लेखक - राम बुझावन सिंह
सनिचरा हम्मर बाल सहयोगी हल - खेल कूद में । ओकर माय हमरा इहाँ दाई के काम करऽ हल, त बाप बुद्धू महरा हलवाही के । ई तरह से हम ओकर मालिक हली, त ऊ हमर नौकर । पर लड़िकाई में ई सब भेदभाव भुला जाहे । रह जाहे तो खाली खेल कू में बराबर के साथी के भाव । हमनी दुन्नो के पहनावा-ओढ़ावा में भी काफी फरक हल । हम नीमन-नीमन कपड़ा-लत्ता पहिनले रहऽ हली, त ऊ पुरान-धुरान गंजी लंगोटी, जेकर जादेतर देह उघारहीं रहऽ हल । हाँ, हम्मर उतारल कपड़ा से कुछ दिन ला ओकर देह ढँका जा हल ।
हम खैलो-पीलो पर भुंजा-चबेनी लेके निकल जा हली आ आम के बगइचा में या नदी के बालू पर तरह-तरह के खेल-कूद करऽ हली, जहाँ सनिचरा हम्मर राह देखइत रहऽ हल । पहिले तो हम ओकरा चबेनी में से आधा दे दे हली, जेकर एवज में ऊ अपन बरियार पीठ पर हमरा चढ़ा के घोड़ा नीयर कूदे-फाँदे लगऽ हल । ई तरह से हम ओकर पीठ पर घुड़सवारी करइत रहऽ हली, आ ओकरा अपन आधा से जादे चबेनी खिला दे हली । चबेनी कम देला पर दू एक बार ऊ पटकियो दे हल, पर बालू पर गिरे से चोट तो न लगे, पर सब देह माथ में बालू भर जाय, जेकरा साफ करे में माय के थाप से जादे चोट लगे । थाप के साथ डाँट भी पड़े कि सनिचरा के साथ खेल में तू एतना धूर-बालू भर लेलें ? हम साफ इनकार कर दे हली कि ओकरा साथ हम न खेलली हे, ऊ तो खाली हमरा घोड़इयाँ चढ़यले हल । हम्मर बहानेबाजी में भी कलई खुल जाय, जेकरा से दू-चार थाप आउ लग जाय । आज तक भी हम बहानेबाजी में सफल न भेली, हमेशा झूठ पकड़ाहीं गेल हे, जेकर थाप तरह-तरह से खाय पड़ल हे ।
एक दिन घर में सनिचरा के माय पीढ़ा पर बइठ के खाइत हल, त घिरसिर पर के गगरी में से ढार के पीए ला पानी सनिचरा से माँगलक । पानी ढारे में घिरसिर पर से गगरी सनिचरा के हाथ से छूट गेल, आ टूट-फूट के छितरा गेल ! हम तड़प के रह गेली, लड़िकाई में अप्पन चबेनी में ओकरा हम साथ रखऽ हली, आज ई ठंढई में ऊ हमरा बिलगा देलक । बस, ओकर माय के माथ पर भूत सवार हो गेल, ऊ ओही पीढ़ा उठाके सनिचरा के पीठ पर बजाड़ देलक । सनिचरा के तो कुछ न भेल, पर पीढ़ा एगो से दूगो हो गेल । ओकर पीठ पर घोड़इयाँ चढ़इत-चढ़इत हम ओकरा एतना बरियार बना देली हल, जेहि से पीढ़ा एगो से दूगो हे गेल हल ।
समय बीतइत गेल आ हमनी दुन्नो लड़कपन से दुआर पार करके जवानी के देहारी पर पाँव रखली । हम इसकूल पार करके कालेज में दाखिल भेली पीठ पर किताबन के बोझा लेके, आ सनिचरा कहारी में उतरल कन्धा पर डोली पालकी के बोझा लेके । अप्पन बियाह में जउन पालकी में बइठ के हम जाइत हली, ओकरा में अगला कन्धा सनिचरे लगयले हल । हम्मर कल के घोड़ा आज हम्मर पालकी में जुतल हल, आ एक से एक बोल निकालइत उड़ल जा रहल हल । दुपहरिया में एक जगह बर के पेड़ के नीचे ऊ घोड़ा ठहर गेल, जेकरा पर से हमहूँ उतर गेली । पासे में पसिखाना हल, ओकरा तरफ देखके सनिचरा हम्मर मुँह तरफ नजर उठयलक - 'मालिक, जरा ठंढई कर लेती हल ।'
ओकर इशारा समझ के एगो पंचटकिया दे देली, जेकरा लेके ऊ बढ़ गेल, आ उधर से फेन उफनाइत एगो भरल घइला माथ पर लेले आ गेल । एक हाथ में ताड़ के पत्ता के बनल एगो दोना भी हल । देखते-देखते ऊ आधा घइला अकेले गटक गेल, आधा में बाकी तीन जना ठंढायल । हम तड़प के रह गेली, लड़िकाई में अप्पन चबेनी में ओकरा हम साथ रखऽ हली, आज ई ठंढई में ऊ हमरा बिलगा देलक ।
गाँव में जहाँ कहीं भी जोरदार पीठ आउ कन्धा लगावे के जरूरत होवे त एक तरफ अकेले सनिचरा के कन्धा लगऽ हल । कोई के छप्पर या बड़ेरी चढ़ावे ला होय या बाँस बलली लावे ला होय तो गाँता में एक तरफ अकेले सनिचरा रहऽ हल, दूसर तरफ बाकी कई लोग । हाँ, ई एवज में सनिचरा के थोड़ा ठंढई पिला पिला देवल जा हल या कभी कभी एकाध बोतल देसी ठर्रा, बस । सनिचरा दिन भर मस्त । ओकर ई मस्ती 'कफन' के घीसू आ माधो के फाकामस्ती न हल जे दिन भर कामचोरी आ रात में आलू चोरी करऽ हला । दू आदमी के बदले जहाँ एक आदमी के जरूरत काम ला होय उहाँ सनिचरा हाजिर !
ओकर एगो बहिन हल फुलेसरी जे सनिचरे नियन मस्त हल । ऊ जब घर से निकले, त गाँव हिले लगऽ हल, खास करके चालीस से जवानन जिनकर हाड़ में हरदी न लगल हल । ओइसने एगो जवान हलन गोमास्ता जी के बेदा बीजन, फुलेसरी के देखतहीं जिनका मिरगी आ जा हल । एक दिन साँझ के बखत जब फुलेसरी नदी किनारे गेल, त उहें से ऊ हल्ला कयलक - 'दउड़िहें भइया सनीचर, इहाँ बँसवारी में बिजना बइठल हे ।'
हल्ला सुनके गाँव के चालीसो जवान टूट पड़लन । पर जब ऊ लोग नदी किनारे पहुँचलन, त देखऽ हथ कि बिजना के छाती पर सनिचरा सवार हे । नीचे से बीजन चिचियाइत हथ - 'बचावऽ बाबू !' टाँग खींच के बीजन के बाहर निकालल तो गेल, मगर उनकर अगला दू दाँत भीतर चल गेल हल । गाँव के कुछ लोग गोमास्ता जी के उकसयलन कि सनिचरा पर केस कर द । पर ऊ ई सोच समझ के चुप रह गेलन कि एक तो गाँव में हिनसतई होइए गेल कि हम्मर बेटा के सनिचरा मारलक । अब कोट कचहरी में जाके आउ हिनसतई कराउँ कि बाभन के बेटा के मारलक कहार ? कइसन भठजुग आ गेल हे ?
राखी बन्धन के छुट्टी में हम गाँव गेली हल । हल तो पुनमासी के रात, मगर अकास में घटाटोप बादर छायल हल आ झमाझम बरखा पड़ रहल हल । चारो तरफ घुप्प अंधरिया छायल हल । एन्ने अधरतिया में सनिचरा के माय रोते-पीटते हमरा भिर आयल - 'बाबू, हम्मर सनिचरा के बचा ल, सात दिन से खटिया धएले हे आउ ई घड़ी होश में न हे । आँख तड़ेर के बड़ेरी ताकइत हे, आदमी भी न पछाने ।'
कसमसाइत हमहुँ उठली आ छाता, लालटेन लेके ओकर पीछे हो लेली । घर में जाके देखऽ ही कि टूटल खटिया पर बड़ेरी ताकइत सनिचरा हाँफ रहल हे आ छाती धौंकनी नियर धड़क रहल हे । आसपास कई लोग लुगाई ओकरा से पूछ रहलन हे - 'हमरा पछानऽ ह सनीचर, हम के ही ?' सनिचरा तो सबके पछान रहल हल, पर ओकरा पछानेवाला कै गो उहाँ हलन ?
गाँव में एक्को वैद ओझा भी न हल । एक कोस दूर गाँव रेपूरा में एगो वैद हलन । हम कहली कि हम छाता, लालटेन आ पैसा दे ही, कोई जवान वैद जी हीं दउड़ जा आ उनका हम्मर नाम आ चिट्ठी लेके बोला लावऽ ! हम्मर ई बात सुनके सनिचरा भिर से भीड़ एक-एक करके खिसके लगल । रह गेल ओकरा पास खाली माय के साथ फुलेसरी । आखिर बूढ़ा बाप बुद्धू ही वैद जी के पास दउड़ल ।
फरीच होवे के थोड़ा पहिलहीं कान में टीस मारलक - 'हाय हम्मर सुगवा, कहाँ उड़ गेलऽ ?'
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-५, अंक-७, जुलाई १९९९, पृ॰११-१२ से साभार]