लघुकथाकार - हरीन्द्र विद्यार्थी
पटना टीसन पर अन्हेरा गहराय लगल हल । अइसे तो टीसन पर अनदिनो अँटान न रहे, बाकि एक जगह कुछ जादे भीड़ देख के चन्दू ठुमक गेल। दूगो वर्दीधारी पुलिस के खड़ा देख के ओकर उत्सुकता आउ बढ़ गेल । बीच में एगो गोर सुन्नर महिला आउ बगल में एगो पान चबावित अधवइस औरत बइठल हल ।
गोरकी तिरिया बोलल - "न जानि कन्ने हम्मर भाई छूट गेल । ई घड़ी रात के हम कहाँ जाऊँ ?"
"रात के कहाँ जयबऽ ? जहन्ना जाना ठीक नऽ हो । तूँ पटने रुक जा । बिहान होतो त चल जइहऽ ।" एगो सिपाही बोललक ।
"हँ बाबू ! पटने रुक जाही । बाकि जायम कहाँ ?"
अधवइस औरत टुभकल - "चल ! हमरा साथ रात भर रहिहें, फिन सबेरे चल जइहें । बाकि डेरा हम्मर हियाँ से दूर हउ । तब तक हमरे साथ रह ।"
"इनके साथ रिक्शा में चल जो ! न तो हम तोरा, जहाँ कह, हुएँ पहुँचा देवउ ।" अधवइस सिपाही बोलल ।
जवनका सिपाही खइनी पर ताल देके बोललक - "हँ, बढ़ियाँ तो हउ । अइसन भला अदमी थोड़े ई जुग में मिलतउ ?"
ऊ गोरकी तिरिया थोड़ा घबड़ायल, फिन बोलल - "नऽ बाबुन, हम रात भर टीसने पर गुजार देम ।"
"टीसन पर कइसे रहबे ? चल, हम तोरा थाना में पहुँचा दे हिअउ ।" सिपाही जी तुनकलन ।
कुछ जातरी ई माजरा देख के गते मुसकयलन । ओकरे में से एगो उमरदराज अदमी बोलल - "ई तो छोकरी हई रे, चललई ई सब के रतभोज !"
"चल, छोड़ ई तमाशा ! हियाँ तो रोज के एही नजारा हउ । केकर-केकर हिसाब रखबे ? चल, गाड़ी पर सीट ले लेवल जाय ।" दोसर जातरी बोलल ।
चन्दू सोचे लगल कि चुपचाप चलल जाय इया ई महिला के ऊ फन्दा से निकालल जाय । थोड़ा आगे बढ़ल त ओकरा इयाद आल कि गोरकी के बगल में बइठल बुढ़िया तो ई शहर के चर्चित एजेण्ट हे । ऊ लउट आल आउ भीड़ भिर आके गोरकी तिरिया से पूछलक - "कहाँ घर हउ ?"
"जहानाबाद, काको में ।" उत्तर मिलल ।
चन्दू थोड़ा हिम्मत बाँध के बोललक - "देख, ई शहर बड़का मंडी हउ । हियाँ रोज औरत के खरीद-बिक्री होवऽ हउ । रात भर अकेले रह गेले त गिद्ध सब तोरा नोच के खा जतउ । सबेरे कहूँ पर बेहोश पावल जयमें इया लाश बरामद होतउ । चुपचाप गाड़ी धर के जहन्ना लउट जो । हमरा फर्ज बुझयली त तोरा समझा रहलियो हे । अब जइसन तोर मर्जी ।"
"नऽ नऽ बाबू ! हम जहन्ने चल जायम ।" एतना कह के ऊ गाड़ी में चढ़ गेल ।
चन्दू डेरा में लउट के जब अप्पन घरनी के ई लीला सुनयलक तब ओकर घरनी बोललन - "रात में जहन्ना ? ऊ कउन बड़ा सुधरल जगह हई ?"
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰ ७-८ से साभार]
पटना टीसन पर अन्हेरा गहराय लगल हल । अइसे तो टीसन पर अनदिनो अँटान न रहे, बाकि एक जगह कुछ जादे भीड़ देख के चन्दू ठुमक गेल। दूगो वर्दीधारी पुलिस के खड़ा देख के ओकर उत्सुकता आउ बढ़ गेल । बीच में एगो गोर सुन्नर महिला आउ बगल में एगो पान चबावित अधवइस औरत बइठल हल ।
गोरकी तिरिया बोलल - "न जानि कन्ने हम्मर भाई छूट गेल । ई घड़ी रात के हम कहाँ जाऊँ ?"
"रात के कहाँ जयबऽ ? जहन्ना जाना ठीक नऽ हो । तूँ पटने रुक जा । बिहान होतो त चल जइहऽ ।" एगो सिपाही बोललक ।
"हँ बाबू ! पटने रुक जाही । बाकि जायम कहाँ ?"
अधवइस औरत टुभकल - "चल ! हमरा साथ रात भर रहिहें, फिन सबेरे चल जइहें । बाकि डेरा हम्मर हियाँ से दूर हउ । तब तक हमरे साथ रह ।"
"इनके साथ रिक्शा में चल जो ! न तो हम तोरा, जहाँ कह, हुएँ पहुँचा देवउ ।" अधवइस सिपाही बोलल ।
जवनका सिपाही खइनी पर ताल देके बोललक - "हँ, बढ़ियाँ तो हउ । अइसन भला अदमी थोड़े ई जुग में मिलतउ ?"
ऊ गोरकी तिरिया थोड़ा घबड़ायल, फिन बोलल - "नऽ बाबुन, हम रात भर टीसने पर गुजार देम ।"
"टीसन पर कइसे रहबे ? चल, हम तोरा थाना में पहुँचा दे हिअउ ।" सिपाही जी तुनकलन ।
कुछ जातरी ई माजरा देख के गते मुसकयलन । ओकरे में से एगो उमरदराज अदमी बोलल - "ई तो छोकरी हई रे, चललई ई सब के रतभोज !"
"चल, छोड़ ई तमाशा ! हियाँ तो रोज के एही नजारा हउ । केकर-केकर हिसाब रखबे ? चल, गाड़ी पर सीट ले लेवल जाय ।" दोसर जातरी बोलल ।
चन्दू सोचे लगल कि चुपचाप चलल जाय इया ई महिला के ऊ फन्दा से निकालल जाय । थोड़ा आगे बढ़ल त ओकरा इयाद आल कि गोरकी के बगल में बइठल बुढ़िया तो ई शहर के चर्चित एजेण्ट हे । ऊ लउट आल आउ भीड़ भिर आके गोरकी तिरिया से पूछलक - "कहाँ घर हउ ?"
"जहानाबाद, काको में ।" उत्तर मिलल ।
चन्दू थोड़ा हिम्मत बाँध के बोललक - "देख, ई शहर बड़का मंडी हउ । हियाँ रोज औरत के खरीद-बिक्री होवऽ हउ । रात भर अकेले रह गेले त गिद्ध सब तोरा नोच के खा जतउ । सबेरे कहूँ पर बेहोश पावल जयमें इया लाश बरामद होतउ । चुपचाप गाड़ी धर के जहन्ना लउट जो । हमरा फर्ज बुझयली त तोरा समझा रहलियो हे । अब जइसन तोर मर्जी ।"
"नऽ नऽ बाबू ! हम जहन्ने चल जायम ।" एतना कह के ऊ गाड़ी में चढ़ गेल ।
चन्दू डेरा में लउट के जब अप्पन घरनी के ई लीला सुनयलक तब ओकर घरनी बोललन - "रात में जहन्ना ? ऊ कउन बड़ा सुधरल जगह हई ?"
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰ ७-८ से साभार]