विजेट आपके ब्लॉग पर

Saturday, August 26, 2023

मगही साहित्य को प्रो॰ रामबुझावन सिंह की देन

 

मगही साहित्य को प्रो॰ रामबुझावन सिंह की देन

प्रो॰ सुखित वर्मा

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् एवं बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के पूर्व निदेशक प्रो॰ रामबुझावन सिंह हिन्दी और मगही के महान साहित्यकार रहे हैं। हिन्दी और मगही की पत्र-पत्रिकाओं के साथ इनका गहरा लगाव रहा है, जिनमें इनकी मौलिक एवं स्तरीय रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं।

प्रो॰ रामबुझावन सिंह ने मगही की अनेक संस्थाओं से जुड़कर मगही भाषा को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मगही के भारतेन्दु डा॰ रामप्रसाद सिंह के तूफानी मगही आन्दोलन में इनका कार्य महत्त्वपूर्ण एवं प्रशंसनीय रहा है। प्रो॰ रामबुझावन सिंह के कार्य रचनात्मक एवं आन्दोलनात्मक दोनों तरह के रहे हैं। ये आजीवन हिन्दी और मगही साहित्य की सेवा में तत्पर रहे हैं। इसी कारण मगही साहित्य-जगत् में इन्हें ‘मगही का भीष्म पितामह’ कहा जाता है।

ऐसे महान साहित्यकार  प्रो॰ रामबुझावन सिंह का जन्म अप्रैल उन्नीस सौ बीस (01.04.1920) को पटना (बिहार) जिला के मसौढ़ी थाना (अब अनुमंडल भी) अन्तर्गत सतपरसा गाँव में एक किसान परिवार में हुआ। लौंगी देवी और बनवारी सिंह इनके माता-पिता थे। इनकी  प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की ही पाठशाला में हुई। इन्होंने हजरत साईं (मसौढ़ी) से मिडिल स्कूल की और जहानाबाद से उच्च विद्यालय की शिक्षा पूरी की। इन्होंने 1936 ई॰ में मैट्रिक की परीक्षा द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण करने के बाद 1937 ई॰ में पटना स्थित बी॰एन॰ कॉलेज में इन्टरमीडिएट में नामांकन कराया। सन् 1939 ई॰ में इन्टर की परीक्षा द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण होने के बाद उसी कॉलेज से 1941 ई॰ में स्नातक की परीक्षा विशिष्टता (डिस्टिंक्शन) के साथ उत्तीर्ण की। पुनः 1943 ई॰ में पटना विश्वविद्यालय, पटना से एम॰ए॰ (हिन्दी में) प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। तब प्रबुद्ध लोगों का ध्यान इनकी ओर आकृष्ट हुआ। 

स्नातकोत्तर (एम॰ए॰) उत्तीर्ण करने के बाद 1945 ई॰ में चन्द्रधारी मिथिला (सी॰एम॰) कॉलेज, दरभंगा (बिहार) में हिन्दी के व्याख्याता के पद [*97] पर इनकी नियुक्ति हुई। लगभग तीन वर्षों तक यहाँ इन्होंने इस पद को सुशोभित करने के बाद सन् 1948 ई॰ में पटना के बी॰एन॰ कॉलेज में हिन्दी व्याख्याता के पद पर योगदान किया। यहीं रीडर बनकर इस महाविद्यालय का गौरव बढ़ाते रहे। सन् 1980 ई॰ में वहाँ से अवकाश ग्रहण करने के बाद अप्रैल 1980 से अप्रैल 1982 ई॰ तक वे द्वारिकानाथ महाविद्यालय मसौढ़ी (पटना) में प्रधानाचार्य रहे।

 

प्रो॰ सिंह के साहित्यिक अवदान:

प्रो॰ रामबुझावन सिंह को बी॰एन॰ कॉलेज, पटना की साहित्यिक पत्रिका ‘भारती’ का जन्मदाता सम्पादक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसका प्रथम प्रकाशन सन् 1948 ई॰ में हुआ था। समय-समय पर इस पत्रिका के कई विशेषांक प्रकाशित हुए। निराला विशेषांक की काफी चर्चा हुई थी। इस कॉलेज से ‘सूत्र’ पत्र का प्रकाशन हुआ था, जिसमें साप्ताहिक ‘शोषित’ (पटना), साप्ताहिक ‘अर्जक’ (लखनऊ), ‘शंबूक’ (पटना), ‘कूर्मांचल’ (पटना), ‘कूर्मोदय’ (पटना), ‘शोषित मुक्ति’ (पटना), ‘कूर्मी-क्षत्रिय जागरण’ (पटना) आदि से सम्बद्ध रहे। ‘नवशक्ति’ (पटना), दैनिक ‘राष्ट्रवाणी’ (पटना) में सह-सम्पादक का कार्य इन्होंने 1945 से 1948 तक किया। इनके अलावे ‘निराला: जीवन और साहित्य’, ‘रेणु: व्यक्तित्व और श्रद्धांजलि’, ‘गद्य विहार’ का सम्पादन भी इन्होंने किया था।

 

निबंध:

जब से मगही आन्दोलन की शुरुआत हुई, प्रो॰ रामबुझावन सिंह इस आन्दोलन में सक्रिय रहे। ढेर सारी संस्थाओं के सदस्य और अध्यक्ष बने। मगही की पत्र-पत्रिकाओं में इनके निबंध छपते रहे। इनके कुछ प्रमुख निबंध निम्नलिखित हैं -

(i)            कपिलदेव बाबू (मगही लोक, 1978)

(ii)          मगह के तीन टेढ़ (निरंजना स्मारिका, 1983)

(iii)         मगही उपन्यास आउ आम आदमी (मगही के मानक रूप, 1987)

(iv)         मगह आउ जरासंध (गौतम, 1987)

(v)          सबहिं नचावत राम गोसाईं (अलका मागधी, 1999)   

[*98]

(vi)         बैल के दूध (अलका मागधी, 1997)

(vii)        मंगलं पुण्डरीकाक्षः पुण्डरीक स्मरण (अलका मागधी, 1999)

‘कपिलदेव बाबू’ नामक निबंध भूतपूर्व प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, बी॰एन॰ कॉलेज, पटना के स्मरण के रूप में लिखा गया हे। अपने परम प्रिय मित्र कपिलदेव बाबू की याद में लिखा गया यह निबंध/ स्मरण काफी मर्मस्पर्शी है।

मगही उपन्यास आउ आम आदमी’ में आम आदमी के जीवन का व्यापक चित्रण है।

मगह के तीन टेढ़’ एक सुप्रसिद्ध मगही कहावत है जिसमें मगह क्षेत्र की तीन वस्तुओं की वक्रता को दर्शाया गया है। ये तीन चीजें हैं – रास्ता, आदमी और बोली। इन तीन चीजों की वक्रता और उनकी विशेषता का मरम समझ जैतन, ऊ बुद्ध बन जैतन। सिद्धार्थ के ढेर संगी-साथी अपना-अपना नियर उनका प्रबोध के हार गेलन, पर पार न पावलन। आखिर निरंजना के कगार पर से एगो बोल फूटल - “वीणा के तार नियन मन के साधऽ। न जादे तानऽ, न जादे ढीला छोड़ दऽ। न जाने कि मगही के मरम बूझ लेतन ऊ प्रबुद्ध बन जैतन। न बुझे वाला के तो ई टेढ़ बुझयबे करत।”

मगह आउ जरासंध’ में पौराणिक पात्र जरासंध के मगध क्षेत्र में निभायी भूमिका का व्यापक वर्णन किया गया है।

सबहिं नचावत राम गोसाईं’ में प्रमुखता से संसार के संचालन की व्याख्या है।

बैल के दूध’ हास्य निबंध है जो काफी बेजोड़ है।

ठेठ मगही के ठाठ-बाठ प्रो॰ सिंह के निबंधों में देखने को मिलता है। जगह-जगह मगही की कहावतें इनके निबंधों में चार चाँद लगा देते हैं। प्रो॰ सिंह के गद्य की भाषा काव्यानन्द की अनुभूति से ओत-प्रोत है। विषयानुसार भावाभिव्यक्ति में काफी कुशल हैं।

 

कहानियाँ:

जयशंकर प्रसाद की तरह प्रो॰ रामबुझावन सिंह भी लोक-संस्कृति के ध्वजवाहक के रूप में मगही साहित्य में अमिट रहेंगे। डॉ॰ (प्रो॰) अभिमन्यु [*99] प्रसाद मौर्य और डॉ॰ (प्रो॰) दिलीप कुमार द्वारा सम्पादित ‘मगही कथा सरोवर’ में प्रो॰ रामबुझावन सिंह की एक सुप्रसिद्ध कहानी ‘एक पर चढ़ जा तीन-तीन’ प्रचलित कथा रूपक पर आधारित है। अपनी लेखनी से खाँटी मगही कहानी का रूप देने में प्रो॰ सिंह के प्रयत्न एकदम सफल एवं सराहनीय हैं। कहानी की भाषा भाव की अनुगामिनी है। कहानी में लय और ताल के मणि-कांचन संयोग से संगीत और संगीत के आराधक तत्त्व दोनों की रक्षा हुई है। ‘धिक-धिना’, ‘तिक-तिना’ और ‘धिक-धिन’ की बोल पर ‘एक पर चढ़ जा तीन-तीन’ की गुहार बिल्कुल सार्थक है। इस कहानी की समीक्षा करते हुए डॉ॰ दिलीप कुमार ने लिखा हे - “लयदार लेखन के तालदार तेवर रखने वाले प्रो॰ रामबुझावन सिंह शोषण की सीमा समाप्त करके जीवन की अनबुझ पहेली को बिल्कुल सुलझाकर रख देते हैं जिससे मुट्ठी भर शोषक समाज को हमेशा लूटते रहते हैं। भय रूपी भूत को भगाकर प्रो॰ सिंह ने सचमुच बहुत बड़ा सामाजिक कल्याण किया है।” इस कहानी को प्रतीकवादी कहानी की कोटि में यदि रखा जाय तो किसी को आपत्ति न होगी। शिल्प और भाव की दृष्टि से यह कहानी बिल्कुल सटीक और सफल है। इस कहानी में संवाद कम, मुद्दा, नाटकीयता, सजीवता और स्वाभाविकता अधिक है।

लोककथा का वैज्ञानिक अनुशीलन भारत में अभी बहुत कम हुआ है। लोककथा में लोक विश्वास की अभिव्यक्ति होती है। वह विश्वास को एक निश्चित और स्थिर रूप प्रदान करके समाज में उसका सम्मान बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती है। अतः प्रो॰ रामबुझावन सिंह की यह कहानी लोककथा के वैज्ञानिक अध्ययन, अनुशीलन और चिन्तन-मनन में सहायक सिद्ध होगी।

 

शब्दचित्र मगही में:

प्रो॰ रामबुझावन सिंह ने कई शब्दचित्रों की भी रचना की है। यहाँ मैं उनके द्वारा लिखित एक सुप्रसिद्ध ‘सनिचरा’ की चर्चा करना चाहूँगा। यह शब्दचित्र डॉ॰ अभिमन्यु प्रसाद मौर्य द्वारा सम्पादित मासिक मगही पत्रिका ‘अलका मागधी’ के जुलाई 1999 के अंक में प्रकाशित हुआ था। तत्त्व, शैली और भाषा आदि की दृष्टि से ‘सनिचरा’ शब्दचित्र एकदम सही है। शैली कथात्मक, वर्णनात्मक और चित्रात्मक है। शब्द-चयन, छोटे-छोटे वाक्य, कहीं-कहीं स्वाभाविक संवाद और भावावेश के साथ सहज-सरल चित्रण है। [*100] इस शब्दचित्र की भाषा में चित्रात्मकता, सहजता, सरलता, कहावतों एवं मुहावरों के प्रयोग के साथ स्थानीय मगही भाषा के खाँटी शब्दों का प्रयोग सहज बोधगम्य है।

‘सनिचरा’ शब्दचित्र कल्पनाश्रित यथार्थ से जुड़ा हुआ है। इसमें वर्णनात्मकता भी है। शब्दचित्रकार जब बाहर से भीतर की ओर विषय में प्रवेश करता है तब वह गहराई में न जाकर अपने शब्दचित्र की स्थूलता को पुष्ट करने के लिए वर्णनात्मक ही अधिक रहता है। कहीं-कहीं दया, करुणा, ममता, प्रेम, अहिंसा जैसे रागात्मक पक्ष का उद्घाटन भी करता है तो वह उद्घाटन विषयगत न होकर स्थितिजन्य हो जाता है। वर्णनात्मक दृष्टिकोण से ‘सनिचरा’ शब्दचित्र एकदम सफल है।

प्रत्येक साहित्यिक विधा में साहित्यिकता के गुण उसके प्रारूप, शैली और उपादान पर निर्भर करते हैं। ठीक उसी प्रकार शब्दचित्र की साहित्यिकता भी उसकी तात्त्विक अन्विति और शैली विशेष पर निर्भर करती है। कल्पना और यथार्थ के संयोग से जिस स्थल को शब्दचित्रकार अधिक गम्भीरता में उतारना चाहता है, उस साहित्यिक उपादान में बिम्ब, अलंकार, अप्रस्तुत विधान आदि का सहारा ले सकता है। वह जन-जीवन में प्रचलित मुहावरों, कहावतों और प्रतीक के माध्यम से ज्यादा व्यंजक बना सकता है। कलात्मकता की दृष्टि से प्रो॰ रामबुझावन सिंह का शब्दचित्र ‘सनिचरा’ पूर्णतः सफल है। भाषा में चित्रात्मकता , सहजता, सरलता, साधारण जनता के चलन में आने वाले कहावतों-मुहावरों के प्रयोग और स्थानीय मगही भाषा के खाँटी शब्दों के प्रयोग से ‘सनिचरा’ शब्दचित्र कली की भाँति खिल उठता है।

 

संस्थाओं के सदस्य और अध्यक्ष के रूप में:

प्रो॰ रामबुझावन सिंह सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं से जुड़े रहे थे। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के तत्कालीन निदेशक डा॰ कुमार विमल के समय प्रो॰ सिंह परिषद् के संचालक समिति के सदस्य बनाये गये थे। हिन्दी प्रगति समिति, राजभाषा विभाग, बिहार सरकार, पटना के सदस्य भी रहे थे। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग और रेलवे हिन्दी सलाहकार समिति, नयी दिल्ली के सदस्य भी रहे थे। मगही भाषा-साहित्य के विकास के लिए ये काफी प्रयत्नशील रहते थे। फलतः बिहार मगही अकादमी, पटना के अध्यक्ष भी नियुक्त किये गये थे। कई वर्षों तक ये इस पद पर रहकर मगही भाषा और [*101] साहित्य की सेवा करते रहे। उक्त अवधि में मगही अकादमी, पटना की ओर से प्रो॰ सिंह ने ‘निरंजना’ नामक स्मारिका का प्रकाशन किया। मगही के विकास के लिए ये काफी समर्पित थे।

सन् 2005 ई॰ में श्री नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हीं के निर्देश पर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् और बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के निदेशक बनाये गये। छह वर्षों तक लगातार वे निदेशक पद पर रहते हुए हिन्दी की जो सेवा की, वह निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। विगत 31 मई 2013 ई॰ को उन्होंने अवकाश ग्रहण किया। मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने उनको सम्मानित कर उनके गुरु-ऋण से मुक्त होने का प्रयास किया। प्रो॰ रामबुझावन सिंह को ‘गुरुओं का गुरु’ कहा जाता है। उपर्युक्त दोनों संस्थाओं से अवकाश ग्रहण करने के 25वें दिन अर्थात् 25 जून 2013 ई॰ को उनका निधन हो गया। उनकी अंतिम इच्छानुसार गंगा किनारे रहते हुए भी उनका दाह-संस्कार पैतृक गाँव सतपरसा (मसौढ़ी), पटना में हुआ।

पटना की साहित्यिक एवं सामाजिक गतिविधियों में उनकी सक्रिय सहभागिता रहती। साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक समारोहों में विशिष्ट अतिथि या मुख्य अतिथि या लोकार्पणकर्त्ता के रूप में वे हमेशा आमंत्रित किये जाते थे।

8वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन, न्यूयार्क (अमेरिका) में वे प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में गये थे।

प्रो॰ रामबुझावन सिंह के साथ मेरी कई स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। यद्यपि वे आज हमारे बीच नहीं हैं, फिर भी उनका सरल और अजातशत्रु वाले व्यवहार का मैं कायल हूँ। अंत में मैं उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए अपनी विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ।

 

व्याख्याता, हिन्दी विभाग

पी॰एन॰के॰ महाविद्यालय

पालीगंज, पटना-801110 (बिहार)


स्थायी पता : 

ग्राम - वादीपुर, पत्रा॰ - चिरौरा 

नौबतपुर, जिला - पटना-801109


साभार: डा॰ गनौरी महतो (प्रधान संपा॰) एवं आलोक कुमार सिन्हा (संपा॰) - “हिन्दी साहित्य के अजातशत्रु - प्रो॰ रामबुझावन सिंह”, प्राञ्जलि प्रकाशन, पटना-3; 9 अगस्त 2014; कुल x+157 पृष्ठ। उपर्युक्त लेख इस पुस्तक के पृ॰ 96-101 में छपा है।

 


 

No comments: