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Wednesday, August 01, 2012

66. कहानी संग्रह "अजब रंग बोले" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द


अरंबो॰ = "अजब रंग बोले" (मगही कहानी संग्रह), कहानीकार श्री रवीन्द्र कुमार; प्रकाशक - जिज्ञासा प्रकाशन, झेलम अपार्टमेन्ट, राजेन्द्रनगर, पटना: 800 016; प्रथम संस्करण - 2000  ई॰; 103 पृष्ठ । मूल्य 120/- रुपये ।

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कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 754

ई कहानी संग्रह में कुल 16 कहानी हइ ।


क्रम सं॰
विषय-सूची 
पृष्ठ
0.
हमरा ई कहना हे
5-6
0.
हमरो ई कहना हे
7-9
0.
यथाक्रम
10-10



1.
उज्जर कौलर
11-16
2.
कोनमा आम
17-21
3.
व्यवस्था
22-27
4.
अभिभावक
28-33



5.
उपास
34-39
6.
आग
40-45
7.
नो बज्जी गाड़ी
46-51
8.
खीरी मोड़
52-60



9.
घर बड़का गो हो गेल
61-67
10.
कन्धा
68-72
11.
देओतन के बापसी
73-80
12.
फालतु अमदी
81-85



13.
सूअर
86-90
14.
पित्तर के फुचकारी
91-94
15.
मन के पंछी
95-98
16.
सभ्भे स्वाहा
99-103

ठेठ मगही शब्द ("" से "" तक):
601    मंगली (= मांगलिक) (बेटी के एम.ए. तक पढ़यली । ... बेटी के उमर बढ़ रहल हे । ओक्कर बियाह एसों करना जरूरी हे । मंगली हे । जल्दी ओक्कर टीपन केकरो से मेले नञ खाहे । मन लायक लइका चाहऽ ही । मगर ओकरा ला तिलक-दहेज दे सकम ?)    (अरंबो॰79.13)
602    मंझला (~ भइया) (बच्चा, भइया से हँस्सी कइलक - का भइया, अभियो तोरा रेलेगाड़ी चलावे के मन करऽ हो ? - से का ? - मंझला भइया कहऽ हलथुन कि भइया टी टी, छिक-छिक करइत रहऽ हथुन । अब तो तोरा रिटायरो कइला बरिस भर होलो ।; दु-चार दिन पहिले हम्मर बेटा बड़कू आउ पहलमान के मंझला बेटा एक दोसरा के आमने-सामने बन्दूक लेले ललकारइत हल ।; ईसों मंझलो तो रिटायर हो गेलो । गाम आवऽ हउ ? का तो शहर में प्रेस खोललक हे । किताब छापऽ हे । सवाल छापऽ हे ।; पहलमान के आँख भरभरा गेल । बोलल - एही नञ मंझला भइया, ओकरा तो गामे नञ, ओकरा तो सौंसे देसे मुरूख से भरल लगऽ हे । तों अंग्रेजी में बी.ए., एम.ए. बेकारे कइलऽ ।; बड़का बेटा एम.एस-सी. के इम्तिहान दे रहल हे । मंझला, नागपुर में इंजियरी पढ़ रहल हे । तेसरका मेडिकल के कम्पीटीसन के इम्तिहान में बइठल हे ।)    (अरंबो॰64.17, 22; 65.5, 22; 79.7)
603    मउअत (= मौत) (शायद जिनगी भर अमदी अपनहीं के खोज करइत रहऽ हे । अप्पन मट्टी, अप्पन स्वरूप आउ अप्पन मूल प्रकृति के पकड़े के कोशिश ऊ करइत रहऽ हे । 'कोनमा आम' शायद अइसने एगो कोशिश हे । जिनगी में वितृष्णा के भाव जब प्रबल हो जाहे तो 'फालतू अमदी' अप्पन मउअत के इन्तेजार करऽ हे ।; राजधानी से गाम ऊ लउट अइलन हल । सात-आठ दिन बाद एगो शोक-संदेश मिलल । न्योता हल, मिन्टू के मउअत के ब्रह्म-ज्योनार के ।; फिन छनका लगल - छन !! बाप रे ! ... मइया के मउअत ! अब पूरा घर जोड़े वाला कड़ी भी गायब ।; एन्ने बाबू जी हमरा पास कम खत लिखऽ हथ । मगर उनखर हर खत में कउनो न कउनो इयार-दोस के मउअत के चरचा जरूरे रहऽ हे । हम्मर मेहरारू अइसन खत पढ़ के बुदबुदा हलन आउ फिन खत फाड़ के बिग दे हलन । उनखो लगऽ होत, अइसन ने मउअत के मनहूस कार छाया उनखरो छोट परिवार पर न पड़ जाय । मन में अनदेसा उठे लगऽ होत ।)    (अरंबो॰7.13; 31.1; 55.20; 82.21, 23)
604    मगही (एकबैग ओकील साहेब दन्ने मुँह करके हम पूछली - अब का करे के हे ? मगही के एगो हम्मर मुँह से निकसल बात लोग नञ समझ रहलन हे । अचरज से हम्मर मुँह ताक रहलन हे ।)    (अरंबो॰21.9)
605    मचोरना-मचारना (गेंदड़ा तल्ले से बिलसवा एगो मचोरल-मचारल सादा कागज निकासलक । पक्का पर ओकरा तान देलक आउ लगल अप्पन बाबा हीं चिट्ठी लिखे ।)    (अरंबो॰95.16)
606    मच्छड़-डाँसा (कछुआ छाप अगरबत्ती के धुइयाँ कोठरी के हवा में मिल-जुल गेल हल । मच्छड़-डाँसा कहीं दबकल पड़ल होता ।)    (अरंबो॰71.14)
607    मजिस्टेट (= मजिस्ट्रेट) (फेन दोसर बेर दुमका के ओही क्षेत्र में अइली हे । आदिवासी आउ दिक्कू में कुछ टेंशन हे । तीर-धनुष आउ बन्दूक से लड़ाय होवऽ । मजिस्टेट, पुलिस सब गस्ती लगा रहलन हे ।)    (अरंबो॰14.1)
608    मजूर (= मजदूर) (देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।)    (अरंबो॰58.25)
609    मजूरी (= मजदूरी) (बाबू, जंगले हमनी के घर हल । आझो घर हे । जंगली जानवर के सिकार करऽ हली । जंगल के बचल-खुचल जमीन पर थोड़े-थाक खेती-बारी करऽ हली । सरकारी कानून बनल आउ जंगल से हम आदिवासी बेदखल हो गेली । का तो जंगलो से लकड़ी काटे के काम गैरकानूनी हे । ... हमनी कानून, नियम का जाने गेली । ... बाबू, सहर आउ गाम तोरे हलो आउ जंगल तोरे हो गेलो । मजूरी के सिवाय आउ हमनी ला का बचल हे ? जंगल के ठेकेदार हमनी सबसे सब काम ले हे । मजूरियो बहुत्ते कम दे हे । ... ई पूछऽ न बाबू, तनी सा मजूरी देके हमनी से का का नञ ले लेहे ?; देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।)    (अरंबो॰15.16, 17, 18; 58.26)
610    मटर (= मोटर) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !; बड़गो-बड़गो किसान बरसात से निरास होवे पर, अप्पन-अप्पन खेत में कुइयाँ खनउलन । मटर बइठउलन । मुचकुन जी के आद हे, बिलास जी सोमार के उनखा पास अइलन हल । उनखा से कहलन हल - तोहूँ अप्पन खेत में कुइयाँ खना लऽ, मटर बइठा लऽ । पुरान सुराजी अमदी हऽ । तोरा सब असानी से मिल जइतो ।; खखस के, गियारी साफ करके बोललन हल - का सरकार मुस्तीये {? मुफ्तीये} में मटर दे दे हथ ?)    (अरंबो॰20.2; 35.26, 27; 36.7)
611    मटियाना (= उपेक्षा करना, ध्यान न देना; उदासीन होना; सुस्त पड़ना; मिट्टी से साफ करना) (हाँ, एगो फरक ऊ महसूस करऽ हथ । लइकन सब, जे पैर छूके परनाम करऽ हल, अब खाली हाथे जोड़ के परनाम करऽ हे । कउनो-कउनो तो मटिआइयो देहे । जब से बेटा बागी हो गेल हल, डाँट-फटकार कर के अप्पन अधिकार अपने समाप्त कर लेलन हल ।; अजी बाबा ! तूँ हमरा अपने भिरी बोला लऽ । हम तोहर सब कहना मानबो । अब पढ़े से नञ मटिअइबो । मन लगा के तोर गोड़ो दाबबो ।)    (अरंबो॰54.17; 97.22)
612    मट्टी (= मिट्टी) (शायद जिनगी भर अमदी अपनहीं के खोज करइत रहऽ हे । अप्पन मट्टी, अप्पन स्वरूप आउ अप्पन मूल प्रकृति के पकड़े के कोशिश ऊ करइत रहऽ हे ।)    (अरंबो॰7.10)
613    मद्धिम (= धीमा) (बतिया फिनूँ मद्धिम होल जा रहल हल । बिलसवा ओक्कर बत्ती अबरी जादे उसका देलक । दीया के बतिया मटमटायल आउ तेज होके लहके लगल ।)    (अरंबो॰96.25)
614    मनुआना (तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली । मगर जमायत होइतहीं हम अकेल्ला पड़ जा हली । किनारे-किनारे हम ढेला-ढुक्कर के जुत्ता से सूट मारइत, मनुआयल चलइत रहऽ हली ।)    (अरंबो॰83.14)
615    मम्मा (= मामा; दादी) (बाबू बीसे-एकइस बरिस के होतन कि बाबा मर गेलन । मम्मा अप्पन नइहर गेल हल, जइसन सुनऽ ही । बाबू उनखा लावे ला अप्पन नानी-घर गेलन । एन्ने लूटपाट मच गेल । ... मम्मा के आवे पर, सुनऽ ही, बाबा के लहासो उठावे के पइसा नञ हल । फिन हम्मर छोटा बाबू अइलन । मम्मा के आँख में ऊ जरिक्को नञ सोहा हलन । ... छोटा बाबू के हम्मर माय के गोदी में दे देलन । ... मम्मा जादे दिन नञ बच सकल ।)    (अरंबो॰78.10, 13, 14, 17)
616    मम्माँ (= मम्मा; दादी) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।)    (अरंबो॰92.20)
617    मरना-पछड़ना (शेरसिंह जिनगी में अब तक कुछ नञ कर पइलन हे । शहर में एगो मकानो नञ बना सकलन हे । दू कोठरी वाला मकान किराया लेले हथ । कयसूँ मर-पछड़ के एगो बेटी के बिआह कइलन हे ।)    (अरंबो॰47.16)
618    मर-मिठाय (बिलसवा रात के बाकी काम मन लगा के कइलक । भतपकवा पाँड़े के गोड़ो मन लगा के दबउलक । पाँड़े जेकरा पर पुछियो बइठल - आझ मर-मिठाय खूब मिललउ का रे ? - हूँ । कहके बिलसवा चुप्पे रहल ।)    (अरंबो॰98.2)
619    मर-मोकदमा (दिन-रात मर-मोकदमा, कोट-कचहरी, छल-परपंच से हम्मर मन अब भर गेल हे ।)    (अरंबो॰65.2)
620    मराना (= अ॰क्रि॰ मारा जाना; स॰क्रि॰ मरवाना) (अरे ऊ मरायत हल थोड़े, ओक्कर साथिए-संगी ओकरा मरवा देलक ... कातो ओहू अप्पन दोस के मार देलक हल ।)    (अरंबो॰28.3)
621    मलकिनियाँ (= मालकिन) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।)    (अरंबो॰96.18)
622    मलेटरी (= मिलिट्री) (करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे । जब से पीरी होल, तब से उनखर ढाँचा में ई परिवर्तन आयल । जखनी पेन्हले-ओढ़ले रहऽ हलन, तब लोग उनखा मलेटरी के कौनो भारी अफसर बुझऽ हलन । पीरी के बाद उनखर जे बदन टूटल, से फिन बनल नञ ।)    (अरंबो॰68.6)
623    मसुरी (= मसूर) (गंगा माय फिन निगलल खेत उगल दे हलन । तखनी तक एक पसल मारल जा हल । फेन कुछ गोहूँ, कुछ मसुरी आउ कुच्छो से कुच्छो उपजऽ हल ।)    (अरंबो॰62.17)
624    मसोमात (= विधवा) (हाँ रे, विलास जी के तो बढ़ती हइए हे -  एगो जुआन बिच्चे में टोक के कहलक - अइसे तोहनी विलास जी के बारे में जे कह लऽ, मगर ई बात दुनियाँ जानऽ हे कि मसोमतिया के खेत हड़प के ऊ अप्पन बढ़ती देखा रहलन हे ।)    (अरंबो॰20.6)
625    मस्टरनी (= मास्टरनी, शिक्षिका) (हाकिम मस्टरनी से पुछलन - ठीक-ठाक चलइत हो न ? - हाँ बाबू, सब ठीके चलइत हे । फेन बोलल - हम्मर बच्चा बेमार हे ।; हम दुन्नू अमदी मस्टरनी के मुँह देख रहली हल ।)    (अरंबो॰12.8, 13)
626    मस्टरी (= मास्टर या शिक्षक का काम) (सोमनाथ जी के समय डागडरी आउ मस्टरी में कट रहल हे ।; अपने भोला बाबू पढ़े-लिखे में बेस हलन । मगर इन्टर के बाद पढ़ाई छोड़े पड़ल हल । मस्टरी सुरू कइलन हल । फिन ग्रेजुएट होलन । मगर मस्टरी के चक्कर से नञ छुटलन ।)    (अरंबो॰59.16; 86.13)
627    महिन्ना (= महीना) (अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । ... दुपहरिया में लाला भइया हीं जाय लगली । सटले दखिनबारी घर, लाला भइया के हे । अप्पन घर से जादे ई घर में हम्मर लइकइयाँ कटल । ... अनचोक्के इयाद पड़ल - हम केकरा से मिले जा रहली हे ? लाला भइया के सोअरग सिधारला दू महिन्ना हो गेल । बाबू जी चिट्ठी लिखलन हल ।; तीन-चार महिन्ना से ओक्कर पढ़ाय छुट्टल हे । एन्ने माय मरल आउ ओन्ने पढ़ाय साफ ।)    (अरंबो॰81.8; 95.9)
628    मामू (= मामा) (मामू के माथा मूड़ल हल । डाढ़ी-मोछ साफ । नाना के चंदला माथा आउ चिक्कन भे गेल हे । नाना के मुँह उदास लगऽ हे ।; मामू जी, आप भी घर के बाहर चले जाएँ तो अच्छा होगा । - ई आदेश शेर सिंह के हे । मामू इसारा कइलन आउ एगो अदमी बइठका से बाहर चल गेल । शेर सिंह जब गोस्सा में आवऽ हथ तो अंगरेजिये-हिन्दी बोलऽ हथ । लइका, मेहरारू किनखो ई पूछे के हिम्मत नञ हे कि का भेल । मामू सन्न हो बइठल हथ । एतबड़ गोसबर तो उनखर भगिना कहियो नञ हल ।)    (अरंबो॰19.22; 46.5, 7, 9)
629    मार (~ लाठी, ~ लाठी; ~ सट्टी, ~ सट्टी) (ढेना के पुलिस वाला पकड़ के ले गेल हल । कुच्छो बेचारा जानवो नञ करऽ हल । कोय कसूर रहे तब न । ओक्कर बस एक्के गो कसूर हल । ऊ एगो जुआन मेहरारू के मरद हल । बस । ... ढेना केकरो टेरवो नञ करऽ हल । ... हमनी अमदी नञ ही ? हमनी के इज्जत आउ लाज नञ हे ? ... ढेना दरोगा के मुँह पर जो थूकियो देलक तो कउन कसूर कइलक हल ? दरोगा तो ठिकेदार के अमदी बन के आयल हल । एकरे ला ढेना के मार लाठी, मार लाठी सब चूर देलन हल ।; रोक के घुमावे खातिर घोड़िया के लगाम खींच लेलक । से घोड़िया हिनहिनाय लगल आउ लगल लेताड़ी मारे । गोस्सा से रमबिलसवा ओकरा मार सट्टी, मार सट्टी धुन देलक । घोड़िया अकास से बात करे लगल ।)    (अरंबो॰15.30; 102.15)
630    मारा (= अकाल, दुर्भिक्ष) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !)    (अरंबो॰19.28)
631    मारा-पीटी (= मार-पीट) (हम अप्पन बोली जिरी रोवल नियर बना के बोलम - डागडर बाबू, हम्मर बुढ़िया के जान बचा दऽ । ओकरा साथ रहइत सताइस बच्छर गुजर गेल से पतो नञ चलल । एतना उमिर खाली मारा-पीटी करे में, पीए में आउ जुआबाजी में बीता देलूँ ।)    (अरंबो॰100.29)
632    मास (= मांस) (अइसे बाबू जी के उमिर सतहत्तर-अठहत्तर बरिस से कम नञ होत । एक-दू बार मरे से बचलन हे । सरीर पर मास बहुत कम । सच पूछऽ तो सुक्खल-साखल सरीर ।)    (अरंबो॰82.27)
633    मास्टरी (= मस्टरी) (सरकारी इसकूल में मास्टरी करऽ हली । जगन्नाथपुर में । बिहार आउ उड़ीसा के बोडर पर ।)    (अरंबो॰71.19)
634    मिंझाना (= अ॰क्रि॰ बुतना; बुझना; स॰क्रि॰ बुता देना; बुझाना) (दीयवा मिंझाइल जा रहल हल । से बिलसवा ओकर बत्ती उसका देलक । दीया में तेल तो भरले हल, खाली बतिए जिरी जर गेल हल ।)    (अरंबो॰96.13)
635    मिआज (= मियाज; मिजाज) (मुँह पर से अँचरा जइसि हटावऽ हे कि ओकर मिआज भय से भर गेल । मुहाँ केत्ते घिनामन लग रहल हल ।)    (अरंबो॰101.14)
636    मिटिन (= मीटिंग; बैठक, सम्मेलन) (तब से ई नियम बन गेल हल । कउनो सुराजी मिटिन, पन-छो कोस के गिरिद होवे, ऊहाँ पहुँचना उनखा जरूरी हल ।)    (अरंबो॰35.6)
637    मिठकी (= मीठी) (हम्मर घर से रमधानी पाँड़े के घर, फिन रमधानी पाँड़े के घर से रमजानी मियाँ के घर, फिन पतरकी गल्ली से घुम्मल-घुम्मल मिठकी कुइयाँ तक आउ फिन मिठकी कुइयाँ से असमान फइल गेल । नञ जाने कत्ते बड़गो होतइ ई असमान ! ... ... बामन कोस के ।)    (अरंबो॰17.14)
638    मुड़ेरा (कुइयाँ के ~) (रातो भर कुइयाँ में मुड़ेरा पर बइठ रहऽ हली । कुइयाँ में कुद जाय के मन करऽ हल । मंगला माय के किरपा, चौदह बरिस बाद इम्तिहान देली । यूनिवर्सिटी में टौप कर गेली । डिप्रेशन के मीनार जड़े से उखड़ गेल ।)    (अरंबो॰77.8)
639    मुरूत (= मूर्ति) (बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल । बत्ती जरा के एक खोराक दवाय बना के खा लेलन । भित्ती पर बुद्ध भगवान के मुरूत लटकल हल । बूढ़ा अमदी के अलचारी से एहू डरा गेलन हल ।)    (अरंबो॰69.28)
640    मुसकी (= मु्स्कुराहट, मुस्कान) (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।)    (अरंबो॰20.15)
641    मूँड़ी (= मूड़ी; सिर) (भोला बाबू के तनी खोंखी उठल । बलगम के एगो नुक्कल टुकड़ा खड़खड़ायल । मटर के खिड़की से मूँड़ी बाहर निकास के पच से फेंकलन ।)    (अरंबो॰86.9)
642    मूड़ी (= सिर) (गबड़ा भिरी खड़ा हली । तनी सा ठेला गेली । आउ गन्दा, बदबूदार पानी में गिर पड़ली । ... नाक से पानी भित्तर घुसे के कोरसिस कर रहल हे । हम मूड़ी उप्पर उठावे के कोरसिस कर रहली हे ।)    (अरंबो॰79.23)
643    मूतना (देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।)    (अरंबो॰58.26)
644    मेहरारू (= पत्नी; औरत) (मेहरारू के रोज-रोज के ताना करेजा छेद करऽ हे । ... तोरा की औकात हो ? दरिद्दर तो हऽ । बहिन के बियाह में सब कुछ लुटा देलऽ । अब तोरा के काम देतो ?)    (अरंबो॰79.16)
645    मैदान (चिट्ठी लिफाफा के भितरे रख देलक आउ ओकर मुँह भात से साट देलक । तब ओकरा अप्पन पैंट के नीचे कम्मर भिरी नुका लेलक । रतिए मैदान जाय के बहाने से एगो लोटा लेले बहरायल ।)    (अरंबो॰98.15)
646    मोछ (= मूँछ) (हम चाहऽ ही बड़गो होवे पर ऊ बिच्छा नियर बड़गो-बड़गो मोछ रख ले । लोग एकरा देखिए के भय खायथ ।)    (अरंबो॰31.15)
647    मोट (= मोटा) (हम दादा दन्ने हाथ बढ़ावऽ ही । अब ऊ हमरा जोरे चले लगलन । मोट रोटी लेले आवऽ हथ । ओकरा पर रखल हे पिआज के चार फाँक । फेन एगो गिलास में पानी लेले आवऽ हथ । घर में सब लोग हथ । दूर-दूर से ताकऽ हथ, मगर हमरा भिरी कोय नञ आवऽ हथ । हम अप्पन झोला से फोटू निकास के देखावऽ ही, मगर कोय नञ सटऽ हे । रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही ।; खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !; अपने कउनो कोचिंग इन्स्टीच्यूट से सम्बद्ध तो नञ हऽ ? ई सब मोट-मोट असामी के हिट लिस्ट पर रखऽ हथ ।)    (अरंबो॰14.16; 18.3; 29.27)
648    मोसीबत (= मुसीबत) (एगो बच्चा के रिरियाय के अवाज सुनली । हमरा लगल जइसे ऊ कउनो मोसीबत में फँस गेल हे ।)    (अरंबो॰42.3)
649    मौलना (= मउलना; झपकी आना; कुम्हलाना) (छठे किलास में नानी हीं से दादी हीं चल अयली हल । नाने हीं हली । रात हल । मगर आज नो बज्जी गाड़ी आइए नञ रहल हल । आँख मौले लगल । - शेरसिंह, तोरा पढ़े में मन नञ लगऽ हउ का रे ? - भारत के उत्तर में हिमालय पहाड़, दक्खिन में हिन्द महासागर ... फिन आँख मौले लगल ।)    (अरंबो॰50.7, 10)
650    रंगरेजी (= अंगरेजी) (एकबैक कड़कड़ायल अवाज उनखर मुँह से निकसल हल - रूक जाओ हत्यारो ! रूक जाओ !! ... आग कैसे लगी, मैं बताता हूँ । - अरे ! ई सरबा रंगरेजी बोलऽ हउ । दू डाँग देहीं, तब एकरो बात सुनल जाइत ई अदालत में ।)    (अरंबो॰43.16)
651    रजधानी (= राजधानी) (सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल । छोटकनिया नेतो के लोक-सेवा के नाम पर पैरबी करे बिलौक, सहर, रजधानी जाय पड़ऽ हल ।)    (अरंबो॰35.16)
652    रन्थी (= अरथी) (विमल जी दउड़ रहलन हे । रथ पर बइठल मुरती के चरन छुए ला । ... अन्धार हो गेल । ... बाबू के रन्थी ... भइया के रन्थी ... भउजी के रन्थी ... माय के रन्थी ... सब रन्थी चलल जा रहल हे ... ई का ? विमल जी देखऽ हथ सब में ओही कन्धा देले हथ । .. एक्के अमदी सब में, एक्के साथ कइसे कन्धा दे सकऽ हे ?)    (अरंबो॰72.7, 8)
653    रस्ता (= रास्ता) (रस्ता में हाकिम से पुछली - ई काम ला, इनखनी के केत्ते रूपइया भेंटा हे ? - मात्र पचास रूपइया । - बस, एतने ला एत्ते मेहनत ?; केकरो गलत रस्ता पे देख के ऊ डाँट दे हलन । कहियो कोय बड़गो अमदी भी उनखर डाँट के दायरा में आ जा हलन ।; उनखर सब चौकसी बेअरथ साबित हो रहल हल । लइका घरो से पइसा-कउड़ी चोरा के जन्ने-तेन्ने लापता होवे लगल हल । सोमनाथ जी के शक्ति लइका ढूँढ़े में, लइका के समझावे में, अच्छा रस्ता पर लावे में खरच होवे लगल ।)    (अरंबो॰12.17; 53.15, 22)
654    रस्से-रस्से (= रसे-रसे; धीरे-धीरे) (रस्से-रस्से साँझ हो गेल । फिनूँ रात । दादी-पोता ओसरे में खटिया पर पड़ गेलन । मम्माँ खिस्सा सुनावे लगल ।)    (अरंबो॰93.5)
655    राड़-थोड़ (= राड़-भोड़) (देखऽ सोमनाथ जी, राड़-थोड़ सिर चढ़ल जा रहल हे । खेत में जाय ला मजूरो नञ मिलऽ हे । मजूरी कत्ते बढ़ गेल । मगर अब तो ऊ सब आग मूतऽ हे । बढ़-चढ़ के बात करऽ हे ।)    (अरंबो॰58.25)
656    रिरियाना (एगो बुतरू के रिरियाय के अवाज कान में पड़ रहल हल । लगऽ हल, जइसे कउनो ओकरा डेंगा रहल हल ।; एगो बच्चा के रिरियाय के अवाज सुनली । हमरा लगल जइसे ऊ कउनो मोसीबत में फँस गेल हे ।)    (अरंबो॰41.13; 42.2)
657    रुक्कल (टमटम रुक्कल हे । ए-दू वकील हमरा साथ हथ । ... हाँ हजूर । एही ऊ बगैचा हे जेकरा में खून होल ... हाँ हजूर, एही ऊ कोनमा आम हे ।)    (अरंबो॰20.18)
658    रोबा-कन्नी (= रोबा-कानी; रोना-धोना) (एकबैग रोबा-कन्नी मच गेल । गीत-नाध सब रुक गेल । मौसी हमरा गोद में लेके रोबे लगल ! माय मर गेलौ ।)    (अरंबो॰18.28)
659    रोलाय (= रोना-धोना) (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।)    (अरंबो॰72.23)
660    रोसगद्दी (= रोसकद्दी; रुखसत) (हाय रे हाय ! रोसगद्दी के पहले रात से बेचारी दुखे-पीड़ा में रहल । दिवाली के दिनमा, जउन दिन पहला बार हम्मर घर में दाखिल होल, हम सब्भे कुछ जुआ में हार गेलूँ हल ।)    (अरंबो॰101.26)
661    लइकइयाँ (= लड़कपन, बचपन) (अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । ... दुपहरिया में लाला भइया हीं जाय लगली । सटले दखिनबारी घर, लाला भइया के हे । अप्पन घर से जादे ई घर में हम्मर लइकइयाँ कटल ।)    (अरंबो॰81.6)
662    लइका (= लड़का) (मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।)    (अरंबो॰31.6)
663    लउआ-लाठी (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !)    (अरंबो॰18.7)
664    लगी (= ला, लागी; के लिए) (एही ऊ कोनमा आम हे ? - जी सरकार । एही पेड़ लगी तो अपने गोतिये में सब खून फसाद भेल ।; नौकरी के आखरी बखत में भइया के पैंतालीस सौ, छियालीस सौ रूपइया तलब भेंटा हल । चार-पाँच सौ अपना लगी रख के सब पइसा ऊ पहलमाने के हाँथ में दे दे हलन । काहे ला ? - हैसियत बढ़ावे ला ।; देख, अबरी भर तूँ हमरा ला झूठ बोल ले । हम तोरा अब कधियो नञ मारबउ । तोरा जिरी सा डाँटवो नञ करबउ ! कत्ते पिआर हम्मर मन में तोरा खातिर हे । देख, एत्ते अंधड़ो-बतास में हम तोरा लगी घर से निकस अयलूँ ।)    (अरंबो॰21.1; 67.10; 100.10)
665    लड़ाय (= लड़ाई) (फेन दोसर बेर दुमका के ओही क्षेत्र में अइली हे । आदिवासी आउ दिक्कू में कुछ टेंशन हे । तीर-धनुष आउ बन्दूक से लड़ाय होवऽ । मजिस्टेट, पुलिस सब गस्ती लगा रहलन हे ।)    (अरंबो॰14.1)
666    लबज (= लफ्ज) (कॉलेज में अंगरेजी दू-चार लबज का पढ़ लेलक, बोलले चलऽ हे - बड़का बाबू मिसफिट हथ । उनखा कमाय के लूरे नञ हे । सब लूर ओकरे कपार मे आ के जमा हो गेल ?)    (अरंबो॰38.25)
667    लमछड़ (= लम्बा) (पचास बरिस पार के अमदी । भक-भक गोर हला । अब तनी पीयर लगऽ हथ । चौड़ा गट्टा से मास के परत काफी उतर चुकल हे । लमछड़ शरीर । उज्जर बाल । करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे ।; एही एगो माध्यम हे जेकरा खटा-खटा के, मेहनत करके कमाय कर सकऽ ही । एकरे जो जोगा के रख दी तो बाल-बच्चा के भविष्य उज्जर कइसे होयत ?)    (अरंबो॰68.4; 89.27)
668    लम्फ (= लफ, ललटेन; लालटेन) (- "बाबूजी, 'अनुभव' माने ?" लम्फ के रोसनी में एगो लइका हिन्दी के किताब पढ़ रहल हे । तनी गो लइका के 'अनुभव' के माने बताना हे । बाप ओंहीं पर बइठल हथ । बाप अप्पन लइका के हाथ पकड़ के लम्फ के गरम सीसा में तनी सटा दे हथ । - "बाप रे !" लइका चिल्लायल हल । छनका लगल हल । - "तातल लम्फ के सीसा में हाथ सटावे से हाथ झरकऽ हे, ई अनुभव तोरा होलो ?"; रात में एक दिन सिकड़ी झनझनायल । सोमनाथ जी लम्फ तेज कइलन । बिजली नञ हल । चल गेल हल । दरवाजा खोललन - के हऽ हो ?)    (अरंबो॰52.21; 53.2, 3; 56.29)
669    ललटेन (= लालटेन) (दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे ।; रामनाथ नजीक पहुँच के देखऽ हथ - दु-चार गो ललटेन हे । दस-बारह गो अमदी हथ । एगो अमदी, एगो बुतरू के हाथ धइले हथ । बुतरू रो रहल हे । ओक्कर गाल पर तमेचा पर तमेचा जब-तब आ बइठऽ हे ।; ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल ।; कुछ नाल बंदूक चमक उठल हल । जादेतर देसिए बन्दूक । भाला, लाठी ... । - चारो दन्ने छितरा जो । ... मुँह से एक्को सबद नञ निकसे ... ललटेनमन बुता दे ... ।)    (अरंबो॰12.1; 41.25; 42.5; 44.22)
670    लहकना (= लहरना; प्रज्ज्वलित होना) (बतिया फिनूँ मद्धिम होल जा रहल हल । बिलसवा ओक्कर बत्ती अबरी जादे उसका देलक । दीया के बतिया मटमटायल आउ तेज होके लहके लगल ।)    (अरंबो॰96.26)
671    लहरना (एगो घर में आग लगल हल, लइकन के खेल से ... मगर आग पहलहीं लग चुकल हल ... घर-घर आग से लहर रहल हल ... गाम, सौंसे गाम आग से लहर रहल हे ... आग पर जे काबू नञ पावल गेल तो ई सौंसे देस में पसर जायत ।)    (अरंबो॰45.14, 15)
672    लहरी (= जिद, हठ) (मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी ।)    (अरंबो॰34.9)
673    लहास (= लाश) (बाबू बीसे-एकइस बरिस के होतन कि बाबा मर गेलन । मम्मा अप्पन नइहर गेल हल, जइसन सुनऽ ही । बाबू उनखा लावे ला अप्पन नानी घर गेलन । एन्ने लूटपाट मच गेल । ... मम्मा के आवे पर, सुनऽ ही, बाबा के लहासो उठावे के पइसा नञ हल ।)    (अरंबो॰78.13)
674    ला (= लगी; के लिए) (रस्ता में हाकिम से पुछली - ई काम ला, इनखनी के केत्ते रूपइया भेंटा हे ? - मात्र पचास रूपइया । - बस, एतने ला एत्ते मेहनत ?)    (अरंबो॰12.19)
675    लाज-लेहाज (पारस बाबू राजधानिएँ में डेरा पर आके मिललन हल । ऊ उदास हलन । बतउलन हल - मिन्टू अब जुआन हो गेल हे । ओक्कर सोखी आउ बदमासी अब अकास छूए लगल हे । अब दिन-रात ऊ पीले रहऽ हे । लाज-लेहाज सब खतम ।)    (अरंबो॰32.7)
676    लात-गारी (ओकर माय-बाप हमरा से बियाह कइलका हल हम्मर बेटि सुख-चैन से एगो करीगर के घर रहत ! सुख-चैन तो ओकरा नञ मिलल मगर जिनगी भर ओकरा लाते-गारी मिलइत रहल ।)    (अरंबो॰101.25)
677    लाहरी (= जिद्द) (- नञ, हम लेम तो ओइसने, जइसन छोटुआ के हइ । - अच्छे, चुप रह। ला देबउ । / ऊ बुतरूआ फिनूँ लाहरी करे लगल । रामधनी के मिजाज गरम हो गेल - अरे ससुर, कहलिअउ तो, ला देबउ । एत्ते जिद्दी काहे हो जाहँऽ ?)    (अरंबो॰91.7)
678    लुग्गा (= साड़ी; कपड़ा, वस्त्र) (सनिचरी ढेना के कपार से टपकइत खून अप्पन लुग्गा में पोछले हल । ... तखनिए हम पहुँचली हल । ढेना बेहोस होल जा रहल हल ।)    (अरंबो॰15.1)
679    लुटाना (= अ॰क्रि॰ लुटना; स॰क्रि॰ लुटाना) (एक बेर प्रोफेसरो साहब के गाड़ी लुटायल हल । तखनी ऊ भूतपूर्व प्रोफेसर नञ हलन । काम-काज में व्यस्त प्रोफेसर हलन ।)    (अरंबो॰28.15)
680    लूर (= बुद्धि, अक्ल; काम करने का सही तरीका, जानकारी; ढंग, आदत) (कॉलेज में अंगरेजी दू-चार लबज का पढ़ लेलक, बोलले चलऽ हे - बड़का बाबू मिसफिट हथ । उनखा कमाय के लूरे नञ हे । सब लूर ओकरे कपार मे आ के जमा हो गेल ?; हम तो छुटतहीं बोलम - सरकार, घोड़िया के देख लेल जाय । अइसन ने तूँ एही समझ लऽ कि हमरा टमटम हाँके के लूरे नय हे ।)    (अरंबो॰38.27; 100.24)
681    लेताड़ी (= लात) (~ मारना) (घोड़िया आगू बढ़ल जा रहल हल । से ऊ ओकरा रोकलक । अब ओन्ने जाय से कौन दरकार ? रोगिए नञ रहल तो रोग फिर कइसन ? रोक के घुमावे खातिर घोड़िया के लगाम खींच लेलक । से घोड़िया हिनहिनाय लगल आउ लगल लेताड़ी मारे ।)    (अरंबो॰102.14)
682    लेना-देना (- भइया, धीरूआ कहाँ हे ? - धनबाद में । - ऊ तो ले-दे के धनबादे बसिए गेलो । घर के झंझट से ओकरा कुछ लेना-देना नञ हे । छोटका सबसे जादे दुलरूआ होवऽ हे आउ से ही से ऊ सबसे जादे लापरवाहो हे ।; सब ले-दे के हम आउ पहलमान ... हमहीं दुन्नूँ भाय गाम में रहऽ ही ।)    (अरंबो॰63.14, 14-15; 65.13)
683    लोग-बाग (फिन सुराज होवे के घोसना होल हल । उनखर आँख में नींदे नञ । साफ-सुत्थर कुरता लगइले गाम से कसबा अइलन हल । तिरंगा फहरइलन हल । लोग-बाग के बातचीत सुनके, अघा के गाम लउट अइलन हल ।)    (अरंबो॰35.12)
684    संगत (= संगति) (चाहऽ हलन, हम्मर बेटा खूब पढ़-लिख ले । विलायत जाय । ई काम वास्ते पइसो-कौड़ी जुटउले हलन । मगर अनिलबा अइसन संगत में पड़ल, सब बाते बदल गेल । विमल जी अपनहूँ बड़गो डागडर रहतन होत । घर के सहजोग नञ मिलल । टर-ट्यूशन कर के बी.एस.सी. तक पढ़ पयलन । टरेनिंग कर के सरकारी इसकूल में मास्टर हो गेलन ।)    (अरंबो॰69.6)
685    संझउकी (बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल । बंशीधर जी के छोटका बेटा संझउकिए से गायब हल । घर नञ लउटल हल । लोग चिंतित हलन । ई हाल में जादे बातचीत पर जोर नञ देके राते के लउटना बाजिब समझलन हल ।)    (अरंबो॰42.19)
686    संझला (पैर पर केकरो हाथ झुक्कल हे । आँख उठा के देखऽ ही । बच्चा हे । हम्मर संझला भाय । हाथ अपने आप फैल जाहे ओक्कर सिर पर ।; दु-चार दिन पहिले हम्मर बेटा बड़कू आउ पहलमान के मंझला बेटा एक दोसरा के आमने-सामने बन्दूक लेले ललकारइत हल । बड़कू के कहना हल, हम्मर हम्मर बाप के सब जायदाद अरजल हे । संझला चच्चा के एकरा पर कोय हक नञ हे ।; हम्मर संझला चच्चा एकदमें अंगरेज नियर गोरनार हलन । कसरत करऽ हलन । घोड़ा चढ़ऽ हलन । एकबैग उनखा लकवा मार देलक ।)    (अरंबो॰63.5; 64.24; 78.19)
687    सईंतना (= सैंतना; संचित करना, इकट्ठा करना) (अनुशासन के मामला में खुब्बे कड़ा हलन । का मजाल, कउनो उनखा से नजायज काम ले ले । मगर सब बेअरथ । विमल जी के पछतावा होवऽ हे - अप्पन घरे जो सईंत नञ सकली ... । बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल ।)    (अरंबो॰69.25)
688    सगरो (= सर्वत्र, सभी तरफ) (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल ।; बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।; ढोल-मँजीरा पर फाग के धूरी उड़ रहल हल । सगरो मस्तीए-मस्ती छायल हल ।)    (अरंबो॰25.16; 36.26; 93.1)
689    सचाय (= सच्चाई) ("तोरा के नञ जानऽ हे ? हाकिम, नेता, जे भी जिला में भेटा जा हथ, अपने के हाल-चाल जरूरे पूछऽ हथ ।" मुचकुन जी के मन गरब से भर उठल हल । नञ जाने कइसन भा से गियारी भर आयल हल । अभियो तालुक सचाय बचऽ हे । हमरा नीयर दलिद्दर, अगियानी अमदी के भी लोग इयाद करऽ हथ ।)    (अरंबो॰36.5)
690    सच्चाय (= सच्चाई) (कोनमा आम काट देल गेल हे । .. कोनमा आम कट्टल पड़ल हे । ... एतने सच्चाय हमरा ला हे ।; कोनमा आम काट देल गेल हे । एही सच्चाय घुर-फिर के हमरा पर परगट होवऽ हे । खून-फसाद सब बेलाँ माने लगऽ हे ।)    (अरंबो॰21.3, 5)
691    सच्चो (=सच; सचमुच) (दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे । जीप से उतर के हमनी पइदल कहीं झुक के तो कहीं तिरछी काट के ललटेन दन्ने बढ़ली । हाँ, सच्चो एगो वयस्क शिक्षा के केन्द्र चल रहल हल ।; नानी मरल, नाता टूटल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?; सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल । लइका चित्कार कर उठल । बाबू हो बाभू ! मइया गेऽ ! - तो सच्चो-सच्चो बता दे । बाबू के कहे से अगिया लगयलहीं कि चचवन के कहे से ? सच्चो-सच्चो बताउ !)    (अरंबो॰12.5; 19.21; 43.7, 8)
692    सटकल (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।)    (अरंबो॰20.16)
693    सटले (= सटा हुआ ही) (दू बच्छिर पहिले एगो खत लिखलन हल - तोर जुगेसर चच्चा चल देलन । ... जुगेसर चचा के घर ठीक हम्मर घर के सटले उतरबारी घर हल ।)    (अरंबो॰82.19)
694    सड़सड़ (सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल । लइका चित्कार कर उठल ।)    (अरंबो॰43.5)
695    सड़ासड़ (= सड़सड़) (सड़ासड़ छड़ी जेन्ने-तेन्ने पड़े लगल । लइका छटपटा-छटपटा के नाचऽ हे । गिरऽ हे ।)    (अरंबो॰43.9)
696    सनहा (= प्राथमिकी; किसी आपराधिक काम की पुलिस के पास दी जाने वाली सूचना) (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल । देर रात हार-पार के अध्यक्ष महोदय बउआ के एगो फोटो लेले थाना पहुँचलन । सनहा दाखिल कइलन ।; एक बेर प्रोफेसरो साहब के गाड़ी लुटायल हल । ... खरीद-फरोख खतम करके जब लउटलन तो गाड़ी लापता । एन्ने-ओन्ने खूब खोजलन हल । मगर गाड़ी जे रहे तब ने मिले । हतास होके थाना में सनहा दरज करावे गेलन । बातचीत के सिलसिला में ऊ थानेदार के बतउलन हल कि फलाना मंत्री तो हम्मर चेला हे ।)    (अरंबो॰25.20; 28.19)
697    सनिचरा (~ समाना) (एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।)    (अरंबो॰75.11)
698    सनेसा (= सन्देश) (अन्त में मुख्य अतिथि के भाषण होल । ऊ भाषण का हल, एगो सवाल हल । एगो सनेसा हल । ... तूँ सब आदिवासी भाय के पास जा । गामे-गामे जा के उनखा से मिलऽ ।)    (अरंबो॰13.15)
699    सपासप (सपासप पछिया चल रहल हल । गरमी के दुपहर । पसेना से तरबतर रमबिलसवा घोड़िया के रह-रह के ताल देले हल ।)    (अरंबो॰99.1)
700    सफाय (= सफाई) (फिन छनका लगल - छन !! बाप रे ! ... मइया के मउअत ! अब पूरा घर जोड़े वाला कड़ी भी गायब । कड़ी टूट गेल हल । भतीजा हिस्सा बँटा के अलग हो गेल हल । चोर, बेइमान सब बनउलक हल । - छोटा बाबू हमनी के हक मार के सब धन हड़प लेलन । सोमनाथ सफाय देथ तो केकरा ? तीन भतीजी के बियाह करना, ई जुग में कोय मामूली बात हे ? हम का हड़पली ? तोर बाप एक्को रूपइया पूंजी छोड़ के मरलथुन हल ?)    (अरंबो॰55.23)
701    सबुनाना (= साबुन लगाकर कपड़ा आदि साफ करना) (मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी ।)    (अरंबो॰34.8)
702    समांग (आखिर अप्पन पइसा आउ समय खर्चा करके, अप्पन समांग गला के काहे एत्ते उपकार के बात में ऊ लगल हथ ? जरूरे एकरा में कउनो न कउनो कोय मकसद छिपल होत ।)    (अरंबो॰56.24)
703    समाना (= अ॰क्रि॰ घुसना; स॰क्रि॰ घुसाना) (एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।)    (अरंबो॰75.11)
704    समुच्चे (= समूचा; सम्पूर्ण) (एकबैग समुच्चे घटना ओक्कर आँख के आगे कौंध गेल ् ऊ बेड पर से उठे के कोरसिस करे लगल । मगर देखऽ हे कि उठे के जिरिक्को सकतीए नञ मिल रहल हे । ओक्कर हाथ-पैर कोय बरिआर जउरी से जइसे बँधल हे ।)    (अरंबो॰102.27)
705    सर-सरजाम (सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत । फिनूँ परबियो लगी तो सर-सरजाम लेवे के हे । दुइए रूपइया में सब्भे करे के हे ।)    (अरंबो॰92.13)
706    सराध (= श्राद्ध) (नानी मरल, नाता टूटल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?)    (अरंबो॰19.20)
707    सरी (= सरकंडा) (तुरतमें ऊ किलान पर से दोआत निकासलक । दोआत एकदम सुक्खल हल, से गिल्ला बनावे खातिर ऊ ओकरा में लोटवा से दू-चार ठोप पानी टपका देलक । फिन अप्पन टीन के बक्सा से एगो सरी के कलम निकासलक ।; बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।)    (अरंबो॰95.8; 96.15)
708    सरेख (= जवान) (जइसे-जइसे सरेख होयत गेली, बाबू के बात समझ में आवे लगल हल । समझ का, बढ़े लगल, खोसी खतम होवे लगल आउ सरीरो कमजोर होवे लगल हल ।)    (अरंबो॰63.2)
709    सलाय (= दियासलाई) (फिन एगो सिगरेट पीए के तलब होयल । डिब्बा से निकासलन । सलाय पर एगो काँटी घिसायल आऊ फुर से अवाज ।)    (अरंबो॰50.3)
710    सले-बले (= चुपचाप; धीरे-धीरे, आहिस्ते से) (अनुशासन के मामला में खुब्बे कड़ा हलन । का मजाल, कउनो उनखा से नजायज काम ले ले । मगर सब बेअरथ । विमल जी के पछतावा होवऽ हे - अप्पन घरे जो सईंत नञ सकली ... । बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल ।; रामधनी के माय अमदी के गंध पइलक से झट खटिया पर से उठ गेल । रामधनी के पेआर करइत देखलक तो सले-बले पाया भिरी चल गेल । ओकरो आँख से लोर बह-बह के गिरे लगल ।)    (अरंबो॰69.26; 94.8)
711    साध (= अरमान, इच्छा, कामना; साधु, संन्यासी; सज्जन) (सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल । छोटकनिया नेतो के लोक-सेवा के नाम पर पैरबी करे बिलौक, सहर, रजधानी जाय पड़ऽ हल ।)    (अरंबो॰35.14)
712    साफ-सुत्थर (तीन बरिस से बेटी ला लइका ढूँढ़ रहली हे । बेटी बी.ए. औनर्स कइलक तभिए से । परकी साल एम.ए. । देखे में साफ-सुत्थर हे । बेस हे । ई सीता लगी एगो राम चाहऽ ही ।)    (अरंबो॰73.12)
713    सार (= सारा; साला) (तखनिए एगो दोसर जुआन तमक के बोलल हल - कहलिअउ ने, ई सार खोफिया हउ खोफिया ।  हमनी के बात में बझा देलकउ आउ फँसा देलकउ ! सब तइयार हो जो ।)    (अरंबो॰44.19)
714    सारा (= साला; गाली के रूप में भी प्रयुक्त) (धायँ । एगो आवाज । रामनाथ भुइयाँ पर गिरके छटपटा रहलन हल । - पकड़ ले सरबा के ! भागे न पाबउ !; सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल ।; एकबैक कड़कड़ायल अवाज उनखर मुँह से निकसल हल - रूक जाओ हत्यारो ! रूक जाओ !! ... आग कैसे लगी, मैं बताता हूँ । - अरे ! ई सरबा रंगरेजी बोलऽ हउ । दू डाँग देहीं, तब एकरो बात सुनल जाइत ई अदालत में ।; एगो जुआन नजीक आके देखलक हल - अरे, मर तो नञ गेलइ ? ... सरबा ओकील बनऽ हल ! रामनाथ जी के नजीक से देखतहीं ऊ जुआन के मुँह से निकस पड़ल हल - परफेसर साहेब ! ... गुरुजी ! ... हम चीन्ह नञ सकली ।)    (अरंबो॰41.9; 43.4, 16, 22)
715    सिकड़ी (= सिकरी; साँकल) (रात में एक दिन सिकड़ी झनझनायल । सोमनाथ जी लम्फ तेज कइलन । बिजली नञ हल । चल गेल हल । दरवाजा खोललन - के हऽ हो ?; टिक-टिक, टिक-टिक ... टिकटिक-टिकटिक ... दुआरी के सिकड़ी कौनो बजा रहल हे । उठके केबाड़ी खोललन । - का हो रामौतार ? हाल-चाल बेस न ? एत्ते रात के ?; रातो भर डाकपीन, चिट्ठी आउ बाबा ओक्कर मगज में घुरइत रहल । लइका के सोतंत्र मन गुलामी के सिकड़ी से मुक्ति पावे ला छटपटा रहल हल ।)    (अरंबो॰56.29; 68.15; 98.26)
716    सिरहाना (सिरहाना में रक्खल डिब्बा से निकास के दोसर सिगरेट सुलगा लेलन ।)    (अरंबो॰48.6)
717    सिरी सोसती (= श्री स्वस्ति) (गेंदड़ा तल्ले से बिलसवा एगो मचोरल-मचारल सादा कागज निकासलक । पक्का पर ओकरा तान देलक आउ लगल अप्पन बाबा हीं चिट्ठी लिखे । सिरी सोसती, पुजनीए बाबा को परनाम !)    (अरंबो॰95.18)
718    सिलेमा (= सिनेमा) (एक जनवरी के रात तक हम ठीके हली । पाटी खयली । सिलेमा देखली । नया साल मनौली ।)    (अरंबो॰74.9)
719    सिलौट (= स्लेट) (दस-बारह मेहरारू एगो ललटेन घेरले बइठल हलन । सब करिया आदिवासी मेहरारू । सिलौट पर अक्षर-ज्ञान देल जा रहल हल ।)    (अरंबो॰12.7)
720    सीरा (~ घर = घर की कोठरी जिसमें गृह देवता या देवी स्थापित रहती हैं; पूजाघर) (हम्मर बाबू जी एकदम पागल नियर हो गेलन । सीरा घर से एक-एक करके सब देवी-देओतन के निकास फेंकलन । रोज सीरा घर में पहिले देवी-देओतन के भोग लगऽ हल । तब कोय भोजन गरहन कर सकऽ हल । मगर दू-तीन बरिस में एतना मउअत ? ई देवी-देओतन के रहइत ?; देवी-देओतन जे निकास देल गेलन हल, ओही सीरा घर में तो नञ, मगर किराए के मकान में अब फिन स्थापित हो गेलन हे ।)    (अरंबो॰78.23, 24; 80.16)
721    सीसा (नञ जाने गोस्सा हमरा में केन्ने से आके समा गेल हल । जे नाना से आझ तक रूबरू नञ बतिऔली हल, से किताब-कौपी उठाके उनके सामने फेंक देली । जापानी चक-चक बइठकी में गोस्सा से एक सूट मारली । सीसो फूट गेल आउ गोड़ो कट गेल ।)    (अरंबो॰50.22)
722    सुक्खल-साखल (अइसे बाबू जी के उमिर सतहत्तर-अठहत्तर बरिस से कम नञ होत । एक-दू बार मरे से बचलन हे । सरीर पर मास बहुत कम । सच पूछऽ तो सुक्खल-साखल सरीर ।)    (अरंबो॰82.27)
723    सुतना (= सोना) (नञ हो बुचकुन, आझ भूख नञ हे । हम्मर फेरा तों छोड़ । तोहनी खा-पी के सुत रह ।; थोड़े देर में भइया होस में आ गेलन । एन्ने-ओन्ने, हमनी दन्ने ताकलन । सायद उनखा सुस्ती लग रहल हल । फिनुँ सुत गेलन ।; रात में पोता, भोले बाबू जउरे सुते चल आवऽ हल । बाबा, पोता के कहियो 'नन बितना' के, तो कहियो 'कम खोराक' के, तो कहियो 'थूक तोर दाढ़ी में, बन्दूक तोर मोछ में' वाला खिस्सा सुनावथ । कखनी पोता सुत जाए तो कखनी बाबा, से पते नञ चले ।; खिस्सा चलइत रहल । दादी-पोता खिस्सा कहते-सुनते कखनी सुत गेलन, एक्कर केकरो खबर नञ ।)    (अरंबो॰38.15; 61.17; 87.14, 17; 93.24)
724    सुनबाय (= सुनवाई) (तूँ कौन हऽ ? रात में काहे बउड़ायल चलऽ हऽ ? फेन सरदार बोललन हल - ई अदालत में एकरो सुनबाय हो जाइत । अभी तनी छउँड़ा के फैसला कर लेवे दे ।)    (अरंबो॰42.13)
725    सुराजी (= स्वराज्य) (तब से ई नियम बन गेल हल । कउनो सुराजी मिटिन, पन-छो कोस के गिरिद होवे, ऊहाँ पहुँचना उनखा जरूरी हल ।)    (अरंबो॰35.6)
726    सेक्कर (~ बाद = सेकर बाद; उसके बाद) (सेक्कर बाद नाना हमरा दादी हीं पहुँचा देलन हल ।)    (अरंबो॰51.1)
727    सेल (= स्पर्द्धा आदि प्रारंभ करने का शब्द) (नानी झुठे-झुठे कहके बिना चिनिए वाला दूध पिला देलक । अब नानी हीं माय साथे जो अइवो करऽ ही, तइयो ओक्कर बात नञ मानऽ ही । ... हेरे ! ... हेरे !!  ऊ करइत रहऽ हे आउ हम सेल कबड्डी पार । पहुँच जा ही अप्पन गोल में । मेखना, कलिया, जमापतिया, रमजीया आउ केत्ते ने लड़का बगइचा में भेंटा जा हे ।; लइका आउ घोड़ा तनी सोख होवे के चाही हो बिसुन ! मगर तों जो कहलाँ तो हम डाँट देम । ... मिन्टुआ जे ओहीं पर मड़ला रहल हल, सेल कबड्डी पार । ढेर बात मिन्टू सम्बन्धी आज रामदीन जी के आद पड़ रहल हे ।)    (अरंबो॰17.18; 32.3)
728    सेवा-सुरसा (= सेवा-शुश्रूषा) (विमल जी के जब पीरी होल, इयार-दोस सब मिल के अस्पताल, डागडर कइलन । देखउलन-सुनउलन । लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।)    (अरंबो॰69.15)
729    सैद (= शायद) (ई पोस्टर के अरथ लगावे के कोरसिस करऽ ही । सैद अरथ के नजदीक पहुँचियो जाही । ई उघरल सच हे कि बुतरू ला जइसे भोजन में माय के दूध जरूरी हे, ओयसहीं वयस्क ला शिक्षा ।; दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे ।; कानाफूसी होवे लगल - अध्यक्ष महोदय भ्रष्टाचार के खिलाफ हथ । पइरवी के खिलाफ हथ । ... कातो फेन से इंटरव्यू ला कागज भेजावल जाइत । सैद सब कुछ रद्द कर देल जाइत ।; जे देवी-देओता हमर कुल के नास रोक नञ सकलन, उनखर पूजा-पाठ काहे ला ? सैद हम्मर बाबू जी के मन में एही विचार तखनी होयत ।; अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । बस से उतरतहीं भर राह आँख फाड़ले रहली - सैद जो कौन इयार-दोस भेंटा जाथ ।; बाबू जी के अब कचहरी जाय के मन नञ करऽ हे । ओकालतखाना में उनखर उमिर के सैदे ओकील-मोखतार जी बच रहलन हे । केकरा से बोलतन-चालतन ?)    (अरंबो॰11.10; 12.1; 25.11; 78.29; 81.2; 82.15)
730    सोझे (= सीधे, बिलकुल सामने तरफ) (सपासप पछिया चल रहल हल । गरमी के दुपहर । पसेना से तरबतर रमबिलसवा घोड़िया के रह-रह के ताल देले हल । ओकरा सोझे पच्छिम जाय के हे । आउ एत्ते कड़ा धूप । घोड़ियो बनाय तरी हाँफले हे ।)    (अरंबो॰99.2)
731    सोतंत्र (= स्वतंत्र) (रातो भर डाकपीन, चिट्ठी आउ बाबा ओक्कर मगज में घुरइत रहल । लइका के सोतंत्र मन गुलामी के सिकड़ी से मुक्ति पावे ला छटपटा रहल हल ।)    (अरंबो॰98.26)
732    सोहराय (जब बिलसवा गम गेल कि सब कोय मेला देखे चल देलन तो ऊ अप्पन आँख खोललक आउ उठ के कोठरी के केबाड़ी भितरे से लगा लेलक । सामने खिड़की पर सोहराय के दीया टिमटिमा रहल हल ।)    (अरंबो॰95.3)
733    सौंसे (= सउँसे; समूचा, सम्पूर्ण) (मुचकुन जी चाह के कप उठइलन हल । हाकिम सौ के एगो नोट अप्पन कोट के जेभी से निकास के मुचकुन जी दन्ने बढ़उलन हल । - बिलास जी का काम आपके सिफारिश से तुरंत हो जाएगा । यह आपका हिस्सा । - जी ! - गरम चाह से मुचकुन जी के सौंसे कंठ झौंसा गेल हल ।; पहलमान के आँख भरभरा गेल । बोलल - एही नञ मंझला भइया, ओकरा तो गामे नञ, ओकरा तो सौंसे देसे मुरूख से भरल लगऽ हे । तों अंग्रेजी में बी.ए., एम.ए. बेकारे कइलऽ ।)    (अरंबो॰37.22; 65.24)
734    हँड़िया (= हाँड़ी+'-आ' प्रत्यय) (हमनी पाँचो भाय पाँच जगह रहे लगली । सबके हँड़िया अलग-अलग । कधियो बिआह-सादी में एक्के ठामा जमा होली ।)    (अरंबो॰67.16)
735    हँसी-खोसी (= हँसी-खुशी) (कोय के हँसी-खोसी के परभाव ओकरा पर नञ पड़ल हल । मगर ई देख के, ओकरो आँख छलछला आयल । ओक्कर लोर से डाँड़-टिल्हा, घर-दुआर सब्भे ओद्दा हो गेल ।)    (अरंबो॰94.18)
736    हँस्सी (= हँसी, मजाक) (बच्चा, भइया से हँस्सी कइलक - का भइया, अभियो तोरा रेलेगाड़ी चलावे के मन करऽ हो ? - से का ? - मंझला भइया कहऽ हलथुन कि भइया टी टी, छिक-छिक करइत रहऽ हथुन । अब तो तोरा रिटायरो कइला बरिस भर होलो ।; भोला बाबू के आद पड़ऽ हे - हाँ, कल्हे राते तो हँस्सी के अवाज आयल । आँख झपकल जा रहल हल, से खुल गेल । ई, बेटा-पुतोह के हँसे के अवाज हल ।)    (अरंबो॰64.14; 87.24)
737    हजूर (= हुजूर) (हाँ हजूर, एही ऊ कोनमा आम हे । एही पेंड़ लेल तो ... । तखनी आसमान चौखुट्टा हल । दुनियाँ अँगने भर के । भइया अँगना में लोहा के पहिया के गाड़ी चलावऽ हलन ।)    (अरंबो॰17.1)
738    हड़-हड़ (~ पानी टानना) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !)    (अरंबो॰20.2)
739    हम्मू (= हमहूँ; हम भी) (अरे ! हम्मू बाज आवे वाला अमदी थोड़हीं हूँ । डागडर बाबू से कहम - जउन दिनमा पिअरिया अच्छा हो जइतो, ओही दिनमा तोरा हम एगो सीसों के विलायती खुटी बना के देबो ।)    (अरंबो॰101.3)
740    हरवाहा (बंशीधर नाम सुनलऽ हे ? ई लइका उनखर हे । सब गैर मजरूआ आम जमीन के मालिक । … बित्तन दुसाध के बाप-दादा उनखरे जमीन जोतइत-कोड़इत रहलन । उनखर घर में चोरी होल, बित्तन दुसाध जेल में । सौंसे गाम जानऽ हे - चोरी के कइलक आउ चोरी के करइलक हल । ... एतनिए कसूर हल कि तनी ऊ अईंठ के बोलऽ हल । ... रामजतन हरवाहा मजूरी माँगलक हल - सौंसे बदन सुक्खल जुत्ता आउ लाठी से फोड़ देल गेल हल ।)    (अरंबो॰44.4)
741    हरसट्ठे (= हरमेसा; हमेशा) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।)    (अरंबो॰96.17)
742    हहरना (- नञ, हम लेम तो ओइसने लेम ! - ओइसन लेके तूँ का करम्हीं रे, आँय ? तोरा ओकरो से नीमन ला देबउ । ओइसन पोवार नीयर पीयर फुचकारी का लेमँऽ, तोरा हम चानी नीयर चमचम ला देबउ । हहरऽ हँ काहे ला ?)    (अरंबो॰91.4)
743    हहास (~ मारना) (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।)    (अरंबो॰72.25)
744    हाँहे-फाँफे (= हाँफे-फाँफे) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।)    (अरंबो॰92.20-21)
745    हाथ-गोड़ (= हाथ-पैर) (साँझ होयत हीं पढ़े ला बइठ जाना जरूरी हल । हाथ-गोड़ धोके, चक-चक जपानी बइठकी भिजुन किताब लेके हमरा बइठना जरूरी हल ।; अच्छा, चलऽ, हाथ-गोड़ धोवऽ, फिन बतियायम ।)    (अरंबो॰49.18; 69.3)
746    हारना-पारना (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल । देर रात हार-पार के अध्यक्ष महोदय बउआ के एगो फोटो लेले थाना पहुँचलन ।)    (अरंबो॰25.19)
747    हिरिस (= हिर्स; आदत; बुरी लत; देखा-देखी; डाह; लालच) (लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।)    (अरंबो॰92.11)
748    हीं (= के यहाँ) (गिरीश हीं बइठकी में हम, गिरीश रंजन, हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी आउ जिज्ञासा प्रकाशन के प्रकाशक श्री सत्येन्द्र जी गपशप में मसगूल हली । बात-बात में हम्मर कहानी संग्रह के प्रकाशन के बात उठल । पांडुलिपि तइयार हल ।; माय के मन खराब रहे लगल । बाबू, माय के नानी हीआँ भेज देलन । साथे-साथे हमरो । जेन्ने-जेन्ने मइया, ओन्ने-ओन्ने बछवा ! बाबा हीं से नानी हीं अइली ।; जल्दी-जल्दी कपड़ा पहिर के ऊ मंत्री जी हीं चल देलन ।; मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।; एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।)    (अरंबो॰9.20; 18.22; 31.6; 75.10)
749    हीआँ (= हियाँ; यहाँ) (माय के मन खराब रहे लगल । बाबू, माय के नानी हीआँ भेज देलन । साथे-साथे हमरो ।; साढ़े सात बजे घड़ी देख के बंशीधर जी के हीआँ से चललन हल । गाड़ी पकड़े ला, टीसन । मोसकिल से तीन पाव जमीन टीसन पहुँचे में आउ रहल होत, बिच्चे में अपने से, ई जोखिम में फँस गेलन हल । बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल ।)    (अरंबो॰18.21; 42.16, 18)
750    हीयाँ (= हियाँ; यहाँ) (हीयाँ के लोग निरक्षर हथ । अंधकार में डुब्बल हथ । अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में हीयाँ के लोग के लावे के हे ।)    (अरंबो॰13.11,12)
751    हुँआँ (= वहाँ) (रमबिलसवा भोकार पाड़-पाड़ के रो पड़ल । डागडर साहेब से बरदास नञ भेल, से ऊ अप्पन टोप हिलइते-डुलइते हुँआँ पर से चोर नीयर चुप्पे-चाप घसक देलन।)    (अरंबो॰103.10)
752    हुंह (एकरा चीन्हऽ हऽ रामदीन जी ? एही न हम्मर एकलौता बेटा, मिन्टू हे । फेन मिन्टू दन्ने मुँह करके पारस जी कहलन - तनी चच्चा के डाँट तो दे । डेरा तो दे । लइका खुब्बे जोर से 'हुंह' कइलक । फेन आँख तरेरे लगल । - हाँ-हाँ, हो गेल । अब हो गेल ।)    (अरंबो॰31.11)
753    हुरना (हमरा कहानी संग्रह छपावे ला मगध यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष डॉ॰ ब्रजमोहन पाण्डेय नलिन हमरा हुरइत रहऽ हलन । किसान कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष आउ हम्मर मित्र प्रो॰ वीरेन्द्र कुमार वर्मा प्रकाशन ला हमरा कम दिक नञ कइलन ।)    (अरंबो॰9.14)
754    होय (अगे ~ !) (रमबिलसवा अप्पन घरावली दन्ने मूहाँ कर के बोलल - अगे होय ! सुनऽ हीं, डागडर हीरो बाबू बड भलमानस हथिन । जइथीं के साथ ऊ तो पूछे लगतन - क्या है ? कैसे आए हो ?; फिनूँ रमबिलसवा के धिआन पिअरिया दन्ने गेल । - अगे होय ! दरदिया जिरी-मनी कमलउ कि नञ ?)    (अरंबो॰99.4; 101.8)
 

65. कहानी संग्रह "अजब रंग बोले" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द


अरंबो॰ = "अजब रंग बोले" (मगही कहानी संग्रह), कहानीकार श्री रवीन्द्र कुमार; प्रकाशक - जिज्ञासा प्रकाशन, झेलम अपार्टमेन्ट, राजेन्द्रनगर, पटना: 800 016; प्रथम संस्करण - 2000  ई॰; 103 पृष्ठ । मूल्य 120/- रुपये ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 754

ई कहानी संग्रह में कुल 16 कहानी हइ ।


क्रम सं॰
विषय-सूची 
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0.
हमरा ई कहना हे
5-6
0.
हमरो ई कहना हे
7-9
0.
यथाक्रम
10-10



1.
उज्जर कौलर
11-16
2.
कोनमा आम
17-21
3.
व्यवस्था
22-27
4.
अभिभावक
28-33



5.
उपास
34-39
6.
आग
40-45
7.
नो बज्जी गाड़ी
46-51
8.
खीरी मोड़
52-60



9.
घर बड़का गो हो गेल
61-67
10.
कन्धा
68-72
11.
देओतन के बापसी
73-80
12.
फालतु अमदी
81-85



13.
सूअर
86-90
14.
पित्तर के फुचकारी
91-94
15.
मन के पंछी
95-98
16.
सभ्भे स्वाहा
99-103

ठेठ मगही शब्द ("" से "" तक):

390    दंड-परनाम (थोड़िक्के देर में डागडर साहेब आ गेलन । हम्मर पहलमान भाय उनखर बैग थाम्हले । हम उठ के दंड-परनाम कइली ।)    (अरंबो॰61.8)
391    दखिनबारी (अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । ... दुपहरिया में लाला भइया हीं जाय लगली । सटले दखिनबारी घर, लाला भइया के हे ।)    (अरंबो॰81.5)
392    दन्ने (= तरफ) ( वयस्क शिक्षा में का काम होवऽ हे, सेही देखे ला पटना से दुमका अयली हे । दुमका से बिलौक ऑफिस जाय के हे । एगो जीप बरमसिया दन्ने जा रहल हल । लिफ्ट माँगली आउ चल देली ।; ठाकुर टुड्डू दा के नजर थोड़िक्के दूर पर खड़ा पुलिस जीप दन्ने उठ जाहे । - दादा, हम पुलिस साथे नञ अयली हे । ई तो रास्ता में भेंटा गेल से जीप पर चढ़ गेली । हम पुलिस के अमदी नञ ही ।)    (अरंबो॰11.5; 14.12)
393    दरकना (ईसों एक्को बूँद-बरखा नञ बरसल हल । किसान आसमान ताकइत रह गेलन आउ धरती के करेजा दरक गेल हल ।)    (अरंबो॰35.24)
394    दरिद्दर (= दलिद्दर; दरिद्र) (सीता जी जनकपुर से विदा हो गेलन । जनकपुर श्रीहीन हो गेल। सौंसे जनकपुर दरिद्दर हो गेल । आझो दरिदरे हे ।; मेहरारू के रोज-रोज के ताना करेजा छेद करऽ हे । ... तोरा की औकात हो ? दरिद्दर तो हऽ । बहिन के बियाह में सब कुछ लुटा देलऽ । अब तोरा के काम देतो ?)    (अरंबो॰73.3; 79.17)
395    दरोजा (फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।)    (अरंबो॰17.6)
396    दलिद्दर (= दरिद्र, गरीब; दरिद्री; दारिद्र्य, गरीबी) (ओही दिनमा से, ठीक दिवालिए के दिनमा से ओकर भाग के दीया टिमटिमाय लगल हल । दलिदरा घर में घुसल, आउ हमरा पर पीए के आउ लड़े के जोम सवार भेल ।)    (अरंबो॰102.5)
397    दवाय-बीरो (अब तो सोमनाथ जी अकेलुआ रह गेलन हल । सोमनाथ जी के होमियोपैथी के बेस अध्ययन हे । ऊ एगो टुटलाही अलमारी के ठीक करउलन । शहर से दवाय-बीरो मँगउलन, अउ इलाज शुरू करलन ।)    (अरंबो॰56.13)
398    दसखत (= दस्तखत, सही, हस्ताक्षर) (सब के पता रहऽ हे कि हम्मर लोग चउतरफी हथियारबंद रहऽ हथ । सरकारी कर्मचारी जे वोट लेवे आवऽ हथ, तनी-मनी हीला-हवाला के बाद, परिस्थिति समझ के, दसखत कर-कर के बैलोट पेपर दनादन बढ़इले चल जा हथ ।; कहऽ अध्यक्ष महोदय, बहाली के चिट्ठी सब जगह भेज देल गेल ? - जी अब तक तो ओकरा पर हम्मर दसखतो नञ होल हे ।)    (अरंबो॰24.7; 26.10)
399    दाम-साम (रामधनी मन में सोंचलक - होलियो रोज आवऽ हे ! छौंड़ा के मन आज रख लेल जाय । बस ऊ दोकनदार से ओकर दाम-साम करे लगल ।)    (अरंबो॰91.14)
400    दिक (~ करना) (हमरा कहानी संग्रह छपावे ला मगध यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष डॉ॰ ब्रजमोहन पाण्डेय नलिन हमरा हुरइत रहऽ हलन । किसान कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष आउ हम्मर मित्र प्रो॰ वीरेन्द्र कुमार वर्मा प्रकाशन ला हमरा कम दिक नञ कइलन ।)    (अरंबो॰9.16)
401    दिनमा (= दिन को) (एक दिनमा माय के मन बहुत्ते खराब हो गेल । नानी, मौसी आउ केत्ते ने मेहरारू माय के घेरले हलन । हम जो जाइयो चाही तो जाइए न मिले । एन्ने नाना ओझा-गुनी बोलवउलन । कातो पानी पढ़े कहलन । भगत बोललन - लड़का होत । एही एक घड़ी में । आउ तब बात समझ में आल । मौसी हँसके कहलक - ले, तोर दुलार छिना जइतउ !)    (अरंबो॰18.23)
402    दिमाना (= दिवाना) (धनुआँ सुत्तल हल । गाल पर बहल लोर के सुक्खल धार इंजोरिया में भक-भक लउक रहल हल । रामधनी धनुआँ पर झुक गेल । ओकर परेम में दिमाना नियर करे लगल ।)    (अरंबो॰94.5)
403    दुआरी (= द्वार; दरवाजा) (मामू जी, आप भी घर के बाहर चले जाएँ तो अच्छा होगा । - ई आदेश शेर सिंह के हे । ... शेर सिंह सोचऽ हथ - एतना ऐबनारमल हम काहे हो गेली ? ... मामू का सोचऽ होतन ? लइकइयाँ उनखरे दुआरी पर बीतल हे ।)    (अरंबो॰48.1)
404    दुखाना (= अ॰क्रि॰ दुखना; स॰क्रि॰ दुख देना) (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।)    (अरंबो॰72.20)
405    दुरगहूँ-दुरगहूँ (= दूर-दूर तक भी) (घर के भिरिए में लेटर-बकस हल । ऊ पहलहीं पता चला लेलक हल कि एकरे में चिट्ठी लगावे से चिट्ठी दुरगहूँ-दुरगहूँ रेल-मटर से गाँउ-सहर, सब ठामा पहुँच जाहे ।)    (अरंबो॰98.17)
406    दुलरूआ (= दुलारा) (- भइया, धीरूआ कहाँ हे ? - धनबाद में । - ऊ तो ले-दे के धनबादे बसिए गेलो । घर के झंझट से ओकरा कुछ लेना-देना नञ हे । छोटका सबसे जादे दुलरूआ होवऽ हे आउ से ही से ऊ सबसे जादे लापरवाहो हे ।)    (अरंबो॰63.15)
407    दुसाध (बंशीधर नाम सुनलऽ हे ? ई लइका उनखर हे । सब गैर मजरूआ आम जमीन के मालिक । … बित्तन दुसाध के बाप-दादा उनखरे जमीन जोतइत-कोड़इत रहलन । उनखर घर में चोरी होल, बित्तन दुसाध जेल में । सौंसे गाम जानऽ हे - चोरी के कइलक आउ चोरी के करइलक हल । ... एतनिए कसूर हल कि तनी ऊ अईंठ के बोलऽ हल । ... रामजतन हरवाहा मजूरी माँगलक हल - सौंसे बदन सुक्खल जुत्ता आउ लाठी से फोड़ देल गेल हल ।)    (अरंबो॰44.1)
408    दुहारी (= दुआरी; द्वार, दरवाजा) (तुरते ऊ पिअरिया से बोलल - पिअरिया, देख, डागडर साहेब से मत कहिहँऽ कि हमरा ऊ पैना से नक्के पर मारलक हे । कह दीहें कि अइसन ठेस लगल कि दुहरिए से टकरा गेलूँ ।)    (अरंबो॰100.7)
409    देखना-सुनाना (विमल जी के जब पीरी होल, इयार-दोस सब मिल के अस्पताल, डागडर कइलन । देखउलन-सुनउलन । लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।)    (अरंबो॰69.14)
410    देवाल (= दीवार) (बरमसिया में वयस्क शिक्षा के कार्यालय हे । कार्यालय के बहरसी देवाल पर एगो बड़का पोस्टर टँगल हे । एगो आदिवासी जुवती एगो बच्चा के दूध पिया रहल हे । दुन्नू छाती एकदम उघरल हे ।)    (अरंबो॰11.7)
411    देहगर (भइँस के दूध पीयत, अखाड़ा में तनी मट्टी लगावत तब तनी देहगर हो जायत । शहर में रहके तो ई मुरदा होल जा रहल हे, मुरदा । - नाना बोललन हल ।)    (अरंबो॰48.25)
412    दोकनदार (= दुकानदार) (रामधनी मन में सोंचलक - होलियो रोज आवऽ हे ! छौंड़ा के मन आज रख लेल जाय । बस ऊ दोकनदार से ओकर दाम-साम करे लगल ।; अरे, खरीदे के मन नञ रहो तो दाम पूछल नञ करऽ । दोकनदार के घुड़की सुन के रामधनी सकदम में पड़ गेल । कइसहूँ फिन बोलल - अच्छे भाई, ने हम्मर बात ने तोहर । पौने दू रूपइया में दे हऽ ?)    (अरंबो॰91.13, 18)
413    दोकान (= दुकान) (कइसहूँ फिन बोलल - अच्छे भाई, ने हम्मर बात ने तोहर । पौने दू रूपइया में दे हऽ ? - एज्जा मोल-जोल नञ होवऽ हे । केउ दोसर दोकान देखऽ ।)    (अरंबो॰92.1)
414    दोस (= दोष; दोस्त) (अरे ऊ मरायत हल थोड़े, ओक्कर साथिए-संगी ओकरा मरवा देलक ... कातो ओहू अप्पन दोस के मार देलक हल ।; ई तो हम्मर दोस के बेटा, मिन्टू हे । ई हमरा साथ अइसन कइसे कर सकऽ हे ?; चर-पाँच बरिस पहिले लाला बाबू के बाबू जी आने जमुना बाबू बैकुण्ठवासी हो गेलन हल । जमुना बाबू आने हम्मर चच्चा । हम्मर बाबू के जिगरी दोस ।; तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली ।)    (अरंबो॰28.4; 29.21; 82.9; 83.13)
415    दोसर (= दूसरा) (दोसर बेर दुमका के ओही क्षेत्र में अइली हे । आदिवासी आउ दिक्कू में कुछ टेंशन हे । तीर-धनुष आउ बन्दूक से लड़ाय होवऽ । मजिस्टेट, पुलिस सब गस्ती लगा रहलन हे ।; एगो दोसरो घटना उनका आद पड़ऽ हे । रामदीन जी आउ पारस जी बइठका पर बइठल हलन । एगो तेसर अमदी परगट होयल ।; दोसर-दोसर मरीज के देख रहलन हल । मगर हमरा बइठइले हलन । हमरो से बीच-बीच में थोड़े-थाक बतिअउते जा हलन ।; एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।)    (अरंबो॰13.28; 31.21; 74.18; 75.10)
416    धउगना (= दौड़ना) (रामनाथ जी लइका के हाँथ धइले गोली के अवाज दन्ने चल देलन हल । लइका छोड़ा के भाग चलल हल । रामनाथ जी ओक्कर पीछे-पीछे धउग रहलन हल ।; जब से पुल बनल हल, जहाना से अतौलह होइत खीरी मोड़ आउ फेन पाली जाय के कत्ते आसान हो गेल हल । बाठ रे बाठ ! मार नया-नया बस फरफर उड़इत रहऽ हल । - खीरी मोड़ ! ... खीरी मोड़ ... रट लगउते नञ जाने कत्ते बस झोंक्का देइत, धउगते रहऽ हल ।; एकलौती बेटी हे । बेस लइका के तलास हे । बियाह ठीक करे वास्ते धउग रहली हे । मुजफ्फरपुर, पटना, टाटा, धनबाद, बोकारो । गया जी में भी चक्कर लगा रहली हे ।; नहा के माँ दुर्गा पूजा करे सीसा के मढ़ायल फोटो भिरी जाय के तइयारी में ही । एगो लइका धउगल आके कहऽ हे - सर, गुल्लू मेडिकल टेस्ट में कम्पीट कर गया ।)    (अरंबो॰44.28; 52.12; 73.14; 79.28)
417    धउगा-धउगी (= दौड़ा-दौड़ी) (सोमनाथ जी धउगलन अवाजे दन्ने । साथे-साथे उनखर चेलो-चाटी । देखऽ हथ अँधारे में अहरा पर कुछ लोग खड़ी हथ । बीच-बीच में चोरबत्ती बरऽ हे । बन्दूको चले के अवाज आवऽ हे । धउगा-धउगी मच्चल हे ।; दिन भर खेत में चिरइँ-चुरगुन चेंचें, चेंचें करइत रहऽ हल । हमनी पाँचो भाय चिरइँ पकड़े ला धउगा-धउगी करइत रहऽ हली ।)    (अरंबो॰59.22; 62.20)
418    धमधमाना (रमबिलसवा के माथा चकराय लगल । पिअरिया के केस हवा में फुरफुर उड़ रहल हल । हाय रे हाय ! ओइसन कपूर से धमधमायल, तील के तेल से सँभारल केस कइसन भूअर-भूअर हो गेल हल !)    (अरंबो॰102.8)
419    धरना (= रखना, पकड़ना) (रामनाथ नजीक पहुँच के देखऽ हथ - दु-चार गो ललटेन हे । दस-बारह गो अमदी हथ । एगो अमदी, एगो बुतरू के हाथ धइले हथ । बुतरू रो रहल हे । ओक्कर गाल पर तमेचा पर तमेचा जब-तब आ बइठऽ हे ।; ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?)    (अरंबो॰41.26; 42.7, 9)
420    धराना (= रखवाना; पकड़ाना) (सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल ।)    (अरंबो॰43.5)
421    धात-धात (बिलइया के नानी धात-धात कइलका आउ बाल्टी के दूध ओघड़ा गेल । ओतने बड़ा बाल्टी के दूध टेढ़-मेढ़ होके ढेर दूर तक बह गेल ।)    (अरंबो॰17.11)
422    धीया-पुत्ता (पेट काट के करजा भरना मोसकिल बात हे । धीया-पुत्ता वाला घर में कहियो केकरो का भेलो, तो केकरो का । पइसा लौटावे के शक्ति नञ होत ।)    (अरंबो॰36.14)
423    धुइयाँ (= धुआँ) (बात धीरे-धीरे धुइयाँ नियर फइले लगल । कानाफूसी होवे लगल - अध्यक्ष महोदय भ्रष्टाचार के खिलाफ हथ । पइरवी के खिलाफ हथ । ... कातो फेन से इंटरव्यू ला कागज भेजावल जाइत ।; कछुआ छाप अगरबत्ती के धुइयाँ कोठरी के हवा में मिल-जुल गेल हल । मच्छड़-डाँसा कहीं दबकल पड़ल होता ।)    (अरंबो॰25.9; 71.13)
424    धूरी (= धूलि) (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !)    (अरंबो॰18.10)
425    धोकड़ी (= जेभी; जेब) (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?)    (अरंबो॰42.8)
426    धौंकड़ी (अब गया, गया से चौरी आउ चौरी से गया आवे-जाय के धौंकड़ी नञ करे पड़त । सोमनाथ जी नउकरी से अवकाश प्राप्त कर चुकलन हे ।)    (अरंबो॰52.15)
427    नकटी (= नककटी, कटी नाक वाली {स्त्री}; नाक की मैल) ("बोद्दा रानी / बोद-बुदक्कड़ / चुल्हा ऊपर लक्कड़ / चुल्हा पर चकटी / धनुआँ के सास नकटी ।" धनुआँ अप्पन सास के नकटी सुन के लजा गेल । ऊ मम्माँ के अप्पन छोटे-छोटे हाथ से मारे लगल । मम्माँ हँसइत-हँसइत बोलल - अच्छा भाय, धनुआँ के सास नञ, रानी के सास नकटी । तब कहीं धनुआँ अप्पन हाथ रोकलक ।)    (अरंबो॰93.14, 15)
428    नजायज (= नाजायज) (मुचकुन जी जायज-नजायज पर विचार करे लगलन हल । जायज बात ला ओहू दौड़े लगलन हल । सोंचे के बात हे, जायज पैरबी करावे वाला केत्ते अमदी होवऽ हे ? - नजायज भी चुन लेतन होत तो अभी जिनगी दोसर रहत होत ।; गाम के लोग उनखर रोआब मानऽ हथ । बेस पढ़ावे वाला मास्टर में उनखर सुमार हल । अनुशासन के मामला में खुब्बे कड़ा हलन । का मजाल, कउनो उनखा से नजायज काम ले ले ।)    (अरंबो॰35.20; 69.24)
429    नजीक (= नजदीक, पास) (फिन अवाज दन्ने, तिरछे कोना काटले, चल देलन हल । लइका पाँच मिनिट के दूरी पर हल । लइका के नजीक पहुँचियो गेलन हल ।; रामनाथ नजीक पहुँच के देखऽ हथ - दु-चार गो ललटेन हे । दस-बारह गो अमदी हथ । एगो अमदी, एगो बुतरू के हाथ धइले हथ । बुतरू रो रहल हे । ओक्कर गाल पर तमेचा पर तमेचा जब-तब आ बइठऽ हे ।)    (अरंबो॰41.20, 25)
430    नञ (= नयँ; नहीं) (हमरा कहानी संग्रह छपावे ला मगध यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष डॉ॰ ब्रजमोहन पाण्डेय नलिन हमरा हुरइत रहऽ हलन । किसान कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष आउ हम्मर मित्र प्रो॰ वीरेन्द्र कुमार वर्मा प्रकाशन ला हमरा कम दिक नञ कइलन ।; दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल ।)    (अरंबो॰9.16, 11.21)
431    नद्दी (= नदी) (एगो गाँधीवादी नद्दी के धारे पलट देलन हल । हमनी पढ़ल-लिक्खल लोग का तो चेतना जगावे अइली हल । ई आदिवासी से, निरक्षर से, निर्धन से मिले-जुले से का तो हमनी के चेतना जागत । अजगुत बात ।; माय के सब बगइचा दन्ने ले गेलन हल । फिन नद्दी दन्ने । हम सब बात जान गेली हल । एक दिन चुपचाप हम नद्दी अकेल्ले चल गेली । माय कहीं नञ मिलल । लौट के कोनमा आम भिरी गेली । कोय नञ हल । हम रामजी नियर रो-रो के कोनमा आम से पूछे लगली - हम्मर माय केन्ने गेल ?; बाप के जे एत्ते दुलारते देखलक से ऊ फुट-फुट के काने लगल । रामधनियों से नञ रहल गेल । बुतरूओ से बत्तर ऊ काने लगल । आँख से लोर बरखा के नद्दी नीयर बहे लगल ।)    (अरंबो॰13.24; 19.14, 15; 94.14)
432    नमहस्सी (< नाम+हँसी) (परसादी हमरा से बोलऽ हल - पढ़ा-लिखा के बिरजुआ के बी.डी.ओ. बनौली से गलती कइली । एगो सीसी में अंग्रेजी दारू लाके दे दे हल आउ कोठरिए में बइठ के पीए कहऽ हल । ... जो एगो जमायत नञ रहल, हँसी-मजाक नञ होल तो ई का पीना होल । बी.डी.ओ. के बाप कातो कलाली में बइठ के नञ पीए । ओक्कर नमहस्सी होयत । एहू कउनो बात होल । कातो हाकिम के नाक एकरा से कट जाइत ।)    (अरंबो॰85.3)
433    नय (= नञ; नहीं) (हम तो छुटतहीं बोलम - सरकार, घोड़िया के देख लेल जाय । अइसन ने तूँ एही समझ लऽ कि हमरा टमटम हाँके के लूरे नय हे ।)    (अरंबो॰100.24)
434    नराज (= नाराज) (भोला बाबू अपन मेहरारू के दखल-अंदाजी से नराजो हो जा हलन ।)    (अरंबो॰89.24)
435    नहकारना (= नकारना; अस्वीकार करना) (मेहरारू के रोज-रोज के ताना करेजा छेद करऽ हे । ... तोरा की औकात हो ? दरिद्दर तो हऽ । बहिन के बियाह में सब कुछ लुटा देलऽ । अब तोरा के काम देतो ? पौरुष आउ अहंकार से हम सब नहकारले हली ।; रतिए में बिलसवा अइँटा तरे चाप के नुकावल लिफाफा निकासलक । एही लिफाफा खातिर तो ओक्कर पीठ फाड़ देल गेल हल । मालिक के छोटका बेटा पुछलन हल - तुम्हीं लिए होगे । आउ आखिर लिफाफा चोराबे ला हींआँ भूत आवेगा ? तुम्हीं मेरा कोठरी बहाड़ने आते हो । बताओ ठीक-ठीक, नहीं तो हाँथ-पैर सब तोड़ देंगे । बिलसवा एकदम नहकार गेल हल ।)    (अरंबो॰79.19; 98.9)
436    नानी-घर (= ननिहाल) (नानी मरल, नाता टूटल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?; बाबू बीसे-एकइस बरिस के होतन कि बाबा मर गेलन । मम्मा अप्पन नइहर गेल हल, जइसन सुनऽ ही । बाबू उनखा लावे ला अप्पन नानी घर गेलन । एन्ने लूटपाट मच गेल ।)    (अरंबो॰19.20; 78.11)
437    नाया (= नया) (देखऽ ने, आझ सोहराय हे । सब कोय नाया-नाया कुरता-पइँट पेन्ह-पेन्ह के मेला घुरे गेलन हे । हमरो चले कहऽ हलन । अइसन डोम नीयर मैला पेन्ह के जइतूँ होत ?)    (अरंबो॰97.17)
438    निकसना (= निकलना) (एकबैग ओकील साहेब दन्ने मुँह करके हम पूछली - अब का करे के हे ? मगही के एगो हम्मर मुँह से निकसल बात लोग नञ समझ रहलन हे । अचरज से हम्मर मुँह ताक रहलन हे ।; दिवाकर मुँह पर विजय के मुस्कान ओढ़ले कमरा के बाहर निकसलन ।; मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी ।; अपने के ई शोभा नञ दे हे । मामू के निकस जाय ला कहना लाजिम नञ हल ।)    (अरंबो॰21.9; 24.22; 34.9; 51.8)
439    निकासना (= निकालना) (घर में सब लोग हथ । दूर-दूर से ताकऽ हथ, मगर हमरा भिरी कोय नञ आवऽ हथ । हम अप्पन झोला से फोटू निकास के देखावऽ ही, मगर कोय नञ सटऽ हे । रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही ।; नेता सबके भासन सुन के उनखर कान गरम हो गेल हल । अंगरेजन के ई देस से निकासहीं के काम हे !; बड़कू के आउ पहलमान के बेटा के हमनी अभी बाहर निकास देली हे । बाढ़ भेज देली हे ।; देवी-देओतन जे निकास देल गेलन हल, ओही सीरा घर में तो नञ, मगर किराए के मकान में अब फिन स्थापित हो गेलन हे ।; अमदी हमउमिर के साथ बइठ के गप-सप करके समय निकास दे हे । अब तो परसादियो चल देलक । अब हम केकरा से बोली, बतियाइ ?)    (अरंबो॰14.21, 22; 35.5; 67.18; 80.16; 85.7)
440    निच्चे (= नीचे) (तखनी हम अठमी या नोमी किलास में पढ़ऽ हली । हम्मर आउ छोटका भाय, सब आउ निच्चे किलास में । छोटका तो तखनी पढ़वो नञ करऽ हल ।)    (अरंबो॰62.4)
441    नीयर (= निर, नियन; जैसा, समान) (ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।; रामधनी के आउ नञ रहल गेल । गते-गते चोर नीयर ऊ अप्पन माय के खटिया भिरी गेल ।)    (अरंबो॰94.2, 3)
442    नीसा (= नशा) (पहलमानो, भइए के रस्ता पर हल । जमीन खरीदे के ओकरा नीसा हल । बड़का भइया आउ पहलमान दुन्नू मिलके जमीन पाँच बिगहा से डेढ़ सौ बिगहा कर देलन हल ।)    (अरंबो॰66.10)
443    नुकना (= छिपना) (ई आम से ऊ आम तर बउड़ा रहल हे । हमनी बगैचवा के पुरवारी-उतरवारी कोनमा में कोनमा आम दन्ने कनखी से ताक रहली हे । गमे तब न । गुल्ली खोज के ओही कोनमा आम के चार चक्कर लगावऽ । एन्ने हमनी सब फिन नुक जइबो । खोजइत रहऽ ।; ("बिलास जी कन्ने हथ ? ... एतना फरेब ? ... ई धाँधली ? ... जनता के राहत का मिलत ?" गियारी साफ करे के वास्ते खखरलन हल । 'पिच !' - कफ के एगो नुक्कल टुकड़ा ठेला के सड़क पर आ गिरल हल ।; भोला बाबू के तनी खोंखी उठल । बलगम के एगो नुक्कल टुकड़ा खड़खड़ायल । मटर के खिड़की से मूँड़ी बाहर निकास के पच से फेंकलन ।)    (अरंबो॰18.19; 38.7; 86.8
444    नुकाना (= छिपाना) (रतिए में बिलसवा अइँटा तरे चाप के नुकावल लिफाफा निकासलक । एही लिफाफा खातिर तो ओक्कर पीठ फाड़ देल गेल हल ।; चिट्ठी लिफाफा के भितरे रख देलक आउ ओकर मुँह भात से साट देलक । तब ओकरा अप्पन पैंट के नीचे कम्मर भिरी नुका लेलक । रतिए मैदान जाय के बहाने से एगो लोटा लेले बहरायल ।)    (अरंबो॰98.4, 15)
445    नोंचना (= नोचना; नख आदि से खुजलाना; उखाड़ना, उजाड़ना; खरोंचना; क्षत या विदीर्ण करना) (गबड़ा भिरी खड़ा हली । तनी सा ठेला गेली । आउ गन्दा, बदबूदार पानी में गिर पड़ली । हम्मर सौंसे बदन में जोंक लपट गेल । गन्दा पानी के कीड़ा हम्मर बदन नोंचले हे ।)    (अरंबो॰79.23)
446    नो-बज्जी (~ गाड़ी = नौ बजे वाली गाड़ी) (कभी इतिहास, कभी भूगोल, कभी अंगरेजी जोर-जोर से बोल के पढ़ना जरूरी हल । तनिक्को से जे रुकली कि नाना के टेर सुनाय पड़ऽ हल । - शेरसिंह, बोली नञ सुन रहलिअउ हे । झुकऽ हीं का रे ? ... हम जो जिरिक्को रुकली तो फिन बोल-बोल के पढ़ना शुरू कइली । ... झक-झक, झक-झक, झक-झक ... टीं ... ईं ... ईं ... करइत नो बज्जी गाड़ी होयल, तब हमरा छुटकारा ।)    (अरंबो॰49.24)
447    नोमी (= नोम्मी; नवमी तिथि; नववाँ) (तखनी हम अठमी या नोमी किलास में पढ़ऽ हली । हम्मर आउ छोटका भाय, सब आउ निच्चे किलास में । छोटका तो तखनी पढ़वो नञ करऽ हल ।)    (अरंबो॰62.3)
448    न्योता-पेहानी (राजधानी से गाम ऊ लउट अइलन हल । सात-आठ दिन बाद एगो शोक-संदेश मिलल । न्योता हल, मिन्टू के मउअत के ब्रह्म-ज्योनार के । पारस जी से प्रोफेसर रामदीन के न्योता-पेहानी चलऽ हल । रामदीन जी चउक पड़लन । तो राजधानी में पारसे जी के बेटा मिन्टू के मारल जाय पर चरचा हो रहल हल !)    (अरंबो॰31.2)
449    पँच-पँच (= पाँच-पाँच) (कोनमे आम के जड़ तरी सब गिरबा देली चोरवा से । बालुओ सब आउ गुलियो । आँख बंद के बंद । देखता बाबू साहेब कइसे ? थोड़े दूर एन्ने-ओन्ने घुमा-फिरा के उनखा छोड़ देल गेल । अब खोजऽ बबुआ ! नञ तो पँच-पँच चट्टी सब लेबो । ... खोजऽ ... आउ फिन खोज के छूअ केकरो । नञ तो चोर बनतो के ?)    (अरंबो॰18.15)
450    पँजरा (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !; एतने में कस के अंधड़ चले लगल । धूरी से अकास भर गेल । गरदा के मारे कुच्छो ठीक-ठीक सुझहूँ नञ लगल ।)    (अरंबो॰18.10; 99.13)
451    पइँचा-कौड़ी (गंगा माय जखनी हमनी के जमीन निगल जा हलन, हमनी खाय-खाय के मोहताज हो जा हली । पइँचा-कौड़ी से कयसहूँ दिन कटऽ हल ।)    (अरंबो॰62.13)
452    पच (~ से) (भोला बाबू के तनी खोंखी उठल । बलगम के एगो नुक्कल टुकड़ा खड़खड़ायल । मटर के खिड़की से मूँड़ी बाहर निकास के पच से फेंकलन ।)    (अरंबो॰86.9)
453    पचीसी (एतनिए में बाबा के मुरती ओकर आँख के तरे नाचे लगल । अखनी बाबा लुंगी आउ कुरता पेन्हले पिपरा भिरी वाला घरा में बइठल होतन । दु-चार अमदी आउ बइठल होतन । सोहराय में पचीसी हुआँ पर बिच्छल होत ।)    (अरंबो॰96.3)
454    पटाना (= पड़ना, लेटना) (खिस्सा चलइत रहल । दादी-पोता खिस्सा कहते-सुनते कखनी सुत गेलन, एक्कर केकरो खबर नञ । ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल ।)    (अरंबो॰93.26)
455    पठरू (= बकरी का बच्चा; पाठा या पाठी) (बाबू जी कचहरी से आ गेलन । अढ़ाय बज रहल हे । भोरउआ कचहरी में देर पहिलहूँ होवऽ हल । उनखर मुँह दन्ने आँख उठयली ।... हम्मर बेटा के गोदी में पठरू नियर उठयले, खड़ाऊँ पहिरले खड़ा हथ ।)    (अरंबो॰84.13)
456    पढ़ल-लिक्खल (= पढ़ल-लिखल) (सब हाकिम एक्के बात पर जोर दे रहलन हल - हमनी पढ़ल-लिक्खल लोग, ई पिछड़ल इलाका में अइली हे ।; एगो गाँधीवादी नद्दी के धारे पलट देलन हल । हमनी पढ़ल-लिक्खल लोग का तो चेतना जगावे अइली हल । ई आदिवासी से, निरक्षर से, निर्धन से मिले-जुले से का तो हमनी के चेतना जागत । अजगुत बात ।)    (अरंबो॰13.10, 24)
457    पढ़ल-लिखल (= पढ़ा-लिखा) (तोरा अइसन पढ़ल-लिखल लोग के चेतना जो जागत तब समाज जागत ।; नाना मामूली पढ़ल-लिखल अमदी हलन । अक्षर ज्ञान हल, बस । मगर हलन बड़गो किसान । नाती के पढ़ा-लिखा के दरोगा बनावे चाहऽ हलन ।; छोटा बेटा औफिस चल जा हे । पुतोह घर-दुआर संभालऽ हथ । भोजन बनावे से लेके लइका सँभाले तक उनखर ड्यूटी हे । थोड़े पढ़ल-लिखल हथ ।)    (अरंबो॰13.19; 48.8; 81.19)
458    पढ़ाय (= पढ़ाई) (गाँव में घर पर बाबू जी मरलन हल । तखनी सोमनाथ दस-एगारह बच्छिर के होतन । छनका फिन लगल - छन !! बाप रे ! ... कॉलेज के पढ़ाय पूरा करइत-करइत भइयो गुजर गेलन ।; काहे नञ मर जाऊँ ? चौबीस हजार रूपइया ग्रुप इन्स्योरेन्स के हम्मर परिवार के तो भेंटा जायत । फिनो पेंशन आउ जी.पी.एफ. आउ ग्रेचुटी के रुपईया । बेटी के बियाह, बाल-बच्चा के पढ़ाय पूरा करे के बस एक्के गो उपाह हे - हम्मर मिरतु आने मुकती !)    (अरंबो॰55.15; 74.5)
459    पढ़ाय-लिखाय (= पढ़ाई-लिखाई) (एक साल सूखा पड़ल । सोमनाथ जी के खेती-बारी के चिन्ता हल । नउकरी से छुट्टी लेके अप्पन ध्यान खेती-बारी पर केन्द्रित कइलन हल । महीना दू महीना गाँव रहे पड़ल हल । बाल-बच्चा के पढ़ाय-लिखाय लेल मेहरारू-बच्चा सबके शहर में छोड़ देलन हल । खेती-बारी तो सँभल गेल हल मगर लइकन के पढ़ाय-लिखाय ? सब चौपट ।; हमरा से हम्मर पढ़ाय-लिखाय के बात पूछऽ हलन । बड़गो होके का बनमऽ रे ?)    (अरंबो॰53.10, 11; 83.21)
460    पढ़ौनी (=पढ़उनी; अध्यापन कार्य) (नौकरी ला पढ़ौनी विभाग हम चुनली हल । सोभाविक हे, घर के सब पढ़ताहर हमरे जिम्मे ।; हम सोंचऽ हली, जब हम्मर माथे नञ काम करऽ हे, तो नौकरी आउ केत्ते दिन कर सकम ? घरो पर पढ़उनी के काम बन्द करे पड़त ।)    (अरंबो॰66.18; 75.16)
461    पतरकी (= पतली) (हम्मर घर से रमधानी पाँड़े के घर, फिन रमधानी पाँड़े के घर से रमजानी मियाँ के घर, फिन पतरकी गल्ली से घुम्मल-घुम्मल मिठकी कुइयाँ तक आउ फिन मिठकी कुइयाँ से असमान फइल गेल । नञ जाने कत्ते बड़गो होतइ ई असमान ! ... ... बामन कोस के ।)    (अरंबो॰17.13)
462    पन-छो (= पान-छो; पाँच-छह) (तब से ई नियम बन गेल हल । कउनो सुराजी मिटिन, पन-छो कोस के गिरिद होवे, ऊहाँ पहुँचना उनखा जरूरी हल ।)    (अरंबो॰35.6)
463    परकी साल (= परसाल) (तीन बरिस से बेटी ला लइका ढूँढ़ रहली हे । बेटी बी.ए. औनर्स कइलक तभिए से । परकी साल एम.ए. । देखे में साफ-सुत्थर हे । बेस हे । ई सीता लगी एगो राम चाहऽ ही ।)    (अरंबो॰73.12)
464    परनाम (= प्रणाम) (हाँ, एगो फरक ऊ महसूस करऽ हथ । लइकन सब, जे पैर छूके परनाम करऽ हल, अब खाली हाथे जोड़ के परनाम करऽ हे । कउनो-कउनो तो मटिआइयो देहे । जब से बेटा बागी हो गेल हल, डाँट-फटकार कर के अप्पन अधिकार अपने समाप्त कर लेलन हल ।)    (अरंबो॰54.16, 17)
465    परपंच (= प्रपंच) (एक बार हम ओकरा खत देली । तोरा बड़का बाबू से मिले के मन नञ करऽ हउ ? हम तोरा कत्ते परपंच करके पढ़इली-लिखइली । बिलायत भेजली । कहाँ-कहाँ से ओत्ते पइसा जुटइली । ... जानऽ हऽ एक्कर जवाब ऊ का देलक ? हिसाब जोड़-जाड़ के लिख के भेजलक कि हमरा पढ़ावे-लिखावे में अपननी के जादे से जादे पचास हजार रूपइया लगलो होत । बैंकड्राफ भेज रहली हे ।)    (अरंबो॰65.28)
466    परफेसर (= प्रोफेसर) (एगो जुआन नजीक आके देखलक हल - अरे, मर तो नञ गेलइ ? ... सरबा ओकील बनऽ हल ! रामनाथ जी के नजीक से देखतहीं ऊ जुआन के मुँह से निकस पड़ल हल - परफेसर साहेब ! ... गुरुजी ! ... हम चीन्ह नञ सकली ।; आझ के जमाना में पैरबी चलऽ हे । परफेसर शेर सिंह भी दूध के धोबल नञ हथ । कुछ न कुछ पैरबी सुनिए ले हथ ।; अब सब कामना पूरा होवे ला हे । हम परफेसर बनम ।)    (अरंबो॰43.24; 46.13; 79.10)
467    परबी (= परब; पर्व; दशहरा, होली आदि पर्वों के अवसर पर सहायकों, नौकर-चाकर तथा पवनियाँ को उपहार स्वरूप दिया जाने वाला धन या सामान; पर्व से सम्बन्धित) (सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत । फिनूँ परबियो लगी तो सर-सरजाम लेवे के हे । दुइए रूपइया में सब्भे करे के हे ।; ढोल-मँजीरा पर फाग के धूरी उड़ रहल हल । सगरो मस्तीए-मस्ती छायल हल । गोस्सा के मारे धनुआँ के मम्माँ, परबियो में कुच्छो नञ पकउलक । पोतवा लागी खाली चार पइसा के बुनिया आउ दू पइसा के तेलही जिलेबी ले आल ।)    (अरंबो॰92.13; 93.2)
468    परभाव (= प्रभाव) (कोय के हँसी-खोसी के परभाव ओकरा पर नञ पड़ल हल । मगर ई देख के, ओकरो आँख छलछला आयल । ओक्कर लोर से डाँड़-टिल्हा, घर-दुआर सब्भे ओद्दा हो गेल ।)    (अरंबो॰94.18)
469    परसताहर (= परसने वाला) (बहरसी कोठरी में भर कोठरी अमदी । सब बाबू के दोस । खूब खाना-पीना चलऽ हल । परसादी साव आने परसादी चच्चा के जिम्मे पीए के हिसाब । हम परसताहर । कचौड़ी, पकौड़ी छना रहल हे । धउग-धउग के परसना हम्मर ड्यूटी ।)    (अरंबो॰84.5)
470    परानी (दुन्नु ~ = पति-पत्नी) (आठ बरिस हमर बेटी के बियाह के हो गेल । आझो हमनी दुन्नु परानी करजा-पैंचा उतारिए रहली हे ।)    (अरंबो॰73.5)
471    परेम (= प्रेम) (देख, पहिले परिवार में हमनी सात-आठ अमदी हली । दू कोठरी के घर हल । एक्के चूल्हा जुटऽ हल । सब में बड परेम हल ।)    (अरंबो॰67.13)
472    पसुली (= पसली) (सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल ।)    (अरंबो॰43.5)
473    पसेना (= पसीना) (सपासप पछिया चल रहल हल । गरमी के दुपहर । पसेना से तरबतर रमबिलसवा घोड़िया के रह-रह के ताल देले हल ।)    (अरंबो॰99.1)
474    पहड़तल्ली (तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल ।)    (अरंबो॰83.11)
475    पहलमान (= पहलवान) (सच्चो ऊ बदहोस हो गेलन । हाथ-पैर ओयसीं अईंठल । पहलमान भाय डागडर हीं दउड़ल । का करे के चाही आउ का नञ, कुछ समझे में नञ आवे ।)    (अरंबो॰61.5)
476    पहिलहीं (= पहले ही) (तोर बाप, बुचकुनमा जब चारे बरिस के हल, तभिए बाबूजी चल देलन हल । ओक्कर पहिलहीं माय दुनियाँ से चल देलक हल ।)    (अरंबो॰34.15)
477    पहिलहूँ (= पहले भी) (बाबू जी कचहरी से आ गेलन । अढ़ाय बज रहल हे । भोरउआ कचहरी में देर पहिलहूँ होवऽ हल ।)    (अरंबो॰84.12)
478    पाछू (= पीछे) (बी.डी.ओ. साहेब कहऽ हलन - ई लइका तो जीनियस हे । एकरा आइ.ए.एस. होवे के चाही । नाना 'हाँ-हूँ' तो कह दे हलन मगर उनखा ई बात पसंद नञ हल । पाछू में बोलऽ हलन - आई.ए.एस. का होयत ? अरे हम्मर नाती तो दरोगा होयत, दरोगा ।; जिनगी के किताब के पन्ना पाछू पलटा हे । सोमनाथ जी पढ़ऽ हथ । सब पेज लगातार नञ, बस जहाँ-तहाँ से । समय के आँधी पलट के जे पन्ना सामने कर दे हे, सोमनाथ जी ओहे पढ़े लगऽ हथ ।; ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।)    (अरंबो॰49.11; 52.17; 94.2)
479    पाट-पुरजा (= पार्ट-पुरजा) (कुछ अमदी से सेट् एगो मिसिन नियर होवऽ हे । सेट् के पाट-पुरजा घिसऽ हे । टुटऽ हे । एक-दू गो पाट-पुरजा बचल रहलो से सब बेकार ।)    (अरंबो॰85.10-11, 11)
480    पाटी (= पार्टी) (एक जनवरी के रात तक हम ठीके हली । पाटी खयली । सिलेमा देखली । नया साल मनौली ।)    (अरंबो॰74.9)
481    पान-छो (= पन-छो; पाँच-छह) (हमनी आने हम आउ हम्मर समर्थक, पान-छो दोस मिल के चार-पाँच सो वोट दे देली । का मजाल कि कउनो हुज्जत करे ।; इसकूल से कौलेज, कौलेज से इनवरसीटी । सोंचऽ हलन, देह तनी आउ साथ दे । पान-छो बरिस कट जाए, बस । फिन तो मउजे-मउज हे ।)    (अरंबो॰24.4; 87.1)
482    पिंसिल (= पेंशन) (सरकार पिंसिल एतना भर दे देहे जेतना में दुन्नू परानी के गुजर-बसर आसानी से हो जाइत । फिन कधियो कोय बेमार पड़ली, कधियो मेहरारूए के रोग-बेआधि होल तो गाँव में डागडर-वइद के समस्या हे ।)    (अरंबो॰55.4)
483    पिच ("बिलास जी कन्ने हथ ? ... एतना फरेब ? ... ई धाँधली ? ... जनता के राहत का मिलत ?" गियारी साफ करे के वास्ते खखरलन हल । 'पिच !' - कफ के एगो नुक्कल टुकड़ा ठेला के सड़क पर आ गिरल हल ।)    (अरंबो॰38.7)
484    पिचाना (= दबना) (मन नञ लगऽ हे । ई लगऽ हे जरूर कि हॉल के सब दीवार एक दोसर से सट्टल आ रहल हे । सब भाग जइतन । खाली हम ओकरा में पिचा जायम ! हॉल से भागे चाहऽ ही ।)    (अरंबो॰76.24)
485    पित्तर (= पीतल) (लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।)    (अरंबो॰92.12)
486    पिराना (= पीड़ा होना; दुखना; थकना) (धनुआँ के मम्माँ अपने बेटवे के गरिया रहल हल । पास-पड़ोस के दु-चार अमदी मजा लेवे ला जामा हो गेलन हल । धनुआँ के मम्माँ कस-कस के गरिअइले हल । आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल ।)    (अरंबो॰92.26)
487    पीयर (= पीला) (विमल जी के होमियोपैथिक किताब पढ़े के चस्का लग चुकल हे । इसकूल से आवे के बाद अब एकरे में समय ऊ दे हथ । पचास बरिस पार के अमदी । भक-भक गोर हला । अब तनी पीयर लगऽ हथ ।)    (अरंबो॰68.3)
488    पीरी (= पीलिया) (करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे । जब से पीरी होल, तब से उनखर ढाँचा में ई परिवर्तन आयल । जखनी पेन्हले-ओढ़ले रहऽ हलन, तब लोग उनखा मलेटरी के कौनो भारी अफसर बुझऽ हलन । पीरी के बाद उनखर जे बदन टूटल, से फिन बनल नञ ।; लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।)    (अरंबो॰68.5, 7; 69.15)
489    पुरजी (डागडर साहेब पुरजी में लिखलन हल - डिप्रेशन बैलियम-5 ।; पुरजी में लिखऽ हथ - ऐक्यूट डिप्रेशन ऐण्ड सडेन डिसऐपियरेन्स - सिन्टामिल टेबलेट, रात में सोने समय एक ।)    (अरंबो॰74.16; 75.26)
490    पुरनकी (= पुरानी) (1967 से अब तक गया में रहली । गया के निवासी हो गेली । हम्मर पुरनकी कहानी पर नालन्दा जिला के भाषा के परभाव हे । बाद के कहानी पर गया जिला के परभाव हे । गया, जहाना में ओझा लोग 'आदमी' के अमदी बोलऽ हथ ।)    (अरंबो॰8.24)
491    पुरबारी (= पूरब तरफ वाला) (खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !)    (अरंबो॰18.2)
492    पुरबारी-उतरबारी (खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !)    (अरंबो॰18.2)
493    पुरूवारी (= पुरबारी; पूरब वाला) (खिस्सा चलइत रहल । दादी-पोता खिस्सा कहते-सुनते कखनी सुत गेलन, एक्कर केकरो खबर नञ । ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल ।)    (अरंबो॰93.26)
494    पुरैनियाँ (= पूर्णिया) (मटर में बइठल, भोला बाबू के आद पड़ल - एक बेर पटना से पुरैनियाँ जा रहलन हल । पटना से बरौनिएँ तक के टिकस लेलन हल । बरौनी में गाड़ी बदल के छोटकी लैन के गाड़ी पर बैठलन ।)    (अरंबो॰88.6)
495    पेन्हना (= पहनना) (एतनिए में बाबा के मुरती ओकर आँख के तरे नाचे लगल । अखनी बाबा लुंगी आउ कुरता पेन्हले पिपरा भिरी वाला घरा में बइठल होतन । दु-चार अमदी आउ बइठल होतन । सोहराय में पचीसी हुआँ पर बिच्छल होत ।)    (अरंबो॰96.2)
496    पेन्हना-ओढ़ना (= पहनना-ओढ़ना) (मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी ।; करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे । जब से पीरी होल, तब से उनखर ढाँचा में ई परिवर्तन आयल । जखनी पेन्हले-ओढ़ले रहऽ हलन, तब लोग उनखा मलेटरी के कौनो भारी अफसर बुझऽ हलन । पीरी के बाद उनखर जे बदन टूटल, से फिन बनल नञ ।)    (अरंबो॰34.9; 68.6)
497    पैन-पोखरा (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !)    (अरंबो॰20.1)
498    पैना (= पइना; डंडा) (तुरते ऊ पिअरिया से बोलल - पिअरिया, देख, डागडर साहेब से मत कहिहँऽ कि हमरा ऊ पैना से नक्के पर मारलक हे । कह दीहें कि अइसन ठेस लगल कि दुहरिए से टकरा गेलूँ ।)    (अरंबो॰100.6)
499    पोड़ना (= पोरना, लगाना) (तेल ~) (हाय रे हाय ! ओइसन कपूर से धमधमायल, तील के तेल से सँभारल केस कइसन भूअर-भूअर हो गेल हल ! जब से हम्मर घर आल, एक्को पइसा तेलो पोड़े के नाम से नञ देलूँ होत ! हाय रे हाय !!)    (अरंबो॰102.9)
500    पोवार (- नञ, हम लेम तो ओइसने लेम ! - ओइसन लेके तूँ का करम्हीं रे, आँय ? तोरा ओकरो से नीमन ला देबउ । ओइसन पोवार नीयर पीयर फुचकारी का लेमँऽ, तोरा हम चानी नीयर चमचम ला देबउ । हहरऽ हँ काहे ला ?)    (अरंबो॰91.3)
501    फइटम-फइटी (हम्मर जिनगी के सबसे जादा परभावित करेवाला व्यक्ति श्री हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी हथ । ऊ हला तो हम्मर सहपाठी आउ मित्र मगर शुरूए से परिपक्व कवि आउ साहित्यकार हलन । हमनी में कहानी आउ उपन्यास लेके खूब बहस होवऽ हल । देखे वाला के लगऽ होत कि कब दुन्नू में फइटम-फइटी हो जाइत ।; तखनी हम अठमी या नोमी किलास में पढ़ऽ हली । हम्मर आउ छोटका भाय, सब आउ निच्चे किलास में । छोटका तो तखनी पढ़वो नञ करऽ हल । दिन भर सबसे फइटम-फइटी करइत रहऽ हल ।)    (अरंबो॰9.10; 62.5)
502    फर-फर (अब तो बस के भरमार हल । कत्ते ने कोच बस फर-फर उड़इत चलऽ हल । हर पाँच मिनिट पर एगो बस ।)    (अरंबो॰54.13)
503    फरमैस (= फरमाइश) (ओत्ते-ओत्ते रात तो चऊँके-बरतन में बीत जा हे । ओकरो पर पाँड़े के फरमैस । कभी ई कर, तो कभी ऊ कर ! मिजाज तो कुँढ़ जा हे ।)    (अरंबो॰97.14)
504    फलाना (= फलना; अमुक) (एक बेर प्रोफेसरो साहब के गाड़ी लुटायल हल । ... खरीद-फरोख खतम करके जब लउटलन तो गाड़ी लापता । एन्ने-ओन्ने खूब खोजलन हल । मगर गाड़ी जे रहे तब ने मिले । हतास होके थाना में सनहा दरज करावे गेलन । बातचीत के सिलसिला में ऊ थानेदार के बतउलन हल कि फलाना मंत्री तो हम्मर चेला हे ।)    (अरंबो॰28.20)
505    फाँड़ना (= फाड़ना) (लइका डेरा गेल ल । ऊ आँख फाँड़ के ताजक रहल हे । जे एगो घटना हल, ओकरा ला ऊ तइयार नञ हल ।)    (अरंबो॰53.5)
506    फाँड़ा (= धोती का अगला भाग जिसे उठाकर सामान रखने को थैला-सा बनाते हैं) (रामधनी कंधा पर गमछी रखलक आउ फाँड़ा में दू गो रूपइया । चलल बजार । बजार पहुँचे पर एक ठामा देखलक कि ढेर-सा पित्तर के फुचकारी लटक रहल हे - ठीक बुद्धन के बेटवा, छोटुए के जइसन ।)    (अरंबो॰91.10)
507    फिन (= फिनुँ; फेर; फिर) (फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।; गंगा माय फिन निगलल खेत उगल दे हलन । तखनी तक एक पसल मारल जा हल । फेन कुछ गोहूँ, कुछ मसुरी आउ कुच्छो से कुच्छो उपजऽ हल ।)    (अरंबो॰17.6; 62.16)
508    फिनुँ (= फिन, फेन, फेर; फिर, बाद में) (थोड़े देर में भइया होस में आ गेलन । एन्ने-ओन्ने, हमनी दन्ने ताकलन । सायद उनखा सुस्ती लग रहल हल । फिनुँ सुत गेलन ।)    (अरंबो॰61.17)
509    फिनूँ (= फेन; फिर) (- कामे तो भगवान हे बाबू ! ... मेहरारू के बोली में कोय बनावटीपन नञ हल । का निष्ठा से काम में ऊ फिनूँ जुट गेल, देखतहीं बनऽ हल ।; भइया बोलइत-बोलइत अलोप जा हथ । का सोंचे लगऽ हथ, नञ समझ सकऽ ही । - तोहनी तो जानऽ हँ, बड़कू आउ छोटकू, कोय ठीक से पढ़-लिख नञ सकल । ... हम चाहऽ हली कि चपरासियो वाला कउनो नोकरी ओकरा जे मिल जाइत होत, तो ई माहौल से ओकरा छुटकारा मिल जाइत होत । ... भइया फिनूँ गुम हो गेलन हल ।)    (अरंबो॰12.15; 67.8)
510    फुरफुर (रमबिलसवा के माथा चकराय लगल । पिअरिया के केस हवा में फुरफुर उड़ रहल हल । हाय रे हाय ! ओइसन कपूर से धमधमायल, तील के तेल से सँभारल केस कइसन भूअर-भूअर हो गेल हल !)    (अरंबो॰102.7)
511    फुल्लल (= फुला हुआ) (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।)    (अरंबो॰20.16)
512    फेट्टा (= फेंट्टा; पगड़ी, मुरेठा) (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?)    (अरंबो॰42.8)
513    फेन (= फिनूँ, फिनुँ; फिर) (जउन खेत में खुँटियारिए-खुँटियारी होय ओकरो बीच से पहिले लड़िकन चलऽ हथ । चलइत-चलइत एगो रस्ता उपजऽ हे । एकरे पगडंडी कहल जा हे । समय के साथ एही पगडंडी राजपथ बन जाहे आरू फेन एकरा पर बड़-बड़ुआ भी चले लगऽ हथ ।; हाकिम मस्टरनी से पुछलन - ठीक-ठाक चलइत हो न ? - हाँ बाबू, सब ठीके चलइत हे । फेन बोलल - हम्मर बच्चा बेमार हे ।; फेन दोसर बेर दुमका के ओही क्षेत्र में अइली हे ।; ठाकुर टुड्डू दा !! ... ठाकुर टुड्डू दा पलट के देखऽ हथ । फेन मुँह फेर के चल दे हथ । हम लगभग दउड़ पड़ऽ ही ।; कानाफूसी होवे लगल - अध्यक्ष महोदय भ्रष्टाचार के खिलाफ हथ । पइरवी के खिलाफ हथ । ... कातो फेन से इंटरव्यू ला कागज भेजावल जाइत ।; एकरा चीन्हऽ हऽ रामदीन जी ? एही न हम्मर एकलौता बेटा, मिन्टू हे । फेन मिन्टू दन्ने मुँह करके पारस जी कहलन - तनी चच्चा के डाँट तो दे । डेरा तो दे ।)    (अरंबो॰5.8; 12.10; 13.28; 14.5; 25.10; 31.9)
514    फैदा (आञ रे ! सुनलिअउ तू पियाज खाहीं ? किसोरिया कहऽ हलउ कि तूँ अंडो खाय लगलहीं ? - नञ मइया, ई बात नञ हे । पटनमा में हम कस के जे बिमार पड़लियइ हल ने, तब डागडर अंडा, मास खाय ला कहलथिन हल । बोललथिन हल कि ई सब खाय से दवाय जल्दी फैदा करतो । मास तो नञ खयली, मगर ...। - ओ ! डागडर कहलको हल । जेही कहिअइ, अइसन कइसे करत विमला ?)    (अरंबो॰70.13)
515    फोटू (= फोटो) (घर में सब लोग हथ । दूर-दूर से ताकऽ हथ, मगर हमरा भिरी कोय नञ आवऽ हथ । हम अप्पन झोला से फोटू निकास के देखावऽ ही, मगर कोय नञ सटऽ हे । रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही ।)    (अरंबो॰14.21)
516    फोहा (साँप के ~) (बंशीधर नाम सुनलऽ हे ? ई लइका उनखर हे । सब गैर मजरूआ आम जमीन के मालिक । ... बित्तन दुसाध के बाप-दादा उनखरे जमीन जोतइत-कोड़इत रहलन । उनखर घर में चोरी होल, बित्तन दुसाध जेल में । सौंसे गाम जानऽ हे - चोरी के कइलक आउ चोरी के करइलक हल । ... एतनिए कसूर हल कि तनी ऊ अईंठ के बोलऽ हल । ... रामजतन हरवाहा मजूरी माँगलक हल - सौंसे बदन सुक्खल जुत्ता आउ लाठी से फोड़ देल गेल हल । ... ई छउँड़ा ओही साँप के फोहा हे ।)    (अरंबो॰44.6)
517    बइठका (फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।; रात में एक घंटा ऊ अनपढ़ के अक्षर-ज्ञान देवे के बीड़ा उठयलन । का उमरगर, का बच्चा, सब के ई अप्पन बइठका पर जमा कइलन । अक्षर-ज्ञान  आउ पढ़ाय के महत्व पर प्रकाश डाललन ।)    (अरंबो॰17.7; 56.19)
518    बइठकी (गिरीश हीं बइठकी में हम, गिरीश रंजन, हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी आउ जिज्ञासा प्रकाशन के प्रकाशक श्री सत्येन्द्र जी गपशप में मसगूल हली । बात-बात में हम्मर कहानी संग्रह के प्रकाशन के बात उठल । पांडुलिपि तइयार हल ।; साँझ होयत हीं पढ़े ला बइठ जाना जरूरी हल । हाथ-गोड़ धोके, चक-चक जपानी बइठकी भिजुन किताब लेके हमरा बइठना जरूरी हल ।)    (अरंबो॰9.20; 49.19)
519    बइठना-बोलना (सोमनाथ जी के रहल नञ गेल । चिल्ला के ऊ बोल पड़लन - अरे कउन बात के तकरार हे ? का बइठ-बोल के फैसला नञ कर सकऽ ही ?)    (अरंबो॰59.24)
520    बउआ (= बबुआ; छोटा बालक; बच्चे अथवा अपने से छोटे के लिए स्नेहपूर्ण संबोधन का शब्द) (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल । देर रात हार-पार के अध्यक्ष महोदय बउआ के एगो फोटो लेले थाना पहुँचलन ।; अखबार में ऊ अपहरण के खबर पढ़ऽ हलन । ई सब खबर उनखा बाहियात लगऽ हल । मगर अप्पन साथ घटल घटना में उनखा शक पक्का हो गेल - उनखर बउआ के अपहरण होल हे ।; तीन-चार दिन से हम्मर बउआ गायब हे । लगऽ हे, कोय ओक्कर अपहरण कर लेलक ।)    (अरंबो॰25.17, 19, 24; 26.14)
521    बउड़ाना (= बउराना; आम के पेड़ में मंजर लगना; बउआना; सपना देखना; नींद में जो-सो बड़बड़ाना) (ई आम से ऊ आम तर बउड़ा रहल हे । हमनी बगैचवा के पुरवारी-उतरवारी कोनमा में कोनमा आम दन्ने कनखी से ताक रहली हे । गमे तब न । गुल्ली खोज के ओही कोनमा आम के चार चक्कर लगावऽ । एन्ने हमनी सब फिन नुक जइबो । खोजइत रहऽ ।; नींद आवे के नाम नञ ले । आउ नींद जे आयल तो रातों भर बउड़यते रहल । ... डाकपीन ओक्कर चिट्ठी लेले ओक्कर घर गेल हे । बाबा के ऊ कस-कस के पुकारले हे । बाबा घर पर हइए नञ हथ । कहाँ चल जा हथ ?)    (अरंबो॰18.17; 98.21)
522    बउड़ाना (तूँ कौन हऽ ? रात में काहे बउड़ायल चलऽ हऽ ? फेन सरदार बोललन हल - ई अदालत में एकरो सुनबाय हो जाइत । अभी तनी छउँड़ा के फैसला कर लेवे दे ।; हम कहाँ से कहाँ बउड़ा रहली हे ? ... नञ जाने कखनी से मेहरारू बिछौना भिरी खड़ी हलन । नजर मिलतहीं उनखर सवाल होल । - अपने के ई शोभा नञ दे हे । मामू के निकस जाय ला कहना लाजिम नञ हल ।)    (अरंबो॰42.12; 51.5)
523    बखत (= वक्त; समय) (ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।)    (अरंबो॰94.1)
524    बचल-खुचल (बाबू, जंगले हमनी के घर हल । आझो घर हे । जंगली जानवर के सिकार करऽ हली । जंगल के बचल-खुचल जमीन पर थोड़े-थाक खेती-बारी करऽ हली । सरकारी कानून बनल आउ जंगल से हम आदिवासी बेदखल हो गेली ।)    (अरंबो॰15.13)
525    बच्चल-खुच्चल (= बचल-खुचल; बचा-खुचा) (बिलसवा एगो दीया के बत्ती उसक-उलक आउ दोसरो-दोसर दीया के बच्चल-खुच्चल तेल ओकरे में ढार देलक, जेकरा में ई जादे देर तालुक जरे ।)    (अरंबो॰95.4)
526    बच्छड़ (= बच्छर; वत्सर, वर्ष) (बच्चा बड़का भइया से कह रहल हल - अब तो दू बच्छड़ में हमहूँ रिटायर करम । गामे में रहे ला सोंचली हे ।)    (अरंबो॰66.24)
527    बच्छिर (= बच्छर; वत्सर; वर्ष) (गाँव में घर पर बाबू जी मरलन हल । तखनी सोमनाथ दस-एगारह बच्छिर के होतन ।; माय माला जपइते-जपइते बिच्चे में बोलऽ हे - दुलहिन, हीएँ पर खीर लाके देहू । हमरे भिरी खायत । मेहरारू खीर जाम में दे जा हथ । पैंतीस-चालीस बच्छिर के विमल जी माइए भिरी गबर-गबर खीर खा रहलन हे ।; दू बच्छिर पहिले एगो खत लिखलन हल - तोर जुगेसर चच्चा चल देलन । ... जुगेसर चचा के घर ठीक हम्मर घर के सटले उतरबारी घर हल ।; गिरानी के जमाना । खानो-खरची तो जुम्मे के चाही । बिलसवा के दादा सेही गुने नउए बच्छिर के उमिर में ओकरा एक ठामा कोरसिस करके सहर में नौकर रखवा देलन हल ।)    (अरंबो॰55.15; 70.6; 82.17; 95.13)
528    बजार (= बाजार) (रामधनी कंधा पर गमछी रखलक आउ फाँड़ा में दू गो रूपइया । चलल बजार । बजार पहुँचे पर एक ठामा देखलक कि ढेर-सा पित्तर के फुचकारी लटक रहल हे - ठीक बुद्धन के बेटवा, छोटुए के जइसन ।)    (अरंबो॰91.10, 11)
529    बझाना (= फँसाना) (तखनिए एगो दोसर जुआन तमक के बोलल हल - कहलिअउ ने, ई सार खोफिया हउ खोफिया ।  हमनी के बात में बझा देलकउ आउ फँसा देलकउ ! सब तइयार हो जो ।)    (अरंबो॰44.19)
530    बड (= बड़; बहुत) (शेरसिंह बड सिगरेट पीयऽ हथ । बस, एही एगो ऐब उनखा में हे । बीसो सिगरेट दुइए-तीन घंटा में फूक देतन ।; अप्पन जिनगी के आखरी भाग अमदी के अप्पन जलम-भूमी में बिताबे के चाही । ... तों अइमा तो हमरो बड सहारा मिलत ।; देख, पहिले परिवार में हमनी सात-आठ अमदी हली । दू कोठरी के घर हल । एक्के चूल्हा जुटऽ हल । सब में बड परेम हल ।; भतीजा के पढ़ावे के बड कोसिस कइलन । मगर कोय खास पढ़-लिख नञ सकल ।)    (अरंबो॰47.25; 66.27; 67.13; 68.10)
531    बड़ (= बड़ा; बहुत) (घर में सब लोग हथ । दूर-दूर से ताकऽ हथ, मगर हमरा भिरी कोय नञ आवऽ हथ । हम अप्पन झोला से फोटू निकास के देखावऽ ही, मगर कोय नञ सटऽ हे । रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही ।; ई बात ठीक हे कि ई मामला में ऊ कड़ा हथ । जल्दी उनखा से कोई सट नञ सकऽ हे । मगर समाजे जब कमजोर हो गेल तो उनखरो कड़ापन में तनी कमी आयल हे । अइसे आउ बात में ऊ बड़ विनम्र हथ ।)    (अरंबो॰14.23; 46.17)
532    बड़का (= बड़ा) (खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !; हमनी बड़का घर छोड़ के किराया के छोटगर मकान में आ गेली । पूजा-पाठ बन्द । जे देवी-देओता हमर कुल के नास रोक नञ सकलन, उनखर पूजा-पाठ काहे ला ? सैद हम्मर बाबू जी के मन में एही विचार तखनी होयत ।; बाबू जी के रोपल पौधा सब अब झमठगर गाछ बन चुकल हे । मिटइत परिवार एगो बड़का जंगल में बदल गेल हे । अमदी के जंगल ।; बड़का बेटा एम.एस-सी. के इम्तिहान दे रहल हे । मंझला, नागपुर में इंजियरी पढ़ रहल हे । तेसरका मेडिकल के कम्पीटीसन के इम्तिहान में बइठल हे ।)    (अरंबो॰18.1; 78.27; 79.4, 6)
533    बड़गर (= बड़ा) (चयन समिति के सब सदस्य बइठल हथ । एगो बड़गर कुर्सी पर अध्यक्ष महोदय बइठल हथ । साक्षात्कार चल रहल हे ।)    (अरंबो॰22.1)
534    बड़गो (= बड़गर) (प्रोफेसरो साहेब के ताव आ गल हल । अप्पन पत्नी के रिक्सा से घर छोड़ के तुरते मंत्री जी के पास पहुँच गेलन हल । मंत्री जी के बड़गो अहाता में कइठो गाड़ी लगल हल । एगो गाड़ी अनमन उनखरे गाड़ी नियर लगऽ हल । मगर ई का, नम्बर प्लेट दोसर हल ।; हम चाहऽ ही बड़गो होवे पर ऊ बिच्छा नियर बड़गो-बड़गो मोछ रख ले । लोग एकरा देखिए के भय खायथ ।; सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल ।; नाना मामूली पढ़ल-लिखल अमदी हलन । अक्षर ज्ञान हल, बस । मगर हलन बड़गो किसान । नाती के पढ़ा-लिखा के दरोगा बनावे चाहऽ हलन । नाना के रोब-दाब हल । गाम के बड़गो किसान रहे गुने दरोगा, बी.डी.ओ., सब हाकिम तसरीफ लावऽ हलन ।; चर-पाँच बरिस पहिले लाला बाबू के बाबू जी आने जमुना बाबू बैकुण्ठवासी हो गेलन हल । जमुना बाबू आने हम्मर चच्चा । हम्मर बाबू के जिगरी दोस । बड़गो ओकील हलन ।)    (अरंबो॰29.4; 31.14; 35.14; 48.9, 10; 82.9)
535    बड़-बड़ुआ (जउन खेत में खुँटियारिए-खुँटियारी होय ओकरो बीच से पहिले लड़िकन चलऽ हथ । चलइत-चलइत एगो रस्ता उपजऽ हे । एकरे पगडंडी कहल जा हे । समय के साथ एही पगडंडी राजपथ बन जाहे आरू फेन एकरा पर बड़-बड़ुआ भी चले लगऽ हथ ।)    (अरंबो॰5.8)
536    बड़ाय (= बड़ाई) (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।)    (अरंबो॰20.15)
537    बढ़ती (हाँ रे, विलास जी के तो बढ़ती हइए हे -  एगो जुआन बिच्चे में टोक के कहलक - अइसे तोहनी विलास जी के बारे में जे कह लऽ, मगर ई बात दुनियाँ जानऽ हे कि मसोमतिया के खेत हड़प के ऊ अप्पन बढ़ती देखा रहलन हे ।)    (अरंबो॰20.4, 6)
538    बतियाना (= बात करना) (- अपने कउन संगठन से जुड़ल हथ ? वामपंथी या दक्खिनपंथी ? - हमनी दक्खिनपंथी ही । अपने से तनी एही ला बतियाय चल अइली ।; अच्छा, चलऽ, हाथ-गोड़ धोवऽ, फिन बतियायम ।)    (अरंबो॰58.21; 69.3)
539    बत्तर (= बदतर) (बाप के जे एत्ते दुलारते देखलक से ऊ फुट-फुट के काने लगल । रामधनियों से नञ रहल गेल । बुतरूओ से बत्तर ऊ काने लगल । आँख से लोर बरखा के नद्दी नीयर बहे लगल ।)    (अरंबो॰94.14)
540    बनाय तरी (सपासप पछिया चल रहल हल । गरमी के दुपहर । पसेना से तरबतर रमबिलसवा घोड़िया के रह-रह के ताल देले हल । ओकरा सोझे पच्छिम जाय के हे । आउ एत्ते कड़ा धूप । घोड़ियो बनाय तरी हाँफले हे ।)    (अरंबो॰99.3)
541    बमकना (रोक के घुमावे खातिर घोड़िया के लगाम खींच लेलक । से घोड़िया हिनहिनाय लगल आउ लगल लेताड़ी मारे । गोस्सा से रमबिलसवा ओकरा मार सट्टी, मार सट्टी धुन देलक । घोड़िया अकास से बात करे लगल । एकबैग घोड़िया बमकल आउ एगो झुक्कल पेड़ के डाली से टकरा गेल ।)    (अरंबो॰102.16)
542    बमछना (घोड़िया बमछे लगल । से, रमबिलसवा ओकरा दुलारे-मलारे लगल । ओकर गियारी के लगाम ऊ एकदम्मे ढिल्ली छोड़ देलका । घोड़िया फिनुँ अप्पन चाल में आ गेल आउ एन्ने रमबिलसवो ।)    (अरंबो॰100.30)
543    बरदास (= बरदाश्त, सहन) (पहिले हमनी आजाद हली । अब तो गुलाम ही, गुलाम । आजाद मुलुक में गुलाम ...। मगर अब गुलामी बरदास नञ होवऽ हे ।; बड़कू के कहना हल, हम्मर हम्मर बाप के सब जायदाद अरजल हे । संझला चच्चा के एकरा पर कोय हक नञ हे । पहलमान के बेटा के कहना हल, ई सब जायदाद हम्मर बाप के अरजल हे । ... अब कोय केकरो बरदास करे ला तइयार नञ हे ।; पिअरिया !! अगे पिअरिया !! ... ऊँह, मत बोललँऽ । देख, थोड़हीं दूर तो आउ रहलो हे । जिरी देर आउ बरदास कर । नक्का झाँपले रहिहँऽ ! नक्का से खुनमा अभियो तालुक बहिए रहलो हे ?; रमबिलसवा भोकार पाड़-पाड़ के रो पड़ल । डागडर साहेब से बरदास नञ भेल, से ऊ अप्पन टोप हिलइते-डुलइते हुँआँ पर से चोर नीयर चुप्पे-चाप घसक देलन।)    (अरंबो॰15.20; 64.25; 99.18; 103.9)
544    बरना (= जलना) (ऊ गाँधी जी हलन । उनखर चेतना जागल हल । एगो जागल चेतना दीया के काम कइलक हल । कत्ते ने दीया बर उठल हल ।; सोमनाथ जी धउगलन अवाजे दन्ने । साथे-साथे उनखर चेलो-चाटी । देखऽ हथ अँधारे में अहरा पर कुछ लोग खड़ी हथ । बीच-बीच में चोरबत्ती बरऽ हे । बन्दूको चले के अवाज आवऽ हे । धउगा-धउगी मच्चल हे ।)    (अरंबो॰13.23; 59.22)
545    बर-बर ("हम नञ पढ़म जा ।", जोर से चिल्ला के कहली हल, "नो बज्जी गाड़ी ना आयत तो का, रात भर पागल नियन हम बर-बर करइत रही ?" - "तो बस, मत पढ़ऽ । ... ई हरामजादा दरोगा का बनत ?")    (अरंबो॰50.18)
546    बरिआर (= बरियार; मजबूत) (एकबैग समुच्चे घटना ओक्कर आँख के आगे कौंध गेल ् ऊ बेड पर से उठे के कोरसिस करे लगल । मगर देखऽ हे कि उठे के जिरिक्को सकतीए नञ मिल रहल हे । ओक्कर हाथ-पैर कोय बरिआर जउरी से जइसे बँधल हे ।)    (अरंबो॰103.2)
547    बरिस (= बरस; वर्ष) (तोर बाप, बुचकुनमा जब चारे बरिस के हल, तभिए बाबूजी चल देलन हल ।; बच्चा, भइया से हँस्सी कइलक - का भइया, अभियो तोरा रेलेगाड़ी चलावे के मन करऽ हो ? - से का ? - मंझला भइया कहऽ हलथुन कि भइया टी टी, छिक-छिक करइत रहऽ हथुन । अब तो तोरा रिटायरो कइला बरिस भर होलो ।; अच्छा, ई बताउ बच्चा कि घर तों के बरिस पर अइलाँ हे ? - हाँ, अबरी घर ढेर दिन पर अइली हे ।; चर-पाँच बरिस पहिले लाला बाबू के बाबू जी आने जमुना बाबू बैकुण्ठवासी हो गेलन हल । जमुना बाबू आने हम्मर चच्चा । हम्मर बाबू के जिगरी दोस ।)    (अरंबो॰34.15; 64.18; 65.3; 82.7)
548    बहरसी (= बाहर) (बरमसिया में वयस्क शिक्षा के कार्यालय हे । कार्यालय के बहरसी देवाल पर एगो बड़का पोस्टर टँगल हे । एगो आदिवासी जुवती एगो बच्चा के दूध पिया रहल हे । दुन्नू छाती एकदम उघरल हे ।; फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।; बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।)    (अरंबो॰11.7; 17.7; 36.24)
549    बहाड़ना (= बुहारना; झाड़ू से साफ करना) (रतिए में बिलसवा अइँटा तरे चाप के नुकावल लिफाफा निकासलक । एही लिफाफा खातिर तो ओक्कर पीठ फाड़ देल गेल हल । मालिक के छोटका बेटा पुछलन हल - तुम्हीं लिए होगे । आउ आखिर लिफाफा चोराबे ला हींआँ भूत आवेगा ? तुम्हीं मेरा कोठरी बहाड़ने आते हो । बताओ ठीक-ठीक, नहीं तो हाँथ-पैर सब तोड़ देंगे । बिलसवा एकदम नहकार गेल हल ।)    (अरंबो॰98.7)
550    बहिन (= बहीन; बहन) (मेहरारू के रोज-रोज के ताना करेजा छेद करऽ हे । ... तोरा की औकात हो ? दरिद्दर तो हऽ । बहिन के बियाह में सब कुछ लुटा देलऽ । अब तोरा के काम देतो ?)    (अरंबो॰79.17)
551    बहुत्ते (= बहुत ही) (मजूरी के सिवाय आउ हमनी ला का बचल हे ? जंगल के ठेकेदार हमनी सबसे सब काम ले हे । मजूरियो बहुत्ते कम दे हे । ... ई पूछऽ न बाबू, तनी सा मजूरी देके हमनी से का का नञ ले लेहे ?; एक दिनमा माय के मन बहुत्ते खराब हो गेल । नानी, मौसी आउ केत्ते ने मेहरारू माय के घेरले हलन । हम जो जाइयो चाही तो जाइए न मिले । एन्ने नाना ओझा-गुनी बोलवउलन । कातो पानी पढ़े कहलन । भगत बोललन - लड़का होत । एही एक घड़ी में । आउ तब बात समझ में आल । मौसी हँसके कहलक - ले, तोर दुलार छिना जइतउ !)    (अरंबो॰15.18; 18.23)
552    बाठ (= वाह !) (जब से पुल बनल हल, जहाना से अतौलह होइत खीरी मोड़ आउ फेन पाली जाय के कत्ते आसान हो गेल हल । बाठ रे बाठ ! मार नया-नया बस फरफर उड़इत रहऽ हल ।)    (अरंबो॰52.10)
553    बामन (= बावन) (हम्मर घर से रमधानी पाँड़े के घर, फिन रमधानी पाँड़े के घर से रमजानी मियाँ के घर, फिन पतरकी गल्ली से घुम्मल-घुम्मल मिठकी कुइयाँ तक आउ फिन मिठकी कुइयाँ से असमान फइल गेल । नञ जाने कत्ते बड़गो होतइ ई असमान ! ... ... बामन कोस के ।)    (अरंबो॰17.15)
554    बाल-बच्चा (तोहनी अब गाम आके रहे चाहमा तो सोंचे पड़तउ । अब तो तोहनी के बालो-बच्चा जो खरिहान से अनाज उठावे चाहतउ तो खून-फसाद हो सकऽ हे ।; अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे ।)    (अरंबो॰64.28; 81.1)
555    बाल-बुतरू (माय के मउअत के बाद बाबू जी एकदम अकेल्ला पड़ गेलन हल । अइसे तो घर में हम्मर छोटा भाय, ओक्कर कनियाय आउ एगो-दुग्गो बाल-बुतरू सब हथ ।)    (अरंबो॰81.15)
556    बिक्कल (= बिका हुआ) (भोला बाबू समय आउ सरीर के उपयोग खूब कस के कइलन हल । एक-एक मिनिट उनखर बिक्कल हल । कउनो इयार-दोस से भी बोले-बतियाय के समय नञ हल । ट्यूशन के एगो बैच गेल आउ दोसर खड़ा हल ।)    (अरंबो॰89.6)
557    बिगना (= फेंकना) (ई हम जानऽ ही कि ठिकेदार के अमदी हमरो जान के गाँहक बन जइतन । जे हो, सफेदपोस से उनखर बिसवास उठ गेल हे, ऊ बिसवास हमरो लौटावे के हे । मन करऽ हे, अप्पन सउँसे लिबास, सफेद, उज्जर कौलर फाड़ के बिग दी ।; एन्ने बाबू जी हमरा पास कम खत लिखऽ हथ । मगर उनखर हर खत में कउनो न कउनो इयार-दोस के मउअत के चरचा जरूरे रहऽ हे । हम्मर मेहरारू अइसन खत पढ़ के बुदबुदा हलन आउ फिन खत फाड़ के बिग दे हलन ।)    (अरंबो॰16.8; 82.22)
558    बिच्चे (~ में = बीच में; बीच में ही) (हाँ रे, विलास जी के तो बढ़ती हइए हे -  एगो जुआन बिच्चे में टोक के कहलक - अइसे तोहनी विलास जी के बारे में जे कह लऽ, मगर ई बात दुनियाँ जानऽ हे कि मसोमतिया के खेत हड़प के ऊ अप्पन बढ़ती देखा रहलन हे ।; एगो बूढ़ा अमदी बिच्चे में टोक के बोललन - एगो बात कहिअउ ?; साढ़े सात बजे घड़ी देख के बंशीधर जी के हीआँ से चललन हल । गाड़ी पकड़े ला, टीसन । मोसकिल से तीन पाव जमीन टीसन पहुँचे में आउ रहल होत, बिच्चे में अपने से, ई जोखिम में फँस गेलन हल । बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल ।; लइका जुआन हो गेल हल । ओक्कर बियाहो-सादी के बात ऊ सोंचे लगलन हल । मगर ई का ? लइका एही बिच्चे अप्पन मरजी से बियाह कर लेलक हल ।)    (अरंबो॰20.4, 7; 42.18; 53.24)
559    बिच्छा (= बिच्छू) (हम चाहऽ ही बड़गो होवे पर ऊ बिच्छा नियर बड़गो-बड़गो मोछ रख ले । लोग एकरा देखिए के भय खायथ ।)    (अरंबो॰31.14)
560    बियाह-सादी (= विवाह-शादी) (लइका जुआन हो गेल हल । ओक्कर बियाहो-सादी के बात ऊ सोंचे लगलन हल । मगर ई का ? लइका एही बिच्चे अप्पन मरजी से बियाह कर लेलक हल ।)    (अरंबो॰53.23)
561    बिलाय (= बिल्ली) (बिलइया के नानी धात-धात कइलका आउ बाल्टी के दूध ओघड़ा गेल । ओतने बड़ा बाल्टी के दूध टेढ़-मेढ़ होके ढेर दूर तक बह गेल ।)    (अरंबो॰17.11)
562    बिलौक (= ब्लॉक) ( वयस्क शिक्षा में का काम होवऽ हे, सेही देखे ला पटना से दुमका अयली हे । दुमका से बिलौक ऑफिस जाय के हे । एगो जीप बरमसिया दन्ने जा रहल हल । लिफ्ट माँगली आउ चल देली ।; सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल । छोटकनिया नेतो के लोक-सेवा के नाम पर पैरबी करे बिलौक, सहर, रजधानी जाय पड़ऽ हल ।; भिनसरवे खटिया त्याग देवे के उनखर पुरान आदत हे । कउनो तमाकू चढ़ा के दे देलको तो ठीक, नञ तो टिकिया ताखा से उतार के अपने सब कइलन । थोड़े देर गुड़-गाड़ कइलन आउ फिन हाथ-मुँह धो के, छड़ी लेले पहाड़ी दन्ने चल देलन ।)    (अरंबो॰11.5; 35.16; 83.2)
563    बुढ़उ (आखिर बुढ़उ कब तक हीआँ पड़ल रहतन ? घुरना-टहलना सब बन्द । इनखा आवे से हमरा जेहल हो गेल हे । - ऊ अपने चल जइतन । - रिटायर होके अइलन हे, ई बात काहे तूँ भुला जा हऽ ?)    (अरंबो॰87.29)
564    बुतरू (= बालक, बच्चा) (एगो बुतरू के रिरियाय के अवाज कान में पड़ रहल हल । लगऽ हल, जइसे कउनो ओकरा डेंगा रहल हल ।; रामनाथ नजीक पहुँच के देखऽ हथ - दु-चार गो ललटेन हे । दस-बारह गो अमदी हथ । एगो अमदी, एगो बुतरू के हाथ धइले हथ । बुतरू रो रहल हे । ओक्कर गाल पर तमेचा पर तमेचा जब-तब आ बइठऽ हे ।; लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।; ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।)    (अरंबो॰41.13, 26; 92.11; 94.2)
565    बुताना (= बुझाना) (कुछ नाल बंदूक चमक उठल हल । जादेतर देसिए बन्दूक । भाला, लाठी ... । - चारो दन्ने छितरा जो । ... मुँह से एक्को सबद नञ निकसे ... ललटेनमन बुता दे ... ।)    (अरंबो॰44.23)
566    बुनिया (= बुंदिया) (ढोल-मँजीरा पर फाग के धूरी उड़ रहल हल । सगरो मस्तीए-मस्ती छायल हल । गोस्सा के मारे धनुआँ के मम्माँ, परबियो में कुच्छो नञ पकउलक । पोतवा लागी खाली चार पइसा के बुनिया आउ दू पइसा के तेलही जिलेबी ले आल ।)    (अरंबो॰93.3)
567    बुलना (= चलना, टहलना) (ओघड़ायल ~) (फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।; नाना के अँगुरी पकड़ले रामधनी पाँड़े के घर तक जाके देख अइली हल । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! गोड़ ने हाथ, ओघड़ायल बुल्लऽ हथ !; मइया गे, कन्धइया चढ़म । खड़ी काहे हीं ? बयठीं ने गे मइया । माय जे खड़ा हलन, बइठ गेलन । पाँच-छो बरिस के बुतरू माय के कन्धा पर सवार हो गेल । - अब खड़ी हो जो । बुलहीं ने गे मइया । माय खड़ी हो गेल । फिन बुले लगल अँगना में ।)    (अरंबो॰17.6, 9; 70.23)
568    बूढ़-पुरान (बूढ़-पुरनियाँ) (भइया के दरबार लगल हे । हमनी पाँचो भाय एके ठामा नञ जाने कत्ते दिन पर जमा होली हे । बूढ़-पुरान हमनी पाँचो भाय के पांडव कहऽ हथ ।)    (अरंबो॰64.12)
569    बेकती (= व्यक्ति) (बरौनी में गाड़ी बदल के छोटकी लैन के गाड़ी पर बैठलन । मीयाँ-बीबी आउ तीन गो बच्चा ।)    (अरंबो॰88.8)
570    बेटी-दमाद (लइका जुआन हो गेल हल । ओक्कर बियाहो-सादी के बात ऊ सोंचे लगलन हल । मगर ई का ? लइका एही बिच्चे अप्पन मरजी से बियाह कर लेलक हल । घर से नाता तोड़ लेलक । ओक्कर पढ़ाय-लिखाय के सिलसिलो छिन्न-भिन्न हो गेल हल । लइका के इंजीयर, डागडर बनावे के सपना चूर-चूर हो गेल । सोमनाथ जी गोस्सा में तमतमायल गाँव में भाषण देलन हल - हम अप्पन अरजल सब खेत बेच देम । बेटी-दमाद के दे देम ।; सोमनाथ जी सोंचऽ हथ - अब तो बुढ़ापो आ गेल । नौकरियो से अवकाश प्राप्त कर लेली । अब गाम जाके बसी या कउनो बेटी-दमाद जोरे रह के जिनगी के शेष भाग काट दी ?)    (अरंबो॰53.28; 54.28)
571    बेमार (= बीमार) (हाकिम मस्टरनी से पुछलन - ठीक-ठाक चलइत हो न ? - हाँ बाबू, सब ठीके चलइत हे । फेन बोलल - हम्मर बच्चा बेमार हे ।; सरकार पिंसिल एतना भर दे देहे जेतना में दुन्नू परानी के गुजर-बसर आसानी से हो जाइत । फिन कधियो कोय बेमार पड़ली, कधियो मेहरारूए के रोग-बेआधि होल तो गाँव में डागडर-वइद के समस्या हे ।)    (अरंबो॰12.10; 55.5)
572    बेमारी (= बीमारी) (विमल जी के जब पीरी होल, इयार-दोस सब मिल के अस्पताल, डागडर कइलन । देखउलन-सुनउलन । लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।)    (अरंबो॰69.16)
573    बेला (= बिना) (सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी । ... हमहूँ तोहरे साथ जइबो । बेला गोदी लेले, दुलारले गुजर नञ ।)    (अरंबो॰34.11)
574    बेलाँ (~ माने = बिना माने या अर्थ के, व्यर्थ) (कोनमा आम काट देल गेल हे । एही सच्चाय घुर-फिर के हमरा पर परगट होवऽ हे । खून-फसाद सब बेलाँ माने लगऽ हे ।; ई चुनाव तो फोर्स हे ! कत्ते कैंडिडेट तो बेलाँ इमतिहाने देले खूब अच्चा नम्बर ले अइलन हे । जे कुछ न जानऽ हथ, ओही सब के लेवे पड़त ।; जखनी भोला बाबू लइका हलन, तखनिए से एगो गारी पढ़ऽ हलन । बेलाँ ओक्कर माने समझले । बड़का, का छोटा, केकरो से जब मन रंज होवऽ हलन, तब कह दे हलन - सूअर !)    (अरंबो॰21.6; 26.21; 88.23)
575    बैंकड्राफ (= बैंकड्राफ्ट) (एक बार हम ओकरा खत देली । तोरा बड़का बाबू से मिले के मन नञ करऽ हउ ? हम तोरा कत्ते परपंच करके पढ़इली-लिखइली । बिलायत भेजली । कहाँ-कहाँ से ओत्ते पइसा जुटइली । ... जानऽ हऽ एक्कर जवाब ऊ का देलक ? हिसाब जोड़-जाड़ के लिख के भेजलक कि हमरा पढ़ावे-लिखावे में अपननी के जादे से जादे पचास हजार रूपइया लगलो होत । बैंकड्राफ भेज रहली हे ।)    (अरंबो॰66.3)
576    बोडर (= बोर्डर) (सरकारी इसकूल में मास्टरी करऽ हली । जगन्नाथपुर में । बिहार आउ उड़ीसा के बोडर पर ।)    (अरंबो॰71.20)
577    बोद-बुदक्कड़ ("बोद्दा रानी / बोद-बुदक्कड़ / चुल्हा ऊपर लक्कड़ / चुल्हा पर चकटी / धनुआँ के सास नकटी ।" धनुआँ अप्पन सास के नकटी सुन के लजा गेल । ऊ मम्माँ के अप्पन छोटे-छोटे हाथ से मारे लगल । मम्माँ हँसइत-हँसइत बोलल - अच्छा भाय, धनुआँ के सास नञ, रानी के सास नकटी । तब कहीं धनुआँ अप्पन हाथ रोकलक ।)    (अरंबो॰93.11)
578    बोद्दा (= भोद्दा; सुस्त, धीमा; भोंदू) ("बोद्दा रानी / बोद-बुदक्कड़ / चुल्हा ऊपर लक्कड़ / चुल्हा पर चकटी / धनुआँ के सास नकटी ।" धनुआँ अप्पन सास के नकटी सुन के लजा गेल । ऊ मम्माँ के अप्पन छोटे-छोटे हाथ से मारे लगल । मम्माँ हँसइत-हँसइत बोलल - अच्छा भाय, धनुआँ के सास नञ, रानी के सास नकटी । तब कहीं धनुआँ अप्पन हाथ रोकलक ।)    (अरंबो॰93.10)
579    बोलना-बतियाना (भोला बाबू समय आउ सरीर के उपयोग खूब कस के कइलन हल । एक-एक मिनिट उनखर बिक्कल हल । कउनो इयार-दोस से भी बोले-बतियाय के समय नञ हल । ट्यूशन के एगो बैच गेल आउ दोसर खड़ा हल । कउनो कुटुम या दोस आइयो जा हलन तो भोला बाबू के ठीक से बोले-बतियाय के समय नञ हल । जो बोलवो-बतिअइवो कइलन तो ई भाव से जइसे उनखनी पर कउनो बड़का एहसान कर रहलन हे । ई बात नञ हल कि उनखो बोले-बतियाय में मन नञ लगऽ हल ।)    (अरंबो॰89.6, 8, 8-9, 10)
580    बोलावा (= बुलाहट) (थोड़िक्के देर बाद अध्यक्ष महोदय के बोलावा आयल ।)    (अरंबो॰26.7)