मूल कन्नड - सास्कामूर्ति
मगही अनुवाद - नारायण प्रसाद
दयानन्द घड़ी पर नज़र डाललक । रात के आठ बज्जल हल । फोन डायल करके रिसीवर कान से लगइलक । दू पल के बाद ओद्धिर से रश्मि के अवाज़ सुनाय देलक ।
“हैलोऽऽ !”
“हैलोऽऽ ! रश्मि, दयानन्द बोल रहलियो ह ।“
“कीऽ बात हइ ?” - अवाज़ में यान्त्रिक रुकावट हल ।
“तोरा साथ बात करे के हलउ ।“
“कहऽ, कीऽ बात हको ?”
“फ़ोन पर बतावल नयँ जा सकऽ हउ । जयनगर के बंगला पर अइला से अच्छा होतउ ।“
दू पल के मौन के बाद ।
“अभी आवल जाय कीऽ ?”
“आ जाव रश्मि । बात हम दूनहूँ से सम्बन्धित हउ ।“
“ठीक हको, आ रहलियो ह । हमरो तोहरा से बात करे के हको ।“
“हम तोर इन्तज़ार कर रहलियो ह ।“
एतना कहके फोन रख देलक ।
कपाट से ह्विस्की के बोतल निकालके दू पेग पीलक । रश्मि के अन्तिम बात ओक्कर दिमाग में उलझन पैदा कर देलक हल ।
खिड़की के पास खड़ा होके बाहर के अन्हार के तरफ निगाह डाललक ।
घुप्प अन्हेरा में डुब्बल पेड़ सब आकाश के पृष्ठभूमि में एक-एक करके गुम्फित होके अस्पष्ट आधार उभारके निगूढ़ भावना के बढ़ा रहल हल । दस मिनट गुजर गेल ।
दूर में रेखा जइसन सिकुड़ल बंगला तरफ आ रहल कार पर ध्यान गेल ।
भौं चढ़ाके ऊ खिड़की तरफ से अलगे हट्टल ।
गेट खुला रहलो पर कार अन्दर नयँ आके गेट के पासे खड़ी हो गेल ।
रश्मि नीचे उतरके अन्दर घुस्सल । दरवाजा के पास आके घंटी बजइलक ।
उफनके आ रहल उद्वेग के रोके के कोशिश करते एक आउ पेग ह्विस्की पीके अप्पन चेहरा के रूमाल से पोंछके आगे चलके दयानन्द दरवाजा खोललक ।
“स्वागत हउ ! स्वागत हउ ! अन्दर आव रश्मि !” - स्वागत करते बगल में सरकके खड़ा हो गेल ।
रश्मि अन्दर आल । एद्धिर-ओद्धिर देखते सोफा के ऊपर बैठ गेल ।
“कीऽ लावल जाय ? ठंढा, गरम ?”
कुछ नयँ चाही, ई अन्दाज़ में सिर हिलइलक ।
“कुछ नयँ । अभी काहे ल बोलइलऽ ह, कहऽ ।“
“पहिले आराम से बइठ । कोल्ड् ड्रिंक्स् लावऽ हिअउ । फेर बात कइल जइतइ ।“
एतना कहके अन्दर जाय ल तइयार दयानन्द के रश्मि रोकलक ।
“दयानन्द, हमरा पास समय नयँ हको । दोसर बहुत सन काम हइ । मतलब के बात जल्दी सन कह द, त अच्छा होतइ ।“
ओक्कर अवाज़ के कठोरता दयानन्द के अचरज में डाल देलक । ओकरा तरफ एक तीक्ष्ण दृष्टि डाललक । रश्मि के दृष्टि में कोई बदलाव नयँ होल ।
दू पल तक एक टक देखते पैंट के जेभी में हाथ घुसाके एद्धिर-ओद्धिर चहलकदमी करते बोलल ।
“रश्मि, तोरा से एक्के सवाल करे के इच्छा हउ । हम्मर आउ तोर परिचय अभीयो ताजा हउ । साथ-साथ बड़ा होलूँ हँ । पहिलहीं हम दूनहूँ के बीच परस्पर एक प्रकार के प्रीति के अंकुर निकल चुकल हल । ई भावना ही 'प्रीति' हके अइसन हम दूनहूँ के जानकारी में आवे के पहिलहीं प्रभाकर के साथ तोर बियाह हो गेलउ । हम्मर भावना के गहराई के हमरा आभास नयँ होवे के कारण ई बियाह से हम दूनहूँ में कोय निराशा पैदा नयँ होल । हम्मर आत्मीयता कइसनो अड़चन के बिना बरकरार रहल । एरा अलावे तोर बियाह के समय में हम अमेरिका में हलूँ । हमरा वापस आवे के पहिलहीं प्रभाकर के मौत हो गेल । ई तरह हम दूनहूँ अप्पन-अप्पन पहिले स्थान आउ भावना में ही वापस आ गेलूँ । हम्मर प्रेम दृढ़ हो गेल । एरा अलावे हम दूनहूँ के बीच बहुत सारा चर्चा भी होल । ठीक हइ न ?”
जवाब के इन्तज़ार में एक पल मौन रहला के बाद आगे बोलल ।
“रश्मि, प्रेम के बारे में हम सब बहुत कुछ बात कर चुकलूँ हँ । आगे के जीवन के बारे में सपना देखलूँ हँ । बियाह के बन्धन में बन्हे के भी निश्चय कइलूँ हँ । ठीक हइ न ?”
रश्मि कोई उत्तर नयँ देलक ।
“अगले महिन्ने हम दूनहूँ शादी करे के निर्णय लेलूँ हँ, याद हउ न ?”
रश्मि के मुख पर पहिले से ताला लग्गल हल ।
“तूँ एहे पुच्छे ल चाहऽ हलऽ ?” - गम्भीर स्वर में ऊ पूछलक ।
दयानन्द के चहलकदमी रुक गेल । एक पल स्तब्ध होके खड़ा रहल । बाद में रश्मि तरफ मुड़के खड़ा-खड़ा तक्के लगल । मुख पर कउनो भावना के लेशमात्र भी नयँ होके सपाट हल ।
“तोरा बहुत जल्दीबाजी हउ । ठीक हउ रश्मि, शादी के दिन कउन सा रक्खल जाय ?”
रश्मि के मुख लाल हो गेल । झट से बोलल ।
“दयानन्द, हमहूँ तोरा से एक विषय पर बात करे ल चाहऽ हलूँ । ईहो हम्मर बियाहे से सम्बन्ध रक्खऽ हइ ।“
“अइसन बात हइ ?” - दयानन्द के त्योरी चढ़ गेल ।
रश्मि जरूरत से जादे गम्भीर होके बोलल ।
“ई बियाह सम्भव नयँ ।“
दयानन्द के रीढ़ से मानूँ शीत के लहर दौड़ गेल । ऊ दिल के धड़कन के वश में करे के कोशिश कइलक ।
मौन छा गेल ।
वातावरण के नीरवता शरीर आउ मन के जब चाटे ल शुरू कइलक त रश्मि उठ गेल ।
"अब हम चलऽ हियो । बहुत देर हो गेल ।"
दयानन्द ओरा तरफ देखके मुसकइलक ।
"रश्मि, तोर बात के हम्मर उत्तर बहुत छोट्टे हउ । जाय के पहिले दू मिनट लगि बइठ जो । हमरा आउ भी कुछ कहे के हउ ।" - एतना कहके दहिना हाथ देके ओक्कर बाँह के जरि जोर से दबइलक ।
रश्मि झुकके बइठल रहल । मुख लाल हो गेल ।
दयानन्द एकरा पर ध्यान नयँ जाय के अभिनय करते बात आगे बढ़इलक ।
"रश्मि, तोर व्यवहार हमरा अचरज में डाल देलको ह । अगले महिन्ने बियाह के तिथि तय करे के बारे हमन्हीं निश्चय कइलूँ हल, शायद एक महिन्ना पहिले । ऊ समय के तोर मुखभाव हमरा अभीयो अच्छा से याद हके । केतना सुन्दर सपना के प्रतिबिम्बित कर रहल हल ऊ मुख !"
अप्पन चहलकदमी फेर चालू कइलक । ओक्कर दहिना हाथ के मुट्ठी बायाँ हाथ पर प्रहार कर रहल हल ।
"लेकिन अब तोर व्यवहार अचानक बदल गेलो ह । तूँ अब पहिले वली रश्मि नयँ रहलँ । हमरा बारे तोर भावना सब मर गेलो ह ।"
दयानन्द रश्मि के मुख देखलक । रश्मि कुछ बात नयँ कइलक । लेकिन उच्छ्वास के वेग, ओक्कर उद्विग्नता चिल्ला-चिल्लाके बोल रहल हल ।
दयानन्द धीरे-धीरे होंठ हिलइलक । ओक्कर मुख पर अर्द्ध क्रूर हास देखाय पड़ रहल हल । गम्भीर होके बोलल ।
"ई सब कइसे हो गेल ? कहीं हमहीं कभी गलती से तोरा अप्पन असली रूप तो नयँ देखा देलिअउ, ई हमरा शंका हो रहल ह ।"
ओक्कर बात के शैली रश्मि के अचानक भयभीत कर देलक ।
"तोर असली रूप कइसन हको ?" - अवाज़ में बड़बड़ाहट हल ।
दयानन्द ठठाके हँस पड़ल ।
"हा ! हा !! हा !!! असली रूप ! ठीक हउ । हमरा बारे जब तोर कुछ भी भावना ही शेष नयँ रह गेलो ह त तोरा बता देवे में कोय हर्जा भी नयँ हउ ।"
एतना कहके ओक्कर तरफ झुक्कल । ओक्कर आँख रश्मि के छाती पर मानूँ प्रहार कर रहल हल ।
"रश्मि, तोर पहले के स्थिति एक मुग्ध स्थिति हलउ -- भ्रान्ति के स्थिति । कोमल, सुन्दर भावना तोर चारों तरफ चक्कर लगा रहलो हल । बहुत कुछ तोर ई भावना के अप्पन अनुकूल उपयोग भी कर लेलिअउ । रश्मि, हम तोरा प्यार करऽ हिअउ, अइसन अगर तूँ समझऽ हँ त ई तोर भूल हउ ! समझलँ ? एतना दिन तोरा साथ हम प्यार के खाली नाटक कइलियो ह ! समझलँ ? काहे ? काहे कि हमरा चाही हल तोर जयदाद ! हम्मर प्रमुख उद्देश्य हलउ पइसा । जेकरा ल पइसे प्रमुख होवऽ हइ, ओरा ल भावना के कोय जगह नयँ होवऽ हइ । समझलँ ? मूर्ख लड़की ! हम्मर असली रूप हउ एगो शैतान के रूप ! पइसा ल, जयदाद ल हम कुछ भी कर सकऽ हिअउ ! शायद ई बात के तोरा पर प्रयोग करे में बहुत समय बाकी नयँ हउ !"
ओक्कर मुख मानूँ चकनाचूर हो गेल हल । आँख भँवर जइसन घूमते प्रतीत हो रहल हल ।
रश्मि काँप गेल । होंठ काँप गेल । दयानन्द के मुख पर अचानक प्रकट होल अमानुषता ओक्कर हृदय के छलनी करे लगल । उठके खड़ा होवे के कोशिश करके फेर बइठ गेल ।
दयानन्द जेभी से सिगरेट निकालके जलाके गहरा धुआँ छोड़ते बोलल ।
"रश्मि ! रश्मि ! एक बात हमरा समझ में नयँ अइलउ । एतना दिन तक एतना अधिक प्यार करे वली अब बदल कइसे गेल ? काहे ल ?"
"हरेक बात के कारण देना ज़रूरी नयँ !" - रश्मि धीरज धरके बोलल ।
"हा ! हा !! हा !!! हमरा ल आसक्ति बिलकुल समाप्त करके तूँहीं एक तरह से हमरा पर उपकार कइलँ हँ । हमरो तोरा से बियाह करे के इच्छा काहाँ हउ ? हम साफ-साफ बता देलिअउ न कि हमरा चाही हल खाली तोर जयदाद !"
"त ई हउ तोर असली रूप ! शैतान कहीं के ! ई तो हम पहिलहीं समझ गेलियो हल ! ओहे से तोरा दूर करे के प्रयास कइलिअउ !" - रश्मि चिल्ला उठल । ऊ समय के माहौल में भी ओक्कर मुख क्रोध से लाल हो गेल ।
दयानन्द के त्योरी चढ़ गेल ।
"प्रयास कइलँ ? काहे ल ? एकरा से कीऽ लाभ ?"
रश्मि कुछ कहहीं जा रहल हल । कुछ खयाल में आ गेला पर अचानक पीछे खिसक गेल । दयानन्द के मुख पर तीक्ष्ण दृष्टि डालते पूछलक ।
"ई सवाल तूँ काहे ल कर रहलँ हँ ?"
दयानन्द सिगरेट के निच्चे फेंकके गोड़ से मसल देलक । सिर ऊपर करके क्रूर दृष्टि डालते बोलल ।
"नाटक कर रहलऽ हँ ? पिछला महिन्ना के सुभाष के पार्टी के दिन आद हउ न ?” - एतना कहके ओक्कर तरफ अइसे देखलक मानूँ ओकरा पर प्रहार करे ल चाहऽ हल । “अगर आद नयँ हउ त अचरज के बात हउ ! ऊ रात के तूँहीं सेवा के विचार से अप्पन कुल जयदाद हम्मर पाँच नर्सिंग होम के नाम से लिख देलँ ! हइ न ?
हा ! हा !! हा !!! रश्मि ! अब तूँ भिखारनी हो गलँ हँ ! तोर नाम से एक्को पइसा नयँ बचलो ह ! समझलँ ?"
दयानन्द अट्टहास कइलक । ओक्कर अट्टहास के अवाज बंगला के अन्दर गूँज रहल हल ।
रश्मि के मुख श्वेत हो गेल । होंठ कुछ बोले के प्रयास कर रहल हल, लेकिन कोय शब्द निकल नयँ पा रहल हल ।
"हा ! हा !! हा !!! रश्मि ! तोरा से अब हमरा दू पइसा के भी प्रयोजन नयँ हकउ । तोर जीना हमरा ल काँटा जइसन लग रहलो ह ! तोरा हीआँ बोलावे के कीऽ उद्देश्य हलउ, मालूम हउ ? ई एकान्त बंगला हउ । हीआँ कुच्छो कइल जाय त केकरो कानो कान खबर नयँ होतउ ! रश्मि ! अब तोरा जान मारके तोर हड्डी-मांस के अलग-अलग करके मांस के अम्ल में गला देवउ ! तोर अस्थि-पंजर के नर्सिंग होम में रख देवउ ! रश्मि ! कइसन लगलउ हम्मर योजना ? हा ! हा !! हा !!!"
दयानन्द पागल के तरह हँस्से लगल । ओक्कर मुख पर प्रकट प्रेतकला रश्मि के देह में धीरे-धीरे भय के बौछार पैदा करे लगल । देहो थरथराय लगल । प्राण के भय से ओक्कर स्वर धीमा होके, गला सूखके मुख भी चूना जैसे उज्जर होवे लगल ।
कपाट के तरफ जाके दयानन्द ओक्कर दरवाजा खोललक । बोतल के शराब के उँड़ेलके पानी मिलइलक आउ गटागट पी गेल ।
भयभीत रश्मि के आँख ओक्कर हरेक हरकत के पीछा कर रहल हल ।
दयानन्द मुड़ल ।
नशा में धुत्त ओक्कर आँख लाल होल हत्यारा के भाव प्रकट कर रहल हल । रात्रि के नीरवता शरीर आउ मन के चाट रहल हल । स्तब्ध वातावरण हल । भय के शीतल तृणभूमि हल ।
दयानन्द तेजी से रश्मि तरफ बढ़ल । रश्मि घबराके उठ गेल । ओक्कर मुख प्राण भय के कारण चूर-चूर हो गेल । दयानन्द के हाथ ओक्कर बाँह के पकड़ लेल जइसे ऊ विकार ध्वनि में चीख पड़ल ।
दयानन्द तेजी से रश्मि के तरफ चलके आल । रश्मि घबराके उठ गेल ।
दयानन्द पागल के तरह हँसते मुँह से निरर्थक शब्द निकालते ओकरा अन्दर के कमरा तरफ घसीटे लगल ।
"पिशाच ! हमरा छोड़ ! नयँ तो पुलिस के बोलइवउ !"
ओक्कर चिल्लाहट के दयानन्द पर कोई असर नयँ होल । ठहाका लगइते ऊ ओकरा कोठरी के अन्दर ले गेल आउ पलंग पर पटक देलक ।
"जरि सन भी दरद नयँ होतउ, रश्मि ! तूँ मर गेलँ हँ, अइसन तोरा भान भी नयँ होतउ । बहुत शान्त मौत ! समझलँ ? एगो निम्मन लड़की जइसन बइठ जो । दूइये मिनट । अन्दर में ऑपरेशन रूम हउ न ? सब कुछ तैयार करके अइलियो ह ।" - अट्टहास करते बगल के कोठरी में गेल ।
आँख से ओकरा ओझल होवे के देर हल । रश्मि उठके खड़ी हो गेल । ओक्कर हाथ-गोड़ तेजी से चले लगल । एतने में दयानन्द फेर अन्दर आल । ओक्कर हाथ में दरवाजा के ताला के चाभी (कुंजी) हल ।
"अहा ! चकमा देवे के प्रयास ! शाबास ! लेकिन कोई लाभ नयँ !"
रश्मि द्वेष भरल दृष्टि से ओरा देखके चीख पड़ल ।
"मूर्ख ! तोर दिमाग खराब हो गेलो ह ! शैतान कहीं के !"
दयानन्द जोर से हँस पड़ल । बाहर जाके दरवाजा बन्द कर देलक । फेर ताला लगावे के अवाज सुनाय देलक ।
रश्मि उन्मत्त जइसे समुच्चे कोठरी पर सरसरी निगाह डाललक । हूआँ से छुटके निकल जाना ही ओक्कर पहिला काम हल । समुच्चे शरीर अइसे काँप रहल हल मानूँ थकके चकनाचूर हो गेल ह । हाथ-गोड़ तो मानूँ शक्तिहीन हो गेल हल ।
दयानन्द कहलक हल - "दूइये मिनट !"
"लगऽ हके कि कल्पना से भी अधिक भयंकर मौत हमरा मरे के हके ।"
आँख के सामने मृत्यु के नाच चल रहल हल । समय गुजर रहल हल ।
पागल नियर कोठरी में दौड़ लगइलक । कहूँ कइसनो रस्ता देखाय नयँ देलक ।
अचानक ओकरा कुछ खियाल आ गेला पर ओक्कर आँख चमक उठल ।
ई बंगला के पीछे एक तुरी आल हल । ई कोठरियो में आल हल । ओक्कर आद के मोताबिक ई कोठरी के शौचालय के खिड़की में लोहा के कोय छड़ नयँ हल ।
एतने आद आवे के देर हल । ऊ खुशी से उछल पड़ल । शौचालय के दरवाजा खोललक । खिड़की के दरवाजा बन्द हल । एकरो खोललक । बाहर के हावा के झोंका अन्दर आल ।
दिल जोर से धड़क उठल । खिड़की के नीचे स्टूल रखके ओरा पर चढ़के खिड़की के छज्जा के पकड़के देह के ऊपर उठावे ल शुरू कइलक । ओक्कर शरीर खेल के अभ्यस्त हल । ओहे से आसानी से खुद के खिड़की के बाहर निकाल लेलक आउ बाहर के अन्हरवे में कूद पड़ल ।
दिल तेजी से धड़क रहल हल । पागल नियर गेट तरफ भागल । कदम-कदम पर मौत के लाल जीभ ओक्कर पीठ के चाटे के प्रयास कर रहल हल ।
जमीन के ऊँचाई-गहराई के बिना कुछ खियाल कइले सरपट भागते कार तक पहुँच गेल, दरवाजा खोललक आउ अन्दर घुस गेल । तुरन्त कार चालू कइलक । छोड़ल रॉकेट के वेग नियर पल भर में ही कार सिकुड़के गायब हो गेल ।
कार के शब्द सुनके दयानन्द दरवाजा के पास दौड़के आके खड़ा हो गेल । ओक्कर मुख शान्त हो गेल ।
कार जे दिशा में गेल ओद्धिर एक टक देखते रहल । होंठ धीरे से विकसित होके मन्दहास बिखेरलक । वापस मुड़के टेलिफोन तरफ चलके नम्बर डायल कइलक ।
"हैलो, गोपी ?"
"हाँ, बोल रहलियो ह । कीऽ बात हउ ?"
"तूँ जइसे बतइलँ हँल ओइसहीं कइलिअउ ।"
"बहुत अच्छा । ओरा कोय सन्देह तो नयँ होलउ ?"
"नयँ । ऊ बहुत अधिक डर गेल ह ।"
दयानन्द घट्टल घटना विस्तार से कहके सुनइलक । सब कुछ सुन लेला के बाद गोपीनाथ कहलक – "ठीक हउ । अब अराम से सो जो । कल कुछ घट सकऽ हउ । सावधानी बरत । आवश्यक होलउ त हमरा फोन कर ।"
"ठीक हउ ।"
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