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Sunday, October 04, 2009

10. गोस्सा के फेर में

कहानीकार - रामशरण प्रसाद मेहता

भादो के महीना हल, घुच-घुच अँधरिया । हाथो न लउकऽ हल । बाकि ताव में रमेश लपकल जाइत हलन । कहीं ऊँच-नीच पर पैर पड़ जा हल तो रमेश आरी पर से धान के खेत में लोघड़ जा हलन । मन तो न करऽ हल आगे बढ़े के बाकि ससुरार के लोग से नोंक-झोंक में ऊ अधिराते में निकल गेलन हल ।

उनकर मेहरारू चंपा भी अप्पन मरद के खोजे ला चलल जाइत हल । उनकर माय-बाबूजी रोकलन, 'तूँ औरत जात होके ई अँधेरिया रात में कहाँ जयमें । कल्हे तोरा ससुरार पहुँचा देबउ ।'

रमेश राते में अप्पन घरे पहुँच गेलन । बिहाने होके उनकर ससुर चंपा के पहुँचा देलन । चंपा के देख के रमेश बजार जाय के बहाने घर से निकल जयतन हल बाकि चंपा समझ गेल आउ रमेश के पीछा धर लेलक । चंपा के पीछे-पीछे आवइत देख के रमेश उलटावे के कोशिश कैलन । बाकि चंपा लउटे ला तइयार न होलक । खीस में रमेश ओके दू-चार झापड़ जमा देलन ।

चंपा रोवइत गोसायल घरे लउट गेल आउ रमेश बजार के तरफ चल गेलन । अब चंपा घर में जाके गेहूँ में देवे वला कीटनाशक दवाई खा गेल आउ रात में स्वर्ग सिधार गेल । गाँव वला लोग मिल के राते में ओकरा जला देलन ।

कल होके ई समाचार चंपा के नइहर भेजा देवल गेल । अब का हल ? चंपा के बाबूजी थाना में जाके केस कर देलन ।

गाँव में पुलिस पहुँच गेल । जउन लोग लाश के जलौलन हल ओकरा में से कुछ लोग छुतका मेटावे ला माथा घोंटवा लेलन हल । पुलिस जेकर माथा घोटावल देखऽ हल ओकरे पक‍ड़ ले हल । अब तो जेतना लोग अप्पन माथा घोंटवैलन हल ऊ पछताय लगलन आउ कोठी में लुकायल रहऽ हलन । कउन जाने कब पुलिस आ जाय ।

अगला दिन फिर पुलिस आ गेल । एगो बूढ़ अदमी अप्पन बंगला पर बैठल हलन । उनकर लइका कहलक, 'बाबूजी ! पुलिस आवइत हवऽ । घर में चल जा ।'
बुजुर्ग कहलन, 'हम तो अप्पन लड़की के मरे के छुतका में बाल मुड़वइली हे । हमरा पुलिस का करत ।'
उनकर बेटा कहलन, 'पुलिस के का पता हे कि तूँ केकर छुतका में माथा घोंटवैलऽ हे । पुलिस के तो माथा घोंटायल के सर्टिफिकेट मिल जाय के चाहीं, फिर तो जेल में खिचड़ी पचावहीं पड़तवऽ ।'
उनका पर अप्पन बेटा के बात के कुच्छो प्रभाव न पड़ल, तो उनकर बेटा जबरदस्ती भर अकवार के उनका घर में ठेल के दरवाजा बाहर से बंद कर देलन ।

पुलिस के एक्को अदमी हाथ न लगल । ऊ दूसर नियम अपनयलक । जेकर घर में खाना में हरदी तेल नय पड़ऽ हल, ओकरा पकड़े लगल । अब जे भी हरदी तेल नय दे हल, ऊ पकड़ाय के डर से हरदी तेल भी देवे लगल । फिर पुलिस के एक्को अदमी हाथ न आयल तो अब तेसर नियम अपनैलक कि जे आदमी अप्पन घर-दुआर लीपत इया धोवत ओकरे पकड़ल जाय । अब पकड़ाय के भय से कोई भी न घर दुआर धोलक आउ न लिपलक ।

लोग के मन में भूत से जादे भय हो गेल पुलिसे से । छुतका अब ताखा पर रखा गेल हल ।

एक दिन रमेश के घर कुर्की-जप्ती के वारण्ट भी आ गेल । रमेश चाहइत हे कि केतनो रुपइया खरच हो जाय बाकि सजाय न होवे, काहे कि सजाय होला पर नौकरी खतम हो जायत । बाकि रमेश के ससुर चाहइत हथ कि कइसहूँ रमेश के नौकरी खतम हो जाय । एही चक्कर में दुन्नो तरफ से काफी पैरवी चल रहल हे ।

केस के फैसला तो बाद में होयत, बाकि गाँव पर बड़ी प्रभाव पड़ल हे । मेहरारू लोग के भाव बढ़ल हे आउ मरद लोग में सुधार होयल हे । लोग अप्पन मेहरारू के बड़ी परेम से रखऽ हथ । लड़ाई झगड़ा के नौबत से दूर रहे ला चाहऽ हथ । मेहरारू पर तनिको रोब न जमावऽ हथ । सोचऽ हथ कि एगो के अभी औरत के मारे के फेर में छुटकारा न होयल हे, अइसन न कि दूसर केस हमर घर में हो जाय ।

[ मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-२, अंक-१, जनवरी १९९६, पृ॰१५-१६ से साभार]

1 comment:

विवेक सिंह said...

हालांकि हमें यह कहानी समझ न आयी, पर आपका परिचय पाकर अच्छा लगा,

धन्यवाद!