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Wednesday, October 12, 2011

फैसला - भाग 1


-1-
बहुत लोग जइसे देखलका ह, ओइसे अप्पन-अप्पन तरह से वर्णन कइलका ह, तइयो आउ भी बोर होवे जेतना वर्णन के लक्ष्य बन्नल हकइ मद्रास शहर । भोर के बखत ऊ आधुनिक बँगला के ड्योढ़ी में एक्के तरफ उँड़ेलल खून के लोंदा जइसन लाल मारुति कार इन्तज़ार में खड़ा हलइ । घास के मैदान में एक ठो झूला । कम्पाउण्ड में गुलाब के फूल ।

नीला रंग के पैंट, नीला रंग के अधबहियाँ बुशशर्ट पेन्हले अविनाश अप्पन टेलिफोन पर के बातचीत समाप्त करतहीं माय के कहलका - “हम ऑफिस ल निकल रहलियो ह, माय ।”

“अविनाश, लड़की के बाबूजी फोन पर बात कइलका हल । ‘दूपहर के आ रहलिये ह’ अइसन कहलका ह । जे जे गहना गुरिया बनवावे के हइ ओरा बारे बात करके जानकारी लेवे ल आ रहला ह ।”

माय उज्जर रेशमी साड़ी पेन्हले हला । सिर के केश के जूड़ा बाँधले । उनकर ललाट खाली हलइ
“फोन कइला पर अइमहीं, बेटा ?”
“अयँ माय, कहलँ हल ‘लड़की के देख ले’ त हम देख लेलिअउ । ‘ठीक हउ, पसन्द हउ’ भी कह देलिअउ । बाकी सब बातचीत तूँ हीं कर ले । ई सब में हमरा मत बोलाव ।”
“नयँ बेटा, ऊ गहना जेवर पेन्हतउ त तोर घरवली ही न ?”
“त ओकरे पुच्छे ल कहीं न । ओरा जे कुछ भी पसन्द पड़इ, ओहे बनवा देहीं । एरा ल हमरा आवे के की जरूरत ? समय हो गेलउ ।” - एतना कहके अविनाश मारुति में चल गेला ।

एम.ए.बी.एल. पूरा कइल अविनाश भारत ऐण्ड भारत नाम के बड़गर कम्पनी में एगो कानूनी सलाहकार हका । उनखर उमर सताइस । चार दिन पहिले उद्योगपति शेषगिरि के बेटी लता के अप्पन माय के साथ जाके देखके अप्पन स्वीकृति दे देलका ह । लता एकलौती बेटी । शेषगिरि के जयदाद एक करोड़ के पार करके स्थिर होके फिर बढ़तहीं जा रहल हल, कागज के कीमत जइसे ।

एक ठो भेद के बात अभीये बता देवल जाय ? ई कहानी में अविनाश हीरो (नायक) नयँ, बल्कि विलेन (खलनायक) हइ !

टेलिफोन बजतहीं अंगुरी के बीच में के सिगरेट के ऐश-ट्रे में तिरछा रखके अविनाश उठइलक । शान्त आउ ठंडा रूम । पीछे के तरफ दीवार के ऊ पार समान उतारे ल तइयार खड़ा जहाज आउ बन्दरगाह । समुद्री कन्या अप्पन धारण कइले ज्वार-भाटा के प्रदर्शन कर रहल हल ।

“हैलो, हम चन्द्रु बात कर रहलियो ह, अविनाश ।”
“हाय ! की हाल-चाल हइ, भई ?”
“फाइन (fine) ! अभिनन्दन ! तोहर शादी ठीक हो गेलो ह, अइसन मालूम पड़लइ ।”
“हाँ, धन्यवाद !”
“बतइवे नयँ कइलऽ । हमरे पुच्छे के चाही की ?”
“छी छी । अइसन कोय बात नयँ हइ, भई । सोच रहलिये हल कि ई बात के गुप्त रखके पार्टी लगि निमन्त्रण देके बतावल जाय ।”

“अच्छा हाथ मारलऽ ह । लेकिन ऊ लड़की .... ओक्कर की नाम हइ ?”
“केक्कर बात कर रहलऽ ह चन्द्रु ?”
“ई की भई, अनजान नियन नाटक कर रहलऽ ह ?”
“वास्तव में मालूम नयँ पड़ल । तूँ की कह रहलऽ ह ?”
“ए ! एक तुरी थियेटर में तूँ ओरा साथ परिचय नयँ करइलऽ हल ?”
“ओ ! नन्दिनी बारे बात कर रहलऽ ह ?”
“अच्छा, त नन्दिनी ओक्कर नाम हइ ? ओकरा से तूँ प्यार करऽ ह न ?”
“छी छी । जइसन तइसन बात मत करऽ । ऊ खाली एगो दोस्त हइ ।”
“कुच्छो होवे नयँ, एरा बारे ध्यान रक्खऽ भई ।”

“चन्द्रु, डोंट बी सिल्लि । हमरा पास नियन आउ केकरो सामने कहीं कुछ बक नयँ द । ... आउ कुछ बात कइल जाय । अप्पन वाइफ़ के साथ लंडन जाय वला हकऽ, अइसन कुछ बतइलऽ हल न ?”
“आद हको ? .... ऊ बात बताहीं लगि अभी तो फोन कइलियो । बिलकुल खाली-खाली जगह मीनांबक्कम् एक्सटेंशन एरिया में एक ठो घर बनवइलियो ह । बहुत डर लगऽ हको ।”
“डर कौन बात के ?”

“हम आउ वाइफ़ दूनूँ एक साथ जा रहलियो ह । बीस दिन लगि घर में ताला लगावे पड़त । मुख्य-मुख्य दस्तावेज, गहना-गुरिया, नगद ई सब बैंक लॉकर में रख देवल गेल ह । तइयो टी.वी., वी.सी.आर., ई-ऊ, मतलब नयँ जाने की की सब हइ न ... अविनाश तूँ हमरा ल एक ठो उपकार कर सकऽ ह ?”

“की बात हइ, कहऽ तो ।”
“घर के चाभी तोहर हाथ में सौंपके जाय के सोच रहलिये ह । दू दिन पर एक तुरी आके घर के ताला खोलके देख करके गेला पर घर पर लोग हका, ई मालूम पड़तइ ।”
“एतने न ? एतने करे के बात हइ त समझऽ कि तोर काम हो गेलो । कब निकल रहलऽ ह ?”
“आझ साँझ के साढ़े पाँच बजे बॉम्बे फ्लाइट से जा रहलियो ह ।”

“ठीक हइ । साँझ के तोहन्हीं के बिदाय लगि आ जइबो ।”
“त थोड़े स जल्दी आ जा । तोहर हाथ में घर के चाभी दे दे हकियो ।”
“आ रहलियो ह ... रखियो ?”

अविनाश रिसीवर रखके देखलका त ऐश-ट्रे में तिरछे धैल सिगरेट जलके फिल्टर तक पहुँच गेल हल । एक दोसर सिगरेट सुलगइलक ।

1 comment:

चंदन कुमार मिश्र said...

बाह…कन्नड़ से मगही अनुबाद…