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Thursday, February 17, 2011

20. सीपी

कहानीकार - राजेन्द्र कुमार यौधेय

सीपी के माए दाँओ-दाँओ करित रहे हे - 'एन्ने-ओन्ने अकसरे मत जाल कर ! जमाना खराब हे, सगर लुच्चा-लफंगा चक्कर मारित रहे हे ।'

बाकि ओकरा पर असर न पड़ल माए के चाँप के । घर के अँगाड़ी के बँसवारी भिजुन के परती जमीन पर घंटो बइठल रहत बेमतलब । जे ओकरा देखे हे सेई अकचका जाहे । अइसने सुत्थर हल फिन ऊ । बड़गो-बड़गो आँख, पतरा ठोर, गोरा-चिट्टा रंग, भरल गदराएल देह परी जगत लगऽ हल । साँझ के महतो के बइठका में जुआन लोग के जमएकड़ा जुटे हे तो ओकर चर्चा छिड़े हे । लोग कहे हे - 'एकर बिआह में तिलक के जरूरत न होतइ ।'

एक दिन सीपी के कान में बात आल कि ओकर बिआह ठीक करे ला ओकर बाबा घूम रहलन हे । दुपहर के बेरा हल, ठार के दिन । ऊ बँसवारी भिजुन जाके बइठल हल । घरे से माए के काने के अवाज आल त धरफड़ाल चलल, ओकर करेजा धक-धक कर रहल हल । जनु बाबा फिनो माए पर हाथ छोड़ देलन । पहिले तो ऊ अइसन न हलथिन ?

अब ऊ अप्पन घर के आँगन में ठार हल । ओकर माए ओसरा में बइठ के पिपकारित हल । पड़ोस के रुकमिन फुआ आके समझावे लगलन ओकर माए के - 'काहे ला तूँ टोक-टाक करऽ हहु भउजी ? घर में कारज नधाइत हवऽ, झगड़ा-झंझट करबऽ त दुनिया जहान में हिनसतई होतवऽ । केकर-केकर मुँह बन्द करबऽ । लोग कहतवऽ कि बिआह के खरचा लेके पितपिताएल हे । कारज भर मुँह सी के रहे पड़तवऽ ।'

ओकर माए चुप हो गेल । अँचरा से लोर पोंछ के बोलल - 'कहाँ ले अँगजूँ ? सहहूँ के एगो हद होवे हे ।'

रुकमिन फुआ न ठहरलन । जइते-जइते कहलन - 'हमरा जे बुझाल से कहली ।'

रुकमिन फुआ गाँव-जेवार में बदनाम हथ । लोग किसिम-किसिम के अछरंग लगावे हे उनका पर । एन्ने दस बरिस से गाँओ में बँटवारा के जुआर आल हे, पत बरिस दस-पाँच घर में बँटवारा होवे हे आउ हर बँटवारा के मूल में रुकमिन फुआ के हाथ मानल जाहे । पत बरिस गाँओ में भागा-भागी के दू-चार गो घटना होवे हे आउ हमेशा ओकरा ला रुकमिन फुआ के बदनाम कएल जाहे । पढ़े (? परहे) एगो मेढ़ानू अप्पन परेमी सँगे भागल हे आउ अभी ले ओकर अता-पता तक न हे । लोग कहऽ हथ कि ओहू रुकमिन फुआ के करतूत हे । भगमाने बता सकऽ हथ कि सच्चाई का हे ? बाकि दिन भर उनका हीं गाँव के मेढ़ानू के भीड़े लगल रहे हे ।

सीपी घरे न विनमल । फिनो बँसवरिये में पहुँच गेल । लइकन के गोली खेलते हलक से कहूँ चल गेल हल, से ऊ टुंगना लेके भुइयाँ पर डील घीचे लगल, फिनों विचार के दुनिया में भटक गेल ... ।

तिलक असमान ठेक रहल हे । पढ़साल (? परसाल) जौन-जौन आदमी बेटी बिआहलक तौन-तौन अप्पन दू बिगहा चार बिगहा खेत बेचलक, तब कहूँ दहेज के पइसा जुटा सकल । जे खेत न बेचलक से कहूँ से करजा लेलक । आउ खरचा से पीसमान होके रहल अब ओकनी के टनटनाये में जमाना लगतई ...।

सीपी चिन्ता में डूबल रहलक । साँझ के रुकमिन फुआ से गल्ली में भेंट होल त जानलक कि ओकर बिआह पूरे एक लाख पन्द्रह हजार में ठीक होल हे । वर कउलेज में पढ़ऽ हे ।

एक रोज खबर आयल कि लड़का अड़ल हे कि लड़की के फोटो देखले बेगर बिआह न हो सकऽ हे, से बाबा के साथे सीपी सहर गेल । ओकर फोटो घींचावल गेल । एक हप्ता के बाद फोटो आयल । फोटो लेके बाबा अपनहीं गेलन । घूर के अयलन तो मालूम भेल कि बिआह टूटते-टूटते रुक गेल हे । दूसर जगह के अदमी दू लाख तिल्लक देवे ला तइयार हे । घर के अदमी तो लोभ में आ गेलन हल । बाकि लड़का फोटो देख के कहलक कि हम बिआह करम त सीपीये से करम । से बात टूटते-टूटते बच गेल ।

तिलक के तइआरी शुरू हो गेल, बाबा पाले एगो कानी कौड़ी न हल । पूरा दस बिगहा खेत बेचे के बात शुरू हो गेल । माए एक रोज फिर अड़ंगा डाललन - 'एतना खेत बेच के बिआह करबऽ त फिनो खइबऽ पीबऽ का ? केकरो हीं हरवाही करबऽ ?'

जवाब में बाबा फिन हाथ छोड़लन आउ माए जार-बेजार रोवे लगलन । तखनी सीपी घरहीं हल । डबडबायल आँख लेले ऊ रुकमिन फुआ हीं जाके कहलक - 'ए फुआ ! अब हम ई तय कइलीवऽ हे कि एन्ने के सूरज चाहे ओन्ने हो जाय बाकि हम बिआह नऽ करम ।' ओकरा घिग्घी बँध गेल ।

फुआ कहलन - 'कइसन बात बोल रहले हें ? कहीं होलई हे अइसन बात ? हँ, यदि हुआँ नऽ करे ला चाहऽ हें त दूसरा जगह खोजे के चाहइन । कह तो हम जाके कह दीं । जानबे करऽ हें कि हम एही से गाँ-जेवार में खट्टा रहऽ ही । लोग घरफोरनी आउ कुटनी कहे में बाज न आवऽ हथ ।'

सीपी खाली रोवइत रहल । कुछ देर रुक के फुआ कहलन - 'हम जइते ही तोर बाबा के कहे कि दूसर जगुन लइका ढूँढ़तन । दुनिया में लइका के कोंकरा नऽ खइले हइ । बाकि तूँ ई तो बताव कि का बात लेके तूँ ऊ लइका के कट्टिस कर रहलहीं हे ?'

सीपी कहलक - 'सब खेत-बारी बेच-खोंच के घर भर भीख माँगे, अइसन बिआह काहे ला करत ?'

सीपी हुआँ से लौट के बँसवारी देने गेल आउ बइठ के देरी ले सिसकइत रहल । घड़ी दू घड़ी के बाद घरे आल । घरे टोला पड़ोस के मेढ़ारू (मेहरारू) सब के भीड़ लगल हल । जेकरा जे बुझाइत हल कहइत हल । फुआ हुआँ पर न हलन । माए कहलन - 'फुए बुनिया के बहकइले हथ । एक्के गो उनकर धन्धे हे । जहाँ कोई कुनूस देखलन कि उसका देलन ।'

कहे के तो माय कह देलन बाकि फिनो एकबैग चुप हो गेलन । तनि देर के बाद कहलन - 'समझावे-बुझावे से बुनिया फिन रहता पर आ जायत । बाकि कहूँ ई सब बात के भनक वर के माय-बाप के मिल गेल तो फिन एगो नया समस्या पैदा हो जायत ।'

तिलक भेजे के तइयारी पूरा हो चुकल हल । लड़का के कपड़ा सब तइआर होके आ चुकल हल । सीपी बँसवारी में जाके अकेले बइठल हल । लोग देरी करना उचित न समझलन । बाबा लाव-लसगर के साथ सब समान लेके बहरइलन । बँसवारी से सीपी देखलक कि लोग तिलक के समान लेके जा रहलन हे । ऊ तनि झपट के घरे पहुँचल आउ बाबा के अँगारी में जाके ठार हो गेल । बोललक - 'हम बिआह न करम । यदि जबरदस्ती होत त जान हत देम ।'

सीपी जिद धइले रहल - 'खेत न बिकत न रेहन होत । अगर खेत बिकत तो कोई कोटिम किल्ला करत, तइयो हम बिआह न करम ।'

अब का हो सकऽ हल ? जब ओकर बाबा देखलन कि समझाहूँ-बुझाहूँ से सीपिया अप्पन जिद से टस से मस नऽ हो रहल हे, त ऊ अपने जाके वर के माए-बाप से कह देलन ।

दू दिन के बाद खबर आयल कि लड़का बिना तिलको के बिआह करे ला तइआर हे । बलुक ऊ जिद धइले हई कि बिआह करम त एही लड़की से । यदि पहिले हमरा मालुम हो जाइत हल कि लड़की एत्ता सुत्थर हे तो तिलक के माँगे न करती हल ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-६, जून १९९८, पृ॰७-९ से साभार]

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