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Saturday, July 27, 2013

96. "बंग मागधी" (वर्ष 2012: अंक-2) में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



बंगमा॰ = तिमाही "बंग मागधी"; सम्पादक - श्री धनंजय श्रोत्रिय, नई दिल्ली/ पटना

अक्टूबर-दिसंबर 2011,  अंक-1 से तिमाही के रूप में ।
ई अंक - जनवरी-मार्च 2012, अंक 2, कुल 82 पृष्ठ ।

ठेठ मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर पृष्ठ संख्या, आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति संख्या दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (‘मगही पत्रिका के अंक 1-21 एवं बंग मागधी’, अंक 1 तक संकलित शब्द के अतिरिक्त) - 377

ठेठ मगही शब्द ( से तक):
1    अंकुरल (खरिहान आल अनाज भी कभी-कभी गोबर । पानी एगो धाने बरदास्त करतो । एकाध साल चैत में एतना पड़लो कि, की काँड़ा, की बड़हर, धरियाल-ढेरियाल सब सड़के ढिम्मा ! खरिहान गेन्ह तोड़े । बोझा के बोझा अंकुरल ।)    (बंगमा॰12:2:42.8)
2    अइसउँ (= अइसहूँ; ऐसे भी) (ऊ साल धाने नियन रब्बी भी स्वाहा । रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख ।)    (बंगमा॰12:2:42.2)
3    अगजा (फागुन महिन्ना खतम होवे वला हल । आझे अगजा, कल्हे धुरखेल यानी रंग-विरंग के होली । मुदा अभी तक ले पप्पू के कोय अता-पता नञ् ।)    (बंगमा॰12:2:62.8)
4    अजन-भजन (मायो सब हँसतो कइसन - बादर फट जाय, बदरा भे जाय चीरीचोंथ, तीत के अंगिया भे गेल बोथ ! तहिया सब नाच-नाच के गइलक गल - हमहूँ मुनकवा संग - झुम्मर नाच, अजन-भजन गीत गावो दे, तेलिया झूमर नाचो दे ।)    (बंगमा॰12:2:41.2)
5    अता-पता (फागुन महिन्ना खतम होवे वला हल । आझे अगजा, कल्हे धुरखेल यानी रंग-विरंग के होली । मुदा अभी तक ले पप्पू के कोय अता-पता नञ् ।)    (बंगमा॰12:2:62.9)
6    अदबद (तरेगनी के मन खदबदा रहल हल । ओकरा मुँह में अदबद आ रहल हल । गाम में कोय एतना बोलत हल तब एक बात भुइयाँ गिरइ ले नञ् देत हल । रोकते-रोकते भी एक बात निकलिये गेल - सुग्गा रहतो हल त अहो भल । राम-राम त रटतो हल । ई त कौआ हो, कउआ ।)    (बंगमा॰12:2:37.21)
7    अद्भुद (= अद्भुत) (हम अपने के अद्भुद उदाहरण प्रस्तुत कर रहली हे, जे जगह के अल्प परिधि में वस्तु एक, नाम अनेक के रिकार्ड तोड़ नमूना पेश कइलक हे । वस्तु हे बाल । माथा पर हे त केश, सिर के नीचे चुरकी । ओकरा से दू अंगुली नीचे आँख के ऊपर भौं त एक अंगुली नीचे पिपनी । एकरा से दू अंगुल नीचे मूँछ त सटले दाढ़ी । दाढ़ी से सटल ऊपरी भाग कलमी । दाढ़ी के नीचे बगल में कखउरी ।)    (बंगमा॰12:2:65.2)
8    अनका (= अनकर, अन्य का) (जे खाय अनका अंस, नास होवे ओक्कर वंस ।)    (बंगमा॰12:2:41.31)
9    अन्हगरे (= अन्हरगरे, अन्हारे; सुबह-सुबह) (पूजा करे खातिर अन्हगरे लोग आवे लगलन । पुजारीजी के मरल पड़ल देखके गोहार मच गेल । दरोगा-निसपीट्टर आल । हमरा हाथ में हथकड़ी डाल के थाना के कैदखाना में बंद कर देलक ।)    (बंगमा॰12:2:48.31)
10    अमला-पटवारी (आलम ई हल कि दू-चार गाँव में एकाध मैट्रिक पास मिलऽ हलन आउ पाँच-छः मिडिल । प्राइमरी स्कूल में मिडिलयी शिक्षक नियुक्त होवऽ हलन आउ मिडिल में मैट्रिक । वेतन एत्ते कम कि लोग-बाग शिक्षक के जगह पर जमींदार के अमला-पटवारी बनना जादे पसंद करऽ हलन । खेत-खंधा से बोला-बोला के गुरुजी के बहाली भेल, तब कहँइ शिक्षा के रेल छुक-छुक बढ़ऽ लगल ।)    (बंगमा॰12:2:69.26)
11    अहो (~ भल) (तरेगनी के मन खदबदा रहल हल । ओकरा मुँह में अदबद आ रहल हल । गाम में कोय एतना बोलत हल तब एक बात भुइयाँ गिरइ ले नञ् देत हल । रोकते-रोकते भी एक बात निकलिये गेल - सुग्गा रहतो हल त अहो भल । राम-राम त रटतो हल । ई त कौआ हो, कउआ ।)    (बंगमा॰12:2:38.1)
12    आँधी-बिंडोबा (चढ़ती उमर निम्मन-निम्मन आँधी-बिंडोबा आउ तुफान के भी सामना करे के ताकत रखऽ हे । ई उमर में सब कुछ नया होवऽ हे, नयगर सोंच आउ असमान के छू लेवे के सास होवऽ हे ।)    (बंगमा॰12:2:17.5)
13    आपा-धापी (ससुर गांजा पीके मातल रहे आउ मरद रोज टीसन टहले । कमाय ने धमाय, पान-सिकरेट मुँह से छूटे नञ् । बेचा आपा-धापी दुकान जाय ।; शिक्षक बहाली में आपा-धापी होवऽ लगल । प्रशिक्षण महाविद्यालय में नामांकन लेल मारा-मारी होवऽ लगल ।)    (बंगमा॰12:2:37.9, 70.19)
14    इहे (= ईहे) (तोर संघर्षशीलता, लगनशीलता आउ मेहनत देखके हम बड़ खोस हिअउ । इहे गुनी तोर वेतन में दू हजार रुपइया बढ़ा देली हे इहे महीना से ।)    (बंगमा॰12:2:61.35)
15    ईम साल (= वर्तमान वर्ष) (ईम साल टरेक्टर छोड़ऽ । हरे से निस्तार ल, आगू देखल जइतइ जब कल्टी फार रहतइ । कल्टी के चार चास काफी हइ । अउ हाँ, गहूम में तीन पछिया - बूने, काटे, मैंजे जब । सुनऽ ही - किसानी में पगड़ी के फेर होवऽ हे ।)    (बंगमा॰12:2:39.22)
16    ईहे (चुल्हा भिजुन चुक्को-मुक्को बैठइत टैचुनमा बोललो - "दे खाय ले ।"/ टैचुनमा के जलम-साल गाँव में पहिला-पहिल गरमा टैचुन रोपइलो हल, ईहे से ओकर नाम टैचुनमा पड़ गेल ।/ हम कहलिअइ - "कमइया करके अइलहीं ?" टैचुनमा अंगुरी से आँटा गोदइत बोलल - "तोर कमइया खा हिअइ ?")    (बंगमा॰12:2:45.17)
17    उँक्का (= उक्का) (जवानी के सुगंध हम्मर शरीर से फूटे लगल । पोखर-तलाब, डगर-दुआर जने हम निकसऽ हलूँ, झुंड-के-झुंड भौंरा मँड़राय लगल । रंगरूट छौंड़ सब देखके सीटी कसे लगल । ई सब देखके हम्मर देह में झरकी लग जा हल। मन करऽ हल ओकरा मुँह के उँक्का से झउँस दूँ ।)    (बंगमा॰12:2:47.11)
18    उकटना (खुट्टी-खाटी होवऽ हल त ओकर झोंकन के कोयला से माय लेल सालो भर के टिकिया बना दे हलूँ ... चलइत रहऽ हल । तहिया ऊहो नञ् । बोरसी उकट के ठनकल डमारा के इंगोरा से नरियर भर के माय के देलियो अउ बकड़ी बान्हइ ले पगहा खोजऽ लगलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.14)
19    उक्का (सेउदल गोयठा से निबटना सधारन काम नञ् । गोयठा पर करासन देके उक्का जोरलियो । माय रोकलक - ई उमर भेल, हम सब कहियो करासन के मरम जानलूँ ? हावा में भुटनी गो इंगोरा देके चार गोयठा के उक्का जोर देलियो, छने में आग फफा गेलो । तरो-उपरो गोयठा देके उठैलियो आउ चूल्हा में देलियो, बस । हमरा बाहर जोरल उक्का उठावइ में डर लगतो, देह पर गिर जाय तब ?)    (बंगमा॰12:2:45.10, 11, 13)
20    उखेल (= बादल छँटने पर निकली धूप; दे॰ उगेन) (तहिया ढेर दिना पर रौदा उगल हल । पुरवइया के लफार । सात दिना के झपास । पानी-पानी, सगरो पानी । बाध-बन्ना सब डूबल । उखेल होवइ ले एक सो एक गाम के नाम, जेकर पहिल अक्षर क - कोसरा, केमरा, कसार, कयासी ... उखेल होवइ के टोटका ... झंझरा गड़ाल । ठाप-ठोप सेनुर ।)    (बंगमा॰12:2:40.22, 23)
21    उगहन (= उबहन) (ओकर बैठकी मौसम के हिसाब से बदलते रहतो हल । जाड़ा में खरिहान, त गरमी में बरसात में गोहाल, सुन-सुन्हट्टा । दिन भर बैल-गाय बाध में । कोय नञ् जइतो ओन्ने ... हुलकहो ले नञ् । उगहन के झुलुआ पर झूलइत रहलियो, खिस्सा चलइत रहलो ।)    (बंगमा॰12:2:41.7)
22    उदूल (~ करना = उठल्लू करना) (तरेगनी के सब संजोगल सपना चूर । माय-बाप कइसन घर धरि आल । ओकरा लेल नञ् नहिरे सुख, नञ् ससुरे सुख ! अइसे ओकर माय-बाप गरीब हल, बकि उदूल त नञ् करऽ हल । यहाँ त बातो के दुख ।)    (बंगमा॰12:2:37.6)
23    उधार-पईंचा (बेटी के टक्कर के वर खोजे के चक्कर में एक बरिस गुजर गेल । एगो पर जमल भी तब लेन-देन में ई फेल हो गेलन । चढ़इत लगन वली रमरतिया के शादी उधार-पईंचा लेके हो गेल । रमरतिया के टक्कर में दुल्हा तो न मिलल बाकि ओकर दुल्हा के मड़वा में कोई दूसल न ।)    (बंगमा॰12:2:56.20)
24    उपजना (अगहनी फट के उपजल हल । तरेगनी पाँच-पाँच गाँड़ा के कोठी पारलक । टोला के दाय-माय ओकर कोठी देखइ ले आवऽ हली ।)    (बंगमा॰12:2:39.4)
25    उपजल-बराल (रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख । पहिले त कीड़ाखोरी से बचवऽ । ओकरो से बचलो त पाला । कभी एतना पानी पड़लो कि हरदा ! सब कुछ से बचलो त पछिया के हाही चिब्भी कर देलको । उपजल-बराल भी कभी-कभी घर नञ् अइलो ।)    (बंगमा॰12:2:42.5)
26    उपजाल (= उपजावल) (आज तरेगनी नयका गहूम के रोटी बनावत, अप्पन उपजाल गहूम । पुष्ट दाना । सब गहूम एक नियन, मसीन के बनावल । गहूम अब मील में पिसावऽ हे । मील के आँटा मेदा । चालहो के काम नञ् ।)    (बंगमा॰12:2:39.34)
27    उपजावल (तहिये हम एगो सपना देखलियो - एगो घर चिक्कन-फोक्कन । घर में कोय चीज के कमी नञ् ! तरेगनी ऊ घर के मलकीनी । कमासुत मरद । ठीक अइसने घर में दुसमन कौआ के मजा चखैबन । अप्पन हाथ के उपजावल गहूम के लस-लस आँटा में कौआ के लोल फँसइबन आउ चुल्हा में झोंक देबन ।)    (बंगमा॰12:2:46.21)
28    उपरौका (= उपरउका; ऊपर वाला) (रोटी, कपड़ा आउ मकान आज के जीवन के तीन मूल जरूरत मानल जाहे । समाज के उपरौका तबका में धनी-मानी लोग जादे हथ - के रोटी, कपड़ा आउ मकान असानी से मिल जाहे । एकरा संजोगे कहल जाय कि आझकल निचलौका तबका ले भी ई तीनों चीज असान हो गेल हे ।)    (बंगमा॰12:2:51.1)
29    उरेबी (= टेढ़ा; अनुचित) (~ बोलना) (ससुर आल त आउ उरेबी बोले लगल, उर्दू-फारसी - जोहों-सोहों कि हम किया करेंगा ? जाने नगवा । हमसे कुछ नहीं होंगा । समझ गियाँ कि जोहों-सोहों कि हमारे लिए नगवा मर गियाँ ।)    (बंगमा॰12:2:38.8)
30    ऊहीं ('बाप रे ... !' करके थोड़े देर में टन बोल गेलन पुजारीजी । हम्मर इज्जत त बच गेल मुदा अब हम खूनी बन गेलूँ । भाग के कहाँ जइतूँ हल । ऊहीं ठाकुरजी के चरन में सीस नवाके फूट-फूट के रोवे लगलूँ ।)    (बंगमा॰12:2:48.30)
31    ऊहो (= वह भी) (सब करे पाँच मन अनाज । कटुआ-भुस्सा भी जेठे-माघे पार । खुट्टी-खाटी होवऽ हल त ओकर झोंकन के कोयला से माय लेल सालो भर के टिकिया बना दे हलूँ ... चलइत रहऽ हल । तहिया ऊहो नञ् । बोरसी उकट के ठनकल डमारा के इंगोरा से नरियर भर के माय के देलियो अउ बकड़ी बान्हइ ले पगहा खोजऽ लगलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.14)
32    एकपिठिया (हम दुन्नूँ एकपिठिया । दुन्नूँ में दाँते लेके झगड़ा । हम्मर दाँत छोट-छोट, जीरा नियन अउ ओकर खपड़दत्त । .. हम कहलिअइ - "खुरपी दाँत भाय खुरपी दाँत । घास चरत कि खइता भात ॥" टैचुनमो बोलइत भाग गेल - "जीरा के फोरन दम-दम-दम । जिरिया भात खाय कम-कम-कम ॥")    (बंगमा॰12:2:45.27)
33    एकबइए (मोहन के एकबइए निसा टूट गेल । उ हाथ जोड़इत कहलक,  "हमरा माफ कर दे पप्पू । हम भटक गेली हल, अउ तोरो भटकावे अइली हल मुदा तों बीच भँवर से निकास लेलें । हम अभी साहब से कहली हे नञ् । कल कहम ।" बोतल घुमाके सब दिन खातिर अइसन फेंकि देलक कि ढवाकऽऽऽऽ ।)    (बंगमा॰12:2:61.25)
34    एकल्ले (= अकेले) (सोंचऽ हलूँ - अपन भौजाय के कनियाय बनाम । केकरो नञ् देखे देम । खेत-पथार सब हम करिये ले हलूँ । चौका-बरतन, गर-गोसाला, पानी-कुन्नी, झरुआ-झाटा सब, बकि मन के मुराद मने रह गेल । एकल्ले अपन माथा पर सब काम उठा लेलियो बकि भौजाय के मुँह नञ् देखलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.33)
35    एक्कक (= एकक; एक-एक, प्रत्येक) (नागो तरेगनी के बात ओइसयँ सुनऽ गुनऽ मानऽ हल, जइसे होनहार विद्यार्थी अपन गुरुजी के बात । तरेगनी के कहल एक्कक नकसा खेत-खरिहान में उतारइत गेल ।; वश में रहत हल त खुद्दे किसानी करतूँ हल । चास पर चास । गनौरा के बिछौना । सुइया से पात तक फोहवा नियन पोसतूँ हल । पसनी से एक्कक घास निका देतूँ हल । टैम पर पानी, टैम पर खाद ।)    (बंगमा॰12:2:39.26, 46.14)
36    एजइ (= एज्जे; इसी जगह) ("आय तोरी के ! भौजी, एजइ पूजा होवऽ हइ ? बाबा थान नञ् जइमहीं ?" ननद दुन्नु अंजुरी में फूल लेले अंगना में ठाढ़ हल । - "करम-करम के बात हइ नुनु, तों जा ।" - "भइया अइलइ ?" - "भइया मर गेलथुन बउआ !" बोलइत भौजी भित्तर हेल गेल।)    (बंगमा॰12:2:37.13)
37    ओइसयँ (= ओइसीं, ओइसहीं; वैसे ही) (नागो तरेगनी के बात ओइसयँ सुनऽ गुनऽ मानऽ हल, जइसे होनहार विद्यार्थी अपन गुरुजी के बात । तरेगनी के कहल एक्कक नकसा खेत-खरिहान में उतारइत गेल ।; सुग ने बुग बकि ध्यान कौए पर । कौआ भी कम चलाक नञ् होवऽ हइ । रुक के रुख गमऽ लगल । रस-रस तिरछे होके तनी गुड़कल । तरेगनी मरकछ देले । कौआ फेन गुड़कल । तरेगनी ओइसयँ । कौआ झपटि के आँटा में लोल मारलक बकि तरेगनी नट नियन झपट के गियारिये पकड़लक - अब कने सखी ।)    (बंगमा॰12:2:39.25, 40.8)
38    ओजन (दुनहूँ डागडर हीं नवादा अस्पताल जाहे, एच.आई.वी. जाँच के रिपोर्ट एक घंटा बाद कहऽ हे । फेन समय पर पप्पू रिपोर्ट लावे चल जाहे । पारो ओजन एगो गाछ भिजुन बनल सीट पर बइठ जाहे ।)    (बंगमा॰12:2:63.31)
39    ओलहन (= ओरहन)(जहिया से तरेगनी डेवढ़ी लांघलक हे, ओकर मन में एगो संकल्प के आग जरि रहल हे, धधकि रहल हे, एगो परतिंगा हेऽऽ - मजा चखैबउ । दस-पाँच दिन त गुमसुम रहल, घर के रंग-ढंग देखइत समझइत रहल । सास सतेली, ससुर गंजेड़ी, मरद अवारा । ले-दे के घर में एगो नो-दस बरिस के ननद हल मनबहलौनी । सास त मुँह-देखइये में खँचिया भर ओलहन देलन ।)    (बंगमा॰12:2:37.5)
40    औडर (हम एकर लोकार्पण कलकत्ता में करे ले तैयारी कर चुकलिए हल बकि मृत्युंजय भाय जब योगेश जी के जन्म दिवस पर आवे के निमंत्रण औडर नियन देलथिन त उनकर बात टाल नञ् सकलिअइ ।)    (बंगमा॰12:2:5.7)
41    कंकोड़ा (= किकुड़ा; केकड़ा) ( एक तुरी माय बोलवो कइल त बाऊ झपट लेलका – “तोरे बाप अइसन होतउ ।” माय बोलल - "अइसन रहते हल त तोर दुहारी कइसे धर अइते हल । हमरा ले संसार में लड़का के कि कंकोड़ा खा गेलइ हल ।")    (बंगमा॰12:2:43.5)
42    ककोलत (~ के झरना) (हमरा तहिया रात भर नीन नञ् अइलो । सकरी के धाध हमर देह में समा गेलो हल । हमर कान में ओकर गीत ककोलत के झरना नियन बहइत रहलो ... बहइत रहलो ! बकड़ी मेमाल कि हमर ध्यान टूटल । रोज भोरौआ मेमइतो ।)    (बंगमा॰12:2:41.26)
43    कखउरी (हम अपने के अद्भुद उदाहरण प्रस्तुत कर रहली हे, जे जगह के अल्प परिधि में वस्तु एक, नाम अनेक के रिकार्ड तोड़ नमूना पेश कइलक हे । वस्तु हे बाल । माथा पर हे त केश, सिर के नीचे चुरकी । ओकरा से दू अंगुली नीचे आँख के ऊपर भौं त एक अंगुली नीचे पिपनी । एकरा से दू अंगुल नीचे मूँछ त सटले दाढ़ी । दाढ़ी से सटल ऊपरी भाग कलमी । दाढ़ी के नीचे बगल में कखउरी ।)    (बंगमा॰12:2:65.6)
44    कटुआ-भुस्सा (सब करे पाँच मन अनाज । कटुआ-भुस्सा भी जेठे-माघे पार । खुट्टी-खाटी होवऽ हल त ओकर झोंकन के कोयला से माय लेल सालो भर के टिकिया बना दे हलूँ ... चलइत रहऽ हल । तहिया ऊहो नञ् । बोरसी उकट के ठनकल डमारा के इंगोरा से नरियर भर के माय के देलियो अउ बकड़ी बान्हइ ले पगहा खोजऽ लगलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.13)
45    कठकरेज (माय के मुँह से अचक्के निकल गेल - हे सुरुज सविता मीरा ! बौधा के बचावो ।/ नेताजी भी कुटुंबी चल गेला हल । तरेगनी ननद के लेले थाना पर चल गेल आउ दरोगा जी से अइसन ममता, गलानी आउ विसवास के साथ बोलल कि कठकरेज दरोगा जी भी पिघल गेला ।)    (बंगमा॰12:2:38.25)
46    कठुआल (तरेगनी के आँख तर अन्हार घिर आल । ओकरा कुछ नञ् सूझे, अब की करी । अइसने बाप होवऽ हइ ? गरियाबइ के त गरिया देलक, बकि अब ऊ पछता रहल हल - कौन कुभक्खा निकाललूँ कि सच भे गेल । बाप आल त ऊहो ऊहे । माय त कठुआल ।)    (बंगमा॰12:2:38.12)
47    कनफुकवा (क्षेत्रीय भाषा सिर उठावे लगल । हम गुरुकुल में देश, क्षेत्र के अनुसार पाठ पढ़ावइत रहली मुदा अभी मूल रूप से संस्कृत के अनिवार्य समझल जायत रहल । हम त अध्यापक हो गेली मुदा जे अध्यात्म के दीक्षा दे हलन, ऊ गुरुए कहलावऽ हलन । बाद में अइसन गुरु के कनफुकवा कहल जाय लगल ।)    (बंगमा॰12:2:68.24)
48    कनमटकी (रात हो गेल । थाना एकदम शांत हल - झात-झात । एक्के गो रहमत अली खाँ बन्नूक लेले पहरा पर हल । हम भूख से छिटपिटाल हलूँ । चिंता से माथा गरम हो गेल हल । कनमटकी देले पटाल हलूँ ।)    (बंगमा॰12:2:49.1)
49    कमइया (= कमाई + 'आ' प्रत्यय) (चुल्हा भिजुन चुक्को-मुक्को बैठइत टैचुनमा बोललो - "दे खाय ले ।"/ टैचुनमा के जलम-साल गाँव में पहिला-पहिल गरमा टैचुन रोपइलो हल, ईहे से ओकर नाम टैचुनमा पड़ गेल ।/ हम कहलिअइ - "कमइया करके अइलहीं ?" टैचुनमा अंगुरी से आँटा गोदइत बोलल - "तोर कमइया खा हिअइ ?")    (बंगमा॰12:2:45.19)
50    कमाना-कजाना (परिवार चलावे ले परिवार के सब सदस्य के खटे भी तो पड़ऽ हइ । 'कमाना ने कजाना साढ़े तीन रोटी खाना' परिवार के कोय सदस्य ले ठीक नञ् हइ । ई ले बिना खटले खायवला के जुदागी ले हमेशा तैयार रहे पड़तो ।)    (बंगमा॰12:2:5.30)
51    कमाय (= कमाई) (रानी जब बिआह-दान के बाद अपन पति के साथ रसे-बसे लगल त ऊ समय ओकर पति भाय-भोजाय के साथ रह रहल हल - देश के राजधानी दिल्ली में । हलाँकि परिवार में सब कुछ ठीक चल रहल हल बकि रानी के जौरागी में घुटन महसूस होवऽ हल । हमेशा ओकरा लगे कि ओकर गोतनी के खर्हुआ-कटुआ ओकर पति के कमाय पर चकल्लस कर रहल हे । ओकर पति अपन मेहनत के कमाय भौजाय आउ भतीजा-भतीजी के ऊपर फूँक रहलन हे ।)    (बंगमा॰12:2:52.9)
52    कर-किरतन (फगुआ गावेवाला लोग के गाँव के रईस लोगन के हाता में खूब इ सब कर-किरतन गावे वालन के खातिरदारी में ठंढई (भांग) आउ मिठाइयो चललइ ।)    (बंगमा॰12:2:33.14)
53    कर-कुटुम (गहना-जाठी पेन्हले कनिआय बनल प्रतिमा साक्षात् परी अइसन लग रहल हल । जे भी अदमी देखे, मन सिहा जाय । कर-कुटुम, गोतिया-नइया, टोला-टाही, गाम-गिराम के कोय भी औरत-मरदाना देखे पप्पू कनिआय के त देखते रह जाय, मुँह से कुछ ने कुछ बड़ाइये निकसे ।)    (बंगमा॰12:2:59.13)
54    करखी (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । आवथ जरलाहे कौआ, मजा चखा देवन । ... कौआ छप्पर पर बैठल ताक रहल हे । कौआ नीचे उतरल अउ सखरी पर बैठ गेल । तरेगनी कौआ के लड़ाय देख रहल हे करखी से । एगो कौआ गुड़कल आँटा दने चलल ।)    (बंगमा॰12:2:40.5)
55    करजा-पईंचा (रानी के माय ओकरा मंतर देलन हल - "पति के जदि कब्जा में रखना हे त सबसे पहिले जेवर-जाठी खरदा के अपन आर्थिक स्थिति ठीक कर । फेर हम भी कुछ मदत करबउ आउ बाकी एन्ने-ओन्ने से करजा-पईंचा करके मकान खरीद लिहें ।")    (बंगमा॰12:2:53.8)
56    करना-धरना (दिन भर चुल्हा-चौका करते-धरते कमर टेढ़ हो जा हल । तब साँझ के जूठ-खूठ, रूखल-सूखल, बासी-तेबासी खा हलूँ । शरीर हिले लगल । गुलाबी चेहरा कुम्हलाय लगल ।)    (बंगमा॰12:2:48.1)
57    कलमी (हम अपने के अद्भुद उदाहरण प्रस्तुत कर रहली हे, जे जगह के अल्प परिधि में वस्तु एक, नाम अनेक के रिकार्ड तोड़ नमूना पेश कइलक हे । वस्तु हे बाल । माथा पर हे त केश, सिर के नीचे चुरकी । ओकरा से दू अंगुली नीचे आँख के ऊपर भौं त एक अंगुली नीचे पिपनी । एकरा से दू अंगुल नीचे मूँछ त सटले दाढ़ी । दाढ़ी से सटल ऊपरी भाग कलमी । दाढ़ी के नीचे बगल में कखउरी ।)    (बंगमा॰12:2:65.6)
58    कल्टी (~ फार) (ईम साल टरेक्टर छोड़ऽ । हरे से निस्तार ल, आगू देखल जइतइ जब कल्टी फार रहतइ । कल्टी के चार चास काफी हइ । अउ हाँ, गहूम में तीन पछिया - बूने, काटे, मैंजे जब । सुनऽ ही - किसानी में पगड़ी के फेर होवऽ हे ।)    (बंगमा॰12:2:39.22, 23)
59    कहईं (= कहीं भी) (बुढ़िया के मरे के खबर सुनइते चारो तरफ से लोग जुट गेलन । इहाँ तक कि उनकर दुन्नो बेटा रामलाल आउ श्यामलाल सपरिवार जुट गेलन । बुढ़िया के जम के सराध भेल । सराध में दुन्नो भाई पैसा-कौड़ी जमके खरचा कैलन । कहईं से कोई शिकायत न आयल ।)    (बंगमा॰12:2:58.3)
60    कहल-गुनल (रानी अपन माय के कहल-गुनल पर चलके पहिले जौरागी तोड़लक, फेर लाखों के गहना खरीदवइलक पति से । अब पूरा घर ओकर अपन कब्जा में नजर आ रहल हल ।)    (बंगमा॰12:2:53.9)
61    काँड़ा (खरिहान आल अनाज भी कभी-कभी गोबर । पानी एगो धाने बरदास्त करतो । एकाध साल चैत में एतना पड़लो कि, की काँड़ा, की बड़हर, धरियाल-ढेरियाल सब सड़के ढिम्मा ! खरिहान गेन्ह तोड़े । बोझा के बोझा अंकुरल ।)    (बंगमा॰12:2:42.7)
62    काम-धाम (माय के उमर जाय लायक नञ् हलो, मुदा दम्मा अउ सदमा ओकरा तोड़ के रख देलको । बेचारी की काम-धाम करतो हल । ऊ त हम हलिअइ कि घर-गिरथामा चल जा हलइ ।)    (बंगमा॰12:2:42.22)
63    कामा-मामा (कारण तीन-तीन पत्रिका के सामग्री जुटाना, संपादन करना, छपाना आउ फेर अपने तक पहुँचवाना कोय कामा-मामा के लूट नञ् हइ या हमरा पास अलाउद्दीनवला जादुई चिराग नञ् हइ, जेकरा जलते मातर सब काम फटाफट होते जइतइ ।)    (बंगमा॰12:2:6.12)
64    किजन (= कि जनी) (नगेसर बीच अंगना में ठाढ़ बोलल - हाय ! हाय ! ई की ! छोड़ दहीं ।/ तरेगनी के हाथ रुक गेल । नगेसर चूल्हा के नगीच पहुँच गेल । माय सब लिल्ला मचिया पर बैठल देख रहल हल । तरेगनी बोलल - तों किजन गेलऽ । आवऽ, बैठऽ, तब एकर पुरान खिस्सा कहियो ।)    (बंगमा॰12:2:40.18)
65    किरखी (= कृषि) (अउ सचकोलवा, नगवा गाँव में नगेसर भे गेल । साथी-संगी मजाक में जोरू के गुलाम कहऽ हला । तरेगनी जोजना बनइलक अउ फाँड़ा कसके खेत में उतर गेल । नगवा ओकर इसारा पर दिन-रात खटे । ऊ साँझ के साँझ बर तर रोज जाय । किसान के बीच बैठे आउ खेती-बारी के चरचा धेयान से सुने । बाजा के गीत छूट जाय त छूट जाय बकि किरखी चर्चा नञ् छूटे ।)    (बंगमा॰12:2:38.35)
66    किसानी (~ में पगड़ी के फेर होना) (ईम साल टरेक्टर छोड़ऽ । हरे से निस्तार ल, आगू देखल जइतइ जब कल्टी फार रहतइ । कल्टी के चार चास काफी हइ । अउ हाँ, गहूम में तीन पछिया - बूने, काटे, मैंजे जब । सुनऽ ही - किसानी में पगड़ी के फेर होवऽ हे ।; वश में रहत हल त खुद्दे किसानी करतूँ हल । चास पर चास । गनौरा के बिछौना ।)    (बंगमा॰12:2:39.23, 46.13)
67    कीड़ाखोरी (ऊ साल धाने नियन रब्बी भी स्वाहा । रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख । पहिले त कीड़ाखोरी से बचवऽ । ओकरो से बचलो त पाला ।)    (बंगमा॰12:2:42.4)
68    कुटुंबी (= कुटुमतारे) (माय के मुँह से अचक्के निकल गेल - हे सुरुज सविता मीरा ! बौधा के बचावो ।/ नेताजी भी कुटुंबी चल गेला हल । तरेगनी ननद के लेले थाना पर चल गेल आउ दरोगा जी से अइसन ममता, गलानी आउ विसवास के साथ बोलल कि कठकरेज दरोगा जी भी पिघल गेला ।)    (बंगमा॰12:2:38.23)
69    कुभक्खा (- "भइया अइलइ ?" - "भइया मर गेलथुन बउआ !" बोलइत भौजी भित्तर हेल गेल। - "अइसन कुभक्खा काहे निकालो हीं भौजी ? तूँ करती हें ।" ननद टोकलक ।; तरेगनी के आँख तर अन्हार घिर आल । ओकरा कुछ नञ् सूझे, अब की करी । अइसने बाप होवऽ हइ ? गरियाबइ के त गरिया देलक, बकि अब ऊ पछता रहल हल - कौन कुभक्खा निकाललूँ कि सच भे गेल । बाप आल त ऊहो ऊहे । माय त कठुआल ।)    (बंगमा॰12:2:37.18, 38.11)
70    कुरोधना ("हाँ हे, ठीके कहलें । हमनी पर त अभी पप्पुआ कुरोध रहलो होत । लगऽ होतइ ई भौजीन सब भागे कि हम चट कोहबर ले लूँ । जो हो पप्पुआ, हमनी चललिओ ।" सौर वली भौजी पप्पू के कनखिअइले चल गेल ।)    (बंगमा॰12:2:60.1)
71    कोंहड़ौरी ( हाँ, मिंझरौना के चिकसा झर गेलो हल । सोंचलियो - सब ले मड़वे बना देही । कोंहड़ौरी पहिले, मड़वा बाद । आन दिन पहिले मोटकीये बनैतियो हल बाऊ चलते ।)    (बंगमा॰12:2:45.14)
72    कोपी-कलम (होली पार हो गेल । पप्पू के आँख तर अगला सालवला होली के दिरिस नाच गेल । मेहरारू संग पहिल होली मनावे के सपना सपने रह गेल । कयसूँ हिम्मत करके पप्पू कोपी-कलम निकाललक अउ प्रतिभा के नाम एगो चिट्ठी लिखे लगल ।)    (बंगमा॰12:2:62.18)
73    कोहबर ("हाँ हे, ठीके कहलें । हमनी पर त अभी पप्पुआ कुरोध रहलो होत । लगऽ होतइ ई भौजीन सब भागे कि हम चट कोहबर ले लूँ । जो हो पप्पुआ, हमनी चललिओ ।" सौर वली भौजी पप्पू के कनखिअइले चल गेल ।)    (बंगमा॰12:2:60.1)
74    खँचिया (जहिया से तरेगनी डेवढ़ी लांघलक हे, ओकर मन में एगो संकल्प के आग जरि रहल हे, धधकि रहल हे, एगो परतिंगा हेऽऽ - मजा चखैबउ । दस-पाँच दिन त गुमसुम रहल, घर के रंग-ढंग देखइत समझइत रहल । सास सतेली, ससुर गंजेड़ी, मरद अवारा । ले-दे के घर में एगो नो-दस बरिस के ननद हल मनबहलौनी । सास त मुँह-देखइये में खँचिया भर ओलहन देलन ।)    (बंगमा॰12:2:37.5)
75    खंड-कोला (आन साल हम खंड-कोला अंगना में बरसाती तरकारी भर दे हलियो । बाऊ गमछी में बान्ह के गामे में बेच आवऽ हलथुन । नगदी त नगदी, अनाज त अनाज, बकि ऊ साल कुछ बिरधवे नञ् कइलो ।)    (बंगमा॰12:2:43.13)
76    खखनना (घरो बधे भुअउरी पार देलियो त भर बरसात तीयन से निचिन्त । तरकारी के तरकारी, दाल के दाल । घठिहन त कइसूँ पार लग जइतो बकि दलहन-तेलहन बजारे भरोस । पैसा रहे तब ने बजार से किनाय । यहाँ तक कि ठोंगो में मोहाल दाल ले त जी खखन के रह गेलो । सच कहलक हे - "गरीब के बाल-बच्चा, मत कर गरब । जहिये दाल-भात, तहिये परब ॥")    (बंगमा॰12:2:43.19)
77    खदबदाना (तरेगनी के मन खदबदा रहल हल । ओकरा मुँह में अदबद आ रहल हल । गाम में कोय एतना बोलत हल तब एक बात भुइयाँ गिरइ ले नञ् देत हल । रोकते-रोकते भी एक बात निकलिये गेल - सुग्गा रहतो हल त अहो भल । राम-राम त रटतो हल । ई त कौआ हो, कउआ ।)    (बंगमा॰12:2:37.21)
78    खनखनाना (हाँ, त हम बकड़ी लेके नद्दी पर चल गेलियो । पठरू अंगना में खेलइत रहऽ हलो । रौदा उगइत लौट गेलियो । याद पड़लो - झाँक पर गोयठा नञ् देलूँ । रात भर में गोयठा खनखना जइतो बकि ... । जल्दी-जल्दी एक सूप गोयठा रौदा में देलियो अउ जाता पर बैठ गेलियो ।)    (बंगमा॰12:2:43.8)
79    खपड़दत्त (हम दुन्नूँ एकपिठिया । दुन्नूँ में दाँते लेके झगड़ा । हम्मर दाँत छोट-छोट, जीरा नियन अउ ओकर खपड़दत्त । .. हम कहलिअइ - "खुरपी दाँत भाय खुरपी दाँत । घास चरत कि खइता भात ॥" टैचुनमो बोलइत भाग गेल - "जीरा के फोरन दम-दम-दम । जिरिया भात खाय कम-कम-कम ॥")    (बंगमा॰12:2:45.28)
80    खर्हुआ-कटुआ (रानी जब बिआह-दान के बाद अपन पति के साथ रसे-बसे लगल त ऊ समय ओकर पति भाय-भोजाय के साथ रह रहल हल - देश के राजधानी दिल्ली में । हलाँकि परिवार में सब कुछ ठीक चल रहल हल बकि रानी के जौरागी में घुटन महसूस होवऽ हल । हमेशा ओकरा लगे कि ओकर गोतनी के खर्हुआ-कटुआ ओकर पति के कमाय पर चकल्लस कर रहल हे । ओकर पति अपन मेहनत के कमाय भौजाय आउ भतीजा-भतीजी के ऊपर फूँक रहलन हे ।; “भइया अभियो हमरा से दोगना कमा रहलन हे । ऊ हमरा पढ़ा-लिखा के आदमी बनइलन ।” … "दोगना कमा हथिन त दोगना खर्हुआ-कटुआ भी तो हइ । आउ पढ़ा-लिखा के तोरा, कोय दया नञ् कइलथिन हे ऊ । ई तो उनखर कर्तव्य हलन ।" रानी भड़क गेल हल ।)    (बंगमा॰12:2:52.9, 23)
81    खस-खस (एने बरी लाल भे गेल त पानी देके थरिया से झाँप देलियो अउ लगलियो आँटा सानइ ले । चोकराह आँटा, कतनो सौनन देलियो, खस-खस । कतनो कैलियो, नञ् लसलसाल । अंगुरी से दाब-दाब के देखलियो, ओइसन के ओइसने । आजिज होके छोड़ देलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.2)
82    खस्सी (सोंचे लगलियो - आसिन तक कते, चार किलो से कि फाजिल के होत । कते होवत । खस्सी बना देम । माय कहिये रहल हल - ई बियान तरेगनी के ... साज-बाट । बरतुहारी त भे रहलो हल मुदा हमरा विसवास नञ् कि होइये जात ।)    (बंगमा॰12:2:44.10)
83    खाँट (= छोटा) (खेल के मैदान भी हुजूम के सामने खाँट पड़ि गेल । सरकार लाचार ! सब मशीन ठप ।)    (बंगमा॰12:2:70.12)
84    खाड़ (दे॰ खाँड़) (महिन्ना ~) (- "काहे बेटी, एजा परी बइठल हऽ ?' - "हाँ चचा, कुछ काम हे ।" - "बेटी, हमरा क्षमा कर दऽ । तोहर एगो चिट्ठी महीन्नो खाड़ से हमर जेब में पड़ल हे । जब देवे चाहऽ हली तबे भूल जा हली । भूल के कारण हम तोरा ई चिट्ठी नञ् दे सकली ।")    (बंगमा॰12:2:63.35)
85    खान-पीअन (मध्यम वर्ग के आदमी रोटी आउ कपड़ा तो आसानी से जुटा ले हथ बकि बढ़ियाँ मकान के सपना उनकर जिनगी गला के रख देहे, चाल डगमगा के रख देहे । खान-पीअन, रहन-सहन, आल-गेल आउ बाल-बच्चा के पढ़ाय-लिखाय आउ बेटी के बिआह-दान के चक्कर में ऊ एतना उलझ जा हथ कि मकान के सपना ढेर लोग ले सपने रह जाहे ।)    (बंगमा॰12:2:52.1)
86    खिलइताहर (ओइसने-ओइसने साल एकरा में धान लगतो । लगतो त पछड़ि जइतो । हाँ, खेंसाड़ी बड़की जोड़ धरतो बकि सोसना ओकरा अइसन दबइतो कि खाली जनावरे के खिलावे जोग रहतो । बाऊ खिलइताहर हाथ सागे बेच लेथुन - दस मने के हिसाब से ।)    (बंगमा॰12:2:45.4)
87    खुट्टी-खाटी (सब करे पाँच मन अनाज । कटुआ-भुस्सा भी जेठे-माघे पार । खुट्टी-खाटी होवऽ हल त ओकर झोंकन के कोयला से माय लेल सालो भर के टिकिया बना दे हलूँ ... चलइत रहऽ हल । तहिया ऊहो नञ् । बोरसी उकट के ठनकल डमारा के इंगोरा से नरियर भर के माय के देलियो अउ बकड़ी बान्हइ ले पगहा खोजऽ लगलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.13)
88    खेंसाड़ी (दे॰ खेसाड़ी) (ऊ खेत भगमाने भरोस । आउ सब टिल्हे, ई डुब्बे । एकरा में सलफिट देवइ में भी नञ् बनतो। खेत में रेत खेलतो । ओइसने-ओइसने साल एकरा में धान लगतो । लगतो त पछड़ि जइतो । हाँ, खेंसाड़ी बड़की जोड़ धरतो बकि सोसना ओकरा अइसन दबइतो कि खाली जनावरे के खिलावे जोग रहतो ।)    (बंगमा॰12:2:45.3)
89    खेत-खंधा (आलम ई हल कि दू-चार गाँव में एकाध मैट्रिक पास मिलऽ हलन आउ पाँच-छः मिडिल । प्राइमरी स्कूल में मिडिलयी शिक्षक नियुक्त होवऽ हलन आउ मिडिल में मैट्रिक । वेतन एत्ते कम कि लोग-बाग शिक्षक के जगह पर जमींदार के अमला-पटवारी बनना जादे पसंद करऽ हलन । खेत-खंधा से बोला-बोला के गुरुजी के बहाली भेल, तब कहँइ शिक्षा के रेल छुक-छुक बढ़ऽ लगल ।)    (बंगमा॰12:2:69.26)
90    खेदना (= रगेदना, भगाना) (हाँ, ईहे सब सोंच रहलूँ हल कि आग लहसि गेल । अँचरा से ताय पोछलियो अउ लपकल जरामन भित्तर फराठी लाबइ ले चल गेलियो । कौआ ताक में धजा-बबाजी पर बैठल हलो । सून पाके उतरलो अउ आँटा में फेनो लोल मारऽ लगलो । धात्-धात् कइले कौआ के खेदलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.18)
91    खोक्खा (बरतुहारी त भे रहलो हल मुदा हमरा विसवास नञ् कि होइये जात । कते के चढ़ल भँड़हेरी उतर गेल हे । बेसाहल तक त कुमार रह गेल हे । आजकल तो मड़वो पर से भागा-भागी होवऽ हे । छुच्छा के के पूछे । कहलो गेल हे - छुच्छा रे तोरा कोय नञ् पुच्छा । घर खोक्खा, मुही खाली ।)    (बंगमा॰12:2:44.14)
92    गंडा (सो चास गंडा, तेकर आधा मंडा, तेकर आधा तोरी, तेकर आधा मोरी ।; गंडा माने केतारी, मंडा माने गहूम, तोरी माने सरसो, मोरी माने धान के बिचड़ा ।)    (बंगमा॰12:2:39.15, 18)
93    गड़ाना (सात दिना के झपास । पानी-पानी, सगरो पानी । बाध-बन्ना सब डूबल । उखेल होवइ ले एक सो एक गाम के नाम, जेकर पहिल अक्षर क - कोसरा, केमरा, कसार, कयासी ... उखेल होवइ के टोटका ... झंझरा गड़ाल । ठाप-ठोप सेनुर । पुरवइया के लफार में झूलइत गुड़वा-गुड़िया । सरकस के लड़की नियन कलाबाजी खायत ... बिलाड़ी काट ।)    (बंगमा॰12:2:40.24)
94    गढ़ाना (आज भी त ओइसन संविधान गढ़ाइये रहल हे । आरक्षण प्रावधान के तहत धारदार तलवार लटकाके सत्ता के दुरुपयोग करे वलन प्रतिभा आउ योग्यता के ताक पर रखि के आज लाखों अर्जुन के सिर काटि रहलन हें, उनका दर-दर भटके ले विवश करि रहलन हें, उनखनि के विषपान करि जीवन लीला समाप्त करइ ले विवश करि रहलन हे ।)    (बंगमा॰12:2:67.22)
95    गनौरा (आँटा भी झरल हल । मुनकवा कहवो करे कि मिलिया पर पिसा ले बकि घर के दसा देखके दू पैसा बचावऽ में लगल रहलियो । कने से आवत पिसाय ? जाड़ा-गरमी में त गोयठो बेचके नोन-हरदी भे जा हल बकि बरसात में त ऊहो गोबर गनौरे पर फेंका जाय ।; वश में रहत हल त खुद्दे किसानी करतूँ हल । चास पर चास । गनौरा के बिछौना ।)    (बंगमा॰12:2:43.12, 46.13)
96    गर-गोसाला (सोंचऽ हलूँ - अपन भौजाय के कनियाय बनाम । केकरो नञ् देखे देम । खेत-पथार सब हम करिये ले हलूँ । चौका-बरतन, गर-गोसाला, पानी-कुन्नी, झरुआ-झाटा सब, बकि मन के मुराद मने रह गेल । एकल्ले अपन माथा पर सब काम उठा लेलियो बकि भौजाय के मुँह नञ् देखलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.31)
97    गरब (= गर्व) (घठिहन त कइसूँ पार लग जइतो बकि दलहन-तेलहन बजारे भरोस । पैसा रहे तब ने बजार से किनाय । यहाँ तक कि ठोंगो में मोहाल दाल ले त जी खखन के रह गेलो । सच कहलक हे - "गरीब के बाल-बच्चा, मत कर गरब । जहिये दाल-भात, तहिये परब ॥")    (बंगमा॰12:2:43.20)
98    गहना-जाठी (इंटर पास प्रतिमा के जइसन नाम अउसने रूप, गोर दप-दप, नाक टूसा सन खाड़, आँख आलू के फाँक, ठोर सितुआ सन पातर, देह छड़हड़ सुडौल, जेकरा पर गहना-जाठी पेन्हले कनिआय बनल प्रतिमा साक्षात् परी अइसन लग रहल हल ।)    (बंगमा॰12:2:59.12)
99    गाँड़ा (= तह, चरण, स्टेज) (पाँच-पाँच ~ के कोठी) (अगहनी फट के उपजल हल । तरेगनी पाँच-पाँच गाँड़ा के कोठी पारलक । टोला के दाय-माय ओकर कोठी देखइ ले आवऽ हली ।)    (बंगमा॰12:2:39.5)
100    गीत-गौनेय (दे॰ गीत-गौनई) (कृष्ण कुमार भट्टा मगही के लिखाड़ युवा साहित्यकार आउ लोकगायक हथ । .. नाटक में इनकर विशेष रुचि हे । इनकर कय गो नाटक मंचित भी हो चुकल हे । आजकल ई गीत-गौनेय में लगल हथ । मगही पत्रिका से इनका विशेष लगाव हे ।)    (बंगमा॰12:2:59.7)
101    गुड़गुड़ाना ( बोरसी उकट के ठनकल डमारा के इंगोरा से नरियर भर के माय के देलियो अउ बकड़ी बान्हइ ले पगहा खोजऽ लगलियो ।/ "तारोऽऽ ! ई की देली ... रुइयाँ ने धुइयाँ" - माय बोलल । हमरा गोस्सा बर गेलो । खों-खों करतो अउ नरियर गुड़गुड़इतो ।)    (बंगमा॰12:2:42.17)
102    गेन्ह (= गन्ह, गन्ध, दुर्गन्ध) (~ तोड़ना = दुर्गन्ध करना) (खरिहान आल अनाज भी कभी-कभी गोबर । पानी एगो धाने बरदास्त करतो । एकाध साल चैत में एतना पड़लो कि, की काँड़ा, की बड़हर, धरियाल-ढेरियाल सब सड़के ढिम्मा ! खरिहान गेन्ह तोड़े । बोझा के बोझा अंकुरल ।)    (बंगमा॰12:2:42.8)
103    गैंठी (= गैंठ, गेंठी) (तरेगनी ननद के लेले थाना पर चल गेल आउ दरोगा जी से अइसन ममता, गलानी आउ विसवास के साथ बोलल कि कठकरेज दरोगा जी भी पिघल गेला । तरेगनी अँचरा के गैंठी से कनबाली खोल के टेबुल पर रखइत बोलल - हम ई कौनो घूस नञ्, एगो तिरिया के इज्जत खोल के रखऽ हियन दरोगा जी । एकरा से बढ़के कुछ नञ् हो कि दियो ।)    (बंगमा॰12:2:38.25)
104    गोंड़ी (= सूखा चारा डालने की मिट्टी की लंबी नाद, चरन) (ओकरा लेल नञ् नहिरे सुख, नञ् ससुरे सुख ! अइसे ओकर माय-बाप गरीब हल, बकि उदूल त नञ् करऽ हल । यहाँ त बातो के दुख । घर के हाल गोसइयें जाने । खेत पाँच बिगहा बकि कोठी खाली । गोंड़ी पर बैल के कौआ लोल मारे । ससुर गांजा पीके मातल रहे आउ मरद रोज टीसन टहले ।)    (बंगमा॰12:2:37.7)
105    गोझनौटा (बगेरी के नोह जइसन गहूम पर की होत हल परब । चिब्भी, मुन्नी ! बिहनाय जोग नञ्, सब चोकर । ... हाँ, त सोंचइत सोंचइत मन खराब भे गेलो । उठलियो आउ गोझनौटा झार के गहूम घैला में रखलियो । चौका-बरतन बाकिये हलो ।)    (बंगमा॰12:2:44.21)
106    गोतना (मूड़ी ~) (दरोगा जी भी ऊपर से नीचे तक सिहर गेला । कनबाली उठाके तरेगनी के हाथ में थम्हावइत बोलला - कमेसर सिंह, असामी को निकालो ।/  नगवा तरेगनी के आगू में मूड़ी गोतले टप-टप लोर गिरावइत रहल ।/ तरेगनी बोलल - हे, चलऽ ... हमर इज्जत रखिहऽ ।)    (बंगमा॰12:2:38.30)
107    गोलटा-तेपटा (ऊ त हम हलिअइ कि घर-गिरथामा चल जा हलइ । भाय बनाठे । हमर गाम में त पाँच-दस बिगहा वला के बियाहो नञ् होवऽ हइ अउ एकरा बनहवा के दुइये बिगहा पर बरतुहार लुझतइ हल । ... हमर मन में गोलटा-तेपटा भी अइलो । गाँव में ढेर घर गोलटाही-तेपटाही आल हे बकि बाऊ नञ् मानलन । उनखा पोटना मुसकिल । एक तुरी माय बोलवो कइल त बाऊ झपट लेलका - तोरे बाप अइसन होतउ ।)    (बंगमा॰12:2:43.1)
108    गोलटाही-तेपटाही (ऊ त हम हलिअइ कि घर-गिरथामा चल जा हलइ । भाय बनाठे । हमर गाम में त पाँच-दस बिगहा वला के बियाहो नञ् होवऽ हइ अउ एकरा बनहवा के दुइये बिगहा पर बरतुहार लुझतइ हल । ... हमर मन में गोलटा-तेपटा भी अइलो । गाँव में ढेर घर गोलटाही-तेपटाही आल हे बकि बाऊ नञ् मानलन । उनखा पोटना मुसकिल । एक तुरी माय बोलवो कइल त बाऊ झपट लेलका - तोरे बाप अइसन होतउ ।)    (बंगमा॰12:2:43.1)
109    गोलाय (आउ दोसर तुरी ? झुम्मर खेले घड़ी हमर तीतल देह के गोलाय पर अपन अंगुरी रख देलको मायो । देह गनगना गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:41.16)
110    गोसाँय (ओकरा लेल नञ् नहिरे सुख, नञ् ससुरे सुख ! अइसे ओकर माय-बाप गरीब हल, बकि उदूल त नञ् करऽ हल । यहाँ त बातो के दुख । घर के हाल गोसइयें जाने । खेत पाँच बिगहा बकि कोठी खाली । गोंड़ी पर बैल के कौआ लोल मारे । ससुर गांजा पीके मातल रहे आउ मरद रोज टीसन टहले ।)    (बंगमा॰12:2:37.7)
111    गोहाल (= गोशाला) (सिलाय-फराय के समान ले लेलको अउ चल गेलो एकांत में । ओकर बैठकी मौसम के हिसाब से बदलते रहतो हल । जाड़ा में खरिहान, त गरमी में बरसात में गोहाल, सुन-सुन्हट्टा ।)    (बंगमा॰12:2:41.6)
112    घठिहन (= मोटा) (घरो बधे भुअउरी पार देलियो त भर बरसात तीयन से निचिन्त । तरकारी के तरकारी, दाल के दाल । घठिहन त कइसूँ पार लग जइतो बकि दलहन-तेलहन बजारे भरोस । पैसा रहे तब ने बजार से किनाय ।)    (बंगमा॰12:2:43.17)
113    घर-गिरथामा (माय के उमर जाय लायक नञ् हलो, मुदा दम्मा अउ सदमा ओकरा तोड़ के रख देलको । बेचारी की काम-धाम करतो हल । ऊ त हम हलिअइ कि घर-गिरथामा चल जा हलइ ।)    (बंगमा॰12:2:42.22)
114    घर-दुआर (हम बिदा होके ससुरार आ गेलूँ । बाउजी के अकेले घर काटे लगल । से ऊ घर-दुआर बेचके अजोध्या जी जाके भक्ति-भजन में लीन हो गेलन ।)    (बंगमा॰12:2:47.19)
115    घुप्प-अन्हरिया (हम्मर विधवा के दुख कोय नञ् समझऽ हल । साँय के किरिया-करम होला अभी तीनो महीना नञ् भेल हल कि एक रात जब हम बेखबर नीन में हलूँ कि हम्मर देवर चुपके से आके हमरा साथ छेड़खानी करे लगल । हम्मर नीन उचट गेल । घुप्प-अन्हरिया रात ! हम चोर-चोर हल्ला करे लगलूँ ।)    (बंगमा॰12:2:48.10)
116    घैला (= घइला; घड़ा) (बगेरी के नोह जइसन गहूम पर की होत हल परब । चिब्भी, मुन्नी ! बिहनाय जोग नञ्, सब चोकर । ... हाँ, त सोंचइत सोंचइत मन खराब भे गेलो । उठलियो आउ गोझनौटा झार के गहूम घैला में रखलियो । चौका-बरतन बाकिये हलो ।)    (बंगमा॰12:2:44.22)
117    घोर-मट्ठा (मैकाले महोदय के महँड़ा में भारतीय शिक्षा पद्धति पर अइसन मथानी चलल कि हहुता भर-भर मक्खन निकालि-निकालि चाहइत रहलन आउ घोर-मट्ठा नल्ली-पमल्ला में बहइत रहल । आलम ई हल कि दू-चार गाँव में एकाध मैट्रिक पास मिलऽ हलन आउ पाँच-छः मिडिल ।)    (बंगमा॰12:2:69.23)
118    चनरमा (= चन्द्रमा) (हम बड़ी कुलच्छिनी हूँ । जन्मइते माय के खा गेलूँ - ईहे पास-पड़ोस के हमरा कहऽ हे । ... हम जब चौदह बरिस पार करे लगलूँ, हम्मर शरीर पर दूगो गुलाब के कली खिल गेल । चनरमा जइसन रूप निखर गेल ।)    (बंगमा॰12:2:47.7)
119    चलते (= के लिए; के कारण) (हाँ, मिंझरौना के चिकसा झर गेलो हल । सोंचलियो - सब ले मड़वे बना देही । कोंहड़ौरी पहिले, मड़वा बाद । आन दिन पहिले मोटकीये बनैतियो हल बाऊ चलते ।)    (बंगमा॰12:2:45.14)
120    चाटब (बकड़ी बिदक गेल हल । पठरू हँट के खड़ा जीह से मुँह में लगल फेन चाटब करऽ हल ।)    (बंगमा॰12:2:41.35)
121    चान-सूरज (इनकर बेटी रमरतिया बड़ सुंदर हे । ओकर साँवला रूप अइसन मोहक हल कि चान-सूरज के जोत मद्धिम पड़ जा हल ।)    (बंगमा॰12:2:56.16)
122    चास (सितवा कट गेल हल । तरेगनी खेत उखाड़के पटैलक पनियौंचा देके । रूख भे गेल त चास पर चास । छो पूरल त नागो बोलल - कल बून देवइ के चाही । तरेगनी पुछलक - एगो कहावत जानऽ ह ? - कौन ? - सो चास गंडा, तेकर आधा मंडा, तेकर आधा तोरी, तेकर आधा मोरी ।; ईम साल टरेक्टर छोड़ऽ । हरे से निस्तार ल, आगू देखल जइतइ जब कल्टी फार रहतइ । कल्टी के चार चास काफी हइ । अउ हाँ, गहूम में तीन पछिया - बूने, काटे, मैंजे जब । सुनऽ ही - किसानी में पगड़ी के फेर होवऽ हे।)    (बंगमा॰12:2:39.11, 12, 15, 23)
123    चिकसा (= कई प्रकार के अनाजों का मिश्रित आटा) (मिंझरौना के ~) (हाँ, मिंझरौना के चिकसा झर गेलो हल । सोंचलियो - सब ले मड़वे बना देही । कोंहड़ौरी पहिले, मड़वा बाद । आन दिन पहिले मोटकीये बनैतियो हल बाऊ चलते ।)    (बंगमा॰12:2:45.14)
124    चिक्कन-फोक्कन (तहिये हम एगो सपना देखलियो - एगो घर चिक्कन-फोक्कन । घर में कोय चीज के कमी नञ् ! तरेगनी ऊ घर के मलकीनी । कमासुत मरद । ठीक अइसने घर में दुसमन कौआ के मजा चखैबन । अप्पन हाथ के उपजावल गहूम के लस-लस आँटा में कौआ के लोल फँसइबन आउ चुल्हा में झोंक देबन ।)    (बंगमा॰12:2:46.20)
125    चिब्भी (= एकदम सुक्खल) (रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख । पहिले त कीड़ाखोरी से बचवऽ । ओकरो से बचलो त पाला । कभी एतना पानी पड़लो कि हरदा ! सब कुछ से बचलो त पछिया के हाही चिब्भी कर देलको ।; सच कहलक हे - "गरीब के बाल-बच्चा, मत कर गरब । जहिये दाल-भात, तहिये परब ॥" अउ बगेरी के नोह जइसन गहूम पर की होत हल परब । चिब्भी, मुन्नी ! बिहनाय जोग नञ्, सब चोकर ।)    (बंगमा॰12:2:42.5, 44.1)
126    चिरइँ-चुरगुन्नी (सच कहलक हे - "गरीब के बाल-बच्चा, मत कर गरब । जहिये दाल-भात, तहिये परब ॥" अउ बगेरी के नोह जइसन गहूम पर की होत हल परब । चिब्भी, मुन्नी ! बिहनाय जोग नञ्, सब चोकर । हाय रे अदमी ! जेकरा चिरइँ-चुरगुन्नी, गाय-बैल-बकरी भी नञ् पूछे, तेकरो खाय ।)    (बंगमा॰12:2:44.2)
127    चीरीचोंथ (सक्खिन के झुंड लगल हल तहिया । सब हँसइत लहालोट । फूही में भींगल हँस्सी, ठठाल हँस्सी । बरखे नियन ठेठाल हँस्सी ! मायो सब हँसतो कइसन - बादर फट जाय, बदरा भे जाय चीरीचोंथ, तीत के अंगिया भे गेल बोथ !)    (बंगमा॰12:2:41.1)
128    चुचकारना (= पुचकारना) (बकड़ी मेमाल कि हमर ध्यान टूटल । रोज भोरौआ मेमइतो । उठलियो अउ खँचिया पर से पत्थर के पसेरी उतरलियो । चारियो पठरू सुरखुरू । दूगो के उठाके मुँह अपन गाल में साटइत चुचकारलियो - नुनु गे, हमर बउआ गे, सेर पीमे कि पउआ गे ।)    (बंगमा॰12:2:41.28)
129    चुरकी (हम अपने के अद्भुद उदाहरण प्रस्तुत कर रहली हे, जे जगह के अल्प परिधि में वस्तु एक, नाम अनेक के रिकार्ड तोड़ नमूना पेश कइलक हे । वस्तु हे बाल । माथा पर हे त केश, सिर के नीचे चुरकी । ओकरा से दू अंगुली नीचे आँख के ऊपर भौं त एक अंगुली नीचे पिपनी । एकरा से दू अंगुल नीचे मूँछ त सटले दाढ़ी । दाढ़ी से सटल ऊपरी भाग कलमी । दाढ़ी के नीचे बगल में कखउरी ।)    (बंगमा॰12:2:65.4)
130    चुल्हा-चौका (दिन भर चुल्हा-चौका करते-धरते कमर टेढ़ हो जा हल । तब साँझ के जूठ-खूठ, रूखल-सूखल, बासी-तेबासी खा हलूँ । शरीर हिले लगल । गुलाबी चेहरा कुम्हलाय लगल ।)    (बंगमा॰12:2:48.1)
131    चोकराह (एने बरी लाल भे गेल त पानी देके थरिया से झाँप देलियो अउ लगलियो आँटा सानइ ले । चोकराह आँटा, कतनो सौनन देलियो, खस-खस । कतनो कैलियो, नञ् लसलसाल । अंगुरी से दाब-दाब के देखलियो, ओइसन के ओइसने । आजिज होके छोड़ देलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.1)
132    चौंकियाना (= जुते खेत को समतल करने हेतु चौंकी देना) (अभी त सूर-सार भी नञ् भेल हल । हर नदी के पार जाय के हल । एक टोपरा पानी से उप्पर भेल हल । चार कट्ठा के बान । फारनी भेल हल । दू चास करके चौंकियाना रोपना बाकी ।)    (बंगमा॰12:2:44.35)
133    चौका-बरतन (सोंचऽ हलूँ - अपन भौजाय के कनियाय बनाम । केकरो नञ् देखे देम । खेत-पथार सब हम करिये ले हलूँ । चौका-बरतन, गर-गोसाला, पानी-कुन्नी, झरुआ-झाटा सब, बकि मन के मुराद मने रह गेल । एकल्ले अपन माथा पर सब काम उठा लेलियो बकि भौजाय के मुँह नञ् देखलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.31)
134    चौरट्ठा (= चौरेठ, चौरेठा; मांगलिक अवसरों पर काम में लाने का चावल के आटे का घोल; अइपन; पानी के साथ पीसा फुलाया चावल) (ई परिस्थिति में जकड़ल आउ पूर्वाग्रह के बेड़ी में बंधल द्रोणाचार्य एकलव्य के धनुर्विद्या सिखावे से इन्कार कइलन त कउन विवशता हल, समझ पड़त । पुत्रवत् प्यार करेवला गुरु अप्पन शिष्य के अंगूठा दान में लेत ! अगर लेलकन त ऊ कउन सकड़पेंच हल, जेकरा ऊ न पार करि सकलन । बेटा के चौरट्ठा पियावे वाला ने अंगूठा लेलन, से कि अप्पन अहम् तुष्टि लेल ? ऊ गुरु स्मृति निर्मित अनुबंध के पालन भर कइलन आउ नाहक सब रोष अप्पन सिर लेलन ।; समाज में समरसता सब दिन एक नियन न रहल । सम्मान आउ प्रतिष्ठा से हम भले आत्ममुग्ध हली, बकि बाल-बुतरू चौरट्ठा के घोल पीअइत रहल ।)    (बंगमा॰12:2:67.20, 69.35)
135    छड़हड़ (= छरहर) (इंटर पास प्रतिमा के जइसन नाम अउसने रूप, गोर दप-दप, नाक टूसा सन खाड़, आँख आलू के फाँक, ठोर सितुआ सन पातर, देह छड़हड़ सुडौल, जेकरा पर गहना-जाठी पेन्हले कनिआय बनल प्रतिमा साक्षात् परी अइसन लग रहल हल ।)    (बंगमा॰12:2:59.12)
136    छन (= क्षण) (सेउदल गोयठा से निबटना सधारन काम नञ् । गोयठा पर करासन देके उक्का जोरलियो । माय रोकलक - ई उमर भेल, हम सब कहियो करासन के मरम जानलूँ ? हावा में भुटनी गो इंगोरा देके चार गोयठा के उक्का जोर देलियो, छने में आग फफा गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:45.12)
137    छाहीं (ऊ अछूत भीलनी के, जेकरा पर छाहीं भी स्पर्श योग्य न मानल जा हल, ओकरा हम अपन शिष्या बना लेली ।)    (बंगमा॰12:2:68.5)
138    छोट-मोट (छोट-मोट किसान के बेटा पप्पू बी.ए. पास कइला के बाद कत्ते ठँइया फारम भरलक, कत्ते ठँइया सिपाही खातिर दौड़ लगइलक मुदा केनउ सफल नञ् भेल ।)    (बंगमा॰12:2:60.3)
139    छोलनी (चुल्हा भिजुन चुक्को-मुक्को बैठइत टैचुनमा बोललो - "दे खाय ले ।" ... हम कहलिअइ - "कमइया करके अइलहीं ?" टैचुनमा अंगुरी से आँटा गोदइत बोलल - "तोर कमइया खा हिअइ ?" हम छोलनी उठावइत बोललिअइ - "जो एजा से, नञ् त मार बैठबउ ।"; हमरा काहे छोलनियाँ उसाहलकउ ?)    (बंगमा॰12:2:45.21, 25)
140    छौड़कन (गाँव के छौड़कन नाम लिख रहल हल कि कसार के नाम सुनते मातर मुनकवा हमरा आँख मार देलको । ऊ मुसकतो त ओकर दुन्नुँ गाल में गहिड़ा पर जइतो । मरथ मरद डूब के ।)    (बंगमा॰12:2:41.13)
141    जनु (ऊ साल जनु इन्नर के यहाँ भी जनु पानी के अभाव पड़ गेलइ हल । निपनियाँ रब्बी कते होतो हल । टीवेल भी त सालो से लैन बिना खराब पड़ल रहो हो । सुनऽ ही तारो कटि के बिक जाहे । खड़े खेत सूख गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:42.9)
142    जय-जजमान (भइया अभियो हमरा से दोगना कमा रहलन हे । ऊ हमरा पढ़ा-लिखा के आदमी बनइलन । आज देखऽ न गाँव जाके हमर भाय-गोतिया के, कइसे टर-ट्युशन आउ जय-जजमान में जीवन के जोती बुझा रहलन हे - खेती-बारी कर रहलन हे । गाँव में रहतूँ हल त हमरो इहे दशा ने रहत हल ।)    (बंगमा॰12:2:52.21)
143    जरला (= जरल; जला हुआ) (हम त लंगो-तंगो । हमर आँख तर समुल्ले घर नाच गेलो - बाऊ खेत में, टैचुनमा भुक्खल, माय के अभी मुँहो नञ् धोवइलूँ हे, अप्पन त फिकिरे नञ् । तेकरो में बरसात के सेउदल गोयठा । कौआ जरला देह में नोन रगड़े ।)    (बंगमा॰12:2:46.10)
144    जरलाहा (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । आवथ जरलाहे कौआ, मजा चखा देवन ।)    (बंगमा॰12:2:40.2)
145    जराँठी (छोड़ न दें माय । तमाकुल की अमरित हउ ! दिन-रात खोंखइत रहऽ हें । मरमहीं ने त कहि देबउ कि एकरा तमाकुल के जराँठी से जारिहो ।)    (बंगमा॰12:2:42.20)
146    जरामन (= जारन, जलावन) (हाँ, ईहे सब सोंच रहलूँ हल कि आग लहसि गेल । अँचरा से ताय पोछलियो अउ लपकल जरामन भित्तर फराठी लाबइ ले चल गेलियो । कौआ ताक में धजा-बबाजी पर बैठल हलो । सून पाके उतरलो अउ आँटा में फेनो लोल मारऽ लगलो । धात्-धात् कइले कौआ के खेदलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.15)
147    जरामन भित्तर (= जलावन की कोठरी) (हाँ, ईहे सब सोंच रहलूँ हल कि आग लहसि गेल । अँचरा से ताय पोछलियो अउ लपकल जरामन भित्तर फराठी लाबइ ले चल गेलियो । कौआ ताक में धजा-बबाजी पर बैठल हलो । सून पाके उतरलो अउ आँटा में फेनो लोल मारऽ लगलो । धात्-धात् कइले कौआ के खेदलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.15-16)
148    जलम-साल (चुल्हा भिजुन चुक्को-मुक्को बैठइत टैचुनमा बोललो - "दे खाय ले ।"/ टैचुनमा के जलम-साल गाँव में पहिला-पहिल गरमा टैचुन रोपइलो हल, ईहे से ओकर नाम टैचुनमा पड़ गेल ।/ हम कहलिअइ - "कमइया करके अइलहीं ?" टैचुनमा अंगुरी से आँटा गोदइत बोलल - "तोर कमइया खा हिअइ ?")    (बंगमा॰12:2:45.17)
149    जाता (= जाँता, चक्की) (जल्दी-जल्दी एक सूप गोयठा रौदा में देलियो अउ जाता पर बैठ गेलियो । आँटा भी झरल हल । मुनकवा कहवो करे कि मिलिया पर पिसा ले बकि घर के दसा देखके दू पैसा बचावऽ में लगल रहलियो ।)    (बंगमा॰12:2:43.9)
150    जारन (= जलावन) (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । ... ताय धिप गेल । लरैठा के जारन - धाँय-धाँय आँच ।)    (बंगमा॰12:2:40.3)
151    जीते-जिनगी (एगो माय-बाप के दू गो बेटा हल । इनका रहते दुन्नु बेटा में बँटवारा (जुदागी) हो गेल । एगो दने माय त दुसरका दने बाप के रखे के समझौता होयल । जीते-जिनगी माय-बाप के अलग रहे के दुख मिलल ।)    (बंगमा॰12:2:20.16)
152    जुट्ठा (ऊ सब बंदिश, मर्यादा लाँघइत नञ् खाली ओकर दुआर पर पधारलन, बलुक भक्ति भागीरथी में ई कदर डूबलन कि ओकर जुट्ठा बेर खाके एगो मिशाल पेश कइलन ।)    (बंगमा॰12:2:68.8)
153    जूठ-खूठ (= जुट्ठा-कुट्ठा) (दिन भर चुल्हा-चौका करते-धरते कमर टेढ़ हो जा हल । तब साँझ के जूठ-खूठ, रूखल-सूखल, बासी-तेबासी खा हलूँ । शरीर हिले लगल । गुलाबी चेहरा कुम्हलाय लगल ।)    (बंगमा॰12:2:48.1)
154    जेठुआ (= जेठ का; जेठ अथवा गरमी में तैयार होने वाली (फसल, साग-सब्जी)) (कौआ झपटि के आँटा में लोल मारलक बकि तरेगनी नट नियन झपट के गियारिये पकड़लक - अब कने सखी ।/ अंगना में कौआ के गोहार - काँव-काँव ।/ तखनयँ नगेसर जेठुआ लत्ती में दवाय देके आल । अंगना में देखऽ हे कि तरेगनी कौआ के लोल चूल्हा में झौंसइ ले चाह रहल हे ।)    (बंगमा॰12:2:40.11)
155    जेबी (= जेभी; जेब) (खादी के साधारण धोती-कुर्ता, गोड़ मे पुरान प्लास्टिक चप्पल-जूता, आँख पर फ्रेम के टूटल डंटी जगह पर मोटगर धागा से बंधल चश्मा, कुर्ता के जेभी में स्याही के दाग, उदास चेहरा, फटल जेबी वला आदमी देखते लोग कहि उठऽ हलन - "लगऽ हे, अपने शिक्षक ही ।")    (बंगमा॰12:2:70.2)
156    जोत (= ज्योति; खेती योग्य जमीन) (दिन भर चुल्हा-चौका करते-धरते कमर टेढ़ हो जा हल । तब साँझ के जूठ-खूठ, रूखल-सूखल, बासी-तेबासी खा हलूँ । शरीर हिले लगल । गुलाबी चेहरा कुम्हलाय लगल । चनरमा के जोत मिरमिराय लगल । एतना सहके भी अप्पन भतार के कभियो शिकायत नञ् कइलूँ ।; इनकर बेटी रमरतिया बड़ सुंदर हे । ओकर साँवला रूप अइसन मोहक हल कि चान-सूरज के जोत मद्धिम पड़ जा हल ।)    (बंगमा॰12:2:48.2, 56.16)
157    जोहों-सोहों (ससुर आल त आउ उरेबी बोले लगल, उर्दू-फारसी - जोहों-सोहों कि हम किया करेंगा ? जाने नगवा । हमसे कुछ नहीं होंगा । समझ गियाँ कि जोहों-सोहों कि हमारे लिए नगवा मर गियाँ ।)    (बंगमा॰12:2:38.8, 9)
158    जौरागी (रानी जब बिआह-दान के बाद अपन पति के साथ रसे-बसे लगल त ऊ समय ओकर पति भाय-भोजाय के साथ रह रहल हल - देश के राजधानी दिल्ली में । हलाँकि परिवार में सब कुछ ठीक चल रहल हल बकि रानी के जौरागी में घुटन महसूस होवऽ हल । हमेशा ओकरा लगे कि ओकर गोतनी के खर्हुआ-कटुआ ओकर पति के कमाय पर चकल्लस कर रहल हे । ओकर पति अपन मेहनत के कमाय भौजाय आउ भतीजा-भतीजी के ऊपर फूँक रहलन हे ।)    (बंगमा॰12:2:52.8)
159    झंझरा (सात दिना के झपास । पानी-पानी, सगरो पानी । बाध-बन्ना सब डूबल । उखेल होवइ ले एक सो एक गाम के नाम, जेकर पहिल अक्षर क - कोसरा, केमरा, कसार, कयासी ... उखेल होवइ के टोटका ... झंझरा गड़ाल । ठाप-ठोप सेनुर । पुरवइया के लफार में झूलइत गुड़वा-गुड़िया । सरकस के लड़की नियन कलाबाजी खायत ... बिलाड़ी काट ।)    (बंगमा॰12:2:40.24)
160    झकना (= ढकना, ढक्कन) (होली में एगो परिचित के गोड़ टूट गेलइ काहे कि नाली वाला चैम्बर के झकना उनकर गोड़ पर लफुआ लोग पटक देलन ।)    (बंगमा॰12:2:33.5)
161    झपास (तरेगनी आँच खींच लेलक अउ कहऽ लगल - तहिया ढेर दिना पर रौदा उगल हल । पुरवइया के लफार । सात दिना के झपास । पानी-पानी, सगरो पानी । बाध-बन्ना सब डूबल ।)    (बंगमा॰12:2:40.21)
162    झरुआ-झाटा (सोंचऽ हलूँ - अपन भौजाय के कनियाय बनाम । केकरो नञ् देखे देम । खेत-पथार सब हम करिये ले हलूँ । चौका-बरतन, गर-गोसाला, पानी-कुन्नी, झरुआ-झाटा सब, बकि मन के मुराद मने रह गेल । एकल्ले अपन माथा पर सब काम उठा लेलियो बकि भौजाय के मुँह नञ् देखलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.32)
163    झाँक (हाँ, त हम बकड़ी लेके नद्दी पर चल गेलियो । पठरू अंगना में खेलइत रहऽ हलो । रौदा उगइत लौट गेलियो । याद पड़लो - झाँक पर गोयठा नञ् देलूँ । रात भर में गोयठा खनखना जइतो बकि ... । जल्दी-जल्दी एक सूप गोयठा रौदा में देलियो अउ जाता पर बैठ गेलियो ।)    (बंगमा॰12:2:43.8)
164    झाँपना (= ढँकना) (एने बरी लाल भे गेल त पानी देके थरिया से झाँप देलियो अउ लगलियो आँटा सानइ ले । चोकराह आँटा, कतनो सौनन देलियो, खस-खस । कतनो कैलियो, नञ् लसलसाल । अंगुरी से दाब-दाब के देखलियो, ओइसन के ओइसने । आजिज होके छोड़ देलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.1)
165    झात-झात (रात हो गेल । थाना एकदम शांत हल - झात-झात । एक्के गो रहमत अली खाँ बन्नूक लेले पहरा पर हल । हम भूख से छिटपिटाल हलूँ ।)    (बंगमा॰12:2:48.35)
166    झींझरी (= सिकरी, साँकल) (पप्पू के याद में खाट में पड़ल तकिया अँखिया के लोर से भींग गेल हल अउ पारो बुदबुदा रहल हल कि तभिये दुआरी पर झींझरी के अवाज आल, झन झन झन झन । पारो चुप । दुआरे दने देखे लगल । - "केऽऽ ?" - "खोल केवाड़ीऽऽ ।" पप्पू के बोली सुन पारो झट उठल अउ केवाड़ी खोल देलक ।)    (बंगमा॰12:2:63.7)
167    झुमटा (~ होली) (झुमटा-होली जरे के बाद भोरे से चलेवाला हंगामा कम से कम तीन दिन चलऽ हइ । कीचड़, गोबर से खेल शुरू आउ दिन निकलते रंग, गुलाल, अबीर से होली दुसरो दिन तक चलऽ हइ । सब महल्ला से बैलगाड़ी पर सवार झुमटा के टोली आउ दूसर बैलगाड़ी पर रंग से भरल टब आउ फुचकारी लेके झूमत लोग राहगीरन के रंग डालऽ हथिन ।)    (बंगमा॰12:2:34.5, 7)
168    झुलुआ (दिन भर बैल-गाय बाध में । कोय नञ् जइतो ओन्ने ... हुलकहो ले नञ् । उगहन के झुलुआ पर झूलइत रहलियो, खिस्सा चलइत रहलो ।)    (बंगमा॰12:2:41.7)
169    झोंकन (सब करे पाँच मन अनाज । कटुआ-भुस्सा भी जेठे-माघे पार । खुट्टी-खाटी होवऽ हल त ओकर झोंकन के कोयला से माय लेल सालो भर के टिकिया बना दे हलूँ ... चलइत रहऽ हल । तहिया ऊहो नञ् । बोरसी उकट के ठनकल डमारा के इंगोरा से नरियर भर के माय के देलियो अउ बकड़ी बान्हइ ले पगहा खोजऽ लगलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.13)
170    झोंटी (साँय के किरिया-करम होला अभी तीनो महीना नञ् भेल हल कि एक रात जब हम बेखबर नीन में हलूँ कि हम्मर देवर चुपके से आके हमरा साथ छेड़खानी करे लगल । हम्मर नीन उचट गेल । घुप्प-अन्हरिया रात ! हम चोर-चोर हल्ला करे लगलूँ । घर आउ बाहर के लोग जुट गेलन । चोर पकड़ल गेल । मुदा देवर के पहचान होवे पर सभे मजरा समझ गेल । बाहरी लोग त कानाफूसी कइले लौट गेल मुदा सास झोंटी पकड़के घसीट करके दरबज्जा से बाहर लइलक आउ पीठ पर लात मारके कहलक - "जो पतुरिया ! आझ दिन से एने अइलें त गोड़ काट लेम ।" फटाक से दरबज्जा बंद हो गेल ।)    (बंगमा॰12:2:48.13)
171    टन (~ बोलना = मर जाना) (साठ बरिस के पुजारीजी हमरा पर झुकल हला । नीयत खराब बुझाल हमरा उनकर । हम कहलूँ - "ई की पुजारीजी ! हम्मर विश्वास के साथ धोखा ! ई उमिर में !" पुजारी जी आवेग में बोललन - "मरद साठा तब पाठा ।" हम्मर देह में झरकी चढ़ गेल । पुजारीजी के छाती से गोड़ सटाके अइसन ढकेललूँ कि ऊ बेल्लाग फेंकाऽ गेलन । देवाल से माथा टकरा गेल उनकर । 'बाप रे ... !' करके थोड़े देर में टन बोल गेलन पुजारीजी ।)    (बंगमा॰12:2:48.29)
172    टर-ट्युशन (भइया अभियो हमरा से दोगना कमा रहलन हे । ऊ हमरा पढ़ा-लिखा के आदमी बनइलन । आज देखऽ न गाँव जाके हमर भाय-गोतिया के, कइसे टर-ट्युशन आउ जय-जजमान में जीवन के जोती बुझा रहलन हे - खेती-बारी कर रहलन हे । गाँव में रहतूँ हल त हमरो इहे दशा ने रहत हल ।)    (बंगमा॰12:2:52.21)
173    टिकिया (माय हकइलक - तारोऽऽ, तनी नरियर चढ़ा द । ... माय के टिकिया झर गेलो हल ।; कटुआ-भुस्सा भी जेठे-माघे पार । खुट्टी-खाटी होवऽ हल त ओकर झोंकन के कोयला से माय लेल सालो भर के टिकिया बना दे हलूँ ... चलइत रहऽ हल । तहिया ऊहो नञ् ।)    (बंगमा॰12:2:42.2, 14)
174    टिस्स (~ रेघ) (टिस्स रेघ । बरसाती गइतो त टोला-पड़ोस हाँथ बार देतो ।)    (बंगमा॰12:2:41.24)
175    टीवेल (= ट्यूब-वेल; नलकूप) (ऊ साल जनु इन्नर के यहाँ भी जनु पानी के अभाव पड़ गेलइ हल । निपनियाँ रब्बी कते होतो हल । टीवेल भी त सालो से लैन बिना खराब पड़ल रहो हो । सुनऽ ही तारो कटि के बिक जाहे । खड़े खेत सूख गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:42.10)
176    टैचुन (चुल्हा भिजुन चुक्को-मुक्को बैठइत टैचुनमा बोललो - "दे खाय ले ।"/ टैचुनमा के जलम-साल गाँव में पहिला-पहिल गरमा टैचुन रोपइलो हल, ईहे से ओकर नाम टैचुनमा पड़ गेल ।/ हम कहलिअइ - "कमइया करके अइलहीं ?" टैचुनमा अंगुरी से आँटा गोदइत बोलल - "तोर कमइया खा हिअइ ?")    (बंगमा॰12:2:45.17)
177    टोपरा (= जमीन का सीमांकित भाग, खेत) (अभी त सूर-सार भी नञ् भेल हल । हर नदी के पार जाय के हल । एक टोपरा पानी से उप्पर भेल हल । चार कट्ठा के बान । फारनी भेल हल । दू चास करके चौंकियाना रोपना बाकी ।)    (बंगमा॰12:2:44.31)
178    टोला-टाही (गहना-जाठी पेन्हले कनिआय बनल प्रतिमा साक्षात् परी अइसन लग रहल हल । जे भी अदमी देखे, मन सिहा जाय । कर-कुटुम, गोतिया-नइया, टोला-टाही, गाम-गिराम के कोय भी औरत-मरदाना देखे पप्पू कनिआय के त देखते रह जाय, मुँह से कुछ ने कुछ बड़ाइये निकसे ।)    (बंगमा॰12:2:59.13)
179    ठँइया (= ठइयाँ, ठामा; जगह) (छोट-मोट किसान के बेटा पप्पू बी.ए. पास कइला के बाद कत्ते ठँइया फारम भरलक, कत्ते ठँइया सिपाही खातिर दौड़ लगइलक मुदा केनउ सफल नञ् भेल ।)    (बंगमा॰12:2:60.3)
180    ठठाल (सक्खिन के झुंड लगल हल तहिया । सब हँसइत लहालोट । फूही में भींगल हँस्सी, ठठाल हँस्सी । बरखे नियन ठेठाल हँस्सी ! मायो सब हँसतो कइसन - बादर फट जाय, बदरा भे जाय चीरीचोंथ, तीत के अंगिया भे गेल बोथ !)    (बंगमा॰12:2:40.29)
181    ठड़ा (= खड़ा) (राजस्थानी कोड़ा मारेवाला होली - राजस्थानी गाँव के औरतन एक बड़की कड़ाही में रंग भरके होरा डाल ठड़ा हो जा हथिन जिनकर हाथ में पानी से भींगल कपड़ावाला कोड़ा रहऽ हइ । मरद लोगन कड़ाही से रंग ले ले के मेहरारुअन पर डालके उनकर कोड़ा से वार वाला नजारा देखते बनऽ हइ ।)    (बंगमा॰12:2:34.3)
182    ठनकना (बरी डभक गेलो त उतार के ताय चढ़ा देलियो । एने आग ठनक गेलो । एगो गोयठा तोड़के चूल्हा में देलियो आउ फूँकऽ लगलियो - आ ... फू ... आ ... फू ... । धुइयाँ से आँख लोरा गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:46.4)
183    ठनकल (खुट्टी-खाटी होवऽ हल त ओकर झोंकन के कोयला से माय लेल सालो भर के टिकिया बना दे हलूँ ... चलइत रहऽ हल । तहिया ऊहो नञ् । बोरसी उकट के ठनकल डमारा के इंगोरा से नरियर भर के माय के देलियो अउ बकड़ी बान्हइ ले पगहा खोजऽ लगलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.14)
184    ठाप-ठोप (सात दिना के झपास । पानी-पानी, सगरो पानी । बाध-बन्ना सब डूबल । उखेल होवइ ले एक सो एक गाम के नाम, जेकर पहिल अक्षर क - कोसरा, केमरा, कसार, कयासी ... उखेल होवइ के टोटका ... झंझरा गड़ाल । ठाप-ठोप सेनुर । पुरवइया के लफार में झूलइत गुड़वा-गुड़िया । सरकस के लड़की नियन कलाबाजी खायत ... बिलाड़ी काट ।)    (बंगमा॰12:2:40.24)
185    ठुकमुकाना (दुन्नु जेल से बाहर निकसलूँ । फाटक से बाहर आके हम ठुकमुका गेलूँ कि अब हम कहाँ जाऊँ । रहमत अली बात समझ गेलन बोललन - "निरास नञ् होवऽ बहिना ! जब तक ई भाय के जिनगी हे, तोरा बेसहारा होवे नञ् देम ।")    (बंगमा॰12:2:49.29)
186    ठेठाल (सक्खिन के झुंड लगल हल तहिया । सब हँसइत लहालोट । फूही में भींगल हँस्सी, ठठाल हँस्सी । बरखे नियन ठेठाल हँस्सी ! मायो सब हँसतो कइसन - बादर फट जाय, बदरा भे जाय चीरीचोंथ, तीत के अंगिया भे गेल बोथ !)    (बंगमा॰12:2:40.30)
187    डगर-दुआर (हम जब चौदह बरिस पार करे लगलूँ, हम्मर शरीर पर दूगो गुलाब के कली खिल गेल । चनरमा जइसन रूप निखर गेल । जवानी के सुगंध हम्मर शरीर से फूटे लगल । पोखर-तलाब, डगर-दुआर जने हम निकसऽ हलूँ, झुंड-के-झुंड भौंरा मँड़राय लगल । रंगरूट छौंड़ सब देखके सीटी कसे लगल ।)    (बंगमा॰12:2:47.8)
188    डभकना (एने बरी लाल भे गेल त पानी देके थरिया से झाँप देलियो अउ लगलियो आँटा सानइ ले । चोकराह आँटा, कतनो सौनन देलियो, खस-खस । कतनो कैलियो, नञ् लसलसाल । अंगुरी से दाब-दाब के देखलियो, ओइसन के ओइसने । आजिज होके छोड़ देलियो। बरी डभक गेलो त उतार के ताय चढ़ा देलियो ।)    (बंगमा॰12:2:46.4)
189    डमारा (खुट्टी-खाटी होवऽ हल त ओकर झोंकन के कोयला से माय लेल सालो भर के टिकिया बना दे हलूँ ... चलइत रहऽ हल । तहिया ऊहो नञ् । बोरसी उकट के ठनकल डमारा के इंगोरा से नरियर भर के माय के देलियो अउ बकड़ी बान्हइ ले पगहा खोजऽ लगलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.14)
190    डाकपीन (= डाकिया) (समय पर पप्पू रिपोर्ट लावे चल जाहे । पारो ओजन एगो गाछ भिजुन बनल सीट पर बइठ जाहे । तभिए डाकपीन के नजर पारो पर पड़ऽ हे । - "काहे बेटी, एजा परी बइठल हऽ ?' - "हाँ चचा, कुछ काम हे ।" - "बेटी, हमरा क्षमा कर दऽ । तोहर एगो चिट्ठी महीन्नो खाड़ से हमर जेब में पड़ल हे । जब देवे चाहऽ हली तबे भूल जा हली । भूल के कारण हम तोरा ई चिट्ठी नञ् दे सकली ।" चिट्ठी निकालके देइत, "हलऽ लऽ, बेटी, कलकत्ता से पप्पू के लिखल" कहके चिट्ठी देइत डाकपीन चल जाहे ।)    (बंगमा॰12:2:63.32, 64.2)
191    ढवाक (मोहन के एकबइए निसा टूट गेल । उ हाथ जोड़इत कहलक,  "हमरा माफ कर दे पप्पू । हम भटक गेली हल, अउ तोरो भटकावे अइली हल मुदा तों बीच भँवर से निकास लेलें । हम अभी साहब से कहली हे नञ् । कल कहम ।" बोतल घुमाके सब दिन खातिर अइसन फेंकि देलक कि ढवाकऽऽऽऽ ।)    (बंगमा॰12:2:61.27)
192    ढिम्मा (खरिहान आल अनाज भी कभी-कभी गोबर । पानी एगो धाने बरदास्त करतो । एकाध साल चैत में एतना पड़लो कि, की काँड़ा, की बड़हर, धरियाल-ढेरियाल सब सड़के ढिम्मा ! खरिहान गेन्ह तोड़े । बोझा के बोझा अंकुरल ।)    (बंगमा॰12:2:42.8)
193    तखनयँ (= तखनहीं; उसी क्षण) (कौआ झपटि के आँटा में लोल मारलक बकि तरेगनी नट नियन झपट के गियारिये पकड़लक - अब कने सखी ।/ अंगना में कौआ के गोहार - काँव-काँव ।/ तखनयँ नगेसर जेठुआ लत्ती में दवाय देके आल । अंगना में देखऽ हे कि तरेगनी कौआ के लोल चूल्हा में झौंसइ ले चाह रहल हे ।)    (बंगमा॰12:2:40.11)
194    तनियो (= तनिक्को; तनिक भी) (तहिया सावन पुरनिमा हल । रहमत अली एगो कच्चा सूत लेके हमरा देलन आउ कहलन - "ले बहिना ! ई हम्मर कलाई पर बाँध दे ! आज रच्छा-बंधन हउ । आझ ई मुसलमान भाय खुदा के गवाह मानके कसम खाही कि ई बहिना के इज्जत पर तनियो आँच आवे नञ् देम ।")    (बंगमा॰12:2:49.34)
195    तमाकुल (छोड़ न दें माय । तमाकुल की अमरित हउ ! दिन-रात खोंखइत रहऽ हें । मरमहीं ने त कहि देबउ कि एकरा तमाकुल के जराँठी से जारिहो ।)    (बंगमा॰12:2:42.19, 20)
196    तरो-उपरो (सेउदल गोयठा से निबटना सधारन काम नञ् । गोयठा पर करासन देके उक्का जोरलियो । माय रोकलक - ई उमर भेल, हम सब कहियो करासन के मरम जानलूँ ? हावा में भुटनी गो इंगोरा देके चार गोयठा के उक्का जोर देलियो, छने में आग फफा गेलो । तरो-उपरो गोयठा देके उठैलियो आउ चूल्हा में देलियो, बस ।)    (बंगमा॰12:2:45.12)
197    ताय (= तवा) (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । ... ताय धिप गेल । लरैठा के जारन - धाँय-धाँय आँच ।; एने बरी लाल भे गेल त पानी देके थरिया से झाँप देलियो अउ लगलियो आँटा सानइ ले । … बरी डभक गेलो त उतार के ताय चढ़ा देलियो ।)    (बंगमा॰12:2:40.3, 46.4)
198    तिलक-दहेज (बिना तिलक-दहेज लेले मंगनिएँ हमरा से बिआह के करत हल ? जुत्ता के एँड़ी घिसाके आखिर में बाउजी एक लइका खोजिए लेलथिन । शादी हो गेल।)    (बंगमा॰12:2:47.15)
199    तीतना (= तींतना, भींगना) (सक्खिन के झुंड लगल हल तहिया । सब हँसइत लहालोट । फूही में भींगल हँस्सी, ठठाल हँस्सी । बरखे नियन ठेठाल हँस्सी ! मायो सब हँसतो कइसन - बादर फट जाय, बदरा भे जाय चीरीचोंथ, तीत के अंगिया भे गेल बोथ !)    (बंगमा॰12:2:41.1)
200    तीतल (आउ दोसर तुरी ? झुम्मर खेले घड़ी हमर तीतल देह के गोलाय पर अपन अंगुरी रख देलको मायो । देह गनगना गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:41.16)
201    तेलिया (~ झूमर) (मायो सब हँसतो कइसन - बादर फट जाय, बदरा भे जाय चीरीचोंथ, तीत के अंगिया भे गेल बोथ ! तहिया सब नाच-नाच के गइलक गल - हमहूँ मुनकवा संग - झुम्मर नाच, अजन-भजन गीत गावो दे, तेलिया झूमर नाचो दे ।)    (बंगमा॰12:2:41.2)
202    तेसर (= तीसरा) (अलग होतहीं एकछित्तर रानी के सपना में मकान देखाय पड़े लगल । रोटी, कपड़ा से आगे जीवन के तेसर जरूरत, जेकरा बिना समाज में कामयाब आदमी के मोहर नञ् लगऽ हे ।)    (बंगमा॰12:2:53.2)
203    तोरी (~ के !) ("आय तोरी के ! भौजी, एजइ पूजा होवऽ हइ ? बाबा थान नञ् जइमहीं ?" ननद दुन्नु अंजुरी में फूल लेले अंगना में ठाढ़ हल । - "करम-करम के बात हइ नुनु, तों जा ।" - "भइया अइलइ ?" - "भइया मर गेलथुन बउआ !" बोलइत भौजी भित्तर हेल गेल।)    (बंगमा॰12:2:37.13)
204    थोना (- "भइया मर गेलथुन बउआ !" बोलइत भौजी भित्तर हेल गेल। - "अइसन कुभक्खा काहे निकालो हीं भौजी ? तूँ करती हें ।" ननद टोकलक ।/ सास के कान में भनक गेल । ऊ बरसो लगल - मरउ तोर माय-बाप । हमर सुगवा उड़ जइतइ त एकरे पिंजड़वा देखके जी जुड़इबइ । दलिदराही के धी ! थोना लेके अइले हें, जे आरती उतारिअउ ।)    (बंगमा॰12:2:37.20)
205    दनदनाल (एसपी दनदनाल रहमत अली के पास पहुँचलन । ऊ सैलूट देके दुन्नु हाथ ऊपर उठा देलन । बन्नूक हाथ से ले लेल गेल ।)    (बंगमा॰12:2:49.21)
206    दम्मा (= दमा) (माय के उमर जाय लायक नञ् हलो, मुदा दम्मा अउ सदमा ओकरा तोड़ के रख देलको । बेचारी की काम-धाम करतो हल । ऊ त हम हलिअइ कि घर-गिरथामा चल जा हलइ ।)    (बंगमा॰12:2:42.21)
207    दरबज्जा (= दरवज्जा; दरवाजा) (बाहरी लोग त कानाफूसी कइले लौट गेल मुदा सास झोंटी पकड़के घसीट करके दरबज्जा से बाहर लइलक आउ पीठ पर लात मारके कहलक - "जो पतुरिया ! आझ दिन से एने अइलें त गोड़ काट लेम ।" फटाक से दरबज्जा बंद हो गेल ।)    (बंगमा॰12:2:48.13, 14)
208    दलिदराही (- "भइया मर गेलथुन बउआ !" बोलइत भौजी भित्तर हेल गेल। - "अइसन कुभक्खा काहे निकालो हीं भौजी ? तूँ करती हें ।" ननद टोकलक ।/ सास के कान में भनक गेल । ऊ बरसो लगल - मरउ तोर माय-बाप । हमर सुगवा उड़ जइतइ त एकरे पिंजड़वा देखके जी जुड़इबइ । दलिदराही के धी ! थोना लेके अइले हें, जे आरती उतारिअउ ।)    (बंगमा॰12:2:37.20)
209    दलिद्दर (= दरिद्र) (सेनुर पड़ल त दुहारी लाँघते मातर ओलहन - दलिद्दर माय-बाप, ने नाक में, ने कान में । लड़का इसकूटरे टीवी खोजतो । बेटावला के की ? मर जइतइ त फेन बियाह भे जइतइ ।)    (बंगमा॰12:2:44.15)
210    दिनउका (= दिन का, दिन वाला) (तरेगनी दिनउका पनपिआय अंगने में बनवऽ हल, पुरवारी पौर के छाहुर में ।)    (बंगमा॰12:2:39.33)
211    दुन्नु (= दोनों) (एसपी दनदनाल रहमत अली के पास पहुँचलन । ऊ सैलूट देके दुन्नु हाथ ऊपर उठा देलन । बन्नूक हाथ से ले लेल गेल । सब मिलके फाटक खोले अइलन । पहिले पत्रकार जी फोटू लेलन तब फाटक खुलल । हमरा से बियान लेल गेल । रहमत अली भी अप्पन बियान देलन । भोर हो गेल हल । हमरा आउ रहमत अली के साथे-साथ जिला जेल भेज देल गेल । दुन्नु पर खूनी केस चलल । भगमान के घर देर हे, अँधेर नञ् । हमरा दुन्नु के मोकदमा से बरी कर देल गेल । हमरा ई ले कि अप्पन इज्जत बचावे में अनचोक्के पुजारी जी के जान गेल आउ रहमत अली के ई ले कि ऊ हम्मर इज्जत बचबइ खातिर खून कइलका हल ।)    (बंगमा॰12:2:49.22, 25, 26)
212    दूसना (= दुसना) (बेटी के टक्कर के वर खोजे के चक्कर में एक बरिस गुजर गेल । एगो पर जमल भी तब लेन-देन में ई फेल हो गेलन । चढ़इत लगन वली रमरतिया के शादी उधार-पईंचा लेके हो गेल । रमरतिया के टक्कर में दुल्हा तो न मिलल बाकि ओकर दुल्हा के मड़वा में कोई दूसल न ।)    (बंगमा॰12:2:56.21)
213    दोबर (= दोगना; दुगुना) (संजोग अच्छा हल ओकनहिन ले कि साले-दू-साल में सोना के बजार-भाव असमान चढ़ गेल । साथे-साथ रानी और शंकर के आँख तर फेर मकान लउके लगल । ओकर पूँजी दोबर से भी ऊपर हो गेल ।)    (बंगमा॰12:2:53.16)
214    दोसरा (अब पारो के एड्स होवे वला अस्पताल में लिखल बात, देवाल पर पारल एड्स के निशान याद आवे लगल । एड्स तीन तरह से होवेवला में एक दोसरा के संबंध वला बात नाचे लगल, अउ सोचे लगल कि जरूर कोय छिनार के फेरा में एड्स के रोग नञ् लेले आवे । ई लेल मन में ठान लेलक कि आवे के बाद पप्पू के सट्टे नञ् देम, जब तक ले कि एच.आई.वी. पोजीटीव के जाँच नञ् करा लेत ।)    (बंगमा॰12:2:63.4)
215    धजा-बबाजी (हाँ, ईहे सब सोंच रहलूँ हल कि आग लहसि गेल । अँचरा से ताय पोछलियो अउ लपकल जरामन भित्तर फराठी लाबइ ले चल गेलियो । कौआ ताक में धजा-बबाजी पर बैठल हलो । सून पाके उतरलो अउ आँटा में फेनो लोल मारऽ लगलो । धात्-धात् कइले कौआ के खेदलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.16)
216    धधाल (आउ दोसर तुरी ? झुम्मर खेले घड़ी हमर तीतल देह के गोलाय पर अपन अंगुरी रख देलको मायो । देह गनगना गेलो । मुनकबा रबऽ लगलो - देहिया धधाल जइसे सकरी में धाध आवे, छिलकल जाहे दुनूँ कोर । पतलुक आम-सन अँखिये में छुप गेल, दिलवा चोराके कौनों चोर ॥)    (बंगमा॰12:2:41.18)
217    धनी-मानी (रोटी, कपड़ा आउ मकान आज के जीवन के तीन मूल जरूरत मानल जाहे । समाज के उपरौका तबका में धनी-मानी लोग जादे हथ - के रोटी, कपड़ा आउ मकान असानी से मिल जाहे । एकरा संजोगे कहल जाय कि आझकल निचलौका तबका ले भी ई तीनों चीज असान हो गेल हे ।)    (बंगमा॰12:2:51.2)
218    धरियाल-ढेरियाल (खरिहान आल अनाज भी कभी-कभी गोबर । पानी एगो धाने बरदास्त करतो । एकाध साल चैत में एतना पड़लो कि, की काँड़ा, की बड़हर, धरियाल-ढेरियाल सब सड़के ढिम्मा ! खरिहान गेन्ह तोड़े । बोझा के बोझा अंकुरल ।)    (बंगमा॰12:2:42.7)
219    धात्-धात् (गोयठा लहरिये नञ् रहल हल । फेनो फूँकइ में लग गेलियो । कौआ एने दाव देखके फेनो एक घोंघा लेके उड़ गेलो - धात्-धात् । हम त लंगो-तंगो ।; हाँ, ईहे सब सोंच रहलूँ हल कि आग लहसि गेल । अँचरा से ताय पोछलियो अउ लपकल जरामन भित्तर फराठी लाबइ ले चल गेलियो । कौआ ताक में धजा-बबाजी पर बैठल हलो । सून पाके उतरलो अउ आँटा में फेनो लोल मारऽ लगलो । धात्-धात् कइले कौआ के खेदलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.8, 18)
220    धाध (आउ दोसर तुरी ? झुम्मर खेले घड़ी हमर तीतल देह के गोलाय पर अपन अंगुरी रख देलको मायो । देह गनगना गेलो । मुनकबा रबऽ लगलो - देहिया धधाल जइसे सकरी में धाध आवे, छिलकल जाहे दुनूँ कोर । पतलुक आम-सन अँखिये में छुप गेल, दिलवा चोराके कौनों चोर ॥; हमरा तहिया रात भर नीन नञ् अइलो । सकरी के धाध हमर देह में समा गेलो हल ।)    (बंगमा॰12:2:41.19, 25)
221    धिपना (= गरम होना) (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । ... ताय धिप गेल । लरैठा के जारन - धाँय-धाँय आँच ।)    (बंगमा॰12:2:40.3)
222    धुरखेल (दे॰ धुरखेली) (गाँवे में होली खेल के 'फाग' कहल जा हइ । मिथिलावासी बड़ी धूम-धाम से धुरखेल आउ रंग खेलऽ हथन ।; फागुन महिन्ना खतम होवे वला हल । आझे अगजा, कल्हे धुरखेल यानी रंग-विरंग के होली । मुदा अभी तक ले पप्पू के कोय अता-पता नञ् ।)    (बंगमा॰12:2:33.12, 62.8)
223    नयका (नयका विचार में पुरनका विचार के कोई जगह न होवऽ हे । इनकर अनुभव के मोल न होवऽ हे ।)    (बंगमा॰12:2:17.18)
224    नयगर (= नयका, नया) (चढ़ती उमर निम्मन-निम्मन आँधी-बिंडोबा आउ तुफान के भी सामना करे के ताकत रखऽ हे । ई उमर में सब कुछ नया होवऽ हे, नयगर सोंच आउ असमान के छू लेवे के सास होवऽ हे ।; नयका के पुरनका दने धेयान जइवे न करे । सभे नया । नयगर रीत । नयगर प्रीत । गिरती उमर में सब कुछ तीत । न कोई एकर मीत । बेटा-पुतोह के आँगन-घर में इनका ला हे छोटगर कोना जहाँ चुपचाप सोना हे - जे मिल गेल खाना हे ।)    (बंगमा॰12:2:17.6, 18.12)
225    नलायक (= नालायक) (बुढ़िया के बेटा दुन्नो नलायक निकल गेल । एक महिना से बुढ़िया खटिया पर पड़ल हे बाकि दुन्नो बेटा में से एको दर्शन न देलक ।)    (बंगमा॰12:2:57.3)
226    नल्ली-पमल्ला (मैकाले महोदय के महँड़ा में भारतीय शिक्षा पद्धति पर अइसन मथानी चलल कि हहुता भर-भर मक्खन निकालि-निकालि चाहइत रहलन आउ घोर-मट्ठा नल्ली-पमल्ला में बहइत रहल । आलम ई हल कि दू-चार गाँव में एकाध मैट्रिक पास मिलऽ हलन आउ पाँच-छः मिडिल ।)    (बंगमा॰12:2:69.23)
227    नाता-कुटुम (रानी अपन माय के कहल-गुनल पर चलके पहिले जौरागी तोड़लक, फेर लाखों के गहना खरीदवइलक पति से । अब पूरा घर ओकर अपन कब्जा में नजर आ रहल हल । राज चले लगल हल ओकर अपन घर पर । सचउकी रानी हल ऊ अब अपन घर के । मजाल हे कि कोय भी नाता-कुटुम ओकर मरजी के बिना घर चढ़े ।; नाता-कुटुम आवे-जाय लगलन । जमीन पर गोड़ नञ् धरे रानी - नाता-कुटुम के देख के । हरहोर मच गेल सगरो रानी के मकान मालकिन बने के ।; बाकि फेर शुरू हो गेल करजा के तगादा । बैंक आउ क्रेडिट-कार्ड के इएमआई । बुलंद सपना के मारल रानी आउ शंकर दोस-मोहिम, नाता-कुटुम सब तर छित्ती-छाँय हथ मदत खातिर । रानी के स्थिति 'भई गति साँप छुछुंदर केरी, उगलत अंधा निगलत कोढ़ी' वला हो गेल हे ।)    (बंगमा॰12:2:53.12, 20, 21, 24)
228    नारन-जोती (हाँ, त कहवे कइलियो कि बाऊ दू तुरी घुर गेलन हल । हम भी लंगो-तंगो । दलान पर जाके पुछलियो - "मेहल बूँट लेबहो ? बनतो त पहुँचा देबो ।" नारन-जोती सरियावइत बाऊ बोलला - "दे द, चिबइले चल जाम, देरी भे रहलो हे ।" उनखर चेहरा पर समाधान के खुशी साफ झलक रहल हल ।)    (बंगमा॰12:2:45.7)
229    निगुनियाँ (= निगुनिया) (व्यथित हृदय के पीड़ा जब अविरल गति से प्रवाहित होवऽ लगऽ हे, त दुनिया ओकरा पागल बुद्धिजीवी कहऽ हे । कहे भी काहे नञ् । ई दुनिया हे भी त निगुनियाँ ।)    (बंगमा॰12:2:67.31)
230    निचलौका (रोटी, कपड़ा आउ मकान आज के जीवन के तीन मूल जरूरत मानल जाहे । समाज के उपरौका तबका में धनी-मानी लोग जादे हथ - के रोटी, कपड़ा आउ मकान असानी से मिल जाहे । एकरा संजोगे कहल जाय कि आझकल निचलौका तबका ले भी ई तीनों चीज असान हो गेल हे ।)    (बंगमा॰12:2:51.3)
231    निपनियाँ (ऊ साल जनु इन्नर के यहाँ भी जनु पानी के अभाव पड़ गेलइ हल । निपनियाँ रब्बी कते होतो हल । टीवेल भी त सालो से लैन बिना खराब पड़ल रहो हो । सुनऽ ही तारो कटि के बिक जाहे । खड़े खेत सूख गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:42.9)
232    निपौध (ऊ साल धाने नियन रब्बी भी स्वाहा । रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख ।)    (बंगमा॰12:2:42.3)
233    निमरा (= निम्मर, निर्बल) (खिस्सा खतम करके तरेगनी कौआ के समदइत उड़ा देलक - "जो, भाय-गोतिया के कह दिहें हल, निमरा घर छोड़के ... ।" नगेसर के लगल, ऊ लफि के तरेगनी के चूम ले बकि ... ।)    (बंगमा॰12:2:46.24)
234    निसहार (गाँव-घर के लोग फुलवा के बेटा हीं खबर दे हलन कि तोर माय के तबियत खराब हे । लेकिन ऊहाँ से दुन्नो भाई कहियो न आवऽ हलन । चिट्ठी-पतरी से सहानुभूति भेज दे हलन । फुलवा दूगो बेटा के पोसके निसहार हो गेल हल । गाँव-घर के मदद आउ रमरतिया के पूरा सहयोग से बुढ़िया के जिंदगी हे ।)    (बंगमा॰12:2:56.33)
235    नुनु ("आय तोरी के ! भौजी, एजइ पूजा होवऽ हइ ? बाबा थान नञ् जइमहीं ?" ननद दुन्नु अंजुरी में फूल लेले अंगना में ठाढ़ हल । - "करम-करम के बात हइ नुनु, तों जा ।" - "भइया अइलइ ?" - "भइया मर गेलथुन बउआ !" बोलइत भौजी भित्तर हेल गेल।; बकड़ी मेमाल कि हमर ध्यान टूटल । रोज भोरौआ मेमइतो । उठलियो अउ खँचिया पर से पत्थर के पसेरी उतरलियो । चारियो पठरू सुरखुरू । दूगो के उठाके मुँह अपन गाल में साटइत चुचकारलियो - नुनु गे, हमर बउआ गे, सेर पीमे कि पउआ गे ।)    (बंगमा॰12:2:37.15, 41.28)
236    नोन (= नून; नमक) (गोयठा लहरिये नञ् रहल हल । फेनो फूँकइ में लग गेलियो । कौआ एने दाव देखके फेनो एक घोंघा लेके उड़ गेलो - धात्-धात् । हम त लंगो-तंगो । हमर आँख तर समुल्ले घर नाच गेलो - बाऊ खेत में, टैचुनमा भुक्खल, माय के अभी मुँहो नञ् धोवइलूँ हे, अप्पन त फिकिरे नञ् । तेकरो में बरसात के सेउदल गोयठा । कौआ जरला देह में नोन रगड़े ।)    (बंगमा॰12:2:46.10)
237    नोन-हरदी (= नून-हरदी) (आँटा भी झरल हल । मुनकवा कहवो करे कि मिलिया पर पिसा ले बकि घर के दसा देखके दू पैसा बचावऽ में लगल रहलियो । कने से आवत पिसाय ? जाड़ा-गरमी में त गोयठो बेचके नोन-हरदी भे जा हल बकि बरसात में त ऊहो गोबर गनौरे पर फेंका जाय ।)    (बंगमा॰12:2:43.12)
238    पउआ (= पाव + 'आ' प्रत्यय) (बकड़ी मेमाल कि हमर ध्यान टूटल । रोज भोरौआ मेमइतो । उठलियो अउ खँचिया पर से पत्थर के पसेरी उतरलियो । चारियो पठरू सुरखुरू । दूगो के उठाके मुँह अपन गाल में साटइत चुचकारलियो - नुनु गे, हमर बउआ गे, सेर पीमे कि पउआ गे ।)    (बंगमा॰12:2:41.29)
239    पगड़ी (किसानी में ~ के फेर होना = पगड़ी पहनने तक के समय की देरी से भी खेती के काम में हानि होना) (ईम साल टरेक्टर छोड़ऽ । हरे से निस्तार ल, आगू देखल जइतइ जब कल्टी फार रहतइ । कल्टी के चार चास काफी हइ । अउ हाँ, गहूम में तीन पछिया - बूने, काटे, मैंजे जब । सुनऽ ही - किसानी में पगड़ी के फेर होवऽ हे ।)    (बंगमा॰12:2:39.24)
240    पठरू (बकड़ी मेमाल कि हमर ध्यान टूटल । रोज भोरौआ मेमइतो । उठलियो अउ खँचिया पर से पत्थर के पसेरी उतरलियो । चारियो पठरू सुरखुरू । दूगो के उठाके मुँह अपन गाल में साटइत चुचकारलियो - नुनु गे, हमर बउआ गे, सेर पीमे कि पउआ गे ।; बकड़ी बिदक गेल हल । पठरू हँट के खड़ा जीह से मुँह में लगल फेन चाटब करऽ हल ।)    (बंगमा॰12:2:41.27, 35)
241    पतलुक (= पत्तों के अन्दर छिप जानेवाला) (आउ दोसर तुरी ? झुम्मर खेले घड़ी हमर तीतल देह के गोलाय पर अपन अंगुरी रख देलको मायो । देह गनगना गेलो । मुनकबा रबऽ लगलो - देहिया धधाल जइसे सकरी में धाध आवे, छिलकल जाहे दुनूँ कोर । पतलुक आम-सन अँखिये में छुप गेल, दिलवा चोराके कौनों चोर ॥)    (बंगमा॰12:2:41.21)
242    पतुरिया (= वेश्या, रंडी) (कनमटकी देले पटाल हलूँ । दरोगाजी अकेले अइलन । फाटक खोलके अंदर आ गेलन आउ आँख तरेर के पुछलकन - "कि गे पतुरिया ! ठीक-ठीक बतावें हें कि भोसड़ा ढील कर दूँ ?" हम गिड़गिड़इलूँ - "हम निरदोस हूँ बाबू ! अप्पन इज्जत बचावे खातिर ...।" तड़ाक-तड़ाक हम्मर मुँह पर थप्पड़ पड़ल ।)    (बंगमा॰12:2:49.3)
243    पनपिआय (अगहनी फट के उपजल हल । तरेगनी पाँच-पाँच गाँड़ा के कोठी पारलक । टोला के दाय-माय ओकर कोठी देखइ ले आवऽ हली । लगे जइसे साँचा में ढालल रहे । कोठिये में हर चलावइत किसान अउ पनपिआय लेले जायत मेहरारू - माथा पर बटरी, हाथ में बाल्टी लेले ।; तरेगनी दिनउका पनपिआय अंगने में बनवऽ हल, पुरवारी पौर के छाहुर में ।)    (बंगमा॰12:2:39.6, 33)
244    पनियौंचा (= पनिऔटा; सिंचाई का शुल्क) (सितवा कट गेल हल । तरेगनी खेत उखाड़के पटैलक पनियौंचा देके । रूख भे गेल त चास पर चास । छो पूरल त नागो बोलल - कल बून देवइ के चाही ।)    (बंगमा॰12:2:39.11)
245    परतिंगा (= प्रतिज्ञा) (जहिया से तरेगनी डेवढ़ी लांघलक हे, ओकर मन में एगो संकल्प के आग जरि रहल हे, धधकि रहल हे, एगो परतिंगा हेऽऽ - मजा चखैबउ ।; तरेगनी जीत गेल । आउ ओकर परतिंगा ? आज संजोग से ओकर परतिंगा भी पूरा भे गेल ।)    (बंगमा॰12:2:37.2, 39.31, 32)
246    पसनी (वश में रहत हल त खुद्दे किसानी करतूँ हल । चास पर चास । गनौरा के बिछौना । सुइया से पात तक फोहवा नियन पोसतूँ हल । पसनी से एक्कक घास निका देतूँ हल । टैम पर पानी, टैम पर खाद ।)    (बंगमा॰12:2:46.13)
247    पाठा (साठ बरिस के पुजारीजी हमरा पर झुकल हला । नीयत खराब बुझाल हमरा उनकर । हम कहलूँ - "ई की पुजारीजी ! हम्मर विश्वास के साथ धोखा ! ई उमिर में !" पुजारी जी आवेग में बोललन - "मरद साठा तब पाठा ।" हम्मर देह में झरकी चढ़ गेल । पुजारीजी के छाती से गोड़ सटाके अइसन ढकेललूँ कि ऊ बेल्लाग फेंकाऽ गेलन । देवाल से माथा टकरा गेल उनकर । 'बाप रे ... !' करके थोड़े देर में टन बोल गेलन पुजारीजी ।)    (बंगमा॰12:2:48.27)
248    पान-सिकरेट (ससुर गांजा पीके मातल रहे आउ मरद रोज टीसन टहले । कमाय ने धमाय, पान-सिकरेट मुँह से छूटे नञ् । बेचा आपा-धापी दुकान जाय ।)    (बंगमा॰12:2:37.9)
249    पानी-कुन्नी (सोंचऽ हलूँ - अपन भौजाय के कनियाय बनाम । केकरो नञ् देखे देम । खेत-पथार सब हम करिये ले हलूँ । चौका-बरतन, गर-गोसाला, पानी-कुन्नी, झरुआ-झाटा सब, बकि मन के मुराद मने रह गेल । एकल्ले अपन माथा पर सब काम उठा लेलियो बकि भौजाय के मुँह नञ् देखलियो ।)    (बंगमा॰12:2:42.32)
250    पानी-पाला (ऊ साल धाने नियन रब्बी भी स्वाहा । रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख ।)    (बंगमा॰12:2:42.3)
251    पारना (कोठी ~) (अगहनी फट के उपजल हल । तरेगनी पाँच-पाँच गाँड़ा के कोठी पारलक । टोला के दाय-माय ओकर कोठी देखइ ले आवऽ हली ।)    (बंगमा॰12:2:39.5)
252    पारल (अब पारो के एड्स होवे वला अस्पताल में लिखल बात, देवाल पर पारल एड्स के निशान याद आवे लगल । एड्स तीन तरह से होवेवला में एक दोसरा के संबंध वला बात नाचे लगल, अउ सोचे लगल कि जरूर कोय छिनार के फेरा में एड्स के रोग नञ् लेले आवे । ई लेल मन में ठान लेलक कि आवे के बाद पप्पू के सट्टे नञ् देम, जब तक ले कि एच.आई.वी. पोजीटीव के जाँच नञ् करा लेत ।)    (बंगमा॰12:2:63.3)
253    पाला (ऊ साल धाने नियन रब्बी भी स्वाहा । रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख । पहिले त कीड़ाखोरी से बचवऽ । ओकरो से बचलो त पाला ।)    (बंगमा॰12:2:42.4)
254    पास-पड़ोस (हम बड़ी कुलच्छिनी हूँ । जन्मइते माय के खा गेलूँ - ईहे पास-पड़ोस के हमरा कहऽ हे ।)    (बंगमा॰12:2:47.3)
255    पिंडा बबाजी (सावन के महीना हल । तरेगनी सोमारी कइलक हल । फल्हार ले मरद के कह देलक हल बकि झोला-झोली होवइ तक नञ् आल । ऊ उठल अउ पिंडा बबाजी के आगू में पानी छीट के एगो अगरबत्ती जरा देलक ।; - "बाऊ कने गेलउ ?" माय पुछलक । - "बबा जी भिजुन गांजा चलो होतउ आउ की !" पिंडा बबाजी के चबुतरा पर अंजुरी के फूल धरइत सबितवा बोलल अउ दरबर मारले डेवढ़ी पार कर गेल ।)    (बंगमा॰12:2:37.11, 38.6)
256    पिल्थी (= पारथी, पालथी) (तरेगनी चुक्को-मुक्को बैठल थक गेल त पिल्थी मार लेलक । कौआ ओइसयँ बेबस मुलुर-मुलुर ताक रहल हल ।)    (बंगमा॰12:2:44.5)
257    पिसाय (= पिसाई की कीमत) (जल्दी-जल्दी एक सूप गोयठा रौदा में देलियो अउ जाता पर बैठ गेलियो । आँटा भी झरल हल । मुनकवा कहवो करे कि मिलिया पर पिसा ले बकि घर के दसा देखके दू पैसा बचावऽ में लगल रहलियो । कने से आवत पिसाय ?)    (बंगमा॰12:2:43.11)
258    पुरवारी (= पूरब वाला) (तरेगनी दिनउका पनपिआय अंगने में बनवऽ हल, पुरवारी पौर के छाहुर में ।)    (बंगमा॰12:2:39.33)
259    पोटना (= मनाना) (ऊ त हम हलिअइ कि घर-गिरथामा चल जा हलइ । भाय बनाठे । हमर गाम में त पाँच-दस बिगहा वला के बियाहो नञ् होवऽ हइ अउ एकरा बनहवा के दुइये बिगहा पर बरतुहार लुझतइ हल । ... हमर मन में गोलटा-तेपटा भी अइलो । गाँव में ढेर घर गोलटाही-तेपटाही आल हे बकि बाऊ नञ् मानलन । उनखा पोटना मुसकिल । एक तुरी माय बोलवो कइल त बाऊ झपट लेलका - तोरे बाप अइसन होतउ ।)    (बंगमा॰12:2:43.2)
260    पौर (तरेगनी दिनउका पनपिआय अंगने में बनवऽ हल, पुरवारी पौर के छाहुर में ।)    (बंगमा॰12:2:39.33)
261    फबना (ऊ साल धाने नियन रब्बी भी स्वाहा । रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख ।)    (बंगमा॰12:2:42.3)
262    फब्बी (ऊ साल धाने नियन रब्बी भी स्वाहा । रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख ।)    (बंगमा॰12:2:42.2)
263    फल्हार (= फलाहार) (सावन के महीना हल । तरेगनी सोमारी कइलक हल । फल्हार ले मरद के कह देलक हल बकि झोला-झोली होवइ तक नञ् आल ।)    (बंगमा॰12:2:37.10)
264    फार (कल्टी ~) ( ईम साल टरेक्टर छोड़ऽ । हरे से निस्तार ल, आगू देखल जइतइ जब कल्टी फार रहतइ । कल्टी के चार चास काफी हइ । अउ हाँ, गहूम में तीन पछिया - बूने, काटे, मैंजे जब । सुनऽ ही - किसानी में पगड़ी के फेर होवऽ हे ।)    (बंगमा॰12:2:39.22)
265    फारनी (= खेती की पहली जुताई जो साधारणतः लम्बाई की ओर से होती है; पहिला चास) (अभी त सूर-सार भी नञ् भेल हल । हर नदी के पार जाय के हल । एक टोपरा पानी से उप्पर भेल हल । चार कट्ठा के बान । फारनी भेल हल । दू चास करके चौंकियाना रोपना बाकी ।)    (बंगमा॰12:2:44.34)
266    फुदफुदाना (समय फेर करवट बदललक । मुगल काल अपन ऐय्याशी के कब्र में दफन हो गेल आउ ओह पर ब्रिटिश शासन के मखमली घास फुदफुदा गेल ।)    (बंगमा॰12:2:69.1)
267    फूही (सक्खिन के झुंड लगल हल तहिया । सब हँसइत लहालोट । फूही में भींगल हँस्सी, ठठाल हँस्सी । बरखे नियन ठेठाल हँस्सी ! मायो सब हँसतो कइसन - बादर फट जाय, बदरा भे जाय चीरीचोंथ, तीत के अंगिया भे गेल बोथ !)    (बंगमा॰12:2:40.28)
268    फेंकाना (साठ बरिस के पुजारीजी हमरा पर झुकल हला । नीयत खराब बुझाल हमरा उनकर । हम कहलूँ - "ई की पुजारीजी ! हम्मर विश्वास के साथ धोखा ! ई उमिर में !" पुजारी जी आवेग में बोललन - "मरद साठा तब पाठा ।" हम्मर देह में झरकी चढ़ गेल । पुजारीजी के छाती से गोड़ सटाके अइसन ढकेललूँ कि ऊ बेल्लाग फेंकाऽ गेलन । देवाल से माथा टकरा गेल उनकर । 'बाप रे ... !' करके थोड़े देर में टन बोल गेलन पुजारीजी ।)    (बंगमा॰12:2:48.28)
269    फेंका-फेंकी ( आन साल हम खंड-कोला अंगना में बरसाती तरकारी भर दे हलियो । बाऊ गमछी में बान्ह के गामे में बेच आवऽ हलथुन । नगदी त नगदी, अनाज त अनाज, बकि ऊ साल कुछ बिरधवे नञ् कइलो । ले-दे के दू पेंड़ कदुआ अउ गनौरा पर भूआ । कदुआ त अइसन दिन में फरतो कि बैना-पिहानी में भी फेंका-फेंकी भे जइतो । भूआ भले बाऊ बजार में तौला देथुन ।)    (बंगमा॰12:2:43.16)
270    फोहवा (बिन रोले त माय भी अपन फोहवा के दूध न पिलावऽ हे । हम भी क्रांति के बिगुल फूँकली । सौंसे हिन्दुस्तान के अपमानित शिक्षक बंधु एकजुट होके आंदोलन के दामन थामलन । "जब तक शिक्षक भूखल हे, ज्ञान के सागर सूखल हे ।")    (बंगमा॰12:2:70.8)
271    फोहवा (वश में रहत हल त खुद्दे किसानी करतूँ हल । चास पर चास । गनौरा के बिछौना । सुइया से पात तक फोहवा नियन पोसतूँ हल । पसनी से एक्कक घास निका देतूँ हल । टैम पर पानी, टैम पर खाद ।)    (बंगमा॰12:2:46.13)
272    बगेरी (सच कहलक हे - "गरीब के बाल-बच्चा, मत कर गरब । जहिये दाल-भात, तहिये परब ॥" अउ बगेरी के नोह जइसन गहूम पर की होत हल परब । चिब्भी, मुन्नी ! बिहनाय जोग नञ्, सब चोकर । हाय रे अदमी ! जेकरा चिरइँ-चुरगुन्नी, गाय-बैल-बकरी भी नञ् पूछे, तेकरो खाय ।)    (बंगमा॰12:2:44.1)
273    बजार-भाव (संजोग अच्छा हल ओकनहिन ले कि साले-दू-साल में सोना के बजार-भाव असमान चढ़ गेल । साथे-साथ रानी और शंकर के आँख तर फेर मकान लउके लगल । ओकर पूँजी दोबर से भी ऊपर हो गेल ।)    (बंगमा॰12:2:53.15)
274    बटरी (अगहनी फट के उपजल हल । तरेगनी पाँच-पाँच गाँड़ा के कोठी पारलक । टोला के दाय-माय ओकर कोठी देखइ ले आवऽ हली । लगे जइसे साँचा में ढालल रहे । कोठिये में हर चलावइत किसान अउ पनपिआय लेले जायत मेहरारू - माथा पर बटरी, हाथ में बाल्टी लेले । अइना साटल कोठी, जेकरा में कंगही, सिन्नुर, टिकली रखय के जग्गह । सब देखके सिहा जाय - हमरो दोपटवेवली नियन पुतहू रहत हल ।)    (बंगमा॰12:2:39.7)
275    बड़हर (खरिहान आल अनाज भी कभी-कभी गोबर । पानी एगो धाने बरदास्त करतो । एकाध साल चैत में एतना पड़लो कि, की काँड़ा, की बड़हर, धरियाल-ढेरियाल सब सड़के ढिम्मा ! खरिहान गेन्ह तोड़े । बोझा के बोझा अंकुरल ।)    (बंगमा॰12:2:42.7)
276    बधे (= के लिए) (कदुआ त अइसन दिन में फरतो कि बैना-पिहानी में भी फेंका-फेंकी भे जइतो । भूआ भले बाऊ बजार में तौला देथुन । घरो बधे भुअउरी पार देलियो त भर बरसात तीयन से निचिन्त । तरकारी के तरकारी, दाल के दाल ।)    (बंगमा॰12:2:43.16)
277    बनाठ (ऊ त हम हलिअइ कि घर-गिरथामा चल जा हलइ । भाय बनाठे । हमर गाम में त पाँच-दस बिगहा वला के बियाहो नञ् होवऽ हइ अउ एकरा बनहवा के दुइये बिगहा पर बरतुहार लुझतइ हल । हमर मन भौजाय देखइ ले तरस के रह गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:42.22)
278    बनाह (ऊ त हम हलिअइ कि घर-गिरथामा चल जा हलइ । भाय बनाठे । हमर गाम में त पाँच-दस बिगहा वला के बियाहो नञ् होवऽ हइ अउ एकरा बनहवा के दुइये बिगहा पर बरतुहार लुझतइ हल । हमर मन भौजाय देखइ ले तरस के रह गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:42.23)
279    बन्नूक (= बन्हूक; बन्दूक) (रात हो गेल । थाना एकदम शांत हल - झात-झात । एक्के गो रहमत अली खाँ बन्नूक लेले पहरा पर हल । हम भूख से छिटपिटाल हलूँ ।; रहमत अली खाँ - "एकरा छोड़के बाहर निकसऽ, नञ् त हम तोरा जिनगी से ससपेंड कर देब ।" ऊ बन्नूक तान देलन । मुदा दरोगाजी अप्पन हवस मिटावे में मसगूल ।)    (बंगमा॰12:2:48.35, 49.13)
280    बरी (एने बरी लाल भे गेल त पानी देके थरिया से झाँप देलियो अउ लगलियो आँटा सानइ ले । चोकराह आँटा, कतनो सौनन देलियो, खस-खस । कतनो कैलियो, नञ् लसलसाल । अंगुरी से दाब-दाब के देखलियो, ओइसन के ओइसने । आजिज होके छोड़ देलियो। बरी डभक गेलो त उतार के ताय चढ़ा देलियो ।)    (बंगमा॰12:2:46.1, 4)
281    बाध (= खेत) (ओकर बैठकी मौसम के हिसाब से बदलते रहतो हल । जाड़ा में खरिहान, त गरमी में बरसात में गोहाल, सुन-सुन्हट्टा । दिन भर बैल-गाय बाध में । कोय नञ् जइतो ओन्ने ... हुलकहो ले नञ् । उगहन के झुलुआ पर झूलइत रहलियो, खिस्सा चलइत रहलो ।; खड़े खेत सूख गेलो । बाऊ त बाध से आवथ अउ दरोजा पर थक्कल माथा धैले बैठ जाथ । उनखर कपार पर पाँच जीव के अधारे नञ्, जुआन बेटी के दमगर बोझा भी त हलन ।)    (बंगमा॰12:2:41.6, 42.11)
282    बाबा थान ("आय तोरी के ! भौजी, एजइ पूजा होवऽ हइ ? बाबा थान नञ् जइमहीं ?" ननद दुन्नु अंजुरी में फूल लेले अंगना में ठाढ़ हल । - "करम-करम के बात हइ नुनु, तों जा ।" - "भइया अइलइ ?" - "भइया मर गेलथुन बउआ !" बोलइत भौजी भित्तर हेल गेल।)    (बंगमा॰12:2:37.13)
283    बासी-तेबासी (= बासी-कुसी) (दिन भर चुल्हा-चौका करते-धरते कमर टेढ़ हो जा हल । तब साँझ के जूठ-खूठ, रूखल-सूखल, बासी-तेबासी खा हलूँ । शरीर हिले लगल । गुलाबी चेहरा कुम्हलाय लगल ।)    (बंगमा॰12:2:48.2)
284    बिरधना (= वृद्धि होना, बढ़ना, विकास होना) (आन साल हम खंड-कोला अंगना में बरसाती तरकारी भर दे हलियो । बाऊ गमछी में बान्ह के गामे में बेच आवऽ हलथुन । नगदी त नगदी, अनाज त अनाज, बकि ऊ साल कुछ बिरधवे नञ् कइलो ।)    (बंगमा॰12:2:43.14)
285    बिलाड़ी (~ काट) (सात दिना के झपास । पानी-पानी, सगरो पानी । बाध-बन्ना सब डूबल । उखेल होवइ ले एक सो एक गाम के नाम, जेकर पहिल अक्षर क - कोसरा, केमरा, कसार, कयासी ... उखेल होवइ के टोटका ... झंझरा गड़ाल । ठाप-ठोप सेनुर । पुरवइया के लफार में झूलइत गुड़वा-गुड़िया । सरकस के लड़की नियन कलाबाजी खायत ... बिलाड़ी काट ।)    (बंगमा॰12:2:40.26)
286    बिहनाय (= बीहन, बीज) (सच कहलक हे - "गरीब के बाल-बच्चा, मत कर गरब । जहिये दाल-भात, तहिये परब ॥" अउ बगेरी के नोह जइसन गहूम पर की होत हल परब । चिब्भी, मुन्नी ! बिहनाय जोग नञ्, सब चोकर । हाय रे अदमी ! जेकरा चिरइँ-चुरगुन्नी, गाय-बैल-बकरी भी नञ् पूछे, तेकरो खाय ।)    (बंगमा॰12:2:44.1)
287    बेचा (ससुर गांजा पीके मातल रहे आउ मरद रोज टीसन टहले । कमाय ने धमाय, पान-सिकरेट मुँह से छूटे नञ् । बेचा आपा-धापी दुकान जाय ।)    (बंगमा॰12:2:37.9)
288    बेल्लाग (साठ बरिस के पुजारीजी हमरा पर झुकल हला । नीयत खराब बुझाल हमरा उनकर । हम कहलूँ - "ई की पुजारीजी ! हम्मर विश्वास के साथ धोखा ! ई उमिर में !" पुजारी जी आवेग में बोललन - "मरद साठा तब पाठा ।" हम्मर देह में झरकी चढ़ गेल । पुजारीजी के छाती से गोड़ सटाके अइसन ढकेललूँ कि ऊ बेल्लाग फेंकाऽ गेलन । देवाल से माथा टकरा गेल उनकर । 'बाप रे ... !' करके थोड़े देर में टन बोल गेलन पुजारीजी ।)    (बंगमा॰12:2:48.28)
289    बैना-पिहानी (दे॰ बैना-पेहानी) (आन साल हम खंड-कोला अंगना में बरसाती तरकारी भर दे हलियो । बाऊ गमछी में बान्ह के गामे में बेच आवऽ हलथुन । नगदी त नगदी, अनाज त अनाज, बकि ऊ साल कुछ बिरधवे नञ् कइलो । ले-दे के दू पेंड़ कदुआ अउ गनौरा पर भूआ । कदुआ त अइसन दिन में फरतो कि बैना-पिहानी में भी फेंका-फेंकी भे जइतो । भूआ भले बाऊ बजार में तौला देथुन ।)    (बंगमा॰12:2:43.15)
290    बोधना ("हमरा काहे छोलनियाँ उसाहलकउ ?" माय बोधलक - "मारलकउ त नञ् ने ?")    (बंगमा॰12:2:45.26)
291    बौधा (माय के मुँह से अचक्के निकल गेल - हे सुरुज सविता मीरा ! बौधा के बचावो ।/ नेताजी भी कुटुंबी चल गेला हल । तरेगनी ननद के लेले थाना पर चल गेल आउ दरोगा जी से अइसन ममता, गलानी आउ विसवास के साथ बोलल कि कठकरेज दरोगा जी भी पिघल गेला ।)    (बंगमा॰12:2:38.22)
292    भँड़हेरी (बरतुहारी त भे रहलो हल मुदा हमरा विसवास नञ् कि होइये जात । कते के चढ़ल भँड़हेरी उतर गेल हे । बेसाहल तक त कुमार रह गेल हे । आजकल तो मड़वो पर से भागा-भागी होवऽ हे ।)    (बंगमा॰12:2:44.12)
293    भरोस (= भरोसे) (ऊ खेत भगमाने भरोस । आउ सब टिल्हे, ई डुब्बे । एकरा में सलफिट देवइ में भी नञ् बने।)    (बंगमा॰12:2:45.1)
294    भल (अहो ~) (तरेगनी के मन खदबदा रहल हल । ओकरा मुँह में अदबद आ रहल हल । गाम में कोय एतना बोलत हल तब एक बात भुइयाँ गिरइ ले नञ् देत हल । रोकते-रोकते भी एक बात निकलिये गेल - सुग्गा रहतो हल त अहो भल । राम-राम त रटतो हल । ई त कौआ हो, कउआ ।)    (बंगमा॰12:2:38.1)
295    भाय-भोजाय (रानी जब बिआह-दान के बाद अपन पति के साथ रसे-बसे लगल त ऊ समय ओकर पति भाय-भोजाय के साथ रह रहल हल - देश के राजधानी दिल्ली में । हलाँकि परिवार में सब कुछ ठीक चल रहल हल बकि रानी के जौरागी में घुटन महसूस होवऽ हल ।)    (बंगमा॰12:2:52.6)
296    भुटनी (~ गो = जरी गो; बहुत छोटा-सा) (सेउदल गोयठा से निबटना सधारन काम नञ् । गोयठा पर करासन देके उक्का जोरलियो । माय रोकलक - ई उमर भेल, हम सब कहियो करासन के मरम जानलूँ ? हावा में भुटनी गो इंगोरा देके चार गोयठा के उक्का जोर देलियो, छने में आग फफा गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:45.12)
297    भुलाल-भटकल (नञ् ऊ ठीक तरह से हिंदी बोल पावऽ हथिन, नञ् बंगला आउ मगही बोले में तो उनका तौहीने बुझा हइ । नया पीढ़ी के लोग जे बंगाल में हथिन ऊ या तो बंगला बोलऽ हथिन या अंगरेजी । मगही तो भुलाले-भटकल कोय नौजवान बोलऽ होतइ । जे पढ़ल-लिखल नञ् हइ ऊ बंगला बोलके अपना के बंगाल के वासी सिद्ध करे में लगल रहऽ हइ ।)    (बंगमा॰12:2:5.16)
298    भूआ (आन साल हम खंड-कोला अंगना में बरसाती तरकारी भर दे हलियो । बाऊ गमछी में बान्ह के गामे में बेच आवऽ हलथुन । नगदी त नगदी, अनाज त अनाज, बकि ऊ साल कुछ बिरधवे नञ् कइलो । ले-दे के दू पेंड़ कदुआ अउ गनौरा पर भूआ । कदुआ त अइसन दिन में फरतो कि बैना-पिहानी में भी फेंका-फेंकी भे जइतो । भूआ भले बाऊ बजार में तौला देथुन ।)    (बंगमा॰12:2:43.15, 16)
299    भोरौआ (हमरा तहिया रात भर नीन नञ् अइलो । सकरी के धाध हमर देह में समा गेलो हल । हमर कान में ओकर गीत ककोलत के झरना नियन बहइत रहलो ... बहइत रहलो ! बकड़ी मेमाल कि हमर ध्यान टूटल । रोज भोरौआ मेमइतो ।)    (बंगमा॰12:2:41.27)
300    भोसड़ा (कनमटकी देले पटाल हलूँ । दरोगाजी अकेले अइलन । फाटक खोलके अंदर आ गेलन आउ आँख तरेर के पुछलकन - "कि गे पतुरिया ! ठीक-ठीक बतावें हें कि भोसड़ा ढील कर दूँ ?" हम गिड़गिड़इलूँ - "हम निरदोस हूँ बाबू ! अप्पन इज्जत बचावे खातिर ...।" तड़ाक-तड़ाक हम्मर मुँह पर थप्पड़ पड़ल ।)    (बंगमा॰12:2:49.3)
301    भौजाय (ऊ त हम हलिअइ कि घर-गिरथामा चल जा हलइ । भाय बनाठे । हमर गाम में त पाँच-दस बिगहा वला के बियाहो नञ् होवऽ हइ अउ एकरा बनहवा के दुइये बिगहा पर बरतुहार लुझतइ हल । हमर मन भौजाय देखइ ले तरस के रह गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:42.24)
302    मंडा (सो चास गंडा, तेकर आधा मंडा, तेकर आधा तोरी, तेकर आधा मोरी ।; गंडा माने केतारी, मंडा माने गहूम, तोरी माने सरसो, मोरी माने धान के बिचड़ा ।)    (बंगमा॰12:2:39.15, 18)
303    मड़वा (= बेलन से बेली हुई मोटी रोटी) (हाँ, मिंझरौना के चिकसा झर गेलो हल । सोंचलियो - सब ले मड़वे बना देही । कोंहड़ौरी पहिले, मड़वा बाद । आन दिन पहिले मोटकीये बनैतियो हल बाऊ चलते ।)    (बंगमा॰12:2:45.14)
304    मदत (= मदद, सहायता) (रानी के माय ओकरा मंतर देलन हल - "पति के जदि कब्जा में रखना हे त सबसे पहिले जेवर-जाठी खरदा के अपन आर्थिक स्थिति ठीक कर । फेर हम भी कुछ मदत करबउ आउ बाकी एन्ने-ओन्ने से करजा-पईंचा करके मकान खरीद लिहें ।"; बाकि फेर शुरू हो गेल करजा के तगादा । बैंक आउ क्रेडिट-कार्ड के इएमआई । बुलंद सपना के मारल रानी आउ शंकर दोस-मोहिम, नाता-कुटुम सब तर छित्ती-छाँय हथ मदत खातिर । रानी के स्थिति 'भई गति साँप छुछुंदर केरी, उगलत अंधा निगलत कोढ़ी' वला हो गेल हे ।)    (बंगमा॰12:2:53.7, 24)
305    मद्धिम (इनकर बेटी रमरतिया बड़ सुंदर हे । ओकर साँवला रूप अइसन मोहक हल कि चान-सूरज के जोत मद्धिम पड़ जा हल ।)    (बंगमा॰12:2:56.16)
306    मनबहलौनी (जहिया से तरेगनी डेवढ़ी लांघलक हे, ओकर मन में एगो संकल्प के आग जरि रहल हे, धधकि रहल हे, एगो परतिंगा हेऽऽ - मजा चखैबउ । दस-पाँच दिन त गुमसुम रहल, घर के रंग-ढंग देखइत समझइत रहल । सास सतेली, ससुर गंजेड़ी, मरद अवारा । ले-दे के घर में एगो नो-दस बरिस के ननद हल मनबहलौनी । सास त मुँह-देखइये में खँचिया भर ओलहन देलन ।)    (बंगमा॰12:2:37.4)
307    मने (ओइसने-ओइसने साल एकरा में धान लगतो । लगतो त पछड़ि जइतो । हाँ, खेंसाड़ी बड़की जोड़ धरतो बकि सोसना ओकरा अइसन दबइतो कि खाली जनावरे के खिलावे जोग रहतो । बाऊ खिलइताहर हाथ सागे बेच लेथुन - दस मने के हिसाब से ।)    (बंगमा॰12:2:45.4)
308    मरकछ (~ देना = मटिआना, गुम-सुम रहना) (कौआ के बहलावे ले ऊ दम साध लेलक । सुग ने बुग बकि ध्यान कौए पर । कौआ भी कम चलाक नञ् होवऽ हइ । रुक के रुख गमऽ लगल । रस-रस तिरछे होके तनी गुड़कल । तरेगनी मरकछ देले । कौआ फेन गुड़कल ।)    (बंगमा॰12:2:40.8)
309    मरल (~ रहना) (माय-बाप के छोड़ऽ, ओकरा अपन छोट भाई श्यामलाल आउ छोट बहिन रमरतिया ला भी तनिको फिकिर न हे । बड़का भइया रामलाल ला दुन्नो भाई-बहिन मरल रहऽ हे ।)    (बंगमा॰12:2:55.12)
310    महँड़ा ( मैकाले महोदय के महँड़ा में भारतीय शिक्षा पद्धति पर अइसन मथानी चलल कि हहुता भर-भर मक्खन निकालि-निकालि चाहइत रहलन आउ घोर-मट्ठा नल्ली-पमल्ला में बहइत रहल । आलम ई हल कि दू-चार गाँव में एकाध मैट्रिक पास मिलऽ हलन आउ पाँच-छः मिडिल ।)    (बंगमा॰12:2:69.22)
311    महत (= महत्त्व) (हमरा से कोय के मुकाबला नञ्, कोय छोड़ नञ्, कोय जोड़ नञ् । हम ही एगो अदना शिक्षक । चउँकऽ मत । हमर नाम के महत बाल नियन नञ् । हमर नाम में जे भी बदलाव आल हे, ऊ हे कर्म के फल ।)    (बंगमा॰12:2:65.10)
312    मारा (= अकाल, सुखाड़) (विआह के बाद पप्पू दू महिन्ना तक रहल । जाय के मन कलकत्ता त अभियो नञ् कर रहल हल, मुदा छुट्टी से दस दिन जादे जा रहल हल, आउ खेतो त ओतना नञ् हल कि खट के जीवका चला सको हल । फेन इन्नर भगवान के रूसला से मारा भी होल हल ।)    (बंगमा॰12:2:60.9)
313    मारा-मारी (शिक्षक बहाली में आपा-धापी होवऽ लगल । प्रशिक्षण महाविद्यालय में नामांकन लेल मारा-मारी होवऽ लगल ।)    (बंगमा॰12:2:70.20)
314    मिंझरौना (= मिलौना; कई प्रकार के अनाज या अन्य वस्तुओं का मिला होना, मिश्रण) (~ के चिकसा) (हाँ, मिंझरौना के चिकसा झर गेलो हल । सोंचलियो - सब ले मड़वे बना देहीं । कोंहड़ौरी पहिले, मड़वा बाद । आन दिन पहिले मोटकीये बनैतियो हल बाऊ चलते ।)    (बंगमा॰12:2:45.14)
315    मिरमिराना (दिन भर चुल्हा-चौका करते-धरते कमर टेढ़ हो जा हल । तब साँझ के जूठ-खूठ, रूखल-सूखल, बासी-तेबासी खा हलूँ । शरीर हिले लगल । गुलाबी चेहरा कुम्हलाय लगल । चनरमा के जोत मिरमिराय लगल । एतना सहके भी अप्पन भतार के कभियो शिकायत नञ् कइलूँ ।)    (बंगमा॰12:2:48.2)
316    मुँहदेखाय (जहिया से तरेगनी डेवढ़ी लांघलक हे, ओकर मन में एगो संकल्प के आग जरि रहल हे, धधकि रहल हे, एगो परतिंगा हेऽऽ - मजा चखैबउ । दस-पाँच दिन त गुमसुम रहल, घर के रंग-ढंग देखइत समझइत रहल । सास सतेली, ससुर गंजेड़ी, मरद अवारा । ले-दे के घर में एगो नो-दस बरिस के ननद हल मनबहलौनी । सास त मुँह-देखइये में खँचिया भर ओलहन देलन ।)    (बंगमा॰12:2:37.4)
317    मुँहनुक्का (दिन भर चुल्हा-चौका करते-धरते कमर टेढ़ हो जा हल । तब साँझ के जूठ-खूठ, रूखल-सूखल, बासी-तेबासी खा हलूँ । शरीर हिले लगल । गुलाबी चेहरा कुम्हलाय लगल । चनरमा के जोत मिरमिराय लगल । एतना सहके भी अप्पन भतार के कभियो शिकायत नञ् कइलूँ । कइला से फइदा की ? ऊ तो हल मुँहनुक्का । खाली हम्मर शरीर से काम हल ओकरा ।)    (बंगमा॰12:2:48.4)
318    मुचका (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । आवथ जरलाहे कौआ, मजा चखा देवन ।)    (बंगमा॰12:2:40.1)
319    मुन्नी (सच कहलक हे - "गरीब के बाल-बच्चा, मत कर गरब । जहिये दाल-भात, तहिये परब ॥" अउ बगेरी के नोह जइसन गहूम पर की होत हल परब । चिब्भी, मुन्नी ! बिहनाय जोग नञ्, सब चोकर । हाय रे अदमी ! जेकरा चिरइँ-चुरगुन्नी, गाय-बैल-बकरी भी नञ् पूछे, तेकरो खाय ।)    (बंगमा॰12:2:44.1)
320    मेदगर (कौआ जरला देह में नोन रगड़े । चिब्भी गहूम के चोकराह आटा में कौआ के लोल । मेदगर रहत हल त कौआ के लोल बझ जात हल । हमरा लगल कि वश में रहत हल त कौआ के लोल बझ जात हल । वश में रहत हल त खुद्दे किसानी करतूँ हल । चास पर चास । गनौरा के बिछौना ।)    (बंगमा॰12:2:46.11)
321    मेदा (= मैदा) (आज तरेगनी नयका गहूम के रोटी बनावत, अप्पन उपजाल गहूम । पुष्ट दाना । सब गहूम एक नियन, मसीन के बनावल । गहूम अब मील में पिसावऽ हे । मील के आँटा मेदा । चालहो के काम नञ् ।)    (बंगमा॰12:2:39.34)
322    मेमाना (= मेमियाना) (हमरा तहिया रात भर नीन नञ् अइलो । सकरी के धाध हमर देह में समा गेलो हल । हमर कान में ओकर गीत ककोलत के झरना नियन बहइत रहलो ... बहइत रहलो ! बकड़ी मेमाल कि हमर ध्यान टूटल । रोज भोरौआ मेमइतो ।)    (बंगमा॰12:2:41.26, 27)
323    मेहल (= मेहुदल, मेहुदाल) (हाँ, त कहवे कइलियो कि बाऊ दू तुरी घुर गेलन हल । हम भी लंगो-तंगो । दलान पर जाके पुछलियो - "मेहल बूँट लेबहो ? बनतो त पहुँचा देबो ।" नारन-जोती सरियावइत बाऊ बोलला - "दे द, चिबइले चल जाम, देरी भे रहलो हे ।" उनखर चेहरा पर समाधान के खुशी साफ झलक रहल हल ।)    (बंगमा॰12:2:45.6)
324    मैंजन (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । आवथ जरलाहे कौआ, मजा चखा देवन ।)    (बंगमा॰12:2:40.1)
325    मोटकी (= मोटी मुलायम गुदगर रोटी जिसे तरकारी के बिना भी केवल नून-मिचाय में खाया जा सकता है) (हाँ, मिंझरौना के चिकसा झर गेलो हल । सोंचलियो - सब ले मड़वे बना देही । कोंहड़ौरी पहिले, मड़वा बाद । आन दिन पहिले मोटकीये बनैतियो हल बाऊ चलते ।)    (बंगमा॰12:2:45.14)
326    रस-रस (दे॰ रसे-रसे) (तरेगनी कौआ के लड़ाय देख रहल हे करखी से । एगो कौआ गुड़कल आँटा दने चलल । तरेगनी आँटा के कठौती तनी आउ दूर सरका देलक, मुदा अपन पहुँच के अंदरे । कौआ के बहलावे ले ऊ दम साध लेलक । सुग ने बुग बकि ध्यान कौए पर । कौआ भी कम चलाक नञ् होवऽ हइ । रुक के रुख गमऽ लगल । रस-रस तिरछे होके तनी गुड़कल ।)    (बंगमा॰12:2:40.8)
327    रार (= झगड़ा, तकरार, बखेड़ा) (ढेर देरी तक शंकर रानी के समझइते रहल बकि बेरथ । रानी के रार के आगे परिवार के प्यार हार गेल । बूँट के दुनहुँ दाल अलग हो गेल ।)    (बंगमा॰12:2:52.34)
328    रुइयाँ (बोरसी उकट के ठनकल डमारा के इंगोरा से नरियर भर के माय के देलियो अउ बकड़ी बान्हइ ले पगहा खोजऽ लगलियो ।/ "तारोऽऽ ! ई की देली ... रुइयाँ ने धुइयाँ" - माय बोलल । हमरा गोस्सा बर गेलो । खों-खों करतो अउ नरियर गुड़गुड़इतो ।)    (बंगमा॰12:2:42.16)
329    रूखल-सूखल (दिन भर चुल्हा-चौका करते-धरते कमर टेढ़ हो जा हल । तब साँझ के जूठ-खूठ, रूखल-सूखल, बासी-तेबासी खा हलूँ । शरीर हिले लगल । गुलाबी चेहरा कुम्हलाय लगल ।)    (बंगमा॰12:2:48.1)
330    रेघ (टिस्स रेघ । बरसाती गइतो त टोला-पड़ोस हाँथ बार देतो ।)    (बंगमा॰12:2:41.24)
331    लंगो-तंगो (हाँ, त कहवे कइलियो कि बाऊ दू तुरी घुर गेलन हल । हम भी लंगो-तंगो । दलान पर जाके पुछलियो - मेहल बूँट लेबहो ? बनतो त पहुँचा देबो ।; हम त लंगो-तंगो । हमर आँख तर समुल्ले घर नाच गेलो - बाऊ खेत में, टैचुनमा भुक्खल, माय के अभी मुँहो नञ् धोवइलूँ हे, अप्पन त फिकिरे नञ् । तेकरो में बरसात के सेउदल गोयठा । कौआ जरला देह में नोन रगड़े ।)    (बंगमा॰12:2:45.5, 46.8)
332    लठ-लठ (= लट-लट) (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । आवथ जरलाहे कौआ, मजा चखा देवन ।)    (बंगमा॰12:2:40.2)
333    लफना (= लपना, झूकना) (खिस्सा खतम करके तरेगनी कौआ के समदइत उड़ा देलक - "जो, भाय-गोतिया के कह दिहें हल, निमरा घर छोड़के ... ।" नगेसर के लगल, ऊ लफि के तरेगनी के चूम ले बकि ... ।)    (बंगमा॰12:2:46.25)
334    लफार (नगेसर एगो सौंस अइंटा लेके चुल्हा भिजुन बैठ गेल । तरेगनी आँच खींच लेलक अउ कहऽ लगल - तहिया ढेर दिना पर रौदा उगल हल । पुरवइया के लफार । सात दिना के झपास ।)    (बंगमा॰12:2:40.20)
335    लरैठा (= रहैठा) (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । ... ताय धिप गेल । लरैठा के जारन - धाँय-धाँय आँच ।)    (बंगमा॰12:2:40.3)
336    लस-घस ("... हमरा भाभी बेटा नियन पाललथिन आउ तूँ कहऽ हऽ कि हम बेगारी करऽ हिअइ ।" - "बेटा नियन ! हमर मुँह नञ् खोलवावऽ । घुरि-घुरि लस-घस करते रहऽ हऽ आउ ... बेटा नियन ! एक दिन ओकरो पर बवाल होइए के रहतो ।" भड़क गेल हल रानी ।)    (बंगमा॰12:2:52.30)
337    लस-लस (तहिये हम एगो सपना देखलियो - एगो घर चिक्कन-फोक्कन । घर में कोय चीज के कमी नञ् ! तरेगनी ऊ घर के मलकीनी । कमासुत मरद । ठीक अइसने घर में दुसमन कौआ के मजा चखैबन । अप्पन हाथ के उपजावल गहूम के लस-लस आँटा में कौआ के लोल फँसइबन आउ चुल्हा में झोंक देबन ।)    (बंगमा॰12:2:46.22)
338    लसलसाना (एने बरी लाल भे गेल त पानी देके थरिया से झाँप देलियो अउ लगलियो आँटा सानइ ले । चोकराह आँटा, कतनो सौनन देलियो, खस-खस । कतनो कैलियो, नञ् लसलसाल । अंगुरी से दाब-दाब के देखलियो, ओइसन के ओइसने । आजिज होके छोड़ देलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.2)
339    लहरना (= जलना, प्रज्वलित होना) (गोयठा लहरिये नञ् रहल हल । फेनो फूँकइ में लग गेलियो ।)    (बंगमा॰12:2:46.7)
340    लहसना (= लहरने-लहरने कि स्थिति में होना) (हाँ, ईहे सब सोंच रहलूँ हल कि आग लहसि गेल । अँचरा से ताय पोछलियो अउ लपकल जरामन भित्तर फराठी लाबइ ले चल गेलियो । कौआ ताक में धजा-बबाजी पर बैठल हलो । सून पाके उतरलो अउ आँटा में फेनो लोल मारऽ लगलो । धात्-धात् कइले कौआ के खेदलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.15)
341    लाव-लस्कर (हमरो दिन बहुरल । गुलामी के बादल छँटल । आजादी के सूरज अपन लाव-लस्कर के साथ क्षितिज पर गर्दन उठइले मुस्कुराल । बदलाव के आँधी चलल ।)    (बंगमा॰12:2:69.18)
342    लिखाड़ (कृष्ण कुमार भट्टा मगही के लिखाड़ युवा साहित्यकार आउ लोकगायक हथ । इनकर 'घर आवऽ परदेसी' नाम से एगो कैसेट भी निकल चुकल हे आउ छोट-बड़ दरजन भर पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकल हे ।)    (बंगमा॰12:2:59.1)
343    लिल्ला (= लीला) (नगेसर बीच अंगना में ठाढ़ बोलल - हाय ! हाय ! ई की ! छोड़ दहीं ।/ तरेगनी के हाथ रुक गेल । नगेसर चूल्हा के नगीच पहुँच गेल । माय सब लिल्ला मचिया पर बैठल देख रहल हल । तरेगनी बोलल - तों किजन गेलऽ । आवऽ, बैठऽ, तब एकर पुरान खिस्सा कहियो ।)    (बंगमा॰12:2:40.17)
344    लैन (= लाइन, पावर, बिजली) (ऊ साल जनु इन्नर के यहाँ भी जनु पानी के अभाव पड़ गेलइ हल । निपनियाँ रब्बी कते होतो हल । टीवेल भी त सालो से लैन बिना खराब पड़ल रहो हो । सुनऽ ही तारो कटि के बिक जाहे । खड़े खेत सूख गेलो ।)    (बंगमा॰12:2:42.10)
345    लोराना (= अ॰क्रि॰ लोर गिरना; स॰क्रि॰ लोर गिराना) (कौआ तरेगनी के हाथ में जकड़ल तनि पाँख फड़फड़इलक । - ठहर ... भागइ ले चाहऽ हें । आज भागइ ले देबउ ! सब कच्चा चिट्ठा खोलबउ तोर । बड़ लोरइलें हें हमरा नैहरा में ।)    (बंगमा॰12:2:41.9)
346    सकड़पेंच (= सकरपंच) (ई परिस्थिति में जकड़ल आउ पूर्वाग्रह के बेड़ी में बंधल द्रोणाचार्य एकलव्य के धनुर्विद्या सिखावे से इन्कार कइलन त कउन विवशता हल, समझ पड़त । पुत्रवत् प्यार करेवला गुरु अप्पन शिष्य के अंगूठा दान में लेत ! अगर लेलकन त ऊ कउन सकड़पेंच हल, जेकरा ऊ न पार करि सकलन । बेटा के चौरट्ठा पियावे वाला ने अंगूठा लेलन, से कि अप्पन अहम् तुष्टि लेल ? ऊ गुरु स्मृति निर्मित अनुबंध के पालन भर कइलन आउ नाहक सब रोष अप्पन सिर लेलन ।)    (बंगमा॰12:2:67.19)
347    सखरी (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । आवथ जरलाहे कौआ, मजा चखा देवन । ... कौआ छप्पर पर बैठल ताक रहल हे । कौआ नीचे उतरल अउ सखरी पर बैठ गेल । तरेगनी कौआ के लड़ाय देख रहल हे करखी से । एगो कौआ गुड़कल आँटा दने चलल ।)    (बंगमा॰12:2:40.4)
348    सचउकी (= वास्तविक, सचमुच की) (रानी अपन माय के कहल-गुनल पर चलके पहिले जौरागी तोड़लक, फेर लाखों के गहना खरीदवइलक पति से । अब पूरा घर ओकर अपन कब्जा में नजर आ रहल हल । राज चले लगल हल ओकर अपन घर पर । सचउकी रानी हल ऊ अब अपन घर के । मजाल हे कि कोय भी नाता-कुटुम ओकर मरजी के बिना घर चढ़े ।)    (बंगमा॰12:2:53.11)
349    सनाना (आँटा सना गेल । पानी के मुचका अउ मैंजन पर मैंजन । ठेहुना पर झुक के मुट्ठी बान्ह-बान्ह सानलक - लठ-लठ । आवथ जरलाहे कौआ, मजा चखा देवन ।)    (बंगमा॰12:2:40.1)
350    सफ्फड़ (= सफर) (तरेगनी जोजना बनइलक अउ फाँड़ा कसके खेत में उतर गेल । नगवा ओकर इसारा पर दिन-रात खटे । ... बाजा के गीत छूट जाय त छूट जाय बकि किरखी चर्चा नञ् छूटे । काम वला सब बात कौपी पर नोट करे । टीसन के सफ्फड़ खतम । सौदा-सुलुझ ले महीना में एक तुरी जाय त बाऊ ले गांजा जरूर लेले आवे ।)    (बंगमा॰12:2:39.1)
351    समदना (= समाद देना या पहुँचाना) (खिस्सा खतम करके तरेगनी कौआ के समदइत उड़ा देलक - "जो, भाय-गोतिया के कह दिहें हल, निमरा घर छोड़के ... ।" नगेसर के लगल, ऊ लफि के तरेगनी के चूम ले बकि ... ।)    (बंगमा॰12:2:46.23)
352    समुल्ले (हम त लंगो-तंगो । हमर आँख तर समुल्ले घर नाच गेलो - बाऊ खेत में, टैचुनमा भुक्खल, माय के अभी मुँहो नञ् धोवइलूँ हे, अप्पन त फिकिरे नञ् । तेकरो में बरसात के सेउदल गोयठा । कौआ जरला देह में नोन रगड़े ।)    (बंगमा॰12:2:46.9)
353    सलफिट (दे॰ साल्फीट) (ऊ खेत भगमाने भरोस । आउ सब टिल्हे, ई डुब्बे । एकरा में सलफिट देवइ में भी नञ् बने।)    (बंगमा॰12:2:45.1)
354    ससुरा (= ससुरार) (तरेगनी के सब संजोगल सपना चूर । माय-बाप कइसन घर धरि आल । ओकरा लेल नञ् नहिरे सुख, नञ् ससुरे सुख !)    (बंगमा॰12:2:37.6)
355    ससुरार (हम बिदा होके ससुरार आ गेलूँ । बाउजी के अकेले घर काटे लगल । से ऊ घर-दुआर बेचके अजोध्या जी जाके भक्ति-भजन में लीन हो गेलन ।)    (बंगमा॰12:2:47.18)
356    साठा (~ आलू; ~ मरद) (साठ बरिस के पुजारीजी हमरा पर झुकल हला । नीयत खराब बुझाल हमरा उनकर । हम कहलूँ - "ई की पुजारीजी ! हम्मर विश्वास के साथ धोखा ! ई उमिर में !" पुजारी जी आवेग में बोललन - "मरद साठा तब पाठा ।" हम्मर देह में झरकी चढ़ गेल । पुजारीजी के छाती से गोड़ सटाके अइसन ढकेललूँ कि ऊ बेल्लाग फेंकाऽ गेलन । देवाल से माथा टकरा गेल उनकर । 'बाप रे ... !' करके थोड़े देर में टन बोल गेलन पुजारीजी ।)    (बंगमा॰12:2:48.27)
357    साथे-साथ (= साथ ही साथ) (संजोग अच्छा हल ओकनहिन ले कि साले-दू-साल में सोना के बजार-भाव असमान चढ़ गेल । साथे-साथ रानी और शंकर के आँख तर फेर मकान लउके लगल । ओकर पूँजी दोबर से भी ऊपर हो गेल ।)    (बंगमा॰12:2:53.16)
358    सिन्नुर (तरेगनी पाँच-पाँच गाँड़ा के कोठी पारलक । टोला के दाय-माय ओकर कोठी देखइ ले आवऽ हली । .. अइना साटल कोठी, जेकरा में कंगही, सिन्नुर, टिकली रखय के जग्गह । सब देखके सिहा जाय - हमरो दोपटवेवली नियन पुतहू रहत हल ।)    (बंगमा॰12:2:39.7)
359    सिलाय-फराय (सिलाय-फराय के समान ले लेलको अउ चल गेलो एकांत में । ओकर बैठकी मौसम के हिसाब से बदलते रहतो हल ।)    (बंगमा॰12:2:41.4)
360    सीता (= धान की एक प्रजाति) (सितवा कट गेल हल । तरेगनी खेत उखाड़के पटैलक पनियौंचा देके । रूख भे गेल त चास पर चास । छो पूरल त नागो बोलल - कल बून देवइ के चाही ।)    (बंगमा॰12:2:39.11)
361    सुन-सुन्हट्टा (सिलाय-फराय के समान ले लेलको अउ चल गेलो एकांत में । ओकर बैठकी मौसम के हिसाब से बदलते रहतो हल । जाड़ा में खरिहान, त गरमी में बरसात में गोहाल, सुन-सुन्हट्टा ।)    (बंगमा॰12:2:41.6)
362    सुरखुरू (बकड़ी मेमाल कि हमर ध्यान टूटल । रोज भोरौआ मेमइतो । उठलियो अउ खँचिया पर से पत्थर के पसेरी उतरलियो । चारियो पठरू सुरखुरू । दूगो के उठाके मुँह अपन गाल में साटइत चुचकारलियो - नुनु गे, हमर बउआ गे, सेर पीमे कि पउआ गे ।)    (बंगमा॰12:2:41.28)
363    सूर-सार (अभी त सूर-सार भी नञ् भेल हल । हर नदी के पार जाय के हल । एक टोपरा पानी से उप्पर भेल हल । चार कट्ठा के बान । फारनी भेल हल । दू चास करके चौंकियाना रोपना बाकी ।)    (बंगमा॰12:2:44.29)
364    सेउदल (~ गोयठा) (बाऊ गेलथुन । एक काम त भेल बकि चूल्हा त जोरहे न पड़त । सेउदल गोयठा से निबटना सधारन काम नञ् । गोयठा पर करासन देके उक्का जोरलियो ।; हम त लंगो-तंगो । हमर आँख तर समुल्ले घर नाच गेलो - बाऊ खेत में, टैचुनमा भुक्खल, माय के अभी मुँहो नञ् धोवइलूँ हे, अप्पन त फिकिरे नञ् । तेकरो में बरसात के सेउदल गोयठा । कौआ जरला देह में नोन रगड़े ।)    (बंगमा॰12:2:45.9, 46.10)
365    सोमारी (सावन के महीना हल । तरेगनी सोमारी कइलक हल । फल्हार ले मरद के कह देलक हल बकि झोला-झोली होवइ तक नञ् आल ।)    (बंगमा॰12:2:37.10)
366    सोसना (ओइसने-ओइसने साल एकरा में धान लगतो । लगतो त पछड़ि जइतो । हाँ, खेंसाड़ी बड़की जोड़ धरतो बकि सोसना ओकरा अइसन दबइतो कि खाली जनावरे के खिलावे जोग रहतो । बाऊ खिलइताहर हाथ सागे बेच लेथुन - दस मने के हिसाब से ।)    (बंगमा॰12:2:45.3)
367    सौंस (= सउँस; पूरा, समूचा) (तरेगनी बोलल - तों किजन गेलऽ । आवऽ, बैठऽ, तब एकर पुरान खिस्सा कहियो ।/ नगेसर एगो सौंस अइंटा लेके चुल्हा भिजुन बैठ गेल । तरेगनी आँच खींच लेलक अउ कहऽ लगल - तहिया ढेर दिना पर रौदा उगल हल । पुरवइया के लफार । सात दिन के झपास ।)    (बंगमा॰12:2:40.19)
368    सौदा-सुलुझ (तरेगनी जोजना बनइलक अउ फाँड़ा कसके खेत में उतर गेल । नगवा ओकर इसारा पर दिन-रात खटे । ... बाजा के गीत छूट जाय त छूट जाय बकि किरखी चर्चा नञ् छूटे । काम वला सब बात कौपी पर नोट करे । टीसन के सफ्फड़ खतम । सौदा-सुलुझ ले महीना में एक तुरी जाय त बाऊ ले गांजा जरूर लेले आवे ।)    (बंगमा॰12:2:39.1)
369    सौनन (एने बरी लाल भे गेल त पानी देके थरिया से झाँप देलियो अउ लगलियो आँटा सानइ ले । चोकराह आँटा, कतनो सौनन देलियो, खस-खस । कतनो कैलियो, नञ् लसलसाल । अंगुरी से दाब-दाब के देखलियो, ओइसन के ओइसने । आजिज होके छोड़ देलियो।)    (बंगमा॰12:2:46.2)
370    हँस्सी (सक्खिन के झुंड लगल हल तहिया । सब हँसइत लहालोट । फूही में भींगल हँस्सी, ठठाल हँस्सी । बरखे नियन ठेठाल हँस्सी ! मायो सब हँसतो कइसन - बादर फट जाय, बदरा भे जाय चीरीचोंथ, तीत के अंगिया भे गेल बोथ !)    (बंगमा॰12:2:40.29, 30)
371    हकाना (= हँकाना; पुकारना) (माय हकइलक - तारोऽऽ, तनी नरियर चढ़ा द ।)    (बंगमा॰12:2:41.34)
372    हरजा (खोसी से पप्पू के आँख डबडबा गेल, बोलल, "साहब, अपने के आदेश के हम पालन नञ् करम त केकर करम । हम वैसाख में घर जाम, मुदा तोहर कोय काम के हरजा नञ् होवे देम ।")    (बंगमा॰12:2:62.4)
373    हरजाय (= हरजाई; कुलटा स्त्री) (दरोगाजी अकेले अइलन । फाटक खोलके अंदर आ गेलन आउ आँख तरेर के पुछलकन - "कि गे पतुरिया ! ठीक-ठीक बतावें हें कि भोसड़ा ढील कर दूँ ?" हम गिड़गिड़इलूँ - "हम निरदोस हूँ बाबू ! अप्पन इज्जत बचावे खातिर ...।" तड़ाक-तड़ाक हम्मर मुँह पर थप्पड़ पड़ल । हम सिसके लगलूँ । दरोगाजी बड़बड़इलन - "छिनार ! हरजाय !! तिरिया चरित्तर देखावे हें । ठहर ! तोरा हम ठीक कर देही ।")    (बंगमा॰12:2:49.3)
374    हरदा (= गेहूँ की फसल का पीला पड़ने का एक रोग; पीलापन लिए रंग का बैल) (रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख । पहिले त कीड़ाखोरी से बचवऽ । ओकरो से बचलो त पाला । कभी एतना पानी पड़लो कि हरदा !)    (बंगमा॰12:2:42.4)
375    हरहोर = हो-हल्ला, शोरगुल) (नाता-कुटुम आवे-जाय लगलन । जमीन पर गोड़ नञ् धरे रानी - नाता-कुटुम के देख के । हरहोर मच गेल सगरो रानी के मकान मालकिन बने के ।)    (बंगमा॰12:2:53.21)
376    हहुता (मैकाले महोदय के महँड़ा में भारतीय शिक्षा पद्धति पर अइसन मथानी चलल कि हहुता भर-भर मक्खन निकालि-निकालि चाहइत रहलन आउ घोर-मट्ठा नल्ली-पमल्ला में बहइत रहल । आलम ई हल कि दू-चार गाँव में एकाध मैट्रिक पास मिलऽ हलन आउ पाँच-छः मिडिल ।)    (बंगमा॰12:2:69.22)
377    हाही (पछिया के ~) (रब्बी त अइसउँ फब्बी कहल गेल हे । फबल त फबल, नञ् त निपौध । पानी-पाला सब ले लेलको । एकर रोग भी लाख । पहिले त कीड़ाखोरी से बचवऽ । ओकरो से बचलो त पाला । कभी एतना पानी पड़लो कि हरदा ! सब कुछ से बचलो त पछिया के हाही चिब्भी कर देलको ।)    (बंगमा॰12:2:42.5)