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Friday, August 30, 2013

98. "सारथी॰" (वर्ष 2010: अंक-16) में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



सारथी॰ = अनियमित रूप से प्रकाशित मगही पत्रिका "सारथी॰"; सम्पादक - श्री मिथिलेश, मगही मंडप, वारिसलीगंज, जि॰ नवादा, मो॰ 09955613028; मार्च 2010,  अंक-16; कुल 40 पृष्ठ ।

ठेठ मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर पृष्ठ संख्या, आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति संख्या दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (‘मगही पत्रिका के अंक 1-21, बंग मागधीके अंक 1-2 एवं 'झारखंड मागधी', अंक 1 तक संकलित शब्द के अतिरिक्त) - 315

ठेठ मगही शब्द ( से तक):
1    अँखमुन्नो ("नय रात चैन नय दिन । लाइन तउ अँखमुन्नो खेलइत रहवे करऽ हे । गरमी ओइसने ... एक-डेढ़ बज गेल मेलवे से आवइ में । ए उठ, तोरे खोजइ में तउ जादे बउअइनुँ हे मेलवा में । देह के नस-नस टूट रहल हे । देखहीं त के हइ दुअरिया पर ।")    (सारथी॰10:16:23:1.38)
2    अइँटा (= ईंट) (ओकर छत जना रहल हल, जहाँ कल ओकरा देखलूँ हल । छत पर थोड़े जगह अइँटा से घेरल हल, खड़ा होवइ पर जेकरा से खाली मूड़ी जना हल बाकि छत खुलल हल ।)    (सारथी॰10:16:24:1.21)
3    अइसनका (= इस प्रकार का) (बियाह घड़ी बेटी के जोग बगइया में मंगा हे । तखने कनियाँ से आम, बर, पीपर के सेनुर लगाके पुजावल जाहे । ईहे घड़ी एगो विध दलधोय आउ पनकट्टी होवऽ हे । एकरा में लड़की कुइयाँ के सेनुर लगाके पूजऽ हे । अइसनका कुइयाँ बियाहल मानल जाहे । एकर जल पवित्तर होवऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.22)
4    अउँसना (= औंसना, हौंसना, लगाना) (हनुमान जी सीता मइया के सेनुर लगइते देखके पुछलका, "हे मइया, रोज-रोज माथा में तूँ ई काहे लगावऽ ह ?" मइया के जवाब हल, "एकरा में भगवान राम जी के वास हे ।" वानर के बुद्धि, हनुमान जी अपन सौंसे देह में लपेस लेलका । सूखल सेनुर देह में न सटल तऽ चमेली के तेल आउ सेनुर फेंटके अउँस लेलका ।)    (सारथी॰10:16:16:1.17)
5    अजियाना (= अरियाना, तंग आना या होना) (फुलिया ढीबरा के चुप करइ लेल ढेर चुचकार-पुचकार कइलक, मुदा फरिस्ता बुतरु के तो पेट भरे के बादे दुलार सूझत । अजियाके उ एगो धंधरन में जुट गेल ... । एगो मलवा में दू-चार ठेपी पानी अंगुरी सहे भर सिलगरम कइलक । ओकरे में अपन छाती के दूध गारे लगल ।)    (सारथी॰10:16:12:3.10)
6    अदमदाल (बसमतिया आउ सिरहटिया के तनाव सहे ल आखिर तन-मन में कुछ तो जान चाही बाकि इहाँ तो तन खखरी आउ मन भुस्सा भेल हे जेकरा से पराने अदमदाल हे आउ देह में उखबिखी लगल हे ।)    (सारथी॰10:16:40:2.23)
7    अधछोछर ("अगे माय ! माय गे !" अधछोछर नीन में अलसाल, अँचरा से झँपाल करखू रह-रहके अपन माय के डाँढ़ी हियावऽ लगल ।)    (सारथी॰10:16:4:2.1)
8    अधबटैया ('शालिस' इनकर मई 2006 में प्रकाशित उपन्यास हे । 'शालिस' सिरनामा सुनके अचक्के कुछ अनभुआर जइसन लगऽ हे, जेकर भान लेखक के भी हल । ऊ आवरण पृष्ठ 2 पर शुरुए में ओकर मतलब बता देलन हे । शालिस जमीन्दारी प्रथा के शब्द हलइ आउ ओकरे साथ ई शब्दो उपह गेल हल । भावली जमीन, जे अधबटैया होवऽ हल, के दाना कुतइ वला करिन्दा शालिस कहा हल ।)    (सारथी॰10:16:38:1.34)
9    अधवा (< आधा + 'आ' प्रत्यय) (एक ~) (बउआ के ओसारा में खिड़की से आवइत रौदा में झाप-पोंत के सुता देलक हल । कटोरी में एक अधवा दूध भी मालकिन के कृपा से मिल गेल हल । जब रेके - दू चम्मच घुटूस ... ढीबरा फेन सुत जाय । ढीबरा जेतनय देरी नींद में, फुलिया के काम ओतने इसोराय ।)    (सारथी॰10:16:13:1.2)
10    अनखनाना (फेर मेलवा घूमे लगलिअइ । जइसे-जइसे रतिया भींजल जा रहले हल, भीड़ आउरो बढ़ल जा रहले हल । मन अनखना गेल हल । चारो देन्ने अनगिनती अदमी, हुजूम के हुजूम - तइयो अकेलापन हमरा साल रहल हल ।)    (सारथी॰10:16:22:3.23)
11    अनगुत्ते (अनगुत्ते उठके सैलून में घुस गेल आउ नंबर लगा देलक । बैठकी वला नउआ कत्ते बढ़ियाँ केस काटत । फेन ओकरा हीं सीसा भी तो नञ रहऽ हे । सैलून के बाते कुछ आउ हे । शारूख कट तो सैलूने में कटत ।)    (सारथी॰10:16:14:3.14)
12    अनभुआर ('शालिस' इनकर मई 2006 में प्रकाशित उपन्यास हे । 'शालिस' सिरनामा सुनके अचक्के कुछ अनभुआर जइसन लगऽ हे, जेकर भान लेखक के भी हल । ऊ आवरण पृष्ठ 2 पर शुरुए में ओकर मतलब बता देलन हे । शालिस जमीन्दारी प्रथा के शब्द हलइ आउ ओकरे साथ ई शब्दो उपह गेल हल । भावली जमीन, जे अधबटैया होवऽ हल, के दाना कुतइ वला करिन्दा शालिस कहा हल ।)    (सारथी॰10:16:38:1.31)
13    अपवित्तर (= अपवित्र) (एकरा में लड़की कुइयाँ के सेनुर लगाके पूजऽ हे । अइसनका कुइयाँ बियाहल मानल जाहे । एकर जल पवित्तर होवऽ हे । एकर जल छठ, एतवार, पूजा-पाठ में लगऽ हे । मुदा जे कुइयाँ कुमार हे, ओकर जल कतनउँ मीठ होवे पूजा-पाठ में नञ् लग सकऽ हे । ओकरा अपवित्तर मानल जाहे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.25)
14    अरघउता (छठ-एतवार में तऽ परवइती सूप-डलिया के भी सेनुर से पूजऽ हथ । नारियर, लड़ुआ, मुरय, केतारी, अरघउता, पूजा के लोटा सब में भी सेनुर लागावल जा हे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.3)
15    अलगाना (= अलग करना; बोझ आदि उठाने में मदद देना) (ई बात सही हे कि सारथी डेग कम काढ़लन हे, बकि एकर डेग-डेग में लय के विविधता अउसो के लउकतो । ईहे सारथी के असल पहचान हे, जे एकरा आन से अलगावऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:2:1.2)
16    अलमुनियाँ (छोटगर गो झोपड़ी, जेकर एक कोन में अलमुनियाँ के थारी, लोटा, लटखुट बरतन । आधा भित्तर घेरि के पोआर बिछल हे । तनिक्के गो दुआरी । दुआरी में बोरा के चट वाला परदा ।)    (सारथी॰10:16:4:2.23)
17    अलरी-झलरी (सुनइ में आवऽ हे कि शिव जी के किरपा से भभूतिये सेनुर बनि गेल ... टुहटुह इंगुर ... जे आझ तक गौरा के मांग में चमकि रहल हे । माय के जी गाय नियन । गौरा के माय जब तइयार न भेली तऽ गौरा मनइलकी - "जटवा मोरा लेखे अलरी-झलरी, भभूति मोरा अहिवात गे माई ।")    (सारथी॰10:16:17:2.17)
18    अलसाल ("अगे माय ! माय गे !" अधछोछर नीन में अलसाल, अँचरा से झँपाल करखू रह-रहके अपन माय के डाँढ़ी हियावऽ लगल ।)    (सारथी॰10:16:4:2.2)
19    आगेल (तिरलोकी बाबू के बेटी के बिआह के लगन तय भे गेल । पुरोहित, हजाम आउ पौनियाँ के काम बढ़ गेल । नौकर-चाकर गाम के गोतिया-भाय सेहो जुटि गेल । नेवताहरी भी आगेला हल । आगेल दिन मड़वा छवनी आउ घीढ़ारी के । हजाम परोहित जी के नेवता दे आल । साँझ के परोहित जी घीढ़ारी खातिर पोथी-पतरा आउ अरघा, कुश-पैंती सहेजो लगला ।)    (सारथी॰10:16:18:3.2)
20    आजु-बाजु (चलित्तर सिंह के बैठका में फुलिया पोंछा मार रहल हल टेहुनियाँ देले आजु-बाजु से लफ-लफ के तिनका-तिनका समेटले । ओकर कान से मालकिन के तेज आवाज टकराल ।)    (सारथी॰10:16:13:1.8)
21    आधम-आध (ढीबरा महसूस कर रहल हे - फेन ऊहे ... करेजा से कुछ निकलल - चढ़े लगल ऊपर - घुड़मुड़ियाइत - गोलियाइत ... दिमाग के झनझनावइत, फट गेल दिमाग में ... आधम-आध होके दुइयो गोली - अटक गेल दुइयो आँख में ... झाँस्स ... आँख लाल टेस इंगुर ... पथराल ... दुआरी बंद ।)    (सारथी॰10:16:15:2.15)
22    इंगुर ('मगही-हिन्दी शब्दकोष' में श्री भुवनेश्वर प्रसाद सिंह एकर अरथ बतइलका हे कि इंगुर पीसल लाल चूरन सेनुर कहा हे, मुदा 'भार्गव आदर्श हिन्दी शब्दकोष' में कहल गेल हे कि सीसा नाम के धातु से बनल लाल चूरन हे, जेकरा अउरत मांग में लगावऽ हथ ।; सुनइ में आवऽ हे कि शिव जी के किरपा से भभूतिये सेनुर बनि गेल ... टुहटुह इंगुर ... जे आझ तक गौरा के मांग में चमकि रहल हे । माय के जी गाय नियन । गौरा के माय जब तइयार न भेली तऽ गौरा मनइलकी - "जटवा मोरा लेखे अलरी-झलरी, भभूति मोरा अहिवात गे माई ।")    (सारथी॰10:16:16:1.7, 17:2.14)
23    इकसना (= इँकसना; निकलना) (टोला-टाटी में खूम बड़ाय भेल हल लछमीपुर वली के ... लछमिनियाँ के ... लाछो के । सुरजा के तऽ जइसे लौटरी इकस गेल हल । जखने सुरजा फुलेसरी के पियार से लाछो कहिके बोलावऽ हल, फुलेसरी लाज से दोहरा जा हल ।)    (सारथी॰10:16:4:3.18)
24    इसोराना (= काम आदि अच्छी तरह और आसानी से होना; 'इसोरना' का अ॰क्रि॰ रूप, धान आदि उसनने का काम होना) (बउआ के ओसारा में खिड़की से आवइत रौदा में झाप-पोंत के सुता देलक हल । कटोरी में एक अधवा दूध भी मालकिन के कृपा से मिल गेल हल । जब रेके - दू चम्मच घुटूस ... ढीबरा फेन सुत जाय । ढीबरा जेतनय देरी नींद में, फुलिया के काम ओतने इसोराय ।)    (सारथी॰10:16:13:1.5)
25    उकनना (= समाप्त या लुप्त होना) (आजो से चेतऽ आउ लगा द कुछ गाछ सेनुर के भी । सेनुर गाछ उकनइ से भी बच जात । आवइ वला पीढ़ी कइसे पतिअइतो कि सेनुर के भी गाछ होवऽ हल धरती पर ।)    (सारथी॰10:16:35:1.1)
26    उखबिखी (= उखबिक्खी) (बसमतिया आउ सिरहटिया के तनाव सहे ल आखिर तन-मन में कुछ तो जान चाही बाकि इहाँ तो तन खखरी आउ मन भुस्सा भेल हे जेकरा से पराने अदमदाल हे आउ देह में उखबिखी लगल हे ।)    (सारथी॰10:16:40:2.23)
27    उतरा-चौली (कोय चीज के कामी उजागर करना आलोचना हइ । गोस्सा में या घिरना में आलोचना हो हइ सेकरा परनिन्दा कहल जा हइ । मगही में एकरा उतरा-चौली भी कहल जा हइ । उतरा-चौली बेइमान आलोचना हइ - दुसमन के लिए ।)    (सारथी॰10:16:33:1.3, 4)
28    उधार-पइँचा (दारू के पइसा कन्ने से आवत, ई सुलोचनी जाने । उधार-पइँचा जोहते-जोहते देह भरल जुआनी में निचुड़ा गेल । मार खा-खाके जब ओकर देह बेसुध हो जा हल, तऽ अचानके ओकर मुँह से निकल जा हल - "हे गोरइया, एकरा से भल हम राँड़े रहतूँ हल ।")    (सारथी॰10:16:5:2.20)
29    उपछाना (कभी-कभी गहड़वो उपछाय के उपाय होवऽ हे बकि फेर ऊ गहड़ा कादो-पानी से बजबजा उठऽ हे, मच्छी-मच्छर फेर जलमो लगऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:31:1.30)
30    उपरइलका (= उपरौका; ऊपर वाला) (कइसूँ मुँह दबाके सिड़हिया पर दनदन चढ़ गेलूँ । सबसे उपरइलका छतवा पर कोना में मूरत नियन जाके ठाड़ हो गेलूँ । ओकर छत जना रहल हल, जहाँ कल ओकरा देखलूँ हल ।)    (सारथी॰10:16:24:1.18)
31    उपरइलकी (= उपरौकी, ऊपर वाली) (जबकि अदना अदमी पहिले जहाँ बड़की पाटी, बड़का नाम, उपरइलकी जाति, जमीनदार आउ बड़का किसान के नाम पर भोट देवइ ले राजी हो जा हला, वहाँ अब उनकर जादू टूट गेल हे । अब नया सिरा से बुड़बक बनावइ के पैंतरा बदल गेल हे ।)    (सारथी॰10:16:32:1.1)
32    उप्पह (~ पड़ना) (ओजा कोय नय हलइ । ओकर दुआरी पर सन्नाटा पसरल हल । उप्पह पड़ल हल । अब केकरा से पुछिअइ ? समूचे गलिया एकदम खाली हइ । कहाँ चल गेलइ सब ?)    (सारथी॰10:16:24:1.10)
33    ऊभ-चुभ (अरे ... रे ... रे । हिंडोला फेर तेज हो गेल । देह चकरघिरनी बन गेल - असमान आउ धरती - धरती आउ असमान । करेजा ऊभ-चुभ ... छन में बाहर, छन में भीतर ... कठोर अँकवार में कस्सल देह ... धाड़-धाड़ बजइत धड़कन । जइसे अब दरकल पसली कि तब दरकल ।)    (सारथी॰10:16:22:2.22)
34    एजउ (= एज्जो; इस जगह भी, यहाँ भी) (सोहागिन सब एकाएकी सेनुर आउ खोइँछा देके असिरवाद दे हथ कि मांग कोख दुन्नु भरल रहो । ई असिरवाद बतावऽ हे कि मांग भरला पर कोख भरना भी जरूरी हे । ई दुन्नु सुख एक दोसरा के पूरक हे । सेनुर एजउ भारी पड़ऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.31)
35    एत्तक (= इतना) (छोटगर गो झोपड़ी, जेकर एक कोन में अलमुनियाँ के थारी, लोटा, लटखुट बरतन । आधा भित्तर घेरि के पोआर बिछल हे । तनिक्के गो दुआरी । दुआरी में बोरा के चट वाला परदा । दुआरी एत्तक छोट कि अदमी भले ओकरा में मोसकिल से घुस पावे, मुदा ई पूस के कनकनाल सोरा में घोराल बेयार ? एकरा के रोके ? घुस जइतो दिनियाल खड़े-खड़े आउ लगतो जाके हाड़े में ।)    (सारथी॰10:16:4:2.26)
36    एहना-मेहना (~ मारना) (मगही में एगो मोहवरा हइ - एहना-मेहना मारना, जेकर माने हइ बिना नाम लेले कटु निन्दा करना । ई जादेतर दुसमन के साथ हो हइ । उहो मने-मने समझ के ओइसने जवाब दे हइ ।)    (सारथी॰10:16:33:1.4)
37    ओतने (= ओतनइ, ओतनइँ; उतना ही) (बउआ के ओसारा में खिड़की से आवइत रौदा में झाप-पोंत के सुता देलक हल । कटोरी में एक अधवा दूध भी मालकिन के कृपा से मिल गेल हल । जब रेके - दू चम्मच घुटूस ... ढीबरा फेन सुत जाय । ढीबरा जेतनय देरी नींद में, फुलिया के काम ओतने इसोराय ।)    (सारथी॰10:16:13:1.5)
38    ओदारना (= तह या सतह को अलग करना) (जानय केतना तुरी कौन-कौन साँप के कोर बनत, सीढ़ी नसीबो होत कि नञ । मन के भीतरी उत्साह ललकारे लगल ... वीर तुम बढ़े चलो ... । उ दुन्हूँ तरहत्थी से माथा सीसोह के सामने पसार देलक ... । कराग्रे वसति लक्ष्मी ... । मुदा सौंसे तरहथी कटल-छँटल चूल से लेटाल, लोहू से चट-चट । लग रहल हल कोय पखेरू के पाँख चाम समेत ओदार के आल हे ।)    (सारथी॰10:16:12:2.11)
39    ओबारना (भीतर से भर चुरू करुआ तेल लाके ढीबरा के माथा में चपोड़इत चलित्तर सिंह के कनिआय कहलन - नाया बुतरू के तेल नञ देवे से चूहा-पेंचा भर जाहे । चलित्तर सिंह भी एगो दसटकिया ढीबरा के माथा से ओबारके फुलिया के खोइँछा में रख देलन ।)    (सारथी॰10:16:12:3.40)
40    ओरियाना (हम चुप रहलूँ । कोय जवाब नञ् ओरियाल । हमर माथा में एतने बात घुरियाय लगल - सेनुर के हेरायत महातम के फेन से प्रतिष्ठित करइ के चाही ।)    (सारथी॰10:16:35:1.21)
41    ओस्ताद (= ओस्ताज, उस्ताद) (परमेश्वरी के भाषा में कौतुकपन आउ चुहलपन कूट-कूट के भरल हे । ऊ भाषा के खिलंदरापन के ओस्ताद हथिन । कहानी गढ़इ के सुख के भरपूर जीयऽ हथ ऊ । रस चाभ-चाभ के वर्णन करइ में उनकर साथी खोजला पर मोसकिल से मिलत ।)    (सारथी॰10:16:39:2.42)
42    कखनइँ (= कखनहीं) (माय तऽ कखनइँ ने नीन के गोदी में चलि गेल हल । करखुआ के नीन कहाँ ।)    (सारथी॰10:16:5:1.41)
43    कटल-खोटल (सेनुर से औषधि भी बनावल जाहे । कटल-खोटल रहे चाहे घाव-फुंसी, सच्चा सेनुर यदि द, घाव छूट जइतो । पित्ती उछलला पर घी संगे भखरा सेनुर लगावल जा हल ।)    (सारथी॰10:16:35:1.6)
44    कठगाड़ी (जिनगी के केतना उतार-चढ़ाव सुरजा बरदास कर लेलक फुलेसरी के दम पर, अपन लाछो के अँचरा पकड़िके । फुलेसरिये हल खाँटी ... कठगाड़ी के दुइयो पहिया नियन ... सुरजा आउ ओकर लाछो ।)    (सारथी॰10:16:4:3.31)
45    कतनउँ (= केतनो; कितना भी) (एकरा में लड़की कुइयाँ के सेनुर लगाके पूजऽ हे । अइसनका कुइयाँ बियाहल मानल जाहे । एकर जल पवित्तर होवऽ हे । एकर जल छठ, एतवार, पूजा-पाठ में लगऽ हे । मुदा जे कुइयाँ कुमार हे, ओकर जल कतनउँ मीठ होवे पूजा-पाठ में नञ् लग सकऽ हे । ओकरा अपवित्तर मानल जाहे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.24)
46    कत्तेक (~ बेर) (बहुते कोरसिस कइलक सुलोचनी कि गोबिन सुधर जाय । कत्तेक बेर तऽ डाकबबा पर परसाद चढ़इलक, देवीथान में चउका देलक, गोरइयाथान में बतासा गछलक, मुदा गोबिन के डगमगाल गोड़ थिर नञ् भेल । करमी के केबाड़ी गोबिन लेल खुलल के खुलले रहल ।)    (सारथी॰10:16:5:2.14)
47    कनउँ (दे॰ कनहीं, कनहूँ) (ढीबरा भी वहाँ हाजिर । ऊ एक-एक समान पर नजर गड़ैले । जानय कौन पाकिट में हमर जीन्स-पैंट हे । ऊ समान उठावे तब टो-टा के देखे भी । बढ़िअउँका जीन्स तो कूट वाला पाकिट में रहऽ हे मगर कनउँ बुझैवे नञ करे ।)    (सारथी॰10:16:14:2.12)
48    कनकनाल (छोटगर गो झोपड़ी, जेकर एक कोन में अलमुनियाँ के थारी, लोटा, लटखुट बरतन । आधा भित्तर घेरि के पोआर बिछल हे । तनिक्के गो दुआरी । दुआरी में बोरा के चट वाला परदा । दुआरी एत्तक छोट कि अदमी भले ओकरा में मोसकिल से घुस पावे, मुदा ई पूस के कनकनाल सोरा में घोराल बेयार ? एकरा के रोके ? घुस जइतो दिनियाल खड़े-खड़े आउ लगतो जाके हाड़े में ।)    (सारथी॰10:16:4:2.28)
49    कनमा-अधवा (घी पकवान पर से ढरकि के भुइयाँ में गीरऽ हे । बरबादे न हो जाहे । आझ हनोक कहियो एक्को तोला घी लयलऽ ? जजमान के देखाके नयँ त अँखियो बचाके लइतऽ हल । आझ कैसहूँ जजमान के आँखि बचाके कनमा-अधवा घी जरूर लेले अइहऽ । हमरो छिछनल जी तिरपित भे जात ।)    (सारथी॰10:16:18:3.25)
50    कबूरगाह (= कब्रगाह) (दिल्ली के घटना के बाद मथुरा आउ वृंदावन के वर्णन हे । यमुना के दुर्दशा के पहमाँ पर्यावरण पर संकट, शीतल पेय के प्रचलन के पहमाँ बाजारीकरण के प्रवृत्ति पर चोट करइत ई टिप्पणी देखइ लायक हे - "आदमी अप्पन कबूरगाह अपने बना रहल हे । ई रेशम के कीड़ा जइसन अंतिम में अपने बनायल जाल में फँसि के मर जा हइ ।")    (सारथी॰10:16:39:1.35)
51    कलकलाना (ईम साल अइसन लगन के जोर हे कि केकरो देह कलकलावइ के फुरसत नयँ हे । केकरो घर बेटा के, त केकरो घर बेटी के बियाह ।)    (सारथी॰10:16:18:1.10)
52    कलट्टर (कलट्टर साहब अइलथिन । एगो चेक आउ एगो इनरा अवास के औडर देलथिन । खूब समझइलथिन । सुलोचनी के समझ में कुच्छो नञ् आल ।)    (सारथी॰10:16:6:1.11)
53    कलाल (करमी के चाल-चलन से गाम के सब मेहरारू के तरवा के धूर कपार पर चढ़ जा हल, "ई सोगाही, सतभतरी, नञ् जानूँ कय गो के घर उजाड़तइ ।" चोर सुने सतनरायन कथा ! कहावत हे - बनियाँ, कलाल, बेसवा, ई तीनों खोजे पइसवा । से रस-रस गोबिन के घर के सब बरतन-बासन करमी के घर चलि गेल ।)    (सारथी॰10:16:5:2.7)
54    कहइँ (= कहीं) (गोबिन के सम्हारते-सम्हारते बिहरिया जनम गेल हल । सुलोचनी के सुक्खल छाती में दूध कहाँ ? सुक्खल चिलका खाली हलरइला से मानलक हे कहइँ ! अप्पन लचारी पर सुलोचनी के आँख से नोनगर पानी टपकि जा हल, जेकरा चाट-चाट के बिहरिया भी चुप भे जा हल । ढहइत हालत नासमझ अबोध के भी जल्दी लुरगर बना दे हे ।)    (सारथी॰10:16:5:2.31)
55    कहाकूप (रोज रात में कत्ते तारा पटापट टूटइत रहऽ हे आउ जोत-रेख बनके असमान के कहाकूप में समा जाहे । जे धरती पर एको मुट्ठी जगह नय बना पइलक ऊ सरग आउ परलोक में कते ठौर-ठेकान तलासलक होत ई दइवे जाने ।)    (सारथी॰10:16:24:2.44)
56    कानना-गरगराना (तखनिये कानय-गरगराय के धीमा अवाज आयल - बइठल गियारी के अवाज । बेचारी के समांगो नय हल जे रो-पटका सकऽ हल ।)    (सारथी॰10:16:23:2.43)
57    काल्ह (दे॰ कल्ह, कल्हे) (ओकर कान से मालकिन के तेज आवाज टकराल । दूध देवेवाली गोवारी से बतकुचन ... काल्ह दूध में बहुत पानी हलउ पटोरनी, निछंछ पानी जैसे आँख के लोर । अइसन दूध के कइसन पैसा !)    (सारथी॰10:16:13:1.11)
58    कीया (= सेनुरदानी, सिंधौरा) (सेनुर रखे वला बरतन के सेनुरदानी, कीया, सिंधौरा आदि कहल जाहे । ई अपन-अपन औकात पर निर्भर करऽ हे । ई सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, लाख, सीसा आदि के हो सकऽ हे मुदा बियाह के डाला पर काठ के सिंधौरा अपन अलगे महत रखऽ हे । ई सिंधौरा तीज में देवता नियन पुजा हे । एकरा ललका कपड़ा में लपेट के रखल जाहे ।)    (सारथी॰10:16:17:1.34)
59    कीर (= किरिया) (बेटा ~; भतार ~) (दूध देवेवाली गोवारी से बतकुचन ... काल्ह दूध में बहुत पानी हलउ पटोरनी, निछंछ पानी जैसे आँख के लोर । अइसन दूध के कइसन पैसा ! पटोरनी बेटा कीर, भतार कीर खाके कह रहल हल - आँख समांग किरिया मालकिन, हम एक बून भी पानी नञ मिलैलियो, हो सको हो पुतहिया तनी-मनी टेहरिया धोके ढार देलको होत ।)    (सारथी॰10:16:13:1.14)
60    कुच्छू ( = कुच्छो; कुछ भी) (हुजूम के हुजूम अदमी, औरत, मरद, बुतरू आ रहल, जा रहल, देह से देह छिला रहल । अदमियन के शोर, लउडिस्पिकर के अनोर । कुच्छू कहे ल एतना जोर देवऽ पड़इ कि गियारी झनझना जाय ।)    (सारथी॰10:16:22:2.11)
61    कुदार (= कुदाल) (जाड़ा में रूइये नञ् तो दुइये । दुन्नू के बीच में करखू जइसे हर में पच्ची ठोकल जाहे ... कुदार में बेंट कारू मिसतिरी ठोकि देहे ।)    (सारथी॰10:16:4:3.1)
62    कुश-पैंती (आगेल दिन मड़वा छवनी आउ घीढ़ारी के । हजाम परोहित जी के नेवता दे आल । साँझ के परोहित जी घीढ़ारी खातिर पोथी-पतरा आउ अरघा, कुश-पैंती सहेजो लगला ।)    (सारथी॰10:16:18:3.5)
63    कूतना (= अनुमान या अटकल लगाना) ('शालिस' इनकर मई 2006 में प्रकाशित उपन्यास हे । 'शालिस' सिरनामा सुनके अचक्के कुछ अनभुआर जइसन लगऽ हे, जेकर भान लेखक के भी हल । ऊ आवरण पृष्ठ 2 पर शुरुए में ओकर मतलब बता देलन हे । शालिस जमीन्दारी प्रथा के शब्द हलइ आउ ओकरे साथ ई शब्दो उपह गेल हल । भावली जमीन, जे अधबटैया होवऽ हल, के दाना कूतइ वला करिन्दा शालिस कहा हल ।)    (सारथी॰10:16:38:1.35)
64    कूल-खूट (तिलक-दहेज त तखने भी हइए हल, मुदा आज के जइसन असमान पर चढ़ल नयँ हल । तखने कूल-खूट देखि के बेटी के बाप अप्पन जोड़ी के परिवार में बेटी के बियाहऽ हल ।)    (सारथी॰10:16:18:2.16)
65    कैसहूँ (दे॰ कइसहूँ, कइसूँ) (घी पकवान पर से ढरकि के भुइयाँ में गीरऽ हे । बरबादे न हो जाहे । आझ हनोक कहियो एक्को तोला घी लयलऽ ? जजमान के देखाके नयँ त अँखियो बचाके लइतऽ हल । आझ कैसहूँ जजमान के आँखि बचाके कनमा-अधवा घी जरूर लेले अइहऽ । हमरो छिछनल जी तिरपित भे जात ।)    (सारथी॰10:16:18:3.24)
66    कोन (= कोना, corner) (छोटगर गो झोपड़ी, जेकर एक कोन में अलमुनियाँ के थारी, लोटा, लटखुट बरतन । आधा भित्तर घेरि के पोआर बिछल हे । तनिक्के गो दुआरी । दुआरी में बोरा के चट वाला परदा ।)    (सारथी॰10:16:4:2.22, 23)
67    कोरामीन (~ पड़ना) (मूड़ी गोतके धीरे से कहलक, "जी ! हम्मर ... ।" - "ओ हो ! तोर तो कपड़वे लेवे ले भुला गेलिअउ । अच्छा, कल्ह फेन हम बजार जइबउ । अभी आउ समान लावे ले बाकी हे । तोर कपड़ा भी कीन देबउ, लेकिन अइसन कर, कल्ह भोरे नउआ हीं जाके अपन बाल बढ़िया से कटा लिहँऽ । बरियात जइमहीं तब अइसने लमहर चूल में ? ले पाँच रुपइया, कल्ह बाल कटा लिहँऽ ।" ढीबरा के तो जैसे कोरामीन पड़ गेल । ऊ पाँच के सिक्का लेके उछलइत-कूदइत फेन बाहर ।)    (सारथी॰10:16:14:3.7)
68    खखरी (= खखड़ी) (बसमतिया आउ सिरहटिया के तनाव सहे ल आखिर तन-मन में कुछ तो जान चाही बाकि इहाँ तो तन खखरी आउ मन भुस्सा भेल हे जेकरा से पराने अदमदाल हे आउ देह में उखबिखी लगल हे ।)    (सारथी॰10:16:40:2.22)
69    खाना-खोराकी (फुलिया चलित्तर सिंह के डेउढ़ी में जाके मालिक से आरजू कइलक, "मालिक, अब ढीबरा सेयान होल जाहे । इ तोहरे डेउढ़ी में पोसाल । एकर पेट हमरा से कैसे चलत ? एकर खाना-खोराकी के सरेजाम हो जात हल, तब हम निफिकिर हो जयतूँ हल । बदले में डेउढ़ी के छोट-बड़ काम करते रहत ।")    (सारथी॰10:16:13:2.3)
70    खिलंदरापन (परमेश्वरी के भाषा में कौतुकपन आउ चुहलपन कूट-कूट के भरल हे । ऊ भाषा के खिलंदरापन के ओस्ताद हथिन । कहानी गढ़इ के सुख के भरपूर जीयऽ हथ ऊ । रस चाभ-चाभ के वर्णन करइ में उनकर साथी खोजला पर मोसकिल से मिलत ।)    (सारथी॰10:16:39:2.42)
71    खूम (= खूब) (टोला-टाटी में खूम बड़ाय भेल हल लछमीपुर वली के ... लछमिनियाँ के ... लाछो के । सुरजा के तऽ जइसे लौटरी इकस गेल हल । जखने सुरजा फुलेसरी के पियार से लाछो कहिके बोलावऽ हल, फुलेसरी लाज से दोहरा जा हल ।)    (सारथी॰10:16:4:3.16)
72    खेतरियाहा (ऊ सतजुग के जमाना में सब साथ रहके कमा हल आउ एके पंगत में बैठके खा हल । कोय लड़ाय-झगड़ा नयँ, अमीर-गरीब नयँ, आउ नयँ मजबूत नयँ दुब्बर । सतजुग बीतल, कुछ अदमी खेतरियाहा हो गेल । खेतारी छिपावइ ले झूठ के सहारा, बस भे गेल समाज में झगड़ा-झंझट शुरू ।)    (सारथी॰10:16:31:1.10)
73    खेतारी (ऊ सतजुग के जमाना में सब साथ रहके कमा हल आउ एके पंगत में बैठके खा हल । कोय लड़ाय-झगड़ा नयँ, अमीर-गरीब नयँ, आउ नयँ मजबूत नयँ दुब्बर । सतजुग बीतल, कुछ अदमी खेतरियाहा हो गेल । खेतारी छिपावइ ले झूठ के सहारा, बस भे गेल समाज में झगड़ा-झंझट शुरू ।)    (सारथी॰10:16:31:1.10)
74    खेलौना (= खिलौना) (खेलौना, सिंगार, मिठाय आउ दोसर-दोसर तरह के दोकान से अँटल पड़ल समूचे जगह । हुजूम के हुजूम अदमी, औरत, मरद, बुतरू आ रहल, जा रहल, देह से देह छिला रहल । अदमियन के शोर, लउडिस्पिकर के अनोर । कुच्छू कहे ल एतना जोर देवऽ पड़इ कि गियारी झनझना जाय ।)    (सारथी॰10:16:22:2.6)
75    खोइँछा (भीतर से भर चुरू करुआ तेल लाके ढीबरा के माथा में चपोड़इत चलित्तर सिंह के कनिआय कहलन - नाया बुतरू के तेल नञ देवे से चूहा-पेंचा भर जाहे । चलित्तर सिंह भी एगो दसटकिया ढीबरा के माथा से ओबारके फुलिया के खोइँछा में रख देलन ।)    (सारथी॰10:16:12:3.40)
76    खोरिस-पोरिस (तोर समांग नञ चलउ, तब कोय बात नञ । ढीबरा के हम दू सो रुपइया के महिना देबउ । एकरा से तोरो खोरिस-पोरिस चल जइतउ ।)    (सारथी॰10:16:13:2.16)
77    गइँठ-बन्हन (= गेंठ-बंधन) (लगन के अइसन जोर भेल कि ढोल, सिंघा, पचबजना, जोरघाय खोजला पर भी नयँ मिले । हजाम के जजमान के काम आउ नेवता देवइ से फुरसत नयँ । परोहित जी के त बीसो अंगुरी घी में । केकरो घर घीढ़ारी, केकरो घर बियाह, केकरो घर जनउवा । परोहित जी काँखि तर पोथी दाबले रात-दिन जजमान के काम में मसगूल । मोट दछिना आउ जजमान के घर घी में छानल पूआ-पूड़ी के भोग, ऊपर से गइँठ-बन्हन । परोहित जी के गोड़ में त पाँखि लगल रहे ।)    (सारथी॰10:16:18:2.5)
78    गउँछी (रोपा खतम होला पर अंतिम दिन रोपनी सभे मोरी के चोटी बान्हले, गउँछी लेले गिरहथ के घर आवऽ हथ । ई गउँछी लछमी मानल जा हे । ई मालकिन के अँचरा में देवल जा हे । सब रोपनी बारी-बारी से मालकिन के सेनुर करि के आशीर्वाद दे हे । अंत में गउँछी रखके मालकिन भी सब रोपनी के तेल-सेनुर दे हथ ।)    (सारथी॰10:16:17:1.28, 29, 31)
79    गजीब (= गजब) (करखुआ काने वला बुतरू न हल । काने के आवाज जादेतर ऊँचगर-ऊँचगर घर से निकलऽ हे । झोपड़ी के बुतरू तऽ भरल भादो सुक्खल जेठ लड़तइ रहऽ हे, कखनउ प्रकृति से । बरदास करे के गजीब छमता फलऽ-फला हे झोपड़ी के छप्पर पर ।)    (सारथी॰10:16:5:1.13)
80    गझिन (= घना, गाढ़ा, कसी हुई बुनावट का (कपड़ा, चारपाई आदि)) (गद्य के विविध विधा के प्रमुखता से जगह देवइत सारथी अपन सदुद्योग से कहानी के केन्द्र में ला देलन । गझिन होवइत समय के झंझावात में घिरल इन्सान के ताना-बाना से बुनल जटिल जीवन के विश्लेषित करइत कहानी आज मगही साहित्य के केन्द्र में पहुँच गेल हे ।)    (सारथी॰10:16:2:1.14)
81    गदराना (एक हाथ के घोघा, घोघा में फुलेसरी के बिहउती मुँह । आगू-आगू सुरजा, जेकर गमछा के छोर से बन्हल आँचर ! जुआनी में तऽ गदहियो गदरा जाहे ! फुलेसरी तऽ फुलेसरिये हे !)    (सारथी॰10:16:4:3.15)
82    गरगराल (~ उठना) (सीन बदलल करखू के पक्का घर ... कोठा पर बइठल माय चाउर चुन रहल हे ... अरे ! ई घी ? ओकर माय के साड़ी उज्जर ! हाथ में चूड़ी नञ् हे । मांग के सेनुर ... ? अचानके करखू गरगराल उठ गेल ... लिलार पर पसेना चुहचुहाल ।)    (सारथी॰10:16:6:3.1)
83    गहड़ा (= गड्ढा) (कलह-अशांति, लूट-खसोट, मार-काट सब बढ़ गेल । एकर कारण हे समाज के बीच में फैलल-गहराल गहड़ा, जेकर बजबजाल गंदगी में मानवता के लहुलुहान करइ वला मच्छी-मच्छर वास करऽ हे ।; कभी-कभी गहड़वो उपछाय के उपाय होवऽ हे बकि फेर ऊ गहड़ा कादो-पानी से बजबजा उठऽ हे, मच्छी-मच्छर फेर जलमो लगऽ हे ।; सब दिन के भलाइ ले सबके मिल-जुल के ऊ गहड़ा के भरनइ से उपाय हे ।)    (सारथी॰10:16:31:1.27, 30, 31, 33)
84    गुरु-परोहित (इहे बीच में समाज के बरोबरी पर लावइ ले आउ शांति कायम करइ ले कत्ते सन धरम बनल, सुधार वला शिक्षा आयल, गुरु-परोहित, साधु-संत, फकीर, मुल्ला-मौलवी, पंडित-पोप अइलन । सब इमनदारी से मेहनत कइलन बकि अमीरी-गरीबी के बीच के खाई बढ़ल गेल।)    (सारथी॰10:16:31:1.22)
85    गेन्तर (सवा महीना के ढीबरा के गेन्तर में लपेटले करेजा से साटले फुलिया चलित्तर सिंह के डेउढ़ी पर हाजिर । नाया बुतरू के देखताहर नौकर-चाकर आउ खुदे चलित्तर सिंह के कनिआय ।)    (सारथी॰10:16:12:3.32)
86    गोट्टे (= समुच्चे; समूचा) (फुलिया अभी परसौती हे आउ मड़ुकी सौरी, जहाँ बिहने ढीबरा के ढोढ़ी टुटके गिरल हे । पनरह दिन के ढीबरा के छाती से लगैले फुलिया दिन गिन रहल हल ... । मंगल मंगल आठ, घुर मंगल पनरह, बिसतौरी पुरे में अभी पाँच दिन बाकी । नोमा महिना गोट्टे, कम-से-कम अठवारा रोज नहिंए जाय में बनत ।)    (सारथी॰10:16:12:2.29)
87    गोतिया-भाय (तिरलोकी बाबू के बेटी के बिआह के लगन तय भे गेल । पुरोहित, हजाम आउ पौनियाँ के काम बढ़ गेल । नौकर-चाकर गाम के गोतिया-भाय सेहो जुटि गेल । नेवताहरी भी आगेला हल । आगेल दिन मड़वा छवनी आउ घीढ़ारी के । हजाम परोहित जी के नेवता दे आल । साँझ के परोहित जी घीढ़ारी खातिर पोथी-पतरा आउ अरघा, कुश-पैंती सहेजो लगला ।)    (सारथी॰10:16:18:3.1)
88    गोद-भराय (बुतरू जब गरभ में आवऽ हे, तऽ गोद-भराय के नेग होवऽ हे । नइहरा से सेनुर, लहठी, साड़ी, फल, मिठाय लेके भाय आवऽ हे । ओकरा पेन्हके गरभवती चउका पर बइठऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.26)
89    गोबिन (= गोविन्द) (बिहरिया के बाप गोबिन आउ माय सुलोचनी । बेचारी सुलोचनी - ने कहियो भर पेट खाना, ने देह में बसतर । बियाह के पहिलइँ गोबिन के आदत बिगड़ि गेल हल - ताड़ी, दारू आउ जूआ । करमी पासिन के घर में अड्डा बनल हल ।)    (सारथी॰10:16:5:1.43, 2.1)
90    गोरइया (दारू के पइसा कन्ने से आवत, ई सुलोचनी जाने । उधार-पइँचा जोहते-जोहते देह भरल जुआनी में निचुड़ा गेल । मार खा-खाके जब ओकर देह बेसुध हो जा हल, तऽ अचानके ओकर मुँह से निकल जा हल - "हे गोरइया, एकरा से भल हम राँड़े रहतूँ हल ।")    (सारथी॰10:16:5:2.23)
91    गोरइयाथान (बहुते कोरसिस कइलक सुलोचनी कि गोबिन सुधर जाय । कत्तेक बेर तऽ डाकबबा पर परसाद चढ़इलक, देवीथान में चउका देलक, गोरइयाथान में बतासा गछलक, मुदा गोबिन के डगमगाल गोड़ थिर नञ् भेल । करमी के केबाड़ी गोबिन लेल खुलल के खुलले रहल ।)    (सारथी॰10:16:5:2.16)
92    गौंत-पानी (ई गरमी में ससुरा नीनो त नयँ आवऽ हइ । सोचली, तोहरे भिरी बैठ के कुछ गपशप कयल जात । दिन टघरला पर धूर के गौंत-पानी देम ।)    (सारथी॰10:16:18:1.9)
93    घरहेली (= गृह-प्रवेश) (ई तरह से देखल जाय तऽ संस्कार में एकर चलन हे । बियाह, कोहबर, सोहर, छठियारी, मुड़ना, जेनउआ, घरहेली, दावा नियन कोय भी आयोजन होवे, गीतहारनी सब जुटऽ हथ तऽ पहिल नेग में तेल-सेनुर बँटऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.16)
94    घीढ़ारी (= घेढ़ारी; घृतढारी) (लगन के अइसन जोर भेल कि ढोल, सिंघा, पचबजना, जोरघाय खोजला पर भी नयँ मिले । हजाम के जजमान के काम आउ नेवता देवइ से फुरसत नयँ । परोहित जी के त बीसो अंगुरी घी में । केकरो घर घीढ़ारी, केकरो घर बियाह, केकरो घर जनउवा । परोहित जी काँखि तर पोथी दाबले रात-दिन जजमान के काम में मसगूल ।; नेवताहरी भी आगेला हल । आगेल दिन मड़वा छवनी आउ घीढ़ारी के । हजाम परोहित जी के नेवता दे आल । साँझ के परोहित जी घीढ़ारी खातिर पोथी-पतरा आउ अरघा, कुश-पैंती सहेजो लगला ।)    (सारथी॰10:16:18:2.1, 3.3, 4)
95    घुघटाही (~ साड़ी) (सब समान डेउढ़ी के अंगना में रखा गेल । नेउता-नेउतहारिन एक-एक करके समान देखे लगल - ई साड़ी बेटिऔरी, ई घुघटाही, ई पटपराय आउ ई बीस हजरिया बनारसी बिहउती साड़ी ।)    (सारथी॰10:16:14:2.15)
96    घुटूस (ओन्ने रेकइत ढीबरा के मुँह में फेफरी । चम्मच से दूधवला पानी ढीबरा के मुँह में घुटूस । रस-रस ओकर लादा चिकना गेल ।; बउआ के ओसारा में खिड़की से आवइत रौदा में झाप-पोंत के सुता देलक हल । कटोरी में एक अधवा दूध भी मालकिन के कृपा से मिल गेल हल । जब रेके - दू चम्मच घुटूस ... ढीबरा फेन सुत जाय ।)    (सारथी॰10:16:12:3.19, 13:1.4)
97    घुमानी (मेला पूरा उफान पर हे । अपने-अपने में सब मगन । एक जगह जरी जिराय ल बइठलूँ त मीना बजार के घुमइत कड़क हिंडोला के डोली में ओकर झलक देखाय पड़ल । जब हिंडोला थिर होवऽ लगल तब साफ जनाइल पतरकी घुमानी से डेराइल ओकर देह से लिपटल हे ।; खूब रफ्तार पकड़इ हिंडोला त हम्मे खुद के पइअइ ओकरा पर आउ थिर होवे लगइ त पतरकी लउके लगइ । घुमानी लग गेल । औरत-मरद, दोकान-मकान, गाछ-बिरिछ, चीख-पुकार, सउँसे मेला, समूचे असमान, जनाइत धरती, लउकइत क्षितिज घूम रहल हे दनादन । भारी होके माथा लटके लगल, टगे लगल देह । अकबकाल रेनू कसके कान तर चिल्लाल - "की होलउ, तबीयत खराब लगऽ हउ की ?" - "नयँ, मन तउ ठीके हइ, देखहीं ने, तनी घुमानी नियन लगे लगलइ ।")    (सारथी॰10:16:22:2.19, 3.5, 14)
98    घुर (मंगल मंगल आठ, ~ मंगल पनरह) (फुलिया अभी परसौती हे आउ मड़ुकी सौरी, जहाँ बिहने ढीबरा के ढोढ़ी टुटके गिरल हे । पनरह दिन के ढीबरा के छाती से लगैले फुलिया दिन गिन रहल हल ... । मंगल मंगल आठ, घुर मंगल पनरह, बिसतौरी पुरे में अभी पाँच दिन बाकी ।)    (सारथी॰10:16:12:2.28)
99    घेरलका (= घेरा हुआ) (ओकरो जादेतर छतवे पर बइठल देखऽ हलिअइ, कखनो-कखनो तो फिसिर-फिसिर बुनियों में । अपन औरत से खूबे परेम करऽ हलइ, कभी-कभी एने-ओने ताकके ओकरा चूम ले हलइ । एक बार तो चूमइत देखलिअइ आउ हमहीं लजाके हट गेलिअइ । कल घेरलका जगहिया में ऊ देवाल पकड़के खड़ा हल ।)    (सारथी॰10:16:24:1.30)
100    घोटाना (ऊ पाकिट से पाँच के सिक्का निकाल के नउआ के तरहत्थी पर रख देलक । नउआ के तो तरवा के धूर कपार - "अरे ! हमरा कि जजमानी नउआ समझ लेलँऽ हें ! शारूख कट के इहाँ दस रुपइया लगऽ हे । पाँच रुपइया में तो माथा घोटा हे, एकदम सफाचट ... ।" ढीबरा हड़बड़ा गेल ।)    (सारथी॰10:16:15:1.2)
101    घोराल (छोटगर गो झोपड़ी, जेकर एक कोन में अलमुनियाँ के थारी, लोटा, लटखुट बरतन । आधा भित्तर घेरि के पोआर बिछल हे । तनिक्के गो दुआरी । दुआरी में बोरा के चट वाला परदा । दुआरी एत्तक छोट कि अदमी भले ओकरा में मोसकिल से घुस पावे, मुदा ई पूस के कनकनाल सोरा में घोराल बेयार ? एकरा के रोके ? घुस जइतो दिनियाल खड़े-खड़े आउ लगतो जाके हाड़े में ।)    (सारथी॰10:16:4:2.28)
102    चउका-बासन (सगर दिन के खेत-पथार के काम-काज से थक्कल-मांदल फुलेसरी के पिपनी पर लगऽ हे कि केतना भारी बोझा रखल हे । कउआ डके से पहिलइँ फुलेसरी रोजे उठ जाहे, हाथ में बढ़नी आउ चउका-बासन करिके सुरजू के खिला-पिला के चलि देहे खेत-खंधा ।)    (सारथी॰10:16:4:2.7)
103    चकरघिरनी (सुन्ना के गोल घेरा पर ऊ सपना चकरघिरनी बनल हे आउ ठिंगोरा (? इंगोरा) बनके गाल पर दहक रहल हे ।)    (सारथी॰10:16:24:3.26)
104    चट (= सन, पटुआ आदि का चटकल में बुना कपड़ा; टाट आदि कि बैठने की आसनी) (छोटगर गो झोपड़ी, जेकर एक कोन में अलमुनियाँ के थारी, लोटा, लटखुट बरतन । आधा भित्तर घेरि के पोआर बिछल हे । तनिक्के गो दुआरी । दुआरी में बोरा के चट वाला परदा ।)    (सारथी॰10:16:4:2.26)
105    चभच्चा (ऊ नाचइत-कूदइत फूल पटावे वला बाल्टी उठाके चभच्चा दने बढ़ गेल । ओकर नजर चभच्चा के ठहरल पानी पर आउ पानी में लउकइत ढीबरा ! ओहे उजरका डिड़ार वला टी-शर्ट अउ चुस्त जीन्स पेन्हले ।)    (सारथी॰10:16:13:3.36, 37)
106    चमाचम (ईहे झोपड़ी के दुहारी पर फुलेसरी सवारी पर से उतरल हल - गोड़ में टुह-टुह आलता के रंग से टेढ़-मेढ़ रेखागणित, चानी के झुनकी लगल झांझर चमाचम, जे डेग बढ़ावऽ हल तऽ छमाछम !)    (सारथी॰10:16:4:3.6)
107    चम्मुक (खैर, जीतन भैया तो साथे हथ, उनखरे नाप से तो हमरो कपड़ा किना जात । ऊ देहरी पर बैठके इन्तजार करे लगल ... एक पहर ... दू पहर ... तीन पहर ... साँझ हो गेल । ससुरा ई बजार हे कि चम्मुक, जे जाय ओकरे साट ले । संझौकी के गाड़ी दुआरी लगल । डिक्की समान से ठसकल ।)    (सारथी॰10:16:14:2.3)
108    चर्र-चर्र (एतना सुनते ढीबरा भागे लगल मगर चारो अदमी दौड़के चोर-चोर करते पकड़ लेलक आउ फेन से ऊहे कुरसी पर बैठा देलक । ढीबरा छटपटाय ... मगर चर-चर अदमी धइले । ... भोथर अस्तुरा ... चर्र-चर्र .. । मूड़ी हिलावे तब अस्तुरा के धार चाम में घुसके लोहू पीए लगे । हार पार के ढीबरा शांत ।)    (सारथी॰10:16:15:1.20)
109    चानी (= चाँदी) (ईहे झोपड़ी के दुहारी पर फुलेसरी सवारी पर से उतरल हल - गोड़ में टुह-टुह आलता के रंग से टेढ़-मेढ़ रेखागणित, चानी के झुनकी लगल झांझर चमाचम, जे डेग बढ़ावऽ हल तऽ छमाछम !)    (सारथी॰10:16:4:3.5)
110    चानी (= चाँदी) (दलालन के चानिए चानी हे चाहे ऊ मंदिर के महंथ रहथि या आश्रम के मनीजर ।)    (सारथी॰10:16:39:2.2)
111    चिन्नी (= चीनी) (जिनगी के केतना उतार-चढ़ाव सुरजा बरदास कर लेलक फुलेसरी के दम पर, अपन लाछो के अँचरा पकड़िके । फुलेसरिये हल खाँटी ... कठगाड़ी के दुइयो पहिया नियन ... सुरजा आउ ओकर लाछो । जहिया से करखुआ जनमल हे, दुन्हूँ के पियार आउ बढ़ि गेल हे ... दूध-भात में चिन्नी नियन ।)    (सारथी॰10:16:4:3.34)
112    चिलकउरी (= लरकोरी, जिसकी गोद में दूध पीता बच्चा हो, सद्यःप्रसूत; दे॰ चिलकोरी) (बुतरू जनमला के बाद बिसतउरी पूरे दिन भी बुतरू गोदी में लेके चिलकउरी कुइयाँ, नदी पूजऽ हे । एकर माने हे कि जल देवता सेनुर से परसन्न होवऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.33)
113    चिलका (= बुतरू, बच्चा) (गोबिन के सम्हारते-सम्हारते बिहरिया जनम गेल हल । सुलोचनी के सुक्खल छाती में दूध कहाँ ? सुक्खल चिलका खाली हलरइला से मानलक हे कहइँ ! अप्पन लचारी पर सुलोचनी के आँख से नोनगर पानी टपकि जा हल, जेकरा चाट-चाट के बिहरिया भी चुप भे जा हल । ढहइत हालत नासमझ अबोध के भी जल्दी लुरगर बना दे हे ।)    (सारथी॰10:16:5:2.30)
114    चीपड़-चोइयाँ (आझ ढीबरा बारह बरीस के हो गेल । चीपड़-चोइयाँ नियन देह मगर बिरनी नियर फुर्र-फुर्र ! चलित्तर सिंह के डेउढ़ी के छाड़न-छोड़न आउ जुट्ठा-कुट्ठा से पोसाल हल ऊ, मगर होश आवे के बाद नाक-नुकुर शुरू ।)    (सारथी॰10:16:13:1.35)
115    चुकड़ी (मड़वा छौनी के बाद कलसा थापल गेल । वंसरोपन भेल आउ शुरू भे गेल घीढ़ारी के विधान । दीया, ढकनी, कपटी, चुकड़ी, कुम्हारिन पहुँचा गेल हल ।)    (सारथी॰10:16:18:3.34)
116    चूरन (= चूर्ण) ('मगही-हिन्दी शब्दकोष' में श्री भुवनेश्वर प्रसाद सिंह एकर अरथ बतइलका हे कि इंगुर पीसल लाल चूरन सेनुर कहा हे, मुदा 'भार्गव आदर्श हिन्दी शब्दकोष' में कहल गेल हे कि सीसा नाम के धातु से बनल लाल चूरन हे, जेकरा अउरत मांग में लगावऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:1.7, 9)
117    चूरना-चारना (ई कथन बिहार के आतंकवादी हत्या पर समर्थन के मुहर रहल हे - नागरिक समूह द्वारा कानून के अपन हाथ में लेके सजा देवे के । चोर-डकैत बलात्कारी के समूह चूर-चार के जान मार रहल हे । कानून आउ वेवस्था से विश्वास उठ जाय पर अइसने घटना घटऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:39:2.27)
118    चूल (तोर कपड़ा भी कीन देबउ, लेकिन अइसन कर, कल्ह भोरे नउआ हीं जाके अपन बाल बढ़िया से कटा लिहँऽ । बरियात जइमहीं तब अइसने लमहर चूल में ? ले पाँच रुपइया, कल्ह बाल कटा लिहँऽ ।)    (सारथी॰10:16:14:3.6)
119    चूहा-पेंचा (सवा महीना के ढीबरा के गेन्तर में लपेटले करेजा से साटले फुलिया चलित्तर सिंह के डेउढ़ी पर हाजिर । नाया बुतरू के देखताहर नौकर-चाकर आउ खुदे चलित्तर सिंह के कनिआय । भीतर से भर चुरू करुआ तेल लाके ढीबरा के माथा में चपोड़इत चलित्तर सिंह के कनिआय कहलन - नाया बुतरू के तेल नञ देवे से चूहा-पेंचा भर जाहे ।)    (सारथी॰10:16:12:3.38)
120    चेपाड़ा (= चपड़ा, फावड़ा) (जखने-जखने देह थकान से अलसाय लगऽ हे, फुलेसरी के पसेना से भींजल देह के महक से सुरजू के मन हरिया मुसकी देके ताकि ले हे, फेन की कहना ! सुरजा में एगो अजबे फुरती आ जा हल आउ तरोताजा होके चेपाड़ा भांजऽ लगऽ हल ।)    (सारथी॰10:16:4:2.15)
121    छठियारी (चुऽ ... चुऽ ... चुऽ ... बाबू हमर गे ... पेट नञ भरलो ! पेट भरतइ कि खाक ! सोंठ के हलुआ ममोसरो नञ ... ! मसुरी के दाल पर अनेसा, सेहो छठियारिए तक डभकल । ड्योढ़ी के जुठा-कुठा तो ड्योढ़ी पर जाय के बादे ममोसर होत ।)    (सारथी॰10:16:12:3.5)
122    छमाछम (ईहे झोपड़ी के दुहारी पर फुलेसरी सवारी पर से उतरल हल - गोड़ में टुह-टुह आलता के रंग से टेढ़-मेढ़ रेखागणित, चानी के झुनकी लगल झांझर चमाचम, जे डेग बढ़ावऽ हल तऽ छमाछम !)    (सारथी॰10:16:4:3.6)
123    छरना (= छलना, ठगना, भ्रमित करना) (ऊ ओसरा में सुतल ढीबरा के चेहरा देखे लगल । बउआ हँस रहल हल । फेन तुरते काने लगल । फेन तुरते चुप ! सायत सपना रहल हे ... भगवान छर रहलथिन हे । तोर मइया मर गेलउ, तब काने लगे । तोर बाप मर गेलउ, तब हँसे लगल ।)    (सारथी॰10:16:13:1.27)
124    छाड़न-छोड़न (आझ ढीबरा बारह बरीस के हो गेल । चीपड़-चोइयाँ नियन देह मगर बिरनी नियर फुर्र-फुर्र ! चलित्तर सिंह के डेउढ़ी के छाड़न-छोड़न आउ जुट्ठा-कुट्ठा से पोसाल हल ऊ, मगर होश आवे के बाद नाक-नुकुर शुरू ।)    (सारथी॰10:16:13:1.37)
125    छिछनल (घी पकवान पर से ढरकि के भुइयाँ में गीरऽ हे । बरबादे न हो जाहे । आझ हनोक कहियो एक्को तोला घी लयलऽ ? जजमान के देखाके नयँ त अँखियो बचाके लइतऽ हल । आझ कैसहूँ जजमान के आँखि बचाके कनमा-अधवा घी जरूर लेले अइहऽ । हमरो छिछनल जी तिरपित भे जात ।)    (सारथी॰10:16:18:3.26)
126    छिछनाना (तूँ तो जजमान घरे हलुआ-पूरी चाभिये लेहऽ । हम्मर जिनगी त घी-दूध ले छिछनइते रहि गेल । तिरलोकी बाबू के घरे त घी के कमी हे नयँ । गाय-भैंस से हुनखर गोहाल भरल हे ।)    (सारथी॰10:16:18:3.21)
127    छिटही (ईहे झोपड़ी के दुहारी पर फुलेसरी सवारी पर से उतरल हल - गोड़ में टुह-टुह आलता के रंग से टेढ़-मेढ़ रेखागणित, चानी के झुनकी लगल झांझर चमाचम, जे डेग बढ़ावऽ हल तऽ छमाछम ! रंग-बिरंग के चूड़ी, बड़बड़ फूल वला छिटही साड़ी ... लाल, पीयर, हरियर ... डाँड़ा में एक दने रूमाल खोंसल आउ दोसर दने रुनझुन-रुनझुन कुंजी के गुच्छा ।)    (सारथी॰10:16:4:3.8)
128    छिलाना (हुजूम के हुजूम अदमी, औरत, मरद, बुतरू आ रहल, जा रहल, देह से देह छिला रहल । अदमियन के शोर, लउडिस्पिकर के अनोर । कुच्छू कहे ल एतना जोर देवऽ पड़इ कि गियारी झनझना जाय ।)    (सारथी॰10:16:22:2.10)
129    छौनी (मड़वा ~) (मड़वा छौनी के बाद कलसा थापल गेल । वंसरोपन भेल आउ शुरू भे गेल घीढ़ारी के विधान । दीया, ढकनी, कपटी, चुकड़ी, कुम्हारिन पहुँचा गेल हल ।)    (सारथी॰10:16:18:3.31)
130    जइसइँ (दे॰ जइसहीं, जइसीं) ( ओकर नजर चभच्चा के ठहरल पानी पर आउ पानी में लउकइत ढीबरा ! ओहे उजरका डिड़ार वला टी-शर्ट अउ चुस्त जीन्स पेन्हले । ऊ पानी में जइसइँ बाल्टी डुबइलक ... चुभ् ... ठहरल पानी थलथलाय लगल ... अंदर के ढीबरा भी हिले लगल ... टी-शर्ट सब अलोप ।)    (सारथी॰10:16:13:3.40)
131    जजमानी (ऊ पाकिट से पाँच के सिक्का निकाल के नउआ के तरहत्थी पर रख देलक । नउआ के तो तरवा के धूर कपार - "अरे ! हमरा कि जजमानी नउआ समझ लेलँऽ हें ! शारूख कट के इहाँ दस रुपइया लगऽ हे । पाँच रुपइया में तो माथा घोटा हे, एकदम सफाचट ... ।" ढीबरा हड़बड़ा गेल ।)    (सारथी॰10:16:14:3.42)
132    जवनका-जवनकी (= जमनका-जमनकी) (ई विधान कउनो हँसी-मजाक न हे, आस्था के सवाल हे, जे जुगन से चलल आ रहल हे । एकरा में बड़गो रहस छुपल हे । प्रेमी-प्रेमिका के मिलन, संयोग के पहिले बियाह रूपी सामाजिक आदेश लेना जरूरी हे । ई सेनुर प्रमाण-पत्र हे समाज के स्वीकृति के । एकर गूढ़ रहस नयका पीढ़ी के जवनका-जवनकी न बूझऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:17:1.7)
133    जादेतर (= ज्यादातर) (गरमी के कारन छतवे पर सबके बइठल रहे पड़ो हल । ओकरो जादेतर छतवे पर बइठल देखऽ हलिअइ, कखनो-कखनो तो फिसिर-फिसिर बुनियों में । अपन औरत से खूबे परेम करऽ हलइ, कभी-कभी एने-ओने ताकके ओकरा चूम ले हलइ ।)    (सारथी॰10:16:24:1.24)
134    जुट्ठा-कुट्ठा (आझ ढीबरा बारह बरीस के हो गेल । चीपड़-चोइयाँ नियन देह मगर बिरनी नियर फुर्र-फुर्र ! चलित्तर सिंह के डेउढ़ी के छाड़न-छोड़न आउ जुट्ठा-कुट्ठा से पोसाल हल ऊ, मगर होश आवे के बाद नाक-नुकुर शुरू । ढीबरा के पेट अब फुलिया लेल भारी हो गेल । डेउढ़ी के काम ले ओकर समांग भी नञ चले । अप्पन पेट तो जुट्ठो-कुट्ठो से चल जाहे मगर ढीबरा ... !)    (सारथी॰10:16:13:1.37, 41)
135    जेतनय (दे॰ जेतनइ) (बउआ के ओसारा में खिड़की से आवइत रौदा में झाप-पोंत के सुता देलक हल । कटोरी में एक अधवा दूध भी मालकिन के कृपा से मिल गेल हल । जब रेके - दू चम्मच घुटूस ... ढीबरा फेन सुत जाय । ढीबरा जेतनय देरी नींद में, फुलिया के काम ओतने इसोराय ।)    (सारथी॰10:16:13:1.5)
136    जोड़ल-नारल (~ हिसाब) (मंगल मंगल आठ, घुर मंगल पनरह, बिसतौरी पुरे में अभी पाँच दिन बाकी । नोमा महिना गोट्टे, कम-से-कम अठवारा रोज नहिंए जाय में बनत । माने कि ... उऽ ... आऽ उँ ... उऽ ... आँ ... । ढीबरा माय के छाती में थोथुन मार-मार के थक गेल तब रेके लगल । फुलिया के जोड़ल-नारल हिसाब गड़बड़ा गेल ।)    (सारथी॰10:16:12:3.1)
137    जोड़िदम्मा (सभे जोड़िदम्मा सुरजा से खूब रस ले हलन । सुरजा हल भीतर से सोझ । जखने कोय ओकर माउग लगाके मजाक करे, सुरजा के मुँह से बकार नञ् निकले, मुदा आँख सब कुछ बता दे ।)    (सारथी॰10:16:4:3.24)
138    जोरघाय (लगन के अइसन जोर भेल कि ढोल, सिंघा, पचबजना, जोरघाय खोजला पर भी नयँ मिले । हजाम के जजमान के काम आउ नेवता देवइ से फुरसत नयँ । परोहित जी के त बीसो अंगुरी घी में । केकरो घर घीढ़ारी, केकरो घर बियाह, केकरो घर जनउवा । परोहित जी काँखि तर पोथी दाबले रात-दिन जजमान के काम में मसगूल ।)    (सारथी॰10:16:18:1.28)
139    झनर-झनर (खट् ... खट् ... खट् ... खट्, झनर ... झनर ! फट से नीन टूट गेल । लगल एकबइके असमान से कोय धकेल देलक । कोय जोर-जोर से केबाड़ी पीट रहल हल ।)    (सारथी॰10:16:23:1.21)
140    झाँट (ढीबरा हड़बड़ा गेल मगर सम्हरइत बोललक - "ठहरऽ ठाकुर जी, बाकी के पाँच रुपइया हम मलिकवा से मांगले आवऽ हियो ।" एतना कहके ऊ बाहर निकले लगल कि ओजा बैठल दू-चार अदमी में से एगो कहकलक - "अहो ठाकुर, ई छउँड़ा तो चार सो बीस लगऽ हउ । पैसवा झाँट नञ देतउ । एकरा हीं जेतना पैसवा हउ ओतना कामा कर देहीं ... ।")    (सारथी॰10:16:15:1.9)
141    झांझर (ईहे झोपड़ी के दुहारी पर फुलेसरी सवारी पर से उतरल हल - गोड़ में टुह-टुह आलता के रंग से टेढ़-मेढ़ रेखागणित, चानी के झुनकी लगल झांझर चमाचम, जे डेग बढ़ावऽ हल तऽ छमाछम !)    (सारथी॰10:16:4:3.6)
142    झाड़ू-पोछा (चलित्तर सिंह भी एगो दसटकिया ढीबरा के माथा से ओबारके फुलिया के खोइँछा में रख देलन । फुलिया गद्गद् । मालिक-मलकीनी के नेह महीनवारी से भी जादे खुशी दे हे । उत्साह से भरल फुलिया जुट गेल झाड़ू-पोछा में ।)    (सारथी॰10:16:12:3.43)
143    झापना-पोंतना (बउआ के ओसारा में खिड़की से आवइत रौदा में झाप-पोंत के सुता देलक हल । कटोरी में एक अधवा दूध भी मालकिन के कृपा से मिल गेल हल । जब रेके - दू चम्मच घुटूस ... ढीबरा फेन सुत जाय । ढीबरा जेतनय देरी नींद में, फुलिया के काम ओतने इसोराय ।)    (सारथी॰10:16:13:1.2)
144    झुनकी (ईहे झोपड़ी के दुहारी पर फुलेसरी सवारी पर से उतरल हल - गोड़ में टुह-टुह आलता के रंग से टेढ़-मेढ़ रेखागणित, चानी के झुनकी लगल झांझर चमाचम, जे डेग बढ़ावऽ हल तऽ छमाछम !)    (सारथी॰10:16:4:3.5)
145    टिटहीं (= टिटहरा, टिट्टिभ) (भूलइ के अनथक कोरसिस करऽ ही बकि टेस अवाज में टहकइत टिटहीं बनके ऊ याद में पैबस्त हो जाहे - झनझना जाहे मानस । थू-थू ... थुकथुकावऽ ही ... असगुन बुझा हे ... बकि बार-बार गोल घेरा काटइत ऊ घुमइत ही रहऽ हे - टिटहीं टी ... टिटहीं टीं ।)    (सारथी॰10:16:25:1.26, 30)
146    टेहुनियाँ (~ देले) (चलित्तर सिंह के बैठका में फुलिया पोंछा मार रहल हल टेहुनियाँ देले आजु-बाजु से लफ-लफ के तिनका-तिनका समेटले । ओकर कान से मालकिन के तेज आवाज टकराल ।)    (सारथी॰10:16:13:1.8)
147    ठपाक् (किताब के स्वरूप खूब भव्य हे । सेंगरन में कुछ कविता के स्वर जरी स्थूल भी होल हे । जहाँ भी कुछ कहल गेल हे - ठपाक् से कह देल गेल हे ।)    (सारथी॰10:16:40:2.32)
148    ठसकल (= ठसाठस या ठूँसकर भरा हुआ) (खैर, जीतन भैया तो साथे हथ, उनखरे नाप से तो हमरो कपड़ा किना जात । ऊ देहरी पर बैठके इन्तजार करे लगल ... एक पहर ... दू पहर ... तीन पहर ... साँझ हो गेल । ससुरा ई बजार हे कि चम्मुक, जे जाय ओकरे साट ले । संझौकी के गाड़ी दुआरी लगल । डिक्की समान से ठसकल ।)    (सारथी॰10:16:14:2.5)
149    ठिंगोरा (= इंगोरा) (सुन्ना के गोल घेरा पर ऊ सपना चकरघिरनी बनल हे आउ ठिंगोरा (? इंगोरा) बनके गाल पर दहक रहल हे ।)    (सारथी॰10:16:24:3.27)
150    ठिसुअइनी ("अच्छा तउ तोरा जीतना नियर जीन्स पैंट चाही ? मगर ऊ डरेस तो बड़ी महरग होवऽ हे ।"/ ढीबरा के चेहरा पर ठिसुअइनी झलके लगल ।)    (सारथी॰10:16:13:3.25)
151    ठेपी (= टिप्पी, बोतल आदि का ढक्कन) (फुलिया ढीबरा के चुप करइ लेल ढेर चुचकार-पुचकार कइलक, मुदा फरिस्ता बुतरु के तो पेट भरे के बादे दुलार सूझत । अजियाके उ एगो धंधरन में जुट गेल ... । एगो मलवा में दू-चार ठेपी पानी अंगुरी सहे भर सिलगरम कइलक । ओकरे में अपन छाती के दूध गारे लगल ।)    (सारथी॰10:16:12:3.11)
152    डकना (सगर दिन के खेत-पथार के काम-काज से थक्कल-मांदल फुलेसरी के पिपनी पर लगऽ हे कि केतना भारी बोझा रखल हे । कउआ डके से पहिलइँ फुलेसरी रोजे उठ जाहे, हाथ में बढ़नी आउ चउका-बासन करिके सुरजू के खिला-पिला के चलि देहे खेत-खंधा ।)    (सारथी॰10:16:4:2.6)
153    डभकल (चुऽ ... चुऽ ... चुऽ ... बाबू हमर गे ... पेट नञ भरलो ! पेट भरतइ कि खाक ! सोंठ के हलुआ ममोसरो नञ ... ! मसुरी के दाल पर अनेसा, सेहो छठियारिए तक डभकल । ड्योढ़ी के जुठा-कुठा तो ड्योढ़ी पर जाय के बादे ममोसर होत ।)    (सारथी॰10:16:12:3.5)
154    डाँढ़ी ("अगे माय ! माय गे !" अधछोछर नीन में अलसाल, अँचरा से झँपाल करखू रह-रहके अपन माय के डाँढ़ी हियावऽ लगल ।)    (सारथी॰10:16:4:2.3)
155    डाकबबा (बहुते कोरसिस कइलक सुलोचनी कि गोबिन सुधर जाय । कत्तेक बेर तऽ डाकबबा पर परसाद चढ़इलक, देवीथान में चउका देलक, गोरइयाथान में बतासा गछलक, मुदा गोबिन के डगमगाल गोड़ थिर नञ् भेल । करमी के केबाड़ी गोबिन लेल खुलल के खुलले रहल ।)    (सारथी॰10:16:5:2.14)
156    डिड़ारी (हाले आल हल गरमी के छुट्टी में उजरका डिड़ारी वला लाल-लाल टी-शर्ट आउ जाँघ से लगायत घुट्ठी तक कसल जीन्स पेन्ह के । मोहरी दू-तीन तुरी मोरल, तभियो जमीन लोटे ।)    (सारथी॰10:16:13:3.15)
157    डिपटी (दे॰ डिप्टी) (औरत सब के इनखर सीरियल खूब निम्मन लगऽ हे । नञ् जानूँ काहे एकर टइमो ठीक पिछली पहर । ई घड़ी सब लइकन इस्कूल में रहऽ हइ । मरदाना सब अपन डिपटी बजावऽ हथ । मेहरारू बस नहा-सोना के खा-पी, सजधज बइठ जा हथ सेनुर के गंजन देखइ ले ।)    (सारथी॰10:16:35:1.16)
158    ढकनी (मड़वा छौनी के बाद कलसा थापल गेल । वंसरोपन भेल आउ शुरू भे गेल घीढ़ारी के विधान । दीया, ढकनी, कपटी, चुकड़ी, कुम्हारिन पहुँचा गेल हल ।)    (सारथी॰10:16:18:3.33)
159    ढनमनाल (~ चलना/ बुलना) (कोय जोर-जोर से केबाड़ी पीट रहल हल । / "अँह, भोरे-भोरे के ढनमनाल चल रहल हे, जे काँचे नीन तोड़ा देलक ।" मइया भुनभुना रहल हल ।)    (सारथी॰10:16:23:1.25)
160    ढोढ़ी (~ टुटके गिरना) (फुलिया अभी परसौती हे आउ मड़ुकी सौरी, जहाँ बिहने ढीबरा के ढोढ़ी टुटके गिरल हे । पनरह दिन के ढीबरा के छाती से लगैले फुलिया दिन गिन रहल हल ... । मंगल मंगल आठ, घुर मंगल पनरह, बिसतौरी पुरे में अभी पाँच दिन बाकी ।)    (सारथी॰10:16:12:2.25)
161    तखनय (= तखनयँ, तखनइ, तखनहीं; उसी क्षण) (कहाँ चल गेलइ सब ? अभी तो रोवा-कानी मचल हलइ । तखनय धरमेन्दरा आ रहल हल । पुछला पर ऊ बड़ी निठुर मन से कहलक - "देवीथान के पिपरा तर हइ ।" अब तो सभे सक-संदेह हमर मन से धोवा गेल । अम्मोढेकार रोबाय फूटे लगल ।)    (सारथी॰10:16:24:1.13)
162    तसिलाना (= तसलाना, तसीला जाना) (रेनू बोल रहल हल - "महल्ला के बात हे, दाह-करम खातिर भी ओकरा हीं एको पइसा नय हे, चंदा तसिला रहल हे, कुछ पइसा दे देहीं ।")    (सारथी॰10:16:23:3.3)
163    तहिअउका (= उस दिन या समय का, the then) (त्रिनिदाद के तहिअउका प्रधान मंत्री बिसनाथ पांडे वहाँ आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में ई समस्या के गहरा विश्लेषण करइत हिन्दी के सांस्कृतिक आंदोलन से जोड़इ के जरूरत बतइलन हल ।)    (सारथी॰10:16:29:1.36)
164    तारतम (= तारतम्य) (सुरजा आउ करखू के बीच करखुआ के माय फुलेसरी माने लछमिनियाँ, भावना आउ करतव के बीच एगो बेजोड़ तारतम बइठइते-बइठइते कहिया कनियाय से माय हो गेल, ओकरो पता नञ् चलल ।)    (सारथी॰10:16:4:2.19)
165    तुरी-तुरी (= बार-बार) (जरिको नय हमरा लग रहल हल कि ऊ मर गेलइ । तुरी-तुरी नजर के सामने ओकर चेहरा झलक जा हल । देह-गात त सुन्न पड़ल जा हल बकि जोर-जोर से माथा पीटके कानइ के मन कर रहल हल ।)    (सारथी॰10:16:23:3.20)
166    थलथलाना (ओकर नजर चभच्चा के ठहरल पानी पर आउ पानी में लउकइत ढीबरा ! ओहे उजरका डिड़ार वला टी-शर्ट अउ चुस्त जीन्स पेन्हले । ऊ पानी में जइसइँ बाल्टी डुबइलक ... चुभ् ... ठहरल पानी थलथलाय लगल ... अंदर के ढीबरा भी हिले लगल ... टी-शर्ट सब अलोप ।)    (सारथी॰10:16:13:3.41)
167    थुकथुकाना (भूलइ के अनथक कोरसिस करऽ ही बकि टेस अवाज में टहकइत टिटहीं बनके ऊ याद में पैबस्त हो जाहे - झनझना जाहे मानस । थू-थू ... थुकथुकावऽ ही ... असगुन बुझा हे ... बकि बार-बार गोल घेरा काटइत ऊ घुमइत ही रहऽ हे - टिटहीं टी ... टिटहीं टीं ।)    (सारथी॰10:16:25:1.28)
168    दछिना (= दक्षिणा) (लगन के अइसन जोर भेल कि ढोल, सिंघा, पचबजना, जोरघाय खोजला पर भी नयँ मिले । हजाम के जजमान के काम आउ नेवता देवइ से फुरसत नयँ । परोहित जी के त बीसो अंगुरी घी में । केकरो घर घीढ़ारी, केकरो घर बियाह, केकरो घर जनउवा । परोहित जी काँखि तर पोथी दाबले रात-दिन जजमान के काम में मसगूल । मोट दछिना आउ जजमान के घर घी में छानल पूआ-पूड़ी के भोग, ऊपर से गइँठ-बन्हन । परोहित जी के गोड़ में त पाँखि लगल रहे । जेकरे घर जाथि, डँटि के खाथि । कहलो गेल हे - हाथ सुक्खल, बरहामन भुक्खल ।)    (सारथी॰10:16:18:2.4)
169    दलधोय (बियाह घड़ी बेटी के जोग बगइया में मंगा हे । तखने कनियाँ से आम, बर, पीपर के सेनुर लगाके पुजावल जाहे । ईहे घड़ी एगो विध दलधोय आउ पनकट्टी होवऽ हे । एकरा में लड़की कुइयाँ के सेनुर लगाके पूजऽ हे । अइसनका कुइयाँ बियाहल मानल जाहे । एकर जल पवित्तर होवऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.21)
170    दिनियाल (= रपरपाल) (छोटगर गो झोपड़ी, जेकर एक कोन में अलमुनियाँ के थारी, लोटा, लटखुट बरतन । आधा भित्तर घेरि के पोआर बिछल हे । तनिक्के गो दुआरी । दुआरी में बोरा के चट वाला परदा । दुआरी एत्तक छोट कि अदमी भले ओकरा में मोसकिल से घुस पावे, मुदा ई पूस के कनकनाल सोरा में घोराल बेयार ? एकरा के रोके ? घुस जइतो दिनियाल खड़े-खड़े आउ लगतो जाके हाड़े में ।)    (सारथी॰10:16:4:2.29)
171    दीया (= मिट्टी का दीपक) (मड़वा छौनी के बाद कलसा थापल गेल । वंसरोपन भेल आउ शुरू भे गेल घीढ़ारी के विधान । दीया, ढकनी, कपटी, चुकड़ी, कुम्हारिन पहुँचा गेल हल ।)    (सारथी॰10:16:18:3.33)
172    देखताहर (सवा महीना के ढीबरा के गेन्तर में लपेटले करेजा से साटले फुलिया चलित्तर सिंह के डेउढ़ी पर हाजिर । नाया बुतरू के देखताहर नौकर-चाकर आउ खुदे चलित्तर सिंह के कनिआय ।)    (सारथी॰10:16:12:3.34)
173    देखसी (= देखा-हिसकी) (हिन्दी कविता में निराला रबर छन्द लिखके एक क्रांति कैलका । उनकर देखसी में साठ के दशक में एक आन्दोलन सन चलल । लोग नया-नया कविता करो लगला - जेकरा में चालीस तरह के कविता लिखल गेल । ओत्ते तो आद नै हो, कुछ देखहो - नई कविता, सुकविता, कुकविता, गद्य कविता, अकविता, बीट कविता आदि ।)    (सारथी॰10:16:33:2.29)
174    देह-गात (जरिको नय हमरा लग रहल हल कि ऊ मर गेलइ । तुरी-तुरी नजर के सामने ओकर चेहरा झलक जा हल । देह-गात त सुन्न पड़ल जा हल बकि जोर-जोर से माथा पीटके कानइ के मन कर रहल हल ।)    (सारथी॰10:16:23:3.21)
175    धंधरन (फुलिया ढीबरा के चुप करइ लेल ढेर चुचकार-पुचकार कइलक, मुदा फरिस्ता बुतरु के तो पेट भरे के बादे दुलार सूझत । अजियाके उ एगो धंधरन में जुट गेल ... । एगो मलवा में दू-चार ठेपी पानी अंगुरी सहे भर सिलगरम कइलक । ओकरे में अपन छाती के दूध गारे लगल ।)    (सारथी॰10:16:12:3.10)
176    धत् (जखने सुरजा फुलेसरी के पियार से लाछो कहिके बोलावऽ हल, फुलेसरी लाज से दोहरा जा हल । ओकर सामर मुँह पर ललका रंग चढ़ जा हल अनु धत् कहिके एगो कोना में घुकुर जा हल । सुरजा के तऽ हालते खराब तखने ।)    (सारथी॰10:16:4:3.22)
177    धनउसरा (= धान इसोरने वाला) (लोकजीवन में एगो परम्परा हे कि नया चूल्हा में आग सुलगावे से पहिले ओकर बियाह सेनुर लगाके कइल जाहे । ई चूल्हा घरेलू खाना बनवे वला रहे, चाहे भोज, चाहे धनउसरा चाहे कोलसार, सबके बियाह भेला के बादे आग-चूल्हा के मिलन होवऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:17:1.1)
178    धनमंडल (ऊ साल भदइ, धान आउ रब्बी धरती फारि के उपजल रहे । सउँसे मगह में धान के धनमंडल । ई से लोग अप्पन बेटा-बेटी के बियाह लेल लगि गेला ।)    (सारथी॰10:16:18:1.25)
179    धूर (गौंत-पानी (ई गरमी में ससुरा नीनो त नयँ आवऽ हइ । सोचली, तोहरे भिरी बैठ के कुछ गपशप कयल जात । दिन टघरला पर धूर के गौंत-पानी देम ।)    (सारथी॰10:16:18:1.9)
180    धूरी-गरदा (कते बरस बीत गेल । समय के धूरी-गरदा मलीन भी करइ ल चाहऽ हे ओकरा बकि रहि-रहि के हूक उठिये जाहे आउ हम्हड़ उठऽ हे हिया । पचासन दफा दिन भर में चेहरा धोवऽ ही - ई लाइलाज रोग बनके मन में चिपक गेल हे ।)    (सारथी॰10:16:25:1.14)
181    नपना (सबसे बड़ा आलोचक जनता हइ, जे तोरा सुनै हो, तोरा पढ़ै हो । ओकरा जिमा सबसे बड़ा नपना हइ । ऊ जे नापि देतो से परियानी पर सो में सो उतरि जइतो ।)    (सारथी॰10:16:34:2.9)
182    नहाना-सोनाना (औरत सब के इनखर सीरियल खूब निम्मन लगऽ हे । नञ् जानूँ काहे एकर टइमो ठीक पिछली पहर । ई घड़ी सब लइकन इस्कूल में रहऽ हइ । मरदाना सब अपन डिपटी बजावऽ हथ । मेहरारू बस नहा-सोना के खा-पी, सजधज बइठ जा हथ सेनुर के गंजन देखइ ले ।)    (सारथी॰10:16:35:1.16)
183    नाक-नुकुर (आझ ढीबरा बारह बरीस के हो गेल । चीपड़-चोइयाँ नियन देह मगर बिरनी नियर फुर्र-फुर्र ! चलित्तर सिंह के डेउढ़ी के छाड़न-छोड़न आउ जुट्ठा-कुट्ठा से पोसाल हल ऊ, मगर होश आवे के बाद नाक-नुकुर शुरू ।)    (सारथी॰10:16:13:1.38)
184    नारियर (= नारियल) (छठ-एतवार में तऽ परवइती सूप-डलिया के भी सेनुर से पूजऽ हथ । नारियर, लड़ुआ, मुरय, केतारी, अरघउता, पूजा के लोटा सब में भी सेनुर लागावल जा हे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.3)
185    निके-सुखे (ओकरा एगो उपाय सुझल आउ बेटी से पहिले अपन छोट बेटवे के सादी कर देलक आउ बेटा के रोजगार के खातिर लड़की वला से पुरकस तिलक ले लेलक । बेटी तो निके-सुखे चल गेल अपन घर । बाकि, पुतहु नय अइलइ ।)    (सारथी॰10:16:15:3.24)
186    निचुड़ाना (दारू के पइसा कन्ने से आवत, ई सुलोचनी जाने । उधार-पइँचा जोहते-जोहते देह भरल जुआनी में निचुड़ा गेल । मार खा-खाके जब ओकर देह बेसुध हो जा हल, तऽ अचानके ओकर मुँह से निकल जा हल - "हे गोरइया, एकरा से भल हम राँड़े रहतूँ हल ।")    (सारथी॰10:16:5:2.21)
187    निछंछ (= निछक्का) (ओकर कान से मालकिन के तेज आवाज टकराल । दूध देवेवाली गोवारी से बतकुचन ... काल्ह दूध में बहुत पानी हलउ पटोरनी, निछंछ पानी जैसे आँख के लोर । अइसन दूध के कइसन पैसा !)    (सारथी॰10:16:13:1.12)
188    निठुर (= निट्ठुर; निष्ठुर) (कहाँ चल गेलइ सब ? अभी तो रोवा-कानी मचल हलइ । तखनय धरमेन्दरा आ रहल हल । पुछला पर ऊ बड़ी निठुर मन से कहलक - "देवीथान के पिपरा तर हइ ।" अब तो सभे सक-संदेह हमर मन से धोवा गेल । अम्मोढेकार रोबाय फूटे लगल ।)    (सारथी॰10:16:24:1.14)
189    निभोर (~ नीन) (कखनउँ तितली लगऽ हे तउ कखनउँ फटिंगा - कखनउँ चंदन के लेप तउ कखनउँ पिस्सल मिरचाय । कखनउँ-कखनउँ तउ निभोर नीन में भी लगऽ हे कि कोय पिल्लू गाल पर रेंग रहल हे - तड़क जाहे नीन । पोंछऽ ही आउ अन्हारे में दौड़ जा ही कल पर ।)    (सारथी॰10:16:25:1.21)
190    निमुहियाँ (मगर फुलिया के कान में ओहे आवाज - दूध नञ पानी ... ! ढीबरा के हँसी आउ रोबाय बउअइनी नञ हे, इ हे उहे दूध में पानी आउ पानी में दूध के हिसाब ! इ निमुहियाँ धन अप्पन बात हँसिए-कान के ने कहत।)    (सारथी॰10:16:13:1.32)
191    निहचय (= निश्चय) (हिन्दी के ई प्रवृत्ति के अगर अंग्रेजी साम्राज्वाद से जोड़के देखबऽ त ओकरा से विरोध के मूल कारण तक निहचय पहुँच जइबऽ ।)    (सारथी॰10:16:29:2.26)
192    नेउता-नेउतहारिन (सब समान डेउढ़ी के अंगना में रखा गेल । नेउता-नेउतहारिन एक-एक करके समान देखे लगल - ई साड़ी बेटिऔरी, ई घुघटाही, ई पटपराय आउ ई बीस हजरिया बनारसी बिहउती साड़ी ।)    (सारथी॰10:16:14:2.14)
193    नेवताहरी (तिरलोकी बाबू के बेटी के बिआह के लगन तय भे गेल । पुरोहित, हजाम आउ पौनियाँ के काम बढ़ गेल । नौकर-चाकर गाम के गोतिया-भाय सेहो जुटि गेल । नेवताहरी भी आगेला हल । आगेल दिन मड़वा छवनी आउ घीढ़ारी के । हजाम परोहित जी के नेवता दे आल । साँझ के परोहित जी घीढ़ारी खातिर पोथी-पतरा आउ अरघा, कुश-पैंती सहेजो लगला ।)    (सारथी॰10:16:18:3.1)
194    नोनगर (= नूनगर) (गोबिन के सम्हारते-सम्हारते बिहरिया जनम गेल हल । सुलोचनी के सुक्खल छाती में दूध कहाँ ? सुक्खल चिलका खाली हलरइला से मानलक हे कहइँ ! अप्पन लचारी पर सुलोचनी के आँख से नोनगर पानी टपकि जा हल, जेकरा चाट-चाट के बिहरिया भी चुप भे जा हल । ढहइत हालत नासमझ अबोध के भी जल्दी लुरगर बना दे हे ।)    (सारथी॰10:16:5:2.32)
195    नोमा (= नोम्मा, नवमा, नौवाँ) (फुलिया अभी परसौती हे आउ मड़ुकी सौरी, जहाँ बिहने ढीबरा के ढोढ़ी टुटके गिरल हे । पनरह दिन के ढीबरा के छाती से लगैले फुलिया दिन गिन रहल हल ... । मंगल मंगल आठ, घुर मंगल पनरह, बिसतौरी पुरे में अभी पाँच दिन बाकी । नोमा महिना गोट्टे, कम-से-कम अठवारा रोज नहिंए जाय में बनत ।)    (सारथी॰10:16:12:2.29)
196    पचबजना (लगन के अइसन जोर भेल कि ढोल, सिंघा, पचबजना, जोरघाय खोजला पर भी नयँ मिले । हजाम के जजमान के काम आउ नेवता देवइ से फुरसत नयँ । परोहित जी के त बीसो अंगुरी घी में । केकरो घर घीढ़ारी, केकरो घर बियाह, केकरो घर जनउवा । परोहित जी काँखि तर पोथी दाबले रात-दिन जजमान के काम में मसगूल ।)    (सारथी॰10:16:18:1.28)
197    पचोतरा (तिलक-दहेज त तखने भी हइए हल, मुदा आज के जइसन असमान पर चढ़ल नयँ हल । तखने कूल-खूट देखि के बेटी के बाप अप्पन जोड़ी के परिवार में बेटी के बियाहऽ हल । बेटा के बाप भी खुशी से तिलक मंजूर करऽ हला । एगो बात अउरो, तिलक के रुपइया में पुरोहित जी के भी हिस्सा होवऽ हल - सो रुपइया में पाँच रुपइया, जेकरा पचोतरा कहल जा हल ।)    (सारथी॰10:16:18:2.21)
198    पतरकी (मेला पूरा उफान पर हे । अपने-अपने में सब मगन । एक जगह जरी जिराय ल बइठलूँ त मीना बजार के घुमइत कड़क हिंडोला के डोली में ओकर झलक देखाय पड़ल । जब हिंडोला थिर होवऽ लगल तब साफ जनाइल पतरकी घुमानी से डेराइल ओकर देह से लिपटल हे ।; खूब रफ्तार पकड़इ हिंडोला त हम्मे खुद के पइअइ ओकरा पर आउ थिर होवे लगइ त पतरकी लउके लगइ । घुमानी लग गेल ।; फेन पुछलिअइ - "जेकर देहिया भराल नियन हलइ, एगो बेटवा हलइ जेकरा, पतरकी जेकर अउरतिया हइ ?" - "हाँ, ओहे । पहिलकी मरदनमा बेचारी के मर गेलइ हल । बेसहारा जिनगी, पेट आउ इज्जत दुइयो भारी ।")    (सारथी॰10:16:22:2.19, 3.5, 23:2.33)
199    पतिआना (= विश्वास करना, कायल होना) (आजो से चेतऽ आउ लगा द कुछ गाछ सेनुर के भी । सेनुर गाछ उकनइ से भी बच जात । आवइ वला पीढ़ी कइसे पतिअइतो कि सेनुर के भी गाछ होवऽ हल धरती पर ।)    (सारथी॰10:16:35:1.5)
200    पनकट्टी (बियाह घड़ी बेटी के जोग बगइया में मंगा हे । तखने कनियाँ से आम, बर, पीपर के सेनुर लगाके पुजावल जाहे । ईहे घड़ी एगो विध दलधोय आउ पनकट्टी होवऽ हे । एकरा में लड़की कुइयाँ के सेनुर लगाके पूजऽ हे । अइसनका कुइयाँ बियाहल मानल जाहे । एकर जल पवित्तर होवऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.21)
201    पनरह (= पन्द्रह) (फुलिया अभी परसौती हे आउ मड़ुकी सौरी, जहाँ बिहने ढीबरा के ढोढ़ी टुटके गिरल हे । पनरह दिन के ढीबरा के छाती से लगैले फुलिया दिन गिन रहल हल ... । मंगल मंगल आठ, घुर मंगल पनरह, बिसतौरी पुरे में अभी पाँच दिन बाकी ।)    (सारथी॰10:16:12:2.26)
202    पनरहियाँ (बिसतौरी पुरल पनरहियाँ हो गेल । ललकोरी फुलिया के देह तनी फुरफुरायल, परसौती गमक भी खतम । गाहे-बगाहे दूध के लोहरैनी आउ भीतर से कुछ रिसइत लस-लस, फस-फस अभियो डेउढ़ी में जाय से रोक रहल हल, मुदा पेट माने तब ने ।)    (सारथी॰10:16:12:3.24)
203    परना (= पारण, पारन; व्रत आदि की समाप्ति पर विधिपूर्वक किया जानेवाला पहला भोजन, व्रत उपवास की समाप्ति) (सुरजाहूँ सेनुरहार के महातम सबसे बढ़के हे । रोग-संकट आउ विपत में सुरुज के हँकार पड़ऽ हइ, मानता मानल जा हइ आउ मनसा पूरला पर एतवार के दिन सहके, छठ के परना दिन घाट पर परवइती सभे के सेनुर देवल जा हइ । ई सेनुरहार से सुरूज आउ सब देवता परसन्न होवऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.8)
204    परवइती (दे॰ परवैती) (छठ-एतवार में तऽ परवइती सूप-डलिया के भी सेनुर से पूजऽ हथ । नारियर, लड़ुआ, मुरय, केतारी, अरघउता, पूजा के लोटा सब में भी सेनुर लागावल जा हे ।; सुरजाहूँ सेनुरहार के महातम सबसे बढ़के हे । रोग-संकट आउ विपत में सुरुज के हँकार पड़ऽ हइ, मानता मानल जा हइ आउ मनसा पूरला पर एतवार के दिन सहके, छठ के परना दिन घाट पर परवइती सभे के सेनुर देवल जा हइ । ई सेनुरहार से सुरूज आउ सब देवता परसन्न होवऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.2, 8)
205    परसौती (= प्रसूता, प्रसूतिका) (फुलिया अभी परसौती हे आउ मड़ुकी सौरी, जहाँ बिहने ढीबरा के ढोढ़ी टुटके गिरल हे । पनरह दिन के ढीबरा के छाती से लगैले फुलिया दिन गिन रहल हल ... । मंगल मंगल आठ, घुर मंगल पनरह, बिसतौरी पुरे में अभी पाँच दिन बाकी ।; बिसतौरी पुरल पनरहियाँ हो गेल । ललकोरी फुलिया के देह तनी फुरफुरायल, परसौती गमक भी खतम । गाहे-बगाहे दूध के लोहरैनी आउ भीतर से कुछ रिसइत लस-लस, फस-फस अभियो डेउढ़ी में जाय से रोक रहल हल, मुदा पेट माने तब ने ।)    (सारथी॰10:16:12:2.24, 3.25)
206    परियानी (सबसे बड़ा आलोचक जनता हइ, जे तोरा सुनै हो, तोरा पढ़ै हो । ओकरा जिमा सबसे बड़ा नपना हइ । ऊ जे नापि देतो से परियानी पर सो में सो उतरि जइतो ।)    (सारथी॰10:16:34:2.10)
207    पलल-पोसाल (शिक्षा  स्नातक विज्ञान (प्रतिष्ठा) । पत्रकारिता में प्रशिक्षित । गँवई चाल-ढाल में पलल-पोसाल, पत्रकारिता में रोजगार तलासइ के फिराक में ।)    (सारथी॰10:16:12:1.6-7)
208    पवित्तर (= पवित्र) (बियाह घड़ी बेटी के जोग बगइया में मंगा हे । तखने कनियाँ से आम, बर, पीपर के सेनुर लगाके पुजावल जाहे । ईहे घड़ी एगो विध दलधोय आउ पनकट्टी होवऽ हे । एकरा में लड़की कुइयाँ के सेनुर लगाके पूजऽ हे । अइसनका कुइयाँ बियाहल मानल जाहे । एकर जल पवित्तर होवऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.23)
209    पहमाँ (दिल्ली के घटना के बाद मथुरा आउ वृंदावन के वर्णन हे । यमुना के दुर्दशा के पहमाँ पर्यावरण पर संकट, शीतल पेय के प्रचलन के पहमाँ बाजारीकरण के प्रवृत्ति पर चोट करइत ई टिप्पणी देखइ लायक हे - "आदमी अप्पन कबूरगाह अपने बना रहल हे । ई रेशम के कीड़ा जइसन अंतिम में अपने बनायल जाल में फँसि के मर जा हइ ।")    (सारथी॰10:16:39:1.33, 34)
210    पहिलइँ (= पहिलहीं; पहले ही) (सगर दिन के खेत-पथार के काम-काज से थक्कल-मांदल फुलेसरी के पिपनी पर लगऽ हे कि केतना भारी बोझा रखल हे । कउआ डके से पहिलइँ फुलेसरी रोजे उठ जाहे, हाथ में बढ़नी आउ चउका-बासन करिके सुरजू के खिला-पिला के चलि देहे खेत-खंधा ।; बिहरिया के बाप गोबिन आउ माय सुलोचनी । बेचारी सुलोचनी - ने कहियो भर पेट खाना, ने देह में बसतर । बियाह के पहिलइँ गोबिन के आदत बिगड़ि गेल हल - ताड़ी, दारू आउ जूआ । करमी पासिन के घर में अड्डा बनल हल ।)    (सारथी॰10:16:4:2.7, 5.1.45)
211    पामें-पाम (ओकर गोड़ डेउढ़ी दने बढ़ रहल हल जैसे बउआ बुले पामें-पाम ... । ओहे चाल से ओकर छाया चल रहल हल ठीक उल्टी दिशा में ... दूर ... बहुत दूर ।)    (सारथी॰10:16:12:2.15)
212    पासिन (बियाह के पहिलइँ गोबिन के आदत बिगड़ि गेल हल - ताड़ी, दारू आउ जूआ । करमी पासिन के घर में अड्डा बनल हल । करमी के चाल-चलन से गाम के सब मेहरारू के तरवा के धूर कपार पर चढ़ जा हल, "ई सोगाही, सतभतरी, नञ् जानूँ कय गो के घर उजाड़तइ ।")    (सारथी॰10:16:5:2.2)
213    पित्ती (~ उछलना) (सेनुर से औषधि भी बनावल जाहे । कटल-खोटल रहे चाहे घाव-फुंसी, सच्चा सेनुर यदि द, घाव छूट जइतो । पित्ती उछलला पर घी संगे भखरा सेनुर लगावल जा हल ।)    (सारथी॰10:16:35:1.7)
214    पोलंडा (= पुलिन्दा) (लेखक इहाँ मौजूदा कोर्ट-कचहरी के पोलंडा तहे-तह खोल के रखइ में खूब सफल होला हे।)    (सारथी॰10:16:38:2.22)
215    पौनियाँ (= पौनिया) (तिरलोकी बाबू के बेटी के बिआह के लगन तय भे गेल । पुरोहित, हजाम आउ पौनियाँ के काम बढ़ गेल । नौकर-चाकर गाम के गोतिया-भाय सेहो जुटि गेल ।)    (सारथी॰10:16:18:2.21)
216    फटिंगा (कखनउँ तितली लगऽ हे तउ कखनउँ फटिंगा - कखनउँ चंदन के लेप तउ कखनउँ पिस्सल मिरचाय । कखनउँ-कखनउँ तउ निभोर नीन में भी लगऽ हे कि कोय पिल्लू गाल पर रेंग रहल हे - तड़क जाहे नीन । पोंछऽ ही आउ अन्हारे में दौड़ जा ही कल पर ।)    (सारथी॰10:16:25:1.20)
217    फरिस्ता (= फलिस्ता, फोहबा) (~ बुतरू) (फुलिया ढीबरा के चुप करइ लेल ढेर चुचकार-पुचकार कइलक, मुदा फरिस्ता बुतरु के तो पेट भरे के बादे दुलार सूझत ।)    (सारथी॰10:16:12:3.8)
218    फस-फस (बिसतौरी पुरल पनरहियाँ हो गेल । ललकोरी फुलिया के देह तनी फुरफुरायल, परसौती गमक भी खतम । गाहे-बगाहे दूध के लोहरैनी आउ भीतर से कुछ रिसइत लस-लस, फस-फस अभियो डेउढ़ी में जाय से रोक रहल हल, मुदा पेट माने तब ने ।)    (सारथी॰10:16:12:3.27)
219    फिसिर-फिसिर (गरमी के कारन छतवे पर सबके बइठल रहे पड़ो हल । ओकरो जादेतर छतवे पर बइठल देखऽ हलिअइ, कखनो-कखनो तो फिसिर-फिसिर बुनियों में । अपन औरत से खूबे परेम करऽ हलइ, कभी-कभी एने-ओने ताकके ओकरा चूम ले हलइ ।)    (सारथी॰10:16:24:1.26)
220    फुरफुराना (बिसतौरी पुरल पनरहियाँ हो गेल । ललकोरी फुलिया के देह तनी फुरफुरायल, परसौती गमक भी खतम । गाहे-बगाहे दूध के लोहरैनी आउ भीतर से कुछ रिसइत लस-लस, फस-फस अभियो डेउढ़ी में जाय से रोक रहल हल, मुदा पेट माने तब ने ।)    (सारथी॰10:16:12:3.25)
221    फेफरी (ओन्ने रेकइत ढीबरा के मुँह में फेफरी । चम्मच से दूधवला पानी ढीबरा के मुँह में घुटूस । रस-रस ओकर लादा चिकना गेल ।)    (सारथी॰10:16:12:3.18)
222    बउअइनी (मगर फुलिया के कान में ओहे आवाज - दूध नञ पानी ... ! ढीबरा के हँसी आउ रोबाय बउअइनी नञ हे, इ हे उहे दूध में पानी आउ पानी में दूध के हिसाब ! इ निमुहियाँ धन अप्पन बात हँसिए-कान के ने कहत।)    (सारथी॰10:16:13:1.31)
223    बउआना (= इधर-उधर भकना; सपना देखना) ("नय रात चैन नय दिन । लाइन तउ अँखमुन्नो खेलइत रहवे करऽ हे । गरमी ओइसने ... एक-डेढ़ बज गेल मेलवे से आवइ में । ए उठ, तोरे खोजइ में तउ जादे बउअइनुँ हे मेलवा में । देह के नस-नस टूट रहल हे । देखहीं त के हइ दुअरिया पर ।")    (सारथी॰10:16:23:1.40)
224    बजबजाल (कलह-अशांति, लूट-खसोट, मार-काट सब बढ़ गेल । एकर कारण हे समाज के बीच में फैलल-गहराल गहड़ा, जेकर बजबजाल गंदगी में मानवता के लहुलुहान करइ वला मच्छी-मच्छर वास करऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:31:1.27)
225    बड़भागी (कउआ डके से पहिलइँ फुलेसरी रोजे उठ जाहे, हाथ में बढ़नी आउ चउका-बासन करिके सुरजू के खिला-पिला के चलि देहे खेत-खंधा । दिन भर के थकान । एक माने में सुरजा हे बड़भागी । जखने-जखने देह थकान से अलसाय लगऽ हे, फुलेसरी के पसेना से भींजल देह के महक से सुरजू के मन हरिया मुसकी देके ताकि ले हे, फेन की कहना !)    (सारथी॰10:16:4:2.10)
226    बढ़नइ (बदलाव परकिरती के नियम हे । समय परिधि में नञ् सीधे आगू बढ़इत जाहे । सून्य से चलि के मंजिल दने बढ़नइ विकास के सूचक हे ।)    (सारथी॰10:16:2:1.5)
227    बढ़िअउँका (= बढ़िक्का; निम्मन; बढ़ियाँ) (ढीबरा भी वहाँ हाजिर । ऊ एक-एक समान पर नजर गड़ैले । जानय कौन पाकिट में हमर जीन्स-पैंट हे । ऊ समान उठावे तब टो-टा के देखे भी । बढ़िअउँका जीन्स तो कूट वाला पाकिट में रहऽ हे मगर कनउँ बुझैवे नञ करे ।)    (सारथी॰10:16:14:2.11)
228    बतकुचन (दे॰ बतकुच्चन) (ओकर कान से मालकिन के तेज आवाज टकराल । दूध देवेवाली गोवारी से बतकुचन ... काल्ह दूध में बहुत पानी हलउ पटोरनी, निछंछ पानी जैसे आँख के लोर । अइसन दूध के कइसन पैसा !)    (सारथी॰10:16:13:1.11)
229    बतासा (बहुते कोरसिस कइलक सुलोचनी कि गोबिन सुधर जाय । कत्तेक बेर तऽ डाकबबा पर परसाद चढ़इलक, देवीथान में चउका देलक, गोरइयाथान में बतासा गछलक, मुदा गोबिन के डगमगाल गोड़ थिर नञ् भेल । करमी के केबाड़ी गोबिन लेल खुलल के खुलले रहल ।)    (सारथी॰10:16:5:2.16)
230    बनउटी (= बनावटी, नकली) (मुदा ई पढ़ल-लिखल वैज्ञानिक मैडम से पुछहुन कि तोहरा के कहलको सीसे से बनल बनउटी सेनुर करऽ । एकर त गाछ होवऽ हे । पुरान समय में एकर गाछ लगावल जा हल आउ शुद्ध ताजा सेनुर मिलऽ हल ।)    (सारथी॰10:16:35:1.1)
231    बरियात (दे॰ बरियाती) (ढीबरा बिरनी नियर कभी ऊ काम तउ कभी ऊ काम । सुस्ताय के समय में सपना ... । मेघन दा के बरियात जायत । उनका साथ अरदली में तो हमरे रहे पड़त । कखने कउन काम अरहा देतन ।; तोर कपड़ा भी कीन देबउ, लेकिन अइसन कर, कल्ह भोरे नउआ हीं जाके अपन बाल बढ़िया से कटा लिहँऽ । बरियात जइमहीं तब अइसने लमहर चूल में ? ले पाँच रुपइया, कल्ह बाल कटा लिहँऽ ।)    (सारथी॰10:16:14:1.31, 3.5)
232    बरोबरी (= बराबरी, समानता) (इहे बीच में समाज के बरोबरी पर लावइ ले आउ शांति कायम करइ ले कत्ते सन धरम बनल, सुधार वला शिक्षा आयल, गुरु-परोहित, साधु-संत, फकीर, मुल्ला-मौलवी, पंडित-पोप अइलन । सब इमनदारी से मेहनत कइलन बकि अमीरी-गरीबी के बीच के खाई बढ़ल गेल।)    (सारथी॰10:16:31:1.21)
233    बाऊ-मइया ("हमरा कुच्छो नञ् चाही बाऊ ।" कहिके बाऊ से चिपटि गेल । - "की नञ् चाही नुनु ?" - "हमरा नञ् चाही पक्का मकान आउ कोठा । ... हमरा तूँ चाही ... तोर दुलार । हे डाकबबा, हमरा बाऊ-मइया के रहे दिहऽ बाबा !")    (सारथी॰10:16:6:3.14)
234    बाजाप्ता (हम राम जी के बेटन नियर नञ् हलूँ । हम बाजाप्ता इस्कूल में पढ़लूँ हल । हम अइसन असभ्य नञ् हलिअइ कि अप्पन बाप के कोय चीज छू दिअइ ।)    (सारथी॰10:16:6:2.31)
235    बिचबिचवा (जबसे समाज गरीब-अमीर में बँटल हे, बीच वला अइसहीं ताल ठोक रहल हे, जइसे बुढ़िया कबड्डी में कउआ रहऽ हे । बड़कन राज करऽ हे, छोटकन बरदास करऽ हे आउ बिचबिचवा टाप हनऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:5:1.18)
236    बिरनी (= बिढ़नी; दे॰ बिर्हनी) (आझ ढीबरा बारह बरीस के हो गेल । चीपड़-चोइयाँ नियन देह मगर बिरनी नियर फुर्र-फुर्र ! चलित्तर सिंह के डेउढ़ी के छाड़न-छोड़न आउ जुट्ठा-कुट्ठा से पोसाल हल ऊ, मगर होश आवे के बाद नाक-नुकुर शुरू ।)    (सारथी॰10:16:13:1.35)
237    बिसतउरी (दे॰ बिसतौरी) (बुतरू जनमला के बाद बिसतउरी पूरे दिन भी बुतरू गोदी में लेके चिलकउरी कुइयाँ, नदी पूजऽ हे । एकर माने हे कि जल देवता सेनुर से परसन्न होवऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.33)
238    बिसतौरी (फुलिया अभी परसौती हे आउ मड़ुकी सौरी, जहाँ बिहने ढीबरा के ढोढ़ी टुटके गिरल हे । पनरह दिन के ढीबरा के छाती से लगैले फुलिया दिन गिन रहल हल ... । मंगल मंगल आठ, घुर मंगल पनरह, बिसतौरी पुरे में अभी पाँच दिन बाकी ।; बिसतौरी पुरल पनरहियाँ हो गेल । ललकोरी फुलिया के देह तनी फुरफुरायल, परसौती गमक भी खतम । गाहे-बगाहे दूध के लोहरैनी आउ भीतर से कुछ रिसइत लस-लस, फस-फस अभियो डेउढ़ी में जाय से रोक रहल हल, मुदा पेट माने तब ने ।)    (सारथी॰10:16:12:2.28, 3.24)
239    बिहउती (रंग-बिरंग के चूड़ी, बड़बड़ फूल वला छिटही साड़ी ... लाल, पीयर, हरियर ... डाँड़ा में एक दने रूमाल खोंसल आउ दोसर दने रुनझुन-रुनझुन कुंजी के गुच्छा । एक हाथ के घोघा, घोघा में फुलेसरी के बिहउती मुँह । आगू-आगू सुरजा, जेकर गमछा के छोर से बन्हल आँचर !)    (सारथी॰10:16:4:3.11)
240    बुढ़िया (~ कबड्डी) (जबसे समाज गरीब-अमीर में बँटल हे, बीच वला अइसहीं ताल ठोक रहल हे, जइसे बुढ़िया कबड्डी में कउआ रहऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:5:1.16)
241    बुरुस (= ब्रश) (बीच-बीच में मूड़ी उठाके अइना देखे लगे तब नउआ मूड़ी दाब दे । कुछ देर बाद पौंड्स पाउडर के सुगन्ध ओकर गरदन तक लटपटा गेल । बुरुस से बाल झाड़ पोंछ तैयार ... । ढीबरा अइना में कभी आगे कभी पीछे, कभी दाएँ कभी बाएँ देखके सिहा रहल हल ।)    (सारथी॰10:16:14:3.37)
242    बून (= बूँद) (दूध देवेवाली गोवारी से बतकुचन ... काल्ह दूध में बहुत पानी हलउ पटोरनी, निछंछ पानी जैसे आँख के लोर । अइसन दूध के कइसन पैसा ! पटोरनी बेटा कीर, भतार कीर खाके कह रहल हल - आँख समांग किरिया मालकिन, हम एक बून भी पानी नञ मिलैलियो, हो सको हो पुतहिया तनी-मनी टेहरिया धोके ढार देलको होत ।)    (सारथी॰10:16:13:1.16)
243    बेंट (जाड़ा में रूइये नञ् तो दुइये । दुन्नू के बीच में करखू जइसे हर में पच्ची ठोकल जाहे ... कुदार में बेंट कारू मिसतिरी ठोकि देहे ।)    (सारथी॰10:16:4:3.1)
244    बेटिऔरी (~ साड़ी) (सब समान डेउढ़ी के अंगना में रखा गेल । नेउता-नेउतहारिन एक-एक करके समान देखे लगल - ई साड़ी बेटिऔरी, ई घुघटाही, ई पटपराय आउ ई बीस हजरिया बनारसी बिहउती साड़ी ।)    (सारथी॰10:16:14:2.15)
245    बेयार (छोटगर गो झोपड़ी, जेकर एक कोन में अलमुनियाँ के थारी, लोटा, लटखुट बरतन । आधा भित्तर घेरि के पोआर बिछल हे । तनिक्के गो दुआरी । दुआरी में बोरा के चट वाला परदा । दुआरी एत्तक छोट कि अदमी भले ओकरा में मोसकिल से घुस पावे, मुदा ई पूस के कनकनाल सोरा में घोराल बेयार ? एकरा के रोके ? घुस जइतो दिनियाल खड़े-खड़े आउ लगतो जाके हाड़े में ।)    (सारथी॰10:16:4:2.29)
246    बेसवा (= वेश्या) (करमी के चाल-चलन से गाम के सब मेहरारू के तरवा के धूर कपार पर चढ़ जा हल, "ई सोगाही, सतभतरी, नञ् जानूँ कय गो के घर उजाड़तइ ।" चोर सुने सतनरायन कथा ! कहावत हे - बनियाँ, कलाल, बेसवा, ई तीनों खोजे पइसवा । से रस-रस गोबिन के घर के सब बरतन-बासन करमी के घर चलि गेल ।)    (सारथी॰10:16:5:2.7)
247    बौखना (= बौंखना) (- "पाँय लागी गीरो का ।" - "खुस रह विक्कू । आव बैठ । केने ई दुपहरिया में बौख रहले हें । ले खैनी बनाव ।")    (सारथी॰10:16:18:1.3)
248    भखरा (~ सेनुर = सूखा सिन्दूर) (सेनुर से औषधि भी बनावल जाहे । कटल-खोटल रहे चाहे घाव-फुंसी, सच्चा सेनुर यदि द, घाव छूट जइतो । पित्ती उछलला पर घी संगे भखरा सेनुर लगावल जा हल ।)    (सारथी॰10:16:35:1.7)
249    भभूति (= भभूत; विभूति) (सुनइ में आवऽ हे कि शिव जी के किरपा से भभूतिये सेनुर बनि गेल ... टुहटुह इंगुर ... जे आझ तक गौरा के मांग में चमकि रहल हे । माय के जी गाय नियन । गौरा के माय जब तइयार न भेली तऽ गौरा मनइलकी - "जटवा मोरा लेखे अलरी-झलरी, भभूति मोरा अहिवात गे माई ।")    (सारथी॰10:16:17:2.13, 18)
250    भराल (~ देह) (फेन पुछलिअइ - "जेकर देहिया भराल नियन हलइ, एगो बेटवा हलइ जेकरा, पतरकी जेकर अउरतिया हइ ?" - "हाँ, ओहे । पहिलकी मरदनमा बेचारी के मर गेलइ हल । बेसहारा जिनगी, पेट आउ इज्जत दुइयो भारी ।")    (सारथी॰10:16:23:2.43)
251    भारा-दउरा (ससुरा ई बजार हे कि चम्मुक, जे जाय ओकरे साट ले । संझौकी के गाड़ी दुआरी लगल । डिक्की समान से ठसकल । भारा-दउरा, घी-डालडा, कपड़ा-लत्ता । लगऽ हे समूचे बजार किना गेल हे ।)    (सारथी॰10:16:14:2.5)
252    भावली (= जमीन का मालिक और रैयत के बीच खेत की उपज बाँटने की प्रक्रिया; जिंसी मालगुजारी; जिंसी बटाई) ('शालिस' इनकर मई 2006 में प्रकाशित उपन्यास हे । 'शालिस' सिरनामा सुनके अचक्के कुछ अनभुआर जइसन लगऽ हे, जेकर भान लेखक के भी हल । ऊ आवरण पृष्ठ 2 पर शुरुए में ओकर मतलब बता देलन हे । शालिस जमीन्दारी प्रथा के शब्द हलइ आउ ओकरे साथ ई शब्दो उपह गेल हल । भावली जमीन, जे अधबटैया होवऽ हल, के दाना कुतइ वला करिन्दा शालिस कहा हल ।)    (सारथी॰10:16:38:1.34)
253    भींजना (रात ~) (फेर मेलवा घूमे लगलिअइ । जइसे-जइसे रतिया भींजल जा रहले हल, भीड़ आउरो बढ़ल जा रहले हल । मन अनखना गेल हल । चारो देन्ने अनगिनती अदमी, हुजूम के हुजूम - तइयो अकेलापन हमरा साल रहल हल ।)    (सारथी॰10:16:22:3.22)
254    भुनभुन्नी ("अह, के हे जे अइसे दुअरिया पीटले हे ।" मइया के अवाज तेज हो गेल - "हाँ, आवऽ हिअउ ।"/ अवाज फेर भुनभुन्नी पर चल गेल । "ई सब के कोय काम-धंधा नय हे । आ गेल भोरे-भोरे, केकरो हीं आवे-जाय के कोय बेला होवऽ हे कि सुत-उठ के केकरो दुआरी लग गेलूँ ।")    (सारथी॰10:16:23:1.33)
255    मड़ुकी (अगहन के अन्हरिया रात । हाथ के हाथ नञ सूझे । मगर फुलिया के मड़ुकी में जलइत ढिबरी अन्हरिया के साथ कबड्डी खेल रहल हल । दरवाजा पर लगल ठठरी से कनकनी चोर नियर घुसके हाजिर।)    (सारथी॰10:16:12:2.19)
256    मनसा (सुरजाहूँ सेनुरहार के महातम सबसे बढ़के हे । रोग-संकट आउ विपत में सुरुज के हँकार पड़ऽ हइ, मानता मानल जा हइ आउ मनसा पूरला पर एतवार के दिन सहके, छठ के परना दिन घाट पर परवइती सभे के सेनुर देवल जा हइ । ई सेनुरहार से सुरूज आउ सब देवता परसन्न होवऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.7)
257    मनसुआ (= मनसूबा) (निनानबे के अंक पर फन काढ़ले साँप ललकी गोटी निंगल के खेलाड़ी के सभे मनसुआ पर पानी फेर देलक । अंक तीन से फेन चढ़ाय शुरू ।)    (सारथी॰10:16:12:2.3)
258    मनीजर (= मैनेजर) (दलालन के चानिए चानी हे चाहे ऊ मंदिर के महंथ रहथि या आश्रम के मनीजर ।)    (सारथी॰10:16:39:2.3)
259    मन्तराल (दिल-दिमाग ~) (हम भीतर जाके बेग खोललिअइ आउ जेतना भी रेजकी-रुपइया हलइ, सब निकाल के जाके रेनू के हाथ में रख देलिअइ । कखनी गेलिअइ, कखनी अइलिअइ - हमरा पता नय चललइ । लग रहल हल कि दिल-दिमाग मन्तराल हे । रेनू गिनलक आउ कहलक - "एते काहे ले देहीं ?")    (सारथी॰10:16:23:3.13)
260    मलवा (फुलिया ढीबरा के चुप करइ लेल ढेर चुचकार-पुचकार कइलक, मुदा फरिस्ता बुतरु के तो पेट भरे के बादे दुलार सूझत । अजियाके उ एगो धंधरन में जुट गेल ... । एगो मलवा में दू-चार ठेपी पानी अंगुरी सहे भर सिलगरम कइलक । ओकरे में अपन छाती के दूध गारे लगल ।)    (सारथी॰10:16:12:3.11)
261    महरानी थान (= देवीथान, देवीथन) (समुल्ले गाम में हंगामा । केकरो हाथ-गोड़ बान्ह के मूड़ी छोपल जा रहल हे, जइसे मार-काट दिन महरानी थान में पाठा के बलि पड़ऽ हे । केकरो पेट फट्टल हे, केकरो गोड़ कट्टल हे । लहास के ढेरी ।)    (सारथी॰10:16:6:2.9)
262    महीनवारी (= मासिक वेतन, दरमाहा; स्त्रियों का मासिक ऋतुधर्म) (भीतर से भर चुरू करुआ तेल लाके ढीबरा के माथा में चपोड़इत चलित्तर सिंह के कनिआय कहलन - नाया बुतरू के तेल नञ देवे से चूहा-पेंचा भर जाहे । चलित्तर सिंह भी एगो दसटकिया ढीबरा के माथा से ओबारके फुलिया के खोइँछा में रख देलन । फुलिया गद्गद् । मालिक-मलकीनी के नेह महीनवारी से भी जादे खुशी दे हे ।)    (सारथी॰10:16:12:3.42)
263    मानता (= मन्नत) (सुरजाहूँ सेनुरहार के महातम सबसे बढ़के हे । रोग-संकट आउ विपत में सुरुज के हँकार पड़ऽ हइ, मानता मानल जा हइ आउ मनसा पूरला पर एतवार के दिन सहके, छठ के परना दिन घाट पर परवइती सभे के सेनुर देवल जा हइ । ई सेनुरहार से सुरूज आउ सब देवता परसन्न होवऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.7)
264    मार-काट (समुल्ले गाम में हंगामा । केकरो हाथ-गोड़ बान्ह के मूड़ी छोपल जा रहल हे, जइसे मार-काट दिन महरानी थान में पाठा के बलि पड़ऽ हे । केकरो पेट फट्टल हे, केकरो गोड़ कट्टल हे । लहास के ढेरी ।)    (सारथी॰10:16:6:2.9)
265    मालिक-मलकीनी (भीतर से भर चुरू करुआ तेल लाके ढीबरा के माथा में चपोड़इत चलित्तर सिंह के कनिआय कहलन - नाया बुतरू के तेल नञ देवे से चूहा-पेंचा भर जाहे । चलित्तर सिंह भी एगो दसटकिया ढीबरा के माथा से ओबारके फुलिया के खोइँछा में रख देलन । फुलिया गद्गद् । मालिक-मलकीनी के नेह महीनवारी से भी जादे खुशी दे हे ।)    (सारथी॰10:16:12:3.41)
266    मोरल (= मोड़ल) (हाले आल हल गरमी के छुट्टी में उजरका डिड़ारी वला लाल-लाल टी-शर्ट आउ जाँघ से लगायत घुट्ठी तक कसल जीन्स पेन्ह के । मोहरी दू-तीन तुरी मोरल, तभियो जमीन लोटे ।)    (सारथी॰10:16:13:3.18)
267    मोहरी (= पैंट, पायजामे का वह भाग जिसमें पैर रहते हैं) (हाले आल हल गरमी के छुट्टी में उजरका डिड़ारी वला लाल-लाल टी-शर्ट आउ जाँघ से लगायत घुट्ठी तक कसल जीन्स पेन्ह के । मोहरी दू-तीन तुरी मोरल, तभियो जमीन लोटे ।)    (सारथी॰10:16:13:3.18)
268    रखाना ("जी मालिक !" कहके ढीबरा फुर्र से बाहर । अब तो ओकर पैर जमीन पर नञ रखाय । जने देखे, जीतना के जीन्से पैंट जनाय ।)    (सारथी॰10:16:13:3.32)
269    रासा (फुलिया के मड़ुकी में जलइत ढिबरी अन्हरिया के साथ कबड्डी खेल रहल हल । दरवाजा पर लगल ठठरी से कनकनी चोर नियर घुसके हाजिर। ससुरा ढिबरी के रासा भी जने अदमी देखे ओनय नाक के निशाना बनइले ।)    (सारथी॰10:16:12:2.22)
270    रेजकी-रुपइया (हम भीतर जाके बेग खोललिअइ आउ जेतना भी रेजकी-रुपइया हलइ, सब निकाल के जाके रेनू के हाथ में रख देलिअइ । कखनी गेलिअइ, कखनी अइलिअइ - हमरा पता नय चललइ । लग रहल हल कि दिल-दिमाग मन्तराल हे । रेनू गिनलक आउ कहलक - "एते काहे ले देहीं ?")    (सारथी॰10:16:23:3.9)
271    रोखसत (= रुखसत) (जब जिन्दा में ऊ केकरो से भीख नय माँगलक तऽ मरे पर ई भीख के संस्कार के कलंक ढोले ई दुनिया से रोखसत काहे होत हल । रेनू कहिये रहलइ हल - "किरिया-करम करे ले पतरकी गया गेलइ हल बकि सराध के काम सुरू नय कइलकइ । टाटियो नय बन्हलकइ ।")    (सारथी॰10:16:24:3.41)
272    रोजे (= रोज-रोज, रोज ही) (सगर दिन के खेत-पथार के काम-काज से थक्कल-मांदल फुलेसरी के पिपनी पर लगऽ हे कि केतना भारी बोझा रखल हे । कउआ डके से पहिलइँ फुलेसरी रोजे उठ जाहे, हाथ में बढ़नी आउ चउका-बासन करिके सुरजू के खिला-पिला के चलि देहे खेत-खंधा ।)    (सारथी॰10:16:4:2.7)
273    रोबाय (मगर फुलिया के कान में ओहे आवाज - दूध नञ पानी ... ! ढीबरा के हँसी आउ रोबाय बउअइनी नञ हे, इ हे उहे दूध में पानी आउ पानी में दूध के हिसाब ! इ निमुहियाँ धन अप्पन बात हँसिए-कान के ने कहत।; कहाँ चल गेलइ सब ? अभी तो रोवा-कानी मचल हलइ । तखनय धरमेन्दरा आ रहल हल । पुछला पर ऊ बड़ी निठुर मन से कहलक - "देवीथान के पिपरा तर हइ ।" अब तो सभे सक-संदेह हमर मन से धोवा गेल । अम्मोढेकार रोबाय फूटे लगल ।)    (सारथी॰10:16:13:1.30, 24:1.16)
274    रोवा-कानी (कहाँ चल गेलइ सब ? अभी तो रोवा-कानी मचल हलइ । तखनय धरमेन्दरा आ रहल हल । पुछला पर ऊ बड़ी निठुर मन से कहलक - "देवीथान के पिपरा तर हइ ।" अब तो सभे सक-संदेह हमर मन से धोवा गेल । अम्मोढेकार रोबाय फूटे लगल ।)    (सारथी॰10:16:24:1.12)
275    लउडिस्पिकर (= लाउड-स्पीकर, loud-speaker) (हुजूम के हुजूम अदमी, औरत, मरद, बुतरू आ रहल, जा रहल, देह से देह छिला रहल । अदमियन के शोर, लउडिस्पिकर के अनोर । कुच्छू कहे ल एतना जोर देवऽ पड़इ कि गियारी झनझना जाय ।)    (सारथी॰10:16:22:2.10)
276    लटखुट (छोटगर गो झोपड़ी, जेकर एक कोन में अलमुनियाँ के थारी, लोटा, लटखुट बरतन । आधा भित्तर घेरि के पोआर बिछल हे । तनिक्के गो दुआरी । दुआरी में बोरा के चट वाला परदा ।)    (सारथी॰10:16:4:2.24)
277    लड़ुआ (छठ-एतवार में तऽ परवइती सूप-डलिया के भी सेनुर से पूजऽ हथ । नारियर, लड़ुआ, मुरय, केतारी, अरघउता, पूजा के लोटा सब में भी सेनुर लागावल जा हे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.3)
278    लपेसना (= लपेटना, हौंसना, लगाना) (हनुमान जी सीता मइया के सेनुर लगइते देखके पुछलका, "हे मइया, रोज-रोज माथा में तूँ ई काहे लगावऽ ह ?" मइया के जवाब हल, "एकरा में भगवान राम जी के वास हे ।" वानर के बुद्धि, हनुमान जी अपन सौंसे देह में लपेस लेलका । सूखल सेनुर देह में न सटल तऽ चमेली के तेल आउ सेनुर फेंटके अउँस लेलका ।)    (सारथी॰10:16:16:1.16)
279    ललका ( जखने सुरजा फुलेसरी के पियार से लाछो कहिके बोलावऽ हल, फुलेसरी लाज से दोहरा जा हल । ओकर सामर मुँह पर ललका रंग चढ़ जा हल अनु धत् कहिके एगो कोना में घुकुर जा हल । सुरजा के तऽ हालते खराब तखने ।)    (सारथी॰10:16:4:3.21)
280    ललकोरी (दे॰ लरकोरी) (बिसतौरी पुरल पनरहियाँ हो गेल । ललकोरी फुलिया के देह तनी फुरफुरायल, परसौती गमक भी खतम । गाहे-बगाहे दूध के लोहरैनी आउ भीतर से कुछ रिसइत लस-लस, फस-फस अभियो डेउढ़ी में जाय से रोक रहल हल, मुदा पेट माने तब ने ।)    (सारथी॰10:16:12:3.24)
281    लस-लस (बिसतौरी पुरल पनरहियाँ हो गेल । ललकोरी फुलिया के देह तनी फुरफुरायल, परसौती गमक भी खतम । गाहे-बगाहे दूध के लोहरैनी आउ भीतर से कुछ रिसइत लस-लस, फस-फस अभियो डेउढ़ी में जाय से रोक रहल हल, मुदा पेट माने तब ने ।)    (सारथी॰10:16:12:3.27)
282    लहर (= जलन, दरद) (माथा से खून रिस रहल हल । लहर भी ओतने, मगर ढीबरा के तो जइसे आझ माय-बाप मरल हल । हाथ-मुँह काठ । ऊ अप्पन तरहत्थी से माथा सिसोहके देखे लगल । ओहे खून, चट-चट ... लेटाल चूल अइना में देखलक ।)    (सारथी॰10:16:15:1.23)
283    लादा (= लेदा) (ओन्ने रेकइत ढीबरा के मुँह में फेफरी । चम्मच से दूधवला पानी ढीबरा के मुँह में घुटूस । रस-रस ओकर लादा चिकना गेल ।)    (सारथी॰10:16:12:3.20)
284    लेटाल (= लेटल; कीचड़, खून आदि से भरा) (माथा से खून रिस रहल हल । लहर भी ओतने, मगर ढीबरा के तो जइसे आझ माय-बाप मरल हल । हाथ-मुँह काठ । ऊ अप्पन तरहत्थी से माथा सिसोहके देखे लगल । ओहे खून, चट-चट ... लेटाल चूल अइना में देखलक ।)    (सारथी॰10:16:15:1.27)
285    लोहरैनी (बिसतौरी पुरल पनरहियाँ हो गेल । ललकोरी फुलिया के देह तनी फुरफुरायल, परसौती गमक भी खतम । गाहे-बगाहे दूध के लोहरैनी आउ भीतर से कुछ रिसइत लस-लस, फस-फस अभियो डेउढ़ी में जाय से रोक रहल हल, मुदा पेट माने तब ने ।)    (सारथी॰10:16:12:3.26)
286    वंसरोपन (मड़वा छौनी के बाद कलसा थापल गेल । वंसरोपन भेल आउ शुरू भे गेल घीढ़ारी के विधान । दीया, ढकनी, कपटी, चुकड़ी, कुम्हारिन पहुँचा गेल हल ।)    (सारथी॰10:16:18:3.32)
287    विध (= विधि) (बियाह घड़ी बेटी के जोग बगइया में मंगा हे । तखने कनियाँ से आम, बर, पीपर के सेनुर लगाके पुजावल जाहे । ईहे घड़ी एगो विध दलधोय आउ पनकट्टी होवऽ हे । एकरा में लड़की कुइयाँ के सेनुर लगाके पूजऽ हे । अइसनका कुइयाँ बियाहल मानल जाहे । एकर जल पवित्तर होवऽ हे ।)    (सारथी॰10:16:16:2.21)
288    शालिस ('शालिस' इनकर मई 2006 में प्रकाशित उपन्यास हे । 'शालिस' सिरनामा सुनके अचक्के कुछ अनभुआर जइसन लगऽ हे, जेकर भान लेखक के भी हल । ऊ आवरण पृष्ठ 2 पर शुरुए में ओकर मतलब बता देलन हे । शालिस जमीन्दारी प्रथा के शब्द हलइ आउ ओकरे साथ ई शब्दो उपह गेल हल । भावली जमीन, जे अधबटैया होवऽ हल, के दाना कुतइ वला करिन्दा शालिस कहा हल ।)    (सारथी॰10:16:38:1.30, 31, 33, 35)
289    संझौकी (खैर, जीतन भैया तो साथे हथ, उनखरे नाप से तो हमरो कपड़ा किना जात । ऊ देहरी पर बैठके इन्तजार करे लगल ... एक पहर ... दू पहर ... तीन पहर ... साँझ हो गेल । ससुरा ई बजार हे कि चम्मुक, जे जाय ओकरे साट ले । संझौकी के गाड़ी दुआरी लगल । डिक्की समान से ठसकल ।)    (सारथी॰10:16:14:2.4)
290    सपनाना (= सपना देखना) (ऊ ओसरा में सुतल ढीबरा के चेहरा देखे लगल । बउआ हँस रहल हल । फेन तुरते काने लगल । फेन तुरते चुप ! सायत सपना रहल हे ... भगवान छर रहलथिन हे । तोर मइया मर गेलउ, तब काने लगे । तोर बाप मर गेलउ, तब हँसे लगल ।)    (सारथी॰10:16:13:1.26)
291    सफाचट (ऊ पाकिट से पाँच के सिक्का निकाल के नउआ के तरहत्थी पर रख देलक । नउआ के तो तरवा के धूर कपार - "अरे ! हमरा कि जजमानी नउआ समझ लेलँऽ हें ! शारूख कट के इहाँ दस रुपइया लगऽ हे । पाँच रुपइया में तो माथा घोटा हे, एकदम सफाचट ... ।" ढीबरा हड़बड़ा गेल ।)    (सारथी॰10:16:15:1.2)
292    सरेजाम (फुलिया चलित्तर सिंह के डेउढ़ी में जाके मालिक से आरजू कइलक, "मालिक, अब ढीबरा सेयान होल जाहे । इ तोहरे डेउढ़ी में पोसाल । एकर पेट हमरा से कैसे चलत ? एकर खाना-खोराकी के सरेजाम हो जात हल, तब हम निफिकिर हो जयतूँ हल । बदले में डेउढ़ी के छोट-बड़ काम करते रहत ।")    (सारथी॰10:16:13:2.4)
293    सहना (= किसी व्रत हेतु उपवास रखना) (सुरजाहूँ सेनुरहार के महातम सबसे बढ़के हे । रोग-संकट आउ विपत में सुरुज के हँकार पड़ऽ हइ, मानता मानल जा हइ आउ मनसा पूरला पर एतवार के दिन सहके, छठ के परना दिन घाट पर परवइती सभे के सेनुर देवल जा हइ । ई सेनुरहार से सुरूज आउ सब देवता परसन्न होवऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.8)
294    सामर (= साँवर, साँवला) (जखने सुरजा फुलेसरी के पियार से लाछो कहिके बोलावऽ हल, फुलेसरी लाज से दोहरा जा हल । ओकर सामर मुँह पर ललका रंग चढ़ जा हल अनु धत् कहिके एगो कोना में घुकुर जा हल । सुरजा के तऽ हालते खराब तखने ।)    (सारथी॰10:16:4:3.21)
295    साहित (= साहित्य) (आधुनिक मगही साहित के आरम्भ काव्य युग के रूप में रहल हे । समृद्ध साहित्य के कसौटी गद्य होवऽ हे । सारथी ई सूत्र मंत्र-सन अपनाके अपन ध्यान गद्य दने केन्द्रित कइलन ।)    (सारथी॰10:16:2:1.10)
296    सिंधौरा (= सिंधोरा, कीया, सेनुरदानी) (सेनुर रखे वला बरतन के सेनुरदानी, कीया, सिंधौरा आदि कहल जाहे । ई अपन-अपन औकात पर निर्भर करऽ हे । ई सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, लाख, सीसा आदि के हो सकऽ हे मुदा बियाह के डाला पर काठ के सिंधौरा अपन अलगे महत रखऽ हे । ई सिंधौरा तीज में देवता नियन पुजा हे । एकरा ललका कपड़ा में लपेट के रखल जाहे ।)    (सारथी॰10:16:17:1.34, 37)
297    सिनुरिया (सेनुर बेचेवला के सिनुरिया कहल जाहे । कहियो-कहियो ई सिनुरिया के अर्थ विस्तार होला से अलगे अर्थ हो जाहे । ई गीत में दुलहा के सिनुरिया कहल गेल हे - "कहाँ से सिनुरिया सिनुरा बेचे अइलइ हे । कहाँ के धीया सुनरी सेनुरा बेसाहइ हे ॥")    (सारथी॰10:16:17:1.39, 40, 42)
298    सिरहटी (= एक मोटा धान जो क्वार में तैयार हो जाता है; दे॰ सिरहंटी) (बसमतिया आउ सिरहटिया के तनाव सहे ल आखिर तन-मन में कुछ तो जान चाही बाकि इहाँ तो तन खखरी आउ मन भुस्सा भेल हे जेकरा से पराने अदमदाल हे आउ देह में उखबिखी लगल हे ।)    (सारथी॰10:16:40:2.21)
299    सिलगरम (दे॰ सिरगरम) (फुलिया ढीबरा के चुप करइ लेल ढेर चुचकार-पुचकार कइलक, मुदा फरिस्ता बुतरु के तो पेट भरे के बादे दुलार सूझत । अजियाके उ एगो धंधरन में जुट गेल ... । एगो मलवा में दू-चार ठेपी पानी अंगुरी सहे भर सिलगरम कइलक । ओकरे में अपन छाती के दूध गारे लगल ।)    (सारथी॰10:16:12:3.12)
300    सिसोहना (= फसल के बाल को तलहथी में पकड़कर अनाज निकालना, निचोड़ना) (जानय केतना तुरी कौन-कौन साँप के कोर बनत, सीढ़ी नसीबो होत कि नञ । मन के भीतरी उत्साह ललकारे लगल ... वीर तुम बढ़े चलो ... । उ दुन्हूँ तरहत्थी से माथा सिसोह के सामने पसार देलक ... । कराग्रे वसति लक्ष्मी ... । मुदा सौंसे तरहथी कटल-छँटल चूल से लेटाल, लोहू से चट-चट । लग रहल हल कोय पखेरू के पाँख चाम समेत ओदार के आल हे ।; माथा से खून रिस रहल हल । लहर भी ओतने, मगर ढीबरा के तो जइसे आझ माय-बाप मरल हल । हाथ-मुँह काठ । ऊ अप्पन तरहत्थी से माथा सिसोहके देखे लगल । ओहे खून, चट-चट ... लेटाल चूल अइना में देखलक ।)    (सारथी॰10:16:12:2.8, 15:1.26)
301    सुरजाहूँ (~ सेनुरहार) (सुरजाहूँ सेनुरहार के महातम सबसे बढ़के हे । रोग-संकट आउ विपत में सुरुज के हँकार पड़ऽ हइ, मानता मानल जा हइ आउ मनसा पूरला पर एतवार के दिन सहके, छठ के परना दिन घाट पर परवइती सभे के सेनुर देवल जा हइ । ई सेनुरहार से सुरूज आउ सब देवता परसन्न होवऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.5)
302    सेनुरदानी (सेनुर रखे वला बरतन के सेनुरदानी, कीया, सिंधौरा आदि कहल जाहे । ई अपन-अपन औकात पर निर्भर करऽ हे । ई सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, लाख, सीसा आदि के हो सकऽ हे मुदा बियाह के डाला पर काठ के सिंधौरा अपन अलगे महत रखऽ हे । ई सिंधौरा तीज में देवता नियन पुजा हे । एकरा ललका कपड़ा में लपेट के रखल जाहे ।)    (सारथी॰10:16:17:1.34)
303    सेनुरहार (सुरजाहूँ सेनुरहार के महातम सबसे बढ़के हे । रोग-संकट आउ विपत में सुरुज के हँकार पड़ऽ हइ, मानता मानल जा हइ आउ मनसा पूरला पर एतवार के दिन सहके, छठ के परना दिन घाट पर परवइती सभे के सेनुर देवल जा हइ । ई सेनुरहार से सुरूज आउ सब देवता परसन्न होवऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.5, 9)
304    सेहो (= ऊहो; वह भी, वे भी) ( चुऽ ... चुऽ ... चुऽ ... बाबू हमर गे ... पेट नञ भरलो ! पेट भरतइ कि खाक ! सोंठ के हलुआ ममोसरो नञ ... ! मसुरी के दाल पर अनेसा, सेहो छठियारिए तक डभकल । ड्योढ़ी के जुठा-कुठा तो ड्योढ़ी पर जाय के बादे ममोसर होत ।; बिसुनपुर के तिरलोकी बाबू इलाका के नामी-गिरामी किसान हला । गंडा गाम जमींदारी, सेहो हल । तिरलोकी बाबू अप्पन एकलौती बेटी के बिआह अपने जइसन परिवार में तय कइलन । अप्पन औकात से तिलक, सेहो देलका ।; तिरलोकी बाबू के बेटी के बिआह के लगन तय भे गेल । पुरोहित, हजाम आउ पौनियाँ के काम बढ़ गेल । नौकर-चाकर, गाम के गोतिया-भाय, सेहो जुटि गेल ।)    (सारथी॰10:16:12:3.5, 18:2.11, 13, 3.1)
305    सोगाही (बियाह के पहिलइँ गोबिन के आदत बिगड़ि गेल हल - ताड़ी, दारू आउ जूआ । करमी पासिन के घर में अड्डा बनल हल । करमी के चाल-चलन से गाम के सब मेहरारू के तरवा के धूर कपार पर चढ़ जा हल, "ई सोगाही, सतभतरी, नञ् जानूँ कय गो के घर उजाड़तइ ।")    (सारथी॰10:16:5:2.5)
306    सोथान (मारके ~ करना) (कतनउँ दारू पीयऽ हलइ, कतनउँ ओकरा मारके सोथान करि दे हलइ, मुदा हलइ तऽ ओकर मरदे ने ? ओकरे नाम के ऊ अपन मांग में सेनुर करऽ हल ।)    (सारथी॰10:16:6:1.15)
307    सोरा (छोटगर गो झोपड़ी, जेकर एक कोन में अलमुनियाँ के थारी, लोटा, लटखुट बरतन । आधा भित्तर घेरि के पोआर बिछल हे । तनिक्के गो दुआरी । दुआरी में बोरा के चट वाला परदा । दुआरी एत्तक छोट कि अदमी भले ओकरा में मोसकिल से घुस पावे, मुदा ई पूस के कनकनाल सोरा में घोराल बेयार ? एकरा के रोके ? घुस जइतो दिनियाल खड़े-खड़े आउ लगतो जाके हाड़े में ।)    (सारथी॰10:16:4:2.28)
308    सौरी (= प्रसूतिगृह) (फुलिया अभी परसौती हे आउ मड़ुकी सौरी, जहाँ बिहने ढीबरा के ढोढ़ी टुटके गिरल हे । पनरह दिन के ढीबरा के छाती से लगैले फुलिया दिन गिन रहल हल ... । मंगल मंगल आठ, घुर मंगल पनरह, बिसतौरी पुरे में अभी पाँच दिन बाकी ।)    (सारथी॰10:16:12:2.24)
309    हँकार (सुरजाहूँ सेनुरहार के महातम सबसे बढ़के हे । रोग-संकट आउ विपत में सुरुज के हँकार पड़ऽ हइ, मानता मानल जा हइ आउ मनसा पूरला पर एतवार के दिन सहके, छठ के परना दिन घाट पर परवइती सभे के सेनुर देवल जा हइ । ई सेनुरहार से सुरूज आउ सब देवता परसन्न होवऽ हथ ।)    (सारथी॰10:16:16:2.6)
310    हँसोतना ("ए माय, सुनहीं ने ।" करखुआ फेन टुभकल । - "बोल ने बेटा  !" माय पीठ हँसोतइत पुछलक । - "बिहरिया के पक्का घर बनतइ ।" करखुआ बोलल । - "तऽ हम की करिअइ ?" - "अप्पन नञ् बनतइ ?")    (सारथी॰10:16:4:3.43)
311    हनोक (= तलक) (घी पकवान पर से ढरकि के भुइयाँ में गीरऽ हे । बरबादे न हो जाहे । आझ हनोक कहियो एक्को तोला घी लयलऽ ? जजमान के देखाके नयँ त अँखियो बचाके लइतऽ हल ।)    (सारथी॰10:16:18:3.17)
312    हम्हड़ना (कते बरस बीत गेल । समय के धूरी-गरदा मलीन भी करइ ल चाहऽ हे ओकरा बकि रहि-रहि के हूक उठिये जाहे आउ हम्हड़ उठऽ हे हिया । पचासन दफा दिन भर में चेहरा धोवऽ ही - ई लाइलाज रोग बनके मन में चिपक गेल हे ।)    (सारथी॰10:16:25:1.16)
313    हलराना (गोबिन के सम्हारते-सम्हारते बिहरिया जनम गेल हल । सुलोचनी के सुक्खल छाती में दूध कहाँ ? सुक्खल चिलका खाली हलरइला से मानलक हे कहइँ ! अप्पन लचारी पर सुलोचनी के आँख से नोनगर पानी टपकि जा हल, जेकरा चाट-चाट के बिहरिया भी चुप भे जा हल । ढहइत हालत नासमझ अबोध के भी जल्दी लुरगर बना दे हे ।)    (सारथी॰10:16:5:2.30)
314    हियाना ("अगे माय ! माय गे !" अधछोछर नीन में अलसाल, अँचरा से झँपाल करखू रह-रहके अपन माय के डाँढ़ी हियावऽ लगल ।)    (सारथी॰10:16:4:2.3)
315    हिसका (= आदत, अभ्यास) (अब तऽ रस-रस ओकरा हिसका पड़ि गेल हल । अपन देह के गंजन करावे से बढ़ियाँ हे एगो दसटकिया कइसूँ गोबिन के थमा देवे के ।)    (सारथी॰10:16:5:2.25)
 

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