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Wednesday, October 21, 2020

मार्को पोलो के साहसिक विश्व-यात्रा - भाग 2

 

मार्को पोलो के साहसिक विश्व-यात्रा - भाग 2

[From Chandamama (Hindi), Jun 1960, pp.49-52]

 

[49] फारस बहुत बड़गो देश हइ। ओकरा में आठ राज्य हलइ - कास्विन, कुर्दिस्तान, लुरिस्तान, घलिस्तान, इस्फहान, शिराज, शबनकारा, तूनकैसल।

ई देश में निम्मन नस्ल के घोड़ा होवऽ हलइ। ओकरा भारत भी भेजल जा हलइ। हियाँ परी गदहो के काफी उपयोग हलइ, काहेकि बिन कुछ खइलहूँ ऊ वजन उठावऽ हलइ, जे घोड़ा आउ खच्चर नञ् ले जा पावऽ हलइ। ई ऊ सब व्यापारी लगी बहुत उपयोग में आवऽ हलइ जे एक देश से दोसर देश रेगिस्तान में से जाल करऽ हलइ। ई सब राज्य में रहे वला दुष्ट आउ निर्दय होवऽ हलइ। व्यापारी लोग के ई सब से नुकसान नञ् होवे, खतरा नञ् होवे, ओहे से तातार राजा सब बहुत सारा इंतजाम कर रखलके हल। तइयो ओकन्हीं के हथकंडा जारी रहलइ।

फारस के मुख्य शहरवन में से याज्द एक हलइ। ई बहुत सुन्दर शहर हलइ आउ व्यापार के केन्द्र भी हलइ। हियाँ से सात रोज के सफर के बाद कर्मान राज्य आवऽ हलइ। ई फारस के सीमा पर हइ। हियाँ पहड़वन के खोदला से हीरा मिल्लऽ हलइ। हियाँ अइसनो कारीगर हलइ जे लोहा से निम्मन हथियार बनावऽ हलइ। कर्मान राज्य के बारे एगो विचित्र कथा [50] हइ। हुआँ के लोग शान्त, परोपकारी आउ सीधा-सादा हइ। एक तुरी कर्मान के राजा अपन राज्य के बड़गर बुजुर्ग लोग के एकत्र करके कहलकइ - "हमर समीपवर्ती फारस में लोग धूर्त, दुष्ट आउ हत्यारा हइ, जबकि हमर लोग सीधा-सादा आउ भोला-भाला हइ। एकर कारण कीऽ हइ? ई सन्देह हमरा बहुत सता रहल ह।

बुजुर्ग लोग कहते गेलइ कि ई भेद मट्टी में हइ। सुन्नल जा हइ, तुरते राजा इस्फहान आदमी दौड़इलकइ। आउ हुआँ से सात जहाज भरके अपन देश में मट्टी मँगइलकइ। ऊ मट्टी के कइएक कमरा में डालके ओकरा पर कालीन बिछाके हुआँ परी लोग के ऊ दावत देल करइ। दावत खतम होवे से पहिलहीं ओकन्हीं तूँ-तूँ हम-हम करे लगइ, झगड़इ। कहे के मतलब ई कि बुजुर्ग के कहना सही निकसलइ।

कर्मान शहर से नो दिन के सफर के फासला पर रुद्बार नामक देश हलइ। हियाँ करौना जाति के डाकू लोग के गिरोह रहऽ हलइ। करौना मिश्रित जाति के हलइ यानी ओकन्हीं के पिता तातार हलइ आउ माता भारतीय।

निप्रादार नाम के तातार दस हजार सैनिक के साथ लेके अर्मेनिया से बदखशान, पाशाय, कश्मीर आदि होते दिलवार राज्य में अइलइ। हुआँ के सुलतान के, जेकर नाम असिदीन हलइ, हराके ऊ खुद राजा हो गेलइ। ओकरा साथ जे तातार सब अइले हल, ओकन्हीं के भारतीय स्त्री के सन्तान हीं ई सब करौना हलइ। कहल जा हइ, ई मलाबार से मन्त्र-शक्ति सीखके अइले हल। दिन-दहाड़े ई सब अन्हेरा कर दे हलइ। व्यापारी सब के लूट ले हलइ। जे मुकाबला करइ ओकन्हीं के मार देते जाय। छोटकन के पकड़के गुलाम बनाके बेच देइ। रुद्बार के मैदान उपजाऊ हलइ। होर्मूज बन्दरगाह पहुँचके भारतीय लोग [51] के इन्तजार करइ।

अपन ऊँट आउ खच्चर सब के ई सब मैदान में चरे लगी भेजल करइ। ओहे से करौना ई प्रदेश में जादे घुम्मऽ-फिरऽ हलइ। मार्को पोलो एकन्हीं के हाथ में बिन अइले जइसे-तइसे निकस गेलइ। ओकरा साथ जे सब हलइ, ओकन्हीं में से कइएक पकड़ा गेलइ और जान मार डालल गेलइ।

हियाँ से होर्मुज बन्दरगाह तक दू दिन के सफर हलइ। ई बहुत मशहूर बन्दरगाह हलइ। व्यापार के बड़गो केन्द्र भी हलइ। हियाँ बहुत गरमी पड़ऽ हलइ। कभी-कभी गरमी में रेगिस्तान के तरफ से जबरदस्त लूक (लू) चलऽ हलइ। ई लूक के चलते लोग खटमल के तरह छिटपिटाके मरइ।

जे कर्मान से उत्तर तरफ जाय, ओकन्हीं के सफर बहुत खतरनाक रहइ। तीन दिन तक रस्ता में पनिए नञ् मिल्लइ। ओकर बाद एगो गुप्त नदी मिल्लऽ हलइ। फेर चार दिन बिन पानी के सफर कइला के बाद कूबतान नाम के शहर आवइ। हियाँ से तूनकैन राज्य सब के तरफ आठ दिन के रस्ता हलइ। ई सब राज्य फारस के उत्तर के सरहद पर हलइ। हियाँ परी एगो बड़गो मैदान हलइ। ओकरा में "एकाकी वृक्ष" हलइ। ई वृक्ष से एक तरफ दस मील तक आउ तीन तरफ सो मील तक कोय पेड़ नञ् हलइ। ओहे से एकरा "एकाकी वृक्ष" कहल जा हलइ।

ओकर बाद तुलहत नाम के देश आवऽ हलइ। हियाँ कभी एगो "पहाड़ी राजा" रहऽ हलइ। ओकर नाम हलइ अल्लाउद्दीन। ऊ दू पहाड़ के बीच के घाटी में बड़गो-बड़गो बाग बनवइलकइ आउ बड़ी आलीशान मकानो बनवइलकइ। ऊ सब मकान में ऊ बड़ी सुन्दर-सुन्दर औरत रखले हलइ। ऊ प्रान्त के देखके स्वर्ग के भ्रान्ति होवऽ हलइ। जइसे मोहम्मद [52] स्वर्ग के कल्पना कइलथिन हल, ओइसहीं हियाँ परी दूध, पानी, शराब के नदी बहल करइ।

अगर ऊ अपन कोय दुश्मन के हत्या करवावे लगी चाहइ, त ऊ ओकरा कइसूँ अपन किला में ले आवइ। ओकरा नशा के चीज देके बेहोशी के समय ओकरा बाग में औरतियन भिर पहुँचवा देइ। होश में अइला पर ओकरा लगइ, जइसे ऊ स्वर्ग में हइ।

जब ओकरा हत्या लगी भेजल जाय, त ओकरा नशा के चीज देके फेर से किला में लावल जाय। होश में अइतहीं ओकरा लगइ, जइसे स्वर्ग से दूर हो गेलइ।

"अगर तूँ फेर से स्वर्ग जाय लगी चाहऽ हँऽ, त फलना राजा के मार। फेर तोरा स्वर्ग में भेज देबउ।"  केकरा-केकरा मारे लगी केकरा भेजल जाय के जरूरत रहऽ हलइ, ई "पहाड़ी राजा" बड़ी होशियारी से निश्चित करइ। जब ओकन्हीं अपन काम करके वापिस आवइ, त ओकन्हीं लगी बड़गो-बड़गो दावत देइ। जब ऊ ओकन्हीं के हत्या करे लगी भेजइ, त पीछू से अपन दूत भेजइ, ई देखे लगी कि ओकन्हीं आज्ञापालन कर रहले ह कि नञ्। ओकन्हीं बेचारा, जे सोचऽ हलइ कि ओकन्हीं स्वर्ग हो अइले ह, मृत्यु के परवाह नञ् करइ।

छोटगर ख़ान लोग में से एक, जेकर नाम हुकाग हलइ, ई पहाड़ी राजा के बारे सुनलकइ। ओकरा मारे लगी 1262 ई॰ में ऊ एगो बड़गो सेना भेजलकइ। ऊ सेना आके तीन साल तक ओकर किला के घेरा डालले रहलइ। जब खाय-पीए के चीज किला में समाप्त हो गेलइ, त पहाड़ी राजा हथियार डाल देलकइ। तातार ख़ान पहाड़ी राजा आउ ओकर हत्यारा सब के मरवा देलकइ। ई तरह से ऊ लोग के उपकार कइलकइ।

(क्रमशः)


भाग-1                                                                                                           भाग-3

Saturday, October 17, 2020

वेताल कथा (चान मामूँ) - 5. योग्य वर

 वेताल कथा (चान मामूँ) - 5. योग्य वर (The eligible suitor)

(चंदामामा- फरवरी 1956, पृ॰29-32; वेतालपञ्चविंशति, कथा सं॰2; बैताल पचीसी, कहानी सं॰ 2)

[29] विक्रम पेड़ पर से फेर से लाश के उतारके आउ कन्हा पर डालके श्मशान में संन्यासी तरफ चल पड़लइ। तब लाश में स्थित बेताल राजा से कहलकइ - "राजा, तोहर कइसन खराब हालत होल हको! तोर मन बहलावे खातिर हम तोरा एगो कहानी सुनावऽ हकियो। सुन्नऽ।"

यमुना नदी के किनारे ब्रह्मस्थल नामक ब्राह्मण-ग्राम में अग्निस्वामी नाम के एगो वेदपाठी रहऽ हलइ। ओकर एगो लड़की हलइ, नाम हलइ मन्दारवती। ऊ एतना सुन्दर हलइ कि अप्सरा सब के भी सौन्दर्य में मात करऽ हलइ। ऊ ओकर विवाह करे के बारे सोचिए रहले हल कि कहीं से तीन ब्राह्मण युवक अइलइ आउ तीनों ओकरा से [30] मन्दारवती के हाथ माँगे लगलइ। तीनों में से हरेक युवक कहलकइ कि अगर ऊ विवाह नञ् कर पइतइ, त आत्महत्या कर लेतइ।  

तीनों युवक शिक्षा-दीक्षा में, सौन्दर्य, चरित्र, वगैरह में एक समान हलइ। ओहे से अग्निस्वामी निर्णय नञ् कर पइलकइ कि अपन पुत्री के विवाह केकरा से करे। अगर निर्णय करियो लेते हल, त बाकी दू युवक आत्महत्या कर लेते हल। ओहे से ऊ चुप रहलइ।

एन्ने, मन्दारवती के एकाएक भयंकर ज्वर होलइ आउ ऊ थोड़हीं दिन में मर गेलइ। तीनों युवक ओकर मौत से दुखी हो गेलइ आउ ओकर लाश के श्मशान ले जाके, तीनों ओकर लाश के अन्त्येष्टि संस्कार कइलकइ। ओकन्हीं में से एगो श्मशान से वापिस नञ् अइलइ। जाहाँ परी मन्दारवती के लाश के जलावल गेले हल, हुएँ परी ऊ एगो झोपड़ी बना लेलकइ आउ ओकरे चिता के भस्म पर ऊ रहे लगलइ। कोय कुछ लाके दे दे हलइ, त ओहे खाके तसल्ली कर ले हलइ, नञ् तो ऊ हुएँ परी भुखले-पियासले पड़ल रहऽ हलइ।

दोसरा युवक, मन्दारवती के अस्थि जमा करके गंगा में परवह करे लगी निकस पड़लइ।

तेसरा युवक पूरा तरह से बैरागी बन गेलइ आउ देश-देशान्तर घुम्मे-फिरे लगलइ। ऊ घूमते-घूमते एक दिन वक्रोलक नामक गाम पहुँचलइ। हुआँ परी एगो ब्राह्मण ओकर अतिथि सत्कार कइलकइ। जब ओकन्हीं भोजन पर बैठलइ, त घर के छोटका बुतरू रोवे लगलइ। ओकर मइया भोजन परसते-परसते ओकरा बहुत मनइलकइ-समझइलकइ। लेकिन ऊ रोना बन्द नञ् कइलकइ। ओहे से ओकर मइया गोस्सा में ओकरा जलता चूल्हा में झोंक देलकइ। ऊ छोटका बुतरू देखते-देखते चूल्हा में राख हो गेलइ।

[31] ब्राह्मण युवक ई सब देख रहले हल। ऊ चिल्लइलइ - "छी! तूँ मनुष्य नञ् हकऽ, बल्कि राक्षस हकऽ। तोहर आतिथ्य स्वीकार करके हमहूँ नरक में जाम।" कहते-कहते, ऊ पत्तल छोड़के उठ गेलइ।

लेकिन मेजबान कहलकइ - "बेटा! जल्दी मत करऽ। हम राक्षस नञ् ही। अइसन बात नञ् हइ कि हम सब के अपन बुतरू पर प्रेम नञ् हइ, काहेकि ओकरा फेर से जिला देवे खातिर हम मृत संजीवनी मन्त्र जानऽ हिअइ; ओहे से हमर घरवली ओकरा चूल्हा में डाल देलकइ।"

ब्राह्मण युवक के विश्वास नञ् होलइ। ओहे से ऊ ब्राह्मण थोड़े-सुन धूरी लेलकइ, खूँटी पर टँगल एगो पुस्तक के निकासके ओकरा में से एगो मन्त्र पढ़लकइ। ऊ धूरी के चूल्हा के राख में छिड़कतहीं ऊ बुतरू फेन से जिन्दा हो गेलइ।

ब्राह्मण युवक सन्तुष्ट होके भोजन कइलकइ। लेकिन ओकर मन खूँटी पर लटकल पुस्तक पर लगल रहलइ। जब रात के सब सुत्तल हलइ, तब ऊ, ऊ पुस्तक लेलकइ, आउ बिन केकरो कुछ कहले-सुनले, ब्रह्मस्थल पहुँच गेलइ।

ऊ ब्राह्मण युवक भी, जे मन्दारवती के अस्थि के गंगा में परवह करे गेले हल, वापिस आ गेले हल। दुन्नु मिलके तेसरा युवक के पास गेलइ, जे श्मशान में रह रहले हल।

ऊ ब्राह्मण युवक, जे मृत संजीवनी मन्त्र लइलके हल, ओकरा बारे दुन्नु युवक के बतइलकइ। ऊ फेनुँ चुटकी भर धूरी लेलकइ, पुस्तक में से मन्त्र पढ़लकइ, आउ ऊ धूरी के ऊ भस्म (राख) पर डाल देलकइ, जेकरा तेसरा युवक शय्या बना लेलके हल।

तुरते मन्दारवती जिन्दा हो गेलइ, मानुँ नीन से जगले हल।

[32] तीनों ब्रह्मचारी ओकरा साथ लेके अग्निस्वामी के घर जाके कहे लगलइ - "एकर विवाह हमरा से कर दऽ। एकर विवाह हमरा से कर दऽ।" ओकन्हीं ई तरह से ओकरा तंग करे लगलइ।

"हम मृत संजीवनी मन्त्र लइलिए हल, ओहे से मन्दारवती से विवाह करे के अधिकार हम्मर बन्नऽ हइ।" एक युवक बोललइ।

"हम ओकर अस्थि ले जाके गंगा में परवह कइलिअइ, ओकर जी उठे के कारण एहो हइ। हमरे ओकरा से विवाह करे के चाही।" दोसरा युवक बोललइ।

"हमहीं ओकर राख सुरक्षित रखलिअइ, हमहीं ओकरा पर सुत्तऽ हलिअइ, ओहे से हम विवाह करबइ।" तेसरा युवक बोललइ।

अग्निस्वामी फेर दुविधा में पड़ गेलइ कि केकरा साथ लड़की के विवाह करे। ओकरा कोय रस्ता नञ् देखाय देलकइ।

वेताल ई कहानी सुनाके राजा से पुछलकइ - "राजन्! ऊ तीनों में कउन मन्दारवती के योग्य वर हलइ? ऊ, जे मृत संजीवनी मन्त्र लइलके हल? कि ऊ, जे अस्थि के गंगा में परवह कइलके हल? कि ऊ, जे ओकर चिता के राख पर सुत्तऽ हलइ? अगर तूँ जान-बूझके नञ् बतइलऽ त तोहर सिर फोड़ देबो।"

राजा उत्तर देलकइ - "मृत संजीवनी मन्त्र लावे वला युवक मन्दारवती के प्राण वापिस लइलकइ, ओहे से ऊ पिता के समान होलइ आउ अस्थि के गंगा में परवह करे वला भाय के समान। जे युवक मन्दारवती के चिता के राख पर सुत्तऽ हलइ आउ पहिले नियन ओकरा से प्रेम करऽ हलइ, ओहे ओकर पति होवे लायक हलइ।"

ई तरह राजा के मौनभंग होतहीं वेताल लाश के साथ उड़के ओहे पेड़ पर जाके फेर से लटक गेलइ।



 

Saturday, October 03, 2020

वेताल कथा (चान मामूँ) - 4. आत्म-बलिदान

 वेताल कथा (चान मामूँ) - 4. आत्म-बलिदान

(चंदामामा- जनवरी 1956, पृ॰18-24; वेतालपञ्चविंशति, कथा सं॰15; बैताल पचीसी, कहानी संख्या 16)


[18] विक्रम फेर पेड़ पर से लाश के उतारके, कन्हा पर डालके श्मशान तरफ चललइ। लाश में स्थित वेताल अट्टहास करते कहलकइ - "राजा! तोहरा देखके हमरा जीमूतवाहन के कथा आद आ रहलो ह। समय काटे लगी ई कहानी सुनावऽ हियो। सुन्नऽ।" ऊ ई कथा सुनइलकइ -

हिमालय पर्वत पर, कांचननगर के परिपालन करते जीमूतकेतु नाम के राजा हलइ। ऊ राजा के महल के आँगन में एगो कल्प-वृक्ष हलइ। ऊ वृक्ष के कृपा से राजवंश के लोग के सम्पूर्ण इच्छा पूरा हो जा हलइ।

जीमूतकेतु के लड़का के नाम हलइ जीमूतवाहन। जब ऊ बड़गो होलइ त राजा वैभव के साथ ओकरा युवराज [19] बनइलकइ। ओहे बखत मन्त्री सब जीमूतवाहन से कहलकइ - "युवराज! अपने के वंश खातिर कल्प-वृक्ष के होना कल्याणकारी हइ। ई अपने के पूर्वज लोग के सहायता करते अइले ह! अपनहूँ ऊ कल्प-वृक्ष के प्रार्थना करके अपन सब इच्छा के पूरा कर सकऽ हथिन।"

एतना सुनतहीं जीमूतवाहन के प्रसन्न होवे के बात अलगे, ऊ चिन्तित होके सोचे लगलइ - "अफसोस हइ, हमर पूर्वज सब, कल्प-वृक्ष के होतहूँ, हमेशे अपन स्वार्थ के परवाह करते गेलथिन, परोपकार कभियो नञ् कइलथिन। ई जीवन में परोपकार के अलावा सब कुछ क्षणभंगुर ही तो हइ। ऊ सब, जे कल्प-वृक्ष के अप्पन समझऽ हलथिन, अब काहाँ हथिन? कम से कम हम तो ई कल्प-वृक्ष के स्वार्थ लगी उपयोग नञ् करबइ।"

ई तरह सोचके, जीमूतवाहन कल्प-वृक्ष बिजुन जाके प्रार्थना कइलकइ - "देव! नञ् मालुम, केतना पीढ़ी से, जे कुछ हमर पूर्वज लोग मँगलथिन, अपने उनकन्हीं के देते अइलथिन हँऽ। कभियो अपने नञ् नञ् कइलथिन। हमर अपने से एक्के प्रार्थना हइ। ई संसार में जेतना अनाथ आउ अभागल हइ, ऊ सब के इच्छा पूरा करथिन, आउ ओकन्हीं के कोय चीज के कमी नञ् होवे देथिन।"

तुरते कल्प-वृक्ष अदृश्य हो गेलइ। भूमि पर निम्मन बारिश होलइ, खूब फसल होलइ आउ संसार में कोय दरिद्र नञ् रहलइ।

जब रिश्तेदार लोग के मालुम होलइ कि जीमूतकेतु आउ जीमूतवाहन के पास कल्प-वृक्ष नञ् हइ, त ऊ सब अइन सेना लेके कांचननगर पर आक्रमण करे लगी निकस पड़लइ। जीमूतकेतु ओकन्हीं के मुकाबला करे खातिर प्रयास करे लगलइ। लेकिन जीमूतवाहन अपन पिता से निवेदन कइलकइ - "पिता जी! [20] ई युद्ध से कीऽ लाभ? कीऽ ई राज्य खातिर रिश्तेदार लोग के हत्या करना उचित हइ? थोड़े दिन ओकन्हिंएँ के राज्य करे देथिन। हम सब कहीं आउ जाके इह आउ पारलौकिक सुख प्राप्त करे के प्रयास करिअइ।"

"जइसन तोर मर्जी। जब तोहरे राज्य के इच्छा नञ् हको त भला हम काहे लगी युद्ध करके लोग के खून-खराबा करू?"

जीमूतवाहन रिश्तेदार लोग के राज्य सौंप देलकइ। अपन माता-पिता के साथ लेके, ऊ दक्षिण समुद्र के किनारे स्थित मलय पर्वत पर चल गेलइ। हुआँ ऊ एगो आश्रम भी बना लेलकइ। ऊ पर्वत पर सिद्ध जाति के लोग रहल करऽ हलइ। ऊ जाति के राजा के पुत्र मित्रावसु से जीमूतवाहन के स्नेह हो गेलइ।"

एक दिन जीमूतवाहन घूमते-घूमते, पार्वती मन्दिर बिजुन पहुँचलइ। मन्दिर में वीणा के साथ केकरो पार्वती-पाठ करे के ध्वनि सुनाय पड़लइ। अन्दर जाके देखला पर एगो सुन्दर युवती देखाय देलकइ। ऊ ओकर सहेली से मालुम कर लेलकइ कि ऊ मित्रावसु के बहिन हइ, आउ ओकर नाम मलयवती हइ। सहेली [21] मलयवती के जीमूतवाहन के परिचय देलकइ। मलयवती कुछ संकोच में पड़ गेलइ। ओकरा समझ में नञ् अइलइ कि जीमूतवाहन के कइसे स्वागत कइल जाय। ओहे से पूजा लगी लावल फूल में से एगो ले लेलकइ आउ ओकरा जीमूतवाहन के गला में डाल देलकइ। लेकिन तुरते जीमूतवाहन अपन गला से निकासके ओक्कर गला में डाल देलकइ। मित्रावसु दिल खोलके हँसलइ, जब ओकरा ई घटना के बारे पता चललइ। ओकरा मालुम हो गेलइ कि नवयुवक आउ मलयवती एक दोसरा के प्रेम करऽ हइ, त ऊ ओकन्हीं के विवाह कर देलकइ।

कुछ समय गुजर गेला के बाद, एक दिन जीमूतवाहन आउ मित्रावसु पर्वत से नीचे उतरके समुद्र तरफ जा रहले हल। जब ओकन्हीं जा रहले हल, त जीमूतवाहन हड्डी के कइए गो ढेर देखलकइ आउ अपन मित्र के एकरा बारे पुछलकइ।

"तोरा गरुड़ आउ नाग के बीच घोर दुश्मनी के बारे पता हको", मित्रावसु उत्तर देलकइ। "घृणा से अन्धा होके गरुड़ नाग लोग के एतना बरबाद करे लगलइ कि वासुकि, नाग लोग के राजा, गरुड़ के साथ सन्धि करे पड़लइ जेकरा अनुसार एक नाग रोज गरुड़ के पास खाय लगी भेजल जा हलइ। ई सब ढेर ऊ अभागल नाग के हइ जेकरा गरुड़ सन्धि के अनुसार रोज दिन खइलके ह।"

[22] जब ऊ ई बात सुनलकइ, त जीमूतवाहन के नाग लोग पर दया आ गेलइ। "ई गरीब जाति पर कइसन विपत्ति हइ! ऊ सोचलकइ। "ई वासुकि कायर होतइ, नञ् तो ऊ अपन दुश्मन के अपन लोग के दिन पर खाय नञ् देते हल। ऊ अइसन वहशी समझौता करे के पहिले खुद के गरुड़ के सामने खाय लगी समर्पित कर देते हल! कीऽ गरुड़ खुद एगो निर्दय कमीना नञ् हइ, जे एक नाग रोज खा हइ आउ एगो नाग जाति के दुर्गति कर देलके ह?"

"अब वापिस चल्लल जाय?" मित्रावसु आखिर बोललइ। "घर से अइला बहुत देर हे गेलइ।"

"तूँ पहिले जा", जीमूतवाहन बोललइ। "हम जल्दीए आ जइबो। हम ई जगह के आउ निम्मन से देखे लगी चाहऽ हिअइ।"

वस्तुतः जीमूतवाहन वापिस जाय लगी नञ् चाहऽ हलइ। ऊ आझ लगी गरुड़ के भोजन बन्ने के फैसला कर लेलकइ, आउ ई तरह कम से कम एक अभागल नाग के जान बचावे के। अपन साला के भेजला के बाद, ऊ, ऊ शिला तरफ बढ़लइ जेकरा पर गरुड़ नाग लोग के खा हलइ।

तुरते ओकरा विलाप सुनाय देलकइ आउ एगो नाग औरत आउ ओकर बेटवा के शिला तरफ अइते देखलकइ। "आह, बेटा शंखचूड़! हमर कीऽ हालत होत जब तूँ चल जइमँऽ?" बुढ़िया अम्मोढेकार कन रहले हल।

"मत रो, माय", युवक नाग ओकरा सलाह देलकइ। "एकरा से कोय फयदा नञ्! अब घर लौट जो। हमर समय समाप्त हो गेलउ आउ अगर तूँ हियाँ परी ठहरमँऽ, त तोरा हमरा जान मारल आउ खाल जाय देखे पड़तउ।"

"निम्मन माय", जीमूतवाहन आगू बढ़के बुढ़िया के कहलकइ, "तूँ अपन लड़का खातिर मत रोवऽ। आझ हम तोर लड़का के जगह पर [23] गरुड़ के आहार बनके जइबो। तूँ अपन लड़का के लेके अराम से अपन घर चल जा।"

बुढ़िया एकाएक आनन्दाश्रु बहइते कहे लगलइ - "बेटा! तूँ केतना निम्मन बात कह रहलऽ ह! लेकिन जे अइसन बात कह सकऽ हइ, ऊ कीऽ हमर बेटा के बराबर नञ् हइ? कीऽ तोरा मर गेला पर हमरा दुख नञ् होतइ? अइसन मत करऽ बेटा, मत करऽ। ई तो बड़गो अन्याय होतइ।"

शंखचूड़ अपन माय के हुआँ से जल्दी से चल जाय लगी कहलकइ। आउ ऊ गरुड़ के आवे से पहिले, गोकर्ण के प्रार्थना करे चल गेलइ। शंखचूड़ के वापिस आवे के पहिलहीं मँड़रइते आ पहुँचलइ। ओकरा अइते देखके जीमूतवाहन शिला के पास खड़ी हो गेलइ। गरुड़ ओकरे नाग समझके खाय लगलइ। लेकिन गरुड़ के एक बात के अचरज होलइ। ऊ बात ई हलइ कि ऊ नाग बाकी नाग नियन मरे से नञ् डर रहले हल। ओकर मुख पर सिवाय शान्त भावना के आउ कुछ नञ् हलइ। एकरा में कीऽ रहस्य हइ, ई गरुड़ के बिलकुल समझ में नञ् अइलइ।

जल्दीए शंखचूड़ दौड़ल-दौड़ल अइलइ आउ कहे लगलइ - "गरुड़! ठहरऽ, ठहरऽ! ऊ नाग नञ् हको। हम नाग हियो। ओकरा मत खाहो। तूँ हमरे खा। ठहरऽ, ठहरऽ।" ऊ अइसीं चिल्लाब करऽ हलइ।

गरुड़ हैरान होल जीमूतवाहन दने तकलकइ आउ पुछलकइ - "अगर तूँ नाग नञ् हीं, त तूँ हियाँ परी काहे लगी अइल्हीं आउ हमर आहार बन रहल्हीं हँऽ?"

"तोर हृदय पत्थर के हउ। ओहे से बिन कुछ सोचले-विचारले एक नाग रोज अपन पेट में रख ले हीं। लेकिन हम जानऽ [24] ही कि जीवन के केतना मूल्य हकइ। ओहे से, एक नाग के प्राण-दान करे के उद्देश्य से हम ई काम कइलिए ह। एकरा में आउ कोय बात नञ् हइ।" जीमूतवाहन कहलकइ।

गरुड़ के पश्चात्ताप होलइ। ऊ कहलकइ - "महात्मा! हम अनजान में बड़गो अपराध कइलिए ह। हमरा क्षमा कर देथिन।"

"रोज जान-बूझके अपराध करे वला के कइसे क्षमा कइल जा सकऽ हइ? रोज जे नाग के खा हीं, कीऽ ऊ सब हमरा नियन प्राणी नञ् हइ?" जीमूतवाहन पुछलकइ।

"हम अब कभी नाग लोग के पीछा नञ् करबइ। हमरा क्षमा कर देथिन।" गरुड़ कहलकइ। शंखचूड़ के प्राण बच गेलइ। जीमूतवाहन घर चल गेलइ।

ई कथा सुनइला पर वेताल पुछलकइ - "राजा! ई दुन्नु में कउन बड़ा हइ? शंखचूड़ के बदले अपन प्राण के आहुति देवे वला जीमूतवाहन, या जीमूतवाहन के मरे से बचावे वला शंखचूड़? अगर तूँ एकर उत्तर जानतहूँ नञ् बतइलइ, त हम तोर सिर फोड़ देबो।"

विक्रम उत्तर देलकइ - "जीमूतवाहन प्राणीमात्र पर दया करऽ हलइ। ऊ प्राण-दाण खातिर, आत्म-बलि के अपन कर्तव्य समझऽ हलइ। शंखचूड़ लगी नञ् त ऊ कोय आउ खातिर अपन बलि दे देते हल। ऊ स्वेच्छापूर्वक मरते हल। लेकिन शंखचूड़ के मरना स्वेच्छानुसार नञ् हलइ। ऊ जबरदस्ती मारल जइते हल। अगर ऊ तहिया बच जइते हल त ऊ मृत्यु से भी बच जइते हल। ई जानतहूँ ऊ जीमूतवाहन के प्राण-रक्षा कइलकइ। ओहे से निस्सन्देह शंखचूड़ बड़ा हइ।"

ई तरह राजा के मौनभंग होतहीं वेताल लाश के साथ उड़के ओहे पेड़ पर जाके फेर से लटक गेलइ।