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Wednesday, October 12, 2011

फैसला - भाग 2


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दूपहर के खाना के बखत कम्पनी से कार में निकलके अविनाश तारापुर टावर्स के पार्किंग विभाग में कार के रोकलक । ओरा देखके नन्दिनी उछलते-कूदते तेज़ी से आल । हरियर रंग के फूल वला उज्जर चूड़ीदार । ओइसने हरियर रंग के दुपट्टा डालले हल । शैम्पू डालल सिर के बाल के मुख के ढँके नयँ, ई तरह से किनारे कइले हल । मेरून रंग के लिपस्टिक लगइले हल । ओहे रंग में अंगुली के नख में पॉलिश कइले हल ।

“नन्दिनी, यू आर लुकिंग गॉर्जस (शानदार) टुडे” - अविनाश बोलल ।
“रियली ?” कहके नन्दिनी हँस पड़ल ।

लिफ्ट से ऊपर के मंजिल पर के रेस्तराँ में आ गेला । सिंहासन जइसन सुन्दर देखाय दे रहल कुर्सी पर मेज के सामने ऊ दूनहूँ बइठ गेला ।
“टू मील्स प्लीज़” - अविनाश बैरा के कहलक ।
“कोय नया सेंट लगइलऽ ह की ?” - नन्दिनी पूछलक , “बतावऽ अविनाश, काहे ल फोन करके हमरा बोलइलऽ हल ? हम जे खाना लैलूँ हल ऊ चपरासी के देके अइलूँ । अइसन अर्जेन्ट कौन काम हलो ?”

अविनाश ओकरा एक टक देखलक ।
हरेक मेज पर दीप के रोशनी फैलल हल । ऊ रोशनी में मुख पर नाक के छाया पड़े से केश के रंग कार रंग में बदल गेल हल ... ऊ बहुत सुन्दर देखाय दे रहल हल ।

“नन्दिनी, हमरा बहुत प्यार करऽ हीं ?”
“ई कइसन सवाल हइ ? हमरा तोरा पर बहुत प्रेम हइ ।”
“घर पर बात बता देलहीं हँ ?”
“अभी मत बताव, अइसन तूँ हीं कहलऽ हल न ?”
“ऑफिस में न ? अलगे आउ केकरो ... कोय सहेली-उहेली के बतइलँ हँ ?”
“नो ! केकरो सामने मुँह नयँ खोललूँ हँ ... प्रेम कहल जाय त अन्तरंग सम्बन्ध के विषय हइ न, माइ ब्वाय ।”
“नन्दिनी, तोरा डायरी लिक्खे के आदत हउ ?”
ऑफिस में छुट्टी के निवेदन पत्र लिखके देवहीं में हमरा आसकत होवऽ हइ, अइसन हालत में ...
“हम तोरा कोय प्रेम-पत्र लिखलियो हल ?”
“कभी नयँ ! ई सब करऽ हका कॉलेज के लड़कन ।”
“हम दूनहूँ साथ-साथ फोटो खिंचवइलिये ह ?”
“नयँ ... हम डरके पीछे हटते-हटते आउ तूँ हमरा लाचार करते-करते हम दूनूँ आउ कोय दिलचस्प काम कर लेलिअइ” - कहके नन्दिनी प्रश्नार्थक दृष्टि डालते बोलल, “नयँ, ई सब प्रश्न काहे ल ?”
“अइसहीं नन्दिनी, एक बात के मतलब पूछ रहलियो ह । हम अब अचानक तोरा धोखा देलियो ह, अइसन समझ ...”
“धोखा देलियो ह मतलब ?”
“तोरा से छुटकारा पा लेलियो ह, ई समझ ...”
“ह्वाट द हेल यू मीन (तोहरा कहे के मतलब की हको) ?”
“आउ दोसरा तरह से कइसे समझइअउ ? तोरा बीच मझधार में छोड़के आउ दोसर एगो धनसेठ के लड़की के देखके शादी कर रहलियो ह, ई जान ले ।”
“तूँ वास्तव में अइसन नयँ कर सकऽ ह ... नो ... आउ कोय विषय पर बात करऽ ।”
“ए ! हम तो मज़ाक कर रहलियो ह । ई मान लेल जाय कि ई तरह के बात हो जाय त तूँ की करमँऽ ?”
“पेटी उठाके सीधे तोहर घर पर आके हूएँ रह जइबो ।”
“हम तोरा देखिये नयँ सकिअउ, अइसन इन्तज़ाम कइला पर ?”
“छीः ! काहे अइसे आज हमर मूड खराब कर रहलऽ ह, अविनाश ? तूँ तो बहुत अच्छा अदमी हकऽ । हमरा पसन्द करे वला । तूँ अइसन करे वला नयँ ।”
“हम कुछ पढ़लिये हल । ओक्कर अन्त कुछ जइसे-तइसे हलइ । ओहे से एरा बारे पूछ लेलिअउ । ऊ कहानी में एगो हीरो एगो लड़की के प्यार करके ओरा धोखा दे हइ । हीरोइन आत्महत्या कर ले हइ । तूँ अगर होतहीं हल त की करतहीं हल, ई पूछ रहलियो ह ।”
“आत्महत्या ? एरा से जादे बेवकूफी आउ की हइ ? ... लड़े के चाही । अन्तिम तक लड़बइ ... नयँ पुलिस काहाँ गेलइ ? कोर्ट काहाँ गेलइ ? ... ई सन अच्छा नयँ होत । मतलब ओकरा रहे नयँ देबइ, नाश कर देबइ । एगो लड़की अगर गोसा जा हइ त बाघिन बन जा हइ ! .... हम्मर जवाब काफी होल न ?”
“वेल सेड !” कहके अविनाश बिना अवाज कइले ताली बजइलका । “अइसने धीरज आउ साहस के बात ही तोरा से आशा कइलियो हल ।”

दू थाली में खाना आल । चुपचाप दूनहूँ खाना खइलका । पान चाभते कार तक पहुँचला ।
“बइठ । तोरा ऑफिस में छोड़के जा हिअउ ।”
“नयँ, जरूरत नयँ । पासे में तो हइ न ? फिर ?”

ड्राइविंग सीट पे बइठके सिगरेट के धुआँ ओक्कर मुँह पर फूँकके प्रश्नार्थक दृष्टि डाललक अविनाश ।
“फिर महाबलीपुरम् कब ?”
“नयँ बाबा !”
“डरऽ हीं ?”
“पुलिस के डर हइ । पूरा जमात के आके छापा मारला पर  बेकार के अपमान ।”
“एतने बात न हइ ? अइसन डर नयँ रहे जइसन दोसर कोय सलाह देला से चल सकऽ हइ ?”
“बात तो पहिले बतावऽ ।”
“हम्मर एक ठो दोस्त आझ साँझ के लंडन जा रहला ह । मीनाम्बक्कम् में नाया घर बनइलका ह । बीस दिन लगि चाभी हम्मर हाथ में रहत । हम्मर आयडिया कइसन हइ ?”
“वण्डरफुल ! तोहरा पर विश्वास करके तोहर दोस्त अप्पन घर तोहर भार पर सौंपके जा रहला ह, देखऽ ! उनका कहना चाही, ‘ठीक हइ, अइसहीं होवे’ ।  कब ? एतवार के ?”
“जरूरत नयँ । कल रात तोर घर पर । की कहऽ हीं नन्दिनी ?”
“ऑफिस में मैनेजर के ट्रान्सफर हो गेले ह । उनकर बिदाय के समारोह हइ । हमरा घर पर आवे में लेट हो जइतो, भई । दैट्स ऑल । हम्मर घर पर हमरा पर कोय भी प्रश्न करे वला नयँ, अविनाश .... हम सोना के अंडा देवे वली मुर्गी ... हम सबके काहाँ मिल्लल जाय, अविनाश ?”
“बाकी सब समय मिल्ले वला जगह में नयँ ... तूँ ऑफिस से निकलला के बाद लगले नेहरू प्रतिमा हइ न, ओकरे पास छो बजे आ जो । हम कार में इन्तज़ार करते रहबउ । आके बइठ जो । ओकरे में मीनाम्बक्कम् चलल जइतइ ।”
“ठीक हइ । लेकिन एक शर्त ....”
“की ?”
“तोहरा ड्रिंक्स के इस्तेमाल नयँ करे के चाही  .... ऊ दिन बहुत तमाशा कइलऽ । तीन दिन हमरा तकलीफ होल ।”
“ठीक हइ ... ड्रिंक नयँ करबउ । कल मिल्लऽ हिअउ । बाद में ...”

कार से नीचे उतरके नन्दिनी अविनाश के अंगुरी में के सिगरेट के मुँह में तुरत्ते लगाके कार के चालू कइला से बड़ी नराज़ होके “ए ! ... तूँ ...” कहके सिगरेट के मुँह पर से खींचके जमीन पर फेंकके अप्पन एड़ी से चूर देलक ।  ई तरह से नागरिकता के शिखर पर रहे वाली ऊ औरत अलक्ष्य रूप से मूर्ख बन गेल ।

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