मैथिली के पहिला उपन्यास "निर्दयी सासु"
(1914)
उपन्यासकार - जनार्दन झा 'जनसीदन' (1872-1951)
मगही अनुवाद - नारायण प्रसाद
मगही अनुवाद - नारायण प्रसाद
[*1] जहिया
से ज्योतिषी गाम रहे लगला, एगो काम बहुत निम्मन कइलका। कन्या के पढ़ना-लिखना सिखइलका।
दू बरिस के भीतर यशोदा के तिरहुता, हिन्दी आउ मामूली देसी गणित के बोध उत्तम रूप से
भे गेलइ। यशोदा के विद्या आउ शील स्वभाव देखके समस्त गाम के लोग क्षुब्ध होब करऽ हलइ।
बहुत समय यशोदा अपन माय आउ मम्मा (दादी) के तुलसीकृत रामायण पढ़के सुनाबय। अर्थो बतइते रहइ। ऊ सुन्ने लगी बहुतो टोला के औरत
सब ओज्जा एकत्र होबऽ हलइ। घर-घर यशोदा के प्रशंसा होबे लगलइ। देखते-देखते यशोदा कन्यादान
के लायक हो गेलइ। दसमा बरिस बीत गेलइ। लेकिन, वर के निश्चय तइयो ज्योतिषी नञ् कर सकला।
सर्वगुण सम्पन्न मनुष्य मिलना बड़ी कठिन आउ ज्योतिषी ओहे देखथिन। जे जाति में श्रेष्ठ
ऊ धनी नञ्। जे सुन्दर ऊ पढ़ल नञ्। पढ़ल त सुन्दर नञ्। महाविकट भावना में ज्योतिषी पड़ला।
कुच्छो निश्चित करता त बुद्धि स्थिर नञ् होबइ। विवाह के एक्को बात हृदय में नञ् बैठइ।
आंगन में घरवली कहथिन - "जइसन हमर कन्या हके ओइसने वर चाही। हम जमाय सुन्दर आउ
धनी चाहऽ हूँ। ओइसन जब नञ् लइबऽ त हम बेटी के ब्याह नञ् करम।"
माय
कहथिन कि जे अपना से निबह सकइ, जेकर सत्कार यथाविधि कर सकिअइ, ओहे कुटुम करम। जे अपन
सामर्थ्य से बाहर होवे, से नञ् करम। पीछू क्लेश में पड़म। ज्योतिषी खुद पुरनका खियाल
के लोक रहथिन। उनका में हरिसिंह देवी[1] के
उन्माद रोम-रोम में भरल रहइ। ओहे से उनकर विचार ओहे दिशा में झुक्कइ जेकरा में पाँजी[2]-पाटीवला
लोग भेटल रहथिन।
शुद्ध[3] दू मास बीत गेलइ।
डेढ़ मास बाकी हइ। ओक्कर बाद उनइस मास अतिचार[4] पड़
जा हइ। लेकिन, कउनो कथा[5] के
निबन्धन (करार) आझो तक नञ् भेलइ। एहे सोच में चिन्तामणि झा दिन-दिन दुर्बल भेल जा हथिन।
ध्यान देके कउनो एक पक्ष धरथिन हल त एतना व्याकुल नञ् होथिन हल। जातिए तरफ जाथिन चाहे
धन दने जाथिन। लेकिन एक्को विचार दृढ़ नञ् होबइ। अन्त में सभागाछी[6]
के समय पहुँचल। ज्योतिषी सौराठ तरफ रवाना होला। आंगन में घरवली नराज। [*2] ऊ कहथिन,
जे एतना दिन में नञ् भेल से अब सभा में होत। कउनो ठाम के एगो दरिद्र बाभन (ब्राह्मण)
के हमन्हीं उठाके ले आम। से जान लीहऽ। हम कभियो करे नञ् देबो। सौराठ जाय के कारण ज्योतिषी
के फुफेरा भाय सहबाजपुर के लक्ष्मीदत्त झा भेलथिन। ऊ दू-चार दिन पहिलहीं आल रहथी। ज्योतिषी
से ज्येष्ठ रहथिन। सुँघनी बड़ी सुड़कथिन। एक-एक मुट्ठी सुँघनी एक बेरी में नाक में ठूँस
लेथी। अपन महेशपुर पाँजी रहइ। ओकरा में हरिसिंह देवी के धुन में मस्त रहथी। चिन्तामणि
झा के कहलथिन जे चलऽ नारायणपुर में एगो लड़का हको। व्याकरण पढ़ऽ हको। मेहरवान ठाकुर पाँजी
हको। सस्ते में हो जइतो। हमहीं कथा के निबन्धन (पञ्जीयन, रजिस्ट्रेशन) कइले हियो।
ई
नारायणपुर के लड़का खटरू झा के बेटा। सम्पत्ति में इनकर खाली दसेक बीघा खेत। दू ठो विवाह
बिकाल रहइ। ओहे से बरिस में कुछ आमदनी हो जाय। ओहे लेके चमक-दमक। लेकिन, ई लड़का कुटुमैती
(कौटुम्बिक सम्बन्ध) के पक्ष से रहथिन। ओकरे से इनकर मान-सम्मान।
सभागाछी
में लक्ष्मीदत्त झा के खटरू झा से तमाकू के दोकान के नगीच भेट भेलइ। राम-सलाम भेल।
खटरू झा के चिन्तामणि झा भिर ले गेलथिन। लेकिन, ऊ दिन विवाह के बारे बातचीत होके रह
गेल। निबन्धन कुछ नञ् भेल। चिन्तामणि झा फेर दोसर दिन से प्रयास करे लगला। जे एकरो
से उत्तम विवाह प्रस्ताव कउनो हो। खटरू झा के स्थिति उनका नीक नञ् बुझइलइ। ओहे से उनका
ओत्ते कुटमैती करे के मन नञ् भेलइ। सभागाछी में दोसर, तेसर दिन अइसीं बौअइला, लेकिन
ठीक नञ् भेलइ। चौठा दिन सभागाछी खूब भरल। ज्योतिषी लक्ष्मीदत्त झा के कहलथिन जे अभी
हम डेरा पर बैठऽ हियो। तूँ विवाह प्रस्ताव के कहूँ लार-चार[7]
कर आहो। एतने में वसुहाम गाम के घूटर झा घटक[8] ज्योतिषी
के डेरे पर भेटलथिन। ज्योतिषी शिष्टाचारपूर्वक उनका बैठइलथिन आउ घटक के अपन अभिप्राय
कहलथिन। घटक कहलथिन जे 'लक्ष्मी बाबू बेकार में हरान होब करऽ हथिन। खटरू झा के लड़का
कउनो हालत में नञ् होतन। चार सो रुपइया अभिए ओकरा सलहा के एक अदमी देब करऽ हइ। हम एगो
बात कहऽ हियो से करऽ।'
बैरमपुर
के अयोध्यानाथ मिश्र के लड़का देखे में बहुत सुन्दर, सोलह बरिस के। अंग्रेजी पढ़ऽ हइ।
पंजीबद्ध नञ् हइ। तीन ठो वंश तइयो हइ। भलमानुस[9] हइ।
सब तरह से निम्मन गुण। हमर तो ई विचार हइ जे ऊ भे जाय त जरूर करऽ। आझ कल हरिसिंह देवी
के केऽ पुच्छऽ हइ? जेकरा धन हइ, [*3] विद्या हइ, बेड़ी-बखारी[10] हइ,
ओहे सब कुछ हइ। श्रीकान्त झा, पद्म झा, जे बूझे में आवऽ हइ, आझकल ओकरे चलती हइ। देखवे
करऽ हो जे अदना-अदना जयबार[11] ब्राह्मण,
जेकरा जमीन्दारी हइ, चार-चार सो गिनाब करऽ हइ, आउ पाँजी वला पड़ले रहऽ हइ। जल्दी विवाहो
नञ् होब करऽ हइ। तूँ एक बेरी वर के देख लऽ। पसीन पड़ जाय त हमरा कहऽ। हम कथा तोड़ दे
हियो। तोहरा से बढ़के हमर इष्ट केऽ होत। काकाजी जब जीवित हलथी, त बरिस में कम से कम
एक्को बेरी शिवनगर उनकर जयनइ। कतेक बेरी मास के मास ओत्ते रहथी। निश्चय करके कहू, की
इच्छा हको ? ज्योतिषी कहलथिन जे भाय के आवे देहू। उनका पूछ ले हिअइ। घटक तेकरा पर कहलथिन
जे हमरा नञ् लगऽ हइ जे लक्ष्मी बाबू होवे देता। ऊ मेहरवान ठाकुर जइसन जखने खोजब करऽ
हला, तखने भलमानुस कखनियों नञ् उनका करे के रुचि होतन। लेकिन, बड़गो दिव्य कथा कहऽ हियो।
तूँ अपन मन स्थिर करऽ। एतने में सुँघनी लेते लक्ष्मीदत्त झा आ पहुँचला। चिन्तामणि झा
सब कुछ कह गेलथिन। लक्ष्मीदत्त झा सुनतहीं अवाक् हो गेला। कुछ समय के बाद उच्छ्वास छोड़के बोलला जे, बेस, घटक कहू, ई कुटमैती कइसे होत ? घटक
कहलथिन - "चलहू, वरपक्ष से बुझल जाय।" लक्ष्मीदत्त के एक्को रत्ती ई कुटमैती
करे में रुचि नञ्, लेकिन की करता। समय देखके मन मसोस करके रह गेला। ओत्ते अयोध्यानाथ
मिश्र तो ई चाहऽ हलथिन जे अपन लड़का के विवाह पंजीबद्ध कन्या से करामूँ। लेकिन, घटक
से जखने कन्या के गुण, प्रशंसा आउ ज्योतिषी चिन्तामणि झा के योग्यता के मर्म सुनलथिन
तखने चित्त चलायमान हो गेलइ। बहुत कहासुनी के बाद ई निश्चय भेल जे चलू पँजियार[12] भिर,
ऊ जे सिद्धान्त[13] करथी,
ओहे हो। हलाँकि जाति में वर के पक्ष न्यून, तइयो चिन्तामणि झा की करता, सिद्धान्त के
रुपइया देके वर के हाथ धर के ले जाब, ई सब स्वीकार कर लेलन। लक्ष्मीदत्त झा ई सुनके
तड़पे लगला। कहलथिन जे ज्योतिषी, तूँ सब ध्वस्त कइलऽ। कन्या एक्के तुरी अइसन नञ् जे
घर में रक्खे लायक नञ् हइ। इमसाल कन्यादान नञ् होतो हल, त अगला साल करतऽ हल। लेकिन
ई जे अन्यायपूर्वक टीक झुकावऽ ह, से कइसे सहल जात। सो टका दहेज हम उनका से गिनइबइ।
चलहू पँजीकार भिर। ज्योतिषी हुआँ से एकान्त में ले जाके उनका बहुत समझइलथिन जे अब पुरनका
जमाना के बात खोजऽ हथी, से नञ् रहल। अखनी धन आउ वरगुण ऊ सब से उपरे मानल जा हइ। लड़का
हमरा बहुत पसीन हइ। मिश्री (अयोध्यानाथ) आत्मीय लोक बुझा हथी। ओहे से हमर चित्त एन्ने
गेल। नञ् तो तूँ जनवे करऽ हो, जे हमर कइसन विचार हले। की करूँ, लचार होके ई काम करब
करऽ हूँ। दू बरिस से दौड़ब करऽ हूँ। केनहूँ [*4] जब नञ् निश्चित भेल त सभा में अइलूँ। अब ई बेरी लौट
जाम त गाम के लोग की कहत ? जइसन समय देखाय दे, ओइसने काम करे के चाही। की कइल जाय?
आशीर्वाद दीहो। कन्या तो सुख में रहत। ई प्रभावशाली लोग हथी। लड़का एम॰ए॰ में पढ़ऽ हथी।
दू भाय हथी। एक भाय के उपनयन नञ् होल हइ। दू ठो बहिन हथिन।
संध्या
भेल। सभा धीरे-धीरे उठे लगल। लेकिन लक्ष्मीदत्त झा के कारण कथा निबन्धन ऊ दिन नञ् भेल।
डेरा पर फेर आधी रात तक एकर चर्चा रहल। लक्ष्मीदत्त झा बहुतो ठाम के कथा के प्रसंग
कहलथिन। लेकिन ज्योतिषी जी के चित्त में जे गड़ गेलन से दूर न होवन। लक्ष्मीदत्त झा
ज्योतिषी के एहो कहलथिन जे तूँ खरचा से डेराऽ ह। लेकिन हम तोहरा सुलभ खरचा में गोइमिश्र,
मेहरवान ठाकुर इत्यादि (पाँजी) के हियाँ कर देब, घबरा मत।
दोसर
दिन घटक से चिन्तामणि झा के पोखरिघर भेंट भेलइ। चिन्तामणि झा कहलथिन जे चलू घटक। सभागाछी
में आझ सिद्धान्त लिखवा दऽ। हियाँ से बिदा हो जाम। बिहान साँझ के गाम पहुँचम। रात में
कन्यादान होत। घटक कहलथिन, "कथा बहुत उत्तम भेल ह। लोग के कहे लगी की करबइ। समय
के साथे भे गेल ह। हरिसिंह देवी काहाँ लेले
फिरऽ ह। कन्या जेकरा से सुख में रहइ से कर्तव्य हइ। लेकिन हमरो मेहनत मन में
रखिहऽ आउ की कहबो।"
ऊ
दिन सबेरे खान-पान भेल। भोजन के बाद सर-समान, मोटरी-जोठरी सब बन्हवाके चिन्तामणि झा
सभा गेला। लक्ष्मीदत्त झा उनकर रुख देखके मुँह फुलइले रहथिन। अयोध्यानाथ मिश्र से ज्योतिषी
के भेंट भेलइ। सिद्धान्त लिखावे के निश्चय भेल। एतने में घटको पहुँचला। ज्योतिषी उनके
दू ठो रुपइया सिद्धान्त लिखवाके लावे लगी देलथिन। सिद्धान्त आल। घटक के एकान्त में
जाके चिन्तामणि झा दू ठो रुपइया देलथिन। हुआँ से ज्योतिषी चिन्तामणि झा, अयोध्यानाथ
मिश्र आउ उनकर लड़का मधुबनी लगी एक्का पर बिदा भेला। लक्ष्मीदत्त झा ज्योतिषी के कहलथिन,
तूँ गाम जा, जे भेल से नीक भेल। अब कुछ कहना बेकार होत। लेकिन हम अभी सभागाछी में रहम।
तोहर काम तो कइसूँ भे गेल। हमरो हर्ष हके।
रात
के ट्रेन से बिदा होके दोसर दिन शिवनगर साँझ के पहुँचते गेला। गाम में हकार[14] भेलइ।
अयोध्यानाथ मिश्र के लड़का सीतानाथ मिश्र अंग्रेजी पढ़ल सुकुमार व्यक्ति। दू दिन के थक्कल।
बैठला त कइएक बेरी औरतानी सब उनका देखे लगी [*5] अइलन। खड़ी होते-होते बेचारे के हालत
खराब। लेकिन करता की? विवाह करना सहज बात नञ्। नाक मलाना अभी बाकिए हलइ। चिन्तामणि
झा के घरवली जमाय के देखतहीं गद्गद् भे गेलथिन। तखने तो जमीन पर उनकर गोड़े नञ् रखाय।
बरियाती लगी एक दने भोजन के प्रबन्ध होवे लगल। दोसर दने बिधकरी[15] आउ
गीत गैताहर लोग परिछन के उद्योग करे लगलन। पुरोहित कन्यादान लगी सब वस्तु के तैयारी
करे लगला। घर-बाहर सगरो शोर-गुल से भर गेल।
विवाह
से विधिए बड़गर। प्रबन्ध होते-होते तीन पहर रात बीत गेल। तब कहीं परिछन भेल। विवाह समाप्त
होते-होते घड़ी भर दिन उठ गेल।
चिन्तामणि
झा विवाह करके बहुत हर्षित भेला। जमाय बड़ी सुशील, नम्र, देखे में सुन्दर। जे कोय गाम
आथिन, सब प्रशंसा करके जाथिन। खाली एक-दू गोटा, जे प्राचीन बुद्धि-विचार के रहथी से
बोलथी, जे ज्योतिषी एतना कमाय कइलन, लेकिन कन्यादान नीक ठाम नञ् कइलन। जमाय उत्तम पाँजीबद्ध
लइथिन हल, तखने न सत्क्रिया देखल जइते हल। ई खुद्दे न्यून ब्राह्मण उठाके ले अइलन।
ओन्ने
वेरमपुर में सेवक समाद लेके पहुँचल। विवाह के खबर सुनतहीं अयोध्यानाथ के घरवली के हर्ष
के सीमा नञ् रहल। शीघ्र सेवक के बोलाके सब हाल, जइसे-जइसे कथा[16] भेलइ,
सिद्धान्त लिखावल गेलइ, से पुछलथिन। ऊ विस्तारपूर्वक सब विषय कह गेलइ। बाद में, चिन्तामणि
झा के आर्थिक स्थिति तथा पुतहू के उमर पुछलथिन। सभा
में ऊ बेचारा जे सुनलके हल, से कहलकइ। सेकरा पर कहलथिन कि जे-जे हौसला हल, से त नञ्
भेल। कुटमैती गरीबे घर कइलन। लेकिन की करबइ। पुतहू नीक भेटल। धनगर घर करथिन हल आउ लोग
उत्तम नञ् भेटत हल त धने लेके की करतूँ हल? फेर पुछलथिन जे सर-समान नीक तरह से देथिन
कि नञ्? सेवक कहलकइ जे अपने चिन्तामणि बेस पुरुषाह[17] हथी। पूरा तरह से दे-लेके बिदा करथिन, एकरा में सन्देह नञ्।
अब चतुर्थी[18] के
प्रबन्ध करता। भार-दौर[19] नीक
पठइता। आझ विवाह हो चुकले होत। बिहान बाबू अइता। बाबूजी के संग हमर भाय रहता। संतोषी
झा भी साथे रहथिन, बिहान मालिक अपने अइता। स्टेशन भोरिए सवारी जइतइ। उनका अइला पर हुआँ
के क्रिया-व्यवहार सब मालुम पड़त।
[*6] विवाह
के समाचार पूरे गाम में काने-कान लोग सुन लेलक। आइ-माइ[20] जे
सुनलन से दौड़ल मिश्र के आंगन गेलन। कोय पूछइ, कन्या समर्थ हइ, त कोय उत्तर अपने मने
देय जे अभियो बुतरुए हइ। कोय बोलइ जे सर-समान पूर्ण रीति से हीं देके विदा करतन? त
कोय कहइ जे ओहो नञ् देतन त ओकरा हुआँ की विवाह कइलन। आझ बच्चा आन जगह विवाह करथिन हल
त चार सो रुपइया लेथिन हल। ऊ दिन एहे सब कथा-पेहानी भर दिन होते रहलइ।
दोसर
दिन दुपहर से कुछ बेर झुकलइ, तखने अयोध्यानाथ मिश्र गाम पहुँचला। थोड़हीं देर में बहुतो
लोग अपन निकट बन्धु से भेंट करे लगी दरवाजा पर पहुँचलथिन। ऊ सब लोग से गप-सप करते हलथी
कि एतने में भोजन करे लगी आंगन से बोलाहट अइलइ। कुछ देर बाद भीतर गेला। हुआँ परी बहिन
भोजन करावे लगी बैठलथिन। सभा के कथा चलल। जे-जे तरह से सभैती कइल गेलइ, शिवनगर के कथा
के निबन्धन भेलइ, से सब बोल गेला। शिवनगर के क्रिया-व्यवहार के बहुत प्रशंसा कइलका।
स्त्री सब देहरी लगके परोक्ष रूप से खड़ी सुनते रहथिन। ननदी के कहलन जे पुछहू त पुतहू
पसीन पड़लन ? ओकरा पर अयोध्यानाथ मिश्र बोलला जे कन्या के प्रशंसा सुनए के त हम हुआँ
कुटमैती[21] कइलिअइ।
घूटर झा कन्या के प्रसंग सभा में जे कुछ कहलन से सब सत्य। कन्या देखे में साक्षात्
लक्ष्मी। शरीर महागोर। जइसे राजा के घर के पोसल-पालल हो। लगऽ हे एक ठो रत्नस्वरूप।
अन्हार घर में इंजोर करनहार। ई गाम में ओइसन देखे में कोय नञ् हइ। पुतहू के देखतहीं
हमर मन तृप्त भे गेल। देना-लेना कुच्छो होवे। बेटा-बेटी बेचला से केकरो सम्पत्ति भेले
ह। अदमी नीक होवे के चाही। हम तो एहे बुझऽ ही जे कुच्छो देय चाहे नञ् देय, पुतहू हमरा
अपूर्व भेटल। उमरियो ओतना न्यून नञ्। दस बरिस के बूझ पड़ल। तेसर बरिस द्विरागमन (रोसकद्दी)
भेला पर आश्रम घर चलावे योग्य वेश उत्तम। अखनहीं ऊ सब काम जानऽ हथी। ओकरो पर पढ़ल, पण्डिता।
सुनलिअइ जे रामायण इत्यादि सब पढ़ ले हथी। लिखावट
तो महासुन्दर। ओइसन अक्षर लिखना बहुत पढ़लो लिखल लोग के नञ् होवऽ हइ। ज्योतिषी कहलन
जे आश्रम के सब काम भनसा-भात नाना प्रकार के तरकारी पकवान बनाना इत्यादि, हमर कन्या
सब कुछ जानऽ हइ। ज्योतिषी अपनहुँ खाय खिलावे के बड़गो उत्साह देखइलकन। रंग-बिरंग के
मिठाय मंगाके घर में रखले रहथी। अचार, खटमिट्ठी, मोरब्बा तरह-तरह के महा उत्तम। सब
अपन घरे के रहइ। ऊ पहिले पश्चिम राजधानी में रहथी। [*7] ऊ देश के लोग ई सब चीज बहुत उत्तम बनाना
जानऽ हइ। पापड़ बड़ी पतरा आउ स्वादिष्ट। मसाला भरल। लगऽ हइ जे ऊ देश से सीख-सीखके अपन
आंगन के लोग के ऊ ई सब बनाना सिखइले हथी। आंगन-घर बहुत फैलाक। पीढ़ा-पानी सब स्वच्छ। व्यवहार कइसन ? अइसन जे योग्य-श्रोत्रिय के हियाँ
दुर्लभ। कुटुम के बड़ आदर सत्कार कइल जा हइ। हमेशे हाथ जोड़ले ठाढ़। अपना हियाँ विवाह
में जे एतना शोर-गुल होवऽ हइ, जाहाँ-ताहाँ बात लोग बोलते जा हप, बरियाती के उल्लु-धुत्तु
कइले रहऽ हइ, से सब नञ्, महास्थिरता से नीक लोग जइसन व्यवहार होवऽ हइ आउ बुझा हइ ओइसन
कथा-कहानी कइल जा हइ। वास्तव में बड़ शिष्ट लोग हुआँ के लोग। हमरा साथ जे कोय गेल रहथी,
उनकन्हिंयों साथ असभ्य बात कोय नञ् कइलकइ। एक-दू ठो उद्दत होवो कइलइ। ओकन्हीं के इच्छा
रहइ कि हल्ला करिअइ। लेकिन आउ अपन लोग जे ओज्जा रहइ, से रुख देखके डटलकइ, सेकरा से
ऊ सब चुप भे गेलइ।
बहिनी
फेर पुछलथिन - समधिन के देखलऽ कि नञ्? सुनलिअइ कि अखनी बेस थेहगर[22] हथी।
ऊ
गाम के औरतियन के संकोच बहुत देखलिअइ। दरवाजा पर से कोय बाहर होता, से नञ्। अंगनमो
में बड़गो परदा, केकरो कुछ बोलते सुनब, से नञ्। गीत तक सुनलिअइ। ऊ सब महा गीत गइताहर।
बहिनी
फेर पुछलथिन - "विध लगी तो नञ् कथा-कहानी कोय कइलक?"
एकर
ऊ उत्तर देलथिन। कोय नञ्, जइसे जे देलिअइ से लेलक। ओकर फेर कोय खोज करनिहार नञ्। बड़
मर्यादा के व्यवहार देखलिअइ। घूँघट के सगुन के साड़ी मधुबनी में बनारसी रेशमी तीस टका
के भेल रहइ, से देलिअइ। सोहाग[23] चार
रुपइया हम देलिअइ। आउ ऊ सब दू-दू रुपइया देलथिन।
सीतानाथ
के माय के करेज समधियारे के प्रशंसा सुनके फूल उठल। अयोध्यानाथ मिश्र भोजन करके दरवाजा
पर गेला। एन्ने तब तक साँझ भे गेल। गाम में हकार पड़लइ। आइ-माइ लोग जामा भेलथिन। कुलदेवी
के गीत गाके दू गोटा दू ठो टेहरी लेलन। सीतानाथ के छोट भाय के जलकट्टी[24] लगी
फुफ्फु (बुआ) कहलथिन। ओहो साथ गेला। गीत गइते लोग पोखर दने बिदा भेल। हुआँ से नगहर[25] भरले
आंगन में आके कुलदेवी के आगू रखते गेलइ। तेल-सेनुर स्त्रीगण में बाँटल गेल। ओहे होते-होते
रात भे गेल। बहुतो के इच्छा रहइ जे [*8] कोहबरो गइतहीं चलूँ। लेकिन मिश्र के बहिनी आउ स्त्री
कहलथिन जे ई कइसे होतइ। अभी केतना रात बितले ह। ई लोग के तो ई (स्थिति हइ) जे सियारो
नञ् भुकइ आउ खा-पीके सूत रहनूँ। कोहबर गावे लगी तो अवश्य अइबइ नञ् तो हमहुँ बुझा देब।
आइ-माइ
लोग तो एहे चाहवे करऽ हथी। दू घड़ी के बाद एकाएकी सब जामा होवे लगलथिन। आवे में जिनका
देरी भेलइ, उनका लगी हुआँ झोटहा प्यादा छोड़ल गेलइ। पकड़के लइलकइ। बहुत देर तक हँसी-मजाक
भेल। सीतानाथ के माय के ननदी सब के डहकन[26] कहीं
कउनो ठेकान नञ् रखलकइ। ओहो काहे चुकथी। जे मन में अइलइ गर्मजोशी के साथ सत्कार लोग
के कइलथिन। तखनी अयोध्यानाथ मिश्र के बहिनी कहलथिन जे डहकने गइबऽ कि कोहबरो गइते जइबऽ।
बड़ रात बीत गेलइ। कुछ समय तक कोहबर गइला पर देर रात हो गेलइ, गीत गैताहर लोगन अपन-अपन
घर चल गेते गेलन। तहिया से मिश्र के घर में नित्य आनन्द-विनोद होवे लगल।
[1] हरिसिंह देवी - मिथिला में पाँजी
ब्राह्मण में श्रेष्ठता निर्धारण के व्यवस्था कर्णाटवंशी राजा हरिसिंह देव कइलथिन हल।
ओहे हरिसिंह देवी के नाम से लोक जिह्वा पर हका।
[2] पाँजी – जन्म आउ विवाह के वंशानुक्रमिक
अभिलेख, जे विशेष रूप से मैथिल ब्राह्मण आउ करण कायस्थ लोग के बीच प्रचलित हइ।
[7] लार-चार - अप्रत्यक्ष रूप से समाचार
जाने के कोशिश।
[8] घटक - विवाह के कथा-वार्ता करे
वला मध्यस्थ, अगुआ।
[9] भलमानुस - मैथिल ब्राह्मण के सामाजिक
वर्ग - श्रोत्रिय, योग्य, भलमानुस, जयबार - में से तेसर दर्जा के ब्राह्मण।
[10] बखारी - धान आदि अन्न रखे के विशेष
प्रकार से बाँस से बन्नल गुंबजाकार घर; बेड़ी-बखारी - बखारी से निर्मित समानार्थक युग्म
शब्द।
[11] जयबार - मैथिल
ब्राह्मण के सामाजिक वर्ग - श्रोत्रिय, योग्य, भलमानुस, जयबार - में से चौठा अर्थात्
सबसे निचला वर्ग।
[12] पँजियार - पाँजी के काम करे वला।
[13] सिद्धान्त - वैवाहिक प्रस्ताव
के अन्तिम निर्णय जे औपचारिक रूप से कइल जा हइ।
[14] हकार, हँकार - कउनो समारोह चाहे
उत्सव में सम्मिलित होवे खातिर विधिवत् अनुरोध (लेकिन अतिथि रूप में नञ्)।
[15] बिधकरी - विवाह
के अवसर पर वर-वधू से विधि करावे खातिर मार्गदर्शक स्त्री।
[16] कथा - विवाह सम्बन्धी वार्तालाप
[17] पुरुषाह - पुरुषार्थी।
[18] चतुर्थी - विवाह के चौठा रात के
एगो वैदिक कर्म।
[19] भार-दौर - भारा-दौरा; विवाह के
बाद दमाद व कन्या के यथाशक्ति वस्त्र, पकवान, दही, फल आदि भेजना।
[20] आइ-माइ, दाइ-माइ - बेटी-पुतहु
आदि; दाय-माय।
[21] कुटमैती, कुटुमैती - विवाह द्वारा
कौटुम्बिक सम्बन्ध।
[22] थेहगर - बुल्ले-चल्ले
में समर्थ।
[23] सोहाग - विवाह के समय सौभाग्य
कामना से कन्या के देल गेल उपहार।
[24] जलकट्टी - शादी के बाद के एगो
विध। जइसे जल के प्रवाह काटहूँ पर नञ् कट्टऽ हइ, ओइसीं नव दम्पती में अकाट्य संबंध
बन्नल रहे। शादी के बाद जब पहिले तुरी दुलहा ससुरार से अपन घर प्रस्थान करऽ हइ त कुछ
दूर तक नगीच के तलाब तक दुलहिनियों जा हइ। तलाब के पानी के दुलहा कोय अस्त्र से काटऽ
हइ आउ कहऽ हइ - हमन्हिंयों के संबंध अइसीं जुड़ल रहे। एहे विध के जलकट्टी कहल जा हइ।
[25] नगहर - उपनयन, विवाह, द्विरागमन
इत्यादि में सधवा द्वारा पोखर से जलपात्र में जल भरके लावे के विधि।
[26] डहकन - भाँड़ी;
मिथिला के सभ्यता के अनुसार वैवाहिक सम्बन्ध के नव कुटुम्ब के गीतबद्ध मधुर गारी।