विजेट आपके ब्लॉग पर

Thursday, October 13, 2011

फैसला - भाग 9


- 9 -

टेनिस कोर्ट में अपन दोस्त के साथ टेनिस खेल रहल अविनाश के नौकर आके बोलइलक ।
“अपने के फोन हइ, साहब ।”
अप्पन दोस्त के ‘एक्सक्यूज़ मी’ कहके घर के अन्दर आके हॉल में फोन पर बोलल - “हैलो, अविनाश बोलऽ हिअइ ।”
“हम अहल्या बोल रहलिये ह, साहब जी । साँझ के अखबार देखलथिन हँ ?”
“देखलिये ह .... शाबास ... लाश मिल गेलउ ?”
“लेके श्मशान में जला भी देलिअइ ।”
“वेरी गुड .... अहल्या, कहल बात के अन्तिम समय तक पकड़ले रहे के चाही । बाद में आउ कोय आके पुच्छे तइयो बात बदले के नयँ ।”
“चिन्ता नयँ करथिन साहब जी । अप्पन सब लड़की के बता देलिये ह । ऊ सब में केकरो भी पूछला पर एहे बात कहतइ । कोय दिक्कत नयँ अइतइ ।”
“बाद में .... हमरा फोन मत करिहँ । एक सप्ताह बाद हमहीं तोरा से मिलबउ ।”

अविनाश धीरे से बात करके रिसीवर रख देलक ।
टेनिस कोर्ट तरफ चलल । मेनका के देह से खींचके निकालल आभरण, मंगलसूत्र वगैरह ड्रेनेज के गड्ढा में फेंक देलक । दोस्त के कार वापस कर देलक । बातचीत के मोताबिक अहल्या मेनका के लाश लेके जला देलक । पुलिस अब एगो ऑटोचालक के ढूँढ़ रहल ह । नन्दिनी के घर के सब पुलिस के फोन नम्बर देलका भी तइयो ओक्कर हमरा साथ कोय सम्बन्ध के कल्पना करना केकरो लगि सम्भव नयँ । हमरा साथ ओकरा देखलक ह त खाली एक्के गो अदमी । चन्द्रु थियेटर में देखलका हल । अब तो ऊ लन्दन में हका । बीस दिन बितले पर शहर वापस अइता । ऊ कुआँ के भरवा देता ।

चन्द्रु के देखके नन्दिनी के अप्पन दोस्त अविनाश के साथ देखलऽ ह, अइसे तो कोय पुच्छे वला नयँ .... मतलब हम्मर योजना पूरा के पूरा पर्फ़ेक्ट (perfect) ! बीच में आके तकलीफ देवे वली मेनका के रस्ता से दूर कर देल गेल ! अब हमरा पकड़ाय के कोय मौके नयँ ।
            x          x          x          x          x          x          x          x          x   
ओहे दिन । ओहे समय ।
अप्पन किराया के घर में रेडियो सुनते अराम कुर्सी पर बइठके सिगरेट पी रहला हल सब-इन्सपेक्टर दयाल । खिड़की में वापस जा रहल रोशनी के साथ-साथ आगे के शिफ्ट वला काम के अन्हेरा अन्दर प्रवेश कर रहल हल । गछवन सब के गुदगुद्दी बरइते हँसा रहल हल हावा ।
एक ठो स्कूटर आके दरवाजा पर खड़ा होल । गर्दन से झूलते कैमरा सहित न्यूज़ रिपोर्टर (संवाददाता) बालाजी अन्दर आल ।

“गुड इवनिंग सर” - कहके ऊ अपने एक ठो कुर्सी खींचके बइठ गेल । “ई तरफ से जा रहलिये हल । अपने के बाइक हलइ । हम भी उतरके आ गेलिअइ । नयँ मालूम काहे अपने उदास देखाय दे रहलथिन हँ । कोय बेमारी-उमारी नयँ न ?”
“नयँ ।”
“साँझ के अखबार में समाचार पढ़लिये ह । अपने के नाम भी देखलिअइ । .... ओहे प्रमिला के केस ! ऑटोचालक के पता लगा रहलथिन हँ सर ?”

“नयँ भाय । एकरे बारे सोचते बइठल हिअइ । हमरे लगि आवल इन्सपेक्टर कहलाय वला बहुत जल्दीबाज अदमी हका । उनकर विषय के अन्दर घुस्से के रीति हमरा ठीक नयँ लगऽ हके । कुच्छो हम सब कहलूँ कि ऊ गोस्सा हो जा हका । ‘सब कुछ हमरा मालूम हके’ बोलऽ हका ! एक तरह से उनका साथ जुड़े से हम सब मामला में गलत कर रहलूँ हँ, अइसन हम्मर मन में अपराधी मनोभाव चुभ रहल ह बालाजी ।” - दयाल बोलला । ढीला हो गेल लुंगी के बइठले-बइठले कमर से लपेट लेलका ।  

“की ठीक से नयँ चल रहले ह ?”

“ई प्रमिला के केसे ले ल, एगो व्यभिचार के औरत स्नान करते घड़ी हल्दी के गाल पर घस्स हइ, अइसन हमरा मालूम नयँ । साड़ी के कोर में आउ पेटीकोट के कोर में लाल मट्टी के निशान हइ । सैदापेट में ऊ अहल्या के पता वला रोड में टार (अलकतरा) डालल हइ । हुआँ से मेन रोड तक देखते अइलूँ । कधरो लाल मट्टी वला रस्ता नयँ । मेन रोड से बेसेंटनगर तक रिक्शा से गेल हल, अइसन रिपोर्ट हइ । बेसेंटनगर के आसपास घूमघाम के देख लेलिये ह । कहूँ लाल मट्टी वला रस्ता नयँ । ई सब पॉश एरिया । लाल मट्टी के रस्ता हुआँ देखे ल नयँ मिल्लऽ हके । हीएँ हमरा माथा खुजला हके । पार्टी से मिल्ले ल प्रमिला गेल, अइसन अहल्या के कहना हइ । लेकिन ऊ पार्टी केऽ, ई पूछला पर ‘मालूम नयँ’ कहऽ हइ । ई बात भी एक तरह से हमरा डंक मार रहल ह । ई इन्सपेक्टर के कहला पर ध्याने नयँ दे हका ।”

दयाल ई केस से सम्बन्धित खुद के जानकारी में आल सब बात-विचार बालाजी के बतइलका ।

“ई बात हइ त अपने के की अनुमान आवऽ हइ ?”
“सबसे पहिले तो हमरा प्रमिला वेश्या हइ, एहे बात पर विश्वास नयँ हो रहल ह । ई सब अइसन हका, ई मुहमे पर लिक्खल रहऽ हइ ।”
“अपने जे कह रहलथिन हँ, ऊ लोकल केस हइ । आउ केस भी रहऽ हइ । देखे में मॉडर्न (आधुनिक) नियर कॉलेज के स्टुडेंट के तरह रहऽ हइ । विश्वासे नयँ होवऽ हइ ।” - बालाजी बोलला ।
“अप्पन अनुभव बता रहलऽ ह ?”
“छी-छी ! एक तुरी साक्षात्कार (इन्टर्व्यू) लगि एक ठो भँड़ुआ (दलाल) के ले जाके देखइलिअइ .... ठीक हइ । एगो पारिवारिक औरत मान लेल जाय, त ऊ लड़की के हैंडबैग में अहल्या के पता कइसे अइलइ ?”
अपनहीं लिक्खल रक्खल रहऽ हइ न मिस्टर बालाजी । एक मूलभूत शंका के हमरा समाधान होवे के चाही । प्रमिला अइसन काम करे वली हो सकऽ हइ ? … … हमरा साथ अभी आवऽ हथिन ? ऊ अहल्या से भेंट कइल जाय ।”
“ओ येस” - बालाजी बोलला ।

तुरत्ते दयाल अप्पन ड्रेस पेन्हलका आउ गोड़ में जुत्ता डललका । बाइक पर बालाजी के पीछे बइठइलका । सीधे स्टेशन अइला । हुआँ इन्सपेक्टर नयँ हला । कपाट खोललका । प्रमिला के पेन्हल चप्पल, हैंडबैग हुएँ हल । हैंडबैग से हरियर रंग के साड़ी, ब्लाउज़ निकललका ।

अहल्या के घर से थोड़े स दूरे में बाइक के रोकके, इंजन बन्द करके उतर गेला ।
आठ बज रहल हल । अहल्या के घर से औरत सब के बातचीत के अवाज आ रहल हल । एगो अदमी के साथ आवल रिक्शा वला इनकर मुख देखके तुरत्ते हुआँ से खसक गेलइ
दयाल दरवाजा पर दस्तक देलका ।

अहल्या दरवाजा खोललक । ‘अन्दर आथिन साहब जी’ - बोलल । कैरम बोर्ड के खेल में लीन होल तीन लोग के ‘अन्दर जइते जो, शनिच्चर अइलउ’ कहतहीं ऊ सब के सब उठके अन्दर भाग गेल ।
दयाल आउ बालाजी के अन्दर के बेडरूम में बोलके अहल्या कुर्सी डालके पूछलक - “की सेवा करिअइ साहब जी ?”
एहे घर में तोर धन्धा चलऽ हउ कीऽ ?”
“छी-छी, ई तो गोदाम हइ । माल बाहर जा हइ । हीआँ धन्धा नयँ । ई सब लॉज में । एरा में कुच्छो छिप्पल नयँ हइ साहब जी .... ई सब लड़की के एरा एरा छोड़के आउ कोय धन्धा मालूम नयँ ... कुछ लेथिन ? लिमका ... ए !”
“कुछ जरूरत नयँ” - दयाल बोलला - “प्रमिला के दाह-संस्कार हो गेलइ ?”

“ई सब तो पहिलहीं हो गेलइ साहब जी । रिश्तेदार-उस्तेदार जुलूस बनाके जाय वला केऽ हइ ओरा लगि । ओक्कर देह कइसन हइ !  एक ठो सिनेमा में डान्स के चान्स मिल्ले के चाही हल । बाद में डिस्को-विस्को वला दौड़ल चलऽ हला ... !  बेचारी छोट्टे गो उमर में आँख मून लेलक !”

“प्रमिला के तोरा हीं अइला केतना समय होलउ ?”
“एक सप्ताह ।”
“ओक्कर पहिले ?”
“केरल में ... एहे धन्धा ।”
“ओहो .... घर में ओक्कर कोय एक ठो पेटी-वेटी होवे के चाही न ? एरा हम देखे ल चाहऽ हूँ ।”
“पेटी नयँ, वेटी भी नयँ । चार ठो साड़ी आउ चार ठो ब्लाउज़ के गठरी लेके आल हल ।”
“खैर, ऊ गठरिये लेके आ । हम देखे ल चाहऽ ही ।”
“ऊ सब पहिलहीं एक-एक लड़की के एक-एक ठो करके चार साड़ी आउ ब्लाउज़ बाँट देलिअइ । ओक्कर दाँत साफ करे वला ब्रश हइ । एरा लाके देखइअइ ?”
“ई घमंड कीऽ बात के ? ... केकरा-केकरा प्रमिला के साड़ी देलँ हँ, ऊ सबके हीआँ बोलाव ।”
“ऊ सब बाहर चल गेले ह न साहब जी ।”
“तोर देल सड़िये पेन्ह के  ऊ सब बाहर गेते गेल ह ?”

अहल्या खड़ी ही रहल नयँ पा रहल हल । ‘ई काहे ल अइसे हमरा पकड़के हिला रहल ह ?’  सोचते चुपचाप खड़ी रहल ।

“प्रमिला के जे कुछ भी होवे, एक्को बस्तर होवे तइयो हमरा देखाव । हमरा अभी ओकरा देखे ल चाहऽ ही” - दयाल बोलला ।

अन्दर जाके अहल्या बोलल - “ए छोटकी, तूँ अप्पन साड़ी में से एक ठो निकाल दे । पुलिस वला के पूछला पर ई प्रमिला के हइ, हम्में तोरा देलियो ह, अइसे कहिहँ, समझलँ ?”
एक ठो लाल रंग के नाइलेक्स साड़ी के साथ अहल्या आल । ‘लेथिन, ई प्रमिला के साड़ी ।’

“ए ! एरा साथ-साथ एक ठो ब्लाउज़ भी होवे के चाही न, ऊ कन्ने हउ ?”
“ऊ भी चाही ?” - घृणा से बुजबुजइते अन्दर गेल अहल्या छोटकी के मैचिंग ब्लाउज़ लेके देलक ।
“ई साड़ी, जैकेट प्रमिला के हइ, हइ न ?”- दयाल पूछलका ।
“हाँ ।”
“कोय सन्देह नयँ न ?”
“नयँ साहब जी ।”
“मिस्टर बालाजी । बाइक के बगल वला बक्सा में रखलिये ह । ओकरा लेके आवऽ ।”

बाहर जाके बालाजी अखबार में लपेटल रक्खल प्रमिला के हरियर रंग के साड़ी आउ जैकेट लइलका ।
दूनहूँ जैकेट के एक तुरी हिलइलका दयाल । दूनहूँ के लम्बाइ देखे ल जैकेट के जोड़के पकड़के देखलका । दूनहूँ के साइज में जमीन असमान के फरक हलइ ।
“ई की बाई, दूनहूँ के लम्बाई बिलकुल अलग-अलग लगऽ हइ ?”
“ओरा कब सिलइलके होत ! एरा कब सिलवइलक होत !”
“तूँ तो ई दूनहूँ जैकेट प्रमिला के बता रहलहीं हँ न ?”
“हाँ, हाँ ।”

“हरेक के देह में तो एक-एक रीति के गन्ध होवऽ हइ ... ई तो तोरा मालूम हउ न ? ... अब हम की करऽ हिअउ, ऊ देखते रह ... पुलिस के कुत्ता के हीआँ बोलबावऽ हिअउ । ओक्कर थूथना के सामने ई लाल जैकेट के पकड़बउ । ई जैकेट रखके ओकरो में गन्ध पकड़के ओक्कर खुद के कोय भी हीआँ रहला पर ओकरा झपटके काटके निशान पकड़ लेतउ ... एकरा अब करके देख लेल जाय ?”

अहल्या पसीना-पसीना हो गेल ।
“क...इ...ल जाय” - ऊ बोलल ।
“अभी आवऽ हिअउ ... कुत्ता ... कुत्ता के साथ आवऽ हिअउ” - बोलते दूनहूँ जैकेट के उठाके दयाल तेज़ी से हुआँ से निकल गेला । ऊ ओद्धिर जा रहला हल त एद्धिर अहल्या “ए छोटकी !” जोर से पुकारके “पकड़, एरा में पाँच सो रुपय्या हउ । तूँ अभीये बेंगलूर के गाड़ी पकड़ आउ हमरा बोलावे तक अप्पन सास के घर पर रह । समझलँ ?”

बाहर आके दयाल आउ बालाजी बाइक में निकल गेला ।
“सच्चे में कुत्ता लेके आ रहलथिन हँ सर ?” - बालाजी पूछलका ।
“अभी एक्कर जरूरत नयँ हइ बालाजी । अहल्या के सब बात बिलकुल झूठ हइ !  हम्मर वश में वांछित के पता लगइलूँ त हम ई पुलिस के काम लगि नालायक कहलाम । ई अहल्या के आधार सहित पकड़े के चाही ... एक रीति से ई केस नाया तरीका के डकैती हइ, अइसन हमरा लग रहल ह” - दयाल बोलला ।
“हमरा समझ में नयँ आ रहल ह ।”

“आभूषण वस्त्र पेन्हले अकेल्ले औरत जा रहल ह त ओरा साथ अच्छा से बतियाके निर्जन क्षेत्र में बोलाके जाके ओक्कर खिस्सा खतम करके एक्कर घर के पता ओक्कर हैंडबैग में रख देवे के । बाद में ऊ अप्पन तरफ के औरत हके ई नाटक करके लाश के आसानी से प्राप्त करके जला देवे के !”
“त अपने के कहना हइ कि अइसन भी करे वला हका ?”

“हाँ .... ओहे रीति से ई कइल गेल होत । ई अहल्या के धन्धा । तोहरा अगर समझ में अइलो होत त ओक्कर बात में देखाय देल शेखी पर ध्यान गेलो होत न । एक्कर कीऽ कारण कह सकऽ हकहो ? ... कहल जाय त ई निर्लज्जता (बेशर्मी) हइ । एक्कर सपोर्ट लगि पीछे में रहे वला कोय एगो बड़गर अदमी हके । एरा लगि ई हमरा पास नाटक देखा रहल ह । खाली सन्देहे पर एकरा कुच्छो नयँ कइल जा सकऽ हइ । कोय पक्का सबूत चाही बालाजी ।”
“एरा ल कीऽ करथिन सर ?”
“सबसे पहिले तो ई पता लगावे के चाही कि हत्या होल ई लड़की केऽ हइ ।”
“ओहे प्रमिला नाम के ....”

“ई सब तो अहल्या के ग्रुप के छोड़ल रील हइ .... अइसे देखल जाय त ई लड़की के नाम प्रमिला हइ, एकरे में हमरा सन्देह हइ ... बालाजी । तूँ हमरा सहायता करबऽ ? स्टेशन से ‘राइट रायल’ के रूप में सब सिपाही के भेजवाके करवावे लायक काम सही हइ । लेकिन ई इन्सपेक्टर एकरा ल राजी नयँ होवे वला । उनका ल हमरा से अपेक्षित काम मतलब हमरा एगो रिक्शाचालक के उनकर सामने ले जाके खड़ा करे के चाही ।”
हम्मर सलाह के उनका बिलकुल जरूरत नयँ । हमरा कोय भी प्रश्न करे के नयँ चाही ।”
“हम की करिअइ, बताथिन ।”
“हम्मर गाड़ी में पूरा के पूरा पेट्रोल भरवा ल । मद्रास में जे-जे जगह में वज़न दर्शावे वला मशीन रहे ... हुआँ सब जगह जाके अप्पन वज़न देखके कार्ड अच्छा से सँभालके रक्खऽ । ओक्कर पीछे ऊ जग्गह के निशान बना ल ।”
“ई सब काहे ल कइल जाय, ई समझ में नयँ आल ।”
“पहिले ई काम करऽ । बाद में समझइबो ।”
घर अइला पर तुरत्ते बालाजी के उतारके उनकर खर्चा ल पइसा देके दयाल उनका भेजलका ।

No comments: