आपीप॰ = "आन्हर पीड़ा" (मगही कहानी संग्रह), कहानीकार - परमेश्वरी; प्रकाशक - अखिल मगही मंडप, लखीसराय-811311; प्रथम संस्करण – मार्च-अप्रील 2004 ई॰; VI + 121 पृष्ठ । मूल्य – 50 रुपइया ।
देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।
कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 1053
ई कहानी संग्रह में कुल 15 कहानी हइ ।
क्रम सं॰ | विषय-सूची | पृष्ठ |
0. | समर्पण | III-III |
0. | निहारऽ हमरो ओरिया | IV-V |
0. | अनुक्रमणिका | VI |
| | |
1. | आन्हर पीड़ा | 1-5 |
2. | मैया भारती | 6-11 |
3. | औरत | 12-21 |
| | |
4. | अपराधी के ? | 22-30 |
5. | लहास के सौदा | 31-42 |
6. | असमिरती | 43-59 |
| | |
7. | नौकरी के चक्कर | 60-65 |
8. | नगर भोज | 66-72 |
9. | अनाड़ी | 73-80 |
| | |
10. | बँसिया | 81-85 |
11. | नौकरियाहा दुल्हा | 86-93 |
12. | बालाजीत | 94-97 |
| | |
13. | धार-साज | 98-101 |
14. | सावा मन लड्डू | 102-111 |
15. | ऑपिस के चक्कर | 112-121 |
ठेठ मगही शब्द ("ब" से "ह" तक):
712 बँसविट्टी (बुन्देला चा कहलखिन - कि ई अवजवा ? हम तो देखलियै हे । जंगल देश के बड़ी सुन्नर नर-मेघी दू चिराँय हइ । अऽ जोट्टे बोलऽ हइ । वह बँसविटिया में ।; पीयर-पीयर चमकदार जैसे सोना के पाँखि होय । मथवा पर ललका गुलाब के फूल नियर, पुछिया झवरल उज्जर चौर नियर । देखइ के चाही, देखइ जुकुर हे, बकि के जा हइ एते ठंढा में बँसविट्टी ...।; मोहना सुर ताल-राग बदलै ले मन में कुछ गीत गुनगुनावो लगलइ ! इहे बीच छोऊँड़ी के मन में कुछ सरारत सूझलइ । मचना के खंभा पकड़ि को खूब झमोर के तेजी से भाग गेलइ, अन्हार कुप्प बँसविट्टी में !) (आपीप॰82.4, 9, 24)
713 बंस-खूट (पंच लोग के बात सुन के बुधना के मन ढेंऊँसा बेंग ऐसन फूल गेल । पहाड़ी नदी जइसन उफनल जाय । एक बेरी तरे से बबकि को बोललइ - जब तोर कुले महान आदमी के आर बंस-खूट के इहे हिन्छा हो, तऽ होवो दा नगर भोजे सही ।) (आपीप॰66.18)
714 बइठारी (= निठल्लापन, काम या रोजगार का अभाव, आराम करने का समय) (आदमी कइसहूँ कइसहूँ रिलिफ वाला गहूम मिलो, दान वाला खिचड़ी, कोतरी मछली के पका-पका खा के जान पाल रहल हे । गहूम कि मिलऽ हलइ ... बुझिहा वघ आधार । जान माघे जान उहे मछलिया, जेकरा वंसी में बझा के जाल से पकड़ के बइठारी में पका पका खइलक ।) (आपीप॰1.24)
715 बक (~ दनी) (सोहगी अपना के ओकर पंजा से मुक्त हो को भागइ के कोरसिस कैलकइ । बकि मरद के पंजा में कसमसाल जवानी भरल-पूरल छटपटाइत ... औरत के उहे मरद छोड़ सकऽ हे जे नामरद होतइ ! नञ छोड़लकइ ! एतने में बुन्देला चा ओने से जुम गेलखिन ! कहलखिन - इहे पढ़ाइ एजो चलऽ हे हो ! रसलीला । छउँड़ा बक दनी छोड़ देलकइ । छोउँड़ी काठ हो गेलइ । जइसैं के तइसैं ! नै हिलइ नै डोलइ ! मुड़िया गोतने जस के तस !) (आपीप॰84.16)
716 बकलोल (जब बप्पे कहलकइ - लड़े ने भोम्हा ! बजड़ जइवें तऽ बजड़िये सही ! जन्नी हिखीं जे चूड़ी फूटतइ ? बकलोलवा । लड़ गेलइ । पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ !) (आपीप॰76.15)
717 बकि (= बाकि; लेकिन) (भोला सुनलक - सिधेसर मिनिस्टर हो गेला ! मारे खुशी के पाँचो नाँच उठल । जेल में मिठाय बाँटलक । बकि जेल से छुटइ के कोय उपाय नै ! एकरा बहुत उमेद हल ! बकि मिनिस्टर साहब ! घुरि को देखइ ले भी नै ऐलखिन ।) (आपीप॰64.1)
718 बगैचा (= बगइचा; बगीचा) (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग ! बगैचा में आम ! कच्चा से पाकल तक । जते खा । अँचार बनावो । बैना बुलावो । जे जी में आवो करो ।) (आपीप॰91.16)
719 बघौंछ (बाघ के ~) (ई पीठ पोछो लगलखिन । ऊ मुसका देलकइ । हिनकर मन बढ़ गेलइ । वहाँ हाथ लगा देलखिन जहाँ नञ लगावइ के चाही ... ऊ कानो लगलइ ! खोपड़ा से बाहर आ गेलइ । कानले घर गेलइ ! ई तो जैसे बाघ के बघौंछ लग गेल रहे ! चुपचाप ओजइ रह गेलखिन !) (आपीप॰107.15)
720 बजड़ना (प्रे॰क्रि॰ बजाड़ना) (जब बप्पे कहलकइ - लड़े ने भोम्हा ! बजड़ जइवें तऽ बजड़िये सही ! जन्नी हिखीं जे चूड़ी फूटतइ ? बकलोलवा । लड़ गेलइ । पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ !; महेश एक बार सन्न हो गेलइ ! पाँच हजार ! तीन हजार तो ओकर रेट हलइ । बह बजार खुरा डोभ ! तऽ ? .. जाफरी साहब कहलखिन - साला ! ई परमोटी है । रिटायर एज में है । पैसे का जनमा है ! समझता है लूट का माल है, जबकि है ई कर्ज ! लौटाना पड़ेगा सूद के साथ ! तो भी मूड़ी पर मूड़ी बजड़ रहा है ।) (आपीप॰76.14, 15; 119.13)
721 बजड़ा (आझ कहलकइ - सीतो ! बान्ह नगौटा ! तनी कुश्ती खेला दियौ । दुओ कुश्ती लड़ो लगलइ । सितिया बल तो करइ, मुदा सौखवा के साथ कि थम्हते हल ! तुरत चित्त करि को छतिया ठोकि दै । ... सितिया के अंतिम बजड़ा में कुछ चोट आ गेलइ या नाटक हलइ ? भगवान जाने !) (आपीप॰78.19)
722 बजाड़ना (जरूर ई बढ़िया भूत हइ । मारइ के रहते हल तब मचान डोलाबइ के कि काम हलइ ? ई मजाक करइ के कि जरूरत, तब तो सीधे हमरा मचने पर से उठा के बजाड़ देते हल ! या हमरा देह में समा जइते हल !; मोहना के आँख में आँसू आ गेलइ । टप-टप चूअऽ लगलइ । चाचा के गोड़ पर गिर पड़लइ ! माँफ करहो काका ! अब बँसिया नञ बजइवइ । अऽ माटी उरेहि को बनायल बँसिया मचान के खंभा पर बजाड़ देलकइ । ऊ चुन्नी-चुन्नी हो गेलइ ।; उठा को हाजी साहब के सरंग गोलो कुरसिया पर फेंकि देलखिन । मथवा फूटि गेलइ ! गोड़ा हाँथा में मोच आ गेलइ ! ई भागला गेटवे दने से दू सिपाही घेरलकइ डण्टा पाटी । एगो के उठा को मुड़िये भार बजाड़ि देलखिन । मुड़िया फूटि गेलइ ।) (आपीप॰83.12; 85.3; 121.7)
723 बजार (= बाजार) (धन्नु चा जैसे चिढ़ावइ ले आझ बैठलखिन हल ! मुसुका को कहलखिन - पपुआ माय ! एकाह दिन जो बजार जा हियै - से मे तो बजार के कत्ते लोग जे नहियों चिन्हऽ हइ सेहो, परनाम पहलवान जी ! राम राम खलीफा जी ! अहो, हम मामूली हियै ? दशा-दिशा नर पूजिता !; आँय हो, ऊ कत्ते लेतइ ? धन्नू चा पूछलखिन । महेश कहलकइ - अच्छे, इहो बात पूछि लेल्हो । ओकर बान्हल हइ - बह बजार तीन हजार ! तब जाफरी साहेब ! अच्छे आदमी हइ । तीन हजार एक मुश्त ले लेला के बाद, तोरा दौड़इ धूपइ के कोय काम नञ । सारा काम ऊ करा को रखतो । जे डेट देतो, से पर जइभो, दसखत करबइतो, रूपइया तोहरा देतो । मगर अप्पन घूस पहिले ले लेतो !) (आपीप॰112.12; 117.23)
724 बज्जड़ (जे किसान के भैंस बलगर अऽ गेरगर हलइ से लछरि-लछरि चौतार मारइ । ई साल के हूर वाला पाहुर के लेधड़ी, सौखवे के भैंस छिरियैलकइ । जे किसान के गाय चाहे भैंस पाहुर देखते भाग जाय, से किसान के मरग बुझो । ओकरा लगल जैसे माथा पर अस्सी चोट के बज्जड़ गिर गेलइ । जेकर भैंसि हूर ले लेलक, से भैंस गोरखिया के मन आसमान छू लिये, देह एक बित्ता उँच हो जाय !; देखहीं हमरा बाबू कहऽ हथिन ! बेटा, अब गाय बराहमन के सत कलजुग में उठि गेलइ ! नै उ देवी, नै उ कराह, नै तहियौका बराहमन जिनका मुँह से आगि निकलै हल । नै उ गाय अमरित दै वाली, जे दूध देह के बज्जड़ बना दिये ।) (आपीप॰75.19; 79.8)
725 बझाना (आदमी कइसहूँ कइसहूँ रिलिफ वाला गहूम मिलो, दान वाला खिचड़ी, कोतरी मछली के पका-पका खा के जान पाल रहल हे । गहूम कि मिलऽ हलइ ... बुझिहा वघ आधार । जान माघे जान उहे मछलिया, जेकरा वंसी में बझा के जाल से पकड़ के बइठारी में पका पका खइलक ।; ऊ बुढ़िया हिकइ दलाल, फुसलौनी माय, गहकी बझा को लावऽ हइ । उहे आमदनी से ई चलि रहलइ हे । आर कि कुछ रोजी-रोजगार हइ ? कि खेती ?) (आपीप॰1.24; 10.7)
726 बटैया (= बटइया) (तोरा टीवेल भिजुन खेत हइयै हो । ओजौका दू बीघा खेत टेबि को जेकरा जिमा नया माल हइ, ओकरा बटैया दे देहो । कड़ैती नञ, कसरैती नञ, कंजूसी नञ, हिसाब-किताब नञ । दुलार करहीं, पोछैत-पाछैत मुँह खाय, आँखि लजाय ! राजी हो जइतइ । जब तक नया हइ, रहतइ, पुरान होतइ, घर जायत । आर कि ?) (आपीप॰104.16)
727 बड़ (= बड़ा, बहुत) (बड़ा मेहनत से मिल गेल करमचारी ! ओकर बाप भी हिनका पसीन कैलक । हिनकरो मन डूब गेल । खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी ! बाप चालू-पुरजा, घर पक्का-पोस्त, खाय-पीये में ठोस ! छोट घास-दाना में बड़ बढ़ियाँ ।; मनोज बाबू पूछलखिन - बड़ छउँड़ी हइ कि छउँड़ा ? - छउँड़ी पहिलूठ हो कि । लगले दू बरीस बाद छउँड़ा भेलो । छउँड़ी के यह पनरहवाँ बीत के सोलहवाँ चढ़लो हे ।) (आपीप॰87.22; 105.5)
728 बड़का (कि जने कि होत ? आखिर होय बिहान, होय बिहान, चिट्ठी लिखलकी - मैया जी, सादर परनाम । बाबू के ! भैया के ! दीदी के ! गोड़ लागी । सब बड़कन, जेठकन, छोटकन के पाँय लागी । हाल यहाँ के भगवान भरोसे !) (आपीप॰101.3)
729 बड़गर (पाठक के बात छोड़ दा तऽ हमरा खुद अचरज भेल: दरोगइ करइ वाला कठोर करमी, अन्दर से एतना कोमल ! साहित परेमी ! भला, एकरा से बड़गर अचरज की हो सके है ?; सोचऽ लगल - अब एकर बाप के बनतइ ? नवीन पाण्डेय - बड़गर होला के बाद ई पाँड़े पूत कहलायत । मुदा ! ई पाँड़े के तो हइ नञ ।; अब तोर कुल के फर्ज बनऽ हौ, हमरा कोय रख ले । अब हमरा नियर बच्चा वाली के के रखतइ ? अऽ हमर एतना बड़गर जिनगी इ बच्चा के साथ कैसे कटतइ ? तोंहीं बताव ?) (आपीप॰III.10; 43.12; 45.25)
730 बड़गो (= बड़गर; बड़ा) (एतना से हम खुद सन्तुष्ट नञ ही, तों कने से सन्तुष्ट भेल होवा ? ई विषय गंभीर आव बड़गो है । हमरा पास ओत्ते लिखइ ले ई किताब में जगह नञ है ।) (आपीप॰V.26)
731 बड़ाय (= बड़ाई) (जे बड़ाय करें तो ऐसन । यहाँ तोर बाप, हमरा बाप के गोड़ पर जनौआ धर के कहलखुन । अब जनौआ के लाज तोहरे जिमा । तब जाको कहैं हमरे तोरे जूड़ा बन्हन भेल । लछमी अइली हमरा घर । तोरा अर छोटहा खनदान मानऽ हलखिन हमर बाप !; महेश जइते सलाम ठोकलकइ - परनाम इनरदेव बाबू । काल्हु हिनखरा काहे घुरा देलहुन । ला दरखास । काम करि दहो । तों तो सब तरह के भार भुँजइ वाला आदमी हा, तब ? तोर तो सगरे बड़ाय होवे हे, सेहे कुरोधि गेल्हो ।) (आपीप॰113.17; 117.3)
732 बढ़ियाँ (= बढ़िया) (भोला हुनका गाँव-घर के भतीजा लगइ हन । पढ़ाई में बढ़ियाँ, देखइ में सुन्नर । गनौरी चा के सेवा में लगल !; कहलखिन - जा देलियो ! तनी नीक से खेती करिहा, जे दू पैसा तोरो होय ! आर हमरो ! समरी माय कहलकइ - लसर-फुसर कैला से कि फायदा ! बढ़ियाँ से करवइ कि !) (आपीप॰61.7; 105.10)
733 बतसना (= हवा लगने से रोग का बढ़ना; उमंग में आना; खुली हवा में या बंधन से छूटने पर उछलना-कूदना) (फुलवा के वहाँ ले गेलइ हल सरकारी नाव पर चढ़ा के, बरसा के दो रस्सा बेयार ... तरो पानी ... उपरो पानी ... ! फुलवा बतस गेलइ । राहत कैम्प में पहुँचलइ तऽ ओकरा देखताहर डाकदर पर डाकदर !) (आपीप॰2.4)
734 बतिया (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग !) (आपीप॰91.14)
735 बतियाना (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।) (आपीप॰6.8)
736 बन्धुक (= बन्हुक; बन्दूक) (सिपाही त्यौरी चढ़ा के, डपट के बोलल - सारी ! जा हँ कि नञ ? मारि डण्टा के चूतड़ गरम कर देवौ । असमिरती बोलल - चूतड़ तो तों बहुत दिन हमर गरम कइलें । अब डण्टा से काम नञ चलतौ । बन्धुक तो हाथ में हइये हौ । गोली ओकरा में नञ हौ कि ? ले हमरा सीना में गोली दाग दे । अब तोरे हाथ से तोरा सामने मरना हौ ।) (आपीप॰45.1)
737 बन्धूक (= बन्हूक; बन्दूक) (बूथ पर जाको वोट छापो लगलई - परजाइडिंग अपीसर से वोट वाला गड्डी छीन के ठप्पा मारऽ लगलई । तब तक गाँव में गदाल हो गेलइ । गनौरी चा के समरथक लाठी-पैना, भाला-बरछी से जुटलई ! एकरा जिमा में बन्धूक पिसतौल हलई ।) (आपीप॰63.15)
738 बबकना (पंच लोग के बात सुन के बुधना के मन ढेंऊँसा बेंग ऐसन फूल गेल । पहाड़ी नदी जइसन उफनल जाय । एक बेरी तरे से बबकि को बोललइ - जब तोर कुले महान आदमी के आर बंस-खूट के इहे हिन्छा हो, तऽ होवो दा नगर भोजे सही ।) (आपीप॰66.17)
739 बम-बखेड़ा (लोग कहलकइ - कोय बनिया के बेटी हलइ - जवान । ओकरे गुण्डा राते बलात्कार कर के गंगा में फेंक देलकइ ! ओकरे लेको सड़क जाम हइ । चिकुलिया कहलकइ - उहे लहसवा हिको । अग्गे मइयो रे ! पैसा कमाय के बुद्धि देखो । चलो हमर लहसवा हम छिन लेवइ । सूपन कहलकइ - ऊ लहसवा कने से रहतइ पगली । बनिया ले जइतइ लहास ? चलें हम्मर घाट सूना हे । छोड़ें इ सब बम-बखेड़ा ।) (आपीप॰36.10)
740 बर (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.4)
741 बरतुहार (शुरूह में बरतुहार अइलइ - मुदा साफ जबाब दे देलखिन । हमरा सोना सन दू बेटा ! आँखि में पाँखि । बियाह करि को एकरा फाँसी चढ़ा दिये ? खिला-पिला के बिदा करि देथिन ।) (आपीप॰102.19)
742 बरतुहारी (पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ? पपुआ माय तिरछी नजर से धन्नू चा के देखैत मुसकावैत मूड़ी नचा के कहलकइ - तऽब ! हमर बाप पाँच बरीस बरतुहारी कैलका । घर मिलल तब वर नञ, वर तब घर पसीन नञ ! दुओ आँख के सूरदास ! चौपठ ! यह मुरूख दमाद कोहबर में गोड़ लगैलका पहलमान जी ! कैसन पहलवान होथि, से हम जानऽ ही । बेटी भोगऽ हियन । ढेर बुधगर रहे से तीन ठमा माँखे ।) (आपीप॰113.13)
743 बरना (बौल ~; जरनी ~; नोचनी ~) (धन्नू चा कहलखिन - हे जाफरी बाबू, निहोरा करऽ हियो । ओतना में काम बना दहो । अब हमरा कोय उपाहि नञ हो सरकार ! हाजी साहब कहलखिन - कोइ सूरत नहीं है कि बिना दो हजार दिये आपका पैसा निकलेगा । जो दिये तीन हजार वह भी राह राह चला गया समझिये पानी में । धन्नू चा के माथा में जइसे बौल बरि गेलइ ! चरन पकड़ि लेलखिन - जाफरी बाबू, अब एक पैसा हम नै दे सकऽ हियो ! कोय उपाहि लगाभो !) (आपीप॰120.11)
744 बरह-बज्जी (~ गाड़ी) (जिछना बरह बज्जी गाड़ी से लक्खीसराय पहुँचल । कैम्प में पहुँच के हँकइलक - फुलवाऽऽऽ ... ! ओकर आवाज में एगो ठनक हल । जइसे कोय नगाड़ा के सेद से पहिल चोप देलक । फुलवा कलट के देखलक आव मिर-मिराहा नियन बोलल - बाऽ ... उऽऽ !) (आपीप॰5.4)
745 बरहमन (= ब्राह्मण) (बराहमन के पाँचो टुक पोसाक हे, बकि माथा जे समूचे शरीर में सरेठ, सेकरा में टोपी नै । बरहमन के माथा उघारे, तब सब बेकार ।) (आपीप॰69.24)
746 बरहा (भोज में शिकायत नञ होवो दै के बरत लेको ओजो से उठला । वहाँ से आको सब सलाहकार भंडारी के, परसैनिहार के, अऽ बिजै करैनिहार के टरेनिंग देको अप्पन-अप्पन काम निजगूत करि देलका । आखिर ! बरहा से तेरहा तक खतम हो गेल । भोरे उठि को बुधना गाँव में टहलो लगल । इहे समझइ ले कि कजो के कि कहइ हे ।; चलल जा हलइ । पंचू मिललइ । बुधना पुछलकइ - कि पंचू ? कैसन रहलइ ? खइला हा खूब ? पंचू कहलकइ - अच्छे हलइ नुनु । तनी बरहवा दिन अलुआ वाला तरकरिया लागइ काँचे रहि गेलइ हल । अऽ तेरहवा दिन दलिया शायत तनी लगि गेलइ हल, तनी जराइन लागइ ।) (आपीप॰70.12, 19)
747 बरहोरी ( = बरहोर) (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.4)
748 बराहमन (= ब्राह्मण) (बराहमन के वेद मंतर उच्चार से, दीप-धूप-फूल के सुगंध से ऊ जगह सरग के समान हो गेल ।) (आपीप॰68.5)
749 बरियात (= बारात) (देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली । ठीक ऐन बखत पर ओने बरियात सज रहल हे । एने हिनखर बुतरू अब-तब में । कनियाय के तो एक्को अकिल्ले नञ ।) (आपीप॰100.19)
750 बरी (~ पारना) (हम लाख कहलियै छोटकी से, घीढारी नञ कराव । मुदा बूढ़ा-बूढ़ी के बात अब के माने हे ? ... बुढ़िया एक सुरर्रे बोलैत रहि गेलइ । घीढारी जे करे सेकरा साल भर नदी नञ नाँघइ के चाही, बरी नञ पारइ के चाही, कोहड़ा लगावइ के या खाय के नञ चाही, सराध के अन्न नञ खाय के चाही !) (आपीप॰98.5)
751 बलगर (जे किसान के भैंस बलगर अऽ गेरगर हलइ से लछरि-लछरि चौतार मारइ । ई साल के हूर वाला पाहुर के लेधड़ी, सौखवे के भैंस छिरियैलकइ ।; सौखवा पूछलकइ - बड़ा दिन पर सीतो ? आव, तनी झुलुआ झुला दे । बर के भरहोरी बान्ह के झुलुआ बनैलक । सीतिया खूब झुलैलक । जब मन भर गेलइ तब कहलकइ कबड्डी खेल । दुओ कबड्डी खेललकइ ! सितिया हलइ तो बलगर मुदा औरत ! आर ई पहलवान ! सात पल्ला चढ़ा देलकइ ।) (आपीप॰75.16; 77.4)
752 बलुरी-डाँट (अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै । कखनै धान उसरतइ, चावर फटकतइ । ओकर रूसी-गरदा उड़तइ ! कपड़ा कार हो जइतइ । गँहूम फटकतइ । चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ !) (आपीप॰89.13)
753 बलौक (= ब्लॉक; प्रखंड) (कहवै कि ? कत्ते लगतइ ? हजार-दू हजार । तब निकलवो तो करतइ - बीस हजार । रहे दू हजार कम्मे छौड़ा पूत के । धन्नू चा 'बेस' कहि को सबेरे चलि देलका बलौक ! अगरीकलचर लोन लै ले ! फारम लेलका - पाँच रूपइया ।) (आपीप॰114.3)
754 बह (~ बजार) (आँय हो, ऊ कत्ते लेतइ ? धन्नू चा पूछलखिन । महेश कहलकइ - अच्छे, इहो बात पूछि लेल्हो । ओकर बान्हल हइ - बह बजार तीन हजार ! तब जाफरी साहेब ! अच्छे आदमी हइ । तीन हजार एक मुश्त ले लेला के बाद, तोरा दौड़इ धूपइ के कोय काम नञ । सारा काम ऊ करा को रखतो । जे डेट देतो, से पर जइभो, दसखत करबइतो, रूपइया तोहरा देतो । मगर अप्पन घूस पहिले ले लेतो !; ऊ पूरा दरखास अऽ साथे साथ औडर सीट पढ़िको समझि गेलखिन । कहलखिन - आप तो महेश बाबू जानते हैं, कैसा अपीसर है यह ! पाँच हजार कर दिया है इधर से ! आप दे दीजिये, हम करवा देंगे । महेश एक बार सन्न हो गेलइ ! पाँच हजार ! तीन हजार तो ओकर रेट हलइ । बह बजार खुरा डोभ ! तऽ ?) (आपीप॰117.23; 119.10)
755 बहराना (= बाहर जाना) (जिछना के टोला वाला सबसे पीछू बहरइले हल । ओकर डेरा बालिका विद्यापीठ में हलइ ।) (आपीप॰2.2)
756 बहिन के (एकरी ~ !; तोरी ~ !) (चुनाव के समय अइतो तब नेता अइतो ! दूरे से कल जोड़ने ! गोड़ लागी सूपन दा, तोहरे पर आसा दादा ! ... जीत गेल । कहलों - तनी घटहिया सड़का बना देथो हल ? हों हों, अबरी जरूर हो जइतइ । नञ कहियो नञ कहऽ हइ । मुदा बनइतो कहियो नञ । ई कान से सुनलको, उ कान से उड़ा देलको । एकरी बहिन के ... धूर्त्त-लुच्चा । अपना काम के इयार नेता लोग !; ई समझ के कुरोधि गेलइ । गारी दैत कहलकइ - तोरी बहिन के ... आवारा ! ... जानऽ हीं, हमरा बाबू कहलखिन - बेटा ! जनिऔरी जात लछमी होवऽ हथिन । ऊ पूजइ के चीज हिखिन ! जैसे धरती माता, वैसैंइ औरत !; सोहन हँसल चल देलकइ कहने - तोरी बहिन के ... भोम्ह ! ... बापे के बात मानैत रहो । बुद्धू सारा !; बेटवा कहलकइ - अब कि होतइ माताराम ? बनल-बनायल बाप-दादा के घर छोड़ि को अइल्हो शहर, अपन जाति भिजुन ! कहलियो केस करो, तऽ सेहो नञ । ई लफुआ बहिन के ... पांगि गेलइ, कि एकरा से कुछ नञ होतइ ! जाति ... जाति ... जाति के लीला देखल्हो ? जाति के खूब धो धो के चाटो !) (आपीप॰32.19; 78.13, 17; 108.20)
757 बहिन-बहिनोय (= बहन-बहनोई) (अप्पन सब बेटी के अप्पन कमाय से लेके खेत तक बेच के बढ़िया घर में बियाह देलका । समाज भी विचित्र हइ ! बहिन बहिनोय सब सुखी हइ । सारा ! पैसे के जनमल । आदमी के पहचान नञ । हमर सब बहिन सुख में, हम दुख में । उ लोग कभी हमरा घुरि को नञ ताकइ ले आयल ।) (आपीप॰23.7)
758 बहिर (= वधिर, बहरा) (कोट के बीचोबीच में एक सफेद मूर्ति खड़ी हइ । ओकर आँख पर करकी पट्टी बान्हल हइ । आर ओकरे हाथ में इन्साफ के तराजू हइ । मतलब कानून आन्हर हइ, बहिर हइ, यहाँ के चपरासी से लेके जज तक । मुंशी से लेके वकील तक, सब आन्हर-बहिर के जमात हइ । एकरा मात्र पैसा सूझऽ हइ, ओकर बाद कुछ नञ ।) (आपीप॰24.20)
759 बाँग-बारी (टमाटर रोपा हो गेल । केरौनी चलो लगल । ओकर मइया कहलकन - मनोज बाबू ! एजो एगो मचान गड़ि दहो । बाँग-बारी चीज बिना अगोरने ? के जाने, कखने कने से कि चल आवे । हम दिन भर माटी में रेटऽ ही । ओकरा कि लगतइ । एक छन में सब कैल-धैल चौपठ ।) (आपीप॰105.24)
760 बाँटना-चुटना (मंत्री जी मुसकुरा को पूछलखिन - कि काम हलइ ? सूपन सारी नोसो से कह सुनइलखिन । मंत्री जी सुन के हँसलखिन । हँसते-हँसते कहलखिन - अलगंठे एसकरे निगलि जाय ले चाहऽ हहो ! दू लाख ! एसकरे खइभो तब पचतो ? अरे ! बाँटि-चुटि के खाय राजा घर जाय, तभी ने ? नञ तब जेल के तैयारी करहो !) (आपीप॰40.12)
761 बाउ (= बापू) (जिछना बरह बज्जी गाड़ी से लक्खीसराय पहुँचल । कैम्प में पहुँच के हँकइलक - फुलवाऽऽऽ ... ! ओकर आवाज में एगो ठनक हल । जइसे कोय नगाड़ा के सेद से पहिल चोप देलक । फुलवा कलट के देखलक आव मिर-मिराहा नियन बोलल - बाऽ ... उऽऽ !) (आपीप॰5.6)
762 बातर (कुस्ती अऽ औरत दुन्नु में भारी बैर । औरत के बल आँखि में, नजर बातर हो हइ ! औरत के नजर से बेटा के बचइ के चाही । नञ तऽ औरत नजर के मन्तर से सब बल घीचि लेतौ । खक्खड़ बना देतौ ।) (आपीप॰77.19)
763 बाध (बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल । पें कि करइत हल बेचारा ! ... बहुत आदमी ओकरा बान्ह-छान के गिरा देलकइ - दहिना पुट्ठा पर सड़सी से दाग के तिरसूल के चिन्ह बना देल गेल । से दिन से ऊ अजोर हो गेल । दुहाव कहलकइ - बेटा ! बस एखने भर ! राजा बना रहलियौ ह, राजा ! साँढ़ के जैसेइ छोड़लक .. उ नाँढ़ी कबड्डी बाध देने भागल ।) (आपीप॰69.14)
764 बानी (= राख) (इ पूछलखिन - तोर पुरूखवा तो हइये ने हे ? - नञ बाबू । ऊ रहतो हल तब कि । कोल्ड अस्टोर में नौकरी करऽ हलखुन । जीता हलखुन तऽ घर से बाहर नञ होवइ दे हलखुन । रानी बनल हलियो । भगमान हरि लेलखुन, से बानी हो गेलियो ! तोरा-मोरा से लागि को गुजर करऽ हियो !) (आपीप॰105.1)
765 बान्हना (= बाँधना) (देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर । ओकरा से कुछ दूर में बढ़िया नसल के एक बाछा बान्हल हइ, साँढ़ दागै ले । ओकरा दागै ले गोयठा के आग में सड़सी धिप रहल हे ।; सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ ।; दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।; अनरूध समझैलकन - मनोज धीरज धर ! कछौटा बान्ह ! तोरा राम-लछुमन दू बेटा । संसार कि कहतौ ? बियाह करभो बुढ़ारी में ! नतीजा ! कहावत में हइ - रात के तेल लगावी गेनरा ले, बुढ़ापा के बियाह दोसरा ले । अऽ बेटवा हो जइतो दुसमन !) (आपीप॰69.5; 74.4, 8; 103.22)
766 बान्हना-छानना (बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल । पें कि करइत हल बेचारा ! ... बहुत आदमी ओकरा बान्ह-छान के गिरा देलकइ - दहिना पुट्ठा पर सड़सी से दाग के तिरसूल के चिन्ह बना देल गेल । से दिन से ऊ अजोर हो गेल । दुहाव कहलकइ - बेटा ! बस एखने भर ! राजा बना रहलियौ ह, राजा ! साँढ़ के जैसेइ छोड़लक .. उ नाँढ़ी कबड्डी बाध देने भागल ।) (आपीप॰69.11)
767 बारना (= बालना; जलाना) (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰90.18)
768 बिगना (= फेंकना) (ऊ रात अदरा के खीर-पूड़ी बनलइ हल, आँठे-आँठ खा लेलकइ हल ! इ अलाय-बलाय चीज पेट में जाते मातर फेंक देलकइ । फेर कुल्ला कलाला करके सुतलइ ! फेर दुबारे कै । दोसर बेरी में मइया जागलइ । पूछलकइ - कि भेलौ गे ? कुछो ने मइया । नञ पचलइ । बिगि देलकइ ।) (आपीप॰15.25)
769 बिगाड़ि (= बिगाड़; हानि, घाटा; अनबन, बैर, शत्रुता) (एक दिन चार गो लफुआ अइलइ - मइया-बेटवा के केप्चर कर लेलकइ, पिस्तौल देखा के, लगभग बारह बजे रात में ! एकाएकी छउँड़ी के बलात्कार करि गेलइ । छउँड़ी बदहोश ! भैवा कहलकइ - चल मैया । बलात्कार के केस नामी होवऽ हइ । बड़ी कड़र । चारो के हम चिन्हऽ हियै । कर दियै केस । मैया कहलकइ नैं बेटा । ओकर कुछ नञ बिगाड़ि होतइ, बिगड़ जइतौ तोरे । गोजो । नान्हि वारि हइ, जाति-कुटुम के पूछतइ ? जो डाकदरनी यहाँ देखा दहीं ।) (आपीप॰108.13)
770 बिजै (= बिज्जे; भोजन करने हेतु बुलावा) (भोज में शिकायत नञ होवो दै के बरत लेको ओजो से उठला । वहाँ से आको सब सलाहकार भंडारी के, परसैनिहार के, अऽ बिजै करैनिहार के टरेनिंग देको अप्पन-अप्पन काम निजगूत करि देलका ।) (आपीप॰70.11)
771 बिट्टा (ई अप्पन बिट्टा से बाँस काटि को खूब बढ़िया मचान गड़ि देलखिन - उपर से निच्चू पलानी भी । मचान के फराटी पर गद्देदार नेबारी के बिछौना । एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ ।) (आपीप॰106.2)
772 बिनाना (बिना बिना के कानना) (हिनकर औकात के लायक पट गेलन ! आको अपन मागु के सारे नोसो से कह सुनैलका ! मागु बिगड़ गेलन । गरजबे नञ कैलन, बरस गेलन ! मर्रर्र दुर्र हो ! एकर मती मारल गेलइ ! जब इहे करै के हलौ तब ओकरा पटना में काहे ले पढ़ैल्हीं ? रहो देथीं हल मुरूख ! माथा ठोक लेलकन ! बिना बिना के कानो लगलन । अमोढकार ।; केस हो गेलन । पपुआ माय जानलकइ । चाचा पर बरसि गेलन - यह ! मुरूखवा के काम ! करो पड़ियानि चौठ ! ई हुड्डा ! रूपइवो बुड़ा देलकइ अऽ उपर से केस भी माथा पर ले हइलइ ! एतना कहि को माथा ठोकि लेलकइ ! बिना बिना कानो लगलइ ! हाय रे !!) (आपीप॰89.8; 121.12)
773 बियाय (= बिवाई) (कातिक में हरजोतवा अइतइ गँहूम बुन के, गोड़ में बियाय फाटल रहतइ । रात के मागु जौरे सुततइ । गोड़ा पर गोड़ा चढ़ैतइ । जों कहैं पियार से गोड़ा रगड़ देतै एकरा दन दोको लहू बह जइतइ । सबेरे इलाज करावो । हाथ बाँहि पकड़तइ ! जजै तजै छिला जइतइ, नछुड़ा जइतइ ! मर्रर्र दुर्र हो ! कते खोलि को कहियौ ! कुछ बुझवै नञ करऽ हइ । तनी अपना मन में लाजो नञ लागऽ हइ मर्दबा के गे माँय !) (आपीप॰90.4)
774 बिरमना (= ?) (हम लाख कहलियै छोटकी से, घीढारी नञ कराव । मुदा बूढ़ा-बूढ़ी के बात अब के माने हे ? ले बिरमना अइलौ आगू ? नञ माने हम्मर बात !) (आपीप॰98.2)
775 बिसतौरी (= प्रसूति के बाद पहले बीस दिन की अवधि) (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।) (आपीप॰6.9)
776 बिहान (= सुबह) (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल । बिहान फेर बोखार ।; काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में ! नैकी काँगरेस के कहऽ हलखिन - बिना पेंदा के लोटा ! साँझ बोलल कुछ, बिहान बोलल कुछ !; कनियाय जे दिन से गेली, एक मिलिट के फुर्सत नञ । चार भाय के एक बहिन दुलारू ! बाबाधाम के माँगल ! साँझे से घर-घर जाको आय-माय के बोलाना । अऽ अधरात तक चिकरि चिकरि को गीत गाना, नाँचना । उमाह के कि कहना । देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली । ठीक ऐन बखत पर ओने बरियात सज रहल हे । एने हिनखर बुतरू अब-तब में । कनियाय के तो एक्को अकिल्ले नञ । मुँह में धान दिये लावा । बुढ़िया के एक-एक बात करेजा सालो लगलन । कि जने कि होत ? आखिर होय बिहान, होय बिहान, चिट्ठी लिखलकी ।) (आपीप॰3.1; 60.23; 100.17, 21)
777 बुढ़वा डाही (कनियाय जब सवारी चढ़ली - मने मन छगुनैत गेली । कने से कनकट्टी बुढ़िया, झाँझी कुतिया माइयो ! बचलइ हल जतरा भगन करइ ले । हमरा पर तो जर-जिद से पड़ल हइ माइयो ! नाग-नागिन के चावर चिवैलकइ हल ! बुढ़वा डाही, भले बुढ़वे जौरे इहो मर जइतै हल । लगऽ हइ उ जनम के हमर सौतिन हलइ, माइयो !) (आपीप॰99.11)
778 बुढ़ारी (= बुढ़ापा) (अनरूध समझैलकन - मनोज धीरज धर ! कछौटा बान्ह ! तोरा राम-लछुमन दू बेटा । संसार कि कहतौ ? बियाह करभो बुढ़ारी में ! नतीजा ! कहावत में हइ - रात के तेल लगावी गेनरा ले, बुढ़ापा के बियाह दोसरा ले । अऽ बेटवा हो जइतो दुसमन !) (आपीप॰103.23)
779 बुतरू (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ?; तहिने से जिछना ले सब बुतरू फुलवा बन गेल । उ पागल नियर जेकरा पकड़ऽ हइ सेकरा दबोचिये ले हइ । छाती से लगा ले हइ, चूम ले हइ । आव बुतरू-वानर ओकरा देख के चिघार पार के भाग जा हइ । भाग रेऽऽऽ, जिछनाऽऽऽ ... !; कनियाय जे दिन से गेली, एक मिलिट के फुर्सत नञ । चार भाय के एक बहिन दुलारू ! बाबाधाम के माँगल ! साँझे से घर-घर जाको आय-माय के बोलाना । अऽ अधरात तक चिकरि चिकरि को गीत गाना, नाँचना । उमाह के कि कहना । देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली । ठीक ऐन बखत पर ओने बरियात सज रहल हे । एने हिनखर बुतरू अब-तब में । कनियाय के तो एक्को अकिल्ले नञ ।) (आपीप॰1.1; 5.16; 100.17, 19)
780 बुतरू-वानर (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ? ... तऽ जेकरा पकड़ऽ हइ, सेकरा चूम ले हइ, अंकवरिया में कस के वान्ह ले हइ, छोड़इ ले नञ चाहऽ हइ, इहे से बुतरू-वानर अलगे-अलग रहइ ले चाहऽ हइ ... दूरे से ढेला फेंक के मारऽ हइ ।; तहिने से जिछना ले सब बुतरू फुलवा बन गेल । उ पागल नियर जेकरा पकड़ऽ हइ सेकरा दबोचिये ले हइ । छाती से लगा ले हइ, चूम ले हइ । आव बुतरू-वानर ओकरा देख के चिघार पार के भाग जा हइ । भाग रेऽऽऽ, जिछनाऽऽऽ ... !) (आपीप॰1.3; 5.17)
781 बुधगर (= बुद्धिमान) (पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ? पपुआ माय तिरछी नजर से धन्नू चा के देखैत मुसकावैत मूड़ी नचा के कहलकइ - तऽब ! हमर बाप पाँच बरीस बरतुहारी कैलका । घर मिलल तब वर नञ, वर तब घर पसीन नञ ! दुओ आँख के सूरदास ! चौपठ ! यह मुरूख दमाद कोहबर में गोड़ लगैलका पहलमान जी ! कैसन पहलवान होथि, से हम जानऽ ही । बेटी भोगऽ हियन । ढेर बुधगर रहे से तीन ठमा माँखे ।; जा, हम ओतै बहस नञ जानी ! देखऽ हो महेश रात-दिन करि को सरकारी रूपइया निकाललका संसार अबूध हइ ? तों एगो बुधगर ... ।) (आपीप॰113.16, 21)
782 बुधि (= बुध; बुद्धि) (पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन । पपुआ माय चूल्हा में गोइठा पैसावैत कहलकइ - हूँ हूँ, निकरामती मरद के गाल कतै ? अपनै मन बिलैया पुरखायन ! हमरा भिजुन जते सुना ला ! हम जानो हियौ नञ । घर बुधि बारह, बाहर बुधि तीन ! गाँव से बाहर विधाता उहो लेलका छीन ।) (आपीप॰112.8)
783 बुराक (गोर ~) (हमर पाँव के आहट पाको एक बुढ़िया घर से निकलल, पाँचो हाथ नम्बा तगड़ा गोर बुराक, माथा के बाल उज्जर बर्फ, फह-फह बगुला के पाँखि सन साड़ी पिन्हने, जइसे छहाछत भारत माता, शीश मुकुट हिमवान देश का, या खुद सरसती माता ।) (आपीप॰8.3)
784 बुलना (भागल ~; मारल ~) (बाप-दादा के बनल-बनावल घर बेच देभीं उ लेतइ माटी के मोल, हम जानऽ हियौ ! उहे तो ओकर साजिशे हइ ! चारो तरफ से घेर के तोरा मजबूर कर देलकौ ! जे में ई भाग जाय ! कहाँ जा के घर बनइभीं ? पैसा दे देतौ, तों भागल बुलें । पैसवा डगरे-डगर खर्च हो जइतौ । तों नट-गुलगुलिया नियर सिरकी तानने बुलें ! हम ओकरे काहे नञ भगा देवइ ओजो से, हम काहे भागवइ ?; सिपाही श्रीराम जादव जी कहलखिन - बिलाय के गला में घंटी वान्हइ वाला तो रोड पर मारल बुलऽ हइ । पैसा फेंको तमाशा देखो ।; दोसरा नम्बर में देखल जाय ! डाकदर-इनजीयर-ओभरसीयर नौकरी लगल वाला ! बिना नौकरी वाला तो कत्ते मारल बुलऽ हइ ! बिना नौकरी वाला बतौर मजूर समझो ।) (आपीप॰28.19; 56.22; 87.16)
785 बूँट (~ के भूँजा, ~ के सत्तू) (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... तोर बेटी के मन करतौ बूँट के भूँजा खाय के । बाजार से खरीद के लइतौ एक सौ गिराम ! चालीस रूपइया कि॰ । छिपिया पर रख के चार-चार दाना मुँह में चिभला-चिभला खइतौ ! नितरा-नितरा ! बूँट के भूँजा । ऊ खाना नञ भेल, खाली जी फेरन । भगवान ने करे ऐसन होय !) (आपीप॰92.5)
786 बूढ़-पुरैनिया (मोहना हियावे हे तऽ देखे हे एगो लड़की चलल आ रहल हे धीरे-धीरे ! फेर ओकरा बूढ़-पुरैनिया के खिस्सा याद आ गेलइ ! मरद के जनानी भूत पकड़ऽ हइ जेकरा पर ऊ आशिक हो जा हइ !) (आपीप॰83.22)
787 बेउरेब (= उरेब, उरेबी) (औरत कहलखिन - अजी ! फेर से कोरसिस करहो ! बरबाद हो जइतइ इ काम में ! टमाटर साव कहलखिन - अब भाय तोहीं समाझाहीं हमरा हिम्मत नञ ! कुछ बे उरेब बोल दिये तब ?) (आपीप॰28.7)
788 बेकल (= विकल, बेचैन, व्याकुल) (अनरूध गमगीन होलइ । कहलकइ - रे पगला ! एकरा ले एते चिन्ता ? ई चीज तो मकइ के दोबर सड़क पर फेंकल मिलऽ हइ । बियाह के सलाह तो हम कोय हालत में नञ देवौ ! तों जब इहे ले बेकल हें, तऽ रोज नया माल पावो, एक्के गो घोटलके के कि घोटैत रहतइ ?) (आपीप॰104.10)
789 बेटी-दमाद (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰90.19)
790 बेमारी (= बीमारी) (ऊ गोली अऽ पानी पीते-पीते थक गेल, बेमारी बढ़ले गेल ! फुलवा के मन एक दिन जवाब दे देलक, बोलल - अब नञ बाबू ... । जिछना के तो पराने उड़ गेल ।; ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !; मइया इशारा से सब समझा देलकइ । ऊ आग बबूला हो गेलइ । तोरी मोहना बहिन के ... हम ओकरा माय के बेमारी में दू महीना पटना में अगोर के रहलों होसपिटल के सड़ाँध में । ओकर दू दू गो जवान बहिन साथे सूतऽ हल । मुदा कहियो मन के बेइमान नञ बनैलियै ! अप्पन बहिन समझैत रहलियै ! आर ई एकै दिन में ... !) (आपीप॰3.12, 24; 20.18)
791 बेरी (= बेर) (पाठक इ सुन के, या पढ़ के, एक वेरी अचरज में जरूर डूब गेल होता !; सामान चढ़ गेल, कनियाय चढ़ली ! नाव धार पर सों-सों कइले, जैसे बालू पर गेहुँअन साँप चलल, झट सना गंगा पार कर देलक । कनियाय के करेजा धक्क कैलक एक बेरी ! जैसे कोय करेजा काढ़ लेलक ।; बप्पा अपन बलात्कारी बेटा के बोलैलक । अइलइ। पूछलकइ - तोरा पर ई सब आरोप हौ । कि सच हइ ? - नञ ! हम एकरा चिन्हबो नञ करऽ हियै ! कहौंका हिकइ । भले चाह दू चारि बेरी एकर दोकान पर पीलियै हे । दोकान पर तो संसार जा हइ ।) (आपीप॰III.7; 99.24; 110.3)
792 बैना (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग ! बगैचा में आम ! कच्चा से पाकल तक । जते खा । अँचार बनावो । बैना बुलावो । जे जी में आवो करो ।) (आपीप॰91.16)
793 बैर-बियाह (मइया कहलकइ - जे बोले ! कहवइ जरूर । रात फेर एकान्त में बैठा को समझावो लगलइ दुइयो के । देखहीं ! नुनु, उ धनगर अदमी हइ । बैर-बियाह जोड़ी से । तोरा धूर-धुरकी कुछ नञ हौ, ओकरा सब कुछ हइ ! एक दलिद्री छोड़ि को ! पाँच भाय ! एक डाक्टर, एक इन्जियर, एक मास्टर, एक ठीकेदार, पंचमा खेतिहर ! खेत चालीस बीघा ! चल ओकरे गोड़ में लटकि जइबइ ! कहवइ वसा दे ! तोरे हिकियौ ।; ओकर बाप से मिलके चले कहवै । जब छौड़ा-पूत्ता एकरे ले भूखल हइ तऽ बियाहे कर लिये । करे जत्ते मन होवइ । … दुओ माय-बेटा बलात्कारी के बाप के जाको कहलकइ । ओकर बाप तैश में अइलइ मुदा परेम से बैठा को समझैलकइ ! देखो ! बैर-बियाह जोड़ी । हमरा भिजुन आवइ से पहिले अपन औकात तौलि लेल्हो ?) (आपीप॰28.9; 109.12)
794 बोखार (= बुखार) (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल । बिहान फेर बोखार ।; डाकदर साहब अइला ! नवज छूते मातर भुत हो गेला । "एकरा मछली खिला देलहो ?" - "जी नञ सरकार ! एक्को घुन्नी नञ !" जिछना बोलल । - "तब बोखार कइसे पलट गेलइ ?") (आपीप॰3.1, 6)
795 बोरिया-बिस्तर (मिनिसटर साहब गरम हो गेलखिन । कहलखिन - कुल पागलपन झाड़ि देवो ! होश में बात करो । कलेट्टर कहलकइ - होसे में हियै ! हमर नौकरी तो नै खा सकऽ हो, बदली ले हर-हमेसे बोरिया-बिस्तर बान्हने रहऽ हियइ । एतना कह के फोन रख के दू चारि गारी देलकइ - साला, बहिन ... ई सब अथायल-वथायल कने से मंत्री बन के राज के पैसा लूटइले ... !) (आपीप॰41.13)
796 बोहनी (~ पहरा) (इ कहलक - हाँ-हाँ, उहे नवीन । सिपाही पूछलकइ - तों ओकर के लगऽ हीं, बहिन ? - नञ पतनी । ऊ एकरा गौर से देखैत कहलक - ठीके हइ ! बोहनी पहरा कुछ नगद नारायण निकालो तब ने ! ई पूछलक - केतना ? सिपाही कहलक - अरे मुलाकाती तो बँधल है दस रूपइया ।) (आपीप॰47.25)
797 बौआ (जिछना ठोड़ी पकड़ के बोलल, अब कुल बीमारी भाग जइतौ बौआ ... जहाँ दवाय पिला देलियौ घुटुस्स । जिछना एगो गोली देके पानी देलक, आव माथा पर हाथ फेर के चुप कराइत बोलल - हाँ निगल जो बौआ ... । सब ठीक हो जइतौ !) (आपीप॰5.11, 13)
798 बौल (= बल्ब) (धन्नू चा कहलखिन - हे जाफरी बाबू, निहोरा करऽ हियो । ओतना में काम बना दहो । अब हमरा कोय उपाहि नञ हो सरकार ! हाजी साहब कहलखिन - कोइ सूरत नहीं है कि बिना दो हजार दिये आपका पैसा निकलेगा । जो दिये तीन हजार वह भी राह राह चला गया समझिये पानी में । धन्नू चा के माथा में जइसे बौल बरि गेलइ ! चरन पकड़ि लेलखिन - जाफरी बाबू, अब एक पैसा हम नै दे सकऽ हियो ! कोय उपाहि लगाभो !) (आपीप॰120.11)
799 भंगलाहा (बिहान पुष्पी के नीन टूट गेलइ । फेर उहे संसार ! मने मन भगवान के हजार गारी देलकइ । ई भंगलाहा भगवान हिकइ ! बेकार एकरा पर भरोसा कइलूँ ।; हम तो जीत में हलूँ । मुदा हमर बाप के ई अच्छा नञ लगल । ओकरा भंगलाहा के चाहतिये हल खुशी-खुशी ओकरा से बियाह दै के । से नञ करके उलटे झुट्ठा केस में फँसा के हमरा जेल पहुँचा देलक ।; बिना बिना के कानो लगलन । अमोढकार । हमे नञ जानलियै गे माया बप्पा होतौ तोर सतुरवा । अहः हः अऽ ... ग ... गे माय ! फेर कुछ चुप होको कहलकन - अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै ।; बिहान महेश पपुआ माय भिजुन आयल । सारी नो सो से समझा देलकइ । पपुआ माय भीतर से कड़मड़ा गेलइ । कि कहऽ हो महेश ? तीन हजार ... मर दुर्र ... हो ... ई तो दीना दीनी डकैती भेलइ ! बम पिस्तौल से नञ लूटऽ हइ, कलम के मारि मरऽ हइ । गे मइयो रे ! छउँड़ा पुत्ता ... नञ लेब रूपइया ! करजे ने होत, जाय भँगलाहा ।) (आपीप॰16.5; 44.6; 89.10; 118.11)
800 भकोसना (= बड़े कौर डालकर बिना चबाए खाना; {बिना समझे} घोके सबक को भूल जाना) (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... ऊ शहरी एक सो ग्राम चावर खैतौ । तों देहाती, जइभीं, दुइयो के बदली एसकरे भकोसि जैभीं ! दमदा कहतौ बेटिया से ई डोलइ के नाम नय लऽ हइ ।) (आपीप॰92.2)
801 भगमान (= भगवान) (इ पूछलखिन - तोर पुरूखवा तो हइये ने हे ? - नञ बाबू । ऊ रहतो हल तब कि । कोल्ड अस्टोर में नौकरी करऽ हलखुन । जीता हलखुन तऽ घर से बाहर नञ होवइ दे हलखुन । रानी बनल हलियो । भगमान हरि लेलखुन, से बानी हो गेलियो ! तोरा-मोरा से लागि को गुजर करऽ हियो !; बप्पा कहलकइ - जो, समझ गेलियै । बेटवा चल गेलइ । एकरा से कहलकइ - खबरदार ! आझ भर छोड़ि दऽ हियौ ! एक कसूर भगमानो माफ करऽ हथिन । हम तो आदमिये ही । भविस में ऐसन बात नै होवइ के चाही, नञ तऽ हमरा से बुरा तोरा लिये कोय नञ होतौ ।) (आपीप॰104.24; 110.5)
802 भरहोरी (= बरहोरी, बरहोर) (सौखवा पूछलकइ - बड़ा दिन पर सीतो ? आव, तनी झुलुआ झुला दे । बर के भरहोरी बान्ह के झुलुआ बनैलक । सीतिया खूब झुलैलक । जब मन भर गेलइ तब कहलकइ कबड्डी खेल । दुओ कबड्डी खेललकइ ! सितिया हलइ तो बलगर मुदा औरत ! आर ई पहलवान ! सात पल्ला चढ़ा देलकइ ।) (आपीप॰77.3)
803 भविस (= भविष्य) (पुष्पी कभी-कभी एकान्त में अप्पन ओटी से ले को पूरे कमर पर हाथ फिरावे, चारो तरफ, तऽ एक भयावह भविस से आतंकित हो जाय । अपना आप में बुदबुदावे । बाप रे ! कमरिया चिक्कन लागऽ हइ, कहीं धर तो नञ लेलकइ ? छौड़ा पूत्ता ! भाय-बहिन में ऐसन ... नञ सुनलो हल ! से हमरे पर बीत गेल कि ?; बप्पा कहलकइ - जो, समझ गेलियै । बेटवा चल गेलइ । एकरा से कहलकइ - खबरदार ! आझ भर छोड़ि दऽ हियौ ! एक कसूर भगमानो माफ करऽ हथिन । हम तो आदमिये ही । भविस में ऐसन बात नै होवइ के चाही, नञ तऽ हमरा से बुरा तोरा लिये कोय नञ होतौ ।) (आपीप॰12.2; 110.6)
804 भाँसा (= भासा, कूड़ा-करकट) (हाय रे लछमी ! कहाँ उड़ि गेली ! अऽ एतना सोचैत कानो लगथि । फेर कुछ हल्का होवथ । दिल कड़ा करथ कि लछमी घर के बनइने रहइ हल ! माटी के घर मुदा चमचम ! तनी एक भाँसा नञ । पक्का के बाप बनइने ! हाय हे ! लछमी ! एकरा के देखतइ ? फेर आँख में बरसात आ जाय । झम-झम बुन्दिया झड़ो लगे ।) (आपीप॰102.15)
805 भाग (= भाग्य) ("एकरा मछली खिला देलहो ?" - "जी नञ सरकार ! एक्को घुन्नी नञ !" जिछना बोलल । - "तब बोखार कइसे पलट गेलइ ?" ... जिछना माथा पर हाथ धर के, जमीन पर चुक्क-मुक्कु बैठ के बोलल - "हम्मर भाग अभाग सरकार ।" आला लगावइत डाकदर साहेब बोलला - "तों झूठ बोले हें । इ जरूर मछली खइलक हे ।" – "नञ सरकार, छउँड़े से पूछ लहो ।" छोउँड़ा सिर हिला के नञ कह देलक ।) (आपीप॰3.8)
806 भाय (= भाई) (ऊ बोतल पीलकइ, हमरो कहलकइ - चाखभीं ? हम कहलियै नै भाय ! ... ऊ कहलकइ - हमरा तनी मनी आदत हौ !; ई॰सी॰जी॰ वाला इनकर बहनोइ हिकन ! एकसरा वाला सारा । पेशाब जाँच इनकर साली करऽ हथिन । खून पैखाना जाँच पत्नी । बगल में दवाय दोकान इनकर छोट भाय के हन ! मतलब पूरा परिवार मिल के रोगी के लूटऽ हथिन !; भोला कहलकइ - से तो हइ, मुदा जुल्मी के मार के जइतों हल, तब कोय हिरोही नै ! ई बेकसूर के, बिना खदी-बदी के अप्पन गोतिया भाय के मार के जेल गेलों, इहे अपसोच हमरा तिल-तिल खा रहल हे ।; भइवो एकर कैसन ! कन्ने अइलइ, कन्ने गेलइ ! भर नजर देखवो नञ कैलियइ । कुछ कहियै, सुनइ ले नञ तैयार । कहि दै हम एखनै जा हियौ । कहि दे हम एखनै चलऽ हियौ ! मर्रर्र दुर्र हो ! एइसौं करऽ हइ आदमी ! बहिनयों वैसनैं । ए माँय ! हम जाम ने तऽ, एकादसी रहइ कि द्वादसी ! बियाह-शादी में ई सब नञ लेल जा हइ । हम भैवा के रूसल जाय देवइ ! फेर बियाह होतइ हमर भैवा के कि ?) (आपीप॰17.3; 26.22; 64.16; 98.15, 19)
807 भाय-बहिन (पुष्पी कभी-कभी एकान्त में अप्पन ओटी से ले को पूरे कमर पर हाथ फिरावे, चारो तरफ, तऽ एक भयावह भविस से आतंकित हो जाय । अपना आप में बुदबुदावे । बाप रे ! कमरिया चिक्कन लागऽ हइ, कहीं धर तो नञ लेलकइ ? छौड़ा पूत्ता ! भाय-बहिन में ऐसन ... नञ सुनलो हल ! से हमरे पर बीत गेल कि ?) (आपीप॰12.2)
808 भार (मुड़िये ~ बजाड़ देना) (उठा को हाजी साहब के सरंग गोलो कुरसिया पर फेंकि देलखिन । मथवा फूटि गेलइ ! गोड़ा हाँथा में मोच आ गेलइ ! ई भागला गेटवे दने से दू सिपाही घेरलकइ डण्टा पाटी । एगो के उठा को मुड़िये भार बजाड़ि देलखिन । मुड़िया फूटि गेलइ । दोसर के ठेलि देलखिन । गेटवा के गिरिलवा के लोहवा से टकरा गेलइ । हाँथे टुटि गेलइ ।) (आपीप॰121.8)
809 भिजुन (घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ !; ई बात कही केकरा ? मन के मीत भिजुन जब मन के बात खोलल जा हइ, तब दुख कुछ हल्का हो हइ । ओकरा सिवाय कोय ऐसन मीत नञ हलन जेकरा भिजुन खुलि को रो सकऽ हथ !) (आपीप॰7.12; 103.9)
810 भीतर-घुइया (मइया एक छन तो सुन के सन्न रह गेलइ ! मोहना ... भीतर घुइया ... ! हम ऐसन जानतिये हल तब जाय नै देतियौ हल ! हम तो अच्छा आदमी समझऽ हलियै । सेकर ई काम ! भाइयो-बहिन नञ चिन्हे ! ई जुग में केकरा पर विसवास ! ठीक हइ, कल्ह चलें डाकदरनी यहाँ खलास करा दियौ !) (आपीप॰17.14)
811 भुकाना (माथा ~) (कहलियौ ने, हमर माथा एत्ते नञ भुकाव । अब जाने तों, नञ जानौ तोर काम । पुष्फी घर लौट गेल । चुपचाप घर के पलंग पर तकिया में मुँह छिपा के सुबक-सुबक के कानो लगल, पूरा तकिया लोर से भींज गेलइ ।) (आपीप॰14.16)
812 भुट-बैगन (पहुँचिये तो गेलइ ! लाल-लाल भुट बैगना के खेत में ! देखे हइ तऽ कि ? मचान पर सीरक ओढ़ने चित होके बजावइ में मसगुल हइ । भिरिया जइते माँतर चिन्ह गेलइ । मर्रर्र ! दुर्र हो ! इ तो मोहना हिकइ ! बँसुरी कहाँ हइ ! किदो माटी के बनल हइ !) (आपीप॰82.16)
813 भूँजा (बूँट के ~) (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... तोर बेटी के मन करतौ बूँट के भूँजा खाय के । बाजार से खरीद के लइतौ एक सौ गिराम ! चालीस रूपइया कि॰ । छिपिया पर रख के चार-चार दाना मुँह में चिभला-चिभला खइतौ ! नितरा-नितरा ! बूँट के भूँजा । ऊ खाना नञ भेल, खाली जी फेरन । भगवान ने करे ऐसन होय !) (आपीप॰92.5)
814 भैंसुर (= पति का बड़ा भाई) (ससुरार के मत पूछो - एक हाकिम रहे तऽ कहल जाय ! घर में सास, ननद, गोतनी, बाहर ससुर, भैंसुर, देवर, पतिदेव के तो बाते जुदा हइ । कौन हाकिम से कइसे निबटइ के चाही ? ई बिना समझने, बिना सीखने अल्हड़ कनियाय तो पहिले साँझ पिटा जाय, या पगला गारत में चल जाय । ई जानना भारतीय नारी के बड़ा कठिन पाठ हइ ।) (आपीप॰100.11)
815 भोगारना (भैंस के नेठो नियर घुरल सींघ के तो बाते छोड़ो ! दू दिन पहिले से किसान तेज छुरी से ओकर मरल चत्ता छिल के चमका दिये । बिहान दुहबिनी ओकरा में सिन्नुर तेल भोगार दिये ! ऐसन भोगारे कि कहल नञ जाय । गारा में पीतर के सिकड़ी, चमाचम पानी चढ़ायल सोना के मात करे ! गारा में जोठ, जोठ में घंटी, केकरे घंटिये नञ, घण्टा कहो, टनाक-टनाक बाजे ।) (आपीप॰74.24)
816 भोम्ह (= भोंदू) (सोहन हँसल चल देलकइ कहने - तोरी बहिन के ... भोम्ह ! ... बापे के बात मानैत रहो । बुद्धू सारा !) (आपीप॰78.17)
817 भोम्हा (= भोंदू) (जब बप्पे कहलकइ - लड़े ने भोम्हा ! बजड़ जइवें तऽ बजड़िये सही ! जन्नी हिखीं जे चूड़ी फूटतइ ? बकलोलवा । लड़ गेलइ । पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ !; साँझ भैंसि दुहि को फेनाइले दूध, एक लोटा सितिया के हाँथ में दैत कहलकइ - ले एक महीना खा को देखहीं ! नञ जो दरद छूट जाय तऽ हमरा नाम से कुत्ता पालिहें । सितिया लोटवा लैत मुस्का के कहलकइ - जो रे भोम्हा ! तोरा कुछ नञ बुझो अइलौ !) (आपीप॰76.14; 79.19)
818 मँड़वा-कोहबर (तों करभीं ? ओकरे तऽ देखहीं हम कि करऽ हियौ ? हरगिस नै हरजोतवा से करो देवौ । एकरा लिए नँगटीनी कहावी तऽ नँगटीनी सही ! तऽ कि करभीं ? जादा से जादा नहिरा भाग जइभीं आर कि ? मियाँ के दौड़ महजिद तक । ... नै रे । हम नहिरा नै जइवउ ! आवो दहीं बरियात ! हम बेटिया के लेको कुइँया में कूद जइवउ ! तोर मँड़वा-कोहबर में आग लगा देवौ !) (आपीप॰92.18)
819 मँहा (= महा, बहुत बड़ा) (~ करमकीट) (पचमा कहलकइ - अहो ! परानी परानी के अंसा होवऽ हइ । एकर मैया आदमी हलइ ? भगवान हो ! मँहा करमकीट ... । कौड़ी चूस्स ... भारी चिपास ... अपने कहियो भर पेट खैइले होतइ, जे भोज नीक होते हल ?) (आपीप॰71.20)
820 मंगनियाहा (जुआन बेटा चलल जा हइ । जान के जहर खाय, देव के दिये दोख । डाकदर के मना कइलो पर मछली खिला देलकइ । गठरिया खुले न बहुरिया दुबराय । ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !) (आपीप॰3.24)
821 मगहिया (कुछ मगहिया, 'आदमी' के 'अमदी' कहना ठीक मानऽ हथिन ।) (आपीप॰V.20)
822 मच्छड़ (= मच्छर) (बगल में सज्जा दान खातिर सज्जा राखल हइ । ओकरा पर पाँचो टूक पोशाक, पलंग ! पलंग पर तोसक, तोसक पर चादर ! उपर से मछड़दानी ! तभी हमरा हँसी आयल ! सरग में मच्छड़ भी रहऽ हइ ? हमरा मुँह से एकाबैक निकल गेल !) (आपीप॰68.23)
823 मछड़दानी (बगल में सज्जा दान खातिर सज्जा राखल हइ । ओकरा पर पाँचो टूक पोशाक, पलंग ! पलंग पर तोसक, तोसक पर चादर ! उपर से मछड़दानी ! तभी हमरा हँसी आयल ! सरग में मच्छड़ भी रहऽ हइ ? हमरा मुँह से एकाबैक निकल गेल !) (आपीप॰68.22)
824 मछलोकवा (पूछलकन - देल्हो दरखास ? - हों हों । - केकरा ? तरजनी अँगुरी से बता के कहलखिन - वह जे अपिसवा के दुअरिया पर खड़ा हइ । - आय महाराय ! ऊ तो चपरासी हिकइ । कहलियो हल, अपने से जाके हकिमे के ने दै ले । हाँथे हाँथ काम जल्दी आगू बढ़तइ हल । धन्नू चा कहलखिन - अरे मछलोकवा के लेख हँथे से ले लेकइ ! कहलकइ - लाइये हम दे देगा ।) (आपीप॰114.22)
825 मजगर (दीपो अऽ वंसी ऊ टोला में केकरे वरपो देतइ ? जेकरा तनी मजगर देखलक, ओकरा कइसौं ने कइसौं डौन करि देतइ ! एकरा देखलकइ पचास हजार नगद ! देलकइ खर्च करवा ... उपर से पचास हजार करजा ! अब बेटा पछड़ैत रहो ।) (आपीप॰72.3)
826 मजिस्टर (= मजिस्ट्रेट) (बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें ।) (आपीप॰96.2)
827 मजूर (= मजदूर) (दोसरा नम्बर में देखल जाय ! डाकदर-इनजीयर-ओभरसीयर नौकरी लगल वाला ! बिना नौकरी वाला तो कत्ते मारल बुलऽ हइ ! बिना नौकरी वाला बतौर मजूर समझो ।) (आपीप॰87.16)
828 मटिकटवा (= मिट्टी काटने वाला) (बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें ।) (आपीप॰96.3)
829 मड़गोद (~ भात) (फुलवा के सबेरे रोटी आव आलू के कुच्चा खिला के सुता देलक हल ! मुदा फुलवा के आँखि में नीन कहाँ ? भूँजल मछली के गंध जो नीन आवो दिये ? ... कनमटकी पारले रह गेल फुलवा । जिछना जब कटोरा में मछली के गुड़िया अऽ मड़गोद भात चापुट पार पार के खाय लगल तऽ फुलवा के कनमटकी वाला मूँदल आँख फट सियाँ खुल गेल ।) (आपीप॰2.13)
830 मडर (= मर्डर, हत्या) (पाँचो के फुल औडर मिल गेल । जतना मडर होय कोय परवाह नै, तोर बाल बाँका नै होवो देवो । डरना-घबराना नै ।; एने गनौरी चा के समर्थक पारंपरिक हथियार वाला पर गोली दागो लगलई, पाँच मडर, पचीसो घायल ! चुनाव बन्द !) (आपीप॰63.5, 19)
831 मतिखपत (सूपन के भी भीतरे-भीतरे डर समा गेलन - दुर्रर्र ... इ मतिखपत कलेट्टर कहैं जेल पहुँचा देलक तऽ कि होत ? तभी हुनकरा धेयान आयल अप्पन एम॰एल॰ए॰ शरमा जी के, एमेलेइये नञ, मुनिस्टर हथिन । अब उहे जान बचा सकइ होथ ।) (आपीप॰39.22)
832 मद्धिम (हम पहिले छेड़छाड़ करबइ तब कुरोधि जइतइ । ओकरे करो दियै, जे करे से । जब सोहगी नगीच अइलइ, तब ओकर बाँसुरी के सुर कुछ मद्धिम भेलइ । सुर भी गड़बड़ावऽ लगलइ । छउँड़ी मचना के नीचे अइलइ !) (आपीप॰84.4)
833 मनझान (एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ । दोसर रहइ त मन मनझान ! ऊ रहइ तऽ कि कहना ! हौले-हौले टौन मारऽ लगलखिन । नया उमर ! बात-बात पर हँसि जाय । हिनखर खुशी के कोय ठेकाना नञ । मुदा आर कुछ के साहस नञ ।) (आपीप॰106.5)
834 मनुआना (= उदास होना, उबना) (जानऽ हीं, घर में बैठल रहला से देह में घुन्न लग जा हइ । रोज चरावइ ले आवें ! तनी देह में माटी लगायल करहीं, बल बनल रहतौ । डंड-कुश्ती मारहीं । । नञ रोज अइवें तऽ एक काम करें । तों गइया खोल के हमरा जौर कर दे । एकाह घंटा खेल के चल जो, हम साँझ तक चरइने चल अइबौ । मुदा रोज आवें । बचपन के नगौटिया ! तों आ जाहें तऽ हमरो मन लग जाहे । एइसे मनुआयल रहऽ ही । सीतिया बेस कह के चल गेल ।) (आपीप॰77.13)
835 मरीच (= मिरची, मिरचाई) ) (बुढ़िया घर से एगो कुश के चटाय लाके चन्दन गाछ के छाहुर में बिछा देलक, आर घर से एक लोटा घोर - जेकरा में जीरा-जमाइन, काला नीमक, मरीच देल । कहलक - पहिले बेटा ! एकरे पी ले । तब पानी पीहें । करेजा ठंढा रहतौ ।; फेर दुबारे कै । दोसर बेरी में मइया जागलइ । पूछलकइ - कि भेलौ गे ? कुछो ने मइया । नञ पचलइ । बिगि देलकइ । ले मरीच चिबा के पानी पी ले । पेटे साफ हो जइतौ । मन नै पचपचइतौ ।) (आपीप॰8.11; 15.25)
836 मर्रर्र दुर्र (चिकुलिया बड़ा तैश में हलइ । कहलकइ - मर्रर्र दुर्र हो । तों ने चूड़ी पहिर के घर में सुत रहें । मरद भेलें हल काहे ले ? अपना हक ले बोलवइ काहे नञ ? मारि दै कि काटि दै ।; पहुँचिये तो गेलइ ! लाल-लाल भुट बैगना के खेत में ! देखे हइ तऽ कि ? मचान पर सीरक ओढ़ने चित होके बजावइ में मसगुल हइ । भिरिया जइते माँतर चिन्ह गेलइ । मर्रर्र ! दुर्र हो ! इ तो मोहना हिकइ ! बँसुरी कहाँ हइ ! किदो माटी के बनल हइ !; कातिक में हरजोतवा अइतइ गँहूम बुन के, गोड़ में बियाय फाटल रहतइ । रात के मागु जौरे सुततइ । गोड़ा पर गोड़ा चढ़ैतइ । जों कहैं पियार से गोड़ा रगड़ देतै एकरा दन दोको लहू बह जइतइ । सबेरे इलाज करावो । हाथ बाँहि पकड़तइ ! जजै तजै छिला जइतइ, नछुड़ा जइतइ ! मर्रर्र दुर्र हो ! कते खोलि को कहियौ ! कुछ बुझवै नञ करऽ हइ । तनी अपना मन में लाजो नञ लागऽ हइ मर्दबा के गे माँय !) (आपीप॰36.20; 82.18; 90.6)
837 महँ-महँ (हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? किरानी बाबू कहलखिन - एकरा कुछ के कमी नञ हइ । धन आरे-दुरे । औकात मुताबिक इहे ठीक हइ । कुरसी पर बैठइ वाला सिरिफ फरस बुकनी छोड़इ वाला होतौ । लसर मेरहा ! देखइ में चिक्कन जेकर जूरा करे महँ महँ, पेट करे कुह कुह ! बेटिया जिनगी भर कानते रहतौ । कुरसी पर बैठइ वाला तो हमहूँ ने हिकियै ! तऽ कि हइ । सोचहीं ने ।) (आपीप॰89.20)
838 महराज (= महरज; महाराज) (किरानी कुरोधि को ई कहैत कि हम बहुत देखा है पैसा वाला आप जैसे दुग्गी-तिग्गी को ! लीजिये अपना दरखास कहि के फेंकि देलकइ । आर अगल-बगल भी कुले हिनखरे दुरदुरावो लगलन ! महराज बोलने का लूर नहीं है ! आखिर इनका इज्जत है कि नहीं, आप चोर कहियेगा तब कैसे काम होगा ।) (आपीप॰116.19)
839 महाराय (= महाराज) (महेश बहुत देरी बाद अप्पन काम निवटा के अइलन । पूछलकन - देल्हो दरखास ? - हों हों । - केकरा ? तरजनी अँगुरी से बता के कहलखिन - वह जे अपिसवा के दुअरिया पर खड़ा हइ । - आय महाराय ! ऊ तो चपरासी हिकइ ।) (आपीप॰114.20)
840 माँखना (= मखना) (पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ? पपुआ माय तिरछी नजर से धन्नू चा के देखैत मुसकावैत मूड़ी नचा के कहलकइ - तऽब ! हमर बाप पाँच बरीस बरतुहारी कैलका । घर मिलल तब वर नञ, वर तब घर पसीन नञ ! दुओ आँख के सूरदास ! चौपठ ! यह मुरूख दमाद कोहबर में गोड़ लगैलका पहलमान जी ! कैसन पहलवान होथि, से हम जानऽ ही । बेटी भोगऽ हियन । ढेर बुधगर रहे से तीन ठमा माँखे ।) (आपीप॰113.16)
841 माइयो (~ निकसी; निकसी ~) (मुरदा ठीक सामने आके किनारा लग गेलइ ! मौगी अऽ बेटवा जाके देखलकइ । चिकुलिया बोललइ - देखहो ने जी ! अपसूइये हइ, कत्ते सुन्नर हइ ! सुपन जाके देख के हामी भरलका ! हों हों । चिकुलिया कहलकइ - लगऽ हइ माइयो निकसी हलइ ! खस खेलनी ! नान्हें वैस में एकरा पित्त में कत्ते गरमी हलइ ? कोय अपने परिवार चाँप चढ़ा के मार देलकइ हे ! घेंचिया में रस्सी के दाग हइ !) (आपीप॰33.7)
842 माइयो (< माय) (कनियाय जब सवारी चढ़ली - मने मन छगुनैत गेली । कने से कनकट्टी बुढ़िया, झाँझी कुतिया माइयो ! बचलइ हल जतरा भगन करइ ले । हमरा पर तो जर-जिद से पड़ल हइ माइयो !) (आपीप॰99.10, 11)
843 मागु (= मौगी, जन्नी, पत्नी) (उ रसता कि बतैलक, हमर जन्नी के मन बढ़ा देलक । कहलक - जल्दी खा आर ठंढे-ठंढी चल जा ! हमरा कोय बहाना नञ रह गेल हल । खइलूँ अऽ भारी मन से दुखी चलइ घड़ी कहलूँ अपन मागु के - अहे ! कहावत हइ कि साल भर के रसता चली, मुदा महिना वाला नञ । हमरा ई सौटकट में खतरा मालूम दे हौ ।; गेलइ सूपन के बोलावइ ले तऽ देखे हे पी पा के बराबर ! उठैलकइ - तब तक निशा के हलका सुरूर आ गेलइ हल ! उठ के गाना गावो लगलइ आर नाचो लगलइ - "लोहा के गाटर में सड़िया जे फँसलौ, लहँगा भेलौ उघार गे ! घड़-घड़ घड़-घड़ गाड़ी अइलौ, भेलौ पुल के पार गे !" एतना कह के मागु के अँचरा खींचो लगला ।; जुगो-जमाना अब कैसन हो गेलइ ? तहिया मागु रहऽ हल मरद के कहला में ! अब मरद हो गेलइ मागु, आव मागु हो गेलइ मरद । छउँड़ा के जतने पढ़ावऽ हइ ओतने पढ़ऽ हइ ।) (आपीप॰6.18; 35.8; 98.21, 22)
844 मातर (= मात्र, ही) (डाकदर साहब अइला ! नवज छूते मातर भुत हो गेला । "एकरा मछली खिला देलहो ?" - "जी नञ सरकार ! एक्को घुन्नी नञ !" जिछना बोलल । - "तब बोखार कइसे पलट गेलइ ?"; ऊ रात अदरा के खीर-पूड़ी बनलइ हल, आँठे-आँठ खा लेलकइ हल ! इ अलाय-बलाय चीज पेट में जाते मातर फेंक देलकइ । फेर कुल्ला कलाला करके सुतलइ !) (आपीप॰3.4; 15.23)
845 माताराम (झखुआ पती-पत्नी पन्दरह दिन बाद पटना से घर आयल ! बुतरू के कंचन काया ! भाय के गोदी में देको गोड़ लागलइ । कहलकइ देखल्हो माताराम ? जतरा-पतरा - ई सब अंधविश्वास हइ ।; बेटवा कहलकइ - अब कि होतइ माताराम ? बनल-बनायल बाप-दादा के घर छोड़ि को अइल्हो शहर, अपन जाति भिजुन ! कहलियो केस करो, तऽ सेहो नञ ।; दोनो माय-बेटा गुमसुम चलल ! राह में बेटवा पूछलकइ - अब माताराम ? मैया कहलकइ - बेटा ! हमर दिमाग नञ काम करऽ हौ ।) (आपीप॰101.18; 108.18; 110.8)
846 मान-परतिष्ठा (मनोज बाबू ! अपने देखइ में सुन्नर ! दस बीघा सुत्थर जमीन ! भाय में अकेले ! गाँव में मान-परतिष्ठा ! मागु सुन्नर, पढ़ल, आग्याकारी ! भगवान उरेहि के जोड़ी मेरैलखिन !) (आपीप॰102.2)
847 माय (मइया इशारा से सब समझा देलकइ । ऊ आग बबूला हो गेलइ । तोरी मोहना बहिन के ... हम ओकरा माय के बेमारी में दू महीना पटना में अगोर के रहलों होसपिटल के सड़ाँध में । ओकर दू दू गो जवान बहिन साथे सूतऽ हल । मुदा कहियो मन के बेइमान नञ बनैलियै ! अप्पन बहिन समझैत रहलियै ! आर ई एकै दिन में ... !; जाड़ा के दिन । साँझ के समय । धन्नू चा चुल्हा तर बैठि को पपुआ माय से कुछ के कुछ कहैत, रहस मारैत, कहलखिन - से कि समझऽ हीं पपुआ माय ? हमरा मामूली आदमी ! हम बाहर खिड़ँयजा नञ हियौ से से, नञ तो हम देखा दियौ अप्पन करामत ! हम केकरा से कमि को हिये तोरा लखे जे हो जाय ! पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन ।) (आपीप॰20.17, 18; 112.1, 2, 5)
848 माय-बाप (बालाजीत के माय-बाप के धैल नाम बलराम हिकइ ! इसकूल में बालेश्वर । मुदा देहाती लोग विचित्र होवे हे ! ओकर अप्पन शब्द माधुर्य होवऽ हइ । बड़का नाम के ऊ बहुत छोट बना को गरहन करै हे । सेहे सती बालेश्वर के बाला कह के पुकारऽ लगल !) (आपीप॰95.5)
849 माय-बेटा (ओकर बाप से मिलके चले कहवै । जब छौड़ा-पूत्ता एकरे ले भूखल हइ तऽ बियाहे कर लिये । करे जत्ते मन होवइ । … दुओ माय-बेटा बलात्कारी के बाप के जाको कहलकइ । ओकर बाप तैश में अइलइ मुदा परेम से बैठा को समझैलकइ ! देखो ! बैर-बियाह जोड़ी । हमरा भिजुन आवइ से पहिले अपन औकात तौलि लेल्हो ?; दोनो माय-बेटा गुमसुम चलल ! राह में बेटवा पूछलकइ - अब माताराम ? मैया कहलकइ - बेटा ! हमर दिमाग नञ काम करऽ हौ ।) (आपीप॰109.11; 110.8)
850 माय-बेटी (सबेरे अकबार में समाचार छप गेलइ । एकरा पुलिस पकड़ के जेल ले गेलइ । चार दिन माय-बेटी पानी पीको भूखले सूत रहलइ ! मगर भूख तो भूख होवे हे । ऊ केकरे छोड़लक अब तक ? जे नै करा दिये !) (आपीप॰110.20)
851 मारकिन (= मारकीन; एक प्रकार का मोटा कोरा कपड़ा; मोटिया) (उन्नैस हाथ लम्बा, दू हाथ चौड़ा, मारकिन के कपड़ा, गोबर से नीप जगह पर बिछा देल गेल हे । जेकरा पर लगल हे उन्नैस पात ! हर एक पात पर पीतर के एक थरिया, एक लोटा, एक गिलास, एक साड़ी, एक नम्बर कुर्त्ता ले कपड़ा । चावर-दाल, आलू-केला, सेव-नारंगी, पूड़ी-मिठाय ! मिठाय में लड्डू-जिलेबी-खाजा ! कपटी में रसगुल्ला ।) (आपीप॰68.14)
852 माल-पत्तर (इ तरह से बोल के पाँच बेरी धूप दे के, कर जोर के अप्पन रोजी-रोजगार में विरधी ले मनौती मांगलका - मशानी बाबा ! मुरदा भेजो । ई तरह से सुक्खा रखभो तब हमर कि होतइ ? पाँच गो परानी मरिये ने जइवइ ? अऽ मुरदा कोय टुटी-फासटिक वाला नञ भेजिहो । भेजहो धन बुबुक वाला, जे माल-पत्तर दै ।) (आपीप॰31.7)
853 मिझाना (= बुताना; बुझाना) (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰90.16)
854 मिठाय (= मिठाई) (उन्नैस हाथ लम्बा, दू हाथ चौड़ा, मारकिन के कपड़ा, गोबर से नीप जगह पर बिछा देल गेल हे । जेकरा पर लगल हे उन्नैस पात ! हर एक पात पर पीतर के एक थरिया, एक लोटा, एक गिलास, एक साड़ी, एक नम्बर कुर्त्ता ले कपड़ा । चावर-दाल, आलू-केला, सेव-नारंगी, पूड़ी-मिठाय ! मिठाय में लड्डू-जिलेबी-खाजा ! कपटी में रसगुल्ला ।) (आपीप॰68.17)
855 मिर-मिराहा (जिछना बरह बज्जी गाड़ी से लक्खीसराय पहुँचल । कैम्प में पहुँच के हँकइलक - फुलवाऽऽऽ ... ! ओकर आवाज में एगो ठनक हल । जइसे कोय नगाड़ा के सेद से पहिल चोप देलक । फुलवा कलट के देखलक आव मिर-मिराहा नियन बोलल - बाऽ ... उऽऽ !) (आपीप॰5.6)
856 मिलिट (= मिनिट; मिनट) (जो बेटा ! रामदास, तोहीं ले आव । - नञ लइहें रे ! बइठल-बइठल हिकैती करैत रहतौ ! चिकुलिया कहलकइ । सूपन अपने उठला । पाँच मिलिट में एक बोतल आर साथ में चखना लेको आ गेला !; कनियाय जे दिन से गेली, एक मिलिट के फुर्सत नञ । चार भाय के एक बहिन दुलारू ! बाबाधाम के माँगल ! साँझे से घर-घर जाको आय-माय के बोलाना । अऽ अधरात तक चिकरि चिकरि को गीत गाना, नाँचना । उमाह के कि कहना । देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली ।) (आपीप॰34.22; 100.14)
857 मी लौड (= माइ लॉर्ड) (असमिरती के वकील रमेश बाबू कहलखिन - मी लौड ! असमिरती के उ समय आत्म निरनय के अधिकार हलइ । साक्ष्य के रूप में ओरीजिनल साटिक-फिटिक देखल जाय ।; अब शमशुल हौदा एण्ड को॰ बलात्कारी के केस खुलल । इनकर वकील दलील देलक - मी लौड ! जेलर शमशुल हौदा आदि अभियुक्त निरदोस हथ । इ लड़की बदचलन हइ । जाने कहाँ केकरा से इन्टेंगिल हो के बच्चा पैदा कर लेलका आर वलोभ में पैसा ऐंठे के ख्याल से बलात्कार के केस कइलक ।; असमिरती के वकील इ दलील के काटैत जवाब में कहलका - मी लौड ! धेयान दै के बात हइ । उ जेल के नाम हइ रिमांड होम । हिन्दी में जेकरा सुधार गृह कहल जा हइ । वहाँ तो बिगड़ले लोग जइवे करऽ हथिन सुधरै ले ।) (आपीप॰54.3, 13, 25)
858 मी लौड (= माइ लॉर्ड) (बलात्कारी के वकील फेर दलील देलखिन - मी लौड ! हम एक बात कह के चलइ ले चाहऽ ही, दोसर कोट में भी काम हइ । इ बच्चा के डी॰एन॰ए॰ टेस्ट करवा लेल जाय । जेकर होय ओकरा इ बीबी-बच्चा सौंप देल जाय । इ बात कोट के विचारणीय लगल । कोट हामी भरलक । मुदा असमिरती के वकील कहलखिन - मी लौड ! ई फैसला दै से पहिले असमिरती के राय ले लेल जाय । काहे कि बीबी-बच्चा जे बलात्कारी के सौंपल जइतइ, सेकरा साथ जीवन जीना ओकरा हइ ।) (आपीप॰55.2, 6)
859 मीठ (= मीठा) (लगभग पचीस साल के उमर में हुनकर मागु हुनखरा छोड़ के चल गेलखिन वहाँ ! जहाँ से कोय लौट के नञ आवऽ हइ । एक साल हुनकर रोवैत बीत गेल !याद के पुलिन्दा के बीच ... जब आबइ हलों हँसि को मिलइ हल । बगल में बैठ के परेम से बात करइ हल । मीठ ! गुड़ो से मीठ बात ! ओतना मीठ कि रसगुल्ला होतइ !) (आपीप॰102.9, 10)
860 मीरा (चमरटोली गेलइ । अन्हरा मनसुखवा बोललइ - के हा ! बुधन बाबू ? - हों हों । कि बात हइ ? - या मीरा । दिनो के भूखल हलियो । अरमान कइलों हल । नगर भोज में सात थान मिठाय खाब । मनमनयले रहलों, खाब तो कि, सूँघइ ले भी नञ !) (आपीप॰71.2)
861 मुँहदेखवा (बेटा कहलकइ - कहिया ओकरा सजाय देथिन कि नञ देथिन ? तों देखवें कि नञ देखवें ? भगवानो अमीरे के पच्छ में रहऽ हथिन ! हमरा गरीब ले कोय नञ ! ओते गाँव में आदमी हइ ! एकाध गो तोर साथी जौराती भेलो ? पंच खोजल्हीं, मिललो ? जे मिललो, मुँहदेखवा। ओकरे नियर बोलइ वाला ।) (आपीप॰29.2)
862 मुड़ी (= सिर) (~ गोतना) (सोहगी अपना के ओकर पंजा से मुक्त हो को भागइ के कोरसिस कैलकइ । बकि मरद के पंजा में कसमसाल जवानी भरल-पूरल छटपटाइत ... औरत के उहे मरद छोड़ सकऽ हे जे नामरद होतइ ! नञ छोड़लकइ ! एतने में बुन्देला चा ओने से जुम गेलखिन ! कहलखिन - इहे पढ़ाइ एजो चलऽ हे हो ! रसलीला । छउँड़ा बक दनी छोड़ देलकइ । छोउँड़ी काठ हो गेलइ । जइसैं के तइसैं ! नै हिलइ नै डोलइ ! मुड़िया गोतने जस के तस !) (आपीप॰84.17)
863 मुनिस्टर (= मिनिस्टर, मन्त्री) (सूपन के भी भीतरे-भीतरे डर समा गेलन - दुर्रर्र ... इ मतिखपत कलेट्टर कहैं जेल पहुँचा देलक तऽ कि होत ? तभी हुनकरा धेयान आयल अप्पन एम॰एल॰ए॰ शरमा जी के, एमेलेइये नञ, मुनिस्टर हथिन । अब उहे जान बचा सकइ होथ ।) (आपीप॰39.24)
864 मुरधान (~ देना) (इ तरह से पाँच-पाँच बेरी जोगनी-झकिनी-शाकिनी, भूत-भूतनी, पिचासनी के नाम लेको धूप देको - अंत में सब धूप आग में डाल के कहलका - माय जगहिया, माय गंगा, छूटल-बढ़ल सान्ही-कोन्हा में अँटकल-सटकल देवी-देवता जे हा आशा लगइने । सब के नाम से मुरधान दऽ हियो । हम्मर रोजगार में सहाय होइहा ।) (आपीप॰31.24)
865 मुराय (= मुरय, मुरई; मूली) (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰91.8)
866 मुरूत (= मूर्ति) (झखुआ के आँसू भरल आँख जैसे सब स्वीकारने जा हइ । भीतरे भीतर ई ज्वाला से मोम के मुरूत नियर गलल जा हइ ।) (आपीप॰99.6)
867 मूड़ी (= सिर) (~ पर ~ बजड़ना) (महेश एक बार सन्न हो गेलइ ! पाँच हजार ! तीन हजार तो ओकर रेट हलइ । बह बजार खुरा डोभ ! तऽ ? .. जाफरी साहब कहलखिन - साला ! ई परमोटी है । रिटायर एज में है । पैसे का जनमा है ! समझता है लूट का माल है, जबकि है ई कर्ज ! लौटाना पड़ेगा सूद के साथ ! तो भी मूड़ी पर मूड़ी बजड़ रहा है ।; उठा को हाजी साहब के सरंग गोलो कुरसिया पर फेंकि देलखिन । मथवा फूटि गेलइ ! गोड़ा हाँथा में मोच आ गेलइ ! ई भागला गेटवे दने से दू सिपाही घेरलकइ डण्टा पाटी । एगो के उठा को मुड़िये भार बजाड़ि देलखिन । मुड़िया फूटि गेलइ । दोसर के ठेलि देलखिन । गेटवा के गिरिलवा के लोहवा से टकरा गेलइ । हाँथे टुटि गेलइ ।) (आपीप॰119.13; 121.7)
868 मूतना (ऊ कहलकइ - बेटा के कि ? झारो मुत्ते पातो मुत्ते ! बेटिया तोर बहकल हो तब कोय जा सकऽ हइ । तोरा तोर काम में के मना करतो ! दिन के चाह, रात को बजार खोलि देल्हो तऽ कोय जा सकऽ हइ ।) (आपीप॰109.20)
869 मेराना (मनोज बाबू ! अपने देखइ में सुन्नर ! दस बीघा सुत्थर जमीन ! भाय में अकेले ! गाँव में मान-परतिष्ठा ! मागु सुन्नर, पढ़ल, आग्याकारी ! भगवान उरेहि के जोड़ी मेरैलखिन !) (आपीप॰102.2)
870 मैया-धीया (कुछ दिन बाद ऊ टेबि को अइलइ, खूब सोचि विचारि को ! अपन जाति के मोहल्ला में जाको सड़क किनारे । चौराहा पर फर्द में टाट के झोपड़ी देको चाह के दोकान देलकइ ! छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ ।) (आपीप॰108.4)
871 मैला (= पाखान; गन्दी वस्तु) (अरे जन्नी तो वाम बुद्धि ने होवऽ हइ । कहल गेलइ हे कि औरत के नाक नञ रहे तो मैला खाय ! अरे ! 'आदमी आनाड़ी अऽ गदहा गरि' इ कहैं सुनल्हीं हें ?) (आपीप॰112.23)
872 मोंछ-दाढ़ी (जब ओकरा मोंछ-दाढ़ी अइलइ, तब उ हमरा सम्पर्क में आयल ! ई सच हइ कि कुछ गीत लिखऽ हलइ, हमरा सुनावइ भी !) (आपीप॰95.14)
873 मोटरी (तभी ओकर धेयान भगवान पर गेल । भगवान अब सब तोहरे हाथ में । नवीन से हाँ कहवा दहो । तब तो हमर बेटा पाँड़े, हम पँड़ियाइन । नञ तब ? ... जीवन भर भटकते रहो माथा पर ई कलंक के मोटरी ले के । इहे नारी जीवन के तरासदी हइ ।) (आपीप॰43.23)
874 मोसमात (= मसोमात; विधवा) (संजोग से समरी माय मोसमतिया अइलइ । पूछलकइ - मनोज बाबू ! टमाटर रोपइ ले चाहऽ हियै । टीवेलवा तर वाला खेता देभो ?) (आपीप॰104.20)
875 मोसामत (= मसोमात; विधवा) (तब पेट काटि को पचास हजार जमा कैलकइ हल । गाल के माँसु चिबा को । दस बीघा खेत । एगो माय-बेटा ! मोसामत जनिऔरी । कहियो कथा-पूजा कइले होतइ ?) (आपीप॰71.24)
876 रंडी (पाँच हजार घूस में बात भेलो ! बाबू के कहलियो ! ऊ सूद पर रूपइया लाको देलखिन ! हम दे अइलियै बहाल करइ वाला अपीसर के । ओकरो कइ एक साल हो गेलो ! जब जा हियो, हाँ हाँ ! अब हो जायगा । घुर आवऽ हियो । उहे रूपइया हमरा ले काल हो गेलो । बाबू कहऽ हथुन - ऊ रूपइया तों रंडी के दे अइलें । चानी के जूता केकरा नञ नमा दियै ! एक हाथ रूपइया दोसर हाथ काम । या तो तों नञ देल्हीं, या रूपइया खेतारी कइलें । आखिर एक दिन कुरोधि गेलखुन । कहलखुन - हमर रूपइया ला को दा, या दुओ जीव अलग खा । लटपट बतिया मोहि न सुहाय, टाट पलंग लेहो माथा चढ़ाय ।) (आपीप॰96.13)
877 रंथी (= अरथी) (कुछ सोंच के चिकुलिया कहलकइ - अजी एक काम करो ने ! हम पटना में देखलियइ हे, एइसे करइत । ताजा लहास हइ, अभी महकले ह नञ । एकरा पानी से निकाल के धो-धा के अप्पन कपड़ा पिन्हा के, तेल-फुलेल लगा के, अतर छिट के, रंथी पर सुता के, चारो कोना पर धूप-गुंगुल जरावैत रहिहो ! अऽ टिशनमा गेटा पर धर दिहो ! कफन के नाम पर अच्छे आ जइतो ! ई मुरदा घाट से बढ़िया ।) (आपीप॰33.16)
878 रतोवा (= रायता) (कतना आदमी के खिलाना हइ पहिले ई तो ऐडिया मिल जाय । हर टोला के, महल्ला के, जाति के लोग अप्पन जनसंख्या बता देलखिन । फेर तो इसटिमिट बन गेल - दू थान ! लड्डू-जिलेबी, पूड़ी-तरकारी, आलू-परवल के रतोवा ! दही-चीनी रेड़म-रेड़ ! बस एकरा से जादा नञ !) (आपीप॰67.16)
879 रमायन-उमायन (कोय जवान लड़की के देखथ कि देखते रह जाथ । तरह-तरह के कामना । तरह-तरह के काम कल्पना । अब हुनकरा एक स्वस्थ जवान औरत के जरूरत महसूस होवो लगला । मुदा होय कि - चिड़िया चुग गेल खेत । .... अनरूध समझैलकन - मनोज धीरज धर ! कछौटा बान्ह ! तोरा राम-लछुमन दू बेटा । संसार कि कहतौ ? बियाह करभो बुढ़ारी में ! ... हे हो ! रमायन-उमायन पढ़ल करो तनी । तुलसीदास कहलखिन - छन सुख लागि जनम सत कोटी । दुख न समझ तेहि सम को खोटी ! ऊ सब एक छन के । ओकरा ले एते सोचतइ ! सब काम करिहा मगर ई मूर्खता नञ भाय ।) (आपीप॰104.1)
880 रव-रव (~ तीत) (चिकुलिया ई सब पहुँचा को जुट गेल खाना बनावइ में । एक छन सोचलक जल्दी में कि बनावल जाय । बस ! भूजिया रोटी । पहिले भूजिया बना देलकइ - आलू के खूब तेल-मसाला देके रव-रव तीत ! तातले तातले रोटी निकालने जइवे । खइतइ भी ! पीतइ भी ! खाना के खाना - चखना के चखना !) (आपीप॰35.3)
881 रसुनाय (= रोशनाई, स्याही) (धन्नू चा सबेरे घर से दही-चूड़ा खा को, जतरा बनैने सबसे पहिले आपिस में दम दाखिल । जइते इनरदेव बाबू के सलाम ठोकलखिन ! पूछलखिन - हमर दरखास अइलइ इनरदेव बाबू ? ऊ कहलकन - किसके नाम से ? - धन्नू पहलमान के नाम से । ऊ उलटि-पुलटि को फाइल देखो लगलइ । चाचा पढ़ल तो नै मुदा आददास्त के बड़ी तेज । हिनखर दरखास के पीठिया पर रसुनाय के दाग हो गेलइ हल । पट दोकोऽ चिन्ह गेलखिन - यह तो हिकइ !) (आपीप॰115.24)
882 रहस (= आनन्द, सुख; कौतुक; हँसी-ठट्ठा; उत्साह) (~ मारना) (जाड़ा के दिन । साँझ के समय । धन्नू चा चुल्हा तर बैठि को पपुआ माय से कुछ के कुछ कहैत, रहस मारैत, कहलखिन - से कि समझऽ हीं पपुआ माय ? हमरा मामूली आदमी ! हम बाहर खिड़ँयजा नञ हियौ से से, नञ तो हम देखा दियौ अप्पन करामत ! हम केकरा से कमि को हिये तोरा लखे जे हो जाय ! पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन ।) (आपीप॰112.2)
883 राबा (इसटिमिट बन गेल - दू थान ! लड्डू-जिलेबी, पूड़ी-तरकारी, आलू-परवल के रतोवा ! दही-चीनी रेड़म-रेड़ ! बस एकरा से जादा नञ ! सब कगज पर लिखा गेल - नोन से हरदी तक, पत्तल से गिलास भर, राबा से रत्ती, कुछ छूटइ के नै चाही । नै छूटल, ओक्के हो गेल । पंच के मोहर लग गेल । अनुमानतः एक लाख ! दस हजार हाथ में राखो, उपर से घटल-बढ़ल !) (आपीप॰67.18)
884 रामतोड़इ (= रामतरोई, भिंडी) (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग !) (आपीप॰91.14)
885 रासपति (= राष्ट्रपति) (इसकुल चलावै ले सरकार से मिलना जरूरी हइ । तहिया ई साल में एगो सम्मेलन करावऽ हलइ । ओकरा में बड़का-बड़का नेता के लावऽ हलइ । यहाँ रासपति तक ऐलखिन ।) (आपीप॰10.24)
886 रिपोट (कलेट्टर सी॰बी॰आइ॰ के जाँच ले लिख देलकइ । सी॰बी॰आइ॰ लिखलकइ जवाब में - अभी हमरा पाले बहुत केस धरल हइ ! हमरा लड़की के फोटो अऽ पोस्टमाटम रिपोट मिल जाय के चाही !; हम सी॰बी॰आइ॰ के जाँच लिख देलियै हे ! रिपोट आवइ तक इन्तजार करथिन !) (आपीप॰39:15; 40.25)
887 रूसना (= रूठना) (बहिनयों वैसनैं । ए माँय ! हम जाम ने तऽ, एकादसी रहइ कि द्वादसी ! बियाह-शादी में ई सब नञ लेल जा हइ । हम भैवा के रूसल जाय देवइ ! फेर बियाह होतइ हमर भैवा के कि ?) (आपीप॰98.19)
888 रूसी-गरदा (अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै । कखनै धान उसरतइ, चावर फटकतइ । ओकर रूसी-गरदा उड़तइ ! कपड़ा कार हो जइतइ । गँहूम फटकतइ । चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ !) (आपीप॰89.12)
889 रेटना (= रहटना; बहुत कठिन परिश्रम करना) (टमाटर रोपा हो गेल । केरौनी चलो लगल । ओकर मइया कहलकन - मनोज बाबू ! एजो एगो मचान गड़ि दहो । बाँग-बारी चीज बिना अगोरने ? के जाने, कखने कने से कि चल आवे । हम दिन भर माटी में रेटऽ ही । ओकरा कि लगतइ । एक छन में सब कैल-धैल चौपठ ।) (आपीप॰106.1)
890 रेड़म-रेड़ (= रेलम-रेल; मनमाना) (कतना आदमी के खिलाना हइ पहिले ई तो ऐडिया मिल जाय । हर टोला के, महल्ला के, जाति के लोग अप्पन जनसंख्या बता देलखिन । फेर तो इसटिमिट बन गेल - दू थान ! लड्डू-जिलेबी, पूड़ी-तरकारी, आलू-परवल के रतोवा ! दही-चीनी रेड़म-रेड़ ! बस एकरा से जादा नञ !) (आपीप॰67.17)
891 रेस हाऊस (= रेस्ट हाऊस) (करेजा थाम्ह के सुनहा, बात बढ़िया नञ हो ! पुष्पी के गोड़ भारी हो ! - आँय ! पुष्पी के ? कइसे ? कहाँ से ? - कहलियो ने ! ऊ जग्गा देखइ ले नञ गेलइ हल ? मोहना जौरे, ओकरे में रात हो गेलइ । कने कने ऊ, किदो रेस हाऊस होवऽ हइ ! ओकरे में सुतैलकइ आर बलात्कार कर लेलक ।) (आपीप॰18.10)
892 रेहू (एक दिन जिछना के जाल में संजोग से रेहू मछली पकड़ा गेलइ । ओकरा तो तेल में चुपड़ के खूब खर्रह के भूँजलक ।) (आपीप॰2.9)
893 रोकसदी (= रोसकद्दी; रुखसत; गौना) (सितिया लोटवा लैत मुस्का के कहलकइ - जो रे भोम्हा ! तोरा कुछ नञ बुझो अइलौ ! अऽ भीतर चल गेलइ । दूधा उझलि को लोटवा मैया पहमा भेजवा देलकइ । सौखवा दू छन खड़ा सोचैत रहलइ - हमरा कि नञ बुझो अइलइ ? फेर इहे सोचैत घर चल अइलै । बिहान दस बजे सितिया के रोकसदी हो गेलइ । सौखवा सवारी के पाछू-पाछू मन में इहे छगुनैत - 'हमरा कि नञ बुझो अइलइ ? सितिया से पूछ के रहबै ।' टीशन तक गेलइ ।; बुढ़िया फेर हुकुम देलकइ - जो जल्दी ! आझे ! अभी ! कहीं हमरा नाँगट उघार रोकसदी कर दिये ! अप्पन घर चल आयत अपना सुख-दुख के साथ रहत !) (आपीप॰79.23; 99.8)
894 रोपा (= रोपनी) (चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ ! आँखि खराब हो जइतै । रोपा दिन में मजूर ले सतुआ भूँजतइ । मन के मन घामा में ! ऊ मर जाना बेस जिन्दा रहना नञ !; हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ?; टमाटर रोपा हो गेल । केरौनी चलो लगल । ओकर मइया कहलकन - मनोज बाबू ! एजो एगो मचान गड़ि दहो । बाँग-बारी चीज बिना अगोरने ? के जाने, कखने कने से कि चल आवे । हम दिन भर माटी में रेटऽ ही । ओकरा कि लगतइ । एक छन में सब कैल-धैल चौपठ ।) (आपीप॰89.14, 22; 105.22)
895 रोवाय (= रोदन, क्रन्दन) (अनिल बाबू यहाँ जल्दी जो, नञ तऽ ई हाथ से निकल गेलौ । उ डाकदर नञ देवता हथिन । गरीब ले तो भगवाने बुझो । नामी-गिरामी बढ़िया डाकदर के सुभावो बढ़िया होवऽ हइ । दिल्ली-पटना से लौटल रोगी यहाँ कानइत आयल, हँसइत गेल । जिछना अनिल बाबू के यहाँ पहुँच के बुम्म फाड़ के कानऽ लगल, ऐसन रोवाय छूटल कि अनिल बाबू तो अनिल बाबू हथ ! आग भी ठंढा जाय ।) (आपीप॰4.6)
896 रौदा (= रउदा; धूप) (~ के झमायल) (हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? ... कुछ रहे कि नञ, हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ?) (आपीप॰89.23)
897 लगना (चावल, दाल आदि का) (चलल जा हलइ । पंचू मिललइ । बुधना पुछलकइ - कि पंचू ? कैसन रहलइ ? खइला हा खूब ? पंचू कहलकइ - अच्छे हलइ नुनु । तनी बरहवा दिन अलुआ वाला तरकरिया लागइ काँचे रहि गेलइ हल । अऽ तेरहवा दिन दलिया शायत तनी लगि गेलइ हल, तनी जराइन लागइ ।) (आपीप॰70.20)
898 लटपट (~ बात) (पाँच हजार घूस में बात भेलो ! बाबू के कहलियो ! ऊ सूद पर रूपइया लाको देलखिन ! हम दे अइलियै बहाल करइ वाला अपीसर के । ओकरो कइ एक साल हो गेलो ! जब जा हियो, हाँ हाँ ! अब हो जायगा । घुर आवऽ हियो । उहे रूपइया हमरा ले काल हो गेलो । बाबू कहऽ हथुन - ऊ रूपइया तों रंडी के दे अइलें । चानी के जूता केकरा नञ नमा दियै ! एक हाथ रूपइया दोसर हाथ काम । या तो तों नञ देल्हीं, या रूपइया खेतारी कइलें । आखिर एक दिन कुरोधि गेलखुन । कहलखुन - हमर रूपइया ला को दा, या दुओ जीव अलग खा । लटपट बतिया मोहि न सुहाय, टाट पलंग लेहो माथा चढ़ाय ।) (आपीप॰96.16)
899 लटियाना (= केश में लट्टा होना; तेल, गर्द, मैल आदि के कारण बालों का चिपकना) (ओकर बाल छुअइत कहलखिन - देखहीं तो, एतना सुन्नर बाल, से लटियाल ! साबुन से काहे नञ साफ कर दै हहीं ? - हों करबइ । सबुने खतम हो गेलइ । आसकत ! कीनबइ ! ई एक हरयरकी नोट चमचम नमरी ओकरा हाँथ में दैत कहलखिन - ले । एकरे से जे तोरा मन होतौ खरीद लिहें । साबुन-सर्फ, आवडर-पावडर । सोचिहें नै । फेर माँगवौ नञ ।) (आपीप॰106.20)
900 लतराना (माथा में चक्कर ... गोड़ लतरा जा हल, पाँच सौ रुपया से जासती के खून निकाल लेलकइ हल उ बेचारा के देह से !) (आपीप॰5.1)
901 लदर-फदर (छउँड़ी सलवार फराक पिन्हऽ लगलइ । मइया कहलकइ - दुर ने जाय ! छिछियैली ! ई लदर-फदर ... एकरा पिन्ह के रोपइ में बनतौ ? पेन्ह ले घंघरिया आव उपर से अधबहिमा कमीचवा । सेकर उपर ओढ़निया ले ले । छउँड़ी सेहे कइलकइ ।) (आपीप॰105.12)
902 लफड़ा (पेट गिराना जुर्म हइ । जा, कहैं दोसरा डाकदरनी यहाँ । हमरा कोय लफड़ा लग जाय तब ?) (आपीप॰19.7)
903 लफुआ (छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ । वेबहार बढ़ियाँ, दोकान चलि गेलइ । कुच्छे दिन में सुखी हो गेलइ ! एक-दू महीना बीतल नञ होतइ कि छउँड़ी के हँसि को बोलइ के आदत ओकर जी के जंजाल हो गेलइ । एक दिन चार गो लफुआ अइलइ - मइया-बेटवा के केप्चर कर लेलकइ, पिस्तौल देखा के, लगभग बारह बजे रात में ! एकाएकी छउँड़ी के बलात्कार करि गेलइ । छउँड़ी बदहोश !; बेटवा कहलकइ - अब कि होतइ माताराम ? बनल-बनायल बाप-दादा के घर छोड़ि को अइल्हो शहर, अपन जाति भिजुन ! कहलियो केस करो, तऽ सेहो नञ । ई लफुआ बहिन के ... पांगि गेलइ, कि एकरा से कुछ नञ होतइ ! जाति ... जाति ... जाति के लीला देखल्हो ? जाति के खूब धो धो के चाटो !) (आपीप॰108.8, 20)
904 लमगर-छड़गर (सौखवा दूध पीके, कुश्ती खेल के साले भर में जुआन हो गेल । लमगर-छड़गर गैदुम शरीर, गेहुआँ रंग । सुन्नर कत्ते लगइ ! पुट्ठा पर माँस । गरदन से लेको कान्हा तक लगइ जैसे साँढ़ के रहे ।) (आपीप॰76.5)
905 लरछना (जे किसान के भैंस बलगर अऽ गेरगर हलइ से लछरि-लछरि चौतार मारइ । ई साल के हूर वाला पाहुर के लेधड़ी, सौखवे के भैंस छिरियैलकइ ।) (आपीप॰75.16)
906 लसर-फुसर (कहलखिन - जा देलियो ! तनी नीक से खेती करिहा, जे दू पैसा तोरो होय ! आर हमरो ! समरी माय कहलकइ - लसर-फुसर कैला से कि फायदा ! बढ़ियाँ से करवइ कि !) (आपीप॰105.10)
907 लसर-मेहरा (हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? किरानी बाबू कहलखिन - एकरा कुछ के कमी नञ हइ । धन आरे-दुरे । औकात मुताबिक इहे ठीक हइ । कुरसी पर बैठइ वाला सिरिफ फरस बुकनी छोड़इ वाला होतौ । लसर मेरहा ! देखइ में चिक्कन जेकर जूरा करे महँ महँ, पेट करे कुह कुह ! बेटिया जिनगी भर कानते रहतौ । कुरसी पर बैठइ वाला तो हमहूँ ने हिकियै ! तऽ कि हइ । सोचहीं ने ।) (आपीप॰89.20)
908 लहरना (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰90.19)
909 लहरेठा (= रहैठा) (अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै । कखनै धान उसरतइ, चावर फटकतइ । ओकर रूसी-गरदा उड़तइ ! कपड़ा कार हो जइतइ । गँहूम फटकतइ । चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ !) (आपीप॰89.13)
910 लहास (= लाश) (लोग कहलकइ - कोय बनिया के बेटी हलइ - जवान । ओकरे गुण्डा राते बलात्कार कर के गंगा में फेंक देलकइ ! ओकरे लेको सड़क जाम हइ । चिकुलिया कहलकइ - उहे लहसवा हिको । अग्गे मइयो रे ! पैसा कमाय के बुद्धि देखो । चलो हमर लहसवा हम छिन लेवइ । सूपन कहलकइ - ऊ लहसवा कने से रहतइ पगली । बनिया ले जइतइ लहास ? चलें हम्मर घाट सूना हे । छोड़ें इ सब बम-बखेड़ा ।; भीड़ चीर के चिकुलिया जो जा हइ तऽ देखे हे उहे लहसवा । एकर वाला कपड़वा बदल के नया कफन ओढ़ा देलकै हे ।; लगभग दू बजे कलेक्टर अइलइ, घोषणा कैलकइ - मृतक के परिवार के दू लाख रूपैया, आर अपराधी के पता लगा के सजाय देल जइतइ । जाम टूट गेल । लहास पुलिस के हवाले हो गेल ।; चीज हम्मर, कत्ते मेहनत से गंगा जी से उपर कइलों । हमरा भीखमंगी कर के मिलल एगारह सौ । ऊ हमरे वाला लहसवा चोरा के कमइलक दू लाख । हम तखनइ पोल खोलऽ हलियइ ! कलेट्टर रूपैया देतइ हल ? पुलिस मारते हल चूतड़ पर चार लाठी ।) (आपीप॰36.7, 8, 9, 13; 37.1, 19)
911 लहास (= लाश) (सबेरे हल्ला भेलइ - लहास लायल गेल । तरह-तरह के बात चलो लगल ! केकरो केकरा पर शंका, केकरो केकरा पर । मुदा मनोज पर केकरो शंका नञ ।; कुछ सोंच के चिकुलिया कहलकइ - अजी एक काम करो ने ! हम पटना में देखलियइ हे, एइसे करइत । ताजा लहास हइ, अभी महकले ह नञ । एकरा पानी से निकाल के धो-धा के अप्पन कपड़ा पिन्हा के, तेल-फुलेल लगा के, अतर छिट के, रंथी पर सुता के, चारो कोना पर धूप-गुंगुल जरावैत रहिहो ! अऽ टिशनमा गेटा पर धर दिहो ! कफन के नाम पर अच्छे आ जइतो ! ई मुरदा घाट से बढ़िया ।; चिकुलिया कहलकइ - हों चलो ! अजी, एक काम करो ! ई लहसवा कल्ह भर पैसा देतो । नै महकलइ हे । एकरा चार गो खम्भा गड़ के मचान पर एजइ रख दा ! कुत्ता-बिलाय, गिदर-माकर नञ लेतो ! सबेरे से फेर शुरूहा ... ।) (आपीप॰21.17; 33.13; 34.2)
912 लाधना (= नाधना, शुरू करना) (करमठ के काम खतम हो गेल । अब भोज के बारी हे । बुधना अपन सलाहकार सब के बोला को झाड़लक । तोरे कुल के भरोसा पर हम ई काम लाधलो हें । एक जगह तो नाम हँसा देला । अब भोज में एक आदमी भी नै छुटइ के चाही, कोय सिकायत नै आबे ।) (आपीप॰70.6)
913 लाल-पीयर (= लाल-पीला) (इलाज शुरूह भेल । उहे लाल-पीयर गोली, उहे पानी रंग-बिरंगा । सरकारी दवाय के कहना की ? सही रहे तऽ लोग प्रायविट में काहे देखावे ।) (आपीप॰3.11)
914 लालमी (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग !) (आपीप॰91.13)
915 लावा (ठीक ऐन बखत पर ओने बरियात सज रहल हे । एने हिनखर बुतरू अब-तब में । कनियाय के तो एक्को अकिल्ले नञ । मुँह में धान दिये लावा । बुढ़िया के एक-एक बात करेजा सालो लगलन । कि जने कि होत ? आखिर होय बिहान, होय बिहान, चिट्ठी लिखलकी ।) (आपीप॰100.20)
916 लुर-बुध (चिकुलिया कहलकइ - एजो देवला के आड़, एकान्त में रूपइया गिन्हो तो कतना हो ! सूपन एक-एक करके रूपइया गिनलका - सब मिला के एगारह सो पाँच ! रूपैया के मोटरी चिकुलिया के हाथ में दैत सूपन खुसी से उछल गेलखिन । चिकुलिया के पँजोठ के चुम्बा लैत कहलखिन - वाह गे ! चिक्को रानी ! ई तोरे लुर-बुध के कमाय हे भाय ! सब पैसा तोर !) (आपीप॰34.11)
917 लूर (किरानी कुरोधि को ई कहैत कि हम बहुत देखा है पैसा वाला आप जैसे दुग्गी-तिग्गी को ! लीजिये अपना दरखास कहि के फेंकि देलकइ । आर अगल-बगल भी कुले हिनखरे दुरदुरावो लगलन ! महराज बोलने का लूर नहीं है ! आखिर इनका इज्जत है कि नहीं, आप चोर कहियेगा तब कैसे काम होगा ।) (आपीप॰116.19)
918 लेख (= लेखा) (पूछलकन - देल्हो दरखास ? - हों हों । - केकरा ? तरजनी अँगुरी से बता के कहलखिन - वह जे अपिसवा के दुअरिया पर खड़ा हइ । - आय महाराय ! ऊ तो चपरासी हिकइ । कहलियो हल, अपने से जाके हकिमे के ने दै ले । हाँथे हाँथ काम जल्दी आगू बढ़तइ हल । धन्नू चा कहलखिन - अरे मछलोकवा के लेख हँथे से ले लेकइ ! कहलकइ - लाइये हम दे देगा ।) (आपीप॰114.22)
919 लेधड़ी (जे किसान के भैंस बलगर अऽ गेरगर हलइ से लछरि-लछरि चौतार मारइ । ई साल के हूर वाला पाहुर के लेधड़ी, सौखवे के भैंस छिरियैलकइ ।) (आपीप॰75.17)
920 लेरू-पठरू (इ गीत सौखवा के इसपीसल गीत हलइ । इ गीत के महातम आर केकरे ले कुछ रहइ कि नञ, सितिया ले बहुत हलइ । जैसैं सुनइ कि समझ जाय, सौखवा भैंस चरइ ले खोल देलक । उहो अप्पन लेरू-पठरू खोल के जल्दी-जल्दी साथ हो जाय !; कभी कभी धमक्का भी लगावइ ! मुदा फेर साथे । कोय दिन ऐसनो होय कि ओकरा जादा चोट लग जाय, कानल घर भाग जाय । तब सौखवा ओकर लेरू-पठरू सब साँझ तक चरइने घर पहुँचा दै ।) (आपीप॰73.10; 74.10)
921 लेह (~ कबड्डी भागना) (हूर ले पाहुर आ गेल ! ओकर चारो गोड़ मजबूत रस्सी से कसि को बान्हि देलकइ । ओकरा में एक से दू गो नौजवान पैना पेस के उठा लै, आर हूर ... ले हूर ... कह के भैंसिया के सिंघिया भिजुन दै। कोय-कोय भैंस तो पाहुर के किकियाहट सुन के लेह कबड्डी भागइ । कोय भैंस एकाह चौतर मारइ, पाहुर कें कें करइ !) (आपीप॰75.12)
922 लैन (= लाइन) (पैसा के कोय सवाल नै हइ । सवाल हइ एकरा सम्हाड़इ के । अब तों कुले सोचो कि करवा ? हमरा तरफ से किलियर लैन हो । तोरा हाथ में वेवस्था दै हियो कइसे करवा, से तों जानो ! जे में ई नगर भोज हँसी होको नै रहि जाय !; गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰66.23; 90.17)
923 लोर (= आँसू) (कहलियौ ने, हमर माथा एत्ते नञ भुकाव । अब जाने तों, नञ जानौ तोर काम । पुष्फी घर लौट गेल । चुपचाप घर के पलंग पर तकिया में मुँह छिपा के सुबक-सुबक के कानो लगल, पूरा तकिया लोर से भींज गेलइ ।; आयल फागुन । अनरुध आ गेला । घर में खैलका । हाथ पोंछने मित्र भिजुन गेला । दोनो दोस्त गले-गले मिलला । कुछ ऐनौक-औनौक, कुछ देश-देशान्तर के खिस्सा । कुछ हाल-चाल । फेर मनोज अप्पन दुख के पुरान उलटे लगला । पुरान उलटते आँखि से ढब-ढब लोर गिरो लगल !) (आपीप॰14.18; 103.14)
924 वँसुली (= बाँसुरी) (वकील साहब कहलखिन - ओकर हतिया । नै बाँस रहे नञ वँसुली बाजे । बात खतम ।) (आपीप॰56.13)
925 वकनी (~ बकना) (झखुआ छोटकी के नहिरा से ले, आल ! बुढ़िया आपन पोता के हालत देख वुक्का फाड़ कानो लगल । फेर वइसैं वकनी बकऽ लगल, पहिले सब बात !) (आपीप॰101.11)
926 वकार (= बकार) (ऐसन मत बोल बेटा । - नञ वप्पा ... बड़ी दरद ... वप्पा ! आँख मूँद लेलक, गुम हो गेल । अब जिछना के मुँह में वकारे नञ !) (आपीप॰3.19)
927 वज्जर (= बज्जड़; वज्र) (ऊ गोली अऽ पानी पीते-पीते थक गेल, बेमारी बढ़ले गेल ! फुलवा के मन एक दिन जवाब दे देलक, बोलल - अब नञ बाबू ... । जिछना के तो पराने उड़ गेल । ... तोरे देख के हम जी रहलूँ ह । इ भरल जुआनी में तोरे देख के सनतोख कइलूँ । वियाह आदमी वंसे ले करे । हमरा सोना सन फुलवा हइये हल, तब फेर दोसर औरत काहे ले ? तोर काया वज्जर के होय । ऐसन मत बोल बेटा ।) (आपीप॰3.17)
928 वरगाही (हम तखनइ पोल खोलऽ हलियइ ! कलेट्टर रूपैया देतइ हल ? पुलिस मारते हल चूतड़ पर चार लाठी । आव चिटिंगबाजी केस में जेल भेज देतै हल । खिस्सा खतम हलइ । से हमरा खींचने चल अइलइ । सेकर नतीजा ई । सूपन डाँट देकइ - रहें वरगाही ! कल्ह हम उपाय करऽ हियै ।) (आपीप॰37.22)
929 वाड (= वार्ड) (इ लड़की महिला वाड में महिला पुलिस के निगरानी में रहै होतइ । फेर वहाँ पुरुस कैसे पहुँच जा हल ?) (आपीप॰54.22)
930 वान्हना (= बान्हना; बाँधना) (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ? ... तऽ जेकरा पकड़ऽ हइ, सेकरा चूम ले हइ, अंकवरिया में कस के वान्ह ले हइ, छोड़इ ले नञ चाहऽ हइ, इहे से बुतरू-वानर अलगे-अलग रहइ ले चाहऽ हइ ... दूरे से ढेला फेंक के मारऽ हइ ।; डा॰ शर्मा जी कहलखिन - सब बात तो भेल मगर बिलाय के गला में घंटी के वान्हत । डा॰ शर्मा जी कहलखिन - सब बात तो भेल मगर बिलाय के गला में घंटी के वान्हत ।; सिपाही श्रीराम जादव जी कहलखिन - बिलाय के गला में घंटी वान्हइ वाला तो रोड पर मारल बुलऽ हइ । पैसा फेंको तमाशा देखो ।) (आपीप॰1.3; 56.16, 21)
931 विरधी (= वृद्धि) (इ तरह से बोल के पाँच बेरी धूप दे के, कर जोर के अप्पन रोजी-रोजगार में विरधी ले मनौती मांगलका - मशानी बाबा ! मुरदा भेजो । ई तरह से सुक्खा रखभो तब हमर कि होतइ ? पाँच गो परानी मरिये ने जइवइ ?) (आपीप॰31.5)
932 वुक्का (~ फाड़ कानना) (झखुआ छोटकी के नहिरा से ले, आल ! बुढ़िया आपन पोता के हालत देख वुक्का फाड़ कानो लगल ।) (आपीप॰101.11)
933 वेहवारिक (पूछलक - नवीन ई कि ? जेल से बाहर आते के साथ बदल गेला ? नवीन बोलल - जेल के बात जेल तक । बाहर अइला के बाद वेहवारिक बात करो । अब हम तोहर कोय नञ । बच्चा नञ होतौ हल तब तोर सब पाप माफ । मुदा ई बच्चा वाला पाप हमरा पचावइ के औकात नञ ।) (आपीप॰49.2)
934 वैस (= वयस, उम्र) (नन्हें ~ में) (मुरदा ठीक सामने आके किनारा लग गेलइ ! मौगी अऽ बेटवा जाके देखलकइ । चिकुलिया बोललइ - देखहो ने जी ! अपसूइये हइ, कत्ते सुन्नर हइ ! सुपन जाके देख के हामी भरलका ! हों हों । चिकुलिया कहलकइ - लगऽ हइ माइयो निकसी हलइ ! खस खेलनी ! नान्हें वैस में एकरा पित्त में कत्ते गरमी हलइ ? कोय अपने परिवार चाँप चढ़ा के मार देलकइ हे ! घेंचिया में रस्सी के दाग हइ !) (आपीप॰33.7)
935 शुरूह (शुरूह में बरतुहार अइलइ - मुदा साफ जबाब दे देलखिन । हमरा सोना सन दू बेटा ! आँखि में पाँखि । बियाह करि को एकरा फाँसी चढ़ा दिये ? खिला-पिला के बिदा करि देथिन ।) (आपीप॰102.19)
936 शौख (= शौक) (सूपन उ रूपइवा दैत कहलकइ - जो चिक्को ! जरी तोहीं ले आवें ! - ऐं मइयो रे ! शौख कत गो ! अब ऐत गो रतिया के कौन दोकान खुलल होतइ ?) (आपीप॰34.19)
937 सँढ़दग्गी (= श्राद्ध कर्म में गर्म त्रिशूल आदि से दागकर प्रजनन कार्य के लिए छोड़ा गया बछड़ा; दागकर साँढ़ छोड़ने की प्रथा) (देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर । ओकरा से कुछ दूर में बढ़िया नसल के एक बाछा बान्हल हइ, साँढ़ दागै ले । ओकरा दागै ले गोयठा के आग में सड़सी धिप रहल हे । खूब लाल दपदप सड़सी धिपल हइ । कटहर के पत्ता पर उन्नैस पिण्ड पड़य के चाही । पिण्ड दान के काम सबेरे से हो रहल हे । अन्त में सँढ़दग्गी होत । जब पूर्ण पिण्ड दान हो गेल तब पंडित जी हुकुम देलका - अब सँढ़दग्गी होवो दा ।) (आपीप॰69.7, 8)
938 सँसरना (= ससरना, घसकना) (खेत में दू-चार गाछ रोपलकइ मुदा ओढ़निया हरदम सँसर जाय ! माथा पर से ओकरे सम्हाड़ै में पाँच गाछ के हरजा । मइया कहलकइ - मर्रर्र ! दुर्र हो !! दिन भर तों दोपट्टे सम्हाड़ै में रहमें तब रोपमें कहिया ? छउँड़ी ओढ़निया के मुरेठा बान्हि लेलकइ - देह के उभार !) (आपीप॰105.15)
939 संजोग (= संयोग, दैवयोग) (संजोग से समरी माय मोसमतिया अइलइ । पूछलकइ - मनोज बाबू ! टमाटर रोपइ ले चाहऽ हियै । टीवेलवा तर वाला खेता देभो ?) (आपीप॰104.20)
940 सकरी (~ नदी) (ई तरे तर कानला-खीजला से अच्छा कुछ कैल जाय । कि कैल जाय ? अगर हम अप्पन माय-बाप के कहऽ ही तब पहिली साँझ चाँप चढ़ा के मार देत । सकरी नदी के तेज धार में भँसा देत । बाद कि होतइ हमरा पता नञ । मरलो पर लोग गारी से थुर्री-थुर्री कर देत । एकरा से अच्छा जेकर हिकइ सेकरे कहल जाय ।) (आपीप॰12.24)
941 सचकोलवा (= सचकुरवा; सचमुच, असली) (नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर । ... घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ ! देवाल के बाहर-बाहर ठेहुना भर ऊँच असठी, देवाल लाल गेरू रंग के माटी से बढ़िया को नीपल, मुख दुआर पर माटी के बनल सिंघ, लागे जैसे सचकोलवा सिंघ ।) (आपीप॰7.15)
942 सजाय (= सजा) (मइया कहलकइ - बेटा भगवान हथिन, अनियाय के सजाय ओकरा देथिन देखहीं ने, उनका घर में देर हइ, अन्धेर नञ हइ !; बेटा कहलकइ - कहिया ओकरा सजाय देथिन कि नञ देथिन ? तों देखवें कि नञ देखवें ? भगवानो अमीरे के पच्छ में रहऽ हथिन !; लगभग दू बजे कलेक्टर अइलइ, घोषणा कैलकइ - मृतक के परिवार के दू लाख रूपैया, आर अपराधी के पता लगा के सजाय देल जइतइ । जाम टूट गेल । लहास पुलिस के हवाले हो गेल ।) (आपीप॰28.22, 24; 37.1)
943 सज्जा (= शय्या) (बगल में सज्जा दान खातिर सज्जा राखल हइ । ओकरा पर पाँचो टूक पोशाक, पलंग ! पलंग पर तोसक, तोसक पर चादर ! उपर से मछड़दानी ! तभी हमरा हँसी आयल ! सरग में मच्छड़ भी रहऽ हइ ? हमरा मुँह से एकाबैक निकल गेल !) (आपीप॰68.21)
944 सड़सी (= सँड़सी; किसी वस्तु को जकड़ कर पकड़ने का औजार) (देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर । ओकरा से कुछ दूर में बढ़िया नसल के एक बाछा बान्हल हइ, साँढ़ दागै ले । ओकरा दागै ले गोयठा के आग में सड़सी धिप रहल हे । खूब लाल दपदप सड़सी धिपल हइ । कटहर के पत्ता पर उन्नैस पिण्ड पड़य के चाही । पिण्ड दान के काम सबेरे से हो रहल हे । अन्त में सँढ़दग्गी होत ।) (आपीप॰69.5, 6)
945 सतघरवा (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.5)
946 सतन (~ जियें = छतन जी !; शतम् जीव !) (तभी बच्चा छिकलकइ । मैया 'सतन जियें' कह के ओकरा माथा पर हाथ फेर देलकइ ।) (आपीप॰49.16)
947 सती (= सेती) (सेहे ~; से ~) (भगवान नञ करथ कि ऐसन होय । मुदा सौ प्रतिशत सच मान ला कि तोर दोनो के हतिया हो सके हे । से सती तों एक दरखास लिखो कलेट्टर के कि हमरा पर खतरा देखते, के मद्देनजर हमरा लाइसेंसी सिक्स राउण्ड पिस्तौल मुहैया करायल जाय ।; बालाजीत के माय-बाप के धैल नाम बलराम हिकइ ! इसकूल में बालेश्वर । मुदा देहाती लोग विचित्र होवे हे ! ओकर अप्पन शब्द माधुर्य होवऽ हइ । बड़का नाम के ऊ बहुत छोट बना को गरहन करै हे । सेहे सती बालेश्वर के बाला कह के पुकारऽ लगल !) (आपीप॰56.2; 95.7)
948 सती (= सेती) (सेहे ~; से ~) (हम चाहऽ हलों कि अपना पाँव पर खड़ा हो जाय, तब एकर बियाह करी । मुदा इ अपन मन से बियाह कर लेलक । अभी ओकरा आत्म निर्णय करे के अधिकार नञ हइ, काहे कि ओकर उमर सोलह साल के हइ । इ आधार पर पुलिस कार्रवाई करके ओकरा जेल रिमांड होम में रखलक । सेहे सती हमरा कोर्ट से आगरह हइ कि हमरा बेकसूर के साथ न्याय कैल जाय ।; इ बदचलन लड़की जाने कहाँ-कहाँ से बच्चा पैदा कर लेलक । ओकर गोदी के बच्चा केकर हइ उहे जाने । सेहे सती हमरा कोट से गुजारिश हइ कि कोट हम बेकसूर के साथ न्याय करे ।; नवीन के जेल से छोड़ावई में बड़ी मेहनत कैलक, अप्पन पति समझ के । नै तऽ उ जेल में सड़ते रहत हल अभी तक । सेहे सती हमर कोट से परारथना हइ कि नवीन आर असमिरती के पति-पत्नी रूप में नया जीवन शुरूह करे के आदेश देल जाय ।) (आपीप॰53.4, 8, 16)
949 सती (= सेती; से ~ = इसलिए) (भैंस के दूध खाहीं, तो देखहीं करामत ! गाय के दूध खाहीं, से सती ऐसन होवऽ हौ । ले साँझ से हम एक लोटा को फेनाइले दूध भैंसि वाला पहुँचा देबौ ! तों बदली में हमरा गैया वाला दे दिहें । दस दिन खा को देखहीं, कहाँ दरद कहाँ फरद ! कुल खतम ।) (आपीप॰79.10)
950 सतुआ (= सत्तू) (चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ ! आँखि खराब हो जइतै । रोपा दिन में मजूर ले सतुआ भूँजतइ । मन के मन घामा में ! ऊ मर जाना बेस जिन्दा रहना नञ !) (आपीप॰89.14)
951 सतुर (= शत्रु, दुश्मन) (बिना बिना के कानो लगलन । अमोढकार । हमे नञ जानलियै गे माया बप्पा होतौ तोर सतुरवा । अहः हः अऽ ... ग ... गे माय ! फेर कुछ चुप होको कहलकन - अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै ।) (आपीप॰89.9)
952 सधाना (बैर ~) (घर आको दुन्नु के बोलैलकइ । कहलकइ - चाचा ! कौन जनम के दुश्मन हलियो ! अच्छा बैर सधैल्हो ! खर्च भी, कज भंड भी ! आठ आना ले एक टोपी बिना विधान नञ पूरा भेलइ । आर अन्हरा मनसुखवा भूखले रहि गेलइ ! दुइयो दिन !) (आपीप॰72.12)
953 सन (= जैसा) (तोरे देख के हम जी रहलूँ ह । इ भरल जुआनी में तोरे देख के सनतोख कइलूँ । वियाह आदमी वंसे ले करे । हमरा सोना सन फुलवा हइये हल, तब फेर दोसर औरत काहे ले ?; सब ठीक हो जइतौ ! मुदा दवाय के गोली भीतर जा नञ सकल ... । गियारी में टेंगरा सन अटक गेल । अचके फुलवा के आँख चमक के फैल गेल । इ देख के जिछना के अँखिये नञ देहियो पथला गेल ।) (आपीप॰3.16; 5.14)
954 सनतोख (= सन्तोष) (तोरे देख के हम जी रहलूँ ह । इ भरल जुआनी में तोरे देख के सनतोख कइलूँ । वियाह आदमी वंसे ले करे । हमरा सोना सन फुलवा हइये हल, तब फेर दोसर औरत काहे ले ?) (आपीप॰3.16)
955 सना (झट ~; खट ~) (सामान चढ़ गेल, कनियाय चढ़ली ! नाव धार पर सों-सों कइले, जैसे बालू पर गेहुँअन साँप चलल, झट सना गंगा पार कर देलक ।; महेश कहलकइ चपरासी से - टेबुल पर दहीं दरखास । चपरासी बोललइ - अभी साहब का मूड नहीं है । आप जाइये । हम दे देंगे । - अब कि तों तिरैता में देवें ? नञ तब दे दरखास, हम अपने से देवइ ! - हम नहीं देंगे । बस, एतना कहना हलइ कि धन्नू चा हँथे ऐंठि को चढ़ा देलखिन ! ऊ खट सना दरखास निकालि को जेबिया से दे देलकइ !) (आपीप॰99.23; 115.10)
956 सनी (चट ~) (जुआन बेटा चलल जा हइ । जान के जहर खाय, देव के दिये दोख । डाकदर के मना कइलो पर मछली खिला देलकइ । गठरिया खुले न बहुरिया दुबराय । ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !) (आपीप॰3.25)
957 सपोट (= सपोर्ट) (बिहान वोट पड़ते हल । राते भोला के सपोट ले दस गो बाहरी गुण्डा एकरा घर में आको डेरा डाल देलक ।) (आपीप॰63.7)
958 सबूर (= सब्र) (सूपन कहलकइ - उद्वेग सान्ती करो चिक्को । कोय बात नञ । सबूर ले सबूर । बिहान होवे देहीं ।) (आपीप॰38.3)
959 समांग (= शक्ति, ताकत) (सूपन हामी भरैत कहलखिन - दोसर बात ई कि अब कोय एक डेग पैदल चलइ ले नञ चाहऽ हइ । तहियौका लोग मुरदा कान्हा पर ढोने दस-दस कोस, बीस-बीस कोस से गंगा घाट लावऽ हलइ ! से अब देखऽ हहीं, मुरदा गाड़ी पर ढोवावो लगलइ ! सड़क से कत्ते दूर पड़ि जा हइ । करीब तीन कोस ! के पैदल आवऽ हइ ? अब तहियौका लोग नियर नया लोग के समांग भी नञ रहलइ ! जमाना के साथ सब कुछ बदल गेलइ हो । खान-पान, रहन-सहन, चालि-चलन, हवा-पानी, रोशनी सब डिसको हो गेलइ ।) (आपीप॰32.11)
960 समाद (= खबर, हाल, समाचार; सन्देश; बातचीत, कथन) (गंगा के मने-मने परनाम कैलकी । गछलकी नीक्के-सुक्खे घुरवो माता तब दूध के ढार देवो, रच्छा करिहा । तब कनियाय-भाय सहित सामान उतर गेल । वहाँ से घर नजदीक । घर समाद गेल । तुरंत कत्ते आदमी जुट गेल । हाथे-पाथे सब सामान लेलक !) (आपीप॰100.4)
961 समुद्दर (= समुद्र) (जने हियावऽ तने पानिये पानी लखा हे । दूर-दूर तक फइलल पानी समुन्दर के लेखा ! गाँव जइसे समुद्दर में जहाज लंगर डाल देलक हे, इ परलय में के साबूत बचल ? हमरा जानिस्ते तो कोय नञ ।) (आपीप॰1.18)
962 सम्हड़ना (= सम्हरना; सँभलना) (होवो दा नगर भोजे सही । मगर एक बात । हम अकेलुआ, से हो करता । हमर समय पिण्डे दै में बीत जइतो । तों कुल्ले नै एकरा में लगभो । अगर कसरइती कइल्हो तो ई काम नै सम्हड़तो ! तब समझो कुल गुड़ माटी । वंस के नाम कि होता आर जिनगी भर बदनामी के कलंक माथा पर । पैसा के कोय सवाल नै हइ । सवाल हइ एकरा सम्हाड़इ के ।) (आपीप॰66.20)
963 सम्हाड़ना (= सम्हारना; सँभालना) (होवो दा नगर भोजे सही । मगर एक बात । हम अकेलुआ, से हो करता । हमर समय पिण्डे दै में बीत जइतो । तों कुल्ले नै एकरा में लगभो । अगर कसरइती कइल्हो तो ई काम नै सम्हड़तो ! तब समझो कुल गुड़ माटी । वंस के नाम कि होता आर जिनगी भर बदनामी के कलंक माथा पर । पैसा के कोय सवाल नै हइ । सवाल हइ एकरा सम्हाड़इ के ।; मान ला पैसा होइयो जाय बकि नगर भोज मामूली चीज नै हइ, ओकरा सम्हाड़ना बड़ा कठिन काम !; खेत में दू-चार गाछ रोपलकइ मुदा ओढ़निया हरदम सँसर जाय ! माथा पर से ओकरे सम्हाड़ै में पाँच गाछ के हरजा । मइया कहलकइ - मर्रर्र ! दुर्र हो !! दिन भर तों दोपट्टे सम्हाड़ै में रहमें तब रोपमें कहिया ? छउँड़ी ओढ़निया के मुरेठा बान्हि लेलकइ - देह के उभार !) (आपीप॰66.22; 67.6; 105.16, 17)
964 सरकार (=पुरोहित आदि या बड़ों के लिए आदरार्थ प्रयुक्त सम्बोधन शब्द) ("एकरा मछली खिला देलहो ?" - "जी नञ सरकार ! एक्को घुन्नी नञ !" जिछना बोलल । - "तब बोखार कइसे पलट गेलइ ?" ... जिछना माथा पर हाथ धर के, जमीन पर चुक्क-मुक्कु बैठ के बोलल - "हम्मर भाग अभाग सरकार ।" आला लगावइत डाकदर साहेब बोलला - "तों झूठ बोले हें । इ जरूर मछली खइलक हे ।" – "नञ सरकार, छउँड़े से पूछ लहो ।" छोउँड़ा सिर हिला के नञ कह देलक ।; पंडित जी पाँचो टुक पोशाक उलट-पुलट के देखलका, जाने ऊ कि खोजइ हला ! ... बुधना जेबी से पाँच रूपया के नोट निकाल के कहलक - से कि सरकार ! आठ आना ले काहे बेकार होत ? लऽ पाँच रूपया लऽ ।) (आपीप॰3.6, 8, 10; 69.19)
965 सरग (= स्वर्ग) (बराहमन के वेद मंतर उच्चार से, दीप-धूप-फूल के सुगंध से ऊ जगह सरग के समान हो गेल ।; जे बुढ़िया जीवन भर कंजूसी से पेट काट के पैसा-पैसा जोड़लक सेहे पैसे आझ लुटायल जा रहल हे, ओकरा सरग में सुख पहुँचावइ ले !) (आपीप॰68.6, 10)
966 सरदी-बोखार (= सर्दी-बुखार) (एक मन करे पोखरिये के पानी पीली, बकि मन नञ भरे । जमकल पानी - सरदी-बोखार तो धैल हइ ।) (आपीप॰7.9)
967 सराध (= श्राद्ध) (गाँव के गभरू जुआन सबेरे से भिड़ गेल काम में । सराध के फिरिस तैयार - पूरा विलखो सर्ग ।) (आपीप॰67.21)
968 सरेख (सितिया अब जुआन हो चललइ हल ! शादी-बिहा भी हो गेलइ हल ! गाय चराबइ ले गाह-बेगाह जा हलइ ! काहे तऽ अब सरेख हो चललइ हल ! सरेखे नञ, जुआन ! पूरा भरबा भूत जुआन !) (आपीप॰76.24)
969 सरेठ (= श्रेष्ठ) (बराहमन के पाँचो टुक पोसाक हे, बकि माथा जे समूचे शरीर में सरेठ, सेकरा में टोपी नै । बरहमन के माथा उघारे, तब सब बेकार ।) (आपीप॰69.24)
970 सलेन्डर (= सरेंडर, surrender) (गनौरी चा के समरथक लाठी-पैना, भाला-बरछी से जुटलई ! एकरा जिमा में बन्धूक पिसतौल हलई । सुरच्छा के नाम पर वहाँ होम गाड के दूगो लाठी पाटी, एगो चौकीदार ! ऊ सब तो बम के आवाजे से सलेन्डर हो गेलइ बेचारा ! बूथ छोड़ के भाग गेलइ ।) (आपीप॰63.17)
971 सले-सले (= धीरे-धीरे) (तब तक हम सहकले सले-सले कहलियै - से सब बात कि रहतइ । अब ऊ बाबत रहलइ ? फागू दास वाला ? अब तो बाप खैलका घी तऽ बेटा हाथ सूँघे । कोय काम करतइ नै तब कइसे को परिवार चलतइ ? चोरी-छिनरपन तो नञ कैलकइ ? अप्पन देहन से कुछ कमा लेलकइ तब कि हर्ज ?) (आपीप॰94.17)
972 सवादना (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल ।) (आपीप॰2.25)
973 सवासिन (नहिरा के उमक । कनियाय सब कुछ भूल गेली । कहलो गेलइ हे टूटल सवासिन के नहिरे आस । ससुरार तो एक जेलखाना हइ । नहिरा वाला मौज कहाँ ?) (आपीप॰100.8)
974 सहकना (तब तक हम सहकले सले-सले कहलियै - से सब बात कि रहतइ । अब ऊ बाबत रहलइ ? फागू दास वाला ? अब तो बाप खैलका घी तऽ बेटा हाथ सूँघे । कोय काम करतइ नै तब कइसे को परिवार चलतइ ? चोरी-छिनरपन तो नञ कैलकइ ? अप्पन देहन से कुछ कमा लेलकइ तब कि हर्ज ?) (आपीप॰94.17)
975 सहजोर (पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ ! ऐसन धोबिया पाट मारलकइ कि खड़े चित्त ! चित्त करइ में कोय परिसरम नञ ! फेर तो उ गाँव वाला के रोस आ गेलइ ! दोसर तैयार भेलइ ! ओकरो फुरती से खड़े चित्त । फेर तो इलाका बाद हो गेलइ ! बकि, ई सहजोर ! एक लंगौटा पर पाँच कुश्ती मारलकइ ! सब पूछइ - इ कहाँ के जुआन हइ ? कि नाम हिकइ ? फेर तो एकर नाम इलाका में खिँड़ गेलइ ! जहाँ-जहाँ दंगल होय, एकरा बोलावो लगलइ । जिला जवार में नामी पहलमान हो गेलइ !) (आपीप॰76.19)
976 सहियारना (= सँभालना, गिरने न देना) (जो तोरा से कुच्छो नञ होतौ । हम जो मरद रहतियौ हल तब देखा देतियौ हल ! हमरा सहियारल नञ जा हउ । देह में उद्वेग लगल हौ । हमरे चीज अऽ हम कहँय नञ । जो रे छउड़ा पुत्ता ! तोरा भोग नञ होइहौ !) (आपीप॰38.1)
977 साँय (= स्वामी, पति) (ढेर करी अदना ले, थोड़ करी अपना ले । पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ?) (आपीप॰113.10)
978 साटिक-फिटिक (= साडिग-फिडिग; सर्टिफिकेट) (इ हथिन विधायक जी ! सांसद जी ! इ जनता के वोट नञ माँगऽ हथिन, क्रिमनल से वोट लुटवा लऽ हथिन । ... इ घोटाला करऽ हथिन ! जेल जा हथिन, तइयो कुरसी नञ छोड़ऽ हथिन । ... फेर बाहर आवऽ हथिन । सड़क के मिट्टी खा हथिन, गिट्टी खा हथिन । अलकतरा पियऽ हथिन । केस हो जा हइ फूस-फास । बेदाग कोट से बरी हो जा हथिन । सोना नियर आग से तप के निकलऽ हथिन । उच्च छवि वाला ! लम्बा भाषण दऽ हथिन । हम बेदाग निकललों । उहे इनकर साटिक-फिटिक हो जा हइ, पवित्र होवइ के ।; जनता के सामने हिन्दु रीति से विवाह कइलूँ । उ समय हमर उन्नैस साल उमर हल, जेकर मौजूदा साटिक-फिटिक प्रमान हइ ।; जब कोट में बयान दै के बात आयल तब हम सही-सही बात रख देलूँ । तब उ कहाँ से जाली साटिक-फिटिक लैलका, जेकरा में हमर उमर सोलह साल हल ।; असमिरती के वकील रमेश बाबू कहलखिन - मी लौड ! असमिरती के उ समय आत्म निरनय के अधिकार हलइ । साक्ष्य के रूप में ओरीजिनल साटिक-फिटिक देखल जाय ।) (आपीप॰27.10; 51.23; 52.3; 54.4)
979 सान्ही-कोना (हे माय ! भगवती ! तों सबके लाज रखइ वाली माता ! तोहरे खोंइछा में हियो, लजा बचावो । इस तरह से तमाम सान्ही-कोना में छिपल देवता के, देवी के, सुनावइ । जाने के सहाय हो जाय !; ऊ उठल, सुतली रात में सान्ही-कोना खोजो लगल । खुर-खुर के आवाज सुन के भइया जागलइ । पूछलकइ - की करऽ हीं गे ?; इ तरह से पाँच-पाँच बेरी जोगनी-झकिनी-शाकिनी, भूत-भूतनी, पिचासनी के नाम लेको धूप देको - अंत में सब धूप आग में डाल के कहलका - माय जगहिया, माय गंगा, छूटल-बढ़ल सान्ही-कोन्हा में अँटकल-सटकल देवी-देवता जे हा आशा लगइने । सब के नाम से मुरधान दऽ हियो । हम्मर रोजगार में सहाय होइहा ।) (आपीप॰12.8; 15.13; 31.24)
980 सारा (= साला) (ई॰सी॰जी॰ वाला इनकर बहनोइ हिकन ! एकसरा वाला सारा । पेशाब जाँच इनकर साली करऽ हथिन । खून पैखाना जाँच पत्नी । बगल में दवाय दोकान इनकर छोट भाय के हन ! मतलब पूरा परिवार मिल के रोगी के लूटऽ हथिन ! इ कमाय कानून में वैध हइ, अवैध नञ !) (आपीप॰26.21)
981 सारी (= साली) (इ हथिन विधायक जी ! सांसद जी ! इ जनता के वोट नञ माँगऽ हथिन, क्रिमनल से वोट लुटवा लऽ हथिन । ... इ घोटाला करऽ हथिन ! जेल जा हथिन, तइयो कुरसी नञ छोड़ऽ हथिन । ... इनकर अलग वेवस्था होवऽ हइ, जहाँ सारी सुविधा हिनकरा हइ । ... वहाँ सारी से मिलऽ हथिन । घरवाली से मिलऽ हथिन ! ... फेर बाहर आवऽ हथिन । सड़क के मिट्टी खा हथिन, गिट्टी खा हथिन । अलकतरा पियऽ हथिन । केस हो जा हइ फूस-फास । बेदाग कोट से बरी हो जा हथिन ।; सिपाही त्यौरी चढ़ा के, डपट के बोलल - सारी ! जा हँ कि नञ ? मारि डण्टा के चूतड़ गरम कर देवौ ।; जेलर चैन के साँस लेके सिपाही से कहलक - सारी माथा के जपाल भागल । ऊ समय हम सब से गलती भेल । बच्चा जो नञ होवो देने । तब फेर कि हल ... । जेलर साहब ! उ सिपाही के भी ओकरा साथ लगा देलका - इ कह के कि ई सारी कहैं लौट नञ जाय ! जो एकरा टिकस कटा के गाड़ी पर चढ़ा के लौटिहें ।) (आपीप॰27.5; 44.23; 46.9, 11)
982 सावा (= सवा) (सुबह-सुबह सूपन भगत गंगा नहा के गंगा के किनारे के पीपर गाछ के नीचे सावा हाथ धरती नीप के, माटी के मसानी बाबा बना, स्थापित करके, मुरदा वाला लकड़ी में लह-लह आग बना के, धूप दियो लगला - ओंग नमो मसानी बाबा । सोहा !) (आपीप॰31.2)
983 साहित (= साहित्य) (पाठक के बात छोड़ दा तऽ हमरा खुद अचरज भेल: दरोगइ करइ वाला कठोर करमी, अन्दर से एतना कोमल ! साहित परेमी ! भला, एकरा से बड़गर अचरज की हो सके है ?) (आपीप॰III.10)
984 सिंघ (= सिंह) (नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर । ... घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ ! देवाल के बाहर-बाहर ठेहुना भर ऊँच असठी, देवाल लाल गेरू रंग के माटी से बढ़िया को नीपल, मुख दुआर पर माटी के बनल सिंघ, लागे जैसे सचकोलवा सिंघ ।) (आपीप॰7.15)
985 सिकन्नर (= सिकन्दर) (ढेर करी अदना ले, थोड़ करी अपना ले । पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ?) (आपीप॰113.9)
986 सिकरेट (= सिगरेट) (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰90.18)
987 सिझाना (मइया पूछलकइ - कैसन मन हौ गे ? अच्छे हइ मइया । जो सबेरे नहा-सोना ले, मन फरेस हो जइतौ । कै भेलो हे, खिचड़ी बना को खा ले । छरहर बनइहें, खूब सिझा के, मूँग दाल वाला । फरहर बनइभीं तब ने पचतौ ।; दोसर तरह से सोचहीं । बेटी झोला लेतौ, सबेरे जइतौ तरकारी ले सब्जी मरकिट । पूछतौ टमाटर कइसे ? दस रू॰ किलो । आधा होस उड़ जयतौ । पूछतइ आलू कइसे ? पाँच रू॰ किलो । कोबी ? दस रू॰ कि॰ । बेटी के पूरा होस दुरूस्स ! लेतौ दू सौ गिराम टमाटर, दू सौ गिराम कोबी, पचीस गिराम धनिया के पत्ता ! अगड़म-बगड़म ! झोरा से लेको अइतौ आर गैस चूल्हा पर ओकरे उलटि को सिझैतौ, पलटि को बनैतौ ! ओकरे कुछ अलमारी में रखतौ, कुछ फिरीज में ! खइतौ नञ, ओकरा चाटतौ ! सूँघतौ !) (आपीप॰16.9; 90.24)
988 सिन्नुर (= सेनुर; सिन्दूर) (ललका ~; भखरा ~; सोनमा ~) (गाय के तो सिंगार मत कहो, देखैत बनतो हल । सींग में औरत आको, जेकरा दुबिनी कहऽ हइ, घी सिन्नुर लगा दिये । कोय ललका, कोय किसान भखरा सिन्नुर लगवावे । कोय सोनमा सिन्नुर से सींग चमचमावय ले लगावावै । जोठ फुदना चिलिम छाप , चिरमिच्ची छाप । तरह-तरह के छाप मत पूछो । मरद गाय के सींग में सिन्नुर नञ लगावऽ हलइ ! काहे तऽ गाय माता हिखिन !) (आपीप॰74.18, 19, 20)
989 सियाँ (= सन, दनी, दबर) (फट ~ = फट से) (फुलवा के सबेरे रोटी आव आलू के कुच्चा खिला के सुता देलक हल ! मुदा फुलवा के आँखि में नीन कहाँ ? भूँजल मछली के गंध जो नीन आवो दिये ? ... कनमटकी पारले रह गेल फुलवा । जिछना जब कटोरा में मछली के गुड़िया अऽ मड़गोद भात चापुट पार पार के खाय लगल तऽ फुलवा के कनमटकी वाला मूँदल आँख फट सियाँ खुल गेल ।; तब एक आदमी अइलइ । परनाम इनरदेव बाबू कहि के कुरसिया पर बैठि गेलइ, अऽ कहलकइ - हमर वाला निकाल्हो । किरनियाँ सात दरखास के नीचे से निकाल के सब काम करके दे देलकइ । हिनकर मन कुरोधि गेल । सोचलका ऐसन काहे ? तब तक दोसर अइलइ । उहो काम करा के झट चल गेल ! इ बुझलका ओह ! जेकर पैसवा देल हइ सेकर झट सियाँ निकालि को दे दऽ हइ । आर कुछ बात नञ ।) (आपीप॰2.14; 116.8)
990 सियाँक (~ चढ़ना) (ऊ कहलखिन - दुर हो कौवा ! जे लड़की हँसि गेलइ, समझी ऊ फँसि गेलइ । ओकरा तनी लार-दुलार दहीं, कुछ नोट छोड़हीं । छू-छाप करहीं । बात बनल हइ । माल तो बेजोड़ हौ, ई एखने गदहो के पसीन कर लेतइ । उमरिये ऐसन होवऽ हइ । ऊ सब समझा के चल गेला । हिनका सियाँक चढ़ गेलन । बिहान खेत गेलखिन - समरी मचान पर बैठल हलइ । हिनका देख के उतरो लगलइ । ई हाँथ पकड़ लेलखिन। पगली, जगहवा हइये हइ तब नीचे काहे ले जाहीं । ऊ मुसका के एक तरफ बैठि गेलइ ।) (आपीप॰106.17)
991 सिलोर (सोंटल ~) (जिछना पहिले ऐसन नञ हलइ, की जन दस दिन में एकरा की हो गेलइ है ? अब तो दुबरा के खिखनी हो गेलइ, नञ तऽ एकर देह ... ? देखइत बनऽ हलइ । सोंटल सिलोर, जुआन जइसे कोय ताड़ के जड़कुन सिल्ली होय ।) (आपीप॰1.8)
992 सिल्ल (मुदा वीसो वाला टिल्हवा पर जइसैं पहुँचलइ - पच्छिम रूख के पछिया के जबरदस्त झोंका करेजा में लगलइ ! देहे सिल्ल हो गेलइ । ठंढा बरफ, कनकन सोरा । आगू नञ बढ़ सकलय, घुर गेलइ अकेले ।) (आपीप॰81.18)
993 सींघ (= सींग) (भैंस के नेठो नियर घुरल सींघ के तो बाते छोड़ो ! दू दिन पहिले से किसान तेज छुरी से ओकर मरल चत्ता छिल के चमका दिये । बिहान दुहबिनी ओकरा में सिन्नुर तेल भोगार दिये ! ऐसन भोगारे कि कहल नञ जाय । गारा में पीतर के सिकड़ी, चमाचम पानी चढ़ायल सोना के मात करे ! गारा में जोठ, जोठ में घंटी, केकरे घंटिये नञ, घण्टा कहो, टनाक-टनाक बाजे ।; हूर ले पाहुर आ गेल ! ओकर चारो गोड़ मजबूत रस्सी से कसि को बान्हि देलकइ । ओकरा में एक से दू गो नौजवान पैना पेस के उठा लै, आर हूर ... ले हूर ... कह के भैंसिया के सिंघिया भिजुन दै। कोय-कोय भैंस तो पाहुर के किकियाहट सुन के लेह कबड्डी भागइ । कोय भैंस एकाह चौतर मारइ, पाहुर कें कें करइ !) (आपीप॰74.22; 75.11)
994 सीमाना (= सीमा) (फौदारी तो एक सीमाना तक चल के झर सके ह ! मुदा दीवानी के दीवानगी तो निराला हइ । चाहो तो पुश्त-दर-पुश्त खींच सकइ हा !) (आपीप॰22.5)
995 सीरक (= रजाई, नेहाली) (पहुँचिये तो गेलइ ! लाल-लाल भुट बैगना के खेत में ! देखे हइ तऽ कि ? मचान पर सीरक ओढ़ने चित होके बजावइ में मसगुल हइ । भिरिया जइते माँतर चिन्ह गेलइ । मर्रर्र ! दुर्र हो ! इ तो मोहना हिकइ ! बँसुरी कहाँ हइ ! किदो माटी के बनल हइ !) (आपीप॰82.17)
996 सुखराती (सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । साँझे सब किसान अपन बैल के सींग में तेल लगा लगा उरेह के नैका अपना हाथ से बनावल तरह तरह के फूल वाला फुदना सींग में पिन्हा रहल हे । गारा में नया रंग-बिरंगा जोठ पगहा । बैल के पूरा देह पर चिलिम के छाप, लाल-पीयर-हरियर तरह तरह के रंग में देखैत बने ।) (आपीप॰74.13)
997 सुतना (= सोना) (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल ।; उ अप्पन अँचरा छोड़ावैत कहलकइ - छोड़, हम जाही ! ... ऐंसइ पीको रात भर गिरल रहें ! हम जा ही खा को सूतइ ले ! ई थोड़े दे बाद उठलइ - टग्गल-टग्गल घर गेलइ ! खाना खा के, चिकुलिया के साथे सट के सुत्त रहलइ ।) (आपीप॰2.25; 35.14)
998 सुतली (~ रात में) (ऊ उठल, सुतली रात में सान्ही-कोना खोजो लगल । खुर-खुर के आवाज सुन के भइया जागलइ । पूछलकइ - की करऽ हीं गे ?) (आपीप॰15.13)
999 सुत्थर (मनोज बाबू ! अपने देखइ में सुन्नर ! दस बीघा सुत्थर जमीन ! भाय में अकेले ! गाँव में मान-परतिष्ठा ! मागु सुन्नर, पढ़ल, आग्याकारी ! भगवान उरेहि के जोड़ी मेरैलखिन !) (आपीप॰102.1)
1000 सुन्नर (= सुन्दर) (मनीसी लोग के कहना हन कि सच जब सुन्नर हो जाय तब उ शिव हो जाहै ।; भोला हुनका गाँव-घर के भतीजा लगइ हन । पढ़ाई में बढ़ियाँ, देखइ में सुन्नर । गनौरी चा के सेवा में लगल !; किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰IV.6; 61.7; 91.10)
1001 सुरर्रे (= सुर्रे) (हम लाख कहलियै छोटकी से, घीढारी नञ कराव । मुदा बूढ़ा-बूढ़ी के बात अब के माने हे ? ... बुढ़िया एक सुरर्रे बोलैत रहि गेलइ । घीढारी जे करे सेकरा साल भर नदी नञ नाँघइ के चाही, बरी नञ पारइ के चाही, कोहड़ा लगावइ के या खाय के नञ चाही, सराध के अन्न नञ खाय के चाही !) (आपीप॰98.4)
1002 सुरूर (निशा के ~) (गेलइ सूपन के बोलावइ ले तऽ देखे हे पी पा के बराबर ! उठैलकइ - तब तक निशा के हलका सुरूर आ गेलइ हल ! उठ के गाना गावो लगलइ आर नाचो लगलइ - "लोहा के गाटर में सड़िया जे फँसलौ, लहँगा भेलौ उघार गे ! घड़-घड़ घड़-घड़ गाड़ी अइलौ, भेलौ पुल के पार गे !" एतना कह के मागु के अँचरा खींचो लगला ।) (आपीप॰35.6)
1003 सुवरनडंड (= सुपरिन्टेंडेंट) (तभी हौदा साहब कहलखिन - हमरा जेल में सारा एक से एक खूँखार बन्द हइ, जेकर इहे पेसा हइ ! चार दिन में ओकरा पाताल से खोज के खतम कर देतइ । सुवरनडंड डेविल साहब बोलला - तब देरी कि ? जब इहे एक रास्ता हइ ...।) (आपीप॰56.25)
1004 सुसमुनवा (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.7)
1005 से (= वह; वे; अच्छा ? ऐसा ? क्या ?; करण तथा अपादान कारक की विभक्ति) (बेटवा कहलकइ - अब कि होतइ माताराम ? बनल-बनायल बाप-दादा के घर छोड़ि को अइल्हो शहर, अपन जाति भिजुन ! कहलियो केस करो, तऽ सेहो नञ । ई लफुआ बहिन के ... पांगि गेलइ, कि एकरा से कुछ नञ होतइ ! जाति ... जाति ... जाति के लीला देखल्हो ? जाति के खूब धो धो के चाटो ! वहाँ तो ऐसन होते हल तब लाख गो तुरते कहइ वाला हो जइते हल । जाति नञ हलइ से से कि ? यहाँ तो से नञ ?) (आपीप॰108.19, 20, 22)
1006 से मे तो (= वह मैं तुम; जो सो; कोई भी) (धन्नु चा जैसे चिढ़ावइ ले आझ बैठलखिन हल ! मुसुका को कहलखिन - पपुआ माय ! एकाह दिन जो बजार जा हियै - से मे तो बजार के कत्ते लोग जे नहियों चिन्हऽ हइ सेहो, परनाम पहलवान जी ! राम राम खलीफा जी ! अहो, हम मामूली हियै ? दशा-दिशा नर पूजिता !) (आपीप॰112.12)
1007 सेकरा (जेकरा ... ~) (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ? ... तऽ जेकरा पकड़ऽ हइ, सेकरा चूम ले हइ, अंकवरिया में कस के वान्ह ले हइ, छोड़इ ले नञ चाहऽ हइ, इहे से बुतरू-वानर अलगे-अलग रहइ ले चाहऽ हइ ... दूरे से ढेला फेंक के मारऽ हइ ।; हम हरजोतवा के बियाहवइ ! चाहे भीखमंगा रहे ! निधुरीवा ! निजलिया ! मुदा हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ?) (आपीप॰1.2; 89.17)
1008 सेद (नगाड़ा के ~) (जिछना बरह बज्जी गाड़ी से लक्खीसराय पहुँचल । कैम्प में पहुँच के हँकइलक - फुलवाऽऽऽ ... ! ओकर आवाज में एगो ठनक हल । जइसे कोय नगाड़ा के सेद से पहिल चोप देलक । फुलवा कलट के देखलक आव मिर-मिराहा नियन बोलल - बाऽ ... उऽऽ !) (आपीप॰5.5)
1009 सोचन्त (चिकुलिया कहलकइ - ई धौतला के सिवाय कोय नञ लेलको ह जी । सूपन कहलकइ - से कइसे समझल्हीं ? ऊ लेके कि करतइ ? - ओकरे कामे हिकइ । हमर आतमा कहऽ हइ । ताजा लहास हइ, मुड़िया काट के बेच लेतइ । अच्छा दाम मिलतइ । विदेस भेजल जा हइ । नै जानऽ हो ? - चलो अब गलन्त के सोचन्त कि, लछमी जे धारलकी से बहुत देलकी ।) (आपीप॰35.25)
1010 सोधरा (तोरा बहिन के मोहना ... ! ई हिम्मत ... ! - बस हो ने गेलो ? एकरा में रोस के जरूरत नञ हइ । जे बवाल करभो तोरे घाटा होतो । अभी दू महीना बीत के तेसर चढ़लइ हे, फेर भारी हो जइतो, पैसो खरचा, संसार भर बवाल भी । - मोहना बाबा के नाम ले को गरियैलखिन - तोरी मन सोधरा बेटी के ... !) (आपीप॰18.17)
1011 सो-पचास (कुछ दिन बाद ऊ टेबि को अइलइ, खूब सोचि विचारि को ! अपन जाति के मोहल्ला में जाको सड़क किनारे । चौराहा पर फर्द में टाट के झोपड़ी देको चाह के दोकान देलकइ ! छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ ।) (आपीप॰108.4)
1012 सोरा (कनकन ~) (मुदा वीसो वाला टिल्हवा पर जइसैं पहुँचलइ - पच्छिम रूख के पछिया के जबरदस्त झोंका करेजा में लगलइ ! देहे सिल्ल हो गेलइ । ठंढा बरफ, कनकन सोरा । आगू नञ बढ़ सकलय, घुर गेलइ अकेले ।) (आपीप॰81.18)
1013 सोरियाना (पुष्पी के बाप खा-पी के बंगला पर सुतइ ले जा लगलखिन । फुष्पी माय रोक लेलखिन - जरी रूक जइहा, तोरा से एक बात करइ के हो । ऊ मुस्कुरा के 'अच्छा' कहके घर के पलंग पर जा के सुत गेलखिन । पुष्पी माय खाना खा के हड़िया पतली-बरतन-वासन सोरिया के आके साथे सुत गेलखिन ।; सिपाही बोलल - सर, हमरा से ई सिद्ध नञ होत । अपने से ई काम सोरियइयै । जेलर साहब खुद अइला । असमिरती से कहलका - बेटी, इ जेल हइ । मियाद तोर पूरा हो गेलौ । एकरा से जादा अब कोय नञ रख सकऽ हौ । अब अप्पन घर चल जो ।) (आपीप॰17.21; 45.18)
1014 सोहा (= स्वाहा) (सुबह-सुबह सूपन भगत गंगा नहा के गंगा के किनारे के पीपर गाछ के नीचे सावा हाथ धरती नीप के, माटी के मसानी बाबा बना, स्थापित करके, मुरदा वाला लकड़ी में लह-लह आग बना के, धूप दियो लगला - ओंग नमो मसानी बाबा । सोहा !; फेर ऊ धूप दियो लगला - ओंग माय काली नमो सोहा ! फेर पाँच बेरी धूप देके गोड़ लग के काली माय से कहलकन - आँय ! माय काली ! एत्ते तो खोंटा-पिपरी नियर धरती पर आदमी जनमि गेलइ ! एकरा काट-वाछ नञ करभो तब जुलुम हो जइतइ, माता ।) (आपीप॰31.3, 12)
1015 सौटकट (= शॉर्टकट) (उ रसता कि बतैलक, हमर जन्नी के मन बढ़ा देलक । कहलक - जल्दी खा आर ठंढे-ठंढी चल जा ! हमरा कोय बहाना नञ रह गेल हल । खइलूँ अऽ भारी मन से दुखी चलइ घड़ी कहलूँ अपन मागु के - अहे ! कहावत हइ कि साल भर के रसता चली, मुदा महिना वाला नञ । हमरा ई सौटकट में खतरा मालूम दे हौ ।) (आपीप॰6.19)
1016 स्वास्थ (= स्वास्थ्य) (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰91.10)
1017 हजार-वजार (रहलइ खलास करइ के बात । दस-पाँच रूपा में तो नञ होतइ । ओकरा में हजार-वजार लगतइ । बिना माय-बाप के कहने ई काम सम्भव नञ हइ ।) (आपीप॰15.3)
1018 हतिया (= हत्या) (भगवान नञ करथ कि ऐसन होय । मुदा सौ प्रतिशत सच मान ला कि तोर दोनो के हतिया हो सके हे । से सती तों एक दरखास लिखो कलेट्टर के कि हमरा पर खतरा देखते, के मद्देनजर हमरा लाइसेंसी सिक्स राउण्ड पिस्तौल मुहैया करायल जाय ।; वकील साहब कहलखिन - ओकर हतिया । नै बाँस रहे नञ वँसुली बाजे । बात खतम ।) (आपीप॰56.1, 13)
1019 हम्मर (= हमारा) (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ?) (आपीप॰1.1)
1020 हरखित (= हर्षित) (नाव ओय पार लगल हल । कनियाय कल-कल छल-छल करि को बहैत गंगा के निरमल धार के देख हरखित मन से परनाम कैलकी । फेर बुढ़िया के एक-एक बात - साल भर नदी पार नञ जाय के चाही, कोहड़ा नञ रोपइ के चाही ... आदि-आदि दिमाग में सिनेमा के फोटू सन आवो लगलन ।) (आपीप॰99.17)
1021 हरगिस (= हरगिज) (हमरा नजर में नौकरी वाला से बढ़ियाँ लगऽ हौ किसान दूल्हा ! एक ! दोरथें नौकरी वाला करइ के औकाद भी नञ ! हम करवै ओकरे । मन में संकलप लेलियौ हे । तों करभीं ? ओकरे तऽ देखहीं हम कि करऽ हियौ ? हरगिस नै हरजोतवा से करो देवौ । एकरा लिए नँगटीनी कहावी तऽ नँगटीनी सही !) (आपीप॰92.13)
1022 हरचन (बाप कहलखिन - अब तो तोरा कोय नञ रखतौ । नवीन भी नञ । अब एक काम कर - इ बच्चा नष्ट कर दे । हम तोर दोसर बियाह रचा देवौ । सुख से रहिहें । ई बोलल - हम ऐसन हरचन नै करवै पापा । चाहे जे कष्ट होय । एक माता के धरम ई नञ कहऽ हइ ।) (आपीप॰47.7)
1023 हरजोतवा (हम हरजोतवा के बियाहवइ ! चाहे भीखमंगा रहे ! निधुरीवा ! निजलिया ! मुदा हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ?; कुछ रहे कि नञ, हमर परतर करतइ हरजोतवा ?) (आपीप॰89.15, 17, 22)
1024 हर-हमेसे (मिनिसटर साहब गरम हो गेलखिन । कहलखिन - कुल पागलपन झाड़ि देवो ! होश में बात करो । कलेट्टर कहलकइ - होसे में हियै ! हमर नौकरी तो नै खा सकऽ हो, बदली ले हर-हमेसे बोरिया-बिस्तर बान्हने रहऽ हियइ । एतना कह के फोन रख के दू चारि गारी देलकइ - साला, बहिन ... ई सब अथायल-वथायल कने से मंत्री बन के राज के पैसा लूटइले ... !) (आपीप॰41.13)
1025 हरियरकी (= हरे रंग की) (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰91.7)
1026 हरियरकी (= हरे रंग की) (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰91.7)
1027 हलसना (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल ।) (आपीप॰2.25)
1028 हलुमान (= हनुमान) (बुढ़िया आँचर पसार के टेंटुआ लोर ढारते भगवान से कहलकइ - जानो भोला बाबा ! बुतरू जाहो कानल, हँसल घर आवे ! लड्डू चढ़इवो हलुमान बाबा ! धुरियाइले गोड़ चल चढ़ा देवो बाबा बैदनाथ ।) (आपीप॰101.16)
1029 हवा (= है) (कुछ मगहिया, 'आदमी' के 'अमदी' कहना ठीक मानऽ हथिन । कुछ 'है' के 'हवा' कहऽ हथिन - जैसे - हमरा कौन चीज नञ हवा जी ।) (आपीप॰V.21)
1030 हहरना (कोय परवाह नञ बेटा ! तोरा ले हम परान देके कौआ के अमर बूटी ले अइलियो ... हहरिहें नञ । फुलवा गड़र-गड़र आँख से हियावैत रह गेल । दवाय के पुड़िया देखा के जिछना कहलक, देख तोरा ले पटना से दवाय ले अइलियौ ।) (आपीप॰5.9)
1031 हहास (कहल्हीं ने सरकारी पैसा ! ऊ सब भला आदमी के नञ लै के हिकइ । हमरा से नञ तऽ हमरा मरला के बाद, बालो-बच्चा से असूल करि सकऽ हइ । जानि-बुझि को लै ले नञ चाहऽ हियै । दोसरे ऊ हिकइ धुरफंदी काम ! काम-धंधा छोड़ि को जे ओकरे में लागल हइ । राति-दिन दौड़ब करऽ हइ । खाली तोरा देखइ में लागऽ हौ । हाँथी के दाँत । ऊ अर खाली हहास हिकइ । जइसे आल वइसे गेल ।) (आपीप॰113.7)
1032 हाँथे-हाँथ (= हाथे-हाथ, हाथ में ही) (कहवै कि ? कत्ते लगतइ ? हजार-दू हजार । तब निकलवो तो करतइ - बीस हजार । रहे दू हजार कम्मे छौड़ा पूत के । धन्नू चा 'बेस' कहि को सबेरे चलि देलका बलौक ! अगरीकलचर लोन लै ले ! फारम लेलका - पाँच रूपइया । ओकरा भरवैलका महेश से । एगो टिप्पा लेको कहलकन कि जाको अपने से हाँथे हाँथ हाकिम के दे दहो !; पूछलकन - देल्हो दरखास ? - हों हों । - केकरा ? तरजनी अँगुरी से बता के कहलखिन - वह जे अपिसवा के दुअरिया पर खड़ा हइ । - आय महाराय ! ऊ तो चपरासी हिकइ । कहलियो हल, अपने से जाके हकिमे के ने दै ले । हाँथे हाँथ काम जल्दी आगू बढ़तइ हल । धन्नू चा कहलखिन - अरे मछलोकवा के लेख हँथे से ले लेकइ ! कहलकइ - लाइये हम दे देगा ।) (आपीप॰114.5, 21)
1033 हाथे-पाथे (गंगा के मने-मने परनाम कैलकी । गछलकी नीक्के-सुक्खे घुरवो माता तब दूध के ढार देवो, रच्छा करिहा । तब कनियाय-भाय सहित सामान उतर गेल । वहाँ से घर नजदीक । घर समाद गेल । तुरंत कत्ते आदमी जुट गेल । हाथे-पाथे सब सामान लेलक !) (आपीप॰100.5)
1034 हाली (के भोरे बँसिया बजा दे हइ । बैरून नींदिया से हाली जगा दे हइ ॥) (आपीप॰81.12)
1035 हिकैती (~ करना) (ऐं मइयो रे ! शौख कत गो ! अब ऐत गो रतिया के कौन दोकान खुलल होतइ ? - हों, हों ! दारू के दोकान असल इहे बेला चलऽ हइ ! वह चारि डेग में कोनमा पर हइ ! जो बेटा ! रामदास, तोहीं ले आव । - नञ लइहें रे ! बइठल-बइठल हिकैती करैत रहतौ ! चिकुलिया कहलकइ ।) (आपीप॰34.22)
1036 हिनकर (= म॰ इनकर; हि॰ इनका) (बड़ा मेहनत से मिल गेल करमचारी ! ओकर बाप भी हिनका पसीन कैलक । हिनकरो मन डूब गेल । खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी !) (आपीप॰87.21)
1037 हिनका (=म॰ इनका; हि॰ इन्हें, इनको) (काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में ! नैकी काँगरेस के कहऽ हलखिन - बिना पेंदा के लोटा ! साँझ बोलल कुछ, बिहान बोलल कुछ ! ... बकि ज्ञानदा बाबू अपन विचार सहज में बदलइ वाला नै हथिन ! हिनका टूटना मंजूर, मुदा झुकना नै ! से पुरनकीये के पकड़ने रहलखिन !; बड़ा मेहनत से मिल गेल करमचारी ! ओकर बाप भी हिनका पसीन कैलक । हिनकरो मन डूब गेल । खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी !) (आपीप॰61.5; 87.21)
1038 हिनखर (= हिनकर, इनकर) (मनोज बाबू पूछलखिन - बड़ छउँड़ी हइ कि छउँड़ा ? - छउँड़ी पहिलूठ हो कि । लगले दू बरीस बाद छउँड़ा भेलो । छउँड़ी के यह पनरहवाँ बीत के सोलहवाँ चढ़लो हे । हिनखर आँख के आगू अनरूध वाला नकसा साफ हो गेल । कहलखिन - जा देलियो ! तनी नीक से खेती करिहा, जे दू पैसा तोरो होय ! आर हमरो !) (आपीप॰105.8)
1039 हिन्छा (= इच्छा) (बुढ़िया घर से एगो कुश के चटाय लाके चन्दन गाछ के छाहुर में बिछा देलक, आर घर से एक लोटा घोर - जेकरा में जीरा-जमाइन, काला नीमक, मरीच देल । कहलक - पहिले बेटा ! एकरे पी ले । तब पानी पीहें । करेजा ठंढा रहतौ । हम लोटा भर घोर पी गेलूँ, मिजाज शीतल हो गेल । पानी पियइ के हिन्छा खतम ।; पंच लोग के बात सुन के बुधना के मन ढेंऊँसा बेंग ऐसन फूल गेल । पहाड़ी नदी जइसन उफनल जाय । एक बेरी तरे से बबकि को बोललइ - जब तोर कुले महान आदमी के आर बंस-खूट के इहे हिन्छा हो, तऽ होवो दा नगर भोजे सही ।) (आपीप॰8.13; 66.18)
1040 हियाना (= की ओर देखना) (जने हियावऽ तने पानिये पानी लखा हे । दूर-दूर तक फइलल पानी समुन्दर के लेखा ! गाँव जइसे समुद्दर में जहाज लंगर डाल देलक हे, इ परलय में के साबूत बचल ? हमरा जानिस्ते तो कोय नञ ।; जिछना जब कटोरा में मछली के गुड़िया अऽ मड़गोद भात चापुट पार पार के खाय लगल तऽ फुलवा के कनमटकी वाला मूँदल आँख फट सियाँ खुल गेल । कौर चिबावइत फुलवा जिछना दने हियावे हे, तऽ देखे हे कि गुजुर-गुजुर दूगो आँख कटोरा दने ताक रहल हे । जब कौर उठावे तऽ ओकरा लगे कि हर कौर में फुलवा के आँख हे ।; कोय परवाह नञ बेटा ! तोरा ले हम परान देके कौआ के अमर बूटी ले अइलियो ... हहरिहें नञ । फुलवा गड़र-गड़र आँख से हियावैत रह गेल । दवाय के पुड़िया देखा के जिछना कहलक, देख तोरा ले पटना से दवाय ले अइलियौ ।) (आपीप॰1.17; 2.14; 5.9)
1041 हिरोही (भोला कहलकइ - से तो हइ, मुदा जुल्मी के मार के जइतों हल, तब कोय हिरोही नै ! ई बेकसूर के, बिना खदी-बदी के अप्पन गोतिया भाय के मार के जेल गेलों, इहे अपसोच हमरा तिल-तिल खा रहल हे । अपना पेट खातिर ई काम कइलों ! सेहो नै भेल, उलटे बाप-दादा के जे दू बीघा हल सेहो बिक गेल ।) (आपीप॰64.16)
1042 हिसाब-किताब (तोरा टीवेल भिजुन खेत हइयै हो । ओजौका दू बीघा खेत टेबि को जेकरा जिमा नया माल हइ, ओकरा बटैया दे देहो । कड़ैती नञ, कसरैती नञ, कंजूसी नञ, हिसाब-किताब नञ । दुलार करहीं, पोछैत-पाछैत मुँह खाय, आँखि लजाय ! राजी हो जइतइ । जब तक नया हइ, रहतइ, पुरान होतइ, घर जायत । आर कि ?) (आपीप॰104.16-17)
1043 हुनकर (= उनकर; ~ बात = उनकी बात) (हुनकर बात खतम होते माँतर दीपो बाबू कहलखिन - कौन लाज कहबइ ! कहाँ तों भीमसेनिया कपूर अऽ कहाँ दोसर अकवन के दूध !; लगभग पचीस साल के उमर में हुनकर मागु हुनखरा छोड़ के चल गेलखिन वहाँ ! जहाँ से कोय लौट के नञ आवऽ हइ । एक साल हुनकर रोवैत बीत गेल !) (आपीप॰65.9; 102.6, 8)
1044 हुनकरा (सूपन के भी भीतरे-भीतरे डर समा गेलन - दुर्रर्र ... इ मतिखपत कलेट्टर कहैं जेल पहुँचा देलक तऽ कि होत ? तभी हुनकरा धेयान आयल अप्पन एम॰एल॰ए॰ शरमा जी के, एमेलेइये नञ, मुनिस्टर हथिन । अब उहे जान बचा सकइ होथ ।; कोय जवान लड़की के देखथ कि देखते रह जाथ । तरह-तरह के कामना । तरह-तरह के काम कल्पना । अब हुनकरा एक स्वस्थ जवान औरत के जरूरत महसूस होवो लगला । मुदा होय कि - चिड़िया चुग गेल खेत ।) (आपीप॰39.23; 103.3)
1045 हुनका (= उनका; उन्हें) (भोला हुनका गाँव-घर के भतीजा लगइ हन । पढ़ाई में बढ़ियाँ, देखइ में सुन्नर । गनौरी चा के सेवा में लगल !) (आपीप॰61.7)
1046 हुनखरा (= हुनकरा) (लगभग पचीस साल के उमर में हुनकर मागु हुनखरा छोड़ के चल गेलखिन वहाँ ! जहाँ से कोय लौट के नञ आवऽ हइ । एक साल हुनकर रोवैत बीत गेल !याद के पुलिन्दा के बीच ... जब आबइ हलों हँसि को मिलइ हल । बगल में बैठ के परेम से बात करइ हल । मीठ ! गुड़ो से मीठ बात ! ओतना मीठ कि रसगुल्ला होतइ !) (आपीप॰102.6)
1047 हूर (जे किसान के भैंस बलगर अऽ गेरगर हलइ से लछरि-लछरि चौतार मारइ । ई साल के हूर वाला पाहुर के लेधड़ी, सौखवे के भैंस छिरियैलकइ । जे किसान के गाय चाहे भैंस पाहुर देखते भाग जाय, से किसान के मरग बुझो । ओकरा लगल जैसे माथा पर अस्सी चोट के बज्जड़ गिर गेलइ । जेकर भैंसि हूर ले लेलक, से भैंस गोरखिया के मन आसमान छू लिये, देह एक बित्ता उँच हो जाय ! उ जानवर के इलाका भर में गजट हो जाय, बिके तऽ दू पैसा जादे दाम में, सिरिफ इहे गुन के चलते । जे दिन से सौखवा के भैंस हूर लेलकइ, से दिन से सौखवा के मान घर में बढ़ि गेलइ ! सौखवा के बाप कहलखिन - सौखवा माय से ... छौड़ा के दूध खाय में नञ रोकिहो ! एकरा पी-खा को जे बचतइ, सेकर बिजनीस होतइ ।) (आपीप॰75.17, 19, 23)
1048 हूर (सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । साँझे सब किसान अपन बैल के सींग में तेल लगा लगा उरेह के नैका अपना हाथ से बनावल तरह तरह के फूल वाला फुदना सींग में पिन्हा रहल हे । गारा में नया रंग-बिरंगा जोठ पगहा । बैल के पूरा देह पर चिलिम के छाप, लाल-पीयर-हरियर तरह तरह के रंग में देखैत बने ।; सबेरे आधा दाम पर सूअर के पाहुर ले आवे ! काहे तऽ मरल पाहुर फेर ओकरे लौटा देते हल । भैंसि किसान अलगे ! गाय किसान अलगे हूर दिये । ई परम्परा अब समाप्त हो गेल । ई खास किसान के उत्सव हलइ । … उ पुरान प्रथा हम तनी-मनी देखलों हँ जब हम दस-बारह बरस के हलौं !; हूर ले पाहुर आ गेल ! ओकर चारो गोड़ मजबूत रस्सी से कसि को बान्हि देलकइ । ओकरा में एक से दू गो नौजवान पैना पेस के उठा लै, आर हूर ... ले हूर ... कह के भैंसिया के सिंघिया भिजुन दै।) (आपीप॰74.13; 75.9, 11)
1049 हेमान (= हैवान) (नवीन भी तो बेचारा दुख भोग रहल हे । हम तो जेल से निकललूँ । मुदा ऊ जेल के सजाय काट रहल हे । हम दोनो बेकसूर ही । दुनिया वाला कैसन हेमान हइ ? मनुस के धर्म में बाँट देलक ।) (आपीप॰43.25)
1050 हेरना (= ढील्ला) (दुपहरिया खा-पी के तैयार भेलइ । मइया बोलैलकइ - पुष्पी ? आवें तो, देखहीं मथवा में कि तो काटऽ हइ ! - ढील्ला होतौ आर की ? -आवें ने, हेर दहीं । पुष्पी मइया के पीठ दने बैठ के ढील्ला हेरो लगलइ ।) (आपीप॰16.15, 16)
1051 हेलना ("सावन में जनमलें, भादो में देखले बाढ़, तऽ कहलें कत्ते पानी ! इ बाढ़ नञ, बाढ़ के पुच्छी हे । सन बीस वाला बाढ़ में टिल्हा-टाँकर सब डूब गेल हल ।" आव चार दिना बाद जब बाढ़ कन्हैया दुसाध वाला अँगना में हेल गेलइ, तब पूछलियन, अब काका सन बीस वाला से बढ़लइ कि नञ ? काका चुप्प ... ने हाँ बोलथिन, ने हूँ ।) (आपीप॰1.14)
1052 है (= हइ) (एतना से हम खुद सन्तुष्ट नञ ही, तों कने से सन्तुष्ट भेल होवा ? ई विषय गंभीर आव बड़गो है । हमरा पास ओत्ते लिखइ ले ई किताब में जगह नञ है ।) (आपीप॰V.26)
1053 हो ( आँय ~; ए ~) (आँय हो, ऊ कत्ते लेतइ ? धन्नू चा पूछलखिन । महेश कहलकइ - अच्छे, इहो बात पूछि लेल्हो । ओकर बान्हल हइ - बह बजार तीन हजार ! तब जाफरी साहेब ! अच्छे आदमी हइ । तीन हजार एक मुश्त ले लेला के बाद, तोरा दौड़इ धूपइ के कोय काम नञ । सारा काम ऊ करा को रखतो । जे डेट देतो, से पर जइभो, दसखत करबइतो, रूपइया तोहरा देतो । मगर अप्पन घूस पहिले ले लेतो !) (आपीप॰117.22)
713 बंस-खूट (पंच लोग के बात सुन के बुधना के मन ढेंऊँसा बेंग ऐसन फूल गेल । पहाड़ी नदी जइसन उफनल जाय । एक बेरी तरे से बबकि को बोललइ - जब तोर कुले महान आदमी के आर बंस-खूट के इहे हिन्छा हो, तऽ होवो दा नगर भोजे सही ।) (आपीप॰66.18)
714 बइठारी (= निठल्लापन, काम या रोजगार का अभाव, आराम करने का समय) (आदमी कइसहूँ कइसहूँ रिलिफ वाला गहूम मिलो, दान वाला खिचड़ी, कोतरी मछली के पका-पका खा के जान पाल रहल हे । गहूम कि मिलऽ हलइ ... बुझिहा वघ आधार । जान माघे जान उहे मछलिया, जेकरा वंसी में बझा के जाल से पकड़ के बइठारी में पका पका खइलक ।) (आपीप॰1.24)
715 बक (~ दनी) (सोहगी अपना के ओकर पंजा से मुक्त हो को भागइ के कोरसिस कैलकइ । बकि मरद के पंजा में कसमसाल जवानी भरल-पूरल छटपटाइत ... औरत के उहे मरद छोड़ सकऽ हे जे नामरद होतइ ! नञ छोड़लकइ ! एतने में बुन्देला चा ओने से जुम गेलखिन ! कहलखिन - इहे पढ़ाइ एजो चलऽ हे हो ! रसलीला । छउँड़ा बक दनी छोड़ देलकइ । छोउँड़ी काठ हो गेलइ । जइसैं के तइसैं ! नै हिलइ नै डोलइ ! मुड़िया गोतने जस के तस !) (आपीप॰84.16)
716 बकलोल (जब बप्पे कहलकइ - लड़े ने भोम्हा ! बजड़ जइवें तऽ बजड़िये सही ! जन्नी हिखीं जे चूड़ी फूटतइ ? बकलोलवा । लड़ गेलइ । पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ !) (आपीप॰76.15)
717 बकि (= बाकि; लेकिन) (भोला सुनलक - सिधेसर मिनिस्टर हो गेला ! मारे खुशी के पाँचो नाँच उठल । जेल में मिठाय बाँटलक । बकि जेल से छुटइ के कोय उपाय नै ! एकरा बहुत उमेद हल ! बकि मिनिस्टर साहब ! घुरि को देखइ ले भी नै ऐलखिन ।) (आपीप॰64.1)
718 बगैचा (= बगइचा; बगीचा) (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग ! बगैचा में आम ! कच्चा से पाकल तक । जते खा । अँचार बनावो । बैना बुलावो । जे जी में आवो करो ।) (आपीप॰91.16)
719 बघौंछ (बाघ के ~) (ई पीठ पोछो लगलखिन । ऊ मुसका देलकइ । हिनकर मन बढ़ गेलइ । वहाँ हाथ लगा देलखिन जहाँ नञ लगावइ के चाही ... ऊ कानो लगलइ ! खोपड़ा से बाहर आ गेलइ । कानले घर गेलइ ! ई तो जैसे बाघ के बघौंछ लग गेल रहे ! चुपचाप ओजइ रह गेलखिन !) (आपीप॰107.15)
720 बजड़ना (प्रे॰क्रि॰ बजाड़ना) (जब बप्पे कहलकइ - लड़े ने भोम्हा ! बजड़ जइवें तऽ बजड़िये सही ! जन्नी हिखीं जे चूड़ी फूटतइ ? बकलोलवा । लड़ गेलइ । पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ !; महेश एक बार सन्न हो गेलइ ! पाँच हजार ! तीन हजार तो ओकर रेट हलइ । बह बजार खुरा डोभ ! तऽ ? .. जाफरी साहब कहलखिन - साला ! ई परमोटी है । रिटायर एज में है । पैसे का जनमा है ! समझता है लूट का माल है, जबकि है ई कर्ज ! लौटाना पड़ेगा सूद के साथ ! तो भी मूड़ी पर मूड़ी बजड़ रहा है ।) (आपीप॰76.14, 15; 119.13)
721 बजड़ा (आझ कहलकइ - सीतो ! बान्ह नगौटा ! तनी कुश्ती खेला दियौ । दुओ कुश्ती लड़ो लगलइ । सितिया बल तो करइ, मुदा सौखवा के साथ कि थम्हते हल ! तुरत चित्त करि को छतिया ठोकि दै । ... सितिया के अंतिम बजड़ा में कुछ चोट आ गेलइ या नाटक हलइ ? भगवान जाने !) (आपीप॰78.19)
722 बजाड़ना (जरूर ई बढ़िया भूत हइ । मारइ के रहते हल तब मचान डोलाबइ के कि काम हलइ ? ई मजाक करइ के कि जरूरत, तब तो सीधे हमरा मचने पर से उठा के बजाड़ देते हल ! या हमरा देह में समा जइते हल !; मोहना के आँख में आँसू आ गेलइ । टप-टप चूअऽ लगलइ । चाचा के गोड़ पर गिर पड़लइ ! माँफ करहो काका ! अब बँसिया नञ बजइवइ । अऽ माटी उरेहि को बनायल बँसिया मचान के खंभा पर बजाड़ देलकइ । ऊ चुन्नी-चुन्नी हो गेलइ ।; उठा को हाजी साहब के सरंग गोलो कुरसिया पर फेंकि देलखिन । मथवा फूटि गेलइ ! गोड़ा हाँथा में मोच आ गेलइ ! ई भागला गेटवे दने से दू सिपाही घेरलकइ डण्टा पाटी । एगो के उठा को मुड़िये भार बजाड़ि देलखिन । मुड़िया फूटि गेलइ ।) (आपीप॰83.12; 85.3; 121.7)
723 बजार (= बाजार) (धन्नु चा जैसे चिढ़ावइ ले आझ बैठलखिन हल ! मुसुका को कहलखिन - पपुआ माय ! एकाह दिन जो बजार जा हियै - से मे तो बजार के कत्ते लोग जे नहियों चिन्हऽ हइ सेहो, परनाम पहलवान जी ! राम राम खलीफा जी ! अहो, हम मामूली हियै ? दशा-दिशा नर पूजिता !; आँय हो, ऊ कत्ते लेतइ ? धन्नू चा पूछलखिन । महेश कहलकइ - अच्छे, इहो बात पूछि लेल्हो । ओकर बान्हल हइ - बह बजार तीन हजार ! तब जाफरी साहेब ! अच्छे आदमी हइ । तीन हजार एक मुश्त ले लेला के बाद, तोरा दौड़इ धूपइ के कोय काम नञ । सारा काम ऊ करा को रखतो । जे डेट देतो, से पर जइभो, दसखत करबइतो, रूपइया तोहरा देतो । मगर अप्पन घूस पहिले ले लेतो !) (आपीप॰112.12; 117.23)
724 बज्जड़ (जे किसान के भैंस बलगर अऽ गेरगर हलइ से लछरि-लछरि चौतार मारइ । ई साल के हूर वाला पाहुर के लेधड़ी, सौखवे के भैंस छिरियैलकइ । जे किसान के गाय चाहे भैंस पाहुर देखते भाग जाय, से किसान के मरग बुझो । ओकरा लगल जैसे माथा पर अस्सी चोट के बज्जड़ गिर गेलइ । जेकर भैंसि हूर ले लेलक, से भैंस गोरखिया के मन आसमान छू लिये, देह एक बित्ता उँच हो जाय !; देखहीं हमरा बाबू कहऽ हथिन ! बेटा, अब गाय बराहमन के सत कलजुग में उठि गेलइ ! नै उ देवी, नै उ कराह, नै तहियौका बराहमन जिनका मुँह से आगि निकलै हल । नै उ गाय अमरित दै वाली, जे दूध देह के बज्जड़ बना दिये ।) (आपीप॰75.19; 79.8)
725 बझाना (आदमी कइसहूँ कइसहूँ रिलिफ वाला गहूम मिलो, दान वाला खिचड़ी, कोतरी मछली के पका-पका खा के जान पाल रहल हे । गहूम कि मिलऽ हलइ ... बुझिहा वघ आधार । जान माघे जान उहे मछलिया, जेकरा वंसी में बझा के जाल से पकड़ के बइठारी में पका पका खइलक ।; ऊ बुढ़िया हिकइ दलाल, फुसलौनी माय, गहकी बझा को लावऽ हइ । उहे आमदनी से ई चलि रहलइ हे । आर कि कुछ रोजी-रोजगार हइ ? कि खेती ?) (आपीप॰1.24; 10.7)
726 बटैया (= बटइया) (तोरा टीवेल भिजुन खेत हइयै हो । ओजौका दू बीघा खेत टेबि को जेकरा जिमा नया माल हइ, ओकरा बटैया दे देहो । कड़ैती नञ, कसरैती नञ, कंजूसी नञ, हिसाब-किताब नञ । दुलार करहीं, पोछैत-पाछैत मुँह खाय, आँखि लजाय ! राजी हो जइतइ । जब तक नया हइ, रहतइ, पुरान होतइ, घर जायत । आर कि ?) (आपीप॰104.16)
727 बड़ (= बड़ा, बहुत) (बड़ा मेहनत से मिल गेल करमचारी ! ओकर बाप भी हिनका पसीन कैलक । हिनकरो मन डूब गेल । खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी ! बाप चालू-पुरजा, घर पक्का-पोस्त, खाय-पीये में ठोस ! छोट घास-दाना में बड़ बढ़ियाँ ।; मनोज बाबू पूछलखिन - बड़ छउँड़ी हइ कि छउँड़ा ? - छउँड़ी पहिलूठ हो कि । लगले दू बरीस बाद छउँड़ा भेलो । छउँड़ी के यह पनरहवाँ बीत के सोलहवाँ चढ़लो हे ।) (आपीप॰87.22; 105.5)
728 बड़का (कि जने कि होत ? आखिर होय बिहान, होय बिहान, चिट्ठी लिखलकी - मैया जी, सादर परनाम । बाबू के ! भैया के ! दीदी के ! गोड़ लागी । सब बड़कन, जेठकन, छोटकन के पाँय लागी । हाल यहाँ के भगवान भरोसे !) (आपीप॰101.3)
729 बड़गर (पाठक के बात छोड़ दा तऽ हमरा खुद अचरज भेल: दरोगइ करइ वाला कठोर करमी, अन्दर से एतना कोमल ! साहित परेमी ! भला, एकरा से बड़गर अचरज की हो सके है ?; सोचऽ लगल - अब एकर बाप के बनतइ ? नवीन पाण्डेय - बड़गर होला के बाद ई पाँड़े पूत कहलायत । मुदा ! ई पाँड़े के तो हइ नञ ।; अब तोर कुल के फर्ज बनऽ हौ, हमरा कोय रख ले । अब हमरा नियर बच्चा वाली के के रखतइ ? अऽ हमर एतना बड़गर जिनगी इ बच्चा के साथ कैसे कटतइ ? तोंहीं बताव ?) (आपीप॰III.10; 43.12; 45.25)
730 बड़गो (= बड़गर; बड़ा) (एतना से हम खुद सन्तुष्ट नञ ही, तों कने से सन्तुष्ट भेल होवा ? ई विषय गंभीर आव बड़गो है । हमरा पास ओत्ते लिखइ ले ई किताब में जगह नञ है ।) (आपीप॰V.26)
731 बड़ाय (= बड़ाई) (जे बड़ाय करें तो ऐसन । यहाँ तोर बाप, हमरा बाप के गोड़ पर जनौआ धर के कहलखुन । अब जनौआ के लाज तोहरे जिमा । तब जाको कहैं हमरे तोरे जूड़ा बन्हन भेल । लछमी अइली हमरा घर । तोरा अर छोटहा खनदान मानऽ हलखिन हमर बाप !; महेश जइते सलाम ठोकलकइ - परनाम इनरदेव बाबू । काल्हु हिनखरा काहे घुरा देलहुन । ला दरखास । काम करि दहो । तों तो सब तरह के भार भुँजइ वाला आदमी हा, तब ? तोर तो सगरे बड़ाय होवे हे, सेहे कुरोधि गेल्हो ।) (आपीप॰113.17; 117.3)
732 बढ़ियाँ (= बढ़िया) (भोला हुनका गाँव-घर के भतीजा लगइ हन । पढ़ाई में बढ़ियाँ, देखइ में सुन्नर । गनौरी चा के सेवा में लगल !; कहलखिन - जा देलियो ! तनी नीक से खेती करिहा, जे दू पैसा तोरो होय ! आर हमरो ! समरी माय कहलकइ - लसर-फुसर कैला से कि फायदा ! बढ़ियाँ से करवइ कि !) (आपीप॰61.7; 105.10)
733 बतसना (= हवा लगने से रोग का बढ़ना; उमंग में आना; खुली हवा में या बंधन से छूटने पर उछलना-कूदना) (फुलवा के वहाँ ले गेलइ हल सरकारी नाव पर चढ़ा के, बरसा के दो रस्सा बेयार ... तरो पानी ... उपरो पानी ... ! फुलवा बतस गेलइ । राहत कैम्प में पहुँचलइ तऽ ओकरा देखताहर डाकदर पर डाकदर !) (आपीप॰2.4)
734 बतिया (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग !) (आपीप॰91.14)
735 बतियाना (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।) (आपीप॰6.8)
736 बन्धुक (= बन्हुक; बन्दूक) (सिपाही त्यौरी चढ़ा के, डपट के बोलल - सारी ! जा हँ कि नञ ? मारि डण्टा के चूतड़ गरम कर देवौ । असमिरती बोलल - चूतड़ तो तों बहुत दिन हमर गरम कइलें । अब डण्टा से काम नञ चलतौ । बन्धुक तो हाथ में हइये हौ । गोली ओकरा में नञ हौ कि ? ले हमरा सीना में गोली दाग दे । अब तोरे हाथ से तोरा सामने मरना हौ ।) (आपीप॰45.1)
737 बन्धूक (= बन्हूक; बन्दूक) (बूथ पर जाको वोट छापो लगलई - परजाइडिंग अपीसर से वोट वाला गड्डी छीन के ठप्पा मारऽ लगलई । तब तक गाँव में गदाल हो गेलइ । गनौरी चा के समरथक लाठी-पैना, भाला-बरछी से जुटलई ! एकरा जिमा में बन्धूक पिसतौल हलई ।) (आपीप॰63.15)
738 बबकना (पंच लोग के बात सुन के बुधना के मन ढेंऊँसा बेंग ऐसन फूल गेल । पहाड़ी नदी जइसन उफनल जाय । एक बेरी तरे से बबकि को बोललइ - जब तोर कुले महान आदमी के आर बंस-खूट के इहे हिन्छा हो, तऽ होवो दा नगर भोजे सही ।) (आपीप॰66.17)
739 बम-बखेड़ा (लोग कहलकइ - कोय बनिया के बेटी हलइ - जवान । ओकरे गुण्डा राते बलात्कार कर के गंगा में फेंक देलकइ ! ओकरे लेको सड़क जाम हइ । चिकुलिया कहलकइ - उहे लहसवा हिको । अग्गे मइयो रे ! पैसा कमाय के बुद्धि देखो । चलो हमर लहसवा हम छिन लेवइ । सूपन कहलकइ - ऊ लहसवा कने से रहतइ पगली । बनिया ले जइतइ लहास ? चलें हम्मर घाट सूना हे । छोड़ें इ सब बम-बखेड़ा ।) (आपीप॰36.10)
740 बर (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.4)
741 बरतुहार (शुरूह में बरतुहार अइलइ - मुदा साफ जबाब दे देलखिन । हमरा सोना सन दू बेटा ! आँखि में पाँखि । बियाह करि को एकरा फाँसी चढ़ा दिये ? खिला-पिला के बिदा करि देथिन ।) (आपीप॰102.19)
742 बरतुहारी (पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ? पपुआ माय तिरछी नजर से धन्नू चा के देखैत मुसकावैत मूड़ी नचा के कहलकइ - तऽब ! हमर बाप पाँच बरीस बरतुहारी कैलका । घर मिलल तब वर नञ, वर तब घर पसीन नञ ! दुओ आँख के सूरदास ! चौपठ ! यह मुरूख दमाद कोहबर में गोड़ लगैलका पहलमान जी ! कैसन पहलवान होथि, से हम जानऽ ही । बेटी भोगऽ हियन । ढेर बुधगर रहे से तीन ठमा माँखे ।) (आपीप॰113.13)
743 बरना (बौल ~; जरनी ~; नोचनी ~) (धन्नू चा कहलखिन - हे जाफरी बाबू, निहोरा करऽ हियो । ओतना में काम बना दहो । अब हमरा कोय उपाहि नञ हो सरकार ! हाजी साहब कहलखिन - कोइ सूरत नहीं है कि बिना दो हजार दिये आपका पैसा निकलेगा । जो दिये तीन हजार वह भी राह राह चला गया समझिये पानी में । धन्नू चा के माथा में जइसे बौल बरि गेलइ ! चरन पकड़ि लेलखिन - जाफरी बाबू, अब एक पैसा हम नै दे सकऽ हियो ! कोय उपाहि लगाभो !) (आपीप॰120.11)
744 बरह-बज्जी (~ गाड़ी) (जिछना बरह बज्जी गाड़ी से लक्खीसराय पहुँचल । कैम्प में पहुँच के हँकइलक - फुलवाऽऽऽ ... ! ओकर आवाज में एगो ठनक हल । जइसे कोय नगाड़ा के सेद से पहिल चोप देलक । फुलवा कलट के देखलक आव मिर-मिराहा नियन बोलल - बाऽ ... उऽऽ !) (आपीप॰5.4)
745 बरहमन (= ब्राह्मण) (बराहमन के पाँचो टुक पोसाक हे, बकि माथा जे समूचे शरीर में सरेठ, सेकरा में टोपी नै । बरहमन के माथा उघारे, तब सब बेकार ।) (आपीप॰69.24)
746 बरहा (भोज में शिकायत नञ होवो दै के बरत लेको ओजो से उठला । वहाँ से आको सब सलाहकार भंडारी के, परसैनिहार के, अऽ बिजै करैनिहार के टरेनिंग देको अप्पन-अप्पन काम निजगूत करि देलका । आखिर ! बरहा से तेरहा तक खतम हो गेल । भोरे उठि को बुधना गाँव में टहलो लगल । इहे समझइ ले कि कजो के कि कहइ हे ।; चलल जा हलइ । पंचू मिललइ । बुधना पुछलकइ - कि पंचू ? कैसन रहलइ ? खइला हा खूब ? पंचू कहलकइ - अच्छे हलइ नुनु । तनी बरहवा दिन अलुआ वाला तरकरिया लागइ काँचे रहि गेलइ हल । अऽ तेरहवा दिन दलिया शायत तनी लगि गेलइ हल, तनी जराइन लागइ ।) (आपीप॰70.12, 19)
747 बरहोरी ( = बरहोर) (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.4)
748 बराहमन (= ब्राह्मण) (बराहमन के वेद मंतर उच्चार से, दीप-धूप-फूल के सुगंध से ऊ जगह सरग के समान हो गेल ।) (आपीप॰68.5)
749 बरियात (= बारात) (देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली । ठीक ऐन बखत पर ओने बरियात सज रहल हे । एने हिनखर बुतरू अब-तब में । कनियाय के तो एक्को अकिल्ले नञ ।) (आपीप॰100.19)
750 बरी (~ पारना) (हम लाख कहलियै छोटकी से, घीढारी नञ कराव । मुदा बूढ़ा-बूढ़ी के बात अब के माने हे ? ... बुढ़िया एक सुरर्रे बोलैत रहि गेलइ । घीढारी जे करे सेकरा साल भर नदी नञ नाँघइ के चाही, बरी नञ पारइ के चाही, कोहड़ा लगावइ के या खाय के नञ चाही, सराध के अन्न नञ खाय के चाही !) (आपीप॰98.5)
751 बलगर (जे किसान के भैंस बलगर अऽ गेरगर हलइ से लछरि-लछरि चौतार मारइ । ई साल के हूर वाला पाहुर के लेधड़ी, सौखवे के भैंस छिरियैलकइ ।; सौखवा पूछलकइ - बड़ा दिन पर सीतो ? आव, तनी झुलुआ झुला दे । बर के भरहोरी बान्ह के झुलुआ बनैलक । सीतिया खूब झुलैलक । जब मन भर गेलइ तब कहलकइ कबड्डी खेल । दुओ कबड्डी खेललकइ ! सितिया हलइ तो बलगर मुदा औरत ! आर ई पहलवान ! सात पल्ला चढ़ा देलकइ ।) (आपीप॰75.16; 77.4)
752 बलुरी-डाँट (अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै । कखनै धान उसरतइ, चावर फटकतइ । ओकर रूसी-गरदा उड़तइ ! कपड़ा कार हो जइतइ । गँहूम फटकतइ । चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ !) (आपीप॰89.13)
753 बलौक (= ब्लॉक; प्रखंड) (कहवै कि ? कत्ते लगतइ ? हजार-दू हजार । तब निकलवो तो करतइ - बीस हजार । रहे दू हजार कम्मे छौड़ा पूत के । धन्नू चा 'बेस' कहि को सबेरे चलि देलका बलौक ! अगरीकलचर लोन लै ले ! फारम लेलका - पाँच रूपइया ।) (आपीप॰114.3)
754 बह (~ बजार) (आँय हो, ऊ कत्ते लेतइ ? धन्नू चा पूछलखिन । महेश कहलकइ - अच्छे, इहो बात पूछि लेल्हो । ओकर बान्हल हइ - बह बजार तीन हजार ! तब जाफरी साहेब ! अच्छे आदमी हइ । तीन हजार एक मुश्त ले लेला के बाद, तोरा दौड़इ धूपइ के कोय काम नञ । सारा काम ऊ करा को रखतो । जे डेट देतो, से पर जइभो, दसखत करबइतो, रूपइया तोहरा देतो । मगर अप्पन घूस पहिले ले लेतो !; ऊ पूरा दरखास अऽ साथे साथ औडर सीट पढ़िको समझि गेलखिन । कहलखिन - आप तो महेश बाबू जानते हैं, कैसा अपीसर है यह ! पाँच हजार कर दिया है इधर से ! आप दे दीजिये, हम करवा देंगे । महेश एक बार सन्न हो गेलइ ! पाँच हजार ! तीन हजार तो ओकर रेट हलइ । बह बजार खुरा डोभ ! तऽ ?) (आपीप॰117.23; 119.10)
755 बहराना (= बाहर जाना) (जिछना के टोला वाला सबसे पीछू बहरइले हल । ओकर डेरा बालिका विद्यापीठ में हलइ ।) (आपीप॰2.2)
756 बहिन के (एकरी ~ !; तोरी ~ !) (चुनाव के समय अइतो तब नेता अइतो ! दूरे से कल जोड़ने ! गोड़ लागी सूपन दा, तोहरे पर आसा दादा ! ... जीत गेल । कहलों - तनी घटहिया सड़का बना देथो हल ? हों हों, अबरी जरूर हो जइतइ । नञ कहियो नञ कहऽ हइ । मुदा बनइतो कहियो नञ । ई कान से सुनलको, उ कान से उड़ा देलको । एकरी बहिन के ... धूर्त्त-लुच्चा । अपना काम के इयार नेता लोग !; ई समझ के कुरोधि गेलइ । गारी दैत कहलकइ - तोरी बहिन के ... आवारा ! ... जानऽ हीं, हमरा बाबू कहलखिन - बेटा ! जनिऔरी जात लछमी होवऽ हथिन । ऊ पूजइ के चीज हिखिन ! जैसे धरती माता, वैसैंइ औरत !; सोहन हँसल चल देलकइ कहने - तोरी बहिन के ... भोम्ह ! ... बापे के बात मानैत रहो । बुद्धू सारा !; बेटवा कहलकइ - अब कि होतइ माताराम ? बनल-बनायल बाप-दादा के घर छोड़ि को अइल्हो शहर, अपन जाति भिजुन ! कहलियो केस करो, तऽ सेहो नञ । ई लफुआ बहिन के ... पांगि गेलइ, कि एकरा से कुछ नञ होतइ ! जाति ... जाति ... जाति के लीला देखल्हो ? जाति के खूब धो धो के चाटो !) (आपीप॰32.19; 78.13, 17; 108.20)
757 बहिन-बहिनोय (= बहन-बहनोई) (अप्पन सब बेटी के अप्पन कमाय से लेके खेत तक बेच के बढ़िया घर में बियाह देलका । समाज भी विचित्र हइ ! बहिन बहिनोय सब सुखी हइ । सारा ! पैसे के जनमल । आदमी के पहचान नञ । हमर सब बहिन सुख में, हम दुख में । उ लोग कभी हमरा घुरि को नञ ताकइ ले आयल ।) (आपीप॰23.7)
758 बहिर (= वधिर, बहरा) (कोट के बीचोबीच में एक सफेद मूर्ति खड़ी हइ । ओकर आँख पर करकी पट्टी बान्हल हइ । आर ओकरे हाथ में इन्साफ के तराजू हइ । मतलब कानून आन्हर हइ, बहिर हइ, यहाँ के चपरासी से लेके जज तक । मुंशी से लेके वकील तक, सब आन्हर-बहिर के जमात हइ । एकरा मात्र पैसा सूझऽ हइ, ओकर बाद कुछ नञ ।) (आपीप॰24.20)
759 बाँग-बारी (टमाटर रोपा हो गेल । केरौनी चलो लगल । ओकर मइया कहलकन - मनोज बाबू ! एजो एगो मचान गड़ि दहो । बाँग-बारी चीज बिना अगोरने ? के जाने, कखने कने से कि चल आवे । हम दिन भर माटी में रेटऽ ही । ओकरा कि लगतइ । एक छन में सब कैल-धैल चौपठ ।) (आपीप॰105.24)
760 बाँटना-चुटना (मंत्री जी मुसकुरा को पूछलखिन - कि काम हलइ ? सूपन सारी नोसो से कह सुनइलखिन । मंत्री जी सुन के हँसलखिन । हँसते-हँसते कहलखिन - अलगंठे एसकरे निगलि जाय ले चाहऽ हहो ! दू लाख ! एसकरे खइभो तब पचतो ? अरे ! बाँटि-चुटि के खाय राजा घर जाय, तभी ने ? नञ तब जेल के तैयारी करहो !) (आपीप॰40.12)
761 बाउ (= बापू) (जिछना बरह बज्जी गाड़ी से लक्खीसराय पहुँचल । कैम्प में पहुँच के हँकइलक - फुलवाऽऽऽ ... ! ओकर आवाज में एगो ठनक हल । जइसे कोय नगाड़ा के सेद से पहिल चोप देलक । फुलवा कलट के देखलक आव मिर-मिराहा नियन बोलल - बाऽ ... उऽऽ !) (आपीप॰5.6)
762 बातर (कुस्ती अऽ औरत दुन्नु में भारी बैर । औरत के बल आँखि में, नजर बातर हो हइ ! औरत के नजर से बेटा के बचइ के चाही । नञ तऽ औरत नजर के मन्तर से सब बल घीचि लेतौ । खक्खड़ बना देतौ ।) (आपीप॰77.19)
763 बाध (बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल । पें कि करइत हल बेचारा ! ... बहुत आदमी ओकरा बान्ह-छान के गिरा देलकइ - दहिना पुट्ठा पर सड़सी से दाग के तिरसूल के चिन्ह बना देल गेल । से दिन से ऊ अजोर हो गेल । दुहाव कहलकइ - बेटा ! बस एखने भर ! राजा बना रहलियौ ह, राजा ! साँढ़ के जैसेइ छोड़लक .. उ नाँढ़ी कबड्डी बाध देने भागल ।) (आपीप॰69.14)
764 बानी (= राख) (इ पूछलखिन - तोर पुरूखवा तो हइये ने हे ? - नञ बाबू । ऊ रहतो हल तब कि । कोल्ड अस्टोर में नौकरी करऽ हलखुन । जीता हलखुन तऽ घर से बाहर नञ होवइ दे हलखुन । रानी बनल हलियो । भगमान हरि लेलखुन, से बानी हो गेलियो ! तोरा-मोरा से लागि को गुजर करऽ हियो !) (आपीप॰105.1)
765 बान्हना (= बाँधना) (देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर । ओकरा से कुछ दूर में बढ़िया नसल के एक बाछा बान्हल हइ, साँढ़ दागै ले । ओकरा दागै ले गोयठा के आग में सड़सी धिप रहल हे ।; सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ ।; दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।; अनरूध समझैलकन - मनोज धीरज धर ! कछौटा बान्ह ! तोरा राम-लछुमन दू बेटा । संसार कि कहतौ ? बियाह करभो बुढ़ारी में ! नतीजा ! कहावत में हइ - रात के तेल लगावी गेनरा ले, बुढ़ापा के बियाह दोसरा ले । अऽ बेटवा हो जइतो दुसमन !) (आपीप॰69.5; 74.4, 8; 103.22)
766 बान्हना-छानना (बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल । पें कि करइत हल बेचारा ! ... बहुत आदमी ओकरा बान्ह-छान के गिरा देलकइ - दहिना पुट्ठा पर सड़सी से दाग के तिरसूल के चिन्ह बना देल गेल । से दिन से ऊ अजोर हो गेल । दुहाव कहलकइ - बेटा ! बस एखने भर ! राजा बना रहलियौ ह, राजा ! साँढ़ के जैसेइ छोड़लक .. उ नाँढ़ी कबड्डी बाध देने भागल ।) (आपीप॰69.11)
767 बारना (= बालना; जलाना) (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰90.18)
768 बिगना (= फेंकना) (ऊ रात अदरा के खीर-पूड़ी बनलइ हल, आँठे-आँठ खा लेलकइ हल ! इ अलाय-बलाय चीज पेट में जाते मातर फेंक देलकइ । फेर कुल्ला कलाला करके सुतलइ ! फेर दुबारे कै । दोसर बेरी में मइया जागलइ । पूछलकइ - कि भेलौ गे ? कुछो ने मइया । नञ पचलइ । बिगि देलकइ ।) (आपीप॰15.25)
769 बिगाड़ि (= बिगाड़; हानि, घाटा; अनबन, बैर, शत्रुता) (एक दिन चार गो लफुआ अइलइ - मइया-बेटवा के केप्चर कर लेलकइ, पिस्तौल देखा के, लगभग बारह बजे रात में ! एकाएकी छउँड़ी के बलात्कार करि गेलइ । छउँड़ी बदहोश ! भैवा कहलकइ - चल मैया । बलात्कार के केस नामी होवऽ हइ । बड़ी कड़र । चारो के हम चिन्हऽ हियै । कर दियै केस । मैया कहलकइ नैं बेटा । ओकर कुछ नञ बिगाड़ि होतइ, बिगड़ जइतौ तोरे । गोजो । नान्हि वारि हइ, जाति-कुटुम के पूछतइ ? जो डाकदरनी यहाँ देखा दहीं ।) (आपीप॰108.13)
770 बिजै (= बिज्जे; भोजन करने हेतु बुलावा) (भोज में शिकायत नञ होवो दै के बरत लेको ओजो से उठला । वहाँ से आको सब सलाहकार भंडारी के, परसैनिहार के, अऽ बिजै करैनिहार के टरेनिंग देको अप्पन-अप्पन काम निजगूत करि देलका ।) (आपीप॰70.11)
771 बिट्टा (ई अप्पन बिट्टा से बाँस काटि को खूब बढ़िया मचान गड़ि देलखिन - उपर से निच्चू पलानी भी । मचान के फराटी पर गद्देदार नेबारी के बिछौना । एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ ।) (आपीप॰106.2)
772 बिनाना (बिना बिना के कानना) (हिनकर औकात के लायक पट गेलन ! आको अपन मागु के सारे नोसो से कह सुनैलका ! मागु बिगड़ गेलन । गरजबे नञ कैलन, बरस गेलन ! मर्रर्र दुर्र हो ! एकर मती मारल गेलइ ! जब इहे करै के हलौ तब ओकरा पटना में काहे ले पढ़ैल्हीं ? रहो देथीं हल मुरूख ! माथा ठोक लेलकन ! बिना बिना के कानो लगलन । अमोढकार ।; केस हो गेलन । पपुआ माय जानलकइ । चाचा पर बरसि गेलन - यह ! मुरूखवा के काम ! करो पड़ियानि चौठ ! ई हुड्डा ! रूपइवो बुड़ा देलकइ अऽ उपर से केस भी माथा पर ले हइलइ ! एतना कहि को माथा ठोकि लेलकइ ! बिना बिना कानो लगलइ ! हाय रे !!) (आपीप॰89.8; 121.12)
773 बियाय (= बिवाई) (कातिक में हरजोतवा अइतइ गँहूम बुन के, गोड़ में बियाय फाटल रहतइ । रात के मागु जौरे सुततइ । गोड़ा पर गोड़ा चढ़ैतइ । जों कहैं पियार से गोड़ा रगड़ देतै एकरा दन दोको लहू बह जइतइ । सबेरे इलाज करावो । हाथ बाँहि पकड़तइ ! जजै तजै छिला जइतइ, नछुड़ा जइतइ ! मर्रर्र दुर्र हो ! कते खोलि को कहियौ ! कुछ बुझवै नञ करऽ हइ । तनी अपना मन में लाजो नञ लागऽ हइ मर्दबा के गे माँय !) (आपीप॰90.4)
774 बिरमना (= ?) (हम लाख कहलियै छोटकी से, घीढारी नञ कराव । मुदा बूढ़ा-बूढ़ी के बात अब के माने हे ? ले बिरमना अइलौ आगू ? नञ माने हम्मर बात !) (आपीप॰98.2)
775 बिसतौरी (= प्रसूति के बाद पहले बीस दिन की अवधि) (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।) (आपीप॰6.9)
776 बिहान (= सुबह) (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल । बिहान फेर बोखार ।; काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में ! नैकी काँगरेस के कहऽ हलखिन - बिना पेंदा के लोटा ! साँझ बोलल कुछ, बिहान बोलल कुछ !; कनियाय जे दिन से गेली, एक मिलिट के फुर्सत नञ । चार भाय के एक बहिन दुलारू ! बाबाधाम के माँगल ! साँझे से घर-घर जाको आय-माय के बोलाना । अऽ अधरात तक चिकरि चिकरि को गीत गाना, नाँचना । उमाह के कि कहना । देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली । ठीक ऐन बखत पर ओने बरियात सज रहल हे । एने हिनखर बुतरू अब-तब में । कनियाय के तो एक्को अकिल्ले नञ । मुँह में धान दिये लावा । बुढ़िया के एक-एक बात करेजा सालो लगलन । कि जने कि होत ? आखिर होय बिहान, होय बिहान, चिट्ठी लिखलकी ।) (आपीप॰3.1; 60.23; 100.17, 21)
777 बुढ़वा डाही (कनियाय जब सवारी चढ़ली - मने मन छगुनैत गेली । कने से कनकट्टी बुढ़िया, झाँझी कुतिया माइयो ! बचलइ हल जतरा भगन करइ ले । हमरा पर तो जर-जिद से पड़ल हइ माइयो ! नाग-नागिन के चावर चिवैलकइ हल ! बुढ़वा डाही, भले बुढ़वे जौरे इहो मर जइतै हल । लगऽ हइ उ जनम के हमर सौतिन हलइ, माइयो !) (आपीप॰99.11)
778 बुढ़ारी (= बुढ़ापा) (अनरूध समझैलकन - मनोज धीरज धर ! कछौटा बान्ह ! तोरा राम-लछुमन दू बेटा । संसार कि कहतौ ? बियाह करभो बुढ़ारी में ! नतीजा ! कहावत में हइ - रात के तेल लगावी गेनरा ले, बुढ़ापा के बियाह दोसरा ले । अऽ बेटवा हो जइतो दुसमन !) (आपीप॰103.23)
779 बुतरू (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ?; तहिने से जिछना ले सब बुतरू फुलवा बन गेल । उ पागल नियर जेकरा पकड़ऽ हइ सेकरा दबोचिये ले हइ । छाती से लगा ले हइ, चूम ले हइ । आव बुतरू-वानर ओकरा देख के चिघार पार के भाग जा हइ । भाग रेऽऽऽ, जिछनाऽऽऽ ... !; कनियाय जे दिन से गेली, एक मिलिट के फुर्सत नञ । चार भाय के एक बहिन दुलारू ! बाबाधाम के माँगल ! साँझे से घर-घर जाको आय-माय के बोलाना । अऽ अधरात तक चिकरि चिकरि को गीत गाना, नाँचना । उमाह के कि कहना । देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली । ठीक ऐन बखत पर ओने बरियात सज रहल हे । एने हिनखर बुतरू अब-तब में । कनियाय के तो एक्को अकिल्ले नञ ।) (आपीप॰1.1; 5.16; 100.17, 19)
780 बुतरू-वानर (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ? ... तऽ जेकरा पकड़ऽ हइ, सेकरा चूम ले हइ, अंकवरिया में कस के वान्ह ले हइ, छोड़इ ले नञ चाहऽ हइ, इहे से बुतरू-वानर अलगे-अलग रहइ ले चाहऽ हइ ... दूरे से ढेला फेंक के मारऽ हइ ।; तहिने से जिछना ले सब बुतरू फुलवा बन गेल । उ पागल नियर जेकरा पकड़ऽ हइ सेकरा दबोचिये ले हइ । छाती से लगा ले हइ, चूम ले हइ । आव बुतरू-वानर ओकरा देख के चिघार पार के भाग जा हइ । भाग रेऽऽऽ, जिछनाऽऽऽ ... !) (आपीप॰1.3; 5.17)
781 बुधगर (= बुद्धिमान) (पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ? पपुआ माय तिरछी नजर से धन्नू चा के देखैत मुसकावैत मूड़ी नचा के कहलकइ - तऽब ! हमर बाप पाँच बरीस बरतुहारी कैलका । घर मिलल तब वर नञ, वर तब घर पसीन नञ ! दुओ आँख के सूरदास ! चौपठ ! यह मुरूख दमाद कोहबर में गोड़ लगैलका पहलमान जी ! कैसन पहलवान होथि, से हम जानऽ ही । बेटी भोगऽ हियन । ढेर बुधगर रहे से तीन ठमा माँखे ।; जा, हम ओतै बहस नञ जानी ! देखऽ हो महेश रात-दिन करि को सरकारी रूपइया निकाललका संसार अबूध हइ ? तों एगो बुधगर ... ।) (आपीप॰113.16, 21)
782 बुधि (= बुध; बुद्धि) (पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन । पपुआ माय चूल्हा में गोइठा पैसावैत कहलकइ - हूँ हूँ, निकरामती मरद के गाल कतै ? अपनै मन बिलैया पुरखायन ! हमरा भिजुन जते सुना ला ! हम जानो हियौ नञ । घर बुधि बारह, बाहर बुधि तीन ! गाँव से बाहर विधाता उहो लेलका छीन ।) (आपीप॰112.8)
783 बुराक (गोर ~) (हमर पाँव के आहट पाको एक बुढ़िया घर से निकलल, पाँचो हाथ नम्बा तगड़ा गोर बुराक, माथा के बाल उज्जर बर्फ, फह-फह बगुला के पाँखि सन साड़ी पिन्हने, जइसे छहाछत भारत माता, शीश मुकुट हिमवान देश का, या खुद सरसती माता ।) (आपीप॰8.3)
784 बुलना (भागल ~; मारल ~) (बाप-दादा के बनल-बनावल घर बेच देभीं उ लेतइ माटी के मोल, हम जानऽ हियौ ! उहे तो ओकर साजिशे हइ ! चारो तरफ से घेर के तोरा मजबूर कर देलकौ ! जे में ई भाग जाय ! कहाँ जा के घर बनइभीं ? पैसा दे देतौ, तों भागल बुलें । पैसवा डगरे-डगर खर्च हो जइतौ । तों नट-गुलगुलिया नियर सिरकी तानने बुलें ! हम ओकरे काहे नञ भगा देवइ ओजो से, हम काहे भागवइ ?; सिपाही श्रीराम जादव जी कहलखिन - बिलाय के गला में घंटी वान्हइ वाला तो रोड पर मारल बुलऽ हइ । पैसा फेंको तमाशा देखो ।; दोसरा नम्बर में देखल जाय ! डाकदर-इनजीयर-ओभरसीयर नौकरी लगल वाला ! बिना नौकरी वाला तो कत्ते मारल बुलऽ हइ ! बिना नौकरी वाला बतौर मजूर समझो ।) (आपीप॰28.19; 56.22; 87.16)
785 बूँट (~ के भूँजा, ~ के सत्तू) (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... तोर बेटी के मन करतौ बूँट के भूँजा खाय के । बाजार से खरीद के लइतौ एक सौ गिराम ! चालीस रूपइया कि॰ । छिपिया पर रख के चार-चार दाना मुँह में चिभला-चिभला खइतौ ! नितरा-नितरा ! बूँट के भूँजा । ऊ खाना नञ भेल, खाली जी फेरन । भगवान ने करे ऐसन होय !) (आपीप॰92.5)
786 बूढ़-पुरैनिया (मोहना हियावे हे तऽ देखे हे एगो लड़की चलल आ रहल हे धीरे-धीरे ! फेर ओकरा बूढ़-पुरैनिया के खिस्सा याद आ गेलइ ! मरद के जनानी भूत पकड़ऽ हइ जेकरा पर ऊ आशिक हो जा हइ !) (आपीप॰83.22)
787 बेउरेब (= उरेब, उरेबी) (औरत कहलखिन - अजी ! फेर से कोरसिस करहो ! बरबाद हो जइतइ इ काम में ! टमाटर साव कहलखिन - अब भाय तोहीं समाझाहीं हमरा हिम्मत नञ ! कुछ बे उरेब बोल दिये तब ?) (आपीप॰28.7)
788 बेकल (= विकल, बेचैन, व्याकुल) (अनरूध गमगीन होलइ । कहलकइ - रे पगला ! एकरा ले एते चिन्ता ? ई चीज तो मकइ के दोबर सड़क पर फेंकल मिलऽ हइ । बियाह के सलाह तो हम कोय हालत में नञ देवौ ! तों जब इहे ले बेकल हें, तऽ रोज नया माल पावो, एक्के गो घोटलके के कि घोटैत रहतइ ?) (आपीप॰104.10)
789 बेटी-दमाद (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰90.19)
790 बेमारी (= बीमारी) (ऊ गोली अऽ पानी पीते-पीते थक गेल, बेमारी बढ़ले गेल ! फुलवा के मन एक दिन जवाब दे देलक, बोलल - अब नञ बाबू ... । जिछना के तो पराने उड़ गेल ।; ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !; मइया इशारा से सब समझा देलकइ । ऊ आग बबूला हो गेलइ । तोरी मोहना बहिन के ... हम ओकरा माय के बेमारी में दू महीना पटना में अगोर के रहलों होसपिटल के सड़ाँध में । ओकर दू दू गो जवान बहिन साथे सूतऽ हल । मुदा कहियो मन के बेइमान नञ बनैलियै ! अप्पन बहिन समझैत रहलियै ! आर ई एकै दिन में ... !) (आपीप॰3.12, 24; 20.18)
791 बेरी (= बेर) (पाठक इ सुन के, या पढ़ के, एक वेरी अचरज में जरूर डूब गेल होता !; सामान चढ़ गेल, कनियाय चढ़ली ! नाव धार पर सों-सों कइले, जैसे बालू पर गेहुँअन साँप चलल, झट सना गंगा पार कर देलक । कनियाय के करेजा धक्क कैलक एक बेरी ! जैसे कोय करेजा काढ़ लेलक ।; बप्पा अपन बलात्कारी बेटा के बोलैलक । अइलइ। पूछलकइ - तोरा पर ई सब आरोप हौ । कि सच हइ ? - नञ ! हम एकरा चिन्हबो नञ करऽ हियै ! कहौंका हिकइ । भले चाह दू चारि बेरी एकर दोकान पर पीलियै हे । दोकान पर तो संसार जा हइ ।) (आपीप॰III.7; 99.24; 110.3)
792 बैना (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग ! बगैचा में आम ! कच्चा से पाकल तक । जते खा । अँचार बनावो । बैना बुलावो । जे जी में आवो करो ।) (आपीप॰91.16)
793 बैर-बियाह (मइया कहलकइ - जे बोले ! कहवइ जरूर । रात फेर एकान्त में बैठा को समझावो लगलइ दुइयो के । देखहीं ! नुनु, उ धनगर अदमी हइ । बैर-बियाह जोड़ी से । तोरा धूर-धुरकी कुछ नञ हौ, ओकरा सब कुछ हइ ! एक दलिद्री छोड़ि को ! पाँच भाय ! एक डाक्टर, एक इन्जियर, एक मास्टर, एक ठीकेदार, पंचमा खेतिहर ! खेत चालीस बीघा ! चल ओकरे गोड़ में लटकि जइबइ ! कहवइ वसा दे ! तोरे हिकियौ ।; ओकर बाप से मिलके चले कहवै । जब छौड़ा-पूत्ता एकरे ले भूखल हइ तऽ बियाहे कर लिये । करे जत्ते मन होवइ । … दुओ माय-बेटा बलात्कारी के बाप के जाको कहलकइ । ओकर बाप तैश में अइलइ मुदा परेम से बैठा को समझैलकइ ! देखो ! बैर-बियाह जोड़ी । हमरा भिजुन आवइ से पहिले अपन औकात तौलि लेल्हो ?) (आपीप॰28.9; 109.12)
794 बोखार (= बुखार) (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल । बिहान फेर बोखार ।; डाकदर साहब अइला ! नवज छूते मातर भुत हो गेला । "एकरा मछली खिला देलहो ?" - "जी नञ सरकार ! एक्को घुन्नी नञ !" जिछना बोलल । - "तब बोखार कइसे पलट गेलइ ?") (आपीप॰3.1, 6)
795 बोरिया-बिस्तर (मिनिसटर साहब गरम हो गेलखिन । कहलखिन - कुल पागलपन झाड़ि देवो ! होश में बात करो । कलेट्टर कहलकइ - होसे में हियै ! हमर नौकरी तो नै खा सकऽ हो, बदली ले हर-हमेसे बोरिया-बिस्तर बान्हने रहऽ हियइ । एतना कह के फोन रख के दू चारि गारी देलकइ - साला, बहिन ... ई सब अथायल-वथायल कने से मंत्री बन के राज के पैसा लूटइले ... !) (आपीप॰41.13)
796 बोहनी (~ पहरा) (इ कहलक - हाँ-हाँ, उहे नवीन । सिपाही पूछलकइ - तों ओकर के लगऽ हीं, बहिन ? - नञ पतनी । ऊ एकरा गौर से देखैत कहलक - ठीके हइ ! बोहनी पहरा कुछ नगद नारायण निकालो तब ने ! ई पूछलक - केतना ? सिपाही कहलक - अरे मुलाकाती तो बँधल है दस रूपइया ।) (आपीप॰47.25)
797 बौआ (जिछना ठोड़ी पकड़ के बोलल, अब कुल बीमारी भाग जइतौ बौआ ... जहाँ दवाय पिला देलियौ घुटुस्स । जिछना एगो गोली देके पानी देलक, आव माथा पर हाथ फेर के चुप कराइत बोलल - हाँ निगल जो बौआ ... । सब ठीक हो जइतौ !) (आपीप॰5.11, 13)
798 बौल (= बल्ब) (धन्नू चा कहलखिन - हे जाफरी बाबू, निहोरा करऽ हियो । ओतना में काम बना दहो । अब हमरा कोय उपाहि नञ हो सरकार ! हाजी साहब कहलखिन - कोइ सूरत नहीं है कि बिना दो हजार दिये आपका पैसा निकलेगा । जो दिये तीन हजार वह भी राह राह चला गया समझिये पानी में । धन्नू चा के माथा में जइसे बौल बरि गेलइ ! चरन पकड़ि लेलखिन - जाफरी बाबू, अब एक पैसा हम नै दे सकऽ हियो ! कोय उपाहि लगाभो !) (आपीप॰120.11)
799 भंगलाहा (बिहान पुष्पी के नीन टूट गेलइ । फेर उहे संसार ! मने मन भगवान के हजार गारी देलकइ । ई भंगलाहा भगवान हिकइ ! बेकार एकरा पर भरोसा कइलूँ ।; हम तो जीत में हलूँ । मुदा हमर बाप के ई अच्छा नञ लगल । ओकरा भंगलाहा के चाहतिये हल खुशी-खुशी ओकरा से बियाह दै के । से नञ करके उलटे झुट्ठा केस में फँसा के हमरा जेल पहुँचा देलक ।; बिना बिना के कानो लगलन । अमोढकार । हमे नञ जानलियै गे माया बप्पा होतौ तोर सतुरवा । अहः हः अऽ ... ग ... गे माय ! फेर कुछ चुप होको कहलकन - अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै ।; बिहान महेश पपुआ माय भिजुन आयल । सारी नो सो से समझा देलकइ । पपुआ माय भीतर से कड़मड़ा गेलइ । कि कहऽ हो महेश ? तीन हजार ... मर दुर्र ... हो ... ई तो दीना दीनी डकैती भेलइ ! बम पिस्तौल से नञ लूटऽ हइ, कलम के मारि मरऽ हइ । गे मइयो रे ! छउँड़ा पुत्ता ... नञ लेब रूपइया ! करजे ने होत, जाय भँगलाहा ।) (आपीप॰16.5; 44.6; 89.10; 118.11)
800 भकोसना (= बड़े कौर डालकर बिना चबाए खाना; {बिना समझे} घोके सबक को भूल जाना) (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... ऊ शहरी एक सो ग्राम चावर खैतौ । तों देहाती, जइभीं, दुइयो के बदली एसकरे भकोसि जैभीं ! दमदा कहतौ बेटिया से ई डोलइ के नाम नय लऽ हइ ।) (आपीप॰92.2)
801 भगमान (= भगवान) (इ पूछलखिन - तोर पुरूखवा तो हइये ने हे ? - नञ बाबू । ऊ रहतो हल तब कि । कोल्ड अस्टोर में नौकरी करऽ हलखुन । जीता हलखुन तऽ घर से बाहर नञ होवइ दे हलखुन । रानी बनल हलियो । भगमान हरि लेलखुन, से बानी हो गेलियो ! तोरा-मोरा से लागि को गुजर करऽ हियो !; बप्पा कहलकइ - जो, समझ गेलियै । बेटवा चल गेलइ । एकरा से कहलकइ - खबरदार ! आझ भर छोड़ि दऽ हियौ ! एक कसूर भगमानो माफ करऽ हथिन । हम तो आदमिये ही । भविस में ऐसन बात नै होवइ के चाही, नञ तऽ हमरा से बुरा तोरा लिये कोय नञ होतौ ।) (आपीप॰104.24; 110.5)
802 भरहोरी (= बरहोरी, बरहोर) (सौखवा पूछलकइ - बड़ा दिन पर सीतो ? आव, तनी झुलुआ झुला दे । बर के भरहोरी बान्ह के झुलुआ बनैलक । सीतिया खूब झुलैलक । जब मन भर गेलइ तब कहलकइ कबड्डी खेल । दुओ कबड्डी खेललकइ ! सितिया हलइ तो बलगर मुदा औरत ! आर ई पहलवान ! सात पल्ला चढ़ा देलकइ ।) (आपीप॰77.3)
803 भविस (= भविष्य) (पुष्पी कभी-कभी एकान्त में अप्पन ओटी से ले को पूरे कमर पर हाथ फिरावे, चारो तरफ, तऽ एक भयावह भविस से आतंकित हो जाय । अपना आप में बुदबुदावे । बाप रे ! कमरिया चिक्कन लागऽ हइ, कहीं धर तो नञ लेलकइ ? छौड़ा पूत्ता ! भाय-बहिन में ऐसन ... नञ सुनलो हल ! से हमरे पर बीत गेल कि ?; बप्पा कहलकइ - जो, समझ गेलियै । बेटवा चल गेलइ । एकरा से कहलकइ - खबरदार ! आझ भर छोड़ि दऽ हियौ ! एक कसूर भगमानो माफ करऽ हथिन । हम तो आदमिये ही । भविस में ऐसन बात नै होवइ के चाही, नञ तऽ हमरा से बुरा तोरा लिये कोय नञ होतौ ।) (आपीप॰12.2; 110.6)
804 भाँसा (= भासा, कूड़ा-करकट) (हाय रे लछमी ! कहाँ उड़ि गेली ! अऽ एतना सोचैत कानो लगथि । फेर कुछ हल्का होवथ । दिल कड़ा करथ कि लछमी घर के बनइने रहइ हल ! माटी के घर मुदा चमचम ! तनी एक भाँसा नञ । पक्का के बाप बनइने ! हाय हे ! लछमी ! एकरा के देखतइ ? फेर आँख में बरसात आ जाय । झम-झम बुन्दिया झड़ो लगे ।) (आपीप॰102.15)
805 भाग (= भाग्य) ("एकरा मछली खिला देलहो ?" - "जी नञ सरकार ! एक्को घुन्नी नञ !" जिछना बोलल । - "तब बोखार कइसे पलट गेलइ ?" ... जिछना माथा पर हाथ धर के, जमीन पर चुक्क-मुक्कु बैठ के बोलल - "हम्मर भाग अभाग सरकार ।" आला लगावइत डाकदर साहेब बोलला - "तों झूठ बोले हें । इ जरूर मछली खइलक हे ।" – "नञ सरकार, छउँड़े से पूछ लहो ।" छोउँड़ा सिर हिला के नञ कह देलक ।) (आपीप॰3.8)
806 भाय (= भाई) (ऊ बोतल पीलकइ, हमरो कहलकइ - चाखभीं ? हम कहलियै नै भाय ! ... ऊ कहलकइ - हमरा तनी मनी आदत हौ !; ई॰सी॰जी॰ वाला इनकर बहनोइ हिकन ! एकसरा वाला सारा । पेशाब जाँच इनकर साली करऽ हथिन । खून पैखाना जाँच पत्नी । बगल में दवाय दोकान इनकर छोट भाय के हन ! मतलब पूरा परिवार मिल के रोगी के लूटऽ हथिन !; भोला कहलकइ - से तो हइ, मुदा जुल्मी के मार के जइतों हल, तब कोय हिरोही नै ! ई बेकसूर के, बिना खदी-बदी के अप्पन गोतिया भाय के मार के जेल गेलों, इहे अपसोच हमरा तिल-तिल खा रहल हे ।; भइवो एकर कैसन ! कन्ने अइलइ, कन्ने गेलइ ! भर नजर देखवो नञ कैलियइ । कुछ कहियै, सुनइ ले नञ तैयार । कहि दै हम एखनै जा हियौ । कहि दे हम एखनै चलऽ हियौ ! मर्रर्र दुर्र हो ! एइसौं करऽ हइ आदमी ! बहिनयों वैसनैं । ए माँय ! हम जाम ने तऽ, एकादसी रहइ कि द्वादसी ! बियाह-शादी में ई सब नञ लेल जा हइ । हम भैवा के रूसल जाय देवइ ! फेर बियाह होतइ हमर भैवा के कि ?) (आपीप॰17.3; 26.22; 64.16; 98.15, 19)
807 भाय-बहिन (पुष्पी कभी-कभी एकान्त में अप्पन ओटी से ले को पूरे कमर पर हाथ फिरावे, चारो तरफ, तऽ एक भयावह भविस से आतंकित हो जाय । अपना आप में बुदबुदावे । बाप रे ! कमरिया चिक्कन लागऽ हइ, कहीं धर तो नञ लेलकइ ? छौड़ा पूत्ता ! भाय-बहिन में ऐसन ... नञ सुनलो हल ! से हमरे पर बीत गेल कि ?) (आपीप॰12.2)
808 भार (मुड़िये ~ बजाड़ देना) (उठा को हाजी साहब के सरंग गोलो कुरसिया पर फेंकि देलखिन । मथवा फूटि गेलइ ! गोड़ा हाँथा में मोच आ गेलइ ! ई भागला गेटवे दने से दू सिपाही घेरलकइ डण्टा पाटी । एगो के उठा को मुड़िये भार बजाड़ि देलखिन । मुड़िया फूटि गेलइ । दोसर के ठेलि देलखिन । गेटवा के गिरिलवा के लोहवा से टकरा गेलइ । हाँथे टुटि गेलइ ।) (आपीप॰121.8)
809 भिजुन (घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ !; ई बात कही केकरा ? मन के मीत भिजुन जब मन के बात खोलल जा हइ, तब दुख कुछ हल्का हो हइ । ओकरा सिवाय कोय ऐसन मीत नञ हलन जेकरा भिजुन खुलि को रो सकऽ हथ !) (आपीप॰7.12; 103.9)
810 भीतर-घुइया (मइया एक छन तो सुन के सन्न रह गेलइ ! मोहना ... भीतर घुइया ... ! हम ऐसन जानतिये हल तब जाय नै देतियौ हल ! हम तो अच्छा आदमी समझऽ हलियै । सेकर ई काम ! भाइयो-बहिन नञ चिन्हे ! ई जुग में केकरा पर विसवास ! ठीक हइ, कल्ह चलें डाकदरनी यहाँ खलास करा दियौ !) (आपीप॰17.14)
811 भुकाना (माथा ~) (कहलियौ ने, हमर माथा एत्ते नञ भुकाव । अब जाने तों, नञ जानौ तोर काम । पुष्फी घर लौट गेल । चुपचाप घर के पलंग पर तकिया में मुँह छिपा के सुबक-सुबक के कानो लगल, पूरा तकिया लोर से भींज गेलइ ।) (आपीप॰14.16)
812 भुट-बैगन (पहुँचिये तो गेलइ ! लाल-लाल भुट बैगना के खेत में ! देखे हइ तऽ कि ? मचान पर सीरक ओढ़ने चित होके बजावइ में मसगुल हइ । भिरिया जइते माँतर चिन्ह गेलइ । मर्रर्र ! दुर्र हो ! इ तो मोहना हिकइ ! बँसुरी कहाँ हइ ! किदो माटी के बनल हइ !) (आपीप॰82.16)
813 भूँजा (बूँट के ~) (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... तोर बेटी के मन करतौ बूँट के भूँजा खाय के । बाजार से खरीद के लइतौ एक सौ गिराम ! चालीस रूपइया कि॰ । छिपिया पर रख के चार-चार दाना मुँह में चिभला-चिभला खइतौ ! नितरा-नितरा ! बूँट के भूँजा । ऊ खाना नञ भेल, खाली जी फेरन । भगवान ने करे ऐसन होय !) (आपीप॰92.5)
814 भैंसुर (= पति का बड़ा भाई) (ससुरार के मत पूछो - एक हाकिम रहे तऽ कहल जाय ! घर में सास, ननद, गोतनी, बाहर ससुर, भैंसुर, देवर, पतिदेव के तो बाते जुदा हइ । कौन हाकिम से कइसे निबटइ के चाही ? ई बिना समझने, बिना सीखने अल्हड़ कनियाय तो पहिले साँझ पिटा जाय, या पगला गारत में चल जाय । ई जानना भारतीय नारी के बड़ा कठिन पाठ हइ ।) (आपीप॰100.11)
815 भोगारना (भैंस के नेठो नियर घुरल सींघ के तो बाते छोड़ो ! दू दिन पहिले से किसान तेज छुरी से ओकर मरल चत्ता छिल के चमका दिये । बिहान दुहबिनी ओकरा में सिन्नुर तेल भोगार दिये ! ऐसन भोगारे कि कहल नञ जाय । गारा में पीतर के सिकड़ी, चमाचम पानी चढ़ायल सोना के मात करे ! गारा में जोठ, जोठ में घंटी, केकरे घंटिये नञ, घण्टा कहो, टनाक-टनाक बाजे ।) (आपीप॰74.24)
816 भोम्ह (= भोंदू) (सोहन हँसल चल देलकइ कहने - तोरी बहिन के ... भोम्ह ! ... बापे के बात मानैत रहो । बुद्धू सारा !) (आपीप॰78.17)
817 भोम्हा (= भोंदू) (जब बप्पे कहलकइ - लड़े ने भोम्हा ! बजड़ जइवें तऽ बजड़िये सही ! जन्नी हिखीं जे चूड़ी फूटतइ ? बकलोलवा । लड़ गेलइ । पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ !; साँझ भैंसि दुहि को फेनाइले दूध, एक लोटा सितिया के हाँथ में दैत कहलकइ - ले एक महीना खा को देखहीं ! नञ जो दरद छूट जाय तऽ हमरा नाम से कुत्ता पालिहें । सितिया लोटवा लैत मुस्का के कहलकइ - जो रे भोम्हा ! तोरा कुछ नञ बुझो अइलौ !) (आपीप॰76.14; 79.19)
818 मँड़वा-कोहबर (तों करभीं ? ओकरे तऽ देखहीं हम कि करऽ हियौ ? हरगिस नै हरजोतवा से करो देवौ । एकरा लिए नँगटीनी कहावी तऽ नँगटीनी सही ! तऽ कि करभीं ? जादा से जादा नहिरा भाग जइभीं आर कि ? मियाँ के दौड़ महजिद तक । ... नै रे । हम नहिरा नै जइवउ ! आवो दहीं बरियात ! हम बेटिया के लेको कुइँया में कूद जइवउ ! तोर मँड़वा-कोहबर में आग लगा देवौ !) (आपीप॰92.18)
819 मँहा (= महा, बहुत बड़ा) (~ करमकीट) (पचमा कहलकइ - अहो ! परानी परानी के अंसा होवऽ हइ । एकर मैया आदमी हलइ ? भगवान हो ! मँहा करमकीट ... । कौड़ी चूस्स ... भारी चिपास ... अपने कहियो भर पेट खैइले होतइ, जे भोज नीक होते हल ?) (आपीप॰71.20)
820 मंगनियाहा (जुआन बेटा चलल जा हइ । जान के जहर खाय, देव के दिये दोख । डाकदर के मना कइलो पर मछली खिला देलकइ । गठरिया खुले न बहुरिया दुबराय । ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !) (आपीप॰3.24)
821 मगहिया (कुछ मगहिया, 'आदमी' के 'अमदी' कहना ठीक मानऽ हथिन ।) (आपीप॰V.20)
822 मच्छड़ (= मच्छर) (बगल में सज्जा दान खातिर सज्जा राखल हइ । ओकरा पर पाँचो टूक पोशाक, पलंग ! पलंग पर तोसक, तोसक पर चादर ! उपर से मछड़दानी ! तभी हमरा हँसी आयल ! सरग में मच्छड़ भी रहऽ हइ ? हमरा मुँह से एकाबैक निकल गेल !) (आपीप॰68.23)
823 मछड़दानी (बगल में सज्जा दान खातिर सज्जा राखल हइ । ओकरा पर पाँचो टूक पोशाक, पलंग ! पलंग पर तोसक, तोसक पर चादर ! उपर से मछड़दानी ! तभी हमरा हँसी आयल ! सरग में मच्छड़ भी रहऽ हइ ? हमरा मुँह से एकाबैक निकल गेल !) (आपीप॰68.22)
824 मछलोकवा (पूछलकन - देल्हो दरखास ? - हों हों । - केकरा ? तरजनी अँगुरी से बता के कहलखिन - वह जे अपिसवा के दुअरिया पर खड़ा हइ । - आय महाराय ! ऊ तो चपरासी हिकइ । कहलियो हल, अपने से जाके हकिमे के ने दै ले । हाँथे हाँथ काम जल्दी आगू बढ़तइ हल । धन्नू चा कहलखिन - अरे मछलोकवा के लेख हँथे से ले लेकइ ! कहलकइ - लाइये हम दे देगा ।) (आपीप॰114.22)
825 मजगर (दीपो अऽ वंसी ऊ टोला में केकरे वरपो देतइ ? जेकरा तनी मजगर देखलक, ओकरा कइसौं ने कइसौं डौन करि देतइ ! एकरा देखलकइ पचास हजार नगद ! देलकइ खर्च करवा ... उपर से पचास हजार करजा ! अब बेटा पछड़ैत रहो ।) (आपीप॰72.3)
826 मजिस्टर (= मजिस्ट्रेट) (बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें ।) (आपीप॰96.2)
827 मजूर (= मजदूर) (दोसरा नम्बर में देखल जाय ! डाकदर-इनजीयर-ओभरसीयर नौकरी लगल वाला ! बिना नौकरी वाला तो कत्ते मारल बुलऽ हइ ! बिना नौकरी वाला बतौर मजूर समझो ।) (आपीप॰87.16)
828 मटिकटवा (= मिट्टी काटने वाला) (बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें ।) (आपीप॰96.3)
829 मड़गोद (~ भात) (फुलवा के सबेरे रोटी आव आलू के कुच्चा खिला के सुता देलक हल ! मुदा फुलवा के आँखि में नीन कहाँ ? भूँजल मछली के गंध जो नीन आवो दिये ? ... कनमटकी पारले रह गेल फुलवा । जिछना जब कटोरा में मछली के गुड़िया अऽ मड़गोद भात चापुट पार पार के खाय लगल तऽ फुलवा के कनमटकी वाला मूँदल आँख फट सियाँ खुल गेल ।) (आपीप॰2.13)
830 मडर (= मर्डर, हत्या) (पाँचो के फुल औडर मिल गेल । जतना मडर होय कोय परवाह नै, तोर बाल बाँका नै होवो देवो । डरना-घबराना नै ।; एने गनौरी चा के समर्थक पारंपरिक हथियार वाला पर गोली दागो लगलई, पाँच मडर, पचीसो घायल ! चुनाव बन्द !) (आपीप॰63.5, 19)
831 मतिखपत (सूपन के भी भीतरे-भीतरे डर समा गेलन - दुर्रर्र ... इ मतिखपत कलेट्टर कहैं जेल पहुँचा देलक तऽ कि होत ? तभी हुनकरा धेयान आयल अप्पन एम॰एल॰ए॰ शरमा जी के, एमेलेइये नञ, मुनिस्टर हथिन । अब उहे जान बचा सकइ होथ ।) (आपीप॰39.22)
832 मद्धिम (हम पहिले छेड़छाड़ करबइ तब कुरोधि जइतइ । ओकरे करो दियै, जे करे से । जब सोहगी नगीच अइलइ, तब ओकर बाँसुरी के सुर कुछ मद्धिम भेलइ । सुर भी गड़बड़ावऽ लगलइ । छउँड़ी मचना के नीचे अइलइ !) (आपीप॰84.4)
833 मनझान (एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ । दोसर रहइ त मन मनझान ! ऊ रहइ तऽ कि कहना ! हौले-हौले टौन मारऽ लगलखिन । नया उमर ! बात-बात पर हँसि जाय । हिनखर खुशी के कोय ठेकाना नञ । मुदा आर कुछ के साहस नञ ।) (आपीप॰106.5)
834 मनुआना (= उदास होना, उबना) (जानऽ हीं, घर में बैठल रहला से देह में घुन्न लग जा हइ । रोज चरावइ ले आवें ! तनी देह में माटी लगायल करहीं, बल बनल रहतौ । डंड-कुश्ती मारहीं । । नञ रोज अइवें तऽ एक काम करें । तों गइया खोल के हमरा जौर कर दे । एकाह घंटा खेल के चल जो, हम साँझ तक चरइने चल अइबौ । मुदा रोज आवें । बचपन के नगौटिया ! तों आ जाहें तऽ हमरो मन लग जाहे । एइसे मनुआयल रहऽ ही । सीतिया बेस कह के चल गेल ।) (आपीप॰77.13)
835 मरीच (= मिरची, मिरचाई) ) (बुढ़िया घर से एगो कुश के चटाय लाके चन्दन गाछ के छाहुर में बिछा देलक, आर घर से एक लोटा घोर - जेकरा में जीरा-जमाइन, काला नीमक, मरीच देल । कहलक - पहिले बेटा ! एकरे पी ले । तब पानी पीहें । करेजा ठंढा रहतौ ।; फेर दुबारे कै । दोसर बेरी में मइया जागलइ । पूछलकइ - कि भेलौ गे ? कुछो ने मइया । नञ पचलइ । बिगि देलकइ । ले मरीच चिबा के पानी पी ले । पेटे साफ हो जइतौ । मन नै पचपचइतौ ।) (आपीप॰8.11; 15.25)
836 मर्रर्र दुर्र (चिकुलिया बड़ा तैश में हलइ । कहलकइ - मर्रर्र दुर्र हो । तों ने चूड़ी पहिर के घर में सुत रहें । मरद भेलें हल काहे ले ? अपना हक ले बोलवइ काहे नञ ? मारि दै कि काटि दै ।; पहुँचिये तो गेलइ ! लाल-लाल भुट बैगना के खेत में ! देखे हइ तऽ कि ? मचान पर सीरक ओढ़ने चित होके बजावइ में मसगुल हइ । भिरिया जइते माँतर चिन्ह गेलइ । मर्रर्र ! दुर्र हो ! इ तो मोहना हिकइ ! बँसुरी कहाँ हइ ! किदो माटी के बनल हइ !; कातिक में हरजोतवा अइतइ गँहूम बुन के, गोड़ में बियाय फाटल रहतइ । रात के मागु जौरे सुततइ । गोड़ा पर गोड़ा चढ़ैतइ । जों कहैं पियार से गोड़ा रगड़ देतै एकरा दन दोको लहू बह जइतइ । सबेरे इलाज करावो । हाथ बाँहि पकड़तइ ! जजै तजै छिला जइतइ, नछुड़ा जइतइ ! मर्रर्र दुर्र हो ! कते खोलि को कहियौ ! कुछ बुझवै नञ करऽ हइ । तनी अपना मन में लाजो नञ लागऽ हइ मर्दबा के गे माँय !) (आपीप॰36.20; 82.18; 90.6)
837 महँ-महँ (हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? किरानी बाबू कहलखिन - एकरा कुछ के कमी नञ हइ । धन आरे-दुरे । औकात मुताबिक इहे ठीक हइ । कुरसी पर बैठइ वाला सिरिफ फरस बुकनी छोड़इ वाला होतौ । लसर मेरहा ! देखइ में चिक्कन जेकर जूरा करे महँ महँ, पेट करे कुह कुह ! बेटिया जिनगी भर कानते रहतौ । कुरसी पर बैठइ वाला तो हमहूँ ने हिकियै ! तऽ कि हइ । सोचहीं ने ।) (आपीप॰89.20)
838 महराज (= महरज; महाराज) (किरानी कुरोधि को ई कहैत कि हम बहुत देखा है पैसा वाला आप जैसे दुग्गी-तिग्गी को ! लीजिये अपना दरखास कहि के फेंकि देलकइ । आर अगल-बगल भी कुले हिनखरे दुरदुरावो लगलन ! महराज बोलने का लूर नहीं है ! आखिर इनका इज्जत है कि नहीं, आप चोर कहियेगा तब कैसे काम होगा ।) (आपीप॰116.19)
839 महाराय (= महाराज) (महेश बहुत देरी बाद अप्पन काम निवटा के अइलन । पूछलकन - देल्हो दरखास ? - हों हों । - केकरा ? तरजनी अँगुरी से बता के कहलखिन - वह जे अपिसवा के दुअरिया पर खड़ा हइ । - आय महाराय ! ऊ तो चपरासी हिकइ ।) (आपीप॰114.20)
840 माँखना (= मखना) (पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ? पपुआ माय तिरछी नजर से धन्नू चा के देखैत मुसकावैत मूड़ी नचा के कहलकइ - तऽब ! हमर बाप पाँच बरीस बरतुहारी कैलका । घर मिलल तब वर नञ, वर तब घर पसीन नञ ! दुओ आँख के सूरदास ! चौपठ ! यह मुरूख दमाद कोहबर में गोड़ लगैलका पहलमान जी ! कैसन पहलवान होथि, से हम जानऽ ही । बेटी भोगऽ हियन । ढेर बुधगर रहे से तीन ठमा माँखे ।) (आपीप॰113.16)
841 माइयो (~ निकसी; निकसी ~) (मुरदा ठीक सामने आके किनारा लग गेलइ ! मौगी अऽ बेटवा जाके देखलकइ । चिकुलिया बोललइ - देखहो ने जी ! अपसूइये हइ, कत्ते सुन्नर हइ ! सुपन जाके देख के हामी भरलका ! हों हों । चिकुलिया कहलकइ - लगऽ हइ माइयो निकसी हलइ ! खस खेलनी ! नान्हें वैस में एकरा पित्त में कत्ते गरमी हलइ ? कोय अपने परिवार चाँप चढ़ा के मार देलकइ हे ! घेंचिया में रस्सी के दाग हइ !) (आपीप॰33.7)
842 माइयो (< माय) (कनियाय जब सवारी चढ़ली - मने मन छगुनैत गेली । कने से कनकट्टी बुढ़िया, झाँझी कुतिया माइयो ! बचलइ हल जतरा भगन करइ ले । हमरा पर तो जर-जिद से पड़ल हइ माइयो !) (आपीप॰99.10, 11)
843 मागु (= मौगी, जन्नी, पत्नी) (उ रसता कि बतैलक, हमर जन्नी के मन बढ़ा देलक । कहलक - जल्दी खा आर ठंढे-ठंढी चल जा ! हमरा कोय बहाना नञ रह गेल हल । खइलूँ अऽ भारी मन से दुखी चलइ घड़ी कहलूँ अपन मागु के - अहे ! कहावत हइ कि साल भर के रसता चली, मुदा महिना वाला नञ । हमरा ई सौटकट में खतरा मालूम दे हौ ।; गेलइ सूपन के बोलावइ ले तऽ देखे हे पी पा के बराबर ! उठैलकइ - तब तक निशा के हलका सुरूर आ गेलइ हल ! उठ के गाना गावो लगलइ आर नाचो लगलइ - "लोहा के गाटर में सड़िया जे फँसलौ, लहँगा भेलौ उघार गे ! घड़-घड़ घड़-घड़ गाड़ी अइलौ, भेलौ पुल के पार गे !" एतना कह के मागु के अँचरा खींचो लगला ।; जुगो-जमाना अब कैसन हो गेलइ ? तहिया मागु रहऽ हल मरद के कहला में ! अब मरद हो गेलइ मागु, आव मागु हो गेलइ मरद । छउँड़ा के जतने पढ़ावऽ हइ ओतने पढ़ऽ हइ ।) (आपीप॰6.18; 35.8; 98.21, 22)
844 मातर (= मात्र, ही) (डाकदर साहब अइला ! नवज छूते मातर भुत हो गेला । "एकरा मछली खिला देलहो ?" - "जी नञ सरकार ! एक्को घुन्नी नञ !" जिछना बोलल । - "तब बोखार कइसे पलट गेलइ ?"; ऊ रात अदरा के खीर-पूड़ी बनलइ हल, आँठे-आँठ खा लेलकइ हल ! इ अलाय-बलाय चीज पेट में जाते मातर फेंक देलकइ । फेर कुल्ला कलाला करके सुतलइ !) (आपीप॰3.4; 15.23)
845 माताराम (झखुआ पती-पत्नी पन्दरह दिन बाद पटना से घर आयल ! बुतरू के कंचन काया ! भाय के गोदी में देको गोड़ लागलइ । कहलकइ देखल्हो माताराम ? जतरा-पतरा - ई सब अंधविश्वास हइ ।; बेटवा कहलकइ - अब कि होतइ माताराम ? बनल-बनायल बाप-दादा के घर छोड़ि को अइल्हो शहर, अपन जाति भिजुन ! कहलियो केस करो, तऽ सेहो नञ ।; दोनो माय-बेटा गुमसुम चलल ! राह में बेटवा पूछलकइ - अब माताराम ? मैया कहलकइ - बेटा ! हमर दिमाग नञ काम करऽ हौ ।) (आपीप॰101.18; 108.18; 110.8)
846 मान-परतिष्ठा (मनोज बाबू ! अपने देखइ में सुन्नर ! दस बीघा सुत्थर जमीन ! भाय में अकेले ! गाँव में मान-परतिष्ठा ! मागु सुन्नर, पढ़ल, आग्याकारी ! भगवान उरेहि के जोड़ी मेरैलखिन !) (आपीप॰102.2)
847 माय (मइया इशारा से सब समझा देलकइ । ऊ आग बबूला हो गेलइ । तोरी मोहना बहिन के ... हम ओकरा माय के बेमारी में दू महीना पटना में अगोर के रहलों होसपिटल के सड़ाँध में । ओकर दू दू गो जवान बहिन साथे सूतऽ हल । मुदा कहियो मन के बेइमान नञ बनैलियै ! अप्पन बहिन समझैत रहलियै ! आर ई एकै दिन में ... !; जाड़ा के दिन । साँझ के समय । धन्नू चा चुल्हा तर बैठि को पपुआ माय से कुछ के कुछ कहैत, रहस मारैत, कहलखिन - से कि समझऽ हीं पपुआ माय ? हमरा मामूली आदमी ! हम बाहर खिड़ँयजा नञ हियौ से से, नञ तो हम देखा दियौ अप्पन करामत ! हम केकरा से कमि को हिये तोरा लखे जे हो जाय ! पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन ।) (आपीप॰20.17, 18; 112.1, 2, 5)
848 माय-बाप (बालाजीत के माय-बाप के धैल नाम बलराम हिकइ ! इसकूल में बालेश्वर । मुदा देहाती लोग विचित्र होवे हे ! ओकर अप्पन शब्द माधुर्य होवऽ हइ । बड़का नाम के ऊ बहुत छोट बना को गरहन करै हे । सेहे सती बालेश्वर के बाला कह के पुकारऽ लगल !) (आपीप॰95.5)
849 माय-बेटा (ओकर बाप से मिलके चले कहवै । जब छौड़ा-पूत्ता एकरे ले भूखल हइ तऽ बियाहे कर लिये । करे जत्ते मन होवइ । … दुओ माय-बेटा बलात्कारी के बाप के जाको कहलकइ । ओकर बाप तैश में अइलइ मुदा परेम से बैठा को समझैलकइ ! देखो ! बैर-बियाह जोड़ी । हमरा भिजुन आवइ से पहिले अपन औकात तौलि लेल्हो ?; दोनो माय-बेटा गुमसुम चलल ! राह में बेटवा पूछलकइ - अब माताराम ? मैया कहलकइ - बेटा ! हमर दिमाग नञ काम करऽ हौ ।) (आपीप॰109.11; 110.8)
850 माय-बेटी (सबेरे अकबार में समाचार छप गेलइ । एकरा पुलिस पकड़ के जेल ले गेलइ । चार दिन माय-बेटी पानी पीको भूखले सूत रहलइ ! मगर भूख तो भूख होवे हे । ऊ केकरे छोड़लक अब तक ? जे नै करा दिये !) (आपीप॰110.20)
851 मारकिन (= मारकीन; एक प्रकार का मोटा कोरा कपड़ा; मोटिया) (उन्नैस हाथ लम्बा, दू हाथ चौड़ा, मारकिन के कपड़ा, गोबर से नीप जगह पर बिछा देल गेल हे । जेकरा पर लगल हे उन्नैस पात ! हर एक पात पर पीतर के एक थरिया, एक लोटा, एक गिलास, एक साड़ी, एक नम्बर कुर्त्ता ले कपड़ा । चावर-दाल, आलू-केला, सेव-नारंगी, पूड़ी-मिठाय ! मिठाय में लड्डू-जिलेबी-खाजा ! कपटी में रसगुल्ला ।) (आपीप॰68.14)
852 माल-पत्तर (इ तरह से बोल के पाँच बेरी धूप दे के, कर जोर के अप्पन रोजी-रोजगार में विरधी ले मनौती मांगलका - मशानी बाबा ! मुरदा भेजो । ई तरह से सुक्खा रखभो तब हमर कि होतइ ? पाँच गो परानी मरिये ने जइवइ ? अऽ मुरदा कोय टुटी-फासटिक वाला नञ भेजिहो । भेजहो धन बुबुक वाला, जे माल-पत्तर दै ।) (आपीप॰31.7)
853 मिझाना (= बुताना; बुझाना) (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰90.16)
854 मिठाय (= मिठाई) (उन्नैस हाथ लम्बा, दू हाथ चौड़ा, मारकिन के कपड़ा, गोबर से नीप जगह पर बिछा देल गेल हे । जेकरा पर लगल हे उन्नैस पात ! हर एक पात पर पीतर के एक थरिया, एक लोटा, एक गिलास, एक साड़ी, एक नम्बर कुर्त्ता ले कपड़ा । चावर-दाल, आलू-केला, सेव-नारंगी, पूड़ी-मिठाय ! मिठाय में लड्डू-जिलेबी-खाजा ! कपटी में रसगुल्ला ।) (आपीप॰68.17)
855 मिर-मिराहा (जिछना बरह बज्जी गाड़ी से लक्खीसराय पहुँचल । कैम्प में पहुँच के हँकइलक - फुलवाऽऽऽ ... ! ओकर आवाज में एगो ठनक हल । जइसे कोय नगाड़ा के सेद से पहिल चोप देलक । फुलवा कलट के देखलक आव मिर-मिराहा नियन बोलल - बाऽ ... उऽऽ !) (आपीप॰5.6)
856 मिलिट (= मिनिट; मिनट) (जो बेटा ! रामदास, तोहीं ले आव । - नञ लइहें रे ! बइठल-बइठल हिकैती करैत रहतौ ! चिकुलिया कहलकइ । सूपन अपने उठला । पाँच मिलिट में एक बोतल आर साथ में चखना लेको आ गेला !; कनियाय जे दिन से गेली, एक मिलिट के फुर्सत नञ । चार भाय के एक बहिन दुलारू ! बाबाधाम के माँगल ! साँझे से घर-घर जाको आय-माय के बोलाना । अऽ अधरात तक चिकरि चिकरि को गीत गाना, नाँचना । उमाह के कि कहना । देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली ।) (आपीप॰34.22; 100.14)
857 मी लौड (= माइ लॉर्ड) (असमिरती के वकील रमेश बाबू कहलखिन - मी लौड ! असमिरती के उ समय आत्म निरनय के अधिकार हलइ । साक्ष्य के रूप में ओरीजिनल साटिक-फिटिक देखल जाय ।; अब शमशुल हौदा एण्ड को॰ बलात्कारी के केस खुलल । इनकर वकील दलील देलक - मी लौड ! जेलर शमशुल हौदा आदि अभियुक्त निरदोस हथ । इ लड़की बदचलन हइ । जाने कहाँ केकरा से इन्टेंगिल हो के बच्चा पैदा कर लेलका आर वलोभ में पैसा ऐंठे के ख्याल से बलात्कार के केस कइलक ।; असमिरती के वकील इ दलील के काटैत जवाब में कहलका - मी लौड ! धेयान दै के बात हइ । उ जेल के नाम हइ रिमांड होम । हिन्दी में जेकरा सुधार गृह कहल जा हइ । वहाँ तो बिगड़ले लोग जइवे करऽ हथिन सुधरै ले ।) (आपीप॰54.3, 13, 25)
858 मी लौड (= माइ लॉर्ड) (बलात्कारी के वकील फेर दलील देलखिन - मी लौड ! हम एक बात कह के चलइ ले चाहऽ ही, दोसर कोट में भी काम हइ । इ बच्चा के डी॰एन॰ए॰ टेस्ट करवा लेल जाय । जेकर होय ओकरा इ बीबी-बच्चा सौंप देल जाय । इ बात कोट के विचारणीय लगल । कोट हामी भरलक । मुदा असमिरती के वकील कहलखिन - मी लौड ! ई फैसला दै से पहिले असमिरती के राय ले लेल जाय । काहे कि बीबी-बच्चा जे बलात्कारी के सौंपल जइतइ, सेकरा साथ जीवन जीना ओकरा हइ ।) (आपीप॰55.2, 6)
859 मीठ (= मीठा) (लगभग पचीस साल के उमर में हुनकर मागु हुनखरा छोड़ के चल गेलखिन वहाँ ! जहाँ से कोय लौट के नञ आवऽ हइ । एक साल हुनकर रोवैत बीत गेल !याद के पुलिन्दा के बीच ... जब आबइ हलों हँसि को मिलइ हल । बगल में बैठ के परेम से बात करइ हल । मीठ ! गुड़ो से मीठ बात ! ओतना मीठ कि रसगुल्ला होतइ !) (आपीप॰102.9, 10)
860 मीरा (चमरटोली गेलइ । अन्हरा मनसुखवा बोललइ - के हा ! बुधन बाबू ? - हों हों । कि बात हइ ? - या मीरा । दिनो के भूखल हलियो । अरमान कइलों हल । नगर भोज में सात थान मिठाय खाब । मनमनयले रहलों, खाब तो कि, सूँघइ ले भी नञ !) (आपीप॰71.2)
861 मुँहदेखवा (बेटा कहलकइ - कहिया ओकरा सजाय देथिन कि नञ देथिन ? तों देखवें कि नञ देखवें ? भगवानो अमीरे के पच्छ में रहऽ हथिन ! हमरा गरीब ले कोय नञ ! ओते गाँव में आदमी हइ ! एकाध गो तोर साथी जौराती भेलो ? पंच खोजल्हीं, मिललो ? जे मिललो, मुँहदेखवा। ओकरे नियर बोलइ वाला ।) (आपीप॰29.2)
862 मुड़ी (= सिर) (~ गोतना) (सोहगी अपना के ओकर पंजा से मुक्त हो को भागइ के कोरसिस कैलकइ । बकि मरद के पंजा में कसमसाल जवानी भरल-पूरल छटपटाइत ... औरत के उहे मरद छोड़ सकऽ हे जे नामरद होतइ ! नञ छोड़लकइ ! एतने में बुन्देला चा ओने से जुम गेलखिन ! कहलखिन - इहे पढ़ाइ एजो चलऽ हे हो ! रसलीला । छउँड़ा बक दनी छोड़ देलकइ । छोउँड़ी काठ हो गेलइ । जइसैं के तइसैं ! नै हिलइ नै डोलइ ! मुड़िया गोतने जस के तस !) (आपीप॰84.17)
863 मुनिस्टर (= मिनिस्टर, मन्त्री) (सूपन के भी भीतरे-भीतरे डर समा गेलन - दुर्रर्र ... इ मतिखपत कलेट्टर कहैं जेल पहुँचा देलक तऽ कि होत ? तभी हुनकरा धेयान आयल अप्पन एम॰एल॰ए॰ शरमा जी के, एमेलेइये नञ, मुनिस्टर हथिन । अब उहे जान बचा सकइ होथ ।) (आपीप॰39.24)
864 मुरधान (~ देना) (इ तरह से पाँच-पाँच बेरी जोगनी-झकिनी-शाकिनी, भूत-भूतनी, पिचासनी के नाम लेको धूप देको - अंत में सब धूप आग में डाल के कहलका - माय जगहिया, माय गंगा, छूटल-बढ़ल सान्ही-कोन्हा में अँटकल-सटकल देवी-देवता जे हा आशा लगइने । सब के नाम से मुरधान दऽ हियो । हम्मर रोजगार में सहाय होइहा ।) (आपीप॰31.24)
865 मुराय (= मुरय, मुरई; मूली) (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰91.8)
866 मुरूत (= मूर्ति) (झखुआ के आँसू भरल आँख जैसे सब स्वीकारने जा हइ । भीतरे भीतर ई ज्वाला से मोम के मुरूत नियर गलल जा हइ ।) (आपीप॰99.6)
867 मूड़ी (= सिर) (~ पर ~ बजड़ना) (महेश एक बार सन्न हो गेलइ ! पाँच हजार ! तीन हजार तो ओकर रेट हलइ । बह बजार खुरा डोभ ! तऽ ? .. जाफरी साहब कहलखिन - साला ! ई परमोटी है । रिटायर एज में है । पैसे का जनमा है ! समझता है लूट का माल है, जबकि है ई कर्ज ! लौटाना पड़ेगा सूद के साथ ! तो भी मूड़ी पर मूड़ी बजड़ रहा है ।; उठा को हाजी साहब के सरंग गोलो कुरसिया पर फेंकि देलखिन । मथवा फूटि गेलइ ! गोड़ा हाँथा में मोच आ गेलइ ! ई भागला गेटवे दने से दू सिपाही घेरलकइ डण्टा पाटी । एगो के उठा को मुड़िये भार बजाड़ि देलखिन । मुड़िया फूटि गेलइ । दोसर के ठेलि देलखिन । गेटवा के गिरिलवा के लोहवा से टकरा गेलइ । हाँथे टुटि गेलइ ।) (आपीप॰119.13; 121.7)
868 मूतना (ऊ कहलकइ - बेटा के कि ? झारो मुत्ते पातो मुत्ते ! बेटिया तोर बहकल हो तब कोय जा सकऽ हइ । तोरा तोर काम में के मना करतो ! दिन के चाह, रात को बजार खोलि देल्हो तऽ कोय जा सकऽ हइ ।) (आपीप॰109.20)
869 मेराना (मनोज बाबू ! अपने देखइ में सुन्नर ! दस बीघा सुत्थर जमीन ! भाय में अकेले ! गाँव में मान-परतिष्ठा ! मागु सुन्नर, पढ़ल, आग्याकारी ! भगवान उरेहि के जोड़ी मेरैलखिन !) (आपीप॰102.2)
870 मैया-धीया (कुछ दिन बाद ऊ टेबि को अइलइ, खूब सोचि विचारि को ! अपन जाति के मोहल्ला में जाको सड़क किनारे । चौराहा पर फर्द में टाट के झोपड़ी देको चाह के दोकान देलकइ ! छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ ।) (आपीप॰108.4)
871 मैला (= पाखान; गन्दी वस्तु) (अरे जन्नी तो वाम बुद्धि ने होवऽ हइ । कहल गेलइ हे कि औरत के नाक नञ रहे तो मैला खाय ! अरे ! 'आदमी आनाड़ी अऽ गदहा गरि' इ कहैं सुनल्हीं हें ?) (आपीप॰112.23)
872 मोंछ-दाढ़ी (जब ओकरा मोंछ-दाढ़ी अइलइ, तब उ हमरा सम्पर्क में आयल ! ई सच हइ कि कुछ गीत लिखऽ हलइ, हमरा सुनावइ भी !) (आपीप॰95.14)
873 मोटरी (तभी ओकर धेयान भगवान पर गेल । भगवान अब सब तोहरे हाथ में । नवीन से हाँ कहवा दहो । तब तो हमर बेटा पाँड़े, हम पँड़ियाइन । नञ तब ? ... जीवन भर भटकते रहो माथा पर ई कलंक के मोटरी ले के । इहे नारी जीवन के तरासदी हइ ।) (आपीप॰43.23)
874 मोसमात (= मसोमात; विधवा) (संजोग से समरी माय मोसमतिया अइलइ । पूछलकइ - मनोज बाबू ! टमाटर रोपइ ले चाहऽ हियै । टीवेलवा तर वाला खेता देभो ?) (आपीप॰104.20)
875 मोसामत (= मसोमात; विधवा) (तब पेट काटि को पचास हजार जमा कैलकइ हल । गाल के माँसु चिबा को । दस बीघा खेत । एगो माय-बेटा ! मोसामत जनिऔरी । कहियो कथा-पूजा कइले होतइ ?) (आपीप॰71.24)
876 रंडी (पाँच हजार घूस में बात भेलो ! बाबू के कहलियो ! ऊ सूद पर रूपइया लाको देलखिन ! हम दे अइलियै बहाल करइ वाला अपीसर के । ओकरो कइ एक साल हो गेलो ! जब जा हियो, हाँ हाँ ! अब हो जायगा । घुर आवऽ हियो । उहे रूपइया हमरा ले काल हो गेलो । बाबू कहऽ हथुन - ऊ रूपइया तों रंडी के दे अइलें । चानी के जूता केकरा नञ नमा दियै ! एक हाथ रूपइया दोसर हाथ काम । या तो तों नञ देल्हीं, या रूपइया खेतारी कइलें । आखिर एक दिन कुरोधि गेलखुन । कहलखुन - हमर रूपइया ला को दा, या दुओ जीव अलग खा । लटपट बतिया मोहि न सुहाय, टाट पलंग लेहो माथा चढ़ाय ।) (आपीप॰96.13)
877 रंथी (= अरथी) (कुछ सोंच के चिकुलिया कहलकइ - अजी एक काम करो ने ! हम पटना में देखलियइ हे, एइसे करइत । ताजा लहास हइ, अभी महकले ह नञ । एकरा पानी से निकाल के धो-धा के अप्पन कपड़ा पिन्हा के, तेल-फुलेल लगा के, अतर छिट के, रंथी पर सुता के, चारो कोना पर धूप-गुंगुल जरावैत रहिहो ! अऽ टिशनमा गेटा पर धर दिहो ! कफन के नाम पर अच्छे आ जइतो ! ई मुरदा घाट से बढ़िया ।) (आपीप॰33.16)
878 रतोवा (= रायता) (कतना आदमी के खिलाना हइ पहिले ई तो ऐडिया मिल जाय । हर टोला के, महल्ला के, जाति के लोग अप्पन जनसंख्या बता देलखिन । फेर तो इसटिमिट बन गेल - दू थान ! लड्डू-जिलेबी, पूड़ी-तरकारी, आलू-परवल के रतोवा ! दही-चीनी रेड़म-रेड़ ! बस एकरा से जादा नञ !) (आपीप॰67.16)
879 रमायन-उमायन (कोय जवान लड़की के देखथ कि देखते रह जाथ । तरह-तरह के कामना । तरह-तरह के काम कल्पना । अब हुनकरा एक स्वस्थ जवान औरत के जरूरत महसूस होवो लगला । मुदा होय कि - चिड़िया चुग गेल खेत । .... अनरूध समझैलकन - मनोज धीरज धर ! कछौटा बान्ह ! तोरा राम-लछुमन दू बेटा । संसार कि कहतौ ? बियाह करभो बुढ़ारी में ! ... हे हो ! रमायन-उमायन पढ़ल करो तनी । तुलसीदास कहलखिन - छन सुख लागि जनम सत कोटी । दुख न समझ तेहि सम को खोटी ! ऊ सब एक छन के । ओकरा ले एते सोचतइ ! सब काम करिहा मगर ई मूर्खता नञ भाय ।) (आपीप॰104.1)
880 रव-रव (~ तीत) (चिकुलिया ई सब पहुँचा को जुट गेल खाना बनावइ में । एक छन सोचलक जल्दी में कि बनावल जाय । बस ! भूजिया रोटी । पहिले भूजिया बना देलकइ - आलू के खूब तेल-मसाला देके रव-रव तीत ! तातले तातले रोटी निकालने जइवे । खइतइ भी ! पीतइ भी ! खाना के खाना - चखना के चखना !) (आपीप॰35.3)
881 रसुनाय (= रोशनाई, स्याही) (धन्नू चा सबेरे घर से दही-चूड़ा खा को, जतरा बनैने सबसे पहिले आपिस में दम दाखिल । जइते इनरदेव बाबू के सलाम ठोकलखिन ! पूछलखिन - हमर दरखास अइलइ इनरदेव बाबू ? ऊ कहलकन - किसके नाम से ? - धन्नू पहलमान के नाम से । ऊ उलटि-पुलटि को फाइल देखो लगलइ । चाचा पढ़ल तो नै मुदा आददास्त के बड़ी तेज । हिनखर दरखास के पीठिया पर रसुनाय के दाग हो गेलइ हल । पट दोकोऽ चिन्ह गेलखिन - यह तो हिकइ !) (आपीप॰115.24)
882 रहस (= आनन्द, सुख; कौतुक; हँसी-ठट्ठा; उत्साह) (~ मारना) (जाड़ा के दिन । साँझ के समय । धन्नू चा चुल्हा तर बैठि को पपुआ माय से कुछ के कुछ कहैत, रहस मारैत, कहलखिन - से कि समझऽ हीं पपुआ माय ? हमरा मामूली आदमी ! हम बाहर खिड़ँयजा नञ हियौ से से, नञ तो हम देखा दियौ अप्पन करामत ! हम केकरा से कमि को हिये तोरा लखे जे हो जाय ! पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन ।) (आपीप॰112.2)
883 राबा (इसटिमिट बन गेल - दू थान ! लड्डू-जिलेबी, पूड़ी-तरकारी, आलू-परवल के रतोवा ! दही-चीनी रेड़म-रेड़ ! बस एकरा से जादा नञ ! सब कगज पर लिखा गेल - नोन से हरदी तक, पत्तल से गिलास भर, राबा से रत्ती, कुछ छूटइ के नै चाही । नै छूटल, ओक्के हो गेल । पंच के मोहर लग गेल । अनुमानतः एक लाख ! दस हजार हाथ में राखो, उपर से घटल-बढ़ल !) (आपीप॰67.18)
884 रामतोड़इ (= रामतरोई, भिंडी) (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग !) (आपीप॰91.14)
885 रासपति (= राष्ट्रपति) (इसकुल चलावै ले सरकार से मिलना जरूरी हइ । तहिया ई साल में एगो सम्मेलन करावऽ हलइ । ओकरा में बड़का-बड़का नेता के लावऽ हलइ । यहाँ रासपति तक ऐलखिन ।) (आपीप॰10.24)
886 रिपोट (कलेट्टर सी॰बी॰आइ॰ के जाँच ले लिख देलकइ । सी॰बी॰आइ॰ लिखलकइ जवाब में - अभी हमरा पाले बहुत केस धरल हइ ! हमरा लड़की के फोटो अऽ पोस्टमाटम रिपोट मिल जाय के चाही !; हम सी॰बी॰आइ॰ के जाँच लिख देलियै हे ! रिपोट आवइ तक इन्तजार करथिन !) (आपीप॰39:15; 40.25)
887 रूसना (= रूठना) (बहिनयों वैसनैं । ए माँय ! हम जाम ने तऽ, एकादसी रहइ कि द्वादसी ! बियाह-शादी में ई सब नञ लेल जा हइ । हम भैवा के रूसल जाय देवइ ! फेर बियाह होतइ हमर भैवा के कि ?) (आपीप॰98.19)
888 रूसी-गरदा (अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै । कखनै धान उसरतइ, चावर फटकतइ । ओकर रूसी-गरदा उड़तइ ! कपड़ा कार हो जइतइ । गँहूम फटकतइ । चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ !) (आपीप॰89.12)
889 रेटना (= रहटना; बहुत कठिन परिश्रम करना) (टमाटर रोपा हो गेल । केरौनी चलो लगल । ओकर मइया कहलकन - मनोज बाबू ! एजो एगो मचान गड़ि दहो । बाँग-बारी चीज बिना अगोरने ? के जाने, कखने कने से कि चल आवे । हम दिन भर माटी में रेटऽ ही । ओकरा कि लगतइ । एक छन में सब कैल-धैल चौपठ ।) (आपीप॰106.1)
890 रेड़म-रेड़ (= रेलम-रेल; मनमाना) (कतना आदमी के खिलाना हइ पहिले ई तो ऐडिया मिल जाय । हर टोला के, महल्ला के, जाति के लोग अप्पन जनसंख्या बता देलखिन । फेर तो इसटिमिट बन गेल - दू थान ! लड्डू-जिलेबी, पूड़ी-तरकारी, आलू-परवल के रतोवा ! दही-चीनी रेड़म-रेड़ ! बस एकरा से जादा नञ !) (आपीप॰67.17)
891 रेस हाऊस (= रेस्ट हाऊस) (करेजा थाम्ह के सुनहा, बात बढ़िया नञ हो ! पुष्पी के गोड़ भारी हो ! - आँय ! पुष्पी के ? कइसे ? कहाँ से ? - कहलियो ने ! ऊ जग्गा देखइ ले नञ गेलइ हल ? मोहना जौरे, ओकरे में रात हो गेलइ । कने कने ऊ, किदो रेस हाऊस होवऽ हइ ! ओकरे में सुतैलकइ आर बलात्कार कर लेलक ।) (आपीप॰18.10)
892 रेहू (एक दिन जिछना के जाल में संजोग से रेहू मछली पकड़ा गेलइ । ओकरा तो तेल में चुपड़ के खूब खर्रह के भूँजलक ।) (आपीप॰2.9)
893 रोकसदी (= रोसकद्दी; रुखसत; गौना) (सितिया लोटवा लैत मुस्का के कहलकइ - जो रे भोम्हा ! तोरा कुछ नञ बुझो अइलौ ! अऽ भीतर चल गेलइ । दूधा उझलि को लोटवा मैया पहमा भेजवा देलकइ । सौखवा दू छन खड़ा सोचैत रहलइ - हमरा कि नञ बुझो अइलइ ? फेर इहे सोचैत घर चल अइलै । बिहान दस बजे सितिया के रोकसदी हो गेलइ । सौखवा सवारी के पाछू-पाछू मन में इहे छगुनैत - 'हमरा कि नञ बुझो अइलइ ? सितिया से पूछ के रहबै ।' टीशन तक गेलइ ।; बुढ़िया फेर हुकुम देलकइ - जो जल्दी ! आझे ! अभी ! कहीं हमरा नाँगट उघार रोकसदी कर दिये ! अप्पन घर चल आयत अपना सुख-दुख के साथ रहत !) (आपीप॰79.23; 99.8)
894 रोपा (= रोपनी) (चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ ! आँखि खराब हो जइतै । रोपा दिन में मजूर ले सतुआ भूँजतइ । मन के मन घामा में ! ऊ मर जाना बेस जिन्दा रहना नञ !; हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ?; टमाटर रोपा हो गेल । केरौनी चलो लगल । ओकर मइया कहलकन - मनोज बाबू ! एजो एगो मचान गड़ि दहो । बाँग-बारी चीज बिना अगोरने ? के जाने, कखने कने से कि चल आवे । हम दिन भर माटी में रेटऽ ही । ओकरा कि लगतइ । एक छन में सब कैल-धैल चौपठ ।) (आपीप॰89.14, 22; 105.22)
895 रोवाय (= रोदन, क्रन्दन) (अनिल बाबू यहाँ जल्दी जो, नञ तऽ ई हाथ से निकल गेलौ । उ डाकदर नञ देवता हथिन । गरीब ले तो भगवाने बुझो । नामी-गिरामी बढ़िया डाकदर के सुभावो बढ़िया होवऽ हइ । दिल्ली-पटना से लौटल रोगी यहाँ कानइत आयल, हँसइत गेल । जिछना अनिल बाबू के यहाँ पहुँच के बुम्म फाड़ के कानऽ लगल, ऐसन रोवाय छूटल कि अनिल बाबू तो अनिल बाबू हथ ! आग भी ठंढा जाय ।) (आपीप॰4.6)
896 रौदा (= रउदा; धूप) (~ के झमायल) (हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? ... कुछ रहे कि नञ, हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ?) (आपीप॰89.23)
897 लगना (चावल, दाल आदि का) (चलल जा हलइ । पंचू मिललइ । बुधना पुछलकइ - कि पंचू ? कैसन रहलइ ? खइला हा खूब ? पंचू कहलकइ - अच्छे हलइ नुनु । तनी बरहवा दिन अलुआ वाला तरकरिया लागइ काँचे रहि गेलइ हल । अऽ तेरहवा दिन दलिया शायत तनी लगि गेलइ हल, तनी जराइन लागइ ।) (आपीप॰70.20)
898 लटपट (~ बात) (पाँच हजार घूस में बात भेलो ! बाबू के कहलियो ! ऊ सूद पर रूपइया लाको देलखिन ! हम दे अइलियै बहाल करइ वाला अपीसर के । ओकरो कइ एक साल हो गेलो ! जब जा हियो, हाँ हाँ ! अब हो जायगा । घुर आवऽ हियो । उहे रूपइया हमरा ले काल हो गेलो । बाबू कहऽ हथुन - ऊ रूपइया तों रंडी के दे अइलें । चानी के जूता केकरा नञ नमा दियै ! एक हाथ रूपइया दोसर हाथ काम । या तो तों नञ देल्हीं, या रूपइया खेतारी कइलें । आखिर एक दिन कुरोधि गेलखुन । कहलखुन - हमर रूपइया ला को दा, या दुओ जीव अलग खा । लटपट बतिया मोहि न सुहाय, टाट पलंग लेहो माथा चढ़ाय ।) (आपीप॰96.16)
899 लटियाना (= केश में लट्टा होना; तेल, गर्द, मैल आदि के कारण बालों का चिपकना) (ओकर बाल छुअइत कहलखिन - देखहीं तो, एतना सुन्नर बाल, से लटियाल ! साबुन से काहे नञ साफ कर दै हहीं ? - हों करबइ । सबुने खतम हो गेलइ । आसकत ! कीनबइ ! ई एक हरयरकी नोट चमचम नमरी ओकरा हाँथ में दैत कहलखिन - ले । एकरे से जे तोरा मन होतौ खरीद लिहें । साबुन-सर्फ, आवडर-पावडर । सोचिहें नै । फेर माँगवौ नञ ।) (आपीप॰106.20)
900 लतराना (माथा में चक्कर ... गोड़ लतरा जा हल, पाँच सौ रुपया से जासती के खून निकाल लेलकइ हल उ बेचारा के देह से !) (आपीप॰5.1)
901 लदर-फदर (छउँड़ी सलवार फराक पिन्हऽ लगलइ । मइया कहलकइ - दुर ने जाय ! छिछियैली ! ई लदर-फदर ... एकरा पिन्ह के रोपइ में बनतौ ? पेन्ह ले घंघरिया आव उपर से अधबहिमा कमीचवा । सेकर उपर ओढ़निया ले ले । छउँड़ी सेहे कइलकइ ।) (आपीप॰105.12)
902 लफड़ा (पेट गिराना जुर्म हइ । जा, कहैं दोसरा डाकदरनी यहाँ । हमरा कोय लफड़ा लग जाय तब ?) (आपीप॰19.7)
903 लफुआ (छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ । वेबहार बढ़ियाँ, दोकान चलि गेलइ । कुच्छे दिन में सुखी हो गेलइ ! एक-दू महीना बीतल नञ होतइ कि छउँड़ी के हँसि को बोलइ के आदत ओकर जी के जंजाल हो गेलइ । एक दिन चार गो लफुआ अइलइ - मइया-बेटवा के केप्चर कर लेलकइ, पिस्तौल देखा के, लगभग बारह बजे रात में ! एकाएकी छउँड़ी के बलात्कार करि गेलइ । छउँड़ी बदहोश !; बेटवा कहलकइ - अब कि होतइ माताराम ? बनल-बनायल बाप-दादा के घर छोड़ि को अइल्हो शहर, अपन जाति भिजुन ! कहलियो केस करो, तऽ सेहो नञ । ई लफुआ बहिन के ... पांगि गेलइ, कि एकरा से कुछ नञ होतइ ! जाति ... जाति ... जाति के लीला देखल्हो ? जाति के खूब धो धो के चाटो !) (आपीप॰108.8, 20)
904 लमगर-छड़गर (सौखवा दूध पीके, कुश्ती खेल के साले भर में जुआन हो गेल । लमगर-छड़गर गैदुम शरीर, गेहुआँ रंग । सुन्नर कत्ते लगइ ! पुट्ठा पर माँस । गरदन से लेको कान्हा तक लगइ जैसे साँढ़ के रहे ।) (आपीप॰76.5)
905 लरछना (जे किसान के भैंस बलगर अऽ गेरगर हलइ से लछरि-लछरि चौतार मारइ । ई साल के हूर वाला पाहुर के लेधड़ी, सौखवे के भैंस छिरियैलकइ ।) (आपीप॰75.16)
906 लसर-फुसर (कहलखिन - जा देलियो ! तनी नीक से खेती करिहा, जे दू पैसा तोरो होय ! आर हमरो ! समरी माय कहलकइ - लसर-फुसर कैला से कि फायदा ! बढ़ियाँ से करवइ कि !) (आपीप॰105.10)
907 लसर-मेहरा (हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? किरानी बाबू कहलखिन - एकरा कुछ के कमी नञ हइ । धन आरे-दुरे । औकात मुताबिक इहे ठीक हइ । कुरसी पर बैठइ वाला सिरिफ फरस बुकनी छोड़इ वाला होतौ । लसर मेरहा ! देखइ में चिक्कन जेकर जूरा करे महँ महँ, पेट करे कुह कुह ! बेटिया जिनगी भर कानते रहतौ । कुरसी पर बैठइ वाला तो हमहूँ ने हिकियै ! तऽ कि हइ । सोचहीं ने ।) (आपीप॰89.20)
908 लहरना (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰90.19)
909 लहरेठा (= रहैठा) (अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै । कखनै धान उसरतइ, चावर फटकतइ । ओकर रूसी-गरदा उड़तइ ! कपड़ा कार हो जइतइ । गँहूम फटकतइ । चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ !) (आपीप॰89.13)
910 लहास (= लाश) (लोग कहलकइ - कोय बनिया के बेटी हलइ - जवान । ओकरे गुण्डा राते बलात्कार कर के गंगा में फेंक देलकइ ! ओकरे लेको सड़क जाम हइ । चिकुलिया कहलकइ - उहे लहसवा हिको । अग्गे मइयो रे ! पैसा कमाय के बुद्धि देखो । चलो हमर लहसवा हम छिन लेवइ । सूपन कहलकइ - ऊ लहसवा कने से रहतइ पगली । बनिया ले जइतइ लहास ? चलें हम्मर घाट सूना हे । छोड़ें इ सब बम-बखेड़ा ।; भीड़ चीर के चिकुलिया जो जा हइ तऽ देखे हे उहे लहसवा । एकर वाला कपड़वा बदल के नया कफन ओढ़ा देलकै हे ।; लगभग दू बजे कलेक्टर अइलइ, घोषणा कैलकइ - मृतक के परिवार के दू लाख रूपैया, आर अपराधी के पता लगा के सजाय देल जइतइ । जाम टूट गेल । लहास पुलिस के हवाले हो गेल ।; चीज हम्मर, कत्ते मेहनत से गंगा जी से उपर कइलों । हमरा भीखमंगी कर के मिलल एगारह सौ । ऊ हमरे वाला लहसवा चोरा के कमइलक दू लाख । हम तखनइ पोल खोलऽ हलियइ ! कलेट्टर रूपैया देतइ हल ? पुलिस मारते हल चूतड़ पर चार लाठी ।) (आपीप॰36.7, 8, 9, 13; 37.1, 19)
911 लहास (= लाश) (सबेरे हल्ला भेलइ - लहास लायल गेल । तरह-तरह के बात चलो लगल ! केकरो केकरा पर शंका, केकरो केकरा पर । मुदा मनोज पर केकरो शंका नञ ।; कुछ सोंच के चिकुलिया कहलकइ - अजी एक काम करो ने ! हम पटना में देखलियइ हे, एइसे करइत । ताजा लहास हइ, अभी महकले ह नञ । एकरा पानी से निकाल के धो-धा के अप्पन कपड़ा पिन्हा के, तेल-फुलेल लगा के, अतर छिट के, रंथी पर सुता के, चारो कोना पर धूप-गुंगुल जरावैत रहिहो ! अऽ टिशनमा गेटा पर धर दिहो ! कफन के नाम पर अच्छे आ जइतो ! ई मुरदा घाट से बढ़िया ।; चिकुलिया कहलकइ - हों चलो ! अजी, एक काम करो ! ई लहसवा कल्ह भर पैसा देतो । नै महकलइ हे । एकरा चार गो खम्भा गड़ के मचान पर एजइ रख दा ! कुत्ता-बिलाय, गिदर-माकर नञ लेतो ! सबेरे से फेर शुरूहा ... ।) (आपीप॰21.17; 33.13; 34.2)
912 लाधना (= नाधना, शुरू करना) (करमठ के काम खतम हो गेल । अब भोज के बारी हे । बुधना अपन सलाहकार सब के बोला को झाड़लक । तोरे कुल के भरोसा पर हम ई काम लाधलो हें । एक जगह तो नाम हँसा देला । अब भोज में एक आदमी भी नै छुटइ के चाही, कोय सिकायत नै आबे ।) (आपीप॰70.6)
913 लाल-पीयर (= लाल-पीला) (इलाज शुरूह भेल । उहे लाल-पीयर गोली, उहे पानी रंग-बिरंगा । सरकारी दवाय के कहना की ? सही रहे तऽ लोग प्रायविट में काहे देखावे ।) (आपीप॰3.11)
914 लालमी (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग !) (आपीप॰91.13)
915 लावा (ठीक ऐन बखत पर ओने बरियात सज रहल हे । एने हिनखर बुतरू अब-तब में । कनियाय के तो एक्को अकिल्ले नञ । मुँह में धान दिये लावा । बुढ़िया के एक-एक बात करेजा सालो लगलन । कि जने कि होत ? आखिर होय बिहान, होय बिहान, चिट्ठी लिखलकी ।) (आपीप॰100.20)
916 लुर-बुध (चिकुलिया कहलकइ - एजो देवला के आड़, एकान्त में रूपइया गिन्हो तो कतना हो ! सूपन एक-एक करके रूपइया गिनलका - सब मिला के एगारह सो पाँच ! रूपैया के मोटरी चिकुलिया के हाथ में दैत सूपन खुसी से उछल गेलखिन । चिकुलिया के पँजोठ के चुम्बा लैत कहलखिन - वाह गे ! चिक्को रानी ! ई तोरे लुर-बुध के कमाय हे भाय ! सब पैसा तोर !) (आपीप॰34.11)
917 लूर (किरानी कुरोधि को ई कहैत कि हम बहुत देखा है पैसा वाला आप जैसे दुग्गी-तिग्गी को ! लीजिये अपना दरखास कहि के फेंकि देलकइ । आर अगल-बगल भी कुले हिनखरे दुरदुरावो लगलन ! महराज बोलने का लूर नहीं है ! आखिर इनका इज्जत है कि नहीं, आप चोर कहियेगा तब कैसे काम होगा ।) (आपीप॰116.19)
918 लेख (= लेखा) (पूछलकन - देल्हो दरखास ? - हों हों । - केकरा ? तरजनी अँगुरी से बता के कहलखिन - वह जे अपिसवा के दुअरिया पर खड़ा हइ । - आय महाराय ! ऊ तो चपरासी हिकइ । कहलियो हल, अपने से जाके हकिमे के ने दै ले । हाँथे हाँथ काम जल्दी आगू बढ़तइ हल । धन्नू चा कहलखिन - अरे मछलोकवा के लेख हँथे से ले लेकइ ! कहलकइ - लाइये हम दे देगा ।) (आपीप॰114.22)
919 लेधड़ी (जे किसान के भैंस बलगर अऽ गेरगर हलइ से लछरि-लछरि चौतार मारइ । ई साल के हूर वाला पाहुर के लेधड़ी, सौखवे के भैंस छिरियैलकइ ।) (आपीप॰75.17)
920 लेरू-पठरू (इ गीत सौखवा के इसपीसल गीत हलइ । इ गीत के महातम आर केकरे ले कुछ रहइ कि नञ, सितिया ले बहुत हलइ । जैसैं सुनइ कि समझ जाय, सौखवा भैंस चरइ ले खोल देलक । उहो अप्पन लेरू-पठरू खोल के जल्दी-जल्दी साथ हो जाय !; कभी कभी धमक्का भी लगावइ ! मुदा फेर साथे । कोय दिन ऐसनो होय कि ओकरा जादा चोट लग जाय, कानल घर भाग जाय । तब सौखवा ओकर लेरू-पठरू सब साँझ तक चरइने घर पहुँचा दै ।) (आपीप॰73.10; 74.10)
921 लेह (~ कबड्डी भागना) (हूर ले पाहुर आ गेल ! ओकर चारो गोड़ मजबूत रस्सी से कसि को बान्हि देलकइ । ओकरा में एक से दू गो नौजवान पैना पेस के उठा लै, आर हूर ... ले हूर ... कह के भैंसिया के सिंघिया भिजुन दै। कोय-कोय भैंस तो पाहुर के किकियाहट सुन के लेह कबड्डी भागइ । कोय भैंस एकाह चौतर मारइ, पाहुर कें कें करइ !) (आपीप॰75.12)
922 लैन (= लाइन) (पैसा के कोय सवाल नै हइ । सवाल हइ एकरा सम्हाड़इ के । अब तों कुले सोचो कि करवा ? हमरा तरफ से किलियर लैन हो । तोरा हाथ में वेवस्था दै हियो कइसे करवा, से तों जानो ! जे में ई नगर भोज हँसी होको नै रहि जाय !; गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰66.23; 90.17)
923 लोर (= आँसू) (कहलियौ ने, हमर माथा एत्ते नञ भुकाव । अब जाने तों, नञ जानौ तोर काम । पुष्फी घर लौट गेल । चुपचाप घर के पलंग पर तकिया में मुँह छिपा के सुबक-सुबक के कानो लगल, पूरा तकिया लोर से भींज गेलइ ।; आयल फागुन । अनरुध आ गेला । घर में खैलका । हाथ पोंछने मित्र भिजुन गेला । दोनो दोस्त गले-गले मिलला । कुछ ऐनौक-औनौक, कुछ देश-देशान्तर के खिस्सा । कुछ हाल-चाल । फेर मनोज अप्पन दुख के पुरान उलटे लगला । पुरान उलटते आँखि से ढब-ढब लोर गिरो लगल !) (आपीप॰14.18; 103.14)
924 वँसुली (= बाँसुरी) (वकील साहब कहलखिन - ओकर हतिया । नै बाँस रहे नञ वँसुली बाजे । बात खतम ।) (आपीप॰56.13)
925 वकनी (~ बकना) (झखुआ छोटकी के नहिरा से ले, आल ! बुढ़िया आपन पोता के हालत देख वुक्का फाड़ कानो लगल । फेर वइसैं वकनी बकऽ लगल, पहिले सब बात !) (आपीप॰101.11)
926 वकार (= बकार) (ऐसन मत बोल बेटा । - नञ वप्पा ... बड़ी दरद ... वप्पा ! आँख मूँद लेलक, गुम हो गेल । अब जिछना के मुँह में वकारे नञ !) (आपीप॰3.19)
927 वज्जर (= बज्जड़; वज्र) (ऊ गोली अऽ पानी पीते-पीते थक गेल, बेमारी बढ़ले गेल ! फुलवा के मन एक दिन जवाब दे देलक, बोलल - अब नञ बाबू ... । जिछना के तो पराने उड़ गेल । ... तोरे देख के हम जी रहलूँ ह । इ भरल जुआनी में तोरे देख के सनतोख कइलूँ । वियाह आदमी वंसे ले करे । हमरा सोना सन फुलवा हइये हल, तब फेर दोसर औरत काहे ले ? तोर काया वज्जर के होय । ऐसन मत बोल बेटा ।) (आपीप॰3.17)
928 वरगाही (हम तखनइ पोल खोलऽ हलियइ ! कलेट्टर रूपैया देतइ हल ? पुलिस मारते हल चूतड़ पर चार लाठी । आव चिटिंगबाजी केस में जेल भेज देतै हल । खिस्सा खतम हलइ । से हमरा खींचने चल अइलइ । सेकर नतीजा ई । सूपन डाँट देकइ - रहें वरगाही ! कल्ह हम उपाय करऽ हियै ।) (आपीप॰37.22)
929 वाड (= वार्ड) (इ लड़की महिला वाड में महिला पुलिस के निगरानी में रहै होतइ । फेर वहाँ पुरुस कैसे पहुँच जा हल ?) (आपीप॰54.22)
930 वान्हना (= बान्हना; बाँधना) (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ? ... तऽ जेकरा पकड़ऽ हइ, सेकरा चूम ले हइ, अंकवरिया में कस के वान्ह ले हइ, छोड़इ ले नञ चाहऽ हइ, इहे से बुतरू-वानर अलगे-अलग रहइ ले चाहऽ हइ ... दूरे से ढेला फेंक के मारऽ हइ ।; डा॰ शर्मा जी कहलखिन - सब बात तो भेल मगर बिलाय के गला में घंटी के वान्हत । डा॰ शर्मा जी कहलखिन - सब बात तो भेल मगर बिलाय के गला में घंटी के वान्हत ।; सिपाही श्रीराम जादव जी कहलखिन - बिलाय के गला में घंटी वान्हइ वाला तो रोड पर मारल बुलऽ हइ । पैसा फेंको तमाशा देखो ।) (आपीप॰1.3; 56.16, 21)
931 विरधी (= वृद्धि) (इ तरह से बोल के पाँच बेरी धूप दे के, कर जोर के अप्पन रोजी-रोजगार में विरधी ले मनौती मांगलका - मशानी बाबा ! मुरदा भेजो । ई तरह से सुक्खा रखभो तब हमर कि होतइ ? पाँच गो परानी मरिये ने जइवइ ?) (आपीप॰31.5)
932 वुक्का (~ फाड़ कानना) (झखुआ छोटकी के नहिरा से ले, आल ! बुढ़िया आपन पोता के हालत देख वुक्का फाड़ कानो लगल ।) (आपीप॰101.11)
933 वेहवारिक (पूछलक - नवीन ई कि ? जेल से बाहर आते के साथ बदल गेला ? नवीन बोलल - जेल के बात जेल तक । बाहर अइला के बाद वेहवारिक बात करो । अब हम तोहर कोय नञ । बच्चा नञ होतौ हल तब तोर सब पाप माफ । मुदा ई बच्चा वाला पाप हमरा पचावइ के औकात नञ ।) (आपीप॰49.2)
934 वैस (= वयस, उम्र) (नन्हें ~ में) (मुरदा ठीक सामने आके किनारा लग गेलइ ! मौगी अऽ बेटवा जाके देखलकइ । चिकुलिया बोललइ - देखहो ने जी ! अपसूइये हइ, कत्ते सुन्नर हइ ! सुपन जाके देख के हामी भरलका ! हों हों । चिकुलिया कहलकइ - लगऽ हइ माइयो निकसी हलइ ! खस खेलनी ! नान्हें वैस में एकरा पित्त में कत्ते गरमी हलइ ? कोय अपने परिवार चाँप चढ़ा के मार देलकइ हे ! घेंचिया में रस्सी के दाग हइ !) (आपीप॰33.7)
935 शुरूह (शुरूह में बरतुहार अइलइ - मुदा साफ जबाब दे देलखिन । हमरा सोना सन दू बेटा ! आँखि में पाँखि । बियाह करि को एकरा फाँसी चढ़ा दिये ? खिला-पिला के बिदा करि देथिन ।) (आपीप॰102.19)
936 शौख (= शौक) (सूपन उ रूपइवा दैत कहलकइ - जो चिक्को ! जरी तोहीं ले आवें ! - ऐं मइयो रे ! शौख कत गो ! अब ऐत गो रतिया के कौन दोकान खुलल होतइ ?) (आपीप॰34.19)
937 सँढ़दग्गी (= श्राद्ध कर्म में गर्म त्रिशूल आदि से दागकर प्रजनन कार्य के लिए छोड़ा गया बछड़ा; दागकर साँढ़ छोड़ने की प्रथा) (देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर । ओकरा से कुछ दूर में बढ़िया नसल के एक बाछा बान्हल हइ, साँढ़ दागै ले । ओकरा दागै ले गोयठा के आग में सड़सी धिप रहल हे । खूब लाल दपदप सड़सी धिपल हइ । कटहर के पत्ता पर उन्नैस पिण्ड पड़य के चाही । पिण्ड दान के काम सबेरे से हो रहल हे । अन्त में सँढ़दग्गी होत । जब पूर्ण पिण्ड दान हो गेल तब पंडित जी हुकुम देलका - अब सँढ़दग्गी होवो दा ।) (आपीप॰69.7, 8)
938 सँसरना (= ससरना, घसकना) (खेत में दू-चार गाछ रोपलकइ मुदा ओढ़निया हरदम सँसर जाय ! माथा पर से ओकरे सम्हाड़ै में पाँच गाछ के हरजा । मइया कहलकइ - मर्रर्र ! दुर्र हो !! दिन भर तों दोपट्टे सम्हाड़ै में रहमें तब रोपमें कहिया ? छउँड़ी ओढ़निया के मुरेठा बान्हि लेलकइ - देह के उभार !) (आपीप॰105.15)
939 संजोग (= संयोग, दैवयोग) (संजोग से समरी माय मोसमतिया अइलइ । पूछलकइ - मनोज बाबू ! टमाटर रोपइ ले चाहऽ हियै । टीवेलवा तर वाला खेता देभो ?) (आपीप॰104.20)
940 सकरी (~ नदी) (ई तरे तर कानला-खीजला से अच्छा कुछ कैल जाय । कि कैल जाय ? अगर हम अप्पन माय-बाप के कहऽ ही तब पहिली साँझ चाँप चढ़ा के मार देत । सकरी नदी के तेज धार में भँसा देत । बाद कि होतइ हमरा पता नञ । मरलो पर लोग गारी से थुर्री-थुर्री कर देत । एकरा से अच्छा जेकर हिकइ सेकरे कहल जाय ।) (आपीप॰12.24)
941 सचकोलवा (= सचकुरवा; सचमुच, असली) (नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर । ... घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ ! देवाल के बाहर-बाहर ठेहुना भर ऊँच असठी, देवाल लाल गेरू रंग के माटी से बढ़िया को नीपल, मुख दुआर पर माटी के बनल सिंघ, लागे जैसे सचकोलवा सिंघ ।) (आपीप॰7.15)
942 सजाय (= सजा) (मइया कहलकइ - बेटा भगवान हथिन, अनियाय के सजाय ओकरा देथिन देखहीं ने, उनका घर में देर हइ, अन्धेर नञ हइ !; बेटा कहलकइ - कहिया ओकरा सजाय देथिन कि नञ देथिन ? तों देखवें कि नञ देखवें ? भगवानो अमीरे के पच्छ में रहऽ हथिन !; लगभग दू बजे कलेक्टर अइलइ, घोषणा कैलकइ - मृतक के परिवार के दू लाख रूपैया, आर अपराधी के पता लगा के सजाय देल जइतइ । जाम टूट गेल । लहास पुलिस के हवाले हो गेल ।) (आपीप॰28.22, 24; 37.1)
943 सज्जा (= शय्या) (बगल में सज्जा दान खातिर सज्जा राखल हइ । ओकरा पर पाँचो टूक पोशाक, पलंग ! पलंग पर तोसक, तोसक पर चादर ! उपर से मछड़दानी ! तभी हमरा हँसी आयल ! सरग में मच्छड़ भी रहऽ हइ ? हमरा मुँह से एकाबैक निकल गेल !) (आपीप॰68.21)
944 सड़सी (= सँड़सी; किसी वस्तु को जकड़ कर पकड़ने का औजार) (देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर । ओकरा से कुछ दूर में बढ़िया नसल के एक बाछा बान्हल हइ, साँढ़ दागै ले । ओकरा दागै ले गोयठा के आग में सड़सी धिप रहल हे । खूब लाल दपदप सड़सी धिपल हइ । कटहर के पत्ता पर उन्नैस पिण्ड पड़य के चाही । पिण्ड दान के काम सबेरे से हो रहल हे । अन्त में सँढ़दग्गी होत ।) (आपीप॰69.5, 6)
945 सतघरवा (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.5)
946 सतन (~ जियें = छतन जी !; शतम् जीव !) (तभी बच्चा छिकलकइ । मैया 'सतन जियें' कह के ओकरा माथा पर हाथ फेर देलकइ ।) (आपीप॰49.16)
947 सती (= सेती) (सेहे ~; से ~) (भगवान नञ करथ कि ऐसन होय । मुदा सौ प्रतिशत सच मान ला कि तोर दोनो के हतिया हो सके हे । से सती तों एक दरखास लिखो कलेट्टर के कि हमरा पर खतरा देखते, के मद्देनजर हमरा लाइसेंसी सिक्स राउण्ड पिस्तौल मुहैया करायल जाय ।; बालाजीत के माय-बाप के धैल नाम बलराम हिकइ ! इसकूल में बालेश्वर । मुदा देहाती लोग विचित्र होवे हे ! ओकर अप्पन शब्द माधुर्य होवऽ हइ । बड़का नाम के ऊ बहुत छोट बना को गरहन करै हे । सेहे सती बालेश्वर के बाला कह के पुकारऽ लगल !) (आपीप॰56.2; 95.7)
948 सती (= सेती) (सेहे ~; से ~) (हम चाहऽ हलों कि अपना पाँव पर खड़ा हो जाय, तब एकर बियाह करी । मुदा इ अपन मन से बियाह कर लेलक । अभी ओकरा आत्म निर्णय करे के अधिकार नञ हइ, काहे कि ओकर उमर सोलह साल के हइ । इ आधार पर पुलिस कार्रवाई करके ओकरा जेल रिमांड होम में रखलक । सेहे सती हमरा कोर्ट से आगरह हइ कि हमरा बेकसूर के साथ न्याय कैल जाय ।; इ बदचलन लड़की जाने कहाँ-कहाँ से बच्चा पैदा कर लेलक । ओकर गोदी के बच्चा केकर हइ उहे जाने । सेहे सती हमरा कोट से गुजारिश हइ कि कोट हम बेकसूर के साथ न्याय करे ।; नवीन के जेल से छोड़ावई में बड़ी मेहनत कैलक, अप्पन पति समझ के । नै तऽ उ जेल में सड़ते रहत हल अभी तक । सेहे सती हमर कोट से परारथना हइ कि नवीन आर असमिरती के पति-पत्नी रूप में नया जीवन शुरूह करे के आदेश देल जाय ।) (आपीप॰53.4, 8, 16)
949 सती (= सेती; से ~ = इसलिए) (भैंस के दूध खाहीं, तो देखहीं करामत ! गाय के दूध खाहीं, से सती ऐसन होवऽ हौ । ले साँझ से हम एक लोटा को फेनाइले दूध भैंसि वाला पहुँचा देबौ ! तों बदली में हमरा गैया वाला दे दिहें । दस दिन खा को देखहीं, कहाँ दरद कहाँ फरद ! कुल खतम ।) (आपीप॰79.10)
950 सतुआ (= सत्तू) (चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ ! आँखि खराब हो जइतै । रोपा दिन में मजूर ले सतुआ भूँजतइ । मन के मन घामा में ! ऊ मर जाना बेस जिन्दा रहना नञ !) (आपीप॰89.14)
951 सतुर (= शत्रु, दुश्मन) (बिना बिना के कानो लगलन । अमोढकार । हमे नञ जानलियै गे माया बप्पा होतौ तोर सतुरवा । अहः हः अऽ ... ग ... गे माय ! फेर कुछ चुप होको कहलकन - अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै ।) (आपीप॰89.9)
952 सधाना (बैर ~) (घर आको दुन्नु के बोलैलकइ । कहलकइ - चाचा ! कौन जनम के दुश्मन हलियो ! अच्छा बैर सधैल्हो ! खर्च भी, कज भंड भी ! आठ आना ले एक टोपी बिना विधान नञ पूरा भेलइ । आर अन्हरा मनसुखवा भूखले रहि गेलइ ! दुइयो दिन !) (आपीप॰72.12)
953 सन (= जैसा) (तोरे देख के हम जी रहलूँ ह । इ भरल जुआनी में तोरे देख के सनतोख कइलूँ । वियाह आदमी वंसे ले करे । हमरा सोना सन फुलवा हइये हल, तब फेर दोसर औरत काहे ले ?; सब ठीक हो जइतौ ! मुदा दवाय के गोली भीतर जा नञ सकल ... । गियारी में टेंगरा सन अटक गेल । अचके फुलवा के आँख चमक के फैल गेल । इ देख के जिछना के अँखिये नञ देहियो पथला गेल ।) (आपीप॰3.16; 5.14)
954 सनतोख (= सन्तोष) (तोरे देख के हम जी रहलूँ ह । इ भरल जुआनी में तोरे देख के सनतोख कइलूँ । वियाह आदमी वंसे ले करे । हमरा सोना सन फुलवा हइये हल, तब फेर दोसर औरत काहे ले ?) (आपीप॰3.16)
955 सना (झट ~; खट ~) (सामान चढ़ गेल, कनियाय चढ़ली ! नाव धार पर सों-सों कइले, जैसे बालू पर गेहुँअन साँप चलल, झट सना गंगा पार कर देलक ।; महेश कहलकइ चपरासी से - टेबुल पर दहीं दरखास । चपरासी बोललइ - अभी साहब का मूड नहीं है । आप जाइये । हम दे देंगे । - अब कि तों तिरैता में देवें ? नञ तब दे दरखास, हम अपने से देवइ ! - हम नहीं देंगे । बस, एतना कहना हलइ कि धन्नू चा हँथे ऐंठि को चढ़ा देलखिन ! ऊ खट सना दरखास निकालि को जेबिया से दे देलकइ !) (आपीप॰99.23; 115.10)
956 सनी (चट ~) (जुआन बेटा चलल जा हइ । जान के जहर खाय, देव के दिये दोख । डाकदर के मना कइलो पर मछली खिला देलकइ । गठरिया खुले न बहुरिया दुबराय । ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !) (आपीप॰3.25)
957 सपोट (= सपोर्ट) (बिहान वोट पड़ते हल । राते भोला के सपोट ले दस गो बाहरी गुण्डा एकरा घर में आको डेरा डाल देलक ।) (आपीप॰63.7)
958 सबूर (= सब्र) (सूपन कहलकइ - उद्वेग सान्ती करो चिक्को । कोय बात नञ । सबूर ले सबूर । बिहान होवे देहीं ।) (आपीप॰38.3)
959 समांग (= शक्ति, ताकत) (सूपन हामी भरैत कहलखिन - दोसर बात ई कि अब कोय एक डेग पैदल चलइ ले नञ चाहऽ हइ । तहियौका लोग मुरदा कान्हा पर ढोने दस-दस कोस, बीस-बीस कोस से गंगा घाट लावऽ हलइ ! से अब देखऽ हहीं, मुरदा गाड़ी पर ढोवावो लगलइ ! सड़क से कत्ते दूर पड़ि जा हइ । करीब तीन कोस ! के पैदल आवऽ हइ ? अब तहियौका लोग नियर नया लोग के समांग भी नञ रहलइ ! जमाना के साथ सब कुछ बदल गेलइ हो । खान-पान, रहन-सहन, चालि-चलन, हवा-पानी, रोशनी सब डिसको हो गेलइ ।) (आपीप॰32.11)
960 समाद (= खबर, हाल, समाचार; सन्देश; बातचीत, कथन) (गंगा के मने-मने परनाम कैलकी । गछलकी नीक्के-सुक्खे घुरवो माता तब दूध के ढार देवो, रच्छा करिहा । तब कनियाय-भाय सहित सामान उतर गेल । वहाँ से घर नजदीक । घर समाद गेल । तुरंत कत्ते आदमी जुट गेल । हाथे-पाथे सब सामान लेलक !) (आपीप॰100.4)
961 समुद्दर (= समुद्र) (जने हियावऽ तने पानिये पानी लखा हे । दूर-दूर तक फइलल पानी समुन्दर के लेखा ! गाँव जइसे समुद्दर में जहाज लंगर डाल देलक हे, इ परलय में के साबूत बचल ? हमरा जानिस्ते तो कोय नञ ।) (आपीप॰1.18)
962 सम्हड़ना (= सम्हरना; सँभलना) (होवो दा नगर भोजे सही । मगर एक बात । हम अकेलुआ, से हो करता । हमर समय पिण्डे दै में बीत जइतो । तों कुल्ले नै एकरा में लगभो । अगर कसरइती कइल्हो तो ई काम नै सम्हड़तो ! तब समझो कुल गुड़ माटी । वंस के नाम कि होता आर जिनगी भर बदनामी के कलंक माथा पर । पैसा के कोय सवाल नै हइ । सवाल हइ एकरा सम्हाड़इ के ।) (आपीप॰66.20)
963 सम्हाड़ना (= सम्हारना; सँभालना) (होवो दा नगर भोजे सही । मगर एक बात । हम अकेलुआ, से हो करता । हमर समय पिण्डे दै में बीत जइतो । तों कुल्ले नै एकरा में लगभो । अगर कसरइती कइल्हो तो ई काम नै सम्हड़तो ! तब समझो कुल गुड़ माटी । वंस के नाम कि होता आर जिनगी भर बदनामी के कलंक माथा पर । पैसा के कोय सवाल नै हइ । सवाल हइ एकरा सम्हाड़इ के ।; मान ला पैसा होइयो जाय बकि नगर भोज मामूली चीज नै हइ, ओकरा सम्हाड़ना बड़ा कठिन काम !; खेत में दू-चार गाछ रोपलकइ मुदा ओढ़निया हरदम सँसर जाय ! माथा पर से ओकरे सम्हाड़ै में पाँच गाछ के हरजा । मइया कहलकइ - मर्रर्र ! दुर्र हो !! दिन भर तों दोपट्टे सम्हाड़ै में रहमें तब रोपमें कहिया ? छउँड़ी ओढ़निया के मुरेठा बान्हि लेलकइ - देह के उभार !) (आपीप॰66.22; 67.6; 105.16, 17)
964 सरकार (=पुरोहित आदि या बड़ों के लिए आदरार्थ प्रयुक्त सम्बोधन शब्द) ("एकरा मछली खिला देलहो ?" - "जी नञ सरकार ! एक्को घुन्नी नञ !" जिछना बोलल । - "तब बोखार कइसे पलट गेलइ ?" ... जिछना माथा पर हाथ धर के, जमीन पर चुक्क-मुक्कु बैठ के बोलल - "हम्मर भाग अभाग सरकार ।" आला लगावइत डाकदर साहेब बोलला - "तों झूठ बोले हें । इ जरूर मछली खइलक हे ।" – "नञ सरकार, छउँड़े से पूछ लहो ।" छोउँड़ा सिर हिला के नञ कह देलक ।; पंडित जी पाँचो टुक पोशाक उलट-पुलट के देखलका, जाने ऊ कि खोजइ हला ! ... बुधना जेबी से पाँच रूपया के नोट निकाल के कहलक - से कि सरकार ! आठ आना ले काहे बेकार होत ? लऽ पाँच रूपया लऽ ।) (आपीप॰3.6, 8, 10; 69.19)
965 सरग (= स्वर्ग) (बराहमन के वेद मंतर उच्चार से, दीप-धूप-फूल के सुगंध से ऊ जगह सरग के समान हो गेल ।; जे बुढ़िया जीवन भर कंजूसी से पेट काट के पैसा-पैसा जोड़लक सेहे पैसे आझ लुटायल जा रहल हे, ओकरा सरग में सुख पहुँचावइ ले !) (आपीप॰68.6, 10)
966 सरदी-बोखार (= सर्दी-बुखार) (एक मन करे पोखरिये के पानी पीली, बकि मन नञ भरे । जमकल पानी - सरदी-बोखार तो धैल हइ ।) (आपीप॰7.9)
967 सराध (= श्राद्ध) (गाँव के गभरू जुआन सबेरे से भिड़ गेल काम में । सराध के फिरिस तैयार - पूरा विलखो सर्ग ।) (आपीप॰67.21)
968 सरेख (सितिया अब जुआन हो चललइ हल ! शादी-बिहा भी हो गेलइ हल ! गाय चराबइ ले गाह-बेगाह जा हलइ ! काहे तऽ अब सरेख हो चललइ हल ! सरेखे नञ, जुआन ! पूरा भरबा भूत जुआन !) (आपीप॰76.24)
969 सरेठ (= श्रेष्ठ) (बराहमन के पाँचो टुक पोसाक हे, बकि माथा जे समूचे शरीर में सरेठ, सेकरा में टोपी नै । बरहमन के माथा उघारे, तब सब बेकार ।) (आपीप॰69.24)
970 सलेन्डर (= सरेंडर, surrender) (गनौरी चा के समरथक लाठी-पैना, भाला-बरछी से जुटलई ! एकरा जिमा में बन्धूक पिसतौल हलई । सुरच्छा के नाम पर वहाँ होम गाड के दूगो लाठी पाटी, एगो चौकीदार ! ऊ सब तो बम के आवाजे से सलेन्डर हो गेलइ बेचारा ! बूथ छोड़ के भाग गेलइ ।) (आपीप॰63.17)
971 सले-सले (= धीरे-धीरे) (तब तक हम सहकले सले-सले कहलियै - से सब बात कि रहतइ । अब ऊ बाबत रहलइ ? फागू दास वाला ? अब तो बाप खैलका घी तऽ बेटा हाथ सूँघे । कोय काम करतइ नै तब कइसे को परिवार चलतइ ? चोरी-छिनरपन तो नञ कैलकइ ? अप्पन देहन से कुछ कमा लेलकइ तब कि हर्ज ?) (आपीप॰94.17)
972 सवादना (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल ।) (आपीप॰2.25)
973 सवासिन (नहिरा के उमक । कनियाय सब कुछ भूल गेली । कहलो गेलइ हे टूटल सवासिन के नहिरे आस । ससुरार तो एक जेलखाना हइ । नहिरा वाला मौज कहाँ ?) (आपीप॰100.8)
974 सहकना (तब तक हम सहकले सले-सले कहलियै - से सब बात कि रहतइ । अब ऊ बाबत रहलइ ? फागू दास वाला ? अब तो बाप खैलका घी तऽ बेटा हाथ सूँघे । कोय काम करतइ नै तब कइसे को परिवार चलतइ ? चोरी-छिनरपन तो नञ कैलकइ ? अप्पन देहन से कुछ कमा लेलकइ तब कि हर्ज ?) (आपीप॰94.17)
975 सहजोर (पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ ! ऐसन धोबिया पाट मारलकइ कि खड़े चित्त ! चित्त करइ में कोय परिसरम नञ ! फेर तो उ गाँव वाला के रोस आ गेलइ ! दोसर तैयार भेलइ ! ओकरो फुरती से खड़े चित्त । फेर तो इलाका बाद हो गेलइ ! बकि, ई सहजोर ! एक लंगौटा पर पाँच कुश्ती मारलकइ ! सब पूछइ - इ कहाँ के जुआन हइ ? कि नाम हिकइ ? फेर तो एकर नाम इलाका में खिँड़ गेलइ ! जहाँ-जहाँ दंगल होय, एकरा बोलावो लगलइ । जिला जवार में नामी पहलमान हो गेलइ !) (आपीप॰76.19)
976 सहियारना (= सँभालना, गिरने न देना) (जो तोरा से कुच्छो नञ होतौ । हम जो मरद रहतियौ हल तब देखा देतियौ हल ! हमरा सहियारल नञ जा हउ । देह में उद्वेग लगल हौ । हमरे चीज अऽ हम कहँय नञ । जो रे छउड़ा पुत्ता ! तोरा भोग नञ होइहौ !) (आपीप॰38.1)
977 साँय (= स्वामी, पति) (ढेर करी अदना ले, थोड़ करी अपना ले । पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ?) (आपीप॰113.10)
978 साटिक-फिटिक (= साडिग-फिडिग; सर्टिफिकेट) (इ हथिन विधायक जी ! सांसद जी ! इ जनता के वोट नञ माँगऽ हथिन, क्रिमनल से वोट लुटवा लऽ हथिन । ... इ घोटाला करऽ हथिन ! जेल जा हथिन, तइयो कुरसी नञ छोड़ऽ हथिन । ... फेर बाहर आवऽ हथिन । सड़क के मिट्टी खा हथिन, गिट्टी खा हथिन । अलकतरा पियऽ हथिन । केस हो जा हइ फूस-फास । बेदाग कोट से बरी हो जा हथिन । सोना नियर आग से तप के निकलऽ हथिन । उच्च छवि वाला ! लम्बा भाषण दऽ हथिन । हम बेदाग निकललों । उहे इनकर साटिक-फिटिक हो जा हइ, पवित्र होवइ के ।; जनता के सामने हिन्दु रीति से विवाह कइलूँ । उ समय हमर उन्नैस साल उमर हल, जेकर मौजूदा साटिक-फिटिक प्रमान हइ ।; जब कोट में बयान दै के बात आयल तब हम सही-सही बात रख देलूँ । तब उ कहाँ से जाली साटिक-फिटिक लैलका, जेकरा में हमर उमर सोलह साल हल ।; असमिरती के वकील रमेश बाबू कहलखिन - मी लौड ! असमिरती के उ समय आत्म निरनय के अधिकार हलइ । साक्ष्य के रूप में ओरीजिनल साटिक-फिटिक देखल जाय ।) (आपीप॰27.10; 51.23; 52.3; 54.4)
979 सान्ही-कोना (हे माय ! भगवती ! तों सबके लाज रखइ वाली माता ! तोहरे खोंइछा में हियो, लजा बचावो । इस तरह से तमाम सान्ही-कोना में छिपल देवता के, देवी के, सुनावइ । जाने के सहाय हो जाय !; ऊ उठल, सुतली रात में सान्ही-कोना खोजो लगल । खुर-खुर के आवाज सुन के भइया जागलइ । पूछलकइ - की करऽ हीं गे ?; इ तरह से पाँच-पाँच बेरी जोगनी-झकिनी-शाकिनी, भूत-भूतनी, पिचासनी के नाम लेको धूप देको - अंत में सब धूप आग में डाल के कहलका - माय जगहिया, माय गंगा, छूटल-बढ़ल सान्ही-कोन्हा में अँटकल-सटकल देवी-देवता जे हा आशा लगइने । सब के नाम से मुरधान दऽ हियो । हम्मर रोजगार में सहाय होइहा ।) (आपीप॰12.8; 15.13; 31.24)
980 सारा (= साला) (ई॰सी॰जी॰ वाला इनकर बहनोइ हिकन ! एकसरा वाला सारा । पेशाब जाँच इनकर साली करऽ हथिन । खून पैखाना जाँच पत्नी । बगल में दवाय दोकान इनकर छोट भाय के हन ! मतलब पूरा परिवार मिल के रोगी के लूटऽ हथिन ! इ कमाय कानून में वैध हइ, अवैध नञ !) (आपीप॰26.21)
981 सारी (= साली) (इ हथिन विधायक जी ! सांसद जी ! इ जनता के वोट नञ माँगऽ हथिन, क्रिमनल से वोट लुटवा लऽ हथिन । ... इ घोटाला करऽ हथिन ! जेल जा हथिन, तइयो कुरसी नञ छोड़ऽ हथिन । ... इनकर अलग वेवस्था होवऽ हइ, जहाँ सारी सुविधा हिनकरा हइ । ... वहाँ सारी से मिलऽ हथिन । घरवाली से मिलऽ हथिन ! ... फेर बाहर आवऽ हथिन । सड़क के मिट्टी खा हथिन, गिट्टी खा हथिन । अलकतरा पियऽ हथिन । केस हो जा हइ फूस-फास । बेदाग कोट से बरी हो जा हथिन ।; सिपाही त्यौरी चढ़ा के, डपट के बोलल - सारी ! जा हँ कि नञ ? मारि डण्टा के चूतड़ गरम कर देवौ ।; जेलर चैन के साँस लेके सिपाही से कहलक - सारी माथा के जपाल भागल । ऊ समय हम सब से गलती भेल । बच्चा जो नञ होवो देने । तब फेर कि हल ... । जेलर साहब ! उ सिपाही के भी ओकरा साथ लगा देलका - इ कह के कि ई सारी कहैं लौट नञ जाय ! जो एकरा टिकस कटा के गाड़ी पर चढ़ा के लौटिहें ।) (आपीप॰27.5; 44.23; 46.9, 11)
982 सावा (= सवा) (सुबह-सुबह सूपन भगत गंगा नहा के गंगा के किनारे के पीपर गाछ के नीचे सावा हाथ धरती नीप के, माटी के मसानी बाबा बना, स्थापित करके, मुरदा वाला लकड़ी में लह-लह आग बना के, धूप दियो लगला - ओंग नमो मसानी बाबा । सोहा !) (आपीप॰31.2)
983 साहित (= साहित्य) (पाठक के बात छोड़ दा तऽ हमरा खुद अचरज भेल: दरोगइ करइ वाला कठोर करमी, अन्दर से एतना कोमल ! साहित परेमी ! भला, एकरा से बड़गर अचरज की हो सके है ?) (आपीप॰III.10)
984 सिंघ (= सिंह) (नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर । ... घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ ! देवाल के बाहर-बाहर ठेहुना भर ऊँच असठी, देवाल लाल गेरू रंग के माटी से बढ़िया को नीपल, मुख दुआर पर माटी के बनल सिंघ, लागे जैसे सचकोलवा सिंघ ।) (आपीप॰7.15)
985 सिकन्नर (= सिकन्दर) (ढेर करी अदना ले, थोड़ करी अपना ले । पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ?) (आपीप॰113.9)
986 सिकरेट (= सिगरेट) (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !) (आपीप॰90.18)
987 सिझाना (मइया पूछलकइ - कैसन मन हौ गे ? अच्छे हइ मइया । जो सबेरे नहा-सोना ले, मन फरेस हो जइतौ । कै भेलो हे, खिचड़ी बना को खा ले । छरहर बनइहें, खूब सिझा के, मूँग दाल वाला । फरहर बनइभीं तब ने पचतौ ।; दोसर तरह से सोचहीं । बेटी झोला लेतौ, सबेरे जइतौ तरकारी ले सब्जी मरकिट । पूछतौ टमाटर कइसे ? दस रू॰ किलो । आधा होस उड़ जयतौ । पूछतइ आलू कइसे ? पाँच रू॰ किलो । कोबी ? दस रू॰ कि॰ । बेटी के पूरा होस दुरूस्स ! लेतौ दू सौ गिराम टमाटर, दू सौ गिराम कोबी, पचीस गिराम धनिया के पत्ता ! अगड़म-बगड़म ! झोरा से लेको अइतौ आर गैस चूल्हा पर ओकरे उलटि को सिझैतौ, पलटि को बनैतौ ! ओकरे कुछ अलमारी में रखतौ, कुछ फिरीज में ! खइतौ नञ, ओकरा चाटतौ ! सूँघतौ !) (आपीप॰16.9; 90.24)
988 सिन्नुर (= सेनुर; सिन्दूर) (ललका ~; भखरा ~; सोनमा ~) (गाय के तो सिंगार मत कहो, देखैत बनतो हल । सींग में औरत आको, जेकरा दुबिनी कहऽ हइ, घी सिन्नुर लगा दिये । कोय ललका, कोय किसान भखरा सिन्नुर लगवावे । कोय सोनमा सिन्नुर से सींग चमचमावय ले लगावावै । जोठ फुदना चिलिम छाप , चिरमिच्ची छाप । तरह-तरह के छाप मत पूछो । मरद गाय के सींग में सिन्नुर नञ लगावऽ हलइ ! काहे तऽ गाय माता हिखिन !) (आपीप॰74.18, 19, 20)
989 सियाँ (= सन, दनी, दबर) (फट ~ = फट से) (फुलवा के सबेरे रोटी आव आलू के कुच्चा खिला के सुता देलक हल ! मुदा फुलवा के आँखि में नीन कहाँ ? भूँजल मछली के गंध जो नीन आवो दिये ? ... कनमटकी पारले रह गेल फुलवा । जिछना जब कटोरा में मछली के गुड़िया अऽ मड़गोद भात चापुट पार पार के खाय लगल तऽ फुलवा के कनमटकी वाला मूँदल आँख फट सियाँ खुल गेल ।; तब एक आदमी अइलइ । परनाम इनरदेव बाबू कहि के कुरसिया पर बैठि गेलइ, अऽ कहलकइ - हमर वाला निकाल्हो । किरनियाँ सात दरखास के नीचे से निकाल के सब काम करके दे देलकइ । हिनकर मन कुरोधि गेल । सोचलका ऐसन काहे ? तब तक दोसर अइलइ । उहो काम करा के झट चल गेल ! इ बुझलका ओह ! जेकर पैसवा देल हइ सेकर झट सियाँ निकालि को दे दऽ हइ । आर कुछ बात नञ ।) (आपीप॰2.14; 116.8)
990 सियाँक (~ चढ़ना) (ऊ कहलखिन - दुर हो कौवा ! जे लड़की हँसि गेलइ, समझी ऊ फँसि गेलइ । ओकरा तनी लार-दुलार दहीं, कुछ नोट छोड़हीं । छू-छाप करहीं । बात बनल हइ । माल तो बेजोड़ हौ, ई एखने गदहो के पसीन कर लेतइ । उमरिये ऐसन होवऽ हइ । ऊ सब समझा के चल गेला । हिनका सियाँक चढ़ गेलन । बिहान खेत गेलखिन - समरी मचान पर बैठल हलइ । हिनका देख के उतरो लगलइ । ई हाँथ पकड़ लेलखिन। पगली, जगहवा हइये हइ तब नीचे काहे ले जाहीं । ऊ मुसका के एक तरफ बैठि गेलइ ।) (आपीप॰106.17)
991 सिलोर (सोंटल ~) (जिछना पहिले ऐसन नञ हलइ, की जन दस दिन में एकरा की हो गेलइ है ? अब तो दुबरा के खिखनी हो गेलइ, नञ तऽ एकर देह ... ? देखइत बनऽ हलइ । सोंटल सिलोर, जुआन जइसे कोय ताड़ के जड़कुन सिल्ली होय ।) (आपीप॰1.8)
992 सिल्ल (मुदा वीसो वाला टिल्हवा पर जइसैं पहुँचलइ - पच्छिम रूख के पछिया के जबरदस्त झोंका करेजा में लगलइ ! देहे सिल्ल हो गेलइ । ठंढा बरफ, कनकन सोरा । आगू नञ बढ़ सकलय, घुर गेलइ अकेले ।) (आपीप॰81.18)
993 सींघ (= सींग) (भैंस के नेठो नियर घुरल सींघ के तो बाते छोड़ो ! दू दिन पहिले से किसान तेज छुरी से ओकर मरल चत्ता छिल के चमका दिये । बिहान दुहबिनी ओकरा में सिन्नुर तेल भोगार दिये ! ऐसन भोगारे कि कहल नञ जाय । गारा में पीतर के सिकड़ी, चमाचम पानी चढ़ायल सोना के मात करे ! गारा में जोठ, जोठ में घंटी, केकरे घंटिये नञ, घण्टा कहो, टनाक-टनाक बाजे ।; हूर ले पाहुर आ गेल ! ओकर चारो गोड़ मजबूत रस्सी से कसि को बान्हि देलकइ । ओकरा में एक से दू गो नौजवान पैना पेस के उठा लै, आर हूर ... ले हूर ... कह के भैंसिया के सिंघिया भिजुन दै। कोय-कोय भैंस तो पाहुर के किकियाहट सुन के लेह कबड्डी भागइ । कोय भैंस एकाह चौतर मारइ, पाहुर कें कें करइ !) (आपीप॰74.22; 75.11)
994 सीमाना (= सीमा) (फौदारी तो एक सीमाना तक चल के झर सके ह ! मुदा दीवानी के दीवानगी तो निराला हइ । चाहो तो पुश्त-दर-पुश्त खींच सकइ हा !) (आपीप॰22.5)
995 सीरक (= रजाई, नेहाली) (पहुँचिये तो गेलइ ! लाल-लाल भुट बैगना के खेत में ! देखे हइ तऽ कि ? मचान पर सीरक ओढ़ने चित होके बजावइ में मसगुल हइ । भिरिया जइते माँतर चिन्ह गेलइ । मर्रर्र ! दुर्र हो ! इ तो मोहना हिकइ ! बँसुरी कहाँ हइ ! किदो माटी के बनल हइ !) (आपीप॰82.17)
996 सुखराती (सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । साँझे सब किसान अपन बैल के सींग में तेल लगा लगा उरेह के नैका अपना हाथ से बनावल तरह तरह के फूल वाला फुदना सींग में पिन्हा रहल हे । गारा में नया रंग-बिरंगा जोठ पगहा । बैल के पूरा देह पर चिलिम के छाप, लाल-पीयर-हरियर तरह तरह के रंग में देखैत बने ।) (आपीप॰74.13)
997 सुतना (= सोना) (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल ।; उ अप्पन अँचरा छोड़ावैत कहलकइ - छोड़, हम जाही ! ... ऐंसइ पीको रात भर गिरल रहें ! हम जा ही खा को सूतइ ले ! ई थोड़े दे बाद उठलइ - टग्गल-टग्गल घर गेलइ ! खाना खा के, चिकुलिया के साथे सट के सुत्त रहलइ ।) (आपीप॰2.25; 35.14)
998 सुतली (~ रात में) (ऊ उठल, सुतली रात में सान्ही-कोना खोजो लगल । खुर-खुर के आवाज सुन के भइया जागलइ । पूछलकइ - की करऽ हीं गे ?) (आपीप॰15.13)
999 सुत्थर (मनोज बाबू ! अपने देखइ में सुन्नर ! दस बीघा सुत्थर जमीन ! भाय में अकेले ! गाँव में मान-परतिष्ठा ! मागु सुन्नर, पढ़ल, आग्याकारी ! भगवान उरेहि के जोड़ी मेरैलखिन !) (आपीप॰102.1)
1000 सुन्नर (= सुन्दर) (मनीसी लोग के कहना हन कि सच जब सुन्नर हो जाय तब उ शिव हो जाहै ।; भोला हुनका गाँव-घर के भतीजा लगइ हन । पढ़ाई में बढ़ियाँ, देखइ में सुन्नर । गनौरी चा के सेवा में लगल !; किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰IV.6; 61.7; 91.10)
1001 सुरर्रे (= सुर्रे) (हम लाख कहलियै छोटकी से, घीढारी नञ कराव । मुदा बूढ़ा-बूढ़ी के बात अब के माने हे ? ... बुढ़िया एक सुरर्रे बोलैत रहि गेलइ । घीढारी जे करे सेकरा साल भर नदी नञ नाँघइ के चाही, बरी नञ पारइ के चाही, कोहड़ा लगावइ के या खाय के नञ चाही, सराध के अन्न नञ खाय के चाही !) (आपीप॰98.4)
1002 सुरूर (निशा के ~) (गेलइ सूपन के बोलावइ ले तऽ देखे हे पी पा के बराबर ! उठैलकइ - तब तक निशा के हलका सुरूर आ गेलइ हल ! उठ के गाना गावो लगलइ आर नाचो लगलइ - "लोहा के गाटर में सड़िया जे फँसलौ, लहँगा भेलौ उघार गे ! घड़-घड़ घड़-घड़ गाड़ी अइलौ, भेलौ पुल के पार गे !" एतना कह के मागु के अँचरा खींचो लगला ।) (आपीप॰35.6)
1003 सुवरनडंड (= सुपरिन्टेंडेंट) (तभी हौदा साहब कहलखिन - हमरा जेल में सारा एक से एक खूँखार बन्द हइ, जेकर इहे पेसा हइ ! चार दिन में ओकरा पाताल से खोज के खतम कर देतइ । सुवरनडंड डेविल साहब बोलला - तब देरी कि ? जब इहे एक रास्ता हइ ...।) (आपीप॰56.25)
1004 सुसमुनवा (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.7)
1005 से (= वह; वे; अच्छा ? ऐसा ? क्या ?; करण तथा अपादान कारक की विभक्ति) (बेटवा कहलकइ - अब कि होतइ माताराम ? बनल-बनायल बाप-दादा के घर छोड़ि को अइल्हो शहर, अपन जाति भिजुन ! कहलियो केस करो, तऽ सेहो नञ । ई लफुआ बहिन के ... पांगि गेलइ, कि एकरा से कुछ नञ होतइ ! जाति ... जाति ... जाति के लीला देखल्हो ? जाति के खूब धो धो के चाटो ! वहाँ तो ऐसन होते हल तब लाख गो तुरते कहइ वाला हो जइते हल । जाति नञ हलइ से से कि ? यहाँ तो से नञ ?) (आपीप॰108.19, 20, 22)
1006 से मे तो (= वह मैं तुम; जो सो; कोई भी) (धन्नु चा जैसे चिढ़ावइ ले आझ बैठलखिन हल ! मुसुका को कहलखिन - पपुआ माय ! एकाह दिन जो बजार जा हियै - से मे तो बजार के कत्ते लोग जे नहियों चिन्हऽ हइ सेहो, परनाम पहलवान जी ! राम राम खलीफा जी ! अहो, हम मामूली हियै ? दशा-दिशा नर पूजिता !) (आपीप॰112.12)
1007 सेकरा (जेकरा ... ~) (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ? ... तऽ जेकरा पकड़ऽ हइ, सेकरा चूम ले हइ, अंकवरिया में कस के वान्ह ले हइ, छोड़इ ले नञ चाहऽ हइ, इहे से बुतरू-वानर अलगे-अलग रहइ ले चाहऽ हइ ... दूरे से ढेला फेंक के मारऽ हइ ।; हम हरजोतवा के बियाहवइ ! चाहे भीखमंगा रहे ! निधुरीवा ! निजलिया ! मुदा हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ?) (आपीप॰1.2; 89.17)
1008 सेद (नगाड़ा के ~) (जिछना बरह बज्जी गाड़ी से लक्खीसराय पहुँचल । कैम्प में पहुँच के हँकइलक - फुलवाऽऽऽ ... ! ओकर आवाज में एगो ठनक हल । जइसे कोय नगाड़ा के सेद से पहिल चोप देलक । फुलवा कलट के देखलक आव मिर-मिराहा नियन बोलल - बाऽ ... उऽऽ !) (आपीप॰5.5)
1009 सोचन्त (चिकुलिया कहलकइ - ई धौतला के सिवाय कोय नञ लेलको ह जी । सूपन कहलकइ - से कइसे समझल्हीं ? ऊ लेके कि करतइ ? - ओकरे कामे हिकइ । हमर आतमा कहऽ हइ । ताजा लहास हइ, मुड़िया काट के बेच लेतइ । अच्छा दाम मिलतइ । विदेस भेजल जा हइ । नै जानऽ हो ? - चलो अब गलन्त के सोचन्त कि, लछमी जे धारलकी से बहुत देलकी ।) (आपीप॰35.25)
1010 सोधरा (तोरा बहिन के मोहना ... ! ई हिम्मत ... ! - बस हो ने गेलो ? एकरा में रोस के जरूरत नञ हइ । जे बवाल करभो तोरे घाटा होतो । अभी दू महीना बीत के तेसर चढ़लइ हे, फेर भारी हो जइतो, पैसो खरचा, संसार भर बवाल भी । - मोहना बाबा के नाम ले को गरियैलखिन - तोरी मन सोधरा बेटी के ... !) (आपीप॰18.17)
1011 सो-पचास (कुछ दिन बाद ऊ टेबि को अइलइ, खूब सोचि विचारि को ! अपन जाति के मोहल्ला में जाको सड़क किनारे । चौराहा पर फर्द में टाट के झोपड़ी देको चाह के दोकान देलकइ ! छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ ।) (आपीप॰108.4)
1012 सोरा (कनकन ~) (मुदा वीसो वाला टिल्हवा पर जइसैं पहुँचलइ - पच्छिम रूख के पछिया के जबरदस्त झोंका करेजा में लगलइ ! देहे सिल्ल हो गेलइ । ठंढा बरफ, कनकन सोरा । आगू नञ बढ़ सकलय, घुर गेलइ अकेले ।) (आपीप॰81.18)
1013 सोरियाना (पुष्पी के बाप खा-पी के बंगला पर सुतइ ले जा लगलखिन । फुष्पी माय रोक लेलखिन - जरी रूक जइहा, तोरा से एक बात करइ के हो । ऊ मुस्कुरा के 'अच्छा' कहके घर के पलंग पर जा के सुत गेलखिन । पुष्पी माय खाना खा के हड़िया पतली-बरतन-वासन सोरिया के आके साथे सुत गेलखिन ।; सिपाही बोलल - सर, हमरा से ई सिद्ध नञ होत । अपने से ई काम सोरियइयै । जेलर साहब खुद अइला । असमिरती से कहलका - बेटी, इ जेल हइ । मियाद तोर पूरा हो गेलौ । एकरा से जादा अब कोय नञ रख सकऽ हौ । अब अप्पन घर चल जो ।) (आपीप॰17.21; 45.18)
1014 सोहा (= स्वाहा) (सुबह-सुबह सूपन भगत गंगा नहा के गंगा के किनारे के पीपर गाछ के नीचे सावा हाथ धरती नीप के, माटी के मसानी बाबा बना, स्थापित करके, मुरदा वाला लकड़ी में लह-लह आग बना के, धूप दियो लगला - ओंग नमो मसानी बाबा । सोहा !; फेर ऊ धूप दियो लगला - ओंग माय काली नमो सोहा ! फेर पाँच बेरी धूप देके गोड़ लग के काली माय से कहलकन - आँय ! माय काली ! एत्ते तो खोंटा-पिपरी नियर धरती पर आदमी जनमि गेलइ ! एकरा काट-वाछ नञ करभो तब जुलुम हो जइतइ, माता ।) (आपीप॰31.3, 12)
1015 सौटकट (= शॉर्टकट) (उ रसता कि बतैलक, हमर जन्नी के मन बढ़ा देलक । कहलक - जल्दी खा आर ठंढे-ठंढी चल जा ! हमरा कोय बहाना नञ रह गेल हल । खइलूँ अऽ भारी मन से दुखी चलइ घड़ी कहलूँ अपन मागु के - अहे ! कहावत हइ कि साल भर के रसता चली, मुदा महिना वाला नञ । हमरा ई सौटकट में खतरा मालूम दे हौ ।) (आपीप॰6.19)
1016 स्वास्थ (= स्वास्थ्य) (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰91.10)
1017 हजार-वजार (रहलइ खलास करइ के बात । दस-पाँच रूपा में तो नञ होतइ । ओकरा में हजार-वजार लगतइ । बिना माय-बाप के कहने ई काम सम्भव नञ हइ ।) (आपीप॰15.3)
1018 हतिया (= हत्या) (भगवान नञ करथ कि ऐसन होय । मुदा सौ प्रतिशत सच मान ला कि तोर दोनो के हतिया हो सके हे । से सती तों एक दरखास लिखो कलेट्टर के कि हमरा पर खतरा देखते, के मद्देनजर हमरा लाइसेंसी सिक्स राउण्ड पिस्तौल मुहैया करायल जाय ।; वकील साहब कहलखिन - ओकर हतिया । नै बाँस रहे नञ वँसुली बाजे । बात खतम ।) (आपीप॰56.1, 13)
1019 हम्मर (= हमारा) (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ?) (आपीप॰1.1)
1020 हरखित (= हर्षित) (नाव ओय पार लगल हल । कनियाय कल-कल छल-छल करि को बहैत गंगा के निरमल धार के देख हरखित मन से परनाम कैलकी । फेर बुढ़िया के एक-एक बात - साल भर नदी पार नञ जाय के चाही, कोहड़ा नञ रोपइ के चाही ... आदि-आदि दिमाग में सिनेमा के फोटू सन आवो लगलन ।) (आपीप॰99.17)
1021 हरगिस (= हरगिज) (हमरा नजर में नौकरी वाला से बढ़ियाँ लगऽ हौ किसान दूल्हा ! एक ! दोरथें नौकरी वाला करइ के औकाद भी नञ ! हम करवै ओकरे । मन में संकलप लेलियौ हे । तों करभीं ? ओकरे तऽ देखहीं हम कि करऽ हियौ ? हरगिस नै हरजोतवा से करो देवौ । एकरा लिए नँगटीनी कहावी तऽ नँगटीनी सही !) (आपीप॰92.13)
1022 हरचन (बाप कहलखिन - अब तो तोरा कोय नञ रखतौ । नवीन भी नञ । अब एक काम कर - इ बच्चा नष्ट कर दे । हम तोर दोसर बियाह रचा देवौ । सुख से रहिहें । ई बोलल - हम ऐसन हरचन नै करवै पापा । चाहे जे कष्ट होय । एक माता के धरम ई नञ कहऽ हइ ।) (आपीप॰47.7)
1023 हरजोतवा (हम हरजोतवा के बियाहवइ ! चाहे भीखमंगा रहे ! निधुरीवा ! निजलिया ! मुदा हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ?; कुछ रहे कि नञ, हमर परतर करतइ हरजोतवा ?) (आपीप॰89.15, 17, 22)
1024 हर-हमेसे (मिनिसटर साहब गरम हो गेलखिन । कहलखिन - कुल पागलपन झाड़ि देवो ! होश में बात करो । कलेट्टर कहलकइ - होसे में हियै ! हमर नौकरी तो नै खा सकऽ हो, बदली ले हर-हमेसे बोरिया-बिस्तर बान्हने रहऽ हियइ । एतना कह के फोन रख के दू चारि गारी देलकइ - साला, बहिन ... ई सब अथायल-वथायल कने से मंत्री बन के राज के पैसा लूटइले ... !) (आपीप॰41.13)
1025 हरियरकी (= हरे रंग की) (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰91.7)
1026 हरियरकी (= हरे रंग की) (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰91.7)
1027 हलसना (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल ।) (आपीप॰2.25)
1028 हलुमान (= हनुमान) (बुढ़िया आँचर पसार के टेंटुआ लोर ढारते भगवान से कहलकइ - जानो भोला बाबा ! बुतरू जाहो कानल, हँसल घर आवे ! लड्डू चढ़इवो हलुमान बाबा ! धुरियाइले गोड़ चल चढ़ा देवो बाबा बैदनाथ ।) (आपीप॰101.16)
1029 हवा (= है) (कुछ मगहिया, 'आदमी' के 'अमदी' कहना ठीक मानऽ हथिन । कुछ 'है' के 'हवा' कहऽ हथिन - जैसे - हमरा कौन चीज नञ हवा जी ।) (आपीप॰V.21)
1030 हहरना (कोय परवाह नञ बेटा ! तोरा ले हम परान देके कौआ के अमर बूटी ले अइलियो ... हहरिहें नञ । फुलवा गड़र-गड़र आँख से हियावैत रह गेल । दवाय के पुड़िया देखा के जिछना कहलक, देख तोरा ले पटना से दवाय ले अइलियौ ।) (आपीप॰5.9)
1031 हहास (कहल्हीं ने सरकारी पैसा ! ऊ सब भला आदमी के नञ लै के हिकइ । हमरा से नञ तऽ हमरा मरला के बाद, बालो-बच्चा से असूल करि सकऽ हइ । जानि-बुझि को लै ले नञ चाहऽ हियै । दोसरे ऊ हिकइ धुरफंदी काम ! काम-धंधा छोड़ि को जे ओकरे में लागल हइ । राति-दिन दौड़ब करऽ हइ । खाली तोरा देखइ में लागऽ हौ । हाँथी के दाँत । ऊ अर खाली हहास हिकइ । जइसे आल वइसे गेल ।) (आपीप॰113.7)
1032 हाँथे-हाँथ (= हाथे-हाथ, हाथ में ही) (कहवै कि ? कत्ते लगतइ ? हजार-दू हजार । तब निकलवो तो करतइ - बीस हजार । रहे दू हजार कम्मे छौड़ा पूत के । धन्नू चा 'बेस' कहि को सबेरे चलि देलका बलौक ! अगरीकलचर लोन लै ले ! फारम लेलका - पाँच रूपइया । ओकरा भरवैलका महेश से । एगो टिप्पा लेको कहलकन कि जाको अपने से हाँथे हाँथ हाकिम के दे दहो !; पूछलकन - देल्हो दरखास ? - हों हों । - केकरा ? तरजनी अँगुरी से बता के कहलखिन - वह जे अपिसवा के दुअरिया पर खड़ा हइ । - आय महाराय ! ऊ तो चपरासी हिकइ । कहलियो हल, अपने से जाके हकिमे के ने दै ले । हाँथे हाँथ काम जल्दी आगू बढ़तइ हल । धन्नू चा कहलखिन - अरे मछलोकवा के लेख हँथे से ले लेकइ ! कहलकइ - लाइये हम दे देगा ।) (आपीप॰114.5, 21)
1033 हाथे-पाथे (गंगा के मने-मने परनाम कैलकी । गछलकी नीक्के-सुक्खे घुरवो माता तब दूध के ढार देवो, रच्छा करिहा । तब कनियाय-भाय सहित सामान उतर गेल । वहाँ से घर नजदीक । घर समाद गेल । तुरंत कत्ते आदमी जुट गेल । हाथे-पाथे सब सामान लेलक !) (आपीप॰100.5)
1034 हाली (के भोरे बँसिया बजा दे हइ । बैरून नींदिया से हाली जगा दे हइ ॥) (आपीप॰81.12)
1035 हिकैती (~ करना) (ऐं मइयो रे ! शौख कत गो ! अब ऐत गो रतिया के कौन दोकान खुलल होतइ ? - हों, हों ! दारू के दोकान असल इहे बेला चलऽ हइ ! वह चारि डेग में कोनमा पर हइ ! जो बेटा ! रामदास, तोहीं ले आव । - नञ लइहें रे ! बइठल-बइठल हिकैती करैत रहतौ ! चिकुलिया कहलकइ ।) (आपीप॰34.22)
1036 हिनकर (= म॰ इनकर; हि॰ इनका) (बड़ा मेहनत से मिल गेल करमचारी ! ओकर बाप भी हिनका पसीन कैलक । हिनकरो मन डूब गेल । खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी !) (आपीप॰87.21)
1037 हिनका (=म॰ इनका; हि॰ इन्हें, इनको) (काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में ! नैकी काँगरेस के कहऽ हलखिन - बिना पेंदा के लोटा ! साँझ बोलल कुछ, बिहान बोलल कुछ ! ... बकि ज्ञानदा बाबू अपन विचार सहज में बदलइ वाला नै हथिन ! हिनका टूटना मंजूर, मुदा झुकना नै ! से पुरनकीये के पकड़ने रहलखिन !; बड़ा मेहनत से मिल गेल करमचारी ! ओकर बाप भी हिनका पसीन कैलक । हिनकरो मन डूब गेल । खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी !) (आपीप॰61.5; 87.21)
1038 हिनखर (= हिनकर, इनकर) (मनोज बाबू पूछलखिन - बड़ छउँड़ी हइ कि छउँड़ा ? - छउँड़ी पहिलूठ हो कि । लगले दू बरीस बाद छउँड़ा भेलो । छउँड़ी के यह पनरहवाँ बीत के सोलहवाँ चढ़लो हे । हिनखर आँख के आगू अनरूध वाला नकसा साफ हो गेल । कहलखिन - जा देलियो ! तनी नीक से खेती करिहा, जे दू पैसा तोरो होय ! आर हमरो !) (आपीप॰105.8)
1039 हिन्छा (= इच्छा) (बुढ़िया घर से एगो कुश के चटाय लाके चन्दन गाछ के छाहुर में बिछा देलक, आर घर से एक लोटा घोर - जेकरा में जीरा-जमाइन, काला नीमक, मरीच देल । कहलक - पहिले बेटा ! एकरे पी ले । तब पानी पीहें । करेजा ठंढा रहतौ । हम लोटा भर घोर पी गेलूँ, मिजाज शीतल हो गेल । पानी पियइ के हिन्छा खतम ।; पंच लोग के बात सुन के बुधना के मन ढेंऊँसा बेंग ऐसन फूल गेल । पहाड़ी नदी जइसन उफनल जाय । एक बेरी तरे से बबकि को बोललइ - जब तोर कुले महान आदमी के आर बंस-खूट के इहे हिन्छा हो, तऽ होवो दा नगर भोजे सही ।) (आपीप॰8.13; 66.18)
1040 हियाना (= की ओर देखना) (जने हियावऽ तने पानिये पानी लखा हे । दूर-दूर तक फइलल पानी समुन्दर के लेखा ! गाँव जइसे समुद्दर में जहाज लंगर डाल देलक हे, इ परलय में के साबूत बचल ? हमरा जानिस्ते तो कोय नञ ।; जिछना जब कटोरा में मछली के गुड़िया अऽ मड़गोद भात चापुट पार पार के खाय लगल तऽ फुलवा के कनमटकी वाला मूँदल आँख फट सियाँ खुल गेल । कौर चिबावइत फुलवा जिछना दने हियावे हे, तऽ देखे हे कि गुजुर-गुजुर दूगो आँख कटोरा दने ताक रहल हे । जब कौर उठावे तऽ ओकरा लगे कि हर कौर में फुलवा के आँख हे ।; कोय परवाह नञ बेटा ! तोरा ले हम परान देके कौआ के अमर बूटी ले अइलियो ... हहरिहें नञ । फुलवा गड़र-गड़र आँख से हियावैत रह गेल । दवाय के पुड़िया देखा के जिछना कहलक, देख तोरा ले पटना से दवाय ले अइलियौ ।) (आपीप॰1.17; 2.14; 5.9)
1041 हिरोही (भोला कहलकइ - से तो हइ, मुदा जुल्मी के मार के जइतों हल, तब कोय हिरोही नै ! ई बेकसूर के, बिना खदी-बदी के अप्पन गोतिया भाय के मार के जेल गेलों, इहे अपसोच हमरा तिल-तिल खा रहल हे । अपना पेट खातिर ई काम कइलों ! सेहो नै भेल, उलटे बाप-दादा के जे दू बीघा हल सेहो बिक गेल ।) (आपीप॰64.16)
1042 हिसाब-किताब (तोरा टीवेल भिजुन खेत हइयै हो । ओजौका दू बीघा खेत टेबि को जेकरा जिमा नया माल हइ, ओकरा बटैया दे देहो । कड़ैती नञ, कसरैती नञ, कंजूसी नञ, हिसाब-किताब नञ । दुलार करहीं, पोछैत-पाछैत मुँह खाय, आँखि लजाय ! राजी हो जइतइ । जब तक नया हइ, रहतइ, पुरान होतइ, घर जायत । आर कि ?) (आपीप॰104.16-17)
1043 हुनकर (= उनकर; ~ बात = उनकी बात) (हुनकर बात खतम होते माँतर दीपो बाबू कहलखिन - कौन लाज कहबइ ! कहाँ तों भीमसेनिया कपूर अऽ कहाँ दोसर अकवन के दूध !; लगभग पचीस साल के उमर में हुनकर मागु हुनखरा छोड़ के चल गेलखिन वहाँ ! जहाँ से कोय लौट के नञ आवऽ हइ । एक साल हुनकर रोवैत बीत गेल !) (आपीप॰65.9; 102.6, 8)
1044 हुनकरा (सूपन के भी भीतरे-भीतरे डर समा गेलन - दुर्रर्र ... इ मतिखपत कलेट्टर कहैं जेल पहुँचा देलक तऽ कि होत ? तभी हुनकरा धेयान आयल अप्पन एम॰एल॰ए॰ शरमा जी के, एमेलेइये नञ, मुनिस्टर हथिन । अब उहे जान बचा सकइ होथ ।; कोय जवान लड़की के देखथ कि देखते रह जाथ । तरह-तरह के कामना । तरह-तरह के काम कल्पना । अब हुनकरा एक स्वस्थ जवान औरत के जरूरत महसूस होवो लगला । मुदा होय कि - चिड़िया चुग गेल खेत ।) (आपीप॰39.23; 103.3)
1045 हुनका (= उनका; उन्हें) (भोला हुनका गाँव-घर के भतीजा लगइ हन । पढ़ाई में बढ़ियाँ, देखइ में सुन्नर । गनौरी चा के सेवा में लगल !) (आपीप॰61.7)
1046 हुनखरा (= हुनकरा) (लगभग पचीस साल के उमर में हुनकर मागु हुनखरा छोड़ के चल गेलखिन वहाँ ! जहाँ से कोय लौट के नञ आवऽ हइ । एक साल हुनकर रोवैत बीत गेल !याद के पुलिन्दा के बीच ... जब आबइ हलों हँसि को मिलइ हल । बगल में बैठ के परेम से बात करइ हल । मीठ ! गुड़ो से मीठ बात ! ओतना मीठ कि रसगुल्ला होतइ !) (आपीप॰102.6)
1047 हूर (जे किसान के भैंस बलगर अऽ गेरगर हलइ से लछरि-लछरि चौतार मारइ । ई साल के हूर वाला पाहुर के लेधड़ी, सौखवे के भैंस छिरियैलकइ । जे किसान के गाय चाहे भैंस पाहुर देखते भाग जाय, से किसान के मरग बुझो । ओकरा लगल जैसे माथा पर अस्सी चोट के बज्जड़ गिर गेलइ । जेकर भैंसि हूर ले लेलक, से भैंस गोरखिया के मन आसमान छू लिये, देह एक बित्ता उँच हो जाय ! उ जानवर के इलाका भर में गजट हो जाय, बिके तऽ दू पैसा जादे दाम में, सिरिफ इहे गुन के चलते । जे दिन से सौखवा के भैंस हूर लेलकइ, से दिन से सौखवा के मान घर में बढ़ि गेलइ ! सौखवा के बाप कहलखिन - सौखवा माय से ... छौड़ा के दूध खाय में नञ रोकिहो ! एकरा पी-खा को जे बचतइ, सेकर बिजनीस होतइ ।) (आपीप॰75.17, 19, 23)
1048 हूर (सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । साँझे सब किसान अपन बैल के सींग में तेल लगा लगा उरेह के नैका अपना हाथ से बनावल तरह तरह के फूल वाला फुदना सींग में पिन्हा रहल हे । गारा में नया रंग-बिरंगा जोठ पगहा । बैल के पूरा देह पर चिलिम के छाप, लाल-पीयर-हरियर तरह तरह के रंग में देखैत बने ।; सबेरे आधा दाम पर सूअर के पाहुर ले आवे ! काहे तऽ मरल पाहुर फेर ओकरे लौटा देते हल । भैंसि किसान अलगे ! गाय किसान अलगे हूर दिये । ई परम्परा अब समाप्त हो गेल । ई खास किसान के उत्सव हलइ । … उ पुरान प्रथा हम तनी-मनी देखलों हँ जब हम दस-बारह बरस के हलौं !; हूर ले पाहुर आ गेल ! ओकर चारो गोड़ मजबूत रस्सी से कसि को बान्हि देलकइ । ओकरा में एक से दू गो नौजवान पैना पेस के उठा लै, आर हूर ... ले हूर ... कह के भैंसिया के सिंघिया भिजुन दै।) (आपीप॰74.13; 75.9, 11)
1049 हेमान (= हैवान) (नवीन भी तो बेचारा दुख भोग रहल हे । हम तो जेल से निकललूँ । मुदा ऊ जेल के सजाय काट रहल हे । हम दोनो बेकसूर ही । दुनिया वाला कैसन हेमान हइ ? मनुस के धर्म में बाँट देलक ।) (आपीप॰43.25)
1050 हेरना (= ढील्ला) (दुपहरिया खा-पी के तैयार भेलइ । मइया बोलैलकइ - पुष्पी ? आवें तो, देखहीं मथवा में कि तो काटऽ हइ ! - ढील्ला होतौ आर की ? -आवें ने, हेर दहीं । पुष्पी मइया के पीठ दने बैठ के ढील्ला हेरो लगलइ ।) (आपीप॰16.15, 16)
1051 हेलना ("सावन में जनमलें, भादो में देखले बाढ़, तऽ कहलें कत्ते पानी ! इ बाढ़ नञ, बाढ़ के पुच्छी हे । सन बीस वाला बाढ़ में टिल्हा-टाँकर सब डूब गेल हल ।" आव चार दिना बाद जब बाढ़ कन्हैया दुसाध वाला अँगना में हेल गेलइ, तब पूछलियन, अब काका सन बीस वाला से बढ़लइ कि नञ ? काका चुप्प ... ने हाँ बोलथिन, ने हूँ ।) (आपीप॰1.14)
1052 है (= हइ) (एतना से हम खुद सन्तुष्ट नञ ही, तों कने से सन्तुष्ट भेल होवा ? ई विषय गंभीर आव बड़गो है । हमरा पास ओत्ते लिखइ ले ई किताब में जगह नञ है ।) (आपीप॰V.26)
1053 हो ( आँय ~; ए ~) (आँय हो, ऊ कत्ते लेतइ ? धन्नू चा पूछलखिन । महेश कहलकइ - अच्छे, इहो बात पूछि लेल्हो । ओकर बान्हल हइ - बह बजार तीन हजार ! तब जाफरी साहेब ! अच्छे आदमी हइ । तीन हजार एक मुश्त ले लेला के बाद, तोरा दौड़इ धूपइ के कोय काम नञ । सारा काम ऊ करा को रखतो । जे डेट देतो, से पर जइभो, दसखत करबइतो, रूपइया तोहरा देतो । मगर अप्पन घूस पहिले ले लेतो !) (आपीप॰117.22)