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Friday, May 31, 2019

पितिरबुर्ग से मास्को के यात्रा ; अध्याय 4. ल्युबानी


[*14]                                                                ल्युबानी

हम जाड़ा में यात्रा कइलूँ चाहे गरमी में, तोहरा लगी हमर विचार से एक्के बात हको । शायद जाड़ा आउ गरमी दुन्नु में । यात्री लोग के साथ अइसन विरला नञ् होवऽ हइ कि रवाना होवऽ हका तो स्लेज (बर्फगाड़ी) से आउ वापिस आवऽ हका गाड़ी से । गरमी में । लट्ठा के जोड़के बनावल रोड हमरा यातना देब करऽ हले; हम किबित्का से उतर गेलूँ आउ पैदल चल पड़लूँ । किबित्का में पड़ल-पड़ल हमर विचार असीम संसार में मुड़ल हलइ । आत्मिक रूप से धरती पर से अलगे हो गेलिअइ, हमरा लगलइ कि किबित्का के हिचकोला हमरा लगी कहीं बेहतर हलइ । लेकिन आत्मिक कसरत हमन्हीं के हमेशे शारीरिक रूप से विचलित नञ् करऽ हइ; आउ शरीर के रक्षा हेतु हम पैदल चल पड़लिअइ । रोड से कुछ कदम के दूरी पर हम एगो कृषक के खेत जोतते देखलिअइ । मौसम गरम हलइ । हम घड़ी दने देखलिअइ । बारह बजके चालीस मिनट । हम सनिच्चर के रवाना होलिए हल । आझ एतवार हइ । [*15] खेत जोत रहल किसान एगो जमींदार के अधीन हलइ, जे ओकरा से मुक्ति लगान[1] (commutation tax)  स्वीकार नञ् करऽ हलइ । किसान बड़ी सवधानी से खेत जोत रहले हल । खेत वस्तुतः ओकर मालिक के नञ् हलइ । हल के ऊ आश्चर्यजनक आसानी से उलट रहले हल ।
"भगमान तोहर मदत करथुन", हरवहवा भिर जाके हम कहलिअइ, जे बिना रुकले शुरू कइल लीक के पूरा कर रहले हल । "भगमान तोहर मदत करथुन", हम बात दोहरइलिअइ ।
"धन्यवाद मालिक", हमरा हरवहवा बोललइ, हरवा से मट्टी झाड़ते आउ हरवा के नयका लीक पर लइते ।
"तूँ अवश्य विधर्मी[2] (Dissenter) होवऽ, काहेकि तूँ एतवार के खेत जोतब करऽ ह।"
" नञ् मालिक, हम क्रॉस के ठीक से चिह्न बनावऽ ही", ऊ कहलकइ, हमरा तीन अंगुरी के एक साथ मिलाके देखइते ।[3]
"आउ भगमान दयालु हथिन, हमन्हीं के भूख से मरे नञ् दे हथिन, जब तक शक्ति आउ परिवार हइ।"
"त की तोरा पूरे सप्ताह तोरा अप्पन काम करे के समय नञ् मिल्लऽ हको कि तूँ एतवारो के अराम नञ् करऽ ह आउ ओहो बिलकुल झरक में?"
"एक सप्ताह में तो मालिक छो दिन होवऽ हइ, आउ हम सब सप्ताह में छो तुरी अपन मालिक के खेत पर काम करे लगी जा हिअइ[4]; [*16] आउ साँझ के जंगल में रहल-सहल पोवार के ढोके मालिक के घर पर ले जइते जा हिअइ, अगर मौसम निम्मन रहऽ हइ; आउ छुट्टी के दिन औरतियन आउ लड़कियन टहलते जंगल में खुमी (मशरूम) आउ बेरी लगी जा हइ । भगमान करे", ऊ क्रॉस करते बात जारी रखलकइ, "कि आझ शाम के बारिस होवे । मालिक, अगर तोहरा खुद के मुझीक (कृषक) होतो त ओकन्हिंयों एहे लगी भगमान के प्रार्थना कर रहल होतो ।"
"हमर मित्र, हमरा पास मुझीक नञ् आउ ओहे से कोय हमरा सराप नञ् दे हके । तोहर परिवार बड़गो हको की?"
"तीन बेटा आउ तीन बेटी । पहिलौका दस बरिस के हको ।"
"त तूँ रोटी के इंतजाम कइसे कर पावऽ हो, अगर खाली छुट्टी के दिन स्वतंत्र मिल्लऽ हको?"
"खाली छुटिए नञ्, रतियो हमर होवऽ हइ । अगर आसकत नञ् करे, त भुक्खल नञ् मरतइ । देखवे करऽ हो कि एक घोड़ा अराम कर रहले ह; आउ जब ई थक जइतइ, त दोसर ले लेबइ; काम हो जा हइ ।"
"त अइसीं अपन मालिक लगी काम करऽ हकहो?"
"नञ् मालिक, अइसीं काम करना पाप होतइ । उनकर खेत में [*17] एक मुँह लगी सो हाथ हइ, जबकि हमरा सात मुँह लगी दुइए हाथ हके, तूँ खुद ई हिसाब समझऽ हो । केतनो मेहनत मालिक खातिर करहो, कोय धन्यवाद नञ् देवे वला । मालिक हरेक व्यक्ति के अनुसार नञ् भुगतान करऽ हका; लेकिन एक्को भेड़, न लिनेन (linen) , न एक्को मुरगी, न मक्खन छोड़े वला । कृषक सब के जिनगी बहुत बेहतर होवऽ हइ जब मालिक ओकन्हीं से मुक्ति लगान (commutation tax) स्वीकार करऽ हइ, आउ ओहो बराहिल (कारिंदा) के दखलंदाजी के बेगर । ई सच हइ कि कभी-कभी निमनो मालिक प्रति व्यक्ति तीन रूबल से भी जादे लेते जा हथिन; लेकिन तइयो ई बेगार (अर्थात् मालिक के खेत में काम करे) से बेहतर हइ । अब तो जनविश्वास हो गेले ह कि गाम के यथाकथित पट्टा पर दे देल जाय । लेकिन हमन्हीं एकरा सिर के फंदा समझऽ हिअइ । कृषिहीन ठेकेदार मुझीक लोग के चमड़ी उधेड़ ले हइ; हियाँ तक कि सबसे निम्मन (ठेकेदार) हमन्हीं के खुद के काम लगी कोय बखत नञ् छोड़ऽ हइ । जाड़ा में ऊ न तो हमन्हीं के गाड़ी से ढुलाई करे के अनुमति दे हइ, आउ न शहर में काम करे के; सब काम ओकरे लगी करहो, काहेकि ऊ हमन्हीं लगी प्रति व्यक्ति के हिसाब से (head tax) भुगतान करऽ हइ । ई शैतान के सोच हइ कि अपन कृषक लोग के अनजान के काम लगी लगा देल जाय। एगो खराब बराहिल के विरुद्ध शिकायत कइल जा सकऽ हइ, [*18] लेकिन एगो खराब ठेकेदार के विरुद्ध केकरा भिर?
"हमर दोस्त, तोरा गलतफहमी हको, लोग के यातना देना कानूनन मनाही हइ ।"
"यातना देना? सच हइ; लेकिन फिकिर नञ् करऽ मालिक, तूँ खुद के हमर परिस्थिति में रक्खे लगी तो नञ् चाहवऽ ।" एहे दौरान हरवहवा हर में दोसरका घोड़वा के जोतलकइ आउ नयका लीक शुरू करके हमरा अलविदा कहलकइ ।
ई कृषक के बातचीत हमरा में कइएक विचार जागृत कइलकइ । कृषक के परिस्थिति में असमानता के विचार हमरा पहिले अइलइ । हम सरकारी कृषक के, जमींदार के कृषक से तुलना कइलिअइ । दुन्नु गाम में रहऽ हइ; लेकिन पहिलौका कोय निश्चित रकम के भुगतान करऽ हइ, जबकि दोसरका  के ऊ रकम चुकावे लगी तैयार रहे के चाही जे ओकन्हीं के मालिक चाहऽ हइ । पहिलौका के फैसला अपन बराबर के लोग से कइल जा हइ; लेकिन दोसरका कानूनन मरल हइ, खाली अपराध मामला के छोड़के । समाज के सदस्य के जनकारी रक्षा करे वला सरकार के तभिए मिल्लऽ हइ, जब ऊ सामाजिक बन्धन के तोड़ दे हइ, जब ऊ अपराधी बन जा हइ! ई विचार से हमर पूरा खून खौल उठलइ ।
"थर्रा जो, [*19] ऐ निर्दय जमींदार! तोर किसान सब में से हरेक के निरार पर हम तोर दंड के आदेश देखऽ हिअउ ।"
ई सब विचार में मग्न हमरा अचानक अपन नौकर पर नजर चल गेलइ, जे किबित्का में हमर सामने बैठल एक दने से दोसरा दने झूल रहले हल । अचानक हम अपन नस में बह रहल खून में सिहरन महसूस कइलिअइ, जे गरमी के चोटी तरफ दूर भगइते ओकरा चेहरा तक फैले लगी बाध्य कर देलकइ । हम आन्तरिक रूप से एतना लज्जित होलूँ कि हम रोवे-रोवे के हालत में हो गेलूँ । "तूँ अपन गोस्सा में", हम खुद के कहलिअइ, "धावा बोलऽ हीं ऊ अभिमानी मालिक पर, जे खेत में अपन किसान पर अत्याचार करऽ हइ; लेकिन की तूँ ओहे, चाहे बल्कि ओकरो से जादे खराब नञ् करऽ हीं? बेचारा तोर पित्रुश्का कउन अपराध कइलको ह कि तूँ ओकरा नीन नञ् लेवे दे हीं, जे हमन्हीं के विपत्ति के आनन्द हइ आउ अभागल लगी प्रकृति के सबसे बड़गो तोहफा हइ? ओकरा मिलऽ हइ वेतन, भरपेट भोजन, कपड़ा, ओकरा हम कभी नञ् [*20] चाभुक या डंडा से पिट्टऽ हिअइ। (ओ संयमी व्यक्ति!) आउ तूँ सोचऽ हीं कि एक टुकरी रोटी आउ कपड़ा के एगो चिथड़ा तोरा अधिकार दे हउ तोरा नियन एगो जीव के एगो नट्टू नियन व्यवहार करे के, आउ तूँ खाली डींग हाँकऽ हीं कि तूँ ओकरा अकसर चाभुक नञ् लगामऽ हीं जब ऊ नच्चब करऽ हइ । तूँ जानऽ हीं कि मौलिक कोड (कानून) में हरेक के दिल में की लिक्खल हइ ? अगर हम केकरो पर प्रहार करऽ हिअइ त ओहो हमरा पर प्रहार कर सकऽ हइ । ऊ दिन के आद करहीं जब पित्रुश्का पीयल हलउ आउ तोरा पोशाक से सज्जित करे लगी बखत पर नञ् आ पइलउ । आउ करहीं कि ओकर गाल पर कइसे थप्पड़ मरलहीं हल । काश अगर ऊ तखने, पीयल होलो पर, होश में आ गेलो होत, आउ तोर सवाल के ओइसीं जवाब दे देतो हल ! "आउ केऽ तोरा ओकरा पर अधिकार देलकउ?" - "कानून।" - "कानून? आउ तूँ ई पवित्र नाम के बदनाम करऽ हीं? अभागल कहीं के! ... हमर आँख में अश्रु आ गेल; आउ अइसन हालत में डाक के मरियल टट्टू हमरा घींचके अगला स्टेशन तक पहुँचा देलक।



[1] मुक्ति लगान (रूसी में "ओब्रोक" - commutation tax) - पैसा चाहे उपज, जे एगो बंधुआ मजूर (serf) अपन मालिक के दे हलइ ताकि ओकरा अपन मालिक के खेत में काम नञ् करे पड़े । "ओब्रोक" के भुगतान मालिक के खेत में काम करे से कम कष्टकर समझल जा हलइ ।
[2] विधर्मी  (रूसी में "रस्कोलनिक" - Dissenter) - 1654 ई॰ में मास्को में चर्च काउंसिल द्वारा लेल गेल निर्णय के अस्वीकार करे वला के "रस्कोलनिक" कहल जा हलइ । कइएक निर्णय के अलावे एक निर्णय ई हलइ कि क्रॉस के संकेत दू अंगुरी के बदले तीन अंगुरी से कइल जाय के चाही । "रस्कोलनिक" लोग में कइएक सबसे दलित आउ असंतुष्ट कृषक लोग में से हलइ। सरकार आउ जमींदार के विरुद्ध कृषक विद्रोह में अकसर रस्कोलनिक लोग के नेतृत्व रहऽ हलइ ।
[3] तीन अंगुरी ई दर्शावऽ हइ कि ऊ सनातनी (orthodox) हइ ।
[4] जमींदार के बड़गो जमीन-जायदाद पर बन्नल बड़गर हवेली से जुड़ल जमीन (manorial fields) में काम करना (रूसी में "बार्षिना") बंधुआ मजूर (serf) लगी एगो अनिवार्य आउ बेगार वला काम होवऽ हलइ। बार्षिना साधारणतः भूदासत्व (serfdom) के सबसे खराब आउ कष्टकर रूप समझल जा हलइ । जब कभी भूदासत्व के बात उट्ठऽ हलइ त एकर अर्थ साधारणतः बार्षिना समझल जा हलइ ।

पितिरबुर्ग से मास्को के यात्रा ; अध्याय 3. तोस्ना


[*9]                                                                  तोस्ना
पितिरबुर्ग से रवाना होला पर हम मन में सोचऽ हलिअइ कि रोड बड़ी निम्मन हइ। अइसने एकरा बारे ऊ सब लोग सोचऽ हलइ जे सम्राट् के पीछू-पीछू एकरा पर यात्रा करते गेले हल। वास्तव में ई अइसने हलइ, लेकिन थोड़हीं समय खातिर। रोड पर छितराल मट्टी, जे एकरा शुष्क मौसम में समतल आउ चिकना बना दे हलइ, बारिस से द्रवित हो गेला पर, गरमी में बहुत कीचड़ बन जा हलइ, आउ एकरा अगम्य बना दे हलइ ... खराब रोड से बेचैन होल हम किबित्का से उठके अराम करे खातिर डाक झोपड़ी (post hut) में घुस गेलिअइ। झोपड़ी में हम एगो यात्री के देखलिअइ, जे सामने के कोना में सामान्य रूप से पावल जाल लमगर कृषक टेबुल भिर बैठल कुछ कागज सरियाके रख रहले हल आउ डाक स्टेशनमास्टर से निवेदन करब करऽ हलइ कि ओकरा जल्दी से जल्दी घोड़ा देल जाय। हमर ई प्रश्न पर कि ऊ केऽ हइ, हमरा मालुम चललइ कि ऊ [*10] प्राचीन स्कूल के वकील हइ जे चिथड़ा होल कगज के बड़गो ढेर के साथ पितिरबुर्ग जा रहले हल, जेकरा तखने ऊ तरतीब से सजा रहले हल। हम तुरते ओकरा साथ बातचीत में लग गेलिअइ, आउ हमरा ओकरा साथ ई बातचीत होलइ, “प्रिय महोदय !  रज़रियाद्नी आर्काइव[1] (श्रेणीकृत लेखागार) में रजिस्ट्रार के रूप में, हमरा नियन अपने के अत्यन्त विनम्र नौकर के अपन पद के सदुपयोग करे के अवसर मिललइ। बहुत प्रयास के बाद हम कइएक रूसी परिवार के स्पष्ट रूप से पुष्ट साक्ष्य के आधार पर वंशावली संग्रह कइलिए ह। हम कइएक शताब्दी के उनकन्हीं के राजसी अथवा अभिजात वंश (princely or noble ancestry)  के प्रमाण दे सकऽ हिअइ। अकसर हम व्लादिमिर मोनोमाख़[2] या खास रुरीक[3] से ओकरा वंशज होवे के प्रमाण देके राजसी गौरव स्थापित कर सकऽ हिअइ। प्रिय महाशय!", अपन कागज दने इशारा करते ऊ बात जारी रखलकइ, "सब्भे महान रूसी अभिजात वर्ग आधिकारिक रूप से हमर रचना के खरीद सकतइ, एकरा लगी ओतना भुगतान करके जेतना [*11] आउ कइसनो वस्तु लगी नञ् भुगतान कइल जा हइ। लेकिन अपने के अनुमति से, तत्रभवान् उच्चकुलीन, उत्कृष्टकुलीन या उच्च-उत्कृष्टकुलीन (Your Honour, Your Excellency, or Yоur Highness), हमरा अपने के रैंक नञ् मालुम, उनकन्हीं के मालुम नञ् कि उनकन्हीं के की चाही । अपने के मालुम हइ कि स्वर्गीय सनातनी सम्राट् फ़्योदर अलिक्सेयेविच[4], मेस्तनिचेस्त्वा[5] के समाप्त करके रूसी कुलीनवर्ग (nobility) के केतना रुष्ट कर देलथिन । ई कठोर कानून कइएक सत्यनिष्ठ राजसी (princely ) आउ राज परिवार के नोवगोरद कुलीनवर्ग के समान स्तर पर रख देलकइ । लेकिन सनातनी सर्वसत्ता-सम्पन्न सम्राट् (Sovereign Emperor)  प्योत्र महान अपन पद-तालिका[6] (Table of Ranks) से प्राचीन कुलीनवर्ग के सम्पूर्ण ग्रहण लगा देलथिन । मिलिट्री आउ सिविल सेवा के माध्यम से ऊ सब्भे लगी कुलीन उपाधि प्राप्त करे के रस्ता खोल देलथिन आउ प्राचीन कुलीनवर्ग के, अइसे कहल जाय, कुचलके पंक में डाल देलथिन । अभी हमर सर्वप्रियतम शासिका माता कुलीनवर्ग के बारे राजकीय घोषणापत्र से पहिलौका अध्यादेश (फरमान) के पुष्टि कर देलथिन हँ, जे प्राचीन कुलीन परिवार सब के [*12] कष्ट पहुँचइलकइ, काहेकि ऊ सब कुलीनवर्ग के पुस्तक में आउ दोसरा सब के अपेक्षा सबसे निच्चे रख देवल गेले ह । लेकिन अफवाह हइ कि जल्दीए एगो पूरक अध्यादेश जारी कइल जइतइ, जेकरा से ऊ परिवार के लोग के, जे 200 चाहे 300 बरिस पहिले से अपन कुलीनता सिद्ध कर सकइ, मार्किज़ (marquis) चाहे आउ दोसर कुलीन उपाधि प्रदान कइल जइतइ, आउ ओकन्हीं के दोसर परिवार सब के समक्ष एक प्रकार के विशिष्टता प्राप्त होतइ । एहे कारण से, अत्यन्त प्रिय महाशय ! हमर रचना सब्भे प्राचीन कुलीन समाज लगी अत्यन्त प्रिय होवे के चाही; लेकिन हरेक कोय के अपन दुश्मन होवऽ हइ ।
मास्को में हम युवा भद्रजन के संगत में पड़लिअइ आउ ओकन्हीं के अपन रचना प्रस्तुत कइलिअइ ताकि ओकन्हीं के अनुग्रह से हमरा कागज आउ स्याही के खरचा निकस सकइ; लेकिन ओकन्हीं के अनुग्रह के बदले हमरा ओकन्हीं के उपहास झेले पड़ल, आउ दुखी होके हम ऊ राजधानी शहर के छोड़के पितिरबुर्ग के रस्ता पकड़लिअइ, जाहाँ परी, जानवे करऽ हथिन, बहुत जादहीं प्रबुद्धता हइ । [*13] एतना कहके ऊ हमरा झुकके अभिवादन कइलकइ आउ सीधा तनके हमरा सामने बड़ी आदर के साथ खड़ी हो गेलइ । हम ओकर सोच समझ गेलिअइ, बटुआ से निकसलिअइ ... आउ ओकरा देके सलाह देलिअइ कि पितिरबुर्ग पहुँचला पर अपन नोट के अखबार वला के तौलौआ बेच देइ, पेपर लपेटे खातिर; काहेकि फर्जी मार्क्विज़ता (marquisate) कइएक सिर के घुमा देतइ, आउ ऊ रूस से समाप्त कइल एक ठो बुराई के फेर से सिर उठावे के कारण बनतइ - अपन पुरनका वंशावली के शेखी बघारे के ।



[1] रज़रियाद्नी आर्काइव - - औफिस जेकरा में ऊ सब लोग के नाम के रेकर्ड रक्खल जा हलइ, जे मिलिट्री सेवा में हलइ आउ जे रैंक (पद) ओकन्हीं के प्राप्त होले हल ।
[2] व्लादिमिर मोनोमाख़ (1053-1125) - व्लादिमिर II; कीव के ग्रैंड प्रिंस (1113-1125) । प्रारम्भिक शासक में से सबसे अच्छा आउ सबसे अधिक प्रिय ।
[3] रुरीक - रूसी राज्य के पारम्परिक संस्थापक, जे लगभग 862 ई॰ में नोवगोरद में शायद स्कैन्डिनेविया से अइले हल ।
[4] सम्राट् फ़्योदर अलिक्सेयेविच (1661-1682) – फ़्योदर III, रूस के सम्राट् (1676-1682); प्योत्र प्रथम (प्योत्र महान) (1672-1725) के बड़का भाय ।
[5] मेस्तनिचेस्त्वा - एक प्रणाली जेकरा में कुलीन परिवार के सदस्य के सरकारी सेवा में नियुक्ति आनुवंशिक वरीयता से कइल जा हलइ, न कि ओकर व्यक्तिगत योग्यता पर । उदाहरणस्वरूप, ओदोयेव्स्की परिवार के सदस्य के उच्चतर पद पर नियुक्ति के आनुवंशिक अधिकार हलइ, बुतुरलिन परिवार के सदस्य के अपेक्षा । दे॰ वसिली ओसिपोविच क्लुचेव्सकी (1911-1931) - "अ हिस्ट्री ऑफ़ रसिया" (रूस के इतिहास), अंग्रेजी अनुवाद - सी.जे. होगार्थ, पाँच खंड में; खंड-2, पृ॰45-57. मेस्तनिचेस्त्वा प्रणाली के 12 जनवरी 1682 के कानून से समाप्त कर देल गेलइ ।
[6] पद-तालिका (Table of Ranks) - 24 जनवरी 1722 में प्योत्र महान द्वारा जारी कइल गेल पद-तालिका में रैंक 1 से लेके 14 तक । उच्चतम रैंक 1 आउ न्यूनतम रैंक 14 । दे॰ “रूसी साम्राज्य के कानून के समग्र संग्रह, सन् 1649 से” (रूसी में), पितिरबुर्ग, 1830; खंड-6, पृ॰486-493. https://en.wikipedia.org/wiki/Table_of_Ranks.

पितिरबुर्ग से मास्को के यात्रा ; अध्याय 2. सोफ़िया


[*4]                                                                                        सोफ़िया
चारो तरफ सन्नाटा। विचार में लीन, हम नञ् देख पइलूँ कि हमर किबित्का बिन घोड़वन के बहुत देर से खड़ी हके। हमरा हुआँ पहुँचावे वला ड्राइवर विचारमग्नता से हमरा बाहर निकासलक।
"मालिक बाबू, वोदका खातिर कुछ।"
हलाँकि ई वसूली गैरकानूनी हइ, तइयो खुशी से सब कोय ओकरा देते जा हइ ताकि यात्रा के कष्टप्रद अध्यादेश से बच्चल जाय। बीस कोपेक से काम चल गेल। जे डाक से यात्रा कइलके ह, ओकरा मालुम हइ कि यात्रापत्र एगो रक्षात्मक पत्र हइ, जेकरा बेगर हरेक बटुआ लगी, जेनरल (सेनापति) के शायद छोड़के, हानिकारक सिद्ध होतइ। एकरा जेभी से निकासके, हम एकरा लटकइले गेलूँ जइसे कभी-कभी लोग खुद के रक्षा खातिर क्रॉस रखले रहऽ हइ।
डाक स्टेशनमास्टर के हम घोंघर पारते देखलिअइः ओकर कन्हा के हम स्पर्श कइलिअइ।
"तोरा शैतान धइले हको? रात में शहर के बाहर जाय के ई कइसन तरीका हइ? घोड़ा उपलब्ध नञ्; अभियो बहुत जल्दी हको; जा सराय के अन्दर, चाय पीयऽ, चाहे सुत जा।" एतना कहके महाशय स्टेशनमास्टर देवाल दने करवट बदललका आउ फेर से खर्राटा भरे लगला। की कइल जाय? फेर से हम स्टेशनमास्टर के कन्हा हिलइलिअइ।
"की मुसीबत हके, घोड़ा [*5] उपलब्ध नञ्, हम पहिलहीं कहलियो न।" आउ कंबल से सिर ढँकके महाशय स्टेशनमास्टर हमरा दने से मुँह मोड़ लेलका।
"अगर सब घोड़ा बाहर हइ", हम सोचलिअइ, "त स्टेशनमास्टर के नीन खराब करना ठीक नञ् हइ। लेकिन अगर घोड़वन अस्तबल में हइ ..."
हम ई जाने लगी मन में ठान लेलिअइ कि महाशय स्टेशनमास्टर सच कह रहला ह कि नञ्। हम प्रांगण में आके अस्तबल खोजलिअइ आउ ओकरा में करीब बीस घोड़ा देखलिअइ; हलाँकि सच कहल जाय तो ओकन्हीं के हड्डी देखाय दे हलइ, लेकिन हमरा अगला स्टेशन तक घींचके तो लेइए जा सकऽ हलइ। अस्तबल से हम फेर स्टेशनमास्टर भिर अइलिअइ; ओकर कन्हा धरके पहिलहूँ से जादे जोर से हिलइलिअइ। हमरा लगलइ कि ई बात के हमर अधिकार हइ, काहेकि स्टेशनमास्टर के झूठ पकड़ लेलिए हल। ऊ तेजी से उछल पड़लइ, आउ बिन आँख खोलले [*6] पुछलकइ, केऽ अइलऽ ह ... लेकिन होश में अइला पर हमरा देखके हमरा कहलकइ, "तगड़ा नवजवान, लगऽ हको कि तोरा पहिलौका नियन ड्राइवर के साथ व्यवहार करे के आदत हको। ओकन्हीं के डंडा से पिट्टल जा हलइ; लेकिन अब पहिलौका समय नञ् हइ।"
गोसाल महाशय स्टेशनमास्टर बिछौना पर सुत गेला। हमर मन कइलकइ कि ओकरा साथ ओइसीं व्यवहार करिअइ जइसे कि पहिले ड्राइवर सब के साथ कइल जा हलइ, जब ओकन्हीं के धोखा देते पावल जा हलइ; लेकिन शहरी ड्राइवर के वोदका लगी टिप देवे के उदारता सोफ़िया के ड्राइवर सब के जल्दीए घोड़ा जोते लगी प्रेरित कइलकइ, आउ तखनिएँ, जब हम स्टेशनमास्टर के पीठ पर अपराध करे के इरादा करब करऽ हलिअइ, प्रांगण में घंटी के अवाज सुनाय देलकइ। हम एगो निम्मन नागरिक बन्नल रह गेलिअइ। आउ ई तरह बीस ताम्र-कोपेक बचा लेलकइ एगो शांतिप्रिय व्यक्ति के नतीजा भुगते से, हमर बुतरुअन के अनियंत्रित क्रोध के उदाहरण बने से, आउ हमरा मालुम होलइ कि विवेक अधीरता के दास हइ।
घोड़वन हमरा तेजी से ले जा रहल ह; हमर ड्राइवर गीत चालू कर देलक ह, हमेशे नियन [*7] करुण गीत। जे रूसी लोकगीत के स्वर जानऽ हइ, ऊ स्वीकार करऽ हइ कि ओकरा में कुछ तो आत्मिक वेदना होवऽ हइ। लगभग सब्भे अइसन गीत के स्वर में कोमल सुर होवऽ हइ। लोग के एहे संगीतात्मक प्रवृत्ति के अनुसार शासन स्थापित करे लगी सीखऽ। ई गीत सब में हमन्हीं के लोग के आत्मा के गठन (constitution) मिलतो। रूसी व्यक्ति पर ध्यान देहो; ओकरा विचारमग्न देखभो। अगर ऊ अपन उदासी दूर करे लगी चाहतइ, चाहे जइसन की ऊ खुद्दे कहऽ हइ, अगर जरी दिल बहलावे के इच्छा होतइ, त ऊ कलाली (tavern) जइतइ। अपन खुशी में ऊ जोशीला, साहसी, झगड़ालू होवऽ हइ। अगर कुछ ओकर मन मोताबिक नञ् होवऽ हइ, त तुरतम्मे बहस चाहे झगड़ा चालू कर दे हइ। मूड़ी गोतले कलाली जाय वला आउ मार के चलते खून से लथपथ वापिस आवे वला गोनिया (barge-hauler) अभी तक रूस के इतिहास में बहुत कुछ उलझावे वला पहेली के सुलझा सकऽ हइ!
[*8] हमर ड्राइवर गा रहल ह। अधरात के बाद तेसरा घंटा चल रहले हल। पहिले के घंटी नियन अब हमरा ओकर गीत से नीन पड़ गेल। ओ प्रकृति, व्यक्ति के जन्म के बखत ओकरा दुख के चद्दर से ढँकके, ओकरा जिनगी भर भय, उकताहट आउ शोक के कठोर मेरुदंड से होके घसीटते, तूँ ओकरा खुशी के रूप में नीन देलहीं हँ। सुत गेलइ कि सब कुछ खतम हो गेलइ। जागरण अभागल लगी असहनीय होवऽ हइ। ओह, मौत ओकरा लगी केतना सुखद हइ ! लेकिन की ई दुख के अन्त हइ? परम कल्याणकारी पिता, की तूँ अपन नजर दयनीय अस्तित्व के समाप्त करे वला के तरफ से मोड़ लेबऽ? सब तरह के कल्याण करे वला तोहरा लगी ई बलिदान हको। तूहीं एगो अकेल्ले सहारा दे हकहो, जब प्रकृति काँपऽ आउ हिल्लऽ हइ। ई पिता के पुकार हइ जे अपन बुतरू के अपना तरफ बोलावऽ हइ। तूँ हमरा जिनगी देलऽ, तोहरे ई वापिस करऽ हियो; धरती पर ई बेकार हो चुकलो ह। 

पितिरबुर्ग से मास्को के यात्रा ; अध्याय 1. प्रस्थान


[*1]                                                                  प्रस्थान
अपन मित्र लोग के साथ रात के भोजन करके हम किबित्का (घोड़ागाड़ी) में पड़ गेलूँ। हमेशे नियन ड्राइवर घोड़वन के यथाशक्ति तेज दौड़इलकइ, आउ कुछ मिनट के बाद हम शहर के बाहर हो गेलूँ। हमन्हीं के जिनगी के हरेक मिनट में जे साथ-साथ रहले ह, ओकरा से बल्कि थोड़हूँ बखत लगी, अलग होना कठिन होवऽ हइ। अलग होना कठिन हइः लेकिन भाग्यशाली ऊ हइ जे बिन मुसकइते अलग हो सकऽ हइ; प्रेम चाहे दोस्ती ओकरा सान्त्वना देतइ। अलविदा कहके रोवऽ हो; लेकिन अपन वापसी के बारे आद करहो, आउ तोर अश्रु गायब हो जइतो ठीक ओइसीं जइसे कि ओस कण सूरज के सामने गायब हो जा हइ। परम सुखी हइ ऊ जे सान्त्वनादाता के आशा पर भोकार पारके रोवऽ हइ; परम सुखी हइ ऊ जे कभी-कभार भविष्य में जीयऽ हइ; परम सुखी हइ ऊ जे सपना में जीयऽ हइ। ओकर अस्तित्व समृद्ध हो जा हइ, आनन्द कइएक गुना हो जा हइ आउ कल्पना के दर्पण में आनन्द के चित्र के निर्माण करके शान्ति दुख के कठोरता के पूर्वाभास दे दे हइ। [*2]
हम किबित्का में लेट गेलिअइ। डाक घंटी के अवाज हमर कान के थकाके परोपकारी मोरफ़ियस के पुकरलकइ। जुदाई के उदासी हमर पीछा करते मृत्युतुल्य नीन के स्थिति में हमरा अकेलापन अनुभव करे लगी छोड़ देलकइ। हम खुद के एगो अइसन बड़गो घाटी में पइलिअइ, जे सूरज के गरमी से सब सौन्दर्य आउ हरियाली के रंबिरंगापन खो चुकले ह; ठंढई खातिर हियाँ कोय सोता नञ् हलइ, गरमी कम करे लगी गाछ-बिरिछ के छाया नञ् हलइ। अकेल्ले, बिछुड़ल, प्रकृति बीच एगो संन्यासी ! हम तो काँप गेलिअइ।
"अभागल", हम चिल्लइलिअइ, "तूँ काहाँ हँऽ? काहाँ ऊ सब रह गेलउ जे तोरा आकर्षित करऽ हलउ? काहाँ हउ ऊ जे तोर जिनगी के खुशी से भर दे हलउ? की वास्तव में खुशी जे तूँ पहिले अनुभव करऽ हलहीं खाली सपना हलउ? भाग्यवश रोड पर के लीक से, जेकरा में हमर किबित्का हिचकोला खइलकइ, हमर नीन खुल गेल। [*3] हमर किबित्का रुक गेल। हम सिर उठइलूँ। देखऽ ही कि खुल्लल जगह में एगो तिनमंजिला मकान हके।
"की बात हइ?" हम अपन ड्राइवर के पुछलिअइ।
"डाक स्टेशन।"
"लेकिन हमन्हीं काहाँ ही?"
"सोफ़िया में।"
एतने में ऊ घोड़वन के गाड़ी से खोले लगलइ।

पितिरबुर्ग से मास्को के यात्रा ; अध्याय 0. ए॰एम॰के॰


[*I]                                                           ए॰एम॰के॰[1]
प्रियतम मित्र के सेवा में
जे कुछ हमर बुद्धि आउ हृदय उत्पन्न करे के काहे नञ् सोचे, ऊ सब तोरे लगी, ओ! सुहृद् हमर, समर्पित होतो। हलाँकि कइएक विषय के बारे हमर विचार तोहर विचार से पृथक् हइ, लेकिन तोर हृदय हमर हृदय के साथ समस्वर में (harmonically) धड़कऽ हइ - आउ तूँ हमर मित्र हकऽ।
हम अपन चारो बगली देखलिअइ - हमर हृदय मानवता के वेदना से दुखी हो गेलइ। अपन दृष्टि अपन अंतःकरण दने डललिअइ - त हम देखलिअइ कि मानव के पीड़ा मानव से हीं उत्पन्न होवऽ हइ, आउ अकसर खाली ई कारण से कि ऊ अपन आसपास के वस्तु दने सीधे नजर नञ् डालऽ हइ। की ई संभव हइ, हम खुद से कहलिअइ, कि प्रकृति अपन संतान सब के प्रति अइसन मितभाषी हइ कि ऊ हमेशे लगी निर्दोषतापूर्वक पथभ्रष्ट हो रहल ओकन्हीं से सत्य के छिपावऽ हइ? की ई संभव हइ कि ई निर्दय विमाता हमन्हीं के ई दुनियाँ में ई लगी लइलके ह कि हमन्हीं खाली दुख झेलिअइ, आउ कभियो सुख नञ् देखिअइ? हमर बुद्धि ई विचार से काँप उठल, आउ हमर हृदय अपना से दूर झटक देलकइ। हम मानव के सांत्वनादाता के खुद ओकरे में देखलिअइ। "प्राकृतिक संवेदना के आँख से परदा के हटा - आउ हम सुखी होम।" प्रकृति के ई अवाज हमर शरीर के काठी में जोर-जोर से प्रतिध्वनित होल। हम अपन ऊ विषाद से अनुप्राणित हो गेलूँ, [*II] जेकरा में हमरा संवेदनशीलता आउ सहानुभूति मग्न कर देलक हल; हम ई भ्रम के सामना करे खातिर काफी शक्ति अनुभव कइलूँ; आउ - अवर्णनीय आनन्द! हम अनुभव कइलूँ कि अपन नियन लोग के खातिर कल्याणकारी बनना संभव हइ। एहे विचार हइ, जे हमरा संक्षिप्त वर्णन करे लगी प्रोत्साहन देलक, आउ जे तूँ पढ़े जा रहलऽ ह। लेकिन, हम खुद से कहलिअइ, अगर हमरा अइसन कोय मिल जाय जे हमर इरादा के अनुमोदन करे; जे कल्याणकारी उद्देश्य खातिर हमर विचार के निष्फल अभिव्यक्ति के निंदा नञ् करइ; जे अपन साथी लोग के दुख-तकलीफ पर हमरा साथ सहानुभूति रक्खइ; जे हमर जुलूस में हमरा सहारा देइ; त की हमरा से कइल गेल ई उद्यम के फल अनुपम नञ् होतइ? ... काहे लगी, काहे लगी हम केकरो दूर वला के खोज करिअइ? हमर मित्र! तूँ हमर हृदय के नगीच रहऽ हकऽ आउ तोहर नाम ई प्रारम्भ के प्रकाशित करे!



[1] ए॰एम॰के॰ - अलिक्सेय मिख़ाइलोविच कुतुज़ोव (1749-1797), रादिषेव के बचपन के मित्र।

पितिरबुर्ग से मास्को के यात्रा (1790) - अनुवादक के भूमिका


पितिरबुर्ग से मास्को के यात्रा (1790)
मूल रूसी लेखक - अलिक्सान्द्र निकोलायेविच रादिषेव (1749-1802)
मगही अनुवाद - नारायण प्रसाद

प्रसिद्ध रूसी लेखक अलिक्सान्द्र निकोलायेविच रादिषेव के रचना के मगही अनुवाद के प्लान बहुत पहिले से हलइ। ऐतिहासिक रूप से रूसी गद्य साहित्य के पहिलौका रचना "पितिरबुर्ग से मास्को के यात्रा" हइ, जेकर चर्चा रूसी साहित्य के इतिहास विषय में हरेक पुस्तक में कइल जा हइ। ई पुस्तक के अनुवाद सब्भे प्रमुख यूरोपियन भाषा में कइल जा चुकले ह, हलाँकि एकर हिन्दी अनुवाद अभी तक नञ् प्रकाशित होले ह।
"पितिरबुर्ग से मास्को के यात्रा" के रचना तब होले हल, जब आधुनिक गद्य रूसी साहित्यिक भाषा स्थिर नञ् होले हल। आधुनिक गद्य रूसी साहित्यिक भाषा लगभग सन् 1830 ई॰ से शुरू होवऽ हइ जेकर प्रवर्तक प्रसिद्ध रूसी लेखक अलिक्सान्द्र पुश्किन (1799-1837) हलथिन ।
ई पुस्तक के भाषा पुराना होवे से बिन विस्तृत टीका-टिप्पणी के ठीक से समझ में नञ् आवऽ हइ। हमरा पास मूल 1790 के संस्करण हइ आउ एकर विद्वत्तापूर्ण संस्करण (1992) भी। साथ-साथ एकर अंगरेजी अनुवाद, फ्रेंच अनुवाद, इटैलियन अनुवाद, स्पैनिश अनुवाद भी।
"पितिरबुर्ग से मास्को के यात्रा" पुस्तक के मई 1790 में प्रकाशित होला के तुरन्त बाद एकरा पर प्रतिबन्ध लगा देवल गेलइ। ई पुस्तक के जेतना प्रति मिल सकलइ, ऊ सब्भे के जला देवल गेलइ । अभी रूस में कुल 12 प्रति वर्तमान हइ, जेकरा में पुश्किन के पास से प्राप्त एक प्रति भी हइ ।
रूस में 98 वरिस बाद सन् 1888 में पितिरबुर्ग से एकर खालील 100 प्रति प्रकाशित होलइ । बिन कोय बाधा के रूस में सन् 1905 से हीं एकर प्रकाशन आउ वितरण आरम्भ होलइ।
ई पुस्तक में ऊ ज़ारशाही जमाना के सामाजिक आउ राजनैतिक परिस्थिति के वर्णन हइ, विशेष रूप से भूदासत्व (serfdom)के आलोचना कइल गेले ह आउ एकरा लगी प्रशासन के उत्तरदायी मानल गेले ह । भूदासत्व के उन्मूलन 71 वर्ष बाद सन् 1861 में ज़ार के अध्यादेश से कइल गेलइ।
रादिषेव प्रकाशन के पहिले सेंसर से अनुमति लेलथिन हल। सेंसर हेड ई सोचके बिन पढ़लहीं अनुमति दे देलकइ कि ई पुस्तक में दुन्नु राजधानी के बीच के सामान्य यात्रा वृत्तान्ते तो होतइ । प्रकाशित पुस्तक में लेखक के नाम नञ् हलइ, प्रिंटिंग प्रेस के नाम के कोय उल्लेख नञ् हलइ।
ई पुस्तक के राजधानी में सनसनी पैदा करे में अधिक समय नञ् लगलइ । कइएक लोग तो एकरा कुच्छे घंटा पढ़े के वास्ते उँचगर कीमत देवे लगी तैयार हलइ। लेकिन साम्राज्ञी, कैथेरिन महान (Catherine the Great, 1729-1796) के एकर जनकारी एक महिन्ना बादे मिललइ, जे ऊ बखत त्सार्स्कए सेलो में हला। कुछ पन्ना पढ़े के बादे ऊ लेखक के बारे टिप्पणी कइलका - "ई तो पुगाचोव से भी जादे खतरनाक उपद्रवी हकइ ।" इमिल्यान पुगाचोव (1742-1775) प्रसिद्ध रूसी कृषक आन्दोलन (1773-1775) के नेता हलइ, जे पूरे साम्राज्य के हिलाके रख देलके हल। सन् 1775 में ओकरा पकड़के फाँसी पर लटका देवल गेलइ। ...

Monday, May 06, 2019

मैथिली (लघु) उपन्यास - "पुनर्विवाह" (1926) - भाग-1


मैथिली उपन्यास "पुनर्विवाह" (1926)
उपन्यासकार - जनार्दन झा 'जनसीदन' (1872-1951)
मगही अनुवाद - नारायण प्रसाद
[*27]
पूर्वार्ध
1
कलाधर - रूप बड़गो कि गुण ?
दिवाकर - हम पहिले रूपे के बड़गो समझऽ हलुँ, लेकिन अब कुछ दिन से ई धारणा बदल गेल ह ।
कलाधर - बदले के कारण ?
दिवाकर - जब तक विवाह नञ् भेल हल, रूपवती स्त्री के देखके मन में होवे जे हमरो अइसन सुन्दर स्त्री से विवाह होत हल त मनुष्य जीवन के सफल समझतूँ हल । ईश्वर के कृपा से ई मनोरथ पूरा तो भेल । लेकिन मन के धारणा जे पहिले हल से बदल गेल ।
कलाधर - मित्र ! आद हको ? एक दिन विद्यालय से आवे घड़ी हमरा तोहरा साथ एहे विषय पर विवाद होलो हल । तोहरा केतनो समझाके कहलियो कि गुण के महत्त्व रूप से अधिक हइ, लेकिन तूँ स्त्री खातिर रूपे के प्रधानता देते रहलहो । तूँ एहो बोलते रहलहो कि सुन्दर स्त्री स्वभाव से गुणवती होवऽ हइ । कउनो कवि के कथन हइ जे ‘यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति[1] । एकरा पर तोहरा पक्का विश्वास हलो । लेकिन कवि के ई उक्ति सगरो लागू नञ् हो सकऽ हइ, से हम अनेक उदाहरण द्वारा तोहरा समझइलियो । लेकिन तूँ नञ् मानलऽ, तोहर मन में रूप के संग गुण रहे के पक्का विश्वास जमल हलो, से नञ् रहलो । हम ई नञ् कहऽ ही जे रूपवती स्त्री गुणवती नञ् होवऽ हइ । जेकरा में रूप गुण दुन्नु हइ से तो हर तरह से प्रशंसा के पात्र हइ । रूप के संग गुण होना, सोना में सुगन्ध होवे के बराबरे समझे के हइ । तखनी सौन्दर्य रहित गुणवती स्त्री गुणहीन रूपवती स्त्री से अवश्य नीक, एकरा में सन्देह नञ् ।
दिवाकर – ‘फलेन परिचीयते[2] अब हमरा तोहरे कहना सच लगऽ हको । हमर ऊ दिन के समझ भ्रमात्मक हल ।
कलाधर - रूप सर्वदा स्थिर रहे वला वस्तु नञ् हइ । थोड़हीं दिन में कुम्हलाके ऊ मलीन हो जा हइ । विकसित फूल के स्थिति आउ रूप में कुछ [*28] भेद नञ् । जे फूल एक दिन अपन प्रफुल्लता के कारण हृदय के आकर्षित करऽ हइ, दू दिन बाद मुरझा गेला पर चित्त के आकर्षित करे के स्थान में खाली खेद पैदा करऽ हइ। लेकिन गुण में ई क्षमता नञ् पावल जा हइ । ओकर दिन-दिन उत्कर्ष होवहीं के सम्भावना ।
दिवाकर - एतना दिन के बाद अब हमहुँ निश्चित रूप से बुझलुँ जे गुण रहित रूप, महकारी[3] के फल के सिवाय आउ कुछ नञ् ।
कलाधर - ज्योतिषी भाय के स्त्री कउन रूपवती हथिन, लेकिन गुण के कारण सगरो उनकर प्रशंसा होवऽ हइ । एक दिन हम उनकर आंगन गेल रहिअइ । काकी से पुछलिअन - कहु, पुतोह के शील स्वभाव कइसन ? कहलन जे हे बाबू, स्वभाव के वर्णन की करिअन, साक्षात् लक्ष्मी हथी । अइसन पुतोह भगवान सबके दे । अइतहीं आशश्रम (परिवार) के सब भार उठा लेलन । दू बरिस से काहाँ की होवऽ हइ से बझवो नञ् करऽ हिअइ । एक बरिस के बुतरू कोर में हन तइयो खाना बनावे के काम करना-धरना, सबके खिलाना-पिलाना । कखनियों बैठल नञ् देखऽ हिअइ । हमर सेवा-शुश्रूषा जइसन करऽ हथिन ओकरा से बुझऽ हिअइ । रड़िनियो के कहियो कउनो छोट बात कहते नञ् सुनलिए ह । दोसरो पुतोह के अइला दू बरिस हो गेलइ । देखे-सुने में मूर्ख नञ्, लेकिन रंगल-ढंगल माटी के मूर्तिए (नियन सुंदर लेकिन कोय काम के नञ्)। खेर्ह के भी दुख देतइ ओहो नञ् । अपन मन से कुछ करतइ से सब नञ् । जखनी देखबइ तखनी पड़ले । जखनी अपन दिमाग में कुछ नञ् सुझइ त दोसर के अर्हइलो पर कुछ नञ् करतइ । एक कान से सुनतइ, दोसर कान दने बहरा जइतइ । कोय बात के चिन्ता नञ् । भगवान अइसन गोतनी देलथिन ओकरा चलते, जइसन करऽ हथिन, छज जा हइ । कान-कान कोय नञ् सुनऽ हइ । अगर जेठ, जेकर देवकी के भौजी के भौजी नियन स्वभाव रहते हल त आंगन में दिन-रात दुरर्थ होते रहते हल ।
एतने में भौजी पान-सुपारी पनबट्टी में देके बुतरू के हाथ से पठइलन ।
हम बुतरू के गोदी में लेके काकी के कहलिअन, धन्य तोहर भाग्य जे अइसन पुतोह पइलऽ । आझकल तो एकाधे गो के अइसन पुतोह भेटत जेकर प्रशंसा सास के मुँह से सुनबइ । नञ् तो घर-घर में सास-पुतोह के झगड़ा खाना-पीना नियन एक ठो आवश्यक विषय हो गेल ह । सास से भेंट भेला पर भर ठाकी पुतोह के दोष। पुतोह से भेंट होत त टेहुना भर सास के दोष कहके सुनइतइ । कभी-कभी आँचर से आँख ओहो पोछतइ आउ ओहो । भाग्य के दोष दुन्नु गोटा देथी, तखनी दोष केकर एकर निर्णय होना कठिन । प्राण बच्चे के संभव तखनी अगर सास के सुर में [*29] सुर मिलाके पुतोह के निन्दा भर हिंछा कहके सुनइबइ, आउ पुतोह के समीप अधिक त एतनो अवश्य कह दिअइ जे बूढ़ी अब आँख मूनके चल देथी ओकरे में नीक हलइ । उनका अब घर-द्वार से की मतलब । आन घर के की बात । हमरो आंगन में ई चरखा चलतहीं रहऽ हइ । की कइल जाय । सुनते-सुनते कान बहिर भे गेल । डरे कुछ बोली नञ् निकसऽ हके । जेकरा चुप रहे कहऽ हिअइ ऊ मुद्दई (अभियोग लगौनिहार, वादी) के रूप में समझऽ हइ । आंगन में अधिक लोक नञ्, सेकरा पर ई विषय । जे-जे घर में दु-चार सास-पुतोह के एकत्र वास, ऊ घर के तो बाते नञ् कहल जाय । हुआँ जे नञ् हो, से आश्चर्य । ई कहके जखनी हम विदा भेलुँ तखनी काकी कहलन, बीच-बीच में अइते-जइते रहऽ । दिवाकर बाबू के देखला बहुत दिन भे गेल । भेंट हो त उनका एक बेरी एन्ने पठा दिहो ।
दिवाकर - काकी से भेंट करे के इच्छा त हमरो बहुत दिन से होब करऽ हइ, लेकिन की करूँ ? आंगन के काज से फुरसत हो, तखनी कहूँ जाँव । बाबू गामहीं पर न हथी । माय अधिकतर समय तकलीफ में रहऽ हथी, बुढ़ारी के देह भेलइ । बहिन जब हियाँ हले त निश्चिन्त हलुँ । ऊ जे दिन से गेल हथी, ऊ दिन से परिवार के सब भार हमरे कपार पर चढ़ल । आंगन में हथी, उनका कोय बात के चिन्ता नञ्, भर दिन सखी-सहेली संग ताश-ताश खेलते रहऽ हथी । कभी निम्मन खराब लगी कहिअइ त कहऽ हथी जे हमरा नैहर पठा दऽ, नञ् त हम इनारा-पोखर में डूब मरम । जहर भेटत हल त खाके सुत रहतूँ हल । कहू अइसन ठाम हम की करू । जे रूप के हम अमृत समझऽ हलुँ, से अब जहरो से बढ़ल भयंकर लगऽ हके । गुणवती स्त्री के मुँह से अइसन कुबुद्धि भरल वाक्य सुने में नञ् अइतइ । लेकिन गरमे पड़ल ढोल त बजावे में कुशल । जेकर पाणिग्रण कर चुकल हिअइ, तेकर निर्वाह त कउनो तरह करहीं पड़तइ । माय दोसर विवाह करे लगी कहऽ हथी, लेकिन हम उनकर ई आज्ञा के पालन करे में असमर्थ ही । बाबूजी के मुछह से कहियो अइसन तरह के प्रस्ताव नञ् सुनलुँ हँ । उनकर विचार के बिना सहसा हम कउनो काम करूँ, से उचित नञ् ।
कलाधर - ई तोहर विचार सर्वथा उत्तम हको । मनलिअइ दोसर वुवाह करम, लेकिन ऊ इनका से नीके होतइ एकर कउन गारंटी । हो सकऽ हइ, ऊ इनको से बेलूरी होथी ।त अखनी जे दुख हइ ओकर मात्रा कइएक गुना बढ़ जात । जेकरा से ई सुधरथी सेहे उपाय करूँ । नैहर में कन्या के नीक शिक्षा नञ् भेलइ, ई सब होना आश्चर्य के विषय नञ् । अनपढ़ स्त्री जे नञ् करइ से अचरज ।
दिवाकर - अब बुझते-बुझते बुझलुँ जे स्त्री के सर्वोपरि गुण होवऽ हइ पति [*30] भक्ति । जे स्त्री के ऊ नञ् हइ, ओकरा आन गुण चाहे सुन्दरता रहलहीं से की ? स्त्री-पुरुष में परस्पर प्रेम नञ् रहइ, गृहस्थी के सुखे की ?
कलाधर - स्त्री-पुरुष में परस्पर प्रेम तबहिएँ तक स्थिर रह सकऽ हइ जब तक दुन्नु के चरित्र शुद्ध रहइ आउ दुन्नु के व्यवहार निश्छल रहइ । ई जाहाँ नञ् हुआँ "मुँह देखे की प्रीति ।"
दिवाकर - बेस, अब साँझ भेल । काम नञ् रहत हल त कुछ बखत एत्ते बैठके आउ गप करते जइतूँ हल।
दुन्नु गोटा अपन-अपन घर दने चल गेला ।
2

कलाधर - कहू मित्र ! ज्योतिषी भाय के घर दने जाय के अवसर मिलल कि नञ् ?
दिवाकर - सपरते-सपरते तीन महिन्ना पर कल्हे काकी से भेंट करे लगी गेल हलुँ । ज्योतिषी भाय के स्त्री कुछ दिन से बेमार हथिन । बेमारी पुछला पर कहलन जे लक्षण से बुझल जा हइ जे परसौती भे गेल हन। खुद जाहाँ तक औषधि जानऽ हलुँ, देलिअन । आनो कोय देवे लगी कहऽ हइ । देलिअन, लेकिन फयदा कुछ देखे में नञ् आबइ । देह दिनो-दिन दुबरइले जा हइ । एहू हालत में क्षण भर बैठथी त से नञ् । आंगन-घर के कुच्छो काम पहिले जे करऽ हलथी से अभियो करऽ हथी । सेकरा पर हम कहलिअन जे जब तक ऊ दुखी हथी तब तक छोटकी भौजी के रसोई करे लगी काहे नञ् कहऽ हथिन । कहलन, उनका कउनो लूर-भास नञ् हन । भर दिन हाथ-गोड़ मोड़ले रहऽ हथी । मुँह धोवे कहबन त मुँह धोथी । खाय कहबन त खइथी । बुतरू के भर दिन हमहीं गले लगइले रहऽ हिअइ । जयनाथ के कहऽ हिअन जे कउनो बड़गो डाक्टर से देखाहुन, त ऊ कहऽ हथी जे ई सब दुख स्त्री लोग के होतहीं रहऽ हइ । खटाय मिरचाय खाय लगी छोड़ देथी, सब अपनहीं छूट जइतन । दू टका  वैद के देवे पड़तन । ओहे से केतनो कहऽ हिअइ, काने नञ् दे हथी, से नीक नञ् करऽ हथी । हम कहलिअन, जयनाथ भाय ध्यान नञ् दे हथी, से नीक नञ् करऽ हथी । दुख बढ़ जइतइ त पाछे पछतइता। एकदम इतना कंजूसी कउन काम के । मासे-मास ज्योतिषी भाय टका पठावऽ हथी, भौजी के बेमारी में दस टका खरच करहीं पड़तन, त कउन भारी [*31] बात हइ, जान के खातिर लोग की नञ् करऽ हइ । जेकरा अपना उपाय नञ् रहऽ हइ, से अनको से करजा-पैंचा लेके दवा-दारू करऽ हइ । ज्योतिषी भाय के आवे खातिर चिट्ठी लिखके पठइहो।
काकी कहलन - एक-दू गोटा ! कै गोटा चिट्ठी पठइलथिन हँ । दुखवो के हाल लिखवा देलिए ह । ऊ लिखऽ हथी, जब तक अनुष्ठान समाप्त नञ् होत तब तक गाम नञ् आ सकऽ ही । छो मास लगी कोय भार देलन हल जेकरा में चार मास बीत गेल, अब दू मास आउ बाकी बच्चल हइ, सावन तक गाम अइता । पाँच टका रोज दक्षिणा दे हन, से छोड़ना बड़ भारी बुझा हइ । हियाँ कोय मरइ चाहे जिअइ तेकरा से उनका की ? टका फेर कमा लेता, लेकिन लोक अइसन नञ् भेटतन से हम तोहरा कहके रखऽ ही । हम सान्त्वना देते कहलिअन - कउनो चिन्ता नञ्, दुख-सुख शरीर में होतहीं रहऽ हइ, "शरीरं व्याधि मन्दिरम्", संयम से रहथी, समय पर औषधि खाथी । हम रोग के लक्षण सब ज्योतिषी भाय के लिखके पठाब करऽ हिअइ । वैद्यनाथ धाम में बहुतो डाक्टर-वैद्य हइ, केकरो से औषध लेके पठा देथिन । तूँ चिन्ता मत करऽ । हमर दाइ एक बरिस से बेमार हलइ, अब नीक भेल जा हइ । ई कहके हम चल देलुँ । वास्तव में जयनाथ भाय बड़ अनुचित काम करऽ हथी जे वैद्य से नञ् देखावऽ हथिन, हम कहलिअन लेकिन काकी से हमरा ऊ सम्बन्ध में गप करते देखियो के कधरो टर गेलन ।
कलाधर - बाबू ! कंजूसो बहुत देखल हइ, लेकिन जयनाथ नियन एतना संकीर्ण हृदय के लोक कहूँ देखे में नञ् आवऽ हइ । बात तो बोलऽ हइ खूब सीटके, लेकिन करे के बेरी में "विष्णुर्विष्णुरहरिर्हरिः" । बिहान चलहू हम तूँ दुन्नु गोटा उनका समझाके कहबन । अगर नञ् मानता त एगो रजिस्ट्री चिट्ठी ज्योतिषी भाय के लिखके पठइबन । कउन पंडा के मकान में हथी ?
दिवाकर - से हमरा बुझल हइ । धर्मदत्त पण्डा के मकान में उनकर डेरा हइ । दोसरो मन्दिर के पता से चिट्ठी पहुँच सकऽ हइ ।
कलाधर - जयनाथ से भेट एक बजे दिन तक होत । लगभग बारह बजे तक तो ऊ खेतवे में रहऽ हइ । बज्र बनिहार नियन कमाय करऽ हइ, घास छिल्लऽ हइ । कोय बात के कमी नञ् हइ तइयो भर दिन हाय-हाय करते रहऽ हइ ।
दिवाकर - मित्र, पैसा के महत्त्व कोय-कोय समझऽ हइ। हम तूँ जे एतना अभाव में [*32] जिनगी गुजारऽ हो सेकर कारण पैसा के कदर नञ् करना हइ । कर्तव्य के चलते कुछ अधिक खरच करहीं पड़ऽ हइ । जयनाथ भाय के आंगन में एक दिन भौजी धान से मछली किनलथिन, मछली आगू में देखके आउ ई समझके जे ई किनल गेल ह, झट मछली के कटोरा उलट देलन आउ आसन पर से ई बोलते उठ गेला जे मछली खाय के इच्छा भेलो हल त हमरा कहला से हम पोखर से मरवाके ला देतियो हल । एतना फजूलखर्ची जे घर में हो से घर कइसे चलत । भौजी के आँख से लोर टप-टप गिरे लगलइ । से जयनाथ उनका औषधि में दस-पाँच टका खरच करता ई तो असम्भव बुझल जा हइ ।
कलाधर - हम लोगन कउनो कुमार्ग में तो खरच करवे नञ् करऽ हिअइ, तखनी उचित के त्याग करबइ ओहो नञ् हो सकऽ हइ । ओकरा लगी अभाव में रहिअइ चाहे जे रहिअइ ।
दिवाकर - कठिन समय बीत रहल ह, जेकरा चलते हमरा नियन आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोग के मर्यादा बचाना कठिन हइ ।
कलाधर - बेस, त अब जा हियो ।
दिवाकर कुछ दूर तक उनका अरिआत गेला फेर अपन दलान पर अइला ।
3
विशेषरानी के हालत दिन-दिन खराबे होते गेलइ । हलाँकि उनकर स्वामी ज्योतिषी भवनाथ झा वैद्यनाथो से कुछ औषधि डाक से पठा दे हलथिन, लेकिन ओहूँ से कुछ लाभ नञ् भेलइ । अब चलहूँ-फिरहूँ के सामर्थ्य शरीर में नञ् रहलइ । कुछ दिन से शय्यागत (bed-ridden) होल पड़ल रहऽ हथी । हमेशे देह में सूक्ष्म ज्वर बनले रहऽ हइ । उनका अब अपनहुँ बुझाय लगले ह जे रोग असाध्य भेल जा हइ । कखनहुँ जयनाथ ई बोल देथिन जे कुपथ्य से रोग बढ़ गेले ह, तखनी उनकर मन में बड़ी पीड़ा होवऽ हइ । लगऽ हइ कि जइसे कोय हृदय में बरछी भोंक रहल ह । एकरो से बढ़के उनकर हृदय दू बात के सोच से सतत दग्ध होते रहऽ हलइ। एक तो स्वामी के दर्शन मरहुँ बखत तक नञ् होल, दोसर उनकर पीछू तीन बरिस के अबोध बुतरू के रक्षा के करत ? एहे चिन्ता से ऊ दिन-रात शोकाकुल रहऽ हलन । कखनहुँ बुतरू के छाती से लगाके अधीर होके कन्ने लगथी । अनेक तरह के आश्वासन देलो पर उनकर आँख के लोर नञ् सुक्खइ । [*33] भर दिन बुतरू के कंठ से लगइले मौत के इंतजार में दिन बिता रहला हल । सावने से स्वामी के राह तकते-तकते आन्हर हो गेलथिन । लेकिन भवनाथ के चाणक्य के ई श्लोक "दारान् रक्षेद्धनैरपि"[4] पुरश्चरण के टका देखके विस्मृत हो गेलइ । उनका एक दोसर यजमान भेट गेलन आउ कहलकन जे दू मास हमर पूजा कर दऽ । कार्य सिद्ध भेला पर हम दक्षिणा के अलावे पाँच बीघा भूमि ब्रह्मोत्तर देबो । ऊ लोभ से बेचारे अब तक ओत्ते रह गेला । जयनाथ चिट्ठी में लिख देलथिन जे कउनो अन्देसा नञ्, भौजी पहिले से अब कुछ नीके हथी, एही से उनकर मन में कुछ सन्तोष हो गेले ह । लेकिन कखनी कलाधर बाबू के रजिस्ट्री चिट्ठी पइलन तखनी से मन छटपटाय लगलइ । करता की । कभी भाय पर गोस्सा आ जाय जे पहिलहीं अगर सच-सच बात लिखके पठा देत हल त दोसर पुरश्चरण नञ् गछके गामे चल जइतूँ हल । लेकिन अब तो "स्थातुं गन्तुं द्वयमपि सखे नैव शक्तो द्विरेफः"[5] । एक दिन सपना में देखलन जे स्त्री गोड़ दबा रहल हथी आउ कह रहलथी ह जे अबरी तूँ बाबाधाम जइबऽ त हमहूँ साथे जाम । तूँ हुआँ जा ह त सब विसर जा ह । बिन पूरा बरिस बितइले गाम नञ् आवऽ ह । बुतरुओ के अबरी साथे लेले जाम । तोहरा टका होते रहे के चाही । बहू-बेटी के मोह तक्के में घड़ी घंटा के शब्द सुनके नीन खुल गेलन । "जय वैद्यनाथ" कहके उठ बैठला । कुछ बखत व्याकुल होल सोचे लगला जे की करूँ । गाम जाना बिलकुल उचित हके । निश्चय कइलन जे आझ साँझ के समय ट्रेन से गाम जाम । स्नान-पूजा करके जखणीडेरा पर अइला तखनी देखलन जे बाबू महेश्वर सिंह के सिपाही बैठल हइ । प्रणाम करके चिट्ठी आउ100 टका के एगो नोट हाथ में देके कहलकइ जे 'बाबू साहेब कल या परसों आवेंगे । आपको यह रुपया डेरा के इंतजाम के लिए दिया है । उनके वास्ते एक अच्छा मकान आप ठीक कर रखें।' ज्योतिषी के मन के भावना मनहीं में रह गेल, की करता, लचार होल रहहीं पड़लन । कार्तिक अमावस्या से तीन दिन पहिले ऊ गाम पहुँचला । उनका ई धारणा नञ् रहइजे स्त्री के ई अवस्था में देखता । हलाँकि उनका स्त्री पर प्रेम हलइ, लेकिन लाभ के वशीभूत होके भइयो प्रेम वियोग शृंगार द्वारा पुष्ट करे लगला । एन्ने स्त्री पति के ध्यान करते स्वर्गलोक हाय के तैयारी कर रहलथिन हल । विशेषरानी पति के आगमन सुनके फुरफुराके उठ बैठलथी । ऊ पल उनका लगलइ जे उनकर आधा दुख छूट गेल होवे । लेकिन शरीर में ओतना सामर्थ्य नञ् जे पति के दर्शन खातिर उठके चौकठियो तक जाथी । एक बेरी साहस करके उठे लगलथी, लेकिन तलमलाके सेज पर गिर पड़लथी ।
[*34] भवनाथ माय के प्रणाम करके हाथ-गोड़ धोके जखनी स्थिर भेला तखनी माय के कहला पर अपन शय्यागत स्त्री के देखे लगी गेला । उनका घर में प्रवेश करते देखके उनकर स्त्री साहस करके कउनो तरह से खाट से ससरके निच्चे बैठला । आँख से झरझर लोर गिरे लगलइ । स्वामी कहलथिन - 'कन्नऽ ह काहे लगी ? तोहर दुख जल्दी छूट जइतो ।' विशेषरानी स्वामी के गोड़ पर माथा रखके बहुत देर तक चुप रहलथी । बाद में जब स्वामी उठाके बैठइलथिन तखनी ऊ गद्गद् कंठ से कहे लगलथिन, "तूँ हमरा विसार देलऽ से हमर कर्म के दोष हके । दू-एक दिन के बाद अइतऽ हल त भेटो नञ् होतो हल । हमर प्राण केवल तोहर दर्शन खातिर अटकल हलो । अब हम खुशी से मर सकम । हमरा से कहियो कउनो तरह के अपराध होलो होत त ओरा क्षमा कर दीहऽ ।" एतना कहके दुन्नु हाथ से पति के गोड़ पकड़ लेलन । भवनाथ अधीर हो गेला । आँख से टप-टप लोर गिरे लगलइ । कंठ रूद्ध हो गेलइ । लाख बोले के चेष्टा कइलन लेकिन कुच्छो बोली नञ् निकसलइ । केवल स्त्री के दुन्नु व्यथित हाथ के कइसूँ अपन गोड़ पर से हटाके हाथ में रखले रहला ।
स्त्री धैर्य धारण करके कहलथिन - विवाह में हमर हाथ पकड़लहु, तेकर निर्वाह एतना दिन कइलुँ । अब हाथ पकड़ऽ हऽ, जेकरा में हमर उद्धार हो से करबो । जेकरा में हमर मनोरथ भंग नञ् हो, से करबो । ई कहते ठोर पर हँसी के झलक आउ मुँह पर एक प्रकार के दिव्य कान्ति आ गेलइ । कहलथिन जे तूँ अपन हाथ हमर माथा पर रख दऽ, सेरा से सभ दुख छूट जात ।
भवनाथ झट अपन हाथ अपन दहिना हाथ स्त्री के माथा पर रखके श्रीराम रक्षा कवच पढ़े लगला । पाठ समाप्त भेला पर स्त्री कहलथिन अब हमर सब मनोरथ पूरल, एक ठो हमर बात रखऽ त हम कहियो ।
भवनाथ - अवश्य रखबो, कहे के हको से कहऽ ।
एतने में एगो नो-दस बरिस के बालिका उनकर बालक के गोदी में लेले ऊ घर में अइलइ । बुतरू माय लगी कन रहले हल, जखनी कउनो तरह चुप नञ् भेलइ तखनी कहलन जे प्रतिज्ञा करऽ जे हमर बात टारबऽ त नञ् । जे हम कहम से मानबऽ ने । भवनाथ शपथपूर्वक प्रतिज्ञा कइलन, कहलथिन अवश्य मानबो । तखनी उनकर स्त्री अपन गोदी से बुतरू के पति के गोदी में देके कहलथिन जे हम मर जइयो त दोसर विवाह नञ् करबऽ । “पुत्र प्रयोजना भार्या ।” [6] भगवान जखनी दे देलन तखनी अब लम्पट [*35] रहतऽ हल त हम अनुरोध कभियो नञ् करतियो हल । लेकिन हम तोहरा सत्यनिष्ठ, जितेन्द्रिय समझिए के दोसर विवाह नञ् करे के आग्रह प्रकट कइलियो ह । ई बुतरू के पालन-पोषण करिहोक, जेकरा में एकरा माय के मरे के दुख नञ् महसूस होवे, से करिहोक । भवनाथ 'एवमस्तु' कहके कहलथिन, तूँ अइसे जी काहे लगी हारऽ हऽ । ई कहे के तो अखनी कउनो अवसर नञ् हल ।
विशेषरानी - अब हमर देह में की हके, जे दिन, जे पहर ही, से ही । कखनी आँख मूनके चल देम, तेकर कउन ठेकाना । ओहे कहे लगी हमर मन छटपटाब करऽ हल । अब मन हल्लुक भेल । छाती पर के बोझ उतर गेल । देखिहऽ, अपन प्रतिज्ञा के निमाहिहऽ ।
भवनाथ - जरूर, जरूर निमाहबो । श्रीवैद्यनाथ साक्षी हथी ।
ई सुनके स्त्री के मन में 'यत्परो नास्ति'[7] हर्ष भेलइ ।
एहे समय में जयनाथ दुआरी पर आके कहलथिन, भाय जी, दलान पर लोग सब भेंट करेलगी आल हथुन । ज्योतिषी झट घर से बाहर होके दलान पर गेला ।
4
जे दिन भवनाथ झा गाम अइला, ऊ दिन रात में विशेषरानी के चेष्टा बहुत नीक सन सबके देखे में अइलइ । सबके आशा भेलइ जे अब इनकर दुख दूर हो जइतइ । लेकिन भोर भेला पर उनकर रोग एकाएक बढ़ गेलइ । सबके हृदय में जे कुछ नीक के आशा हलइ से निराशा में विलीन हो गेलइ । ज्योतिषी अत्यन्त आतुर होके कलाधर बाबू के डाक्टर बोलाके लावे खातिर दरभंगा पठइलथिन । बारह बजे दिन के ट्रेन से ऊ दरभंगा गेला । तीन बजे सुशील बाबू डाक्टर के लेले गाम पहुँचला । ज्योतिषी के दलान पर लोग सब के भीड़ लग गेल । डाक्टर साहेब तीन-चार अदमी के साथे भीतर गेला, आउ लोग दलाने पर रहल । डाक्टर साहेब विशेषरानी के रोग के जाँच यन्त्र द्वारा करके संतप्त स्वर में कहलथिन - "आपलोग जब रोग असाध्य हो जाता है तब डाक्टर को बुलाते हैं । यह कितने दिन से बीमार है ?"
जयनाथ झा कहलथिन - बेमार तो छो मास से है, कल्हे तक ठीके थी, आझ से बेमारी बढ़ गया है । [*36] डाक्टर - इसके पहले किसका दबाइ होता था ?
जयनाथ गोँ गोँ करे[8] लगला । थूक घोंटके कहलथिन - दबाइ, दबाई तो बहुत खाया है । हमारे गाँव के लगले चेताराम भगत एक कोयरी बड़ा नामी बैद है, वो ही दवाई करता था ।
डाक्टर - उसको काहे नहीं बुलाकर दिखाया, वह जल्द आराम कर देगा । हमको नाहक लाया । हम इस बिमारी को अच्छा नहीं करने सकता । अफसोस ।
जयनाथ हाथ जोड़के कहलथिन - हजूर, आप साक्षात् धन्वन्तर हैं । आप कृपा करके औषध दीजिये, आपके हाथ में यश है । जरूर इनका दुख आराम हो जायेगा ।
डाक्टर - नहीं बाबा, मेरे हाथ में कुछ नहीं है । सब कुछ उस भगत के हाथ में है । वह बड़ा नामी वैद है । हम तो कछ पढ़ा-लिखा नहीं है ।
जयनाथ झा लजाल कहलथिन - हम सब देहाती आदमी हैं, इसी से बेर पर धोखा खा जाते हैं । अब आप इनको ठीक कर दीजिये ।
डाक्टर - "आप कुछ नहीं समझता है ।" ओसारा पर आके कहलथिन - "इसका फेफड़ा सड़ गया । अब हम इसको नहीं बचाने सकते । अलबत्ता हाम दवाइ दे सकता है । आपलोगों के भाग्य से जी जाय, तो जी जाय ।" एतना कहके बेग में से तीन-चार ठो शीशी बाहर करके एगो खाली शीशी में सब में से थोड़ा-थोड़ा अर्क मिलाके बारह खोराक औषध बनाके देलथिन, कहलथिन - "चार-चार घंटे पर दवाइ पिलाना" आउ एक ठो उज्जर चूर्ण गाय के दूध में मिलाके पीए लगी देलथिन जे पीला से देह में कुछ ताकत होतइ ।
कलाधर बाबू पान-सुपारी पनबट्टी में लाके डाक्टर के आगू में रखके कहलथिन - हमलोग आपका सत्कार क्या लेकर करें, बहुत गरीब हैं ।
डाक्टर - आपलोग ब्राह्मण हैं, हमारे गुरु हैं । हाम सत्कार नहीं, आशीर्वाद चाहते हैं । पनबट्टी में से दू खिल्ली पान लेके "अच्छा, अब हम चलते हैं", कहके बाहर अइला । "दवाइ फायदा करने पर परसों फिर किसी को मेरे पास भेज दीजियेगा ।"
कलाधर कहलथिन - अब साँझ होने में विलम्ब नहीं है । इस गरीब के यहाँ आतिथ्य स्वीकार करें ।
डाक्टर हँसके कहलथिन - "क्षमा कीजिये ।"
[*37] फीस आउ दवाय के दाम लेके मोटर पर चढ़के दरभंगा वापस गेला ।
तीन-चार खोराक औषध पीला पर विशेषरानी के कुछ चैतन्य हो अइलइ । आँख खोलके चारो दने इच्छा के दृष्टि से तक्के लगला । सास के गोदी में बुतरू के देखके हात के इशारा से पास में देवे के आशय जनइलथिन । सास बुतरू के खाट पर रखके हाथ से धइले रहलथिन । मरणासन्न माता दुन्नु हाथ से बुतरू के मुँह हसोतके, चुम्मा लेते एक बेरी करुण दृष्टि से स्वामी के मुँह दने देखइलन । सास पुछलथिन, भुक्खल लगऽ हकऽ ? हाथ से नञ् के संकेत करके जल मँगलथिन । दू घोंट जल पीके आँख मुनलन, से मुनले रहलन । अमावस्या दिन आध पहर दिन उठते-उठते विशेषरानी तीन बरिस के बुतरू के छोड़के हमेशे लगी बिदा हो गेलथी । ज्योतिषी जी के घर रमणीरत्न से शून्य भेला के कारण अन्धकारमय भे गेलइ । कन्ना-रोहट होवे लगल। पूरे गाम में शोक व्याप गेलइ । तीन बरिस के बुतरू के मातृहीन देखके केकर आँख में लोर नञ् भर अइलइ ! भवनाथ स्त्री के वियोग-व्यथा से विकल भे गेला । दस दिन तक खाली दूध पीके रहला ।
ओकर बाद स्त्री के श्राद्ध आदि क्रिया विधिवत् करके शोकाकुल चित्त से समय बितावे लगला । प्राण के सहारा ऊ तीन बरिस के बुतरू हलइ । ओकरे मुँह देखके कइसूँ धीरज धातण करके सब सुख के परित्याग कर देलन ।




[1] यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति - सम्पूर्ण श्लोक ई प्रकार हइ -
या तूत्तरोष्ठेन समुन्नतेन रूक्षाग्रकेशी कलहप्रिया सा ।
प्रायो विरूपासु भवन्ति दोषाः यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति ॥ बृहत्संहिता, अध्याय 69, श्लोक 23.
अर्थात्, उभरल उपरौला होठ वली स्त्री, जेकर केश के अग्र भाग रूक्ष होवऽ हइ, ऊ झगड़ालू होवऽ हइ । प्रायः विरूप स्त्री में दोष पावल जा हइ, जबकि सुन्दर आकृति वली स्त्री में गुण ।
[2] फलेन परिचीयते - सम्पूर्ण श्लोक ई प्रकार हइ -
एका भूरुभयोरैक्यमुभयोर्दलकाण्डयोः ।
शालिश्यामाकयोर्भेदः फलेन परिचीयते ॥
सुभाषितरत्नभाण्डागार (सं॰ काशीनाथ शर्मा), प्रकरण 5, श्लो॰86.
अर्थात्, चावल आउ सावाँ एक्के जमीन में बढ़ऽ हइ, दुन्नु के पत्ता आउ डंठल एक्के नियन होवऽ हइ, लेकिन फल से भेद पता चल जा हइ ।
[3] महकारी - एगो वृक्ष जेकर फल अखाद्य होवऽ हइ ।
[4] “दारान् रक्षेद्धनैरपि” - "धन से भी पत्नी के रक्षा करे के चाही" - चाणक्यनीतिदर्पण, अध्याय-1, श्लो॰6.
[5] “स्थातुं गन्तुं द्वयमपि सखे नैव शक्तो द्विरेफः” - "हे मित्र, (केतकी पुष्प में फँसल आउ ओकर काँटा से बिंधल) मधुमक्खी ठहरे आउ (उड़के) जाय दुन्नु में असमर्थ (होवऽ हइ)" - सुभाषितरत्नभाण्डागार (सं॰ काशीनाथ शर्मा), संकीर्णप्रकरण, श्लो॰366.
[6] पुत्र प्रयोजना भार्या - पत्नी पुत्र पैदा करे लगी होवऽ हइ ।
[7] यत्परो नास्ति - जेकरा से बढ़के आउ कुछ नञ् हइ ।
[8] गोँ-गोँ करना - अस्पष्ट स्वर में बोलना; गलत होते देखके साफ-साफ नहीं बोल पाना; गोलमटोल अस्पष्ट उत्तर देना।