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Monday, August 28, 2023

मगह के तीन टेढ़


 मगह के तीन टेढ़

प्राचार्य राम बुझावन सिंह

(ललित निबन्ध)

मगह के बारे में एगो कहावत प्रचलित हे कि मगह में तीन टेढ़ — राह टेढ़, आदमी टेढ़, आउ बोली टेढ़। ऊपर से देखे में लगे हे कि ई कहावत मगह ला अपमानजनक हे, काहे कि कोई के टेढ़ कह देवल अशिष्ट नियर बुझा हे। पर सच पूछीं तऽ कहावत ऐसही न बने, खूब सोच समझ के बने हे, जेकरा में बहुत कुछ सचाई रहऽ हे। ई कहावत एकर अपवाद न हे।

सबसे पहिले राह टेढ़ के बात लीं। कहीं के राह के भी घना सम्बन्ध उहाँ के धरती, पानी, यानी भूगोल के बनावट से रहे हे। जइसन जहाँ के हवा-पानी आ माटी रहत, वइसने उहाँ के सब कुछ बन जायत - राह-बाट, लोग-बाग, आ सभ्यता-संस्कृति। एकरे जयशंकर प्रसाद जी अपन नाटक ‘विशाख’ के ‘परिचय’ में कहलन हे कि —”हमें हमारी गिरी दशा से उठाने के लिए हमारे जलवायु के अनुकूल जो हमारी अतीत सभ्यता है, उससे बढ़कर उपयुक्त और कोई भी आदर्श हमारे अनुकूल होगा कि नहीं, इसमें मुझे पूर्ण सन्देह है।” ई कथन में ‘हमारे जलवायु के अनुकूल हमारी सभ्यता’ पर ध्यान देवे के हे। हमर सभ्यता हमर देश के जलवायु के अनुकूल ही बनत। तऽ राह-बाट अपन माटी-पानी से बचके कइसे रहत! ई मगह के भौगोलिक तथ्य हे कि एकर माटी धूसर, बलुआही आ मरल न हे, जे पानी के तुरत धरती सोख ले हे। बहुत जगह के माटी बलुआही पावल जाहे, जे बरखा के पानी के तुरत सोख ले हे। बरखा छुटला पर पांव झाड़ दीं, सब धूल झड़ जायत, आ चप्पल-जूता पहिन के तुरत चले लगीं। तनिको माटी न लगत। उहाँ के लोग अपन माटी के ई खूबी मानऽ हथ, कि बरसात में भी उहाँ जूता-चप्पल चले हे। उनकर ई खूबी उनका मुबारक! खूब जूता-चप्पल उहाँ चले, एकरा में हमरा का एतराज?

पर मगह के माटी के ई रिवाज न हे। इहाँ के माटी जादेतर काली माटी, केवाल माटी हे, जेकर खूबी हे कि पानी न पड़त, तऽ सूख के ऊ अइसन कड़ा हो जायत कि ओकरा आगे पत्थर भी मात खा जायत। ठेसे लगला पर ओकर कड़ाई बुझाऽत। पर अगर थोड़ा पानी के संसर्ग ओकरा भेंट जायत, तऽ ऊ एतना लसगर हो जायत कि अपने के गोड़ न छोड़त। ई धूरि न हे, जेकरा झार के अपने चल देब। ई हमर माटी के सनेह हे, जे गीला होला पर अइसन पकड़ ले हे कि छोड़ावल मुस्किल होवऽ हे। सनेह अइसने बरियार होवऽ हे। सनेह के आगे केकर जोर चलल हे भला?

एहिसे, जब मगह के धरती बरखा में डूब जाहे, तऽ बड़ा घूम-घुमाव के राह बने हे। लगत कि पावे भर पर जाय ला हे। पर जाय लगब, तऽ राह लम्बा हो जायत। कवि के बात याद आ जाहे — ‘चलता-चलता जुग गया, पाव कोस पर गाँव’। चलनिहार के मगहे से पाला पड़ल होत। लम्बा राह टेढ़ा हो ही जात। ओहू में सनेह से भींगल, चिक्कन, लथपथ।

जे गुन मगही राह के, ओही मगहियन आदमी के भी। इहाँ भी धरती-माटी के ही असर काम करऽ हे। पहिले आदमी के माने आदमी के देह से लीं। मगह के माटी में खेसाड़ी खूब उपजे हे, जेकर उपयोग जानवर से लेके आदमी तक खूब करऽ हथ। जहिया से खेसाड़ी में टूसा निकले हे, ओहिए से ओकर साग चले लगे हे। देहात तो देहात, सहर के लोग के भी ओकरा ला प्रान छछनइत रहे हे। अपन देहाती कुल-कुटुम्ब पहिले ही सनेस देतन कि गंगा नहाय अइहऽ तऽ खेसाड़ी के साग लावेला न भूलिहऽ। खेसाड़ी के साग में एतना स्वाद हे। मगर ओकर दाल? ओकरा बारे में डाक्टर लोग कहऽ हथ कि बहुत दिन तक लगातार ओकर दाल खाय से पांव में गठिया हो जाय के डर रहऽ हे। ई बात में सचाई हो सके हे। खेसाड़ी के दाल सबसे सस्ता होवे हे। गरीब-गुरबा ओकरा खूब खा हथ। खेतिहर मजदूर के भी खेसाड़िये मजूरी में देवल जा हे। ईसे अक्सर जन-मजूर के पाँव गठिया पकड़ के लांगड़ हो जाय, टेढ़ हो जाय, तो कउन अचरज?

अब टेढ़ के मतलब आदमी के देह से नऽ, सुभाव से लेल जाय। वहाँ फिर हम मगह के धरती-माटी के याद दिलाएब। ओकरा अगर सनेह से भिगाईं, तऽ ऊ एतना चिकना हो जायत, कि अपने फिसल जाएब। देह से, आ मन से भी। पर अगर ओकरा से सुखले बतियाएब, बिना सनेह दरसवले, त ऊ पत्थर नियर कठोर हो जायत। एकरे टेढ़ भी कह सकऽ ही। पर सच पूछीं त, एकरे आदमी के स्वाभिमान भी कहल जाहे, जे मगहियन में कूट-कूट के भरल हे। एही ओकर खूबी हे। इहाँ हम फिर पोथी-पुरान के याद दिलाएब। धनुहा-भंग के बाद जब परसुराम फरसा तानले जनकपुर पहुँचलन त सब कोई तो सटक सीताराम। पर लछुमन के त्योरी चढ़ गेल। उनकर नहला पर ई दहला कसे लगलन — अइसन-अइसन तीरकमान आ फरसा हम ढेर देखले ही। परशुराम के जरइत आग में घी पड़ गेल। ऊ फरसा के धार पर अँगुरी फेरे लगलन। एहि बीच राम आके उनका सांत कयलन  — महाराज, अगर अपने खाली मुनिवेश में अइतीं, त लछुमन अपने के पाँव पर गिर जायत हल। पर अपने के तीरकमान आ फरसा देखके ओकर छत्रियाँव भड़क उठल। एकरा में ओकर दोष नऽ।

[*22] अब इहाँ बुझीं, कि लछुमन में ई तेवर कहाँ से आयल? हमर बात के बकवास न मानल जाय, तऽ हम निवेदन करब कि लछुमन में ई तेवर उनकर ननिहाल के धरती-माटी से आयल हल, जे मगह के गया छेत्र में हल। आज भी उनकर ननिहाल के गाँव रामपुर चांई के नाम से मौजूद हे, जेकरे पास आज भी मसहूर सूर्य-मन्दिर देकुड़-देवकुण्ड हे। कहल जाहे कि राम जब पिता के पिण्डदान ला गया जाइत हलन, तऽ एक रात ओही ननिहाल में ठहर के विश्राम कएलन हल, जेकर याद में आज भी ऊ गाँव रामपुर कहला रहल हे।

तऽ जइसे लछुमन के स्वाभिमान कोई के ठोकर बर्दासत न कयलक, ओइसहीं मगहियन भी कड़ाई के साथ पेस आवेवाला के साथ कड़ा बन जा हथ। एहिसे लोग कह दे हथ कि मगह के आदमी टेढ़। लोग हमरा टेढ़ कहथ या सोझ, हम तो अपन धरती-माटी से लाचार ही। हाँ, जरा सनेह देखला के तो देखीं, कि हम केतना नरम हो जाही? केवाले माटी से तो आखिर हमर तनमन बनल हे। गोसाईं बाबा भी टेढ़ से काफी घबरा हलन – ‘टेढ़ जानि संका सब काहू’। लगे हे कि उनका कोई मगहिया से पाला पड़ गेल होयत। एहिसे ओहू भी मगह के गरियाबे में बाज न अयलन — गया मगह महँ तीरथ जैसे। हमरा से कोई के शंका — डर-भय — न होय, एहिसे हम पूर्नमासी के चाँद बन जाईं, जेकरा हर कोई राहू दबोच दे? हम वक्र चन्द्रमा रहब से कबूल पर कोई राहू के ग्रास न बनब, न बनब। बनब तऽ ‘नगद दमाद अभिमानी के’। 

रह गेल बोली टेढ़ के बात। ‘निज कवित्त केहि लाग न नीका’ न्याय से सोचीं, तऽ बात अपने आप खुलासा हो जाहे। पर अपना से तटस्थ होके जरा सोचऽ ही, तऽ ई मान लेबे पड़ऽ हे कि मगहियन के जुबान पर अड़ोस-पड़ोस के बोली जल्दी चढ़ जाहे। पर हमर पड़ोसी के जुबान पर मगही बहुत कम चढ़े हे। आमतौर पर मगहियन भोजपुरी आ मैथिली धड़ल्ले से बोल ले हथ। पर एही बात गैर-मगहियन के साथ न पावल जाहे। चाहे जउन कारन से हो, ऊ लोग के साथ स्वकीयापन जादे चले हे। अपन-अपन रीतरिवाज संस्कार हे। एकर अलावे, हमरा तो बुझा हे, कि ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति के मूल’ के मरम ऊ हमरा से पहिले आउ जादे समझ गेलन हे, ओकर स्वाद खूब बूझ गेलन हे। आज के दुनिया के दौड़ में आगे निकल जाय ला ई बहुत कारगर नुस्खा हे।

भाषा विज्ञान के नजर से देखला पर सचमुच अइसन परतीत हो हे कि मगही बोली आसानी से न साधल जा सके हे। ‘तीन कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी’ जेतना मगह में पावल जाहे, ओतना सायद ही कहीं दूसर जगह। पटना, गया, नालन्दा, औरंगाबाद, पलामू, हजारीबाग, राँची के मगही बोली सोझ न बुझाय, गैर-मगहियन ला ई बोली टेढ़ लगे, तो कउन अचरज? खूब ठेकाने से मगही बोली जुबान पर चढ़ जाय, एकरा ला कुछ साधना करे के जरूरत हे। गैर-मगही भाई एकरा टेढ़ कहथ या सोझ, पर हम तो एहि कहब कि - ‘आती है मगही जुबां आते आते’।

जे ई मगही के मरम समझ जैतन, ऊ बुद्ध बन जैतन। सिद्धार्थ के ढेर संगी-साथी अपना-अपना नियर उनका प्रबोध के हार गेलन, पर पार न पावलन। आखिर निरंजना के कगार पर से एगो बोल फूटल — बीना के तार नियर मन के साधऽ। न जादे तानऽ, न जादे ढीला छोड़ दऽ । के न जाने कि सिद्धार्थ ई मरम बोल के साधलन, त बुद्ध बन गेलन। आझ भी जे मगही के मरम बूझ लेतन, ऊ प्रबुद्ध बन जयतन। न बूझेवाला के तो ई टेढ़ा बुझएबे करत।

 

साभारः आचार्य केसरी कुमार (प्रधान संपा॰) - “निरंजना”, मगही अकादमी, बिहार, पटना-13; कुल x+106+ii पृष्ठ। उपर्युक्त निबन्ध पृ॰21-22 पर छपले ह।