सोरही॰ =
"सोरही" (मगही
कहानी संग्रह), सम्पादक - डॉ॰ राम प्रसाद सिंह; प्रकाशक - मगही अकादमी, गया (बिहार); संस्करण – 1979
ई॰; xiv+60 पृष्ठ । मूल्य – 5 रुपइया ।
देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और
बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।
कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या
- 579
ई कहानी संग्रह में कुल 16 कहानी हइ ।
क्रम
सं॰
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विषय-सूची
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लेखक
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पृष्ठ
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0.
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सूची
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-------
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ii
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0.
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भूमिका
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डॉ॰
रामनरेश मिश्र 'हंस'
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iii-viii
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0.
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लेखक
परिचय
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उपेन्द्र
नाथ वर्मा
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viii-xii,
60
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0.
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सम्पादक
के ओर से
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डॉ॰
राम प्रसाद सिंह
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xiii-xiv
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1.
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लिटियो
जर गेल
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प्रो॰
लक्ष्मण प्रसाद चंद
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1-5
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2.
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दुविधा
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डॉ॰
स्वर्ण किरण
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6-9
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3.
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इलाज
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रामविलास
'रजकण'
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10-12
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4.
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नौरंग
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राजेश्वर
पाठक 'राजेश'
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13-16
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5.
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सेजियादान
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राम
नरेश प्रसाद वर्मा
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17-18
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6.
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तहिया
सोहराय हल
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किसलय
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19-24
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7.
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ललाइन
मामा
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महेश
प्रबुद्ध
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25-31
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8.
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भावना
के चोर
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रास
विहारी पांडेय
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32-33
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9.
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तीरथ
के डोरी
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जनकनंदन
सिन्हा 'जनक'
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34-35
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10.
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कवि
आउ कल्पना
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रामदेव
मेहता 'मुकुल'
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36-38
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11.
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इन्कलाब
जिन्दाबाद
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तारकेश्वर
भारती
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39-42
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12.
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घूरा
के आग
|
डॉ॰
रामनरेश मिश्र 'हंस'
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43-46
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13.
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सलीमा
|
डॉ॰ राम प्रसाद सिंह
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47-50
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14.
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ससुरार
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सूर्यनारायण
शर्मा
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51-53
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15.
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सुबह
के भूलल
|
डॉ॰
सुरेश 'विमल'
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54-56
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16.
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भात
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प्रेम
मणि
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57-60
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ठेठ मगही शब्द ("द"
से "ह" तक):
276 दखनाहा (कारा पर तो जइसे पहाड़ टूट गेल । माघ महीना के ठंढ, ओकरो पर दखनाहा हावा ।) (सोरही॰5.15)
277 दने (एतने में कलुआ माय बोलल - "कारा ! कारा ! रे कारा !!!" - "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।" - "अच्छा तुरते ।" एतना कहके कारा डीह दने सोझिया गेल ।) (सोरही॰3.21)
278 दमाद (हम का कहिअइ ओकरा ? भला, बेटिया के हम मना करतिअइ हल तब न ! तोर मइया सुर पकड़ लेलन हे कि सरिता हम्मर दमाद के उल्हा करके नाम हँसा देलन ।) (सोरही॰52.7)
279 दरखत (ओती घड़ी राम सरन बाबू घर पर नञ हलन । उनकर मेहरी चुल्हा-चउका में बझल हलन । ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन । ललाइन मामा मचिया पर बइठ गेलन । उनकर देह अभियो काँपइत हल ठूँठ दरखत नियन ।) (सोरही॰28.10)
280 दरखास (ई जमीन कीने ला लोन खातिर दरखास देलन आउ लोन सैंकशन हो गेल बाकि एगो साथी अड़ंगा लगौलक आउ मिलइत-मिलइत लोन अइसे खतम हो गेल जइसे तेज धूप के वजह से गड़हा के पानी ।; फेन डाक्टर बने के कोरसिस कइलन तो दफ्तर के बड़ा बाबू एगो खुरचन निकाल देलन आउ दफ्तर के अफसर इनकर दरखास के दबवा देलन जे से नवल किशोर के मनोबल दब जाय आउ ऊ थउँस के बइठ जाय । बाकि नवल किशोर गजब जीवट के अदमी ।; "मगर अखने तो रुपया नय हो जीतन माय । आउ जे तों कहली घी के दाम, से तो नय मिलतो । काहे कि जखने तोर जीतन के बाबू बैंक से भैंस लेवे ले दरखास देलखुन हल, ऊ बखत सी॰ओ॰ साहेब के दसखत कइला पर हीं रुपया मिललो हल । तखने चार किलो घी पर तय होलो हल ।" - "अच्छा, ओकरा छोड़हो मलकिनी । मगर एक सो अस्सी रुपया, जे दूध वला होवो हे, ऊ तो देबहो ने ।") (सोरही॰6.19; 8.8; 22.3)
281 दलान (= दालान) (उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ । माय-बाप के रहला पर कारा दलान में सूतत हल । अब रात भर जगल रहत । चमइन के चिरौरी करत ।" कारा के अवाज में अपनौती हल ।) (सोरही॰2.4)
282 दलिद्दर (= दरिद्र) (बुधिया - ... हम्मर माय-बाप जेतना देलथुन हे तोहर माय-बाप से सात जलम ना हो सकऽ हो ।/ मंगरु - अच्छा भाय, हम मान गेलूँ कि तोहर माय-बाप धन्ना सेठ हथ आउ हम निठाह दलिद्दर ही । मुदा तोहर बाप से हम खरची न माँगऽ हियो । जाय द, पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।) (सोरही॰40.6)
283 दवा (= दावा; नींव) (दसहरा के दिन लालचन के मकान के नेंव पड़ल । खूब उदसो होयल । दवा खनाय लगल । छकौड़ी भी लगल हलन । लालचन आके कहलन - "देख रे छकौड़िया, जरा ठीक से खनिहें ।" छकौड़ी के आँख तर अन्हेरा हो गेल । गिर परल सोचइत-सोचइत । न जानी काहे मुँह से लार टपकल आउ बुदबुदायल - "से ... जि या दा न ! म.. र.. ला प.. र से.. ज जि..ता में ... कु... च्छो ... न ।" फिन कोई ओकर बोली न सुनलक ।) (सोरही॰18.24)
284 दसकरमा (= दसमा) (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । दसकरम के दिन कंटाह के कंठ में दूध अँटकल तो बिना पचीस रुपया के पारे न होयल । सीधा-बारी कुल मिलाके काफी हो गेल ।) (सोरही॰17.22)
285 दसखत ("मगर अखने तो रुपया नय हो जीतन माय । आउ जे तों कहली घी के दाम, से तो नय मिलतो । काहे कि जखने तोर जीतन के बाबू बैंक से भैंस लेवे ले दरखास देलखुन हल, ऊ बखत सी॰ओ॰ साहेब के दसखत कइला पर हीं रुपया मिललो हल । तखने चार किलो घी पर तय होलो हल ।" - "अच्छा, ओकरा छोड़हो मलकिनी । मगर एक सो अस्सी रुपया, जे दूध वला होवो हे, ऊ तो देबहो ने ।") (सोरही॰22.3)
286 दहँजना (पिछला एतवार के बड़का आयल हल गया से । ललाइन मामा बड़ी बेअग्गर होके कहलन हल - "देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ ।"; अइसन भी बज्जर अकाल पड़ऽ हे । तिनका तिनका झुलस गेल । भगवान भी अइसन पथरा गेलन कि साल भर लोर भी न चुअएलन । जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।) (सोरही॰27.10; 58.12)
287 दहाना (पूरा भीड़ दूनो तरफ दौड़ जाहे । लोर से भींजल लिट्टी कलुवा के मुँह से गिर जाहे । धलुवा ठकुआके गुनगुना हे - 'मइया के लोरवा से गंगा बढ़िअइलइ, बाबूजी के लोरे संसार । भइया के लोरे रामा जमुना बढ़िअइलइ, सभे दहौले चलल जाय ॥') (सोरही॰46.16)
288 दहिजरा (= सं॰ दहिजड़ा; नौकरानी का पति; पत्नी के टुकड़े पर पलनेवाला व्यक्ति; दासी पुत्र, गुलाम; एक गाली - दाढ़ीजार; वि॰ निखट्टू) ('अरे सुनऽ न भगतजी !' सोमर टोकलन - 'सात सेर के सात गो पकौली, चौदह सेर के एके गो । तू दहिजरवा सातो खइलें, हम कुलवंती एके गो । रे सखिया तनिको मरम न जानली ।' - 'से न हो सोमर' भगतजी समझउलथिन - 'तू दहिजरवा सेज बिछा दे, हम सुतिअइ टाँग पसारी, हम तो दूनो कुल उजियारी ।') (सोरही॰43.12, 14)
289 दाया (= दया) (मंगरु - बेकतिया मर जइतइ मालिक, दाया करथिन ।/ सेठ - मरउ चाहे बचउ । हम केकरो मरे जिये के ठीका लेलिये ह ।) (सोरही॰42.3)
290 दाया-धरम (रुपैयो न देलक आउ बात बोलल कि करेजा में छेद हो गेल । मेहररुआ साँचे बेराम रहत हल तो अइसन में टन्ने न बोल जात हल । निगुनियाँ कहीं के ! अमीरवन के हिरदा पत्थर होवऽ हे, दाया धरम के नाम नै ।) (सोरही॰42.15)
291 दिगर (= अन्य, पराया, पृथक्) ("तों गँवारे रह गेलऽ । तोरा की फिकिर हे । सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।" उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ ।") (सोरही॰2.3)
292 दीठ (= दृष्टि, नजर) (लालचन के दीठ छकौड़ी के मकान पर लगल हल । केतना दिन से ईंटा के घर बनावे ला सोचइत हलन । छकौड़ी के घर के बिना उनकर बेंवत ठीक न हो हल ।) (सोरही॰18.15)
293 दुआर (= द्वार) (ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल । दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक ।) (सोरही॰4.2)
294 दुआरी (ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल । दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक ।) (सोरही॰4.2)
295 दुखल (~ अवाज) (मोहरी भीतरे जाके कहलक - "जरी पोआर तो बिछा द ।" कारा मोहरी के दुखल अवाज से सहम गेल । पोआर बिछाके चद्दर उठइलक । मोहरी गोड़ पसारते टोकलक, "पहिले लिट्टी तो सेंक ल ।") (सोरही॰3.6)
296 दुत् (कारा मोहरी के दुखल अवाज से सहम गेल । पोआर बिछाके चद्दर उठइलक । मोहरी गोड़ पसारते टोकलक, "पहिले लिट्टी तो सेंक ल ।" - "दुत् ... ।" - "भोरे से भुखले ह । एकागो खाके जइहऽ ।") (सोरही॰3.9)
297 दुधमुहीं (सालो न लगल हल कि माय चल बसलन । लोग जुटके सलाह देलन - लाश के सत-गत गंगा में होयत । ... दुधमुहीं के बाद दलान पर लोग जुटलन - विचार भेल काम के ऊपर । कुछ लोग कहलन - काम कइसनो होय सेजियादान जरूर होय के चाही । सुते ला परानी के सेज न मिलल तो का मिलल ।) (सोरही॰17.13)
298 दुसना (चुप रहहू बाबू ! अइसे न बोली धी-दमाद के । सुनतो से का कहतो ! दुनिया दुसतो बाबू । अइसहीं तो बहनोई रुसल हथिन ।) (सोरही॰52.24)
299 देह-समांग (राधे के आँख तर अन्हार छा गेल । ऊ हिसाब करके बोलल - "हमरा रुपइया के मोह न हे, तू इलाज करऽ । देह-समांग रहतो तो पाई-पाई चुकता कर देवो ।" "उधार इलाज करे में हमरा संस-बरक्कत न मिलऽ हे । दवा खरीदे में पूँजी लगऽ हे । रोग दूर हो गेला पर लोग साँझ-बिहान करे लगऽ हथ ।) (सोरही॰10.24)
300 दोगिना (= दोगना; दुगुना) (नवल किशोर साथी के पानी पिया देलन । साथी के नौकरी खतम हो गेल आउ ई नवल किशोर के जानी दुश्मन बन गेल बाकि नवल किशोर के फिकिर न भेल । ई दोगिना उछाव से खतरा के मुकाबला कइलन आउ अप्पन संगी-साथी के किस्मत बनावे ला, अप्पन घर के सँवारे ला, अप्पन नाता-हित के उठावे ला बराबर छटपटइलन ।) (सोरही॰8.16)
301 दोबर (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।") (सोरही॰25.7)
302 दोविधा (= दुविधा) (सलीमा गते बोलल - "मामू जी ? अपने तो बदसाह के गादी के शान ही । अपने के तलवार आग उगिलऽ हे बाकि अपने कहिनो दिल के अवाज पर धेयान देली हे ? करेजा के भीतरे के अवाज कहिनो सुनली हे ?" मानसी दोविधा में पड़ गेलन ।) (सोरही॰48.6)
303 दोसरका (ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल । दोसरका साल फेर कोरसिस कइलन आउ बहुत दिक्कत आउ परेशानी से ई एम॰ए॰ कइलन ।) (सोरही॰8.5)
304 दौड़ा-दौड़ी (सेठ के बेवहार से मंगरु के दिल में भारी ठेस लगल । बुदबुदाय लगल, हम ई सेठवा के केतना सेवा कइलूँ हे । बेराम पड़ गेल हल तो रात अधरतिया आउ दिन दुपहरिया डागडर के हियाँ दौड़ा-दौड़ी कइलूँ हल ।) (सोरही॰42.10)
305 धँसोरना (= ढकेलना, धक्का देना) (ललाइन मामा एगो लम्मा साँस लेलन त बुझायल, जइसे हवा में जहर घोर देवल गेल हे जे फैल गेल हे उनकर समूचे देह में । पीठ पर हाथ फेरलन त नस टभके लगल पकल घाव नियन । आझ भोरहरिये बड़की तनिसुन बात खातिर मार बइठल । कहाँ जमानी के काबू आउ कहाँ बुढ़ारी के टुटल देह । बड़की हलके धँसोरलक हल कि बस ललाइन मामा पीठ के बल जमीन पर आ गेलन - धड़ाम ।) (सोरही॰26.19)
306 धनखेती (कारा अकेले डीह दने चल देलक । माघ के महीना हल । धनखेती में खेसाड़ी लहर मारऽ हल, तेकरा पर सीत के बून्द सज गेल हल । जल्दी के चलते कारा खेते-खेते चले लगल ।) (सोरही॰3.25)
307 धन्ना (~ सेठ) (बुधिया - ... हम्मर माय-बाप जेतना देलथुन हे तोहर माय-बाप से सात जलम ना हो सकऽ हो ।/ मंगरु - अच्छा भाय, हम मान गेलूँ कि तोहर माय-बाप धन्ना सेठ हथ आउ हम निठाह दलिद्दर ही । मुदा तोहर बाप से हम खरची न माँगऽ हियो । जाय द, पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।) (सोरही॰40.5)
308 धमधूर (ऊ दबले जबान बोललथिन - का कहियो बाबू ! उका ऊ घरवा में सहीपुर के मेहमान घरे रंग खेले आयल हथिन । हमरो बेटिया तो ओही घरवा में हलइ, उहाँ से भाग अइलइ ।/ आउ कहलई - राम ! राम ! ई कउन तरीका हइ कि कोई मेहमान आवे तो गाँव के बेटिन साथे जइसे-तइसे रंग खेले । उहाँ सब धमधूर, धमार आउ बेपरद हँसी-मजाक करइत हथिन ।) (सोरही॰51.20)
309 धमाधूरी (दे॰ धमधूरी) (गाँव के बेटिन भी ओइसने ! धी-दमाद के दुर्व्यवहार में रुचि ले ले हथ । धी-दमाद के का माने ? कि घर गाँव के बेटी-पुतोह साथे धमाधूरी, खेलथ आउ रंग में बदरंग करथ ।) (सोरही॰52.21)
310 धमार (= उछल-कूद, धमाचौकड़ी; हथरस; बतरस; ठिठोली, हँसी-मजाक, छेड़खानी; एक प्रकार का गीत, एक राग विशेष; नट का काम या तमाशा) (ऊ दबले जबान बोललथिन - का कहियो बाबू ! उका ऊ घरवा में सहीपुर के मेहमान घरे रंग खेले आयल हथिन । हमरो बेटिया तो ओही घरवा में हलइ, उहाँ से भाग अइलइ ।/ आउ कहलई - राम ! राम ! ई कउन तरीका हइ कि कोई मेहमान आवे तो गाँव के बेटिन साथे जइसे-तइसे रंग खेले । उहाँ सब धमधूर, धमार आउ बेपरद हँसी-मजाक करइत हथिन ।) (सोरही॰51.20)
311 धिआन (= धियान; ध्यान) ("सब एक जइसन नञ होवऽ हथ । भला तों थोड़के दे देमें ।" बुढ़िया कारा पर उपहास कइलक । बुढ़िया के बात सुनते के साथ कारा के धिआन अपन पाँच रुपइया पर चल गेल । बिना सोचले समझले बोल देलक - "हाँ मामा, पाँच रुपइया तो नगद बोहनी कर देबउ ।") (सोरही॰4.12)
312 धियान (= ध्यान) ("कइसन तबियत हो जीतन बाबू ?" - "बर बढ़िया ।" धीरे से जुगल बोलल । - "कोय तकलीफ भी होय ?" जवाब सुने ले धियान लगावो हथ आउ दिल धुकधुक करो लगल काहे कि कहईं जो कुछ तकलीफ बतइलका तब की करम ।) (सोरही॰23.19)
313 धी-दमाद (सरिता के हमनी केतनो कहलिअइ तइयो नऽ जाई । कहऽ हइ कि हमरा धी-दमाद के अइसन चाल-ढाल तनिको नऽ सोहाय ।; गाँव के बेटिन भी ओइसने ! धी-दमाद के दुर्व्यवहार में रुचि ले ले हथ । धी-दमाद के का माने ? कि घर गाँव के बेटी-पुतोह साथे धमाधूरी, खेलथ आउ रंग में बदरंग करथ ।; घर में लोग नरेन्दर के बात सुन-सुन के अलगे गड़ल हथ । गाँव के सवासिन सब कहे लगलथिन कि उनका अइसन बात नऽ कहे के चहतिअइन हल । ई कउनो नया बात थोड़े हे ? ससुरार में धी-दमाद हँसी-मजाक करवे करऽ हथ ।) (सोरही॰52.2, 20, 21; 53.6)
314 धुइयाँ (आग के धुइयाँ खतम हो गेल हल । आग के लमहर-लमहर सीक लहलहा रहल हल । मोहरी गोड़ पसारे लगल तो लोटा भी लोघड़ा गेल आउ पानी गिरे लगल ।) (सोरही॰1.3)
315 धुरियारे (~ गोर) (जीतन माय जे रस्ता से जा रहली हल ओकर बगले में 'दुखहरन बाबा' के पिंडी हल । तब उनकर भीर लपकके गेली आउ उनकर आगू में पेटकुनिया देके कहो लगली - "हे दुखहरन बाबा ! हमरा जीतन बाबू के अच्छा कर देहून तो धुरियारे गोर जोरी पाठ देबो । पाँच बराहमन के पुआ-दूध से जवेनार भी करइबो । खियाल करहो दुखहरन बाबा ! आगू साल तोरा अंगरेजी बाजा बजाके बैठकी भी देबो ।") (सोरही॰23.11)
316 नगीच (= नजीक; नजदीक) (पटना में किराया के मकान मिलला भी कउनो कठिन तपस्या के फले के समान हे । आउ ऑफिस के नगीच के मकान तो भगवान के मिलला से भी जादे मोसकिल हे । ऊ भला अइसन खुशनसीब कहाँ हे कि ओकरा एतना भीरी मकान मिल जाय ।) (सोरही॰55.10)
317 नजायज (= नाजायज) (सोहरा माय बूढ़ी हल । ढेर दिना के अनुभो हल । पइसा असूले में माहिर हल । दुआर पर आके बोलल - "बड़ ठंढ हइ ! तों सब तो वहाँ चल गेले हें । देख, मंगरुआ के हियाँ रुपइया बाकी रह गेल । ढोढ़ा के हियाँ तो सब कुछ रह गेल । एक मन तो करऽ हइ कि ओंहाँ कमइवे नञ करूँ ।" - "त सब की एक्के अइसन होवऽ हइ ? बड़ी कसट में हइ मामा ।" भला कारा के की मालूम कि गरजू होला से लोगन नजायज फइदा उठावऽ हथ ।) (सोरही॰4.10)
318 नजीक (= नजदीक) (सम्पादक जी समझ गेलन आउ भागे ला तइयार भेलन । हम लपक के उनकर कालर पकड़ली आउ खींचके नजीक के थाना में पहुँचा देली । हमर कवि बने के ललसा, मिसराजी के धरम भावना आउ हमर दोस्त श्रीकांत के अभिनेता बने के निसा के सम्पादक जी उतार देलन ।) (सोरही॰34.2)
319 नञ (= नयँ, न, नहीं) (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।") (सोरही॰25.7)
320 नटलीला (ललाइन मामा के लड़ाई-झगड़ा के जिनगी तनिको पसन्द न हे । उनकर समझ से जउन घर में ई सब नटलीला होवऽ हे, ऊ घर के लोग रेयान से भी गेल-गुजरल होवऽ हथ । इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ ।) (सोरही॰25.17)
321 नटिनियाँ (= नटिन + 'आ' प्रत्यय, नकार के पास होने से अनुनासिक) (पिछला एतवार के बड़का आयल हल गया से । ललाइन मामा बड़ी बेअग्गर होके कहलन हल - "देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ ।"; जहिया से ई नटिनियाँ आयल हे हमरा जीना मोहाल कर देलक हे । देखऽ न, आझ फिर मारकवऽ हे ।) (सोरही॰27.10; 28.19)
322 नरियर (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।") (सोरही॰25.7)
323 नहिरा (खेत में न तो मजूर के काम मिले लगल, न घर में भीख । अप्पन जान केकरा पिआरा न होवऽ हे । चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो ।) (सोरही॰11.25)
324 नागा (घंटी बजइते ओकर लइकन दउड़ल आवऽ हलन, आझ कोई न आयल । ओकर मन में तनी शक भेल । जरूर कोई बात हे न तो एकरा में नागा कहियो न पड़ऽ हल ।) (सोरही॰55.22)
325 नामी-गरामी (हाड़-मास के ताना-बाना से बनल ऊ एगो मामूली अदमी हल । देखे-लेखे में बड़ा-कुरूप । चेहरा-मोहरा से भद्दा । कोई गुण न कोई सुनदरता । बाकि हल कलाकार, एगो नामी-गरामी कवि ।) (सोरही॰36.7)
326 नामी-गिरामी (आउ ऊ गोस्सा से तमतमायल लम्मा लम्मा डेग लफावइत चल पड़लन सरन बाबू के घर, इंसाफ खातिर । राम सरन बाबू गाँव के नामी-गिरामी आदमी हथ, मान-मरजादा, धन आउ सोहरत में ढेर आगे बढ़ल । मुखिया न मुदा तइयो गाँव के लोग उनका से इंसाफ करावऽ हथ ।) (सोरही॰28.3)
327 नावा (= नया) (ई नावा गाम इमे साल बसल हल । जन-मजूर के जमीन मिले लगल तो मालिक ई सब के ऊसर जमीन पर घर बनावे लेल मजबूर कर देलक ।) (सोरही॰2.19)
328 निकसना (राधे के माय के मुँह से बोली न निकसऽ हल आउ इसारा से पानी माँग रहल हल ।) (सोरही॰10.19)
329 निकासना (ऊ रोगी के देह में कई मराती सूई भोंकलन । जब सूई नस में घुसल तो उ अप्पन भाग के सराहे लगलन । अब आम के आम आउ गुठली के दाम मिले के भरोसा हो गेल । राधे टुकुर-टुकुर सब तमाशा देख रहल हल । मगर ई घड़ी नुखुस निकासे के हियाव न पड़ल, न तो बनल काम बिगड़ जायत हल ।) (सोरही॰11.10)
330 निगुनियाँ (रुपैयो न देलक आउ बात बोलल कि करेजा में छेद हो गेल । मेहररुआ साँचे बेराम रहत हल तो अइसन में टन्ने न बोल जात हल । निगुनियाँ कहीं के ! अमीरवन के हिरदा पत्थर होवऽ हे, दाया धरम के नाम नै ।) (सोरही॰42.14)
331 निचलका (= निचलउका) (फुलवा के अन्दर के बिगड़ल भूख जाग उठल हल न का ? ई से रोज ऊ केबिन पर आवऽ हल । ऊ दिन भी आयल हल आउ निचलका चहबच्चा पर बइठ के लुआ खंघारइत हल । हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन ।) (सोरही॰14.6)
332 निठाह (बुधिया - ... हम्मर माय-बाप जेतना देलथुन हे तोहर माय-बाप से सात जलम ना हो सकऽ हो ।/ मंगरु - अच्छा भाय, हम मान गेलूँ कि तोहर माय-बाप धन्ना सेठ हथ आउ हम निठाह दलिद्दर ही । मुदा तोहर बाप से हम खरची न माँगऽ हियो । जाय द, पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।) (सोरही॰40.6)
333 निठुर (~ दूध) ("दूध कैसे देहो ?" सी॰ओ॰ साहेब के मेहरारु बीचे में टोकलकी । - "अपने के तीने रुपये दे हियन मलकिनी । अइसे निठुर दूध के चार रुपये किलो दाम हे ।" कहके जीतन माय सी॰ओ॰ साहेब के जनान के रुख देखो लगली ।) (सोरही॰21.25)
334 निफिकिर (= बेफिक्र, निश्चिन्त) (काम-धाम से जब फुरसत मिलल, लालचन छकौड़ी के बोलाके कहलन - "बेटा ! अब तू निफिकिर हो गेलऽ, अपन हिसाब-किताब समझ ल । लोग-बाग के सामने सब कुछ तय हो जाय तो अच्छा हे ।" छकौड़ी के टेट तो खाली हल । का हिसाब समझथ ।) (सोरही॰18.3)
335 निमक (~ के सरियत रखना) (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।") (सोरही॰11.4)
336 निम्मन ( हम्मर जे नैनाकाजर हथिन न, उनका हीं हम आझ गेलियो हल । पान के दुलहवा कलकत्ता में मटर हाँकऽ हथिन । उनका तूँ देखवे कैलहो हे, गोर-गोर लमछड़ करिया-करिया कड़ा-कड़ा मोछवाला । कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे ।) (सोरही॰39.7)
337 निसा (= नशा) (बजार के बहरी ओला नुक्कड़ पर के पुल के नीचे पीपर के पेड़ भिजुन ओला गहिड़ा में एगो मोटर कार गिरके दुर्घटना हो गेल हल । ई दुर्घटना देखके कोई दुखी न हो रहलन हल । थोड़हीं सन पहिले फुलवा के साथे, निसा में मातल अपनहीं कार हँकावइत नौरंग जाइत हलन ।; सम्पादक जी समझ गेलन आउ भागे ला तइयार भेलन । हम लपक के उनकर कालर पकड़ली आउ खींचके नजीक के थाना में पहुँचा देली । हमर कवि बने के ललसा, मिसराजी के धरम भावना आउ हमर दोस्त श्रीकांत के अभिनेता बने के निसा के सम्पादक जी उतार देलन ।) (सोरही॰16.14; 34.4)
338 निसाफ (= इंसाफ) (अइसन भी बज्जर अकाल पड़ऽ हे । तिनका तिनका झुलस गेल । भगवान भी अइसन पथरा गेलन कि साल भर लोर भी न चुअएलन । जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।; सोमरी के दिल भक्तिभाव से गलबला गेल । भगवान जरूर निसाफ करतन । जात-धरम के रक्षा भगवान न करतन, त के करत ? ई बढ़नी उगे से का होवऽ हे, भगवान के मरजी के आगे सब झूठ हे ।) (सोरही॰58.13; 60.3)
339 नीन (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । ... माथा मुड़यला के बाद छकौड़ी के भार कम हो गेल । अब ओहू एने-ओने जाय लगलन । खनी तरकारी लावथ तो खनी दही ला जाथ । गोड़ में चैन न हल । आँख के नीन तो पहिलहीं भाग गेल हल ।; मन में एगो अजगुत डर समायल हल । उनकर हालत ऊ हदसल चिरईं नियन भेल हल, जे शिकारी के जाल में फँसल मौत के राह देखइत हो । ऊ रात ललाइन मामा के आँख में नीन नञ आयल मानो तकदीर जोरे नीनो हुनका से रुस गेल होय । रात भर ऊ उखीबिखी रहलन ।; 'हम तो हाथ-गोड़ बहुते परली लेकिन ऊ कुछो न सुनलन । लाचार होके सातो गो लिट्टी खाय पड़ल।'/ 'तोहरो सपना तो बड़ा अजगुते हवऽ ।'/ 'अरे ! सपना कहाँ ? नीन आवत हल तब न । देखऽ न, बर्तन खाली हवऽ किन न ।' बाबू साहेब के ई बात सुनके लाला जी के हक्का-बक्का गूम ।) (सोरही॰17.25; 30.17; 45.12)
340 नुखुस (ऊ रोगी के देह में कई मराती सूई भोंकलन । जब सूई नस में घुसल तो उ अप्पन भाग के सराहे लगलन । अब आम के आम आउ गुठली के दाम मिले के भरोसा हो गेल । राधे टुकुर-टुकुर सब तमाशा देख रहल हल । मगर ई घड़ी नुखुस निकासे के हियाव न पड़ल, न तो बनल काम बिगड़ जायत हल ।) (सोरही॰11.10)
341 नेहाना (= नहाना) (फुलवा के अन्दर के बिगड़ल भूख जाग उठल हल न का ? ई से रोज ऊ केबिन पर आवऽ हल । ऊ दिन भी आयल हल आउ निचलका चहबच्चा पर बइठ के लुआ खंघारइत हल । हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन ।; मानसी अधरतिया के फैलल घुच अन्हरिया में अपन नजर दउड़इलन, कहीं कुछ न लोकल । जमुना में बान्हल सीढ़ी से नीचे उतरके नेहाय जाइत हलन । फिनो अवाज सुनाइ पड़ल - "रुन-झुन, रुन-झुन" ।; जल्दी-जल्दी नेहाके ऊ सीढ़ी पर चढ़ रहलन हल कि देखलन सलीमा अमीना के साथे गते-गते एनहीं आ रहल हे । ई सूनसान रात में ओकरा देखके मानसी भौचक्का में पड़ गेलन ।) (सोरही॰14.8; 47.5, 15)
342 नैनाकाजर (= लड़कियों की सखियों में प्रचलित संबोधन का एक शब्द; सखी का नाम, पान, फूल, नैनाकाजर, अकासफूल, कन्हइयाजी, दिलवरजी, सखी, सेलेहरजी आदि नामों से एक-दूसरे को संबोधित करती हैं, नाम लेना वर्जित है) (हम्मर जे नैनाकाजर हथिन न, उनका हीं हम आझ गेलियो हल । पान के दुलहवा कलकत्ता में मटर हाँकऽ हथिन । उनका तूँ देखवे कैलहो हे, गोर-गोर लमछड़ करिया-करिया कड़ा-कड़ा मोछवाला । कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे ।) (सोरही॰39.4)
343 नोच-चोंथ (~ करना) (देश में इमरजेन्सी घोषित कर देल गेल काहे कि विरोधी लोग नोच-चोंथ करे लगलन आउ कब की हो जायत केहू न कहइत हल । दफ्तर के कुछ लोग विरोध कइलन उनका जगह पर मिनिस्टर साहब नया रुटन के भरती कर लेलन आउ पुरान लोगन के धमकी देलन कि सब लोगन के नौकरी खतम हो जायत ।) (सोरही॰8.24)
344 नोह (सोमरी चुपचाप खड़ा नोह से धरती कुरेद रहल हे, आ मनेमन हिसाब बइठा रहल हे कि भात के इन्तजाम कइसे पूरा होयत । अपन कंठा आउ भगजोगनी के छागल बेच देला पर भी कुछ घट जायत का ?) (सोरही॰60.8)
345 पक्की (= ठीक-ठीक, पूरे-पूरे, न कम न अधिक) ("अच्छा, तुरतायें जा लगला, आउ जे काम हइ, सुन लेवा तब ने । बुधन महतो से जाके कहिहुँक कि साहेबएक मन पक्की बसमतिया चावर आउ एक मन पक्की गेहुँम आझे जरूर के जरूर भेज देवे ले कहलखुन हे आउ, अच्छा, हला ला, ई दस गो रुपया । लल्लू, पराका आर जे कुछ लावे ले कहतो, लेले अयहोक । अच्छा तो अब जा ।) (सोरही॰21.2, 3)
346 पगजरौना (हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन । ओकरा में से एगो लइका पम्प के मोटगर जलधारा के हाथ से रोकके फुलवा दने मोड़ देलक हल । पानी से सराबोर होके छिहुल के भाग उठल हल फुलवा । फिनो बनावटी क्रोध देखाके खिसिआयल आउ मुँहजरा, पगजरौना आदि पेआर भरल कुछ गारी सुनौलक ।) (सोरही॰14.11)
347 पछाना (भोर होवे लगल हे । मुरगन के बाँग सुनाई देवे लगल हे । जानवर भी कहीं-कहीं उँगरे लगल हे । कउअन के कुहार शुरू हो गेल हे । कुक्कुर पछाए लगल हे ।) (सोरही॰60.7)
348 पझायल (= बुझा हुआ; मंद पड़ा हुआ) (बलदेव के मुँह से ई जवाब सुनके ललाइन मामा चुप रह गेलन हल ... एकदम चुप । खाली उनकर पझायल आँख बलदेव के मुँह पर गाड़ल हल आउ दिमाग में ओही बात चक्कर काटइत हल ... ऊ तो पागल हइ ... ओकरे पीछे हमहुँ पागल ... ।) (सोरही॰27.22)
349 पड़िआइन (उनकर मेहनत आउ अपन लगन से कुछे दिन में सुग्गी पड़िआइन हो गेल हल, सब बात सीख लेलक हल । फिन तो गाँव-जेवार में ललाइन मामा के सुग्गी के नाम ओइसहीं खिल गेल जइसे मैदान में जितल कोय नेता के नाम खिल जा हे ।) (सोरही॰30.3-4)
350 पढ़ुआ (कौलेज के बेरा हल । पढ़ुअन अपन-अपन क्लास में आवइत-जाइत हलन । प्रिंसपल अपन आफिस में हलन ।) (सोरही॰13.4)
351 पत (= प्रत्येक, हरेक) (~ साल) (बुढ़िया दीदी रमिया के फुफसस हल । ऊ अपन भाई हीं आयल हल । ओकर भाई अंगरेजी राज के बड़का गो गिरहत आउ छोटमुट गो जमीनदार हल । पत साल सावन के महीना में ओकरा हीं खूब जोड़-सोड़ से झूला उतसो मनावल जा हल ।) (सोरही॰34.20)
352 पतियानी (मंगरु - बस कासा में ठुनका लग गेलो । अजी हँसी न कर रहलियो हे । रुपिया-पइसा के जुगाड़ करऽ हियो । भाग में होतो तो बनिये जइतो ।/ बुधिया - कानी गे मन पतियानी, सैयाँ गेला हे आँख लावे । अबके तो काटे दौड़ला हल, अब पुचकारे लगला । तोहर बिसवास कौन निगोड़ी करतो जी ?) (सोरही॰40.24)
353 पथराना (अइसन भी बज्जर अकाल पड़ऽ हे । तिनका तिनका झुलस गेल । भगवान भी अइसन पथरा गेलन कि साल भर लोर भी न चुअएलन । जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।) (सोरही॰58.11)
354 परनतिनी (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।") (सोरही॰25.8)
355 परनाती (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।") (सोरही॰25.8)
356 परमिन (?) (दुख में तो कोई न जुटल, जुटल भी त परवतिया के माय, परजात परमिन ।) (सोरही॰59.9)
357 परव-तेवहार (का हइ मइया ? का हइ, का ? एतना सब, घरे लड़ाई-झगड़ा का होइत हइ ? परवो-तेवहार के दिन तोहनी के असथिर नऽ रहल जाउ ?) (सोरही॰51.2)
358 परवह (जिनगी भर राँड़ बनके घर-बाहर के आँख से जे बचइत रहलन आझो अकेले ही ऊ सबके छोड़के चुप्पे से चल देलन । अजोधेया के साधु अपन चेला के सरयू में एहनी के परवह करे ला कहके भगवान के झूला उतसो के तइयारी में लग गेलन बाकि चेला तो भगवान के मूरत ला भी बनावइत हल ।) (सोरही॰35.21)
359 परसाना (जेवनार पर बइठल लोग के सातो रास परसायल । लोग सराह-सराह के खयलन । चूड़ा-दही के बाद रंक के भी पूआ परोसल गेल ।) (सोरही॰17.27)
360 परसूँ (= परसुन; परसों) ("आज खइलें हें ?" - "न ... ञ ।" - "भोरे ?" - "ऊहूँ ।" - "लगऽ हउ कत्तेक दिन से नञ खइलें हें ।" - "हाँ।" - "कहिया से ?" - "परसूँ सँझिया के खइलिए हल ।"; "मगर मालकिन, खियाल करहो । हम उजर जयबय ।" बड़ी आरत होके कहलकी जीतन माय । - "धत ! तोंहूँ एक्के बात के जिद कैले हा । एक मरतबे कहो हियो, तो समझवे नय करो हो । आज तो कोय हालत से रुपया नय मिलतो । वैसने होतो तो कल्ह नय, परसूँ ले जयहा ।" - "जीतन के बाबू मर जयता मालकिन ।") (सोरही॰5.5; 22.24)
361 परान (रमिया ई कहिये रहल हल कि बढ़की दीदी भी दू बुलुका फेंकलन आउ उनकर बेमारी के धरमसाला बनल देह में रहइत परान तुरते निकल गेल ।) (सोरही॰35.17)
362 परानी (रमिया ई कहिये रहल हल कि बढ़की दीदी भी दू बुलुका फेंकलन आउ उनकर बेमारी के धरमसाला बनल देह में रहइत परान तुरते निकल गेल । अइसन लगऽ हल ई दूनो भक्तिन परानी के भगवान अपन सावन के झूला पर बइठाके एके साथे अपना हीं लेले गेलन । जिनगी भर राँड़ बनके घर-बाहर के आँख से जे बचइत रहलन आझो अकेले ही ऊ सबके छोड़के चुप्पे से चल देलन ।) (सोरही॰35.18)
363 परीछना (= गम्भीर रूप से मारना) (अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे । मोछकबरी एगो गइया हे, जे पहर भर से पोंछ झार रहल हे । मन करऽ हे, एही भोर में सुखले बढ़नी से परीछ दीं ।) (सोरही॰57.14)
364 पस (= जवान पाल खाने योग्य और पाल खाई (पर ब्यायी नहीं) काड़ी; पशु; जीव, प्राणी; वि॰ पशुवत्, मूर्ख) ('रे सार ! तोहनी भागऽ हँऽ कि हरा से हुरपेटिअउ ? ई सभे साला कौलेज में का गेल कि लगल हमनीए के बुरबक बनाके लड़ावे ।' सोमर गरजलन - 'फोर दे कपार सारन के, पढ़-लिखके भी पसे रह गेल सभे ।') (सोरही॰46.2)
365 पहिलहीं (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । ... माथा मुड़यला के बाद छकौड़ी के भार कम हो गेल । अब ओहू एने-ओने जाय लगलन । खनी तरकारी लावथ तो खनी दही ला जाथ । गोड़ में चैन न हल । आँख के नीन तो पहिलहीं भाग गेल हल ।) (सोरही॰17.26)
366 पहिलौंठ (कटनी में मोहरी के सतवाँ महीना हल । पहिलौंठ आउ कारा के परेम के चलते मोहरी कटनी भी ओइसन नञ करलक आउ अब ई हड़ताल आ गेल । अखने तो मोहरी के चुल्हवो उपास पड़े लगल ।) (सोरही॰2.25)
367 पाकिट (हम देखली कि मिसराजी अपन पाकिट से कुछ निकाल के देल चाहइत हथ तो हम ओने मुड़ी घुमाके देखली - अरे ई तो सम्पादक जी हथ । कहली कि सम्पादक जी, अपने के तीन दिन में छपेओला पतरिका कहाँ हे ?) (सोरही॰33.5)
368 पाछे ("धाँय-धाँय" असमानी फायर करके करोध में मातल लाल-लाल आँख कइले नौरंग के सभे देखलन । उनकर पाछे उनकर छाया नियन जरवेट के साड़ी में अइँठइत फुलवा भी हल ।) (सोरही॰13.8)
369 पाठ (= पाठा, बकरी का बच्चा) (जीतन माय जे रस्ता से जा रहली हल ओकर बगले में 'दुखहरन बाबा' के पिंडी हल । तब उनकर भीर लपकके गेली आउ उनकर आगू में पेटकुनिया देके कहो लगली - "हे दुखहरन बाबा ! हमरा जीतन बाबू के अच्छा कर देहून तो धुरियारे गोर जोरी पाठ देबो । पाँच बराहमन के पुआ-दूध से जवेनार भी करइबो । खियाल करहो दुखहरन बाबा ! आगू साल तोरा अंगरेजी बाजा बजाके बैठकी भी देबो ।") (सोरही॰23.11)
370 पान (= लड़कियों की सखियों में प्रचलित संबोधन का एक शब्द; सखी का नाम, पान, फूल, नैनाकाजर, अकासफूल, कन्हइयाजी, दिलवरजी, सखी, सेलेहरजी आदि नामों से एक-दूसरे को संबोधित करती हैं, नाम लेना वर्जित है) (हम्मर जे नैनाकाजर हथिन न, उनका हीं हम आझ गेलियो हल । पान के दुलहवा कलकत्ता में मटर हाँकऽ हथिन । उनका तूँ देखवे कैलहो हे, गोर-गोर लमछड़ करिया-करिया कड़ा-कड़ा मोछवाला । कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे ।) (सोरही॰39.5, 7)
371 पारन (बढ़की दीदी आउ रमिया ऊ दिन अजोधेया में एकारसी के उपास कइले हलन । पारन के दिन हल । रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक ।) (सोरही॰35.11)
372 पिंगिल (~ छाँटना) (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।") (सोरही॰25.4)
373 पिछुआना (विचार मन में कइलक कि चार सौ रुपया सेठ जी से कौनो बहाना से माँग लूँ तो घरवाली के कनबाली आउ साड़ी-साया भी हो जाय । मुदा बड़का आदमी से कुछ माँगे के पहले मन, मिजाज आउ रुख गमल जाहे । सोचलक कि साँझ पहरा सेठ जी गद्दी से उठके घर जाय लगतन तब मूड़ी झुकाके उनका पिछुआयम । अपने पुछतन कि हमरा पाछु काहे चलल आवऽ हें, तब बकार निकासम ।) (सोरही॰41.14)
374 पिछुलना (दोसर दिन दुपहर दिन चढ़ला के करीब ऊ कुआँ पर मुँह धोके उतरइत हलन कि अचक्के में गोड़ पिछुल गेल आउ ऊ औंधे मुँह अँगना में गिर पड़लन । अइसन गिरलन कि तनिको टस से मस नञ भेलन ।) (सोरही॰30.20)
375 पियासल (तेरुसे लगबहिए हप्ता भर एही पुरुवी छितान पर बढ़निया उगते रहल हल - एही ढंग से । घुरियो मारे ला बरसा न होयल । पियासल धरती जगह-जगह फट गेल, फसल मारल गेल । घास-पोआर कउन कहे, पेड़, बाग सूख टटा गेल ।) (सोरही॰57.4)
376 पुट-पुट ('पुट पुट ...' करके सब झूरियो जर गेलय । अधसानल आँटा के मोहरी आगू से हटा देलक । टीन के थरिवा अलग हो गेल । मोहरी बैठल-बैठल थारी आउ आग के देख ले हल ।) (सोरही॰1.1)
377 पुरवाही (लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे ।) (सोरही॰57.11)
378 पेटकुनिया (जीतन माय जे रस्ता से जा रहली हल ओकर बगले में 'दुखहरन बाबा' के पिंडी हल । तब उनकर भीर लपकके गेली आउ उनकर आगू में पेटकुनिया देके कहो लगली - "हे दुखहरन बाबा ! हमरा जीतन बाबू के अच्छा कर देहून तो धुरियारे गोर जोरी पाठ देबो । पाँच बराहमन के पुआ-दूध से जवेनार भी करइबो । खियाल करहो दुखहरन बाबा ! आगू साल तोरा अंगरेजी बाजा बजाके बैठकी भी देबो ।") (सोरही॰23.9)
379 पोंछी (= पूँछ) (खंजन चिरई के पोंछी नियन हरमेसे नाचइत रहे ओली फुलवा के आँख कउनो के खोज रहल हल । नौरंग ओकरे दने देखके अपन बन्हुक पर ताकऽ हल आउ पागल नियन अटपट बोल रहल हल । प्रिंसिपल के देखते मातर बोलल - "बतावऽ तो प्रिंसिपल, तोहर कउन लइका हमर फुलवा के साथे चुहलबाजी कइलक हे ?") (सोरही॰13.11)
380 पोआर (= पोवार; पुआल) (मोहरी भीतरे जाके कहलक - "जरी पोआर तो बिछा द ।" कारा मोहरी के दुखल अवाज से सहम गेल । पोआर बिछाके चद्दर उठइलक । मोहरी गोड़ पसारते टोकलक, "पहिले लिट्टी तो सेंक ल ।") (सोरही॰3.6, 7)
381 पोरसिया (दे॰ पोरसिसिया) (भोजन के दिन ला जेवार के बाबा जी नेवतल गेलन । गोतिया भाई टोला-परोसा भी पीछे न रहलन । हित-नाता के नेवता तो पहिलहीं फिर गेल हल । कुछ पोरसिया में आ भी गेलन हल । बिआह से कम हलचल न हल ।) (सोरही॰17.19)
382 फइदा (= फयदा; फायदा) (सोहरा माय बूढ़ी हल । ढेर दिना के अनुभो हल । पइसा असूले में माहिर हल । दुआर पर आके बोलल - "बड़ ठंढ हइ ! तों सब तो वहाँ चल गेले हें । देख, मंगरुआ के हियाँ रुपइया बाकी रह गेल । ढोढ़ा के हियाँ तो सब कुछ रह गेल । एक मन तो करऽ हइ कि ओंहाँ कमइवे नञ करूँ ।" - "त सब की एक्के अइसन होवऽ हइ ? बड़ी कसट में हइ मामा ।" भला कारा के की मालूम कि गरजू होला से लोगन नजायज फइदा उठावऽ हथ ।) (सोरही॰4.10)
383 फरिआना ('हम तो सूते के मातर स्वर्ग में पहुँच गेली आउ ऊहाँ नन्दन वन में कल्पतरु के छाँह में बइठवे कइली हल कि लालपरी आउ नीलपरी के साथे रंभा, मेनका आउ उर्वशी आके लगला हमरा गोड़ दबावे । हमरा कुछ देर तक आँख फटल के फटले रह गेल बाकि फिनु तो खूबे रसगर नींद आयल । अच्छा तू का देखलऽ ?' / 'हम का फरिअइयो' - बाबू साहेब जवाब देलन - 'हम तो लमहर फेरा में पड़ गेलियो । नरको में चल जइती तो बेस हल ।') (सोरही॰45.4)
384 फह-फह (~ उज्जर) (दुनिया के रूप रंग-बिरंग के हे । ऊ में नौरंग के आगु केकर आँख न चउन्हिया जाय ? अप्पन इलाका के सबसे जादे धन-दौलत ओला जमीनदार, सबसे बढ़का नेता, खाजामार टोपी आउ फह-फह उज्जर धोती ।) (सोरही॰14.22)
385 फिन (= फिनो; फिर) (जहिया से ई नटिनियाँ आयल हे हमरा जीना मोहाल कर देलक हे । देखऽ न, आझ फिर मारकवऽ हे । हमरा तो अइसन बुझा हे अबकी ई हमरा जान लेके इहाँ से निकलतो । कै तुरी लड़का के कहली कि ई रकसिनियाँ के लेले जो लेकिन ऊहो हमर बात के ई कान से सुनके ऊ कान से निकाल देलक ।) (सोरही॰28.20)
386 फिनो (= फिर) (हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन । ओकरा में से एगो लइका पम्प के मोटगर जलधारा के हाथ से रोकके फुलवा दने मोड़ देलक हल । पानी से सराबोर होके छिहुल के भाग उठल हल फुलवा । फिनो बनावटी क्रोध देखाके खिसिआयल आउ मुँहजरा, पगजरौना आदि पेआर भरल कुछ गारी सुनौलक ।) (सोरही॰14.10)
387 फिरना (भोजन के दिन ला जेवार के बाबा जी नेवतल गेलन । गोतिया भाई टोला-परोसा भी पीछे न रहलन । हित-नाता के नेवता तो पहिलहीं फिर गेल हल । कुछ पोरसिया में आ भी गेलन हल । बिआह से कम हलचल न हल ।) (सोरही॰17.19)
388 फीफीहा (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।") (सोरही॰11.3)
389 फुफसस (बुढ़िया दीदी रमिया के फुफसस हल । ऊ अपन भाई हीं आयल हल । ओकर भाई अंगरेजी राज के बड़का गो गिरहत आउ छोटमुट गो जमीनदार हल । पत साल सावन के महीना में ओकरा हीं खूब जोड़-सोड़ से झूला उतसो मनावल जा हल ।) (सोरही॰34.18)
390 फेरु (= फेर, फेन, फेनु; फिर) (नवल किशोर फेरु अरज कइलन - कउनो राह बतलाहू भोले बाबा, कइसे हमनी के काम चलत, कइसे सुविधा मिलत, कइसे लड़कन-फड़कन के परवरिश चलत, कइसे बेईमान लोगन के मुँह में करिखा लगत, कइसे ईमानदारी जीतत, कइसे मेहनत के मीठा फल भेंटत !) (सोरही॰9.19)
391 बँझाना (= बाँझ होना) (सोमरी गाय के नजदीक पहुँच के सनेह से ओकर देह सहलावे लगल । ... अनमुनाही रोशनी में जब एक बेर ऊ कातर होके ताकलक त सोमरी भीतर से कट गेल । एहु अभागन जीव हमनी के खूँटा पर कउन-कउन दुख न झेललक । जउन साल भगजोगनी के बाबू आँख मुनलन, ऊ साल एहु बेचारी का कम टटाएल ? कउन ठीक एही कारण बँझा गेल कि का ?) (सोरही॰59.23)
392 बउआ ('अरे बउआ ! सभे लिट्टी ले जाके रख तो, जरा नून तेल मिचाई सान दिहें ।' - कलुवा बोलल।) (सोरही॰44.12)
393 बउआना ("नञ ... अइसन नञ हो सकऽ हे" ललाइन मामा एक-ब-एक चिहुँक उठलन मानो बइठल-बइठल बउआ रहल हथ, "ई सब छुछे बहाना हे, ढोंग हे, ऊ पागल न हे, भलुक हमरा पागल बना रहल हे ... अब हम सह न सकऽ ही ।") (सोरही॰27.26)
394 बउड़ाहा (बाकि का ऊ दूनो एक साथे हिरदा के अवाज सुनलन हे ? न, न, एगो बहादुरी में बउड़ाहा हथ तऽ दोसर राज बढ़ावे में पगलायल हथ । एगो के हिन्दुअई बहकावऽ हे तो दोसर के हिन्दू बहकावऽ हथ । बाकि हिन्दू, हिन्दुअई या मुसलमान से ऊपरे उठके देखे के कोई कोरसिस कइलन हे ?) (सोरही॰49.12)
395 बउड़ाहिन (अमीना जमुना में नेहाइत हल कि सलीमा उहाँ पहुँचल । ... सलीमा पुछलक कि ऊ दिन लंगउटी ओला आन्हर अदमी तोरा पर कउन जादू चलौलकउ कि तूँ किसुन ला बउड़ाहिन हो गेले हें ?) (सोरही॰50.1)
396 बकार (~ निकासना) (विचार मन में कइलक कि चार सौ रुपया सेठ जी से कौनो बहाना से माँग लूँ तो घरवाली के कनबाली आउ साड़ी-साया भी हो जाय । मुदा बड़का आदमी से कुछ माँगे के पहले मन, मिजाज आउ रुख गमल जाहे । सोचलक कि साँझ पहरा सेठ जी गद्दी से उठके घर जाय लगतन तब मूड़ी झुकाके उनका पिछुआयम । अपने पुछतन कि हमरा पाछु काहे चलल आवऽ हें, तब बकार निकासम ।) (सोरही॰41.15)
397 बखत (= वक्त, समय) ("मगर अखने तो रुपया नय हो जीतन माय । आउ जे तों कहली घी के दाम, से तो नय मिलतो । काहे कि जखने तोर जीतन के बाबू बैंक से भैंस लेवे ले दरखास देलखुन हल, ऊ बखत सी॰ओ॰ साहेब के दसखत कइला पर हीं रुपया मिललो हल । तखने चार किलो घी पर तय होलो हल ।" - "अच्छा, ओकरा छोड़हो मलकिनी । मगर एक सो अस्सी रुपया, जे दूध वला होवो हे, ऊ तो देबहो ने ।") (सोरही॰22.3)
398 बझल (= फँसा हुआ, व्यस्त) (ओती घड़ी राम सरन बाबू घर पर नञ हलन । उनकर मेहरी चुल्हा-चउका में बझल हलन । ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन ।) (सोरही॰28.8)
399 बड़ (= बहुत; बड़ा) (सोहरा माय बूढ़ी हल । ढेर दिना के अनुभो हल । पइसा असूले में माहिर हल । दुआर पर आके बोलल - "बड़ ठंढ हइ ! तों सब तो वहाँ चल गेले हें । देख, मंगरुआ के हियाँ रुपइया बाकी रह गेल । ढोढ़ा के हियाँ तो सब कुछ रह गेल । एक मन तो करऽ हइ कि ओंहाँ कमइवे नञ करूँ ।"; गाँव भर के जनम-मरन के हिसाब-किताब उनकर दिमाग में लिखल हे । दरगहिया भुलेटना से केतना दिन के बड़ हे, मुनेसर कोइरी के बेटा के जनम कउन महीना में कउन दिन भेल हल, दुधेसर पाँड़े के दादा कउन दिन, कउन घड़ी कउन रोग से मरलन हल आदि सब्भे बात ऊ साफ-साफ बतावऽ हथ, तनिको एने-ओने न ।) (सोरही॰4.6; 26.12)
400 बड़का (~ बेटा; ~ भाय) (पिछला एतवार के बड़का आयल हल गया से । ललाइन मामा बड़ी बेअग्गर होके कहलन हल - "देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ ।") (सोरही॰27.8)
401 बड़की (~ पुतोह; ~ बेटी) (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।"; "राम सरन बाबू न हथ का ?" ललाइन मामा पुछलन । - "जी ऊ त अनमुनाहे घर से जे निकललन हे से अबले कहाँ अयलन हे ।" राम सरन बाबू के मेहरी दाल छौंकइत कहलन । फिन ललाइन मामा दने मूड़ी घुमा के पुछलन, "आझो बड़की पुतोह कुछ बोललन हे का ?") (सोरही॰25.2; 28.16)
402 बड़हन (मगही-कहानी-संग्रह 16 कहानी के संग्रह हे । नया-पुराना सभे मगही कहानीकार के अनछपल रचना के ई संग्रह मगही साहित्य के बड़हन उपलब्धि हे तो समानान्तर विकसित भाषा के कहानी साहित्य के दिड़निर्देश आउ समान्तर समकालीन हिन्दी कहानी लेल चुनौती भी ।) (सोरही॰iii.2)
403 बढ़का (दे॰ बड़का) (दुनिया के रूप रंग-बिरंग के हे । ऊ में नौरंग के आगु केकर आँख न चउन्हिया जाय ? अप्पन इलाका के सबसे जादे धन-दौलत ओला जमीनदार, सबसे बढ़का नेता, खाजामार टोपी आउ फह-फह उज्जर धोती ।) (सोरही॰14.22)
404 बढ़की (दे॰ बड़की) (बढ़की दीदी आउ रमिया ऊ दिन अजोधेया में एकारसी के उपास कइले हलन । पारन के दिन हल । रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक ।) (सोरही॰35.10)
405 बढ़नी (मुदइया फिन ई बढ़नी उगल । बाप रे, न जानी ई साल का होयत । लगऽ हे फिन ई साल बरसा न होयत । फसल मारल जायत । अकाल पड़त । तेरुसे लगबहिए हप्ता भर एही पुरुवी छितान पर बढ़निया उगते रहल हल - एही ढंग से । घुरियो मारे ला बरसा न होयल ।; 'आउ भी बहुत कुछ भेल ...' सोमरी के आँख लोरा गेल । भोरे-भोर ऊ गोरु-डाँगर के ठीक करे ला उठल हल । पूरब अकास पर नजर जइते बढ़नी देखा गेल । सोमरी एके बेर नीचे से ऊपर तक काँप गेल ।; अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे । मोछकबरी एगो गइया हे, जे पहर भर से पोंछ झार रहल हे । मन करऽ हे, एही भोर में सुखले बढ़नी से परीछ दीं ।; पुरवा के लफार तेज हे । आलस से देह कसमसा रहल हे । मन करऽ हे, एक नीन्द आउ हो जाय । लेकिन ई मुदइया बढ़नी साहिल के काँटा के माफिक मन में बइठ गेल हे, जे रह-रह के डँस रहल हे । न जानी ई साल केकरा बहार के ले जायत ।) (सोरही॰57.1, 3, 8, 14, 21)
406 बढ़िआना (= बाढ़ आ जाना) (पूरा भीड़ दूनो तरफ दौड़ जाहे । लोर से भींजल लिट्टी कलुवा के मुँह से गिर जाहे । धलुवा ठकुआके गुनगुना हे - 'मइया के लोरवा से गंगा बढ़िअइलइ, बाबूजी के लोरे संसार । भइया के लोरे रामा जमुना बढ़िअइलइ, सभे दहौले चलल जाय ॥') (सोरही॰46.15)
407 बधोस (= बदहोश, बेहोश) (दोसर दिन दुपहर दिन चढ़ला के करीब ऊ कुआँ पर मुँह धोके उतरइत हलन कि अचक्के में गोड़ पिछुल गेल आउ ऊ औंधे मुँह अँगना में गिर पड़लन । अइसन गिरलन कि तनिको टस से मस नञ भेलन । उनका गिरते देखके तीनो पुतोह तीन दने से हाय-हाय करते दउड़ पड़लन । ललाइन मामा बधोस हलन ।) (सोरही॰30.22)
408 बन (= बन्द) (ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल । दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक ।; फुलवा के लाश नौरंग के लाश के ऊपरे अउन्हे माथे हे आउ गोड़ हैंडिल में अझुरायल हे । खून के फुहेरा अब बन हो गेल हल आउ जमके चटचटाइत हल।) (सोरही॰4.2; 16.17)
409 बन्हुक (= बन्दूक) (खंजन चिरई के पोंछी नियन हरमेसे नाचइत रहे ओली फुलवा के आँख कउनो के खोज रहल हल । नौरंग ओकरे दने देखके अपन बन्हुक पर ताकऽ हल आउ पागल नियन अटपट बोल रहल हल । प्रिंसिपल के देखते मातर बोलल - "बतावऽ तो प्रिंसिपल, तोहर कउन लइका हमर फुलवा के साथे चुहलबाजी कइलक हे ?") (सोरही॰13.13)
410 बन्हूक (दे॰ बन्हुक) ("बताओ तो कउन हे ऊ रंगदार ? हम बन्हूक के ई नोखी पर अबहीं उड़ा देही ।" एगो इटालियन दुनलिया बन्हूक के हाथ में चमका के गरज उठलन नौरंग ।; "तनी बता तो द कि कउन हवऽ ऊ हीरो लइका ?" अपन बन्हूक के चमका के नौरंग बोललन ।) (सोरही॰13.1, 2, 19)
411 बर (= बड़, बड़ा) ("कइसन तबियत हो जीतन बाबू ?" - "बर बढ़िया ।" धीरे से जुगल बोलल । - "कोय तकलीफ भी होय ?" जवाब सुने ले धियान लगावो हथ आउ दिल धुकधुक करो लगल काहे कि कहईं जो कुछ तकलीफ बतइलका तब की करम ।) (सोरही॰23.18)
412 बरदास ("देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ । बात-बात पर छोटकी पर पड़ल रहऽ हउ । बात बरदास से बाहर हो गेला पर जब हम कुछ बोलऽ ही त मारे दउड़ऽ हउ ।") (सोरही॰27.11)
413 बरना (अनस ~) ("नय, कोय तकलीफ नय हे । तों अभी कहाँ गेली हल ?" आँख खोलके जीतन माय के तरफ देखते बोलला । - "इहे मुनिया कानना शुरू कइलक हल, तो तोरा अनस बरे गुन बाहर में फुसला रहलिये हल ।) (सोरही॰23.23)
414 बलुक (= बल्कि) (इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ । डर के नञ बलुक अपन जिनगी भर के बटोरके सम्हारल मान-मरजादा बचावे खातिर ।) (सोरही॰25.19)
415 बहरसी (रुपया देते सी॰ओ॰ साहेब के जनाना बाहर झाँकलकी तो देखो हथ कि बहरसी दुआरी के बगल में एगो मेहरारु बैठल हथ । तब ओन्ने ताक के पूछो हथ - "के हा ओजा बैठल ? जरी मुँह देखावी ।" - "हम्मे हियय, जीतन माय, मलकिनी ।"; सरिता बहरसी चल अइलइ, तब से मेहमान रुसल हथिन । कहऽ हथिन कि जब ला सरिता के रंग नऽ लगइबइन तब ला नऽ तो हम खाम आउ नऽ पीअम ।) (सोरही॰21.7; 51.22)
416 बहरी (दे॰ बहरसी) (बजार के बहरी ओला नुक्कड़ पर के पुल के नीचे पीपर के पेड़ भिजुन ओला गहिड़ा में एगो मोटर कार गिरके दुर्घटना हो गेल हल । ई दुर्घटना देखके कोई दुखी न हो रहलन हल । थोड़हीं सन पहिले फुलवा के साथे, निसा में मातल अपनहीं कार हँकावइत नौरंग जाइत हलन ।) (सोरही॰16.11)
417 बहरे (= बाहरे, बहरसिये; बाहर ही) (आखिर कइसहूँ दुनहुँ पहुँचल । कारा बहरे खड़ा हो गेल । झोपड़ी में मोहरी कहँड़ रहल हल । चमइन के गेला पर कहँड़नय कम होल, मुदा तुरते कसके अवाज आल । कारा के मन उखविखा गेल । फेन चमइन आउ मोहरी के बात कारा गौर से सुने लगल ।) (सोरही॰4.21)
418 बहारना (= बाढ़ना) (पुरवा के लफार तेज हे । आलस से देह कसमसा रहल हे । मन करऽ हे, एक नीन्द आउ हो जाय । लेकिन ई मुदइया बढ़नी साहिल के काँटा के माफिक मन में बइठ गेल हे, जे रह-रह के डँस रहल हे । न जानी ई साल केकरा बहार के ले जायत ।) (सोरही॰57.22)
419 बाँकी (= बाकी, शेष) ("हमरा यहाँ केतना रुपया होतो ?" सी॰ओ॰ साहेब के मेहरारु जीतन माय के आउ कुछ बोले के पहिले पुछलकी । - "दू दू किलो करके दू मरतबे में चार किलो घी देलियन हे, जेकर एक सो रुपया होतन । आउ आज दू महीना पूरे में पनरह दिन बाँकी हन । एक किलो के दूध अबो हन ।") (सोरही॰21.22)
420 बाँट-बखरा (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।") (सोरही॰25.4)
421 बाई (= बाय) (पंडी जी समझइलथिन - अरे ई सभै के नयकी बीमारी के परकोप हइ । मंगर आउ मोहन दूनो के झपसबर अस्पताल ले चलऽ हो भाई । ई दूनो एन्सिफेलाइटिस के चक्कर में पड़ गेलथुन । ई बिमरिया में चित्त के बिगड़ जाय से आउ बाई के उभड़ जाय से पहिले मथवे खराब होवऽ हे ।) (सोरही॰46.8)
422 बाकि (= लेकिन) (नवल किशोर एम॰ए॰ के इम्तहान देवे ला सोचलन आउ फारम भरलन बाकि इनकर बड़का भाई के लड़का बेमार पड़ल आउ मर गेल । से इन्हका कठिनाई भेल । बेमारी के टैम में दवा-दारू करे पड़ल आउ ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल ।; फेन डाक्टर बने के कोरसिस कइलन तो दफ्तर के बड़ा बाबू एगो खुरचन निकाल देलन आउ दफ्तर के अफसर इनकर दरखास के दबवा देलन जे से नवल किशोर के मनोबल दब जाय आउ ऊ थउँस के बइठ जाय । बाकि नवल किशोर गजब जीवट के अदमी ।) (सोरही॰8.3, 9)
423 बाकिर (दे॰ बाकि) (बाकिर, एगो शर्त हे - कहानी छोटहन रहे । प्रेमचन्द के निन्दा भेल - किस्सागोई के वजह से।) (सोरही॰iii.19)
424 बान्हल (मानसी अधरतिया के फैलल घुच अन्हरिया में अपन नजर दउड़इलन, कहीं कुछ न लोकल । जमुना में बान्हल सीढ़ी से नीचे उतरके नेहाय जाइत हलन । फिनो अवाज सुनाइ पड़ल - "रुन-झुन, रुन-झुन" ।) (सोरही॰47.5)
425 बिन (= बिना) (मोहरी माथा उठाके कारा दने देखलक । फिन आग आउ थरिवा दने नजर झुक गेल । कारा बिन बोलले आग तर चल गेल । एन्ने-ओन्ने छितराल आग के समेटे लगल । आग फेन धुधुआय लगल ।) (सोरही॰1.13)
426 बिलटना (अभाव के दुनिया में जी करके भी ऊ कहियो अपन तीनों लड़िकन के बिलटे नञ देलन, न कबहु केकरो सामने हाथ पसारलन आउ न टुटलन । उनकर ई हिम्मत देखके समूचे डुमरा के लोग उनका मान दे हथ, सम्मान दे हथ आउ आदर भाव से कहऽ हथ - ललाइन मामा ।) (सोरही॰26.4)
427 बिहने (हम अइसन नेवता ला तइयार न हली बाकि हमरा मन में लेखक बने के ललसा बड़ी दिन से जमल हल । कोरसिस कइला पर भी कोई रचना छपल न हल । हम तुरते नस्ता के साथे चाह ला औडर देली आउ पतरिका के नाम, ओकर लगाव, बिकरी, आदि के बढ़िया उत्तर पाके उनका बिहने भेला अपना घर आवे ला नेवता दे देली ।) (सोरही॰32.9)
428 बीस (बुधिया - तोहरा बनावे के मन हइए ना हो तो बेकारे पूछऽ ह ।/ मंगरु - जानिअइ भी ? कहीं जोखा लग जाय, जोगाड़ हो जाय रुपइया के, तो काहे न बन जा सकऽ हो ।/ बुधिया - पान कहलथिन हल कि बारह अन्ना भर हइ आउ तीन सो आउ तीन बीस रुपिया खरच बइठलइ हे ।) (सोरही॰40.13)
429 बुढ़ारी (ललाइन मामा एगो लम्मा साँस लेलन त बुझायल, जइसे हवा में जहर घोर देवल गेल हे जे फैल गेल हे उनकर समूचे देह में । पीठ पर हाथ फेरलन त नस टभके लगल पकल घाव नियन । आझ भोरहरिये बड़की तनिसुन बात खातिर मार बइठल । कहाँ जमानी के काबू आउ कहाँ बुढ़ारी के टुटल देह । बड़की हलके धँसोरलक हल कि बस ललाइन मामा पीठ के बल जमीन पर आ गेलन - धड़ाम ।) (सोरही॰26.18)
430 बुताना (= (आग आदि) बुझना; बुझाना) (धलुवा ठकुआके गुनगुना हे - 'मइया के लोरवा से गंगा बढ़िअइलइ, बाबूजी के लोरे संसार । भइया के लोरे रामा जमुना बढ़िअइलइ, सभे दहौले चलल जाय ॥' - 'धत् ससुरा ! चुप भी रह ।', कलुवा खिसियाके खखुआयल, 'ईहाँ ई घूरा के आग बुता गेल आउ तोरा गउनइए सूझइत हउ ।') (सोरही॰46.17)
431 बुधगर (घर अइते हीं वैदजी के हाथ में ऊ दू सौ रुपया थमा देलक । तीन मराती रुपया गिनला के बाद वैदजी बोललन "दू सौ रुपया तो दवा के दाम होलउ आउ सूद ?" बोकारो जाके राधे बुधगर बन गेल हल । बेटा घुमले ग्यान पावऽ हे । ऊ टुभकल - "का तोरा से हम करजा लेली हल जेकर सूद खोजऽ हू ?") (सोरही॰12.7)
432 बुरबक (रे सार ! तोहनी भागऽ हँऽ कि हरा से हुरपेटिअउ ? ई सभे साला कौलेज में का गेल कि लगल हमनीए के बुरबक बनाके लड़ावे ।) (सोरही॰46.1)
433 बुलुका (दू ~ पानी) (बढ़की दीदी आउ रमिया ऊ दिन अजोधेया में एकारसी के उपास कइले हलन । पारन के दिन हल । रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक ।) (सोरही॰35.11)
434 बेंवत (= बेओंत, ब्योंत, उपाय; काम साधने की युक्ति; सहूलियत) (लालचन के दीठ छकौड़ी के मकान पर लगल हल । केतना दिन से ईंटा के घर बनावे ला सोचइत हलन । छकौड़ी के घर के बिना उनकर बेंवत ठीक न हो हल ।) (सोरही॰18.16)
435 बेअग्गर (= व्यग्र) (पिछला एतवार के बड़का आयल हल गया से । ललाइन मामा बड़ी बेअग्गर होके कहलन हल - "देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ ।"; बैदजी के बोलावल गेल । बैदजी नबज के चाल देखलन । थरमामीटर लगाके बोखार देखलन आउ फिन एगो सूई दे देलन । तनिक देर बाद ललाइन मामा आँख खोललन त इन्दर देव बेअग्गर होके पुछलन - "माय कइसन तबियत हउ ?") (सोरही॰27.9; 31.1)
436 बेकतिया (= पत्नी) (मंगरु - बात ई हइ मालिक कि बेकतिया बेराम पड़ गेल हे । इलायज डागडर के चल रहले हे । दवा-दारू ला चार सौ रुपया के जरूरत हइ । दे देथिन मालिक, कमा के अदा कर देमन ।; मंगरु - बेकतिया मर जइतइ मालिक, दाया करथिन ।) (सोरही॰41.25; 42.3)
437 बेटमारी (= बेटखौकी) (फिन ललाइन मामा दने मूड़ी घुमा के पुछलन, "आझो बड़की पुतोह कुछ बोललन हे का ?" - "हाँ कनेआ, ओही रोज-रोज के राँड़ी बेटमारी आउ का होतवऽ ।" कहइत-कहइत ललाइन मामा के गेआरी भर आयल ।) (सोरही॰28.17)
438 बेपरद (ऊ दबले जबान बोललथिन - का कहियो बाबू ! उका ऊ घरवा में सहीपुर के मेहमान घरे रंग खेले आयल हथिन । हमरो बेटिया तो ओही घरवा में हलइ, उहाँ से भाग अइलइ ।/ आउ कहलई - राम ! राम ! ई कउन तरीका हइ कि कोई मेहमान आवे तो गाँव के बेटिन साथे जइसे-तइसे रंग खेले । उहाँ सब धमधूर, धमार आउ बेपरद हँसी-मजाक करइत हथिन ।) (सोरही॰51.21)
439 बेमार (नवल किशोर एम॰ए॰ के इम्तहान देवे ला सोचलन आउ फारम भरलन बाकि इनकर बड़का भाई के लड़का बेमार पड़ल आउ मर गेल । से इन्हका कठिनाई भेल । बेमारी के टैम में दवा-दारू करे पड़ल आउ ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल ।) (सोरही॰8.3)
440 बेमारी (नवल किशोर एम॰ए॰ के इम्तहान देवे ला सोचलन आउ फारम भरलन बाकि इनकर बड़का भाई के लड़का बेमार पड़ल आउ मर गेल । से इन्हका कठिनाई भेल । बेमारी के टैम में दवा-दारू करे पड़ल आउ ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल ।; रमिया ई कहिये रहल हल कि बढ़की दीदी भी दू बुलुका फेंकलन आउ उनकर बेमारी के धरमसाला बनल देह में रहइत परान तुरते निकल गेल ।) (सोरही॰8.4; 35.16)
441 बेराम (दे॰ बेमार) (मंगरु - बात ई हइ मालिक कि बेकतिया बेराम पड़ गेल हे । इलायज डागडर के चल रहले हे । दवा-दारू ला चार सौ रुपया के जरूरत हइ । दे देथिन मालिक, कमा के अदा कर देमन ।; सेठ के बेवहार से मंगरु के दिल में भारी ठेस लगल । बुदबुदाय लगल, हम ई सेठवा के केतना सेवा कइलूँ हे । बेराम पड़ गेल हल तो रात अधरतिया आउ दिन दुपहरिया डागडर के हियाँ दौड़ा-दौड़ी कइलूँ हल ।; रुपैयो न देलक आउ बात बोलल कि करेजा में छेद हो गेल । मेहररुआ साँचे बेराम रहत हल तो अइसन में टन्ने न बोल जात हल । निगुनियाँ कहीं के ! अमीरवन के हिरदा पत्थर होवऽ हे, दाया धरम के नाम नै ।) (सोरही॰41.25; 42.9, 14)
442 बोखार (वैदजी कहो हथिन कि ई बोखार समय लेत, मगर छुटत जरूर ।; बैदजी के बोलावल गेल । बैदजी नबज के चाल देखलन । थरमामीटर लगाके बोखार देखलन आउ फिन एगो सूई दे देलन ।) (सोरही॰19.12; 30.26)
443 बोरना (आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल । जर-जरावन हल नञ, ई से खाली आँटा के लिटिए सेंकके नून मिचाई जौरे बोर-बोरके खाके पेट के छुधा बुझाके अघाय के में फिकिर हल ।) (सोरही॰44.10)
444 बोलना-भुकना (सब बात सुनके बलदेव मुसुकइत धीमे से कहलन हल, "देख माय, तू एकदमे कुछ मत बोलिहें । ओकरा बोले भुके देहीं । ऊ तो पागल हइ, ओकर पीछे हमहुँ पागल हो जाईं ।") (सोरही॰27.19)
445 बोहनी ("सब एक जइसन नञ होवऽ हथ । भला तों थोड़के दे देमें ।" बुढ़िया कारा पर उपहास कइलक । बुढ़िया के बात सुनते के साथ कारा के धिआन अपन पाँच रुपइया पर चल गेल । बिना सोचले समझले बोल देलक - "हाँ मामा, पाँच रुपइया तो नगद बोहनी कर देबउ ।") (सोरही॰4.14)
446 भगसाली (= भाग्यशाली) (अपसोस ! मोना, हमनी कम बच्चा पैदा करती हल ! हमर दोस्त राजेश केतना भगसाली हे जेकरा सिरिफ दू गो बच्चा हे । एगो बेटा, एगो बेटी !) (सोरही॰56.25)
447 भनसिआ (आग फेन धुधुआय लगल । मोहरी चुपचाप देखते रहल । हाँ ! कखनउँ-कखनउँ करवट बदल दे हल । जब कारा से नञ रहल गेल, कहलक - "हम लिट्टियन सेंक लेम, कम से कम अटवा तो सान दे । जब भगवाने हमरा भनसिआ बनइलक हे तब तों की करमें ?") (सोरही॰1.17)
448 भर (= भरी; सोना-चाँदी के तौल की एक मात्रा, 10 ग्राम; तोला) (चार आना ~ = एक तोले का चौथाई हिस्सा) (पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।; पान कहलथिन हल कि बारह अन्ना भर हइ आउ तीन सो आउ तीन बीस रुपिया खरच बइठलइ हे ।) (सोरही॰40.7, 12)
449 भाउना (= भउना; भावना; ढोंग) (चहुतरफा अन्हेरा छा गेल आउ ऊ अन्हेरिया में ललाइन मामा के लौकल जइसे धरती फट गेल हे आउ ऊ धीरे-धीरे ओकरा में समा रहलन हे सीता मइया नियन । ऊ हालीसुन अँचरा के कोर से अपन दुनो आँख पोछ लेलन । सब तस्वीर मेट गेल । ई तो उनकर मन के भाउना हल ।) (सोरही॰26.25)
450 भाग (= भाग्य) (बाकि फुलवा के भी भाग बड़ी चाँड़ हे । टूटल मड़ई, गन्दा महल्ला में जनमल आउ ई पक्का बंगला में राज कर रहल हे ।; बुधिया - बस, भेलइ । इनका भिर जरी बोलना भी भारिये हो जाहे । कहीं कनबाली बना देता तब तो काटके हमरा खाइये जइता । हम कहलूँ से फेर लेलूँ । बाज अइलूँ कनबाली से । जिरी सा बोललूँ तो अलबल बके लगला । बाप रे, अइसन मरदाना ना देखलूँ हल ।/ मंगरु - बस कासा में ठुनका लग गेलो । अजी हँसी न कर रहलियो हे । रुपिया-पइसा के जुगाड़ करऽ हियो । भाग में होतो तो बनिये जइतो ।) (सोरही॰14.16; 40.23)
451 भाय (= पति द्वारा पत्नी को संबोधित करने में प्रयुक्त शब्द) (बुधिया - ... हम्मर माय-बाप जेतना देलथुन हे तोहर माय-बाप से सात जलम ना हो सकऽ हो ।/ मंगरु - अच्छा भाय, हम मान गेलूँ कि तोहर माय-बाप धन्ना सेठ हथ आउ हम निठाह दलिद्दर ही । मुदा तोहर बाप से हम खरची न माँगऽ हियो । जाय द, पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।) (सोरही॰40.5)
452 भिजुन (ई गीत के सुर इधर लहसल कि उधर अलेल्हा आग भी लहक के धधक उठल । टील्हा भिजुन के सभे लोग आग तापे लागि जुट गेलन ।) (सोरही॰43.4)
453 भिर (बुधिया - बस, भेलइ । इनका भिर जरी बोलना भी भारिये हो जाहे । कहीं कनबाली बना देता तब तो काटके हमरा खाइये जइता । हम कहलूँ से फेर लेलूँ । बाज अइलूँ कनबाली से । जिरी सा बोललूँ तो अलबल बके लगला । बाप रे, अइसन मरदाना ना देखलूँ हल ।/ मंगरु - बस कासा में ठुनका लग गेलो । अजी हँसी न कर रहलियो हे । रुपिया-पइसा के जुगाड़ करऽ हियो । भाग में होतो तो बनिये जइतो ।) (सोरही॰40.18)
454 भिरु (= भिर, भीर; पास) (एक फरमा छपे ला बाकी हे आउ प्रेस के कुछ रुपया बकाया हे । उनका देके आउ पतरिका छपा के अपने भिरु पहुँचा देम । अपने के ई कविता बढ़िया हे पहिले पन्ना पर एकरा दे देम बाकि चार गो पन्ना बढ़ावे पड़ जायत ।) (सोरही॰32.16)
455 भीर (= भिर; पास) (जीतन माय अपन मरद भीर आके कहो हथ । "एत्ते जोर से काहे बोलो हा । आज एकइस दिना हो गेलो हे, जे खटिया पर गिरला हे से घुर के मुरियो नय उठयला हे, आउ एत्ते टनक से बोलला कि टोला-परोस के लोग सुन गेला होत ।"; "एन्ने आवो, दूरिये से की बोलो हा ।" - "की कहो हखीन मलकिनी जी ?" भीर आके गिरधारी पूछलक ।; "जीतन के बाबू मर जयता मालकिन ।" - "चाहे जे होथुन । मगर आज तो कोय हालत से रुपया नय मिलतो ।" कहइत सी॰ओ॰ के जनाना जीतन माय भीर से हँटके अपन कोठरी में हेल गेली ।) (सोरही॰19.2; 20.21; 23.1)
456 भीरी (दे॰ भीर) (पटना में किराया के मकान मिलला भी कउनो कठिन तपस्या के फले के समान हे । आउ ऑफिस के नगीच के मकान तो भगवान के मिलला से भी जादे मोसकिल हे । ऊ भला अइसन खुशनसीब कहाँ हे कि ओकरा एतना भीरी मकान मिल जाय ।) (सोरही॰55.12)
457 भुँजल (रमिया बड़की दीदी के साथे अजोधेया चल गेल । कहल जाहे राँड़ के देखके भगवानो हेरा जा हथ । हरिचंद पर विपत पड़ल तो भुँजल मछली कूदके पानी में चल गेल । अजोधेया हैजा से ओक-बोक हो रहल हल ।) (सोरही॰35.6)
458 भुसुंड (गोबिन भगत ई सुनते थिरके लगलन आउ उनकर मोट देह आउ भुसुंड तोंद के नाचल देखके सभे लोग ताली पीटे लगलन - 'वाह भगत जी ! वाह ! वाह !') (सोरही॰44.3)
459 भोरहरिये (ललाइन मामा एगो लम्मा साँस लेलन त बुझायल, जइसे हवा में जहर घोर देवल गेल हे जे फैल गेल हे उनकर समूचे देह में । पीठ पर हाथ फेरलन त नस टभके लगल पकल घाव नियन । आझ भोरहरिये बड़की तनिसुन बात खातिर मार बइठल । कहाँ जमानी के काबू आउ कहाँ बुढ़ारी के टुटल देह । बड़की हलके धँसोरलक हल कि बस ललाइन मामा पीठ के बल जमीन पर आ गेलन - धड़ाम ।) (सोरही॰26.17)
460 भोरे ("आज खइलें हें ?" - "न ... ञ ।" - "भोरे ?" - "ऊहूँ ।" - "लगऽ हउ कत्तेक दिन से नञ खइलें हें ।" - "हाँ।" - "कहिया से ?" - "परसूँ सँझिया के खइलिए हल ।") (सोरही॰4.27)
461 मँझला (भितरे से बड़की के करकस अवाज अभियो आवइत हल । जउन घर से चूड़ी खनके के अवाज अंगना से बाहर नञ जा हल, आझ ऊ घर के पुतोह के करकस अवाज से सात घर के अगना इंजोर होवऽ हे । एही सब रोज-रोज के किचकिच आउ करकर से तंग आके मँझला आउ छोटका अपन चुल्हा-चउका अलग कर लेलन, तइयो ई घर में सुख आउ शांति नञ आयल ।) (सोरही॰27.6)
462 मंदिल (= मंदिर) (उनका से एगो अदमी कहलक - "एहिजा से कुछ दूर पर एगो मंदिल बनइत हे। ओकरा में अब मूरति बइठावे ला हे । अपने बड़ अदमी लौकइत ही । अपने पर भगवान के किरपा हे आउ धरम में विसवास हे । ऊ मंदिल ला अपने कुछ दान दिहीं ।") (सोरही॰33.2, 4)
463 मउअत (चारो दने भाग-दउड़ ! समूचे आफिस में हर दने घबड़ाहट । ई महीना में हर दफे ओकरा मउअत होवऽ हे ।) (सोरही॰55.5)
464 मचिया (ओती घड़ी राम सरन बाबू घर पर नञ हलन । उनकर मेहरी चुल्हा-चउका में बझल हलन । ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन । ललाइन मामा मचिया पर बइठ गेलन ।) (सोरही॰28.8, 9)
465 मजूरी (लेकिन चहल-पहल में भी कलुवा धलुवा दूनो सवाँग के अप्पन लिटिए सिझावे के फिकिर रहल । तीन दिन से ऊ दूनो भूखल हल । मजूरी तो कइलक हल पर ऊहाँ खाली नस्ते भर मिलल हल । आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल ।) (सोरही॰44.6, 8)
466 मदत (= मदद) (कलुवा गीतियो गावइत जाइत हल आउ सात गो लिटियो सेंके के फिकिर करइत हल । ओकर बुतरुआ धलुवा भी ओकरे मदत में लगल हल ।) (सोरही॰43.7)
467 मदाड़ी (= मदारी) ("धाँय-धाँय" असमानी फायर करके करोध में मातल लाल-लाल आँख कइले नौरंग के सभे देखलन । उनकर पाछे उनकर छाया नियन जरवेट के साड़ी में अइँठइत फुलवा भी हल । मदाड़ी के खेल देखे जइसन सभे बहरा गेलन ।) (सोरही॰13.10)
468 ममोड़ना (= ममोरना; ऐंठना) (अइसन भी बज्जर अकाल पड़ऽ हे । तिनका तिनका झुलस गेल । भगवान भी अइसन पथरा गेलन कि साल भर लोर भी न चुअएलन । जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।) (सोरही॰58.14)
469 मरल (~ जाना) ("हमर माय मरल जाहे, चलके देख ल वैद जी" - अप्पन दुनू हाथ जोड़के राधे सिसके लगल । "ई घड़ी हमरा चूतड़ कलकलावे के भी फुरसत न हउ । एगो हर्रे, सउँसे गाँव खोंखी । तू अप्पन माय के दवाखाना में ले आउ" - वैद जी राधे के कहलन ।) (सोरही॰10.6)
470 मराती (= तुरी; मर्तबे, बार) (सूई भोंक के पइसा कमाये में ऊ बहादुर हो गेलन हल मगर नस में पानी चढ़ावे में सिहरी न फटल हल । ऊ रोगी के देह में कई मराती सूई भोंकलन । जब सूई नस में घुसल तो उ अप्पन भाग के सराहे लगलन ।; घर अइते हीं वैदजी के हाथ में ऊ दू सौ रुपया थमा देलक । तीन मराती रुपया गिनला के बाद वैदजी बोललन "दू सौ रुपया तो दवा के दाम होलउ आउ सूद ?") (सोरही॰11.7; 12.5)
471 मसलंद (= मसनद) (सेठ गद्दी पर आराम से लेटल हे मसलंद से ओठंग के । मुँह में पान के गिलौरी चबा रहल हे ।) (सोरही॰42.21)
472 मसोमात (ललाइन मामा मसोमात हो गेला पर जेतना मुसीबत आउ दुख सहके अपन छोटा-छोटा लड़िकन के पाल-पोस के पढ़वलन आउ बिआहलन, ई वास्ते गाँव के अच्छा-अच्छा लोग उनकर लोहा मानऽ हथ ।) (सोरही॰26.1)
473 मातर (= ही) (खंजन चिरई के पोंछी नियन हरमेसे नाचइत रहे ओली फुलवा के आँख कउनो के खोज रहल हल । नौरंग ओकरे दने देखके अपन बन्हुक पर ताकऽ हल आउ पागल नियन अटपट बोल रहल हल । प्रिंसिपल के देखते मातर बोलल - "बतावऽ तो प्रिंसिपल, तोहर कउन लइका हमर फुलवा के साथे चुहलबाजी कइलक हे ?") (सोरही॰13.14)
474 मान-मरजादा (= मान-मर्यादा) (इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ । डर के नञ बलुक अपन जिनगी भर के बटोरके सम्हारल मान-मरजादा बचावे खातिर । उनका विसवास हे, धन बटोरे के अनेक रस्ता हे, लेकिन समाज में रहके मान-मरजादा आउ जस बटोरे के एकेगो रस्ता हे - ईमान-धरम । जउन दिन आदमी अपन दिल से ई गुन निकाल फेंकऽ हे, ऊ दिन ओकर मान-मरजादा मर जाहे, जस अपजस बन जाहे ।; आउ ऊ गोस्सा से तमतमायल लम्मा लम्मा डेग लफावइत चल पड़लन सरन बाबू के घर, इंसाफ खातिर । राम सरन बाबू गाँव के नामी-गिरामी आदमी हथ, मान-मरजादा, धन आउ सोहरत में ढेर आगे बढ़ल । मुखिया न मुदा तइयो गाँव के लोग उनका से इंसाफ करावऽ हथ ।) (सोरही॰25.20, 21, 23; 28.4)
475 माफ-साफ ( अब ओकर मुरझायल मुँह खिल उठल आउ बोलल - "पाँच एकड़ से कम वला किसान के तो बिहार सरकार मालगुजारी माफ कर देलक हे । हमरा तो पाँच कट्ठा भी जमीन न हे । अपने केतना मालगुजारी माफ कर रहली हे ।" - "एही न रड़घौंज करे लगलँऽ । अभी तोर गोटी लाल न होलउ हे । माफ-साफ के बात का करऽ हँ । दस दिन तक कोई सूद न लेबउ ।" वैदजी ई कहके अप्पन घर चल गेलन ।) (सोरही॰11.19)
476 मामा (= मम्मा; दादी) (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।") (सोरही॰25.1)
477 माय (बैदजी के बोलावल गेल । बैदजी नबज के चाल देखलन । थरमामीटर लगाके बोखार देखलन आउ फिन एगो सूई दे देलन । तनिक देर बाद ललाइन मामा आँख खोललन त इन्दर देव बेअग्गर होके पुछलन - "माय कइसन तबियत हउ ?") (सोरही॰31.1)
478 मीठगर ("उगले रहिहऽ ।" छोटकी पुतोह दने देखके ललाइन मामा एतना कहवे कइलन हल कि उनकर आँख मुँद गेल हमेशा खातिर । दहाड़ मारके छोटकी उनकर गोड़ पर गिर पड़लन । एने ओही घड़ी अँगना के ऊपर से एगो मीठगर अवाज टपकल - उठ काकी ... उठ ! सेता राम ... सेता राम बोल काकी !! रुपूऽ रे ... टाँयऽऽ ... टाँयऽऽ !!) (सोरही॰31.15)
479 मुँहजरा (हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन । ओकरा में से एगो लइका पम्प के मोटगर जलधारा के हाथ से रोकके फुलवा दने मोड़ देलक हल । पानी से सराबोर होके छिहुल के भाग उठल हल फुलवा । फिनो बनावटी क्रोध देखाके खिसिआयल आउ मुँहजरा, पगजरौना आदि पेआर भरल कुछ गारी सुनौलक ।) (सोरही॰14.10)
480 मूड़ी ("जी ऊ त अनमुनाहे घर से जे निकललन हे से अबले कहाँ अयलन हे ।" राम सरन बाबू के मेहरी दाल छौंकइत कहलन । फिन ललाइन मामा दने मूड़ी घुमा के पुछलन, "आझो बड़की पुतोह कुछ बोललन हे का ?"; विचार मन में कइलक कि चार सौ रुपया सेठ जी से कौनो बहाना से माँग लूँ तो घरवाली के कनबाली आउ साड़ी-साया भी हो जाय । मुदा बड़का आदमी से कुछ माँगे के पहले मन, मिजाज आउ रुख गमल जाहे । सोचलक कि साँझ पहरा सेठ जी गद्दी से उठके घर जाय लगतन तब मूड़ी झुकाके उनका पिछुआयम । अपने पुछतन कि हमरा पाछु काहे चलल आवऽ हें, तब बकार निकासम ।; 'सुतवे कइली हल कि काली माई अपन जीभ लपलपावइत हाथ में लमहर तेगा लेले पहुँचला आउ खिसियाके कहला - खा हें ई सभे लिट्टी कि तोहर मूड़ी काट देईं ?'; जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।) (सोरही॰28.16; 41.14; 45.9; 58.14)
481 मेमिअइनी (लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे ।) (सोरही॰57.12)
482 मेहरी (ओती घड़ी राम सरन बाबू घर पर नञ हलन । उनकर मेहरी चुल्हा-चउका में बझल हलन । ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन ।) (सोरही॰28.7)
483 मोछकबरी (लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे । मोछकबरी एगो गइया हे, जे पहर भर से पोंछ झार रहल हे । मन करऽ हे, एही भोर में सुखले बढ़नी से परीछ दीं ।) (सोरही॰57.12)
484 मोटगर (फुलवा के अन्दर के बिगड़ल भूख जाग उठल हल न का ? ई से रोज ऊ केबिन पर आवऽ हल । ऊ दिन भी आयल हल आउ निचलका चहबच्चा पर बइठ के लुआ खंघारइत हल । हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन । ओकरा में से एगो लइका पम्प के मोटगर जलधारा के हाथ से रोकके फुलवा दने मोड़ देलक हल ।) (सोरही॰14.8)
485 मोटाना (कमनिस्टवन ठीके कहऽ हलइ कि सेठ समाज के जोंक होवऽ हे । दोसर के खून पी-पीके मोटाऽ हे । अच्छा तो हमर नाम मंगरु याद करतन ।) (सोरही॰42.17)
486 रकसिनियाँ (जहिया से ई नटिनियाँ आयल हे हमरा जीना मोहाल कर देलक हे । देखऽ न, आझ फिर मारकवऽ हे । हमरा तो अइसन बुझा हे अबकी ई हमरा जान लेके इहाँ से निकलतो । कै तुरी लड़का के कहली कि ई रकसिनियाँ के लेले जो लेकिन ऊहो हमर बात के ई कान से सुनके ऊ कान से निकाल देलक ।) (सोरही॰28.21)
487 रखना-उखना (मंगरु - अच्छा तो धरती में गड़के कुछ रखलऽ-उखलऽ हे तो निकालऽ या माय-बाप चुप्पे-चोरी कुछ देलथुन होत तो सही सही बतावऽ ।/ बुधिया - जा जा, अप्पन काम पर जा, तोहरा से बात के बतंगड़ के करे ? का तो हम धरती में गड़ली हे रुपिया-पइसा । गोइठा-उइठा ला भी दस-बीस पइसा माँगऽ हियो सेकरो हिसाब तों लेइए ले हऽ ।) (सोरही॰39.22)
488 रड़खेपा ("कोई कइसे मर जा हइ दीदी, भगवान हमनियों के धरती पर से उठा लेतन हल । ई रड़खेपा खेपे ला काहे रखले हऽ भगवान ?" कहते-कहते रमिया के आँख डबडबा गेल ।; रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक । अइसहीं तीन-चार दफे फेंकलक आउ ओकर नस तीर लेलक । कइसहूँ कुहुँर के बोलल - "अच्छा हो दीदी, इहईं मर जइयो तो ठीक हो । रड़खेपा के जिनगी से मरके भगवान हीं चल जाईं तो एकरा से बढ़के आउ का चाही ?") (सोरही॰34.8; 35.14)
489 रड़घौंज (= रड़घौंजी) (अब ओकर मुरझायल मुँह खिल उठल आउ बोलल - "पाँच एकड़ से कम वला किसान के तो बिहार सरकार मालगुजारी माफ कर देलक हे । हमरा तो पाँच कट्ठा भी जमीन न हे । अपने केतना मालगुजारी माफ कर रहली हे ।" - "एही न रड़घौंज करे लगलँऽ । अभी तोर गोटी लाल न होलउ हे । माफ-साफ के बात का करऽ हँ । दस दिन तक कोई सूद न लेबउ ।" वैदजी ई कहके अप्पन घर चल गेलन ।) (सोरही॰11.18)
490 रसगर (~ बात; ~ नींद) (कारा के रसगर बात से मोहरी के ओठ विहँसल मुदा तुरते मलीन हो गेल । धीरे से बोलल, "हमरा से नञ ..." - "काहे ?" -"हमरा ... हमर बतिया समझहो काहे नञ ? हमरा से नञ होतो ।" - "आखिर बात की हे ? जरी सुनिअइ तो ... ।" - "तों गँवारे रह गेलऽ । तोरा की फिकिर हे । सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।"; हम तो सूते के मातर स्वर्ग में पहुँच गेली आउ ऊहाँ नन्दन वन में कल्पतरु के छाँह में बइठवे कइली हल कि लालपरी आउ नीलपरी के साथे रंभा, मेनका आउ उर्वशी आके लगला हमरा गोड़ दबावे । हमरा कुछ देर तक आँख फटल के फटले रह गेल बाकि फिनु तो खूबे रसगर नींद आयल । अच्छा तू का देखलऽ ?) (सोरही॰1.17; 45.2)
491 रहनइ ("अरे हाँ, तोरा तो कालू के माय कड़र चीज से परहेज बतइलकउ हल ।" कारा आँटा सननञ छोड़के कहलक, "तोरा एजा रहनइ ठीक नञ हउ रात के एतना ठंढ हे । गाम पर के बात दोसर हल । एक बीघा खेत मिलल । अभी कब्जा भी नञ होल कि दोसर गाम बसावे पड़ल आउ गउँढ़ा के दस कट्ठा जागीर भी हाथ से निकल गेल ।") (सोरही॰2.12)
492 राँड़ी (फिन ललाइन मामा दने मूड़ी घुमा के पुछलन, "आझो बड़की पुतोह कुछ बोललन हे का ?" - "हाँ कनेआ, ओही रोज-रोज के राँड़ी बेटमारी आउ का होतवऽ ।" कहइत-कहइत ललाइन मामा के गेआरी भर आयल ।) (सोरही॰28.17)
493 रास (= किसी वस्तु की गिनती का संकेत शब्द, प्रकार, भेद, यथा: पाँच रास मिठाई) (जेवनार पर बइठल लोग के सातो रास परसायल । लोग सराह-सराह के खयलन । चूड़ा-दही के बाद रंक के भी पूआ परोसल गेल ।) (सोरही॰17.27)
494 रुन्हल ("हम्मर माय दवाखाना में पैदल आवे जुकुर न हइ । टाँग-टूँग के लावे में टें बोले के डर हे । दरजनो कै-दस्त होवे से ओकर हाथ-गोड़ ऐंठ रहल हे । एही से घर चलके इलाज करे ला कह रहली हे ।" राधे रुन्हल कंठ से बोलल आउ अप्पन आँख के लोर धोती के कोर से पोछे लगल ।) (सोरही॰10.11)
495 रुपिया (बुधिया - तोहरा बनावे के मन हइए ना हो तो बेकारे पूछऽ ह ।/ मंगरु - जानिअइ भी ? कहीं जोखा लग जाय, जोगाड़ हो जाय रुपइया के, तो काहे न बन जा सकऽ हो ।/ बुधिया - पान कहलथिन हल कि बारह अन्ना भर हइ आउ तीन सो आउ तीन बीस रुपिया खरच बइठलइ हे ।) (सोरही॰40.13)
496 रुपिया-पइसा (मंगरु - अच्छा तो धरती में गड़के कुछ रखलऽ-उखलऽ हे तो निकालऽ या माय-बाप चुप्पे-चोरी कुछ देलथुन होत तो सही सही बतावऽ ।/ बुधिया - जा जा, अप्पन काम पर जा, तोहरा से बात के बतंगड़ के करे ? का तो हम धरती में गड़ली हे रुपिया-पइसा । गोइठा-उइठा ला भी दस-बीस पइसा माँगऽ हियो सेकरो हिसाब तों लेइए ले हऽ ।) (सोरही॰40.1)
497 रुसना (= रूठना) (मन में एगो अजगुत डर समायल हल । उनकर हालत ऊ हदसल चिरईं नियन भेल हल, जे शिकारी के जाल में फँसल मौत के राह देखइत हो । ऊ रात ललाइन मामा के आँख में नीन नञ आयल मानो तकदीर जोरे नीनो हुनका से रुस गेल होय । रात भर ऊ उखीबिखी रहलन ।) (सोरही॰30.17)
498 रुसल (सरिता बहरसी चल अइलइ, तब से मेहमान रुसल हथिन । कहऽ हथिन कि जब ला सरिता के रंग नऽ लगइबइन तब ला नऽ तो हम खाम आउ नऽ पीअम ।) (सोरही॰51.22)
499 रेयान (ललाइन मामा के लड़ाई-झगड़ा के जिनगी तनिको पसन्द न हे । उनकर समझ से जउन घर में ई सब नटलीला होवऽ हे, ऊ घर के लोग रेयान से भी गेल-गुजरल होवऽ हथ । इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ ।) (सोरही॰25.17)
500 रोवा-कानी (उनका गिरते देखके तीनो पुतोह तीन दने से हाय-हाय करते दउड़ पड़लन । ललाइन मामा बधोस हलन । टाँग-टूँग के उनका अँगना में खटिया पर सुतावल गेल आउ होश में लावे के उपाय कइल गेल । एने घर में रोवा-कानी शुरू हो गेल ।) (सोरही॰30.24)
501 रोसगदी (= रोसकद्दी, रुखसत) (रमिया के मन करऽ हल कि ऊ अजोधेया के झूला पर भगवान के दरसन करइत । इनसाल ओकर फूआ दीदी उहाँ जा हलथिन । ई से ओहू अपन घर के मालिक के पुछलक बाकि ओकरा औडर न मिलल । हिन्दू के घर में राँड़ मेहरारु के कउन हालत होहे, का ई केकरो से छिपल हे ? हे भगवान, हमरा काहे ला जीअवले हऽ । एगो बेटा हल, ओकरा बिआह देवे कइली, रोसगदी होइए गेलइ । अब हमरो उठा लऽ ।) (सोरही॰34.25)
502 लंगट-बोकारी (ऊ टुभकल - "का तोरा से हम करजा लेली हल जेकर सूद खोजऽ हू ?" वैदजी के गोस्सा सतमा असमान छू लेलक - "बोकारो से अइलऽ हँ तो लंगट-बोकारी मत कर । हम तोर माय के जान बचैली हे । एक सौ रुपया आउ लेबउ ।") (सोरही॰12.9)
503 लगबहिए (मानसी के माथा लजाके नेंव गेल आउ सलीमा लगबहिए कहते गेल - "अकबरो भारत के अपने देस मानऽ हथ आउ राना परताप ला तो देस से बढ़के कुछो हइये नऽ हे । बाकि का ऊ दुनो एक साथे हिरदा के अवाज सुनलन हे ?"; मुदइया फिन ई बढ़नी उगल । बाप रे, न जानी ई साल का होयत । लगऽ हे फिन ई साल बरसा न होयत । फसल मारल जायत । अकाल पड़त । तेरुसे लगबहिए हप्ता भर एही पुरुवी छितान पर बढ़निया उगते रहल हल - एही ढंग से । घुरियो मारे ला बरसा न होयल ।; तनी रहे त तनी, एकबारगी तीन-तीन भात । एक भात मतलब दू मन चाउर । कहाँ तक करेजा बाँधूँ । केतना आरजू-मिनती कइलूँ कि ई राँड़ बेवा पर किरपा करऽ ऐ पंच-परमेश्वर लोग, एक भात पर मान जा । बाकि के मानऽ हे । त, तीनो भात एक्के साथ, जाने केतना हथजोड़िया पर मानलन कि तीन भात तीन साल में, बाकि लगबहिए ।) (सोरही॰49.9; 57.3; 59.6)
504 लटपट (नवल किशोर ईमानदार किरानी हलन - न ऊधो के लेना न माधव के देना - हरहर-पटपट से दूर । टेम से दफ्तर जाना, टेम से डेरा आना, कउनो तरह के लटपट में शरीक न होना । दफ्तर के अफसर लोग इन्हका बेवकूफ समझऽ हलन आउ कहऽ हलन ई ढेर जिद्दी हथ ।) (सोरही॰7.10)
505 लड़कन-फड़कन (नवल किशोर फेरु अरज कइलन - कउनो राह बतलाहू भोले बाबा, कइसे हमनी के काम चलत, कइसे सुविधा मिलत, कइसे लड़कन-फड़कन के परवरिश चलत, कइसे बेईमान लोगन के मुँह में करिखा लगत, कइसे ईमानदारी जीतत, कइसे मेहनत के मीठा फल भेंटत !) (सोरही॰9.20)
506 लपकना (एतने में कलुआ माय बोलल - "कारा ! कारा ! रे कारा !!!" - "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।" - "अच्छा तुरते ।" एतना कहके कारा डीह दने सोझिया गेल । कलुआ माय फेन कहलक, "अरे कलुओ के साथे ले ले ।" लपक के कारा कलुआ के जगइलक ।; ओकर शरीर सिहरे लगल । रोमाँ रोमाँ तक कपे लगल । ओकर नजर आग पर गेल, जेजा लिट्टी लगल हल । ओकरा ठंढ से बचे के चाही । लपक के आग तर गेल । देखलक कि लिट्टियन सब जर गेल हल ।) (सोरही॰3.22; 5.18)
507 लफार (पुरवा के लफार तेज हे । आलस से देह कसमसा रहल हे । मन करऽ हे, एक नीन्द आउ हो जाय । लेकिन ई मुदइया बढ़नी साहिल के काँटा के माफिक मन में बइठ गेल हे, जे रह-रह के डँस रहल हे । न जानी ई साल केकरा बहार के ले जायत ।) (सोरही॰57.20)
508 लबनी (लेकिन चहल-पहल में भी कलुवा धलुवा दूनो सवाँग के अप्पन लिटिए सिझावे के फिकिर रहल । तीन दिन से ऊ दूनो भूखल हल । मजूरी तो कइलक हल पर ऊहाँ खाली नस्ते भर मिलल हल । आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल ।) (सोरही॰44.8)
509 लमछड़ (= लमगर; लम्बा) (हम्मर जे नैनाकाजर हथिन न, उनका हीं हम आझ गेलियो हल । पान के दुलहवा कलकत्ता में मटर हाँकऽ हथिन । उनका तूँ देखवे कैलहो हे, गोर-गोर लमछड़ करिया-करिया कड़ा-कड़ा मोछवाला । कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे ।) (सोरही॰39.6)
510 लमहर (आग के धुइयाँ खतम हो गेल हल । आग के लमहर-लमहर सीक लहलहा रहल हल । मोहरी गोड़ पसारे लगल तो लोटा भी लोघड़ा गेल आउ पानी गिरे लगल ।; 'अच्छा तू का देखलऽ ?' / 'हम का फरिअइयो' - बाबू साहेब जवाब देलन - 'हम तो लमहर फेरा में पड़ गेलियो । नरको में चल जइती तो बेस हल ।'; 'सुतवे कइली हल कि काली माई अपन जीभ लपलपावइत हाथ में लमहर तेगा लेले पहुँचला आउ खिसियाके कहला - खा हें ई सभे लिट्टी कि तोहर मूड़ी काट देईं ?') (सोरही॰1.4; 45.4, 7)
511 लम्मा (= लम्बा) (आउ ऊ गोस्सा से तमतमायल लम्मा लम्मा डेग लफावइत चल पड़लन सरन बाबू के घर, इंसाफ खातिर । राम सरन बाबू गाँव के नामी-गिरामी आदमी हथ, मान-मरजादा, धन आउ सोहरत में ढेर आगे बढ़ल । मुखिया न मुदा तइयो गाँव के लोग उनका से इंसाफ करावऽ हथ ।) (सोरही॰28.2)
512 ललसा (= लालसा) (हम अइसन नेवता ला तइयार न हली बाकि हमरा मन में लेखक बने के ललसा बड़ी दिन से जमल हल । कोरसिस कइला पर भी कोई रचना छपल न हल । हम तुरते नस्ता के साथे चाह ला औडर देली आउ पतरिका के नाम, ओकर लगाव, बिकरी, आदि के बढ़िया उत्तर पाके उनका बिहने भेला अपना घर आवे ला नेवता दे देली ।) (सोरही॰32.7)
513 लहकना (ई गीत के सुर इधर लहसल कि उधर अलेल्हा आग भी लहक के धधक उठल । टील्हा भिजुन के सभे लोग आग तापे लागि जुट गेलन ।) (सोरही॰43.4)
514 लहकल (अपन बिआह के बाजा-गाजा, मड़वा के चहल-पहल आउ सोहाग के कोहबर सभे सिनेमा के तरह उनकर दिमाग के परदा पर आवे जाय लगल । लहकल आग के बुतावे ला पानी देवे जइसन ऊ अपन बात के आगे बढ़ौलन - "इनसाल सावन में हम अजोधेया जी जा हियो कनेवाँ, चले ला होतो तो कहिहऽ ।") (सोरही॰34.13)
515 लहसना (= इतराना, इठलाना; अपनी जिद पर अड़ना; कहा नहीं सुनना) (ई गीत के सुर इधर लहसल कि उधर अलेल्हा आग भी लहक के धधक उठल । टील्हा भिजुन के सभे लोग आग तापे लागि जुट गेलन ।) (सोरही॰43.4)
516 लागि (= लागी, लगी; के लिए) (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।"; लेकिन जब ललाइन मामा के देह थक गेल, उनका से काम-धन्धा नञ सपरे लगल त सुग्गी के खेयाल भी उनकर मन से उतर गेल । कोय-कोय दिन सुग्गी के अन्न-जल से भी भेंट नञ होवे । ई सेती जब राम सरन बाबू के छोटकी बेटी सुग्गी लागि जिद करे लगल त ऊ ओकरा दे देलन हल । रात में छोटकी पुतोह के बहुत कहे-सुने पर जब ललाइन मामा खाय लागि बइठलन त अन्न-जल न ढुकल ।) (सोरही॰25.10; 30.10, 12)
517 लाठा-कुड़ी (चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो । बोकारो में दूर-दराज के ढेर लोग ईंटा के चिमनी भट्ठा में काम कर रहलन हल । राधे भी ईंटपारा बन गेल । लाठा-कुड़ी चलावे से कोई मतलब न, रूखा-सूखा दस रुपए हजार ।) (सोरही॰11.27)
518 लार-पोआर ("हमर माय मरल जाहे, चलके देख ल वैद जी" - अप्पन दुनू हाथ जोड़के राधे सिसके लगल । ... वैद जी छो-पाँच में पड़ गेलन । राधे बड़ी देर से अरदसिया लगइले हल । ओकर उखी-बिखी देखके ऊ कहलन - "तू आगु चल । हम साइकिल से आ रहली हे ।" वैद जी के अइते-अइते रोगी लार-पोआर हो गेल ।) (सोरही॰10.15)
519 लास-फास (राधे के आँख तर अन्हार छा गेल । ऊ हिसाब करके बोलल - "हमरा रुपइया के मोह न हे, तू इलाज करऽ । देह-समांग रहतो तो पाई-पाई चुकता कर देवो ।" "उधार इलाज करे में हमरा संस-बरक्कत न मिलऽ हे । दवा खरीदे में पूँजी लगऽ हे । रोग दूर हो गेला पर लोग साँझ-बिहान करे लगऽ हथ । जेकर टेंट में पइसा न हे ओकरा से हम लास-फास न रखऽ ही ।") (सोरही॰11.1)
520 लुआ (= लुग्गा) (फुलवा के अन्दर के बिगड़ल भूख जाग उठल हल न का ? ई से रोज ऊ केबिन पर आवऽ हल । ऊ दिन भी आयल हल आउ निचलका चहबच्चा पर बइठ के लुआ खंघारइत हल । हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन ।) (सोरही॰14.6)
521 लूगा (गरीब के गाय आउ गरीब के धरम ला कहाँ भेस धरइत ह रामजी ? द्रौपती के लाज ला बहत्तर गज लूगा भेजवलऽ, हमनी गरीब के भात के पाँक से उबारऽ ए किरपानिधान !) (सोरही॰60.1)
522 लूर (वैदजी के गोस्सा सतमा असमान छू लेलक - "बोकारो से अइलऽ हँ तो लंगट-बोकारी मत कर । हम तोर माय के जान बचैली हे । एक सौ रुपया आउ लेबउ ।" "जादे नींबू मले से तीता हो जाहे । तू हम्मर माय के जान बचइलऽ हे तो का हम्मर जान ले लेवऽ ?" राधे जिरह कइलक - "तू तो हम्मर माय के देह पर अप्पन हाथ साफ कइलऽ हे । तोरा तो निमन से पानी चढ़ावे के भी लूर न हो ।") (सोरही॰12.12)
523 लूर-लच्छन (शिल्प के नवप्रयोग के ललक, अन्तर्गूढ़ता, कथानक के ह्रास, ... आत्मान्वेषण आउ जटिल परिवेश के विडम्बना के पकड़, कुल मिलाके नया जीवन मूल्य या मानव मूल्य के स्थापना लागि प्रयास, आझ के कहानी के लूर-लच्छन यही सभे तो हथ । आउ ई सेंगरन ई सभे लूर-लच्छन से सेंगरल-सँवरल हे ।) (सोरही॰iii.11, 12)
524 लोराना (आँख ~) (कचोटे ओला ई बात सुनके कउनो अदमी के हिरदा में घाव हो सकऽ हे, लेकिन ललाइन मामा कुछ न बोललन । चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल गेलन । उनकर आँख लोरा गेल हल ।) (सोरही॰25.12)
525 लोरायल (ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन । ललाइन मामा मचिया पर बइठ गेलन । उनकर देह अभियो काँपइत हल ठूँठ दरखत नियन । राम सरन बाबू के मेहरी गोड़ लगला के बाद हाल-चाल पूछे लगलन । फिन उनकर चेहरा पर छायल उदासी आउ लोरायल आँख देखके ऊ सब बात समझ गेलन ।) (सोरही॰28.11)
526 विंडोबा (ओती घड़ी ऊ अपन पीछे के पूरा जिनगी भूल गेलन । लेकिन छने भर बाद बड़की पुतोह के तमतमाएल चेहरा उनकर आँख के सामने जोड़ से घुम गेल विंडोबा नियन ... एकदम डराउना । ऊ उठे ला चाहलन तो देह काँप गेल ।) (सोरही॰29.8)
527 शुक्कर (= शुक्र ग्रह या दिन) (लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे ।) (सोरही॰57.10)
528 सँहसता (= सस्ता) (छव-छव गो बच्चा के फौज लेके चलल का एतना आसान हे ? आउ इस्कूलो में पढ़ाई एतना सँहसता हे का ? मोना, उहाँ हम दफ्तर में मरऽ ही आ इहाँ अफसोस में तूँ मरऽ हऽ ।) (सोरही॰56.19)
529 संस-बरक्कत (राधे के आँख तर अन्हार छा गेल । ऊ हिसाब करके बोलल - "हमरा रुपइया के मोह न हे, तू इलाज करऽ । देह-समांग रहतो तो पाई-पाई चुकता कर देवो ।" "उधार इलाज करे में हमरा संस-बरक्कत न मिलऽ हे । दवा खरीदे में पूँजी लगऽ हे । रोग दूर हो गेला पर लोग साँझ-बिहान करे लगऽ हथ ।) (सोरही॰10.25)
530 सउँसे (नवल किशोर कहइत हलन - एगो चिनगारी सउँसे मकान के जराके खाक कर सकऽ हे तो एगो अमदी का कम ताकत रखइत हे ? सउँसे टाटानगर एगो जमशेद जी टाटा के दिमाग के उपज हे, ई सधारन बात हे की !) (सोरही॰7.23, 24)
531 सकड़ियाल (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।") (सोरही॰11.2)
532 सगरो (खेत में न तो मजूर के काम मिले लगल, न घर में भीख । अप्पन जान केकरा पिआरा न होवऽ हे । चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो ।) (सोरही॰11.26)
533 सटले (फुलवा के घर कौलेज होस्टल के सटले केबिन भिजुन नौरंग के बनवावल सब सुख-सुविधा से भरल-पूरल हल ।) (सोरही॰14.2)
534 सटिफिकिट (= साटिकफिटिक; सर्टिफिकेट) (उनकर मेहनत आउ अपन लगन से कुछे दिन में सुग्गी पड़िआइन हो गेल हल, सब बात सीख लेलक हल । फिन तो गाँव-जेवार में ललाइन मामा के सुग्गी के नाम ओइसहीं खिल गेल जइसे मैदान में जितल कोय नेता के नाम खिल जा हे । फिन का हल, गाँव के केतनन सुग्गा-सुग्गी ओकर नकल करके बिना सटिफिकिट के बोलना सीख गेलन ।) (सोरही॰30.7)
535 सत-गत (छकौड़ी हलन तो अमीर बाकि जमीनदारी जाय के बाद उनकर हालत पातर हो गेल हल । बहिन के बिआह में बाप के अरजल आठ बिगहा टाँड़ साफ हो गेल हल । सालो न लगल हल कि माय चल बसलन । लोग जुटके सलाह देलन - लाश के सत-गत गंगा में होयत ।) (सोरही॰17.4)
536 सननञ (= सननई, सननईं; सानने की क्रिया) ("अरे हाँ, तोरा तो कालू के माय कड़र चीज से परहेज बतइलकउ हल ।" कारा आँटा सननञ छोड़के कहलक, "तोरा एजा रहनइ ठीक नञ हउ रात के एतना ठंढ हे । गाम पर के बात दोसर हल । एक बीघा खेत मिलल । अभी कब्जा भी नञ होल कि दोसर गाम बसावे पड़ल आउ गउँढ़ा के दस कट्ठा जागीर भी हाथ से निकल गेल ।") (सोरही॰2.12)
537 सपरना (= ओरियाना, पार लगना, सँभलना) (फिन तो गाँव-जेवार में ललाइन मामा के सुग्गी के नाम ओइसहीं खिल गेल जइसे मैदान में जितल कोय नेता के नाम खिल जा हे । फिन का हल, गाँव के केतनन सुग्गा-सुग्गी ओकर नकल करके बिना सटिफिकिट के बोलना सीख गेलन । लेकिन जब ललाइन मामा के देह थक गेल, उनका से काम-धन्धा नञ सपरे लगल त सुग्गी के खेयाल भी उनकर मन से उतर गेल ।) (सोरही॰30.8)
538 सबेरहीं (= जल्दी ही) (ऊ थकके चूर हल तइयो अपन अवाज के कोसिस भर नरम बनाके बोलल - का बात हे ? लाइन कट गेल हे का ? कखनी से ? ढेर देरी से ? आउ लइकन आझ बड़ा सबेरहीं सुत गेलन सब ! देखऽ न, आझ आफिसे में तनी देर हो गेल । का करी, ई मार्च के महीना - अइसन जनमरु हे कि ... ।) (सोरही॰56.1)
539 समदना (दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक । कारा तुरते सब हाल बता देलक । कारा के ओजय बइठा के सोहरा भीतर दने गेल अउ माय के सब बात समद देलक ।) (सोरही॰4.4)
540 सम्हारना ("तों गँवारे रह गेलऽ । तोरा की फिकिर हे । सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।" उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ ।") (सोरही॰2.2)
541 सम्हारल (इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ । डर के नञ बलुक अपन जिनगी भर के बटोरके सम्हारल मान-मरजादा बचावे खातिर ।) (सोरही॰25.20)
542 सरियत (निमक के ~ रखना) (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।") (सोरही॰11.4)
543 सवासिन (घर में लोग नरेन्दर के बात सुन-सुन के अलगे गड़ल हथ । गाँव के सवासिन सब कहे लगलथिन कि उनका अइसन बात नऽ कहे के चहतिअइन हल । ई कउनो नया बात थोड़े हे ? ससुरार में धी-दमाद हँसी-मजाक करवे करऽ हथ ।) (सोरही॰53.4-5)
544 ससुरा (= ससुरार) (खेत में न तो मजूर के काम मिले लगल, न घर में भीख । अप्पन जान केकरा पिआरा न होवऽ हे । चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो ।) (सोरही॰11.25)
545 साँझ-बिहान (~ करना) (राधे के आँख तर अन्हार छा गेल । ऊ हिसाब करके बोलल - "हमरा रुपइया के मोह न हे, तू इलाज करऽ । देह-समांग रहतो तो पाई-पाई चुकता कर देवो ।" "उधार इलाज करे में हमरा संस-बरक्कत न मिलऽ हे । दवा खरीदे में पूँजी लगऽ हे । रोग दूर हो गेला पर लोग साँझ-बिहान करे लगऽ हथ ।") (सोरही॰10.26)
546 सिझाना (गोबिन भगत ई सुनते थिरके लगलन आउ उनकर मोट देह आउ भुसुंड तोंद के नाचल देखके सभे लोग ताली पीटे लगलन - 'वाह भगत जी ! वाह ! वाह !' लेकिन चहल-पहल में भी कलुवा धलुवा दूनो सवाँग के अप्पन लिटिए सिझावे के फिकिर रहल । तीन दिन से ऊ दूनो भूखल हल ।) (सोरही॰44.5)
547 सिहरी (~ फटना) (सूई भोंक के पइसा कमाये में ऊ बहादुर हो गेलन हल मगर नस में पानी चढ़ावे में सिहरी न फटल हल । ऊ रोगी के देह में कई मराती सूई भोंकलन । जब सूई नस में घुसल तो उ अप्पन भाग के सराहे लगलन ।) (सोरही॰11.7)
548 सीक (आग के धुइयाँ खतम हो गेल हल । आग के लमहर-लमहर सीक लहलहा रहल हल । मोहरी गोड़ पसारे लगल तो लोटा भी लोघड़ा गेल आउ पानी गिरे लगल ।) (सोरही॰1.4)
549 सीधा-बारी (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । दसकरम के दिन कंटाह के कंठ में दूध अँटकल तो बिना पचीस रुपया के पारे न होयल । सीधा-बारी कुल मिलाके काफी हो गेल । माथा मुड़यला के बाद छकौड़ी के भार कम हो गेल ।) (सोरही॰17.23)
550 सुन्नर (लछमिनियाँ कलुआ के औरत तो हइए हल बाकि जुम्मन के चहेती भी हल । बड़ी चालबाज, बड़ी सुन्नर आउ सहजे मोह लेवे ओला जुवानी से भरल हल ।; कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे । बड़ सुन्नर हइ, देखते बनऽ हइ । हमरा तो टकटक्की लग गेलो । अइसन चमकऽ हइ कि लगऽ हइ किरिंग फूटऽ हइ । हम कहलियन पान के कि जिरी पहिनके देखाहो तो । पहिन लेलथिन तो उड़ चललथिन । अपछरा अइसन लगे लगलथिन ।) (सोरही॰15.18; 39.8)
551 सुन्ना (= सुन्न; शून्य) (ऊ उठे ला चाहलन तो देह काँप गेल । अइसन बुझायल, मानो देह में एको ठोप खून न हो ... देह के सभे अंग सुन्ना पड़ गेल होय ... एकदम मुरदा ! बड़ी जतन से ऊ उठके खड़ा भेलन त देह के पोरे-पोर झनझना उठल कमजोरी से !) (सोरही॰29.10)
552 सुरुम (= शुरू) (बोलल - अगिला मोड़ पर उनकर आपिस हे, बड़ा अच्छा अदमी हथ । काम आगे बढ़ल हे । तीन दिन में उनकर शूटिंग सुरुम हो जायत ।) (सोरही॰33.20)
553 सेंगरन (ई सेंगरन ई सभे लूर-लच्छन से सेंगरल-सँवरल हे ।) (सोरही॰iii.12)
554 सेंगरल-सँवरल (ई सेंगरन ई सभे लूर-लच्छन से सेंगरल-सँवरल हे ।) (सोरही॰iii.12)
555 सेजियादान (सालो न लगल हल कि माय चल बसलन । लोग जुटके सलाह देलन - लाश के सत-गत गंगा में होयत । ... दुधमुहीं के बाद दलान पर लोग जुटलन - विचार भेल काम के ऊपर । कुछ लोग कहलन - काम कइसनो होय सेजियादान जरूर होय के चाही । सुते ला परानी के सेज न मिलल तो का मिलल ।; सेजियादान के साथ साँढ़-साँढ़नी पंचपात्र के भी प्रबन्ध होयल ।) (सोरही॰17.14, 16)
556 सेती (ललाइन मामा के लड़ाई-झगड़ा के जिनगी तनिको पसन्द न हे । उनकर समझ से जउन घर में ई सब नटलीला होवऽ हे, ऊ घर के लोग रेयान से भी गेल-गुजरल होवऽ हथ । इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ ।; बात बरदास से बाहर हो गेला पर जब हम कुछ बोलऽ ही त मारे दउड़ऽ हउ । पुतोह ढुकावऽ हे लोग बुढ़ारी में सेवा करावे लागी न कि मार खाय ला । आते के साथ घर पर अधिकार अलगे जमा ले हउ, ई सेती हमरा सुते पड़े के भारी तकलीफ हो जाहे ।) (सोरही॰25.18; 27.14)
557 सोंधय (= सोन्हई) (मोहरी हौले से कँहड़े लगल । कारा उठके थरिया तर चल गेल । बगले में मोहरी हल । कारा बोले लगल - "माघ के ठंढ हे । तों भितरे में रहतें हल । अइला पर देखल जात हल । तोरे तो सोंधय लगलउ हल । भला दिन भर से भूखल हूँ ... ।") (सोरही॰2.9)
558 सोझियाना (एतने में कलुआ माय बोलल - "कारा ! कारा ! रे कारा !!!" - "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।" - "अच्छा तुरते ।" एतना कहके कारा डीह दने सोझिया गेल ।) (सोरही॰3.21)
559 सोहराय (= कार्तिक के पहले पक्ष की अवधि जिसकी अन्तिम दो रातों में दीपावली का पर्व मनाते हैं; कार्तिक अमावस्या की रात जिस समय लक्ष्मी की पूजा के साथ-साथ बड़ी दीपावली मनाई जाती है) ("जीतन माय, तों बुरबक अइसन काहे बोलो हा । आज सोहराय हे । एहमें लक्ष्मी घर आवो हथ, आउ आज अपन लक्ष्मी के बाहर कइसे निकले देय ।"; तहिया सोहराय हल । समूचे गाम दीया के लौ में जगमगा रहल हल । मगर एक घर अइसन भी हल, जेहमें अन्हार कहाकूप के राज हल । तहिये भोर पहर समूचे गाम के गली-गली से अवाज आ रहल हल - "सुख सोहराय सुख सोहराय । लक्ष्मी भीतर दरिदर बहार ॥" आउ जीतन के माय रो रहली हल गिर-बजर के जार-बेजार । तहिया सोहराय हल ।) (सोरही॰22.11; 24.9, 11, 14)
560 हथजोड़िया (तनी रहे त तनी, एकबारगी तीन-तीन भात । एक भात मतलब दू मन चाउर । कहाँ तक करेजा बाँधूँ । केतना आरजू-मिनती कइलूँ कि ई राँड़ बेवा पर किरपा करऽ ऐ पंच-परमेश्वर लोग, एक भात पर मान जा । बाकि के मानऽ हे । त, तीनो भात एक्के साथ, जाने केतना हथजोड़िया पर मानलन कि तीन भात तीन साल में, बाकि लगबहिए ।) (सोरही॰59.5)
561 हदसल (= भयभीत) (मन में एगो अजगुत डर समायल हल । उनकर हालत ऊ हदसल चिरईं नियन भेल हल, जे शिकारी के जाल में फँसल मौत के राह देखइत हो । ऊ रात ललाइन मामा के आँख में नीन नञ आयल मानो तकदीर जोरे नीनो हुनका से रुस गेल होय । रात भर ऊ उखीबिखी रहलन ।) (सोरही॰30.15)
562 हबर-दबर (कारा झोपड़ी के दुआरे पर से घूर गेल आउ लिट्टी लगावे लगल । कारा हबर-दबर में लिट्टी सजा देलक आग पर । एतने में कलुआ माय बोलल - "कारा ! कारा ! रे कारा !!!" - "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।") (सोरही॰3.16)
563 हर (= हल) (रे सार ! तोहनी भागऽ हँऽ कि हरा से हुरपेटिअउ ? ई सभे साला कौलेज में का गेल कि लगल हमनीए के बुरबक बनाके लड़ावे ।) (सोरही॰45.26)
564 हरजन (= हरिजन) (मोहरी हाथ के भार से उठते उपहास अइसन बोलल, "भला गरीब के असलियत के पहिचानऽ हे । हरजनमो में तो उँच-नीच हो गेल ।" धीरे-धीरे मोहरी झोपड़ी में चल गेल ।) (सोरही॰2.17)
565 हरवाही (जोड़-जाड़ के खरचा पूरे पनरह सौ होयल । सुनके होश गुम हो गेल छकौड़ी के । ... पंचाइत बइठल । लोग दाम लगवलन दस सौ । पाँच सौ के आउ बारी हल । अब छकौड़ी कहाँ से देथ । बामा हाथ के अँगूठा के निशान लेल गेल आउ जिनगी भर के हरवाही लिखा के छकौड़ी बरी हो गेलन ।) (सोरही॰18.23)
566 हरहर-पटपट (नवल किशोर ईमानदार किरानी हलन - न ऊधो के लेना न माधव के देना - हरहर-पटपट से दूर । टेम से दफ्तर जाना, टेम से डेरा आना, कउनो तरह के लटपट में शरीक न होना । दफ्तर के अफसर लोग इन्हका बेवकूफ समझऽ हलन आउ कहऽ हलन ई ढेर जिद्दी हथ ।) (सोरही॰7.9)
567 हलुमान (= हनुमान) (नवल किशोर पहिले हलुमान चालीसा के पाठ करइत हलन, रमायन पढ़इत हलन बाकि जब से पंडित जी शिव बाबा के महिमा बतइलन तब से ई शिव बाबा के पुजेरी बन गेलन हल ।) (सोरही॰7.15)
568 हाथ-गोड़ (~ चलाना) (खेत में न तो मजूर के काम मिले लगल, न घर में भीख । अप्पन जान केकरा पिआरा न होवऽ हे । चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो ।) (सोरही॰11.25)
569 हालीसुन (= हाली + सुन/ सन) (चहुतरफा अन्हेरा छा गेल आउ ऊ अन्हेरिया में ललाइन मामा के लौकल जइसे धरती फट गेल हे आउ ऊ धीरे-धीरे ओकरा में समा रहलन हे सीता मइया नियन । ऊ हालीसुन अँचरा के कोर से अपन दुनो आँख पोछ लेलन । सब तस्वीर मेट गेल । ई तो उनकर मन के भाउना हल ।; ललाइन मामा इसारा से पिये लागी पानी माँगलन । छोटकी पुतोह हालीसुन पानी लाके चमच से पिआवे लगलन - एक ... दू ... तीन चमच बस । पानी जइसे नरेटी में जाके अटक गेल हो, कुछ कंठ के पार भेल आउ कुछ बाहर बह गेल ।) (सोरही॰26.24; 31.9-10)
570 हावा (= हवा) (कारा पर तो जइसे पहाड़ टूट गेल । माघ महीना के ठंढ, ओकरो पर दखनाहा हावा ।) (सोरही॰5.15)
571 हिच्छा (जेवनार पर बइठल लोग के सातो रास परसायल । लोग सराह-सराह के खयलन । चूड़ा-दही के बाद रंक के भी पूआ परोसल गेल । भर हिच्छा खाके लोग छकड़ी के असीस देइत चल गेलन ।) (सोरही॰17.28)
572 हित-नाता (भोजन के दिन ला जेवार के बाबा जी नेवतल गेलन । गोतिया भाई टोला-परोसा भी पीछे न रहलन । हित-नाता के नेवता तो पहिलहीं फिर गेल हल ।) (सोरही॰17.18)
573 हिन्दुअई (बाकि का ऊ दूनो एक साथे हिरदा के अवाज सुनलन हे ? न, न, एगो बहादुरी में बउड़ाहा हथ तऽ दोसर राज बढ़ावे में पगलायल हथ । एगो के हिन्दुअई बहकावऽ हे तो दोसर के हिन्दू बहकावऽ हथ । बाकि हिन्दू, हिन्दुअई या मुसलमान से ऊपरे उठके देखे के कोई कोरसिस कइलन हे ?) (सोरही॰49.13, 14)
574 हियाव (= हिम्मत, साहस, हौसला) (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।" वैद जी उधार इलाज करे के हियाव कइलन ।; ऊ रोगी के देह में कई मराती सूई भोंकलन । जब सूई नस में घुसल तो उ अप्पन भाग के सराहे लगलन । अब आम के आम आउ गुठली के दाम मिले के भरोसा हो गेल । राधे टुकुर-टुकुर सब तमाशा देख रहल हल । मगर ई घड़ी नुखुस निकासे के हियाव न पड़ल, न तो बनल काम बिगड़ जायत हल ।; राधे के बात सुनके वैदजी के तो ठकमुरकी मार देलक । ऊ ओकरा से कठदलेली करे के हियाव न कइलन ।) (सोरही॰11.5, 10; 12.26)
575 हुरपेटना (रे सार ! तोहनी भागऽ हँऽ कि हरा से हुरपेटिअउ ? ई सभे साला कौलेज में का गेल कि लगल हमनीए के बुरबक बनाके लड़ावे ।) (सोरही॰45.26)
576 हेराना (= भुला जाना, गुम हो जाना) (रमिया बड़की दीदी के साथे अजोधेया चल गेल । कहल जाहे राँड़ के देखके भगवानो हेरा जा हथ । हरिचंद पर विपत पड़ल तो भुँजल मछली कूदके पानी में चल गेल । अजोधेया हैजा से ओक-बोक हो रहल हल ।) (सोरही॰35.6)
577 हेलना ("जीतन के बाबू मर जयता मालकिन ।" - "चाहे जे होथुन । मगर आज तो कोय हालत से रुपया नय मिलतो ।" कहइत सी॰ओ॰ के जनाना जीतन माय भीर से हँटके अपन कोठरी में हेल गेली ।) (सोरही॰23.1)
578 होनहारी (जहिया से ई नटिनियाँ आयल हे हमरा जीना मोहाल कर देलक हे । देखऽ न, आझ फिर मारकवऽ हे । हमरा तो अइसन बुझा हे अबकी ई हमरा जान लेके इहाँ से निकलतो । कै तुरी लड़का के कहली कि ई रकसिनियाँ के लेले जो लेकिन ऊहो हमर बात के ई कान से सुनके ऊ कान से निकाल देलक । होनहारी कुछ खराब दिखइत हे, इ गुने सबके मति फिर गेलइ हे ।) (सोरही॰28.23)
579 हौला (= हलका) (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । दसकरम के दिन कंटाह के कंठ में दूध अँटकल तो बिना पचीस रुपया के पारे न होयल । सीधा-बारी कुल मिलाके काफी हो गेल । माथा मुड़यला के बाद छकौड़ी के भार कम हो गेल ।) (सोरही॰17.24)
277 दने (एतने में कलुआ माय बोलल - "कारा ! कारा ! रे कारा !!!" - "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।" - "अच्छा तुरते ।" एतना कहके कारा डीह दने सोझिया गेल ।) (सोरही॰3.21)
278 दमाद (हम का कहिअइ ओकरा ? भला, बेटिया के हम मना करतिअइ हल तब न ! तोर मइया सुर पकड़ लेलन हे कि सरिता हम्मर दमाद के उल्हा करके नाम हँसा देलन ।) (सोरही॰52.7)
279 दरखत (ओती घड़ी राम सरन बाबू घर पर नञ हलन । उनकर मेहरी चुल्हा-चउका में बझल हलन । ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन । ललाइन मामा मचिया पर बइठ गेलन । उनकर देह अभियो काँपइत हल ठूँठ दरखत नियन ।) (सोरही॰28.10)
280 दरखास (ई जमीन कीने ला लोन खातिर दरखास देलन आउ लोन सैंकशन हो गेल बाकि एगो साथी अड़ंगा लगौलक आउ मिलइत-मिलइत लोन अइसे खतम हो गेल जइसे तेज धूप के वजह से गड़हा के पानी ।; फेन डाक्टर बने के कोरसिस कइलन तो दफ्तर के बड़ा बाबू एगो खुरचन निकाल देलन आउ दफ्तर के अफसर इनकर दरखास के दबवा देलन जे से नवल किशोर के मनोबल दब जाय आउ ऊ थउँस के बइठ जाय । बाकि नवल किशोर गजब जीवट के अदमी ।; "मगर अखने तो रुपया नय हो जीतन माय । आउ जे तों कहली घी के दाम, से तो नय मिलतो । काहे कि जखने तोर जीतन के बाबू बैंक से भैंस लेवे ले दरखास देलखुन हल, ऊ बखत सी॰ओ॰ साहेब के दसखत कइला पर हीं रुपया मिललो हल । तखने चार किलो घी पर तय होलो हल ।" - "अच्छा, ओकरा छोड़हो मलकिनी । मगर एक सो अस्सी रुपया, जे दूध वला होवो हे, ऊ तो देबहो ने ।") (सोरही॰6.19; 8.8; 22.3)
281 दलान (= दालान) (उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ । माय-बाप के रहला पर कारा दलान में सूतत हल । अब रात भर जगल रहत । चमइन के चिरौरी करत ।" कारा के अवाज में अपनौती हल ।) (सोरही॰2.4)
282 दलिद्दर (= दरिद्र) (बुधिया - ... हम्मर माय-बाप जेतना देलथुन हे तोहर माय-बाप से सात जलम ना हो सकऽ हो ।/ मंगरु - अच्छा भाय, हम मान गेलूँ कि तोहर माय-बाप धन्ना सेठ हथ आउ हम निठाह दलिद्दर ही । मुदा तोहर बाप से हम खरची न माँगऽ हियो । जाय द, पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।) (सोरही॰40.6)
283 दवा (= दावा; नींव) (दसहरा के दिन लालचन के मकान के नेंव पड़ल । खूब उदसो होयल । दवा खनाय लगल । छकौड़ी भी लगल हलन । लालचन आके कहलन - "देख रे छकौड़िया, जरा ठीक से खनिहें ।" छकौड़ी के आँख तर अन्हेरा हो गेल । गिर परल सोचइत-सोचइत । न जानी काहे मुँह से लार टपकल आउ बुदबुदायल - "से ... जि या दा न ! म.. र.. ला प.. र से.. ज जि..ता में ... कु... च्छो ... न ।" फिन कोई ओकर बोली न सुनलक ।) (सोरही॰18.24)
284 दसकरमा (= दसमा) (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । दसकरम के दिन कंटाह के कंठ में दूध अँटकल तो बिना पचीस रुपया के पारे न होयल । सीधा-बारी कुल मिलाके काफी हो गेल ।) (सोरही॰17.22)
285 दसखत ("मगर अखने तो रुपया नय हो जीतन माय । आउ जे तों कहली घी के दाम, से तो नय मिलतो । काहे कि जखने तोर जीतन के बाबू बैंक से भैंस लेवे ले दरखास देलखुन हल, ऊ बखत सी॰ओ॰ साहेब के दसखत कइला पर हीं रुपया मिललो हल । तखने चार किलो घी पर तय होलो हल ।" - "अच्छा, ओकरा छोड़हो मलकिनी । मगर एक सो अस्सी रुपया, जे दूध वला होवो हे, ऊ तो देबहो ने ।") (सोरही॰22.3)
286 दहँजना (पिछला एतवार के बड़का आयल हल गया से । ललाइन मामा बड़ी बेअग्गर होके कहलन हल - "देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ ।"; अइसन भी बज्जर अकाल पड़ऽ हे । तिनका तिनका झुलस गेल । भगवान भी अइसन पथरा गेलन कि साल भर लोर भी न चुअएलन । जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।) (सोरही॰27.10; 58.12)
287 दहाना (पूरा भीड़ दूनो तरफ दौड़ जाहे । लोर से भींजल लिट्टी कलुवा के मुँह से गिर जाहे । धलुवा ठकुआके गुनगुना हे - 'मइया के लोरवा से गंगा बढ़िअइलइ, बाबूजी के लोरे संसार । भइया के लोरे रामा जमुना बढ़िअइलइ, सभे दहौले चलल जाय ॥') (सोरही॰46.16)
288 दहिजरा (= सं॰ दहिजड़ा; नौकरानी का पति; पत्नी के टुकड़े पर पलनेवाला व्यक्ति; दासी पुत्र, गुलाम; एक गाली - दाढ़ीजार; वि॰ निखट्टू) ('अरे सुनऽ न भगतजी !' सोमर टोकलन - 'सात सेर के सात गो पकौली, चौदह सेर के एके गो । तू दहिजरवा सातो खइलें, हम कुलवंती एके गो । रे सखिया तनिको मरम न जानली ।' - 'से न हो सोमर' भगतजी समझउलथिन - 'तू दहिजरवा सेज बिछा दे, हम सुतिअइ टाँग पसारी, हम तो दूनो कुल उजियारी ।') (सोरही॰43.12, 14)
289 दाया (= दया) (मंगरु - बेकतिया मर जइतइ मालिक, दाया करथिन ।/ सेठ - मरउ चाहे बचउ । हम केकरो मरे जिये के ठीका लेलिये ह ।) (सोरही॰42.3)
290 दाया-धरम (रुपैयो न देलक आउ बात बोलल कि करेजा में छेद हो गेल । मेहररुआ साँचे बेराम रहत हल तो अइसन में टन्ने न बोल जात हल । निगुनियाँ कहीं के ! अमीरवन के हिरदा पत्थर होवऽ हे, दाया धरम के नाम नै ।) (सोरही॰42.15)
291 दिगर (= अन्य, पराया, पृथक्) ("तों गँवारे रह गेलऽ । तोरा की फिकिर हे । सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।" उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ ।") (सोरही॰2.3)
292 दीठ (= दृष्टि, नजर) (लालचन के दीठ छकौड़ी के मकान पर लगल हल । केतना दिन से ईंटा के घर बनावे ला सोचइत हलन । छकौड़ी के घर के बिना उनकर बेंवत ठीक न हो हल ।) (सोरही॰18.15)
293 दुआर (= द्वार) (ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल । दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक ।) (सोरही॰4.2)
294 दुआरी (ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल । दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक ।) (सोरही॰4.2)
295 दुखल (~ अवाज) (मोहरी भीतरे जाके कहलक - "जरी पोआर तो बिछा द ।" कारा मोहरी के दुखल अवाज से सहम गेल । पोआर बिछाके चद्दर उठइलक । मोहरी गोड़ पसारते टोकलक, "पहिले लिट्टी तो सेंक ल ।") (सोरही॰3.6)
296 दुत् (कारा मोहरी के दुखल अवाज से सहम गेल । पोआर बिछाके चद्दर उठइलक । मोहरी गोड़ पसारते टोकलक, "पहिले लिट्टी तो सेंक ल ।" - "दुत् ... ।" - "भोरे से भुखले ह । एकागो खाके जइहऽ ।") (सोरही॰3.9)
297 दुधमुहीं (सालो न लगल हल कि माय चल बसलन । लोग जुटके सलाह देलन - लाश के सत-गत गंगा में होयत । ... दुधमुहीं के बाद दलान पर लोग जुटलन - विचार भेल काम के ऊपर । कुछ लोग कहलन - काम कइसनो होय सेजियादान जरूर होय के चाही । सुते ला परानी के सेज न मिलल तो का मिलल ।) (सोरही॰17.13)
298 दुसना (चुप रहहू बाबू ! अइसे न बोली धी-दमाद के । सुनतो से का कहतो ! दुनिया दुसतो बाबू । अइसहीं तो बहनोई रुसल हथिन ।) (सोरही॰52.24)
299 देह-समांग (राधे के आँख तर अन्हार छा गेल । ऊ हिसाब करके बोलल - "हमरा रुपइया के मोह न हे, तू इलाज करऽ । देह-समांग रहतो तो पाई-पाई चुकता कर देवो ।" "उधार इलाज करे में हमरा संस-बरक्कत न मिलऽ हे । दवा खरीदे में पूँजी लगऽ हे । रोग दूर हो गेला पर लोग साँझ-बिहान करे लगऽ हथ ।) (सोरही॰10.24)
300 दोगिना (= दोगना; दुगुना) (नवल किशोर साथी के पानी पिया देलन । साथी के नौकरी खतम हो गेल आउ ई नवल किशोर के जानी दुश्मन बन गेल बाकि नवल किशोर के फिकिर न भेल । ई दोगिना उछाव से खतरा के मुकाबला कइलन आउ अप्पन संगी-साथी के किस्मत बनावे ला, अप्पन घर के सँवारे ला, अप्पन नाता-हित के उठावे ला बराबर छटपटइलन ।) (सोरही॰8.16)
301 दोबर (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।") (सोरही॰25.7)
302 दोविधा (= दुविधा) (सलीमा गते बोलल - "मामू जी ? अपने तो बदसाह के गादी के शान ही । अपने के तलवार आग उगिलऽ हे बाकि अपने कहिनो दिल के अवाज पर धेयान देली हे ? करेजा के भीतरे के अवाज कहिनो सुनली हे ?" मानसी दोविधा में पड़ गेलन ।) (सोरही॰48.6)
303 दोसरका (ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल । दोसरका साल फेर कोरसिस कइलन आउ बहुत दिक्कत आउ परेशानी से ई एम॰ए॰ कइलन ।) (सोरही॰8.5)
304 दौड़ा-दौड़ी (सेठ के बेवहार से मंगरु के दिल में भारी ठेस लगल । बुदबुदाय लगल, हम ई सेठवा के केतना सेवा कइलूँ हे । बेराम पड़ गेल हल तो रात अधरतिया आउ दिन दुपहरिया डागडर के हियाँ दौड़ा-दौड़ी कइलूँ हल ।) (सोरही॰42.10)
305 धँसोरना (= ढकेलना, धक्का देना) (ललाइन मामा एगो लम्मा साँस लेलन त बुझायल, जइसे हवा में जहर घोर देवल गेल हे जे फैल गेल हे उनकर समूचे देह में । पीठ पर हाथ फेरलन त नस टभके लगल पकल घाव नियन । आझ भोरहरिये बड़की तनिसुन बात खातिर मार बइठल । कहाँ जमानी के काबू आउ कहाँ बुढ़ारी के टुटल देह । बड़की हलके धँसोरलक हल कि बस ललाइन मामा पीठ के बल जमीन पर आ गेलन - धड़ाम ।) (सोरही॰26.19)
306 धनखेती (कारा अकेले डीह दने चल देलक । माघ के महीना हल । धनखेती में खेसाड़ी लहर मारऽ हल, तेकरा पर सीत के बून्द सज गेल हल । जल्दी के चलते कारा खेते-खेते चले लगल ।) (सोरही॰3.25)
307 धन्ना (~ सेठ) (बुधिया - ... हम्मर माय-बाप जेतना देलथुन हे तोहर माय-बाप से सात जलम ना हो सकऽ हो ।/ मंगरु - अच्छा भाय, हम मान गेलूँ कि तोहर माय-बाप धन्ना सेठ हथ आउ हम निठाह दलिद्दर ही । मुदा तोहर बाप से हम खरची न माँगऽ हियो । जाय द, पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।) (सोरही॰40.5)
308 धमधूर (ऊ दबले जबान बोललथिन - का कहियो बाबू ! उका ऊ घरवा में सहीपुर के मेहमान घरे रंग खेले आयल हथिन । हमरो बेटिया तो ओही घरवा में हलइ, उहाँ से भाग अइलइ ।/ आउ कहलई - राम ! राम ! ई कउन तरीका हइ कि कोई मेहमान आवे तो गाँव के बेटिन साथे जइसे-तइसे रंग खेले । उहाँ सब धमधूर, धमार आउ बेपरद हँसी-मजाक करइत हथिन ।) (सोरही॰51.20)
309 धमाधूरी (दे॰ धमधूरी) (गाँव के बेटिन भी ओइसने ! धी-दमाद के दुर्व्यवहार में रुचि ले ले हथ । धी-दमाद के का माने ? कि घर गाँव के बेटी-पुतोह साथे धमाधूरी, खेलथ आउ रंग में बदरंग करथ ।) (सोरही॰52.21)
310 धमार (= उछल-कूद, धमाचौकड़ी; हथरस; बतरस; ठिठोली, हँसी-मजाक, छेड़खानी; एक प्रकार का गीत, एक राग विशेष; नट का काम या तमाशा) (ऊ दबले जबान बोललथिन - का कहियो बाबू ! उका ऊ घरवा में सहीपुर के मेहमान घरे रंग खेले आयल हथिन । हमरो बेटिया तो ओही घरवा में हलइ, उहाँ से भाग अइलइ ।/ आउ कहलई - राम ! राम ! ई कउन तरीका हइ कि कोई मेहमान आवे तो गाँव के बेटिन साथे जइसे-तइसे रंग खेले । उहाँ सब धमधूर, धमार आउ बेपरद हँसी-मजाक करइत हथिन ।) (सोरही॰51.20)
311 धिआन (= धियान; ध्यान) ("सब एक जइसन नञ होवऽ हथ । भला तों थोड़के दे देमें ।" बुढ़िया कारा पर उपहास कइलक । बुढ़िया के बात सुनते के साथ कारा के धिआन अपन पाँच रुपइया पर चल गेल । बिना सोचले समझले बोल देलक - "हाँ मामा, पाँच रुपइया तो नगद बोहनी कर देबउ ।") (सोरही॰4.12)
312 धियान (= ध्यान) ("कइसन तबियत हो जीतन बाबू ?" - "बर बढ़िया ।" धीरे से जुगल बोलल । - "कोय तकलीफ भी होय ?" जवाब सुने ले धियान लगावो हथ आउ दिल धुकधुक करो लगल काहे कि कहईं जो कुछ तकलीफ बतइलका तब की करम ।) (सोरही॰23.19)
313 धी-दमाद (सरिता के हमनी केतनो कहलिअइ तइयो नऽ जाई । कहऽ हइ कि हमरा धी-दमाद के अइसन चाल-ढाल तनिको नऽ सोहाय ।; गाँव के बेटिन भी ओइसने ! धी-दमाद के दुर्व्यवहार में रुचि ले ले हथ । धी-दमाद के का माने ? कि घर गाँव के बेटी-पुतोह साथे धमाधूरी, खेलथ आउ रंग में बदरंग करथ ।; घर में लोग नरेन्दर के बात सुन-सुन के अलगे गड़ल हथ । गाँव के सवासिन सब कहे लगलथिन कि उनका अइसन बात नऽ कहे के चहतिअइन हल । ई कउनो नया बात थोड़े हे ? ससुरार में धी-दमाद हँसी-मजाक करवे करऽ हथ ।) (सोरही॰52.2, 20, 21; 53.6)
314 धुइयाँ (आग के धुइयाँ खतम हो गेल हल । आग के लमहर-लमहर सीक लहलहा रहल हल । मोहरी गोड़ पसारे लगल तो लोटा भी लोघड़ा गेल आउ पानी गिरे लगल ।) (सोरही॰1.3)
315 धुरियारे (~ गोर) (जीतन माय जे रस्ता से जा रहली हल ओकर बगले में 'दुखहरन बाबा' के पिंडी हल । तब उनकर भीर लपकके गेली आउ उनकर आगू में पेटकुनिया देके कहो लगली - "हे दुखहरन बाबा ! हमरा जीतन बाबू के अच्छा कर देहून तो धुरियारे गोर जोरी पाठ देबो । पाँच बराहमन के पुआ-दूध से जवेनार भी करइबो । खियाल करहो दुखहरन बाबा ! आगू साल तोरा अंगरेजी बाजा बजाके बैठकी भी देबो ।") (सोरही॰23.11)
316 नगीच (= नजीक; नजदीक) (पटना में किराया के मकान मिलला भी कउनो कठिन तपस्या के फले के समान हे । आउ ऑफिस के नगीच के मकान तो भगवान के मिलला से भी जादे मोसकिल हे । ऊ भला अइसन खुशनसीब कहाँ हे कि ओकरा एतना भीरी मकान मिल जाय ।) (सोरही॰55.10)
317 नजायज (= नाजायज) (सोहरा माय बूढ़ी हल । ढेर दिना के अनुभो हल । पइसा असूले में माहिर हल । दुआर पर आके बोलल - "बड़ ठंढ हइ ! तों सब तो वहाँ चल गेले हें । देख, मंगरुआ के हियाँ रुपइया बाकी रह गेल । ढोढ़ा के हियाँ तो सब कुछ रह गेल । एक मन तो करऽ हइ कि ओंहाँ कमइवे नञ करूँ ।" - "त सब की एक्के अइसन होवऽ हइ ? बड़ी कसट में हइ मामा ।" भला कारा के की मालूम कि गरजू होला से लोगन नजायज फइदा उठावऽ हथ ।) (सोरही॰4.10)
318 नजीक (= नजदीक) (सम्पादक जी समझ गेलन आउ भागे ला तइयार भेलन । हम लपक के उनकर कालर पकड़ली आउ खींचके नजीक के थाना में पहुँचा देली । हमर कवि बने के ललसा, मिसराजी के धरम भावना आउ हमर दोस्त श्रीकांत के अभिनेता बने के निसा के सम्पादक जी उतार देलन ।) (सोरही॰34.2)
319 नञ (= नयँ, न, नहीं) (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।") (सोरही॰25.7)
320 नटलीला (ललाइन मामा के लड़ाई-झगड़ा के जिनगी तनिको पसन्द न हे । उनकर समझ से जउन घर में ई सब नटलीला होवऽ हे, ऊ घर के लोग रेयान से भी गेल-गुजरल होवऽ हथ । इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ ।) (सोरही॰25.17)
321 नटिनियाँ (= नटिन + 'आ' प्रत्यय, नकार के पास होने से अनुनासिक) (पिछला एतवार के बड़का आयल हल गया से । ललाइन मामा बड़ी बेअग्गर होके कहलन हल - "देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ ।"; जहिया से ई नटिनियाँ आयल हे हमरा जीना मोहाल कर देलक हे । देखऽ न, आझ फिर मारकवऽ हे ।) (सोरही॰27.10; 28.19)
322 नरियर (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।") (सोरही॰25.7)
323 नहिरा (खेत में न तो मजूर के काम मिले लगल, न घर में भीख । अप्पन जान केकरा पिआरा न होवऽ हे । चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो ।) (सोरही॰11.25)
324 नागा (घंटी बजइते ओकर लइकन दउड़ल आवऽ हलन, आझ कोई न आयल । ओकर मन में तनी शक भेल । जरूर कोई बात हे न तो एकरा में नागा कहियो न पड़ऽ हल ।) (सोरही॰55.22)
325 नामी-गरामी (हाड़-मास के ताना-बाना से बनल ऊ एगो मामूली अदमी हल । देखे-लेखे में बड़ा-कुरूप । चेहरा-मोहरा से भद्दा । कोई गुण न कोई सुनदरता । बाकि हल कलाकार, एगो नामी-गरामी कवि ।) (सोरही॰36.7)
326 नामी-गिरामी (आउ ऊ गोस्सा से तमतमायल लम्मा लम्मा डेग लफावइत चल पड़लन सरन बाबू के घर, इंसाफ खातिर । राम सरन बाबू गाँव के नामी-गिरामी आदमी हथ, मान-मरजादा, धन आउ सोहरत में ढेर आगे बढ़ल । मुखिया न मुदा तइयो गाँव के लोग उनका से इंसाफ करावऽ हथ ।) (सोरही॰28.3)
327 नावा (= नया) (ई नावा गाम इमे साल बसल हल । जन-मजूर के जमीन मिले लगल तो मालिक ई सब के ऊसर जमीन पर घर बनावे लेल मजबूर कर देलक ।) (सोरही॰2.19)
328 निकसना (राधे के माय के मुँह से बोली न निकसऽ हल आउ इसारा से पानी माँग रहल हल ।) (सोरही॰10.19)
329 निकासना (ऊ रोगी के देह में कई मराती सूई भोंकलन । जब सूई नस में घुसल तो उ अप्पन भाग के सराहे लगलन । अब आम के आम आउ गुठली के दाम मिले के भरोसा हो गेल । राधे टुकुर-टुकुर सब तमाशा देख रहल हल । मगर ई घड़ी नुखुस निकासे के हियाव न पड़ल, न तो बनल काम बिगड़ जायत हल ।) (सोरही॰11.10)
330 निगुनियाँ (रुपैयो न देलक आउ बात बोलल कि करेजा में छेद हो गेल । मेहररुआ साँचे बेराम रहत हल तो अइसन में टन्ने न बोल जात हल । निगुनियाँ कहीं के ! अमीरवन के हिरदा पत्थर होवऽ हे, दाया धरम के नाम नै ।) (सोरही॰42.14)
331 निचलका (= निचलउका) (फुलवा के अन्दर के बिगड़ल भूख जाग उठल हल न का ? ई से रोज ऊ केबिन पर आवऽ हल । ऊ दिन भी आयल हल आउ निचलका चहबच्चा पर बइठ के लुआ खंघारइत हल । हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन ।) (सोरही॰14.6)
332 निठाह (बुधिया - ... हम्मर माय-बाप जेतना देलथुन हे तोहर माय-बाप से सात जलम ना हो सकऽ हो ।/ मंगरु - अच्छा भाय, हम मान गेलूँ कि तोहर माय-बाप धन्ना सेठ हथ आउ हम निठाह दलिद्दर ही । मुदा तोहर बाप से हम खरची न माँगऽ हियो । जाय द, पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।) (सोरही॰40.6)
333 निठुर (~ दूध) ("दूध कैसे देहो ?" सी॰ओ॰ साहेब के मेहरारु बीचे में टोकलकी । - "अपने के तीने रुपये दे हियन मलकिनी । अइसे निठुर दूध के चार रुपये किलो दाम हे ।" कहके जीतन माय सी॰ओ॰ साहेब के जनान के रुख देखो लगली ।) (सोरही॰21.25)
334 निफिकिर (= बेफिक्र, निश्चिन्त) (काम-धाम से जब फुरसत मिलल, लालचन छकौड़ी के बोलाके कहलन - "बेटा ! अब तू निफिकिर हो गेलऽ, अपन हिसाब-किताब समझ ल । लोग-बाग के सामने सब कुछ तय हो जाय तो अच्छा हे ।" छकौड़ी के टेट तो खाली हल । का हिसाब समझथ ।) (सोरही॰18.3)
335 निमक (~ के सरियत रखना) (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।") (सोरही॰11.4)
336 निम्मन ( हम्मर जे नैनाकाजर हथिन न, उनका हीं हम आझ गेलियो हल । पान के दुलहवा कलकत्ता में मटर हाँकऽ हथिन । उनका तूँ देखवे कैलहो हे, गोर-गोर लमछड़ करिया-करिया कड़ा-कड़ा मोछवाला । कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे ।) (सोरही॰39.7)
337 निसा (= नशा) (बजार के बहरी ओला नुक्कड़ पर के पुल के नीचे पीपर के पेड़ भिजुन ओला गहिड़ा में एगो मोटर कार गिरके दुर्घटना हो गेल हल । ई दुर्घटना देखके कोई दुखी न हो रहलन हल । थोड़हीं सन पहिले फुलवा के साथे, निसा में मातल अपनहीं कार हँकावइत नौरंग जाइत हलन ।; सम्पादक जी समझ गेलन आउ भागे ला तइयार भेलन । हम लपक के उनकर कालर पकड़ली आउ खींचके नजीक के थाना में पहुँचा देली । हमर कवि बने के ललसा, मिसराजी के धरम भावना आउ हमर दोस्त श्रीकांत के अभिनेता बने के निसा के सम्पादक जी उतार देलन ।) (सोरही॰16.14; 34.4)
338 निसाफ (= इंसाफ) (अइसन भी बज्जर अकाल पड़ऽ हे । तिनका तिनका झुलस गेल । भगवान भी अइसन पथरा गेलन कि साल भर लोर भी न चुअएलन । जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।; सोमरी के दिल भक्तिभाव से गलबला गेल । भगवान जरूर निसाफ करतन । जात-धरम के रक्षा भगवान न करतन, त के करत ? ई बढ़नी उगे से का होवऽ हे, भगवान के मरजी के आगे सब झूठ हे ।) (सोरही॰58.13; 60.3)
339 नीन (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । ... माथा मुड़यला के बाद छकौड़ी के भार कम हो गेल । अब ओहू एने-ओने जाय लगलन । खनी तरकारी लावथ तो खनी दही ला जाथ । गोड़ में चैन न हल । आँख के नीन तो पहिलहीं भाग गेल हल ।; मन में एगो अजगुत डर समायल हल । उनकर हालत ऊ हदसल चिरईं नियन भेल हल, जे शिकारी के जाल में फँसल मौत के राह देखइत हो । ऊ रात ललाइन मामा के आँख में नीन नञ आयल मानो तकदीर जोरे नीनो हुनका से रुस गेल होय । रात भर ऊ उखीबिखी रहलन ।; 'हम तो हाथ-गोड़ बहुते परली लेकिन ऊ कुछो न सुनलन । लाचार होके सातो गो लिट्टी खाय पड़ल।'/ 'तोहरो सपना तो बड़ा अजगुते हवऽ ।'/ 'अरे ! सपना कहाँ ? नीन आवत हल तब न । देखऽ न, बर्तन खाली हवऽ किन न ।' बाबू साहेब के ई बात सुनके लाला जी के हक्का-बक्का गूम ।) (सोरही॰17.25; 30.17; 45.12)
340 नुखुस (ऊ रोगी के देह में कई मराती सूई भोंकलन । जब सूई नस में घुसल तो उ अप्पन भाग के सराहे लगलन । अब आम के आम आउ गुठली के दाम मिले के भरोसा हो गेल । राधे टुकुर-टुकुर सब तमाशा देख रहल हल । मगर ई घड़ी नुखुस निकासे के हियाव न पड़ल, न तो बनल काम बिगड़ जायत हल ।) (सोरही॰11.10)
341 नेहाना (= नहाना) (फुलवा के अन्दर के बिगड़ल भूख जाग उठल हल न का ? ई से रोज ऊ केबिन पर आवऽ हल । ऊ दिन भी आयल हल आउ निचलका चहबच्चा पर बइठ के लुआ खंघारइत हल । हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन ।; मानसी अधरतिया के फैलल घुच अन्हरिया में अपन नजर दउड़इलन, कहीं कुछ न लोकल । जमुना में बान्हल सीढ़ी से नीचे उतरके नेहाय जाइत हलन । फिनो अवाज सुनाइ पड़ल - "रुन-झुन, रुन-झुन" ।; जल्दी-जल्दी नेहाके ऊ सीढ़ी पर चढ़ रहलन हल कि देखलन सलीमा अमीना के साथे गते-गते एनहीं आ रहल हे । ई सूनसान रात में ओकरा देखके मानसी भौचक्का में पड़ गेलन ।) (सोरही॰14.8; 47.5, 15)
342 नैनाकाजर (= लड़कियों की सखियों में प्रचलित संबोधन का एक शब्द; सखी का नाम, पान, फूल, नैनाकाजर, अकासफूल, कन्हइयाजी, दिलवरजी, सखी, सेलेहरजी आदि नामों से एक-दूसरे को संबोधित करती हैं, नाम लेना वर्जित है) (हम्मर जे नैनाकाजर हथिन न, उनका हीं हम आझ गेलियो हल । पान के दुलहवा कलकत्ता में मटर हाँकऽ हथिन । उनका तूँ देखवे कैलहो हे, गोर-गोर लमछड़ करिया-करिया कड़ा-कड़ा मोछवाला । कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे ।) (सोरही॰39.4)
343 नोच-चोंथ (~ करना) (देश में इमरजेन्सी घोषित कर देल गेल काहे कि विरोधी लोग नोच-चोंथ करे लगलन आउ कब की हो जायत केहू न कहइत हल । दफ्तर के कुछ लोग विरोध कइलन उनका जगह पर मिनिस्टर साहब नया रुटन के भरती कर लेलन आउ पुरान लोगन के धमकी देलन कि सब लोगन के नौकरी खतम हो जायत ।) (सोरही॰8.24)
344 नोह (सोमरी चुपचाप खड़ा नोह से धरती कुरेद रहल हे, आ मनेमन हिसाब बइठा रहल हे कि भात के इन्तजाम कइसे पूरा होयत । अपन कंठा आउ भगजोगनी के छागल बेच देला पर भी कुछ घट जायत का ?) (सोरही॰60.8)
345 पक्की (= ठीक-ठीक, पूरे-पूरे, न कम न अधिक) ("अच्छा, तुरतायें जा लगला, आउ जे काम हइ, सुन लेवा तब ने । बुधन महतो से जाके कहिहुँक कि साहेबएक मन पक्की बसमतिया चावर आउ एक मन पक्की गेहुँम आझे जरूर के जरूर भेज देवे ले कहलखुन हे आउ, अच्छा, हला ला, ई दस गो रुपया । लल्लू, पराका आर जे कुछ लावे ले कहतो, लेले अयहोक । अच्छा तो अब जा ।) (सोरही॰21.2, 3)
346 पगजरौना (हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन । ओकरा में से एगो लइका पम्प के मोटगर जलधारा के हाथ से रोकके फुलवा दने मोड़ देलक हल । पानी से सराबोर होके छिहुल के भाग उठल हल फुलवा । फिनो बनावटी क्रोध देखाके खिसिआयल आउ मुँहजरा, पगजरौना आदि पेआर भरल कुछ गारी सुनौलक ।) (सोरही॰14.11)
347 पछाना (भोर होवे लगल हे । मुरगन के बाँग सुनाई देवे लगल हे । जानवर भी कहीं-कहीं उँगरे लगल हे । कउअन के कुहार शुरू हो गेल हे । कुक्कुर पछाए लगल हे ।) (सोरही॰60.7)
348 पझायल (= बुझा हुआ; मंद पड़ा हुआ) (बलदेव के मुँह से ई जवाब सुनके ललाइन मामा चुप रह गेलन हल ... एकदम चुप । खाली उनकर पझायल आँख बलदेव के मुँह पर गाड़ल हल आउ दिमाग में ओही बात चक्कर काटइत हल ... ऊ तो पागल हइ ... ओकरे पीछे हमहुँ पागल ... ।) (सोरही॰27.22)
349 पड़िआइन (उनकर मेहनत आउ अपन लगन से कुछे दिन में सुग्गी पड़िआइन हो गेल हल, सब बात सीख लेलक हल । फिन तो गाँव-जेवार में ललाइन मामा के सुग्गी के नाम ओइसहीं खिल गेल जइसे मैदान में जितल कोय नेता के नाम खिल जा हे ।) (सोरही॰30.3-4)
350 पढ़ुआ (कौलेज के बेरा हल । पढ़ुअन अपन-अपन क्लास में आवइत-जाइत हलन । प्रिंसपल अपन आफिस में हलन ।) (सोरही॰13.4)
351 पत (= प्रत्येक, हरेक) (~ साल) (बुढ़िया दीदी रमिया के फुफसस हल । ऊ अपन भाई हीं आयल हल । ओकर भाई अंगरेजी राज के बड़का गो गिरहत आउ छोटमुट गो जमीनदार हल । पत साल सावन के महीना में ओकरा हीं खूब जोड़-सोड़ से झूला उतसो मनावल जा हल ।) (सोरही॰34.20)
352 पतियानी (मंगरु - बस कासा में ठुनका लग गेलो । अजी हँसी न कर रहलियो हे । रुपिया-पइसा के जुगाड़ करऽ हियो । भाग में होतो तो बनिये जइतो ।/ बुधिया - कानी गे मन पतियानी, सैयाँ गेला हे आँख लावे । अबके तो काटे दौड़ला हल, अब पुचकारे लगला । तोहर बिसवास कौन निगोड़ी करतो जी ?) (सोरही॰40.24)
353 पथराना (अइसन भी बज्जर अकाल पड़ऽ हे । तिनका तिनका झुलस गेल । भगवान भी अइसन पथरा गेलन कि साल भर लोर भी न चुअएलन । जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।) (सोरही॰58.11)
354 परनतिनी (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।") (सोरही॰25.8)
355 परनाती (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।") (सोरही॰25.8)
356 परमिन (?) (दुख में तो कोई न जुटल, जुटल भी त परवतिया के माय, परजात परमिन ।) (सोरही॰59.9)
357 परव-तेवहार (का हइ मइया ? का हइ, का ? एतना सब, घरे लड़ाई-झगड़ा का होइत हइ ? परवो-तेवहार के दिन तोहनी के असथिर नऽ रहल जाउ ?) (सोरही॰51.2)
358 परवह (जिनगी भर राँड़ बनके घर-बाहर के आँख से जे बचइत रहलन आझो अकेले ही ऊ सबके छोड़के चुप्पे से चल देलन । अजोधेया के साधु अपन चेला के सरयू में एहनी के परवह करे ला कहके भगवान के झूला उतसो के तइयारी में लग गेलन बाकि चेला तो भगवान के मूरत ला भी बनावइत हल ।) (सोरही॰35.21)
359 परसाना (जेवनार पर बइठल लोग के सातो रास परसायल । लोग सराह-सराह के खयलन । चूड़ा-दही के बाद रंक के भी पूआ परोसल गेल ।) (सोरही॰17.27)
360 परसूँ (= परसुन; परसों) ("आज खइलें हें ?" - "न ... ञ ।" - "भोरे ?" - "ऊहूँ ।" - "लगऽ हउ कत्तेक दिन से नञ खइलें हें ।" - "हाँ।" - "कहिया से ?" - "परसूँ सँझिया के खइलिए हल ।"; "मगर मालकिन, खियाल करहो । हम उजर जयबय ।" बड़ी आरत होके कहलकी जीतन माय । - "धत ! तोंहूँ एक्के बात के जिद कैले हा । एक मरतबे कहो हियो, तो समझवे नय करो हो । आज तो कोय हालत से रुपया नय मिलतो । वैसने होतो तो कल्ह नय, परसूँ ले जयहा ।" - "जीतन के बाबू मर जयता मालकिन ।") (सोरही॰5.5; 22.24)
361 परान (रमिया ई कहिये रहल हल कि बढ़की दीदी भी दू बुलुका फेंकलन आउ उनकर बेमारी के धरमसाला बनल देह में रहइत परान तुरते निकल गेल ।) (सोरही॰35.17)
362 परानी (रमिया ई कहिये रहल हल कि बढ़की दीदी भी दू बुलुका फेंकलन आउ उनकर बेमारी के धरमसाला बनल देह में रहइत परान तुरते निकल गेल । अइसन लगऽ हल ई दूनो भक्तिन परानी के भगवान अपन सावन के झूला पर बइठाके एके साथे अपना हीं लेले गेलन । जिनगी भर राँड़ बनके घर-बाहर के आँख से जे बचइत रहलन आझो अकेले ही ऊ सबके छोड़के चुप्पे से चल देलन ।) (सोरही॰35.18)
363 परीछना (= गम्भीर रूप से मारना) (अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे । मोछकबरी एगो गइया हे, जे पहर भर से पोंछ झार रहल हे । मन करऽ हे, एही भोर में सुखले बढ़नी से परीछ दीं ।) (सोरही॰57.14)
364 पस (= जवान पाल खाने योग्य और पाल खाई (पर ब्यायी नहीं) काड़ी; पशु; जीव, प्राणी; वि॰ पशुवत्, मूर्ख) ('रे सार ! तोहनी भागऽ हँऽ कि हरा से हुरपेटिअउ ? ई सभे साला कौलेज में का गेल कि लगल हमनीए के बुरबक बनाके लड़ावे ।' सोमर गरजलन - 'फोर दे कपार सारन के, पढ़-लिखके भी पसे रह गेल सभे ।') (सोरही॰46.2)
365 पहिलहीं (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । ... माथा मुड़यला के बाद छकौड़ी के भार कम हो गेल । अब ओहू एने-ओने जाय लगलन । खनी तरकारी लावथ तो खनी दही ला जाथ । गोड़ में चैन न हल । आँख के नीन तो पहिलहीं भाग गेल हल ।) (सोरही॰17.26)
366 पहिलौंठ (कटनी में मोहरी के सतवाँ महीना हल । पहिलौंठ आउ कारा के परेम के चलते मोहरी कटनी भी ओइसन नञ करलक आउ अब ई हड़ताल आ गेल । अखने तो मोहरी के चुल्हवो उपास पड़े लगल ।) (सोरही॰2.25)
367 पाकिट (हम देखली कि मिसराजी अपन पाकिट से कुछ निकाल के देल चाहइत हथ तो हम ओने मुड़ी घुमाके देखली - अरे ई तो सम्पादक जी हथ । कहली कि सम्पादक जी, अपने के तीन दिन में छपेओला पतरिका कहाँ हे ?) (सोरही॰33.5)
368 पाछे ("धाँय-धाँय" असमानी फायर करके करोध में मातल लाल-लाल आँख कइले नौरंग के सभे देखलन । उनकर पाछे उनकर छाया नियन जरवेट के साड़ी में अइँठइत फुलवा भी हल ।) (सोरही॰13.8)
369 पाठ (= पाठा, बकरी का बच्चा) (जीतन माय जे रस्ता से जा रहली हल ओकर बगले में 'दुखहरन बाबा' के पिंडी हल । तब उनकर भीर लपकके गेली आउ उनकर आगू में पेटकुनिया देके कहो लगली - "हे दुखहरन बाबा ! हमरा जीतन बाबू के अच्छा कर देहून तो धुरियारे गोर जोरी पाठ देबो । पाँच बराहमन के पुआ-दूध से जवेनार भी करइबो । खियाल करहो दुखहरन बाबा ! आगू साल तोरा अंगरेजी बाजा बजाके बैठकी भी देबो ।") (सोरही॰23.11)
370 पान (= लड़कियों की सखियों में प्रचलित संबोधन का एक शब्द; सखी का नाम, पान, फूल, नैनाकाजर, अकासफूल, कन्हइयाजी, दिलवरजी, सखी, सेलेहरजी आदि नामों से एक-दूसरे को संबोधित करती हैं, नाम लेना वर्जित है) (हम्मर जे नैनाकाजर हथिन न, उनका हीं हम आझ गेलियो हल । पान के दुलहवा कलकत्ता में मटर हाँकऽ हथिन । उनका तूँ देखवे कैलहो हे, गोर-गोर लमछड़ करिया-करिया कड़ा-कड़ा मोछवाला । कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे ।) (सोरही॰39.5, 7)
371 पारन (बढ़की दीदी आउ रमिया ऊ दिन अजोधेया में एकारसी के उपास कइले हलन । पारन के दिन हल । रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक ।) (सोरही॰35.11)
372 पिंगिल (~ छाँटना) (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।") (सोरही॰25.4)
373 पिछुआना (विचार मन में कइलक कि चार सौ रुपया सेठ जी से कौनो बहाना से माँग लूँ तो घरवाली के कनबाली आउ साड़ी-साया भी हो जाय । मुदा बड़का आदमी से कुछ माँगे के पहले मन, मिजाज आउ रुख गमल जाहे । सोचलक कि साँझ पहरा सेठ जी गद्दी से उठके घर जाय लगतन तब मूड़ी झुकाके उनका पिछुआयम । अपने पुछतन कि हमरा पाछु काहे चलल आवऽ हें, तब बकार निकासम ।) (सोरही॰41.14)
374 पिछुलना (दोसर दिन दुपहर दिन चढ़ला के करीब ऊ कुआँ पर मुँह धोके उतरइत हलन कि अचक्के में गोड़ पिछुल गेल आउ ऊ औंधे मुँह अँगना में गिर पड़लन । अइसन गिरलन कि तनिको टस से मस नञ भेलन ।) (सोरही॰30.20)
375 पियासल (तेरुसे लगबहिए हप्ता भर एही पुरुवी छितान पर बढ़निया उगते रहल हल - एही ढंग से । घुरियो मारे ला बरसा न होयल । पियासल धरती जगह-जगह फट गेल, फसल मारल गेल । घास-पोआर कउन कहे, पेड़, बाग सूख टटा गेल ।) (सोरही॰57.4)
376 पुट-पुट ('पुट पुट ...' करके सब झूरियो जर गेलय । अधसानल आँटा के मोहरी आगू से हटा देलक । टीन के थरिवा अलग हो गेल । मोहरी बैठल-बैठल थारी आउ आग के देख ले हल ।) (सोरही॰1.1)
377 पुरवाही (लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे ।) (सोरही॰57.11)
378 पेटकुनिया (जीतन माय जे रस्ता से जा रहली हल ओकर बगले में 'दुखहरन बाबा' के पिंडी हल । तब उनकर भीर लपकके गेली आउ उनकर आगू में पेटकुनिया देके कहो लगली - "हे दुखहरन बाबा ! हमरा जीतन बाबू के अच्छा कर देहून तो धुरियारे गोर जोरी पाठ देबो । पाँच बराहमन के पुआ-दूध से जवेनार भी करइबो । खियाल करहो दुखहरन बाबा ! आगू साल तोरा अंगरेजी बाजा बजाके बैठकी भी देबो ।") (सोरही॰23.9)
379 पोंछी (= पूँछ) (खंजन चिरई के पोंछी नियन हरमेसे नाचइत रहे ओली फुलवा के आँख कउनो के खोज रहल हल । नौरंग ओकरे दने देखके अपन बन्हुक पर ताकऽ हल आउ पागल नियन अटपट बोल रहल हल । प्रिंसिपल के देखते मातर बोलल - "बतावऽ तो प्रिंसिपल, तोहर कउन लइका हमर फुलवा के साथे चुहलबाजी कइलक हे ?") (सोरही॰13.11)
380 पोआर (= पोवार; पुआल) (मोहरी भीतरे जाके कहलक - "जरी पोआर तो बिछा द ।" कारा मोहरी के दुखल अवाज से सहम गेल । पोआर बिछाके चद्दर उठइलक । मोहरी गोड़ पसारते टोकलक, "पहिले लिट्टी तो सेंक ल ।") (सोरही॰3.6, 7)
381 पोरसिया (दे॰ पोरसिसिया) (भोजन के दिन ला जेवार के बाबा जी नेवतल गेलन । गोतिया भाई टोला-परोसा भी पीछे न रहलन । हित-नाता के नेवता तो पहिलहीं फिर गेल हल । कुछ पोरसिया में आ भी गेलन हल । बिआह से कम हलचल न हल ।) (सोरही॰17.19)
382 फइदा (= फयदा; फायदा) (सोहरा माय बूढ़ी हल । ढेर दिना के अनुभो हल । पइसा असूले में माहिर हल । दुआर पर आके बोलल - "बड़ ठंढ हइ ! तों सब तो वहाँ चल गेले हें । देख, मंगरुआ के हियाँ रुपइया बाकी रह गेल । ढोढ़ा के हियाँ तो सब कुछ रह गेल । एक मन तो करऽ हइ कि ओंहाँ कमइवे नञ करूँ ।" - "त सब की एक्के अइसन होवऽ हइ ? बड़ी कसट में हइ मामा ।" भला कारा के की मालूम कि गरजू होला से लोगन नजायज फइदा उठावऽ हथ ।) (सोरही॰4.10)
383 फरिआना ('हम तो सूते के मातर स्वर्ग में पहुँच गेली आउ ऊहाँ नन्दन वन में कल्पतरु के छाँह में बइठवे कइली हल कि लालपरी आउ नीलपरी के साथे रंभा, मेनका आउ उर्वशी आके लगला हमरा गोड़ दबावे । हमरा कुछ देर तक आँख फटल के फटले रह गेल बाकि फिनु तो खूबे रसगर नींद आयल । अच्छा तू का देखलऽ ?' / 'हम का फरिअइयो' - बाबू साहेब जवाब देलन - 'हम तो लमहर फेरा में पड़ गेलियो । नरको में चल जइती तो बेस हल ।') (सोरही॰45.4)
384 फह-फह (~ उज्जर) (दुनिया के रूप रंग-बिरंग के हे । ऊ में नौरंग के आगु केकर आँख न चउन्हिया जाय ? अप्पन इलाका के सबसे जादे धन-दौलत ओला जमीनदार, सबसे बढ़का नेता, खाजामार टोपी आउ फह-फह उज्जर धोती ।) (सोरही॰14.22)
385 फिन (= फिनो; फिर) (जहिया से ई नटिनियाँ आयल हे हमरा जीना मोहाल कर देलक हे । देखऽ न, आझ फिर मारकवऽ हे । हमरा तो अइसन बुझा हे अबकी ई हमरा जान लेके इहाँ से निकलतो । कै तुरी लड़का के कहली कि ई रकसिनियाँ के लेले जो लेकिन ऊहो हमर बात के ई कान से सुनके ऊ कान से निकाल देलक ।) (सोरही॰28.20)
386 फिनो (= फिर) (हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन । ओकरा में से एगो लइका पम्प के मोटगर जलधारा के हाथ से रोकके फुलवा दने मोड़ देलक हल । पानी से सराबोर होके छिहुल के भाग उठल हल फुलवा । फिनो बनावटी क्रोध देखाके खिसिआयल आउ मुँहजरा, पगजरौना आदि पेआर भरल कुछ गारी सुनौलक ।) (सोरही॰14.10)
387 फिरना (भोजन के दिन ला जेवार के बाबा जी नेवतल गेलन । गोतिया भाई टोला-परोसा भी पीछे न रहलन । हित-नाता के नेवता तो पहिलहीं फिर गेल हल । कुछ पोरसिया में आ भी गेलन हल । बिआह से कम हलचल न हल ।) (सोरही॰17.19)
388 फीफीहा (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।") (सोरही॰11.3)
389 फुफसस (बुढ़िया दीदी रमिया के फुफसस हल । ऊ अपन भाई हीं आयल हल । ओकर भाई अंगरेजी राज के बड़का गो गिरहत आउ छोटमुट गो जमीनदार हल । पत साल सावन के महीना में ओकरा हीं खूब जोड़-सोड़ से झूला उतसो मनावल जा हल ।) (सोरही॰34.18)
390 फेरु (= फेर, फेन, फेनु; फिर) (नवल किशोर फेरु अरज कइलन - कउनो राह बतलाहू भोले बाबा, कइसे हमनी के काम चलत, कइसे सुविधा मिलत, कइसे लड़कन-फड़कन के परवरिश चलत, कइसे बेईमान लोगन के मुँह में करिखा लगत, कइसे ईमानदारी जीतत, कइसे मेहनत के मीठा फल भेंटत !) (सोरही॰9.19)
391 बँझाना (= बाँझ होना) (सोमरी गाय के नजदीक पहुँच के सनेह से ओकर देह सहलावे लगल । ... अनमुनाही रोशनी में जब एक बेर ऊ कातर होके ताकलक त सोमरी भीतर से कट गेल । एहु अभागन जीव हमनी के खूँटा पर कउन-कउन दुख न झेललक । जउन साल भगजोगनी के बाबू आँख मुनलन, ऊ साल एहु बेचारी का कम टटाएल ? कउन ठीक एही कारण बँझा गेल कि का ?) (सोरही॰59.23)
392 बउआ ('अरे बउआ ! सभे लिट्टी ले जाके रख तो, जरा नून तेल मिचाई सान दिहें ।' - कलुवा बोलल।) (सोरही॰44.12)
393 बउआना ("नञ ... अइसन नञ हो सकऽ हे" ललाइन मामा एक-ब-एक चिहुँक उठलन मानो बइठल-बइठल बउआ रहल हथ, "ई सब छुछे बहाना हे, ढोंग हे, ऊ पागल न हे, भलुक हमरा पागल बना रहल हे ... अब हम सह न सकऽ ही ।") (सोरही॰27.26)
394 बउड़ाहा (बाकि का ऊ दूनो एक साथे हिरदा के अवाज सुनलन हे ? न, न, एगो बहादुरी में बउड़ाहा हथ तऽ दोसर राज बढ़ावे में पगलायल हथ । एगो के हिन्दुअई बहकावऽ हे तो दोसर के हिन्दू बहकावऽ हथ । बाकि हिन्दू, हिन्दुअई या मुसलमान से ऊपरे उठके देखे के कोई कोरसिस कइलन हे ?) (सोरही॰49.12)
395 बउड़ाहिन (अमीना जमुना में नेहाइत हल कि सलीमा उहाँ पहुँचल । ... सलीमा पुछलक कि ऊ दिन लंगउटी ओला आन्हर अदमी तोरा पर कउन जादू चलौलकउ कि तूँ किसुन ला बउड़ाहिन हो गेले हें ?) (सोरही॰50.1)
396 बकार (~ निकासना) (विचार मन में कइलक कि चार सौ रुपया सेठ जी से कौनो बहाना से माँग लूँ तो घरवाली के कनबाली आउ साड़ी-साया भी हो जाय । मुदा बड़का आदमी से कुछ माँगे के पहले मन, मिजाज आउ रुख गमल जाहे । सोचलक कि साँझ पहरा सेठ जी गद्दी से उठके घर जाय लगतन तब मूड़ी झुकाके उनका पिछुआयम । अपने पुछतन कि हमरा पाछु काहे चलल आवऽ हें, तब बकार निकासम ।) (सोरही॰41.15)
397 बखत (= वक्त, समय) ("मगर अखने तो रुपया नय हो जीतन माय । आउ जे तों कहली घी के दाम, से तो नय मिलतो । काहे कि जखने तोर जीतन के बाबू बैंक से भैंस लेवे ले दरखास देलखुन हल, ऊ बखत सी॰ओ॰ साहेब के दसखत कइला पर हीं रुपया मिललो हल । तखने चार किलो घी पर तय होलो हल ।" - "अच्छा, ओकरा छोड़हो मलकिनी । मगर एक सो अस्सी रुपया, जे दूध वला होवो हे, ऊ तो देबहो ने ।") (सोरही॰22.3)
398 बझल (= फँसा हुआ, व्यस्त) (ओती घड़ी राम सरन बाबू घर पर नञ हलन । उनकर मेहरी चुल्हा-चउका में बझल हलन । ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन ।) (सोरही॰28.8)
399 बड़ (= बहुत; बड़ा) (सोहरा माय बूढ़ी हल । ढेर दिना के अनुभो हल । पइसा असूले में माहिर हल । दुआर पर आके बोलल - "बड़ ठंढ हइ ! तों सब तो वहाँ चल गेले हें । देख, मंगरुआ के हियाँ रुपइया बाकी रह गेल । ढोढ़ा के हियाँ तो सब कुछ रह गेल । एक मन तो करऽ हइ कि ओंहाँ कमइवे नञ करूँ ।"; गाँव भर के जनम-मरन के हिसाब-किताब उनकर दिमाग में लिखल हे । दरगहिया भुलेटना से केतना दिन के बड़ हे, मुनेसर कोइरी के बेटा के जनम कउन महीना में कउन दिन भेल हल, दुधेसर पाँड़े के दादा कउन दिन, कउन घड़ी कउन रोग से मरलन हल आदि सब्भे बात ऊ साफ-साफ बतावऽ हथ, तनिको एने-ओने न ।) (सोरही॰4.6; 26.12)
400 बड़का (~ बेटा; ~ भाय) (पिछला एतवार के बड़का आयल हल गया से । ललाइन मामा बड़ी बेअग्गर होके कहलन हल - "देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ ।") (सोरही॰27.8)
401 बड़की (~ पुतोह; ~ बेटी) (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।"; "राम सरन बाबू न हथ का ?" ललाइन मामा पुछलन । - "जी ऊ त अनमुनाहे घर से जे निकललन हे से अबले कहाँ अयलन हे ।" राम सरन बाबू के मेहरी दाल छौंकइत कहलन । फिन ललाइन मामा दने मूड़ी घुमा के पुछलन, "आझो बड़की पुतोह कुछ बोललन हे का ?") (सोरही॰25.2; 28.16)
402 बड़हन (मगही-कहानी-संग्रह 16 कहानी के संग्रह हे । नया-पुराना सभे मगही कहानीकार के अनछपल रचना के ई संग्रह मगही साहित्य के बड़हन उपलब्धि हे तो समानान्तर विकसित भाषा के कहानी साहित्य के दिड़निर्देश आउ समान्तर समकालीन हिन्दी कहानी लेल चुनौती भी ।) (सोरही॰iii.2)
403 बढ़का (दे॰ बड़का) (दुनिया के रूप रंग-बिरंग के हे । ऊ में नौरंग के आगु केकर आँख न चउन्हिया जाय ? अप्पन इलाका के सबसे जादे धन-दौलत ओला जमीनदार, सबसे बढ़का नेता, खाजामार टोपी आउ फह-फह उज्जर धोती ।) (सोरही॰14.22)
404 बढ़की (दे॰ बड़की) (बढ़की दीदी आउ रमिया ऊ दिन अजोधेया में एकारसी के उपास कइले हलन । पारन के दिन हल । रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक ।) (सोरही॰35.10)
405 बढ़नी (मुदइया फिन ई बढ़नी उगल । बाप रे, न जानी ई साल का होयत । लगऽ हे फिन ई साल बरसा न होयत । फसल मारल जायत । अकाल पड़त । तेरुसे लगबहिए हप्ता भर एही पुरुवी छितान पर बढ़निया उगते रहल हल - एही ढंग से । घुरियो मारे ला बरसा न होयल ।; 'आउ भी बहुत कुछ भेल ...' सोमरी के आँख लोरा गेल । भोरे-भोर ऊ गोरु-डाँगर के ठीक करे ला उठल हल । पूरब अकास पर नजर जइते बढ़नी देखा गेल । सोमरी एके बेर नीचे से ऊपर तक काँप गेल ।; अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे । मोछकबरी एगो गइया हे, जे पहर भर से पोंछ झार रहल हे । मन करऽ हे, एही भोर में सुखले बढ़नी से परीछ दीं ।; पुरवा के लफार तेज हे । आलस से देह कसमसा रहल हे । मन करऽ हे, एक नीन्द आउ हो जाय । लेकिन ई मुदइया बढ़नी साहिल के काँटा के माफिक मन में बइठ गेल हे, जे रह-रह के डँस रहल हे । न जानी ई साल केकरा बहार के ले जायत ।) (सोरही॰57.1, 3, 8, 14, 21)
406 बढ़िआना (= बाढ़ आ जाना) (पूरा भीड़ दूनो तरफ दौड़ जाहे । लोर से भींजल लिट्टी कलुवा के मुँह से गिर जाहे । धलुवा ठकुआके गुनगुना हे - 'मइया के लोरवा से गंगा बढ़िअइलइ, बाबूजी के लोरे संसार । भइया के लोरे रामा जमुना बढ़िअइलइ, सभे दहौले चलल जाय ॥') (सोरही॰46.15)
407 बधोस (= बदहोश, बेहोश) (दोसर दिन दुपहर दिन चढ़ला के करीब ऊ कुआँ पर मुँह धोके उतरइत हलन कि अचक्के में गोड़ पिछुल गेल आउ ऊ औंधे मुँह अँगना में गिर पड़लन । अइसन गिरलन कि तनिको टस से मस नञ भेलन । उनका गिरते देखके तीनो पुतोह तीन दने से हाय-हाय करते दउड़ पड़लन । ललाइन मामा बधोस हलन ।) (सोरही॰30.22)
408 बन (= बन्द) (ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल । दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक ।; फुलवा के लाश नौरंग के लाश के ऊपरे अउन्हे माथे हे आउ गोड़ हैंडिल में अझुरायल हे । खून के फुहेरा अब बन हो गेल हल आउ जमके चटचटाइत हल।) (सोरही॰4.2; 16.17)
409 बन्हुक (= बन्दूक) (खंजन चिरई के पोंछी नियन हरमेसे नाचइत रहे ओली फुलवा के आँख कउनो के खोज रहल हल । नौरंग ओकरे दने देखके अपन बन्हुक पर ताकऽ हल आउ पागल नियन अटपट बोल रहल हल । प्रिंसिपल के देखते मातर बोलल - "बतावऽ तो प्रिंसिपल, तोहर कउन लइका हमर फुलवा के साथे चुहलबाजी कइलक हे ?") (सोरही॰13.13)
410 बन्हूक (दे॰ बन्हुक) ("बताओ तो कउन हे ऊ रंगदार ? हम बन्हूक के ई नोखी पर अबहीं उड़ा देही ।" एगो इटालियन दुनलिया बन्हूक के हाथ में चमका के गरज उठलन नौरंग ।; "तनी बता तो द कि कउन हवऽ ऊ हीरो लइका ?" अपन बन्हूक के चमका के नौरंग बोललन ।) (सोरही॰13.1, 2, 19)
411 बर (= बड़, बड़ा) ("कइसन तबियत हो जीतन बाबू ?" - "बर बढ़िया ।" धीरे से जुगल बोलल । - "कोय तकलीफ भी होय ?" जवाब सुने ले धियान लगावो हथ आउ दिल धुकधुक करो लगल काहे कि कहईं जो कुछ तकलीफ बतइलका तब की करम ।) (सोरही॰23.18)
412 बरदास ("देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ । बात-बात पर छोटकी पर पड़ल रहऽ हउ । बात बरदास से बाहर हो गेला पर जब हम कुछ बोलऽ ही त मारे दउड़ऽ हउ ।") (सोरही॰27.11)
413 बरना (अनस ~) ("नय, कोय तकलीफ नय हे । तों अभी कहाँ गेली हल ?" आँख खोलके जीतन माय के तरफ देखते बोलला । - "इहे मुनिया कानना शुरू कइलक हल, तो तोरा अनस बरे गुन बाहर में फुसला रहलिये हल ।) (सोरही॰23.23)
414 बलुक (= बल्कि) (इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ । डर के नञ बलुक अपन जिनगी भर के बटोरके सम्हारल मान-मरजादा बचावे खातिर ।) (सोरही॰25.19)
415 बहरसी (रुपया देते सी॰ओ॰ साहेब के जनाना बाहर झाँकलकी तो देखो हथ कि बहरसी दुआरी के बगल में एगो मेहरारु बैठल हथ । तब ओन्ने ताक के पूछो हथ - "के हा ओजा बैठल ? जरी मुँह देखावी ।" - "हम्मे हियय, जीतन माय, मलकिनी ।"; सरिता बहरसी चल अइलइ, तब से मेहमान रुसल हथिन । कहऽ हथिन कि जब ला सरिता के रंग नऽ लगइबइन तब ला नऽ तो हम खाम आउ नऽ पीअम ।) (सोरही॰21.7; 51.22)
416 बहरी (दे॰ बहरसी) (बजार के बहरी ओला नुक्कड़ पर के पुल के नीचे पीपर के पेड़ भिजुन ओला गहिड़ा में एगो मोटर कार गिरके दुर्घटना हो गेल हल । ई दुर्घटना देखके कोई दुखी न हो रहलन हल । थोड़हीं सन पहिले फुलवा के साथे, निसा में मातल अपनहीं कार हँकावइत नौरंग जाइत हलन ।) (सोरही॰16.11)
417 बहरे (= बाहरे, बहरसिये; बाहर ही) (आखिर कइसहूँ दुनहुँ पहुँचल । कारा बहरे खड़ा हो गेल । झोपड़ी में मोहरी कहँड़ रहल हल । चमइन के गेला पर कहँड़नय कम होल, मुदा तुरते कसके अवाज आल । कारा के मन उखविखा गेल । फेन चमइन आउ मोहरी के बात कारा गौर से सुने लगल ।) (सोरही॰4.21)
418 बहारना (= बाढ़ना) (पुरवा के लफार तेज हे । आलस से देह कसमसा रहल हे । मन करऽ हे, एक नीन्द आउ हो जाय । लेकिन ई मुदइया बढ़नी साहिल के काँटा के माफिक मन में बइठ गेल हे, जे रह-रह के डँस रहल हे । न जानी ई साल केकरा बहार के ले जायत ।) (सोरही॰57.22)
419 बाँकी (= बाकी, शेष) ("हमरा यहाँ केतना रुपया होतो ?" सी॰ओ॰ साहेब के मेहरारु जीतन माय के आउ कुछ बोले के पहिले पुछलकी । - "दू दू किलो करके दू मरतबे में चार किलो घी देलियन हे, जेकर एक सो रुपया होतन । आउ आज दू महीना पूरे में पनरह दिन बाँकी हन । एक किलो के दूध अबो हन ।") (सोरही॰21.22)
420 बाँट-बखरा (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।") (सोरही॰25.4)
421 बाई (= बाय) (पंडी जी समझइलथिन - अरे ई सभै के नयकी बीमारी के परकोप हइ । मंगर आउ मोहन दूनो के झपसबर अस्पताल ले चलऽ हो भाई । ई दूनो एन्सिफेलाइटिस के चक्कर में पड़ गेलथुन । ई बिमरिया में चित्त के बिगड़ जाय से आउ बाई के उभड़ जाय से पहिले मथवे खराब होवऽ हे ।) (सोरही॰46.8)
422 बाकि (= लेकिन) (नवल किशोर एम॰ए॰ के इम्तहान देवे ला सोचलन आउ फारम भरलन बाकि इनकर बड़का भाई के लड़का बेमार पड़ल आउ मर गेल । से इन्हका कठिनाई भेल । बेमारी के टैम में दवा-दारू करे पड़ल आउ ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल ।; फेन डाक्टर बने के कोरसिस कइलन तो दफ्तर के बड़ा बाबू एगो खुरचन निकाल देलन आउ दफ्तर के अफसर इनकर दरखास के दबवा देलन जे से नवल किशोर के मनोबल दब जाय आउ ऊ थउँस के बइठ जाय । बाकि नवल किशोर गजब जीवट के अदमी ।) (सोरही॰8.3, 9)
423 बाकिर (दे॰ बाकि) (बाकिर, एगो शर्त हे - कहानी छोटहन रहे । प्रेमचन्द के निन्दा भेल - किस्सागोई के वजह से।) (सोरही॰iii.19)
424 बान्हल (मानसी अधरतिया के फैलल घुच अन्हरिया में अपन नजर दउड़इलन, कहीं कुछ न लोकल । जमुना में बान्हल सीढ़ी से नीचे उतरके नेहाय जाइत हलन । फिनो अवाज सुनाइ पड़ल - "रुन-झुन, रुन-झुन" ।) (सोरही॰47.5)
425 बिन (= बिना) (मोहरी माथा उठाके कारा दने देखलक । फिन आग आउ थरिवा दने नजर झुक गेल । कारा बिन बोलले आग तर चल गेल । एन्ने-ओन्ने छितराल आग के समेटे लगल । आग फेन धुधुआय लगल ।) (सोरही॰1.13)
426 बिलटना (अभाव के दुनिया में जी करके भी ऊ कहियो अपन तीनों लड़िकन के बिलटे नञ देलन, न कबहु केकरो सामने हाथ पसारलन आउ न टुटलन । उनकर ई हिम्मत देखके समूचे डुमरा के लोग उनका मान दे हथ, सम्मान दे हथ आउ आदर भाव से कहऽ हथ - ललाइन मामा ।) (सोरही॰26.4)
427 बिहने (हम अइसन नेवता ला तइयार न हली बाकि हमरा मन में लेखक बने के ललसा बड़ी दिन से जमल हल । कोरसिस कइला पर भी कोई रचना छपल न हल । हम तुरते नस्ता के साथे चाह ला औडर देली आउ पतरिका के नाम, ओकर लगाव, बिकरी, आदि के बढ़िया उत्तर पाके उनका बिहने भेला अपना घर आवे ला नेवता दे देली ।) (सोरही॰32.9)
428 बीस (बुधिया - तोहरा बनावे के मन हइए ना हो तो बेकारे पूछऽ ह ।/ मंगरु - जानिअइ भी ? कहीं जोखा लग जाय, जोगाड़ हो जाय रुपइया के, तो काहे न बन जा सकऽ हो ।/ बुधिया - पान कहलथिन हल कि बारह अन्ना भर हइ आउ तीन सो आउ तीन बीस रुपिया खरच बइठलइ हे ।) (सोरही॰40.13)
429 बुढ़ारी (ललाइन मामा एगो लम्मा साँस लेलन त बुझायल, जइसे हवा में जहर घोर देवल गेल हे जे फैल गेल हे उनकर समूचे देह में । पीठ पर हाथ फेरलन त नस टभके लगल पकल घाव नियन । आझ भोरहरिये बड़की तनिसुन बात खातिर मार बइठल । कहाँ जमानी के काबू आउ कहाँ बुढ़ारी के टुटल देह । बड़की हलके धँसोरलक हल कि बस ललाइन मामा पीठ के बल जमीन पर आ गेलन - धड़ाम ।) (सोरही॰26.18)
430 बुताना (= (आग आदि) बुझना; बुझाना) (धलुवा ठकुआके गुनगुना हे - 'मइया के लोरवा से गंगा बढ़िअइलइ, बाबूजी के लोरे संसार । भइया के लोरे रामा जमुना बढ़िअइलइ, सभे दहौले चलल जाय ॥' - 'धत् ससुरा ! चुप भी रह ।', कलुवा खिसियाके खखुआयल, 'ईहाँ ई घूरा के आग बुता गेल आउ तोरा गउनइए सूझइत हउ ।') (सोरही॰46.17)
431 बुधगर (घर अइते हीं वैदजी के हाथ में ऊ दू सौ रुपया थमा देलक । तीन मराती रुपया गिनला के बाद वैदजी बोललन "दू सौ रुपया तो दवा के दाम होलउ आउ सूद ?" बोकारो जाके राधे बुधगर बन गेल हल । बेटा घुमले ग्यान पावऽ हे । ऊ टुभकल - "का तोरा से हम करजा लेली हल जेकर सूद खोजऽ हू ?") (सोरही॰12.7)
432 बुरबक (रे सार ! तोहनी भागऽ हँऽ कि हरा से हुरपेटिअउ ? ई सभे साला कौलेज में का गेल कि लगल हमनीए के बुरबक बनाके लड़ावे ।) (सोरही॰46.1)
433 बुलुका (दू ~ पानी) (बढ़की दीदी आउ रमिया ऊ दिन अजोधेया में एकारसी के उपास कइले हलन । पारन के दिन हल । रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक ।) (सोरही॰35.11)
434 बेंवत (= बेओंत, ब्योंत, उपाय; काम साधने की युक्ति; सहूलियत) (लालचन के दीठ छकौड़ी के मकान पर लगल हल । केतना दिन से ईंटा के घर बनावे ला सोचइत हलन । छकौड़ी के घर के बिना उनकर बेंवत ठीक न हो हल ।) (सोरही॰18.16)
435 बेअग्गर (= व्यग्र) (पिछला एतवार के बड़का आयल हल गया से । ललाइन मामा बड़ी बेअग्गर होके कहलन हल - "देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ ।"; बैदजी के बोलावल गेल । बैदजी नबज के चाल देखलन । थरमामीटर लगाके बोखार देखलन आउ फिन एगो सूई दे देलन । तनिक देर बाद ललाइन मामा आँख खोललन त इन्दर देव बेअग्गर होके पुछलन - "माय कइसन तबियत हउ ?") (सोरही॰27.9; 31.1)
436 बेकतिया (= पत्नी) (मंगरु - बात ई हइ मालिक कि बेकतिया बेराम पड़ गेल हे । इलायज डागडर के चल रहले हे । दवा-दारू ला चार सौ रुपया के जरूरत हइ । दे देथिन मालिक, कमा के अदा कर देमन ।; मंगरु - बेकतिया मर जइतइ मालिक, दाया करथिन ।) (सोरही॰41.25; 42.3)
437 बेटमारी (= बेटखौकी) (फिन ललाइन मामा दने मूड़ी घुमा के पुछलन, "आझो बड़की पुतोह कुछ बोललन हे का ?" - "हाँ कनेआ, ओही रोज-रोज के राँड़ी बेटमारी आउ का होतवऽ ।" कहइत-कहइत ललाइन मामा के गेआरी भर आयल ।) (सोरही॰28.17)
438 बेपरद (ऊ दबले जबान बोललथिन - का कहियो बाबू ! उका ऊ घरवा में सहीपुर के मेहमान घरे रंग खेले आयल हथिन । हमरो बेटिया तो ओही घरवा में हलइ, उहाँ से भाग अइलइ ।/ आउ कहलई - राम ! राम ! ई कउन तरीका हइ कि कोई मेहमान आवे तो गाँव के बेटिन साथे जइसे-तइसे रंग खेले । उहाँ सब धमधूर, धमार आउ बेपरद हँसी-मजाक करइत हथिन ।) (सोरही॰51.21)
439 बेमार (नवल किशोर एम॰ए॰ के इम्तहान देवे ला सोचलन आउ फारम भरलन बाकि इनकर बड़का भाई के लड़का बेमार पड़ल आउ मर गेल । से इन्हका कठिनाई भेल । बेमारी के टैम में दवा-दारू करे पड़ल आउ ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल ।) (सोरही॰8.3)
440 बेमारी (नवल किशोर एम॰ए॰ के इम्तहान देवे ला सोचलन आउ फारम भरलन बाकि इनकर बड़का भाई के लड़का बेमार पड़ल आउ मर गेल । से इन्हका कठिनाई भेल । बेमारी के टैम में दवा-दारू करे पड़ल आउ ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल ।; रमिया ई कहिये रहल हल कि बढ़की दीदी भी दू बुलुका फेंकलन आउ उनकर बेमारी के धरमसाला बनल देह में रहइत परान तुरते निकल गेल ।) (सोरही॰8.4; 35.16)
441 बेराम (दे॰ बेमार) (मंगरु - बात ई हइ मालिक कि बेकतिया बेराम पड़ गेल हे । इलायज डागडर के चल रहले हे । दवा-दारू ला चार सौ रुपया के जरूरत हइ । दे देथिन मालिक, कमा के अदा कर देमन ।; सेठ के बेवहार से मंगरु के दिल में भारी ठेस लगल । बुदबुदाय लगल, हम ई सेठवा के केतना सेवा कइलूँ हे । बेराम पड़ गेल हल तो रात अधरतिया आउ दिन दुपहरिया डागडर के हियाँ दौड़ा-दौड़ी कइलूँ हल ।; रुपैयो न देलक आउ बात बोलल कि करेजा में छेद हो गेल । मेहररुआ साँचे बेराम रहत हल तो अइसन में टन्ने न बोल जात हल । निगुनियाँ कहीं के ! अमीरवन के हिरदा पत्थर होवऽ हे, दाया धरम के नाम नै ।) (सोरही॰41.25; 42.9, 14)
442 बोखार (वैदजी कहो हथिन कि ई बोखार समय लेत, मगर छुटत जरूर ।; बैदजी के बोलावल गेल । बैदजी नबज के चाल देखलन । थरमामीटर लगाके बोखार देखलन आउ फिन एगो सूई दे देलन ।) (सोरही॰19.12; 30.26)
443 बोरना (आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल । जर-जरावन हल नञ, ई से खाली आँटा के लिटिए सेंकके नून मिचाई जौरे बोर-बोरके खाके पेट के छुधा बुझाके अघाय के में फिकिर हल ।) (सोरही॰44.10)
444 बोलना-भुकना (सब बात सुनके बलदेव मुसुकइत धीमे से कहलन हल, "देख माय, तू एकदमे कुछ मत बोलिहें । ओकरा बोले भुके देहीं । ऊ तो पागल हइ, ओकर पीछे हमहुँ पागल हो जाईं ।") (सोरही॰27.19)
445 बोहनी ("सब एक जइसन नञ होवऽ हथ । भला तों थोड़के दे देमें ।" बुढ़िया कारा पर उपहास कइलक । बुढ़िया के बात सुनते के साथ कारा के धिआन अपन पाँच रुपइया पर चल गेल । बिना सोचले समझले बोल देलक - "हाँ मामा, पाँच रुपइया तो नगद बोहनी कर देबउ ।") (सोरही॰4.14)
446 भगसाली (= भाग्यशाली) (अपसोस ! मोना, हमनी कम बच्चा पैदा करती हल ! हमर दोस्त राजेश केतना भगसाली हे जेकरा सिरिफ दू गो बच्चा हे । एगो बेटा, एगो बेटी !) (सोरही॰56.25)
447 भनसिआ (आग फेन धुधुआय लगल । मोहरी चुपचाप देखते रहल । हाँ ! कखनउँ-कखनउँ करवट बदल दे हल । जब कारा से नञ रहल गेल, कहलक - "हम लिट्टियन सेंक लेम, कम से कम अटवा तो सान दे । जब भगवाने हमरा भनसिआ बनइलक हे तब तों की करमें ?") (सोरही॰1.17)
448 भर (= भरी; सोना-चाँदी के तौल की एक मात्रा, 10 ग्राम; तोला) (चार आना ~ = एक तोले का चौथाई हिस्सा) (पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।; पान कहलथिन हल कि बारह अन्ना भर हइ आउ तीन सो आउ तीन बीस रुपिया खरच बइठलइ हे ।) (सोरही॰40.7, 12)
449 भाउना (= भउना; भावना; ढोंग) (चहुतरफा अन्हेरा छा गेल आउ ऊ अन्हेरिया में ललाइन मामा के लौकल जइसे धरती फट गेल हे आउ ऊ धीरे-धीरे ओकरा में समा रहलन हे सीता मइया नियन । ऊ हालीसुन अँचरा के कोर से अपन दुनो आँख पोछ लेलन । सब तस्वीर मेट गेल । ई तो उनकर मन के भाउना हल ।) (सोरही॰26.25)
450 भाग (= भाग्य) (बाकि फुलवा के भी भाग बड़ी चाँड़ हे । टूटल मड़ई, गन्दा महल्ला में जनमल आउ ई पक्का बंगला में राज कर रहल हे ।; बुधिया - बस, भेलइ । इनका भिर जरी बोलना भी भारिये हो जाहे । कहीं कनबाली बना देता तब तो काटके हमरा खाइये जइता । हम कहलूँ से फेर लेलूँ । बाज अइलूँ कनबाली से । जिरी सा बोललूँ तो अलबल बके लगला । बाप रे, अइसन मरदाना ना देखलूँ हल ।/ मंगरु - बस कासा में ठुनका लग गेलो । अजी हँसी न कर रहलियो हे । रुपिया-पइसा के जुगाड़ करऽ हियो । भाग में होतो तो बनिये जइतो ।) (सोरही॰14.16; 40.23)
451 भाय (= पति द्वारा पत्नी को संबोधित करने में प्रयुक्त शब्द) (बुधिया - ... हम्मर माय-बाप जेतना देलथुन हे तोहर माय-बाप से सात जलम ना हो सकऽ हो ।/ मंगरु - अच्छा भाय, हम मान गेलूँ कि तोहर माय-बाप धन्ना सेठ हथ आउ हम निठाह दलिद्दर ही । मुदा तोहर बाप से हम खरची न माँगऽ हियो । जाय द, पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।) (सोरही॰40.5)
452 भिजुन (ई गीत के सुर इधर लहसल कि उधर अलेल्हा आग भी लहक के धधक उठल । टील्हा भिजुन के सभे लोग आग तापे लागि जुट गेलन ।) (सोरही॰43.4)
453 भिर (बुधिया - बस, भेलइ । इनका भिर जरी बोलना भी भारिये हो जाहे । कहीं कनबाली बना देता तब तो काटके हमरा खाइये जइता । हम कहलूँ से फेर लेलूँ । बाज अइलूँ कनबाली से । जिरी सा बोललूँ तो अलबल बके लगला । बाप रे, अइसन मरदाना ना देखलूँ हल ।/ मंगरु - बस कासा में ठुनका लग गेलो । अजी हँसी न कर रहलियो हे । रुपिया-पइसा के जुगाड़ करऽ हियो । भाग में होतो तो बनिये जइतो ।) (सोरही॰40.18)
454 भिरु (= भिर, भीर; पास) (एक फरमा छपे ला बाकी हे आउ प्रेस के कुछ रुपया बकाया हे । उनका देके आउ पतरिका छपा के अपने भिरु पहुँचा देम । अपने के ई कविता बढ़िया हे पहिले पन्ना पर एकरा दे देम बाकि चार गो पन्ना बढ़ावे पड़ जायत ।) (सोरही॰32.16)
455 भीर (= भिर; पास) (जीतन माय अपन मरद भीर आके कहो हथ । "एत्ते जोर से काहे बोलो हा । आज एकइस दिना हो गेलो हे, जे खटिया पर गिरला हे से घुर के मुरियो नय उठयला हे, आउ एत्ते टनक से बोलला कि टोला-परोस के लोग सुन गेला होत ।"; "एन्ने आवो, दूरिये से की बोलो हा ।" - "की कहो हखीन मलकिनी जी ?" भीर आके गिरधारी पूछलक ।; "जीतन के बाबू मर जयता मालकिन ।" - "चाहे जे होथुन । मगर आज तो कोय हालत से रुपया नय मिलतो ।" कहइत सी॰ओ॰ के जनाना जीतन माय भीर से हँटके अपन कोठरी में हेल गेली ।) (सोरही॰19.2; 20.21; 23.1)
456 भीरी (दे॰ भीर) (पटना में किराया के मकान मिलला भी कउनो कठिन तपस्या के फले के समान हे । आउ ऑफिस के नगीच के मकान तो भगवान के मिलला से भी जादे मोसकिल हे । ऊ भला अइसन खुशनसीब कहाँ हे कि ओकरा एतना भीरी मकान मिल जाय ।) (सोरही॰55.12)
457 भुँजल (रमिया बड़की दीदी के साथे अजोधेया चल गेल । कहल जाहे राँड़ के देखके भगवानो हेरा जा हथ । हरिचंद पर विपत पड़ल तो भुँजल मछली कूदके पानी में चल गेल । अजोधेया हैजा से ओक-बोक हो रहल हल ।) (सोरही॰35.6)
458 भुसुंड (गोबिन भगत ई सुनते थिरके लगलन आउ उनकर मोट देह आउ भुसुंड तोंद के नाचल देखके सभे लोग ताली पीटे लगलन - 'वाह भगत जी ! वाह ! वाह !') (सोरही॰44.3)
459 भोरहरिये (ललाइन मामा एगो लम्मा साँस लेलन त बुझायल, जइसे हवा में जहर घोर देवल गेल हे जे फैल गेल हे उनकर समूचे देह में । पीठ पर हाथ फेरलन त नस टभके लगल पकल घाव नियन । आझ भोरहरिये बड़की तनिसुन बात खातिर मार बइठल । कहाँ जमानी के काबू आउ कहाँ बुढ़ारी के टुटल देह । बड़की हलके धँसोरलक हल कि बस ललाइन मामा पीठ के बल जमीन पर आ गेलन - धड़ाम ।) (सोरही॰26.17)
460 भोरे ("आज खइलें हें ?" - "न ... ञ ।" - "भोरे ?" - "ऊहूँ ।" - "लगऽ हउ कत्तेक दिन से नञ खइलें हें ।" - "हाँ।" - "कहिया से ?" - "परसूँ सँझिया के खइलिए हल ।") (सोरही॰4.27)
461 मँझला (भितरे से बड़की के करकस अवाज अभियो आवइत हल । जउन घर से चूड़ी खनके के अवाज अंगना से बाहर नञ जा हल, आझ ऊ घर के पुतोह के करकस अवाज से सात घर के अगना इंजोर होवऽ हे । एही सब रोज-रोज के किचकिच आउ करकर से तंग आके मँझला आउ छोटका अपन चुल्हा-चउका अलग कर लेलन, तइयो ई घर में सुख आउ शांति नञ आयल ।) (सोरही॰27.6)
462 मंदिल (= मंदिर) (उनका से एगो अदमी कहलक - "एहिजा से कुछ दूर पर एगो मंदिल बनइत हे। ओकरा में अब मूरति बइठावे ला हे । अपने बड़ अदमी लौकइत ही । अपने पर भगवान के किरपा हे आउ धरम में विसवास हे । ऊ मंदिल ला अपने कुछ दान दिहीं ।") (सोरही॰33.2, 4)
463 मउअत (चारो दने भाग-दउड़ ! समूचे आफिस में हर दने घबड़ाहट । ई महीना में हर दफे ओकरा मउअत होवऽ हे ।) (सोरही॰55.5)
464 मचिया (ओती घड़ी राम सरन बाबू घर पर नञ हलन । उनकर मेहरी चुल्हा-चउका में बझल हलन । ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन । ललाइन मामा मचिया पर बइठ गेलन ।) (सोरही॰28.8, 9)
465 मजूरी (लेकिन चहल-पहल में भी कलुवा धलुवा दूनो सवाँग के अप्पन लिटिए सिझावे के फिकिर रहल । तीन दिन से ऊ दूनो भूखल हल । मजूरी तो कइलक हल पर ऊहाँ खाली नस्ते भर मिलल हल । आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल ।) (सोरही॰44.6, 8)
466 मदत (= मदद) (कलुवा गीतियो गावइत जाइत हल आउ सात गो लिटियो सेंके के फिकिर करइत हल । ओकर बुतरुआ धलुवा भी ओकरे मदत में लगल हल ।) (सोरही॰43.7)
467 मदाड़ी (= मदारी) ("धाँय-धाँय" असमानी फायर करके करोध में मातल लाल-लाल आँख कइले नौरंग के सभे देखलन । उनकर पाछे उनकर छाया नियन जरवेट के साड़ी में अइँठइत फुलवा भी हल । मदाड़ी के खेल देखे जइसन सभे बहरा गेलन ।) (सोरही॰13.10)
468 ममोड़ना (= ममोरना; ऐंठना) (अइसन भी बज्जर अकाल पड़ऽ हे । तिनका तिनका झुलस गेल । भगवान भी अइसन पथरा गेलन कि साल भर लोर भी न चुअएलन । जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।) (सोरही॰58.14)
469 मरल (~ जाना) ("हमर माय मरल जाहे, चलके देख ल वैद जी" - अप्पन दुनू हाथ जोड़के राधे सिसके लगल । "ई घड़ी हमरा चूतड़ कलकलावे के भी फुरसत न हउ । एगो हर्रे, सउँसे गाँव खोंखी । तू अप्पन माय के दवाखाना में ले आउ" - वैद जी राधे के कहलन ।) (सोरही॰10.6)
470 मराती (= तुरी; मर्तबे, बार) (सूई भोंक के पइसा कमाये में ऊ बहादुर हो गेलन हल मगर नस में पानी चढ़ावे में सिहरी न फटल हल । ऊ रोगी के देह में कई मराती सूई भोंकलन । जब सूई नस में घुसल तो उ अप्पन भाग के सराहे लगलन ।; घर अइते हीं वैदजी के हाथ में ऊ दू सौ रुपया थमा देलक । तीन मराती रुपया गिनला के बाद वैदजी बोललन "दू सौ रुपया तो दवा के दाम होलउ आउ सूद ?") (सोरही॰11.7; 12.5)
471 मसलंद (= मसनद) (सेठ गद्दी पर आराम से लेटल हे मसलंद से ओठंग के । मुँह में पान के गिलौरी चबा रहल हे ।) (सोरही॰42.21)
472 मसोमात (ललाइन मामा मसोमात हो गेला पर जेतना मुसीबत आउ दुख सहके अपन छोटा-छोटा लड़िकन के पाल-पोस के पढ़वलन आउ बिआहलन, ई वास्ते गाँव के अच्छा-अच्छा लोग उनकर लोहा मानऽ हथ ।) (सोरही॰26.1)
473 मातर (= ही) (खंजन चिरई के पोंछी नियन हरमेसे नाचइत रहे ओली फुलवा के आँख कउनो के खोज रहल हल । नौरंग ओकरे दने देखके अपन बन्हुक पर ताकऽ हल आउ पागल नियन अटपट बोल रहल हल । प्रिंसिपल के देखते मातर बोलल - "बतावऽ तो प्रिंसिपल, तोहर कउन लइका हमर फुलवा के साथे चुहलबाजी कइलक हे ?") (सोरही॰13.14)
474 मान-मरजादा (= मान-मर्यादा) (इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ । डर के नञ बलुक अपन जिनगी भर के बटोरके सम्हारल मान-मरजादा बचावे खातिर । उनका विसवास हे, धन बटोरे के अनेक रस्ता हे, लेकिन समाज में रहके मान-मरजादा आउ जस बटोरे के एकेगो रस्ता हे - ईमान-धरम । जउन दिन आदमी अपन दिल से ई गुन निकाल फेंकऽ हे, ऊ दिन ओकर मान-मरजादा मर जाहे, जस अपजस बन जाहे ।; आउ ऊ गोस्सा से तमतमायल लम्मा लम्मा डेग लफावइत चल पड़लन सरन बाबू के घर, इंसाफ खातिर । राम सरन बाबू गाँव के नामी-गिरामी आदमी हथ, मान-मरजादा, धन आउ सोहरत में ढेर आगे बढ़ल । मुखिया न मुदा तइयो गाँव के लोग उनका से इंसाफ करावऽ हथ ।) (सोरही॰25.20, 21, 23; 28.4)
475 माफ-साफ ( अब ओकर मुरझायल मुँह खिल उठल आउ बोलल - "पाँच एकड़ से कम वला किसान के तो बिहार सरकार मालगुजारी माफ कर देलक हे । हमरा तो पाँच कट्ठा भी जमीन न हे । अपने केतना मालगुजारी माफ कर रहली हे ।" - "एही न रड़घौंज करे लगलँऽ । अभी तोर गोटी लाल न होलउ हे । माफ-साफ के बात का करऽ हँ । दस दिन तक कोई सूद न लेबउ ।" वैदजी ई कहके अप्पन घर चल गेलन ।) (सोरही॰11.19)
476 मामा (= मम्मा; दादी) (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।") (सोरही॰25.1)
477 माय (बैदजी के बोलावल गेल । बैदजी नबज के चाल देखलन । थरमामीटर लगाके बोखार देखलन आउ फिन एगो सूई दे देलन । तनिक देर बाद ललाइन मामा आँख खोललन त इन्दर देव बेअग्गर होके पुछलन - "माय कइसन तबियत हउ ?") (सोरही॰31.1)
478 मीठगर ("उगले रहिहऽ ।" छोटकी पुतोह दने देखके ललाइन मामा एतना कहवे कइलन हल कि उनकर आँख मुँद गेल हमेशा खातिर । दहाड़ मारके छोटकी उनकर गोड़ पर गिर पड़लन । एने ओही घड़ी अँगना के ऊपर से एगो मीठगर अवाज टपकल - उठ काकी ... उठ ! सेता राम ... सेता राम बोल काकी !! रुपूऽ रे ... टाँयऽऽ ... टाँयऽऽ !!) (सोरही॰31.15)
479 मुँहजरा (हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन । ओकरा में से एगो लइका पम्प के मोटगर जलधारा के हाथ से रोकके फुलवा दने मोड़ देलक हल । पानी से सराबोर होके छिहुल के भाग उठल हल फुलवा । फिनो बनावटी क्रोध देखाके खिसिआयल आउ मुँहजरा, पगजरौना आदि पेआर भरल कुछ गारी सुनौलक ।) (सोरही॰14.10)
480 मूड़ी ("जी ऊ त अनमुनाहे घर से जे निकललन हे से अबले कहाँ अयलन हे ।" राम सरन बाबू के मेहरी दाल छौंकइत कहलन । फिन ललाइन मामा दने मूड़ी घुमा के पुछलन, "आझो बड़की पुतोह कुछ बोललन हे का ?"; विचार मन में कइलक कि चार सौ रुपया सेठ जी से कौनो बहाना से माँग लूँ तो घरवाली के कनबाली आउ साड़ी-साया भी हो जाय । मुदा बड़का आदमी से कुछ माँगे के पहले मन, मिजाज आउ रुख गमल जाहे । सोचलक कि साँझ पहरा सेठ जी गद्दी से उठके घर जाय लगतन तब मूड़ी झुकाके उनका पिछुआयम । अपने पुछतन कि हमरा पाछु काहे चलल आवऽ हें, तब बकार निकासम ।; 'सुतवे कइली हल कि काली माई अपन जीभ लपलपावइत हाथ में लमहर तेगा लेले पहुँचला आउ खिसियाके कहला - खा हें ई सभे लिट्टी कि तोहर मूड़ी काट देईं ?'; जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।) (सोरही॰28.16; 41.14; 45.9; 58.14)
481 मेमिअइनी (लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे ।) (सोरही॰57.12)
482 मेहरी (ओती घड़ी राम सरन बाबू घर पर नञ हलन । उनकर मेहरी चुल्हा-चउका में बझल हलन । ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन ।) (सोरही॰28.7)
483 मोछकबरी (लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे । मोछकबरी एगो गइया हे, जे पहर भर से पोंछ झार रहल हे । मन करऽ हे, एही भोर में सुखले बढ़नी से परीछ दीं ।) (सोरही॰57.12)
484 मोटगर (फुलवा के अन्दर के बिगड़ल भूख जाग उठल हल न का ? ई से रोज ऊ केबिन पर आवऽ हल । ऊ दिन भी आयल हल आउ निचलका चहबच्चा पर बइठ के लुआ खंघारइत हल । हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन । ओकरा में से एगो लइका पम्प के मोटगर जलधारा के हाथ से रोकके फुलवा दने मोड़ देलक हल ।) (सोरही॰14.8)
485 मोटाना (कमनिस्टवन ठीके कहऽ हलइ कि सेठ समाज के जोंक होवऽ हे । दोसर के खून पी-पीके मोटाऽ हे । अच्छा तो हमर नाम मंगरु याद करतन ।) (सोरही॰42.17)
486 रकसिनियाँ (जहिया से ई नटिनियाँ आयल हे हमरा जीना मोहाल कर देलक हे । देखऽ न, आझ फिर मारकवऽ हे । हमरा तो अइसन बुझा हे अबकी ई हमरा जान लेके इहाँ से निकलतो । कै तुरी लड़का के कहली कि ई रकसिनियाँ के लेले जो लेकिन ऊहो हमर बात के ई कान से सुनके ऊ कान से निकाल देलक ।) (सोरही॰28.21)
487 रखना-उखना (मंगरु - अच्छा तो धरती में गड़के कुछ रखलऽ-उखलऽ हे तो निकालऽ या माय-बाप चुप्पे-चोरी कुछ देलथुन होत तो सही सही बतावऽ ।/ बुधिया - जा जा, अप्पन काम पर जा, तोहरा से बात के बतंगड़ के करे ? का तो हम धरती में गड़ली हे रुपिया-पइसा । गोइठा-उइठा ला भी दस-बीस पइसा माँगऽ हियो सेकरो हिसाब तों लेइए ले हऽ ।) (सोरही॰39.22)
488 रड़खेपा ("कोई कइसे मर जा हइ दीदी, भगवान हमनियों के धरती पर से उठा लेतन हल । ई रड़खेपा खेपे ला काहे रखले हऽ भगवान ?" कहते-कहते रमिया के आँख डबडबा गेल ।; रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक । अइसहीं तीन-चार दफे फेंकलक आउ ओकर नस तीर लेलक । कइसहूँ कुहुँर के बोलल - "अच्छा हो दीदी, इहईं मर जइयो तो ठीक हो । रड़खेपा के जिनगी से मरके भगवान हीं चल जाईं तो एकरा से बढ़के आउ का चाही ?") (सोरही॰34.8; 35.14)
489 रड़घौंज (= रड़घौंजी) (अब ओकर मुरझायल मुँह खिल उठल आउ बोलल - "पाँच एकड़ से कम वला किसान के तो बिहार सरकार मालगुजारी माफ कर देलक हे । हमरा तो पाँच कट्ठा भी जमीन न हे । अपने केतना मालगुजारी माफ कर रहली हे ।" - "एही न रड़घौंज करे लगलँऽ । अभी तोर गोटी लाल न होलउ हे । माफ-साफ के बात का करऽ हँ । दस दिन तक कोई सूद न लेबउ ।" वैदजी ई कहके अप्पन घर चल गेलन ।) (सोरही॰11.18)
490 रसगर (~ बात; ~ नींद) (कारा के रसगर बात से मोहरी के ओठ विहँसल मुदा तुरते मलीन हो गेल । धीरे से बोलल, "हमरा से नञ ..." - "काहे ?" -"हमरा ... हमर बतिया समझहो काहे नञ ? हमरा से नञ होतो ।" - "आखिर बात की हे ? जरी सुनिअइ तो ... ।" - "तों गँवारे रह गेलऽ । तोरा की फिकिर हे । सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।"; हम तो सूते के मातर स्वर्ग में पहुँच गेली आउ ऊहाँ नन्दन वन में कल्पतरु के छाँह में बइठवे कइली हल कि लालपरी आउ नीलपरी के साथे रंभा, मेनका आउ उर्वशी आके लगला हमरा गोड़ दबावे । हमरा कुछ देर तक आँख फटल के फटले रह गेल बाकि फिनु तो खूबे रसगर नींद आयल । अच्छा तू का देखलऽ ?) (सोरही॰1.17; 45.2)
491 रहनइ ("अरे हाँ, तोरा तो कालू के माय कड़र चीज से परहेज बतइलकउ हल ।" कारा आँटा सननञ छोड़के कहलक, "तोरा एजा रहनइ ठीक नञ हउ रात के एतना ठंढ हे । गाम पर के बात दोसर हल । एक बीघा खेत मिलल । अभी कब्जा भी नञ होल कि दोसर गाम बसावे पड़ल आउ गउँढ़ा के दस कट्ठा जागीर भी हाथ से निकल गेल ।") (सोरही॰2.12)
492 राँड़ी (फिन ललाइन मामा दने मूड़ी घुमा के पुछलन, "आझो बड़की पुतोह कुछ बोललन हे का ?" - "हाँ कनेआ, ओही रोज-रोज के राँड़ी बेटमारी आउ का होतवऽ ।" कहइत-कहइत ललाइन मामा के गेआरी भर आयल ।) (सोरही॰28.17)
493 रास (= किसी वस्तु की गिनती का संकेत शब्द, प्रकार, भेद, यथा: पाँच रास मिठाई) (जेवनार पर बइठल लोग के सातो रास परसायल । लोग सराह-सराह के खयलन । चूड़ा-दही के बाद रंक के भी पूआ परोसल गेल ।) (सोरही॰17.27)
494 रुन्हल ("हम्मर माय दवाखाना में पैदल आवे जुकुर न हइ । टाँग-टूँग के लावे में टें बोले के डर हे । दरजनो कै-दस्त होवे से ओकर हाथ-गोड़ ऐंठ रहल हे । एही से घर चलके इलाज करे ला कह रहली हे ।" राधे रुन्हल कंठ से बोलल आउ अप्पन आँख के लोर धोती के कोर से पोछे लगल ।) (सोरही॰10.11)
495 रुपिया (बुधिया - तोहरा बनावे के मन हइए ना हो तो बेकारे पूछऽ ह ।/ मंगरु - जानिअइ भी ? कहीं जोखा लग जाय, जोगाड़ हो जाय रुपइया के, तो काहे न बन जा सकऽ हो ।/ बुधिया - पान कहलथिन हल कि बारह अन्ना भर हइ आउ तीन सो आउ तीन बीस रुपिया खरच बइठलइ हे ।) (सोरही॰40.13)
496 रुपिया-पइसा (मंगरु - अच्छा तो धरती में गड़के कुछ रखलऽ-उखलऽ हे तो निकालऽ या माय-बाप चुप्पे-चोरी कुछ देलथुन होत तो सही सही बतावऽ ।/ बुधिया - जा जा, अप्पन काम पर जा, तोहरा से बात के बतंगड़ के करे ? का तो हम धरती में गड़ली हे रुपिया-पइसा । गोइठा-उइठा ला भी दस-बीस पइसा माँगऽ हियो सेकरो हिसाब तों लेइए ले हऽ ।) (सोरही॰40.1)
497 रुसना (= रूठना) (मन में एगो अजगुत डर समायल हल । उनकर हालत ऊ हदसल चिरईं नियन भेल हल, जे शिकारी के जाल में फँसल मौत के राह देखइत हो । ऊ रात ललाइन मामा के आँख में नीन नञ आयल मानो तकदीर जोरे नीनो हुनका से रुस गेल होय । रात भर ऊ उखीबिखी रहलन ।) (सोरही॰30.17)
498 रुसल (सरिता बहरसी चल अइलइ, तब से मेहमान रुसल हथिन । कहऽ हथिन कि जब ला सरिता के रंग नऽ लगइबइन तब ला नऽ तो हम खाम आउ नऽ पीअम ।) (सोरही॰51.22)
499 रेयान (ललाइन मामा के लड़ाई-झगड़ा के जिनगी तनिको पसन्द न हे । उनकर समझ से जउन घर में ई सब नटलीला होवऽ हे, ऊ घर के लोग रेयान से भी गेल-गुजरल होवऽ हथ । इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ ।) (सोरही॰25.17)
500 रोवा-कानी (उनका गिरते देखके तीनो पुतोह तीन दने से हाय-हाय करते दउड़ पड़लन । ललाइन मामा बधोस हलन । टाँग-टूँग के उनका अँगना में खटिया पर सुतावल गेल आउ होश में लावे के उपाय कइल गेल । एने घर में रोवा-कानी शुरू हो गेल ।) (सोरही॰30.24)
501 रोसगदी (= रोसकद्दी, रुखसत) (रमिया के मन करऽ हल कि ऊ अजोधेया के झूला पर भगवान के दरसन करइत । इनसाल ओकर फूआ दीदी उहाँ जा हलथिन । ई से ओहू अपन घर के मालिक के पुछलक बाकि ओकरा औडर न मिलल । हिन्दू के घर में राँड़ मेहरारु के कउन हालत होहे, का ई केकरो से छिपल हे ? हे भगवान, हमरा काहे ला जीअवले हऽ । एगो बेटा हल, ओकरा बिआह देवे कइली, रोसगदी होइए गेलइ । अब हमरो उठा लऽ ।) (सोरही॰34.25)
502 लंगट-बोकारी (ऊ टुभकल - "का तोरा से हम करजा लेली हल जेकर सूद खोजऽ हू ?" वैदजी के गोस्सा सतमा असमान छू लेलक - "बोकारो से अइलऽ हँ तो लंगट-बोकारी मत कर । हम तोर माय के जान बचैली हे । एक सौ रुपया आउ लेबउ ।") (सोरही॰12.9)
503 लगबहिए (मानसी के माथा लजाके नेंव गेल आउ सलीमा लगबहिए कहते गेल - "अकबरो भारत के अपने देस मानऽ हथ आउ राना परताप ला तो देस से बढ़के कुछो हइये नऽ हे । बाकि का ऊ दुनो एक साथे हिरदा के अवाज सुनलन हे ?"; मुदइया फिन ई बढ़नी उगल । बाप रे, न जानी ई साल का होयत । लगऽ हे फिन ई साल बरसा न होयत । फसल मारल जायत । अकाल पड़त । तेरुसे लगबहिए हप्ता भर एही पुरुवी छितान पर बढ़निया उगते रहल हल - एही ढंग से । घुरियो मारे ला बरसा न होयल ।; तनी रहे त तनी, एकबारगी तीन-तीन भात । एक भात मतलब दू मन चाउर । कहाँ तक करेजा बाँधूँ । केतना आरजू-मिनती कइलूँ कि ई राँड़ बेवा पर किरपा करऽ ऐ पंच-परमेश्वर लोग, एक भात पर मान जा । बाकि के मानऽ हे । त, तीनो भात एक्के साथ, जाने केतना हथजोड़िया पर मानलन कि तीन भात तीन साल में, बाकि लगबहिए ।) (सोरही॰49.9; 57.3; 59.6)
504 लटपट (नवल किशोर ईमानदार किरानी हलन - न ऊधो के लेना न माधव के देना - हरहर-पटपट से दूर । टेम से दफ्तर जाना, टेम से डेरा आना, कउनो तरह के लटपट में शरीक न होना । दफ्तर के अफसर लोग इन्हका बेवकूफ समझऽ हलन आउ कहऽ हलन ई ढेर जिद्दी हथ ।) (सोरही॰7.10)
505 लड़कन-फड़कन (नवल किशोर फेरु अरज कइलन - कउनो राह बतलाहू भोले बाबा, कइसे हमनी के काम चलत, कइसे सुविधा मिलत, कइसे लड़कन-फड़कन के परवरिश चलत, कइसे बेईमान लोगन के मुँह में करिखा लगत, कइसे ईमानदारी जीतत, कइसे मेहनत के मीठा फल भेंटत !) (सोरही॰9.20)
506 लपकना (एतने में कलुआ माय बोलल - "कारा ! कारा ! रे कारा !!!" - "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।" - "अच्छा तुरते ।" एतना कहके कारा डीह दने सोझिया गेल । कलुआ माय फेन कहलक, "अरे कलुओ के साथे ले ले ।" लपक के कारा कलुआ के जगइलक ।; ओकर शरीर सिहरे लगल । रोमाँ रोमाँ तक कपे लगल । ओकर नजर आग पर गेल, जेजा लिट्टी लगल हल । ओकरा ठंढ से बचे के चाही । लपक के आग तर गेल । देखलक कि लिट्टियन सब जर गेल हल ।) (सोरही॰3.22; 5.18)
507 लफार (पुरवा के लफार तेज हे । आलस से देह कसमसा रहल हे । मन करऽ हे, एक नीन्द आउ हो जाय । लेकिन ई मुदइया बढ़नी साहिल के काँटा के माफिक मन में बइठ गेल हे, जे रह-रह के डँस रहल हे । न जानी ई साल केकरा बहार के ले जायत ।) (सोरही॰57.20)
508 लबनी (लेकिन चहल-पहल में भी कलुवा धलुवा दूनो सवाँग के अप्पन लिटिए सिझावे के फिकिर रहल । तीन दिन से ऊ दूनो भूखल हल । मजूरी तो कइलक हल पर ऊहाँ खाली नस्ते भर मिलल हल । आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल ।) (सोरही॰44.8)
509 लमछड़ (= लमगर; लम्बा) (हम्मर जे नैनाकाजर हथिन न, उनका हीं हम आझ गेलियो हल । पान के दुलहवा कलकत्ता में मटर हाँकऽ हथिन । उनका तूँ देखवे कैलहो हे, गोर-गोर लमछड़ करिया-करिया कड़ा-कड़ा मोछवाला । कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे ।) (सोरही॰39.6)
510 लमहर (आग के धुइयाँ खतम हो गेल हल । आग के लमहर-लमहर सीक लहलहा रहल हल । मोहरी गोड़ पसारे लगल तो लोटा भी लोघड़ा गेल आउ पानी गिरे लगल ।; 'अच्छा तू का देखलऽ ?' / 'हम का फरिअइयो' - बाबू साहेब जवाब देलन - 'हम तो लमहर फेरा में पड़ गेलियो । नरको में चल जइती तो बेस हल ।'; 'सुतवे कइली हल कि काली माई अपन जीभ लपलपावइत हाथ में लमहर तेगा लेले पहुँचला आउ खिसियाके कहला - खा हें ई सभे लिट्टी कि तोहर मूड़ी काट देईं ?') (सोरही॰1.4; 45.4, 7)
511 लम्मा (= लम्बा) (आउ ऊ गोस्सा से तमतमायल लम्मा लम्मा डेग लफावइत चल पड़लन सरन बाबू के घर, इंसाफ खातिर । राम सरन बाबू गाँव के नामी-गिरामी आदमी हथ, मान-मरजादा, धन आउ सोहरत में ढेर आगे बढ़ल । मुखिया न मुदा तइयो गाँव के लोग उनका से इंसाफ करावऽ हथ ।) (सोरही॰28.2)
512 ललसा (= लालसा) (हम अइसन नेवता ला तइयार न हली बाकि हमरा मन में लेखक बने के ललसा बड़ी दिन से जमल हल । कोरसिस कइला पर भी कोई रचना छपल न हल । हम तुरते नस्ता के साथे चाह ला औडर देली आउ पतरिका के नाम, ओकर लगाव, बिकरी, आदि के बढ़िया उत्तर पाके उनका बिहने भेला अपना घर आवे ला नेवता दे देली ।) (सोरही॰32.7)
513 लहकना (ई गीत के सुर इधर लहसल कि उधर अलेल्हा आग भी लहक के धधक उठल । टील्हा भिजुन के सभे लोग आग तापे लागि जुट गेलन ।) (सोरही॰43.4)
514 लहकल (अपन बिआह के बाजा-गाजा, मड़वा के चहल-पहल आउ सोहाग के कोहबर सभे सिनेमा के तरह उनकर दिमाग के परदा पर आवे जाय लगल । लहकल आग के बुतावे ला पानी देवे जइसन ऊ अपन बात के आगे बढ़ौलन - "इनसाल सावन में हम अजोधेया जी जा हियो कनेवाँ, चले ला होतो तो कहिहऽ ।") (सोरही॰34.13)
515 लहसना (= इतराना, इठलाना; अपनी जिद पर अड़ना; कहा नहीं सुनना) (ई गीत के सुर इधर लहसल कि उधर अलेल्हा आग भी लहक के धधक उठल । टील्हा भिजुन के सभे लोग आग तापे लागि जुट गेलन ।) (सोरही॰43.4)
516 लागि (= लागी, लगी; के लिए) (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।"; लेकिन जब ललाइन मामा के देह थक गेल, उनका से काम-धन्धा नञ सपरे लगल त सुग्गी के खेयाल भी उनकर मन से उतर गेल । कोय-कोय दिन सुग्गी के अन्न-जल से भी भेंट नञ होवे । ई सेती जब राम सरन बाबू के छोटकी बेटी सुग्गी लागि जिद करे लगल त ऊ ओकरा दे देलन हल । रात में छोटकी पुतोह के बहुत कहे-सुने पर जब ललाइन मामा खाय लागि बइठलन त अन्न-जल न ढुकल ।) (सोरही॰25.10; 30.10, 12)
517 लाठा-कुड़ी (चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो । बोकारो में दूर-दराज के ढेर लोग ईंटा के चिमनी भट्ठा में काम कर रहलन हल । राधे भी ईंटपारा बन गेल । लाठा-कुड़ी चलावे से कोई मतलब न, रूखा-सूखा दस रुपए हजार ।) (सोरही॰11.27)
518 लार-पोआर ("हमर माय मरल जाहे, चलके देख ल वैद जी" - अप्पन दुनू हाथ जोड़के राधे सिसके लगल । ... वैद जी छो-पाँच में पड़ गेलन । राधे बड़ी देर से अरदसिया लगइले हल । ओकर उखी-बिखी देखके ऊ कहलन - "तू आगु चल । हम साइकिल से आ रहली हे ।" वैद जी के अइते-अइते रोगी लार-पोआर हो गेल ।) (सोरही॰10.15)
519 लास-फास (राधे के आँख तर अन्हार छा गेल । ऊ हिसाब करके बोलल - "हमरा रुपइया के मोह न हे, तू इलाज करऽ । देह-समांग रहतो तो पाई-पाई चुकता कर देवो ।" "उधार इलाज करे में हमरा संस-बरक्कत न मिलऽ हे । दवा खरीदे में पूँजी लगऽ हे । रोग दूर हो गेला पर लोग साँझ-बिहान करे लगऽ हथ । जेकर टेंट में पइसा न हे ओकरा से हम लास-फास न रखऽ ही ।") (सोरही॰11.1)
520 लुआ (= लुग्गा) (फुलवा के अन्दर के बिगड़ल भूख जाग उठल हल न का ? ई से रोज ऊ केबिन पर आवऽ हल । ऊ दिन भी आयल हल आउ निचलका चहबच्चा पर बइठ के लुआ खंघारइत हल । हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन ।) (सोरही॰14.6)
521 लूगा (गरीब के गाय आउ गरीब के धरम ला कहाँ भेस धरइत ह रामजी ? द्रौपती के लाज ला बहत्तर गज लूगा भेजवलऽ, हमनी गरीब के भात के पाँक से उबारऽ ए किरपानिधान !) (सोरही॰60.1)
522 लूर (वैदजी के गोस्सा सतमा असमान छू लेलक - "बोकारो से अइलऽ हँ तो लंगट-बोकारी मत कर । हम तोर माय के जान बचैली हे । एक सौ रुपया आउ लेबउ ।" "जादे नींबू मले से तीता हो जाहे । तू हम्मर माय के जान बचइलऽ हे तो का हम्मर जान ले लेवऽ ?" राधे जिरह कइलक - "तू तो हम्मर माय के देह पर अप्पन हाथ साफ कइलऽ हे । तोरा तो निमन से पानी चढ़ावे के भी लूर न हो ।") (सोरही॰12.12)
523 लूर-लच्छन (शिल्प के नवप्रयोग के ललक, अन्तर्गूढ़ता, कथानक के ह्रास, ... आत्मान्वेषण आउ जटिल परिवेश के विडम्बना के पकड़, कुल मिलाके नया जीवन मूल्य या मानव मूल्य के स्थापना लागि प्रयास, आझ के कहानी के लूर-लच्छन यही सभे तो हथ । आउ ई सेंगरन ई सभे लूर-लच्छन से सेंगरल-सँवरल हे ।) (सोरही॰iii.11, 12)
524 लोराना (आँख ~) (कचोटे ओला ई बात सुनके कउनो अदमी के हिरदा में घाव हो सकऽ हे, लेकिन ललाइन मामा कुछ न बोललन । चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल गेलन । उनकर आँख लोरा गेल हल ।) (सोरही॰25.12)
525 लोरायल (ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन । ललाइन मामा मचिया पर बइठ गेलन । उनकर देह अभियो काँपइत हल ठूँठ दरखत नियन । राम सरन बाबू के मेहरी गोड़ लगला के बाद हाल-चाल पूछे लगलन । फिन उनकर चेहरा पर छायल उदासी आउ लोरायल आँख देखके ऊ सब बात समझ गेलन ।) (सोरही॰28.11)
526 विंडोबा (ओती घड़ी ऊ अपन पीछे के पूरा जिनगी भूल गेलन । लेकिन छने भर बाद बड़की पुतोह के तमतमाएल चेहरा उनकर आँख के सामने जोड़ से घुम गेल विंडोबा नियन ... एकदम डराउना । ऊ उठे ला चाहलन तो देह काँप गेल ।) (सोरही॰29.8)
527 शुक्कर (= शुक्र ग्रह या दिन) (लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे ।) (सोरही॰57.10)
528 सँहसता (= सस्ता) (छव-छव गो बच्चा के फौज लेके चलल का एतना आसान हे ? आउ इस्कूलो में पढ़ाई एतना सँहसता हे का ? मोना, उहाँ हम दफ्तर में मरऽ ही आ इहाँ अफसोस में तूँ मरऽ हऽ ।) (सोरही॰56.19)
529 संस-बरक्कत (राधे के आँख तर अन्हार छा गेल । ऊ हिसाब करके बोलल - "हमरा रुपइया के मोह न हे, तू इलाज करऽ । देह-समांग रहतो तो पाई-पाई चुकता कर देवो ।" "उधार इलाज करे में हमरा संस-बरक्कत न मिलऽ हे । दवा खरीदे में पूँजी लगऽ हे । रोग दूर हो गेला पर लोग साँझ-बिहान करे लगऽ हथ ।) (सोरही॰10.25)
530 सउँसे (नवल किशोर कहइत हलन - एगो चिनगारी सउँसे मकान के जराके खाक कर सकऽ हे तो एगो अमदी का कम ताकत रखइत हे ? सउँसे टाटानगर एगो जमशेद जी टाटा के दिमाग के उपज हे, ई सधारन बात हे की !) (सोरही॰7.23, 24)
531 सकड़ियाल (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।") (सोरही॰11.2)
532 सगरो (खेत में न तो मजूर के काम मिले लगल, न घर में भीख । अप्पन जान केकरा पिआरा न होवऽ हे । चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो ।) (सोरही॰11.26)
533 सटले (फुलवा के घर कौलेज होस्टल के सटले केबिन भिजुन नौरंग के बनवावल सब सुख-सुविधा से भरल-पूरल हल ।) (सोरही॰14.2)
534 सटिफिकिट (= साटिकफिटिक; सर्टिफिकेट) (उनकर मेहनत आउ अपन लगन से कुछे दिन में सुग्गी पड़िआइन हो गेल हल, सब बात सीख लेलक हल । फिन तो गाँव-जेवार में ललाइन मामा के सुग्गी के नाम ओइसहीं खिल गेल जइसे मैदान में जितल कोय नेता के नाम खिल जा हे । फिन का हल, गाँव के केतनन सुग्गा-सुग्गी ओकर नकल करके बिना सटिफिकिट के बोलना सीख गेलन ।) (सोरही॰30.7)
535 सत-गत (छकौड़ी हलन तो अमीर बाकि जमीनदारी जाय के बाद उनकर हालत पातर हो गेल हल । बहिन के बिआह में बाप के अरजल आठ बिगहा टाँड़ साफ हो गेल हल । सालो न लगल हल कि माय चल बसलन । लोग जुटके सलाह देलन - लाश के सत-गत गंगा में होयत ।) (सोरही॰17.4)
536 सननञ (= सननई, सननईं; सानने की क्रिया) ("अरे हाँ, तोरा तो कालू के माय कड़र चीज से परहेज बतइलकउ हल ।" कारा आँटा सननञ छोड़के कहलक, "तोरा एजा रहनइ ठीक नञ हउ रात के एतना ठंढ हे । गाम पर के बात दोसर हल । एक बीघा खेत मिलल । अभी कब्जा भी नञ होल कि दोसर गाम बसावे पड़ल आउ गउँढ़ा के दस कट्ठा जागीर भी हाथ से निकल गेल ।") (सोरही॰2.12)
537 सपरना (= ओरियाना, पार लगना, सँभलना) (फिन तो गाँव-जेवार में ललाइन मामा के सुग्गी के नाम ओइसहीं खिल गेल जइसे मैदान में जितल कोय नेता के नाम खिल जा हे । फिन का हल, गाँव के केतनन सुग्गा-सुग्गी ओकर नकल करके बिना सटिफिकिट के बोलना सीख गेलन । लेकिन जब ललाइन मामा के देह थक गेल, उनका से काम-धन्धा नञ सपरे लगल त सुग्गी के खेयाल भी उनकर मन से उतर गेल ।) (सोरही॰30.8)
538 सबेरहीं (= जल्दी ही) (ऊ थकके चूर हल तइयो अपन अवाज के कोसिस भर नरम बनाके बोलल - का बात हे ? लाइन कट गेल हे का ? कखनी से ? ढेर देरी से ? आउ लइकन आझ बड़ा सबेरहीं सुत गेलन सब ! देखऽ न, आझ आफिसे में तनी देर हो गेल । का करी, ई मार्च के महीना - अइसन जनमरु हे कि ... ।) (सोरही॰56.1)
539 समदना (दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक । कारा तुरते सब हाल बता देलक । कारा के ओजय बइठा के सोहरा भीतर दने गेल अउ माय के सब बात समद देलक ।) (सोरही॰4.4)
540 सम्हारना ("तों गँवारे रह गेलऽ । तोरा की फिकिर हे । सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।" उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ ।") (सोरही॰2.2)
541 सम्हारल (इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ । डर के नञ बलुक अपन जिनगी भर के बटोरके सम्हारल मान-मरजादा बचावे खातिर ।) (सोरही॰25.20)
542 सरियत (निमक के ~ रखना) (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।") (सोरही॰11.4)
543 सवासिन (घर में लोग नरेन्दर के बात सुन-सुन के अलगे गड़ल हथ । गाँव के सवासिन सब कहे लगलथिन कि उनका अइसन बात नऽ कहे के चहतिअइन हल । ई कउनो नया बात थोड़े हे ? ससुरार में धी-दमाद हँसी-मजाक करवे करऽ हथ ।) (सोरही॰53.4-5)
544 ससुरा (= ससुरार) (खेत में न तो मजूर के काम मिले लगल, न घर में भीख । अप्पन जान केकरा पिआरा न होवऽ हे । चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो ।) (सोरही॰11.25)
545 साँझ-बिहान (~ करना) (राधे के आँख तर अन्हार छा गेल । ऊ हिसाब करके बोलल - "हमरा रुपइया के मोह न हे, तू इलाज करऽ । देह-समांग रहतो तो पाई-पाई चुकता कर देवो ।" "उधार इलाज करे में हमरा संस-बरक्कत न मिलऽ हे । दवा खरीदे में पूँजी लगऽ हे । रोग दूर हो गेला पर लोग साँझ-बिहान करे लगऽ हथ ।") (सोरही॰10.26)
546 सिझाना (गोबिन भगत ई सुनते थिरके लगलन आउ उनकर मोट देह आउ भुसुंड तोंद के नाचल देखके सभे लोग ताली पीटे लगलन - 'वाह भगत जी ! वाह ! वाह !' लेकिन चहल-पहल में भी कलुवा धलुवा दूनो सवाँग के अप्पन लिटिए सिझावे के फिकिर रहल । तीन दिन से ऊ दूनो भूखल हल ।) (सोरही॰44.5)
547 सिहरी (~ फटना) (सूई भोंक के पइसा कमाये में ऊ बहादुर हो गेलन हल मगर नस में पानी चढ़ावे में सिहरी न फटल हल । ऊ रोगी के देह में कई मराती सूई भोंकलन । जब सूई नस में घुसल तो उ अप्पन भाग के सराहे लगलन ।) (सोरही॰11.7)
548 सीक (आग के धुइयाँ खतम हो गेल हल । आग के लमहर-लमहर सीक लहलहा रहल हल । मोहरी गोड़ पसारे लगल तो लोटा भी लोघड़ा गेल आउ पानी गिरे लगल ।) (सोरही॰1.4)
549 सीधा-बारी (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । दसकरम के दिन कंटाह के कंठ में दूध अँटकल तो बिना पचीस रुपया के पारे न होयल । सीधा-बारी कुल मिलाके काफी हो गेल । माथा मुड़यला के बाद छकौड़ी के भार कम हो गेल ।) (सोरही॰17.23)
550 सुन्नर (लछमिनियाँ कलुआ के औरत तो हइए हल बाकि जुम्मन के चहेती भी हल । बड़ी चालबाज, बड़ी सुन्नर आउ सहजे मोह लेवे ओला जुवानी से भरल हल ।; कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे । बड़ सुन्नर हइ, देखते बनऽ हइ । हमरा तो टकटक्की लग गेलो । अइसन चमकऽ हइ कि लगऽ हइ किरिंग फूटऽ हइ । हम कहलियन पान के कि जिरी पहिनके देखाहो तो । पहिन लेलथिन तो उड़ चललथिन । अपछरा अइसन लगे लगलथिन ।) (सोरही॰15.18; 39.8)
551 सुन्ना (= सुन्न; शून्य) (ऊ उठे ला चाहलन तो देह काँप गेल । अइसन बुझायल, मानो देह में एको ठोप खून न हो ... देह के सभे अंग सुन्ना पड़ गेल होय ... एकदम मुरदा ! बड़ी जतन से ऊ उठके खड़ा भेलन त देह के पोरे-पोर झनझना उठल कमजोरी से !) (सोरही॰29.10)
552 सुरुम (= शुरू) (बोलल - अगिला मोड़ पर उनकर आपिस हे, बड़ा अच्छा अदमी हथ । काम आगे बढ़ल हे । तीन दिन में उनकर शूटिंग सुरुम हो जायत ।) (सोरही॰33.20)
553 सेंगरन (ई सेंगरन ई सभे लूर-लच्छन से सेंगरल-सँवरल हे ।) (सोरही॰iii.12)
554 सेंगरल-सँवरल (ई सेंगरन ई सभे लूर-लच्छन से सेंगरल-सँवरल हे ।) (सोरही॰iii.12)
555 सेजियादान (सालो न लगल हल कि माय चल बसलन । लोग जुटके सलाह देलन - लाश के सत-गत गंगा में होयत । ... दुधमुहीं के बाद दलान पर लोग जुटलन - विचार भेल काम के ऊपर । कुछ लोग कहलन - काम कइसनो होय सेजियादान जरूर होय के चाही । सुते ला परानी के सेज न मिलल तो का मिलल ।; सेजियादान के साथ साँढ़-साँढ़नी पंचपात्र के भी प्रबन्ध होयल ।) (सोरही॰17.14, 16)
556 सेती (ललाइन मामा के लड़ाई-झगड़ा के जिनगी तनिको पसन्द न हे । उनकर समझ से जउन घर में ई सब नटलीला होवऽ हे, ऊ घर के लोग रेयान से भी गेल-गुजरल होवऽ हथ । इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ ।; बात बरदास से बाहर हो गेला पर जब हम कुछ बोलऽ ही त मारे दउड़ऽ हउ । पुतोह ढुकावऽ हे लोग बुढ़ारी में सेवा करावे लागी न कि मार खाय ला । आते के साथ घर पर अधिकार अलगे जमा ले हउ, ई सेती हमरा सुते पड़े के भारी तकलीफ हो जाहे ।) (सोरही॰25.18; 27.14)
557 सोंधय (= सोन्हई) (मोहरी हौले से कँहड़े लगल । कारा उठके थरिया तर चल गेल । बगले में मोहरी हल । कारा बोले लगल - "माघ के ठंढ हे । तों भितरे में रहतें हल । अइला पर देखल जात हल । तोरे तो सोंधय लगलउ हल । भला दिन भर से भूखल हूँ ... ।") (सोरही॰2.9)
558 सोझियाना (एतने में कलुआ माय बोलल - "कारा ! कारा ! रे कारा !!!" - "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।" - "अच्छा तुरते ।" एतना कहके कारा डीह दने सोझिया गेल ।) (सोरही॰3.21)
559 सोहराय (= कार्तिक के पहले पक्ष की अवधि जिसकी अन्तिम दो रातों में दीपावली का पर्व मनाते हैं; कार्तिक अमावस्या की रात जिस समय लक्ष्मी की पूजा के साथ-साथ बड़ी दीपावली मनाई जाती है) ("जीतन माय, तों बुरबक अइसन काहे बोलो हा । आज सोहराय हे । एहमें लक्ष्मी घर आवो हथ, आउ आज अपन लक्ष्मी के बाहर कइसे निकले देय ।"; तहिया सोहराय हल । समूचे गाम दीया के लौ में जगमगा रहल हल । मगर एक घर अइसन भी हल, जेहमें अन्हार कहाकूप के राज हल । तहिये भोर पहर समूचे गाम के गली-गली से अवाज आ रहल हल - "सुख सोहराय सुख सोहराय । लक्ष्मी भीतर दरिदर बहार ॥" आउ जीतन के माय रो रहली हल गिर-बजर के जार-बेजार । तहिया सोहराय हल ।) (सोरही॰22.11; 24.9, 11, 14)
560 हथजोड़िया (तनी रहे त तनी, एकबारगी तीन-तीन भात । एक भात मतलब दू मन चाउर । कहाँ तक करेजा बाँधूँ । केतना आरजू-मिनती कइलूँ कि ई राँड़ बेवा पर किरपा करऽ ऐ पंच-परमेश्वर लोग, एक भात पर मान जा । बाकि के मानऽ हे । त, तीनो भात एक्के साथ, जाने केतना हथजोड़िया पर मानलन कि तीन भात तीन साल में, बाकि लगबहिए ।) (सोरही॰59.5)
561 हदसल (= भयभीत) (मन में एगो अजगुत डर समायल हल । उनकर हालत ऊ हदसल चिरईं नियन भेल हल, जे शिकारी के जाल में फँसल मौत के राह देखइत हो । ऊ रात ललाइन मामा के आँख में नीन नञ आयल मानो तकदीर जोरे नीनो हुनका से रुस गेल होय । रात भर ऊ उखीबिखी रहलन ।) (सोरही॰30.15)
562 हबर-दबर (कारा झोपड़ी के दुआरे पर से घूर गेल आउ लिट्टी लगावे लगल । कारा हबर-दबर में लिट्टी सजा देलक आग पर । एतने में कलुआ माय बोलल - "कारा ! कारा ! रे कारा !!!" - "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।") (सोरही॰3.16)
563 हर (= हल) (रे सार ! तोहनी भागऽ हँऽ कि हरा से हुरपेटिअउ ? ई सभे साला कौलेज में का गेल कि लगल हमनीए के बुरबक बनाके लड़ावे ।) (सोरही॰45.26)
564 हरजन (= हरिजन) (मोहरी हाथ के भार से उठते उपहास अइसन बोलल, "भला गरीब के असलियत के पहिचानऽ हे । हरजनमो में तो उँच-नीच हो गेल ।" धीरे-धीरे मोहरी झोपड़ी में चल गेल ।) (सोरही॰2.17)
565 हरवाही (जोड़-जाड़ के खरचा पूरे पनरह सौ होयल । सुनके होश गुम हो गेल छकौड़ी के । ... पंचाइत बइठल । लोग दाम लगवलन दस सौ । पाँच सौ के आउ बारी हल । अब छकौड़ी कहाँ से देथ । बामा हाथ के अँगूठा के निशान लेल गेल आउ जिनगी भर के हरवाही लिखा के छकौड़ी बरी हो गेलन ।) (सोरही॰18.23)
566 हरहर-पटपट (नवल किशोर ईमानदार किरानी हलन - न ऊधो के लेना न माधव के देना - हरहर-पटपट से दूर । टेम से दफ्तर जाना, टेम से डेरा आना, कउनो तरह के लटपट में शरीक न होना । दफ्तर के अफसर लोग इन्हका बेवकूफ समझऽ हलन आउ कहऽ हलन ई ढेर जिद्दी हथ ।) (सोरही॰7.9)
567 हलुमान (= हनुमान) (नवल किशोर पहिले हलुमान चालीसा के पाठ करइत हलन, रमायन पढ़इत हलन बाकि जब से पंडित जी शिव बाबा के महिमा बतइलन तब से ई शिव बाबा के पुजेरी बन गेलन हल ।) (सोरही॰7.15)
568 हाथ-गोड़ (~ चलाना) (खेत में न तो मजूर के काम मिले लगल, न घर में भीख । अप्पन जान केकरा पिआरा न होवऽ हे । चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो ।) (सोरही॰11.25)
569 हालीसुन (= हाली + सुन/ सन) (चहुतरफा अन्हेरा छा गेल आउ ऊ अन्हेरिया में ललाइन मामा के लौकल जइसे धरती फट गेल हे आउ ऊ धीरे-धीरे ओकरा में समा रहलन हे सीता मइया नियन । ऊ हालीसुन अँचरा के कोर से अपन दुनो आँख पोछ लेलन । सब तस्वीर मेट गेल । ई तो उनकर मन के भाउना हल ।; ललाइन मामा इसारा से पिये लागी पानी माँगलन । छोटकी पुतोह हालीसुन पानी लाके चमच से पिआवे लगलन - एक ... दू ... तीन चमच बस । पानी जइसे नरेटी में जाके अटक गेल हो, कुछ कंठ के पार भेल आउ कुछ बाहर बह गेल ।) (सोरही॰26.24; 31.9-10)
570 हावा (= हवा) (कारा पर तो जइसे पहाड़ टूट गेल । माघ महीना के ठंढ, ओकरो पर दखनाहा हावा ।) (सोरही॰5.15)
571 हिच्छा (जेवनार पर बइठल लोग के सातो रास परसायल । लोग सराह-सराह के खयलन । चूड़ा-दही के बाद रंक के भी पूआ परोसल गेल । भर हिच्छा खाके लोग छकड़ी के असीस देइत चल गेलन ।) (सोरही॰17.28)
572 हित-नाता (भोजन के दिन ला जेवार के बाबा जी नेवतल गेलन । गोतिया भाई टोला-परोसा भी पीछे न रहलन । हित-नाता के नेवता तो पहिलहीं फिर गेल हल ।) (सोरही॰17.18)
573 हिन्दुअई (बाकि का ऊ दूनो एक साथे हिरदा के अवाज सुनलन हे ? न, न, एगो बहादुरी में बउड़ाहा हथ तऽ दोसर राज बढ़ावे में पगलायल हथ । एगो के हिन्दुअई बहकावऽ हे तो दोसर के हिन्दू बहकावऽ हथ । बाकि हिन्दू, हिन्दुअई या मुसलमान से ऊपरे उठके देखे के कोई कोरसिस कइलन हे ?) (सोरही॰49.13, 14)
574 हियाव (= हिम्मत, साहस, हौसला) (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।" वैद जी उधार इलाज करे के हियाव कइलन ।; ऊ रोगी के देह में कई मराती सूई भोंकलन । जब सूई नस में घुसल तो उ अप्पन भाग के सराहे लगलन । अब आम के आम आउ गुठली के दाम मिले के भरोसा हो गेल । राधे टुकुर-टुकुर सब तमाशा देख रहल हल । मगर ई घड़ी नुखुस निकासे के हियाव न पड़ल, न तो बनल काम बिगड़ जायत हल ।; राधे के बात सुनके वैदजी के तो ठकमुरकी मार देलक । ऊ ओकरा से कठदलेली करे के हियाव न कइलन ।) (सोरही॰11.5, 10; 12.26)
575 हुरपेटना (रे सार ! तोहनी भागऽ हँऽ कि हरा से हुरपेटिअउ ? ई सभे साला कौलेज में का गेल कि लगल हमनीए के बुरबक बनाके लड़ावे ।) (सोरही॰45.26)
576 हेराना (= भुला जाना, गुम हो जाना) (रमिया बड़की दीदी के साथे अजोधेया चल गेल । कहल जाहे राँड़ के देखके भगवानो हेरा जा हथ । हरिचंद पर विपत पड़ल तो भुँजल मछली कूदके पानी में चल गेल । अजोधेया हैजा से ओक-बोक हो रहल हल ।) (सोरही॰35.6)
577 हेलना ("जीतन के बाबू मर जयता मालकिन ।" - "चाहे जे होथुन । मगर आज तो कोय हालत से रुपया नय मिलतो ।" कहइत सी॰ओ॰ के जनाना जीतन माय भीर से हँटके अपन कोठरी में हेल गेली ।) (सोरही॰23.1)
578 होनहारी (जहिया से ई नटिनियाँ आयल हे हमरा जीना मोहाल कर देलक हे । देखऽ न, आझ फिर मारकवऽ हे । हमरा तो अइसन बुझा हे अबकी ई हमरा जान लेके इहाँ से निकलतो । कै तुरी लड़का के कहली कि ई रकसिनियाँ के लेले जो लेकिन ऊहो हमर बात के ई कान से सुनके ऊ कान से निकाल देलक । होनहारी कुछ खराब दिखइत हे, इ गुने सबके मति फिर गेलइ हे ।) (सोरही॰28.23)
579 हौला (= हलका) (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । दसकरम के दिन कंटाह के कंठ में दूध अँटकल तो बिना पचीस रुपया के पारे न होयल । सीधा-बारी कुल मिलाके काफी हो गेल । माथा मुड़यला के बाद छकौड़ी के भार कम हो गेल ।) (सोरही॰17.24)