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Friday, March 06, 2009

3. कहवाँ से हंसा आयल

कहवाँ से हंसा आयल

(डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री सम्बन्धित संस्मरण)

लेखक - अरुण कुमार सिन्हा (जन्मः 17 जनवरी 1935)

14 मई 1952 के हमर बिआह बिहारशरीफ के भैंसासुर मोहल्ला में होल त हम जानली कि हमउमरिया साँवर वरन के जे जुवक हथ, हम्मर सार हथ, नाँव हे रवीन्द्र कुमार; विग्यान के छात्र हो के भी एत्ता भावुक हथ कि भासा के शब्द पर उनकरा कमांड हासिल हे । लिखा-पढ़ी में हमरो सुरुए से रुचि हल । ई गुने सुभाविक हल कि हमन्हीं दुनहुँ के बीच काफी बने लगल । अइसे त रवीन्द्र जी के बहुत्ते दोस्त हलन बाकि एगो दोस्त हलन आउ अभियो हथ - हरिश्चन्दर जी जिनकर नाँव 'कवि जी' पड़ गेल हल । रवीन्द्र जी आउ हरिश्चन्दर जी में उठा-पटक छोड़ के सब हो जा हल । तेज तर्रार रवीन्द्र जी के आगू हरिश्चन्दर जी तर्क करे में मात खा जा हला ।

बिहारशरीफ के कुमार टॉकीज के पास के चाय के दुकान पर रवीन्द्र एवं पार्टी के जमावड़ा यादगार स्वरूप बन गेल हल । बहस-मोहाबिसा, कविता-वाचन, गीत-गायन के रोज-रोज सिलसिला देख के दुकानदार ऊब के वरदास करऽ हल, ई गुने कि पार्टी के सदस्य बढ़े से ओकर चाय के बिक्रियो बढ़ते जा हल ।

1956 के ऊ दिन हम ससुरारे में हली जब कि हरिश्चन्दर जी सुबहे-सुबह भाग के केबाड़ी थपथपा के पुकरलका - 'रवीन्दर ! रवीन्दर !' खिड़की से झाँक के देखली त हरिश्चन्दर जी एगो हमन्हीं से बड़ उमर के जुबक के साथ बहिरसी ठड़ी हथ । हम उठ के बाहर जा के दरवाजा खोल देली । हमरा देख के हरिश्चन्दर जी पूछलका - "रवीन्दर हथ ?" उत्तर में हामी भर देली हम । हरिश्चन्दर जी कहलका - "कह दऽ उनका कि डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री अइलन हे ।"

रवीन्द्र जी ऊ समय मुँह धो रहलन हल । हम जा के उनका हरिश्चन्दर जी के संवाद सुनइली त ऊ तुरन्ते जल्दी-जल्दी कुल्ला-गरारा कर के बाहर अयलन । हमहूँ बाहर इँकसली । डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री से प्रणाम-पाती होल । उनका से दूरा पर बिछल चौकी पर बैठे ला रवीन्द्र जी अनुरोध कैलका त शास्त्री जी कहे लगला - "भाई, भिक्खु जगदीश काश्यप जी से मिल के आ रहली हे । अपने के मालूम हे कि एकंगरसराय में मगही सम्मेलन होवे ला जा रहल हे । अपने सभ जरूर आयब । रवीन्द्र जी अपने से हमरा बड़ उम्मीद हे । प्रियदर्शी जी से अपने के काफी तारीफ हम सुनली हे । हिन्दी में तोहर लिखल कहानी देख-सुन के काफी खुशी होवऽ हे हमरा बाकि ओकरा से जादे खुशी हमरा तब होत जब मगही माय ला कहानी तों लिखे लगबऽ । जलमल होवऽ त लोग थारी बजइलको होत आउ 'नुनू-बाबू' शब्द जे हे मगही के ओही कान में पड़लो होत । दिल से इँकसल शबद कैसन मिठगर आउ अपनापन लेल होवऽ हे, ई कवि आउ कहानीकार जरूरे महसूस करे हे । एकरा बिसरिहऽ नञ् - येही हमर अपने से अनुरोध हे । फिर कल भेंट होत । अभी सभे के नेओते के हे, बड़ जबरदस्त काम हे, ई आदमी जुटाबे के । अप्पन रचना कविता-कहानी सम्मेलन में अइहऽ त लेले अइहऽ । 'मगही' पत्रिका भी इँउस रहल हे, एकरा ला भी रचना भेजिहऽ ।"

कह के ऊ धोती-कुरता ओला सज्जन (डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री) चमरखानी चप्पल घसीटते चल गेला । बाकि हमन्हीं पर एक छाप दे के । छाप की देलका, रात भर नींद नञ् आल । सुबह में मगही भासा में दूगो कविता रच लेली त खर्राटा ले के सो गेली ।

नौ बजे दिन में जगली त रवीन्द्र जी के दुनहूँ रचना सुनइली । 'किन-किन बोलइ कंगनवाँ' त उनका एतना भा गेल कि ऊ ठान लेलका कि ओकरा ऊ सम्मेलन में जरूरे सुनइतन । हम उनका ऊ रचना दे देली (सम्मेलन के बाद रवीन्द्र जी बतइलका कि 'किन-किन बोलइ कंगनवाँ' के लोग बढ़िया मान के सराहलन) आउ दोसरका रचना 'तोरा हम नञ् भुलइबो हे' के डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री के पास भेज देली जे 'मगही' वर्ष-1, अंक-11 के सितम्बर 1956 में छपल । पुरैनियाँ जिला में अच्छा पद पर बहाली से मगही छेत्तर से सम्पर्क टूट गेल पर हम्मर लेखनी रुकल नञ् । हम मगहिये में जादे लिखऽ ही ई त डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री के प्रेरणा हे । ऊ हम्मर बीच शारीरिक रूप से नञ् रह के भी मगही के पुरोधा बनल हथ । उनका शत-शत नमस्कार हे ।

["मगही पत्रिका", अंक-7, जुलाई 2002, पृष्ठ 20; सम्पादकः धनंजय श्रोत्रिय]

नोटः रवीन्द्र कुमार (12 नवम्बर 1933 - 21 मई 2006)

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