कवि जी हीं चोरी भेल
कहानीकार - शिव प्रसाद लोहानी
रात में खा-पी के ललटेन धीमा कर के बकुल जी खटिया पर लोघड़वे कयलन हल कि बाहर से ठक-ठक के अवाज आयल । ऊ कान पात के सुने लगलन तो फेन ई अवाज तेज हो गेल ।
ललटेन के तेज कर के हाथ में टांगलन आउ दरवाजा खोललन । दू अदमी भीतर घुस गेल आउ एगो दरवाजा बन्द कर के ओजे खड़ा रहल । एगो बोललक - 'ए कवि जी ! तूँ चुपचाप सभे नकदी, जेवर-जाठी भला मन से दे दऽ ! गड़बड़ कयलऽ तो एही पिस्तौल के गोली तोर छाती में समा जयतो ।'
कवि जी के मेहरारू भी हुआँ आ गेल । मेहरारू कुछ चिल्लाय ला चाहलक तो दोसरका अदमी मुँह पे कपड़ा ठूँस के नीचे बइठा देलक । फेन कवि जी देन्ने मुखातिब हो के कहलक - 'जल्दी से सब कुछ दे दऽ, नईं तो खैर नईं हो ।'
कवि जी कहलन - 'ए नवजवान भाई ! हम तो कवि ही, मगही कविता करऽ ही, एकरे में दिन कट जा हे । दू बीघा खेत के अनाज से हम्मर भूख मेटऽ हे । बेटा चपरासी हे । ओकरा अप्पन परिवार चलावे भर भी आमदनी नईं हे ।'
लुटेरा कहलक - 'ई सब नाटक छोड़ऽ ! रेडियो, टी॰वी॰ से तोहर कविता पाठ होवऽ हे । अखबार में भी कविता छपऽ हो । ई सब से तोरा सूप भर-भर के रुपइया मिलऽ हो । ऊ सब जमा-जट्टी के हियाँ हाजिर कर द ।'
ई सुन के कवि जी भीतर गेलन आउ कागज के टुकड़ा भरल तकिया के खोल जेकर मुँह सुतरी से बांधल हल, ला के ओकरा दे के कहलन - 'हम्मर जिनगी भर के कमाई एकरा में रखल हे ।'
सबलू के मालूम हल कि कवि जी के खजाना झोला हे, तकिया के खोल हे । एही से ऊ पा के सबलू खुशी-खुशी चल गेल । जब तीनों लुटेरन घर से बाहर हो गेलन, तब कवि जी बाहर के दरवाजा भीतर से बन्द कर के अंगना में अयलन । उनखर मेहरारू जोर-जोर से काने लगल आउ कवि जी चोर-चोर के हल्ला करे लगलन । जब कुछ लोग जमा हो गेलन तो कवि जी दरवाजा खोललन । ओही भीड़ में मगही कविता के प्रशंसक सन्तोस बाबू भी हलन । सन्तोस बाबू के देखते कवि बकुल गोकुलपुरी जोर-जोर से रोवे लगलन आउ कहलन - 'जलम भर के हम्मर कमाई खतम हो गेलो । चोर तो ओकरा फेंकहीं देत, मगर हम्मर साधना के कमाई सब विलुप्त हो जायत ।'
सन्तोस बाबू कवि जी के सन्तोस दिलावइत कहलन - 'शान्ति से दुन्नू परानी सुत जा ! हम कोई तरह से तकिया के भरल खोल ऊपर कर देबो ।'
सन्तोस बाबू राते में अप्पन दूत सब के पता लगावे ला भेज देलन । भोर में एगो दूत आ के कहलक - 'एकरा में सबलू गिरोह के हाथ हे । सबलू के अलावे दूगो शिक्षित बेरोजगार हलन ।'
सन्तोस बाबू के इलाका में बड़ी धाक हल, से सबलू के बोला के कहलन - 'कवि जी के सब समान वापस कर दे हीं । बदले में ऊ कुछ इनाम दे देथुन ।'
सबलू जवाब देलक - 'ऊ तकिया के खोल में कागज के नया-पुरान टुकड़ा पर मगही कविता लिखल हे । नीचे में बने के तारीख भी देल हे । लगऽ हे कि दस-पन्दरह बरिस के काव्य रचना के ई खजाना हे । हम ई ले के का करम ? मगर एकरा से हमरा जे खरचा होयल हे, ओकर भरपाई होवे के चाही ।'
सन्तोस बाबू बोललन - 'अरे संगी-साथी के साथे खाय-पीये में सौ-पचास रुपइया खरच होयल होतउ, से हम दे देवउ ।'
'ई की कहऽ ह श्रीमान ! खाय-पीये में सो रुपइया के करीब खरच होलो हे से अलग । बाकि कवि जी हीं चोरी करे खातिर थाना में पूरा एक हजार नजराना देवे पड़ल हे ।'
'थानेदार के देवे ला ई हजार रुपइया कहाँ से लयलँऽ ?'
'रामबाबू साव से दस पइसे फी रुपइया फी महीना सूद पर करजा ले के हम थानेदार के देलूँ हल ।'
'तो रामबाबू सुदी लगावे के धंधा कैलक हे ?'
'बीच में बेटी के शादी में उनखर सब रुपइया खरच हो गेला से ऊ कहऽ हथ कि शहर से पाँच रुपइये सैकड़ा माहवारी ब्याज पर ला के ऊ दस रुपइये सैकड़ा पर लगावऽ हथ ।'
'गजब बात हे ।'
'नईं सरकार ! इनखा से गाँव वालन के बड़ी काम चलऽ हे । कोइ प्रसव पीड़ा से छटपटा रहल हे, आपरेसन के जरूरत हे, तो ओइसन बखत में रामबाबू तुरते रुपइया दे दे हथिन, परसौती के जान बच जा हई ।'
'खैर, उनखा रुपइया लउटावे के जिम्मेवारी हम ले ही । तूँ उनखा से कह दे कि सन्तोस बाबू जमानतदार हो गेलन हे । कवि जी धीरे-धीरे रुपइया दे देतथिन । ऊ नईं देतन तो हम देम ।'
कवि जी के जब ई बात मालूम होयल तो चिन्ता में पड़ गेलन । दू-तीन अदमी से ऊ पइँचा लेले हलन कि रेडियो से जब रकम मिलत, त ओकरा से पइँचा वापस कर देतन । मगर अब तो रामबाबू के करजा पहिले चुकावे पड़त । अब एकरा अलावे कोई दोसर उपाय भी तो नईं हल ।
कवि जी के कुछ चेला हलन जे कवि जी से कविता करे के कला सीखऽ हलन । ओकन्हीं के समझ हल कि कवि जी के इज्जत के साथ-साथ पइसा भी खूब मिलऽ हे । मगर ई घटना के बाद ओकन्हीं के बड़ी निराशा होयल कि कविता करे में प्रतिष्ठा चाहे जे मिले, मगर दाल-रोटी चलाना असान नईं हे । एही से ऊ सब शिष्य-मंडली काव्य-कला सीखे के बात त्याग देलन ।
कवि जी के झोला जब मिलल, तो सब कागज के टुकड़ा के ढंग से कौपी में उतारे के काम करे लगलन । कुछ दिन में तीन पुस्तक के पाण्डुलिपि तइयार हो गेल । ई तइयार होते-होते विधान सभा के चुनाव के बखत आ गेल । एगो उम्मीदवार के अदमी आ के उनखा से चुनाव में सहयोग करे ला चिरौरी कयलक । कवि जी कहलन - 'एगो मगही के किताब नेता जी छपवा देतन तो हम उनखा जौरे घूमम ।''
उम्मीदवार तइयार हो गेलन आउ किताब छपाई ला दू हजार रुपइया दे देलन । कवि जी ऊ रकम में से रामबाबू के सभे रिन चुकता कर देलन । अपन मेहरारू से कहलन - 'अबरी चुनाव आवत तो फिन कोई नेता से एही रूप में रकम ले के मगही कविता के किताब छपवा देम ।'
रामबाबू के रुपइया चुकता कर के ऊ सन्तोस बाबू से जा के कहलन कि सभे करजा चुकता कर देलियो । सन्तोस बाबू जाने ला चाहलन कि ई रकम कहाँ से आयल तो कवि जी सब बात सही-सही सन्तोस बाबू से कह देलन । एकरा पर सन्तोस बाबू कहलन - 'अगर दस बरिस पहिले तूँ ई काम करतऽ हल, तो अब तक तोर चार गो मगही कविता के संग्रह छप जइतो हल आउ तोहर नाम अमर हो जइतो हल ।'
कवि जी टुकुर-टुकुर सन्तोस बाबू के मुँह देखे लगलन आउ विचार के मुद्रा में लीन हो गेलन ।
['अलका मागधी', बरिस-१२, अंक-२, फरवरी २००६, पृ॰ १६-१७, से साभार]
कहानीकार - शिव प्रसाद लोहानी
रात में खा-पी के ललटेन धीमा कर के बकुल जी खटिया पर लोघड़वे कयलन हल कि बाहर से ठक-ठक के अवाज आयल । ऊ कान पात के सुने लगलन तो फेन ई अवाज तेज हो गेल ।
ललटेन के तेज कर के हाथ में टांगलन आउ दरवाजा खोललन । दू अदमी भीतर घुस गेल आउ एगो दरवाजा बन्द कर के ओजे खड़ा रहल । एगो बोललक - 'ए कवि जी ! तूँ चुपचाप सभे नकदी, जेवर-जाठी भला मन से दे दऽ ! गड़बड़ कयलऽ तो एही पिस्तौल के गोली तोर छाती में समा जयतो ।'
कवि जी के मेहरारू भी हुआँ आ गेल । मेहरारू कुछ चिल्लाय ला चाहलक तो दोसरका अदमी मुँह पे कपड़ा ठूँस के नीचे बइठा देलक । फेन कवि जी देन्ने मुखातिब हो के कहलक - 'जल्दी से सब कुछ दे दऽ, नईं तो खैर नईं हो ।'
कवि जी कहलन - 'ए नवजवान भाई ! हम तो कवि ही, मगही कविता करऽ ही, एकरे में दिन कट जा हे । दू बीघा खेत के अनाज से हम्मर भूख मेटऽ हे । बेटा चपरासी हे । ओकरा अप्पन परिवार चलावे भर भी आमदनी नईं हे ।'
लुटेरा कहलक - 'ई सब नाटक छोड़ऽ ! रेडियो, टी॰वी॰ से तोहर कविता पाठ होवऽ हे । अखबार में भी कविता छपऽ हो । ई सब से तोरा सूप भर-भर के रुपइया मिलऽ हो । ऊ सब जमा-जट्टी के हियाँ हाजिर कर द ।'
ई सुन के कवि जी भीतर गेलन आउ कागज के टुकड़ा भरल तकिया के खोल जेकर मुँह सुतरी से बांधल हल, ला के ओकरा दे के कहलन - 'हम्मर जिनगी भर के कमाई एकरा में रखल हे ।'
सबलू के मालूम हल कि कवि जी के खजाना झोला हे, तकिया के खोल हे । एही से ऊ पा के सबलू खुशी-खुशी चल गेल । जब तीनों लुटेरन घर से बाहर हो गेलन, तब कवि जी बाहर के दरवाजा भीतर से बन्द कर के अंगना में अयलन । उनखर मेहरारू जोर-जोर से काने लगल आउ कवि जी चोर-चोर के हल्ला करे लगलन । जब कुछ लोग जमा हो गेलन तो कवि जी दरवाजा खोललन । ओही भीड़ में मगही कविता के प्रशंसक सन्तोस बाबू भी हलन । सन्तोस बाबू के देखते कवि बकुल गोकुलपुरी जोर-जोर से रोवे लगलन आउ कहलन - 'जलम भर के हम्मर कमाई खतम हो गेलो । चोर तो ओकरा फेंकहीं देत, मगर हम्मर साधना के कमाई सब विलुप्त हो जायत ।'
सन्तोस बाबू कवि जी के सन्तोस दिलावइत कहलन - 'शान्ति से दुन्नू परानी सुत जा ! हम कोई तरह से तकिया के भरल खोल ऊपर कर देबो ।'
सन्तोस बाबू राते में अप्पन दूत सब के पता लगावे ला भेज देलन । भोर में एगो दूत आ के कहलक - 'एकरा में सबलू गिरोह के हाथ हे । सबलू के अलावे दूगो शिक्षित बेरोजगार हलन ।'
सन्तोस बाबू के इलाका में बड़ी धाक हल, से सबलू के बोला के कहलन - 'कवि जी के सब समान वापस कर दे हीं । बदले में ऊ कुछ इनाम दे देथुन ।'
सबलू जवाब देलक - 'ऊ तकिया के खोल में कागज के नया-पुरान टुकड़ा पर मगही कविता लिखल हे । नीचे में बने के तारीख भी देल हे । लगऽ हे कि दस-पन्दरह बरिस के काव्य रचना के ई खजाना हे । हम ई ले के का करम ? मगर एकरा से हमरा जे खरचा होयल हे, ओकर भरपाई होवे के चाही ।'
सन्तोस बाबू बोललन - 'अरे संगी-साथी के साथे खाय-पीये में सौ-पचास रुपइया खरच होयल होतउ, से हम दे देवउ ।'
'ई की कहऽ ह श्रीमान ! खाय-पीये में सो रुपइया के करीब खरच होलो हे से अलग । बाकि कवि जी हीं चोरी करे खातिर थाना में पूरा एक हजार नजराना देवे पड़ल हे ।'
'थानेदार के देवे ला ई हजार रुपइया कहाँ से लयलँऽ ?'
'रामबाबू साव से दस पइसे फी रुपइया फी महीना सूद पर करजा ले के हम थानेदार के देलूँ हल ।'
'तो रामबाबू सुदी लगावे के धंधा कैलक हे ?'
'बीच में बेटी के शादी में उनखर सब रुपइया खरच हो गेला से ऊ कहऽ हथ कि शहर से पाँच रुपइये सैकड़ा माहवारी ब्याज पर ला के ऊ दस रुपइये सैकड़ा पर लगावऽ हथ ।'
'गजब बात हे ।'
'नईं सरकार ! इनखा से गाँव वालन के बड़ी काम चलऽ हे । कोइ प्रसव पीड़ा से छटपटा रहल हे, आपरेसन के जरूरत हे, तो ओइसन बखत में रामबाबू तुरते रुपइया दे दे हथिन, परसौती के जान बच जा हई ।'
'खैर, उनखा रुपइया लउटावे के जिम्मेवारी हम ले ही । तूँ उनखा से कह दे कि सन्तोस बाबू जमानतदार हो गेलन हे । कवि जी धीरे-धीरे रुपइया दे देतथिन । ऊ नईं देतन तो हम देम ।'
कवि जी के जब ई बात मालूम होयल तो चिन्ता में पड़ गेलन । दू-तीन अदमी से ऊ पइँचा लेले हलन कि रेडियो से जब रकम मिलत, त ओकरा से पइँचा वापस कर देतन । मगर अब तो रामबाबू के करजा पहिले चुकावे पड़त । अब एकरा अलावे कोई दोसर उपाय भी तो नईं हल ।
कवि जी के कुछ चेला हलन जे कवि जी से कविता करे के कला सीखऽ हलन । ओकन्हीं के समझ हल कि कवि जी के इज्जत के साथ-साथ पइसा भी खूब मिलऽ हे । मगर ई घटना के बाद ओकन्हीं के बड़ी निराशा होयल कि कविता करे में प्रतिष्ठा चाहे जे मिले, मगर दाल-रोटी चलाना असान नईं हे । एही से ऊ सब शिष्य-मंडली काव्य-कला सीखे के बात त्याग देलन ।
कवि जी के झोला जब मिलल, तो सब कागज के टुकड़ा के ढंग से कौपी में उतारे के काम करे लगलन । कुछ दिन में तीन पुस्तक के पाण्डुलिपि तइयार हो गेल । ई तइयार होते-होते विधान सभा के चुनाव के बखत आ गेल । एगो उम्मीदवार के अदमी आ के उनखा से चुनाव में सहयोग करे ला चिरौरी कयलक । कवि जी कहलन - 'एगो मगही के किताब नेता जी छपवा देतन तो हम उनखा जौरे घूमम ।''
उम्मीदवार तइयार हो गेलन आउ किताब छपाई ला दू हजार रुपइया दे देलन । कवि जी ऊ रकम में से रामबाबू के सभे रिन चुकता कर देलन । अपन मेहरारू से कहलन - 'अबरी चुनाव आवत तो फिन कोई नेता से एही रूप में रकम ले के मगही कविता के किताब छपवा देम ।'
रामबाबू के रुपइया चुकता कर के ऊ सन्तोस बाबू से जा के कहलन कि सभे करजा चुकता कर देलियो । सन्तोस बाबू जाने ला चाहलन कि ई रकम कहाँ से आयल तो कवि जी सब बात सही-सही सन्तोस बाबू से कह देलन । एकरा पर सन्तोस बाबू कहलन - 'अगर दस बरिस पहिले तूँ ई काम करतऽ हल, तो अब तक तोर चार गो मगही कविता के संग्रह छप जइतो हल आउ तोहर नाम अमर हो जइतो हल ।'
कवि जी टुकुर-टुकुर सन्तोस बाबू के मुँह देखे लगलन आउ विचार के मुद्रा में लीन हो गेलन ।
['अलका मागधी', बरिस-१२, अंक-२, फरवरी २००६, पृ॰ १६-१७, से साभार]
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