
671    छुच्छे (बिठला के भूख बुझाल । दिन माथा पर आ गेल हल । सोचलक काहे ने खा ली । से उठल अउ भीतर जाके दारू लइलक अउ भुइयें में बइठ गेल । पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक ।; आम के पाँच गाछ । सेनुरिया तऽ कलम के मात करऽ हे । छुच्छे गुद्दा, भुटनी गो आँठी । गाछ से गिरल तऽ गुठली छिटक के बाहर । एने से सब आम काशीचक में तौला दे हल ।)    (कसोमि॰80.14; 90.2)
672    छुट्टा (~ पान) (गाड़ी के टैम हो गेल हल । एक कोस के रस्ता । धड़फड़ नञ् होवे के चाही । पंडी जी आ गेला । उनखर हाथ में टीकस के पइसा देवइत पोखन बोलल - तों आगू बढ़ऽ । गरसंडा के टीकस लीहऽ ... पाँच गो । आउ हाँ, पान छूट गेलो हे । ऊहो छुट्टा ले लेवा ।)    (कसोमि॰63.24)
673    छुरी-कतरनी (ओकर अंगुरी ओइसहीं चल रहल हल जइसे ओकर बिन दाँत के मुँह । जीह तऽ छुरी-कतरनी । जेकरा पइलक छप् ... बिन देखले ... केजा कटत के जाने !)    (कसोमि॰13.20)
674    छूटल-बढ़ल (= छुट्टल-बढ़ल) (काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला । मोसाफिरखाना से बाहर भेला तऽ बजार सुत्तल । लछमी जी के मंदिर बजार भर के अंगना । छूटल-बढ़ल राही-मोसाफिर ओकरे में रात गमावे ।)    (कसोमि॰28.17)
675    छेंड़ी (पलट के असेसर दा देखऽ हथ तऽ रजौलीवला बंगला पर चढ़ रहला हे । साफ धोती आउ घोड़वा रंग के ऊनी के कुरता, कंधा पर उनिए के तहाल चद्दर, एक हाथ में जूट के झोला आउ दोसर में बगुली छेंड़ी । बुतरू-बानर अनजान आदमी के देख अकचका गेल । ओकर खेलनइ बंद हो गेल ।; ऊ अप्पन छेंड़ी देवाल से टिका के तकिया के बगल में झोला-चद्दर धइलका आउ हाथ-गोड़ धोवऽ लगला ।)    (कसोमि॰69.11; 70.4)
676    छेकुनी (फेकना छेकुनी के घोड़ा बनइलक आउ चढ़के नद्दी दने निकल गेल ।; सास छेकुनी के सहारे दरवाजा तक गेली आउ केबाड़ी के एक पल्ला साट के घोघा देले हुलकली । फुफ्फा समझ गेला । चौंकी से उतर के गेला आउ गोड़ लगके फेनो चौंकी पर बैठ गेला ।)    (कसोमि॰33.3; 71.23)
677    छेड़ी (~ मार देना) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।)    (कसोमि॰61.12)
678    छेदाना (ने गुड़ खाम, ने कान छेदाम ।) ("अहे छोटकी ... जरी खपरिया निकालहो तो।" - "हम्मर खपरी दरकल हे।"  - "देहो ने, हिफाजत से भुंजवो ।" - "नञ् ने देवो ... फेन मुड़ली बेल तर। ने गुड़ खाम ने कान छेदाम। सो बेरी के बेटखउकी से एक खेर दू टूक। साफ कहना सुखी रहना।")    (कसोमि॰123.6)
679    छो (= छह) (दू आदमी दुन्नू के हाथ से समान छीन लेलक । ... - जो, केकरो कहले हें तो छो इंच छोट कर देबउ । / चोर मोरहर के किछार धइले दक्खिन रुख बढ़ गेल । मोरहर सुकरी सन हम्हड़इत रहल । सुकरी के आँख मोरहर सन बहइत रहल ।)    (कसोमि॰42.18)
680    छोटका (- उनकर सिलसिला अब अलगे हन । घर तऽ खाली हिस्सा लेबइ ले आवऽ हथिन । - छोटका कहाँ गेलथुन ? - ऊ बेचारा खंधा पर पटौनी में हो । रात के दस-बारह बजे अइथुन आउ खा-पी के चल जइतो ।; माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल । तीनियों गोतनी के हड़कुट्टन भेल । छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।" रसलपुरवली के शेखपुरा अस्पताल में आठ टाँका पड़ल हल । जादेतर छोटके परब-तेहवार में कुछ ने कुछ लेके बहीन हियाँ आवऽ हल । बुलकनी के पता चलल तऽ भउजाय के देखइ ले शेखपुरा चलि गेल ।)    (कसोमि॰72.18; 117.18; 118.4)
681    छोटकी (= 1. वि॰ छोटी; 2. सं॰ छोटी बेटी, बहन, बहू आदि) (बड़की उठके भित्तर चलली बिछौना निकालइ लेल । मेहमान अँगना में बिछल खटिया पर खरहाने में बैठ गेला । - खरहाना में दमाद बइठऽ हइ तऽ ससुरार दलिद्दर होवऽ हइ, गोड़ लगिअन । छोटकी सरहज गोदैल के ऊपर उचकइते बोलल आउ ढिबरी मेहमान के आगू वला मोखा पर धर देलकी । मेहमान संकोच में उठ गेला ।; ईहे बीच उनखा याद आल, बुतरून के लेमनचूस धइलूँ हल । जेभी से निकाल के बड़की के हाथ में पुड़िया थम्हाबइत बोलला - "बुतरूअन के दे देथिन ।" बड़की के कोय नञ् हल । दुन्नू बेटी ससुरार बसऽ हल । मंझली आउ छोटकी दने जा-जा बुतरू-बानर के हाथ में दे अइली - फुफ्फा लइलथुन हे ।)    (कसोमि॰74.6; 75.11)
682    छोट-बड़ (= छोटा-बड़ा) (डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?)    (कसोमि॰87.9)
683    छो-पाँच (~ करना; ~ में पड़ना) (अइसहीं छो-पाँच करइत पोखन के नीन आ गेल । सपना में भी बिआहे के खिस्सा याद आवइत रहल ।; - मुनमा कने गेलइ ? बासो सवाल कइलक । - नद्दी दने गेलइ होत । - ऊँहुंक । दुन्नू छो-पाँच में पड़ गेल ।)    (कसोमि॰63.2; 92.9)
684    छोरी (= रस्सी का एक छोटा टुकड़ा) (बाँस के टोना खंभा पर रख के छोरी उठइलक ।; मुनमा माय ओकर पीठ पर हाथ धइले अँगना में चल आल । - हलऽ देखहो ! बासो छोरी के फंदा कसइत मुड़ी घुमइलक ।; मौली फेनो छूटल खिस्सा के छोरी धइलक - हों भइया तऽ ... ।)    (कसोमि॰92.16, 93.2; 112.13)
685    छोलनी (= तरकारी आदि चलाने की चिपटी कलछी) (ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल । दूध औंटे में छोलनी चलइत रहे के चाही, नञ् तऽ सब माल छाली में जमा हो जाहे । छोलनी चलला से माल मिलइत गेलो, दूध औंटाइत गेलो । ओकर नाक में खर औंटल दूध के गंध भर गेल ।)    (कसोमि॰22.1, 2)
686    छोहगर (= दयालु, कृपालु) (सोंचले हलूँ कि उनखे हियाँ रह जाम । उनखर कनिआय भी बड़ छोहगर । रहइ के मन सोलहो आना भे गेल हल बकि ...।)    (कसोमि॰25.19)
687    छौंड़ा-छौंड़ी (एतना नोट देख के सुरमी अकचका गेल - "कहाँ से लइलहीं ?" - "ई तऽ नहीं कहेंगा ।" - "चोरी कइले होमे ... डाका डालले होमे कजउ !" - "साली, तुम हमको चोर-डकैत कहता है ? कउन सार का लूटा हम ? अपना सरीर से कमाया है ... समांग से कमाया है । चल, पुछाल करता हैं ।" सुरमी लरमा गेल ।; तीस-बत्तीस तऽ करूआ तेल भे गेलइ गन । अजी अइसन जमाना आ रहलो ह कि हमाँ-सुमाँ के ड्रौपर से गिन के पाँच बूँद कड़ाही में देवऽ पड़तो । - हम की करिअइ । बुतरू-बानर के घर हइ । छौंड़ा-छौंड़ी के भी ईहे औंसऽ हिअइ ।)    (कसोमि॰86.6; 99.17)
688    छौंड़ापुता (= छौंड़ापुत्ता) (बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही । छौंड़ापुता गाँव भर के खबर लेते रहतो । मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन ।)    (कसोमि॰37.20)
689    छौंड़ापुत्ता (गया से पटना-डिल्ली तक गेल हे सुकरी कत्तेक बेर रैली-रैला में । घूमे बजार कीने विचार । मुदा काम से काम । माय-बाप के देल नारा-फुदना झर गेल, सौख नञ् पाललक । छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम !; आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे । उ तहिये ने मोहना के सहियेसाँझ छीन लेलकइ । कुछ नञ् बेचारा के दिन भर के मजुरिए ने हलइ । छौंड़ापुत्ता जनो-मजूर के नञ् छोड़ऽ हइ ।)    (कसोमि॰35.11; 41.10)
690    छौड़ा (= छौंड़ा) (ओकर ध्यान बाल-बच्चा दने चल गेल - भुक्खल कइसे दिन काटलक होत ! छौड़ा तो बहिनियो के नाकोदम कर देलकइ होत ।)    (कसोमि॰41.1)
691    छौड़ी (अइसइँ पहर रात जइते-जइते भुंजान-पिसान से छुट्टी मिलल। लस्टम-फस्टम बुलकनी सतुआनी आउ रोटियानी के सरंजाम जुटइलक। राह कलउआ लेल ठेकुआ अलग से छान देलक। निचिंत भेल तऽ धेयान तितकी दने चल गेल। अभी तक नञ् आल हे। ई छौंड़ी के मथवा जरूर खराब भे गेले हे।)    (कसोमि॰124.2)
 

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