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Saturday, April 16, 2011

15. 'हराई' से मुक्ति दिलावेवला भुखलू महतो


लघुकथाकार - नवल किशोर सिंह, रानीपुर, फुलवारी शरीफ, पटना

चढ़ते अषाढ़ बरसात के पहिला पानी पड़ गेल । बरखा जे शुरू भेल त रात भर बरसल । पानी ला खखायल खेत के तरास मेटल आउ फटल दरारो मेट गेल । भुखलू महतो दिन में दू दफे खेत में घूम के देखलन । बिहान खेत में फरहरी जोते ला मनसूबा बना के साँझ के दुन्नो बैलन के मन से खिअयलन ।

भोरहीं डुगडुग्गी पिटा गेल कि आज जमीन्दार के खेत में 'हराई' जोताएत । महतो के मन चिड़चिड़ा गेल । मने-मन चार गो घिनायल गारी देलन । ई कहाँ के नेयाव हे कि पहिला पानी पड़ला पर जमीन्दार के खेत में एक दिन बिना मजदूरी के हर जोते पड़त । भुखलू के ई बात कहियो पसन्द न पड़ल, बाकि हरेक साल विरोध करे ला सोच के भी ऊ परम्परा निभावित जाइत हलन ।

जमीन्दार के ई शोषण के खिलाफ अवाज उठावे ला मन बनाके घर से बाहर निकललन । फिन ई सोच के अँगना में लउट गेलन कि झंझट करे से का फायदा ? चुपचाप हर-बैल लेके अप्पन खेत में सोझ हो गेलन । संजोग के बात कि जमीन्दार सिंह जी ओनहीं से चलल आवित हलन ।

भुखलू के देख के उनकर पारा गरम हो गेल - 'काहे हो ? हम्मर खेत पच्छिम भर हे, तूँ उत्तर काहे जाइत हें ? चल, घुमाव बैलन के पच्छिम !'

'मालिक ! बात अइसन हे कि ऊँचगर होवे के चलते हम्मर खेत में पानी न टिके । कड़कड़ा के धूपा उगल हे से देखतहीं ही अपने । दिन भर में सूख गेला पर फरहरी न जोतायत । एही से सोचली कि हम अप्पन खेत आज जोत लीं । अपने के खेतन में तो गाँव भर के हर चलवे करत । एगो खाली हम्मर हर न चले से अपने के कोई नुकसान न होयत ।'

जमीन्दार सोचलन कि बात तो ई ठीके कहइत हे बाकि आज एगो ई 'हराई' न देत, देखा-देखी बिहान दोसर किसान भी कोई न कोई बहाना बनैतन । एहि से ऊ कड़क के बोललन - 'चल, घुमाव बैल ! बदमाशी करे से काम न चलतउ ।'

भुखलू हाथ जोड़ के विनती करे लगल, तइयो सिंह जी न मानलन आउ जबरदस्ती बैलन के उत्तर देन्ने हाँके लगलन । भुखलू अरउआ से पच्छिम हाँकथ आउ सिंह जी उत्तर । अचानक भुखलू के दिमाग में ई बात घूम गेल कि आज न त फिन कहियो नऽ मिलत मौका । इनकर बड़ाहिल भी कोई न हथ इहाँ । एतना सोचइते ओकर अरउआ बैल पर से घूम के सिंह जी के पीठ पर पड़े लगल ।

चार-पाँच अरउआ तड़ातड़ लगला पर सिंह जी उहाँ से भाग चललन । तहलका मच गेल । अजादी के पहिले के ई घटना के पात्र लोग आज जीवित न हथ, तइयो 'हराई' से मुक्ति दिलावेवला भुखलू महतो के नाम आजो ले हथ लोग ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-५, अंक-७, जुलाई १९९९, पृ॰१३ से साभार । मूल शीर्षक - 'हराई' ]

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