असरा
कहानीकार - प्रभात वर्मा
सरपट सड़क पर सरजुगवा रिक्सा के पैडिल जोर से मारते अप्पन ठेकाना देन्ने भागते जा रहल हल । सरजुगवा के आँख के आगे सोनमतिआ के चेहरा घूम रहल हल, जे ओकर असरा में बइठल आग-बबूला हो रहल होयत । ऊ सोचे लगल कि आझ ढेर देरी हो गेल हे । जब भी देरी हो जा हे, सोनमतिआ तरवा के लहर कपार चढ़ा के बोलऽ हे - 'देखऽ, तोर असरा में हम केतना देरी से दुआरी पर बइठल ही । खैको सेरा गेली हे । काम के फिराक में तोरा खाहूँ-पीहूँ के इआद न रहऽ हो, बाकि जब देहे न रहतो त कमयबऽ कउची पर ?' फिर पियार से समझइते बोलऽ हे - 'अप्पन सरीर पर धिआन दऽ ! तोरे पर न हमहूँ ही ! देखऽ तो, दिनो-दिन दुबरयले जा रहलऽ हे !' एही सब सोचते-सोचते सरजुगवा अप्पन रिक्सा झोपड़ी भिजुन आ के रोकलक ।
मगर रोज नियन आझ सोनमतिआ दुआरी पर नयँ मिलल । सरजुगवा रिक्सा एक देन्ने लगा के झोपड़ी में घुस गेल । देखलक कि सोनमतिआ खटिया पर मुँह झाँप के पड़ल हे । सरजुगवा समझ गेल कि आझ महरानी जी जादे गोस्सा हो गेलन हे ।
ऊ खाट तर जा के सोनमतिआ के मुँह पर ढकल चद्दर हटा देलक । देखलक कि सोनमतिआ सिसक रहल हे । सरजुगवा के करेजा संका से धक-धक करे लगल, काहे कि सोनमतिआ दोसर कौनो औरत नियन झुट्ठो-फुसो रोना-धोना नयँ मचावऽ हे । आझ जरूर कोय बात होयत । सरजुगवा खटिया पर बइठते परेम भाव से सोनमतिआ से पुछलक - 'का बात हे ? तूँ रो रहलऽ हे, कोय बात हो गेल हे का ?'
सोनमतिआ खटिया पर से उठते रोते-सिसकते सरजुगवा से कहे लगल - 'हमरा तूँ घरे पहुँचा द । हम हिआँ काहे ला रहम, जब हमरा से तोरा कोय मतलबे न हो ? भोरे से गेल-गेल तीन बजे अयलऽ हे । फिर तुरते भागवऽ त रात के दस बजे अयबऽ कि बारह बजे अयबऽ, कोय नयँ जाने हे । एतना-एतना देरी पर खयबऽ, त ई सरीर के का हाल होतो ?'
एगो लोटा में पानी भर के ऊ सरजुगवा के पास ला के रखते बोलल - 'हमरो तो पेट हे नऽ, भूख से पेट अँइठते रहऽ हे । तोरा खिलयले बिना हम कइसे खा लूँ ? चलऽ, हाथ-गोड़ धो के खा लऽ !'
सरजुगवा सोनमतिआ के बात सुन के ठठा के हँस देलक आउ बोलल - 'बस, एतने सुन बात ला तूँ खटवास-पटवास ले लेलऽ हल । हम तो समझली कि कोय भयंकर बात हो गेल हे ।'
फिर सरजुगवा सोनमतिआ के समझावे लगल - 'सुनऽ, हमरा ला तूँ भुक्खल मत रहल करऽ । हम तो बाहरो में कुछ न कुछ खाइये ले ही । हम्मर देर-सबेर के का करबऽ, रिक्सा चलावऽ ही न ? कौनो औफिस के बाबूगिरी तो करऽ ही नयँ कि समय से आयम आउ समय से जायम । कखनी कउन सवारी कहाँ के मिल जा हे, से कउन जानऽ हे ? तूँ समय पर खा लेवल करऽ । हमरा ला चिन्ता मत करल करऽ ।' फिर परेम जतइते कहलक - 'देखऽ, तूँ दुबरा के नरकट जइसन होल जा रहलऽ हे । हमरा का होल हे ? मोटाल के मोटाले ही ।'
लोटा के पानी उठा के सरजुगवा झोपड़ी के बाहर चल देलक । सोनमतिआ खाना निकासे लगल । जब तक सरजुगवा खयते रहल तब तक सोनमतिआ ओकरा भिर बइठ के पंखा झलते दुख-सुख बतिअयते रहल । खाना खा के सरजुगवा फिरो घर से निकल गेल आउ सोनमतिआ दुआरी पर खड़ा हो के ओकरा जयते देखते रहल ।
सरजुगवा सड़क पर आ के सवारी खोजे के फेर में लग गेल । ऊ अप्पन रिक्सा सड़क के किनारे बड़का पेड़ के छाँह में लगा के ओकरे पर बइठ गेल आउ सुस्ताय लगल । ओकर दिल-दिमाग आज घूर-फिर के सोनमतिआ पर लगल हल । सरजुगवा के इआद ताजा हो गेल । बाप-माय के मरला के बाद पहिले-पहिल ऊ अप्पन गाँव छोड़ के बदकिस्मती के मार सहते ई सहर में कउनो रोजगार के तलास में आयल हल । ई सहर में जानो-पहचान के कोय नयँ हल । नौकरी के जोगाड़ में इहाँ-उहाँ मारल चलल, बाकि सरकारी तो दूर, कल-करखाना, दर-दोकान में कोय ओकरा नयँ रखलक । ऊ जेकरा भिर जाय, ओही ओकर हाल सुन के पूछे - 'इहाँ तोर जान-पहचान के कोय हे जे तोर गारंटी ले सकऽ हे कि तूँ कोय समान ले के भाग नयँ जयबऽ ?'
हार-पार के ऊ कोय छोट-मोट काम के फिराक में लग गेल, काहे कि ओकरा खाय ला भी कोय जोगार नयँ हल । इहे से ऊ टीसन पर मोटरी ढोवे के काम करे लगल । दिन भर खट के कमाय, त दू-चार रुपइया कमा ले हल । फुटपाथ पर लगल लिट्टी-सतुआ के दोकान में खाय आउ रात के टीसन के मोसाफिरखाना में जा के सुत रहऽ हल ।
फिर एगो होटल में बरतन मइँजे आउ जुट्ठा धोवे के काम मिल गेल हल । न चाह के भी पेट खातिर ई काम ओकरा करे पड़ल । होटल के मालिक अइसन कि बात पीछू गालिये-गलौज आउ मार-पीट करऽ हल । ओकर ई बेवहार सरजुगवा के तनिक्को न सोहाय । ऊ सोचऽ हल - 'हम गरीब जरूर ही, मगर पेट खातिर इज्जत तो नयँ खतम कर देम ।' एक दिन होटल मालिक के बेवहार से ऊब के ऊ काम-धाम छोड़ देलक । तब ऊ का करे, कहाँ जाय ? ओकर समझ में कुच्छो न आ रहल हल । काम खोजे लागी ऊ कउन जगह न गेल, बाकि कहीं काम न मिलल ।
एक दिन गाँधी मैदान के बेंच पर बइठल हल तभिए ओकरा भिर एगो अधबैस रिक्सा वाला सुस्ताय के खेयाल से ओकरा पास आ के बइठल । जब ऊ रिक्सा वाला सरजुगवा के चिन्ता में मुरझायल चेहरा देखलक, त ओकरा से पुछलक - 'का बात हे बाबू ? लगऽ हे कि तूँ कोय बड़ संकट में पड़ल ह ?'
अधबैस उमर के रिक्सा वाला सिधेसर के बात सुन के सरजुगवा के मन में आस जगल आउ बाते-बात में ऊ अप्पन बदकिस्मती के बात सुरू से अन्त तक, फारे-फार सुना देलक । सिधेसर ओकर हाल जान के ढाढ़स देते कहलक - 'सरजुग, ई माया के दुनिया हे आउ इहाँ तरह-तरह के लोग हथ । अप्पन सवारथ के चलते दूसरा के जान लेवे वाला के भी ई दुनिया में कमी न हे । जिनगी में घबरयला से काम न चलऽ हे । दुख से लड़े वाला ही सुख के भागी बनऽ हे । तूँ चलऽ, हमरा साथे रहिहऽ !'
सिधेसर अपना बारे में सरजुगवा के बतयलक - 'हम छोट जात के गरीब अदमी ही । हमरो घर इहाँ से बहुत दूर गाँवे में हे । इहाँ हम रिक्सा चला के किराया के मकान में अप्पन बेकत आउ दूगो लइकन के साथे कोय तरह से जिनगी गुजर-बसर कर रहली हे । अगर तोर मन करो त हमरा साथे चल सकलऽ हे । तोरो रिक्सा चलावे ला सिखा देम । जब तक तोरा खाय-पीये के कोय जोगार नयँ होवऽ हे, एकरे से कमइहऽ-खइहऽ । घबराय से जीवन नयँ चलऽ हे, हिम्मत कर के दुख के दिन काटे पड़ऽ हे ।'
सरजुगवा के साथे ले के सिधेसर अप्पन डेरा पर पहुँच गेलन । घरे आ के सिधेसर सरजुगवा के ओसारा पर बिछल चउकी पर बइठा के भीतर चल गेलन । कुछ देरी के बाद एगो चउदह-पन्दरह बरिस के गोल-मटोल खूब सुन्नर चेहरा-मोहरा वाली लइकी लोटा में पानी ला के ओकरा भिर रखते बोलल - 'हाथ-मुँह धो लेथिन ।'
सरजुगवा ओकरा देखलक त देखते रह गेल । ऊ सोचे लगल - 'गरीबो के घर में एतना सुन्नर लड़की होवऽ हे ?'
लड़किया जब सरजुगवा के एकटक अपना देन्ने ताकते देखलक, त सरमा के उहाँ से भाग गेल । एक्के बेर देखला पर सरजुगवा के मन में ऊ लइकी बस गेल हल । ओकर नाम हल सोनमतिआ । सोनमतिआ सिधेसर के बड़ बेटी हल । ऊ सतमा तक पढ़ल हल । सिलाय-कटाय-फड़ाय सब जानऽ हल । ऊ सुलछनी बेटी हल, दिन भर घर के काम के साथे बाप-माय के सेवा में ओकर दिन बीतऽ हल । जब पहिले-पहिल सोनमतिआ सरजुगवा के देखलक हल, त ओकरो ऊ बहुत अच्छा लगल हल ।
सिधेसर दुसरके दिन से सरजुगवा के रिक्सा चलावे ला सिखा के एगो रिक्सा भाड़ा पर दिला देलन । सोलह बरिस के हट्ठा-कट्ठा सरजुगवा के पहिले तो रिक्सा खींचे में बड़ी दिक्कत होयल, मगर समय आउ परिस्थिति ओकरा में रिक्सा खींचे के आदत डाल देलक । दिन भर रिक्सा चला के जब सरजुगवा घरे आवऽ हल, त सोनमतिआ दरवाजे पर मिल जा हल, जेकरा देखिये के ओकर दिन भर के थकान मेट जा हल । ओकरा खिलाना-पिलाना सोनमतिए के काम हल ।
सिधेसर हीं सरजुगवा के रहते एक बरिस हो गेल । सोनमतिआ आउ सरजुगवा में एक दूसरा के परती परेम-भाव जाग गेल । दुन्नो के परेम-भाव सिधेसर आउ हुनखर बेकत से छुपल नयँ रहल । एक दिन सिधेसर सरजुगवा से पुछलन - 'सरजुग, इधर देख रहली हे कि सोनमतिआ से तोर परेम-भाव बढ़ल जा रहलो हे । तूँ तो जानऽ ह कि हम छोट जात के अदमी ही आउ तूँ बड़का जात के लड़का ह । सोनमतिआ से तोर मेल कइसे हो सकऽ हे ? तइयो जमाना के लोग हमनी के इज्जत पर अंगुरी उठावे, एकरा से पहिले हम सोनमतिआ के बियाह तोरा से कर देवल चाहऽ ही ।'
सरजुगवा सिधेसर के बात सुन के बोलल - 'हम सोनमतिआ के अप्पन दुलहिन बना के अप्पन भाग्य पर खुस हो जायम । एकरा में बड़-छोट के कोय बात नयँ हे । बस, तोहर आसीरवाद हमरा चाही ।'
सिधेसर के मन हुलस गेल । सरजुगवा अइसन कमासुत लड़का तो पहिलहीं से पसन्द हल उनका । बस, ओकर राय भर के देरी हल । सिधेसर बियाह के तइयारी में लग गेलन । शुभ घड़ी में सोनमतिआ के बियाह सरजुगवा से हो गेल । दुन्नो एगो डोरी से बंध गेल । बियाह के बाद सरजुगवा सोनमतिआ के साथ ले के रजिन्दर नगर में एगो झोपड़ी बना के रहे लगल ।
सरजुगवा के सोचते-सोचते केतना देरी हो गेल, ओकरा पतो नयँ चलल । ओकर सोच के लड़ी तो तब टूटल, जब एगो सूट-बूट पहिनले बाबू अप्पन औरत के साथे ओकरा भिर आ के बोललन - 'ए रिक्सा वाला, होटल मौर्या चलोगे ?'
सरजुगवा रिक्सा से उतरते बोलल - 'हँ बाबू, चलम ।' आउ सरजुगवा दुन्नो औरत-मरद के रिक्सा पर बइठवले उहाँ से चल देलक । मौर्या होटल के पास पहुँच के ऊ रिक्सा रोक देलक । रिक्सा से उतर के बाबू अप्पन औरत के साथे सरजुगवा के विना कुछ बोलले बीस रुपइया के नोट थमा के होटल में घुस गेलन । सरजुगवा मुसका के सोचे लगल - 'अइसन कय बार होयल हे, जब कोय बाबू पाँच रुपइया के जगह पर दस-बीस रुपइया दे के बिना कुछ बोलले चल जा हथ । बाकि कोय-कोय बाबू तो एक-दू रुपइया लागी हीला-हवाला करे के साथ-साथ गाली-गलौज भी करऽ हथ ।
साँझ हो गेल हल । कम मेहनत में आज ढेर कमाई हो गेल हल, एही से सरजुगवा बहुत खुस हल । होटल के पास रिक्सा लगा के ऊ होटल में गेल औरत-मरद के असरा देखे लगल । एक घंटा असरा देखला के बाद जइसहीं ऊ रिक्सा बढ़यलक हल कि दुन्नो औरत-मरद होटल से निकल के ओकरा रिक्सा रोके ला इसारा कयलन । सरजुगवा ठहर गेल । दुन्नो औरत-मरद रिक्सा पर आ के बइठ गेलन आउ बोललन - 'वहीं चलो जहाँ से हमलोगों को लाये हो ।'
रिक्सा पर बइठल बाबू सरजुगवा के चाल-ढाल आउ सुन्नर काया देख के पुछलन - 'तुम्हारा घर कहाँ है ?'
सरजुगवा जवाब देलक - 'घर तो गाँव में हे हुजूर, मगर एहीं झोपड़ी में रहऽ ही ।'
अबरी औरतिया पुछलक - 'तुम पढ़े-लिखे लगते हो ।'
'जी हाँ, मैट्रिक तक पढ़ल ही बाबू !' रिक्सा के घंटी टनटनइते सरजुगवा बोललक ।
'तो तुम कहीं नौकरी क्यों नहीं करते ?' बाबू पुछलन ।
'नौकरी ... नौकरी कउन देतइ गरीब के बाबू ?' सरजुगवा कुपित हो के बोललक - 'नौकरी के तलास तो बहुत कइली, बाकि न मिलल । थक-हार के रिक्सा चलावे पड़ रहल हे ।'
सरजुगवा के बात सुन के दुन्नो औरत-मरद आपस में ओकरे बारे में बतिआय लगलन । तखनी तक सरजुगवा ठेकाना पर आ गेल हल । ऊ रिक्सा रोक देलक । रिक्सा से उतरते बाबू सरजुगवा के हाथ में फिर बीस रुपइया के नोट आउ एगो 'विजिटिंग कार्ड' देते बोललन - 'देखो, इस कार्ड पर हमारी कम्पनी का पता लिखा हुआ है । तुम कल इसी पते पर आकर हमसे मिलना । हम तुमको नौकरी दिलवा देंगे ।' एतना कह के बाबू औरत के साथे आगे बढ़ गेलन । सरजुगवा बड़ी देरी तक ले हाथ के पइसा आउ पता वाला कार्ड देखते रहल । ऊ आज बहुत खुस हल ।
रात खनी अप्पन झोपड़ी में लउट के सोनमतिआ के हाथ में दिन भर के कमाई थमइते कहलक - 'लगऽ हो कि दुख के दिन अब बिसरे वाला हो ।' सोनमतिआ भी जादे पइसा देख के हुलस रहल हल ।
दुसरका दिन सरजुगवा कार्ड में लिखल कम्पनी के ऑफिस के पता पूछते-पाछते बाबू भिर जा पहुँचल । बाबू ओकरा देखते कुर्सी पर बइठ के नौकरी ला दरखास लिखे ला कहलन । जब सरजुगवा दरखास लिख देलक त बाबू ओकरा अप्पन ऑफिस के चपरासी बहाल कर लेलन ।
ई खुसखबरी जब सोनमतिआ सुनलक त बहुते खुश होयल आउ सोंचे लगल - 'हिनखर कोय बहाना अब हमरा भिर नयँ चलत ।' सरजुगवो खुश हल, काहे कि जीवन में दुख भोगे घड़ी सुख के जे असरा ऊ लगयलक हल, ओकर असरा विधाता के बनवल विधान में अब पूरा हो गेल हल ।
['अलका मागधी', बरिस-१२, अंक-६, मई २००६, पृ॰ ५-७, से साभार]
कहानीकार - प्रभात वर्मा
सरपट सड़क पर सरजुगवा रिक्सा के पैडिल जोर से मारते अप्पन ठेकाना देन्ने भागते जा रहल हल । सरजुगवा के आँख के आगे सोनमतिआ के चेहरा घूम रहल हल, जे ओकर असरा में बइठल आग-बबूला हो रहल होयत । ऊ सोचे लगल कि आझ ढेर देरी हो गेल हे । जब भी देरी हो जा हे, सोनमतिआ तरवा के लहर कपार चढ़ा के बोलऽ हे - 'देखऽ, तोर असरा में हम केतना देरी से दुआरी पर बइठल ही । खैको सेरा गेली हे । काम के फिराक में तोरा खाहूँ-पीहूँ के इआद न रहऽ हो, बाकि जब देहे न रहतो त कमयबऽ कउची पर ?' फिर पियार से समझइते बोलऽ हे - 'अप्पन सरीर पर धिआन दऽ ! तोरे पर न हमहूँ ही ! देखऽ तो, दिनो-दिन दुबरयले जा रहलऽ हे !' एही सब सोचते-सोचते सरजुगवा अप्पन रिक्सा झोपड़ी भिजुन आ के रोकलक ।
मगर रोज नियन आझ सोनमतिआ दुआरी पर नयँ मिलल । सरजुगवा रिक्सा एक देन्ने लगा के झोपड़ी में घुस गेल । देखलक कि सोनमतिआ खटिया पर मुँह झाँप के पड़ल हे । सरजुगवा समझ गेल कि आझ महरानी जी जादे गोस्सा हो गेलन हे ।
ऊ खाट तर जा के सोनमतिआ के मुँह पर ढकल चद्दर हटा देलक । देखलक कि सोनमतिआ सिसक रहल हे । सरजुगवा के करेजा संका से धक-धक करे लगल, काहे कि सोनमतिआ दोसर कौनो औरत नियन झुट्ठो-फुसो रोना-धोना नयँ मचावऽ हे । आझ जरूर कोय बात होयत । सरजुगवा खटिया पर बइठते परेम भाव से सोनमतिआ से पुछलक - 'का बात हे ? तूँ रो रहलऽ हे, कोय बात हो गेल हे का ?'
सोनमतिआ खटिया पर से उठते रोते-सिसकते सरजुगवा से कहे लगल - 'हमरा तूँ घरे पहुँचा द । हम हिआँ काहे ला रहम, जब हमरा से तोरा कोय मतलबे न हो ? भोरे से गेल-गेल तीन बजे अयलऽ हे । फिर तुरते भागवऽ त रात के दस बजे अयबऽ कि बारह बजे अयबऽ, कोय नयँ जाने हे । एतना-एतना देरी पर खयबऽ, त ई सरीर के का हाल होतो ?'
एगो लोटा में पानी भर के ऊ सरजुगवा के पास ला के रखते बोलल - 'हमरो तो पेट हे नऽ, भूख से पेट अँइठते रहऽ हे । तोरा खिलयले बिना हम कइसे खा लूँ ? चलऽ, हाथ-गोड़ धो के खा लऽ !'
सरजुगवा सोनमतिआ के बात सुन के ठठा के हँस देलक आउ बोलल - 'बस, एतने सुन बात ला तूँ खटवास-पटवास ले लेलऽ हल । हम तो समझली कि कोय भयंकर बात हो गेल हे ।'
फिर सरजुगवा सोनमतिआ के समझावे लगल - 'सुनऽ, हमरा ला तूँ भुक्खल मत रहल करऽ । हम तो बाहरो में कुछ न कुछ खाइये ले ही । हम्मर देर-सबेर के का करबऽ, रिक्सा चलावऽ ही न ? कौनो औफिस के बाबूगिरी तो करऽ ही नयँ कि समय से आयम आउ समय से जायम । कखनी कउन सवारी कहाँ के मिल जा हे, से कउन जानऽ हे ? तूँ समय पर खा लेवल करऽ । हमरा ला चिन्ता मत करल करऽ ।' फिर परेम जतइते कहलक - 'देखऽ, तूँ दुबरा के नरकट जइसन होल जा रहलऽ हे । हमरा का होल हे ? मोटाल के मोटाले ही ।'
लोटा के पानी उठा के सरजुगवा झोपड़ी के बाहर चल देलक । सोनमतिआ खाना निकासे लगल । जब तक सरजुगवा खयते रहल तब तक सोनमतिआ ओकरा भिर बइठ के पंखा झलते दुख-सुख बतिअयते रहल । खाना खा के सरजुगवा फिरो घर से निकल गेल आउ सोनमतिआ दुआरी पर खड़ा हो के ओकरा जयते देखते रहल ।
सरजुगवा सड़क पर आ के सवारी खोजे के फेर में लग गेल । ऊ अप्पन रिक्सा सड़क के किनारे बड़का पेड़ के छाँह में लगा के ओकरे पर बइठ गेल आउ सुस्ताय लगल । ओकर दिल-दिमाग आज घूर-फिर के सोनमतिआ पर लगल हल । सरजुगवा के इआद ताजा हो गेल । बाप-माय के मरला के बाद पहिले-पहिल ऊ अप्पन गाँव छोड़ के बदकिस्मती के मार सहते ई सहर में कउनो रोजगार के तलास में आयल हल । ई सहर में जानो-पहचान के कोय नयँ हल । नौकरी के जोगाड़ में इहाँ-उहाँ मारल चलल, बाकि सरकारी तो दूर, कल-करखाना, दर-दोकान में कोय ओकरा नयँ रखलक । ऊ जेकरा भिर जाय, ओही ओकर हाल सुन के पूछे - 'इहाँ तोर जान-पहचान के कोय हे जे तोर गारंटी ले सकऽ हे कि तूँ कोय समान ले के भाग नयँ जयबऽ ?'
हार-पार के ऊ कोय छोट-मोट काम के फिराक में लग गेल, काहे कि ओकरा खाय ला भी कोय जोगार नयँ हल । इहे से ऊ टीसन पर मोटरी ढोवे के काम करे लगल । दिन भर खट के कमाय, त दू-चार रुपइया कमा ले हल । फुटपाथ पर लगल लिट्टी-सतुआ के दोकान में खाय आउ रात के टीसन के मोसाफिरखाना में जा के सुत रहऽ हल ।
फिर एगो होटल में बरतन मइँजे आउ जुट्ठा धोवे के काम मिल गेल हल । न चाह के भी पेट खातिर ई काम ओकरा करे पड़ल । होटल के मालिक अइसन कि बात पीछू गालिये-गलौज आउ मार-पीट करऽ हल । ओकर ई बेवहार सरजुगवा के तनिक्को न सोहाय । ऊ सोचऽ हल - 'हम गरीब जरूर ही, मगर पेट खातिर इज्जत तो नयँ खतम कर देम ।' एक दिन होटल मालिक के बेवहार से ऊब के ऊ काम-धाम छोड़ देलक । तब ऊ का करे, कहाँ जाय ? ओकर समझ में कुच्छो न आ रहल हल । काम खोजे लागी ऊ कउन जगह न गेल, बाकि कहीं काम न मिलल ।
एक दिन गाँधी मैदान के बेंच पर बइठल हल तभिए ओकरा भिर एगो अधबैस रिक्सा वाला सुस्ताय के खेयाल से ओकरा पास आ के बइठल । जब ऊ रिक्सा वाला सरजुगवा के चिन्ता में मुरझायल चेहरा देखलक, त ओकरा से पुछलक - 'का बात हे बाबू ? लगऽ हे कि तूँ कोय बड़ संकट में पड़ल ह ?'
अधबैस उमर के रिक्सा वाला सिधेसर के बात सुन के सरजुगवा के मन में आस जगल आउ बाते-बात में ऊ अप्पन बदकिस्मती के बात सुरू से अन्त तक, फारे-फार सुना देलक । सिधेसर ओकर हाल जान के ढाढ़स देते कहलक - 'सरजुग, ई माया के दुनिया हे आउ इहाँ तरह-तरह के लोग हथ । अप्पन सवारथ के चलते दूसरा के जान लेवे वाला के भी ई दुनिया में कमी न हे । जिनगी में घबरयला से काम न चलऽ हे । दुख से लड़े वाला ही सुख के भागी बनऽ हे । तूँ चलऽ, हमरा साथे रहिहऽ !'
सिधेसर अपना बारे में सरजुगवा के बतयलक - 'हम छोट जात के गरीब अदमी ही । हमरो घर इहाँ से बहुत दूर गाँवे में हे । इहाँ हम रिक्सा चला के किराया के मकान में अप्पन बेकत आउ दूगो लइकन के साथे कोय तरह से जिनगी गुजर-बसर कर रहली हे । अगर तोर मन करो त हमरा साथे चल सकलऽ हे । तोरो रिक्सा चलावे ला सिखा देम । जब तक तोरा खाय-पीये के कोय जोगार नयँ होवऽ हे, एकरे से कमइहऽ-खइहऽ । घबराय से जीवन नयँ चलऽ हे, हिम्मत कर के दुख के दिन काटे पड़ऽ हे ।'
सरजुगवा के साथे ले के सिधेसर अप्पन डेरा पर पहुँच गेलन । घरे आ के सिधेसर सरजुगवा के ओसारा पर बिछल चउकी पर बइठा के भीतर चल गेलन । कुछ देरी के बाद एगो चउदह-पन्दरह बरिस के गोल-मटोल खूब सुन्नर चेहरा-मोहरा वाली लइकी लोटा में पानी ला के ओकरा भिर रखते बोलल - 'हाथ-मुँह धो लेथिन ।'
सरजुगवा ओकरा देखलक त देखते रह गेल । ऊ सोचे लगल - 'गरीबो के घर में एतना सुन्नर लड़की होवऽ हे ?'
लड़किया जब सरजुगवा के एकटक अपना देन्ने ताकते देखलक, त सरमा के उहाँ से भाग गेल । एक्के बेर देखला पर सरजुगवा के मन में ऊ लइकी बस गेल हल । ओकर नाम हल सोनमतिआ । सोनमतिआ सिधेसर के बड़ बेटी हल । ऊ सतमा तक पढ़ल हल । सिलाय-कटाय-फड़ाय सब जानऽ हल । ऊ सुलछनी बेटी हल, दिन भर घर के काम के साथे बाप-माय के सेवा में ओकर दिन बीतऽ हल । जब पहिले-पहिल सोनमतिआ सरजुगवा के देखलक हल, त ओकरो ऊ बहुत अच्छा लगल हल ।
सिधेसर दुसरके दिन से सरजुगवा के रिक्सा चलावे ला सिखा के एगो रिक्सा भाड़ा पर दिला देलन । सोलह बरिस के हट्ठा-कट्ठा सरजुगवा के पहिले तो रिक्सा खींचे में बड़ी दिक्कत होयल, मगर समय आउ परिस्थिति ओकरा में रिक्सा खींचे के आदत डाल देलक । दिन भर रिक्सा चला के जब सरजुगवा घरे आवऽ हल, त सोनमतिआ दरवाजे पर मिल जा हल, जेकरा देखिये के ओकर दिन भर के थकान मेट जा हल । ओकरा खिलाना-पिलाना सोनमतिए के काम हल ।
सिधेसर हीं सरजुगवा के रहते एक बरिस हो गेल । सोनमतिआ आउ सरजुगवा में एक दूसरा के परती परेम-भाव जाग गेल । दुन्नो के परेम-भाव सिधेसर आउ हुनखर बेकत से छुपल नयँ रहल । एक दिन सिधेसर सरजुगवा से पुछलन - 'सरजुग, इधर देख रहली हे कि सोनमतिआ से तोर परेम-भाव बढ़ल जा रहलो हे । तूँ तो जानऽ ह कि हम छोट जात के अदमी ही आउ तूँ बड़का जात के लड़का ह । सोनमतिआ से तोर मेल कइसे हो सकऽ हे ? तइयो जमाना के लोग हमनी के इज्जत पर अंगुरी उठावे, एकरा से पहिले हम सोनमतिआ के बियाह तोरा से कर देवल चाहऽ ही ।'
सरजुगवा सिधेसर के बात सुन के बोलल - 'हम सोनमतिआ के अप्पन दुलहिन बना के अप्पन भाग्य पर खुस हो जायम । एकरा में बड़-छोट के कोय बात नयँ हे । बस, तोहर आसीरवाद हमरा चाही ।'
सिधेसर के मन हुलस गेल । सरजुगवा अइसन कमासुत लड़का तो पहिलहीं से पसन्द हल उनका । बस, ओकर राय भर के देरी हल । सिधेसर बियाह के तइयारी में लग गेलन । शुभ घड़ी में सोनमतिआ के बियाह सरजुगवा से हो गेल । दुन्नो एगो डोरी से बंध गेल । बियाह के बाद सरजुगवा सोनमतिआ के साथ ले के रजिन्दर नगर में एगो झोपड़ी बना के रहे लगल ।
सरजुगवा के सोचते-सोचते केतना देरी हो गेल, ओकरा पतो नयँ चलल । ओकर सोच के लड़ी तो तब टूटल, जब एगो सूट-बूट पहिनले बाबू अप्पन औरत के साथे ओकरा भिर आ के बोललन - 'ए रिक्सा वाला, होटल मौर्या चलोगे ?'
सरजुगवा रिक्सा से उतरते बोलल - 'हँ बाबू, चलम ।' आउ सरजुगवा दुन्नो औरत-मरद के रिक्सा पर बइठवले उहाँ से चल देलक । मौर्या होटल के पास पहुँच के ऊ रिक्सा रोक देलक । रिक्सा से उतर के बाबू अप्पन औरत के साथे सरजुगवा के विना कुछ बोलले बीस रुपइया के नोट थमा के होटल में घुस गेलन । सरजुगवा मुसका के सोचे लगल - 'अइसन कय बार होयल हे, जब कोय बाबू पाँच रुपइया के जगह पर दस-बीस रुपइया दे के बिना कुछ बोलले चल जा हथ । बाकि कोय-कोय बाबू तो एक-दू रुपइया लागी हीला-हवाला करे के साथ-साथ गाली-गलौज भी करऽ हथ ।
साँझ हो गेल हल । कम मेहनत में आज ढेर कमाई हो गेल हल, एही से सरजुगवा बहुत खुस हल । होटल के पास रिक्सा लगा के ऊ होटल में गेल औरत-मरद के असरा देखे लगल । एक घंटा असरा देखला के बाद जइसहीं ऊ रिक्सा बढ़यलक हल कि दुन्नो औरत-मरद होटल से निकल के ओकरा रिक्सा रोके ला इसारा कयलन । सरजुगवा ठहर गेल । दुन्नो औरत-मरद रिक्सा पर आ के बइठ गेलन आउ बोललन - 'वहीं चलो जहाँ से हमलोगों को लाये हो ।'
रिक्सा पर बइठल बाबू सरजुगवा के चाल-ढाल आउ सुन्नर काया देख के पुछलन - 'तुम्हारा घर कहाँ है ?'
सरजुगवा जवाब देलक - 'घर तो गाँव में हे हुजूर, मगर एहीं झोपड़ी में रहऽ ही ।'
अबरी औरतिया पुछलक - 'तुम पढ़े-लिखे लगते हो ।'
'जी हाँ, मैट्रिक तक पढ़ल ही बाबू !' रिक्सा के घंटी टनटनइते सरजुगवा बोललक ।
'तो तुम कहीं नौकरी क्यों नहीं करते ?' बाबू पुछलन ।
'नौकरी ... नौकरी कउन देतइ गरीब के बाबू ?' सरजुगवा कुपित हो के बोललक - 'नौकरी के तलास तो बहुत कइली, बाकि न मिलल । थक-हार के रिक्सा चलावे पड़ रहल हे ।'
सरजुगवा के बात सुन के दुन्नो औरत-मरद आपस में ओकरे बारे में बतिआय लगलन । तखनी तक सरजुगवा ठेकाना पर आ गेल हल । ऊ रिक्सा रोक देलक । रिक्सा से उतरते बाबू सरजुगवा के हाथ में फिर बीस रुपइया के नोट आउ एगो 'विजिटिंग कार्ड' देते बोललन - 'देखो, इस कार्ड पर हमारी कम्पनी का पता लिखा हुआ है । तुम कल इसी पते पर आकर हमसे मिलना । हम तुमको नौकरी दिलवा देंगे ।' एतना कह के बाबू औरत के साथे आगे बढ़ गेलन । सरजुगवा बड़ी देरी तक ले हाथ के पइसा आउ पता वाला कार्ड देखते रहल । ऊ आज बहुत खुस हल ।
रात खनी अप्पन झोपड़ी में लउट के सोनमतिआ के हाथ में दिन भर के कमाई थमइते कहलक - 'लगऽ हो कि दुख के दिन अब बिसरे वाला हो ।' सोनमतिआ भी जादे पइसा देख के हुलस रहल हल ।
दुसरका दिन सरजुगवा कार्ड में लिखल कम्पनी के ऑफिस के पता पूछते-पाछते बाबू भिर जा पहुँचल । बाबू ओकरा देखते कुर्सी पर बइठ के नौकरी ला दरखास लिखे ला कहलन । जब सरजुगवा दरखास लिख देलक त बाबू ओकरा अप्पन ऑफिस के चपरासी बहाल कर लेलन ।
ई खुसखबरी जब सोनमतिआ सुनलक त बहुते खुश होयल आउ सोंचे लगल - 'हिनखर कोय बहाना अब हमरा भिर नयँ चलत ।' सरजुगवो खुश हल, काहे कि जीवन में दुख भोगे घड़ी सुख के जे असरा ऊ लगयलक हल, ओकर असरा विधाता के बनवल विधान में अब पूरा हो गेल हल ।
['अलका मागधी', बरिस-१२, अंक-६, मई २००६, पृ॰ ५-७, से साभार]
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