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Saturday, September 12, 2009

5. मगही भासा : मानकता के कसउटी पर

लेखक - विनीत कुमार मिश्र 'अकेला'

जेकर माध्यम से अदमी अप्पन मन के विचार इया भाव दोसरा के बतला सके ऊ भासा कहलावऽ हे । मन में उठल भाव के हमनी दू तरह से बता सकऽ ही - एगो लिख के आउ दोसर बोल के । अइसे तो भासा के एगो आउ ढंग से भी व्यक्त कर सकऽ ही, जेकरा संकेत कहल जा हे । बाके ई विधा के प्रयोग बड़ी कम होवऽ हे । संसार में बहुते किसिम के भासा बोलल आउ लिखल जा हे । एही में से कुछ भासा अप्पन प्रचार-प्रसार आउ कार्यशैली से अन्तरराष्ट्रीय स्तर के पहचान बना लेवऽ हथ । अंग्रेजी, अरबी, हिन्दी आउ न जानी केतने भासा एकर उदाहरन हथ ।

सुरुआत में कोई भी भासा स्थानीय ही रहऽ हे । जब कोई भासा के स्थानीय स्तर पर लोग बोलऽ हथ त ओकरा बोली कहल जा हे । एकरे परिस्कृत आउ संसोधित करके भासा के रूप देवल जा हे । स्थान विशेष में ही कोई भी भासा के बोलल आउ समझल जा हे । भासा के ई विशेषता होवऽ हे कि ओकरा लिखे आउ बोले में एकरूपता पावल जा हे । कुछ-कुछ भासा अइसनो हथ जिनकर लिपि एक्के हे, बाकि लिखे आउ पढ़े के ढंग में अंतर रहऽ हे । अप्पन देश में हिन्दी के जइसन ही मगही, मैथिली आउ भोजपुरी भासा के लिपि भी देवनागरी हे, तइयो लिखे, पढ़े आउ बोले में मौलिक अंतर देखल जा सकऽ हे ।

जब कोई बोली भासा के रूप लेवे लगऽ हे, तब सबसे पहिले जरूरत पड़ऽ हे ओकरा क्षेत्र विशेष में जहाँ ऊ मूल रूप में बोलल जा हे, उहाँ एकरूपता लावे के । मानक भासा के रूप में कोई भी भासा अप्पन स्थान तबे बना पावऽ हे जब ऊ भासा के लेखन विधा में एकरूपता के समावेश होय । ऊ लेखन तबे स्तरीयता के पहचान करावत जब क्रियापद में मौलिक अंतर न पावल जाएत । हर भासा स्थान विशेष के टोन आउ बोली के ही निमन रूप होवऽ हे । बोली इया टोन के बारे में ई प्रसिद्ध उक्ति हे कि 'चार कोस पर पानी आउ आठ कोस पर बानी बदल जा हे' । ई चलते बिना एकरा में एकरूपता इया समानता लयले धड़ाधड़ साहित्य लेखन के काम जारी रखे से मूल स्वरूप के साथ खेलवाड़ हो जा हे । क्षेत्र-विशेष से ऊपर उठला पर भासा के पहचान में दिक्कत आवऽ हे । बाद के समय में भासाई आंदोलन चलावे आउ अप्पन मांग सरकारी महकमा के सामने रखे में भी परेशानी के सामना करे पड़ऽ हे ।

अब तनि ई संदर्भ में 'मगही भासा' के रख के देखल जाय । आज मगही भासी लोग एकरा संविधान के अठमा अनुसूची में दर्ज करावे लागी जी-तोड़ कोसिस कर रहलन हे । मगही क्षेत्र के हर मंच, हर सम्मेलन, हर मगही पत्रिका आउ हर रचनाकार के कलम से बस एही बात एतिघड़ी कहल आउ लिखल जा रहल हे । ई निमन बात हे, बाकि एकरा पर पहिले विचार करे पड़त । आज अगर कहीं पर भी कोई अदमी मगही भासा के एकरूपता के मुद्दा बनावल चाहलन जेकरा कि एतिघड़ी सख्त जरूरत हे, त ई कहके दबा देवे के कोरसिस करल जा हे कि अभी एकर कोई खास जरूरत न हे, समय अएला पर सब ठीक हो जाएत ।

अरे भाई ! जब सब समये से ठीक हो जाइत हल, तब ई मगही-भासा-आंदोलन के का जरूरत हल ? समय से सरकारो के नींद टूटत हल आउ मगही भासा अठमा अनुसूची में सामिल हो जाइत हल । तब कहबऽ कि ई कइसे संभव हे, बिना लगले-भिड़ले कोई काहे देत ? ठीक ओइसहीं समझऽ कि भासा के एकरूपता भी खाली समय पर टारे से न आवत, एकरो ला निमन नियम-कानून बनावे पड़त, जन जागरन करे पड़त । सम्मेलन, मंच आउ पत्र-पत्रिका, किताब आदि के माध्यम से बोल आउ लिख के लोग-बाग के बतावे पड़त । सुरू-सुरू में हर भासा के अइसन दिक्कत के सामना करे पड़ऽ हे । एकरा ला समाज के बुद्धिजीवी वर्ग, शिक्षाविद्, रंगकर्मी आउ क्षेत्र विसेस के सभे लोग के आगे आवे पड़त । खास करके साहित्यकार लोग के तो विसेस भूमिका निभावहीं पड़त । जब तक लेखन के शैली में समानता न आवत, मगही भासा असली रूप न पावत ।

अब प्रश्न ई उठऽ हे कि एकर मानक रूप का होवत, कइसन होवत ? ठीक प्रश्न हे । एकरा पर जादे बहस के जरूरत न हे । पहिले तो एकरा ला मगध क्षेत्र के सभे जिला स्तर पर गठित मगही संगठन के बैठक आयोजित करल जाए । ओकरा में विचार करके एगो निमन निर्णय लेवल जाए । पुनः एगो राज्यस्तरीय सभा में एकमत से क्षेत्र विसेस के बोली इया टोन के मानक मानल जाए । अइसे तो हम मगध क्षेत्र के लगभग सभे जगह पर गेली हे । कुछ भाग छूट भी रहल हे । हमरा देखे में पुरनका गया जिला (पच्छिम गया, जहानाबाद, दक्षिणी नवादा, पूर्वी पटना, उत्तरी औरंगाबाद, उत्तरी-पूर्वी अरवल) के भासा ही मूल मगही भासा के टोन इया बोली के सम्हारले हे । कारन, ई क्षेत्र मगध के केन्द्र में पड़ऽ हे । आज ई क्षेत्र विसेस के रचनाकारन के रचना अगर पढ़ल, समझल आउ मनन करल जाए तब मगही भासा के मानक रूप बनावे में कोई विसेस दिक्कत के सामना न करे पड़त ।
एकरा से ई अर्थ न लगावल जाए कि खाली एही क्षेत्र के लेखक स्तरीय लेखन करऽ हथ, दोसर देन्ने के न । एन्ने के लेखन में क्रियापद के निमन प्रयोग कैल जा हे । लोग-बाग से मिले के क्रम में ई विषय पर जब भी बातचीत होएल हे, सभे क्षेत्र के लोग स्वीकार कएलन हे कि जहानाबाद इया कहऽ पुरनका गया के भासा ही मूल मगही भासा हे ।

मगही भासा के मानक रूप बनावे ला सबसे पहिले सभे मगहियन भाई, रचनाकार लोग के गुटवाद, क्षेत्रवाद आउ टोन के संकीर्ण भावना से ऊपर उठ के सोचे पड़त । फिर अगर उपरोक्त सुनावल गेल विचार निमन बुझाय तब सभे बड़का-बड़का रचनाधर्मी भाषाविद् लोग एक जगह पर बइठ के मनन करथ । ई तरह से अस्सी प्रतिशत क्रियापद पुरनका गया क्षेत्र के आउ बीस प्रतिशत सीमान्त मगध क्षेत्र के टोन इया बोली मिला के मगही भासा के एगो मानक रूप बनावल जाए । फिर ओही मानक के मान के मगही भासा-साहित्य में रचना मगध के हर क्षेत्र से होय । ई तरह से अप्पन भासा के रचना एगो मानक साहित्य के रूप में दिखे लगत ।

आज बिहार सरकार इंटरमिडिएट आउ सभे विश्वविद्यालय में मगही के भासा के रूप में मान्यता दे देलक हे । आगे आवे ओला समय में मध्य आउ उच्च विद्यालय में भी एकर पढ़ाई होयत । अगर रचना के निमन न बनावल जाएत, अइसहीं खिचड़िया टोन में बनल रहत, त एकर भविस ठीक न दिखऽ हे । मगही क्षेत्र के ही अगर अलग-अलग स्थान के रचना देखीं, त लगबे न करत कि दुनहूँ एक्के भासा में लिखल गेल हे ।

मगध क्षेत्र से मगही भासा में मासिक पत्रिका के रूप में स्थापित 'अलका मागधी' जे चउदह बरिस से ऊपर के कार्यकाल पूरा कर लेलक हे, के लगतरिए प्रकाशन से भी मगही-साहित्य-लेखन में एकरूपता आएल हे । क्षेत्रीय भासा में एक सौ पैंसठ से जादे अंक निकल के एकर संपादक मौर्य जी एगो इतिहासो बना देलन मगही में । सुरुआत में संपादक जी रचना पर विशेष ध्यान न देवऽ हलन, खास करके क्रियापद पर । हो सकऽ हे कि प्रसिद्धि पएले रचनाकार के रचना में हेरफेर करे से घबरा होतन, जेकरा चलते जउन क्षेत्र के जइसन रचना आएल, छाप देलन । ई से पत्रिका पढ़े में पाठक लोग के क्षेत्रीय भासाई अंतर स्पष्ट बुझा हल । कोई भी भासा ला ई एगो सोचनीय विषय हे ।

बाद में पत्रिका में निखार आएल । संपादक अप्पन संपादकीय शक्ति के पहचानलन आउ ओइसने प्रयोग कएलन जइसन एक समय में हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी कएलन हल । जब पत्रिका में केनहूँ के रचना छपे, जादे अंतर न पावल जा हे । इहाँ पर हम ई कहल चाहम कि कोई भी रचना के मूल तो मूल हे, ओकरा में अंतर कइसे आवत ? अंतर तो बस क्रियापद में ही पावल जा हे । हमनी सब रचनाकार बन्धु क्रियापद में ही एकरूपता लाईं । अब तो नयकन रचनाकार चाहे ऊ केनहूँ के रहथ, के रचना में जादे अंतर देखे में न आवे ।

ई तरह से आज हर स्तर पर भासाई टोन के अंतर मेटावे के जरूरत हे । भासा तबे परिस्कृत हो के अप्पन असली स्वरूप प्राप्त करत जब लेखन शैली में एकरूपता दिखत । पत्र-पत्रिका जहाँ से भी निकले ओकर भासा शैली इया टोन एक्के रहे के चाहीं । बाहरी लोग के बात छोड़ऽ, स्थानीय लोग भी जब मगही भासा के अलग-अलग पत्रिका, जइसे - अलका मागधी, बिहान, सारथी, टोला-टाटी, मगधभूमि आदि देखतन आउ पयतन कि ई पत्रिका के शैली अइसन आउ ओकर ओइसन हे, तब बिना चक्कर में पड़ले न रहतन ।

भासा के स्तर पर सरकार से मान्यता लेवे के पहिले ई विषय पर गम्भीर मनन के आवश्यकता हे । तबे हम्मर ई मगही आंदोलन सफल होएत । अगर ई स्तर पर मगही भासा एक हो के मजबूत दिखाई देवे लगत, तब हमनी के आगे बढ़े, अप्पन अधिकार के पावे से फिर कोई न वंचित कर सकऽ हे ।

--- अलका मागधी, बरिस-१५, अंक-५, मई २००९, पृ॰ ५-७ से साभार

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