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Saturday, May 04, 2019

मैथिली के पहिला उपन्यास "निर्दयी सासु" (1914) - भाग-3


दोसर दिन बरियाती लोग सबेर स्नान इत्यादि कइलन। हँसी-मजाक होवे लगल। एतने में बिगजी[1] पहुँचल। सब्भे गोटे पनपिआय करते गेला। बाद में कन्यागत[2] के सबेरे बिदा करे लगी दिक करे[3] लगलथिन। यात्रा (बिदाय) के समय पहुँच गेल। लेकिन कुटुम के भोजन करना तब तक बाकिए रहलइ। ज्योतिषी अपने छटपटाथी। एन्ने समधी दने के लोग करेजा पर चढ़ल रहथिन। लेकिन शादी के अवसर पर औरत के द्वारा कइल जा रहल विध त हाकिमी समझल जात (मतलब विध के समय हाकिम नियन ऊ केकरो नञ् सुनत)। ओकर जे रस्ता हइ ओहे रस्ते चलत। बेर झुकल तखनी कुटुम लोग भोजन करे गेला। बाद में गीतनाद कन्ना-रोहट होते-होते पहर भर दिन बचलइ। तखनी बिदागरी[4] भेल।
द्विरागमन में ज्योतिषी बहुत उत्तम-उत्तम वस्तु जेतना सामर्थ्य हलन, देलथिन। एक ठो भैंस बियाल हलइ, ओहो हाँक देलथिन।
जखन यशोदा बिदा भेल तखनी कुछ दूर लोटा लेले आइ-माइ लोग संग गेलथिन। पीछू ज्योतिषी जी भी समधी आउ बरियाती लोग के सम्मानपूर्वक बिदा करे खातिर अरिआइत[5] अइला। ऊ बखत कोय अइसन ओज्जा चाहे पास के बाध वन में नञ् रहल जेकर आँख से यशोदा के जइते देखके लोर नञ् गिरल होवे। धरती उदास लगइ। ज्योतिषी रदवाजा पर आके भोकार पारके कन्ने लगला। बेचारे के एकलौती सन्तान आँख के तारा। धीरज नञ् रहलन। आंगन में स्त्री, माय भी रोदन करते रहथिन। माय बहुत वृद्धा रहथिन। कुछ समय के बाद आके ढाढ़स बन्हइलथिन। गाम के एक-दू व्यक्ति जे ओज्जा रहथी बहुत समझइलथिन। तइयो धैर्य धारण नञ् कर सकला। बीच में कुछ समय लगी चुप भेला। लेकिन फेर विलाप करे लगला। सन्तान के स्नेह अइसने होवऽ हइ, जे ज्योतिषी नियन बुद्धिमान पुरुष केतना देश-देशान्तर पूरब-पच्छिम घूमल, लेकिन माया उनको नञ् छोड़लकइ। ऊ रात रसोई काहे होत। कोय भोजन नञ् कइलक। समस्त आंगन जइसे भस्म पड़ल हो। वास्तव में लक्ष्मिए आंगन से चल गेलन। दू-चार दिन अइसीं मन बड़ी पीड़ित रहलइ। वियोग शोक के औषधि सब में होवऽ हइ। फेर क्रमशः पीड़ा हटे लगलइ।
एन्ने सीतानाथ बरियाती लोगन के संग गाम के समीप पहुँचला। ई बरियाती गाम से टीसन पर। अयोध्यानाथ मिश्र गाम से टीसन पर पठइले रहथिन। [*17] साँझ नीक नियन तब तक नञ् भेल रहइ। ओहे से कुछ बखत गाम से बाहरे सब लोग के अटके पड़लन। एतने में दरवाजा पर ई बात के खबर पहुँचलइ कि ऊ सब आ गेला। हिएँ से रोशनी मशाल आदि पठावल गेल। जखनी सवारी दरवाजा लग पहुँचल तखनी वर-कन्या के पालकी में बैठावल गेलइ। बाद में आंगन में पालकी रक्खल गेल। अनूपरानी सोहागिन लोग के संग पुतहु के हुआँ परी से उतारलन। एन्ने डाला में जे आल रहइ से कुल देवी के आगू रक्खल गेल। ओकर बाद कुल देवी के गीत गइते नगहर लेले परिछन के हेतु आइ-माइ लोगन दरवाजा पर पहुँचलन। दुलहा आंगन तरफ विदा भेला।
दरवाजा पर बहिनी ठाढ़ भेलथिन। अनूपरानी कहलथिन जे की लेबऽ ? जे वस्तु लेबऽ से देथुन।
बहिनी कहथिन गोड़लगाय जे देल गेले होत से सब दे देहु।
अनूपरानी कहलथिन - बेस ओहे लीहऽ। सीतानाथ कुल देवी के सलामी चढ़ाके हुआँ से बिदा भेला। तब चुमौना भेलइ। एन्ने कन्या के पालकी से उतारके सासु कोहबर ले गेलथिन। हुआँ लोग के डहकन जइसन मन में अइलइ केतना तरह के चौल हँसी-ठट्ठा करे लगल।
सीतानाथ के बूआ कहलथिन जे कन्या के मुँह देखते जइहो। अनूपरानी अपन गला के हार उतारके पुतहु के देलन। पुतहु के मुँह देखके बड़ी प्रफुल्लित भेलन। तखनी से आंगन में फुसफुसाहट होवे लगल। कोय बोलइ आँख बड़ सुन्दर हइ। देखलिअइ कइसन बड़गर-बड़गर हइ। कोय कहइ गला कुछ उँचगर लगऽ हइ। दोसर कहइ, नञ्, तोरा तो ओइसन बुझा हको, वास्तव में कउनो बड़गर नञ् हइ। कन्या बड़ सुन्दर हइ। जे हो, कन्या के देखके अनूपरानी कृतार्थ भे गेलथिन।
चार दिन भरफोरी के रात में आइ-माइ लोग जामा होते गेलथिन। सोहागिन लोक के फल बाँटल गेल। कोहबर से वर-कन्या के लोग दरवाजा पर लेके चलथी। मुँह पर आके राइवाला वासन पटक देल गेल। भरफोरी समाप्त भेल। दोसर दिन यशोदा के चिनवार[6] निप्पे खातिर भिनसरे से ननदी उदकावे लगलथिन। चलहू चिनवार निपहू। बेचारी अपना हियाँ कहियो ई काम नञ् कइलक हल। लेकिन व्यवहार कइसे छूटइ। अयोध्यानाथ मिश्र के बहिनी कहलथिन जे माय-बाप एक ठो निपरौड़ो[7] नञ् देलकन। अनूपरानी एकरा पर कहलथिन जे एक ठो थारी लाके देथुन।
[*18] एक ठो नीक दिन ताकल गेल। ऊ दिन यशोदा के भानस करे लगी कहल गेल। चार-पाँच व्यक्ति ब्राह्मण भोजन में निमंत्रित कइल गेला। अन्न-तरकारी के बड़ प्रशंसा सब लोग कइलक। सीतानाथ तब तक नौकरी पर चल गेल रहथी। यशोदा के ससुरार अइला पर पढ़े-लिक्खे के अभ्यास छूट गेलइ। हियाँ परी ओइसन कोय संगी नञ्। ननदी चाहे गाम घर के गोतनी इत्यादि सब मूरख। ओहे से कहियो कुछ पढ़त से नञ् भे सकइ। पोथी पढ़े के बात प्रकट कइला पर तो ननदी सब बड़ी उपद्रव करइ।
पहिले बेरी द्विरागमन में ससुराल अइलइ। जब स्वामी गाम पर रहथिन हल त उनका देखके ढाढ़स होते हल। लेकिन ऊ विदेश में रहथी। अपना विद्या के अनुराग रहइ ओकरा में मन लगते हल। लेकिन पोथी कहियो छूहीं नञ् देइ। एहे सब कारण से यशोदा कष्ट में पड़लइ। संग में नौकरानी आल रहइ, ऊ कुच्छे दिन रहके चल गेलइ। एकसरे कइसे मन लगते हल। बहुतो बेरी घर में एकान्त में बैठके कनते रहइ। विद्ञा बुद्धि कुच्छो ओज्जा परी काम देवे वला नञ्। जइसे कौआ के मंडली में हंस दुर्दशा पावऽ हइ, ओइसीं ई मूर्ख मंडली में अब यशोदा कष्ट काटे लगल। दिन-दिन भर घर में बन्द, केकरा से की कथा करे से समझ में नञ् आवे। बिन बोललहीं जे चाहइ से नहिरा के लोक के दस हजार फजीहत कर देय। रात में सासु के पास बैठके बहुत समय तक उनकर सेवा कइल करइ। गाम घर के जे कोय जेठ श्रेष्ठ आथिन सबके गोड़ लगइ। काज धंधा में भी आलस नञ्। बैठल तरकारी छीलइ, बनाबइ, भेल त मसाला पीस देय। ई सब देखके बहुतो बेरी अनूपरानी के लोक कहलन जे पुतहु बेस भेटलो। यशोदा के इच्छा जे भानस हमहीं कर दिअइ। लेकिन सासु आउ अयोध्यानाथ मिश्र के बहिनी करे नञ् देथिन। कहथिन जे तूँ अभी बुतरू हकऽ, पहिले तुरी अइलऽ ह, हम सब जखनी हिअइ तखनी भानस काहे करबऽ।
आसिन के छुट्टी में सीतानाथ गाम अइला। दू-चार दिन के बाद एक रात यशोदा के माथा बड़ी जोर से पिराय लगलइ। ओहे से सासु के देह दाबे लगी नञ् गेलन। अनूपरानी एहे बीच एक दिन ओकरा लिखते देखले रहथिन। उनका लगलइ जे ई नैहर के चिट्ठी लिक्खब करऽ हइ। ओहे से अपना हृदय में कुछ कुप्रभाव प्रवेश कर गेलइ। एन्ने एक दिन देह दाबहूँ में नागा भे गेलन। तखनी समझलका जे एकरा गौरव भे गेले ह ओहे से अइसे करऽ हइ। दोसर रात जखनी यशोदा लगबे गेलन आउ गोड़ धइलकन तखनी कहलथिन जे आझ सुत गन, हमर काहे लगी गोड़ दाबमँऽ ?
[*19] यशोदा सासु के अभिप्राय ताड़ गेल। कल्हे नञ् अइलिअइ ओहे से अइसे करब करऽ हथी। एहो विषय रहइ जे सीतानाथ के तरफ से स्त्री के स्नेह जे दू-चार दिन देखलथिन से अनूपरानी के सहन नञ् होलइ। एतना दिन बेटा के मन खिचनिहार त कोय नञ् हलन। अब घर में पुतहु अइलन। जब तक नञ् आल रहलन तब तक जी लगल रहन जे कहिया पुतहु के मुँह देखम। पुतहु अइलन आउ बेटा पुतहु के एकत्र देखलन तखनी पुतहु से जलन होवे लगलन जे ई हमर बेटा के वश में कर लेलक।
सीतानाथ के एक दिन बोखार चढ़ गेलइ। माय दोसर घर गेल हलथिन। बोखार पाँचेक दिन रहलइ। ई बीच रात-दिन यशोदा ईश्वर से एहे प्रार्थना करइ जे कइसे उनका अराम होतन। सीतानाथ ठीक भेला। तखनी यशोदा के उत्कट इच्छा भेलइ जे उनका से भेट करूँ। आखिर सीतानाथ गाम से नौकरी पर विदा हो गेला। लेकिन माय स्त्री से नहिंएँ भेंट करे देलकन। सीतानाथ बड़ी सुपुत्र रहथी। ओहे से माय के इच्छा के विरुद्ध कार्य नञ् कर सकथी। अपन स्वामी के भी अनूपरानी कै दिन पुतहु के झूठमूठ के निन्दा कहथी। लेकिन ऊ स्त्री के स्वभाव से परिचित रहथी, सुनके रह जाथी।
ज्योतिषी ई बीच कन्या के विदागरी खातिर दिन पठइलथिन। यशोदा के ई बात सुनके हर्ष भेलइ। लेकिन ससुर दिन नञ् मनलथिन। कुछ दिन के बाद ज्योतिषी के भतीजा अइलथिन आउ कुछ दिन रहके आँगन बाहर सबके बहुत प्रार्थना करके माघ के दिन मंजूर करवा लेलथन।
यशोदा माघ में नैहर गेल। बाप के बड़ हर्ष भेलन। यशोदा नैहर में सासु के कहियो कइसनो निन्दा नञ् कइलक। फागुन के छुट्टी में सीतानाथ शिवनगर गेला। आसिन के बाद स्त्री से एहे भेंट भेलइ। लेकिन अवकाश केतना जे ओत्ता अधिक दिन रहता। तीनेक दिन रहके नौकरी पर चल गेला। उनकर इच्छा जे ई बेरी बिदागरी होला पर जाँव, तखनी सपरिवार (पत्नी के साथ) हला, लेकिन माय के भय से ई प्रसंग कुछ बोले के साहस नञ् पड़इ।
चार मास अइसीं भेलइ लेकिन एक्को अदमी वैरमपुर से यशोदा के हियाँ नञ् गेलइ। ओकरा से यशोदा के चित्त में बहुतो काल दुख होवे कि देखऽ एतना दिन अइला भेल, एक्को अदमी दाइ (सासु) नञ् पठइलन। जेठ में एक ठो भारा अनूपरानी पठइलथिन। ओकरे साथ बिदाय खातिर एक ठो दिन भी [*20] गेलइ। लेकिन ज्योतिषी स्वीकार नञ् कइलथिन। एन्ने वर्षा आरम्भ हो गेलइ। भादो में चौरचन गाम के एक ठो अदमी प्रातः पठइलथिन। ओहो बिदाय के लार-चार खातिर अइलइ। लेकिन दिन निश्चित नञ् भेलइ। आसिन में फेर सीतानाथ ससुरार गेला। कुछ दिन हुएँ रहला। बिदाय लगी वैरमपुर से उनकहीं आगू एक ठो चिट्ठी ज्योतिषी के अइलइ। जमाय के रुचि बुझके ज्योतिषी दिन मान लेलथिन।
पहिले तुरी कन्या के विदागरी में द्विरागमन नियन खरच होवऽ हइ। ज्योतिषी दू-तीन ठो गहना यशोदा के ई यात्रा में फेर बनाके देलथिन। मइयो एक-दू ठो अपन देह के (गहना) देलकइ। धरोहर के साड़ी आउ पोशाक पाँच-सात खंड पौती[8] देलथिन।
सउँसे तलाब में एक ठो पोठी जइसन ई यशोदा। ज्योतिषी के दोसर आउ केऽ रहइ जेकरा लगी धन रखके जइता? ओहे से कन्या के देवे में कहियो ओज[9] नञ् कइलन। अभिलाषा मन में रहइ जे कन्या सब दिन हमरे घर रहइ। जमाइयो एत्ते आके रहतथी। लेकिन अपन कउन सामर्थ्य। जमाय ओतना दरिद्र रहथिन हल त स्वीकारो कर लेथिन हल। लेकिन उनको कउनो कमी नञ् रहइ। ओहे से विचारथी जे कन्या ससुरारे बसइ ओकरे में नीक हइ। अगहन में विदागरी करके यशोदा फेर वैरमपुर गेल।
यशोदा सास ननद खातिर साड़ी लहठी लेले गेल रहइ। देवर लगी भी धोती, चद्दर आउ घर लगी कतेक बरतन लेके गेलइ। यशोदा के नो गहना इत्यादि देखके सास हर्षित तो भेलथिन लेकिन मन में संदेह भेलइ जे सब गहना बापे नञ् देले होथिन। बच्चा ससुरार कै बेरी गेल हल ओकरा में अवश्य गहना लगी रुपइया देलक होत, लेकिन स्वामी के कौड़ी भाय के नाम, नैहर के नाम होतइ (अर्थात् यदि कोय पति अपन पत्नी के अपन ससुरार में, मतलब पत्नी के नैहर में गहना आदि गुप्त रूप से दे दे हइ त ई मान लेल जा हइ कि ई गहना आदि ओकर पिता चाहे भाय के देल हइ)।
ई बेरी यशोदा ससुरार जाके कुछ ठीक होके रहे लगलइ। सब दिन कुछ पढ़इ-लिखइ। लेकिन अनूपरानी अपने जे मूरख रहथी ओहे से ओकर पढ़ना-लिखना नञ् सोहाय। माघ में कउनो परब रहइ। खीर लगी यशोदा दूध औटत रहइ। कराही दूध से भरल रहइ। दूध उधिअइते गिरे लगलइ। यशोदा कराही उतारे लगलइ। एतने में दूध छलकके ओकर हाथ के अंगुरी में पड़ गेलइ। बड़का-बड़का फोंका पड़ गेलइ।
एतने में सीतानाथ के बहिनी सुदामा ओत्ता अइलइ। दूध के गिरल देखके भौजी से बिन कुछ पुछले दौड़ल माय के कहे गेलइ जे भौजी सब दूध [*21] गिरा देलथुन। अनूपरानी के सुनतहीं तरवा के लहर कपार पर चढ़ गेलइ। सुनऽ हलिअइ जे पंडिता हथी। सब पंडिताय देख लेलुँ। एक्को काम ठीक से करथी से नञ्।
सुदामा एतने में यशोदा के गोड़ देखके माय के कहलक। ई जे गोड़वो पका लेलथुन। अनूपरानी ओकरा पर बोललथिन कि गोड़ पकइथिन। सब दूर कइलन। देखहु गोड़ पर आलू पीसके लगावे कहू न। यशोदा के एक त हाथ-गोड़ जर गेलइ, ओकरो पर सासु के दुर्वचन घाव पर नून नियन हृदय के छन-छन छूअइ। लेकिन की करे बेचारी! दूध बहुत त दू सेर, दू आना के नुकसान भेले होत। ऊ कउनो वस्तु नञ्, तइयो ओकरा लगी अनूपरानी एतना गरजलथिन। लेकिन पुतहु के गोड़ पकलइ सेकरा लगी आह नञ् अइलइ। सुदामा आलू पीसके भौजी के देलक। अयोध्यानाथ मिश्र के दरवाजा पर कोय कहे गेलइ। उनका ई बात सुनके बड़ी दुख होलइ। आंगन आके स्त्री के कहलन जे नारियल के तेल आउ चूना के पानी पक्कल जगह पर रक्खे कहिहो। लेकिन ई सब करतइ केऽ ? उपरका मन से कुछ समय बाद अनूपरानी दू-चार ठो संतोष के कथा पुतहु के जाके कहलन। यशोदा के सासु के व्यवहार देखके मन में बहुत पीड़ा होलइ।
फागुन में सीतानाथ गाम गेला। एक रात दूध में जोरन देवे लगी यशोदा विसर गेलइ। दोसर दिन अयोध्यानाथ मिश्र दुन्नु बापुत जखनी भोजन करे गेला तखनी दही के खोज भेलइ। अनूपरानी ओकरा पर बहुतो निन्दा यशोदा के कइलन जे ई कउनो काम के नञ् हइ। सीतानाथ के भीतरे-भीतर स्त्री के निन्दा बड़ी अप्रिय लगलइ जे देखहु एक ठो सामान्य विषय लगी हमर माय एतना बोलऽ हइ। माघ में जइसन-जइसन गोड़ पक्कल रहइ आउ सासु जइसन ममता देखइले रहथिन से सब यशोदा सीतानाथ से कहले रहइ। लेकिन सीतानाथ के ओकरा में की सामर्थ्य रहइ ? कह-सुनके कुछ संतुष्टि कर देलथिन।
सास-पुतहु में दिन-दिन मतभेद बढ़तहीं गेल। एक बेरी अइसे बिलाय दूध पी गेलइ। अनूपरानी ओकरा पर बहुतो लोछियाल बात यशोदा के कहलथिन। सीतानाथ जखनी गाम जाथी तखनी अइसे बराबर स्त्री के निन्दा सुनके मन उद्विग्न होवइ। लेकिन कोय उपाय नञ् सुझइ।
द्विरागमन के तीन बरिस भे गेलइ। लेकिन सन्तान के कउनो लक्षण देखाय देय। ई बात अनूपरानी बहुतो बेरी अयोध्यानाथ मिश्र के कहलथिन। [*22] अनूपरानी के इच्छा जे बेटा के दोसर विवाह करामूँ। ई स्त्री से सन्तान नञ् होत। केतना तुरी तो यशोदा के सुनाइयो के ई बात ऊ बोल देथी। यशोदा के ई सब बात सुनके बड़ी क्लेश होवइ। सन्तान होतइ, नञ् होतइ, ईश्वरीय कृपा हइ। अनूपरानी पोता के मुँह देखे लगी केतना तरह के मन्नत मानथी। केतना जगह से जड़ी मंतर मंगाके यशोदा के देलथिन। लेकिन ई सब से कुछ नञ् होलइ। सीतानाथ के दोसर विवाह के चर्चा विशेष काल होवे लगल। सीतानाथ के खुद ई जरिक्को अभीष्ट नञ् तइयो ऊ की बोलथी। सब सुनके चुप रहथी। लेकिन यशोदा के कहलथिन जे हम दोसर विवाह कभियो नञ् करम।
कुछ दिन के बाद ईश्वर के कृपा से यशोदा के गर्भ के लक्षण भेलइ। ई जानके अनूपरानी के हृदय संतुष्ट भेलइ। दोसर विवाह के जे गुनगुनाहट होब करऽ हलइ, से बन्द भेल। अयोध्यानाथ मिश्र भी हर्षित भेला। दसमा महिन्ना जाके ईश्वर के दया से यशोदा के लड़का पैदा होलइ। अनूपरानी पोता के मुँह देखके प्रसन्न भेलन।
यशोदा के बाँझ के दोष जे लगल हलइ, से छूट गेलइ। सीतानाथ जखनी आथी, तखनी-तखनी उनकर माय बहुतो बात यशोदा के विरुद्ध कहथिन। अनूपरानी चाहथी जे ई सब कहला पर ऊ यशोदा से नराज होथिन, फजीहत करथिन। सीतानाथ माय के आगू कुछ नञ् बोलथी। लेकिन स्त्री के जे उचित बुझथी से कह देल करथी।
सन्तान होला के बाद यशोदा के शरीर बहुत काल रोगी रहे लगलइ। लेकिन सास के ओकर तनिक्को चिन्ता नञ्। खाली बुतरू के दुखी भेला पर ओकर दया उनका होवइ। लेकिन यशोदा के मरणान्तक दुख काहे नञ् होवइ उनका एहे लगइ जे ई बहाने लधने हइ। एक बेरी यशोदा के बोखार चढ़लइ। ऊ कहे गेलन जे आझ हमर मन कइसन तो करऽ हके।सास सेकरा पर देह टोलथिन। देह धिप्पल रहइ। लेकिन अगर बोखार कहतथिन तखनी ऊ संयम करत से इनका अभीष्ट नञ्। ई तो ओहे चाहथी जे कइसूँ करके एकर दुख बढ़ामूँ। कहलथिन जे तोहरा अइसन भ्रम रहऽ हको। बोखार-तोखार कुछ नञ् हको। जा, खा पीयऽ। कफ के बोखार होते हल त छूट जइते हल। यशोदा कीकरे। उपास करत, त घर के टहल नञ् कर सकत। कुछ खा लेलक। बोखार अधिक हो गेलइ। अनूपरानी अयोध्यानाथ मिश्र के कहलथिन बोखार भेले ह, से केवल जीह के पातर हथी, ओहे से। बोखार जइसे भेलइ, उपवास करतथी त एके दिन [*23] में छूट जइतइ, लेकिन ई सब त हथी पेरेवली। खा लेलन। दुख बढ़ गेल। अब डाक्टर के बोलाहो। पनरह दिन बोखार के भे गेलइ। लेकिन नञ् उतरलइ। तब अयोध्यानाथ अपन लड़का के गाम आवे लगी लिखलथिन। ऊ अइला। माय बहुतो उपालम्भ देलथिन जे देखहू, अब ई बुतरू नञ् हथी। धिया-पुता भेलन। तइयो कुच्छो नञ् बुझऽ हथी। बोखार लगलइ, एक दिन सह जइथिन हल, से नञ् करके खा लेलन। हमरा तो ई सब आकुल-व्याकुल कइले रहऽ हथी। पुतहु होवऽ हइ त घर के चिन्ता सास के छोड़ा दे हइ। हमर करम में भगवान सेभाग्य नञ् लिखलन। वैद्य आझ दस दिन से डेरा डालले हथी। बोखार उतरवे नञ् करऽ हइ। सीतानाथ माय के सन्तोष देवे लगी एक-दू ठो उनके नियन मिलाके कहलथिन। यशोदा तो सास के सब मरम जानतहीं रहइ। सीतानाथ देखे गेलथिन तखनी घर में लोग रहइ ओहे से यशोदा कुछ कह नञ् सकलन। एक मास जखनी पूरा भेलइ तखनी ऊ बोखार उतरलइ। अनूपरानी तो भीतरे-भीतर चाहथी जे एहे दुख में ई फुरसत हो। लेकिन दैव के कृपा से बच गेल। सीतानाथ अबरी छुट्टी लेके बहुत दिन गाम पर रहला।
-- समाप्त --



[1] बिखजी/ बिगजी/ बिघजी/ बिखझी/ बिगझी/ बिघझी - बरियाती आउ वर के प्रातःकाल में देल जाय वला मेवा-फल आदि के हलका जलपान।
[2] कन्यागत - विवाह में कन्या पक्ष के लोग।
[3] दिक करना - मन के व्याकुल करना।
[4] बिदागरी - बिदा (यात्रा) करे के विध चाहे काज; दुलहिन के नैहर चाहे ससुरार जाना।
[5] अरिआइत, अरियात - कुछ दूर तक पीछू-पीछू संग चले के व्यवहार।
[6] चिनवार, चिनुआर - कुलदेवी के उच्च भूमि; गृह देवता के आगू ऊँच कइल पवित्र सुरक्षित पिंडी; गृह-देवता के पूजा हेतु निवास गृह में बनावल माटी के वेदिका।
[7] निपरौड़, निपनौर - मट्टी चाहे पित्तर के बरतन या बड़गर कटोरा। नववधु ससुरार में चतुर्थी के दिन, चौथे दिन, मट्टी पानी से घर निप्पऽ हलइ। पहिले मटिए के घर होवल करऽ हलइ। ई पात्र वधू के साथ भेजल जा हलइ। लाल कपड़ा के टुकड़ा में कुछ मटियो भेजल जा हलइ। एहे तरह मट्टी के चूल्हा के निप्पे लगी जे बरतन काम आवऽ हलइ ओकरा निपनौर कहल जा हलइ।
[8] पौती - स्त्री के शृंगार के वस्तु रखे खातिर बिन्नल ढक्कन सहित गोलाकार पेटी।
[9] ओज - चोज, कंजूसी

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