कवि - अरुण कुमार सिन्हा
करना-धरना कुछ नयँ दिन भर, साँझ के आवइ पी के कोढ़िया ।
कभियो गाँजा कभियो दारू, कभियो ताड़ी पियइ निगोड़िया॥
जब ले टका न दीयइ ओकरा, हमहीं ओकर सबसे जिगरी।
हाय दया दिल में आ जा हइ, पड़ल देख ओकर मुँह फेफरी॥
करवट लेइत रात गँवावइ, पौ फटते ही करइ गोड़पड़िया ।
करना-धरना कुछ नयँ दिन भर, साँझ के आवइ पी के कोढ़िया॥
देख रहल हें उद्धिर की तूँ, बोलइत हे ऊ इद्धिर ताकू ।
आज पँचटकिया नयँ देमे, त मारिये देबउ छूरी-चाकू॥
सहल न जाहे बाबू भइया, हाथ में अछइत बेलना-लोढ़िया ।
करना-धरना कुछ नयँ दिन भर, साँझ के आवइ पी के कोढ़िया॥
अइसन के संग में काहे, बान्हलन हमरा भइया-बाबू ।
घिसल चप्पल सन जिनगी हे, मनवाँ पर नयँ अब हे काबू ॥
नयँ ई जाय कमावे लागी, नयँ घरवा के करइ अगोरिया ।
करना-धरना कुछ नयँ दिन भर, साँझ के आवइ पी के कोढ़िया॥
एक्के जगुन हे रहना हमरा, डर से भाग कहाँ हम जइयइ ।
लाज-गरान सभे ई पी गेल, बेउन्नुस संग कइसे रहियइ ॥
दसटकिया ले धड़फड़ भागइ, ताकइ नयँ फिर घर के ओरिया ।
करना-धरना कुछ नयँ दिन भर, साँझ के आवइ पी के कोढ़िया॥
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१६, अंक-६, जून २०१०, पृ॰१६ से साभार]
Friday, January 07, 2011
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