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Thursday, March 05, 2009

2. कृष्णदेव बाबू से भेंट

कृष्णदेव बाबू से भेंट

लेखक - डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री (8 फरवरी 1923 - 29 जून 1973)

एकंगरसराय उच्च विद्यालय के प्रधान बैजू बाबू कहलन - पटना के कृष्णदेव बाबू हिआँ बहुत्ते मगही गीत हे । ऊ मगही में खुब्बे खोज कइलन हे । फिन की हल, पटना जा के उनखा से मिले के बात मन में ठान लेली ।

पटना गेली आउ केत्ते ने साहित्यिक लोग से मिलली । पटना कालेजियट में कवि रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' मिललन । ओहू कृष्णदेव बाबू के नाम लेलन । सोंचली, साँझ के मिली तो ठीक रहत । बिड़ला मन्दिर, सब्जीबाग में ठहरल हली । अनचोक्के कलकत्ता के हिन्दी दैनिक 'सन्मार्ग' के सम्पादक पंडित त्रिगुणानन्द से भेंट हो गेल । कहियो ऊ पटना के दैनिक 'आर्यावर्त' में हलन । आज ऊ कलकत्ता जा रहलन हल । 'आर्यावर्त' के उप-सम्पादक श्री रघुनन्दन प्रसाद जी हम्मर पटना आवे के बात ऊ सुनलन आउ अनचोक्के होल ई मुलाकात के ऊ बड़ खुसी के रूप में लेलन । ओहू कृष्णदेव बाबू के नाम बड़ आदर से लेलन । हम दून्नू लंगरटोली तक अइली । पंडित जी के तुरतम्मे टीसन जाय के हल । ऊ ओन्ने गेलन आउ हम कृष्णदेव बाबू दन्ने । एगो हम्मर जानल-पहचानल छात्र उनखर मकान के पता बता देलक ।

पहिले तो हम हिचकिचइली । पीछू कइगो सीढ़ी पार करे पर हम देखली - एगो दीप्तिपूर्ण व्यक्तित्व । इंडियन नेशन के पन्ना में भुलायल कइसन हल ऊ व्यक्तित्व ! नयापन आउ पुरानापन के एगो अजगुत सम्मिश्रण । 'की एही कृष्णदेव बाबू हथ ?' मने-मन सोंचली । हम्मर पैर के अवाज उनखा हमरा दने ताके ला बाध्य कर देलक । हम्मर सक सवाल के रूप धारन कइलक तो जवाब मिलल 'हाँ' । हम सरधा से नत हो के ओहीं पर बिच्छल कुरसी पर बइठ गेली ।

"तूँ के हऽ ? कन्ने चललऽ हऽ ?" ई हल कृष्णदेव बाबू के सवाल । हम की जवाब देती होत ! मगर जवाब तो देवहीं के हल । देली । लड़खड़ायत अवाजो में सफलतापूर्वक जवाब देली । उनखा भिजुन आवे के गरज बतयली । तनी देर खातिर ऊ हमरा दन्ने गम्भीर हो के ताकते रहलन । हम्मर बात सुनते रहलन । किन्तु छन भर लगी मौन हो गेलन । हम सोंचली, हम भटक के कउनो दोसर कृष्णदेव बाबू हीं तो न चल अइली ।

ऊ चुपचाप उठलन आउ तनिक्के देर में कइठो ड्राइंग कौपी ले अइलन । सायत उप्पर लिखल हल - मगही गीत । हम सोंचली हल कि ऊ लोक-गीत के संग्रह कइलन होत । मगर अइसन बात न हल । ऊ एगो कौपी बढ़ावइत कहलन - 'भिन्नरुचिर्हि लोकः' एही गुने हम्मर गीत तोरा पसिन पड़तो कि न, हम न जानऽ ही; तइयो ले लऽ आउ देख लऽ, हिन्दी आउ मगही लगी हम्मर की बिचार हे ।

ऊ गीत खालिस मगही भासा में हल । छन्द 'दंडक' हल । गीत में मगही, हिन्दी के अप्पन सहोदर बता के, दुन्नू के हिल-मिल के रहे ला उपदेस देलक हल । गीत लमहर होवहूँ पर हल बड़ लहरेदार । हम सौंसे गीत पढ़ गेली । ई जान के हमरा बड़ा संतोख होल कि ई ओही कृष्णदेव प्रसाद हथ जिनखर 'जगउनी' आउ 'चाँद' नाम के दूगो मगही गीत पटना विश्वविद्यालय द्वारा संकलित प्रवेशिका हिन्दी पद्य-संग्रह में मौजूद हे । गीत में भाव अपूर्व हल । मगर भासा खालिस मगही हल ।

ऊ बतउलन - हम एकरा में के जादेतर गीत के आझ से बीस बच्छर पहिले लिखली हल । ई सब मगही के रचइत देख के कुछ इयार-दोस सब हम्मर हँसी उड़ावऽ हलन । बाकि हम्मर तो पक्का बिस्वास रहल हे कि इनखरो समय आवे के हे ।

एही सिलसिला में ऊ आगे बतउलन - जउन बखत तक महात्मा गाँधी चरखा के नामो न लेलन हल, ऊ बखत हम चरखा पर मगही गीत लिखली हल । मगह में बहुत सन्त, महात्मा, कवि, कलाकार होलन हे । ओनहनीं के मगही गीत सउँसे मगही छेत्र में गावल जा हे । छपलो मगही साहित्य भेंटा हे । मगही के खालिस रूप नालन्दा अंचल के गाँव में भेंटा हे ।

कृष्णदेव बाबू मगही पर जे खोज के काम कइलन हे, ऊ मगही खातिर अनमोल हे । हम जइसहीं ऊ सब के चरचा कइली, ऊ कहलन - ई सब गीत के उपयोग तूँ जइसे चाहऽ, करऽ । बाकि रहलो देखे के बात । आझ-कल हम खाली ओकील रह गेली हे, ए गुने जो कउनो छुट्टी-छपाटी के दिन आवऽ तब हम सब चीज तोहरा देखइयो । बाद में जइसन तोहर मन अइतो ओइसने करिहऽ ।

मगही के ऊ पाँच भाग में बाँटऽ हथ । मगही के व्याकरनी के सम्बन्ध में ऊ काफी छानबीन कइलन हे । एगो सुसिच्छित सुसंस्कृत व्यक्तित्व में मगही के एते बड़गो छाप देख के हमरा तो बड़ अचम्भा होल । मगर ऊ बतउलन कि मगही उनखर मातृभाषा हे आउ हिन्दी राष्ट्रभाषा । अइसहीं, ऊ संस्कृत के पितृभाषा मानऽ हथ । उपनिषद् के अनेक श्लोक के ऊ मगही में भावानुवाद कइलन हल जे देखे आउ गुने लायक हे । ऊ कहलन, हमरा हीं बियाह-सादी में जे गीत गावल जा हे, सब सहरी भाषा में न रह के खालिस मगहिए में रहऽ हे । इ सब लगी हम्मर खास हिदायत भी रहऽ हे ।

हम न तो निराला से मिल रहली हल आउ न बर्नाड शॉ से । तइयो हमरा एगो मगही-सेवी मगही कवि से मिल के एत्ते आत्म-संतोख होल जेत्ते कउनो यथार्थ सरस्वती-पुत्र से मिल के कउनो साहित्यिक जीव के हो सकऽ हे ।

[इंटरमीडिएट मगही गद्य-पद्य संग्रह; "मगही पत्रिका", अंक-7, जुलाई 2002, पृष्ठ 38-39]