लेखक - पवन तनय, मुंगिला, शंकर इमामगंज, पटना
मगही साहित्य में कुछ साहित्यकार लोग ई विचारधारा के पालन करऽ हथ कि हम जइसे बोलऽ ही, ओइसहीं लिखऽ ही । ई सही हे कि अपभ्रंश भी साहित्य में एगो स्थान लेले हे । बाकि एकर प्रयोग बड़ी सावधानी से करे के जरूरत हे । एगो उदाहरण देखल जाय -
'अत्याचार' शब्द के जगह पर 'अतिआचार' शब्द के प्रयोग कहाँ तक उचित हे ? 'अत्याचार' शब्द नकारात्मक भाव लेले शब्द हे, त 'अतिआचार' सकारात्मक भाव लेले । एगो कविता में एकर प्रयोग से होएल भाव परिवर्तन के देखल जाय -
पेट में के लड़की गोहार करऽ हे,
काहे लोगवा हमरा पर अतिआचार करऽ हे ।
ओइसहीं 'शाला' के जगह 'साला', 'शंकर' के जगह 'संकर', 'प्रकृति' के जगह 'परकिरती', 'षट' (छह) के जगह 'सट' न खाली भाव परिवर्तन कर देहे बलुक हास्यास्पद स्थिति भी उत्पन्न कर देहे ।
जरूरत ई बात के हे कि हिन्दी के शब्द के तोड़-मरोड़ के जबरदस्ती मगही में न ढुकावल जाय । मगही के मूल शब्द के प्रयोग हिन्दी भाषा में कैल जाय, जइसे रेणु जी 'मैला आँचल' में मैथिली, राही मासूम रजा 'आधा गाँव' में भोजपुरी आउ श्रीलाल शुक्ल 'राग दरबारी' में पंजाबी शब्द के प्रयोग कैलन हे । ई लोग के प्रयास से ई सब आंचलिक भाषा राष्ट्रीय आउ अन्तरराष्ट्रीय साहित्य में अप्पन जगह बनावे में सफल होयल हे ।
मगही में भी अइसन कृति के जरूरत हे, जे हिन्दी पाठक के हाथ में अयला पर अप्पन मूल्य बनयले रहे । मगह क्षेत्र के हिन्दी आउ मगही पाठक दू न हथ । जेकरा साहित्य में रुचि हे, ऊ मगही के साथे-साथे हिन्दी के भी पाठक हे । ई में दू राय न हे कि मगही के तुलना में हिन्दी पाठक के नेटवर्क काफी विशाल हे । एही से हम ई कहम कि 'जे बोलीं से लिखीं' वला सिद्धांत के प्रयोग के छूट उहाँ तक होवे के चाही, जहाँ तक अइसन शब्द के प्रयोग से अर्थ के अनर्थ न हो जाय । एही से अइसन प्रयोग में बहुत अधिक सावधानी के जरूरत हे ।
अन्त में तो हम एही कहम कि जहाँ तक हो सके अइसन शब्द के प्रयोग हिन्दी रूप में ही कैल जाय । ई से हिन्दी आउ मगही दुन्नो बरियार होयत आउ एगो सच्चा मगधवासी भारतीय होवे के नाते हमनी के एही कर्तव्य भी होवे के चाही । हम अप्पन विचार पर अपन लोग के प्रतिक्रिया चाहम ।
[मगही मासिक पत्रिका ‘अलका मागधी’, बरिस-१०, अंक-१०, अक्टूबर २००४, पृ॰२० से साभार । ‘अलका मागधी’ में 'मगही भासा के विकास में एगो बाधा' शीर्षक से प्रकाशित ।]
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