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Saturday, October 17, 2009

9. लमरी न भंजल

लघुकथाकार - दिलीप कुमार

बिहटा स्टेशन पर जब बिपत नाना रेलगाड़ी से उतरलन तब उनकर पाकिट में एक सौ के एगो लमरी हल । ऊ सोचलन कि अगर लमरी भंज जायत तब सब रुपइया खरच हो जायत । एही से ऊ बस पर चढ़ के उतर गेलन आउ पैदले चले ला मन में ठान लेलन ।

२० किलोमीटर चल के अप्पन नाती हीं पहुँच गेलन । उनकर नाती चेतन नाना के देखइते प्रणाम कैलक आउ स्वागत सत्कार में लग गेल ।

एक घंटा के बाद बिपत नाना अप्पन नाती से कहलन - "बउआ ! तीन गो रुपइया हमरा पइंचा दे दऽ ! हम कभी आयम तब लेले आयम इया केकरो से भेजवा देम । काहे कि मियाज हम्मर बिलकुल थकल हे । अभी पाँच किलोमीटर जाय ला हे । जीप पर चढ़ के चल जायम ।"

एतना कहला पर चेतन तीन गो रुपइया नाना के देके कहलक - "काहे लागी तीन गो रुपइया भेजवऽ नाना ! तीन गो रुपइया बड़का चीज हे ?"

"देख नाती ! हमरा पइसा के कमी नऽ हे ।" पाकिट में से लमरी हाथ में निकाल के देखावइत कहे लगलन, "देख, एगो लमरी हे । लेकिन एकरा भंजा न रहली हे, काहे कि खरचा हो जायत । हम बिहटे से इहाँ तक भूखे-पियासे पैदले चल अइली हे । अब तनिये दूर ला एकरा भंजा दीं !"

"नऽ नाना ! भंजयबऽ काहे ला ? जीप के भाड़ा देहीं देलिवऽ, खाना-पीना होहीं गेलवऽ । ई लमरिया हमरा दे दऽ ! खुदरा पइसा हमरो से खरच हो जाहे । एकरा नाना के असीरवाद समझ के रखले रहम । बिसवास करऽ, हम एकरा भंजे न देबुअ ।" एतना कह के चेतन नाना के हाथ से लमरी लेके अप्पन पाकिट में रख लेलक ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰२४ से साभार]

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