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Thursday, August 17, 2006

मगही साहित्य का संक्षिप्त इतिहास

मगही साहित्य का काल विभाग निम्न प्रकार है --
1. आदि काल (सिद्धकाल - ८ वीं से १२ वीं शती)
2. मध्य काल (लोकसाहित्य काल - १३ वीं से १८ वीं शती)
3. आधुनिक काल
१. प्रथम चरण -- अन्वेषण-सर्वेक्षण काल (१८०१-१९०० ई०)
२. द्वितीय चरण -- जागरण काल (१९०१-१९४५ ई०)
३. तृतीय चरण -- विकास काल (१९४५-१९७३ ई०)
डॉ० श्रीकान्त शास्त्री काल (८ फरवरी १९२३ - २९ जून १९७३)
४. चतुर्थ चरण -- समृद्धि काल (१९७४ से अब तक)
डॉ० राम प्रसाद सिंह काल (१० जुलाई १९३३ - ...)

मध्य काल (लोकसाहित्य काल - १३ वीं से १८ वीं शती)
सन्त धरमदास
- ये कबीर (15 वीं - 16 वीं शती) के समकालीन कहे जाते हैं जो मगध क्षेत्र में कबीर के साथ भ्रमण करने आए थे । यहाँ रहकर उन्होंने यहाँ की मगही बोली में रचनाएँ की थीं । उनकी रचनाएँ यदा-कदा साधुओं के बीच सुनी जाती है । धरमदास की एक रचना "धरमदास शब्दावली" बेल ग्रेडियर प्रेस, प्रयाग से 1923 में प्रकाशित हुई थी ।

रामसनेही दास - 18 वीं शती के अन्तिम चरण के मगही सन्त डॉ० राम प्रसाद सिंह के पूर्व पुरुष थे जिनका जन्म औरंगाबाद के भरकुंडा नामक ग्राम में हुआ था । इनके पद औरंगाबाद जिले के उत्तरी-पश्चिमी भागों में सुने जाते हैं ।

अन्वेषण-सर्वेक्षण काल (1801-1900 ई०)

1. सर्वप्रथम 1807 में अन्वेषण हेतु भारत आए Francis Buchanan ने बिहार और उड़ीसा सम्बन्धी विवरण तैयार किया जो Bihar & Orissa Research Society, Patna (1811-1813) से कई खंडों में प्रकाशित हुआ । उन्होंने प्रथम बार गया-पटना से साक्षात्कार लेकर मगही के बारे में काफी सूचना दी ।

2. A Grammar of the Hindi Language (1872; Revised edition 1893; 1938) – by Rev. S H Kellogg. Reprint: Asian Educational Services, New Delhi/ Madras., 1989; xxxiv+584 pp.  इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ में 14 हिन्दी की बोलियों के शब्दरूपों और धातुओं का वर्णन है । इस ग्रंथ में बिहारी बोलियों - मगही, मैथिली और भोजपुरी का भी विवरण है ।

3. Seven Grammars of the dialects and subdialects of the Bihari Language; Part III (1883) - Magadhi Dialect of South Patna and Gaya; by Sir George Abraham Grierson. Reprint: Bhartiya Publishing House, Varanasi/ Delhi, 1980.

4. Bihar Peasant Life (1885) -- by Dr Abraham Grierson. इसमें मगही कृषक शब्दावली भी है ।

इस पुस्तक को इंटरनेट पर से डाउनलोड किया जा सकता है -

5. A Comparative Dictionary of the Bihari Language (1885) -- by Hoernle, A. F. Rudolf (August Friedrich Rudolf), 1841-1918; Grierson, George Abraham, Sir, 1851-1941, joint author. इस कोश में मगही, मैथिली, भोजपुरी शब्दों का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत है ।

इस पुस्तक को इंटरनेट पर से डाउनलोड किया जा सकता है -

कमलेश जी (जन्म 1844 ई०) - मगध के कवियों में इनकी प्रामाणिक जानकारी मिलती है । इनका जन्म जहानाबाद के बेलखरा ग्राम में हुआ था । भारतेन्दुसखा कमलेश जी कृष्णभक्त कवि थे । कविता कि गेयता के कारण वे आधुनिक जयदेव कहलाते हैं । इनकी प्रकाशित पुस्तक "कमलेश विलास" में लोकधुन पर आधारित अनेक गीतियाँ संगृहीत हैं । इनकी ब्रजभाषा और मगही की रचनाएँ भी चारणों और भाटों के द्वारा सुनी जाती हैं ।

जनहरिनाथ (जन्म 1843 ई०) - जागरण काल के चर्चित कवियों में से एक । इनका जन्म जहानाबाद के पाठक बिगहा ग्राम में हुआ था । इनके गीत मगध की स्त्रियाँ बड़े प्रेम से गाती हैं । इनकी रचनाएँ "ललित भागवत" और "ललित रामायण" 1893 में प्रकाशित हुई थीं ।

जवाहिर लाल (1851-1895) - औरंगाबाद के दाउदनगर निवासी, भारतेन्दु कालीन कवि जवाहिर लाल ने प्रथमतः "मगही रामायण" की रचना की ।

जागरण काल (1901-1945)
 

महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री (1923): "Magadhan Literature” (Being a Course of Six Lectures delivered at Patna University,  Patna in December 1920 and April 1921); Published by Patna University, Patna; Printed at Upendra Nath Bhattacharyya, HARE PRESS: 46, Bechu Chatterjee Street, Calcutta. MM Hara-Prasad Sastri (6 December 1853 – 17 November 1931), M.A., C.I.E., was Professor of Sanskrit, Dacca University, during 1921-1924.

इस पुस्तक को इंटरनेट पर से डाउनलोड किया जा सकता है -

A. Banerjee Shastri
(1932): "
Evolution of Magahi", Calcutta.


जगन्नाथ प्रसाद 'किंकर' - औरंगाबाद, देव के राजा । इनका मगही गीत संग्रह 1934 में प्रकाशित हुआ था ।

कपिल देव त्रिवेदी 'देव' की पुस्तक 'मगही सनेस', 'मगही मुकुट' का प्रकाशन भी इसी काल का है ।

मुनक्का कुँअर नाम की कवयित्री, जन्म ग्राम - मछुआ (पाली), जिला पटना में । इनके भजन पाली के इर्द-गिर्द में प्रचलित मिलते हैं । आपकी रचना 'मुनक्का कुँअर भजनावली' नाम से 1934 में यूनिवर्सिटी प्रेस, बाँकीपुर से मुद्रित हुई थी ।

कृष्णदेव प्रसाद (22 जून 1892 - 15 नवम्बर 1955) - पटना जिला के कमंगर गली में आषाढ़ कृष्ण पक्ष त्रयोदशी बुधवार को । संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेज़ी, मगही, उर्दू-फ़ारसी के प्रकांड पंडित । अपनी जिन्दगी का दो हिस्सा इन्होंने मगही की सेवा में अर्पित किया । स्वयं भी लिखा और प्रेरणा देकर दूसरों से भी लिखाया । स्व० बाबू जयनाथ पति जी, श्री वैद्यनाथ बाबू और गया के दो-तीन सज्जनों के साथ जैसे इनकी टोली बन गई और सबने मगही में खूब काम किया ।

श्रीधर प्रसाद शर्मा (1898-1973) - जन्म पटना जिला के राघोपुर ग्राम में । इस काल के चर्चित और सर्वाधिक तीन दर्जन रचना करनेवाले मगही कवियों में इनका नाम सर्वोपरि है । इनकी विस्तृत जीवनी और समस्त साहित्य का परिचय 'भोर' के जनवरी 1978 अंक में उपलब्ध है ।

जयनाथ पति (मगही के प्रथम उपन्यासकार) -- नवादा के मुख्तार जयनाथ पति का जन्म ग्राम - शादीपुर, पो० - कादरीगंज, जिला - नवादा; 19 वीं शती के अन्त में । सर्वप्रथम मगही में 'सुनीता' (1927) नामक उपन्यास प्रकाशित । इसकी समीक्षा सुनीति कुमार चटर्जी ने Modern Review के अप्रैल 1928 अंक में की । लेखक का दूसरा उपन्यास 'फूल बहादुर' (अप्रैल 1928; द्वितीय संस्करण अप्रैल 1974) प्रकाशित हुआ जिसके मुखबंध में वर्णित तथ्य से पता चलता है कि 'सुनीता' की रचना और मुद्रण बड़ी जल्दी में किया गया है । "परसाल बंगला के उत्पत्ति और विकास में मासूक के लिक्खा धिक्कार पढ़ला से हम ठान लेलूं के नुकल रहला से अब बने के नै, छौ-पाँच करते-करते बेकाम कैले खतम हो जाय के हे । एहे से तीन चार दिन में 'सुनीता' लिख के छापाखाना में भेजल गेल और एतना जल्दी में ऊ छपल के पूरा तरीका से ओकर प्रूफ भी नै ठीक कैल जा सकल ।" डॉ० रामनन्दन के अनुसार इसका नामकरण बंगला के विद्वान् और प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी के नाम पर किया गया है क्योंकि इसकी रचना लेखक ने उनके लेख से प्रभावित होकर किया था । इसकी मूल प्रति अब अनुपलब्ध है ।

'सुनीता' एक सामाजिक उपन्यास है जिसमें अनमेल विवाह में उत्पन्न समस्या को उजागर किया गया है । उपन्यास की नायिका सुनीता उच्च वर्गीय परिवार की कन्या है जिसका व्याह एक वृद्ध से हो जाता है । सामाजिक बन्धन को तोड़कर वह निम्न कुलोत्पन्न प्रेमी के साथ भाग जाती है । सुनीता के बिरादरी वाले कचहरी में मुकदमा दायर कर उसके प्रेमी को दंडित कराना चाहते हैं किन्तु वह अपने प्रेमी के पक्ष में दलील देकर उसे निर्दोष सिद्ध करते हुए सच्चा प्रेम का परिचय देती है ।

'फूल बहादुर' में हास्य व्यंग्य की प्रधानता है । मुख्तारी के अनुभव पर आधार पर रचित इस उपन्यास में तत्कालीन कचहरी एवं सरकारी अधिकारी में व्याप्त भ्रष्टाचार पर करारा प्रहार किया गया है । उपन्यास का नायक रामलाल बिहारशरीफ का मुख्तार है और राय बहादुर कहलाने के लिए बेचैन है । इसके लिए वह अधिकारियों की खुशामद करता है । नवागन्तुक अनुमंडलाधिकारी को सुरा-सुन्दरी उपलब्ध कराकर वह अपनी मनोकामना पूर्ण करना चाहता है किन्तु उसे सफलता नहीं मिलती । नगर के लोग उसकी व्यग्रता देखकर राय बहादुर बनाने का एक फर्जी आदेश उसके पास भेज कर उसे बेवकूफ बनाते हैं । रायबहादुर के बदले वह फूल बहादुर बन जाता है ।

इनका तीसरा उपन्यास 'गदहनीत' भी सामाजिक कुरूपता को उजागर करता है । इसकी प्रति अनुपलब्ध है ।

जयनाथ पति ने मगही उपन्यास का लेखन उस समय प्रारम्भ किया जब हिन्दी में प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद और उनके समकालीन अन्य लेखक उपन्यास लिख रहे थे । पाठक और प्रकाशन की समस्त सुविधाओं के कारण हिन्दी अपने वर्तमान स्वरूप तक विकसित हो सकी, किन्तु रुझान और संरक्षण के अभाव में मगही की वह परम्परा कायम नहीं रही । जयनाथ पति के पश्चात् बहुत दिनों तक मगही में उपन्यास नहीं लिखे गए । पुनः स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस ओर लोगों का ध्यान गया ।
उपन्यास
विकास काल (1945 - 1973)
बिसेसरा
(अक्टूबर 1962) -- राजेन्द्र कुमार यौधेय । सामाजिक उपन्यास । इसकी कथावस्तु मुसहरी से ली गई है । भोला के असफल विवाह से सोबरनी के प्रेम का स्रोत "सुक्खल ठन-ठन बिन पानी वाला मोरहर" के समान हो जाता है जो बाद में अपने प्रेमी बिसेसरा से सगाई के पश्चात् उमड़ते हुए मोरहर का रूप धारण कर लेता है । हिन्दी के आंचलिक उपन्यास "मैला आँचल", "परती परिकथा", "बलचनवाँ", "लोहे के पंख", "नदी बह चली" के समान प्रसिद्धि प्राप्त "बिसेसरा" को प्रो० कपिल देव सिंह के शब्दों में मगही में वही स्थान मिलना चाहिए जो हिन्दी में जैनेन्द्र कुमार के "सुनीता" को प्राप्त है ।

आदमी ऑ देवता (1965; 'बिहान' में जून 1960 से जनवरी 1964) -- डॉ० रामनन्दन । यह एक पौराणिक उपन्यास है जिसकी विषयवस्तु का चयन स्कन्दपुराण से किया गया है, किन्तु रचना आज के ठोस धरातल पर हुआ है । आदमी अपने कर्तव्य के बल पर किस तरह लक्ष्य के उत्तुंग शिखर पर पहुँच सकता है, यह इस उपन्यास में दर्शाया गया है । इसमें दिवोदास की कथा नये भारत के निर्माण में लगे जाग्रत जन की कथा है । इसकी रचना स्वतन्त्रता प्राप्ति और उसके पश्चात् भारत की भावी योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के दृष्टिकोण से किया गया है ।

रमरतिया (1968) -- बाबूलाल मधुकर । यह एक आंचलिक, सामाजिक और प्रगतिशील उपन्यास है जिसमें अति यथार्थवाद का चित्रण किया गया है । ग्रामीण जीवन की बाँकी झाँकी प्रस्तुत उपन्यास की कथावस्तु जमीन्दारी युग से जुड़ी हुई है । उपन्यास के नायक राधे और नायिका रमरतिया में सामाजिक परिवर्तन का भाव भरा है । परम्परागत रूढ़ि को तोड़कर अन्तरजातीय विवाह की समस्या और उसका समाधान उपन्यास का लक्ष्य है । इनका कदम नवजागरण का सूचक है । इस्लामपुर अंचल के ग्रामीण संस्कृति का चित्रण उसके सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, लैंगिक तथा राजनीतिक स्वरूप के अनुरूप करके मधुकर ने लारेंस की समाधान मूलक कला का अनुसरण किया है । इसी उपन्यास पर लेखक को डॉ० रामप्रसाद सिंह साहित्य "पुरस्कार" मिल चुका है ।

मोनामिम्मा (1969; नवम्बर 1967 से मार्च 1969 तक 'बिहान' में प्रकाशित) -- द्वारका प्रसाद । यह एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है । फ्रायड और युंग का प्रभाव इसमें दृष्टिगोचर होता है । दोनों नारी पात्र मोना और मिम्मा के नाम पर इस उपन्यास का नाम रखा गया है । व्यक्ति जिस स्थान पर सपना सजाता है, किसी के साथ सुख-दुख का क्षण व्यतीत करता है वहाँ बिछुड़न के बाद आने पर मन की दशा विचित्र हो जाती है । उपन्यास के प्रमुख पात्र मोना की ऐसी ही मनोदशा के साथ प्रारम्भ इस उपन्यास में कौतूहल, कामकुंठा, दमित इच्छा, प्रणयसुख, ईर्ष्या, विद्रोह का सजीव चित्र प्रस्तुत करते हुए उपन्यासकार ने मध्यवर्गीय मानव मन की प्रक्रिया और प्रतिक्रिया से लोगों को परिचित कराया है ।

गोदना (प्रकाशित जून 1978) -- मगही के प्रथम पुरोधा डॉ० श्रीकान्त शास्त्री (8 फरवरी 1923 – 29 जून 1973) का आंचलिक उपन्यास है । इसमें ग्रामीण वातावरण का साफ चित्र प्रस्तुत होता है । सफेदपोश व्यक्तियों के वर्ग चरित्र को उजागर करते हुए थाना, पुलिस, नेता शोहदा सबको बेनकाब किया गया है । गनउरी डाक्टर की सहायता में निहित स्वार्थ जहाँ आज के आदमी के दोहरे व्यक्तित्व का दिग्दर्शन कराता है, वहाँ राम सोहामन, बुढ़िया नर्स, शीला का चरित्र अंधकार में प्रकाश स्तम्भ के समान पथ प्रदर्शन करता है । एकंगरसराय के आस पास के आंचलिक परिवेश को चित्रित करते हुए राष्ट्र की निराशाजनक स्थिति, भोगवादी संस्कृति और सिद्धान्तहीन राजनीतिक गठबन्धन की ओर भी इस उपन्यास में इंगित किया गया है ।

मगही मासिक 'बिहान' जुलाई 1967 के पृष्ठ 13 पर प्रकाशित सूचना के अनुसार अगले माह से इस पत्रिका में इसे धारावाहिक रूप से छपना था किन्तु उनकी अस्वस्थता और मृत्यु के कारण ऐसा न हो सका । 'बिहान' के सम्पादक डॉ० रामनन्दन के प्रयास से इसका प्रकाशन 1978 में हुआ ।

साकल्य, सिद्धार्थ और हाय रे ऊ दिन -- चन्द्रशेखर शर्मा द्वारा रचित ये मगही उपन्यास भी चर्चा में हैं । अपने वातावरण से हजारी प्रसाद द्विवेदी और रांगेय राघव के उपन्यास का स्मरण दिलाते हैं । 'साकल्य' में महर्षि साकल्य के जीवन और तत्कालीन वातावरण का चित्रण किया गया है तो 'सिद्धार्थ' में बौद्ध संस्कृति का । 'हाय रे ऊ दिन' वैदिक संस्कृति और उसमें आई विकृति से पाठक को अवगत कराता है । उपन्यासों की रचना ऐतिहासिक और पौराणिक पृष्ठभूमि पर की गई है ।
समृद्धि काल (1974 से अब तक)

सँवली (1977) - शशिभूषण उपाध्याय । इस उपन्यास में एक साथ सामाजिक समस्या, राजनीति, प्रेम, जागरण और सरकार के द्वारा समाज कल्याण के लिए किए जा रहे कार्यों पर प्रकाश डाला गया है । पाठक के मन में गुदगुदी, ओठ पर मुस्कान और बिना तिलक, दहेज और जात-पात का ख्याल किए शादी-ब्याह के लिए रुझान उत्पन्न करने वाला यह एक चर्चित उपन्यास है । इसके पात्र जेठू पंडित और नारद आभिजात्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं तो बसंत, सँवली और चरितर प्रगतिशील युवा वर्ग का । इसमें रूढ़ि बन्धन को तोड़कर आत्मनिर्भर बनने का संदेश ध्वनित होता है ।

चुटकी भर सेनुर (फरवरी 1978) - सत्येन्द्र जमालपुरी । इस लघु सामाजिक उपन्यास में परम्परागत समाज का कोढ़ दहेज का रचनात्मक खंडन है । नेहालपुर गाँव के निवासी रामधनी की पुत्री है परेमनी, जिसकी सेवा और स्वभाव से प्रभावित हो जाता है नानीघर आया हुआ हिरू । तिलक देने में असमर्थ रामधनी एक विधुर से उसकी शादी निश्चित करता है, लेकिन स्वागत-सत्कार में कमी के कारण बारात वापस हो जाती है । इस कारुणिक बेला में हिम्मत करता है हिरू - "परेमनी के बोलावऽ, ओकर सादी अभिये होयत ।" चंपिया सिन्होरा लाती है और हिरू तिलक-दहेज के बिना उसकी माँग में चुटकी भर सेनुर देकर इस सामाजिक समस्या के समाधान हेतु युवकों को आगे आने का संदेश देता है ।

अछरंग (रचित 1980; धारावाहिक रूप से 'कसउटी' में प्रकाशित) - प्रो० रामनरेश प्रसाद वर्मा । इस उपन्यास की चर्चा विस्तृत रूप से डॉ० राजनन्दन प्रसाद राजन ने शोध प्रबन्ध में की है ।

बस एके राह (रचित 1983; प्रकाशित 1 मई 1988) - केदार 'अजेय' । शिक्षा, धर्म, राजनीति के क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों एवं उत्तरोत्तर गिरावट का चित्रण करते हुए जात-पात, रिश्वत, बलात्कार, साम्प्रदायिकता, अलगाववाद, सत्ता संघर्ष से युक्त समाज व्यवस्था में परिवर्तन का एक मात्र रास्ता 'क्रान्ति' है । इसलिए इस उपन्यास का 'बस एके राह' नाम सार्थक प्रतीत होता है ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् छिन्न-भिन्न अर्थव्यवस्था एवं राजनीतिक छलछद्म से उत्पन्न स्थिति पर आधारित इस उपन्यास की कथावस्तु सामयिक, प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण है । उपन्यास के नायक राजेश और नायिका कविता क्रान्ति के प्रतीक पात्र हैं । क्रान्तिदल के नेता के रूप में किया गया कार्य और जात-धर्म के रूढ़िगत प्रपंच से अलग हटकर उनका वैवाहिक बन्धन इसका प्रमाण है । उपन्यास का लक्ष्य 'अजेय' की निम्न पंक्तियों में अभिव्यक्त है - "महँगाई, बेकारी, भ्रष्टाचार, गरीबी अइसन सब सवाल जेकरा से वोकर घर के जीवन परभावित हे वोकरा मिटावे लेल जब सब मिलके संघर्ष करत तब जात-पात, धर्म, क्षेत्रीयता और भाषा के मतभेद भी अपने आप समाप्त हो जात ।" डॉ० दीनानाथ शरण के अनुसार यह उपन्यास यशपाल के 'दादा कामरेड' की याद दिलाता है ।

नरक सरग धरती ('मगही समाज' में अप्रैल 1987 से धारावाहिक रूप में; पुस्तक रूप में अक्टूबर 1992) - डॉ० राम प्रसाद सिंह (जन्म - 10 जुलाई 1933)। यह एक आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उपन्यास है जिसमें थॉमस हार्डी, मार्क ट्वेन, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, लुह सुंग, प्रेमचन्द और फणीश्वर नाथ रेणु की औपन्यासिक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं । अतः इसे आंचलिक उपन्यास कहा जाय या ग्रामीण, यह विवाद का विषय है, सुधी आलोचक के लिए विचारणीय है ।

दो भागों में विभक्त इस उपन्यास के बृहद् कलेवर में नानी से नाती तक तीन पीढ़ियों की मनःस्थिति तथा सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक परिवेश का चित्रण सुन्दर ढंग से किया गया है । प्रेम के रागात्मक रूप के साथ-साथ क्रान्ति के हिंसात्मक और रचनात्मक स्वरूप के दर्शन इसमें होते हैं । कहीं वर्तमान समाज में जाति व्यवस्था से उत्पन्न विकृति की झलक मिलती है तो कहीं सामाजिक सद्भाव और भाईचारा का । आजादी के पूर्व और पश्चात् तक ग्रामजीवन का मर्मस्पर्शी चित्र इस उपन्यास की खास विशेषता है । लेखक ने आत्मनिवेदन में ठीक ही लिखा है - "एकर पहिला भाग पुरान संस्कृति के छोटगर कोस हे तो दूसरका भाग बदलइत संस्कृति के संकेत ।"

इस उपन्यास की प्रमुख पात्र नानी है जिसकी कहानी से इसका आरम्भ होता है । संघर्षशील, स्पष्टवादी, त्यागी और परोपकारी इस नारी के चतुर्दिक् शेष सभी पात्र चक्कर काटते हैं । इसमें शोषण-उत्पीड़न के शिकार किसान की दयनीय दशा का चित्रण सूरज महतो के माध्यम से हुआ है । रूढ़िवाद के शिकंजा में जकड़े निम्न वर्गीय समाज में ओझाओं का वर्चस्व और प्रपंच का परिचय खदेरन के घर में लगने वाले दिवास से मिलता है, जहाँ राई और मिर्चाई की बुकनी आग में झोंककर औरों को उल्लू बनाते हुए अपना उल्लू सीधा किया जाता है । जन्म के आधार पर प्राप्त प्रतिष्ठा और धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड के पोषक परम्परावादी रमाधार मिसिर और जमींदार वर्मा के विचार और जीवन पद्धति में आया बदलाव परिवर्तन का सूचक है । काम-कुंठा से ग्रसित स्वछंद यौनसंबंध की ओर उन्मुख मिसिर-मिसिराइन; जीरवा, रग्घु, रोहन, जमुनी, तिलेसरी, बुधिया का चरित्र सामाजिक कुरूपता और कुसंस्कार को दर्शाता है तो रचनात्मक धरातल पर अंकुरित बेला और सुक्खू का स्नेह प्रणय और परिणय से अलग हटकर शाश्वत प्रेम का । नगीना-सुसमा का अन्तरजातीय विवाह और लोकसेवा के लिए समर्पण, रोझन रविदास का कर्मयोग और प्रतिनायक रग्घु का पश्चाताप लोकमन में नूतन आशा का संचार करता है ।

डॉ० राम प्रसाद सिंह के अन्य उपन्यासों में 'समस्या', 'बराबर के तरहटी में', 'सरद राजकुमारी' और 'मेधा' का नाम लिया जाता है । 'मेधा' धारावाहिक रूप से 'नवजीवन' साहित्य पत्रिका में प्रकाशित हुई । अप्राप्त 'समस्या' का जिक्र डॉ० स्वर्णकिरण ने कई जगहों पर किया है ।

धूमैल धोती (1995) - राम विलास 'रजकण' । लेखक के 'अप्पन बात' से पता चलता है कि उन्होंने अपने जीवन में जो देखा, सुना और भोगा है उसे ही रुचि, धारणा और बुद्धि के अनुसार इस उपन्यास में जगह दिया है । सच्चा साहित्य भी तो जीवन में देखा-सुना और भोगा हुआ अनुभव के आधार पर रचा जाता है तथा ऐसा ही साहित्य समाज का दर्पण होता है । गया जिले के एक खास गाँव में फैले कथानक के आधार पर उकेरा गया यह उपन्यास हिन्दुस्तान के हर गाँव की घिसी-पिटी जिन्दगी में अज्ञान, अन्धविश्वास, जातीयता, गरीबी का लगा घुन, धर्म और संस्कृति का लुप्त होता शाश्वत स्वरूप के साथ-साथ स्वार्थपरक राजनीति के कारण धूमैल हो रहे जनतन्त्र की धवल धोती की बाँकी-झाँकी प्रस्तुत करता है ।

धर्म के नाम पर दंगा-फसाद, राजनीतिक छल-प्रपंच, विकास के नाम पर लूट, पुलिस नेता गठजोड़ से आजाद भारत में बढ़ता हुआ अत्याचार, उतरती हुई इज्जत और शोषण की चक्की में पिस रहे लोगों के दुख-दर्द का चित्रण करते हुए इस यथार्थवादी उपन्यास में 'रजकण' जी ने अज्ञानता के अन्धकार से निकलकर गाँव की सड़ी-गली लुंजपुंज जड़ता को ध्वस्त करने हेतु अलख जगाने का सराहनीय कार्य किया है ।

इस उपन्यास का प्रारम्भ फल्गू नदी के बाढ़ से बर्बाद गंगापुर गाँव की कहानी से होता है और धीरे-धीरे ग्रामीण समस्या से साक्षात्कार कराते हुए शोषणविहीन, समतामूलक समाज रचना का सन्देश देकर समाप्त हो जाता है । यह उपन्यास राहत के नाम पर जीरा का फोरन, परचा के लिए रिश्वत और यौनशोषण, कल्याणकारी सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में आई विकृतियों से साक्षात्कार कराता है तो निज स्वार्थ साधन हेतु गोपाल दुबे और मजहर इमाम के द्वारा दो धर्मावलम्बियों के बीच नफरत का बीज बोना और वाम पंथ के नाम पर जनेसर यादव के द्वारा किसान-मजदूर को लड़ाकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में व्यवधान डालना कुत्सित मानसिकता और गन्दी राजनीतिक को दर्शाता है । उपन्यास के पात्र रहमत मियाँ, बलराज महतो, किसुन, रत्नेश्वर, जंगी चौधरी जिनके सद्प्रयास से लोग आपसी मतभेद को भूलकर समाज के नवनिर्माण में जुट जाते हैं । फणीश्वर नाथ रेणु के 'मैला आंचल' के समान 'धूमैल धोती' भी एक आंचलिक उपन्यास है ।

प्राणी महासंघ (2 अक्टूबर 1995) - मुनिलाल सिन्हा । राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की 125 वीं जयन्ती के अवसर पर प्रकाशित । इस उपन्यास में पर्यावरण प्रदूषण के कारण विनाश के कगार पर झूलते विश्व में मानव अस्तित्व पर उत्पन्न संकट और लुप्त हो रहे जीव-जन्तुओं की समस्या से चिन्तित लेखक ने लोकमंगल की भावना से इस उपन्यास की रचना की है ।

पूर्व प्रकाशित मगही उपन्यासों की लीक से हटकर इन्होंने मानवेतर प्राणियों के बीच से इसके पात्रों का चयन किया है । अरक्षित जीव-जन्तुओं का सुन्दर वन में एकत्रित होकर आत्मरक्षार्थ विचार-विमर्श करना और समस्या के समाधान हेतु संगठित होकर अहिंसात्मक आन्दोलन का निर्णय एक ओर जहाँ गाँधीवाद की प्रासंगिकता और उपयोगिता को प्रदर्शित करता है वहीं दूसरी ओर अस्तित्व रक्षा के लिए हर नागरिक को एकजुट होने का संदेश देता है ।

प्रदूषणमुक्त जल, जमीन, जंगल की सुरक्षा पर्यावरण सन्तुलन के लिए आवश्यक है । अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए चिन्तन और प्रयास भी हो रहे हैं । इस दिशा में जनचेतना जागृत करने में लेखक का यह प्रयास सार्थक है । इन्होंने इस उपन्यास के द्वारा केवल समस्या से साक्षात्कार ही नहीं कराया है बल्कि इसके समाधान का उपाय भी बतलाया है । अन्धाधुन्ध वृक्षों की कटाई, जीव-जन्तुओं का विनाश, जल-वायु प्रदूषण आदि से होनेवाली हानियों पर प्रकाश डालते हुए इन्होंने वृक्षारोपण, जीव-संरक्षण, भूमि-जल का सदुपयोग आदि पर विशेष बल दिया है । उपन्यास में सरल स्वाभाविक विशिष्ट मगही भाषा शैली का प्रयोग इसकी अपनी विशेषता है । यह उपन्यास एक नया प्रयोग है ।

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