अरंबो॰ = "अजब
रंग बोले"
(मगही कहानी संग्रह), कहानीकार – श्री रवीन्द्र कुमार; प्रकाशक - जिज्ञासा प्रकाशन, झेलम अपार्टमेन्ट, राजेन्द्रनगर, पटना: 800 016; प्रथम संस्करण - 2000 ई॰; 103
पृष्ठ । मूल्य – 120/- रुपये ।
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कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या
- 754
ई कहानी संग्रह में कुल 16 कहानी हइ ।
क्रम
सं॰
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विषय-सूची
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पृष्ठ
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0.
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हमरा
ई कहना हे
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5-6
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0.
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हमरो
ई कहना हे
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7-9
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0.
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यथाक्रम
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10-10
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1.
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उज्जर
कौलर
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11-16
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2.
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कोनमा
आम
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17-21
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3.
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व्यवस्था
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22-27
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4.
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अभिभावक
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28-33
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5.
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उपास
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34-39
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6.
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आग
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40-45
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7.
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नो
बज्जी गाड़ी
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46-51
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8.
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खीरी
मोड़
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52-60
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9.
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घर
बड़का गो हो गेल
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61-67
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10.
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कन्धा
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68-72
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11.
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देओतन
के बापसी
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73-80
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12.
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फालतु
अमदी
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81-85
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13.
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सूअर
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86-90
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14.
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पित्तर
के फुचकारी
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91-94
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15.
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मन
के पंछी
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95-98
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16.
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सभ्भे
स्वाहा
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99-103
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ठेठ मगही शब्द ("म"
से "ह" तक):
601 मंगली (= मांगलिक) (बेटी के एम.ए. तक पढ़यली । ... बेटी के उमर बढ़ रहल हे । ओक्कर बियाह एसों करना जरूरी हे । मंगली हे । जल्दी ओक्कर टीपन केकरो से मेले नञ खाहे । मन लायक लइका चाहऽ ही । मगर ओकरा ला तिलक-दहेज दे सकम ?) (अरंबो॰79.13)
602 मंझला (~ भइया) (बच्चा, भइया से हँस्सी कइलक - का भइया, अभियो तोरा रेलेगाड़ी चलावे के मन करऽ हो ? - से का ? - मंझला भइया कहऽ हलथुन कि भइया टी टी, छिक-छिक करइत रहऽ हथुन । अब तो तोरा रिटायरो कइला बरिस भर होलो ।; दु-चार दिन पहिले हम्मर बेटा बड़कू आउ पहलमान के मंझला बेटा एक दोसरा के आमने-सामने बन्दूक लेले ललकारइत हल ।; ईसों मंझलो तो रिटायर हो गेलो । गाम आवऽ हउ ? का तो शहर में प्रेस खोललक हे । किताब छापऽ हे । सवाल छापऽ हे ।; पहलमान के आँख भरभरा गेल । बोलल - एही नञ मंझला भइया, ओकरा तो गामे नञ, ओकरा तो सौंसे देसे मुरूख से भरल लगऽ हे । तों अंग्रेजी में बी.ए., एम.ए. बेकारे कइलऽ ।; बड़का बेटा एम.एस-सी. के इम्तिहान दे रहल हे । मंझला, नागपुर में इंजियरी पढ़ रहल हे । तेसरका मेडिकल के कम्पीटीसन के इम्तिहान में बइठल हे ।) (अरंबो॰64.17, 22; 65.5, 22; 79.7)
603 मउअत (= मौत) (शायद जिनगी भर अमदी अपनहीं के खोज करइत रहऽ हे । अप्पन मट्टी, अप्पन स्वरूप आउ अप्पन मूल प्रकृति के पकड़े के कोशिश ऊ करइत रहऽ हे । 'कोनमा आम' शायद अइसने एगो कोशिश हे । जिनगी में वितृष्णा के भाव जब प्रबल हो जाहे तो 'फालतू अमदी' अप्पन मउअत के इन्तेजार करऽ हे ।; राजधानी से गाम ऊ लउट अइलन हल । सात-आठ दिन बाद एगो शोक-संदेश मिलल । न्योता हल, मिन्टू के मउअत के ब्रह्म-ज्योनार के ।; फिन छनका लगल - छन !! बाप रे ! ... मइया के मउअत ! अब पूरा घर जोड़े वाला कड़ी भी गायब ।; एन्ने बाबू जी हमरा पास कम खत लिखऽ हथ । मगर उनखर हर खत में कउनो न कउनो इयार-दोस के मउअत के चरचा जरूरे रहऽ हे । हम्मर मेहरारू अइसन खत पढ़ के बुदबुदा हलन आउ फिन खत फाड़ के बिग दे हलन । उनखो लगऽ होत, अइसन ने मउअत के मनहूस कार छाया उनखरो छोट परिवार पर न पड़ जाय । मन में अनदेसा उठे लगऽ होत ।) (अरंबो॰7.13; 31.1; 55.20; 82.21, 23)
604 मगही (एकबैग ओकील साहेब दन्ने मुँह करके हम पूछली - अब का करे के हे ? मगही के एगो हम्मर मुँह से निकसल बात लोग नञ समझ रहलन हे । अचरज से हम्मर मुँह ताक रहलन हे ।) (अरंबो॰21.9)
605 मचोरना-मचारना (गेंदड़ा तल्ले से बिलसवा एगो मचोरल-मचारल सादा कागज निकासलक । पक्का पर ओकरा तान देलक आउ लगल अप्पन बाबा हीं चिट्ठी लिखे ।) (अरंबो॰95.16)
606 मच्छड़-डाँसा (कछुआ छाप अगरबत्ती के धुइयाँ कोठरी के हवा में मिल-जुल गेल हल । मच्छड़-डाँसा कहीं दबकल पड़ल होता ।) (अरंबो॰71.14)
607 मजिस्टेट (= मजिस्ट्रेट) (फेन दोसर बेर दुमका के ओही क्षेत्र में अइली हे । आदिवासी आउ दिक्कू में कुछ टेंशन हे । तीर-धनुष आउ बन्दूक से लड़ाय होवऽ । मजिस्टेट, पुलिस सब गस्ती लगा रहलन हे ।) (अरंबो॰14.1)
608 मजूर (= मजदूर) (देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।) (अरंबो॰58.25)
609 मजूरी (= मजदूरी) (बाबू, जंगले हमनी के घर हल । आझो घर हे । जंगली जानवर के सिकार करऽ हली । जंगल के बचल-खुचल जमीन पर थोड़े-थाक खेती-बारी करऽ हली । सरकारी कानून बनल आउ जंगल से हम आदिवासी बेदखल हो गेली । का तो जंगलो से लकड़ी काटे के काम गैरकानूनी हे । ... हमनी कानून, नियम का जाने गेली । ... बाबू, सहर आउ गाम तोरे हलो आउ जंगल तोरे हो गेलो । मजूरी के सिवाय आउ हमनी ला का बचल हे ? जंगल के ठेकेदार हमनी सबसे सब काम ले हे । मजूरियो बहुत्ते कम दे हे । ... ई पूछऽ न बाबू, तनी सा मजूरी देके हमनी से का का नञ ले लेहे ?; देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।) (अरंबो॰15.16, 17, 18; 58.26)
610 मटर (= मोटर) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !; बड़गो-बड़गो किसान बरसात से निरास होवे पर, अप्पन-अप्पन खेत में कुइयाँ खनउलन । मटर बइठउलन । मुचकुन जी के आद हे, बिलास जी सोमार के उनखा पास अइलन हल । उनखा से कहलन हल - तोहूँ अप्पन खेत में कुइयाँ खना लऽ, मटर बइठा लऽ । पुरान सुराजी अमदी हऽ । तोरा सब असानी से मिल जइतो ।; खखस के, गियारी साफ करके बोललन हल - का सरकार मुस्तीये {? मुफ्तीये} में मटर दे दे हथ ?) (अरंबो॰20.2; 35.26, 27; 36.7)
611 मटियाना (= उपेक्षा करना, ध्यान न देना; उदासीन होना; सुस्त पड़ना; मिट्टी से साफ करना) (हाँ, एगो फरक ऊ महसूस करऽ हथ । लइकन सब, जे पैर छूके परनाम करऽ हल, अब खाली हाथे जोड़ के परनाम करऽ हे । कउनो-कउनो तो मटिआइयो देहे । जब से बेटा बागी हो गेल हल, डाँट-फटकार कर के अप्पन अधिकार अपने समाप्त कर लेलन हल ।; अजी बाबा ! तूँ हमरा अपने भिरी बोला लऽ । हम तोहर सब कहना मानबो । अब पढ़े से नञ मटिअइबो । मन लगा के तोर गोड़ो दाबबो ।) (अरंबो॰54.17; 97.22)
612 मट्टी (= मिट्टी) (शायद जिनगी भर अमदी अपनहीं के खोज करइत रहऽ हे । अप्पन मट्टी, अप्पन स्वरूप आउ अप्पन मूल प्रकृति के पकड़े के कोशिश ऊ करइत रहऽ हे ।) (अरंबो॰7.10)
613 मद्धिम (= धीमा) (बतिया फिनूँ मद्धिम होल जा रहल हल । बिलसवा ओक्कर बत्ती अबरी जादे उसका देलक । दीया के बतिया मटमटायल आउ तेज होके लहके लगल ।) (अरंबो॰96.25)
614 मनुआना (तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली । मगर जमायत होइतहीं हम अकेल्ला पड़ जा हली । किनारे-किनारे हम ढेला-ढुक्कर के जुत्ता से सूट मारइत, मनुआयल चलइत रहऽ हली ।) (अरंबो॰83.14)
615 मम्मा (= मामा; दादी) (बाबू बीसे-एकइस बरिस के होतन कि बाबा मर गेलन । मम्मा अप्पन नइहर गेल हल, जइसन सुनऽ ही । बाबू उनखा लावे ला अप्पन नानी-घर गेलन । एन्ने लूटपाट मच गेल । ... मम्मा के आवे पर, सुनऽ ही, बाबा के लहासो उठावे के पइसा नञ हल । फिन हम्मर छोटा बाबू अइलन । मम्मा के आँख में ऊ जरिक्को नञ सोहा हलन । ... छोटा बाबू के हम्मर माय के गोदी में दे देलन । ... मम्मा जादे दिन नञ बच सकल ।) (अरंबो॰78.10, 13, 14, 17)
616 मम्माँ (= मम्मा; दादी) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।) (अरंबो॰92.20)
617 मरना-पछड़ना (शेरसिंह जिनगी में अब तक कुछ नञ कर पइलन हे । शहर में एगो मकानो नञ बना सकलन हे । दू कोठरी वाला मकान किराया लेले हथ । कयसूँ मर-पछड़ के एगो बेटी के बिआह कइलन हे ।) (अरंबो॰47.16)
618 मर-मिठाय (बिलसवा रात के बाकी काम मन लगा के कइलक । भतपकवा पाँड़े के गोड़ो मन लगा के दबउलक । पाँड़े जेकरा पर पुछियो बइठल - आझ मर-मिठाय खूब मिललउ का रे ? - हूँ । कहके बिलसवा चुप्पे रहल ।) (अरंबो॰98.2)
619 मर-मोकदमा (दिन-रात मर-मोकदमा, कोट-कचहरी, छल-परपंच से हम्मर मन अब भर गेल हे ।) (अरंबो॰65.2)
620 मराना (= अ॰क्रि॰ मारा जाना; स॰क्रि॰ मरवाना) (अरे ऊ मरायत हल थोड़े, ओक्कर साथिए-संगी ओकरा मरवा देलक ... कातो ओहू अप्पन दोस के मार देलक हल ।) (अरंबो॰28.3)
621 मलकिनियाँ (= मालकिन) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।) (अरंबो॰96.18)
622 मलेटरी (= मिलिट्री) (करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे । जब से पीरी होल, तब से उनखर ढाँचा में ई परिवर्तन आयल । जखनी पेन्हले-ओढ़ले रहऽ हलन, तब लोग उनखा मलेटरी के कौनो भारी अफसर बुझऽ हलन । पीरी के बाद उनखर जे बदन टूटल, से फिन बनल नञ ।) (अरंबो॰68.6)
623 मसुरी (= मसूर) (गंगा माय फिन निगलल खेत उगल दे हलन । तखनी तक एक पसल मारल जा हल । फेन कुछ गोहूँ, कुछ मसुरी आउ कुच्छो से कुच्छो उपजऽ हल ।) (अरंबो॰62.17)
624 मसोमात (= विधवा) (हाँ रे, विलास जी के तो बढ़ती हइए हे - एगो जुआन बिच्चे में टोक के कहलक - अइसे तोहनी विलास जी के बारे में जे कह लऽ, मगर ई बात दुनियाँ जानऽ हे कि मसोमतिया के खेत हड़प के ऊ अप्पन बढ़ती देखा रहलन हे ।) (अरंबो॰20.6)
625 मस्टरनी (= मास्टरनी, शिक्षिका) (हाकिम मस्टरनी से पुछलन - ठीक-ठाक चलइत हो न ? - हाँ बाबू, सब ठीके चलइत हे । फेन बोलल - हम्मर बच्चा बेमार हे ।; हम दुन्नू अमदी मस्टरनी के मुँह देख रहली हल ।) (अरंबो॰12.8, 13)
626 मस्टरी (= मास्टर या शिक्षक का काम) (सोमनाथ जी के समय डागडरी आउ मस्टरी में कट रहल हे ।; अपने भोला बाबू पढ़े-लिखे में बेस हलन । मगर इन्टर के बाद पढ़ाई छोड़े पड़ल हल । मस्टरी सुरू कइलन हल । फिन ग्रेजुएट होलन । मगर मस्टरी के चक्कर से नञ छुटलन ।) (अरंबो॰59.16; 86.13)
627 महिन्ना (= महीना) (अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । ... दुपहरिया में लाला भइया हीं जाय लगली । सटले दखिनबारी घर, लाला भइया के हे । अप्पन घर से जादे ई घर में हम्मर लइकइयाँ कटल । ... अनचोक्के इयाद पड़ल - हम केकरा से मिले जा रहली हे ? लाला भइया के सोअरग सिधारला दू महिन्ना हो गेल । बाबू जी चिट्ठी लिखलन हल ।; तीन-चार महिन्ना से ओक्कर पढ़ाय छुट्टल हे । एन्ने माय मरल आउ ओन्ने पढ़ाय साफ ।) (अरंबो॰81.8; 95.9)
628 मामू (= मामा) (मामू के माथा मूड़ल हल । डाढ़ी-मोछ साफ । नाना के चंदला माथा आउ चिक्कन भे गेल हे । नाना के मुँह उदास लगऽ हे ।; मामू जी, आप भी घर के बाहर चले जाएँ तो अच्छा होगा । - ई आदेश शेर सिंह के हे । मामू इसारा कइलन आउ एगो अदमी बइठका से बाहर चल गेल । शेर सिंह जब गोस्सा में आवऽ हथ तो अंगरेजिये-हिन्दी बोलऽ हथ । लइका, मेहरारू किनखो ई पूछे के हिम्मत नञ हे कि का भेल । मामू सन्न हो बइठल हथ । एतबड़ गोसबर तो उनखर भगिना कहियो नञ हल ।) (अरंबो॰19.22; 46.5, 7, 9)
629 मार (~ लाठी, ~ लाठी; ~ सट्टी, ~ सट्टी) (ढेना के पुलिस वाला पकड़ के ले गेल हल । कुच्छो बेचारा जानवो नञ करऽ हल । कोय कसूर रहे तब न । ओक्कर बस एक्के गो कसूर हल । ऊ एगो जुआन मेहरारू के मरद हल । बस । ... ढेना केकरो टेरवो नञ करऽ हल । ... हमनी अमदी नञ ही ? हमनी के इज्जत आउ लाज नञ हे ? ... ढेना दरोगा के मुँह पर जो थूकियो देलक तो कउन कसूर कइलक हल ? दरोगा तो ठिकेदार के अमदी बन के आयल हल । एकरे ला ढेना के मार लाठी, मार लाठी सब चूर देलन हल ।; रोक के घुमावे खातिर घोड़िया के लगाम खींच लेलक । से घोड़िया हिनहिनाय लगल आउ लगल लेताड़ी मारे । गोस्सा से रमबिलसवा ओकरा मार सट्टी, मार सट्टी धुन देलक । घोड़िया अकास से बात करे लगल ।) (अरंबो॰15.30; 102.15)
630 मारा (= अकाल, दुर्भिक्ष) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰19.28)
631 मारा-पीटी (= मार-पीट) (हम अप्पन बोली जिरी रोवल नियर बना के बोलम - डागडर बाबू, हम्मर बुढ़िया के जान बचा दऽ । ओकरा साथ रहइत सताइस बच्छर गुजर गेल से पतो नञ चलल । एतना उमिर खाली मारा-पीटी करे में, पीए में आउ जुआबाजी में बीता देलूँ ।) (अरंबो॰100.29)
632 मास (= मांस) (अइसे बाबू जी के उमिर सतहत्तर-अठहत्तर बरिस से कम नञ होत । एक-दू बार मरे से बचलन हे । सरीर पर मास बहुत कम । सच पूछऽ तो सुक्खल-साखल सरीर ।) (अरंबो॰82.27)
633 मास्टरी (= मस्टरी) (सरकारी इसकूल में मास्टरी करऽ हली । जगन्नाथपुर में । बिहार आउ उड़ीसा के बोडर पर ।) (अरंबो॰71.19)
634 मिंझाना (= अ॰क्रि॰ बुतना; बुझना; स॰क्रि॰ बुता देना; बुझाना) (दीयवा मिंझाइल जा रहल हल । से बिलसवा ओकर बत्ती उसका देलक । दीया में तेल तो भरले हल, खाली बतिए जिरी जर गेल हल ।) (अरंबो॰96.13)
635 मिआज (= मियाज; मिजाज) (मुँह पर से अँचरा जइसि हटावऽ हे कि ओकर मिआज भय से भर गेल । मुहाँ केत्ते घिनामन लग रहल हल ।) (अरंबो॰101.14)
636 मिटिन (= मीटिंग; बैठक, सम्मेलन) (तब से ई नियम बन गेल हल । कउनो सुराजी मिटिन, पन-छो कोस के गिरिद होवे, ऊहाँ पहुँचना उनखा जरूरी हल ।) (अरंबो॰35.6)
637 मिठकी (= मीठी) (हम्मर घर से रमधानी पाँड़े के घर, फिन रमधानी पाँड़े के घर से रमजानी मियाँ के घर, फिन पतरकी गल्ली से घुम्मल-घुम्मल मिठकी कुइयाँ तक आउ फिन मिठकी कुइयाँ से असमान फइल गेल । नञ जाने कत्ते बड़गो होतइ ई असमान ! ... ... बामन कोस के ।) (अरंबो॰17.14)
638 मुड़ेरा (कुइयाँ के ~) (रातो भर कुइयाँ में मुड़ेरा पर बइठ रहऽ हली । कुइयाँ में कुद जाय के मन करऽ हल । मंगला माय के किरपा, चौदह बरिस बाद इम्तिहान देली । यूनिवर्सिटी में टौप कर गेली । डिप्रेशन के मीनार जड़े से उखड़ गेल ।) (अरंबो॰77.8)
639 मुरूत (= मूर्ति) (बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल । बत्ती जरा के एक खोराक दवाय बना के खा लेलन । भित्ती पर बुद्ध भगवान के मुरूत लटकल हल । बूढ़ा अमदी के अलचारी से एहू डरा गेलन हल ।) (अरंबो॰69.28)
640 मुसकी (= मु्स्कुराहट, मुस्कान) (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।) (अरंबो॰20.15)
641 मूँड़ी (= मूड़ी; सिर) (भोला बाबू के तनी खोंखी उठल । बलगम के एगो नुक्कल टुकड़ा खड़खड़ायल । मटर के खिड़की से मूँड़ी बाहर निकास के पच से फेंकलन ।) (अरंबो॰86.9)
642 मूड़ी (= सिर) (गबड़ा भिरी खड़ा हली । तनी सा ठेला गेली । आउ गन्दा, बदबूदार पानी में गिर पड़ली । ... नाक से पानी भित्तर घुसे के कोरसिस कर रहल हे । हम मूड़ी उप्पर उठावे के कोरसिस कर रहली हे ।) (अरंबो॰79.23)
643 मूतना (देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।) (अरंबो॰58.26)
644 मेहरारू (= पत्नी; औरत) (मेहरारू के रोज-रोज के ताना करेजा छेद करऽ हे । ... तोरा की औकात हो ? दरिद्दर तो हऽ । बहिन के बियाह में सब कुछ लुटा देलऽ । अब तोरा के काम देतो ?) (अरंबो॰79.16)
645 मैदान (चिट्ठी लिफाफा के भितरे रख देलक आउ ओकर मुँह भात से साट देलक । तब ओकरा अप्पन पैंट के नीचे कम्मर भिरी नुका लेलक । रतिए मैदान जाय के बहाने से एगो लोटा लेले बहरायल ।) (अरंबो॰98.15)
646 मोछ (= मूँछ) (हम चाहऽ ही बड़गो होवे पर ऊ बिच्छा नियर बड़गो-बड़गो मोछ रख ले । लोग एकरा देखिए के भय खायथ ।) (अरंबो॰31.15)
647 मोट (= मोटा) (हम दादा दन्ने हाथ बढ़ावऽ ही । अब ऊ हमरा जोरे चले लगलन । मोट रोटी लेले आवऽ हथ । ओकरा पर रखल हे पिआज के चार फाँक । फेन एगो गिलास में पानी लेले आवऽ हथ । घर में सब लोग हथ । दूर-दूर से ताकऽ हथ, मगर हमरा भिरी कोय नञ आवऽ हथ । हम अप्पन झोला से फोटू निकास के देखावऽ ही, मगर कोय नञ सटऽ हे । रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही ।; खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !; अपने कउनो कोचिंग इन्स्टीच्यूट से सम्बद्ध तो नञ हऽ ? ई सब मोट-मोट असामी के हिट लिस्ट पर रखऽ हथ ।) (अरंबो॰14.16; 18.3; 29.27)
648 मोसीबत (= मुसीबत) (एगो बच्चा के रिरियाय के अवाज सुनली । हमरा लगल जइसे ऊ कउनो मोसीबत में फँस गेल हे ।) (अरंबो॰42.3)
649 मौलना (= मउलना; झपकी आना; कुम्हलाना) (छठे किलास में नानी हीं से दादी हीं चल अयली हल । नाने हीं हली । रात हल । मगर आज नो बज्जी गाड़ी आइए नञ रहल हल । आँख मौले लगल । - शेरसिंह, तोरा पढ़े में मन नञ लगऽ हउ का रे ? - भारत के उत्तर में हिमालय पहाड़, दक्खिन में हिन्द महासागर ... फिन आँख मौले लगल ।) (अरंबो॰50.7, 10)
650 रंगरेजी (= अंगरेजी) (एकबैक कड़कड़ायल अवाज उनखर मुँह से निकसल हल - रूक जाओ हत्यारो ! रूक जाओ !! ... आग कैसे लगी, मैं बताता हूँ । - अरे ! ई सरबा रंगरेजी बोलऽ हउ । दू डाँग देहीं, तब एकरो बात सुनल जाइत ई अदालत में ।) (अरंबो॰43.16)
651 रजधानी (= राजधानी) (सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल । छोटकनिया नेतो के लोक-सेवा के नाम पर पैरबी करे बिलौक, सहर, रजधानी जाय पड़ऽ हल ।) (अरंबो॰35.16)
652 रन्थी (= अरथी) (विमल जी दउड़ रहलन हे । रथ पर बइठल मुरती के चरन छुए ला । ... अन्धार हो गेल । ... बाबू के रन्थी ... भइया के रन्थी ... भउजी के रन्थी ... माय के रन्थी ... सब रन्थी चलल जा रहल हे ... ई का ? विमल जी देखऽ हथ सब में ओही कन्धा देले हथ । .. एक्के अमदी सब में, एक्के साथ कइसे कन्धा दे सकऽ हे ?) (अरंबो॰72.7, 8)
653 रस्ता (= रास्ता) (रस्ता में हाकिम से पुछली - ई काम ला, इनखनी के केत्ते रूपइया भेंटा हे ? - मात्र पचास रूपइया । - बस, एतने ला एत्ते मेहनत ?; केकरो गलत रस्ता पे देख के ऊ डाँट दे हलन । कहियो कोय बड़गो अमदी भी उनखर डाँट के दायरा में आ जा हलन ।; उनखर सब चौकसी बेअरथ साबित हो रहल हल । लइका घरो से पइसा-कउड़ी चोरा के जन्ने-तेन्ने लापता होवे लगल हल । सोमनाथ जी के शक्ति लइका ढूँढ़े में, लइका के समझावे में, अच्छा रस्ता पर लावे में खरच होवे लगल ।) (अरंबो॰12.17; 53.15, 22)
654 रस्से-रस्से (= रसे-रसे; धीरे-धीरे) (रस्से-रस्से साँझ हो गेल । फिनूँ रात । दादी-पोता ओसरे में खटिया पर पड़ गेलन । मम्माँ खिस्सा सुनावे लगल ।) (अरंबो॰93.5)
655 राड़-थोड़ (= राड़-भोड़) (देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।) (अरंबो॰58.25)
656 रिरियाना (एगो बुतरू के रिरियाय के अवाज कान में पड़ रहल हल । लगऽ हल, जइसे कउनो ओकरा डेंगा रहल हल ।; एगो बच्चा के रिरियाय के अवाज सुनली । हमरा लगल जइसे ऊ कउनो मोसीबत में फँस गेल हे ।) (अरंबो॰41.13; 42.2)
657 रुक्कल (टमटम रुक्कल हे । ए-दू वकील हमरा साथ हथ । ... हाँ हजूर । एही ऊ बगैचा हे जेकरा में खून होल ... हाँ हजूर, एही ऊ कोनमा आम हे ।) (अरंबो॰20.18)
658 रोबा-कन्नी (= रोबा-कानी; रोना-धोना) (एकबैग रोबा-कन्नी मच गेल । गीत-नाध सब रुक गेल । मौसी हमरा गोद में लेके रोबे लगल ! माय मर गेलौ ।) (अरंबो॰18.28)
659 रोलाय (= रोना-धोना) (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।) (अरंबो॰72.23)
660 रोसगद्दी (= रोसकद्दी; रुखसत) (हाय रे हाय ! रोसगद्दी के पहले रात से बेचारी दुखे-पीड़ा में रहल । दिवाली के दिनमा, जउन दिन पहला बार हम्मर घर में दाखिल होल, हम सब्भे कुछ जुआ में हार गेलूँ हल ।) (अरंबो॰101.26)
661 लइकइयाँ (= लड़कपन, बचपन) (अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । ... दुपहरिया में लाला भइया हीं जाय लगली । सटले दखिनबारी घर, लाला भइया के हे । अप्पन घर से जादे ई घर में हम्मर लइकइयाँ कटल ।) (अरंबो॰81.6)
662 लइका (= लड़का) (मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।) (अरंबो॰31.6)
663 लउआ-लाठी (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !) (अरंबो॰18.7)
664 लगी (= ला, लागी; के लिए) (एही ऊ कोनमा आम हे ? - जी सरकार । एही पेड़ लगी तो अपने गोतिये में सब खून फसाद भेल ।; नौकरी के आखरी बखत में भइया के पैंतालीस सौ, छियालीस सौ रूपइया तलब भेंटा हल । चार-पाँच सौ अपना लगी रख के सब पइसा ऊ पहलमाने के हाँथ में दे दे हलन । काहे ला ? - हैसियत बढ़ावे ला ।; देख, अबरी भर तूँ हमरा ला झूठ बोल ले । हम तोरा अब कधियो नञ मारबउ । तोरा जिरी सा डाँटवो नञ करबउ ! कत्ते पिआर हम्मर मन में तोरा खातिर हे । देख, एत्ते अंधड़ो-बतास में हम तोरा लगी घर से निकस अयलूँ ।) (अरंबो॰21.1; 67.10; 100.10)
665 लड़ाय (= लड़ाई) (फेन दोसर बेर दुमका के ओही क्षेत्र में अइली हे । आदिवासी आउ दिक्कू में कुछ टेंशन हे । तीर-धनुष आउ बन्दूक से लड़ाय होवऽ । मजिस्टेट, पुलिस सब गस्ती लगा रहलन हे ।) (अरंबो॰14.1)
666 लबज (= लफ्ज) (कॉलेज में अंगरेजी दू-चार लबज का पढ़ लेलक, बोलले चलऽ हे - बड़का बाबू मिसफिट हथ । उनखा कमाय के लूरे नञ हे । सब लूर ओकरे कपार मे आ के जमा हो गेल ?) (अरंबो॰38.25)
667 लमछड़ (= लम्बा) (पचास बरिस पार के अमदी । भक-भक गोर हला । अब तनी पीयर लगऽ हथ । चौड़ा गट्टा से मास के परत काफी उतर चुकल हे । लमछड़ शरीर । उज्जर बाल । करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे ।; एही एगो माध्यम हे जेकरा खटा-खटा के, मेहनत करके कमाय कर सकऽ ही । एकरे जो जोगा के रख दी तो बाल-बच्चा के भविष्य उज्जर कइसे होयत ?) (अरंबो॰68.4; 89.27)
668 लम्फ (= लफ, ललटेन; लालटेन) (- "बाबूजी, 'अनुभव' माने ?" लम्फ के रोसनी में एगो लइका हिन्दी के किताब पढ़ रहल हे । तनी गो लइका के 'अनुभव' के माने बताना हे । बाप ओंहीं पर बइठल हथ । बाप अप्पन लइका के हाथ पकड़ के लम्फ के गरम सीसा में तनी सटा दे हथ । - "बाप रे !" लइका चिल्लायल हल । छनका लगल हल । - "तातल लम्फ के सीसा में हाथ सटावे से हाथ झरकऽ हे, ई अनुभव तोरा होलो ?"; रात में एक दिन सिकड़ी झनझनायल । सोमनाथ जी लम्फ तेज कइलन । बिजली नञ हल । चल गेल हल । दरवाजा खोललन - के हऽ हो ?) (अरंबो॰52.21; 53.2, 3; 56.29)
669 ललटेन (= लालटेन) (दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे ।; रामनाथ नजीक पहुँच के देखऽ हथ - दु-चार गो ललटेन हे । दस-बारह गो अमदी हथ । एगो अमदी, एगो बुतरू के हाथ धइले हथ । बुतरू रो रहल हे । ओक्कर गाल पर तमेचा पर तमेचा जब-तब आ बइठऽ हे ।; ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल ।; कुछ नाल बंदूक चमक उठल हल । जादेतर देसिए बन्दूक । भाला, लाठी ... । - चारो दन्ने छितरा जो । ... मुँह से एक्को सबद नञ निकसे ... ललटेनमन बुता दे ... ।) (अरंबो॰12.1; 41.25; 42.5; 44.22)
670 लहकना (= लहरना; प्रज्ज्वलित होना) (बतिया फिनूँ मद्धिम होल जा रहल हल । बिलसवा ओक्कर बत्ती अबरी जादे उसका देलक । दीया के बतिया मटमटायल आउ तेज होके लहके लगल ।) (अरंबो॰96.26)
671 लहरना (एगो घर में आग लगल हल, लइकन के खेल से ... मगर आग पहलहीं लग चुकल हल ... घर-घर आग से लहर रहल हल ... गाम, सौंसे गाम आग से लहर रहल हे ... आग पर जे काबू नञ पावल गेल तो ई सौंसे देस में पसर जायत ।) (अरंबो॰45.14, 15)
672 लहरी (= जिद, हठ) (मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी ।) (अरंबो॰34.9)
673 लहास (= लाश) (बाबू बीसे-एकइस बरिस के होतन कि बाबा मर गेलन । मम्मा अप्पन नइहर गेल हल, जइसन सुनऽ ही । बाबू उनखा लावे ला अप्पन नानी घर गेलन । एन्ने लूटपाट मच गेल । ... मम्मा के आवे पर, सुनऽ ही, बाबा के लहासो उठावे के पइसा नञ हल ।) (अरंबो॰78.13)
674 ला (= लगी; के लिए) (रस्ता में हाकिम से पुछली - ई काम ला, इनखनी के केत्ते रूपइया भेंटा हे ? - मात्र पचास रूपइया । - बस, एतने ला एत्ते मेहनत ?) (अरंबो॰12.19)
675 लाज-लेहाज (पारस बाबू राजधानिएँ में डेरा पर आके मिललन हल । ऊ उदास हलन । बतउलन हल - मिन्टू अब जुआन हो गेल हे । ओक्कर सोखी आउ बदमासी अब अकास छूए लगल हे । अब दिन-रात ऊ पीले रहऽ हे । लाज-लेहाज सब खतम ।) (अरंबो॰32.7)
676 लात-गारी (ओकर माय-बाप हमरा से बियाह कइलका हल हम्मर बेटि सुख-चैन से एगो करीगर के घर रहत ! सुख-चैन तो ओकरा नञ मिलल मगर जिनगी भर ओकरा लाते-गारी मिलइत रहल ।) (अरंबो॰101.25)
677 लाहरी (= जिद्द) (- नञ, हम लेम तो ओइसने, जइसन छोटुआ के हइ । - अच्छे, चुप रह। ला देबउ । / ऊ बुतरूआ फिनूँ लाहरी करे लगल । रामधनी के मिजाज गरम हो गेल - अरे ससुर, कहलिअउ तो, ला देबउ । एत्ते जिद्दी काहे हो जाहँऽ ?) (अरंबो॰91.7)
678 लुग्गा (= साड़ी; कपड़ा, वस्त्र) (सनिचरी ढेना के कपार से टपकइत खून अप्पन लुग्गा में पोछले हल । ... तखनिए हम पहुँचली हल । ढेना बेहोस होल जा रहल हल ।) (अरंबो॰15.1)
679 लुटाना (= अ॰क्रि॰ लुटना; स॰क्रि॰ लुटाना) (एक बेर प्रोफेसरो साहब के गाड़ी लुटायल हल । तखनी ऊ भूतपूर्व प्रोफेसर नञ हलन । काम-काज में व्यस्त प्रोफेसर हलन ।) (अरंबो॰28.15)
680 लूर (= बुद्धि, अक्ल; काम करने का सही तरीका, जानकारी; ढंग, आदत) (कॉलेज में अंगरेजी दू-चार लबज का पढ़ लेलक, बोलले चलऽ हे - बड़का बाबू मिसफिट हथ । उनखा कमाय के लूरे नञ हे । सब लूर ओकरे कपार मे आ के जमा हो गेल ?; हम तो छुटतहीं बोलम - सरकार, घोड़िया के देख लेल जाय । अइसन ने तूँ एही समझ लऽ कि हमरा टमटम हाँके के लूरे नय हे ।) (अरंबो॰38.27; 100.24)
681 लेताड़ी (= लात) (~ मारना) (घोड़िया आगू बढ़ल जा रहल हल । से ऊ ओकरा रोकलक । अब ओन्ने जाय से कौन दरकार ? रोगिए नञ रहल तो रोग फिर कइसन ? रोक के घुमावे खातिर घोड़िया के लगाम खींच लेलक । से घोड़िया हिनहिनाय लगल आउ लगल लेताड़ी मारे ।) (अरंबो॰102.14)
682 लेना-देना (- भइया, धीरूआ कहाँ हे ? - धनबाद में । - ऊ तो ले-दे के धनबादे बसिए गेलो । घर के झंझट से ओकरा कुछ लेना-देना नञ हे । छोटका सबसे जादे दुलरूआ होवऽ हे आउ से ही से ऊ सबसे जादे लापरवाहो हे ।; सब ले-दे के हम आउ पहलमान ... हमहीं दुन्नूँ भाय गाम में रहऽ ही ।) (अरंबो॰63.14, 14-15; 65.13)
683 लोग-बाग (फिन सुराज होवे के घोसना होल हल । उनखर आँख में नींदे नञ । साफ-सुत्थर कुरता लगइले गाम से कसबा अइलन हल । तिरंगा फहरइलन हल । लोग-बाग के बातचीत सुनके, अघा के गाम लउट अइलन हल ।) (अरंबो॰35.12)
684 संगत (= संगति) (चाहऽ हलन, हम्मर बेटा खूब पढ़-लिख ले । विलायत जाय । ई काम वास्ते पइसो-कौड़ी जुटउले हलन । मगर अनिलबा अइसन संगत में पड़ल, सब बाते बदल गेल । विमल जी अपनहूँ बड़गो डागडर रहतन होत । घर के सहजोग नञ मिलल । टर-ट्यूशन कर के बी.एस.सी. तक पढ़ पयलन । टरेनिंग कर के सरकारी इसकूल में मास्टर हो गेलन ।) (अरंबो॰69.6)
685 संझउकी (बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल । बंशीधर जी के छोटका बेटा संझउकिए से गायब हल । घर नञ लउटल हल । लोग चिंतित हलन । ई हाल में जादे बातचीत पर जोर नञ देके राते के लउटना बाजिब समझलन हल ।) (अरंबो॰42.19)
686 संझला (पैर पर केकरो हाथ झुक्कल हे । आँख उठा के देखऽ ही । बच्चा हे । हम्मर संझला भाय । हाथ अपने आप फैल जाहे ओक्कर सिर पर ।; दु-चार दिन पहिले हम्मर बेटा बड़कू आउ पहलमान के मंझला बेटा एक दोसरा के आमने-सामने बन्दूक लेले ललकारइत हल । बड़कू के कहना हल, हम्मर हम्मर बाप के सब जायदाद अरजल हे । संझला चच्चा के एकरा पर कोय हक नञ हे ।; हम्मर संझला चच्चा एकदमें अंगरेज नियर गोरनार हलन । कसरत करऽ हलन । घोड़ा चढ़ऽ हलन । एकबैग उनखा लकवा मार देलक ।) (अरंबो॰63.5; 64.24; 78.19)
687 सईंतना (= सैंतना; संचित करना, इकट्ठा करना) (अनुशासन के मामला में खुब्बे कड़ा हलन । का मजाल, कउनो उनखा से नजायज काम ले ले । मगर सब बेअरथ । विमल जी के पछतावा होवऽ हे - अप्पन घरे जो सईंत नञ सकली ... । बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल ।) (अरंबो॰69.25)
688 सगरो (= सर्वत्र, सभी तरफ) (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल ।; बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।; ढोल-मँजीरा पर फाग के धूरी उड़ रहल हल । सगरो मस्तीए-मस्ती छायल हल ।) (अरंबो॰25.16; 36.26; 93.1)
689 सचाय (= सच्चाई) ("तोरा के नञ जानऽ हे ? हाकिम, नेता, जे भी जिला में भेटा जा हथ, अपने के हाल-चाल जरूरे पूछऽ हथ ।" मुचकुन जी के मन गरब से भर उठल हल । नञ जाने कइसन भा से गियारी भर आयल हल । अभियो तालुक सचाय बचऽ हे । हमरा नीयर दलिद्दर, अगियानी अमदी के भी लोग इयाद करऽ हथ ।) (अरंबो॰36.5)
690 सच्चाय (= सच्चाई) (कोनमा आम काट देल गेल हे । .. कोनमा आम कट्टल पड़ल हे । ... एतने सच्चाय हमरा ला हे ।; कोनमा आम काट देल गेल हे । एही सच्चाय घुर-फिर के हमरा पर परगट होवऽ हे । खून-फसाद सब बेलाँ माने लगऽ हे ।) (अरंबो॰21.3, 5)
691 सच्चो (=सच; सचमुच) (दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे । जीप से उतर के हमनी पइदल कहीं झुक के तो कहीं तिरछी काट के ललटेन दन्ने बढ़ली । हाँ, सच्चो एगो वयस्क शिक्षा के केन्द्र चल रहल हल ।; नानी मरल, नाता टूटल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?; सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल । लइका चित्कार कर उठल । बाबू हो बाभू ! मइया गेऽ ! - तो सच्चो-सच्चो बता दे । बाबू के कहे से अगिया लगयलहीं कि चचवन के कहे से ? सच्चो-सच्चो बताउ !) (अरंबो॰12.5; 19.21; 43.7, 8)
692 सटकल (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।) (अरंबो॰20.16)
693 सटले (= सटा हुआ ही) (दू बच्छिर पहिले एगो खत लिखलन हल - तोर जुगेसर चच्चा चल देलन । ... जुगेसर चचा के घर ठीक हम्मर घर के सटले उतरबारी घर हल ।) (अरंबो॰82.19)
694 सड़सड़ (सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल । लइका चित्कार कर उठल ।) (अरंबो॰43.5)
695 सड़ासड़ (= सड़सड़) (सड़ासड़ छड़ी जेन्ने-तेन्ने पड़े लगल । लइका छटपटा-छटपटा के नाचऽ हे । गिरऽ हे ।) (अरंबो॰43.9)
696 सनहा (= प्राथमिकी; किसी आपराधिक काम की पुलिस के पास दी जाने वाली सूचना) (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल । देर रात हार-पार के अध्यक्ष महोदय बउआ के एगो फोटो लेले थाना पहुँचलन । सनहा दाखिल कइलन ।; एक बेर प्रोफेसरो साहब के गाड़ी लुटायल हल । ... खरीद-फरोख खतम करके जब लउटलन तो गाड़ी लापता । एन्ने-ओन्ने खूब खोजलन हल । मगर गाड़ी जे रहे तब ने मिले । हतास होके थाना में सनहा दरज करावे गेलन । बातचीत के सिलसिला में ऊ थानेदार के बतउलन हल कि फलाना मंत्री तो हम्मर चेला हे ।) (अरंबो॰25.20; 28.19)
697 सनिचरा (~ समाना) (एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।) (अरंबो॰75.11)
698 सनेसा (= सन्देश) (अन्त में मुख्य अतिथि के भाषण होल । ऊ भाषण का हल, एगो सवाल हल । एगो सनेसा हल । ... तूँ सब आदिवासी भाय के पास जा । गामे-गामे जा के उनखा से मिलऽ ।) (अरंबो॰13.15)
699 सपासप (सपासप पछिया चल रहल हल । गरमी के दुपहर । पसेना से तरबतर रमबिलसवा घोड़िया के रह-रह के ताल देले हल ।) (अरंबो॰99.1)
700 सफाय (= सफाई) (फिन छनका लगल - छन !! बाप रे ! ... मइया के मउअत ! अब पूरा घर जोड़े वाला कड़ी भी गायब । कड़ी टूट गेल हल । भतीजा हिस्सा बँटा के अलग हो गेल हल । चोर, बेइमान सब बनउलक हल । - छोटा बाबू हमनी के हक मार के सब धन हड़प लेलन । सोमनाथ सफाय देथ तो केकरा ? तीन भतीजी के बियाह करना, ई जुग में कोय मामूली बात हे ? हम का हड़पली ? तोर बाप एक्को रूपइया पूंजी छोड़ के मरलथुन हल ?) (अरंबो॰55.23)
701 सबुनाना (= साबुन लगाकर कपड़ा आदि साफ करना) (मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी ।) (अरंबो॰34.8)
702 समांग (आखिर अप्पन पइसा आउ समय खर्चा करके, अप्पन समांग गला के काहे एत्ते उपकार के बात में ऊ लगल हथ ? जरूरे एकरा में कउनो न कउनो कोय मकसद छिपल होत ।) (अरंबो॰56.24)
703 समाना (= अ॰क्रि॰ घुसना; स॰क्रि॰ घुसाना) (एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।) (अरंबो॰75.11)
704 समुच्चे (= समूचा; सम्पूर्ण) (एकबैग समुच्चे घटना ओक्कर आँख के आगे कौंध गेल ् ऊ बेड पर से उठे के कोरसिस करे लगल । मगर देखऽ हे कि उठे के जिरिक्को सकतीए नञ मिल रहल हे । ओक्कर हाथ-पैर कोय बरिआर जउरी से जइसे बँधल हे ।) (अरंबो॰102.27)
705 सर-सरजाम (सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत । फिनूँ परबियो लगी तो सर-सरजाम लेवे के हे । दुइए रूपइया में सब्भे करे के हे ।) (अरंबो॰92.13)
706 सराध (= श्राद्ध) (नानी मरल, नाता टूटल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?) (अरंबो॰19.20)
707 सरी (= सरकंडा) (तुरतमें ऊ किलान पर से दोआत निकासलक । दोआत एकदम सुक्खल हल, से गिल्ला बनावे खातिर ऊ ओकरा में लोटवा से दू-चार ठोप पानी टपका देलक । फिन अप्पन टीन के बक्सा से एगो सरी के कलम निकासलक ।; बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।) (अरंबो॰95.8; 96.15)
708 सरेख (= जवान) (जइसे-जइसे सरेख होयत गेली, बाबू के बात समझ में आवे लगल हल । समझ का, बढ़े लगल, खोसी खतम होवे लगल आउ सरीरो कमजोर होवे लगल हल ।) (अरंबो॰63.2)
709 सलाय (= दियासलाई) (फिन एगो सिगरेट पीए के तलब होयल । डिब्बा से निकासलन । सलाय पर एगो काँटी घिसायल आऊ फुर से अवाज ।) (अरंबो॰50.3)
710 सले-बले (= चुपचाप; धीरे-धीरे, आहिस्ते से) (अनुशासन के मामला में खुब्बे कड़ा हलन । का मजाल, कउनो उनखा से नजायज काम ले ले । मगर सब बेअरथ । विमल जी के पछतावा होवऽ हे - अप्पन घरे जो सईंत नञ सकली ... । बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल ।; रामधनी के माय अमदी के गंध पइलक से झट खटिया पर से उठ गेल । रामधनी के पेआर करइत देखलक तो सले-बले पाया भिरी चल गेल । ओकरो आँख से लोर बह-बह के गिरे लगल ।) (अरंबो॰69.26; 94.8)
711 साध (= अरमान, इच्छा, कामना; साधु, संन्यासी; सज्जन) (सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल । छोटकनिया नेतो के लोक-सेवा के नाम पर पैरबी करे बिलौक, सहर, रजधानी जाय पड़ऽ हल ।) (अरंबो॰35.14)
712 साफ-सुत्थर (तीन बरिस से बेटी ला लइका ढूँढ़ रहली हे । बेटी बी.ए. औनर्स कइलक तभिए से । परकी साल एम.ए. । देखे में साफ-सुत्थर हे । बेस हे । ई सीता लगी एगो राम चाहऽ ही ।) (अरंबो॰73.12)
713 सार (= सारा; साला) (तखनिए एगो दोसर जुआन तमक के बोलल हल - कहलिअउ ने, ई सार खोफिया हउ खोफिया । हमनी के बात में बझा देलकउ आउ फँसा देलकउ ! सब तइयार हो जो ।) (अरंबो॰44.19)
714 सारा (= साला; गाली के रूप में भी प्रयुक्त) (धायँ । एगो आवाज । रामनाथ भुइयाँ पर गिरके छटपटा रहलन हल । - पकड़ ले सरबा के ! भागे न पाबउ !; सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल ।; एकबैक कड़कड़ायल अवाज उनखर मुँह से निकसल हल - रूक जाओ हत्यारो ! रूक जाओ !! ... आग कैसे लगी, मैं बताता हूँ । - अरे ! ई सरबा रंगरेजी बोलऽ हउ । दू डाँग देहीं, तब एकरो बात सुनल जाइत ई अदालत में ।; एगो जुआन नजीक आके देखलक हल - अरे, मर तो नञ गेलइ ? ... सरबा ओकील बनऽ हल ! रामनाथ जी के नजीक से देखतहीं ऊ जुआन के मुँह से निकस पड़ल हल - परफेसर साहेब ! ... गुरुजी ! ... हम चीन्ह नञ सकली ।) (अरंबो॰41.9; 43.4, 16, 22)
715 सिकड़ी (= सिकरी; साँकल) (रात में एक दिन सिकड़ी झनझनायल । सोमनाथ जी लम्फ तेज कइलन । बिजली नञ हल । चल गेल हल । दरवाजा खोललन - के हऽ हो ?; टिक-टिक, टिक-टिक ... टिकटिक-टिकटिक ... दुआरी के सिकड़ी कौनो बजा रहल हे । उठके केबाड़ी खोललन । - का हो रामौतार ? हाल-चाल बेस न ? एत्ते रात के ?; रातो भर डाकपीन, चिट्ठी आउ बाबा ओक्कर मगज में घुरइत रहल । लइका के सोतंत्र मन गुलामी के सिकड़ी से मुक्ति पावे ला छटपटा रहल हल ।) (अरंबो॰56.29; 68.15; 98.26)
716 सिरहाना (सिरहाना में रक्खल डिब्बा से निकास के दोसर सिगरेट सुलगा लेलन ।) (अरंबो॰48.6)
717 सिरी सोसती (= श्री स्वस्ति) (गेंदड़ा तल्ले से बिलसवा एगो मचोरल-मचारल सादा कागज निकासलक । पक्का पर ओकरा तान देलक आउ लगल अप्पन बाबा हीं चिट्ठी लिखे । सिरी सोसती, पुजनीए बाबा को परनाम !) (अरंबो॰95.18)
718 सिलेमा (= सिनेमा) (एक जनवरी के रात तक हम ठीके हली । पाटी खयली । सिलेमा देखली । नया साल मनौली ।) (अरंबो॰74.9)
719 सिलौट (= स्लेट) (दस-बारह मेहरारू एगो ललटेन घेरले बइठल हलन । सब करिया आदिवासी मेहरारू । सिलौट पर अक्षर-ज्ञान देल जा रहल हल ।) (अरंबो॰12.7)
720 सीरा (~ घर = घर की कोठरी जिसमें गृह देवता या देवी स्थापित रहती हैं; पूजाघर) (हम्मर बाबू जी एकदम पागल नियर हो गेलन । सीरा घर से एक-एक करके सब देवी-देओतन के निकास फेंकलन । रोज सीरा घर में पहिले देवी-देओतन के भोग लगऽ हल । तब कोय भोजन गरहन कर सकऽ हल । मगर दू-तीन बरिस में एतना मउअत ? ई देवी-देओतन के रहइत ?; देवी-देओतन जे निकास देल गेलन हल, ओही सीरा घर में तो नञ, मगर किराए के मकान में अब फिन स्थापित हो गेलन हे ।) (अरंबो॰78.23, 24; 80.16)
721 सीसा (नञ जाने गोस्सा हमरा में केन्ने से आके समा गेल हल । जे नाना से आझ तक रूबरू नञ बतिऔली हल, से किताब-कौपी उठाके उनके सामने फेंक देली । जापानी चक-चक बइठकी में गोस्सा से एक सूट मारली । सीसो फूट गेल आउ गोड़ो कट गेल ।) (अरंबो॰50.22)
722 सुक्खल-साखल (अइसे बाबू जी के उमिर सतहत्तर-अठहत्तर बरिस से कम नञ होत । एक-दू बार मरे से बचलन हे । सरीर पर मास बहुत कम । सच पूछऽ तो सुक्खल-साखल सरीर ।) (अरंबो॰82.27)
723 सुतना (= सोना) (नञ हो बुचकुन, आझ भूख नञ हे । हम्मर फेरा तों छोड़ । तोहनी खा-पी के सुत रह ।; थोड़े देर में भइया होस में आ गेलन । एन्ने-ओन्ने, हमनी दन्ने ताकलन । सायद उनखा सुस्ती लग रहल हल । फिनुँ सुत गेलन ।; रात में पोता, भोले बाबू जउरे सुते चल आवऽ हल । बाबा, पोता के कहियो 'नन बितना' के, तो कहियो 'कम खोराक' के, तो कहियो 'थूक तोर दाढ़ी में, बन्दूक तोर मोछ में' वाला खिस्सा सुनावथ । कखनी पोता सुत जाए तो कखनी बाबा, से पते नञ चले ।; खिस्सा चलइत रहल । दादी-पोता खिस्सा कहते-सुनते कखनी सुत गेलन, एक्कर केकरो खबर नञ ।) (अरंबो॰38.15; 61.17; 87.14, 17; 93.24)
724 सुनबाय (= सुनवाई) (तूँ कौन हऽ ? रात में काहे बउड़ायल चलऽ हऽ ? फेन सरदार बोललन हल - ई अदालत में एकरो सुनबाय हो जाइत । अभी तनी छउँड़ा के फैसला कर लेवे दे ।) (अरंबो॰42.13)
725 सुराजी (= स्वराज्य) (तब से ई नियम बन गेल हल । कउनो सुराजी मिटिन, पन-छो कोस के गिरिद होवे, ऊहाँ पहुँचना उनखा जरूरी हल ।) (अरंबो॰35.6)
726 सेक्कर (~ बाद = सेकर बाद; उसके बाद) (सेक्कर बाद नाना हमरा दादी हीं पहुँचा देलन हल ।) (अरंबो॰51.1)
727 सेल (= स्पर्द्धा आदि प्रारंभ करने का शब्द) (नानी झुठे-झुठे कहके बिना चिनिए वाला दूध पिला देलक । अब नानी हीं माय साथे जो अइवो करऽ ही, तइयो ओक्कर बात नञ मानऽ ही । ... हेरे ! ... हेरे !! ऊ करइत रहऽ हे आउ हम सेल कबड्डी पार । पहुँच जा ही अप्पन गोल में । मेखना, कलिया, जमापतिया, रमजीया आउ केत्ते ने लड़का बगइचा में भेंटा जा हे ।; लइका आउ घोड़ा तनी सोख होवे के चाही हो बिसुन ! मगर तों जो कहलाँ तो हम डाँट देम । ... मिन्टुआ जे ओहीं पर मड़ला रहल हल, सेल कबड्डी पार । ढेर बात मिन्टू सम्बन्धी आज रामदीन जी के आद पड़ रहल हे ।) (अरंबो॰17.18; 32.3)
728 सेवा-सुरसा (= सेवा-शुश्रूषा) (विमल जी के जब पीरी होल, इयार-दोस सब मिल के अस्पताल, डागडर कइलन । देखउलन-सुनउलन । लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।) (अरंबो॰69.15)
729 सैद (= शायद) (ई पोस्टर के अरथ लगावे के कोरसिस करऽ ही । सैद अरथ के नजदीक पहुँचियो जाही । ई उघरल सच हे कि बुतरू ला जइसे भोजन में माय के दूध जरूरी हे, ओयसहीं वयस्क ला शिक्षा ।; दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे ।; कानाफूसी होवे लगल - अध्यक्ष महोदय भ्रष्टाचार के खिलाफ हथ । पइरवी के खिलाफ हथ । ... कातो फेन से इंटरव्यू ला कागज भेजावल जाइत । सैद सब कुछ रद्द कर देल जाइत ।; जे देवी-देओता हमर कुल के नास रोक नञ सकलन, उनखर पूजा-पाठ काहे ला ? सैद हम्मर बाबू जी के मन में एही विचार तखनी होयत ।; अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । बस से उतरतहीं भर राह आँख फाड़ले रहली - सैद जो कौन इयार-दोस भेंटा जाथ ।; बाबू जी के अब कचहरी जाय के मन नञ करऽ हे । ओकालतखाना में उनखर उमिर के सैदे ओकील-मोखतार जी बच रहलन हे । केकरा से बोलतन-चालतन ?) (अरंबो॰11.10; 12.1; 25.11; 78.29; 81.2; 82.15)
730 सोझे (= सीधे, बिलकुल सामने तरफ) (सपासप पछिया चल रहल हल । गरमी के दुपहर । पसेना से तरबतर रमबिलसवा घोड़िया के रह-रह के ताल देले हल । ओकरा सोझे पच्छिम जाय के हे । आउ एत्ते कड़ा धूप । घोड़ियो बनाय तरी हाँफले हे ।) (अरंबो॰99.2)
731 सोतंत्र (= स्वतंत्र) (रातो भर डाकपीन, चिट्ठी आउ बाबा ओक्कर मगज में घुरइत रहल । लइका के सोतंत्र मन गुलामी के सिकड़ी से मुक्ति पावे ला छटपटा रहल हल ।) (अरंबो॰98.26)
732 सोहराय (जब बिलसवा गम गेल कि सब कोय मेला देखे चल देलन तो ऊ अप्पन आँख खोललक आउ उठ के कोठरी के केबाड़ी भितरे से लगा लेलक । सामने खिड़की पर सोहराय के दीया टिमटिमा रहल हल ।) (अरंबो॰95.3)
733 सौंसे (= सउँसे; समूचा, सम्पूर्ण) (मुचकुन जी चाह के कप उठइलन हल । हाकिम सौ के एगो नोट अप्पन कोट के जेभी से निकास के मुचकुन जी दन्ने बढ़उलन हल । - बिलास जी का काम आपके सिफारिश से तुरंत हो जाएगा । यह आपका हिस्सा । - जी ! - गरम चाह से मुचकुन जी के सौंसे कंठ झौंसा गेल हल ।; पहलमान के आँख भरभरा गेल । बोलल - एही नञ मंझला भइया, ओकरा तो गामे नञ, ओकरा तो सौंसे देसे मुरूख से भरल लगऽ हे । तों अंग्रेजी में बी.ए., एम.ए. बेकारे कइलऽ ।) (अरंबो॰37.22; 65.24)
734 हँड़िया (= हाँड़ी+'-आ' प्रत्यय) (हमनी पाँचो भाय पाँच जगह रहे लगली । सबके हँड़िया अलग-अलग । कधियो बिआह-सादी में एक्के ठामा जमा होली ।) (अरंबो॰67.16)
735 हँसी-खोसी (= हँसी-खुशी) (कोय के हँसी-खोसी के परभाव ओकरा पर नञ पड़ल हल । मगर ई देख के, ओकरो आँख छलछला आयल । ओक्कर लोर से डाँड़-टिल्हा, घर-दुआर सब्भे ओद्दा हो गेल ।) (अरंबो॰94.18)
736 हँस्सी (= हँसी, मजाक) (बच्चा, भइया से हँस्सी कइलक - का भइया, अभियो तोरा रेलेगाड़ी चलावे के मन करऽ हो ? - से का ? - मंझला भइया कहऽ हलथुन कि भइया टी टी, छिक-छिक करइत रहऽ हथुन । अब तो तोरा रिटायरो कइला बरिस भर होलो ।; भोला बाबू के आद पड़ऽ हे - हाँ, कल्हे राते तो हँस्सी के अवाज आयल । आँख झपकल जा रहल हल, से खुल गेल । ई, बेटा-पुतोह के हँसे के अवाज हल ।) (अरंबो॰64.14; 87.24)
737 हजूर (= हुजूर) (हाँ हजूर, एही ऊ कोनमा आम हे । एही पेंड़ लेल तो ... । तखनी आसमान चौखुट्टा हल । दुनियाँ अँगने भर के । भइया अँगना में लोहा के पहिया के गाड़ी चलावऽ हलन ।) (अरंबो॰17.1)
738 हड़-हड़ (~ पानी टानना) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰20.2)
739 हम्मू (= हमहूँ; हम भी) (अरे ! हम्मू बाज आवे वाला अमदी थोड़हीं हूँ । डागडर बाबू से कहम - जउन दिनमा पिअरिया अच्छा हो जइतो, ओही दिनमा तोरा हम एगो सीसों के विलायती खुटी बना के देबो ।) (अरंबो॰101.3)
740 हरवाहा (बंशीधर नाम सुनलऽ हे ? ई लइका उनखर हे । सब गैर मजरूआ आम जमीन के मालिक । … बित्तन दुसाध के बाप-दादा उनखरे जमीन जोतइत-कोड़इत रहलन । उनखर घर में चोरी होल, बित्तन दुसाध जेल में । सौंसे गाम जानऽ हे - चोरी के कइलक आउ चोरी के करइलक हल । ... एतनिए कसूर हल कि तनी ऊ अईंठ के बोलऽ हल । ... रामजतन हरवाहा मजूरी माँगलक हल - सौंसे बदन सुक्खल जुत्ता आउ लाठी से फोड़ देल गेल हल ।) (अरंबो॰44.4)
741 हरसट्ठे (= हरमेसा; हमेशा) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।) (अरंबो॰96.17)
742 हहरना (- नञ, हम लेम तो ओइसने लेम ! - ओइसन लेके तूँ का करम्हीं रे, आँय ? तोरा ओकरो से नीमन ला देबउ । ओइसन पोवार नीयर पीयर फुचकारी का लेमँऽ, तोरा हम चानी नीयर चमचम ला देबउ । हहरऽ हँ काहे ला ?) (अरंबो॰91.4)
743 हहास (~ मारना) (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।) (अरंबो॰72.25)
744 हाँहे-फाँफे (= हाँफे-फाँफे) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।) (अरंबो॰92.20-21)
745 हाथ-गोड़ (= हाथ-पैर) (साँझ होयत हीं पढ़े ला बइठ जाना जरूरी हल । हाथ-गोड़ धोके, चक-चक जपानी बइठकी भिजुन किताब लेके हमरा बइठना जरूरी हल ।; अच्छा, चलऽ, हाथ-गोड़ धोवऽ, फिन बतियायम ।) (अरंबो॰49.18; 69.3)
746 हारना-पारना (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल । देर रात हार-पार के अध्यक्ष महोदय बउआ के एगो फोटो लेले थाना पहुँचलन ।) (अरंबो॰25.19)
747 हिरिस (= हिर्स; आदत; बुरी लत; देखा-देखी; डाह; लालच) (लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।) (अरंबो॰92.11)
748 हीं (= के यहाँ) (गिरीश हीं बइठकी में हम, गिरीश रंजन, हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी आउ जिज्ञासा प्रकाशन के प्रकाशक श्री सत्येन्द्र जी गपशप में मसगूल हली । बात-बात में हम्मर कहानी संग्रह के प्रकाशन के बात उठल । पांडुलिपि तइयार हल ।; माय के मन खराब रहे लगल । बाबू, माय के नानी हीआँ भेज देलन । साथे-साथे हमरो । जेन्ने-जेन्ने मइया, ओन्ने-ओन्ने बछवा ! बाबा हीं से नानी हीं अइली ।; जल्दी-जल्दी कपड़ा पहिर के ऊ मंत्री जी हीं चल देलन ।; मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।; एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।) (अरंबो॰9.20; 18.22; 31.6; 75.10)
749 हीआँ (= हियाँ; यहाँ) (माय के मन खराब रहे लगल । बाबू, माय के नानी हीआँ भेज देलन । साथे-साथे हमरो ।; साढ़े सात बजे घड़ी देख के बंशीधर जी के हीआँ से चललन हल । गाड़ी पकड़े ला, टीसन । मोसकिल से तीन पाव जमीन टीसन पहुँचे में आउ रहल होत, बिच्चे में अपने से, ई जोखिम में फँस गेलन हल । बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल ।) (अरंबो॰18.21; 42.16, 18)
750 हीयाँ (= हियाँ; यहाँ) (हीयाँ के लोग निरक्षर हथ । अंधकार में डुब्बल हथ । अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में हीयाँ के लोग के लावे के हे ।) (अरंबो॰13.11,12)
751 हुँआँ (= वहाँ) (रमबिलसवा भोकार पाड़-पाड़ के रो पड़ल । डागडर साहेब से बरदास नञ भेल, से ऊ अप्पन टोप हिलइते-डुलइते हुँआँ पर से चोर नीयर चुप्पे-चाप घसक देलन।) (अरंबो॰103.10)
752 हुंह (एकरा चीन्हऽ हऽ रामदीन जी ? एही न हम्मर एकलौता बेटा, मिन्टू हे । फेन मिन्टू दन्ने मुँह करके पारस जी कहलन - तनी चच्चा के डाँट तो दे । डेरा तो दे । लइका खुब्बे जोर से 'हुंह' कइलक । फेन आँख तरेरे लगल । - हाँ-हाँ, हो गेल । अब हो गेल ।) (अरंबो॰31.11)
753 हुरना (हमरा कहानी संग्रह छपावे ला मगध यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष डॉ॰ ब्रजमोहन पाण्डेय नलिन हमरा हुरइत रहऽ हलन । किसान कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष आउ हम्मर मित्र प्रो॰ वीरेन्द्र कुमार वर्मा प्रकाशन ला हमरा कम दिक नञ कइलन ।) (अरंबो॰9.14)
754 होय (अगे ~ !) (रमबिलसवा अप्पन घरावली दन्ने मूहाँ कर के बोलल - अगे होय ! सुनऽ हीं, डागडर हीरो बाबू बड भलमानस हथिन । जइथीं के साथ ऊ तो पूछे लगतन - क्या है ? कैसे आए हो ?; फिनूँ रमबिलसवा के धिआन पिअरिया दन्ने गेल । - अगे होय ! दरदिया जिरी-मनी कमलउ कि नञ ?) (अरंबो॰99.4; 101.8)
602 मंझला (~ भइया) (बच्चा, भइया से हँस्सी कइलक - का भइया, अभियो तोरा रेलेगाड़ी चलावे के मन करऽ हो ? - से का ? - मंझला भइया कहऽ हलथुन कि भइया टी टी, छिक-छिक करइत रहऽ हथुन । अब तो तोरा रिटायरो कइला बरिस भर होलो ।; दु-चार दिन पहिले हम्मर बेटा बड़कू आउ पहलमान के मंझला बेटा एक दोसरा के आमने-सामने बन्दूक लेले ललकारइत हल ।; ईसों मंझलो तो रिटायर हो गेलो । गाम आवऽ हउ ? का तो शहर में प्रेस खोललक हे । किताब छापऽ हे । सवाल छापऽ हे ।; पहलमान के आँख भरभरा गेल । बोलल - एही नञ मंझला भइया, ओकरा तो गामे नञ, ओकरा तो सौंसे देसे मुरूख से भरल लगऽ हे । तों अंग्रेजी में बी.ए., एम.ए. बेकारे कइलऽ ।; बड़का बेटा एम.एस-सी. के इम्तिहान दे रहल हे । मंझला, नागपुर में इंजियरी पढ़ रहल हे । तेसरका मेडिकल के कम्पीटीसन के इम्तिहान में बइठल हे ।) (अरंबो॰64.17, 22; 65.5, 22; 79.7)
603 मउअत (= मौत) (शायद जिनगी भर अमदी अपनहीं के खोज करइत रहऽ हे । अप्पन मट्टी, अप्पन स्वरूप आउ अप्पन मूल प्रकृति के पकड़े के कोशिश ऊ करइत रहऽ हे । 'कोनमा आम' शायद अइसने एगो कोशिश हे । जिनगी में वितृष्णा के भाव जब प्रबल हो जाहे तो 'फालतू अमदी' अप्पन मउअत के इन्तेजार करऽ हे ।; राजधानी से गाम ऊ लउट अइलन हल । सात-आठ दिन बाद एगो शोक-संदेश मिलल । न्योता हल, मिन्टू के मउअत के ब्रह्म-ज्योनार के ।; फिन छनका लगल - छन !! बाप रे ! ... मइया के मउअत ! अब पूरा घर जोड़े वाला कड़ी भी गायब ।; एन्ने बाबू जी हमरा पास कम खत लिखऽ हथ । मगर उनखर हर खत में कउनो न कउनो इयार-दोस के मउअत के चरचा जरूरे रहऽ हे । हम्मर मेहरारू अइसन खत पढ़ के बुदबुदा हलन आउ फिन खत फाड़ के बिग दे हलन । उनखो लगऽ होत, अइसन ने मउअत के मनहूस कार छाया उनखरो छोट परिवार पर न पड़ जाय । मन में अनदेसा उठे लगऽ होत ।) (अरंबो॰7.13; 31.1; 55.20; 82.21, 23)
604 मगही (एकबैग ओकील साहेब दन्ने मुँह करके हम पूछली - अब का करे के हे ? मगही के एगो हम्मर मुँह से निकसल बात लोग नञ समझ रहलन हे । अचरज से हम्मर मुँह ताक रहलन हे ।) (अरंबो॰21.9)
605 मचोरना-मचारना (गेंदड़ा तल्ले से बिलसवा एगो मचोरल-मचारल सादा कागज निकासलक । पक्का पर ओकरा तान देलक आउ लगल अप्पन बाबा हीं चिट्ठी लिखे ।) (अरंबो॰95.16)
606 मच्छड़-डाँसा (कछुआ छाप अगरबत्ती के धुइयाँ कोठरी के हवा में मिल-जुल गेल हल । मच्छड़-डाँसा कहीं दबकल पड़ल होता ।) (अरंबो॰71.14)
607 मजिस्टेट (= मजिस्ट्रेट) (फेन दोसर बेर दुमका के ओही क्षेत्र में अइली हे । आदिवासी आउ दिक्कू में कुछ टेंशन हे । तीर-धनुष आउ बन्दूक से लड़ाय होवऽ । मजिस्टेट, पुलिस सब गस्ती लगा रहलन हे ।) (अरंबो॰14.1)
608 मजूर (= मजदूर) (देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।) (अरंबो॰58.25)
609 मजूरी (= मजदूरी) (बाबू, जंगले हमनी के घर हल । आझो घर हे । जंगली जानवर के सिकार करऽ हली । जंगल के बचल-खुचल जमीन पर थोड़े-थाक खेती-बारी करऽ हली । सरकारी कानून बनल आउ जंगल से हम आदिवासी बेदखल हो गेली । का तो जंगलो से लकड़ी काटे के काम गैरकानूनी हे । ... हमनी कानून, नियम का जाने गेली । ... बाबू, सहर आउ गाम तोरे हलो आउ जंगल तोरे हो गेलो । मजूरी के सिवाय आउ हमनी ला का बचल हे ? जंगल के ठेकेदार हमनी सबसे सब काम ले हे । मजूरियो बहुत्ते कम दे हे । ... ई पूछऽ न बाबू, तनी सा मजूरी देके हमनी से का का नञ ले लेहे ?; देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।) (अरंबो॰15.16, 17, 18; 58.26)
610 मटर (= मोटर) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !; बड़गो-बड़गो किसान बरसात से निरास होवे पर, अप्पन-अप्पन खेत में कुइयाँ खनउलन । मटर बइठउलन । मुचकुन जी के आद हे, बिलास जी सोमार के उनखा पास अइलन हल । उनखा से कहलन हल - तोहूँ अप्पन खेत में कुइयाँ खना लऽ, मटर बइठा लऽ । पुरान सुराजी अमदी हऽ । तोरा सब असानी से मिल जइतो ।; खखस के, गियारी साफ करके बोललन हल - का सरकार मुस्तीये {? मुफ्तीये} में मटर दे दे हथ ?) (अरंबो॰20.2; 35.26, 27; 36.7)
611 मटियाना (= उपेक्षा करना, ध्यान न देना; उदासीन होना; सुस्त पड़ना; मिट्टी से साफ करना) (हाँ, एगो फरक ऊ महसूस करऽ हथ । लइकन सब, जे पैर छूके परनाम करऽ हल, अब खाली हाथे जोड़ के परनाम करऽ हे । कउनो-कउनो तो मटिआइयो देहे । जब से बेटा बागी हो गेल हल, डाँट-फटकार कर के अप्पन अधिकार अपने समाप्त कर लेलन हल ।; अजी बाबा ! तूँ हमरा अपने भिरी बोला लऽ । हम तोहर सब कहना मानबो । अब पढ़े से नञ मटिअइबो । मन लगा के तोर गोड़ो दाबबो ।) (अरंबो॰54.17; 97.22)
612 मट्टी (= मिट्टी) (शायद जिनगी भर अमदी अपनहीं के खोज करइत रहऽ हे । अप्पन मट्टी, अप्पन स्वरूप आउ अप्पन मूल प्रकृति के पकड़े के कोशिश ऊ करइत रहऽ हे ।) (अरंबो॰7.10)
613 मद्धिम (= धीमा) (बतिया फिनूँ मद्धिम होल जा रहल हल । बिलसवा ओक्कर बत्ती अबरी जादे उसका देलक । दीया के बतिया मटमटायल आउ तेज होके लहके लगल ।) (अरंबो॰96.25)
614 मनुआना (तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली । मगर जमायत होइतहीं हम अकेल्ला पड़ जा हली । किनारे-किनारे हम ढेला-ढुक्कर के जुत्ता से सूट मारइत, मनुआयल चलइत रहऽ हली ।) (अरंबो॰83.14)
615 मम्मा (= मामा; दादी) (बाबू बीसे-एकइस बरिस के होतन कि बाबा मर गेलन । मम्मा अप्पन नइहर गेल हल, जइसन सुनऽ ही । बाबू उनखा लावे ला अप्पन नानी-घर गेलन । एन्ने लूटपाट मच गेल । ... मम्मा के आवे पर, सुनऽ ही, बाबा के लहासो उठावे के पइसा नञ हल । फिन हम्मर छोटा बाबू अइलन । मम्मा के आँख में ऊ जरिक्को नञ सोहा हलन । ... छोटा बाबू के हम्मर माय के गोदी में दे देलन । ... मम्मा जादे दिन नञ बच सकल ।) (अरंबो॰78.10, 13, 14, 17)
616 मम्माँ (= मम्मा; दादी) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।) (अरंबो॰92.20)
617 मरना-पछड़ना (शेरसिंह जिनगी में अब तक कुछ नञ कर पइलन हे । शहर में एगो मकानो नञ बना सकलन हे । दू कोठरी वाला मकान किराया लेले हथ । कयसूँ मर-पछड़ के एगो बेटी के बिआह कइलन हे ।) (अरंबो॰47.16)
618 मर-मिठाय (बिलसवा रात के बाकी काम मन लगा के कइलक । भतपकवा पाँड़े के गोड़ो मन लगा के दबउलक । पाँड़े जेकरा पर पुछियो बइठल - आझ मर-मिठाय खूब मिललउ का रे ? - हूँ । कहके बिलसवा चुप्पे रहल ।) (अरंबो॰98.2)
619 मर-मोकदमा (दिन-रात मर-मोकदमा, कोट-कचहरी, छल-परपंच से हम्मर मन अब भर गेल हे ।) (अरंबो॰65.2)
620 मराना (= अ॰क्रि॰ मारा जाना; स॰क्रि॰ मरवाना) (अरे ऊ मरायत हल थोड़े, ओक्कर साथिए-संगी ओकरा मरवा देलक ... कातो ओहू अप्पन दोस के मार देलक हल ।) (अरंबो॰28.3)
621 मलकिनियाँ (= मालकिन) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।) (अरंबो॰96.18)
622 मलेटरी (= मिलिट्री) (करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे । जब से पीरी होल, तब से उनखर ढाँचा में ई परिवर्तन आयल । जखनी पेन्हले-ओढ़ले रहऽ हलन, तब लोग उनखा मलेटरी के कौनो भारी अफसर बुझऽ हलन । पीरी के बाद उनखर जे बदन टूटल, से फिन बनल नञ ।) (अरंबो॰68.6)
623 मसुरी (= मसूर) (गंगा माय फिन निगलल खेत उगल दे हलन । तखनी तक एक पसल मारल जा हल । फेन कुछ गोहूँ, कुछ मसुरी आउ कुच्छो से कुच्छो उपजऽ हल ।) (अरंबो॰62.17)
624 मसोमात (= विधवा) (हाँ रे, विलास जी के तो बढ़ती हइए हे - एगो जुआन बिच्चे में टोक के कहलक - अइसे तोहनी विलास जी के बारे में जे कह लऽ, मगर ई बात दुनियाँ जानऽ हे कि मसोमतिया के खेत हड़प के ऊ अप्पन बढ़ती देखा रहलन हे ।) (अरंबो॰20.6)
625 मस्टरनी (= मास्टरनी, शिक्षिका) (हाकिम मस्टरनी से पुछलन - ठीक-ठाक चलइत हो न ? - हाँ बाबू, सब ठीके चलइत हे । फेन बोलल - हम्मर बच्चा बेमार हे ।; हम दुन्नू अमदी मस्टरनी के मुँह देख रहली हल ।) (अरंबो॰12.8, 13)
626 मस्टरी (= मास्टर या शिक्षक का काम) (सोमनाथ जी के समय डागडरी आउ मस्टरी में कट रहल हे ।; अपने भोला बाबू पढ़े-लिखे में बेस हलन । मगर इन्टर के बाद पढ़ाई छोड़े पड़ल हल । मस्टरी सुरू कइलन हल । फिन ग्रेजुएट होलन । मगर मस्टरी के चक्कर से नञ छुटलन ।) (अरंबो॰59.16; 86.13)
627 महिन्ना (= महीना) (अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । ... दुपहरिया में लाला भइया हीं जाय लगली । सटले दखिनबारी घर, लाला भइया के हे । अप्पन घर से जादे ई घर में हम्मर लइकइयाँ कटल । ... अनचोक्के इयाद पड़ल - हम केकरा से मिले जा रहली हे ? लाला भइया के सोअरग सिधारला दू महिन्ना हो गेल । बाबू जी चिट्ठी लिखलन हल ।; तीन-चार महिन्ना से ओक्कर पढ़ाय छुट्टल हे । एन्ने माय मरल आउ ओन्ने पढ़ाय साफ ।) (अरंबो॰81.8; 95.9)
628 मामू (= मामा) (मामू के माथा मूड़ल हल । डाढ़ी-मोछ साफ । नाना के चंदला माथा आउ चिक्कन भे गेल हे । नाना के मुँह उदास लगऽ हे ।; मामू जी, आप भी घर के बाहर चले जाएँ तो अच्छा होगा । - ई आदेश शेर सिंह के हे । मामू इसारा कइलन आउ एगो अदमी बइठका से बाहर चल गेल । शेर सिंह जब गोस्सा में आवऽ हथ तो अंगरेजिये-हिन्दी बोलऽ हथ । लइका, मेहरारू किनखो ई पूछे के हिम्मत नञ हे कि का भेल । मामू सन्न हो बइठल हथ । एतबड़ गोसबर तो उनखर भगिना कहियो नञ हल ।) (अरंबो॰19.22; 46.5, 7, 9)
629 मार (~ लाठी, ~ लाठी; ~ सट्टी, ~ सट्टी) (ढेना के पुलिस वाला पकड़ के ले गेल हल । कुच्छो बेचारा जानवो नञ करऽ हल । कोय कसूर रहे तब न । ओक्कर बस एक्के गो कसूर हल । ऊ एगो जुआन मेहरारू के मरद हल । बस । ... ढेना केकरो टेरवो नञ करऽ हल । ... हमनी अमदी नञ ही ? हमनी के इज्जत आउ लाज नञ हे ? ... ढेना दरोगा के मुँह पर जो थूकियो देलक तो कउन कसूर कइलक हल ? दरोगा तो ठिकेदार के अमदी बन के आयल हल । एकरे ला ढेना के मार लाठी, मार लाठी सब चूर देलन हल ।; रोक के घुमावे खातिर घोड़िया के लगाम खींच लेलक । से घोड़िया हिनहिनाय लगल आउ लगल लेताड़ी मारे । गोस्सा से रमबिलसवा ओकरा मार सट्टी, मार सट्टी धुन देलक । घोड़िया अकास से बात करे लगल ।) (अरंबो॰15.30; 102.15)
630 मारा (= अकाल, दुर्भिक्ष) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰19.28)
631 मारा-पीटी (= मार-पीट) (हम अप्पन बोली जिरी रोवल नियर बना के बोलम - डागडर बाबू, हम्मर बुढ़िया के जान बचा दऽ । ओकरा साथ रहइत सताइस बच्छर गुजर गेल से पतो नञ चलल । एतना उमिर खाली मारा-पीटी करे में, पीए में आउ जुआबाजी में बीता देलूँ ।) (अरंबो॰100.29)
632 मास (= मांस) (अइसे बाबू जी के उमिर सतहत्तर-अठहत्तर बरिस से कम नञ होत । एक-दू बार मरे से बचलन हे । सरीर पर मास बहुत कम । सच पूछऽ तो सुक्खल-साखल सरीर ।) (अरंबो॰82.27)
633 मास्टरी (= मस्टरी) (सरकारी इसकूल में मास्टरी करऽ हली । जगन्नाथपुर में । बिहार आउ उड़ीसा के बोडर पर ।) (अरंबो॰71.19)
634 मिंझाना (= अ॰क्रि॰ बुतना; बुझना; स॰क्रि॰ बुता देना; बुझाना) (दीयवा मिंझाइल जा रहल हल । से बिलसवा ओकर बत्ती उसका देलक । दीया में तेल तो भरले हल, खाली बतिए जिरी जर गेल हल ।) (अरंबो॰96.13)
635 मिआज (= मियाज; मिजाज) (मुँह पर से अँचरा जइसि हटावऽ हे कि ओकर मिआज भय से भर गेल । मुहाँ केत्ते घिनामन लग रहल हल ।) (अरंबो॰101.14)
636 मिटिन (= मीटिंग; बैठक, सम्मेलन) (तब से ई नियम बन गेल हल । कउनो सुराजी मिटिन, पन-छो कोस के गिरिद होवे, ऊहाँ पहुँचना उनखा जरूरी हल ।) (अरंबो॰35.6)
637 मिठकी (= मीठी) (हम्मर घर से रमधानी पाँड़े के घर, फिन रमधानी पाँड़े के घर से रमजानी मियाँ के घर, फिन पतरकी गल्ली से घुम्मल-घुम्मल मिठकी कुइयाँ तक आउ फिन मिठकी कुइयाँ से असमान फइल गेल । नञ जाने कत्ते बड़गो होतइ ई असमान ! ... ... बामन कोस के ।) (अरंबो॰17.14)
638 मुड़ेरा (कुइयाँ के ~) (रातो भर कुइयाँ में मुड़ेरा पर बइठ रहऽ हली । कुइयाँ में कुद जाय के मन करऽ हल । मंगला माय के किरपा, चौदह बरिस बाद इम्तिहान देली । यूनिवर्सिटी में टौप कर गेली । डिप्रेशन के मीनार जड़े से उखड़ गेल ।) (अरंबो॰77.8)
639 मुरूत (= मूर्ति) (बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल । बत्ती जरा के एक खोराक दवाय बना के खा लेलन । भित्ती पर बुद्ध भगवान के मुरूत लटकल हल । बूढ़ा अमदी के अलचारी से एहू डरा गेलन हल ।) (अरंबो॰69.28)
640 मुसकी (= मु्स्कुराहट, मुस्कान) (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।) (अरंबो॰20.15)
641 मूँड़ी (= मूड़ी; सिर) (भोला बाबू के तनी खोंखी उठल । बलगम के एगो नुक्कल टुकड़ा खड़खड़ायल । मटर के खिड़की से मूँड़ी बाहर निकास के पच से फेंकलन ।) (अरंबो॰86.9)
642 मूड़ी (= सिर) (गबड़ा भिरी खड़ा हली । तनी सा ठेला गेली । आउ गन्दा, बदबूदार पानी में गिर पड़ली । ... नाक से पानी भित्तर घुसे के कोरसिस कर रहल हे । हम मूड़ी उप्पर उठावे के कोरसिस कर रहली हे ।) (अरंबो॰79.23)
643 मूतना (देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।) (अरंबो॰58.26)
644 मेहरारू (= पत्नी; औरत) (मेहरारू के रोज-रोज के ताना करेजा छेद करऽ हे । ... तोरा की औकात हो ? दरिद्दर तो हऽ । बहिन के बियाह में सब कुछ लुटा देलऽ । अब तोरा के काम देतो ?) (अरंबो॰79.16)
645 मैदान (चिट्ठी लिफाफा के भितरे रख देलक आउ ओकर मुँह भात से साट देलक । तब ओकरा अप्पन पैंट के नीचे कम्मर भिरी नुका लेलक । रतिए मैदान जाय के बहाने से एगो लोटा लेले बहरायल ।) (अरंबो॰98.15)
646 मोछ (= मूँछ) (हम चाहऽ ही बड़गो होवे पर ऊ बिच्छा नियर बड़गो-बड़गो मोछ रख ले । लोग एकरा देखिए के भय खायथ ।) (अरंबो॰31.15)
647 मोट (= मोटा) (हम दादा दन्ने हाथ बढ़ावऽ ही । अब ऊ हमरा जोरे चले लगलन । मोट रोटी लेले आवऽ हथ । ओकरा पर रखल हे पिआज के चार फाँक । फेन एगो गिलास में पानी लेले आवऽ हथ । घर में सब लोग हथ । दूर-दूर से ताकऽ हथ, मगर हमरा भिरी कोय नञ आवऽ हथ । हम अप्पन झोला से फोटू निकास के देखावऽ ही, मगर कोय नञ सटऽ हे । रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही ।; खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !; अपने कउनो कोचिंग इन्स्टीच्यूट से सम्बद्ध तो नञ हऽ ? ई सब मोट-मोट असामी के हिट लिस्ट पर रखऽ हथ ।) (अरंबो॰14.16; 18.3; 29.27)
648 मोसीबत (= मुसीबत) (एगो बच्चा के रिरियाय के अवाज सुनली । हमरा लगल जइसे ऊ कउनो मोसीबत में फँस गेल हे ।) (अरंबो॰42.3)
649 मौलना (= मउलना; झपकी आना; कुम्हलाना) (छठे किलास में नानी हीं से दादी हीं चल अयली हल । नाने हीं हली । रात हल । मगर आज नो बज्जी गाड़ी आइए नञ रहल हल । आँख मौले लगल । - शेरसिंह, तोरा पढ़े में मन नञ लगऽ हउ का रे ? - भारत के उत्तर में हिमालय पहाड़, दक्खिन में हिन्द महासागर ... फिन आँख मौले लगल ।) (अरंबो॰50.7, 10)
650 रंगरेजी (= अंगरेजी) (एकबैक कड़कड़ायल अवाज उनखर मुँह से निकसल हल - रूक जाओ हत्यारो ! रूक जाओ !! ... आग कैसे लगी, मैं बताता हूँ । - अरे ! ई सरबा रंगरेजी बोलऽ हउ । दू डाँग देहीं, तब एकरो बात सुनल जाइत ई अदालत में ।) (अरंबो॰43.16)
651 रजधानी (= राजधानी) (सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल । छोटकनिया नेतो के लोक-सेवा के नाम पर पैरबी करे बिलौक, सहर, रजधानी जाय पड़ऽ हल ।) (अरंबो॰35.16)
652 रन्थी (= अरथी) (विमल जी दउड़ रहलन हे । रथ पर बइठल मुरती के चरन छुए ला । ... अन्धार हो गेल । ... बाबू के रन्थी ... भइया के रन्थी ... भउजी के रन्थी ... माय के रन्थी ... सब रन्थी चलल जा रहल हे ... ई का ? विमल जी देखऽ हथ सब में ओही कन्धा देले हथ । .. एक्के अमदी सब में, एक्के साथ कइसे कन्धा दे सकऽ हे ?) (अरंबो॰72.7, 8)
653 रस्ता (= रास्ता) (रस्ता में हाकिम से पुछली - ई काम ला, इनखनी के केत्ते रूपइया भेंटा हे ? - मात्र पचास रूपइया । - बस, एतने ला एत्ते मेहनत ?; केकरो गलत रस्ता पे देख के ऊ डाँट दे हलन । कहियो कोय बड़गो अमदी भी उनखर डाँट के दायरा में आ जा हलन ।; उनखर सब चौकसी बेअरथ साबित हो रहल हल । लइका घरो से पइसा-कउड़ी चोरा के जन्ने-तेन्ने लापता होवे लगल हल । सोमनाथ जी के शक्ति लइका ढूँढ़े में, लइका के समझावे में, अच्छा रस्ता पर लावे में खरच होवे लगल ।) (अरंबो॰12.17; 53.15, 22)
654 रस्से-रस्से (= रसे-रसे; धीरे-धीरे) (रस्से-रस्से साँझ हो गेल । फिनूँ रात । दादी-पोता ओसरे में खटिया पर पड़ गेलन । मम्माँ खिस्सा सुनावे लगल ।) (अरंबो॰93.5)
655 राड़-थोड़ (= राड़-भोड़) (देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।) (अरंबो॰58.25)
656 रिरियाना (एगो बुतरू के रिरियाय के अवाज कान में पड़ रहल हल । लगऽ हल, जइसे कउनो ओकरा डेंगा रहल हल ।; एगो बच्चा के रिरियाय के अवाज सुनली । हमरा लगल जइसे ऊ कउनो मोसीबत में फँस गेल हे ।) (अरंबो॰41.13; 42.2)
657 रुक्कल (टमटम रुक्कल हे । ए-दू वकील हमरा साथ हथ । ... हाँ हजूर । एही ऊ बगैचा हे जेकरा में खून होल ... हाँ हजूर, एही ऊ कोनमा आम हे ।) (अरंबो॰20.18)
658 रोबा-कन्नी (= रोबा-कानी; रोना-धोना) (एकबैग रोबा-कन्नी मच गेल । गीत-नाध सब रुक गेल । मौसी हमरा गोद में लेके रोबे लगल ! माय मर गेलौ ।) (अरंबो॰18.28)
659 रोलाय (= रोना-धोना) (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।) (अरंबो॰72.23)
660 रोसगद्दी (= रोसकद्दी; रुखसत) (हाय रे हाय ! रोसगद्दी के पहले रात से बेचारी दुखे-पीड़ा में रहल । दिवाली के दिनमा, जउन दिन पहला बार हम्मर घर में दाखिल होल, हम सब्भे कुछ जुआ में हार गेलूँ हल ।) (अरंबो॰101.26)
661 लइकइयाँ (= लड़कपन, बचपन) (अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । ... दुपहरिया में लाला भइया हीं जाय लगली । सटले दखिनबारी घर, लाला भइया के हे । अप्पन घर से जादे ई घर में हम्मर लइकइयाँ कटल ।) (अरंबो॰81.6)
662 लइका (= लड़का) (मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।) (अरंबो॰31.6)
663 लउआ-लाठी (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !) (अरंबो॰18.7)
664 लगी (= ला, लागी; के लिए) (एही ऊ कोनमा आम हे ? - जी सरकार । एही पेड़ लगी तो अपने गोतिये में सब खून फसाद भेल ।; नौकरी के आखरी बखत में भइया के पैंतालीस सौ, छियालीस सौ रूपइया तलब भेंटा हल । चार-पाँच सौ अपना लगी रख के सब पइसा ऊ पहलमाने के हाँथ में दे दे हलन । काहे ला ? - हैसियत बढ़ावे ला ।; देख, अबरी भर तूँ हमरा ला झूठ बोल ले । हम तोरा अब कधियो नञ मारबउ । तोरा जिरी सा डाँटवो नञ करबउ ! कत्ते पिआर हम्मर मन में तोरा खातिर हे । देख, एत्ते अंधड़ो-बतास में हम तोरा लगी घर से निकस अयलूँ ।) (अरंबो॰21.1; 67.10; 100.10)
665 लड़ाय (= लड़ाई) (फेन दोसर बेर दुमका के ओही क्षेत्र में अइली हे । आदिवासी आउ दिक्कू में कुछ टेंशन हे । तीर-धनुष आउ बन्दूक से लड़ाय होवऽ । मजिस्टेट, पुलिस सब गस्ती लगा रहलन हे ।) (अरंबो॰14.1)
666 लबज (= लफ्ज) (कॉलेज में अंगरेजी दू-चार लबज का पढ़ लेलक, बोलले चलऽ हे - बड़का बाबू मिसफिट हथ । उनखा कमाय के लूरे नञ हे । सब लूर ओकरे कपार मे आ के जमा हो गेल ?) (अरंबो॰38.25)
667 लमछड़ (= लम्बा) (पचास बरिस पार के अमदी । भक-भक गोर हला । अब तनी पीयर लगऽ हथ । चौड़ा गट्टा से मास के परत काफी उतर चुकल हे । लमछड़ शरीर । उज्जर बाल । करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे ।; एही एगो माध्यम हे जेकरा खटा-खटा के, मेहनत करके कमाय कर सकऽ ही । एकरे जो जोगा के रख दी तो बाल-बच्चा के भविष्य उज्जर कइसे होयत ?) (अरंबो॰68.4; 89.27)
668 लम्फ (= लफ, ललटेन; लालटेन) (- "बाबूजी, 'अनुभव' माने ?" लम्फ के रोसनी में एगो लइका हिन्दी के किताब पढ़ रहल हे । तनी गो लइका के 'अनुभव' के माने बताना हे । बाप ओंहीं पर बइठल हथ । बाप अप्पन लइका के हाथ पकड़ के लम्फ के गरम सीसा में तनी सटा दे हथ । - "बाप रे !" लइका चिल्लायल हल । छनका लगल हल । - "तातल लम्फ के सीसा में हाथ सटावे से हाथ झरकऽ हे, ई अनुभव तोरा होलो ?"; रात में एक दिन सिकड़ी झनझनायल । सोमनाथ जी लम्फ तेज कइलन । बिजली नञ हल । चल गेल हल । दरवाजा खोललन - के हऽ हो ?) (अरंबो॰52.21; 53.2, 3; 56.29)
669 ललटेन (= लालटेन) (दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे ।; रामनाथ नजीक पहुँच के देखऽ हथ - दु-चार गो ललटेन हे । दस-बारह गो अमदी हथ । एगो अमदी, एगो बुतरू के हाथ धइले हथ । बुतरू रो रहल हे । ओक्कर गाल पर तमेचा पर तमेचा जब-तब आ बइठऽ हे ।; ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल ।; कुछ नाल बंदूक चमक उठल हल । जादेतर देसिए बन्दूक । भाला, लाठी ... । - चारो दन्ने छितरा जो । ... मुँह से एक्को सबद नञ निकसे ... ललटेनमन बुता दे ... ।) (अरंबो॰12.1; 41.25; 42.5; 44.22)
670 लहकना (= लहरना; प्रज्ज्वलित होना) (बतिया फिनूँ मद्धिम होल जा रहल हल । बिलसवा ओक्कर बत्ती अबरी जादे उसका देलक । दीया के बतिया मटमटायल आउ तेज होके लहके लगल ।) (अरंबो॰96.26)
671 लहरना (एगो घर में आग लगल हल, लइकन के खेल से ... मगर आग पहलहीं लग चुकल हल ... घर-घर आग से लहर रहल हल ... गाम, सौंसे गाम आग से लहर रहल हे ... आग पर जे काबू नञ पावल गेल तो ई सौंसे देस में पसर जायत ।) (अरंबो॰45.14, 15)
672 लहरी (= जिद, हठ) (मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी ।) (अरंबो॰34.9)
673 लहास (= लाश) (बाबू बीसे-एकइस बरिस के होतन कि बाबा मर गेलन । मम्मा अप्पन नइहर गेल हल, जइसन सुनऽ ही । बाबू उनखा लावे ला अप्पन नानी घर गेलन । एन्ने लूटपाट मच गेल । ... मम्मा के आवे पर, सुनऽ ही, बाबा के लहासो उठावे के पइसा नञ हल ।) (अरंबो॰78.13)
674 ला (= लगी; के लिए) (रस्ता में हाकिम से पुछली - ई काम ला, इनखनी के केत्ते रूपइया भेंटा हे ? - मात्र पचास रूपइया । - बस, एतने ला एत्ते मेहनत ?) (अरंबो॰12.19)
675 लाज-लेहाज (पारस बाबू राजधानिएँ में डेरा पर आके मिललन हल । ऊ उदास हलन । बतउलन हल - मिन्टू अब जुआन हो गेल हे । ओक्कर सोखी आउ बदमासी अब अकास छूए लगल हे । अब दिन-रात ऊ पीले रहऽ हे । लाज-लेहाज सब खतम ।) (अरंबो॰32.7)
676 लात-गारी (ओकर माय-बाप हमरा से बियाह कइलका हल हम्मर बेटि सुख-चैन से एगो करीगर के घर रहत ! सुख-चैन तो ओकरा नञ मिलल मगर जिनगी भर ओकरा लाते-गारी मिलइत रहल ।) (अरंबो॰101.25)
677 लाहरी (= जिद्द) (- नञ, हम लेम तो ओइसने, जइसन छोटुआ के हइ । - अच्छे, चुप रह। ला देबउ । / ऊ बुतरूआ फिनूँ लाहरी करे लगल । रामधनी के मिजाज गरम हो गेल - अरे ससुर, कहलिअउ तो, ला देबउ । एत्ते जिद्दी काहे हो जाहँऽ ?) (अरंबो॰91.7)
678 लुग्गा (= साड़ी; कपड़ा, वस्त्र) (सनिचरी ढेना के कपार से टपकइत खून अप्पन लुग्गा में पोछले हल । ... तखनिए हम पहुँचली हल । ढेना बेहोस होल जा रहल हल ।) (अरंबो॰15.1)
679 लुटाना (= अ॰क्रि॰ लुटना; स॰क्रि॰ लुटाना) (एक बेर प्रोफेसरो साहब के गाड़ी लुटायल हल । तखनी ऊ भूतपूर्व प्रोफेसर नञ हलन । काम-काज में व्यस्त प्रोफेसर हलन ।) (अरंबो॰28.15)
680 लूर (= बुद्धि, अक्ल; काम करने का सही तरीका, जानकारी; ढंग, आदत) (कॉलेज में अंगरेजी दू-चार लबज का पढ़ लेलक, बोलले चलऽ हे - बड़का बाबू मिसफिट हथ । उनखा कमाय के लूरे नञ हे । सब लूर ओकरे कपार मे आ के जमा हो गेल ?; हम तो छुटतहीं बोलम - सरकार, घोड़िया के देख लेल जाय । अइसन ने तूँ एही समझ लऽ कि हमरा टमटम हाँके के लूरे नय हे ।) (अरंबो॰38.27; 100.24)
681 लेताड़ी (= लात) (~ मारना) (घोड़िया आगू बढ़ल जा रहल हल । से ऊ ओकरा रोकलक । अब ओन्ने जाय से कौन दरकार ? रोगिए नञ रहल तो रोग फिर कइसन ? रोक के घुमावे खातिर घोड़िया के लगाम खींच लेलक । से घोड़िया हिनहिनाय लगल आउ लगल लेताड़ी मारे ।) (अरंबो॰102.14)
682 लेना-देना (- भइया, धीरूआ कहाँ हे ? - धनबाद में । - ऊ तो ले-दे के धनबादे बसिए गेलो । घर के झंझट से ओकरा कुछ लेना-देना नञ हे । छोटका सबसे जादे दुलरूआ होवऽ हे आउ से ही से ऊ सबसे जादे लापरवाहो हे ।; सब ले-दे के हम आउ पहलमान ... हमहीं दुन्नूँ भाय गाम में रहऽ ही ।) (अरंबो॰63.14, 14-15; 65.13)
683 लोग-बाग (फिन सुराज होवे के घोसना होल हल । उनखर आँख में नींदे नञ । साफ-सुत्थर कुरता लगइले गाम से कसबा अइलन हल । तिरंगा फहरइलन हल । लोग-बाग के बातचीत सुनके, अघा के गाम लउट अइलन हल ।) (अरंबो॰35.12)
684 संगत (= संगति) (चाहऽ हलन, हम्मर बेटा खूब पढ़-लिख ले । विलायत जाय । ई काम वास्ते पइसो-कौड़ी जुटउले हलन । मगर अनिलबा अइसन संगत में पड़ल, सब बाते बदल गेल । विमल जी अपनहूँ बड़गो डागडर रहतन होत । घर के सहजोग नञ मिलल । टर-ट्यूशन कर के बी.एस.सी. तक पढ़ पयलन । टरेनिंग कर के सरकारी इसकूल में मास्टर हो गेलन ।) (अरंबो॰69.6)
685 संझउकी (बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल । बंशीधर जी के छोटका बेटा संझउकिए से गायब हल । घर नञ लउटल हल । लोग चिंतित हलन । ई हाल में जादे बातचीत पर जोर नञ देके राते के लउटना बाजिब समझलन हल ।) (अरंबो॰42.19)
686 संझला (पैर पर केकरो हाथ झुक्कल हे । आँख उठा के देखऽ ही । बच्चा हे । हम्मर संझला भाय । हाथ अपने आप फैल जाहे ओक्कर सिर पर ।; दु-चार दिन पहिले हम्मर बेटा बड़कू आउ पहलमान के मंझला बेटा एक दोसरा के आमने-सामने बन्दूक लेले ललकारइत हल । बड़कू के कहना हल, हम्मर हम्मर बाप के सब जायदाद अरजल हे । संझला चच्चा के एकरा पर कोय हक नञ हे ।; हम्मर संझला चच्चा एकदमें अंगरेज नियर गोरनार हलन । कसरत करऽ हलन । घोड़ा चढ़ऽ हलन । एकबैग उनखा लकवा मार देलक ।) (अरंबो॰63.5; 64.24; 78.19)
687 सईंतना (= सैंतना; संचित करना, इकट्ठा करना) (अनुशासन के मामला में खुब्बे कड़ा हलन । का मजाल, कउनो उनखा से नजायज काम ले ले । मगर सब बेअरथ । विमल जी के पछतावा होवऽ हे - अप्पन घरे जो सईंत नञ सकली ... । बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल ।) (अरंबो॰69.25)
688 सगरो (= सर्वत्र, सभी तरफ) (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल ।; बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।; ढोल-मँजीरा पर फाग के धूरी उड़ रहल हल । सगरो मस्तीए-मस्ती छायल हल ।) (अरंबो॰25.16; 36.26; 93.1)
689 सचाय (= सच्चाई) ("तोरा के नञ जानऽ हे ? हाकिम, नेता, जे भी जिला में भेटा जा हथ, अपने के हाल-चाल जरूरे पूछऽ हथ ।" मुचकुन जी के मन गरब से भर उठल हल । नञ जाने कइसन भा से गियारी भर आयल हल । अभियो तालुक सचाय बचऽ हे । हमरा नीयर दलिद्दर, अगियानी अमदी के भी लोग इयाद करऽ हथ ।) (अरंबो॰36.5)
690 सच्चाय (= सच्चाई) (कोनमा आम काट देल गेल हे । .. कोनमा आम कट्टल पड़ल हे । ... एतने सच्चाय हमरा ला हे ।; कोनमा आम काट देल गेल हे । एही सच्चाय घुर-फिर के हमरा पर परगट होवऽ हे । खून-फसाद सब बेलाँ माने लगऽ हे ।) (अरंबो॰21.3, 5)
691 सच्चो (=सच; सचमुच) (दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे । जीप से उतर के हमनी पइदल कहीं झुक के तो कहीं तिरछी काट के ललटेन दन्ने बढ़ली । हाँ, सच्चो एगो वयस्क शिक्षा के केन्द्र चल रहल हल ।; नानी मरल, नाता टूटल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?; सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल । लइका चित्कार कर उठल । बाबू हो बाभू ! मइया गेऽ ! - तो सच्चो-सच्चो बता दे । बाबू के कहे से अगिया लगयलहीं कि चचवन के कहे से ? सच्चो-सच्चो बताउ !) (अरंबो॰12.5; 19.21; 43.7, 8)
692 सटकल (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।) (अरंबो॰20.16)
693 सटले (= सटा हुआ ही) (दू बच्छिर पहिले एगो खत लिखलन हल - तोर जुगेसर चच्चा चल देलन । ... जुगेसर चचा के घर ठीक हम्मर घर के सटले उतरबारी घर हल ।) (अरंबो॰82.19)
694 सड़सड़ (सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल । लइका चित्कार कर उठल ।) (अरंबो॰43.5)
695 सड़ासड़ (= सड़सड़) (सड़ासड़ छड़ी जेन्ने-तेन्ने पड़े लगल । लइका छटपटा-छटपटा के नाचऽ हे । गिरऽ हे ।) (अरंबो॰43.9)
696 सनहा (= प्राथमिकी; किसी आपराधिक काम की पुलिस के पास दी जाने वाली सूचना) (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल । देर रात हार-पार के अध्यक्ष महोदय बउआ के एगो फोटो लेले थाना पहुँचलन । सनहा दाखिल कइलन ।; एक बेर प्रोफेसरो साहब के गाड़ी लुटायल हल । ... खरीद-फरोख खतम करके जब लउटलन तो गाड़ी लापता । एन्ने-ओन्ने खूब खोजलन हल । मगर गाड़ी जे रहे तब ने मिले । हतास होके थाना में सनहा दरज करावे गेलन । बातचीत के सिलसिला में ऊ थानेदार के बतउलन हल कि फलाना मंत्री तो हम्मर चेला हे ।) (अरंबो॰25.20; 28.19)
697 सनिचरा (~ समाना) (एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।) (अरंबो॰75.11)
698 सनेसा (= सन्देश) (अन्त में मुख्य अतिथि के भाषण होल । ऊ भाषण का हल, एगो सवाल हल । एगो सनेसा हल । ... तूँ सब आदिवासी भाय के पास जा । गामे-गामे जा के उनखा से मिलऽ ।) (अरंबो॰13.15)
699 सपासप (सपासप पछिया चल रहल हल । गरमी के दुपहर । पसेना से तरबतर रमबिलसवा घोड़िया के रह-रह के ताल देले हल ।) (अरंबो॰99.1)
700 सफाय (= सफाई) (फिन छनका लगल - छन !! बाप रे ! ... मइया के मउअत ! अब पूरा घर जोड़े वाला कड़ी भी गायब । कड़ी टूट गेल हल । भतीजा हिस्सा बँटा के अलग हो गेल हल । चोर, बेइमान सब बनउलक हल । - छोटा बाबू हमनी के हक मार के सब धन हड़प लेलन । सोमनाथ सफाय देथ तो केकरा ? तीन भतीजी के बियाह करना, ई जुग में कोय मामूली बात हे ? हम का हड़पली ? तोर बाप एक्को रूपइया पूंजी छोड़ के मरलथुन हल ?) (अरंबो॰55.23)
701 सबुनाना (= साबुन लगाकर कपड़ा आदि साफ करना) (मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी ।) (अरंबो॰34.8)
702 समांग (आखिर अप्पन पइसा आउ समय खर्चा करके, अप्पन समांग गला के काहे एत्ते उपकार के बात में ऊ लगल हथ ? जरूरे एकरा में कउनो न कउनो कोय मकसद छिपल होत ।) (अरंबो॰56.24)
703 समाना (= अ॰क्रि॰ घुसना; स॰क्रि॰ घुसाना) (एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।) (अरंबो॰75.11)
704 समुच्चे (= समूचा; सम्पूर्ण) (एकबैग समुच्चे घटना ओक्कर आँख के आगे कौंध गेल ् ऊ बेड पर से उठे के कोरसिस करे लगल । मगर देखऽ हे कि उठे के जिरिक्को सकतीए नञ मिल रहल हे । ओक्कर हाथ-पैर कोय बरिआर जउरी से जइसे बँधल हे ।) (अरंबो॰102.27)
705 सर-सरजाम (सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत । फिनूँ परबियो लगी तो सर-सरजाम लेवे के हे । दुइए रूपइया में सब्भे करे के हे ।) (अरंबो॰92.13)
706 सराध (= श्राद्ध) (नानी मरल, नाता टूटल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?) (अरंबो॰19.20)
707 सरी (= सरकंडा) (तुरतमें ऊ किलान पर से दोआत निकासलक । दोआत एकदम सुक्खल हल, से गिल्ला बनावे खातिर ऊ ओकरा में लोटवा से दू-चार ठोप पानी टपका देलक । फिन अप्पन टीन के बक्सा से एगो सरी के कलम निकासलक ।; बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।) (अरंबो॰95.8; 96.15)
708 सरेख (= जवान) (जइसे-जइसे सरेख होयत गेली, बाबू के बात समझ में आवे लगल हल । समझ का, बढ़े लगल, खोसी खतम होवे लगल आउ सरीरो कमजोर होवे लगल हल ।) (अरंबो॰63.2)
709 सलाय (= दियासलाई) (फिन एगो सिगरेट पीए के तलब होयल । डिब्बा से निकासलन । सलाय पर एगो काँटी घिसायल आऊ फुर से अवाज ।) (अरंबो॰50.3)
710 सले-बले (= चुपचाप; धीरे-धीरे, आहिस्ते से) (अनुशासन के मामला में खुब्बे कड़ा हलन । का मजाल, कउनो उनखा से नजायज काम ले ले । मगर सब बेअरथ । विमल जी के पछतावा होवऽ हे - अप्पन घरे जो सईंत नञ सकली ... । बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल ।; रामधनी के माय अमदी के गंध पइलक से झट खटिया पर से उठ गेल । रामधनी के पेआर करइत देखलक तो सले-बले पाया भिरी चल गेल । ओकरो आँख से लोर बह-बह के गिरे लगल ।) (अरंबो॰69.26; 94.8)
711 साध (= अरमान, इच्छा, कामना; साधु, संन्यासी; सज्जन) (सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल । छोटकनिया नेतो के लोक-सेवा के नाम पर पैरबी करे बिलौक, सहर, रजधानी जाय पड़ऽ हल ।) (अरंबो॰35.14)
712 साफ-सुत्थर (तीन बरिस से बेटी ला लइका ढूँढ़ रहली हे । बेटी बी.ए. औनर्स कइलक तभिए से । परकी साल एम.ए. । देखे में साफ-सुत्थर हे । बेस हे । ई सीता लगी एगो राम चाहऽ ही ।) (अरंबो॰73.12)
713 सार (= सारा; साला) (तखनिए एगो दोसर जुआन तमक के बोलल हल - कहलिअउ ने, ई सार खोफिया हउ खोफिया । हमनी के बात में बझा देलकउ आउ फँसा देलकउ ! सब तइयार हो जो ।) (अरंबो॰44.19)
714 सारा (= साला; गाली के रूप में भी प्रयुक्त) (धायँ । एगो आवाज । रामनाथ भुइयाँ पर गिरके छटपटा रहलन हल । - पकड़ ले सरबा के ! भागे न पाबउ !; सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल ।; एकबैक कड़कड़ायल अवाज उनखर मुँह से निकसल हल - रूक जाओ हत्यारो ! रूक जाओ !! ... आग कैसे लगी, मैं बताता हूँ । - अरे ! ई सरबा रंगरेजी बोलऽ हउ । दू डाँग देहीं, तब एकरो बात सुनल जाइत ई अदालत में ।; एगो जुआन नजीक आके देखलक हल - अरे, मर तो नञ गेलइ ? ... सरबा ओकील बनऽ हल ! रामनाथ जी के नजीक से देखतहीं ऊ जुआन के मुँह से निकस पड़ल हल - परफेसर साहेब ! ... गुरुजी ! ... हम चीन्ह नञ सकली ।) (अरंबो॰41.9; 43.4, 16, 22)
715 सिकड़ी (= सिकरी; साँकल) (रात में एक दिन सिकड़ी झनझनायल । सोमनाथ जी लम्फ तेज कइलन । बिजली नञ हल । चल गेल हल । दरवाजा खोललन - के हऽ हो ?; टिक-टिक, टिक-टिक ... टिकटिक-टिकटिक ... दुआरी के सिकड़ी कौनो बजा रहल हे । उठके केबाड़ी खोललन । - का हो रामौतार ? हाल-चाल बेस न ? एत्ते रात के ?; रातो भर डाकपीन, चिट्ठी आउ बाबा ओक्कर मगज में घुरइत रहल । लइका के सोतंत्र मन गुलामी के सिकड़ी से मुक्ति पावे ला छटपटा रहल हल ।) (अरंबो॰56.29; 68.15; 98.26)
716 सिरहाना (सिरहाना में रक्खल डिब्बा से निकास के दोसर सिगरेट सुलगा लेलन ।) (अरंबो॰48.6)
717 सिरी सोसती (= श्री स्वस्ति) (गेंदड़ा तल्ले से बिलसवा एगो मचोरल-मचारल सादा कागज निकासलक । पक्का पर ओकरा तान देलक आउ लगल अप्पन बाबा हीं चिट्ठी लिखे । सिरी सोसती, पुजनीए बाबा को परनाम !) (अरंबो॰95.18)
718 सिलेमा (= सिनेमा) (एक जनवरी के रात तक हम ठीके हली । पाटी खयली । सिलेमा देखली । नया साल मनौली ।) (अरंबो॰74.9)
719 सिलौट (= स्लेट) (दस-बारह मेहरारू एगो ललटेन घेरले बइठल हलन । सब करिया आदिवासी मेहरारू । सिलौट पर अक्षर-ज्ञान देल जा रहल हल ।) (अरंबो॰12.7)
720 सीरा (~ घर = घर की कोठरी जिसमें गृह देवता या देवी स्थापित रहती हैं; पूजाघर) (हम्मर बाबू जी एकदम पागल नियर हो गेलन । सीरा घर से एक-एक करके सब देवी-देओतन के निकास फेंकलन । रोज सीरा घर में पहिले देवी-देओतन के भोग लगऽ हल । तब कोय भोजन गरहन कर सकऽ हल । मगर दू-तीन बरिस में एतना मउअत ? ई देवी-देओतन के रहइत ?; देवी-देओतन जे निकास देल गेलन हल, ओही सीरा घर में तो नञ, मगर किराए के मकान में अब फिन स्थापित हो गेलन हे ।) (अरंबो॰78.23, 24; 80.16)
721 सीसा (नञ जाने गोस्सा हमरा में केन्ने से आके समा गेल हल । जे नाना से आझ तक रूबरू नञ बतिऔली हल, से किताब-कौपी उठाके उनके सामने फेंक देली । जापानी चक-चक बइठकी में गोस्सा से एक सूट मारली । सीसो फूट गेल आउ गोड़ो कट गेल ।) (अरंबो॰50.22)
722 सुक्खल-साखल (अइसे बाबू जी के उमिर सतहत्तर-अठहत्तर बरिस से कम नञ होत । एक-दू बार मरे से बचलन हे । सरीर पर मास बहुत कम । सच पूछऽ तो सुक्खल-साखल सरीर ।) (अरंबो॰82.27)
723 सुतना (= सोना) (नञ हो बुचकुन, आझ भूख नञ हे । हम्मर फेरा तों छोड़ । तोहनी खा-पी के सुत रह ।; थोड़े देर में भइया होस में आ गेलन । एन्ने-ओन्ने, हमनी दन्ने ताकलन । सायद उनखा सुस्ती लग रहल हल । फिनुँ सुत गेलन ।; रात में पोता, भोले बाबू जउरे सुते चल आवऽ हल । बाबा, पोता के कहियो 'नन बितना' के, तो कहियो 'कम खोराक' के, तो कहियो 'थूक तोर दाढ़ी में, बन्दूक तोर मोछ में' वाला खिस्सा सुनावथ । कखनी पोता सुत जाए तो कखनी बाबा, से पते नञ चले ।; खिस्सा चलइत रहल । दादी-पोता खिस्सा कहते-सुनते कखनी सुत गेलन, एक्कर केकरो खबर नञ ।) (अरंबो॰38.15; 61.17; 87.14, 17; 93.24)
724 सुनबाय (= सुनवाई) (तूँ कौन हऽ ? रात में काहे बउड़ायल चलऽ हऽ ? फेन सरदार बोललन हल - ई अदालत में एकरो सुनबाय हो जाइत । अभी तनी छउँड़ा के फैसला कर लेवे दे ।) (अरंबो॰42.13)
725 सुराजी (= स्वराज्य) (तब से ई नियम बन गेल हल । कउनो सुराजी मिटिन, पन-छो कोस के गिरिद होवे, ऊहाँ पहुँचना उनखा जरूरी हल ।) (अरंबो॰35.6)
726 सेक्कर (~ बाद = सेकर बाद; उसके बाद) (सेक्कर बाद नाना हमरा दादी हीं पहुँचा देलन हल ।) (अरंबो॰51.1)
727 सेल (= स्पर्द्धा आदि प्रारंभ करने का शब्द) (नानी झुठे-झुठे कहके बिना चिनिए वाला दूध पिला देलक । अब नानी हीं माय साथे जो अइवो करऽ ही, तइयो ओक्कर बात नञ मानऽ ही । ... हेरे ! ... हेरे !! ऊ करइत रहऽ हे आउ हम सेल कबड्डी पार । पहुँच जा ही अप्पन गोल में । मेखना, कलिया, जमापतिया, रमजीया आउ केत्ते ने लड़का बगइचा में भेंटा जा हे ।; लइका आउ घोड़ा तनी सोख होवे के चाही हो बिसुन ! मगर तों जो कहलाँ तो हम डाँट देम । ... मिन्टुआ जे ओहीं पर मड़ला रहल हल, सेल कबड्डी पार । ढेर बात मिन्टू सम्बन्धी आज रामदीन जी के आद पड़ रहल हे ।) (अरंबो॰17.18; 32.3)
728 सेवा-सुरसा (= सेवा-शुश्रूषा) (विमल जी के जब पीरी होल, इयार-दोस सब मिल के अस्पताल, डागडर कइलन । देखउलन-सुनउलन । लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।) (अरंबो॰69.15)
729 सैद (= शायद) (ई पोस्टर के अरथ लगावे के कोरसिस करऽ ही । सैद अरथ के नजदीक पहुँचियो जाही । ई उघरल सच हे कि बुतरू ला जइसे भोजन में माय के दूध जरूरी हे, ओयसहीं वयस्क ला शिक्षा ।; दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे ।; कानाफूसी होवे लगल - अध्यक्ष महोदय भ्रष्टाचार के खिलाफ हथ । पइरवी के खिलाफ हथ । ... कातो फेन से इंटरव्यू ला कागज भेजावल जाइत । सैद सब कुछ रद्द कर देल जाइत ।; जे देवी-देओता हमर कुल के नास रोक नञ सकलन, उनखर पूजा-पाठ काहे ला ? सैद हम्मर बाबू जी के मन में एही विचार तखनी होयत ।; अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । बस से उतरतहीं भर राह आँख फाड़ले रहली - सैद जो कौन इयार-दोस भेंटा जाथ ।; बाबू जी के अब कचहरी जाय के मन नञ करऽ हे । ओकालतखाना में उनखर उमिर के सैदे ओकील-मोखतार जी बच रहलन हे । केकरा से बोलतन-चालतन ?) (अरंबो॰11.10; 12.1; 25.11; 78.29; 81.2; 82.15)
730 सोझे (= सीधे, बिलकुल सामने तरफ) (सपासप पछिया चल रहल हल । गरमी के दुपहर । पसेना से तरबतर रमबिलसवा घोड़िया के रह-रह के ताल देले हल । ओकरा सोझे पच्छिम जाय के हे । आउ एत्ते कड़ा धूप । घोड़ियो बनाय तरी हाँफले हे ।) (अरंबो॰99.2)
731 सोतंत्र (= स्वतंत्र) (रातो भर डाकपीन, चिट्ठी आउ बाबा ओक्कर मगज में घुरइत रहल । लइका के सोतंत्र मन गुलामी के सिकड़ी से मुक्ति पावे ला छटपटा रहल हल ।) (अरंबो॰98.26)
732 सोहराय (जब बिलसवा गम गेल कि सब कोय मेला देखे चल देलन तो ऊ अप्पन आँख खोललक आउ उठ के कोठरी के केबाड़ी भितरे से लगा लेलक । सामने खिड़की पर सोहराय के दीया टिमटिमा रहल हल ।) (अरंबो॰95.3)
733 सौंसे (= सउँसे; समूचा, सम्पूर्ण) (मुचकुन जी चाह के कप उठइलन हल । हाकिम सौ के एगो नोट अप्पन कोट के जेभी से निकास के मुचकुन जी दन्ने बढ़उलन हल । - बिलास जी का काम आपके सिफारिश से तुरंत हो जाएगा । यह आपका हिस्सा । - जी ! - गरम चाह से मुचकुन जी के सौंसे कंठ झौंसा गेल हल ।; पहलमान के आँख भरभरा गेल । बोलल - एही नञ मंझला भइया, ओकरा तो गामे नञ, ओकरा तो सौंसे देसे मुरूख से भरल लगऽ हे । तों अंग्रेजी में बी.ए., एम.ए. बेकारे कइलऽ ।) (अरंबो॰37.22; 65.24)
734 हँड़िया (= हाँड़ी+'-आ' प्रत्यय) (हमनी पाँचो भाय पाँच जगह रहे लगली । सबके हँड़िया अलग-अलग । कधियो बिआह-सादी में एक्के ठामा जमा होली ।) (अरंबो॰67.16)
735 हँसी-खोसी (= हँसी-खुशी) (कोय के हँसी-खोसी के परभाव ओकरा पर नञ पड़ल हल । मगर ई देख के, ओकरो आँख छलछला आयल । ओक्कर लोर से डाँड़-टिल्हा, घर-दुआर सब्भे ओद्दा हो गेल ।) (अरंबो॰94.18)
736 हँस्सी (= हँसी, मजाक) (बच्चा, भइया से हँस्सी कइलक - का भइया, अभियो तोरा रेलेगाड़ी चलावे के मन करऽ हो ? - से का ? - मंझला भइया कहऽ हलथुन कि भइया टी टी, छिक-छिक करइत रहऽ हथुन । अब तो तोरा रिटायरो कइला बरिस भर होलो ।; भोला बाबू के आद पड़ऽ हे - हाँ, कल्हे राते तो हँस्सी के अवाज आयल । आँख झपकल जा रहल हल, से खुल गेल । ई, बेटा-पुतोह के हँसे के अवाज हल ।) (अरंबो॰64.14; 87.24)
737 हजूर (= हुजूर) (हाँ हजूर, एही ऊ कोनमा आम हे । एही पेंड़ लेल तो ... । तखनी आसमान चौखुट्टा हल । दुनियाँ अँगने भर के । भइया अँगना में लोहा के पहिया के गाड़ी चलावऽ हलन ।) (अरंबो॰17.1)
738 हड़-हड़ (~ पानी टानना) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰20.2)
739 हम्मू (= हमहूँ; हम भी) (अरे ! हम्मू बाज आवे वाला अमदी थोड़हीं हूँ । डागडर बाबू से कहम - जउन दिनमा पिअरिया अच्छा हो जइतो, ओही दिनमा तोरा हम एगो सीसों के विलायती खुटी बना के देबो ।) (अरंबो॰101.3)
740 हरवाहा (बंशीधर नाम सुनलऽ हे ? ई लइका उनखर हे । सब गैर मजरूआ आम जमीन के मालिक । … बित्तन दुसाध के बाप-दादा उनखरे जमीन जोतइत-कोड़इत रहलन । उनखर घर में चोरी होल, बित्तन दुसाध जेल में । सौंसे गाम जानऽ हे - चोरी के कइलक आउ चोरी के करइलक हल । ... एतनिए कसूर हल कि तनी ऊ अईंठ के बोलऽ हल । ... रामजतन हरवाहा मजूरी माँगलक हल - सौंसे बदन सुक्खल जुत्ता आउ लाठी से फोड़ देल गेल हल ।) (अरंबो॰44.4)
741 हरसट्ठे (= हरमेसा; हमेशा) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।) (अरंबो॰96.17)
742 हहरना (- नञ, हम लेम तो ओइसने लेम ! - ओइसन लेके तूँ का करम्हीं रे, आँय ? तोरा ओकरो से नीमन ला देबउ । ओइसन पोवार नीयर पीयर फुचकारी का लेमँऽ, तोरा हम चानी नीयर चमचम ला देबउ । हहरऽ हँ काहे ला ?) (अरंबो॰91.4)
743 हहास (~ मारना) (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।) (अरंबो॰72.25)
744 हाँहे-फाँफे (= हाँफे-फाँफे) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।) (अरंबो॰92.20-21)
745 हाथ-गोड़ (= हाथ-पैर) (साँझ होयत हीं पढ़े ला बइठ जाना जरूरी हल । हाथ-गोड़ धोके, चक-चक जपानी बइठकी भिजुन किताब लेके हमरा बइठना जरूरी हल ।; अच्छा, चलऽ, हाथ-गोड़ धोवऽ, फिन बतियायम ।) (अरंबो॰49.18; 69.3)
746 हारना-पारना (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल । देर रात हार-पार के अध्यक्ष महोदय बउआ के एगो फोटो लेले थाना पहुँचलन ।) (अरंबो॰25.19)
747 हिरिस (= हिर्स; आदत; बुरी लत; देखा-देखी; डाह; लालच) (लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।) (अरंबो॰92.11)
748 हीं (= के यहाँ) (गिरीश हीं बइठकी में हम, गिरीश रंजन, हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी आउ जिज्ञासा प्रकाशन के प्रकाशक श्री सत्येन्द्र जी गपशप में मसगूल हली । बात-बात में हम्मर कहानी संग्रह के प्रकाशन के बात उठल । पांडुलिपि तइयार हल ।; माय के मन खराब रहे लगल । बाबू, माय के नानी हीआँ भेज देलन । साथे-साथे हमरो । जेन्ने-जेन्ने मइया, ओन्ने-ओन्ने बछवा ! बाबा हीं से नानी हीं अइली ।; जल्दी-जल्दी कपड़ा पहिर के ऊ मंत्री जी हीं चल देलन ।; मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।; एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।) (अरंबो॰9.20; 18.22; 31.6; 75.10)
749 हीआँ (= हियाँ; यहाँ) (माय के मन खराब रहे लगल । बाबू, माय के नानी हीआँ भेज देलन । साथे-साथे हमरो ।; साढ़े सात बजे घड़ी देख के बंशीधर जी के हीआँ से चललन हल । गाड़ी पकड़े ला, टीसन । मोसकिल से तीन पाव जमीन टीसन पहुँचे में आउ रहल होत, बिच्चे में अपने से, ई जोखिम में फँस गेलन हल । बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल ।) (अरंबो॰18.21; 42.16, 18)
750 हीयाँ (= हियाँ; यहाँ) (हीयाँ के लोग निरक्षर हथ । अंधकार में डुब्बल हथ । अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में हीयाँ के लोग के लावे के हे ।) (अरंबो॰13.11,12)
751 हुँआँ (= वहाँ) (रमबिलसवा भोकार पाड़-पाड़ के रो पड़ल । डागडर साहेब से बरदास नञ भेल, से ऊ अप्पन टोप हिलइते-डुलइते हुँआँ पर से चोर नीयर चुप्पे-चाप घसक देलन।) (अरंबो॰103.10)
752 हुंह (एकरा चीन्हऽ हऽ रामदीन जी ? एही न हम्मर एकलौता बेटा, मिन्टू हे । फेन मिन्टू दन्ने मुँह करके पारस जी कहलन - तनी चच्चा के डाँट तो दे । डेरा तो दे । लइका खुब्बे जोर से 'हुंह' कइलक । फेन आँख तरेरे लगल । - हाँ-हाँ, हो गेल । अब हो गेल ।) (अरंबो॰31.11)
753 हुरना (हमरा कहानी संग्रह छपावे ला मगध यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष डॉ॰ ब्रजमोहन पाण्डेय नलिन हमरा हुरइत रहऽ हलन । किसान कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष आउ हम्मर मित्र प्रो॰ वीरेन्द्र कुमार वर्मा प्रकाशन ला हमरा कम दिक नञ कइलन ।) (अरंबो॰9.14)
754 होय (अगे ~ !) (रमबिलसवा अप्पन घरावली दन्ने मूहाँ कर के बोलल - अगे होय ! सुनऽ हीं, डागडर हीरो बाबू बड भलमानस हथिन । जइथीं के साथ ऊ तो पूछे लगतन - क्या है ? कैसे आए हो ?; फिनूँ रमबिलसवा के धिआन पिअरिया दन्ने गेल । - अगे होय ! दरदिया जिरी-मनी कमलउ कि नञ ?) (अरंबो॰99.4; 101.8)