हाँ, हम रिश्तेदार ही श्रीकान्त शास्त्री के
[डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री (1923-1973) सम्बन्धित संस्मरण]
लेखक - धनंजय श्रोत्रिय
अपन बात के पुष्टि ले एगो घटना के चरचा जरूरी समझऽ ही । दिल्ली में 'वागार्थ' पत्रिका के करता-धरता एगो बड़गर कार्यक्रम कर रहलन हल, 'इंडिया इंटरनेशनल सेंटर' में । ऊ घड़ी तक 'वागार्थ' हिन्दी के साहित्यिक पत्रिका में अपन सेसर स्थान बना चुकल हल । से-से डॉ॰ प्रभाकर श्रोत्रिय लोग के चहेता बन चुकलन हल । खास करके मीडिया ले ।
ऊ घड़ी हमहूँ अखबारी संपादक हली । जन्ने-तन्ने सक्रिय रहे से थोड़े तेजी से पहचान बन रहल हल । हमर कुछ दोस-मोहिम, जे पत्रकारिता के काम से जुड़ल हलन, जाने चाहऽ हलन कि एकर मूल में की हे । एगो पत्रकार मित्र पूछ बइठल - "धनंजय, प्रभाकर श्रोत्रिय तुम्हारे रिश्तेदार हैं ?"
हम बेलाग नहकार गेली । हलाँकि ऊ माहौल में चाहती हल त थोड़े जस हमहूँ अपना दने उपछ सकली हल, अपना के प्रभाकर जी के रिश्तेदार बता के । बाकि, मुरुख जे हली । आखिर में ऊ दुपहरिया के भोजन घड़ी पूछ बइठल - "प्रभाकर जी, धनंजय श्रोत्रिय आपका रिश्तेदार है ?"
हमरा अचरज होल जब ऊ अपन उत्तर 'हाँ' में देलन ।
"लेकिन धनंजय तो कह रहा था प्रभाकर जी, कि आप उसके रिश्तेदार नहीं हैं !" पत्रकार मित्र उनकर उत्तर पर शंका व्यक्त कइलन ।
"वो जरा मुझसे नाराज चल रहा है ।" प्रभाकर जी थोड़े गंभीरता से उत्तर देलन ।
दोसर प्रश्न पूछल गेल - "कैसी रिश्तेदारी है आपसे उसकी ?"
उत्तर मिलल - "आप हमें साहित्यकार-रचनाकार मानते हो ? ... मानते हो न ? ... धनंजय को रचनाकार मानते हो ?"
सबके उत्तर 'हाँ-हाँ' में मिलल । प्रभाकर जी मुस्कइते बोललन - "तो, धनंजय से मेरी रिश्तेदारी में सन्देह कहाँ है !"
हमर खास तरह के मित्र लोग के चेहरा पर आठ बज के बीस मिनट हो गेल ।
हम ई बात से थोड़े लजइली जरूर बाकि ई बात के गिरह बान्ह लेली कि एक रचनाकार के सबसे करीबी रिश्तेदार दोसर रचनाकारे हो सकऽ हे, ओकर बेटा-पोता नञ् । 'मगही-पत्रिका' के परचार-परसार ले जब गामे-गाम आउ दुआरिए-दुआरिए ढनमनाय पड़ रहल हे, त ई बात के आउ जोरदार ढंग से पुष्टि हो गेल हे, हमर मन में ।
'डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री अंक' जेकर जरूरत हम महसूस कर रहली हल, निकाले के सूचना जब 'मगही पत्रिका' में छापली त दु-चार गो झमठगर मगही के विदमान पूछ बैठलन हमरा से - "श्रीकान्त शास्त्री आपके रिश्तेदार थे क्या ?" बस, प्रभाकर श्रोत्रिय के इयाद करके उनकर चेहरा पर 'आठ-बीस' बजा देली । अजगूत लगल कि आदमी के सोंच के स्तर के सिमाना केतना सिकुड़ गेल हे । खास करके तब जब हमरा से पूछल गेल - "उनकर परिवार के लोग आर्थिक सहजोग दे रहलन हे न ?" याने ऊ अपना के उनका से अलग मानऽ हथ । व्यक्तिवादी दिमाग में कभी समष्टिवादी विचार उभर नञ् सकऽ हे, जैसे बाँस के कोठी में कभियो मीठा फल नञ् लग सकऽ हे ।
खैर, लोग जिनका परिवार कहऽ हे, उनको पर चरचा जरूरी हे । सबसे पहिले खोजते-ढूँढ़ते श्री विष्णुकान्त शर्मा जी के पास गेली, जे जहानाबाद में ऊटा में रहऽ हथ, आउ उनकर बड़का दमाद हथ । पत्रिका देखलन । उनकर अनेक सवाल के जवाब देवे पड़ल, बाकि हमर जरूरत के कोय चीज प्राप्त नञ् हो सकल हुआँ । उनका पास डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री से जुड़ल जे चीज हे, ऊ हे - 'धन मधे धन, तीन लुंडा सन ।'
उनकर छोट दमाद सुरेश आनंद जी से मिले खातिर मायथन गेली बाकि हमर दुरभाग कि भेंट नञ् हो सकल । रह गेलन प्रो॰ शेषानंद बाबू आउ डॉ॰ मारुति बाबू जिनका ल हमर मन में विशेष आदर हे । अपन कोरसिस के बावजूद हम दुरभाग बस उनका पकड़ नञ् सकलूँ । अपने सबसे बादा हे कि ई तीनों विभूति के पास डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री से जुड़ल जे भी सामग्री इया संस्मरण होत, 'मगही पत्रिका' के आगू के अंक में हम जरूर परोसम । ... शास्त्री जी के अप्रकाशित मौलिक रचना तो अब मोसकिले से मिल सकत । शास्त्री जी के ... जदि कुछ रचना प्रकाश में आ सके त हम्मर धन्न भाग !
1955 में जब 'मगही' के छपे ल शुरू होल, ऊ समय शास्त्री जी के साथ ठाकुर रामबालक सिंह के अलावे नउजवान के एगो तिकड़ी हल । ऊ तिकड़ी के दू हस्ताक्षर से अपने के खूब परचे हे, ऊ हथ - मगही के सेसर कहानीकार श्री रवीन्द्र कुमार आउ मगही के सेसर गीतकार डॉ॰ हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी । ई अंक में तीनों के रचना सामिल हे । स्व॰ ठाकुर रामबालक सिंह के लेख 'मगही गद्य-पद्य संग्रह' से साभार लेली हे, जे एगो वैयक्तिक लेख हे । रवीन्द्र कुमार डॉ॰ शास्त्री जी के तरासल रचनाकार हथ, ई गुने उनकर रचना संस्मरणात्मक हे, जबकि डॉ॰ हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी के लेख ऊ घड़ी के मगही के परिदृश्य चित्रित करे हे जेकर तथ्यात्मक पुष्टि के प्रमाण सिर्फ लेखक के पास हे ।
जब 'मगही' के प्रकाशन रुक गेल आउ 'शोध' जलमतहीं काल के कल्ला में चल गेल त शास्त्री जी लगभग फरास हो गेलन । 'श्रीकान्त सरधांजली अंक' में डॉ॰ रामनन्दन के मसुआइल फूल से लगऽ हे कि उनकर मन में कुहासा भरल 'बिहान' के भी अंदेसा छाय लगल हल । ईहे समय में ऊ एक दिन प्रो॰ वीरेन्द्र वर्मा (हिन्दी/ मगही के श्रेष्ठ गद्यकार) हीं पहुँचलन । वर्मा जी हलन तो मैथिलीभाषी आउ पढ़वऽ हलन अंग्रेजी, बाकि मगह में रहे के चलते उनका मगही से भी मोह हो गेल, जेकरा में श्रीकान्त शास्त्री जी के भी जोगदान हे । प्रो॰ वर्मा के संस्मरण में उनकर टूटन के झलक साफ मिलऽ हे ।
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हमरा जानकारी में खोरठगर से खोरठगर जेतना धातु के कुंदन बनावे के काम डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री कयलन, ओतना आज तक कोय मइया के लाल नञ् कर सकल हे , नञ् करत !
['मगही पत्रिका', अंक-7, जुलाई 2002, के 'संपादकीय' अंश, पृ॰ 5-6]
[डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री (1923-1973) सम्बन्धित संस्मरण]
लेखक - धनंजय श्रोत्रिय
अपन बात के पुष्टि ले एगो घटना के चरचा जरूरी समझऽ ही । दिल्ली में 'वागार्थ' पत्रिका के करता-धरता एगो बड़गर कार्यक्रम कर रहलन हल, 'इंडिया इंटरनेशनल सेंटर' में । ऊ घड़ी तक 'वागार्थ' हिन्दी के साहित्यिक पत्रिका में अपन सेसर स्थान बना चुकल हल । से-से डॉ॰ प्रभाकर श्रोत्रिय लोग के चहेता बन चुकलन हल । खास करके मीडिया ले ।
ऊ घड़ी हमहूँ अखबारी संपादक हली । जन्ने-तन्ने सक्रिय रहे से थोड़े तेजी से पहचान बन रहल हल । हमर कुछ दोस-मोहिम, जे पत्रकारिता के काम से जुड़ल हलन, जाने चाहऽ हलन कि एकर मूल में की हे । एगो पत्रकार मित्र पूछ बइठल - "धनंजय, प्रभाकर श्रोत्रिय तुम्हारे रिश्तेदार हैं ?"
हम बेलाग नहकार गेली । हलाँकि ऊ माहौल में चाहती हल त थोड़े जस हमहूँ अपना दने उपछ सकली हल, अपना के प्रभाकर जी के रिश्तेदार बता के । बाकि, मुरुख जे हली । आखिर में ऊ दुपहरिया के भोजन घड़ी पूछ बइठल - "प्रभाकर जी, धनंजय श्रोत्रिय आपका रिश्तेदार है ?"
हमरा अचरज होल जब ऊ अपन उत्तर 'हाँ' में देलन ।
"लेकिन धनंजय तो कह रहा था प्रभाकर जी, कि आप उसके रिश्तेदार नहीं हैं !" पत्रकार मित्र उनकर उत्तर पर शंका व्यक्त कइलन ।
"वो जरा मुझसे नाराज चल रहा है ।" प्रभाकर जी थोड़े गंभीरता से उत्तर देलन ।
दोसर प्रश्न पूछल गेल - "कैसी रिश्तेदारी है आपसे उसकी ?"
उत्तर मिलल - "आप हमें साहित्यकार-रचनाकार मानते हो ? ... मानते हो न ? ... धनंजय को रचनाकार मानते हो ?"
सबके उत्तर 'हाँ-हाँ' में मिलल । प्रभाकर जी मुस्कइते बोललन - "तो, धनंजय से मेरी रिश्तेदारी में सन्देह कहाँ है !"
हमर खास तरह के मित्र लोग के चेहरा पर आठ बज के बीस मिनट हो गेल ।
हम ई बात से थोड़े लजइली जरूर बाकि ई बात के गिरह बान्ह लेली कि एक रचनाकार के सबसे करीबी रिश्तेदार दोसर रचनाकारे हो सकऽ हे, ओकर बेटा-पोता नञ् । 'मगही-पत्रिका' के परचार-परसार ले जब गामे-गाम आउ दुआरिए-दुआरिए ढनमनाय पड़ रहल हे, त ई बात के आउ जोरदार ढंग से पुष्टि हो गेल हे, हमर मन में ।
'डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री अंक' जेकर जरूरत हम महसूस कर रहली हल, निकाले के सूचना जब 'मगही पत्रिका' में छापली त दु-चार गो झमठगर मगही के विदमान पूछ बैठलन हमरा से - "श्रीकान्त शास्त्री आपके रिश्तेदार थे क्या ?" बस, प्रभाकर श्रोत्रिय के इयाद करके उनकर चेहरा पर 'आठ-बीस' बजा देली । अजगूत लगल कि आदमी के सोंच के स्तर के सिमाना केतना सिकुड़ गेल हे । खास करके तब जब हमरा से पूछल गेल - "उनकर परिवार के लोग आर्थिक सहजोग दे रहलन हे न ?" याने ऊ अपना के उनका से अलग मानऽ हथ । व्यक्तिवादी दिमाग में कभी समष्टिवादी विचार उभर नञ् सकऽ हे, जैसे बाँस के कोठी में कभियो मीठा फल नञ् लग सकऽ हे ।
खैर, लोग जिनका परिवार कहऽ हे, उनको पर चरचा जरूरी हे । सबसे पहिले खोजते-ढूँढ़ते श्री विष्णुकान्त शर्मा जी के पास गेली, जे जहानाबाद में ऊटा में रहऽ हथ, आउ उनकर बड़का दमाद हथ । पत्रिका देखलन । उनकर अनेक सवाल के जवाब देवे पड़ल, बाकि हमर जरूरत के कोय चीज प्राप्त नञ् हो सकल हुआँ । उनका पास डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री से जुड़ल जे चीज हे, ऊ हे - 'धन मधे धन, तीन लुंडा सन ।'
उनकर छोट दमाद सुरेश आनंद जी से मिले खातिर मायथन गेली बाकि हमर दुरभाग कि भेंट नञ् हो सकल । रह गेलन प्रो॰ शेषानंद बाबू आउ डॉ॰ मारुति बाबू जिनका ल हमर मन में विशेष आदर हे । अपन कोरसिस के बावजूद हम दुरभाग बस उनका पकड़ नञ् सकलूँ । अपने सबसे बादा हे कि ई तीनों विभूति के पास डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री से जुड़ल जे भी सामग्री इया संस्मरण होत, 'मगही पत्रिका' के आगू के अंक में हम जरूर परोसम । ... शास्त्री जी के अप्रकाशित मौलिक रचना तो अब मोसकिले से मिल सकत । शास्त्री जी के ... जदि कुछ रचना प्रकाश में आ सके त हम्मर धन्न भाग !
1955 में जब 'मगही' के छपे ल शुरू होल, ऊ समय शास्त्री जी के साथ ठाकुर रामबालक सिंह के अलावे नउजवान के एगो तिकड़ी हल । ऊ तिकड़ी के दू हस्ताक्षर से अपने के खूब परचे हे, ऊ हथ - मगही के सेसर कहानीकार श्री रवीन्द्र कुमार आउ मगही के सेसर गीतकार डॉ॰ हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी । ई अंक में तीनों के रचना सामिल हे । स्व॰ ठाकुर रामबालक सिंह के लेख 'मगही गद्य-पद्य संग्रह' से साभार लेली हे, जे एगो वैयक्तिक लेख हे । रवीन्द्र कुमार डॉ॰ शास्त्री जी के तरासल रचनाकार हथ, ई गुने उनकर रचना संस्मरणात्मक हे, जबकि डॉ॰ हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी के लेख ऊ घड़ी के मगही के परिदृश्य चित्रित करे हे जेकर तथ्यात्मक पुष्टि के प्रमाण सिर्फ लेखक के पास हे ।
जब 'मगही' के प्रकाशन रुक गेल आउ 'शोध' जलमतहीं काल के कल्ला में चल गेल त शास्त्री जी लगभग फरास हो गेलन । 'श्रीकान्त सरधांजली अंक' में डॉ॰ रामनन्दन के मसुआइल फूल से लगऽ हे कि उनकर मन में कुहासा भरल 'बिहान' के भी अंदेसा छाय लगल हल । ईहे समय में ऊ एक दिन प्रो॰ वीरेन्द्र वर्मा (हिन्दी/ मगही के श्रेष्ठ गद्यकार) हीं पहुँचलन । वर्मा जी हलन तो मैथिलीभाषी आउ पढ़वऽ हलन अंग्रेजी, बाकि मगह में रहे के चलते उनका मगही से भी मोह हो गेल, जेकरा में श्रीकान्त शास्त्री जी के भी जोगदान हे । प्रो॰ वर्मा के संस्मरण में उनकर टूटन के झलक साफ मिलऽ हे ।
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हमरा जानकारी में खोरठगर से खोरठगर जेतना धातु के कुंदन बनावे के काम डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री कयलन, ओतना आज तक कोय मइया के लाल नञ् कर सकल हे , नञ् करत !
['मगही पत्रिका', अंक-7, जुलाई 2002, के 'संपादकीय' अंश, पृ॰ 5-6]
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