आपीप॰ = "आन्हर पीड़ा" (मगही कहानी संग्रह), कहानीकार - परमेश्वरी; प्रकाशक - अखिल मगही मंडप, लखीसराय-811311; प्रथम संस्करण – मार्च-अप्रील 2004 ई॰; VI + 121 पृष्ठ । मूल्य – 50 रुपइया ।
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कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 1053
ई कहानी संग्रह में कुल 15 कहानी हइ ।
क्रम सं॰ | विषय-सूची | पृष्ठ |
0. | समर्पण | III-III |
0. | निहारऽ हमरो ओरिया | IV-V |
0. | अनुक्रमणिका | VI |
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1. | आन्हर पीड़ा | 1-5 |
2. | मैया भारती | 6-11 |
3. | औरत | 12-21 |
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4. | अपराधी के ? | 22-30 |
5. | लहास के सौदा | 31-42 |
6. | असमिरती | 43-59 |
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7. | नौकरी के चक्कर | 60-65 |
8. | नगर भोज | 66-72 |
9. | अनाड़ी | 73-80 |
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10. | बँसिया | 81-85 |
11. | नौकरियाहा दुल्हा | 86-93 |
12. | बालाजीत | 94-97 |
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13. | धार-साज | 98-101 |
14. | सावा मन लड्डू | 102-111 |
15. | ऑपिस के चक्कर | 112-121 |
ठेठ मगही शब्द ("ज" से "फ" तक):
382 जग (= यज्ञ) (चाचा ! कौन जनम के दुश्मन हलियो ! अच्छा बैर सधैल्हो ! खर्च भी, कज भंड भी ! आठ आना ले एक टोपी बिना विधान नञ पूरा भेलइ । आर अन्हरा मनसुखवा भूखले रहि गेलइ ! दुइयो दिन ! .... दीपो बाबू कहलखिन - बेटा, जग करि को आझ तक कोय जुग नञ जीतलक ! दुदिसठिर जब जग करि को पार नञ पैलका, तब आर कि बेटा !) (आपीप॰72.14)
383 जजा (= जेज्जा; जहाँ, जिस जगह) (अचके जिछना के आँख चमक गेल । ओकरा याद आयल, वहाँ अस्पताल में खून खरीदल जा हइ । डूबइत के तिनका ... इहे उमक पर चल देलक पटना । जिछना सबसे पहले अस्पताल पहुँचल जजा खून खरीदल जा हल । खून बेच के खड़-खड़ौआ पाँच सौ रुपइया नगदी फाँड़ा में खोंस एन्ने-ओन्ने देखले दवाय के दोकान पर जा रहल हल ।) (आपीप॰4.24)
384 जजै-तजै (= जजइ-तजइ; जहाँ-तहाँ) (कातिक में हरजोतवा अइतइ गँहूम बुन के, गोड़ में बियाय फाटल रहतइ । रात के मागु जौरे सुततइ । गोड़ा पर गोड़ा चढ़ैतइ । जों कहैं पियार से गोड़ा रगड़ देतै एकरा दन दोको लहू बह जइतइ । सबेरे इलाज करावो । हाथ बाँहि पकड़तइ ! जजै तजै छिला जइतइ, नछुड़ा जइतइ ! मर्रर्र दुर्र हो ! कते खोलि को कहियौ ! कुछ बुझवै नञ करऽ हइ । तनी अपना मन में लाजो नञ लागऽ हइ मर्दबा के गे माँय !) (आपीप॰90.6)
385 जजो (= जजा, जज्जा; जिस जगह) (ऊ उठल, सुतली रात में सान्ही-कोना खोजो लगल । खुर-खुर के आवाज सुन के भइया जागलइ । पूछलकइ - की करऽ हीं गे ? मइया देखहीं ने, कनबलिया वाला डिब्बा जजो धैलियै हल ओजो नञ हइ ।) (आपीप॰15.15)
386 जड़कुन (~ सिल्ली) (जिछना पहिले ऐसन नञ हलइ, की जन दस दिन में एकरा की हो गेलइ है ? अब तो दुबरा के खिखनी हो गेलइ, नञ तऽ एकर देह ... ? देखइत बनऽ हलइ । सोंटल सिलोर, जुआन जइसे कोय ताड़ के जड़कुन सिल्ली होय ।) (आपीप॰1.8)
387 जतरा-पतरा (झखुआ पती-पत्नी पन्दरह दिन बाद पटना से घर आयल ! बुतरू के कंचन काया ! भाय के गोदी में देको गोड़ लागलइ । कहलकइ देखल्हो माताराम ? जतरा-पतरा - ई सब अंधविश्वास हइ ।) (आपीप॰101.18)
388 जते (= जत्ते; जितना भी) (पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन । पपुआ माय चूल्हा में गोइठा पैसावैत कहलकइ - हूँ हूँ, निकरामती मरद के गाल कतै ? अपनै मन बिलैया पुरखायन ! हमरा भिजुन जते सुना ला ! हम जानो हियौ नञ । घर बुधि बारह, बाहर बुधि तीन ! गाँव से बाहर विधाता उहो लेलका छीन ।) (आपीप॰112.7)
389 जत्ते (= जितना; जहाँ कहीं भी) (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !; ओकर बाप से मिलके चले कहवै । जब छौड़ा-पूत्ता एकरे ले भूखल हइ तऽ बियाहे कर लिये । करे जत्ते मन होवइ ।) (आपीप॰91.9; 109.5)
390 जनमना (= जलमना; जन्म लेना, पैदा होना) (माय काली ! एत्ते तो खोंटा-पिपरी नियर धरती पर आदमी जनमि गेलइ ! एकरा काट-वाछ नञ करभो तब जुलुम हो जइतइ, माता । जुलुम तो हो रहलइ हे । जल्दी-जल्दी मारने जाहो आर हम्मर घाट में भेजने जाहो । से तों करवे नञ करऽ हो ! उल्टे मरऽ हइ एक, तऽ जनमऽ हइ हजार । छेरकट उड़ा दऽ हइ । अनगिनती ! अब जरूरत हलइ, जनमते हल एक, आर मरते हल अनगिनती । तब संसार बलेन्स में रहतो हल ।) (आपीप॰31.14, 16, 17)
391 जनिऔरी (= जन्नी, औरत) (तब पेट काटि को पचास हजार जमा कैलकइ हल । गाल के माँसु चिबा को । दस बीघा खेत । एगो माय-बेटा ! मोसामत जनिऔरी । कहियो कथा-पूजा कइले होतइ ?; हे बेटा ! जनिऔरी जात लक्ष्मी हथिन, लछमी ! जिनका से ई पिरथमी चल रहलइ हे । ऊ पूजय के चीज हिखिन । ओकर चेहरा नञ देखी, आँख नै मिलाबी । आँखिये से तो उ सब गुण बान ओझरइवे करऽ हइ । अगर औरत के देखो पड़े तऽ ओकर गोड़ देखइ के चाही ।; अग्गे माय ! झखुआ मागु सन जबरदस्त जनिऔरी नञ देखलों हें । लाख कहैत रहलियै ! कनियाय ! एकादसी हमरा नञ धारे हे । एकादसी कइलैं हमर झखुआ के बाप अकाश उड़ गेला । से दिन से हम एकादशी के शुभ काम नञ करऽ ही । दोसर कोय तिथि में जइहा, कोय हर्ज नञ !) (आपीप॰71.24; 77.21; 98.10)
392 जने (= जन्ने; जिधर) (जने ... तने) (जने हियावऽ तने पानिये पानी लखा हे । दूर-दूर तक फइलल पानी समुन्दर के लेखा ! गाँव जइसे समुद्दर में जहाज लंगर डाल देलक हे, इ परलय में के साबूत बचल ? हमरा जानिस्ते तो कोय नञ ।) (आपीप॰1.17)
393 जनौआ (= जनेऊ) (जे बड़ाय करें तो ऐसन । यहाँ तोर बाप, हमरा बाप के गोड़ पर जनौआ धर के कहलखुन । अब जनौआ के लाज तोहरे जिमा । तब जाको कहैं हमरे तोरे जूड़ा बन्हन भेल । लछमी अइली हमरा घर । तोरा अर छोटहा खनदान मानऽ हलखिन हमर बाप !) (आपीप॰113.17, 18)
394 जन्नी (= स्त्री, पत्नी) (उ रसता कि बतैलक, हमर जन्नी के मन बढ़ा देलक । कहलक - जल्दी खा आर ठंढे-ठंढी चल जा ! हमरा कोय बहाना नञ रह गेल हल । खइलूँ अऽ भारी मन से दुखी चलइ घड़ी कहलूँ अपन मागु के - अहे ! कहावत हइ कि साल भर के रसता चली, मुदा महिना वाला नञ । हमरा ई सौटकट में खतरा मालूम दे हौ ।; काम बहुत जरूरी हइ, मरद के सुनइ के नञ हइ । जन्नी के बात हिकइ । हमरा तोहरा बीच कौन चीज गुप्त हइ । गुप्त से गुप्त चीज तो ... । ठीके कहऽ हियो । तोरा सुनइ के नञ हो । सुनभो त नञ अच्छा लगतो । दिमाग चकरा जइतो !; अरे ! तोरा सुनइ के नञ हइ । जन्नी वाला बेमारी हलइ । कि कहियौ ।; जब बप्पे कहलकइ - लड़े ने भोम्हा ! बजड़ जइवें तऽ बजड़िये सही ! जन्नी हिखीं जे चूड़ी फूटतइ ? बकलोलवा । लड़ गेलइ । पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ !) (आपीप॰6.16; 18.1; 20.14; 76.15)
395 जमकल (~ पानी) (एक मन करे पोखरिये के पानी पीली, बकि मन नञ भरे । जमकल पानी - सरदी-बोखार तो धैल हइ ।) (आपीप॰7.9)
396 जमाहर (~ लाल = जवाहर लाल) (धन्नु चा जैसे चिढ़ावइ ले आझ बैठलखिन हल ! मुसुका को कहलखिन - पपुआ माय ! एकाह दिन जो बजार जा हियै - से मे तो बजार के कत्ते लोग जे नहियों चिन्हऽ हइ सेहो, परनाम पहलवान जी ! राम राम खलीफा जी ! अहो, हम मामूली हियै ? दशा-दिशा नर पूजिता ! पपुआ माय अधकट्टी चनरमा कट मुसुक्का मार के कहलकन - ऊ हूँ, तोरा ने ? तनी एक जमाहर लाल ई बाबू साहेब, से हिनखा कुले परनाम करऽ हन । देखियो तो कुले ला रहलऽ हे, सरकारी गहूँम, सरकारी रूपइया । तोरो से होतइ ?) (आपीप॰112.16)
397 जर-जिद (कनियाय जब सवारी चढ़ली - मने मन छगुनैत गेली । कने से कनकट्टी बुढ़िया, झाँझी कुतिया माइयो ! बचलइ हल जतरा भगन करइ ले । हमरा पर तो जर-जिद से पड़ल हइ माइयो !) (आपीप॰99.10)
398 जरलाहा (भोरे-भोरे बाँसुरी के बजा दे हइ ? हमर मन उख-विखा दे हइ । के बजावऽ हइ ? काहे बजावऽ हइ ? जरलाहा ! दूत-भूत तो नञ हइ ?) (आपीप॰81.2)
399 जराइन (चावल, दाल आदि का) (चलल जा हलइ । पंचू मिललइ । बुधना पुछलकइ - कि पंचू ? कैसन रहलइ ? खइला हा खूब ? पंचू कहलकइ - अच्छे हलइ नुनु । तनी बरहवा दिन अलुआ वाला तरकरिया लागइ काँचे रहि गेलइ हल । अऽ तेरहवा दिन दलिया शायत तनी लगि गेलइ हल, तनी जराइन लागइ ।) (आपीप॰70.21)
400 जात (= जाति, वर्ण; वर्ग) (मैया के नजर दुइयो के दिल के किताब पढ़ लेलकइ ! पूछलकइ - कौन जात हइ सुबीर गे ? माया मुसका के कहलकइ - अपने ! मैया सुन के गुम तो हो गेलइ मुदा मन के शंका नञ गेलइ !) (आपीप॰86.16)
401 जाति-कुटुम (एक दिन चार गो लफुआ अइलइ - मइया-बेटवा के केप्चर कर लेलकइ, पिस्तौल देखा के, लगभग बारह बजे रात में ! एकाएकी छउँड़ी के बलात्कार करि गेलइ । छउँड़ी बदहोश ! भैवा कहलकइ - चल मैया । बलात्कार के केस नामी होवऽ हइ । बड़ी कड़र । चारो के हम चिन्हऽ हियै । कर दियै केस । मैया कहलकइ नैं बेटा । ओकर कुछ नञ बिगाड़ि होतइ, बिगड़ जइतौ तोरे । गोजो । नान्हि वारि हइ, जाति-कुटुम के पूछतइ ? जो डाकदरनी यहाँ देखा दहीं ।) (आपीप॰108.14)
402 जानिस्ते (= की जानकारी में) (जने हियावऽ तने पानिये पानी लखा हे । दूर-दूर तक फइलल पानी समुन्दर के लेखा ! गाँव जइसे समुद्दर में जहाज लंगर डाल देलक हे, इ परलय में के साबूत बचल ? हमरा जानिस्ते तो कोय नञ ।) (आपीप॰1.19)
403 जामनी (= जामिन) (हरिण के ~ सूअर) (दुलो चा गरजि को बोलो लगलखिन - यह ! यह ! चूड़ा के गवाही दही ! हरिण के जामनी सूअर ! कवि के दोस्त हिकन जिगरी ! मिलावो लगला । खूब नोन-तेल लगावो लगला ! अभियों कि नञ हइ ओकरा ! चार बीघा जमीन हिस्सा ! अपने भी बी॰ए॰ पास, मागू भी पढ़ल ! गाँव भर के नुग्गा सीये ! दरजीनी बीबी ! अब कि चाही ?) (आपीप॰94.22)
404 जिमा (~ लगाना) (इनरदेव बाबू बिना कुछ कहने सुनने दरखास में औडर सीट लगा के दसखत जे करइ के हलइ करिको जिमा लगा देलखिन ।) (आपीप॰117.14)
405 जिमा (= जिम्मा) (खइलूँ अऽ भारी मन से दुखी चलइ घड़ी कहलूँ अपन मागु के - अहे ! कहावत हइ कि साल भर के रसता चली, मुदा महिना वाला नञ । हमरा ई सौटकट में खतरा मालूम दे हौ । उ डाँट देलक । हों, तोहरा दिने में बाघ झपटऽ हइ ? तोरा जिमा में कि हइये हो जे चोर-चुहार लेतइ ?; ऊ घर से एक पिसतौल लेके आल, अऽ हम्मर कनपट्टी में भिड़ा को कहलक - निकाल जे कुछ जिमा में हौ ! हम कानो लगलूँ, कहलूँ हम नेवता पूरे लै जाही । बाप रे ! कइसे नेवता पूरतइ ?; बहिन, हम तो सिरिफ पानी पियइ ले अइलूँ हल । ऊ कहलक - तऽ पानी पी के चुपचाप चल देतें हल । ई सब करइ ले के कहलको ? अऽ कइल्हीं तऽ एकर दाम दहीं, जल्दी कर । हमरा जिमा में जे कुछ हल निकाल के दे देलूँ । ऊ टो-टा के सगरो देख लेलक, कहलक - जो चुपचाप ।; यहाँ तोर बाप, हमरा बाप के गोड़ पर जनौआ धर के कहलखुन । अब जनौआ के लाज तोहरे जिमा । तब जाको कहैं हमरे तोरे जूड़ा बन्हन भेल । लछमी अइली हमरा घर । तोरा अर छोटहा खनदान मानऽ हलखिन हमर बाप !) (आपीप॰6.20; 9.19, 25; 113.18)
406 जिला-जवार (= जिला-जेवार) (एक लंगौटा पर पाँच कुश्ती मारलकइ ! सब पूछइ - इ कहाँ के जुआन हइ ? कि नाम हिकइ ? फेर तो एकर नाम इलाका में खिँड़ गेलइ ! जहाँ-जहाँ दंगल होय, एकरा बोलावो लगलइ । जिला जवार में नामी पहलमान हो गेलइ !) (आपीप॰76.21)
407 जी-फेरन (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... तोर बेटी के मन करतौ बूँट के भूँजा खाय के । बाजार से खरीद के लइतौ एक सौ गिराम ! चालीस रूपइया कि॰ । छिपिया पर रख के चार-चार दाना मुँह में चिभला-चिभला खइतौ ! नितरा-नितरा ! बूँट के भूँजा । ऊ खाना नञ भेल, खाली जी फेरन । भगवान ने करे ऐसन होय !) (आपीप॰92.7)
408 जुआन (= जवान) (जिछना पहिले ऐसन नञ हलइ, की जन दस दिन में एकरा की हो गेलइ है ? अब तो दुबरा के खिखनी हो गेलइ, नञ तऽ एकर देह ... ? देखइत बनऽ हलइ । सोंटल सिलोर, जुआन जइसे कोय ताड़ के जड़कुन सिल्ली होय ।; जुआन बेटा चलल जा हइ । जान के जहर खाय, देव के दिये दोख । डाकदर के मना कइलो पर मछली खिला देलकइ । गठरिया खुले न बहुरिया दुबराय । ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे ।; गाँव के गभरू जुआन सबेरे से भिड़ गेल काम में । सराध के फिरिस तैयार - पूरा विलखो सर्ग ।; सौखवा दूध पीके, कुश्ती खेल के साले भर में जुआन हो गेल । लमगर-छड़गर गैदुम शरीर, गेहुआँ रंग । सुन्नर कत्ते लगइ ! पुट्ठा पर माँस । गरदन से लेको कान्हा तक लगइ जैसे साँढ़ के रहे ।) (आपीप॰1.8; 3.21; 67.21; 76.5)
409 जुकुर (पीयर-पीयर चमकदार जैसे सोना के पाँखि होय । मथवा पर ललका गुलाब के फूल नियर, पुछिया झवरल उज्जर चौर नियर । देखइ के चाही, देखइ जुकुर हे, बकि के जा हइ एते ठंढा में बँसविट्टी ...।; बेटवा से कहलकइ - बेटा ! कोय ऐसन जगह खोजहीं जहाँ-जे शहर के टोला-मोहल्ला में अपन जाति के चलती होय ! काहे कि अब बहिनियो बियाहे जुकुर हो गेलौ ! जाति के अंक लागि जइतइ । हमहूँ निट्ठाह ।) (आपीप॰82.8; 107.24)
410 जुग-जमाना (जुगो-जमाना अब कैसन हो गेलइ ? तहिया मागु रहऽ हल मरद के कहला में ! अब मरद हो गेलइ मागु, आव मागु हो गेलइ मरद । छउँड़ा के जतने पढ़ावऽ हइ ओतने पढ़ऽ हइ ।) (आपीप॰98.21)
411 जुमना (सोहगी अपना के ओकर पंजा से मुक्त हो को भागइ के कोरसिस कैलकइ । बकि मरद के पंजा में कसमसाल जवानी भरल-पूरल छटपटाइत ... औरत के उहे मरद छोड़ सकऽ हे जे नामरद होतइ ! नञ छोड़लकइ ! एतने में बुन्देला चा ओने से जुम गेलखिन ! कहलखिन - इहे पढ़ाइ एजो चलऽ हे हो ! रसलीला ।) (आपीप॰84.14)
412 जूड़ा-बन्हन (जे बड़ाय करें तो ऐसन । यहाँ तोर बाप, हमरा बाप के गोड़ पर जनौआ धर के कहलखुन । अब जनौआ के लाज तोहरे जिमा । तब जाको कहैं हमरे तोरे जूड़ा बन्हन भेल । लछमी अइली हमरा घर । तोरा अर छोटहा खनदान मानऽ हलखिन हमर बाप !) (आपीप॰113.18)
413 जूरा (हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? किरानी बाबू कहलखिन - एकरा कुछ के कमी नञ हइ । धन आरे-दुरे । औकात मुताबिक इहे ठीक हइ । कुरसी पर बैठइ वाला सिरिफ फरस बुकनी छोड़इ वाला होतौ । लसर मेरहा ! देखइ में चिक्कन जेकर जूरा करे महँ महँ, पेट करे कुह कुह ! बेटिया जिनगी भर कानते रहतौ । कुरसी पर बैठइ वाला तो हमहूँ ने हिकियै ! तऽ कि हइ । सोचहीं ने ।) (आपीप॰89.20)
414 जेकरा (= जिसे, जिसको) (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ? ... तऽ जेकरा पकड़ऽ हइ, सेकरा चूम ले हइ, अंकवरिया में कस के वान्ह ले हइ, छोड़इ ले नञ चाहऽ हइ, इहे से बुतरू-वानर अलगे-अलग रहइ ले चाहऽ हइ ... दूरे से ढेला फेंक के मारऽ हइ ।; ई बात कही केकरा ? मन के मीत भिजुन जब मन के बात खोलल जा हइ, तब दुख कुछ हल्का हो हइ । ओकरा सिवाय कोय ऐसन मीत नञ हलन जेकरा भिजुन खुलि को रो सकऽ हथ !) (आपीप॰1.2; 103.9)
415 जेठका (कि जने कि होत ? आखिर होय बिहान, होय बिहान, चिट्ठी लिखलकी - मैया जी, सादर परनाम । बाबू के ! भैया के ! दीदी के ! गोड़ लागी । सब बड़कन, जेठकन, छोटकन के पाँय लागी । हाल यहाँ के भगवान भरोसे !) (आपीप॰101.3)
416 जेबी (= जेभी; जेब) (जैसइ हाकिम से मिलै ले दुअरिया पर गेलखिन कि चपरसिया रोकि लेलकन । ए ! पहलवान जी, क्या है ? लाइये हम दे देंगे । अभी साहेब काम में है । -'करजा के दरखास !' धन्नू चा कहलखिन । चपरासी दरखास लेको अप्पन जेबी में रखि को कहलकन - जाइये ! अब आप निचीत से बैठिये । काम हो जायगा ।; महेश कहलकइ चपरासी से - टेबुल पर दहीं दरखास । चपरासी बोललइ - अभी साहब का मूड नहीं है । आप जाइये । हम दे देंगे । - अब कि तों तिरैता में देवें ? नञ तब दे दरखास, हम अपने से देवइ ! - हम नहीं देंगे । बस, एतना कहना हलइ कि धन्नू चा हँथे ऐंठि को चढ़ा देलखिन ! ऊ खट सना दरखास निकालि को जेबिया से दे देलकइ !) (आपीप॰114.12; 115.8)
417 जोट्टा (बुन्देला चा कहलखिन - कि ई अवजवा ? हम तो देखलियै हे । जंगल देश के बड़ी सुन्नर नर-मेघी दू चिराँय हइ । अऽ जोट्टे बोलऽ हइ । वह बँसविटिया में ।) (आपीप॰82.4)
418 जोठ (~ पगहा) (सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । साँझे सब किसान अपन बैल के सींग में तेल लगा लगा उरेह के नैका अपना हाथ से बनावल तरह तरह के फूल वाला फुदना सींग में पिन्हा रहल हे । गारा में नया रंग-बिरंगा जोठ पगहा । बैल के पूरा देह पर चिलिम के छाप, लाल-पीयर-हरियर तरह तरह के रंग में देखैत बने ।; गाय के तो सिंगार मत कहो, देखैत बनतो हल । सींग में औरत आको, जेकरा दुबिनी कहऽ हइ, घी सिन्नुर लगा दिये । कोय ललका, कोय किसान भखरा सिन्नुर लगवावे । कोय सोनमा सिन्नुर से सींग चमचमावय ले लगावावै । जोठ फुदना चिलिम छाप , चिरमिच्ची छाप । तरह-तरह के छाप मत पूछो । मरद गाय के सींग में सिन्नुर नञ लगावऽ हलइ ! काहे तऽ गाय माता हिखिन !) (आपीप॰74.15, 19)
419 जोप्प (= चुप्प !) (चिकुलिया के पँजोठ के चुम्बा लैत कहलखिन - वाह गे ! चिक्को रानी ! ई तोरे लुर-बुध के कमाय हे भाय ! सब पैसा तोर ! मुदा हमरो मेहनत एकरे में, बस एक बोतल ! ... सूपन कहलका एक नमरी ! बस ... । जोप्प ! पचास रूपइया दैत चिक्को कहलकइ - एकरा से वेसी नञ !) (आपीप॰34.15)
420 जौंआँ (= जुड़वाँ) (मनोज बाबू ! अपने देखइ में सुन्नर ! दस बीघा सुत्थर जमीन ! भाय में अकेले ! गाँव में मान-परतिष्ठा ! मागु सुन्नर, पढ़ल, आग्याकारी ! भगवान उरेहि के जोड़ी मेरैलखिन ! समय के साथ - दू बेटा ! बेटा कही बेटा नियर ! जैसन माय-बाप वैइसने ! कद-काठी के - लगे जइसे दुओ जौंआँ होय ।) (आपीप॰102.4)
421 जौर (~ करना = इकट्ठा करना) (जानऽ हीं, घर में बैठल रहला से देह में घुन्न लग जा हइ । रोज चरावइ ले आवें ! तनी देह में माटी लगायल करहीं, बल बनल रहतौ । डंड-कुश्ती मारहीं । । नञ रोज अइवें तऽ एक काम करें । तों गइया खोल के हमरा जौर कर दे । एकाह घंटा खेल के चल जो, हम साँझ तक चरइने चल अइबौ । मुदा रोज आवें । बचपन के नगौटिया ! तों आ जाहें तऽ हमरो मन लग जाहे । एइसे मनुआयल रहऽ ही । सीतिया बेस कह के चल गेल । से दिन से सबेरे गैया जौर करइ ले जाय लगलइ । एक घंटा के करीब रहइ ।) (आपीप॰77.11, 14)
422 जौराती (बेटा कहलकइ - कहिया ओकरा सजाय देथिन कि नञ देथिन ? तों देखवें कि नञ देखवें ? भगवानो अमीरे के पच्छ में रहऽ हथिन ! हमरा गरीब ले कोय नञ ! ओते गाँव में आदमी हइ ! एकाध गो तोर साथी जौराती भेलो ? पंच खोजल्हीं, मिललो ? जे मिललो, मुँहदेखवा ।) (आपीप॰29.1)
423 जौरे (= साथ में; एक साथ) (जे उज्जर बगुला के पाँखि नियर कपड़ा पिन्हऽ हइ, खस साबुन लगावऽ हइ, चप्पल से नीचे नञ उतरऽ हइ, मुँह में पौडर लगावऽ हइ, कान में अतर के फाहा खोंसऽ हइ, से कइसे ओकरा जौरे सुततइ ? हरजोतवा जौरे !) (आपीप॰90.1)
424 जौरे (= साथ में; एक साथ) (हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ? जे उज्जर बगुला के पाँखि नियर कपड़ा पिन्हऽ हइ, खस साबुन लगावऽ हइ, चप्पल से नीचे नञ उतरऽ हइ, मुँह में पौडर लगावऽ हइ, कान में अतर के फाहा खोंसऽ हइ, से कइसे ओकरा जौरे सुततइ ? हरजोतवा जौरे !) (आपीप॰89.24; 90.1)
425 झमटगर (= झमठगर) (भीतर दरवाजा के दोनो तरफ नारियल के गाछ, बाहर पीपर के, अँगना नीक को गोबर माटी से नीपल, चिक्कन छह-छह, घर के इसान कोना में खूब सुन्नर कुँइया, ओकरा पर उभैन लगल बालटी, बगल में तुलसी चौरा, महावीर जी के धजा गड़ल, चन्नन के झमटगर गाछ, घन छाहुर ।) (आपीप॰7.19)
426 झमाना (हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? ... कुछ रहे कि नञ, हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ?; परसू मिललइ । ओकर गोर सुनहला चमड़ी झमायल तामा के रंग के हो गेलइ हल ! मुदा भीतर से पनकोरवा टहक लेने, चमकदार हलइ । पूछलियै - सुनलियौ नदी में बालो ढोवइ ले जाहें ?) (आपीप॰89.23; 95.18)
427 झमोरना (मोहना सुर ताल-राग बदलै ले मन में कुछ गीत गुनगुनावो लगलइ ! इहे बीच छोऊँड़ी के मन में कुछ सरारत सूझलइ । मचना के खंभा पकड़ि को खूब झमोर के तेजी से भाग गेलइ, अन्हार कुप्प बँसविट्टी में !) (आपीप॰82.23)
428 झवरल (पीयर-पीयर चमकदार जैसे सोना के पाँखि होय । मथवा पर ललका गुलाब के फूल नियर, पुछिया झवरल उज्जर चौर नियर । देखइ के चाही, देखइ जुकुर हे, बकि के जा हइ एते ठंढा में बँसविट्टी ...।) (आपीप॰82.8)
429 झाँझी (~कुतिया) (कनियाय जब सवारी चढ़ली - मने मन छगुनैत गेली । कने से कनकट्टी बुढ़िया, झाँझी कुतिया माइयो ! बचलइ हल जतरा भगन करइ ले । हमरा पर तो जर-जिद से पड़ल हइ माइयो !) (आपीप॰99.10)
430 झार (= झाड़) (ऊ कहलकइ - बेटा के कि ? झारो मुत्ते पातो मुत्ते ! बेटिया तोर बहकल हो तब कोय जा सकऽ हइ । तोरा तोर काम में के मना करतो ! दिन के चाह, रात को बजार खोलि देल्हो तऽ कोय जा सकऽ हइ ।) (आपीप॰109.20)
431 झिगुली (= झिंगली, झिंगनी, झिंगुनी; झिंगा का ऊनार्थक) (बगैचा में आम ! कच्चा से पाकल तक । जते खा । अँचार बनावो । बैना बुलावो । जे जी में आवो करो । बरसात में सबरे लेने अइतन खीरा-परोर-झिगुली-भिण्डी-मकइ के भुट्टा !) (आपीप॰91.18)
432 झिट्टी (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.7)
433 झुँझुआना (अग्गे माय ! कत्ते मीठ ! उट्ठ गे मैया ! मन करऽ हौ ओजै चलल जाय ! सोहगी कहलकइ ! मैया एक बेरी झुँझुआ उठलइ । मर्र दुर्र, ने जाय ... कठ-कुकरी ! तोरा कि लऽ हौ ? सुतें ने । अभी कइसन जाड़ा हइ ! नै अपने सुततौ, नै सुते देतौ दोसरा के !) (आपीप॰81.4)
434 झुट्ठा (= झूठा) (हम तो जीत में हलूँ । मुदा हमर बाप के ई अच्छा नञ लगल । ओकरा भंगलाहा के चाहतिये हल खुशी-खुशी ओकरा से बियाह दै के । से नञ करके उलटे झुट्ठा केस में फँसा के हमरा जेल पहुँचा देलक ।) (आपीप॰44.7)
435 झुलुआ (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ ।; दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।; सौखवा पूछलकइ - बड़ा दिन पर सीतो ? आव, तनी झुलुआ झुला दे । बर के भरहोरी बान्ह के झुलुआ बनैलक । सीतिया खूब झुलैलक । जब मन भर गेलइ तब कहलकइ कबड्डी खेल । दुओ कबड्डी खेललकइ ! सितिया हलइ तो बलगर मुदा औरत ! आर ई पहलवान ! सात पल्ला चढ़ा देलकइ ।) (आपीप॰74.4; 77.3)
436 टँगरी (दोसरा नम्बर में देखल जाय ! डाकदर-इनजीयर-ओभरसीयर नौकरी लगल वाला ! बिना नौकरी वाला तो कत्ते मारल बुलऽ हइ ! बिना नौकरी वाला बतौर मजूर समझो । उहो कै गो बतायल गेल - मुदा टँगरी नञ ठहरल । तेसर नम्बर पर आयल ! बैंक करमचारी, मास्टर-किरानी आदि ! चौठा नम्बर पर सिपाही ! पचमा में किसान लड़का खोजल गेल !) (आपीप॰87.16)
437 टगना (उ अप्पन अँचरा छोड़ावैत कहलकइ - छोड़, हम जाही ! ... ऐंसइ पीको रात भर गिरल रहें ! हम जा ही खा को सूतइ ले ! ई थोड़े दे बाद उठलइ - टग्गल-टग्गल घर गेलइ ! खाना खा के, चिकुलिया के साथे सट के सुत्त रहलइ ।) (आपीप॰35.13)
438 टनाक-टनाक (~ बजना) (भैंस के नेठो नियर घुरल सींघ के तो बाते छोड़ो ! दू दिन पहिले से किसान तेज छुरी से ओकर मरल चत्ता छिल के चमका दिये । बिहान दुहबिनी ओकरा में सिन्नुर तेल भोगार दिये ! ऐसन भोगारे कि कहल नञ जाय । गारा में पीतर के सिकड़ी, चमाचम पानी चढ़ायल सोना के मात करे ! गारा में जोठ, जोठ में घंटी, केकरे घंटिये नञ, घण्टा कहो, टनाक-टनाक बाजे ।) (आपीप॰75.2)
439 टप-टप (मोहना के आँख में आँसू आ गेलइ । टप-टप चूअऽ लगलइ । चाचा के गोड़ पर गिर पड़लइ ! माँफ करहो काका ! अब बँसिया नञ बजइवइ । अऽ माटी उरेहि को बनायल बँसिया मचान के खंभा पर बजाड़ देलकइ । ऊ चुन्नी-चुन्नी हो गेलइ ।; खेत में दू-चार गाछ रोपलकइ मुदा ओढ़निया हरदम सँसर जाय ! माथा पर से ओकरे सम्हाड़ै में पाँच गाछ के हरजा । मइया कहलकइ - मर्रर्र ! दुर्र हो !! दिन भर तों दोपट्टे सम्हाड़ै में रहमें तब रोपमें कहिया ? छउँड़ी ओढ़निया के मुरेठा बान्हि लेलकइ - देह के उभार ! कसकल ! कसल देखैत बनइ ... ! मनोज बाबू देख के नेहाल हो गेलखिन । ऊ टप-टप टमाटर रोपैत रहलइ ।) (आपीप॰85.1; 105.20)
440 टाट-पलंग (पाँच हजार घूस में बात भेलो ! बाबू के कहलियो ! ऊ सूद पर रूपइया लाको देलखिन ! हम दे अइलियै बहाल करइ वाला अपीसर के । ओकरो कइ एक साल हो गेलो ! जब जा हियो, हाँ हाँ ! अब हो जायगा । घुर आवऽ हियो । उहे रूपइया हमरा ले काल हो गेलो । बाबू कहऽ हथुन - ऊ रूपइया तों रंडी के दे अइलें । चानी के जूता केकरा नञ नमा दियै ! एक हाथ रूपइया दोसर हाथ काम । या तो तों नञ देल्हीं, या रूपइया खेतारी कइलें । आखिर एक दिन कुरोधि गेलखुन । कहलखुन - हमर रूपइया ला को दा, या दुओ जीव अलग खा । लटपट बतिया मोहि न सुहाय, टाट पलंग लेहो माथा चढ़ाय ।) (आपीप॰96.16)
441 टिकस (= टिकट) (जेलर चैन के साँस लेके सिपाही से कहलक - सारी माथा के जपाल भागल । ऊ समय हम सब से गलती भेल । बच्चा जो नञ होवो देने । तब फेर कि हल ... । जेलर साहब उ सिपाही के भी ओकरा साथ लगा देलका - इ कह के कि ई सारी कहैं लौट नञ जाय ! जो एकरा टिकस कटा के गाड़ी पर चढ़ा के लौटिहें ।) (आपीप॰46.12)
442 टिक्का (= टीका) (चौठा कहलकइ - अरे, झिंगना के बेटवा दही परसै ? ... खड़े-खड़े लागइ जइसे पतला पर चिल्ह छेर देलक हे । टिक्का करइ भर ! फेर लैलकइ लड्डू ! कहइ आर भागल जाय ! लड्डू-लड्डू-लड्डू .... ।) (आपीप॰71.16)
443 टिटहीं (= टिटहरा, टिट्टिभ) (एकर इलाज पाँच मिनट में हमरा हाथ में हइ । बकि तों सही रहें तब ने ? - तोरा मुरूख के तो हम जानऽ हियै । खून करि देभीं ? तों रहवें जेल में, हम मैया-बेटिया टिटहीं नियर टेंटियावैत रहि जवौ !) (आपीप॰109.3)
444 टिप्पा (कहवै कि ? कत्ते लगतइ ? हजार-दू हजार । तब निकलवो तो करतइ - बीस हजार । रहे दू हजार कम्मे छौड़ा पूत के । धन्नू चा 'बेस' कहि को सबेरे चलि देलका बलौक ! अगरीकलचर लोन लै ले ! फारम लेलका - पाँच रूपइया । ओकरा भरवैलका महेश से । एगो टिप्पा लेको कहलकन कि जाको अपने से हाँथे हाँथ हाकिम के दे दहो !) (आपीप॰114.4)
445 टिल्हा (आझ सोहगी के नञ मानल गेलइ, मैया के बिना कुछ कहने चल देलकइ ओन्नै जने से ऊ बँसुरिया के आवाज आवऽ हलइ । फेर टिल्हा पर पहुँचलइ । देह वैइसैं सिल्ल हो गेलइ । एक मन कैलकइ घुर जाय बकि बँसुरिया के बोल आर टेस हो गेलइ ।) (आपीप॰82.11)
446 टिल्हा-टाँकर (सावन में जनमलें, भादो में देखले बाढ़, तऽ कहलें कत्ते पानी ! इ बाढ़ नञ, बाढ़ के पुच्छी हे । सन बीस वाला बाढ़ में टिल्हा-टाँकर सब डूब गेल हल ।) (आपीप॰1.13)
447 टिहुकना (= टुभकना) (दुलो चा गरजि को बोलो लगलखिन - यह ! यह ! चूड़ा के गवाही दही ! हरिण के जामनी सूअर ! ... एतना कहैत फेर टिहुकलखिन - अरे ! मरूअन कानइ आन बहाने । दै धुइयाँ के दोस न रे !) (आपीप॰95.1)
448 टीवेल (= म॰ टिब्बुल; इं॰ ट्यूब-वेल) (किसान लड़का के खोज होवो लगल ! संजोग से मिल गेल । बीस बीघा हिस्सा, दुआर पर टरेक्टर मैसी - फारगूसन । घर दोबारा पक्का पोस्त ! बाहर भीतर पलिस्तर ! ऐंगना भी पलिस्तर । कहैं माटी के दरेस नञ । ऐंगना में चाँपाकल, पैखाना, घर में टी॰भी॰ रेडियो कि नञ जे सब सामान होवऽ हइ । खेत में नहर-टीवेल । सालो भर सब तरह के फसील !) (आपीप॰89.2)
449 टीशन (= स्टेशन) (माया के गरमी छुट्टी बीत गेल । कौलेज खुल गेलइ । फेर उहे लड़का एकरा ले जाय ले अइलै । सारा सामान, किताब, कपड़ा-लत्ता आदि लाद के टीशन गेल । गाड़ी पकड़इ ले । पटना पढ़इ के नाम पर !) (आपीप॰92.23)
450 टुक (पाँच ~ पोसाक) (जब पूर्ण पिण्ड दान हो गेल तब पंडित जी हुकुम देलका - अब सँढ़दग्गी होवो दा । बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल ।) (आपीप॰69.9)
451 टुकुर-टुकुर (बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें । ऊ सुनि को ठक्क हो गेलइ । टुकुर-टुकुर हमरा ताकऽ लगलइ । अँखिया के लोर अँखिया में पीको बोललइ - कवि जी ! तहूँ ऐसन बोलऽ हो ! दोसर कहते हल तब कोय बात नञ ! मुदा तोरा नियर के भी इहे मन में समचरलो ! हद्द हो गेल !) (आपीप॰96.5)
452 टुटी-फासटिक (इ तरह से बोल के पाँच बेरी धूप दे के, कर जोर के अप्पन रोजी-रोजगार में विरधी ले मनौती मांगलका - मशानी बाबा ! मुरदा भेजो । ई तरह से सुक्खा रखभो तब हमर कि होतइ ? पाँच गो परानी मरिये ने जइवइ ? अऽ मुरदा कोय टुटी-फासटिक वाला नञ भेजिहो । भेजहो धन बुबुक वाला, जे माल-पत्तर दै ।) (आपीप॰31.6)
453 टेंगरा (सब ठीक हो जइतौ ! मुदा दवाय के गोली भीतर जा नञ सकल ... । गियारी में टेंगरा सन अटक गेल । अचके फुलवा के आँख चमक के फैल गेल । इ देख के जिछना के अँखिये नञ देहियो पथला गेल ।) (आपीप॰5.14)
454 टेंटियाना (= टेटियाना) (एकर इलाज पाँच मिनट में हमरा हाथ में हइ । बकि तों सही रहें तब ने ? - तोरा मुरूख के तो हम जानऽ हियै । खून करि देभीं ? तों रहवें जेल में, हम मैया-बेटिया टिटहीं नियर टेंटियावैत रहि जवौ !) (आपीप॰109.3)
455 टेटियाना (टमाटर साव रात के पति-पत्नी आपस में बात करथ । पत्नी कहलकन - अजी ! इ जे कुछ कहऽ हइ से तो साँच । मुदा सब जगह तो उहे हइ । जल में रह के मगर से बैर ! ऐसन करि को बाल-बच्चा तो जेले में रहतइ । गलत जगह आको फँस गेल्हो ! चलो चुपचाप निकल को, एकरा टेटियावो दहो ।) (आपीप॰27.20)
456 टेबना (= टटोलना, परखना, जाँचना, चुनना) (तोरा टीवेल भिजुन खेत हइयै हो । ओजौका दू बीघा खेत टेबि को जेकरा जिमा नया माल हइ, ओकरा बटैया दे देहो । कड़ैती नञ, कसरैती नञ, कंजूसी नञ, हिसाब-किताब नञ । दुलार करहीं, पोछैत-पाछैत मुँह खाय, आँखि लजाय ! राजी हो जइतइ । जब तक नया हइ, रहतइ, पुरान होतइ, घर जायत । आर कि ?; कुछ दिन बाद ऊ टेबि को अइलइ, खूब सोचि विचारि को ! अपन जाति के मोहल्ला में जाको सड़क किनारे । चौराहा पर फर्द में टाट के झोपड़ी देको चाह के दोकान देलकइ ! छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ ।) (आपीप॰104.15; 108.2)
457 टेम (= टैम; टाइम) (गाड़ी जब टीशन में लगइ कि तीनो जोर-जोर से कानो लगे ! कफन के नाम पर जेकरा जे बनइ से दे दै ! दू-चारि-पाँच-दस-बीस ! एगारह बजे तक रखलकइ, जब गाड़ी के टेम खतम हो गेलइ !) (आपीप॰33.24)
458 टेरेनिंग (= टरेनिंग; ट्रेनिग) (पत्नी कहलकन - छौंड़ा-छौंड़ी से पूछलहो, कि कहऽ हइ ! रात जब सुत जइतइ सब, तब चुपचाप उठ के चल देब ! छौड़ा-छौड़ी से पूछलकइ । उ कहलक - बाबूजी ! टेरेनिंगवा तो पूरा होवो दहो, तब जइवइ !) (आपीप॰27.25)
459 टोनगर (नरेश बाबू सब सुन के कहलखिन - नौकरी वाला दुल्हा के गलबात छोड़ो ! कोय सम्पन्न किसान के करो । तोहर जे औकाद हो ओकरा से किसाने फीट बैठतो । सोचहो ने तनी, किसान के कि के कमी हइ । खाय के हर चीज तो किसाने के पास हइ । दूध, फल, तरकारी, सब तरह के अनाज । आर पैसो । तनी टोनगर देख के दस बीघा वाला के सम्पन्न हिया के कर ला ।) (आपीप॰88.20)
460 टोना-टाना (बहिन, हम तो सिरिफ पानी पियइ ले अइलूँ हल । ऊ कहलक - तऽ पानी पी के चुपचाप चल देतें हल । ई सब करइ ले के कहलको ? अऽ कइल्हीं तऽ एकर दाम दहीं, जल्दी कर । हमरा जिमा में जे कुछ हल निकाल के दे देलूँ । ऊ टो-टा के सगरो देख लेलक, कहलक - जो चुपचाप ।; ऊ गोलिया तो नञ मिललइ मुदा अनाज में दै वाला पाऊडरवा के पलास्टिक वाला झोरिया मिल गेलइ । ओकरा टो-टा के देखलकइ - कोना-पुच्छी में तनी मनी में लागल मिललइ । ओकरे धो-धा के गिलास में ढार के पी लेलकइ आव सुत रहलइ, कहके - ला भगवान सुतऽ हियो । ऐसन नीन दिहा कि कभी नै उठी ।) (आपीप॰10.1; 15.19)
461 टौन (= टोन) (~ मारना = व्यंग्य अथवा उपहास करना) (एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ । दोसर रहइ त मन मनझान ! ऊ रहइ तऽ कि कहना ! हौले-हौले टौन मारऽ लगलखिन । नया उमर ! बात-बात पर हँसि जाय । हिनखर खुशी के कोय ठेकाना नञ । मुदा आर कुछ के साहस नञ ।) (आपीप॰106.5)
462 ठंढे-ठंढी (उ रसता कि बतैलक, हमर जन्नी के मन बढ़ा देलक । कहलक - जल्दी खा आर ठंढे-ठंढी चल जा ! हमरा कोय बहाना नञ रह गेल हल । खइलूँ अऽ भारी मन से दुखी चलइ घड़ी कहलूँ अपन मागु के - अहे ! कहावत हइ कि साल भर के रसता चली, मुदा महिना वाला नञ । हमरा ई सौटकट में खतरा मालूम दे हौ ।) (आपीप॰6.17)
463 ठकब (चाचा बैठला कुछ देर । देखइ होथि - उहे सब दरखास तो हिकइ ! ई भीतरे भीतर कुरोधि गेलखिन । कहलखिन - अहो बोलो ने, कत्ते घूस लेवा ? कुल के करब करऽ हो अऽ हमरा ठकब करै हा ।) (आपीप॰116.16)
464 ठकमुरकी (~ लगना) (नवीन जेल से बाहर आ गेल । असमिरती बहुत खुस हल । ओकरा लग रहल हल कि आझ हम सब कुछ पा गेलूँ । मानो जीवन के अलोधन । इ नवीन के चरण झुक के छुए ले चाहलक । नवीन पाँव पीछे हटा लेलक । एकरा खड़े ठकमुरकी लग गेल ।) (आपीप॰48.25)
465 ठक्क (बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें । ऊ सुनि को ठक्क हो गेलइ । टुकुर-टुकुर हमरा ताकऽ लगलइ । अँखिया के लोर अँखिया में पीको बोललइ - कवि जी ! तहूँ ऐसन बोलऽ हो ! दोसर कहते हल तब कोय बात नञ ! मुदा तोरा नियर के भी इहे मन में समचरलो ! हद्द हो गेल !) (आपीप॰96.5)
466 ठमा (= ठामा; जगह) (पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ? पपुआ माय तिरछी नजर से धन्नू चा के देखैत मुसकावैत मूड़ी नचा के कहलकइ - तऽब ! हमर बाप पाँच बरीस बरतुहारी कैलका । घर मिलल तब वर नञ, वर तब घर पसीन नञ ! दुओ आँख के सूरदास ! चौपठ ! यह मुरूख दमाद कोहबर में गोड़ लगैलका पहलमान जी ! कैसन पहलवान होथि, से हम जानऽ ही । बेटी भोगऽ हियन । ढेर बुधगर रहे से तीन ठमा माँखे ।) (आपीप॰113.16)
467 ठेहुना (= टेहुना) (नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर । ... घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ ! देवाल के बाहर-बाहर ठेहुना भर ऊँच असठी, देवाल लाल गेरू रंग के माटी से बढ़िया को नीपल, मुख दुआर पर माटी के बनल सिंघ, लागे जैसे सचकोलवा सिंघ ।) (आपीप॰7.13)
468 ठोंठा (~ दबा के मार देना) (कल्ह वला घटना, रोड जाम के सम्बन्ध में कहना हइ कि उ लहास राम सोगारथ के बहिन के नञ, हमर बहिन पुतुलिया के हइ । ऊ साँझ को दिशा-फरागत ले सड़क किनारे गेल, ओकरा गुण्डा सूना में उठा लेलकइ, बलात्कार भी कैलकइ, अऽ ठोंठा दबा के मार के गंगा जी में फेंक देलकइ ।) (आपीप॰38.19)
469 डंड-कुश्ती (जानऽ हीं, घर में बैठल रहला से देह में घुन्न लग जा हइ । रोज चरावइ ले आवें ! तनी देह में माटी लगायल करहीं, बल बनल रहतौ । डंड-कुश्ती मारहीं ।) (आपीप॰77.10)
470 डण्टा-पाटी (धन्नू चा ओकर कालर पकड़ि को चारि थाप मुँह में लगैलखिन । पूरा आपिस में हल्ला हो गेलइ ! सोचलखिन बड़ा मुसकिल ! मारवो नै कइलों अऽ पकड़ाइयो जाबँ । उठा को हाजी साहब के सरंग गोलो कुरसिया पर फेंकि देलखिन । मथवा फूटि गेलइ ! गोड़ा हाँथा में मोच आ गेलइ ! ई भागला गेटवे दने से दू सिपाही घेरलकइ डण्टा पाटी ।) (आपीप॰121.6)
471 डलेवर (= डलैवर; ड्राइवर) (ट्रेक्टर गंगा किनारे पहुँचा को रोक देलक । सारा सामान उतार को डलेवर नाव लगइ वाला घाट तक पहुँचा देलक ।) (आपीप॰99.15)
472 डाकदरनी (= डगडरनी; महिला डॉक्टर) (भैवा कहलकइ - चल मैया । बलात्कार के केस नामी होवऽ हइ । बड़ी कड़र । चारो के हम चिन्हऽ हियै । कर दियै केस । मैया कहलकइ नैं बेटा । ओकर कुछ नञ बिगाड़ि होतइ, बिगड़ जइतौ तोरे । गोजो । नान्हि वारि हइ, जाति-कुटुम के पूछतइ ? जो डाकदरनी यहाँ देखा दहीं । डाकदरनी इलाज कैलकइ । समरी ठीक हो गेलइ !) (आपीप॰108.14, 15)
473 डिल्ली (= दिल्ली) (धन्नू चा कुछ झेंपैत तनी चिढ़ावैत कहलखिन - सेह न कहऽ हियौ, तों तो जी से कुछ गनवे नञ करऽ हीं, तब कि । जे चरावे डिल्ली सेकरा तों चरावें घर के बिल्ली । - एह, तनी एक बाबू साहेब ई पटना डिल्ली में रहइ हथ जे जाने गीदर के नगड़ियो नञ, भाषण नम्भा-नम्भा !) (आपीप॰112.19, 20)
474 डिसको (~ हो जाना) (सूपन हामी भरैत कहलखिन - दोसर बात ई कि अब कोय एक डेग पैदल चलइ ले नञ चाहऽ हइ । तहियौका लोग मुरदा कान्हा पर ढोने दस-दस कोस, बीस-बीस कोस से गंगा घाट लावऽ हलइ ! से अब देखऽ हहीं, मुरदा गाड़ी पर ढोवावो लगलइ ! सड़क से कत्ते दूर पड़ि जा हइ । करीब तीन कोस ! के पैदल आवऽ हइ ? अब तहियौका लोग नियर नया लोग के समांग भी नञ रहलइ ! जमाना के साथ सब कुछ बदल गेलइ हो । खान-पान, रहन-सहन, चालि-चलन, हवा-पानी, रोशनी सब डिसको हो गेलइ ।) (आपीप॰32.12)
475 डेली (= डलिया) (जइसैं पाकड़ तर छाहुर में सथरा पर पहुँचलियै कि दुलो चा टेरो लगलथिन - तोरे कारनमा गे सुँरगा इटवा ढोवलियै, कि धइलों जोगिया के भेस जी । ... कहना शुरूह कैलखिन - कवि ? तोर बालाजीत । जानऽ हो कुछ ? वह-वह चिजौरवा के फेरा में बालू ढोवइ ले डेली पकड़ लेलको ।) (आपीप॰94.4)
476 डेलीढोवा (= डलिया या गाँजा ढोनेवाला) (बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें ।) (आपीप॰96.3)
477 डौट (= डाउट, doubt; शक, शंका) (माया हर बार गर्मी छुट्टी में गाँव आवऽ हल, मुदा ई बार जे घर आल ह सेकरा में कुछ विशेष बात हइ । हर बार अकेले आवऽ हल, ई बार लड़का साथी साथ अइलै हे यहाँ तक पहुँचावइ ले । मैया ! देखते माँतर छनक गेलइ ! ओकरा मन में डौट गेलइ ! कहौं अँचरा में तो दाग नञ लगैलकइ रे बाप ! एकन्त में बेटिया से पूछलकइ - ई के हिकइ गे ?) (आपीप॰86.4)
478 डौन (= डाउन, down) (दीपो अऽ वंसी ऊ टोला में केकरे वरपो देतइ ? जेकरा तनी मजगर देखलक, ओकरा कइसौं ने कइसौं डौन करि देतइ ! एकरा देखलकइ पचास हजार नगद ! देलकइ खर्च करवा ... उपर से पचास हजार करजा ! अब बेटा पछड़ैत रहो ।) (आपीप॰72.4)
479 ढब-ढब (~ लोर गिरना) (आयल फागुन । अनरुध आ गेला । घर में खैलका । हाथ पोंछने मित्र भिजुन गेला । दोनो दोस्त गले-गले मिलला । कुछ ऐनौक-औनौक, कुछ देश-देशान्तर के खिस्सा । कुछ हाल-चाल । फेर मनोज अप्पन दुख के पुरान उलटे लगला । पुरान उलटते आँखि से ढब-ढब लोर गिरो लगल !) (आपीप॰103.14)
480 ढल्ल (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰91.9)
481 ढिल्ली (कनियाय जे दिन से गेली, एक मिलिट के फुर्सत नञ । चार भाय के एक बहिन दुलारू ! बाबाधाम के माँगल ! साँझे से घर-घर जाको आय-माय के बोलाना । अऽ अधरात तक चिकरि चिकरि को गीत गाना, नाँचना । उमाह के कि कहना । देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली ।) (आपीप॰100.17)
482 ढील्ला (= सिर के केश में होनेवाला जूँ) (दुपहरिया खा-पी के तैयार भेलइ । मइया बोलैलकइ - पुष्पी ? आवें तो, देखहीं मथवा में कि तो काटऽ हइ ! - ढील्ला होतौ आर की ? -आवें ने, हेर दहीं । पुष्पी मइया के पीठ दने बैठ के ढील्ला हेरो लगलइ ।) (आपीप॰16.14, 16)
483 ढेंऊँसा (~ बेंग) (पंच लोग के बात सुन के बुधना के मन ढेंऊँसा बेंग ऐसन फूल गेल । पहाड़ी नदी जइसन उफनल जाय । एक बेरी तरे से बबकि को बोललइ - जब तोर कुले महान आदमी के आर बंस-खूट के इहे हिन्छा हो, तऽ होवो दा नगर भोजे सही ।) (आपीप॰66.16)
484 तनी-मनी (ऊ गोलिया तो नञ मिललइ मुदा अनाज में दै वाला पाऊडरवा के पलास्टिक वाला झोरिया मिल गेलइ । ओकरा टो-टा के देखलकइ - कोना-पुच्छी में तनी मनी में लागल मिललइ । ओकरे धो-धा के गिलास में ढार के पी लेलकइ आव सुत रहलइ, कहके - ला भगवान सुतऽ हियो । ऐसन नीन दिहा कि कभी नै उठी ।; ऊ बोतल पीलकइ, हमरो कहलकइ - चाखभीं ? हम कहलियै नै भाय ! ... ऊ कहलकइ - हमरा तनी मनी आदत हौ !; उ पुरान प्रथा हम तनी-मनी देखलों हँ जब हम दस-बारह बरस के हलौं !) (आपीप॰15.19; 17.5; 75.7)
485 तने (= तन्ने; उधर) (जने ... तने) (जने हियावऽ तने पानिये पानी लखा हे । दूर-दूर तक फइलल पानी समुन्दर के लेखा ! गाँव जइसे समुद्दर में जहाज लंगर डाल देलक हे, इ परलय में के साबूत बचल ? हमरा जानिस्ते तो कोय नञ ।) (आपीप॰1.17)
486 तरे-तर (बुधना के लगलइ जैसे कोय करेजा में बरछी चुभा देलक । जैसे आकाश से धरती पर एकाबैक गिर गेल । तरे-तर ऐंठि को रहि गेलइ ।) (आपीप॰71.7)
487 तवना (= गरम होना) (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल । बिहान फेर बोखार । जिछना पूछलकइ - खइम्हीं फूलो ? फुलवा लाल-लाल आँखि से ताक के गुम हो गेल । हाथ छू के बेटा के जिछना देखे हे तऽ ओकर होसे उड़ गेल । देह तवल खपरी लगे । कहलकइ डगदरवा पूछतौ तब ई नञ कहिहें कि मछली खइलों हें ।) (आपीप॰3.3)
488 तहिना (= उस दिन) (तहिने से जिछना ले सब बुतरू फुलवा बन गेल । उ पागल नियर जेकरा पकड़ऽ हइ सेकरा दबोचिये ले हइ । छाती से लगा ले हइ, चूम ले हइ । आव बुतरू-वानर ओकरा देख के चिघार पार के भाग जा हइ । भाग रेऽऽऽ, जिछनाऽऽऽ ... !) (आपीप॰5.16)
489 तहिया (= तहिना) (इसकुल चलावै ले सरकार से मिलना जरूरी हइ । तहिया ई साल में एगो सम्मेलन करावऽ हलइ । ओकरा में बड़का-बड़का नेता के लावऽ हलइ । यहाँ रासपति तक ऐलखिन ।; जुगो-जमाना अब कैसन हो गेलइ ? तहिया मागु रहऽ हल मरद के कहला में ! अब मरद हो गेलइ मागु, आव मागु हो गेलइ मरद । छउँड़ा के जतने पढ़ावऽ हइ ओतने पढ़ऽ हइ ।) (आपीप॰10.23; 98.21)
490 तहियौका (= तहिना वाला; उस समय का) (सूपन हामी भरैत कहलखिन - दोसर बात ई कि अब कोय एक डेग पैदल चलइ ले नञ चाहऽ हइ । तहियौका लोग मुरदा कान्हा पर ढोने दस-दस कोस, बीस-बीस कोस से गंगा घाट लावऽ हलइ ! से अब देखऽ हहीं, मुरदा गाड़ी पर ढोवावो लगलइ ! सड़क से कत्ते दूर पड़ि जा हइ । करीब तीन कोस ! के पैदल आवऽ हइ ? अब तहियौका लोग नियर नया लोग के समांग भी नञ रहलइ ! जमाना के साथ सब कुछ बदल गेलइ हो । खान-पान, रहन-सहन, चालि-चलन, हवा-पानी, रोशनी सब डिसको हो गेलइ ।; देखहीं हमरा बाबू कहऽ हथिन ! बेटा, अब गाय बराहमन के सत कलजुग में उठि गेलइ ! नै उ देवी, नै उ कराह, नै तहियौका बराहमन जिनका मुँह से आगि निकलै हल । नै उ गाय अमरित दै वाली, जे दूध देह के बज्जड़ बना दिये ।) (आपीप॰32.8, 10; 79.7)
491 ताके-धखोरे (नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर । … घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ ! देवाल के बाहर-बाहर ठेहुना भर ऊँच असठी, देवाल लाल गेरू रंग के माटी से बढ़िया को नीपल, मुख दुआर पर माटी के बनल सिंघ, लागे जैसे सचकोलवा सिंघ ।) (आपीप॰7.13)
492 तातल (= गरम) (चिकुलिया ई सब पहुँचा को जुट गेल खाना बनावइ में । एक छन सोचलक जल्दी में कि बनावल जाय । बस ! भूजिया रोटी । पहिले भूजिया बना देलकइ - आलू के खूब तेल-मसाला देके रव-रव तीत ! तातले तातले रोटी निकालने जइवे । खइतइ भी ! पीतइ भी ! खाना के खाना - चखना के चखना !) (आपीप॰35.3)
493 तिरैता (= त्रेता ?) (महेश कहलकइ चपरासी से - टेबुल पर दहीं दरखास । चपरासी बोललइ - अभी साहब का मूड नहीं है । आप जाइये । हम दे देंगे । - अब कि तों तिरैता में देवें ? नञ तब दे दरखास, हम अपने से देवइ ! - हम नहीं देंगे । बस, एतना कहना हलइ कि धन्नू चा हँथे ऐंठि को चढ़ा देलखिन ! ऊ खट सना दरखास निकालि को जेबिया से दे देलकइ !) (आपीप॰115.8)
494 तीत (= तिक्त, तीता, तीखा) (चिकुलिया ई सब पहुँचा को जुट गेल खाना बनावइ में । एक छन सोचलक जल्दी में कि बनावल जाय । बस ! भूजिया रोटी । पहिले भूजिया बना देलकइ - आलू के खूब तेल-मसाला देके रव-रव तीत ! तातले तातले रोटी निकालने जइवे । खइतइ भी ! पीतइ भी ! खाना के खाना - चखना के चखना !) (आपीप॰35.3)
495 तीरे-कोने (= तीरा-कोनी, तिरछी दिशा में, एक कोने से दूसरे कोने की ओर) (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।) (आपीप॰6.11)
496 तेरहा (भोज में शिकायत नञ होवो दै के बरत लेको ओजो से उठला । वहाँ से आको सब सलाहकार भंडारी के, परसैनिहार के, अऽ बिजै करैनिहार के टरेनिंग देको अप्पन-अप्पन काम निजगूत करि देलका । आखिर ! बरहा से तेरहा तक खतम हो गेल । भोरे उठि को बुधना गाँव में टहलो लगल । इहे समझइ ले कि कजो के कि कहइ हे ।; चलल जा हलइ । पंचू मिललइ । बुधना पुछलकइ - कि पंचू ? कैसन रहलइ ? खइला हा खूब ? पंचू कहलकइ - अच्छे हलइ नुनु । तनी बरहवा दिन अलुआ वाला तरकरिया लागइ काँचे रहि गेलइ हल । अऽ तेरहवा दिन दलिया शायत तनी लगि गेलइ हल, तनी जराइन लागइ ।) (आपीप॰70.12, 20)
497 तेलहण्डा (~ में जाना) (सिपाही तैश में बोलल - हम तोर बाप के नौकर जे जा के कहवौ । लड़की बोलल - नौकर नञ तब तों हमर मालिक ? जे कहियौ से कर, नञ तो तेलहण्डा में चल जइवें ।) (आपीप॰50.12)
498 तों (= तूँ) (एतना से हम खुद सन्तुष्ट नञ ही, तों कने से सन्तुष्ट भेल होवा ? ई विषय गंभीर आव बड़गो है । हमरा पास ओत्ते लिखइ ले ई किताब में जगह नञ है ।) (आपीप॰V.25)
499 तोरा बहिन के (करेजा थाम्ह के सुनहा, बात बढ़िया नञ हो ! पुष्पी के गोड़ भारी हो ! - आँय ! पुष्पी के ? कइसे ? कहाँ से ? - कहलियो ने ! ऊ जग्गा देखइ ले नञ गेलइ हल ? मोहना जौरे, ओकरे में रात हो गेलइ । कने कने ऊ, किदो रेस हाऊस होवऽ हइ ! ओकरे में सुतैलकइ आर बलात्कार कर लेलक । ... - तोरा बहिन के मोहना ... ! ई हिम्मत ... !) (आपीप॰18.13)
500 तोरा-मोरा (इ पूछलखिन - तोर पुरूखवा तो हइये ने हे ? - नञ बाबू । ऊ रहतो हल तब कि । कोल्ड अस्टोर में नौकरी करऽ हलखुन । जीता हलखुन तऽ घर से बाहर नञ होवइ दे हलखुन । रानी बनल हलियो । भगमान हरि लेलखुन, से बानी हो गेलियो ! तोरा-मोरा से लागि को गुजर करऽ हियो !) (आपीप॰105.1)
501 थम्हना (= ठहरना, डटे रहना) (आझ कहलकइ - सीतो ! बान्ह नगौटा ! तनी कुश्ती खेला दियौ । दुओ कुश्ती लड़ो लगलइ । सितिया बल तो करइ, मुदा सौखवा के साथ कि थम्हते हल ! तुरत चित्त करि को छतिया ठोकि दै ।) (आपीप॰78.3)
502 थरिया (= थारी, थाली) (उन्नैस हाथ लम्बा, दू हाथ चौड़ा, मारकिन के कपड़ा, गोबर से नीप जगह पर बिछा देल गेल हे । जेकरा पर लगल हे उन्नैस पात ! हर एक पात पर पीतर के एक थरिया, एक लोटा, एक गिलास, एक साड़ी, एक नम्बर कुर्त्ता ले कपड़ा । चावर-दाल, आलू-केला, सेव-नारंगी, पूड़ी-मिठाय ! मिठाय में लड्डू-जिलेबी-खाजा ! कपटी में रसगुल्ला ।) (आपीप॰68.16)
503 थान (कतना आदमी के खिलाना हइ पहिले ई तो ऐडिया मिल जाय । हर टोला के, महल्ला के, जाति के लोग अप्पन जनसंख्या बता देलखिन । फेर तो इसटिमिट बन गेल - दू थान ! लड्डू-जिलेबी, पूड़ी-तरकारी, आलू-परवल के रतोवा ! दही-चीनी रेड़म-रेड़ ! बस एकरा से जादा नञ !; चमरटोली गेलइ । अन्हरा मनसुखवा बोललइ - के हा ! बुधन बाबू ? - हों हों । कि बात हइ ? - या मीरा । दिनो के भूखल हलियो । अरमान कइलों हल । नगर भोज में सात थान मिठाय खाब । मनमनयले रहलों, खाब तो कि, सूँघइ ले भी नञ !) (आपीप॰67.16; 71.2)
504 थुथुर (दोस्त-मोहिम खास अगुआ जे बहुत मेहनत से तैयार कैलखिन हल, से कहलखिन - नञ जइभो तऽ लड़का उठि जइतो, हमर दोस नञ ! बरतुहार लगल हइ । ... बाज मत आबो फेर ऐसन संजोग मिलना मोसकिल ! बकि ई थुथुरवा साँप नियर जैसे के तैसे पटायले रह गेला ! तनिको उसुक-पुसुक नञ ।) (आपीप॰88.13)
505 थुर्री-थुर्री (गारी से ~ करना) (ई तरे तर कानला-खीजला से अच्छा कुछ कैल जाय । कि कैल जाय ? अगर हम अप्पन माय-बाप के कहऽ ही तब पहिली साँझ चाँप चढ़ा के मार देत । सकरी नदी के तेज धार में भँसा देत । बाद कि होतइ हमरा पता नञ । मरलो पर लोग गारी से थुर्री-थुर्री कर देत । एकरा से अच्छा जेकर हिकइ सेकरे कहल जाय ।) (आपीप॰12.25)
506 दनी (बक ~) (सोहगी अपना के ओकर पंजा से मुक्त हो को भागइ के कोरसिस कैलकइ । बकि मरद के पंजा में कसमसाल जवानी भरल-पूरल छटपटाइत ... औरत के उहे मरद छोड़ सकऽ हे जे नामरद होतइ ! नञ छोड़लकइ ! एतने में बुन्देला चा ओने से जुम गेलखिन ! कहलखिन - इहे पढ़ाइ एजो चलऽ हे हो ! रसलीला । छउँड़ा बक दनी छोड़ देलकइ । छोउँड़ी काठ हो गेलइ । जइसैं के तइसैं ! नै हिलइ नै डोलइ ! मुड़िया गोतने जस के तस !) (आपीप॰84.16)
507 दने (जिछना जब कटोरा में मछली के गुड़िया अऽ मड़गोद भात चापुट पार पार के खाय लगल तऽ फुलवा के कनमटकी वाला मूँदल आँख फट सियाँ खुल गेल । कौर चिबावइत फुलवा जिछना दने हियावे हे, तऽ देखे हे कि गुजुर-गुजुर दूगो आँख कटोरा दने ताक रहल हे । जब कौर उठावे तऽ ओकरा लगे कि हर कौर में फुलवा के आँख हे । नञ रहल गेलइ । आँख में पाँख ओकरा वंस में इहे, एकरा ले ऊ कि नञ कर सके हे ।) (आपीप॰2.14)
508 दपदप (लाल ~) (देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर । ओकरा से कुछ दूर में बढ़िया नसल के एक बाछा बान्हल हइ, साँढ़ दागै ले । ओकरा दागै ले गोयठा के आग में सड़सी धिप रहल हे । खूब लाल दपदप सड़सी धिपल हइ । कटहर के पत्ता पर उन्नैस पिण्ड पड़य के चाही । पिण्ड दान के काम सबेरे से हो रहल हे । अन्त में सँढ़दग्गी होत ।) (आपीप॰69.5)
509 दमदमाना (बेटा, ऐसन रंग चढ़ावो कि जुग-जुग नै मेटावे, ऐसन सुगंध बसावो कि पुश्त-दर-पुश्त दम दमावैत रहे । होवो दा मूँगवा लड्डू, घतींगवा भोज । दा एक दिन समूचा गाँव के चुल्हिया लेवार करि । गाँव भर के गनी-गरीब-अमीर सब के मुँह मीठा करि दा, जे सब मिल के परानी के असीरवाद दिये, स्वर्ग में परानी के सुख मिले ।) (आपीप॰66.13)
510 दमाद (= दामाद) (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !; किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ... तों चाहे हम ओकरा यहाँ जइभीं बेटी के देखइ ले तब जल्दी आबइ ले नञ देतौ - काहे ? तऽ तों जतना खइभीं ओतना ओकर धोइना में फेंका जा हइ ! ... शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... ऊ शहरी एक सो ग्राम चावर खैतौ । तों देहाती, जइभीं, दुइयो के बदली एसकरे भकोसि जैभीं ! दमदा कहतौ बेटिया से ई डोलइ के नाम नय लऽ हइ ।) (आपीप॰90.18; 91.24; 92.2)
511 दमामा (दस के मुँह ~) (एक बेटा एक बेटी हो ! कत्ते लोग कहलको, दोसर बियाह नञ कैलियो ! सोचलूँ जे हइ से बहुत ! काहे ले देह के नतीजा करावों ! एकरे से अब चोला उद्धार हो जाय । इहे बचे-जीये । असीरवाद दहो बाबू । दस के मुँह दमामा ।) (आपीप॰105.4)
512 दरखास (= दरख्वास्त; अर्जी) (सूपन खा को टेम्पो पकड़लका अऽ झट पहुँच गेला कचहरी ! कचहरी जा के दरखास लिखलक ।; इ दरखास पढ़ के कलेट्टर के दिमाग चकरा गेलइ । पढ़ के अपने आप बोललइ - अच्छा, ई बात ?; जैसइ हाकिम से मिलै ले दुअरिया पर गेलखिन कि चपरसिया रोकि लेलकन । ए ! पहलवान जी, क्या है ? लाइये हम दे देंगे । अभी साहेब काम में है । -'करजा के दरखास !' धन्नू चा कहलखिन । चपरासी दरखास लेको अप्पन जेबी में रखि को कहलकन - जाइये ! अब आप निचीत से बैठिये । काम हो जायगा । ई निचीत हो गेला । महेश बहुत देरी बाद अप्पन काम निपटा के अइलन । पूछलकन - देल्हो दरखास ?) (आपीप॰38.13; 39.2; 114.11, 12, 15)
513 दरजीनी (अभियों कि नञ हइ ओकरा ! चार बीघा जमीन हिस्सा ! अपने भी बी॰ए॰ पास, मागू भी पढ़ल ! गाँव भर के नुग्गा सीये ! दरजीनी बीबी ! अब कि चाही ?) (आपीप॰94.24)
514 दरद-फरद (भैंस के दूध खाहीं, तो देखहीं करामत ! गाय के दूध खाहीं, से सती ऐसन होवऽ हौ । ले साँझ से हम एक लोटा को फेनाइले दूध भैंसि वाला पहुँचा देबौ ! तों बदली में हमरा गैया वाला दे दिहें । दस दिन खा को देखहीं, कहाँ दरद कहाँ फरद ! कुल खतम ।) (आपीप॰79.12)
515 दरमाहा (जनता के गाढ़ी कमाय के रुपैया एकरा दरमाहा में जा रहलइ हे । अऽ दरमाहा तनी मनी नञ, दस हजार, बीस हजार । तइयो इ घूस ले बेकल हइ ।) (आपीप॰25.16)
516 दरेस (= दृश्य) (किसान लड़का के खोज होवो लगल ! संजोग से मिल गेल । बीस बीघा हिस्सा, दुआर पर टरेक्टर मैसी - फारगूसन । घर दोबारा पक्का पोस्त ! बाहर भीतर पलिस्तर ! ऐंगना भी पलिस्तर । कहैं माटी के दरेस नञ । ऐंगना में चाँपाकल, पैखाना, घर में टी॰भी॰ रेडियो कि नञ जे सब सामान होवऽ हइ । खेत में नहर-टीवेल । सालो भर सब तरह के फसील !) (आपीप॰88.24)
517 दरोगइ (पाठक के बात छोड़ दा तऽ हमरा खुद अचरज भेल: दरोगइ करइ वाला कठोर करमी, अन्दर से एतना कोमल ! साहित परेमी ! भला, एकरा से बड़गर अचरज की हो सके है ?) (आपीप॰III.9)
518 दलिद्री (= दारिद्र्य, गरीबी) (मइया कहलकइ - जे बोले ! कहवइ जरूर । रात फेर एकान्त में बैठा को समझावो लगलइ दुइयो के । देखहीं ! नुनु, उ धनगर अदमी हइ । बैर-बियाह जोड़ी से । तोरा धूर-धुरकी कुछ नञ हौ, ओकरा सब कुछ हइ ! एक दलिद्री छोड़ि को ! पाँच भाय ! एक डाक्टर, एक इन्जियर, एक मास्टर, एक ठीकेदार, पंचमा खेतिहर ! खेत चालीस बीघा ! चल ओकरे गोड़ में लटकि जइबइ ! कहवइ वसा दे ! तोरे हिकियौ ।) (आपीप॰28.10)
519 दवाय (= दवा, दवाई) (दवाय से जादे संजम करावल गेल ! खैर फुलवा कुछ दिन में निम्मन हो गेल । डाकदर कहलकइ - खबरदार ! एकरा मछली नञ खिलइहें । नञ तब जानो तों ! हम्मर दोस नञ ।; इलाज शुरूह भेल । उहे लाल-पीयर गोली, उहे पानी रंग-बिरंगा । सरकारी दवाय के कहना की ? सही रहे तऽ लोग प्रायविट में काहे देखावे ।; ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !; मान लेलियो हम अप्पन फीस छोड़ देलियो । मुदा दवाय के पैसा तो लगतौ ।; जिछना बोलल - हे जरी कड़ा-कड़ा दवाय दहो । अनिल बाबू चिट्ठा लिख के चल गेलखिन समदैत, दवाय पटना में मिलतौ । अब रुपइया कहाँ से आवे । दवाय तो कड़ा-कड़ा लिखा गेल, हाथ में चित्ती कौड़ी नञ ।) (आपीप॰2.7; 3.11, 24; 4.12, 14, 15, 16)
520 दसखत (= दस्तखत, सही) (इनरदेव बाबू बिना कुछ कहने सुनने दरखास में औडर सीट लगा के दसखत जे करइ के हलइ करिको जिमा लगा देलखिन ।; आँय हो, ऊ कत्ते लेतइ ? धन्नू चा पूछलखिन । महेश कहलकइ - अच्छे, इहो बात पूछि लेल्हो । ओकर बान्हल हइ - बह बजार तीन हजार ! तब जाफरी साहेब ! अच्छे आदमी हइ । तीन हजार एक मुश्त ले लेला के बाद, तोरा दौड़इ धूपइ के कोय काम नञ । सारा काम ऊ करा को रखतो । जे डेट देतो, से पर जइभो, दसखत करबइतो, रूपइया तोहरा देतो । मगर अप्पन घूस पहिले ले लेतो !) (आपीप॰117.13; 118.2)
521 दही-चूड़ा (धन्नू चा सबेरे घर से दही-चूड़ा खा को, जतरा बनैने सबसे पहिले आपिस में दम दाखिल । जइते इनरदेव बाबू के सलाम ठोकलखिन ! पूछलखिन - हमर दरखास अइलइ इनरदेव बाबू ?) (आपीप॰115.19)
522 दाँती-झाँक (चुल्हा ढंढा रहऽ लगलो ! कनै से कुछ लइयो ताकल तौलल ! हमर औरत हमरे बना को खिला दिये अपने भूखले सुत रहे । ई भेद तब खुललो जब एक दिन ऊ खड़े चित्त गिर गेलो । दाँती-झाँक छोड़इलियो । पूछलियै तब ऊ सारा भेद खोललको ।) (आपीप॰96.24)
523 दारूबाज (बिहान भेलइ । सूपन फेर उहे तरह से गंगा नहा के सब देवी देवता के पूजा करके वरदान माँग के घर अइला । चिकुलिया सूपन पर बिगड़लइ - अभी ई एजइ अघस-मघस करब करऽ हइ । दुर ने जाय । ई दारूबजवा, ई कुच्छो नञ करतइ ।) (आपीप॰38.7)
524 दिशा-फरागत (= दिसा-मैदान; शौच) (कल्ह वला घटना, रोड जाम के सम्बन्ध में कहना हइ कि उ लहास राम सोगारथ के बहिन के नञ, हमर बहिन पुतुलिया के हइ । ऊ साँझ को दिशा-फरागत ले सड़क किनारे गेल, ओकरा गुण्डा सूना में उठा लेलकइ, बलात्कार भी कैलकइ, अऽ ठोंठा दबा के मार के गंगा जी में फेंक देलकइ ।) (आपीप॰38.18)
525 दुआर (= द्वार) (पेट काट के कौलेज के फीस दा । अपने फटल पिन्ही, बाबू साहेब के इजार पिन्हावो, उपर से सेन्ट-साबुन-सरफ, कागज-किताब-कलम ! अऽ पकिट खरचा ! तोरा कहलियौ घर पर रह के पढ़ाइ करो । तऽ कहलें कि नञ चाचा, ओजो टमटरो अगोरवो अऽ एकान्त में पढ़वो करवइ ! देख लेलियो पढ़ाय ! अऽ तों गे छोउँड़ी ? कहाँ दुआर कहाँ घर ! तोर पित्त में कत्ते गरमी हौ जे राते-रात यहाँ तक चल अइलें ?) (आपीप॰84.23)
526 दुग्गी-तिग्गी (किरानी कुरोधि को ई कहैत कि हम बहुत देखा है पैसा वाला आप जैसे दुग्गी-तिग्गी को ! लीजिये अपना दरखास कहि के फेंकि देलकइ । आर अगल-बगल भी कुले हिनखरे दुरदुरावो लगलन ! महराज बोलने का लूर नहीं है ! आखिर इनका इज्जत है कि नहीं, आप चोर कहियेगा तब कैसे काम होगा ।) (आपीप॰116.17-18)
527 दुदिसठिर (= युधिष्ठिर) (चाचा ! कौन जनम के दुश्मन हलियो ! अच्छा बैर सधैल्हो ! खर्च भी, कज भंड भी ! आठ आना ले एक टोपी बिना विधान नञ पूरा भेलइ । आर अन्हरा मनसुखवा भूखले रहि गेलइ ! दुइयो दिन ! .... दीपो बाबू कहलखिन - बेटा, जग करि को आझ तक कोय जुग नञ जीतलक ! दुदिसठिर जब जग करि को पार नञ पैलका, तब आर कि बेटा !) (आपीप॰72.15)
528 दुबराना (= दुबला होना) (जिछना पहिले ऐसन नञ हलइ, की जन दस दिन में एकरा की हो गेलइ है ? अब तो दुबरा के खिखनी हो गेलइ, नञ तऽ एकर देह ... ? देखइत बनऽ हलइ । सोंटल सिलोर, जुआन जइसे कोय ताड़ के जड़कुन सिल्ली होय ।; जुआन बेटा चलल जा हइ । जान के जहर खाय, देव के दिये दोख । डाकदर के मना कइलो पर मछली खिला देलकइ । गठरिया खुले न बहुरिया दुबराय । ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !) (आपीप॰1.7; 3.24)
529 दुमन्ना (= दो मन का) (लड़का मस्त मौला ! गभरू जुआन ! नम्मा-तगड़ा, सुन्नर पहलमान - दुमन्ना पट्टा हथलाल उठा लिये । मैटरिक पास ! अब कि चाही ? हिनकर औकात के लायक पट गेलन ! आको अपन मागु के सारे नोसो से कह सुनैलका !) (आपीप॰89.3)
530 दुर (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।; मकुना वाली हाथ नचा के कहलकइ - दुर ने जाय छिछियैली ! आजकल के छौड़ा-छौड़ी घोस्ट कर देलकइ समाज के ... । पेट गिरा के अइलो ह, बोलतो कि ? देखऽ हो नञ, चेहरवा पर चार बज रहलइ हे । से एकर चेहरा लागऽ हल खिलल गुलाब नियर !) (आपीप॰6.10; 19.25)
531 दुरदुराना (किरानी कुरोधि को ई कहैत कि हम बहुत देखा है पैसा वाला आप जैसे दुग्गी-तिग्गी को ! लीजिये अपना दरखास कहि के फेंकि देलकइ । आर अगल-बगल भी कुले हिनखरे दुरदुरावो लगलन ! महराज बोलने का लूर नहीं है ! आखिर इनका इज्जत है कि नहीं, आप चोर कहियेगा तब कैसे काम होगा ।) (आपीप॰116.19)
532 दुरूस्स (= दुरुस्त) (दोसर तरह से सोचहीं । बेटी झोला लेतौ, सबेरे जइतौ तरकारी ले सब्जी मरकिट । पूछतौ टमाटर कइसे ? दस रू॰ किलो । आधा होस उड़ जयतौ । पूछतइ आलू कइसे ? पाँच रू॰ किलो । कोबी ? दस रू॰ कि॰ । बेटी के पूरा होस दुरूस्स ! लेतौ दू सौ गिराम टमाटर, दू सौ गिराम कोबी, पचीस गिराम धनिया के पत्ता ! अगड़म-बगड़म ! झोरा से लेको अइतौ आर गैस चूल्हा पर ओकरे उलटि को सिझैतौ, पलटि को बनैतौ ! ओकरे कुछ अलमारी में रखतौ, कुछ फिरीज में ! खइतौ नञ, ओकरा चाटतौ ! सूँघतौ !) (आपीप॰90.22)
533 दुर्रर्र (सूपन के भी भीतरे-भीतरे डर समा गेलन - दुर्रर्र ... इ मतिखपत कलेट्टर कहैं जेल पहुँचा देलक तऽ कि होत ? तभी हुनकरा धेयान आयल अप्पन एम॰एल॰ए॰ शरमा जी के, एमेलेइये नञ, मुनिस्टर हथिन । अब उहे जान बचा सकइ होथ ।) (आपीप॰39.22)
534 दुलारू (कनियाय जे दिन से गेली, एक मिलिट के फुर्सत नञ । चार भाय के एक बहिन दुलारू ! बाबाधाम के माँगल ! साँझे से घर-घर जाको आय-माय के बोलाना । अऽ अधरात तक चिकरि चिकरि को गीत गाना, नाँचना । उमाह के कि कहना । देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली ।) (आपीप॰100.15)
535 दुसना (= दोष बताना, त्रुटि दिखाना) (बुढ़िया मुँह फुलावैत कहलकइ - तों एकरा जहर पिला रहल्हीं ह, हम एकरा अमरित पियैलियै हल । समझलहीं, हमरा तोरा में इहे फरक हौ । बेटिया बुढ़िया के मुँह दुस देलकइ । बुढ़िया जादे नै मुँह लगा को एक बगल हो गेलइ ।) (आपीप॰9.2)
536 दुहबिनी (गाय के तो सिंगार मत कहो, देखैत बनतो हल । सींग में औरत आको, जेकरा दुबिनी कहऽ हइ, घी सिन्नुर लगा दिये । कोय ललका, कोय किसान भखरा सिन्नुर लगवावे । कोय सोनमा सिन्नुर से सींग चमचमावय ले लगावावै । जोठ फुदना चिलिम छाप , चिरमिच्ची छाप । तरह-तरह के छाप मत पूछो । मरद गाय के सींग में सिन्नुर नञ लगावऽ हलइ ! काहे तऽ गाय माता हिखिन !; भैंस के नेठो नियर घुरल सींघ के तो बाते छोड़ो ! दू दिन पहिले से किसान तेज छुरी से ओकर मरल चत्ता छिल के चमका दिये । बिहान दुहबिनी ओकरा में सिन्नुर तेल भोगार दिये ! ऐसन भोगारे कि कहल नञ जाय ।) (आपीप॰74.18, 23)
537 दुहाव (जब पूर्ण पिण्ड दान हो गेल तब पंडित जी हुकुम देलका - अब सँढ़दग्गी होवो दा । बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल ।; दुहाव कहलकइ - बेटा ! बस एखने भर ! राजा बना रहलियौ ह, राजा ! साँढ़ के जैसेइ छोड़लक .. उ नाँढ़ी कबड्डी बाध देने भागल ।) (आपीप॰69.9, 13)
538 दूत-भूत (भोरे-भोरे बाँसुरी के बजा दे हइ ? हमर मन उख-विखा दे हइ । के बजावऽ हइ ? काहे बजावऽ हइ ? जरलाहा ! दूत-भूत तो नञ हइ ?) (आपीप॰81.2)
539 देखताहर (फुलवा के वहाँ ले गेलइ हल सरकारी नाव पर चढ़ा के, बरसा के दो रस्सा बेयार ... तरो पानी ... उपरो पानी ... ! फुलवा बतस गेलइ । राहत कैम्प में पहुँचलइ तऽ ओकरा देखताहर डाकदर पर डाकदर !) (आपीप॰2.5)
540 देखा पाय (ई तो दीना दीनी डकैती भेलइ ! बम पिस्तौल से नञ लूऽ हइ, कलम के मारि मरऽ हइ । .. हों, तब डकैती आपिस में होवे करऽ हइ भौजी । ... तों नञ लहो चण्डी हजार हइ । तब एक बात हइ । माँफी भी हो सकऽ हइ । इहे उमेद पर लोग लेब करऽ हइ । आगू भाग जानइ । अरे ! देखा पाय पाप ! देखा पाय पुण्य ! जे संसार करे से करी आर कि !) (आपीप॰118.15)
541 देखाना (= दिखाना) (इलाज शुरूह भेल । उहे लाल-पीयर गोली, उहे पानी रंग-बिरंगा । सरकारी दवाय के कहना की ? सही रहे तऽ लोग प्रायविट में काहे देखावे ।) (आपीप॰3.12)
542 देवाल (= दिवार, दिवाल; दीवार) (नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर । ... घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ ! देवाल के बाहर-बाहर ठेहुना भर ऊँच असठी, देवाल लाल गेरू रंग के माटी से बढ़िया को नीपल, मुख दुआर पर माटी के बनल सिंघ, लागे जैसे सचकोलवा सिंघ ।) (आपीप॰7.13)
543 दोकान (= दुकान) (सूपन उ रूपइवा दैत कहलकइ - जो चिक्को ! जरी तोहीं ले आवें ! - ऐं मइयो रे ! शौख कत गो ! अब ऐत गो रतिया के कौन दोकान खुलल होतइ ? - हों, हों ! दारू के दोकान असल इहे बेला चलऽ हइ ! वह चारि डेग में कोनमा पर हइ ! जो बेटा ! रामदास, तोहीं ले आव ।; कुछ दिन बाद ऊ टेबि को अइलइ, खूब सोचि विचारि को ! अपन जाति के मोहल्ला में जाको सड़क किनारे । चौराहा पर फर्द में टाट के झोपड़ी देको चाह के दोकान देलकइ ! छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ । वेबहार बढ़ियाँ, दोकान चलि गेलइ ।; बप्पा अपन बलात्कारी बेटा के बोलैलक । अइलइ। पूछलकइ - तोरा पर ई सब आरोप हौ । कि सच हइ ? - नञ ! हम एकरा चिन्हबो नञ करऽ हियै ! कहौंका हिकइ । भले चाह दू चारि बेरी एकर दोकान पर पीलियै हे । दोकान पर तो संसार जा हइ ।) (आपीप॰34.19, 20; 108.4, 5; 110.3)
544 दोख (= दोष) (अँगना में देखइ वालन के मेला जुट गेल । जिछना के कपार में आग लग गेलइ । उतरा चौली के गलबात चलो लगलइ । जुआन बेटा चलल जा हइ । जान के जहर खाय, देव के दिये दोख । डाकदर के मना कइलो पर मछली खिला देलकइ ।) (आपीप॰3.22)
545 दोगना (= दुगना) (सौखवा दिन दोगना रात चौगना चमकल जाय । ई देख के सब से जादा खुशी सितिया के हो हलइ ।) (आपीप॰76.8)
546 दोबर (= दुगुना) (अनरूध गमगीन होलइ । कहलकइ - रे पगला ! एकरा ले एते चिन्ता ? ई चीज तो मकइ के दोबर सड़क पर फेंकल मिलऽ हइ । बियाह के सलाह तो हम कोय हालत में नञ देवौ ! तों जब इहे ले बेकल हें, तऽ रोज नया माल पावो, एक्के गो घोटलके के कि घोटैत रहतइ ?) (आपीप॰104.9)
547 दोरथें (= ?) (हमरा नजर में नौकरी वाला से बढ़ियाँ लगऽ हौ किसान दूल्हा ! एक ! दोरथें नौकरी वाला करइ के औकाद भी नञ ! हम करवै ओकरे । मन में संकलप लेलियौ हे ।) (आपीप॰92.11)
548 दोल-पत्ता (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.5)
549 दोस (= दोष; दोस्त) (दोस्त-मोहिम खास अगुआ जे बहुत मेहनत से तैयार कैलखिन हल, से कहलखिन - नञ जइभो तऽ लड़का उठि जइतो, हमर दोस नञ ! बरतुहार लगल हइ ।) (आपीप॰88.11)
550 दोसर (= दूसरा) (आर एकर नगर भोज भी तो पूरन नञ ने भेलइ । चाही नगर भोज में एक आदमी भी भूखल नञ रहे, अन्हरा मनसुखवा भूखले रह गेलइ ! एक दिन नञ, दोसरो दिन !; बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें । ऊ सुनि को ठक्क हो गेलइ । टुकुर-टुकुर हमरा ताकऽ लगलइ । अँखिया के लोर अँखिया में पीको बोललइ - कवि जी ! तहूँ ऐसन बोलऽ हो ! दोसर कहते हल तब कोय बात नञ ! मुदा तोरा नियर के भी इहे मन में समचरलो ! हद्द हो गेल !) (आपीप॰72.7; 96.6)
551 दोस्त-मोहिम (दोस्त-मोहिम खास अगुआ जे बहुत मेहनत से तैयार कैलखिन हल, से कहलखिन - नञ जइभो तऽ लड़का उठि जइतो, हमर दोस नञ ! बरतुहार लगल हइ ।) (आपीप॰88.10)
552 दौड़ब (= दौड़ना) (कहल्हीं ने सरकारी पैसा ! ऊ सब भला आदमी के नञ लै के हिकइ । हमरा से नञ तऽ हमरा मरला के बाद, बालो-बच्चा से असूल करि सकऽ हइ । जानि-बुझि को लै ले नञ चाहऽ हियै । दोसरे ऊ हिकइ धुरफंदी काम ! काम-धंधा छोड़ि को जे ओकरे में लागल हइ । राति-दिन दौड़ब करऽ हइ । खाली तोरा देखइ में लागऽ हौ ।) (आपीप॰113.7)
553 धजा (= धाजा; ध्वजा, पताका) (भीतर दरवाजा के दोनो तरफ नारियल के गाछ, बाहर पीपर के, अँगना नीक को गोबर माटी से नीपल, चिक्कन छह-छह, घर के इसान कोना में खूब सुन्नर कुँइया, ओकरा पर उभैन लगल बालटी, बगल में तुलसी चौरा, महावीर जी के धजा गड़ल, चन्नन के झमटगर गाछ, घन छाहुर ।) (आपीप॰7.19)
554 धनगर (मइया कहलकइ - जे बोले ! कहवइ जरूर । रात फेर एकान्त में बैठा को समझावो लगलइ दुइयो के । देखहीं ! नुनु, उ धनगर अदमी हइ । बैर-बियाह जोड़ी से । तोरा धूर-धुरकी कुछ नञ हौ, ओकरा सब कुछ हइ ! एक दलिद्री छोड़ि को ! पाँच भाय ! एक डाक्टर, एक इन्जियर, एक मास्टर, एक ठीकेदार, पंचमा खेतिहर ! खेत चालीस बीघा ! चल ओकरे गोड़ में लटकि जइबइ ! कहवइ वसा दे ! तोरे हिकियौ ।; मानऽ ही हम्मर बाप के नौकरी मिल गेलइ । घूस-घास में पैसा कमा के धनगर हो गेल से से कि ? जाति भी बदल गेलइ ?) (आपीप॰28.9; 44.8)
555 धन-बुबुक (इ तरह से बोल के पाँच बेरी धूप दे के, कर जोर के अप्पन रोजी-रोजगार में विरधी ले मनौती मांगलका - मशानी बाबा ! मुरदा भेजो । ई तरह से सुक्खा रखभो तब हमर कि होतइ ? पाँच गो परानी मरिये ने जइवइ ? अऽ मुरदा कोय टुटी-फासटिक वाला नञ भेजिहो । भेजहो धन बुबुक वाला, जे माल-पत्तर दै ।) (आपीप॰31.7)
556 धमक्का (कभी कभी धमक्का भी लगावइ ! मुदा फेर साथे । कोय दिन ऐसनो होय कि ओकरा जादा चोट लग जाय, कानल घर भाग जाय । तब सौखवा ओकर लेरू-पठरू सब साँझ तक चरइने घर पहुँचा दै ।) (आपीप॰74.9)
557 धरना (= रखना) (बालाजीत के माय-बाप के धैल नाम बलराम हिकइ ! इसकूल में बालेश्वर । मुदा देहाती लोग विचित्र होवे हे ! ओकर अप्पन शब्द माधुर्य होवऽ हइ । बड़का नाम के ऊ बहुत छोट बना को गरहन करै हे । सेहे सती बालेश्वर के बाला कह के पुकारऽ लगल !) (आपीप॰95.5)
558 धिपना (= गरम होना) (देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर । ओकरा से कुछ दूर में बढ़िया नसल के एक बाछा बान्हल हइ, साँढ़ दागै ले । ओकरा दागै ले गोयठा के आग में सड़सी धिप रहल हे । खूब लाल दपदप सड़सी धिपल हइ । कटहर के पत्ता पर उन्नैस पिण्ड पड़य के चाही । पिण्ड दान के काम सबेरे से हो रहल हे । अन्त में सँढ़दग्गी होत ।) (आपीप॰69.5, 6)
559 धुँइयाँ (= धूआँ) (अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै । कखनै धान उसरतइ, चावर फटकतइ । ओकर रूसी-गरदा उड़तइ ! कपड़ा कार हो जइतइ । गँहूम फटकतइ । चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ !) (आपीप॰89.13)
560 धुरफंदी (कहल्हीं ने सरकारी पैसा ! ऊ सब भला आदमी के नञ लै के हिकइ । हमरा से नञ तऽ हमरा मरला के बाद, बालो-बच्चा से असूल करि सकऽ हइ । जानि-बुझि को लै ले नञ चाहऽ हियै । दोसरे ऊ हिकइ धुरफंदी काम ! काम-धंधा छोड़ि को जे ओकरे में लागल हइ । राति-दिन दौड़ब करऽ हइ । खाली तोरा देखइ में लागऽ हौ ।) (आपीप॰113.6)
561 धूप-गुंगुल (कुछ सोंच के चिकुलिया कहलकइ - अजी एक काम करो ने ! हम पटना में देखलियइ हे, एइसे करइत । ताजा लहास हइ, अभी महकले ह नञ । एकरा पानी से निकाल के धो-धा के अप्पन कपड़ा पिन्हा के, तेल-फुलेल लगा के, अतर छिट के, रंथी पर सुता के, चारो कोना पर धूप-गुंगुल जरावैत रहिहो ! अऽ टिशनमा गेटा पर धर दिहो ! कफन के नाम पर अच्छे आ जइतो ! ई मुरदा घाट से बढ़िया ।) (आपीप॰33.16)
562 धूर-धुरकी (मइया कहलकइ - जे बोले ! कहवइ जरूर । रात फेर एकान्त में बैठा को समझावो लगलइ दुइयो के । देखहीं ! नुनु, उ धनगर अदमी हइ । बैर-बियाह जोड़ी से । तोरा धूर-धुरकी कुछ नञ हौ, ओकरा सब कुछ हइ ! एक दलिद्री छोड़ि को ! पाँच भाय ! एक डाक्टर, एक इन्जियर, एक मास्टर, एक ठीकेदार, पंचमा खेतिहर ! खेत चालीस बीघा ! चल ओकरे गोड़ में लटकि जइबइ ! कहवइ वसा दे ! तोरे हिकियौ ।) (आपीप॰28.9)
563 धोइना (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ... तों चाहे हम ओकरा यहाँ जइभीं बेटी के देखइ ले तब जल्दी आबइ ले नञ देतौ - काहे ? तऽ तों जतना खइभीं ओतना ओकर धोइना में फेंका जा हइ ! … शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ !) (आपीप॰91.22)
564 धोना-धाना (ऊ गोलिया तो नञ मिललइ मुदा अनाज में दै वाला पाऊडरवा के पलास्टिक वाला झोरिया मिल गेलइ । ओकरा टो-टा के देखलकइ - कोना-पुच्छी में तनी मनी में लागल मिललइ । ओकरे धो-धा के गिलास में ढार के पी लेलकइ आव सुत रहलइ, कहके - ला भगवान सुतऽ हियो । ऐसन नीन दिहा कि कभी नै उठी ।; कुछ सोंच के चिकुलिया कहलकइ - अजी एक काम करो ने ! हम पटना में देखलियइ हे, एइसे करइत । ताजा लहास हइ, अभी महकले ह नञ । एकरा पानी से निकाल के धो-धा के अप्पन कपड़ा पिन्हा के, तेल-फुलेल लगा के, अतर छिट के, रंथी पर सुता के, चारो कोना पर धूप-गुंगुल जरावैत रहिहो ! अऽ टिशनमा गेटा पर धर दिहो ! कफन के नाम पर अच्छे आ जइतो ! ई मुरदा घाट से बढ़िया ।) (आपीप॰15.20; 33.14)
565 धोबिया पाट (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।; जब बप्पे कहलकइ - लड़े ने भोम्हा ! बजड़ जइवें तऽ बजड़िये सही ! जन्नी हिखीं जे चूड़ी फूटतइ ? बकलोलवा । लड़ गेलइ । पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ ! ऐसन धोबिया पाट मारलकइ कि खड़े चित्त !) (आपीप॰74.6; 76.17)
566 नँगटीनी (= लँगटीनी) (हमरा नजर में नौकरी वाला से बढ़ियाँ लगऽ हौ किसान दूल्हा ! एक ! दोरथें नौकरी वाला करइ के औकाद भी नञ ! हम करवै ओकरे । मन में संकलप लेलियौ हे । तों करभीं ? ओकरे तऽ देखहीं हम कि करऽ हियौ ? हरगिस नै हरजोतवा से करो देवौ । एकरा लिए नँगटीनी कहावी तऽ नँगटीनी सही !) (आपीप॰92.14)
567 नकसा (= नक्शा; मानचित्र) (धन्नू चा के गोस्सा मगज चढ़ि गेलइ । कहलखिन - अरे ! रूपइवा देतौ तोर बाप ! तों तो तोहीं हिकें । चारि थप्पड़ में जइतौ मुँह के नकसे बिगड़ि !) (आपीप॰121.1)
568 नगदी (अचके जिछना के आँख चमक गेल । ओकरा याद आयल, वहाँ अस्पताल में खून खरीदल जा हइ । डूबइत के तिनका ... इहे उमक पर चल देलक पटना । जिछना सबसे पहले अस्पताल पहुँचल जजा खून खरीदल जा हल । खून बेच के खड़-खड़ौआ पाँच सौ रुपइया नगदी फाँड़ा में खोंस एन्ने-ओन्ने देखले दवाय के दोकान पर जा रहल हल ।) (आपीप॰4.25)
569 नगीच (हम पहिले छेड़छाड़ करबइ तब कुरोधि जइतइ । ओकरे करो दियै, जे करे से । जब सोहगी नगीच अइलइ, तब ओकर बाँसुरी के सुर कुछ मद्धिम भेलइ । सुर भी गड़बड़ावऽ लगलइ । छउँड़ी मचना के नीचे अइलइ !) (आपीप॰84.4)
570 नगौंटिया (= लंगोटिया) (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे !) (आपीप॰74.3)
571 नगौटा (= लंगोटा) (आझ कहलकइ - सीतो ! बान्ह नगौटा ! तनी कुश्ती खेला दियौ । दुओ कुश्ती लड़ो लगलइ । सितिया बल तो करइ, मुदा सौखवा के साथ कि थम्हते हल ! तुरत चित्त करि को छतिया ठोकि दै ।) (आपीप॰78.2)
572 नगौटिया (= लंगोटिया) (जानऽ हीं, घर में बैठल रहला से देह में घुन्न लग जा हइ । रोज चरावइ ले आवें ! तनी देह में माटी लगायल करहीं, बल बनल रहतौ । डंड-कुश्ती मारहीं । । नञ रोज अइवें तऽ एक काम करें । तों गइया खोल के हमरा जौर कर दे । एकाह घंटा खेल के चल जो, हम साँझ तक चरइने चल अइबौ । मुदा रोज आवें । बचपन के नगौटिया ! तों आ जाहें तऽ हमरो मन लग जाहे । एइसे मनुआयल रहऽ ही । सीतिया बेस कह के चल गेल ।; हुनकर दोस्त अनरुध । बचपन के नगौटिया !) (आपीप॰77.12; 103.5)
573 नछुड़ाना (कातिक में हरजोतवा अइतइ गँहूम बुन के, गोड़ में बियाय फाटल रहतइ । रात के मागु जौरे सुततइ । गोड़ा पर गोड़ा चढ़ैतइ । जों कहैं पियार से गोड़ा रगड़ देतै एकरा दन दोको लहू बह जइतइ । सबेरे इलाज करावो । हाथ बाँहि पकड़तइ ! जजै तजै छिला जइतइ, नछुड़ा जइतइ ! मर्रर्र दुर्र हो ! कते खोलि को कहियौ ! कुछ बुझवै नञ करऽ हइ । तनी अपना मन में लाजो नञ लागऽ हइ मर्दबा के गे माँय !) (आपीप॰90.6)
574 नञ (= नयँ; नहीं) ("सावन में जनमलें, भादो में देखले बाढ़, तऽ कहलें कत्ते पानी ! इ बाढ़ नञ, बाढ़ के पुच्छी हे । सन बीस वाला बाढ़ में टिल्हा-टाँकर सब डूब गेल हल ।" आव चार दिना बाद जब बाढ़ कन्हैया दुसाध वाला अँगना में हेल गेलइ, तब पूछलियन, अब काका सन बीस वाला से बढ़लइ कि नञ ? काका चुप्प ... ने हाँ बोलथिन, ने हूँ ।) (आपीप॰1.14)
575 नट-गुलगुलिया (बाप-दादा के बनल-बनावल घर बेच देभीं उ लेतइ माटी के मोल, हम जानऽ हियौ ! उहे तो ओकर साजिशे हइ ! चारो तरफ से घेर के तोरा मजबूर कर देलकौ ! जे में ई भाग जाय ! कहाँ जा के घर बनइभीं ? पैसा दे देतौ, तों भागल बुलें । पैसवा डगरे-डगर खर्च हो जइतौ । तों नट-गुलगुलिया नियर सिरकी तानने बुलें ! हम ओकरे काहे नञ भगा देवइ ओजो से, हम काहे भागवइ ?) (आपीप॰28.19)
576 नमाना (पाँच हजार घूस में बात भेलो ! बाबू के कहलियो ! ऊ सूद पर रूपइया लाको देलखिन ! हम दे अइलियै बहाल करइ वाला अपीसर के । ओकरो कइ एक साल हो गेलो ! जब जा हियो, हाँ हाँ ! अब हो जायगा । घुर आवऽ हियो । उहे रूपइया हमरा ले काल हो गेलो । बाबू कहऽ हथुन - ऊ रूपइया तों रंडी के दे अइलें । चानी के जूता केकरा नञ नमा दियै ! एक हाथ रूपइया दोसर हाथ काम । या तो तों नञ देल्हीं, या रूपइया खेतारी कइलें । आखिर एक दिन कुरोधि गेलखुन । कहलखुन - हमर रूपइया ला को दा, या दुओ जीव अलग खा । लटपट बतिया मोहि न सुहाय, टाट पलंग लेहो माथा चढ़ाय ।) (आपीप॰96.13)
577 नम्बा (= लम्बा) (हमर पाँव के आहट पाको एक बुढ़िया घर से निकलल, पाँचो हाथ नम्बा तगड़ा गोर बुराक, माथा के बाल उज्जर बर्फ, फह-फह बगुला के पाँखि सन साड़ी पिन्हने, जइसे छहाछत भारत माता, शीश मुकुट हिमवान देश का, या खुद सरसती माता ।) (आपीप॰8.2)
578 नम्भा-नम्भा (= लम्बा-लम्बा) (धन्नू चा कुछ झेंपैत तनी चिढ़ावैत कहलखिन - सेह न कहऽ हियौ, तों तो जी से कुछ गनवे नञ करऽ हीं, तब कि । जे चरावे डिल्ली सेकरा तों चरावें घर के बिल्ली । - एह, तनी एक बाबू साहेब ई पटना डिल्ली में रहइ हथ जे जाने गीदर के नगड़ियो नञ, भाषण नम्भा-नम्भा !) (आपीप॰112.21)
579 नम्मा (= लम्बा) (लड़का मस्त मौला ! गभरू जुआन ! नम्मा-तगड़ा, सुन्नर पहलमान - दुमन्ना पट्टा हथलाल उठा लिये । मैटरिक पास ! अब कि चाही ? हिनकर औकात के लायक पट गेलन ! आको अपन मागु के सारे नोसो से कह सुनैलका !) (आपीप॰89.3)
580 नय (= नयँ, नञ; नहीं) (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... ऊ शहरी एक सो ग्राम चावर खैतौ । तों देहाती, जइभीं, दुइयो के बदली एसकरे भकोसि जैभीं ! दमदा कहतौ बेटिया से ई डोलइ के नाम नय लऽ हइ ।) (आपीप॰92.3)
581 नहाना-सोनाना (मइया पूछलकइ - कैसन मन हौ गे ? अच्छे हइ मइया । जो सबेरे नहा-सोना ले, मन फरेस हो जइतौ । कै भेलो हे, खिचड़ी बना को खा ले । छरहर बनइहें, खूब सिझा के, मूँग दाल वाला । फरहर बनइभीं तब ने पचतौ ।) (आपीप॰16.8)
582 नहिरा (= नइहर; मायका) (तों करभीं ? ओकरे तऽ देखहीं हम कि करऽ हियौ ? हरगिस नै हरजोतवा से करो देवौ । एकरा लिए नँगटीनी कहावी तऽ नँगटीनी सही ! तऽ कि करभीं ? जादा से जादा नहिरा भाग जइभीं आर कि ? मियाँ के दौड़ महजिद तक । ... नै रे । हम नहिरा नै जइवउ ! आवो दहीं बरियात ! हम बेटिया के लेको कुइँया में कूद जइवउ ! तोर मँड़वा-कोहबर में आग लगा देवौ !; परसू मिललइ । ... पूछलियै - सुनलियौ नदी में बालो ढोवइ ले जाहें ? सहजैं मुसका के बोललइ - कवि जी ! तऽ कि कैल जाय ? नहिरा जो बेटी ससुरा जो, बहियाँ डोलाय बेटी सगरे खो ! बिना कमइने के एक पैसा दै वाला हो ?; नहिरा के उमक । कनियाय सब कुछ भूल गेली । कहलो गेलइ हे टूटल सवासिन के नहिरे आस । ससुरार तो एक जेलखाना हइ । नहिरा वाला मौज कहाँ ?) (आपीप॰92.15, 17; 95.21; 100.7, 8)
583 नाँगट-उघार (बुढ़िया फेर हुकुम देलकइ - जो जल्दी ! आझे ! अभी ! कहीं हमरा नाँगट उघार रोकसदी कर दिये ! अप्पन घर चल आयत अपना सुख-दुख के साथ रहत !) (आपीप॰99.7)
584 नाँघना (= लाँघना) (हम लाख कहलियै छोटकी से, घीढारी नञ कराव । मुदा बूढ़ा-बूढ़ी के बात अब के माने हे ? ... बुढ़िया एक सुरर्रे बोलैत रहि गेलइ । घीढारी जे करे सेकरा साल भर नदी नञ नाँघइ के चाही, बरी नञ पारइ के चाही, कोहड़ा लगावइ के या खाय के नञ चाही, सराध के अन्न नञ खाय के चाही !; ई गांग पानी, नदी-नाला रहे तऽ कहल जाय ! ई गांग, बड़की गांग । ... बाप रे ! ओकरा नाँघि को ओय पार जाना ! जानि को जहर खाना !) (आपीप॰98.5, 7)
585 नाँढ़ी (बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल । पें कि करइत हल बेचारा ! ... बहुत आदमी ओकरा बान्ह-छान के गिरा देलकइ - दहिना पुट्ठा पर सड़सी से दाग के तिरसूल के चिन्ह बना देल गेल । से दिन से ऊ अजोर हो गेल । दुहाव कहलकइ - बेटा ! बस एखने भर ! राजा बना रहलियौ ह, राजा ! साँढ़ के जैसेइ छोड़लक .. उ नाँढ़ी कबड्डी बाध देने भागल ।) (आपीप॰69.14)
586 नान्हि-वारि (एक दिन चार गो लफुआ अइलइ - मइया-बेटवा के केप्चर कर लेलकइ, पिस्तौल देखा के, लगभग बारह बजे रात में ! एकाएकी छउँड़ी के बलात्कार करि गेलइ । छउँड़ी बदहोश ! भैवा कहलकइ - चल मैया । बलात्कार के केस नामी होवऽ हइ । बड़ी कड़र । चारो के हम चिन्हऽ हियै । कर दियै केस । मैया कहलकइ नैं बेटा । ओकर कुछ नञ बिगाड़ि होतइ, बिगड़ जइतौ तोरे । गोजो । नान्हि वारि हइ, जाति-कुटुम के पूछतइ ? जो डाकदरनी यहाँ देखा दहीं ।) (आपीप॰108.14)
587 नामी-गिरामी (अनिल बाबू यहाँ जल्दी जो, नञ तऽ ई हाथ से निकल गेलौ । उ डाकदर नञ देवता हथिन । गरीब ले तो भगवाने बुझो । नामी-गिरामी बढ़िया डाकदर के सुभावो बढ़िया होवऽ हइ । दिल्ली-पटना से लौटल रोगी यहाँ कानइत आयल, हँसइत गेल ।) (आपीप॰4.4)
588 निकरामती (पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन । पपुआ माय चूल्हा में गोइठा पैसावैत कहलकइ - हूँ हूँ, निकरामती मरद के गाल कतै ? अपनै मन बिलैया पुरखायन ! हमरा भिजुन जते सुना ला ! हम जानो हियौ नञ । घर बुधि बारह, बाहर बुधि तीन ! गाँव से बाहर विधाता उहो लेलका छीन ।) (आपीप॰112.7)
589 निकसी (= प्रेमी के साथ घर से भाग जाने वाली स्त्री; पति को छोड़ पर पुरुष के साथ विवाह करने या रहने वाली स्त्री; दुराचारिणी स्त्री) (मुरदा ठीक सामने आके किनारा लग गेलइ ! मौगी अऽ बेटवा जाके देखलकइ । चिकुलिया बोललइ - देखहो ने जी ! अपसूइये हइ, कत्ते सुन्नर हइ ! सुपन जाके देख के हामी भरलका ! हों हों । चिकुलिया कहलकइ - लगऽ हइ माइयो निकसी हलइ ! खस खेलनी ! नान्हें वैस में एकरा पित्त में कत्ते गरमी हलइ ? कोय अपने परिवार चाँप चढ़ा के मार देलकइ हे ! घेंचिया में रस्सी के दाग हइ !) (आपीप॰33.7)
590 निचीत (= निश्चिन्त) (जैसइ हाकिम से मिलै ले दुअरिया पर गेलखिन कि चपरसिया रोकि लेलकन । ए ! पहलवान जी, क्या है ? लाइये हम दे देंगे । अभी साहेब काम में है । -'करजा के दरखास !' धन्नू चा कहलखिन । चपरासी दरखास लेको अप्पन जेबी में रखि को कहलकन - जाइये ! अब आप निचीत से बैठिये । काम हो जायगा । ई निचीत हो गेला । महेश बहुत देरी बाद अप्पन काम निवटा के अइलन । पूछलकन - देल्हो दरखास ?) (आपीप॰114.13, 14)
591 निच्चू (उपर से ~) (ई अप्पन बिट्टा से बाँस काटि को खूब बढ़िया मचान गड़ि देलखिन - उपर से निच्चू पलानी भी । मचान के फराटी पर गद्देदार नेबारी के बिछौना । एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ ।) (आपीप॰106.3)
592 निछक्के (कुछो ने मइया । नञ पचलइ । बिगि देलकइ । ले मरीच चिबा के पानी पी ले । पेटे साफ हो जइतौ । मन नै पच-पचइतौ । ई नै चाहइ मुदा मइया डाँट के पिला देलकइ । फेर कै । अबरी निछक्के पानी गिरलइ । पेट साफ ।) (आपीप॰16.1)
593 निजगूत (~ करना) (भोज में शिकायत नञ होवो दै के बरत लेको ओजो से उठला । वहाँ से आको सब सलाहकार भंडारी के, परसैनिहार के, अऽ बिजै करैनिहार के टरेनिंग देको अप्पन-अप्पन काम निजगूत करि देलका ।) (आपीप॰70.11)
594 निजलिया (हम हरजोतवा के बियाहवइ ! चाहे भीखमंगा रहे ! निधुरीवा ! निजलिया ! मुदा हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ?) (आपीप॰89.16)
595 निट्ठाह (किरानी बाबू मुँह में कौर लेलखिन कि ई कहना शुरूह कैलखिन - आँय जी ? कान में करूआ तेल दे को सूत गेल्हो ! निट्ठाह ! जुग जमाना खराब बीतऽ हइ । जुआन बेटी बाहर ! शहर पटना में राखऽ हो ! कैसनो कुछ हो जाय, के जाने ? प्रभू के शान, गोड़ घसक जाय ! तऽ कहाँ के रहभो ?; बेटवा से कहलकइ - बेटा ! कोय ऐसन जगह खोजहीं जहाँ-जे शहर के टोला-मोहल्ला में अपन जाति के चलती होय ! काहे कि अब बहिनियो बियाहे जुकुर हो गेलौ ! जाति के अंक लागि जइतइ । हमहूँ निट्ठाह ।) (आपीप॰87.2; 108.1)
596 नितराना (= इतराना) (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... तोर बेटी के मन करतौ बूँट के भूँजा खाय के । बाजार से खरीद के लइतौ एक सौ गिराम ! चालीस रूपइया कि॰ । छिपिया पर रख के चार-चार दाना मुँह में चिभला-चिभला खइतौ ! नितरा-नितरा ! बूँट के भूँजा । ऊ खाना नञ भेल, खाली जी फेरन । भगवान ने करे ऐसन होय !) (आपीप॰92.7)
597 निधुरिया (मिनिस्टर के औडर भेल, तब मिलइ ले गेल ! चरण छू को परनाम कैलक ! अप्पन बिपत सुनैलक - हम तो निधुरिया हो गेलियो इ केस में । तों ऐसन कठोर कि मदद तो कि करवा, घुर के देखइ ले नै अइला !) (आपीप॰64.9)
598 निधुरीवा (हम हरजोतवा के बियाहवइ ! चाहे भीखमंगा रहे ! निधुरीवा ! निजलिया ! मुदा हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ?) (आपीप॰89.15)
599 निम्मन (= नीमन, अच्छा) (दवाय से जादे संजम करावल गेल ! खैर फुलवा कुछ दिन में निम्मन हो गेल । डाकदर कहलकइ - खबरदार ! एकरा मछली नञ खिलइहें । नञ तब जानो तों ! हम्मर दोस नञ ।; ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !) (आपीप॰2.7; 3.24)
600 नियन (= नियर; समान, सदृश) (गेट के अगोरवाह सिपाही, जे एकरा से पूर्व परिचित हलइ, ऊ कड़क आवाज में कहलकइ - अब यहाँ कहाँ ? जो अब आजाद पंछी नियन विचरें ।) (आपीप॰43.5)
601 नियर (चलो दादा, एजइ सुत रहब ! बहुत आदमी तो सुतल हइ, उपर से दिन नियर इंजोर, सुरक्षा ले सेवा सन्ती ! परवचन भी सुनब, खाय ले कलौआ हइये हइ । कि परवाह ।) (आपीप॰16.22)
602 निशा (= नशा) (गेलइ सूपन के बोलावइ ले तऽ देखे हे पी पा के बराबर ! उठैलकइ - तब तक निशा के हलका सुरूर आ गेलइ हल ! उठ के गाना गावो लगलइ आर नाचो लगलइ - "लोहा के गाटर में सड़िया जे फँसलौ, लहँगा भेलौ उघार गे ! घड़-घड़ घड़-घड़ गाड़ी अइलौ, भेलौ पुल के पार गे !" एतना कह के मागु के अँचरा खींचो लगला ।) (आपीप॰35.6)
603 निसपीटर (बहुत शब्द अंगरेजी के मगही में पच गेल । जइसे - लाउडस्पीकर के लौड अस्पीकर, इन्सपेक्टर के निसपीटर, सुपर फेन आदि । हमरा ओकरा से कोय परहेज नञ गुरेज नञ !) (आपीप॰IV.25)
604 निसाफ (= इंसाफ) (गनौरी चा के नाम इलाका में के नञ जानऽ हइ । ... बिना भेद-भाव के सब के नौकरी लगा देलखिन ! गाँव में पर-पंचैती । वाजिब निसाफ करके सबके एक जगह रखलखिन ।) (आपीप॰60.19)
605 नीके-सुक्खे (जने कि होत जतरा पर कल-कल ... हाँड़ी परे कि थारी, जानथिन भगवती माय । नीके-सुक्खे घुरि को अइवो तब दूध बतासा चढ़इवो मइया !) (आपीप॰99.13)
606 नीक्के-सुक्खे (= नीके-सुक्खे) (गंगा के मने-मने परनाम कैलकी । गछलकी नीक्के-सुक्खे घुरवो माता तब दूध के ढार देवो, रच्छा करिहा ।) (आपीप॰100.3)
607 नीन (= नींद) (फुलवा के सबेरे रोटी आव आलू के कुच्चा खिला के सुता देलक हल ! मुदा फुलवा के आँखि में नीन कहाँ ? भूँजल मछली के गंध जो नीन आवो दिये ?; रोज-रोज बँसुरी इहे बेला । बँसुरी तो बहुत सुनलूँ हें ! मुदा ऐसन नञ ! जइसैं एकर पूँकऽ हइ, हमर अँखिया के नीन उड़ जा हइ । मन के चैन विसूर जा हइ ।; कुछ रहे कि नञ, हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ?) (आपीप॰2.11; 81.7; 89.24)
608 नुग्गा (= लुग्गा) (अभियों कि नञ हइ ओकरा ! चार बीघा जमीन हिस्सा ! अपने भी बी॰ए॰ पास, मागू भी पढ़ल ! गाँव भर के नुग्गा सीये ! दरजीनी बीबी ! अब कि चाही ?) (आपीप॰94.24)
609 नुग्गी (= लुंगी) (धन्नू चा महेश सबेरे तैयार होको जाफरी साहब के डेरवे में पकड़लका । जाफरी साहब नुग्गी पिन्हने वरंडा पर बैठि को चाह पीयब करऽ हलखिन । फेर भीतर हाँक देलखिन । हुनकर बेटी दू गो चाय आर लेने हाजिर हो गेलन ।) (आपीप॰118.24)
610 नुनु (मइया कहलकइ - जे बोले ! कहवइ जरूर । रात फेर एकान्त में बैठा को समझावो लगलइ दुइयो के । देखहीं ! नुनु, उ धनगर अदमी हइ । बैर-बियाह जोड़ी से । तोरा धूर-धुरकी कुछ नञ हौ, ओकरा सब कुछ हइ ! एक दलिद्री छोड़ि को ! पाँच भाय ! एक डाक्टर, एक इन्जियर, एक मास्टर, एक ठीकेदार, पंचमा खेतिहर ! खेत चालीस बीघा ! चल ओकरे गोड़ में लटकि जइबइ ! कहवइ वसा दे ! तोरे हिकियौ ।; चलल जा हलइ । पंचू मिललइ । बुधना पुछलकइ - कि पंचू ? कैसन रहलइ ? खइला हा खूब ? पंचू कहलकइ - अच्छे हलइ नुनु । तनी बरहवा दिन अलुआ वाला तरकरिया लागइ काँचे रहि गेलइ हल । अऽ तेरहवा दिन दलिया शायत तनी लगि गेलइ हल, तनी जराइन लागइ ।) (आपीप॰28.9; 70.19)
611 ने (= न) ("सावन में जनमलें, भादो में देखले बाढ़, तऽ कहलें कत्ते पानी ! इ बाढ़ नञ, बाढ़ के पुच्छी हे । सन बीस वाला बाढ़ में टिल्हा-टाँकर सब डूब गेल हल ।" आव चार दिना बाद जब बाढ़ कन्हैया दुसाध वाला अँगना में हेल गेलइ, तब पूछलियन, अब काका सन बीस वाला से बढ़लइ कि नञ ? काका चुप्प ... ने हाँ बोलथिन, ने हूँ ।) (आपीप॰1.15)
612 नेठो (भैंस के नेठो नियर घुरल सींघ के तो बाते छोड़ो ! दू दिन पहिले से किसान तेज छुरी से ओकर मरल चत्ता छिल के चमका दिये । बिहान दुहबिनी ओकरा में सिन्नुर तेल भोगार दिये ! ऐसन भोगारे कि कहल नञ जाय । गारा में पीतर के सिकड़ी, चमाचम पानी चढ़ायल सोना के मात करे ! गारा में जोठ, जोठ में घंटी, केकरे घंटिये नञ, घण्टा कहो, टनाक-टनाक बाजे ।) (आपीप॰74.22)
613 नेबारी (= धान का पुआल) (ई अप्पन बिट्टा से बाँस काटि को खूब बढ़िया मचान गड़ि देलखिन - उपर से निच्चू पलानी भी । मचान के फराटी पर गद्देदार नेबारी के बिछौना । एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ ।; एन्ने-ओन्ने देख के कहलकइ - मुदा ई बाधो भर टमाटर-मिरचाय ! आड़ कहैं नै ? एक काम करो मीत ! मचना के नीचे चारो तरफ नेबारी से घेर दा !; मनोज बाबू ओकरा नेबारी से घेर देलका । समरी पूछलकइ - काहे ले घेरल्हो ?) (आपीप॰106.3; 107.7, 8)
614 नेवता (~ मारना) (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।) (आपीप॰6.8, 10)
615 नेहाल (= निहाल, पूर्ण रूप से प्रसन्न, पूर्ण सन्तुष्ट) (खेत में दू-चार गाछ रोपलकइ मुदा ओढ़निया हरदम सँसर जाय ! माथा पर से ओकरे सम्हाड़ै में पाँच गाछ के हरजा । मइया कहलकइ - मर्रर्र ! दुर्र हो !! दिन भर तों दोपट्टे सम्हाड़ै में रहमें तब रोपमें कहिया ? छउँड़ी ओढ़निया के मुरेठा बान्हि लेलकइ - देह के उभार ! कसकल ! कसल देखैत बनइ ... ! मनोज बाबू देख के नेहाल हो गेलखिन । ऊ टप-टप टमाटर रोपैत रहलइ ।) (आपीप॰105.20)
616 नैकी (काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में ! नैकी काँगरेस के कहऽ हलखिन - बिना पेंदा के लोटा ! साँझ बोलल कुछ, बिहान बोलल कुछ !) (आपीप॰60.22)
617 नैकी-पुरनकी (काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में !) (आपीप॰60.21)
618 नो सौ (सारी ~ से कह सुनाना) (तभी गोदी के बच्चा कानल । नवीन पूछलकइ - इ बच्चा ...? इ बच्चा के देखावैत सारी नो सौ से बाप घर के कहानी तक कह सुनैलक ।) (आपीप॰48.23)
619 नोचनी (= खुजली) (जा, हम ओतै बहस नञ जानी ! देखऽ हो महेश रात-दिन करि को सरकारी रूपइया निकाललका संसार अबूध हइ ? तों एगो बुधगर ... । ई बात धन्नू चा के लग गेलन छक दोको करेजा में । ठीक हइ, घूस में पैसा लागतौ ! पाछू हमरा नञ कहिहें । पैसवा खरच होवऽ हइ तब तोरा देह में नोचनी लागो लगऽ हौ ।) (आपीप॰113.23)
620 नोसो, नो सौ (सारी ~ से कह सुनाना) (मंत्री जी मुसकुरा को पूछलखिन - कि काम हलइ ? सूपन सारी नोसो से कह सुनइलखिन । मंत्री जी सुन के हँसलखिन । हँसते-हँसते कहलखिन - अलगंठे एसकरे निगलि जाय ले चाहऽ हहो ! दू लाख ! एसकरे खइभो तब पचतो ? अरे ! बाँटि-चुटि के खाय राजा घर जाय, तभी ने ? नञ तब जेल के तैयारी करहो !; नरेश बाबू हुनकर मित्र में से हथिन । जिगरी दोस्त । हुनका एक दिन सारे नो सो से एगारह तक समझा देलखिन । खोल के अपन औकात बता देलखिन । नरेश बाबू सब सुन के कहलखिन - नौकरी वाला दुल्हा के गलबात छोड़ो !; लड़का मस्त मौला ! गभरू जुआन ! नम्मा-तगड़ा, सुन्नर पहलमान - दुमन्ना पट्टा हथलाल उठा लिये । मैटरिक पास ! अब कि चाही ? हिनकर औकात के लायक पट गेलन ! आको अपन मागु के सारे नोसो से कह सुनैलका !; बिहान महेश के सारी नो सो से कहि सुनैलखिन । महेश कहलकन - चलिहा, काल्हु छुट्टी हइ, चलवो । सबेरे तैयार होको दुइओ गेला आपिस ।) (आपीप॰40.10; 88.16; 89.5; 116.23)
621 पँजोठना (चिकुलिया कहलकइ - एजो देवला के आड़, एकान्त में रूपइया गिन्हो तो कतना हो ! सूपन एक-एक करके रूपइया गिनलका - सब मिला के एगारह सो पाँच ! रूपैया के मोटरी चिकुलिया के हाथ में दैत सूपन खुसी से उछल गेलखिन । चिकुलिया के पँजोठ के चुम्बा लैत कहलखिन - वाह गे ! चिक्को रानी ! ई तोरे लुर-बुध के कमाय हे भाय ! सब पैसा तोर !) (आपीप॰34.11)
622 पक्का-पोस्त (खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी ! बाप चालू-पुरजा, घर पक्का-पोस्त, खाय-पीये में ठोस ! छोट घास-दाना में बड़ बढ़ियाँ । करीब तक पहुँच गेलखिन ! तीन लाख से एक छेदाम भी कम नञ !; किसान लड़का के खोज होवो लगल ! संजोग से मिल गेल । बीस बीघा हिस्सा, दुआर पर टरेक्टर मैसी - फारगूसन । घर दोबारा पक्का पोस्त ! बाहर भीतर पलिस्तर ! ऐंगना भी पलिस्तर । कहैं माटी के दरेस नञ । ऐंगना में चाँपाकल, पैखाना, घर में टी॰भी॰ रेडियो कि नञ जे सब सामान होवऽ हइ । खेत में नहर-टीवेल । सालो भर सब तरह के फसील !) (आपीप॰87.22; 88.24)
623 पचपचाना (फेर दुबारे कै । दोसर बेरी में मइया जागलइ । पूछलकइ - कि भेलौ गे ? कुछो ने मइया । नञ पचलइ । बिगि देलकइ । ले मरीच चिबा के पानी पी ले । पेटे साफ हो जइतौ । मन नै पच-पचइतौ ।) (आपीप॰16.1)
624 पचमा (दोसरा नम्बर में देखल जाय ! डाकदर-इनजीयर-ओभरसीयर नौकरी लगल वाला ! बिना नौकरी वाला तो कत्ते मारल बुलऽ हइ ! बिना नौकरी वाला बतौर मजूर समझो । उहो कै गो बतायल गेल - मुदा टँगरी नञ ठहरल । तेसर नम्बर पर आयल ! बैंक करमचारी, मास्टर-किरानी आदि ! चौठा नम्बर पर सिपाही ! पचमा में किसान लड़का खोजल गेल !) (आपीप॰87.19)
625 पछुआना (= पीछा करना, पीछे-पीछे जाना) (जेलर साहब उ सिपाही के भी ओकरा साथ लगा देलका - इ कह के कि ई सारी कहैं लौट नञ जाय ! जो एकरा टिकस कटा के गाड़ी पर चढ़ा के लौटिहें । सिपाही ओकरा साथ-साथ चलो लगल । कुछ दूर गेला के बाद असमिरती बोलल - अब तों हमरा पछुअइने कहाँ जा रहले हें ?) (आपीप॰46.14)
626 पट (~ दबर; ~ सना) (धन्नू चा सबेरे घर से दही-चूड़ा खा को, जतरा बनैने सबसे पहिले आपिस में दम दाखिल । जइते इनरदेव बाबू के सलाम ठोकलखिन ! पूछलखिन - हमर दरखास अइलइ इनरदेव बाबू ? ऊ कहलकन - किसके नाम से ? - धन्नू पहलमान के नाम से । ऊ उलटि-पुलटि को फाइल देखो लगलइ । चाचा पढ़ल तो नै मुदा आददास्त के बड़ी तेज । हिनखर दरखास के पीठिया पर रसुनाय के दाग हो गेलइ हल । पट दोकोऽ चिन्ह गेलखिन - यह तो हिकइ !) (आपीप॰116.2)
627 पटाना (= पड़ जाना; पड़ा रहना) (दोस्त-मोहिम खास अगुआ जे बहुत मेहनत से तैयार कैलखिन हल, से कहलखिन - नञ जइभो तऽ लड़का उठि जइतो, हमर दोस नञ ! बरतुहार लगल हइ । ... बाज मत आबो फेर ऐसन संजोग मिलना मोसकिल ! बकि ई थुथुरवा साँप नियर जैसे के तैसे पटायले रह गेला ! तनिको उसुक-पुसुक नञ ।) (आपीप॰88.13)
628 पड़ियानि (= पैड़ियानि; पड़िआइन, पाँड़े की स्त्री) (करऽ ~ चौठ !) (केस हो गेलन । पपुआ माय जानलकइ । चाचा पर बरसि गेलन - यह ! मुरूखवा के काम ! करो पड़ियानि चौठ ! ई हुड्डा ! रूपइवो बुड़ा देलकइ अऽ उपर से केस भी माथा पर ले हइलइ ! एतना कहि को माथा ठोकि लेलकइ ! बिना बिना कानो लगलइ ! हाय रे !!) (आपीप॰121.11)
629 पत्तल (चौठा कहलकइ - अरे, झिंगना के बेटवा दही परसै ? ... खड़े-खड़े लागइ जइसे पतला पर चिल्ह छेर देलक हे । टिक्का करइ भर ! फेर लैलकइ लड्डू ! कहइ आर भागल जाय ! लड्डू-लड्डू-लड्डू .... ।) (आपीप॰71.16)
630 पथलाना (= पत्थल हो जाना) (सब ठीक हो जइतौ ! मुदा दवाय के गोली भीतर जा नञ सकल ... । गियारी में टेंगरा सन अटक गेल । अचके फुलवा के आँख चमक के फैल गेल । इ देख के जिछना के अँखिये नञ देहियो पथला गेल ।) (आपीप॰5.15)
631 पनकोरवा (= पानी पीने का मिट्टी का प्याला) (परसू मिललइ । ओकर गोर सुनहला चमड़ी झमायल तामा के रंग के हो गेलइ हल ! मुदा भीतर से पनकोरवा टहक लेने, चमकदार हलइ । पूछलियै - सुनलियौ नदी में बालो ढोवइ ले जाहें ?) (आपीप॰95.19)
632 पनसोर (भला आलू कोबी के तरकारी ! जो नीक से बनावे तो उड़ि चले, मुँह से छोड़इ के मन नञ करे, पेट फाटल जाय, छोड़ल नञ जाय । से लगइ जैसे पानी से छानल रहइ ! पनसोर !) (आपीप॰71.14)
633 परकना (चुपके से एक देसी सिक्स रौण्ड पिसतौल कीनलकइ अऽ बारह गो गोली ! मइयो के जानो नञ देलकइ । एक रात फेर अइलइ - परकल गीदरा ककड़ी खेत ! उहे बेला ! छउँड़ी सबसे पहिले जगलै । भैवा के उठैलकइ ! ई उठि को आराम से, दिमाग असथिर करके तेजी से एक-एक गोली चारो के लगा को नरभस करि देलकइ ! फेर दू गोली कनपट्टी अऽ सीना में उतार के, तीनों उठल, वहाँ से चल देलक ! राते रात । अप्पन पुरनका घर आ गेल ।) (आपीप॰110.14)
634 परतर (= तुलना, मिलान; उपमा; बराबरी; सामान्य या औसत उपज अथवा प्राप्ति) (हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? ... कुछ रहे कि नञ, हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ?) (आपीप॰89.22)
635 परनाम (= प्रणाम) (धन्नु चा जैसे चिढ़ावइ ले आझ बैठलखिन हल ! मुसुका को कहलखिन - पपुआ माय ! एकाह दिन जो बजार जा हियै - से मे तो बजार के कत्ते लोग जे नहियों चिन्हऽ हइ सेहो, परनाम पहलवान जी ! राम राम खलीफा जी ! अहो, हम मामूली हियै ? दशा-दिशा नर पूजिता ! पपुआ माय अधकट्टी चनरमा कट मुसुक्का मार के कहलकन - ऊ हूँ, तोरा ने ? तनी एक जमाहर लाल ई बाबू साहेब, से हिनखा कुले परनाम करऽ हन । देखियो तो कुले ला रहलऽ हे, सरकारी गहूँम, सरकारी रूपइया । तोरो से होतइ ?) (आपीप॰112.13, 16)
636 परनाम (= प्रणाम) (मेघा चलो लगल, चलते-चलते हिनखरा परनाम करके कहलकन - तों चारो परानी हमर पता पर चल अइहा । घबरइहा नञ ! तोर सारा इन्तजाम हम करवइ ।; मिनिस्टर के औडर भेल, तब मिलइ ले गेल ! चरण छू को परनाम कैलक ! अप्पन बिपत सुनैलक - हम तो निधुरिया हो गेलियो इ केस में । तों ऐसन कठोर कि मदद तो कि करवा, घुर के देखइ ले नै अइला !; नाव ओय पार लगल हल । कनियाय कल-कल छल-छल करि को बहैत गंगा के निरमल धार के देख हरखित मन से परनाम कैलकी । फेर बुढ़िया के एक-एक बात - साल भर नदी पार नञ जाय के चाही, कोहड़ा नञ रोपइ के चाही ... आदि-आदि दिमाग में सिनेमा के फोटू सन आवो लगलन ।) (आपीप॰25.12; 64.8; 99.17)
637 पर-पंचैती (गनौरी चा के नाम इलाका में के नञ जानऽ हइ । ... बिना भेद-भाव के सब के नौकरी लगा देलखिन ! गाँव में पर-पंचैती । वाजिब निसाफ करके सबके एक जगह रखलखिन ।) (आपीप॰60.19)
638 परसंडा (फेर उ झपटल बाज नियर - कौन बूढ़ा हा ? जुआन तो हा । पूछने-पूछने लोग लन्दन चल जाहे, तों छौड़ा पूत के ओहारी कण्टा तर के गाँव भी नञ जा सकऽ हा ? हम समझ गेलूँ । यहाँ बेदर्द हाकिम हइ, हमर कोय उपाय नञ । मन के कड़ा कइलूँ । उठ बन्दा, चल परसंडा, से चल देलूँ । जेठ के महीना । चलैत-चलैत दस एगारह बज गेल ।) (आपीप॰6.25)
639 परसन्न (= प्रसन्न) (अनरूध बड़ी परसन्न भेलइ । कहलकइ - बस, बात बनि गेलइ । बात अब कि ? जब रूपइया पकड़ लेलकइ तब ? एन्ने-ओन्ने देख के कहलकइ - मुदा ई बाधो भर टमाटर-मिरचाय ! आड़ कहैं नै ? एक काम करो मीत ! मचना के नीचे चारो तरफ नेबारी से घेर दा !) (आपीप॰107.4)
640 परसाल (हम बी॰ए॰ के छात्रा जबसे कॉलेज में दाखिला लेलूँ, तब से हमर सहपाठी नवीन पाण्डेय से हमर प्रेम प्रसंग चल रहल हल ! परसाल हम दोनो अपना राजी खुशी से मन्दिर में अग्नि के साक्षी, बराहमन देवता, जनता के सामने हिन्दु रीति से विवाह कइलूँ । उ समय हमर उमर उन्नैस साल हल, जेकर मौजूदा साटिक-फिटिक प्रमान हइ ।; चलें अब ई साल बियाह पसपौन्ड । अब परसाल देखल जइतै ।) (आपीप॰51.21; 92.20)
641 परसू (= परसूँ; परसों) (बिहान पटना जाय ले पैसा माँगलका, उ पैसा देलकन अऽ चलि देलका गाड़ी पकड़ि को पटना । वहाँ गेला के बाद पता चललन कि मुनिस्टर बाबू बाहर गेल हथुन, परसू अइथुन ! परसू तक इन्तजार में, हुनकरे डेरा में रहला ! परसू मुनिस्टर बाबू रात तक ऐलखिन । बात नञ हो सकलन । चौथा दिन सबेरे मुनिस्टर बाबू से मिललखिन ।; परसू मिललइ । ओकर गोर सुनहला चमड़ी झमायल तामा के रंग के हो गेलइ हल ! मुदा भीतर से पनकोरवा टहक लेने, चमकदार हलइ । पूछलियै - सुनलियौ नदी में बालो ढोवइ ले जाहें ?) (आपीप॰40.2, 3; 95.18)
642 परसैनिहार (= परसनिहार, परसने वाला) (भोज में शिकायत नञ होवो दै के बरत लेको ओजो से उठला । वहाँ से आको सब सलाहकार भंडारी के, परसैनिहार के, अऽ बिजै करैनिहार के टरेनिंग देको अप्पन-अप्पन काम निजगूत करि देलका ।) (आपीप॰70.10)
643 परान (= प्राण) (ऊ गोली अऽ पानी पीते-पीते थक गेल, बेमारी बढ़ले गेल ! फुलवा के मन एक दिन जवाब दे देलक, बोलल - अब नञ बाबू ... । जिछना के तो पराने उड़ गेल ।) (आपीप॰3.14)
644 परानी (= प्राणी) (इ तरह से बोल के पाँच बेरी धूप दे के, कर जोर के अप्पन रोजी-रोजगार में विरधी ले मनौती मांगलका - मशानी बाबा ! मुरदा भेजो । ई तरह से सुक्खा रखभो तब हमर कि होतइ ? पाँच गो परानी मरिये ने जइवइ ?) (आपीप॰31.6)
645 परारथना (= प्रार्थना) (नवीन के जेल से छोड़ावई में बड़ी मेहनत कैलक, अप्पन पति समझ के । नै तऽ उ जेल में सड़ते रहत हल अभी तक । सेहे सती हमर कोट से परारथना हइ कि नवीन आर असमिरती के पति-पत्नी रूप में नया जीवन शुरूह करे के आदेश देल जाय ।) (आपीप॰53.16)
646 पलानी (ई अप्पन बिट्टा से बाँस काटि को खूब बढ़िया मचान गड़ि देलखिन - उपर से निच्चू पलानी भी । मचान के फराटी पर गद्देदार नेबारी के बिछौना । एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ ।) (आपीप॰106.3)
647 पलिस्तर (किसान लड़का के खोज होवो लगल ! संजोग से मिल गेल । बीस बीघा हिस्सा, दुआर पर टरेक्टर मैसी - फारगूसन । घर दोबारा पक्का पोस्त ! बाहर भीतर पलिस्तर ! ऐंगना भी पलिस्तर । कहैं माटी के दरेस नञ । ऐंगना में चाँपाकल, पैखाना, घर में टी॰भी॰ रेडियो कि नञ जे सब सामान होवऽ हइ । खेत में नहर-टीवेल । सालो भर सब तरह के फसील !) (आपीप॰88.24)
648 पसपौन्ड (चलें अब ई साल बियाह पसपौन्ड । अब परसाल देखल जइतै ।) (आपीप॰92.20)
649 पसीन (= म॰ पसन; हि॰ पसन्द) (बड़ा मेहनत से मिल गेल करमचारी ! ओकर बाप भी हिनका पसीन कैलक । हिनकरो मन डूब गेल । खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी !; माया बाप के पसीन किसान दुल्हा के साथ, या माय के पसीन नौकरीवाला दुल्हा दू में केकरे साथ नञ गेल । जाने माया के चुनल वर । नौकरीवाला हइ या किसान ? या दुइयो ? या नञ कुछो । उहे जाने !; पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ? पपुआ माय तिरछी नजर से धन्नू चा के देखैत मुसकावैत मूड़ी नचा के कहलकइ - तऽब ! हमर बाप पाँच बरीस बरतुहारी कैलका । घर मिलल तब वर नञ, वर तब घर पसीन नञ ! दुओ आँख के सूरदास ! चौपठ ! यह मुरूख दमाद कोहबर में गोड़ लगैलका पहलमान जी ! कैसन पहलवान होथि, से हम जानऽ ही । बेटी भोगऽ हियन । ढेर बुधगर रहे से तीन ठमा माँखे ।) (आपीप॰87.21; 93.6; 113.14)
650 पहमा (साँझ भैंसि दुहि को फेनाइले दूध, एक लोटा सितिया के हाँथ में दैत कहलकइ - ले एक महीना खा को देखहीं ! नञ जो दरद छूट जाय तऽ हमरा नाम से कुत्ता पालिहें । सितिया लोटवा लैत मुस्का के कहलकइ - जो रे भोम्हा ! तोरा कुछ नञ बुझो अइलौ ! अऽ भीतर चल गेलइ । दूधा उझलि को लोटवा मैया पहमा भेजवा देलकइ ।) (आपीप॰79.20)
651 पहलमान (= पहलवान) (एक लंगौटा पर पाँच कुश्ती मारलकइ ! सब पूछइ - इ कहाँ के जुआन हइ ? कि नाम हिकइ ? फेर तो एकर नाम इलाका में खिँड़ गेलइ ! जहाँ-जहाँ दंगल होय, एकरा बोलावो लगलइ । जिला जवार में नामी पहलमान हो गेलइ !; लड़का मस्त मौला ! गभरू जुआन ! नम्मा-तगड़ा, सुन्नर पहलमान - दुमन्ना पट्टा हथलाल उठा लिये । मैटरिक पास ! अब कि चाही ? हिनकर औकात के लायक पट गेलन ! आको अपन मागु के सारे नोसो से कह सुनैलका !) (आपीप॰76.22; 89.3)
652 पहिलूठ (= पहिलौठ) (हम बहस में नै पड़ के मुस्कुरा के चुप हो गेलूँ । देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर ।; मनोज बाबू पूछलखिन - बड़ छउँड़ी हइ कि छउँड़ा ? - छउँड़ी पहिलूठ हो कि । लगले दू बरीस बाद छउँड़ा भेलो । छउँड़ी के यह पनरहवाँ बीत के सोलहवाँ चढ़लो हे ।) (आपीप॰69.3; 105.6)
653 पाँख (आँख में ~) (जिछना जब कटोरा में मछली के गुड़िया अऽ मड़गोद भात चापुट पार पार के खाय लगल तऽ फुलवा के कनमटकी वाला मूँदल आँख फट सियाँ खुल गेल । कौर चिबावइत फुलवा जिछना दने हियावे हे, तऽ देखे हे कि गुजुर-गुजुर दूगो आँख कटोरा दने ताक रहल हे । जब कौर उठावे तऽ ओकरा लगे कि हर कौर में फुलवा के आँख हे । नञ रहल गेलइ । आँख में पाँख ओकरा वंस में इहे, एकरा ले ऊ कि नञ कर सके हे ।; हम हरजोतवा के बियाहवइ ! चाहे भीखमंगा रहे ! निधुरीवा ! निजलिया ! मुदा हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ?) (आपीप॰2.16; 89.16)
654 पांगना (बेटवा कहलकइ - अब कि होतइ माताराम ? बनल-बनायल बाप-दादा के घर छोड़ि को अइल्हो शहर, अपन जाति भिजुन ! कहलियो केस करो, तऽ सेहो नञ । ई लफुआ बहिन के ... पांगि गेलइ, कि एकरा से कुछ नञ होतइ ! जाति ... जाति ... जाति के लीला देखल्हो ? जाति के खूब धो धो के चाटो ! वहाँ तो ऐसन होते हल तब लाख गो तुरते कहइ वाला हो जइते हल । जाति नञ हलइ से से कि ? यहाँ तो से नञ ?) (आपीप॰108.20)
655 पाछू (= पीछे, बाद में) (आखिर ऊ तय कैलक रात जहर खा के सुत जाय । सबेरे संसार से विदा । पाछू जेकरा जे कहइ के होवइ से कहते रहे, करते रहे ।; जा, हम ओतै बहस नञ जानी ! देखऽ हो महेश रात-दिन करि को सरकारी रूपइया निकाललका संसार अबूध हइ ? तों एगो बुधगर ... । ई बात धन्नू चा के लग गेलन छक दोको करेजा में । ठीक हइ, घूस में पैसा लागतौ ! पाछू हमरा नञ कहिहें । पैसवा खरच होवऽ हइ तब तोरा देह में नोचनी लागो लगऽ हौ ।) (आपीप॰15.10; 113.23)
656 पाछू-पाछू (सूपन कहलकइ - ऊ लहसवा कने से रहतइ पगली । बनिया ले जइतइ लहास ? चलें हम्मर घाट सूना हे । छोड़ें इ सब बम-बखेड़ा । - जो ने तोर घाट, तों अगोरें । हम देख लेवइ तब जइवइ । चिकुलिया चल देलकइ आगू-आगू । लाचार पाछू-पाछू सूपन भी गेला ।; सितिया लोटवा लैत मुस्का के कहलकइ - जो रे भोम्हा ! तोरा कुछ नञ बुझो अइलौ ! अऽ भीतर चल गेलइ । दूधा उझलि को लोटवा मैया पहमा भेजवा देलकइ । सौखवा दू छन खड़ा सोचैत रहलइ - हमरा कि नञ बुझो अइलइ ? फेर इहे सोचैत घर चल अइलै । बिहान दस बजे सितिया के रोकसदी हो गेलइ । सौखवा सवारी के पाछू-पाछू मन में इहे छगुनैत - 'हमरा कि नञ बुझो अइलइ ड़ सितिया से पूछ के रहबै ।' टीशन तक गेलइ ।) (आपीप॰36.12; 79.23)
657 पाटी (= पार्टी) (काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में !) (आपीप॰60.20)
658 पात (= श्राद्ध में दान करने के बरतन आदि) (उन्नैस हाथ लम्बा, दू हाथ चौड़ा, मारकिन के कपड़ा, गोबर से नीप जगह पर बिछा देल गेल हे । जेकरा पर लगल हे उन्नैस पात ! हर एक पात पर पीतर के एक थरिया, एक लोटा, एक गिलास, एक साड़ी, एक नम्बर कुर्त्ता ले कपड़ा । चावर-दाल, आलू-केला, सेव-नारंगी, पूड़ी-मिठाय ! मिठाय में लड्डू-जिलेबी-खाजा ! कपटी में रसगुल्ला ।) (आपीप॰68.15)
659 पाद (= अधोवायु, अपान वायु) (घीढारी जे करे सेकरा साल भर नदी नञ नाँघइ के चाही, बरी नञ पारइ के चाही, कोहड़ा लगावइ के या खाय के नञ चाही, सराध के अन्न नञ खाय के चाही ! एकर भाय के बियाह ठीक हो गेलइ हे । ई गांग पानी, नदी-नाला रहे तऽ कहल जाय ! ई गांग, बड़की गांग । ... बाप रे ! ओकरा नाँघि को ओय पार जाना ! जानि को जहर खाना ! तब दोष केकर ? हम्मर ! जे हम पार गेलियै । हम्मर बात घोड़ा के पाद ! बूढ़ भेलों तऽ दूर गेलों !) (आपीप॰98.9)
660 पारना (चिघार ~) (तहिने से जिछना ले सब बुतरू फुलवा बन गेल । उ पागल नियर जेकरा पकड़ऽ हइ सेकरा दबोचिये ले हइ । छाती से लगा ले हइ, चूम ले हइ । आव बुतरू-वानर ओकरा देख के चिघार पार के भाग जा हइ । भाग रेऽऽऽ, जिछनाऽऽऽ ... !) (आपीप॰5.17)
661 पाहुर (= छोटा बच्चा) (सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । .... सबेरे आधा दाम पर सूअर के पाहुर ले आवे ! काहे तऽ मरल पाहुर फेर ओकरे लौटा देते हल । भैंसि किसान अलगे ! गाय किसान अलगे हूर दिये । ई परम्परा अब समाप्त हो गेल । ई खास किसान के उत्सव हलइ । लछमी के तेउहार । किसान के लछमी तो गाइये, भैंर, बकरी आदि न हलइ ! ... उ पुरान प्रथा हम तनी-मनी देखलों हँ जब हम दस-बारह बरस के हलौं !; हूर ले पाहुर आ गेल ! ओकर चारो गोड़ मजबूत रस्सी से कसि को बान्हि देलकइ । ओकरा में एक से दू गो नौजवान पैना पेस के उठा लै, आर हूर ... ले हूर ... कह के भैंसिया के सिंघिया भिजुन दै। कोय-कोय भैंस तो पाहुर के किकियाहट सुन के लेह कबड्डी भागइ । कोय भैंस एकाह चौतर मारइ, पाहुर कें कें करइ !) (आपीप॰75.2, 9, 12, 13)
662 पिन्हना (= पेन्हना; पहनना) (हमर पाँव के आहट पाको एक बुढ़िया घर से निकलल, पाँचो हाथ नम्बा तगड़ा गोर बुराक, माथा के बाल उज्जर बर्फ, फह-फह बगुला के पाँखि सन साड़ी पिन्हने, जइसे छहाछत भारत माता, शीश मुकुट हिमवान देश का, या खुद सरसती माता ।; कुश के चटाय पर ओघड़इलों कि देखऽ ही, एगो बड़ी सुन्नर, जवान लड़की अधनंगा पोशाक पिन्हने घर में आयल !; जे उज्जर बगुला के पाँखि नियर कपड़ा पिन्हऽ हइ, खस साबुन लगावऽ हइ, चप्पल से नीचे नञ उतरऽ हइ, मुँह में पौडर लगावऽ हइ, कान में अतर के फाहा खोंसऽ हइ, से कइसे ओकरा जौरे सुततइ ? हरजोतवा जौरे !) (आपीप॰8.3, 15; 90.1)
663 पिन्हाना (= पेन्हाना; पहनाना) (कुछ सोंच के चिकुलिया कहलकइ - अजी एक काम करो ने ! हम पटना में देखलियइ हे, एइसे करइत । ताजा लहास हइ, अभी महकले ह नञ । एकरा पानी से निकाल के धो-धा के अप्पन कपड़ा पिन्हा के, तेल-फुलेल लगा के, अतर छिट के, रंथी पर सुता के, चारो कोना पर धूप-गुंगुल जरावैत रहिहो ! अऽ टिशनमा गेटा पर धर दिहो ! कफन के नाम पर अच्छे आ जइतो ! ई मुरदा घाट से बढ़िया ।; सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । साँझे सब किसान अपन बैल के सींग में तेल लगा लगा उरेह के नैका अपना हाथ से बनावल तरह तरह के फूल वाला फुदना सींग में पिन्हा रहल हे ।) (आपीप॰33.14; 74.15)
664 पिरथमी (= पृथ्वी) (हे बेटा ! जनिऔरी जात लक्ष्मी हथिन, लछमी ! जिनका से ई पिरथमी चल रहलइ हे । ऊ पूजय के चीज हिखिन । ओकर चेहरा नञ देखी, आँख नै मिलाबी । आँखिये से तो उ सब गुण बान ओझरइवे करऽ हइ । अगर औरत के देखो पड़े तऽ ओकर गोड़ देखइ के चाही ।) (आपीप॰77.21)
665 पीड़िया (एक मन करे पोखरिये के पानी पीली, बकि मन नञ भरे । जमकल पानी - सरदी-बोखार तो धैल हइ । नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर ।) (आपीप॰7.10)
666 पीना-पाना (गेलइ सूपन के बोलावइ ले तऽ देखे हे पी पा के बराबर ! उठैलकइ - तब तक निशा के हलका सुरूर आ गेलइ हल ! उठ के गाना गावो लगलइ आर नाचो लगलइ - "लोहा के गाटर में सड़िया जे फँसलौ, लहँगा भेलौ उघार गे ! घड़-घड़ घड़-घड़ गाड़ी अइलौ, भेलौ पुल के पार गे !" एतना कह के मागु के अँचरा खींचो लगला ।) (आपीप॰35.5)
667 पीपर (= पीपल) (तीनों गंगा के किछार में पीपर छाहुर तर बैठ गेला ।) (आपीप॰33.12)
668 पीयब (धन्नू चा महेश सबेरे तैयार होको जाफरी साहब के डेरवे में पकड़लका । जाफरी साहब नुग्गी पिन्हने वरंडा पर बैठि को चाह पीयब करऽ हलखिन । फेर भीतर हाँक देलखिन । हुनकर बेटी दू गो चाय आर लेने हाजिर हो गेलन ।) (आपीप॰118.24)
669 पुच्छी (= पूँछ) (सावन में जनमलें, भादो में देखले बाढ़, तऽ कहलें कत्ते पानी ! इ बाढ़ नञ, बाढ़ के पुच्छी हे । सन बीस वाला बाढ़ में टिल्हा-टाँकर सब डूब गेल हल ।) (आपीप॰1.13)
670 पुत्ता (छउड़ा ~, छउँड़ा ~) (जो तोरा से कुच्छो नञ होतौ । हम जो मरद रहतियौ हल तब देखा देतियौ हल ! हमरा सहियारल नञ जा हउ । देह में उद्वेग लगल हौ । हमरे चीज अऽ हम कहँय नञ । जो रे छउड़ा पुत्ता ! तोरा भोग नञ होइहौ !; बिहान महेश पपुआ माय भिजुन आयल । सारी नो सो से समझा देलकइ । पपुआ माय भीतर से कड़मड़ा गेलइ । कि कहऽ हो महेश ? तीन हजार ... मर दुर्र ... हो ... ई तो दीना दीनी डकैती भेलइ ! बम पिस्तौल से नञ लूटऽ हइ, कलम के मारि मरऽ हइ । गे मइयो रे ! छउँड़ा पुत्ता ... नञ लेब रूपइया ! करजे ने होत, जाय भँगलाहा ।) (आपीप॰38.2; 118.11)
671 पुन्न-परताप (= पुण्य-प्रताप) (कोय-कोय बेटा भगीरथ ! कभी-कभी पुरबज के पुन्न-परताप से पैदा होहे जे वंस के तार दै हे ।) (आपीप॰66.3)
672 पुरखायन (= पुरखैन) (पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन । पपुआ माय चूल्हा में गोइठा पैसावैत कहलकइ - हूँ हूँ, निकरामती मरद के गाल कतै ? अपनै मन बिलैया पुरखायन ! हमरा भिजुन जते सुना ला ! हम जानो हियौ नञ । घर बुधि बारह, बाहर बुधि तीन ! गाँव से बाहर विधाता उहो लेलका छीन ।) (आपीप॰112.7)
673 पुरनका (चुपके से एक देसी सिक्स रौण्ड पिसतौल कीनलकइ अऽ बारह गो गोली ! मइयो के जानो नञ देलकइ । एक रात फेर अइलइ - परकल गीदरा ककड़ी खेत ! उहे बेला ! छउँड़ी सबसे पहिले जगलै । भैवा के उठैलकइ ! ई उठि को आराम से, दिमाग असथिर करके तेजी से एक-एक गोली चारो के लगा को नरभस करि देलकइ ! फेर दू गोली कनपट्टी अऽ सीना में उतार के, तीनों उठल, वहाँ से चल देलक ! राते रात । अप्पन पुरनका घर आ गेल ।) (आपीप॰110.18)
674 पुरनकी (काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में !) (आपीप॰60.21)
675 पुरान (= पुराण) (आयल फागुन । अनरुध आ गेला । घर में खैलका । हाथ पोंछने मित्र भिजुन गेला । दोनो दोस्त गले-गले मिलला । कुछ ऐनौक-औनौक, कुछ देश-देशान्तर के खिस्सा । कुछ हाल-चाल । फेर मनोज अप्पन दुख के पुरान उलटे लगला । पुरान उलटते आँखि से ढब-ढब लोर गिरो लगल !) (आपीप॰103.13)
676 पूछने-पूछने (= पूछते-पूछते) (हम कहलूँ, रसतवो तो देखल नञ ने हइ ? फेर उ झपटल बाज नियर - कौन बूढ़ा हा ? जुआन तो हा । पूछने-पूछने लोग लन्दन चल जाहे, तों छौड़ा पूत के ओहारी कण्टा तर के गाँव भी नञ जा सकऽ हा ?) (आपीप॰6.22)
677 पूड़ी-तरकारी (कतना आदमी के खिलाना हइ पहिले ई तो ऐडिया मिल जाय । हर टोला के, महल्ला के, जाति के लोग अप्पन जनसंख्या बता देलखिन । फेर तो इसटिमिट बन गेल - दू थान ! लड्डू-जिलेबी, पूड़ी-तरकारी, आलू-परवल के रतोवा ! दही-चीनी रेड़म-रेड़ ! बस एकरा से जादा नञ !) (आपीप॰67.16)
678 पूड़ी-मिठाय (उन्नैस हाथ लम्बा, दू हाथ चौड़ा, मारकिन के कपड़ा, गोबर से नीप जगह पर बिछा देल गेल हे । जेकरा पर लगल हे उन्नैस पात ! हर एक पात पर पीतर के एक थरिया, एक लोटा, एक गिलास, एक साड़ी, एक नम्बर कुर्त्ता ले कपड़ा । चावर-दाल, आलू-केला, सेव-नारंगी, पूड़ी-मिठाय ! मिठाय में लड्डू-जिलेबी-खाजा ! कपटी में रसगुल्ला ।) (आपीप॰68.17)
679 पूनी (= चरखा या तकली पर सूत कातने के लिए बनी धुनी रूई की बत्ती) (टमाटर थकल-हारल गर्मी में पीपर के घनगर छाँह में बैठ के सोचऽ लगला, ओकरा जैसे लखा रहल हल, आगे रास्ता बहुत हइ । इ तो सबसे नीचला लोअर कोट हइ । एकर कौन ? केस में मानो अभी तो चरखा में पूनिये लगल हइ ।) (आपीप॰22.14)
680 पें (बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल । पें कि करइत हल बेचारा ! ... बहुत आदमी ओकरा बान्ह-छान के गिरा देलकइ - दहिना पुट्ठा पर सड़सी से दाग के तिरसूल के चिन्ह बना देल गेल ।) (आपीप॰69.11)
681 पेन्हना (= पहनना) (जब पूर्ण पिण्ड दान हो गेल तब पंडित जी हुकुम देलका - अब सँढ़दग्गी होवो दा । बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल ।; छउँड़ी सलवार फराक पिन्हऽ लगलइ । मइया कहलकइ - दुर ने जाय ! छिछियैली ! ई लदर-फदर ... एकरा पिन्ह के रोपइ में बनतौ ? पेन्ह ले घंघरिया आव उपर से अधबहिमा कमीचवा । सेकर उपर ओढ़निया ले ले । छउँड़ी सेहे कइलकइ ।) (आपीप॰69.9; 105.13)
682 पैड़िया (एक ~ रस्ता) (आरी-अहरी (उठ बन्दा, चल परसंडा, से चल देलूँ । जेठ के महीना । चलैत-चलैत दस एगारह बज गेल । टप-टप देह से घाम चूअऽ लगल, पियास से ठोर तिल-तिल सूखे लगल । एक पैड़िया रसता खेते-खेत कहैं आरी-अहरी काँटा-कुस्सा पार कइने-कइने पहुँचलों जहाँ देख के मन प्रसन्न हो गेल । जल भरल तालाब, तालाब पर घनगर पिपर के गाछ ।) (आपीप॰7.1)
683 पैड़ियानि (= पड़िआइन, पाँड़े की स्त्री) (करऽ ~ चौठ !) (टमाटर साव दोनों के खूब समझइलकइ - मुदा ! छौड़ी मुसकुरा के कहलकइ बाबू ! तोरा डर लगो तऽ चल जा, हम अभी नञ जइवो ! छँउड़ो ओतने बात ! टमाटर दुइयो जीव चित्त ! अब कि करवा, करो पैड़ियानि चौठ ... !) (आपीप॰28.4)
684 पैना (हूर ले पाहुर आ गेल ! ओकर चारो गोड़ मजबूत रस्सी से कसि को बान्हि देलकइ । ओकरा में एक से दू गो नौजवान पैना पेस के उठा लै, आर हूर ... ले हूर ... कह के भैंसिया के सिंघिया भिजुन दै। कोय-कोय भैंस तो पाहुर के किकियाहट सुन के लेह कबड्डी भागइ । कोय भैंस एकाह चौतर मारइ, पाहुर कें कें करइ !; अनरूध समझैलकन - मनोज धीरज धर ! कछौटा बान्ह ! तोरा राम-लछुमन दू बेटा । संसार कि कहतौ ? बियाह करभो बुढ़ारी में ! नतीजा ! कहावत में हइ - रात के तेल लगावी गेनरा ले, बुढ़ापा के बियाह दोसरा ले । अऽ बेटवा हो जइतो दुसमन ! मामूली नञ, भारी दुसमन ! अथी में पैना करि को खड़ी करि देतो !) (आपीप॰75.10; 104.1)
685 पोछना-पाछना (तोरा टीवेल भिजुन खेत हइयै हो । ओजौका दू बीघा खेत टेबि को जेकरा जिमा नया माल हइ, ओकरा बटैया दे देहो । कड़ैती नञ, कसरैती नञ, कंजूसी नञ, हिसाब-किताब नञ । दुलार करहीं, पोछैत-पाछैत मुँह खाय, आँखि लजाय ! राजी हो जइतइ । जब तक नया हइ, रहतइ, पुरान होतइ, घर जायत । आर कि ?) (आपीप॰104.17)
686 पोदीना (= पुदीना) (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग !) (आपीप॰91.14)
687 पोस्टमाटम (पुलिस थाना लाके मृतक के फोटो लेलक आर पोस्टमाटम ले सदर असपताल भेज देलक ।; कलेट्टर सी॰बी॰आइ॰ के जाँच ले लिख देलकइ । सी॰बी॰आइ॰ लिखलकइ जवाब में - अभी हमरा पाले बहुत केस धरल हइ ! हमरा लड़की के फोटो अऽ पोस्टमाटम रिपोट मिल जाय के चाही !) (आपीप॰37.3; 39.15)
688 फजिरे-फजिर (= भोरे-भोरे; सुबह-सुबह ही) (धन्नू चा कहलखिन हम चाह नै पियऽ हियै । ऊ बहुत आगरह कैलखिन, मुदा ई अप्पन बात पर अड़ले रहलखिन । बुतरू खड़ी-खड़ी चाह लेने घर चल गेल । जाफरी साहेब पूछलखिन - किधर फजिरे फजिर आये साहब ?) (आपीप॰119.4)
689 फरना (= फलना) (टमाटर फरो लगल, पाको लगल, बाजार में बिको लगल ।) (आपीप॰106.8)
690 फरस-बुकनी (~ छोड़ेवाला) (हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? किरानी बाबू कहलखिन - एकरा कुछ के कमी नञ हइ । धन आरे-दुरे । औकात मुताबिक इहे ठीक हइ । कुरसी पर बैठइ वाला सिरिफ फरस बुकनी छोड़इ वाला होतौ । लसर मेरहा ! देखइ में चिक्कन जेकर जूरा करे महँ महँ, पेट करे कुह कुह ! बेटिया जिनगी भर कानते रहतौ । कुरसी पर बैठइ वाला तो हमहूँ ने हिकियै ! तऽ कि हइ । सोचहीं ने ।) (आपीप॰89.19)
691 फरहर (मइया पूछलकइ - कैसन मन हौ गे ? अच्छे हइ मइया । जो सबेरे नहा-सोना ले, मन फरेस हो जइतौ । कै भेलो हे, खिचड़ी बना को खा ले । छरहर बनइहें, खूब सिझा के, मूँग दाल वाला । फरहर बनइभीं तब ने पचतौ ।) (आपीप॰16.9)
692 फराक (= फ्रॉक) (छउँड़ी सलवार फराक पिन्हऽ लगलइ । मइया कहलकइ - दुर ने जाय ! छिछियैली ! ई लदर-फदर ... एकरा पिन्ह के रोपइ में बनतौ ? पेन्ह ले घंघरिया आव उपर से अधबहिमा कमीचवा । सेकर उपर ओढ़निया ले ले । छउँड़ी सेहे कइलकइ ।) (आपीप॰105.11)
693 फराटी (= फराठी; फट्ठी; बाँस को फाड़कर बनाया चिपटा बत्ता या लट्ठा; बाँस का फाड़न) (ई अप्पन बिट्टा से बाँस काटि को खूब बढ़िया मचान गड़ि देलखिन - उपर से निच्चू पलानी भी । मचान के फराटी पर गद्देदार नेबारी के बिछौना । एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ ।) (आपीप॰106.3)
694 फरेस (= फ़्रेश) (मइया पूछलकइ - कैसन मन हौ गे ? अच्छे हइ मइया । जो सबेरे नहा-सोना ले, मन फरेस हो जइतौ । कै भेलो हे, खिचड़ी बना को खा ले । छरहर बनइहें, खूब सिझा के, मूँग दाल वाला । फरहर बनइभीं तब ने पचतौ ।) (आपीप॰16.8)
695 फर्द (= फरद) (कुछ दिन बाद ऊ टेबि को अइलइ, खूब सोचि विचारि को ! अपन जाति के मोहल्ला में जाको सड़क किनारे । चौराहा पर फर्द में टाट के झोपड़ी देको चाह के दोकान देलकइ ! छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ ।) (आपीप॰108.3)
696 फलदान (= छेका; विवाह पक्का करने की एक रस्म जिसमें किसी शुभ लग्न में वधू पक्ष की ओर से नकद, मिठाई और फल आदि दिया जाता है) (बड़ा मेहनत से मिल गेल करमचारी ! ओकर बाप भी हिनका पसीन कैलक । हिनकरो मन डूब गेल । खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी ! बाप चालू-पुरजा, घर पक्का-पोस्त, खाय-पीये में ठोस ! छोट घास-दाना में बड़ बढ़ियाँ । करीब तक पहुँच गेलखिन ! तीन लाख से एक छेदाम भी कम नञ ! वहाँ तो हों, जी हाँ कह के लौट अइला, फलदान के डेट देको ।; फलदान के दिन नगीच आ गेल । इष्ट-मित्र जुटला । फलदान के सरंजाम के हिसाब जोड़ो लगला !; लड़का के माँग हीरो हुन्डा ! बाप रे बाप ! कहाँ से जुटैबइ ? दिल बैठ गेल । फलदान के दिन टाल देलका !) (आपीप॰87.22; 88.2, 3, 9)
697 फसील (= फसल) (किसान लड़का के खोज होवो लगल ! संजोग से मिल गेल । बीस बीघा हिस्सा, दुआर पर टरेक्टर मैसी - फारगूसन । घर दोबारा पक्का पोस्त ! बाहर भीतर पलिस्तर ! ऐंगना भी पलिस्तर । कहैं माटी के दरेस नञ । ऐंगना में चाँपाकल, पैखाना, घर में टी॰भी॰ रेडियो कि नञ जे सब सामान होवऽ हइ । खेत में नहर-टीवेल । सालो भर सब तरह के फसील !) (आपीप॰89.2)
698 फह-फह (उज्जर ~) (हमर पाँव के आहट पाको एक बुढ़िया घर से निकलल, पाँचो हाथ नम्बा तगड़ा गोर बुराक, माथा के बाल उज्जर बर्फ, फह-फह बगुला के पाँखि सन साड़ी पिन्हने, जइसे छहाछत भारत माता, शीश मुकुट हिमवान देश का, या खुद सरसती माता ।) (आपीप॰8.3)
699 फाँड़ा (अचके जिछना के आँख चमक गेल । ओकरा याद आयल, वहाँ अस्पताल में खून खरीदल जा हइ । डूबइत के तिनका ... इहे उमक पर चल देलक पटना । जिछना सबसे पहले अस्पताल पहुँचल जजा खून खरीदल जा हल । खून बेच के खड़-खड़ौआ पाँच सौ रुपइया नगदी फाँड़ा में खोंस एन्ने-ओन्ने देखले दवाय के दोकान पर जा रहल हल ।) (आपीप॰4.25)
700 फारम (= फ़ॉर्म) (कहवै कि ? कत्ते लगतइ ? हजार-दू हजार । तब निकलवो तो करतइ - बीस हजार । रहे दू हजार कम्मे छौड़ा पूत के । धन्नू चा 'बेस' कहि को सबेरे चलि देलका बलौक ! अगरीकलचर लोन लै ले ! फारम लेलका - पाँच रूपइया ।) (आपीप॰114.4)
701 फिरिस (गाँव के गभरू जुआन सबेरे से भिड़ गेल काम में । सराध के फिरिस तैयार - पूरा विलखो सर्ग ।) (आपीप॰67.21)
702 फिहा-फिहा (ऐसन मत बोल बेटा । - नञ वप्पा ... बड़ी दरद ... वप्पा ! आँख मूँद लेलक, गुम हो गेल । अब जिछना के मुँह में वकारे नञ ! धान दिये लावा होय लावा ... । ऊ फिहा-फिहा हो गेल । अँगना में देखइ वालन के मेला जुट गेल ।) (आपीप॰3.19-20)
703 फुदना (सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । साँझे सब किसान अपन बैल के सींग में तेल लगा लगा उरेह के नैका अपना हाथ से बनावल तरह तरह के फूल वाला फुदना सींग में पिन्हा रहल हे । गारा में नया रंग-बिरंगा जोठ पगहा । बैल के पूरा देह पर चिलिम के छाप, लाल-पीयर-हरियर तरह तरह के रंग में देखैत बने ।; गाय के तो सिंगार मत कहो, देखैत बनतो हल । सींग में औरत आको, जेकरा दुबिनी कहऽ हइ, घी सिन्नुर लगा दिये । कोय ललका, कोय किसान भखरा सिन्नुर लगवावे । कोय सोनमा सिन्नुर से सींग चमचमावय ले लगावावै । जोठ फुदना चिलिम छाप , चिरमिच्ची छाप । तरह-तरह के छाप मत पूछो । मरद गाय के सींग में सिन्नुर नञ लगावऽ हलइ ! काहे तऽ गाय माता हिखिन !) (आपीप॰74.14, 19)
704 फुसलौनी (ऊ बुढ़िया हिकइ दलाल, फुसलौनी माय, गहकी बझा को लावऽ हइ । उहे आमदनी से ई चलि रहलइ हे । आर कि कुछ रोजी-रोजगार हइ ? कि खेती ?) (आपीप॰10.6)
705 फूस-फास (इ हथिन विधायक जी ! सांसद जी ! इ जनता के वोट नञ माँगऽ हथिन, क्रिमनल से वोट लुटवा लऽ हथिन । ... इ घोटाला करऽ हथिन ! जेल जा हथिन, तइयो कुरसी नञ छोड़ऽ हथिन । ... इनकर अलग वेवस्था होवऽ हइ, जहाँ सारी सुविधा हिनकरा हइ । ... वहाँ सारी से मिलऽ हथिन । घरवाली से मिलऽ हथिन ! ... फेर बाहर आवऽ हथिन । सड़क के मिट्टी खा हथिन, गिट्टी खा हथिन । अलकतरा पियऽ हथिन । केस हो जा हइ फूस-फास । बेदाग कोट से बरी हो जा हथिन ।) (आपीप॰27.8)
706 फेर (= फिन, फिनो, फिर) (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल । बिहान फेर बोखार ।; ऊ रात अदरा के खीर-पूड़ी बनलइ हल, आँठे-आँठ खा लेलकइ हल ! इ अलाय-बलाय चीज पेट में जाते मातर फेंक देलकइ । फेर कुल्ला कलाला करके सुतलइ ! फेर दुबारे कै । दोसर बेरी में मइया जागलइ । पूछलकइ - कि भेलौ गे ? कुछो ने मइया । नञ पचलइ । बिगि देलकइ ।) (आपीप॰3.1; 15.23, 24)
707 फोंफाही (धन्नू चा कुरोधि को कहलखिन - फोंफाही ! तोरा अथी में अथी करों ! तऽ हम कि जानऽ हलियै ! फाँसी होतइ से हमरा ने ! हम जानवइ । तों बइठें चुपचाप ।) (आपीप॰121.14)
708 फोटू (= फोटो) (बिना ओकरा तोड़ने जीत असम्भव ! किलियर फोटू हो कि ज्ञानदा बाबू जीत जयथुन ! से दिन से ओकरा न रात के नींद, न दिन के चैन मिलो लगलइ ।; नाव ओय पार लगल हल । कनियाय कल-कल छल-छल करि को बहैत गंगा के निरमल धार के देख हरखित मन से परनाम कैलकी । फेर बुढ़िया के एक-एक बात - साल भर नदी पार नञ जाय के चाही, कोहड़ा नञ रोपइ के चाही ... आदि-आदि दिमाग में सिनेमा के फोटू सन आवो लगलन ।) (आपीप॰62.18; 99.19)
709 फोरन (ई नोट के गड्डी हाथ में ले को गिनलक तऽ देखे हे पाँच हजार ! गड्डी लौटावैत जेलर से कहलक - एतना में फोरन होतइ ? कम से कम एतना आर । तब हँटवौ !) (आपीप॰46.6)
710 फोहवा (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।) (आपीप॰6.9)
711 फौदारी (फौदारी तो एक सीमाना तक चल के झर सके ह ! मुदा दीवानी के दीवानगी तो निराला हइ । चाहो तो पुश्त-दर-पुश्त खींच सकइ हा !) (आपीप॰22.5)
383 जजा (= जेज्जा; जहाँ, जिस जगह) (अचके जिछना के आँख चमक गेल । ओकरा याद आयल, वहाँ अस्पताल में खून खरीदल जा हइ । डूबइत के तिनका ... इहे उमक पर चल देलक पटना । जिछना सबसे पहले अस्पताल पहुँचल जजा खून खरीदल जा हल । खून बेच के खड़-खड़ौआ पाँच सौ रुपइया नगदी फाँड़ा में खोंस एन्ने-ओन्ने देखले दवाय के दोकान पर जा रहल हल ।) (आपीप॰4.24)
384 जजै-तजै (= जजइ-तजइ; जहाँ-तहाँ) (कातिक में हरजोतवा अइतइ गँहूम बुन के, गोड़ में बियाय फाटल रहतइ । रात के मागु जौरे सुततइ । गोड़ा पर गोड़ा चढ़ैतइ । जों कहैं पियार से गोड़ा रगड़ देतै एकरा दन दोको लहू बह जइतइ । सबेरे इलाज करावो । हाथ बाँहि पकड़तइ ! जजै तजै छिला जइतइ, नछुड़ा जइतइ ! मर्रर्र दुर्र हो ! कते खोलि को कहियौ ! कुछ बुझवै नञ करऽ हइ । तनी अपना मन में लाजो नञ लागऽ हइ मर्दबा के गे माँय !) (आपीप॰90.6)
385 जजो (= जजा, जज्जा; जिस जगह) (ऊ उठल, सुतली रात में सान्ही-कोना खोजो लगल । खुर-खुर के आवाज सुन के भइया जागलइ । पूछलकइ - की करऽ हीं गे ? मइया देखहीं ने, कनबलिया वाला डिब्बा जजो धैलियै हल ओजो नञ हइ ।) (आपीप॰15.15)
386 जड़कुन (~ सिल्ली) (जिछना पहिले ऐसन नञ हलइ, की जन दस दिन में एकरा की हो गेलइ है ? अब तो दुबरा के खिखनी हो गेलइ, नञ तऽ एकर देह ... ? देखइत बनऽ हलइ । सोंटल सिलोर, जुआन जइसे कोय ताड़ के जड़कुन सिल्ली होय ।) (आपीप॰1.8)
387 जतरा-पतरा (झखुआ पती-पत्नी पन्दरह दिन बाद पटना से घर आयल ! बुतरू के कंचन काया ! भाय के गोदी में देको गोड़ लागलइ । कहलकइ देखल्हो माताराम ? जतरा-पतरा - ई सब अंधविश्वास हइ ।) (आपीप॰101.18)
388 जते (= जत्ते; जितना भी) (पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन । पपुआ माय चूल्हा में गोइठा पैसावैत कहलकइ - हूँ हूँ, निकरामती मरद के गाल कतै ? अपनै मन बिलैया पुरखायन ! हमरा भिजुन जते सुना ला ! हम जानो हियौ नञ । घर बुधि बारह, बाहर बुधि तीन ! गाँव से बाहर विधाता उहो लेलका छीन ।) (आपीप॰112.7)
389 जत्ते (= जितना; जहाँ कहीं भी) (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !; ओकर बाप से मिलके चले कहवै । जब छौड़ा-पूत्ता एकरे ले भूखल हइ तऽ बियाहे कर लिये । करे जत्ते मन होवइ ।) (आपीप॰91.9; 109.5)
390 जनमना (= जलमना; जन्म लेना, पैदा होना) (माय काली ! एत्ते तो खोंटा-पिपरी नियर धरती पर आदमी जनमि गेलइ ! एकरा काट-वाछ नञ करभो तब जुलुम हो जइतइ, माता । जुलुम तो हो रहलइ हे । जल्दी-जल्दी मारने जाहो आर हम्मर घाट में भेजने जाहो । से तों करवे नञ करऽ हो ! उल्टे मरऽ हइ एक, तऽ जनमऽ हइ हजार । छेरकट उड़ा दऽ हइ । अनगिनती ! अब जरूरत हलइ, जनमते हल एक, आर मरते हल अनगिनती । तब संसार बलेन्स में रहतो हल ।) (आपीप॰31.14, 16, 17)
391 जनिऔरी (= जन्नी, औरत) (तब पेट काटि को पचास हजार जमा कैलकइ हल । गाल के माँसु चिबा को । दस बीघा खेत । एगो माय-बेटा ! मोसामत जनिऔरी । कहियो कथा-पूजा कइले होतइ ?; हे बेटा ! जनिऔरी जात लक्ष्मी हथिन, लछमी ! जिनका से ई पिरथमी चल रहलइ हे । ऊ पूजय के चीज हिखिन । ओकर चेहरा नञ देखी, आँख नै मिलाबी । आँखिये से तो उ सब गुण बान ओझरइवे करऽ हइ । अगर औरत के देखो पड़े तऽ ओकर गोड़ देखइ के चाही ।; अग्गे माय ! झखुआ मागु सन जबरदस्त जनिऔरी नञ देखलों हें । लाख कहैत रहलियै ! कनियाय ! एकादसी हमरा नञ धारे हे । एकादसी कइलैं हमर झखुआ के बाप अकाश उड़ गेला । से दिन से हम एकादशी के शुभ काम नञ करऽ ही । दोसर कोय तिथि में जइहा, कोय हर्ज नञ !) (आपीप॰71.24; 77.21; 98.10)
392 जने (= जन्ने; जिधर) (जने ... तने) (जने हियावऽ तने पानिये पानी लखा हे । दूर-दूर तक फइलल पानी समुन्दर के लेखा ! गाँव जइसे समुद्दर में जहाज लंगर डाल देलक हे, इ परलय में के साबूत बचल ? हमरा जानिस्ते तो कोय नञ ।) (आपीप॰1.17)
393 जनौआ (= जनेऊ) (जे बड़ाय करें तो ऐसन । यहाँ तोर बाप, हमरा बाप के गोड़ पर जनौआ धर के कहलखुन । अब जनौआ के लाज तोहरे जिमा । तब जाको कहैं हमरे तोरे जूड़ा बन्हन भेल । लछमी अइली हमरा घर । तोरा अर छोटहा खनदान मानऽ हलखिन हमर बाप !) (आपीप॰113.17, 18)
394 जन्नी (= स्त्री, पत्नी) (उ रसता कि बतैलक, हमर जन्नी के मन बढ़ा देलक । कहलक - जल्दी खा आर ठंढे-ठंढी चल जा ! हमरा कोय बहाना नञ रह गेल हल । खइलूँ अऽ भारी मन से दुखी चलइ घड़ी कहलूँ अपन मागु के - अहे ! कहावत हइ कि साल भर के रसता चली, मुदा महिना वाला नञ । हमरा ई सौटकट में खतरा मालूम दे हौ ।; काम बहुत जरूरी हइ, मरद के सुनइ के नञ हइ । जन्नी के बात हिकइ । हमरा तोहरा बीच कौन चीज गुप्त हइ । गुप्त से गुप्त चीज तो ... । ठीके कहऽ हियो । तोरा सुनइ के नञ हो । सुनभो त नञ अच्छा लगतो । दिमाग चकरा जइतो !; अरे ! तोरा सुनइ के नञ हइ । जन्नी वाला बेमारी हलइ । कि कहियौ ।; जब बप्पे कहलकइ - लड़े ने भोम्हा ! बजड़ जइवें तऽ बजड़िये सही ! जन्नी हिखीं जे चूड़ी फूटतइ ? बकलोलवा । लड़ गेलइ । पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ !) (आपीप॰6.16; 18.1; 20.14; 76.15)
395 जमकल (~ पानी) (एक मन करे पोखरिये के पानी पीली, बकि मन नञ भरे । जमकल पानी - सरदी-बोखार तो धैल हइ ।) (आपीप॰7.9)
396 जमाहर (~ लाल = जवाहर लाल) (धन्नु चा जैसे चिढ़ावइ ले आझ बैठलखिन हल ! मुसुका को कहलखिन - पपुआ माय ! एकाह दिन जो बजार जा हियै - से मे तो बजार के कत्ते लोग जे नहियों चिन्हऽ हइ सेहो, परनाम पहलवान जी ! राम राम खलीफा जी ! अहो, हम मामूली हियै ? दशा-दिशा नर पूजिता ! पपुआ माय अधकट्टी चनरमा कट मुसुक्का मार के कहलकन - ऊ हूँ, तोरा ने ? तनी एक जमाहर लाल ई बाबू साहेब, से हिनखा कुले परनाम करऽ हन । देखियो तो कुले ला रहलऽ हे, सरकारी गहूँम, सरकारी रूपइया । तोरो से होतइ ?) (आपीप॰112.16)
397 जर-जिद (कनियाय जब सवारी चढ़ली - मने मन छगुनैत गेली । कने से कनकट्टी बुढ़िया, झाँझी कुतिया माइयो ! बचलइ हल जतरा भगन करइ ले । हमरा पर तो जर-जिद से पड़ल हइ माइयो !) (आपीप॰99.10)
398 जरलाहा (भोरे-भोरे बाँसुरी के बजा दे हइ ? हमर मन उख-विखा दे हइ । के बजावऽ हइ ? काहे बजावऽ हइ ? जरलाहा ! दूत-भूत तो नञ हइ ?) (आपीप॰81.2)
399 जराइन (चावल, दाल आदि का) (चलल जा हलइ । पंचू मिललइ । बुधना पुछलकइ - कि पंचू ? कैसन रहलइ ? खइला हा खूब ? पंचू कहलकइ - अच्छे हलइ नुनु । तनी बरहवा दिन अलुआ वाला तरकरिया लागइ काँचे रहि गेलइ हल । अऽ तेरहवा दिन दलिया शायत तनी लगि गेलइ हल, तनी जराइन लागइ ।) (आपीप॰70.21)
400 जात (= जाति, वर्ण; वर्ग) (मैया के नजर दुइयो के दिल के किताब पढ़ लेलकइ ! पूछलकइ - कौन जात हइ सुबीर गे ? माया मुसका के कहलकइ - अपने ! मैया सुन के गुम तो हो गेलइ मुदा मन के शंका नञ गेलइ !) (आपीप॰86.16)
401 जाति-कुटुम (एक दिन चार गो लफुआ अइलइ - मइया-बेटवा के केप्चर कर लेलकइ, पिस्तौल देखा के, लगभग बारह बजे रात में ! एकाएकी छउँड़ी के बलात्कार करि गेलइ । छउँड़ी बदहोश ! भैवा कहलकइ - चल मैया । बलात्कार के केस नामी होवऽ हइ । बड़ी कड़र । चारो के हम चिन्हऽ हियै । कर दियै केस । मैया कहलकइ नैं बेटा । ओकर कुछ नञ बिगाड़ि होतइ, बिगड़ जइतौ तोरे । गोजो । नान्हि वारि हइ, जाति-कुटुम के पूछतइ ? जो डाकदरनी यहाँ देखा दहीं ।) (आपीप॰108.14)
402 जानिस्ते (= की जानकारी में) (जने हियावऽ तने पानिये पानी लखा हे । दूर-दूर तक फइलल पानी समुन्दर के लेखा ! गाँव जइसे समुद्दर में जहाज लंगर डाल देलक हे, इ परलय में के साबूत बचल ? हमरा जानिस्ते तो कोय नञ ।) (आपीप॰1.19)
403 जामनी (= जामिन) (हरिण के ~ सूअर) (दुलो चा गरजि को बोलो लगलखिन - यह ! यह ! चूड़ा के गवाही दही ! हरिण के जामनी सूअर ! कवि के दोस्त हिकन जिगरी ! मिलावो लगला । खूब नोन-तेल लगावो लगला ! अभियों कि नञ हइ ओकरा ! चार बीघा जमीन हिस्सा ! अपने भी बी॰ए॰ पास, मागू भी पढ़ल ! गाँव भर के नुग्गा सीये ! दरजीनी बीबी ! अब कि चाही ?) (आपीप॰94.22)
404 जिमा (~ लगाना) (इनरदेव बाबू बिना कुछ कहने सुनने दरखास में औडर सीट लगा के दसखत जे करइ के हलइ करिको जिमा लगा देलखिन ।) (आपीप॰117.14)
405 जिमा (= जिम्मा) (खइलूँ अऽ भारी मन से दुखी चलइ घड़ी कहलूँ अपन मागु के - अहे ! कहावत हइ कि साल भर के रसता चली, मुदा महिना वाला नञ । हमरा ई सौटकट में खतरा मालूम दे हौ । उ डाँट देलक । हों, तोहरा दिने में बाघ झपटऽ हइ ? तोरा जिमा में कि हइये हो जे चोर-चुहार लेतइ ?; ऊ घर से एक पिसतौल लेके आल, अऽ हम्मर कनपट्टी में भिड़ा को कहलक - निकाल जे कुछ जिमा में हौ ! हम कानो लगलूँ, कहलूँ हम नेवता पूरे लै जाही । बाप रे ! कइसे नेवता पूरतइ ?; बहिन, हम तो सिरिफ पानी पियइ ले अइलूँ हल । ऊ कहलक - तऽ पानी पी के चुपचाप चल देतें हल । ई सब करइ ले के कहलको ? अऽ कइल्हीं तऽ एकर दाम दहीं, जल्दी कर । हमरा जिमा में जे कुछ हल निकाल के दे देलूँ । ऊ टो-टा के सगरो देख लेलक, कहलक - जो चुपचाप ।; यहाँ तोर बाप, हमरा बाप के गोड़ पर जनौआ धर के कहलखुन । अब जनौआ के लाज तोहरे जिमा । तब जाको कहैं हमरे तोरे जूड़ा बन्हन भेल । लछमी अइली हमरा घर । तोरा अर छोटहा खनदान मानऽ हलखिन हमर बाप !) (आपीप॰6.20; 9.19, 25; 113.18)
406 जिला-जवार (= जिला-जेवार) (एक लंगौटा पर पाँच कुश्ती मारलकइ ! सब पूछइ - इ कहाँ के जुआन हइ ? कि नाम हिकइ ? फेर तो एकर नाम इलाका में खिँड़ गेलइ ! जहाँ-जहाँ दंगल होय, एकरा बोलावो लगलइ । जिला जवार में नामी पहलमान हो गेलइ !) (आपीप॰76.21)
407 जी-फेरन (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... तोर बेटी के मन करतौ बूँट के भूँजा खाय के । बाजार से खरीद के लइतौ एक सौ गिराम ! चालीस रूपइया कि॰ । छिपिया पर रख के चार-चार दाना मुँह में चिभला-चिभला खइतौ ! नितरा-नितरा ! बूँट के भूँजा । ऊ खाना नञ भेल, खाली जी फेरन । भगवान ने करे ऐसन होय !) (आपीप॰92.7)
408 जुआन (= जवान) (जिछना पहिले ऐसन नञ हलइ, की जन दस दिन में एकरा की हो गेलइ है ? अब तो दुबरा के खिखनी हो गेलइ, नञ तऽ एकर देह ... ? देखइत बनऽ हलइ । सोंटल सिलोर, जुआन जइसे कोय ताड़ के जड़कुन सिल्ली होय ।; जुआन बेटा चलल जा हइ । जान के जहर खाय, देव के दिये दोख । डाकदर के मना कइलो पर मछली खिला देलकइ । गठरिया खुले न बहुरिया दुबराय । ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे ।; गाँव के गभरू जुआन सबेरे से भिड़ गेल काम में । सराध के फिरिस तैयार - पूरा विलखो सर्ग ।; सौखवा दूध पीके, कुश्ती खेल के साले भर में जुआन हो गेल । लमगर-छड़गर गैदुम शरीर, गेहुआँ रंग । सुन्नर कत्ते लगइ ! पुट्ठा पर माँस । गरदन से लेको कान्हा तक लगइ जैसे साँढ़ के रहे ।) (आपीप॰1.8; 3.21; 67.21; 76.5)
409 जुकुर (पीयर-पीयर चमकदार जैसे सोना के पाँखि होय । मथवा पर ललका गुलाब के फूल नियर, पुछिया झवरल उज्जर चौर नियर । देखइ के चाही, देखइ जुकुर हे, बकि के जा हइ एते ठंढा में बँसविट्टी ...।; बेटवा से कहलकइ - बेटा ! कोय ऐसन जगह खोजहीं जहाँ-जे शहर के टोला-मोहल्ला में अपन जाति के चलती होय ! काहे कि अब बहिनियो बियाहे जुकुर हो गेलौ ! जाति के अंक लागि जइतइ । हमहूँ निट्ठाह ।) (आपीप॰82.8; 107.24)
410 जुग-जमाना (जुगो-जमाना अब कैसन हो गेलइ ? तहिया मागु रहऽ हल मरद के कहला में ! अब मरद हो गेलइ मागु, आव मागु हो गेलइ मरद । छउँड़ा के जतने पढ़ावऽ हइ ओतने पढ़ऽ हइ ।) (आपीप॰98.21)
411 जुमना (सोहगी अपना के ओकर पंजा से मुक्त हो को भागइ के कोरसिस कैलकइ । बकि मरद के पंजा में कसमसाल जवानी भरल-पूरल छटपटाइत ... औरत के उहे मरद छोड़ सकऽ हे जे नामरद होतइ ! नञ छोड़लकइ ! एतने में बुन्देला चा ओने से जुम गेलखिन ! कहलखिन - इहे पढ़ाइ एजो चलऽ हे हो ! रसलीला ।) (आपीप॰84.14)
412 जूड़ा-बन्हन (जे बड़ाय करें तो ऐसन । यहाँ तोर बाप, हमरा बाप के गोड़ पर जनौआ धर के कहलखुन । अब जनौआ के लाज तोहरे जिमा । तब जाको कहैं हमरे तोरे जूड़ा बन्हन भेल । लछमी अइली हमरा घर । तोरा अर छोटहा खनदान मानऽ हलखिन हमर बाप !) (आपीप॰113.18)
413 जूरा (हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? किरानी बाबू कहलखिन - एकरा कुछ के कमी नञ हइ । धन आरे-दुरे । औकात मुताबिक इहे ठीक हइ । कुरसी पर बैठइ वाला सिरिफ फरस बुकनी छोड़इ वाला होतौ । लसर मेरहा ! देखइ में चिक्कन जेकर जूरा करे महँ महँ, पेट करे कुह कुह ! बेटिया जिनगी भर कानते रहतौ । कुरसी पर बैठइ वाला तो हमहूँ ने हिकियै ! तऽ कि हइ । सोचहीं ने ।) (आपीप॰89.20)
414 जेकरा (= जिसे, जिसको) (बाप रे ! जिछना चलल आ रहलइ है । हम्मर नाटक मंडली के छोट बुतरू एकरा देखते भाग जा हइ काहे ? ... तऽ जेकरा पकड़ऽ हइ, सेकरा चूम ले हइ, अंकवरिया में कस के वान्ह ले हइ, छोड़इ ले नञ चाहऽ हइ, इहे से बुतरू-वानर अलगे-अलग रहइ ले चाहऽ हइ ... दूरे से ढेला फेंक के मारऽ हइ ।; ई बात कही केकरा ? मन के मीत भिजुन जब मन के बात खोलल जा हइ, तब दुख कुछ हल्का हो हइ । ओकरा सिवाय कोय ऐसन मीत नञ हलन जेकरा भिजुन खुलि को रो सकऽ हथ !) (आपीप॰1.2; 103.9)
415 जेठका (कि जने कि होत ? आखिर होय बिहान, होय बिहान, चिट्ठी लिखलकी - मैया जी, सादर परनाम । बाबू के ! भैया के ! दीदी के ! गोड़ लागी । सब बड़कन, जेठकन, छोटकन के पाँय लागी । हाल यहाँ के भगवान भरोसे !) (आपीप॰101.3)
416 जेबी (= जेभी; जेब) (जैसइ हाकिम से मिलै ले दुअरिया पर गेलखिन कि चपरसिया रोकि लेलकन । ए ! पहलवान जी, क्या है ? लाइये हम दे देंगे । अभी साहेब काम में है । -'करजा के दरखास !' धन्नू चा कहलखिन । चपरासी दरखास लेको अप्पन जेबी में रखि को कहलकन - जाइये ! अब आप निचीत से बैठिये । काम हो जायगा ।; महेश कहलकइ चपरासी से - टेबुल पर दहीं दरखास । चपरासी बोललइ - अभी साहब का मूड नहीं है । आप जाइये । हम दे देंगे । - अब कि तों तिरैता में देवें ? नञ तब दे दरखास, हम अपने से देवइ ! - हम नहीं देंगे । बस, एतना कहना हलइ कि धन्नू चा हँथे ऐंठि को चढ़ा देलखिन ! ऊ खट सना दरखास निकालि को जेबिया से दे देलकइ !) (आपीप॰114.12; 115.8)
417 जोट्टा (बुन्देला चा कहलखिन - कि ई अवजवा ? हम तो देखलियै हे । जंगल देश के बड़ी सुन्नर नर-मेघी दू चिराँय हइ । अऽ जोट्टे बोलऽ हइ । वह बँसविटिया में ।) (आपीप॰82.4)
418 जोठ (~ पगहा) (सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । साँझे सब किसान अपन बैल के सींग में तेल लगा लगा उरेह के नैका अपना हाथ से बनावल तरह तरह के फूल वाला फुदना सींग में पिन्हा रहल हे । गारा में नया रंग-बिरंगा जोठ पगहा । बैल के पूरा देह पर चिलिम के छाप, लाल-पीयर-हरियर तरह तरह के रंग में देखैत बने ।; गाय के तो सिंगार मत कहो, देखैत बनतो हल । सींग में औरत आको, जेकरा दुबिनी कहऽ हइ, घी सिन्नुर लगा दिये । कोय ललका, कोय किसान भखरा सिन्नुर लगवावे । कोय सोनमा सिन्नुर से सींग चमचमावय ले लगावावै । जोठ फुदना चिलिम छाप , चिरमिच्ची छाप । तरह-तरह के छाप मत पूछो । मरद गाय के सींग में सिन्नुर नञ लगावऽ हलइ ! काहे तऽ गाय माता हिखिन !) (आपीप॰74.15, 19)
419 जोप्प (= चुप्प !) (चिकुलिया के पँजोठ के चुम्बा लैत कहलखिन - वाह गे ! चिक्को रानी ! ई तोरे लुर-बुध के कमाय हे भाय ! सब पैसा तोर ! मुदा हमरो मेहनत एकरे में, बस एक बोतल ! ... सूपन कहलका एक नमरी ! बस ... । जोप्प ! पचास रूपइया दैत चिक्को कहलकइ - एकरा से वेसी नञ !) (आपीप॰34.15)
420 जौंआँ (= जुड़वाँ) (मनोज बाबू ! अपने देखइ में सुन्नर ! दस बीघा सुत्थर जमीन ! भाय में अकेले ! गाँव में मान-परतिष्ठा ! मागु सुन्नर, पढ़ल, आग्याकारी ! भगवान उरेहि के जोड़ी मेरैलखिन ! समय के साथ - दू बेटा ! बेटा कही बेटा नियर ! जैसन माय-बाप वैइसने ! कद-काठी के - लगे जइसे दुओ जौंआँ होय ।) (आपीप॰102.4)
421 जौर (~ करना = इकट्ठा करना) (जानऽ हीं, घर में बैठल रहला से देह में घुन्न लग जा हइ । रोज चरावइ ले आवें ! तनी देह में माटी लगायल करहीं, बल बनल रहतौ । डंड-कुश्ती मारहीं । । नञ रोज अइवें तऽ एक काम करें । तों गइया खोल के हमरा जौर कर दे । एकाह घंटा खेल के चल जो, हम साँझ तक चरइने चल अइबौ । मुदा रोज आवें । बचपन के नगौटिया ! तों आ जाहें तऽ हमरो मन लग जाहे । एइसे मनुआयल रहऽ ही । सीतिया बेस कह के चल गेल । से दिन से सबेरे गैया जौर करइ ले जाय लगलइ । एक घंटा के करीब रहइ ।) (आपीप॰77.11, 14)
422 जौराती (बेटा कहलकइ - कहिया ओकरा सजाय देथिन कि नञ देथिन ? तों देखवें कि नञ देखवें ? भगवानो अमीरे के पच्छ में रहऽ हथिन ! हमरा गरीब ले कोय नञ ! ओते गाँव में आदमी हइ ! एकाध गो तोर साथी जौराती भेलो ? पंच खोजल्हीं, मिललो ? जे मिललो, मुँहदेखवा ।) (आपीप॰29.1)
423 जौरे (= साथ में; एक साथ) (जे उज्जर बगुला के पाँखि नियर कपड़ा पिन्हऽ हइ, खस साबुन लगावऽ हइ, चप्पल से नीचे नञ उतरऽ हइ, मुँह में पौडर लगावऽ हइ, कान में अतर के फाहा खोंसऽ हइ, से कइसे ओकरा जौरे सुततइ ? हरजोतवा जौरे !) (आपीप॰90.1)
424 जौरे (= साथ में; एक साथ) (हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ? जे उज्जर बगुला के पाँखि नियर कपड़ा पिन्हऽ हइ, खस साबुन लगावऽ हइ, चप्पल से नीचे नञ उतरऽ हइ, मुँह में पौडर लगावऽ हइ, कान में अतर के फाहा खोंसऽ हइ, से कइसे ओकरा जौरे सुततइ ? हरजोतवा जौरे !) (आपीप॰89.24; 90.1)
425 झमटगर (= झमठगर) (भीतर दरवाजा के दोनो तरफ नारियल के गाछ, बाहर पीपर के, अँगना नीक को गोबर माटी से नीपल, चिक्कन छह-छह, घर के इसान कोना में खूब सुन्नर कुँइया, ओकरा पर उभैन लगल बालटी, बगल में तुलसी चौरा, महावीर जी के धजा गड़ल, चन्नन के झमटगर गाछ, घन छाहुर ।) (आपीप॰7.19)
426 झमाना (हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? ... कुछ रहे कि नञ, हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ?; परसू मिललइ । ओकर गोर सुनहला चमड़ी झमायल तामा के रंग के हो गेलइ हल ! मुदा भीतर से पनकोरवा टहक लेने, चमकदार हलइ । पूछलियै - सुनलियौ नदी में बालो ढोवइ ले जाहें ?) (आपीप॰89.23; 95.18)
427 झमोरना (मोहना सुर ताल-राग बदलै ले मन में कुछ गीत गुनगुनावो लगलइ ! इहे बीच छोऊँड़ी के मन में कुछ सरारत सूझलइ । मचना के खंभा पकड़ि को खूब झमोर के तेजी से भाग गेलइ, अन्हार कुप्प बँसविट्टी में !) (आपीप॰82.23)
428 झवरल (पीयर-पीयर चमकदार जैसे सोना के पाँखि होय । मथवा पर ललका गुलाब के फूल नियर, पुछिया झवरल उज्जर चौर नियर । देखइ के चाही, देखइ जुकुर हे, बकि के जा हइ एते ठंढा में बँसविट्टी ...।) (आपीप॰82.8)
429 झाँझी (~कुतिया) (कनियाय जब सवारी चढ़ली - मने मन छगुनैत गेली । कने से कनकट्टी बुढ़िया, झाँझी कुतिया माइयो ! बचलइ हल जतरा भगन करइ ले । हमरा पर तो जर-जिद से पड़ल हइ माइयो !) (आपीप॰99.10)
430 झार (= झाड़) (ऊ कहलकइ - बेटा के कि ? झारो मुत्ते पातो मुत्ते ! बेटिया तोर बहकल हो तब कोय जा सकऽ हइ । तोरा तोर काम में के मना करतो ! दिन के चाह, रात को बजार खोलि देल्हो तऽ कोय जा सकऽ हइ ।) (आपीप॰109.20)
431 झिगुली (= झिंगली, झिंगनी, झिंगुनी; झिंगा का ऊनार्थक) (बगैचा में आम ! कच्चा से पाकल तक । जते खा । अँचार बनावो । बैना बुलावो । जे जी में आवो करो । बरसात में सबरे लेने अइतन खीरा-परोर-झिगुली-भिण्डी-मकइ के भुट्टा !) (आपीप॰91.18)
432 झिट्टी (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.7)
433 झुँझुआना (अग्गे माय ! कत्ते मीठ ! उट्ठ गे मैया ! मन करऽ हौ ओजै चलल जाय ! सोहगी कहलकइ ! मैया एक बेरी झुँझुआ उठलइ । मर्र दुर्र, ने जाय ... कठ-कुकरी ! तोरा कि लऽ हौ ? सुतें ने । अभी कइसन जाड़ा हइ ! नै अपने सुततौ, नै सुते देतौ दोसरा के !) (आपीप॰81.4)
434 झुट्ठा (= झूठा) (हम तो जीत में हलूँ । मुदा हमर बाप के ई अच्छा नञ लगल । ओकरा भंगलाहा के चाहतिये हल खुशी-खुशी ओकरा से बियाह दै के । से नञ करके उलटे झुट्ठा केस में फँसा के हमरा जेल पहुँचा देलक ।) (आपीप॰44.7)
435 झुलुआ (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ ।; दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।; सौखवा पूछलकइ - बड़ा दिन पर सीतो ? आव, तनी झुलुआ झुला दे । बर के भरहोरी बान्ह के झुलुआ बनैलक । सीतिया खूब झुलैलक । जब मन भर गेलइ तब कहलकइ कबड्डी खेल । दुओ कबड्डी खेललकइ ! सितिया हलइ तो बलगर मुदा औरत ! आर ई पहलवान ! सात पल्ला चढ़ा देलकइ ।) (आपीप॰74.4; 77.3)
436 टँगरी (दोसरा नम्बर में देखल जाय ! डाकदर-इनजीयर-ओभरसीयर नौकरी लगल वाला ! बिना नौकरी वाला तो कत्ते मारल बुलऽ हइ ! बिना नौकरी वाला बतौर मजूर समझो । उहो कै गो बतायल गेल - मुदा टँगरी नञ ठहरल । तेसर नम्बर पर आयल ! बैंक करमचारी, मास्टर-किरानी आदि ! चौठा नम्बर पर सिपाही ! पचमा में किसान लड़का खोजल गेल !) (आपीप॰87.16)
437 टगना (उ अप्पन अँचरा छोड़ावैत कहलकइ - छोड़, हम जाही ! ... ऐंसइ पीको रात भर गिरल रहें ! हम जा ही खा को सूतइ ले ! ई थोड़े दे बाद उठलइ - टग्गल-टग्गल घर गेलइ ! खाना खा के, चिकुलिया के साथे सट के सुत्त रहलइ ।) (आपीप॰35.13)
438 टनाक-टनाक (~ बजना) (भैंस के नेठो नियर घुरल सींघ के तो बाते छोड़ो ! दू दिन पहिले से किसान तेज छुरी से ओकर मरल चत्ता छिल के चमका दिये । बिहान दुहबिनी ओकरा में सिन्नुर तेल भोगार दिये ! ऐसन भोगारे कि कहल नञ जाय । गारा में पीतर के सिकड़ी, चमाचम पानी चढ़ायल सोना के मात करे ! गारा में जोठ, जोठ में घंटी, केकरे घंटिये नञ, घण्टा कहो, टनाक-टनाक बाजे ।) (आपीप॰75.2)
439 टप-टप (मोहना के आँख में आँसू आ गेलइ । टप-टप चूअऽ लगलइ । चाचा के गोड़ पर गिर पड़लइ ! माँफ करहो काका ! अब बँसिया नञ बजइवइ । अऽ माटी उरेहि को बनायल बँसिया मचान के खंभा पर बजाड़ देलकइ । ऊ चुन्नी-चुन्नी हो गेलइ ।; खेत में दू-चार गाछ रोपलकइ मुदा ओढ़निया हरदम सँसर जाय ! माथा पर से ओकरे सम्हाड़ै में पाँच गाछ के हरजा । मइया कहलकइ - मर्रर्र ! दुर्र हो !! दिन भर तों दोपट्टे सम्हाड़ै में रहमें तब रोपमें कहिया ? छउँड़ी ओढ़निया के मुरेठा बान्हि लेलकइ - देह के उभार ! कसकल ! कसल देखैत बनइ ... ! मनोज बाबू देख के नेहाल हो गेलखिन । ऊ टप-टप टमाटर रोपैत रहलइ ।) (आपीप॰85.1; 105.20)
440 टाट-पलंग (पाँच हजार घूस में बात भेलो ! बाबू के कहलियो ! ऊ सूद पर रूपइया लाको देलखिन ! हम दे अइलियै बहाल करइ वाला अपीसर के । ओकरो कइ एक साल हो गेलो ! जब जा हियो, हाँ हाँ ! अब हो जायगा । घुर आवऽ हियो । उहे रूपइया हमरा ले काल हो गेलो । बाबू कहऽ हथुन - ऊ रूपइया तों रंडी के दे अइलें । चानी के जूता केकरा नञ नमा दियै ! एक हाथ रूपइया दोसर हाथ काम । या तो तों नञ देल्हीं, या रूपइया खेतारी कइलें । आखिर एक दिन कुरोधि गेलखुन । कहलखुन - हमर रूपइया ला को दा, या दुओ जीव अलग खा । लटपट बतिया मोहि न सुहाय, टाट पलंग लेहो माथा चढ़ाय ।) (आपीप॰96.16)
441 टिकस (= टिकट) (जेलर चैन के साँस लेके सिपाही से कहलक - सारी माथा के जपाल भागल । ऊ समय हम सब से गलती भेल । बच्चा जो नञ होवो देने । तब फेर कि हल ... । जेलर साहब उ सिपाही के भी ओकरा साथ लगा देलका - इ कह के कि ई सारी कहैं लौट नञ जाय ! जो एकरा टिकस कटा के गाड़ी पर चढ़ा के लौटिहें ।) (आपीप॰46.12)
442 टिक्का (= टीका) (चौठा कहलकइ - अरे, झिंगना के बेटवा दही परसै ? ... खड़े-खड़े लागइ जइसे पतला पर चिल्ह छेर देलक हे । टिक्का करइ भर ! फेर लैलकइ लड्डू ! कहइ आर भागल जाय ! लड्डू-लड्डू-लड्डू .... ।) (आपीप॰71.16)
443 टिटहीं (= टिटहरा, टिट्टिभ) (एकर इलाज पाँच मिनट में हमरा हाथ में हइ । बकि तों सही रहें तब ने ? - तोरा मुरूख के तो हम जानऽ हियै । खून करि देभीं ? तों रहवें जेल में, हम मैया-बेटिया टिटहीं नियर टेंटियावैत रहि जवौ !) (आपीप॰109.3)
444 टिप्पा (कहवै कि ? कत्ते लगतइ ? हजार-दू हजार । तब निकलवो तो करतइ - बीस हजार । रहे दू हजार कम्मे छौड़ा पूत के । धन्नू चा 'बेस' कहि को सबेरे चलि देलका बलौक ! अगरीकलचर लोन लै ले ! फारम लेलका - पाँच रूपइया । ओकरा भरवैलका महेश से । एगो टिप्पा लेको कहलकन कि जाको अपने से हाँथे हाँथ हाकिम के दे दहो !) (आपीप॰114.4)
445 टिल्हा (आझ सोहगी के नञ मानल गेलइ, मैया के बिना कुछ कहने चल देलकइ ओन्नै जने से ऊ बँसुरिया के आवाज आवऽ हलइ । फेर टिल्हा पर पहुँचलइ । देह वैइसैं सिल्ल हो गेलइ । एक मन कैलकइ घुर जाय बकि बँसुरिया के बोल आर टेस हो गेलइ ।) (आपीप॰82.11)
446 टिल्हा-टाँकर (सावन में जनमलें, भादो में देखले बाढ़, तऽ कहलें कत्ते पानी ! इ बाढ़ नञ, बाढ़ के पुच्छी हे । सन बीस वाला बाढ़ में टिल्हा-टाँकर सब डूब गेल हल ।) (आपीप॰1.13)
447 टिहुकना (= टुभकना) (दुलो चा गरजि को बोलो लगलखिन - यह ! यह ! चूड़ा के गवाही दही ! हरिण के जामनी सूअर ! ... एतना कहैत फेर टिहुकलखिन - अरे ! मरूअन कानइ आन बहाने । दै धुइयाँ के दोस न रे !) (आपीप॰95.1)
448 टीवेल (= म॰ टिब्बुल; इं॰ ट्यूब-वेल) (किसान लड़का के खोज होवो लगल ! संजोग से मिल गेल । बीस बीघा हिस्सा, दुआर पर टरेक्टर मैसी - फारगूसन । घर दोबारा पक्का पोस्त ! बाहर भीतर पलिस्तर ! ऐंगना भी पलिस्तर । कहैं माटी के दरेस नञ । ऐंगना में चाँपाकल, पैखाना, घर में टी॰भी॰ रेडियो कि नञ जे सब सामान होवऽ हइ । खेत में नहर-टीवेल । सालो भर सब तरह के फसील !) (आपीप॰89.2)
449 टीशन (= स्टेशन) (माया के गरमी छुट्टी बीत गेल । कौलेज खुल गेलइ । फेर उहे लड़का एकरा ले जाय ले अइलै । सारा सामान, किताब, कपड़ा-लत्ता आदि लाद के टीशन गेल । गाड़ी पकड़इ ले । पटना पढ़इ के नाम पर !) (आपीप॰92.23)
450 टुक (पाँच ~ पोसाक) (जब पूर्ण पिण्ड दान हो गेल तब पंडित जी हुकुम देलका - अब सँढ़दग्गी होवो दा । बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल ।) (आपीप॰69.9)
451 टुकुर-टुकुर (बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें । ऊ सुनि को ठक्क हो गेलइ । टुकुर-टुकुर हमरा ताकऽ लगलइ । अँखिया के लोर अँखिया में पीको बोललइ - कवि जी ! तहूँ ऐसन बोलऽ हो ! दोसर कहते हल तब कोय बात नञ ! मुदा तोरा नियर के भी इहे मन में समचरलो ! हद्द हो गेल !) (आपीप॰96.5)
452 टुटी-फासटिक (इ तरह से बोल के पाँच बेरी धूप दे के, कर जोर के अप्पन रोजी-रोजगार में विरधी ले मनौती मांगलका - मशानी बाबा ! मुरदा भेजो । ई तरह से सुक्खा रखभो तब हमर कि होतइ ? पाँच गो परानी मरिये ने जइवइ ? अऽ मुरदा कोय टुटी-फासटिक वाला नञ भेजिहो । भेजहो धन बुबुक वाला, जे माल-पत्तर दै ।) (आपीप॰31.6)
453 टेंगरा (सब ठीक हो जइतौ ! मुदा दवाय के गोली भीतर जा नञ सकल ... । गियारी में टेंगरा सन अटक गेल । अचके फुलवा के आँख चमक के फैल गेल । इ देख के जिछना के अँखिये नञ देहियो पथला गेल ।) (आपीप॰5.14)
454 टेंटियाना (= टेटियाना) (एकर इलाज पाँच मिनट में हमरा हाथ में हइ । बकि तों सही रहें तब ने ? - तोरा मुरूख के तो हम जानऽ हियै । खून करि देभीं ? तों रहवें जेल में, हम मैया-बेटिया टिटहीं नियर टेंटियावैत रहि जवौ !) (आपीप॰109.3)
455 टेटियाना (टमाटर साव रात के पति-पत्नी आपस में बात करथ । पत्नी कहलकन - अजी ! इ जे कुछ कहऽ हइ से तो साँच । मुदा सब जगह तो उहे हइ । जल में रह के मगर से बैर ! ऐसन करि को बाल-बच्चा तो जेले में रहतइ । गलत जगह आको फँस गेल्हो ! चलो चुपचाप निकल को, एकरा टेटियावो दहो ।) (आपीप॰27.20)
456 टेबना (= टटोलना, परखना, जाँचना, चुनना) (तोरा टीवेल भिजुन खेत हइयै हो । ओजौका दू बीघा खेत टेबि को जेकरा जिमा नया माल हइ, ओकरा बटैया दे देहो । कड़ैती नञ, कसरैती नञ, कंजूसी नञ, हिसाब-किताब नञ । दुलार करहीं, पोछैत-पाछैत मुँह खाय, आँखि लजाय ! राजी हो जइतइ । जब तक नया हइ, रहतइ, पुरान होतइ, घर जायत । आर कि ?; कुछ दिन बाद ऊ टेबि को अइलइ, खूब सोचि विचारि को ! अपन जाति के मोहल्ला में जाको सड़क किनारे । चौराहा पर फर्द में टाट के झोपड़ी देको चाह के दोकान देलकइ ! छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ ।) (आपीप॰104.15; 108.2)
457 टेम (= टैम; टाइम) (गाड़ी जब टीशन में लगइ कि तीनो जोर-जोर से कानो लगे ! कफन के नाम पर जेकरा जे बनइ से दे दै ! दू-चारि-पाँच-दस-बीस ! एगारह बजे तक रखलकइ, जब गाड़ी के टेम खतम हो गेलइ !) (आपीप॰33.24)
458 टेरेनिंग (= टरेनिंग; ट्रेनिग) (पत्नी कहलकन - छौंड़ा-छौंड़ी से पूछलहो, कि कहऽ हइ ! रात जब सुत जइतइ सब, तब चुपचाप उठ के चल देब ! छौड़ा-छौड़ी से पूछलकइ । उ कहलक - बाबूजी ! टेरेनिंगवा तो पूरा होवो दहो, तब जइवइ !) (आपीप॰27.25)
459 टोनगर (नरेश बाबू सब सुन के कहलखिन - नौकरी वाला दुल्हा के गलबात छोड़ो ! कोय सम्पन्न किसान के करो । तोहर जे औकाद हो ओकरा से किसाने फीट बैठतो । सोचहो ने तनी, किसान के कि के कमी हइ । खाय के हर चीज तो किसाने के पास हइ । दूध, फल, तरकारी, सब तरह के अनाज । आर पैसो । तनी टोनगर देख के दस बीघा वाला के सम्पन्न हिया के कर ला ।) (आपीप॰88.20)
460 टोना-टाना (बहिन, हम तो सिरिफ पानी पियइ ले अइलूँ हल । ऊ कहलक - तऽ पानी पी के चुपचाप चल देतें हल । ई सब करइ ले के कहलको ? अऽ कइल्हीं तऽ एकर दाम दहीं, जल्दी कर । हमरा जिमा में जे कुछ हल निकाल के दे देलूँ । ऊ टो-टा के सगरो देख लेलक, कहलक - जो चुपचाप ।; ऊ गोलिया तो नञ मिललइ मुदा अनाज में दै वाला पाऊडरवा के पलास्टिक वाला झोरिया मिल गेलइ । ओकरा टो-टा के देखलकइ - कोना-पुच्छी में तनी मनी में लागल मिललइ । ओकरे धो-धा के गिलास में ढार के पी लेलकइ आव सुत रहलइ, कहके - ला भगवान सुतऽ हियो । ऐसन नीन दिहा कि कभी नै उठी ।) (आपीप॰10.1; 15.19)
461 टौन (= टोन) (~ मारना = व्यंग्य अथवा उपहास करना) (एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ । दोसर रहइ त मन मनझान ! ऊ रहइ तऽ कि कहना ! हौले-हौले टौन मारऽ लगलखिन । नया उमर ! बात-बात पर हँसि जाय । हिनखर खुशी के कोय ठेकाना नञ । मुदा आर कुछ के साहस नञ ।) (आपीप॰106.5)
462 ठंढे-ठंढी (उ रसता कि बतैलक, हमर जन्नी के मन बढ़ा देलक । कहलक - जल्दी खा आर ठंढे-ठंढी चल जा ! हमरा कोय बहाना नञ रह गेल हल । खइलूँ अऽ भारी मन से दुखी चलइ घड़ी कहलूँ अपन मागु के - अहे ! कहावत हइ कि साल भर के रसता चली, मुदा महिना वाला नञ । हमरा ई सौटकट में खतरा मालूम दे हौ ।) (आपीप॰6.17)
463 ठकब (चाचा बैठला कुछ देर । देखइ होथि - उहे सब दरखास तो हिकइ ! ई भीतरे भीतर कुरोधि गेलखिन । कहलखिन - अहो बोलो ने, कत्ते घूस लेवा ? कुल के करब करऽ हो अऽ हमरा ठकब करै हा ।) (आपीप॰116.16)
464 ठकमुरकी (~ लगना) (नवीन जेल से बाहर आ गेल । असमिरती बहुत खुस हल । ओकरा लग रहल हल कि आझ हम सब कुछ पा गेलूँ । मानो जीवन के अलोधन । इ नवीन के चरण झुक के छुए ले चाहलक । नवीन पाँव पीछे हटा लेलक । एकरा खड़े ठकमुरकी लग गेल ।) (आपीप॰48.25)
465 ठक्क (बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें । ऊ सुनि को ठक्क हो गेलइ । टुकुर-टुकुर हमरा ताकऽ लगलइ । अँखिया के लोर अँखिया में पीको बोललइ - कवि जी ! तहूँ ऐसन बोलऽ हो ! दोसर कहते हल तब कोय बात नञ ! मुदा तोरा नियर के भी इहे मन में समचरलो ! हद्द हो गेल !) (आपीप॰96.5)
466 ठमा (= ठामा; जगह) (पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ? पपुआ माय तिरछी नजर से धन्नू चा के देखैत मुसकावैत मूड़ी नचा के कहलकइ - तऽब ! हमर बाप पाँच बरीस बरतुहारी कैलका । घर मिलल तब वर नञ, वर तब घर पसीन नञ ! दुओ आँख के सूरदास ! चौपठ ! यह मुरूख दमाद कोहबर में गोड़ लगैलका पहलमान जी ! कैसन पहलवान होथि, से हम जानऽ ही । बेटी भोगऽ हियन । ढेर बुधगर रहे से तीन ठमा माँखे ।) (आपीप॰113.16)
467 ठेहुना (= टेहुना) (नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर । ... घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ ! देवाल के बाहर-बाहर ठेहुना भर ऊँच असठी, देवाल लाल गेरू रंग के माटी से बढ़िया को नीपल, मुख दुआर पर माटी के बनल सिंघ, लागे जैसे सचकोलवा सिंघ ।) (आपीप॰7.13)
468 ठोंठा (~ दबा के मार देना) (कल्ह वला घटना, रोड जाम के सम्बन्ध में कहना हइ कि उ लहास राम सोगारथ के बहिन के नञ, हमर बहिन पुतुलिया के हइ । ऊ साँझ को दिशा-फरागत ले सड़क किनारे गेल, ओकरा गुण्डा सूना में उठा लेलकइ, बलात्कार भी कैलकइ, अऽ ठोंठा दबा के मार के गंगा जी में फेंक देलकइ ।) (आपीप॰38.19)
469 डंड-कुश्ती (जानऽ हीं, घर में बैठल रहला से देह में घुन्न लग जा हइ । रोज चरावइ ले आवें ! तनी देह में माटी लगायल करहीं, बल बनल रहतौ । डंड-कुश्ती मारहीं ।) (आपीप॰77.10)
470 डण्टा-पाटी (धन्नू चा ओकर कालर पकड़ि को चारि थाप मुँह में लगैलखिन । पूरा आपिस में हल्ला हो गेलइ ! सोचलखिन बड़ा मुसकिल ! मारवो नै कइलों अऽ पकड़ाइयो जाबँ । उठा को हाजी साहब के सरंग गोलो कुरसिया पर फेंकि देलखिन । मथवा फूटि गेलइ ! गोड़ा हाँथा में मोच आ गेलइ ! ई भागला गेटवे दने से दू सिपाही घेरलकइ डण्टा पाटी ।) (आपीप॰121.6)
471 डलेवर (= डलैवर; ड्राइवर) (ट्रेक्टर गंगा किनारे पहुँचा को रोक देलक । सारा सामान उतार को डलेवर नाव लगइ वाला घाट तक पहुँचा देलक ।) (आपीप॰99.15)
472 डाकदरनी (= डगडरनी; महिला डॉक्टर) (भैवा कहलकइ - चल मैया । बलात्कार के केस नामी होवऽ हइ । बड़ी कड़र । चारो के हम चिन्हऽ हियै । कर दियै केस । मैया कहलकइ नैं बेटा । ओकर कुछ नञ बिगाड़ि होतइ, बिगड़ जइतौ तोरे । गोजो । नान्हि वारि हइ, जाति-कुटुम के पूछतइ ? जो डाकदरनी यहाँ देखा दहीं । डाकदरनी इलाज कैलकइ । समरी ठीक हो गेलइ !) (आपीप॰108.14, 15)
473 डिल्ली (= दिल्ली) (धन्नू चा कुछ झेंपैत तनी चिढ़ावैत कहलखिन - सेह न कहऽ हियौ, तों तो जी से कुछ गनवे नञ करऽ हीं, तब कि । जे चरावे डिल्ली सेकरा तों चरावें घर के बिल्ली । - एह, तनी एक बाबू साहेब ई पटना डिल्ली में रहइ हथ जे जाने गीदर के नगड़ियो नञ, भाषण नम्भा-नम्भा !) (आपीप॰112.19, 20)
474 डिसको (~ हो जाना) (सूपन हामी भरैत कहलखिन - दोसर बात ई कि अब कोय एक डेग पैदल चलइ ले नञ चाहऽ हइ । तहियौका लोग मुरदा कान्हा पर ढोने दस-दस कोस, बीस-बीस कोस से गंगा घाट लावऽ हलइ ! से अब देखऽ हहीं, मुरदा गाड़ी पर ढोवावो लगलइ ! सड़क से कत्ते दूर पड़ि जा हइ । करीब तीन कोस ! के पैदल आवऽ हइ ? अब तहियौका लोग नियर नया लोग के समांग भी नञ रहलइ ! जमाना के साथ सब कुछ बदल गेलइ हो । खान-पान, रहन-सहन, चालि-चलन, हवा-पानी, रोशनी सब डिसको हो गेलइ ।) (आपीप॰32.12)
475 डेली (= डलिया) (जइसैं पाकड़ तर छाहुर में सथरा पर पहुँचलियै कि दुलो चा टेरो लगलथिन - तोरे कारनमा गे सुँरगा इटवा ढोवलियै, कि धइलों जोगिया के भेस जी । ... कहना शुरूह कैलखिन - कवि ? तोर बालाजीत । जानऽ हो कुछ ? वह-वह चिजौरवा के फेरा में बालू ढोवइ ले डेली पकड़ लेलको ।) (आपीप॰94.4)
476 डेलीढोवा (= डलिया या गाँजा ढोनेवाला) (बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें ।) (आपीप॰96.3)
477 डौट (= डाउट, doubt; शक, शंका) (माया हर बार गर्मी छुट्टी में गाँव आवऽ हल, मुदा ई बार जे घर आल ह सेकरा में कुछ विशेष बात हइ । हर बार अकेले आवऽ हल, ई बार लड़का साथी साथ अइलै हे यहाँ तक पहुँचावइ ले । मैया ! देखते माँतर छनक गेलइ ! ओकरा मन में डौट गेलइ ! कहौं अँचरा में तो दाग नञ लगैलकइ रे बाप ! एकन्त में बेटिया से पूछलकइ - ई के हिकइ गे ?) (आपीप॰86.4)
478 डौन (= डाउन, down) (दीपो अऽ वंसी ऊ टोला में केकरे वरपो देतइ ? जेकरा तनी मजगर देखलक, ओकरा कइसौं ने कइसौं डौन करि देतइ ! एकरा देखलकइ पचास हजार नगद ! देलकइ खर्च करवा ... उपर से पचास हजार करजा ! अब बेटा पछड़ैत रहो ।) (आपीप॰72.4)
479 ढब-ढब (~ लोर गिरना) (आयल फागुन । अनरुध आ गेला । घर में खैलका । हाथ पोंछने मित्र भिजुन गेला । दोनो दोस्त गले-गले मिलला । कुछ ऐनौक-औनौक, कुछ देश-देशान्तर के खिस्सा । कुछ हाल-चाल । फेर मनोज अप्पन दुख के पुरान उलटे लगला । पुरान उलटते आँखि से ढब-ढब लोर गिरो लगल !) (आपीप॰103.14)
480 ढल्ल (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ओकरा में होतन लाल टमाटर, हरियरकी मिरचाय, धनिया के पत्ता, बूँट के साग, बथुआ के साग, सरसो के पत्ता, पालक, कोबी, मुराय, बैगन, मेथी के पत्ता, चुकन्नर । लाको घर में धर देतन ढल्ल बरौनी ! जत्ते जी में आवो, बनावो खा ! स्वास्थ सुन्नर रहतो !) (आपीप॰91.9)
481 ढिल्ली (कनियाय जे दिन से गेली, एक मिलिट के फुर्सत नञ । चार भाय के एक बहिन दुलारू ! बाबाधाम के माँगल ! साँझे से घर-घर जाको आय-माय के बोलाना । अऽ अधरात तक चिकरि चिकरि को गीत गाना, नाँचना । उमाह के कि कहना । देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली ।) (आपीप॰100.17)
482 ढील्ला (= सिर के केश में होनेवाला जूँ) (दुपहरिया खा-पी के तैयार भेलइ । मइया बोलैलकइ - पुष्पी ? आवें तो, देखहीं मथवा में कि तो काटऽ हइ ! - ढील्ला होतौ आर की ? -आवें ने, हेर दहीं । पुष्पी मइया के पीठ दने बैठ के ढील्ला हेरो लगलइ ।) (आपीप॰16.14, 16)
483 ढेंऊँसा (~ बेंग) (पंच लोग के बात सुन के बुधना के मन ढेंऊँसा बेंग ऐसन फूल गेल । पहाड़ी नदी जइसन उफनल जाय । एक बेरी तरे से बबकि को बोललइ - जब तोर कुले महान आदमी के आर बंस-खूट के इहे हिन्छा हो, तऽ होवो दा नगर भोजे सही ।) (आपीप॰66.16)
484 तनी-मनी (ऊ गोलिया तो नञ मिललइ मुदा अनाज में दै वाला पाऊडरवा के पलास्टिक वाला झोरिया मिल गेलइ । ओकरा टो-टा के देखलकइ - कोना-पुच्छी में तनी मनी में लागल मिललइ । ओकरे धो-धा के गिलास में ढार के पी लेलकइ आव सुत रहलइ, कहके - ला भगवान सुतऽ हियो । ऐसन नीन दिहा कि कभी नै उठी ।; ऊ बोतल पीलकइ, हमरो कहलकइ - चाखभीं ? हम कहलियै नै भाय ! ... ऊ कहलकइ - हमरा तनी मनी आदत हौ !; उ पुरान प्रथा हम तनी-मनी देखलों हँ जब हम दस-बारह बरस के हलौं !) (आपीप॰15.19; 17.5; 75.7)
485 तने (= तन्ने; उधर) (जने ... तने) (जने हियावऽ तने पानिये पानी लखा हे । दूर-दूर तक फइलल पानी समुन्दर के लेखा ! गाँव जइसे समुद्दर में जहाज लंगर डाल देलक हे, इ परलय में के साबूत बचल ? हमरा जानिस्ते तो कोय नञ ।) (आपीप॰1.17)
486 तरे-तर (बुधना के लगलइ जैसे कोय करेजा में बरछी चुभा देलक । जैसे आकाश से धरती पर एकाबैक गिर गेल । तरे-तर ऐंठि को रहि गेलइ ।) (आपीप॰71.7)
487 तवना (= गरम होना) (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल । बिहान फेर बोखार । जिछना पूछलकइ - खइम्हीं फूलो ? फुलवा लाल-लाल आँखि से ताक के गुम हो गेल । हाथ छू के बेटा के जिछना देखे हे तऽ ओकर होसे उड़ गेल । देह तवल खपरी लगे । कहलकइ डगदरवा पूछतौ तब ई नञ कहिहें कि मछली खइलों हें ।) (आपीप॰3.3)
488 तहिना (= उस दिन) (तहिने से जिछना ले सब बुतरू फुलवा बन गेल । उ पागल नियर जेकरा पकड़ऽ हइ सेकरा दबोचिये ले हइ । छाती से लगा ले हइ, चूम ले हइ । आव बुतरू-वानर ओकरा देख के चिघार पार के भाग जा हइ । भाग रेऽऽऽ, जिछनाऽऽऽ ... !) (आपीप॰5.16)
489 तहिया (= तहिना) (इसकुल चलावै ले सरकार से मिलना जरूरी हइ । तहिया ई साल में एगो सम्मेलन करावऽ हलइ । ओकरा में बड़का-बड़का नेता के लावऽ हलइ । यहाँ रासपति तक ऐलखिन ।; जुगो-जमाना अब कैसन हो गेलइ ? तहिया मागु रहऽ हल मरद के कहला में ! अब मरद हो गेलइ मागु, आव मागु हो गेलइ मरद । छउँड़ा के जतने पढ़ावऽ हइ ओतने पढ़ऽ हइ ।) (आपीप॰10.23; 98.21)
490 तहियौका (= तहिना वाला; उस समय का) (सूपन हामी भरैत कहलखिन - दोसर बात ई कि अब कोय एक डेग पैदल चलइ ले नञ चाहऽ हइ । तहियौका लोग मुरदा कान्हा पर ढोने दस-दस कोस, बीस-बीस कोस से गंगा घाट लावऽ हलइ ! से अब देखऽ हहीं, मुरदा गाड़ी पर ढोवावो लगलइ ! सड़क से कत्ते दूर पड़ि जा हइ । करीब तीन कोस ! के पैदल आवऽ हइ ? अब तहियौका लोग नियर नया लोग के समांग भी नञ रहलइ ! जमाना के साथ सब कुछ बदल गेलइ हो । खान-पान, रहन-सहन, चालि-चलन, हवा-पानी, रोशनी सब डिसको हो गेलइ ।; देखहीं हमरा बाबू कहऽ हथिन ! बेटा, अब गाय बराहमन के सत कलजुग में उठि गेलइ ! नै उ देवी, नै उ कराह, नै तहियौका बराहमन जिनका मुँह से आगि निकलै हल । नै उ गाय अमरित दै वाली, जे दूध देह के बज्जड़ बना दिये ।) (आपीप॰32.8, 10; 79.7)
491 ताके-धखोरे (नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर । … घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ ! देवाल के बाहर-बाहर ठेहुना भर ऊँच असठी, देवाल लाल गेरू रंग के माटी से बढ़िया को नीपल, मुख दुआर पर माटी के बनल सिंघ, लागे जैसे सचकोलवा सिंघ ।) (आपीप॰7.13)
492 तातल (= गरम) (चिकुलिया ई सब पहुँचा को जुट गेल खाना बनावइ में । एक छन सोचलक जल्दी में कि बनावल जाय । बस ! भूजिया रोटी । पहिले भूजिया बना देलकइ - आलू के खूब तेल-मसाला देके रव-रव तीत ! तातले तातले रोटी निकालने जइवे । खइतइ भी ! पीतइ भी ! खाना के खाना - चखना के चखना !) (आपीप॰35.3)
493 तिरैता (= त्रेता ?) (महेश कहलकइ चपरासी से - टेबुल पर दहीं दरखास । चपरासी बोललइ - अभी साहब का मूड नहीं है । आप जाइये । हम दे देंगे । - अब कि तों तिरैता में देवें ? नञ तब दे दरखास, हम अपने से देवइ ! - हम नहीं देंगे । बस, एतना कहना हलइ कि धन्नू चा हँथे ऐंठि को चढ़ा देलखिन ! ऊ खट सना दरखास निकालि को जेबिया से दे देलकइ !) (आपीप॰115.8)
494 तीत (= तिक्त, तीता, तीखा) (चिकुलिया ई सब पहुँचा को जुट गेल खाना बनावइ में । एक छन सोचलक जल्दी में कि बनावल जाय । बस ! भूजिया रोटी । पहिले भूजिया बना देलकइ - आलू के खूब तेल-मसाला देके रव-रव तीत ! तातले तातले रोटी निकालने जइवे । खइतइ भी ! पीतइ भी ! खाना के खाना - चखना के चखना !) (आपीप॰35.3)
495 तीरे-कोने (= तीरा-कोनी, तिरछी दिशा में, एक कोने से दूसरे कोने की ओर) (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।) (आपीप॰6.11)
496 तेरहा (भोज में शिकायत नञ होवो दै के बरत लेको ओजो से उठला । वहाँ से आको सब सलाहकार भंडारी के, परसैनिहार के, अऽ बिजै करैनिहार के टरेनिंग देको अप्पन-अप्पन काम निजगूत करि देलका । आखिर ! बरहा से तेरहा तक खतम हो गेल । भोरे उठि को बुधना गाँव में टहलो लगल । इहे समझइ ले कि कजो के कि कहइ हे ।; चलल जा हलइ । पंचू मिललइ । बुधना पुछलकइ - कि पंचू ? कैसन रहलइ ? खइला हा खूब ? पंचू कहलकइ - अच्छे हलइ नुनु । तनी बरहवा दिन अलुआ वाला तरकरिया लागइ काँचे रहि गेलइ हल । अऽ तेरहवा दिन दलिया शायत तनी लगि गेलइ हल, तनी जराइन लागइ ।) (आपीप॰70.12, 20)
497 तेलहण्डा (~ में जाना) (सिपाही तैश में बोलल - हम तोर बाप के नौकर जे जा के कहवौ । लड़की बोलल - नौकर नञ तब तों हमर मालिक ? जे कहियौ से कर, नञ तो तेलहण्डा में चल जइवें ।) (आपीप॰50.12)
498 तों (= तूँ) (एतना से हम खुद सन्तुष्ट नञ ही, तों कने से सन्तुष्ट भेल होवा ? ई विषय गंभीर आव बड़गो है । हमरा पास ओत्ते लिखइ ले ई किताब में जगह नञ है ।) (आपीप॰V.25)
499 तोरा बहिन के (करेजा थाम्ह के सुनहा, बात बढ़िया नञ हो ! पुष्पी के गोड़ भारी हो ! - आँय ! पुष्पी के ? कइसे ? कहाँ से ? - कहलियो ने ! ऊ जग्गा देखइ ले नञ गेलइ हल ? मोहना जौरे, ओकरे में रात हो गेलइ । कने कने ऊ, किदो रेस हाऊस होवऽ हइ ! ओकरे में सुतैलकइ आर बलात्कार कर लेलक । ... - तोरा बहिन के मोहना ... ! ई हिम्मत ... !) (आपीप॰18.13)
500 तोरा-मोरा (इ पूछलखिन - तोर पुरूखवा तो हइये ने हे ? - नञ बाबू । ऊ रहतो हल तब कि । कोल्ड अस्टोर में नौकरी करऽ हलखुन । जीता हलखुन तऽ घर से बाहर नञ होवइ दे हलखुन । रानी बनल हलियो । भगमान हरि लेलखुन, से बानी हो गेलियो ! तोरा-मोरा से लागि को गुजर करऽ हियो !) (आपीप॰105.1)
501 थम्हना (= ठहरना, डटे रहना) (आझ कहलकइ - सीतो ! बान्ह नगौटा ! तनी कुश्ती खेला दियौ । दुओ कुश्ती लड़ो लगलइ । सितिया बल तो करइ, मुदा सौखवा के साथ कि थम्हते हल ! तुरत चित्त करि को छतिया ठोकि दै ।) (आपीप॰78.3)
502 थरिया (= थारी, थाली) (उन्नैस हाथ लम्बा, दू हाथ चौड़ा, मारकिन के कपड़ा, गोबर से नीप जगह पर बिछा देल गेल हे । जेकरा पर लगल हे उन्नैस पात ! हर एक पात पर पीतर के एक थरिया, एक लोटा, एक गिलास, एक साड़ी, एक नम्बर कुर्त्ता ले कपड़ा । चावर-दाल, आलू-केला, सेव-नारंगी, पूड़ी-मिठाय ! मिठाय में लड्डू-जिलेबी-खाजा ! कपटी में रसगुल्ला ।) (आपीप॰68.16)
503 थान (कतना आदमी के खिलाना हइ पहिले ई तो ऐडिया मिल जाय । हर टोला के, महल्ला के, जाति के लोग अप्पन जनसंख्या बता देलखिन । फेर तो इसटिमिट बन गेल - दू थान ! लड्डू-जिलेबी, पूड़ी-तरकारी, आलू-परवल के रतोवा ! दही-चीनी रेड़म-रेड़ ! बस एकरा से जादा नञ !; चमरटोली गेलइ । अन्हरा मनसुखवा बोललइ - के हा ! बुधन बाबू ? - हों हों । कि बात हइ ? - या मीरा । दिनो के भूखल हलियो । अरमान कइलों हल । नगर भोज में सात थान मिठाय खाब । मनमनयले रहलों, खाब तो कि, सूँघइ ले भी नञ !) (आपीप॰67.16; 71.2)
504 थुथुर (दोस्त-मोहिम खास अगुआ जे बहुत मेहनत से तैयार कैलखिन हल, से कहलखिन - नञ जइभो तऽ लड़का उठि जइतो, हमर दोस नञ ! बरतुहार लगल हइ । ... बाज मत आबो फेर ऐसन संजोग मिलना मोसकिल ! बकि ई थुथुरवा साँप नियर जैसे के तैसे पटायले रह गेला ! तनिको उसुक-पुसुक नञ ।) (आपीप॰88.13)
505 थुर्री-थुर्री (गारी से ~ करना) (ई तरे तर कानला-खीजला से अच्छा कुछ कैल जाय । कि कैल जाय ? अगर हम अप्पन माय-बाप के कहऽ ही तब पहिली साँझ चाँप चढ़ा के मार देत । सकरी नदी के तेज धार में भँसा देत । बाद कि होतइ हमरा पता नञ । मरलो पर लोग गारी से थुर्री-थुर्री कर देत । एकरा से अच्छा जेकर हिकइ सेकरे कहल जाय ।) (आपीप॰12.25)
506 दनी (बक ~) (सोहगी अपना के ओकर पंजा से मुक्त हो को भागइ के कोरसिस कैलकइ । बकि मरद के पंजा में कसमसाल जवानी भरल-पूरल छटपटाइत ... औरत के उहे मरद छोड़ सकऽ हे जे नामरद होतइ ! नञ छोड़लकइ ! एतने में बुन्देला चा ओने से जुम गेलखिन ! कहलखिन - इहे पढ़ाइ एजो चलऽ हे हो ! रसलीला । छउँड़ा बक दनी छोड़ देलकइ । छोउँड़ी काठ हो गेलइ । जइसैं के तइसैं ! नै हिलइ नै डोलइ ! मुड़िया गोतने जस के तस !) (आपीप॰84.16)
507 दने (जिछना जब कटोरा में मछली के गुड़िया अऽ मड़गोद भात चापुट पार पार के खाय लगल तऽ फुलवा के कनमटकी वाला मूँदल आँख फट सियाँ खुल गेल । कौर चिबावइत फुलवा जिछना दने हियावे हे, तऽ देखे हे कि गुजुर-गुजुर दूगो आँख कटोरा दने ताक रहल हे । जब कौर उठावे तऽ ओकरा लगे कि हर कौर में फुलवा के आँख हे । नञ रहल गेलइ । आँख में पाँख ओकरा वंस में इहे, एकरा ले ऊ कि नञ कर सके हे ।) (आपीप॰2.14)
508 दपदप (लाल ~) (देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर । ओकरा से कुछ दूर में बढ़िया नसल के एक बाछा बान्हल हइ, साँढ़ दागै ले । ओकरा दागै ले गोयठा के आग में सड़सी धिप रहल हे । खूब लाल दपदप सड़सी धिपल हइ । कटहर के पत्ता पर उन्नैस पिण्ड पड़य के चाही । पिण्ड दान के काम सबेरे से हो रहल हे । अन्त में सँढ़दग्गी होत ।) (आपीप॰69.5)
509 दमदमाना (बेटा, ऐसन रंग चढ़ावो कि जुग-जुग नै मेटावे, ऐसन सुगंध बसावो कि पुश्त-दर-पुश्त दम दमावैत रहे । होवो दा मूँगवा लड्डू, घतींगवा भोज । दा एक दिन समूचा गाँव के चुल्हिया लेवार करि । गाँव भर के गनी-गरीब-अमीर सब के मुँह मीठा करि दा, जे सब मिल के परानी के असीरवाद दिये, स्वर्ग में परानी के सुख मिले ।) (आपीप॰66.13)
510 दमाद (= दामाद) (गैस चुल्हा मिझावै में जो तनी गलती से चाभी ढील रह जाय ! गैस तनी-तनी रिस-रिस के कोठली में भर जइतौ ! जो रात में लैन कट जाय, मोमबती बारे के जरूरत पड़े या दमाद के सिकरेट पियै के आदत हो तो ! जइसैं सलाय के काठी मारतौ कि समूचे घर लहरि जइतौ ! बेटी-दमाद सब साफ !; किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ... तों चाहे हम ओकरा यहाँ जइभीं बेटी के देखइ ले तब जल्दी आबइ ले नञ देतौ - काहे ? तऽ तों जतना खइभीं ओतना ओकर धोइना में फेंका जा हइ ! ... शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... ऊ शहरी एक सो ग्राम चावर खैतौ । तों देहाती, जइभीं, दुइयो के बदली एसकरे भकोसि जैभीं ! दमदा कहतौ बेटिया से ई डोलइ के नाम नय लऽ हइ ।) (आपीप॰90.18; 91.24; 92.2)
511 दमामा (दस के मुँह ~) (एक बेटा एक बेटी हो ! कत्ते लोग कहलको, दोसर बियाह नञ कैलियो ! सोचलूँ जे हइ से बहुत ! काहे ले देह के नतीजा करावों ! एकरे से अब चोला उद्धार हो जाय । इहे बचे-जीये । असीरवाद दहो बाबू । दस के मुँह दमामा ।) (आपीप॰105.4)
512 दरखास (= दरख्वास्त; अर्जी) (सूपन खा को टेम्पो पकड़लका अऽ झट पहुँच गेला कचहरी ! कचहरी जा के दरखास लिखलक ।; इ दरखास पढ़ के कलेट्टर के दिमाग चकरा गेलइ । पढ़ के अपने आप बोललइ - अच्छा, ई बात ?; जैसइ हाकिम से मिलै ले दुअरिया पर गेलखिन कि चपरसिया रोकि लेलकन । ए ! पहलवान जी, क्या है ? लाइये हम दे देंगे । अभी साहेब काम में है । -'करजा के दरखास !' धन्नू चा कहलखिन । चपरासी दरखास लेको अप्पन जेबी में रखि को कहलकन - जाइये ! अब आप निचीत से बैठिये । काम हो जायगा । ई निचीत हो गेला । महेश बहुत देरी बाद अप्पन काम निपटा के अइलन । पूछलकन - देल्हो दरखास ?) (आपीप॰38.13; 39.2; 114.11, 12, 15)
513 दरजीनी (अभियों कि नञ हइ ओकरा ! चार बीघा जमीन हिस्सा ! अपने भी बी॰ए॰ पास, मागू भी पढ़ल ! गाँव भर के नुग्गा सीये ! दरजीनी बीबी ! अब कि चाही ?) (आपीप॰94.24)
514 दरद-फरद (भैंस के दूध खाहीं, तो देखहीं करामत ! गाय के दूध खाहीं, से सती ऐसन होवऽ हौ । ले साँझ से हम एक लोटा को फेनाइले दूध भैंसि वाला पहुँचा देबौ ! तों बदली में हमरा गैया वाला दे दिहें । दस दिन खा को देखहीं, कहाँ दरद कहाँ फरद ! कुल खतम ।) (आपीप॰79.12)
515 दरमाहा (जनता के गाढ़ी कमाय के रुपैया एकरा दरमाहा में जा रहलइ हे । अऽ दरमाहा तनी मनी नञ, दस हजार, बीस हजार । तइयो इ घूस ले बेकल हइ ।) (आपीप॰25.16)
516 दरेस (= दृश्य) (किसान लड़का के खोज होवो लगल ! संजोग से मिल गेल । बीस बीघा हिस्सा, दुआर पर टरेक्टर मैसी - फारगूसन । घर दोबारा पक्का पोस्त ! बाहर भीतर पलिस्तर ! ऐंगना भी पलिस्तर । कहैं माटी के दरेस नञ । ऐंगना में चाँपाकल, पैखाना, घर में टी॰भी॰ रेडियो कि नञ जे सब सामान होवऽ हइ । खेत में नहर-टीवेल । सालो भर सब तरह के फसील !) (आपीप॰88.24)
517 दरोगइ (पाठक के बात छोड़ दा तऽ हमरा खुद अचरज भेल: दरोगइ करइ वाला कठोर करमी, अन्दर से एतना कोमल ! साहित परेमी ! भला, एकरा से बड़गर अचरज की हो सके है ?) (आपीप॰III.9)
518 दलिद्री (= दारिद्र्य, गरीबी) (मइया कहलकइ - जे बोले ! कहवइ जरूर । रात फेर एकान्त में बैठा को समझावो लगलइ दुइयो के । देखहीं ! नुनु, उ धनगर अदमी हइ । बैर-बियाह जोड़ी से । तोरा धूर-धुरकी कुछ नञ हौ, ओकरा सब कुछ हइ ! एक दलिद्री छोड़ि को ! पाँच भाय ! एक डाक्टर, एक इन्जियर, एक मास्टर, एक ठीकेदार, पंचमा खेतिहर ! खेत चालीस बीघा ! चल ओकरे गोड़ में लटकि जइबइ ! कहवइ वसा दे ! तोरे हिकियौ ।) (आपीप॰28.10)
519 दवाय (= दवा, दवाई) (दवाय से जादे संजम करावल गेल ! खैर फुलवा कुछ दिन में निम्मन हो गेल । डाकदर कहलकइ - खबरदार ! एकरा मछली नञ खिलइहें । नञ तब जानो तों ! हम्मर दोस नञ ।; इलाज शुरूह भेल । उहे लाल-पीयर गोली, उहे पानी रंग-बिरंगा । सरकारी दवाय के कहना की ? सही रहे तऽ लोग प्रायविट में काहे देखावे ।; ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !; मान लेलियो हम अप्पन फीस छोड़ देलियो । मुदा दवाय के पैसा तो लगतौ ।; जिछना बोलल - हे जरी कड़ा-कड़ा दवाय दहो । अनिल बाबू चिट्ठा लिख के चल गेलखिन समदैत, दवाय पटना में मिलतौ । अब रुपइया कहाँ से आवे । दवाय तो कड़ा-कड़ा लिखा गेल, हाथ में चित्ती कौड़ी नञ ।) (आपीप॰2.7; 3.11, 24; 4.12, 14, 15, 16)
520 दसखत (= दस्तखत, सही) (इनरदेव बाबू बिना कुछ कहने सुनने दरखास में औडर सीट लगा के दसखत जे करइ के हलइ करिको जिमा लगा देलखिन ।; आँय हो, ऊ कत्ते लेतइ ? धन्नू चा पूछलखिन । महेश कहलकइ - अच्छे, इहो बात पूछि लेल्हो । ओकर बान्हल हइ - बह बजार तीन हजार ! तब जाफरी साहेब ! अच्छे आदमी हइ । तीन हजार एक मुश्त ले लेला के बाद, तोरा दौड़इ धूपइ के कोय काम नञ । सारा काम ऊ करा को रखतो । जे डेट देतो, से पर जइभो, दसखत करबइतो, रूपइया तोहरा देतो । मगर अप्पन घूस पहिले ले लेतो !) (आपीप॰117.13; 118.2)
521 दही-चूड़ा (धन्नू चा सबेरे घर से दही-चूड़ा खा को, जतरा बनैने सबसे पहिले आपिस में दम दाखिल । जइते इनरदेव बाबू के सलाम ठोकलखिन ! पूछलखिन - हमर दरखास अइलइ इनरदेव बाबू ?) (आपीप॰115.19)
522 दाँती-झाँक (चुल्हा ढंढा रहऽ लगलो ! कनै से कुछ लइयो ताकल तौलल ! हमर औरत हमरे बना को खिला दिये अपने भूखले सुत रहे । ई भेद तब खुललो जब एक दिन ऊ खड़े चित्त गिर गेलो । दाँती-झाँक छोड़इलियो । पूछलियै तब ऊ सारा भेद खोललको ।) (आपीप॰96.24)
523 दारूबाज (बिहान भेलइ । सूपन फेर उहे तरह से गंगा नहा के सब देवी देवता के पूजा करके वरदान माँग के घर अइला । चिकुलिया सूपन पर बिगड़लइ - अभी ई एजइ अघस-मघस करब करऽ हइ । दुर ने जाय । ई दारूबजवा, ई कुच्छो नञ करतइ ।) (आपीप॰38.7)
524 दिशा-फरागत (= दिसा-मैदान; शौच) (कल्ह वला घटना, रोड जाम के सम्बन्ध में कहना हइ कि उ लहास राम सोगारथ के बहिन के नञ, हमर बहिन पुतुलिया के हइ । ऊ साँझ को दिशा-फरागत ले सड़क किनारे गेल, ओकरा गुण्डा सूना में उठा लेलकइ, बलात्कार भी कैलकइ, अऽ ठोंठा दबा के मार के गंगा जी में फेंक देलकइ ।) (आपीप॰38.18)
525 दुआर (= द्वार) (पेट काट के कौलेज के फीस दा । अपने फटल पिन्ही, बाबू साहेब के इजार पिन्हावो, उपर से सेन्ट-साबुन-सरफ, कागज-किताब-कलम ! अऽ पकिट खरचा ! तोरा कहलियौ घर पर रह के पढ़ाइ करो । तऽ कहलें कि नञ चाचा, ओजो टमटरो अगोरवो अऽ एकान्त में पढ़वो करवइ ! देख लेलियो पढ़ाय ! अऽ तों गे छोउँड़ी ? कहाँ दुआर कहाँ घर ! तोर पित्त में कत्ते गरमी हौ जे राते-रात यहाँ तक चल अइलें ?) (आपीप॰84.23)
526 दुग्गी-तिग्गी (किरानी कुरोधि को ई कहैत कि हम बहुत देखा है पैसा वाला आप जैसे दुग्गी-तिग्गी को ! लीजिये अपना दरखास कहि के फेंकि देलकइ । आर अगल-बगल भी कुले हिनखरे दुरदुरावो लगलन ! महराज बोलने का लूर नहीं है ! आखिर इनका इज्जत है कि नहीं, आप चोर कहियेगा तब कैसे काम होगा ।) (आपीप॰116.17-18)
527 दुदिसठिर (= युधिष्ठिर) (चाचा ! कौन जनम के दुश्मन हलियो ! अच्छा बैर सधैल्हो ! खर्च भी, कज भंड भी ! आठ आना ले एक टोपी बिना विधान नञ पूरा भेलइ । आर अन्हरा मनसुखवा भूखले रहि गेलइ ! दुइयो दिन ! .... दीपो बाबू कहलखिन - बेटा, जग करि को आझ तक कोय जुग नञ जीतलक ! दुदिसठिर जब जग करि को पार नञ पैलका, तब आर कि बेटा !) (आपीप॰72.15)
528 दुबराना (= दुबला होना) (जिछना पहिले ऐसन नञ हलइ, की जन दस दिन में एकरा की हो गेलइ है ? अब तो दुबरा के खिखनी हो गेलइ, नञ तऽ एकर देह ... ? देखइत बनऽ हलइ । सोंटल सिलोर, जुआन जइसे कोय ताड़ के जड़कुन सिल्ली होय ।; जुआन बेटा चलल जा हइ । जान के जहर खाय, देव के दिये दोख । डाकदर के मना कइलो पर मछली खिला देलकइ । गठरिया खुले न बहुरिया दुबराय । ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !) (आपीप॰1.7; 3.24)
529 दुमन्ना (= दो मन का) (लड़का मस्त मौला ! गभरू जुआन ! नम्मा-तगड़ा, सुन्नर पहलमान - दुमन्ना पट्टा हथलाल उठा लिये । मैटरिक पास ! अब कि चाही ? हिनकर औकात के लायक पट गेलन ! आको अपन मागु के सारे नोसो से कह सुनैलका !) (आपीप॰89.3)
530 दुर (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।; मकुना वाली हाथ नचा के कहलकइ - दुर ने जाय छिछियैली ! आजकल के छौड़ा-छौड़ी घोस्ट कर देलकइ समाज के ... । पेट गिरा के अइलो ह, बोलतो कि ? देखऽ हो नञ, चेहरवा पर चार बज रहलइ हे । से एकर चेहरा लागऽ हल खिलल गुलाब नियर !) (आपीप॰6.10; 19.25)
531 दुरदुराना (किरानी कुरोधि को ई कहैत कि हम बहुत देखा है पैसा वाला आप जैसे दुग्गी-तिग्गी को ! लीजिये अपना दरखास कहि के फेंकि देलकइ । आर अगल-बगल भी कुले हिनखरे दुरदुरावो लगलन ! महराज बोलने का लूर नहीं है ! आखिर इनका इज्जत है कि नहीं, आप चोर कहियेगा तब कैसे काम होगा ।) (आपीप॰116.19)
532 दुरूस्स (= दुरुस्त) (दोसर तरह से सोचहीं । बेटी झोला लेतौ, सबेरे जइतौ तरकारी ले सब्जी मरकिट । पूछतौ टमाटर कइसे ? दस रू॰ किलो । आधा होस उड़ जयतौ । पूछतइ आलू कइसे ? पाँच रू॰ किलो । कोबी ? दस रू॰ कि॰ । बेटी के पूरा होस दुरूस्स ! लेतौ दू सौ गिराम टमाटर, दू सौ गिराम कोबी, पचीस गिराम धनिया के पत्ता ! अगड़म-बगड़म ! झोरा से लेको अइतौ आर गैस चूल्हा पर ओकरे उलटि को सिझैतौ, पलटि को बनैतौ ! ओकरे कुछ अलमारी में रखतौ, कुछ फिरीज में ! खइतौ नञ, ओकरा चाटतौ ! सूँघतौ !) (आपीप॰90.22)
533 दुर्रर्र (सूपन के भी भीतरे-भीतरे डर समा गेलन - दुर्रर्र ... इ मतिखपत कलेट्टर कहैं जेल पहुँचा देलक तऽ कि होत ? तभी हुनकरा धेयान आयल अप्पन एम॰एल॰ए॰ शरमा जी के, एमेलेइये नञ, मुनिस्टर हथिन । अब उहे जान बचा सकइ होथ ।) (आपीप॰39.22)
534 दुलारू (कनियाय जे दिन से गेली, एक मिलिट के फुर्सत नञ । चार भाय के एक बहिन दुलारू ! बाबाधाम के माँगल ! साँझे से घर-घर जाको आय-माय के बोलाना । अऽ अधरात तक चिकरि चिकरि को गीत गाना, नाँचना । उमाह के कि कहना । देर तक जगना, बिहान देर से उठना ! मन खराब रहो लगलन ! बुतरू ढिल्ली हो गेल । मुदा उमक में टारने गेली ।) (आपीप॰100.15)
535 दुसना (= दोष बताना, त्रुटि दिखाना) (बुढ़िया मुँह फुलावैत कहलकइ - तों एकरा जहर पिला रहल्हीं ह, हम एकरा अमरित पियैलियै हल । समझलहीं, हमरा तोरा में इहे फरक हौ । बेटिया बुढ़िया के मुँह दुस देलकइ । बुढ़िया जादे नै मुँह लगा को एक बगल हो गेलइ ।) (आपीप॰9.2)
536 दुहबिनी (गाय के तो सिंगार मत कहो, देखैत बनतो हल । सींग में औरत आको, जेकरा दुबिनी कहऽ हइ, घी सिन्नुर लगा दिये । कोय ललका, कोय किसान भखरा सिन्नुर लगवावे । कोय सोनमा सिन्नुर से सींग चमचमावय ले लगावावै । जोठ फुदना चिलिम छाप , चिरमिच्ची छाप । तरह-तरह के छाप मत पूछो । मरद गाय के सींग में सिन्नुर नञ लगावऽ हलइ ! काहे तऽ गाय माता हिखिन !; भैंस के नेठो नियर घुरल सींघ के तो बाते छोड़ो ! दू दिन पहिले से किसान तेज छुरी से ओकर मरल चत्ता छिल के चमका दिये । बिहान दुहबिनी ओकरा में सिन्नुर तेल भोगार दिये ! ऐसन भोगारे कि कहल नञ जाय ।) (आपीप॰74.18, 23)
537 दुहाव (जब पूर्ण पिण्ड दान हो गेल तब पंडित जी हुकुम देलका - अब सँढ़दग्गी होवो दा । बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल ।; दुहाव कहलकइ - बेटा ! बस एखने भर ! राजा बना रहलियौ ह, राजा ! साँढ़ के जैसेइ छोड़लक .. उ नाँढ़ी कबड्डी बाध देने भागल ।) (आपीप॰69.9, 13)
538 दूत-भूत (भोरे-भोरे बाँसुरी के बजा दे हइ ? हमर मन उख-विखा दे हइ । के बजावऽ हइ ? काहे बजावऽ हइ ? जरलाहा ! दूत-भूत तो नञ हइ ?) (आपीप॰81.2)
539 देखताहर (फुलवा के वहाँ ले गेलइ हल सरकारी नाव पर चढ़ा के, बरसा के दो रस्सा बेयार ... तरो पानी ... उपरो पानी ... ! फुलवा बतस गेलइ । राहत कैम्प में पहुँचलइ तऽ ओकरा देखताहर डाकदर पर डाकदर !) (आपीप॰2.5)
540 देखा पाय (ई तो दीना दीनी डकैती भेलइ ! बम पिस्तौल से नञ लूऽ हइ, कलम के मारि मरऽ हइ । .. हों, तब डकैती आपिस में होवे करऽ हइ भौजी । ... तों नञ लहो चण्डी हजार हइ । तब एक बात हइ । माँफी भी हो सकऽ हइ । इहे उमेद पर लोग लेब करऽ हइ । आगू भाग जानइ । अरे ! देखा पाय पाप ! देखा पाय पुण्य ! जे संसार करे से करी आर कि !) (आपीप॰118.15)
541 देखाना (= दिखाना) (इलाज शुरूह भेल । उहे लाल-पीयर गोली, उहे पानी रंग-बिरंगा । सरकारी दवाय के कहना की ? सही रहे तऽ लोग प्रायविट में काहे देखावे ।) (आपीप॰3.12)
542 देवाल (= दिवार, दिवाल; दीवार) (नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर । ... घर के नगीच अइलूँ कि देख के मन सिहा गेल । पक्का अऽ टाइल्स ओकरा भिजुन सब झूठ । चौतरफ माटी के चहरदीवारी, ओकरे पर खपड़ा फेरल ताके धखोरे नञ ! देवाल के बाहर-बाहर ठेहुना भर ऊँच असठी, देवाल लाल गेरू रंग के माटी से बढ़िया को नीपल, मुख दुआर पर माटी के बनल सिंघ, लागे जैसे सचकोलवा सिंघ ।) (आपीप॰7.13)
543 दोकान (= दुकान) (सूपन उ रूपइवा दैत कहलकइ - जो चिक्को ! जरी तोहीं ले आवें ! - ऐं मइयो रे ! शौख कत गो ! अब ऐत गो रतिया के कौन दोकान खुलल होतइ ? - हों, हों ! दारू के दोकान असल इहे बेला चलऽ हइ ! वह चारि डेग में कोनमा पर हइ ! जो बेटा ! रामदास, तोहीं ले आव ।; कुछ दिन बाद ऊ टेबि को अइलइ, खूब सोचि विचारि को ! अपन जाति के मोहल्ला में जाको सड़क किनारे । चौराहा पर फर्द में टाट के झोपड़ी देको चाह के दोकान देलकइ ! छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ । वेबहार बढ़ियाँ, दोकान चलि गेलइ ।; बप्पा अपन बलात्कारी बेटा के बोलैलक । अइलइ। पूछलकइ - तोरा पर ई सब आरोप हौ । कि सच हइ ? - नञ ! हम एकरा चिन्हबो नञ करऽ हियै ! कहौंका हिकइ । भले चाह दू चारि बेरी एकर दोकान पर पीलियै हे । दोकान पर तो संसार जा हइ ।) (आपीप॰34.19, 20; 108.4, 5; 110.3)
544 दोख (= दोष) (अँगना में देखइ वालन के मेला जुट गेल । जिछना के कपार में आग लग गेलइ । उतरा चौली के गलबात चलो लगलइ । जुआन बेटा चलल जा हइ । जान के जहर खाय, देव के दिये दोख । डाकदर के मना कइलो पर मछली खिला देलकइ ।) (आपीप॰3.22)
545 दोगना (= दुगना) (सौखवा दिन दोगना रात चौगना चमकल जाय । ई देख के सब से जादा खुशी सितिया के हो हलइ ।) (आपीप॰76.8)
546 दोबर (= दुगुना) (अनरूध गमगीन होलइ । कहलकइ - रे पगला ! एकरा ले एते चिन्ता ? ई चीज तो मकइ के दोबर सड़क पर फेंकल मिलऽ हइ । बियाह के सलाह तो हम कोय हालत में नञ देवौ ! तों जब इहे ले बेकल हें, तऽ रोज नया माल पावो, एक्के गो घोटलके के कि घोटैत रहतइ ?) (आपीप॰104.9)
547 दोरथें (= ?) (हमरा नजर में नौकरी वाला से बढ़ियाँ लगऽ हौ किसान दूल्हा ! एक ! दोरथें नौकरी वाला करइ के औकाद भी नञ ! हम करवै ओकरे । मन में संकलप लेलियौ हे ।) (आपीप॰92.11)
548 दोल-पत्ता (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।) (आपीप॰74.5)
549 दोस (= दोष; दोस्त) (दोस्त-मोहिम खास अगुआ जे बहुत मेहनत से तैयार कैलखिन हल, से कहलखिन - नञ जइभो तऽ लड़का उठि जइतो, हमर दोस नञ ! बरतुहार लगल हइ ।) (आपीप॰88.11)
550 दोसर (= दूसरा) (आर एकर नगर भोज भी तो पूरन नञ ने भेलइ । चाही नगर भोज में एक आदमी भी भूखल नञ रहे, अन्हरा मनसुखवा भूखले रह गेलइ ! एक दिन नञ, दोसरो दिन !; बी॰ए॰ पास करि को कलेटर, मजिस्टर-मास्टर, किरानी - कि नञ बने हे लोग । तों चपरसियो तो होतें हल ! यह लेने लेने मटिकटवा, डेलीढोवा हो गेलें । ऊ सुनि को ठक्क हो गेलइ । टुकुर-टुकुर हमरा ताकऽ लगलइ । अँखिया के लोर अँखिया में पीको बोललइ - कवि जी ! तहूँ ऐसन बोलऽ हो ! दोसर कहते हल तब कोय बात नञ ! मुदा तोरा नियर के भी इहे मन में समचरलो ! हद्द हो गेल !) (आपीप॰72.7; 96.6)
551 दोस्त-मोहिम (दोस्त-मोहिम खास अगुआ जे बहुत मेहनत से तैयार कैलखिन हल, से कहलखिन - नञ जइभो तऽ लड़का उठि जइतो, हमर दोस नञ ! बरतुहार लगल हइ ।) (आपीप॰88.10)
552 दौड़ब (= दौड़ना) (कहल्हीं ने सरकारी पैसा ! ऊ सब भला आदमी के नञ लै के हिकइ । हमरा से नञ तऽ हमरा मरला के बाद, बालो-बच्चा से असूल करि सकऽ हइ । जानि-बुझि को लै ले नञ चाहऽ हियै । दोसरे ऊ हिकइ धुरफंदी काम ! काम-धंधा छोड़ि को जे ओकरे में लागल हइ । राति-दिन दौड़ब करऽ हइ । खाली तोरा देखइ में लागऽ हौ ।) (आपीप॰113.7)
553 धजा (= धाजा; ध्वजा, पताका) (भीतर दरवाजा के दोनो तरफ नारियल के गाछ, बाहर पीपर के, अँगना नीक को गोबर माटी से नीपल, चिक्कन छह-छह, घर के इसान कोना में खूब सुन्नर कुँइया, ओकरा पर उभैन लगल बालटी, बगल में तुलसी चौरा, महावीर जी के धजा गड़ल, चन्नन के झमटगर गाछ, घन छाहुर ।) (आपीप॰7.19)
554 धनगर (मइया कहलकइ - जे बोले ! कहवइ जरूर । रात फेर एकान्त में बैठा को समझावो लगलइ दुइयो के । देखहीं ! नुनु, उ धनगर अदमी हइ । बैर-बियाह जोड़ी से । तोरा धूर-धुरकी कुछ नञ हौ, ओकरा सब कुछ हइ ! एक दलिद्री छोड़ि को ! पाँच भाय ! एक डाक्टर, एक इन्जियर, एक मास्टर, एक ठीकेदार, पंचमा खेतिहर ! खेत चालीस बीघा ! चल ओकरे गोड़ में लटकि जइबइ ! कहवइ वसा दे ! तोरे हिकियौ ।; मानऽ ही हम्मर बाप के नौकरी मिल गेलइ । घूस-घास में पैसा कमा के धनगर हो गेल से से कि ? जाति भी बदल गेलइ ?) (आपीप॰28.9; 44.8)
555 धन-बुबुक (इ तरह से बोल के पाँच बेरी धूप दे के, कर जोर के अप्पन रोजी-रोजगार में विरधी ले मनौती मांगलका - मशानी बाबा ! मुरदा भेजो । ई तरह से सुक्खा रखभो तब हमर कि होतइ ? पाँच गो परानी मरिये ने जइवइ ? अऽ मुरदा कोय टुटी-फासटिक वाला नञ भेजिहो । भेजहो धन बुबुक वाला, जे माल-पत्तर दै ।) (आपीप॰31.7)
556 धमक्का (कभी कभी धमक्का भी लगावइ ! मुदा फेर साथे । कोय दिन ऐसनो होय कि ओकरा जादा चोट लग जाय, कानल घर भाग जाय । तब सौखवा ओकर लेरू-पठरू सब साँझ तक चरइने घर पहुँचा दै ।) (आपीप॰74.9)
557 धरना (= रखना) (बालाजीत के माय-बाप के धैल नाम बलराम हिकइ ! इसकूल में बालेश्वर । मुदा देहाती लोग विचित्र होवे हे ! ओकर अप्पन शब्द माधुर्य होवऽ हइ । बड़का नाम के ऊ बहुत छोट बना को गरहन करै हे । सेहे सती बालेश्वर के बाला कह के पुकारऽ लगल !) (आपीप॰95.5)
558 धिपना (= गरम होना) (देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर । ओकरा से कुछ दूर में बढ़िया नसल के एक बाछा बान्हल हइ, साँढ़ दागै ले । ओकरा दागै ले गोयठा के आग में सड़सी धिप रहल हे । खूब लाल दपदप सड़सी धिपल हइ । कटहर के पत्ता पर उन्नैस पिण्ड पड़य के चाही । पिण्ड दान के काम सबेरे से हो रहल हे । अन्त में सँढ़दग्गी होत ।) (आपीप॰69.5, 6)
559 धुँइयाँ (= धूआँ) (अरे भँगलाहा ! किसान घर में बेटिया तोर बचतौ ? पहिली साँझ मर जइतौ ! हम जानऽ हियै नञ ? हमहूँ तो किसाने घर के हियै । कखनै धान उसरतइ, चावर फटकतइ । ओकर रूसी-गरदा उड़तइ ! कपड़ा कार हो जइतइ । गँहूम फटकतइ । चुल्हा में आँच लगइतइ - गोइठा के, लहरेठा के, मकई के बलुरी-डाँट कि कि अल्लर-वल्लर के । धुँइयाँ लगतइ !) (आपीप॰89.13)
560 धुरफंदी (कहल्हीं ने सरकारी पैसा ! ऊ सब भला आदमी के नञ लै के हिकइ । हमरा से नञ तऽ हमरा मरला के बाद, बालो-बच्चा से असूल करि सकऽ हइ । जानि-बुझि को लै ले नञ चाहऽ हियै । दोसरे ऊ हिकइ धुरफंदी काम ! काम-धंधा छोड़ि को जे ओकरे में लागल हइ । राति-दिन दौड़ब करऽ हइ । खाली तोरा देखइ में लागऽ हौ ।) (आपीप॰113.6)
561 धूप-गुंगुल (कुछ सोंच के चिकुलिया कहलकइ - अजी एक काम करो ने ! हम पटना में देखलियइ हे, एइसे करइत । ताजा लहास हइ, अभी महकले ह नञ । एकरा पानी से निकाल के धो-धा के अप्पन कपड़ा पिन्हा के, तेल-फुलेल लगा के, अतर छिट के, रंथी पर सुता के, चारो कोना पर धूप-गुंगुल जरावैत रहिहो ! अऽ टिशनमा गेटा पर धर दिहो ! कफन के नाम पर अच्छे आ जइतो ! ई मुरदा घाट से बढ़िया ।) (आपीप॰33.16)
562 धूर-धुरकी (मइया कहलकइ - जे बोले ! कहवइ जरूर । रात फेर एकान्त में बैठा को समझावो लगलइ दुइयो के । देखहीं ! नुनु, उ धनगर अदमी हइ । बैर-बियाह जोड़ी से । तोरा धूर-धुरकी कुछ नञ हौ, ओकरा सब कुछ हइ ! एक दलिद्री छोड़ि को ! पाँच भाय ! एक डाक्टर, एक इन्जियर, एक मास्टर, एक ठीकेदार, पंचमा खेतिहर ! खेत चालीस बीघा ! चल ओकरे गोड़ में लटकि जइबइ ! कहवइ वसा दे ! तोरे हिकियौ ।) (आपीप॰28.9)
563 धोइना (किसान दुलहा सबेरे जाड़ा में खेत जैतन, ओने से अइतन दौरी भरल तरकारी लेले । ... तों चाहे हम ओकरा यहाँ जइभीं बेटी के देखइ ले तब जल्दी आबइ ले नञ देतौ - काहे ? तऽ तों जतना खइभीं ओतना ओकर धोइना में फेंका जा हइ ! … शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ !) (आपीप॰91.22)
564 धोना-धाना (ऊ गोलिया तो नञ मिललइ मुदा अनाज में दै वाला पाऊडरवा के पलास्टिक वाला झोरिया मिल गेलइ । ओकरा टो-टा के देखलकइ - कोना-पुच्छी में तनी मनी में लागल मिललइ । ओकरे धो-धा के गिलास में ढार के पी लेलकइ आव सुत रहलइ, कहके - ला भगवान सुतऽ हियो । ऐसन नीन दिहा कि कभी नै उठी ।; कुछ सोंच के चिकुलिया कहलकइ - अजी एक काम करो ने ! हम पटना में देखलियइ हे, एइसे करइत । ताजा लहास हइ, अभी महकले ह नञ । एकरा पानी से निकाल के धो-धा के अप्पन कपड़ा पिन्हा के, तेल-फुलेल लगा के, अतर छिट के, रंथी पर सुता के, चारो कोना पर धूप-गुंगुल जरावैत रहिहो ! अऽ टिशनमा गेटा पर धर दिहो ! कफन के नाम पर अच्छे आ जइतो ! ई मुरदा घाट से बढ़िया ।) (आपीप॰15.20; 33.14)
565 धोबिया पाट (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे ! बर के बरहोरी बान्ह के झुलुआ झूले ! कभी चिक्का डोल, कभी चक्कड़ बम, दोल-पत्ता, सतघरवा, तऽ कभी कबड्डी दोनो बच्चा ! औरत मरद के कोय भेद नञ । कभी कुश्ती भी ! सौखवा ओकरा पेंच सिखावइ - कभी धोबिया पाट, तऽ कभी चक्कर घिन्नी, कभी सुसमुनवा, कभी झिट्टी । दुइयो मगन साँझ पड़े घर आवे, भैंस गाय खुट्टा में बान्ह दिये ।; जब बप्पे कहलकइ - लड़े ने भोम्हा ! बजड़ जइवें तऽ बजड़िये सही ! जन्नी हिखीं जे चूड़ी फूटतइ ? बकलोलवा । लड़ गेलइ । पाँच मिनट में ऊ पहाड़ सन जन के चित कर देलकइ, उपरे से फेंक देलकइ ! ऐसन धोबिया पाट मारलकइ कि खड़े चित्त !) (आपीप॰74.6; 76.17)
566 नँगटीनी (= लँगटीनी) (हमरा नजर में नौकरी वाला से बढ़ियाँ लगऽ हौ किसान दूल्हा ! एक ! दोरथें नौकरी वाला करइ के औकाद भी नञ ! हम करवै ओकरे । मन में संकलप लेलियौ हे । तों करभीं ? ओकरे तऽ देखहीं हम कि करऽ हियौ ? हरगिस नै हरजोतवा से करो देवौ । एकरा लिए नँगटीनी कहावी तऽ नँगटीनी सही !) (आपीप॰92.14)
567 नकसा (= नक्शा; मानचित्र) (धन्नू चा के गोस्सा मगज चढ़ि गेलइ । कहलखिन - अरे ! रूपइवा देतौ तोर बाप ! तों तो तोहीं हिकें । चारि थप्पड़ में जइतौ मुँह के नकसे बिगड़ि !) (आपीप॰121.1)
568 नगदी (अचके जिछना के आँख चमक गेल । ओकरा याद आयल, वहाँ अस्पताल में खून खरीदल जा हइ । डूबइत के तिनका ... इहे उमक पर चल देलक पटना । जिछना सबसे पहले अस्पताल पहुँचल जजा खून खरीदल जा हल । खून बेच के खड़-खड़ौआ पाँच सौ रुपइया नगदी फाँड़ा में खोंस एन्ने-ओन्ने देखले दवाय के दोकान पर जा रहल हल ।) (आपीप॰4.25)
569 नगीच (हम पहिले छेड़छाड़ करबइ तब कुरोधि जइतइ । ओकरे करो दियै, जे करे से । जब सोहगी नगीच अइलइ, तब ओकर बाँसुरी के सुर कुछ मद्धिम भेलइ । सुर भी गड़बड़ावऽ लगलइ । छउँड़ी मचना के नीचे अइलइ !) (आपीप॰84.4)
570 नगौंटिया (= लंगोटिया) (सौखवा सितिया के नगौंटिया साथी हलइ ! सौखवा के भैंस अऽ सितिया के गाय-बकरी सब साथे चरे !) (आपीप॰74.3)
571 नगौटा (= लंगोटा) (आझ कहलकइ - सीतो ! बान्ह नगौटा ! तनी कुश्ती खेला दियौ । दुओ कुश्ती लड़ो लगलइ । सितिया बल तो करइ, मुदा सौखवा के साथ कि थम्हते हल ! तुरत चित्त करि को छतिया ठोकि दै ।) (आपीप॰78.2)
572 नगौटिया (= लंगोटिया) (जानऽ हीं, घर में बैठल रहला से देह में घुन्न लग जा हइ । रोज चरावइ ले आवें ! तनी देह में माटी लगायल करहीं, बल बनल रहतौ । डंड-कुश्ती मारहीं । । नञ रोज अइवें तऽ एक काम करें । तों गइया खोल के हमरा जौर कर दे । एकाह घंटा खेल के चल जो, हम साँझ तक चरइने चल अइबौ । मुदा रोज आवें । बचपन के नगौटिया ! तों आ जाहें तऽ हमरो मन लग जाहे । एइसे मनुआयल रहऽ ही । सीतिया बेस कह के चल गेल ।; हुनकर दोस्त अनरुध । बचपन के नगौटिया !) (आपीप॰77.12; 103.5)
573 नछुड़ाना (कातिक में हरजोतवा अइतइ गँहूम बुन के, गोड़ में बियाय फाटल रहतइ । रात के मागु जौरे सुततइ । गोड़ा पर गोड़ा चढ़ैतइ । जों कहैं पियार से गोड़ा रगड़ देतै एकरा दन दोको लहू बह जइतइ । सबेरे इलाज करावो । हाथ बाँहि पकड़तइ ! जजै तजै छिला जइतइ, नछुड़ा जइतइ ! मर्रर्र दुर्र हो ! कते खोलि को कहियौ ! कुछ बुझवै नञ करऽ हइ । तनी अपना मन में लाजो नञ लागऽ हइ मर्दबा के गे माँय !) (आपीप॰90.6)
574 नञ (= नयँ; नहीं) ("सावन में जनमलें, भादो में देखले बाढ़, तऽ कहलें कत्ते पानी ! इ बाढ़ नञ, बाढ़ के पुच्छी हे । सन बीस वाला बाढ़ में टिल्हा-टाँकर सब डूब गेल हल ।" आव चार दिना बाद जब बाढ़ कन्हैया दुसाध वाला अँगना में हेल गेलइ, तब पूछलियन, अब काका सन बीस वाला से बढ़लइ कि नञ ? काका चुप्प ... ने हाँ बोलथिन, ने हूँ ।) (आपीप॰1.14)
575 नट-गुलगुलिया (बाप-दादा के बनल-बनावल घर बेच देभीं उ लेतइ माटी के मोल, हम जानऽ हियौ ! उहे तो ओकर साजिशे हइ ! चारो तरफ से घेर के तोरा मजबूर कर देलकौ ! जे में ई भाग जाय ! कहाँ जा के घर बनइभीं ? पैसा दे देतौ, तों भागल बुलें । पैसवा डगरे-डगर खर्च हो जइतौ । तों नट-गुलगुलिया नियर सिरकी तानने बुलें ! हम ओकरे काहे नञ भगा देवइ ओजो से, हम काहे भागवइ ?) (आपीप॰28.19)
576 नमाना (पाँच हजार घूस में बात भेलो ! बाबू के कहलियो ! ऊ सूद पर रूपइया लाको देलखिन ! हम दे अइलियै बहाल करइ वाला अपीसर के । ओकरो कइ एक साल हो गेलो ! जब जा हियो, हाँ हाँ ! अब हो जायगा । घुर आवऽ हियो । उहे रूपइया हमरा ले काल हो गेलो । बाबू कहऽ हथुन - ऊ रूपइया तों रंडी के दे अइलें । चानी के जूता केकरा नञ नमा दियै ! एक हाथ रूपइया दोसर हाथ काम । या तो तों नञ देल्हीं, या रूपइया खेतारी कइलें । आखिर एक दिन कुरोधि गेलखुन । कहलखुन - हमर रूपइया ला को दा, या दुओ जीव अलग खा । लटपट बतिया मोहि न सुहाय, टाट पलंग लेहो माथा चढ़ाय ।) (आपीप॰96.13)
577 नम्बा (= लम्बा) (हमर पाँव के आहट पाको एक बुढ़िया घर से निकलल, पाँचो हाथ नम्बा तगड़ा गोर बुराक, माथा के बाल उज्जर बर्फ, फह-फह बगुला के पाँखि सन साड़ी पिन्हने, जइसे छहाछत भारत माता, शीश मुकुट हिमवान देश का, या खुद सरसती माता ।) (आपीप॰8.2)
578 नम्भा-नम्भा (= लम्बा-लम्बा) (धन्नू चा कुछ झेंपैत तनी चिढ़ावैत कहलखिन - सेह न कहऽ हियौ, तों तो जी से कुछ गनवे नञ करऽ हीं, तब कि । जे चरावे डिल्ली सेकरा तों चरावें घर के बिल्ली । - एह, तनी एक बाबू साहेब ई पटना डिल्ली में रहइ हथ जे जाने गीदर के नगड़ियो नञ, भाषण नम्भा-नम्भा !) (आपीप॰112.21)
579 नम्मा (= लम्बा) (लड़का मस्त मौला ! गभरू जुआन ! नम्मा-तगड़ा, सुन्नर पहलमान - दुमन्ना पट्टा हथलाल उठा लिये । मैटरिक पास ! अब कि चाही ? हिनकर औकात के लायक पट गेलन ! आको अपन मागु के सारे नोसो से कह सुनैलका !) (आपीप॰89.3)
580 नय (= नयँ, नञ; नहीं) (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... ऊ शहरी एक सो ग्राम चावर खैतौ । तों देहाती, जइभीं, दुइयो के बदली एसकरे भकोसि जैभीं ! दमदा कहतौ बेटिया से ई डोलइ के नाम नय लऽ हइ ।) (आपीप॰92.3)
581 नहाना-सोनाना (मइया पूछलकइ - कैसन मन हौ गे ? अच्छे हइ मइया । जो सबेरे नहा-सोना ले, मन फरेस हो जइतौ । कै भेलो हे, खिचड़ी बना को खा ले । छरहर बनइहें, खूब सिझा के, मूँग दाल वाला । फरहर बनइभीं तब ने पचतौ ।) (आपीप॰16.8)
582 नहिरा (= नइहर; मायका) (तों करभीं ? ओकरे तऽ देखहीं हम कि करऽ हियौ ? हरगिस नै हरजोतवा से करो देवौ । एकरा लिए नँगटीनी कहावी तऽ नँगटीनी सही ! तऽ कि करभीं ? जादा से जादा नहिरा भाग जइभीं आर कि ? मियाँ के दौड़ महजिद तक । ... नै रे । हम नहिरा नै जइवउ ! आवो दहीं बरियात ! हम बेटिया के लेको कुइँया में कूद जइवउ ! तोर मँड़वा-कोहबर में आग लगा देवौ !; परसू मिललइ । ... पूछलियै - सुनलियौ नदी में बालो ढोवइ ले जाहें ? सहजैं मुसका के बोललइ - कवि जी ! तऽ कि कैल जाय ? नहिरा जो बेटी ससुरा जो, बहियाँ डोलाय बेटी सगरे खो ! बिना कमइने के एक पैसा दै वाला हो ?; नहिरा के उमक । कनियाय सब कुछ भूल गेली । कहलो गेलइ हे टूटल सवासिन के नहिरे आस । ससुरार तो एक जेलखाना हइ । नहिरा वाला मौज कहाँ ?) (आपीप॰92.15, 17; 95.21; 100.7, 8)
583 नाँगट-उघार (बुढ़िया फेर हुकुम देलकइ - जो जल्दी ! आझे ! अभी ! कहीं हमरा नाँगट उघार रोकसदी कर दिये ! अप्पन घर चल आयत अपना सुख-दुख के साथ रहत !) (आपीप॰99.7)
584 नाँघना (= लाँघना) (हम लाख कहलियै छोटकी से, घीढारी नञ कराव । मुदा बूढ़ा-बूढ़ी के बात अब के माने हे ? ... बुढ़िया एक सुरर्रे बोलैत रहि गेलइ । घीढारी जे करे सेकरा साल भर नदी नञ नाँघइ के चाही, बरी नञ पारइ के चाही, कोहड़ा लगावइ के या खाय के नञ चाही, सराध के अन्न नञ खाय के चाही !; ई गांग पानी, नदी-नाला रहे तऽ कहल जाय ! ई गांग, बड़की गांग । ... बाप रे ! ओकरा नाँघि को ओय पार जाना ! जानि को जहर खाना !) (आपीप॰98.5, 7)
585 नाँढ़ी (बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल । पें कि करइत हल बेचारा ! ... बहुत आदमी ओकरा बान्ह-छान के गिरा देलकइ - दहिना पुट्ठा पर सड़सी से दाग के तिरसूल के चिन्ह बना देल गेल । से दिन से ऊ अजोर हो गेल । दुहाव कहलकइ - बेटा ! बस एखने भर ! राजा बना रहलियौ ह, राजा ! साँढ़ के जैसेइ छोड़लक .. उ नाँढ़ी कबड्डी बाध देने भागल ।) (आपीप॰69.14)
586 नान्हि-वारि (एक दिन चार गो लफुआ अइलइ - मइया-बेटवा के केप्चर कर लेलकइ, पिस्तौल देखा के, लगभग बारह बजे रात में ! एकाएकी छउँड़ी के बलात्कार करि गेलइ । छउँड़ी बदहोश ! भैवा कहलकइ - चल मैया । बलात्कार के केस नामी होवऽ हइ । बड़ी कड़र । चारो के हम चिन्हऽ हियै । कर दियै केस । मैया कहलकइ नैं बेटा । ओकर कुछ नञ बिगाड़ि होतइ, बिगड़ जइतौ तोरे । गोजो । नान्हि वारि हइ, जाति-कुटुम के पूछतइ ? जो डाकदरनी यहाँ देखा दहीं ।) (आपीप॰108.14)
587 नामी-गिरामी (अनिल बाबू यहाँ जल्दी जो, नञ तऽ ई हाथ से निकल गेलौ । उ डाकदर नञ देवता हथिन । गरीब ले तो भगवाने बुझो । नामी-गिरामी बढ़िया डाकदर के सुभावो बढ़िया होवऽ हइ । दिल्ली-पटना से लौटल रोगी यहाँ कानइत आयल, हँसइत गेल ।) (आपीप॰4.4)
588 निकरामती (पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन । पपुआ माय चूल्हा में गोइठा पैसावैत कहलकइ - हूँ हूँ, निकरामती मरद के गाल कतै ? अपनै मन बिलैया पुरखायन ! हमरा भिजुन जते सुना ला ! हम जानो हियौ नञ । घर बुधि बारह, बाहर बुधि तीन ! गाँव से बाहर विधाता उहो लेलका छीन ।) (आपीप॰112.7)
589 निकसी (= प्रेमी के साथ घर से भाग जाने वाली स्त्री; पति को छोड़ पर पुरुष के साथ विवाह करने या रहने वाली स्त्री; दुराचारिणी स्त्री) (मुरदा ठीक सामने आके किनारा लग गेलइ ! मौगी अऽ बेटवा जाके देखलकइ । चिकुलिया बोललइ - देखहो ने जी ! अपसूइये हइ, कत्ते सुन्नर हइ ! सुपन जाके देख के हामी भरलका ! हों हों । चिकुलिया कहलकइ - लगऽ हइ माइयो निकसी हलइ ! खस खेलनी ! नान्हें वैस में एकरा पित्त में कत्ते गरमी हलइ ? कोय अपने परिवार चाँप चढ़ा के मार देलकइ हे ! घेंचिया में रस्सी के दाग हइ !) (आपीप॰33.7)
590 निचीत (= निश्चिन्त) (जैसइ हाकिम से मिलै ले दुअरिया पर गेलखिन कि चपरसिया रोकि लेलकन । ए ! पहलवान जी, क्या है ? लाइये हम दे देंगे । अभी साहेब काम में है । -'करजा के दरखास !' धन्नू चा कहलखिन । चपरासी दरखास लेको अप्पन जेबी में रखि को कहलकन - जाइये ! अब आप निचीत से बैठिये । काम हो जायगा । ई निचीत हो गेला । महेश बहुत देरी बाद अप्पन काम निवटा के अइलन । पूछलकन - देल्हो दरखास ?) (आपीप॰114.13, 14)
591 निच्चू (उपर से ~) (ई अप्पन बिट्टा से बाँस काटि को खूब बढ़िया मचान गड़ि देलखिन - उपर से निच्चू पलानी भी । मचान के फराटी पर गद्देदार नेबारी के बिछौना । एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ ।) (आपीप॰106.3)
592 निछक्के (कुछो ने मइया । नञ पचलइ । बिगि देलकइ । ले मरीच चिबा के पानी पी ले । पेटे साफ हो जइतौ । मन नै पच-पचइतौ । ई नै चाहइ मुदा मइया डाँट के पिला देलकइ । फेर कै । अबरी निछक्के पानी गिरलइ । पेट साफ ।) (आपीप॰16.1)
593 निजगूत (~ करना) (भोज में शिकायत नञ होवो दै के बरत लेको ओजो से उठला । वहाँ से आको सब सलाहकार भंडारी के, परसैनिहार के, अऽ बिजै करैनिहार के टरेनिंग देको अप्पन-अप्पन काम निजगूत करि देलका ।) (आपीप॰70.11)
594 निजलिया (हम हरजोतवा के बियाहवइ ! चाहे भीखमंगा रहे ! निधुरीवा ! निजलिया ! मुदा हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ?) (आपीप॰89.16)
595 निट्ठाह (किरानी बाबू मुँह में कौर लेलखिन कि ई कहना शुरूह कैलखिन - आँय जी ? कान में करूआ तेल दे को सूत गेल्हो ! निट्ठाह ! जुग जमाना खराब बीतऽ हइ । जुआन बेटी बाहर ! शहर पटना में राखऽ हो ! कैसनो कुछ हो जाय, के जाने ? प्रभू के शान, गोड़ घसक जाय ! तऽ कहाँ के रहभो ?; बेटवा से कहलकइ - बेटा ! कोय ऐसन जगह खोजहीं जहाँ-जे शहर के टोला-मोहल्ला में अपन जाति के चलती होय ! काहे कि अब बहिनियो बियाहे जुकुर हो गेलौ ! जाति के अंक लागि जइतइ । हमहूँ निट्ठाह ।) (आपीप॰87.2; 108.1)
596 नितराना (= इतराना) (शहरी दमाद यहाँ जइभीं ! रात के बाद परात होते ओकर चिन्ता बढ़ जइतै । बाप रे ! कि जन ई कत्ते दिन रहतइ ! ... तोर बेटी के मन करतौ बूँट के भूँजा खाय के । बाजार से खरीद के लइतौ एक सौ गिराम ! चालीस रूपइया कि॰ । छिपिया पर रख के चार-चार दाना मुँह में चिभला-चिभला खइतौ ! नितरा-नितरा ! बूँट के भूँजा । ऊ खाना नञ भेल, खाली जी फेरन । भगवान ने करे ऐसन होय !) (आपीप॰92.7)
597 निधुरिया (मिनिस्टर के औडर भेल, तब मिलइ ले गेल ! चरण छू को परनाम कैलक ! अप्पन बिपत सुनैलक - हम तो निधुरिया हो गेलियो इ केस में । तों ऐसन कठोर कि मदद तो कि करवा, घुर के देखइ ले नै अइला !) (आपीप॰64.9)
598 निधुरीवा (हम हरजोतवा के बियाहवइ ! चाहे भीखमंगा रहे ! निधुरीवा ! निजलिया ! मुदा हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ?) (आपीप॰89.15)
599 निम्मन (= नीमन, अच्छा) (दवाय से जादे संजम करावल गेल ! खैर फुलवा कुछ दिन में निम्मन हो गेल । डाकदर कहलकइ - खबरदार ! एकरा मछली नञ खिलइहें । नञ तब जानो तों ! हम्मर दोस नञ ।; ई मंगनियाहा दवाय से कहैं आदमी निम्मन भेल हे । कोय बेमारी होय, इ सरकारी डाकदर यहाँ जा कि चट सनी एक सीसी रंग और उज्जर-पीयर गोली !) (आपीप॰2.7; 3.24)
600 नियन (= नियर; समान, सदृश) (गेट के अगोरवाह सिपाही, जे एकरा से पूर्व परिचित हलइ, ऊ कड़क आवाज में कहलकइ - अब यहाँ कहाँ ? जो अब आजाद पंछी नियन विचरें ।) (आपीप॰43.5)
601 नियर (चलो दादा, एजइ सुत रहब ! बहुत आदमी तो सुतल हइ, उपर से दिन नियर इंजोर, सुरक्षा ले सेवा सन्ती ! परवचन भी सुनब, खाय ले कलौआ हइये हइ । कि परवाह ।) (आपीप॰16.22)
602 निशा (= नशा) (गेलइ सूपन के बोलावइ ले तऽ देखे हे पी पा के बराबर ! उठैलकइ - तब तक निशा के हलका सुरूर आ गेलइ हल ! उठ के गाना गावो लगलइ आर नाचो लगलइ - "लोहा के गाटर में सड़िया जे फँसलौ, लहँगा भेलौ उघार गे ! घड़-घड़ घड़-घड़ गाड़ी अइलौ, भेलौ पुल के पार गे !" एतना कह के मागु के अँचरा खींचो लगला ।) (आपीप॰35.6)
603 निसपीटर (बहुत शब्द अंगरेजी के मगही में पच गेल । जइसे - लाउडस्पीकर के लौड अस्पीकर, इन्सपेक्टर के निसपीटर, सुपर फेन आदि । हमरा ओकरा से कोय परहेज नञ गुरेज नञ !) (आपीप॰IV.25)
604 निसाफ (= इंसाफ) (गनौरी चा के नाम इलाका में के नञ जानऽ हइ । ... बिना भेद-भाव के सब के नौकरी लगा देलखिन ! गाँव में पर-पंचैती । वाजिब निसाफ करके सबके एक जगह रखलखिन ।) (आपीप॰60.19)
605 नीके-सुक्खे (जने कि होत जतरा पर कल-कल ... हाँड़ी परे कि थारी, जानथिन भगवती माय । नीके-सुक्खे घुरि को अइवो तब दूध बतासा चढ़इवो मइया !) (आपीप॰99.13)
606 नीक्के-सुक्खे (= नीके-सुक्खे) (गंगा के मने-मने परनाम कैलकी । गछलकी नीक्के-सुक्खे घुरवो माता तब दूध के ढार देवो, रच्छा करिहा ।) (आपीप॰100.3)
607 नीन (= नींद) (फुलवा के सबेरे रोटी आव आलू के कुच्चा खिला के सुता देलक हल ! मुदा फुलवा के आँखि में नीन कहाँ ? भूँजल मछली के गंध जो नीन आवो दिये ?; रोज-रोज बँसुरी इहे बेला । बँसुरी तो बहुत सुनलूँ हें ! मुदा ऐसन नञ ! जइसैं एकर पूँकऽ हइ, हमर अँखिया के नीन उड़ जा हइ । मन के चैन विसूर जा हइ ।; कुछ रहे कि नञ, हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ?) (आपीप॰2.11; 81.7; 89.24)
608 नुग्गा (= लुग्गा) (अभियों कि नञ हइ ओकरा ! चार बीघा जमीन हिस्सा ! अपने भी बी॰ए॰ पास, मागू भी पढ़ल ! गाँव भर के नुग्गा सीये ! दरजीनी बीबी ! अब कि चाही ?) (आपीप॰94.24)
609 नुग्गी (= लुंगी) (धन्नू चा महेश सबेरे तैयार होको जाफरी साहब के डेरवे में पकड़लका । जाफरी साहब नुग्गी पिन्हने वरंडा पर बैठि को चाह पीयब करऽ हलखिन । फेर भीतर हाँक देलखिन । हुनकर बेटी दू गो चाय आर लेने हाजिर हो गेलन ।) (आपीप॰118.24)
610 नुनु (मइया कहलकइ - जे बोले ! कहवइ जरूर । रात फेर एकान्त में बैठा को समझावो लगलइ दुइयो के । देखहीं ! नुनु, उ धनगर अदमी हइ । बैर-बियाह जोड़ी से । तोरा धूर-धुरकी कुछ नञ हौ, ओकरा सब कुछ हइ ! एक दलिद्री छोड़ि को ! पाँच भाय ! एक डाक्टर, एक इन्जियर, एक मास्टर, एक ठीकेदार, पंचमा खेतिहर ! खेत चालीस बीघा ! चल ओकरे गोड़ में लटकि जइबइ ! कहवइ वसा दे ! तोरे हिकियौ ।; चलल जा हलइ । पंचू मिललइ । बुधना पुछलकइ - कि पंचू ? कैसन रहलइ ? खइला हा खूब ? पंचू कहलकइ - अच्छे हलइ नुनु । तनी बरहवा दिन अलुआ वाला तरकरिया लागइ काँचे रहि गेलइ हल । अऽ तेरहवा दिन दलिया शायत तनी लगि गेलइ हल, तनी जराइन लागइ ।) (आपीप॰28.9; 70.19)
611 ने (= न) ("सावन में जनमलें, भादो में देखले बाढ़, तऽ कहलें कत्ते पानी ! इ बाढ़ नञ, बाढ़ के पुच्छी हे । सन बीस वाला बाढ़ में टिल्हा-टाँकर सब डूब गेल हल ।" आव चार दिना बाद जब बाढ़ कन्हैया दुसाध वाला अँगना में हेल गेलइ, तब पूछलियन, अब काका सन बीस वाला से बढ़लइ कि नञ ? काका चुप्प ... ने हाँ बोलथिन, ने हूँ ।) (आपीप॰1.15)
612 नेठो (भैंस के नेठो नियर घुरल सींघ के तो बाते छोड़ो ! दू दिन पहिले से किसान तेज छुरी से ओकर मरल चत्ता छिल के चमका दिये । बिहान दुहबिनी ओकरा में सिन्नुर तेल भोगार दिये ! ऐसन भोगारे कि कहल नञ जाय । गारा में पीतर के सिकड़ी, चमाचम पानी चढ़ायल सोना के मात करे ! गारा में जोठ, जोठ में घंटी, केकरे घंटिये नञ, घण्टा कहो, टनाक-टनाक बाजे ।) (आपीप॰74.22)
613 नेबारी (= धान का पुआल) (ई अप्पन बिट्टा से बाँस काटि को खूब बढ़िया मचान गड़ि देलखिन - उपर से निच्चू पलानी भी । मचान के फराटी पर गद्देदार नेबारी के बिछौना । एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ ।; एन्ने-ओन्ने देख के कहलकइ - मुदा ई बाधो भर टमाटर-मिरचाय ! आड़ कहैं नै ? एक काम करो मीत ! मचना के नीचे चारो तरफ नेबारी से घेर दा !; मनोज बाबू ओकरा नेबारी से घेर देलका । समरी पूछलकइ - काहे ले घेरल्हो ?) (आपीप॰106.3; 107.7, 8)
614 नेवता (~ मारना) (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।) (आपीप॰6.8, 10)
615 नेहाल (= निहाल, पूर्ण रूप से प्रसन्न, पूर्ण सन्तुष्ट) (खेत में दू-चार गाछ रोपलकइ मुदा ओढ़निया हरदम सँसर जाय ! माथा पर से ओकरे सम्हाड़ै में पाँच गाछ के हरजा । मइया कहलकइ - मर्रर्र ! दुर्र हो !! दिन भर तों दोपट्टे सम्हाड़ै में रहमें तब रोपमें कहिया ? छउँड़ी ओढ़निया के मुरेठा बान्हि लेलकइ - देह के उभार ! कसकल ! कसल देखैत बनइ ... ! मनोज बाबू देख के नेहाल हो गेलखिन । ऊ टप-टप टमाटर रोपैत रहलइ ।) (आपीप॰105.20)
616 नैकी (काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में ! नैकी काँगरेस के कहऽ हलखिन - बिना पेंदा के लोटा ! साँझ बोलल कुछ, बिहान बोलल कुछ !) (आपीप॰60.22)
617 नैकी-पुरनकी (काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में !) (आपीप॰60.21)
618 नो सौ (सारी ~ से कह सुनाना) (तभी गोदी के बच्चा कानल । नवीन पूछलकइ - इ बच्चा ...? इ बच्चा के देखावैत सारी नो सौ से बाप घर के कहानी तक कह सुनैलक ।) (आपीप॰48.23)
619 नोचनी (= खुजली) (जा, हम ओतै बहस नञ जानी ! देखऽ हो महेश रात-दिन करि को सरकारी रूपइया निकाललका संसार अबूध हइ ? तों एगो बुधगर ... । ई बात धन्नू चा के लग गेलन छक दोको करेजा में । ठीक हइ, घूस में पैसा लागतौ ! पाछू हमरा नञ कहिहें । पैसवा खरच होवऽ हइ तब तोरा देह में नोचनी लागो लगऽ हौ ।) (आपीप॰113.23)
620 नोसो, नो सौ (सारी ~ से कह सुनाना) (मंत्री जी मुसकुरा को पूछलखिन - कि काम हलइ ? सूपन सारी नोसो से कह सुनइलखिन । मंत्री जी सुन के हँसलखिन । हँसते-हँसते कहलखिन - अलगंठे एसकरे निगलि जाय ले चाहऽ हहो ! दू लाख ! एसकरे खइभो तब पचतो ? अरे ! बाँटि-चुटि के खाय राजा घर जाय, तभी ने ? नञ तब जेल के तैयारी करहो !; नरेश बाबू हुनकर मित्र में से हथिन । जिगरी दोस्त । हुनका एक दिन सारे नो सो से एगारह तक समझा देलखिन । खोल के अपन औकात बता देलखिन । नरेश बाबू सब सुन के कहलखिन - नौकरी वाला दुल्हा के गलबात छोड़ो !; लड़का मस्त मौला ! गभरू जुआन ! नम्मा-तगड़ा, सुन्नर पहलमान - दुमन्ना पट्टा हथलाल उठा लिये । मैटरिक पास ! अब कि चाही ? हिनकर औकात के लायक पट गेलन ! आको अपन मागु के सारे नोसो से कह सुनैलका !; बिहान महेश के सारी नो सो से कहि सुनैलखिन । महेश कहलकन - चलिहा, काल्हु छुट्टी हइ, चलवो । सबेरे तैयार होको दुइओ गेला आपिस ।) (आपीप॰40.10; 88.16; 89.5; 116.23)
621 पँजोठना (चिकुलिया कहलकइ - एजो देवला के आड़, एकान्त में रूपइया गिन्हो तो कतना हो ! सूपन एक-एक करके रूपइया गिनलका - सब मिला के एगारह सो पाँच ! रूपैया के मोटरी चिकुलिया के हाथ में दैत सूपन खुसी से उछल गेलखिन । चिकुलिया के पँजोठ के चुम्बा लैत कहलखिन - वाह गे ! चिक्को रानी ! ई तोरे लुर-बुध के कमाय हे भाय ! सब पैसा तोर !) (आपीप॰34.11)
622 पक्का-पोस्त (खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी ! बाप चालू-पुरजा, घर पक्का-पोस्त, खाय-पीये में ठोस ! छोट घास-दाना में बड़ बढ़ियाँ । करीब तक पहुँच गेलखिन ! तीन लाख से एक छेदाम भी कम नञ !; किसान लड़का के खोज होवो लगल ! संजोग से मिल गेल । बीस बीघा हिस्सा, दुआर पर टरेक्टर मैसी - फारगूसन । घर दोबारा पक्का पोस्त ! बाहर भीतर पलिस्तर ! ऐंगना भी पलिस्तर । कहैं माटी के दरेस नञ । ऐंगना में चाँपाकल, पैखाना, घर में टी॰भी॰ रेडियो कि नञ जे सब सामान होवऽ हइ । खेत में नहर-टीवेल । सालो भर सब तरह के फसील !) (आपीप॰87.22; 88.24)
623 पचपचाना (फेर दुबारे कै । दोसर बेरी में मइया जागलइ । पूछलकइ - कि भेलौ गे ? कुछो ने मइया । नञ पचलइ । बिगि देलकइ । ले मरीच चिबा के पानी पी ले । पेटे साफ हो जइतौ । मन नै पच-पचइतौ ।) (आपीप॰16.1)
624 पचमा (दोसरा नम्बर में देखल जाय ! डाकदर-इनजीयर-ओभरसीयर नौकरी लगल वाला ! बिना नौकरी वाला तो कत्ते मारल बुलऽ हइ ! बिना नौकरी वाला बतौर मजूर समझो । उहो कै गो बतायल गेल - मुदा टँगरी नञ ठहरल । तेसर नम्बर पर आयल ! बैंक करमचारी, मास्टर-किरानी आदि ! चौठा नम्बर पर सिपाही ! पचमा में किसान लड़का खोजल गेल !) (आपीप॰87.19)
625 पछुआना (= पीछा करना, पीछे-पीछे जाना) (जेलर साहब उ सिपाही के भी ओकरा साथ लगा देलका - इ कह के कि ई सारी कहैं लौट नञ जाय ! जो एकरा टिकस कटा के गाड़ी पर चढ़ा के लौटिहें । सिपाही ओकरा साथ-साथ चलो लगल । कुछ दूर गेला के बाद असमिरती बोलल - अब तों हमरा पछुअइने कहाँ जा रहले हें ?) (आपीप॰46.14)
626 पट (~ दबर; ~ सना) (धन्नू चा सबेरे घर से दही-चूड़ा खा को, जतरा बनैने सबसे पहिले आपिस में दम दाखिल । जइते इनरदेव बाबू के सलाम ठोकलखिन ! पूछलखिन - हमर दरखास अइलइ इनरदेव बाबू ? ऊ कहलकन - किसके नाम से ? - धन्नू पहलमान के नाम से । ऊ उलटि-पुलटि को फाइल देखो लगलइ । चाचा पढ़ल तो नै मुदा आददास्त के बड़ी तेज । हिनखर दरखास के पीठिया पर रसुनाय के दाग हो गेलइ हल । पट दोकोऽ चिन्ह गेलखिन - यह तो हिकइ !) (आपीप॰116.2)
627 पटाना (= पड़ जाना; पड़ा रहना) (दोस्त-मोहिम खास अगुआ जे बहुत मेहनत से तैयार कैलखिन हल, से कहलखिन - नञ जइभो तऽ लड़का उठि जइतो, हमर दोस नञ ! बरतुहार लगल हइ । ... बाज मत आबो फेर ऐसन संजोग मिलना मोसकिल ! बकि ई थुथुरवा साँप नियर जैसे के तैसे पटायले रह गेला ! तनिको उसुक-पुसुक नञ ।) (आपीप॰88.13)
628 पड़ियानि (= पैड़ियानि; पड़िआइन, पाँड़े की स्त्री) (करऽ ~ चौठ !) (केस हो गेलन । पपुआ माय जानलकइ । चाचा पर बरसि गेलन - यह ! मुरूखवा के काम ! करो पड़ियानि चौठ ! ई हुड्डा ! रूपइवो बुड़ा देलकइ अऽ उपर से केस भी माथा पर ले हइलइ ! एतना कहि को माथा ठोकि लेलकइ ! बिना बिना कानो लगलइ ! हाय रे !!) (आपीप॰121.11)
629 पत्तल (चौठा कहलकइ - अरे, झिंगना के बेटवा दही परसै ? ... खड़े-खड़े लागइ जइसे पतला पर चिल्ह छेर देलक हे । टिक्का करइ भर ! फेर लैलकइ लड्डू ! कहइ आर भागल जाय ! लड्डू-लड्डू-लड्डू .... ।) (आपीप॰71.16)
630 पथलाना (= पत्थल हो जाना) (सब ठीक हो जइतौ ! मुदा दवाय के गोली भीतर जा नञ सकल ... । गियारी में टेंगरा सन अटक गेल । अचके फुलवा के आँख चमक के फैल गेल । इ देख के जिछना के अँखिये नञ देहियो पथला गेल ।) (आपीप॰5.15)
631 पनकोरवा (= पानी पीने का मिट्टी का प्याला) (परसू मिललइ । ओकर गोर सुनहला चमड़ी झमायल तामा के रंग के हो गेलइ हल ! मुदा भीतर से पनकोरवा टहक लेने, चमकदार हलइ । पूछलियै - सुनलियौ नदी में बालो ढोवइ ले जाहें ?) (आपीप॰95.19)
632 पनसोर (भला आलू कोबी के तरकारी ! जो नीक से बनावे तो उड़ि चले, मुँह से छोड़इ के मन नञ करे, पेट फाटल जाय, छोड़ल नञ जाय । से लगइ जैसे पानी से छानल रहइ ! पनसोर !) (आपीप॰71.14)
633 परकना (चुपके से एक देसी सिक्स रौण्ड पिसतौल कीनलकइ अऽ बारह गो गोली ! मइयो के जानो नञ देलकइ । एक रात फेर अइलइ - परकल गीदरा ककड़ी खेत ! उहे बेला ! छउँड़ी सबसे पहिले जगलै । भैवा के उठैलकइ ! ई उठि को आराम से, दिमाग असथिर करके तेजी से एक-एक गोली चारो के लगा को नरभस करि देलकइ ! फेर दू गोली कनपट्टी अऽ सीना में उतार के, तीनों उठल, वहाँ से चल देलक ! राते रात । अप्पन पुरनका घर आ गेल ।) (आपीप॰110.14)
634 परतर (= तुलना, मिलान; उपमा; बराबरी; सामान्य या औसत उपज अथवा प्राप्ति) (हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? ... कुछ रहे कि नञ, हमर परतर करतइ हरजोतवा ? साँझ अइतइ भादो में खेत से रोपा करा को, गोड़ में कादो लगल रहतइ ! दिन भर रौदा के झमायल ! गोड़ धोतइ । राति सुततइ मागु जौरे ! गुमसायन महकतइ ! ओकर देह में सट के हमर बेटिया के नीन होतइ ?) (आपीप॰89.22)
635 परनाम (= प्रणाम) (धन्नु चा जैसे चिढ़ावइ ले आझ बैठलखिन हल ! मुसुका को कहलखिन - पपुआ माय ! एकाह दिन जो बजार जा हियै - से मे तो बजार के कत्ते लोग जे नहियों चिन्हऽ हइ सेहो, परनाम पहलवान जी ! राम राम खलीफा जी ! अहो, हम मामूली हियै ? दशा-दिशा नर पूजिता ! पपुआ माय अधकट्टी चनरमा कट मुसुक्का मार के कहलकन - ऊ हूँ, तोरा ने ? तनी एक जमाहर लाल ई बाबू साहेब, से हिनखा कुले परनाम करऽ हन । देखियो तो कुले ला रहलऽ हे, सरकारी गहूँम, सरकारी रूपइया । तोरो से होतइ ?) (आपीप॰112.13, 16)
636 परनाम (= प्रणाम) (मेघा चलो लगल, चलते-चलते हिनखरा परनाम करके कहलकन - तों चारो परानी हमर पता पर चल अइहा । घबरइहा नञ ! तोर सारा इन्तजाम हम करवइ ।; मिनिस्टर के औडर भेल, तब मिलइ ले गेल ! चरण छू को परनाम कैलक ! अप्पन बिपत सुनैलक - हम तो निधुरिया हो गेलियो इ केस में । तों ऐसन कठोर कि मदद तो कि करवा, घुर के देखइ ले नै अइला !; नाव ओय पार लगल हल । कनियाय कल-कल छल-छल करि को बहैत गंगा के निरमल धार के देख हरखित मन से परनाम कैलकी । फेर बुढ़िया के एक-एक बात - साल भर नदी पार नञ जाय के चाही, कोहड़ा नञ रोपइ के चाही ... आदि-आदि दिमाग में सिनेमा के फोटू सन आवो लगलन ।) (आपीप॰25.12; 64.8; 99.17)
637 पर-पंचैती (गनौरी चा के नाम इलाका में के नञ जानऽ हइ । ... बिना भेद-भाव के सब के नौकरी लगा देलखिन ! गाँव में पर-पंचैती । वाजिब निसाफ करके सबके एक जगह रखलखिन ।) (आपीप॰60.19)
638 परसंडा (फेर उ झपटल बाज नियर - कौन बूढ़ा हा ? जुआन तो हा । पूछने-पूछने लोग लन्दन चल जाहे, तों छौड़ा पूत के ओहारी कण्टा तर के गाँव भी नञ जा सकऽ हा ? हम समझ गेलूँ । यहाँ बेदर्द हाकिम हइ, हमर कोय उपाय नञ । मन के कड़ा कइलूँ । उठ बन्दा, चल परसंडा, से चल देलूँ । जेठ के महीना । चलैत-चलैत दस एगारह बज गेल ।) (आपीप॰6.25)
639 परसन्न (= प्रसन्न) (अनरूध बड़ी परसन्न भेलइ । कहलकइ - बस, बात बनि गेलइ । बात अब कि ? जब रूपइया पकड़ लेलकइ तब ? एन्ने-ओन्ने देख के कहलकइ - मुदा ई बाधो भर टमाटर-मिरचाय ! आड़ कहैं नै ? एक काम करो मीत ! मचना के नीचे चारो तरफ नेबारी से घेर दा !) (आपीप॰107.4)
640 परसाल (हम बी॰ए॰ के छात्रा जबसे कॉलेज में दाखिला लेलूँ, तब से हमर सहपाठी नवीन पाण्डेय से हमर प्रेम प्रसंग चल रहल हल ! परसाल हम दोनो अपना राजी खुशी से मन्दिर में अग्नि के साक्षी, बराहमन देवता, जनता के सामने हिन्दु रीति से विवाह कइलूँ । उ समय हमर उमर उन्नैस साल हल, जेकर मौजूदा साटिक-फिटिक प्रमान हइ ।; चलें अब ई साल बियाह पसपौन्ड । अब परसाल देखल जइतै ।) (आपीप॰51.21; 92.20)
641 परसू (= परसूँ; परसों) (बिहान पटना जाय ले पैसा माँगलका, उ पैसा देलकन अऽ चलि देलका गाड़ी पकड़ि को पटना । वहाँ गेला के बाद पता चललन कि मुनिस्टर बाबू बाहर गेल हथुन, परसू अइथुन ! परसू तक इन्तजार में, हुनकरे डेरा में रहला ! परसू मुनिस्टर बाबू रात तक ऐलखिन । बात नञ हो सकलन । चौथा दिन सबेरे मुनिस्टर बाबू से मिललखिन ।; परसू मिललइ । ओकर गोर सुनहला चमड़ी झमायल तामा के रंग के हो गेलइ हल ! मुदा भीतर से पनकोरवा टहक लेने, चमकदार हलइ । पूछलियै - सुनलियौ नदी में बालो ढोवइ ले जाहें ?) (आपीप॰40.2, 3; 95.18)
642 परसैनिहार (= परसनिहार, परसने वाला) (भोज में शिकायत नञ होवो दै के बरत लेको ओजो से उठला । वहाँ से आको सब सलाहकार भंडारी के, परसैनिहार के, अऽ बिजै करैनिहार के टरेनिंग देको अप्पन-अप्पन काम निजगूत करि देलका ।) (आपीप॰70.10)
643 परान (= प्राण) (ऊ गोली अऽ पानी पीते-पीते थक गेल, बेमारी बढ़ले गेल ! फुलवा के मन एक दिन जवाब दे देलक, बोलल - अब नञ बाबू ... । जिछना के तो पराने उड़ गेल ।) (आपीप॰3.14)
644 परानी (= प्राणी) (इ तरह से बोल के पाँच बेरी धूप दे के, कर जोर के अप्पन रोजी-रोजगार में विरधी ले मनौती मांगलका - मशानी बाबा ! मुरदा भेजो । ई तरह से सुक्खा रखभो तब हमर कि होतइ ? पाँच गो परानी मरिये ने जइवइ ?) (आपीप॰31.6)
645 परारथना (= प्रार्थना) (नवीन के जेल से छोड़ावई में बड़ी मेहनत कैलक, अप्पन पति समझ के । नै तऽ उ जेल में सड़ते रहत हल अभी तक । सेहे सती हमर कोट से परारथना हइ कि नवीन आर असमिरती के पति-पत्नी रूप में नया जीवन शुरूह करे के आदेश देल जाय ।) (आपीप॰53.16)
646 पलानी (ई अप्पन बिट्टा से बाँस काटि को खूब बढ़िया मचान गड़ि देलखिन - उपर से निच्चू पलानी भी । मचान के फराटी पर गद्देदार नेबारी के बिछौना । एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ ।) (आपीप॰106.3)
647 पलिस्तर (किसान लड़का के खोज होवो लगल ! संजोग से मिल गेल । बीस बीघा हिस्सा, दुआर पर टरेक्टर मैसी - फारगूसन । घर दोबारा पक्का पोस्त ! बाहर भीतर पलिस्तर ! ऐंगना भी पलिस्तर । कहैं माटी के दरेस नञ । ऐंगना में चाँपाकल, पैखाना, घर में टी॰भी॰ रेडियो कि नञ जे सब सामान होवऽ हइ । खेत में नहर-टीवेल । सालो भर सब तरह के फसील !) (आपीप॰88.24)
648 पसपौन्ड (चलें अब ई साल बियाह पसपौन्ड । अब परसाल देखल जइतै ।) (आपीप॰92.20)
649 पसीन (= म॰ पसन; हि॰ पसन्द) (बड़ा मेहनत से मिल गेल करमचारी ! ओकर बाप भी हिनका पसीन कैलक । हिनकरो मन डूब गेल । खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी !; माया बाप के पसीन किसान दुल्हा के साथ, या माय के पसीन नौकरीवाला दुल्हा दू में केकरे साथ नञ गेल । जाने माया के चुनल वर । नौकरीवाला हइ या किसान ? या दुइयो ? या नञ कुछो । उहे जाने !; पपुआ माय, तों तकदीर के सिकन्नर ! गाँग पैसि के वरदान माँगलें हल, जे तोरा हमरा नियर साँय मिललौ ! ऐसन साँय कुल के मिलतइ ? पपुआ माय तिरछी नजर से धन्नू चा के देखैत मुसकावैत मूड़ी नचा के कहलकइ - तऽब ! हमर बाप पाँच बरीस बरतुहारी कैलका । घर मिलल तब वर नञ, वर तब घर पसीन नञ ! दुओ आँख के सूरदास ! चौपठ ! यह मुरूख दमाद कोहबर में गोड़ लगैलका पहलमान जी ! कैसन पहलवान होथि, से हम जानऽ ही । बेटी भोगऽ हियन । ढेर बुधगर रहे से तीन ठमा माँखे ।) (आपीप॰87.21; 93.6; 113.14)
650 पहमा (साँझ भैंसि दुहि को फेनाइले दूध, एक लोटा सितिया के हाँथ में दैत कहलकइ - ले एक महीना खा को देखहीं ! नञ जो दरद छूट जाय तऽ हमरा नाम से कुत्ता पालिहें । सितिया लोटवा लैत मुस्का के कहलकइ - जो रे भोम्हा ! तोरा कुछ नञ बुझो अइलौ ! अऽ भीतर चल गेलइ । दूधा उझलि को लोटवा मैया पहमा भेजवा देलकइ ।) (आपीप॰79.20)
651 पहलमान (= पहलवान) (एक लंगौटा पर पाँच कुश्ती मारलकइ ! सब पूछइ - इ कहाँ के जुआन हइ ? कि नाम हिकइ ? फेर तो एकर नाम इलाका में खिँड़ गेलइ ! जहाँ-जहाँ दंगल होय, एकरा बोलावो लगलइ । जिला जवार में नामी पहलमान हो गेलइ !; लड़का मस्त मौला ! गभरू जुआन ! नम्मा-तगड़ा, सुन्नर पहलमान - दुमन्ना पट्टा हथलाल उठा लिये । मैटरिक पास ! अब कि चाही ? हिनकर औकात के लायक पट गेलन ! आको अपन मागु के सारे नोसो से कह सुनैलका !) (आपीप॰76.22; 89.3)
652 पहिलूठ (= पहिलौठ) (हम बहस में नै पड़ के मुस्कुरा के चुप हो गेलूँ । देखऽ ही, एक खूँटा में चार दाँत के पहिलूठ बियान वाली कर तर बाछा, पाँच सेर पक्की दूध वाली गाय । पंडित के दान खातिर ।; मनोज बाबू पूछलखिन - बड़ छउँड़ी हइ कि छउँड़ा ? - छउँड़ी पहिलूठ हो कि । लगले दू बरीस बाद छउँड़ा भेलो । छउँड़ी के यह पनरहवाँ बीत के सोलहवाँ चढ़लो हे ।) (आपीप॰69.3; 105.6)
653 पाँख (आँख में ~) (जिछना जब कटोरा में मछली के गुड़िया अऽ मड़गोद भात चापुट पार पार के खाय लगल तऽ फुलवा के कनमटकी वाला मूँदल आँख फट सियाँ खुल गेल । कौर चिबावइत फुलवा जिछना दने हियावे हे, तऽ देखे हे कि गुजुर-गुजुर दूगो आँख कटोरा दने ताक रहल हे । जब कौर उठावे तऽ ओकरा लगे कि हर कौर में फुलवा के आँख हे । नञ रहल गेलइ । आँख में पाँख ओकरा वंस में इहे, एकरा ले ऊ कि नञ कर सके हे ।; हम हरजोतवा के बियाहवइ ! चाहे भीखमंगा रहे ! निधुरीवा ! निजलिया ! मुदा हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ?) (आपीप॰2.16; 89.16)
654 पांगना (बेटवा कहलकइ - अब कि होतइ माताराम ? बनल-बनायल बाप-दादा के घर छोड़ि को अइल्हो शहर, अपन जाति भिजुन ! कहलियो केस करो, तऽ सेहो नञ । ई लफुआ बहिन के ... पांगि गेलइ, कि एकरा से कुछ नञ होतइ ! जाति ... जाति ... जाति के लीला देखल्हो ? जाति के खूब धो धो के चाटो ! वहाँ तो ऐसन होते हल तब लाख गो तुरते कहइ वाला हो जइते हल । जाति नञ हलइ से से कि ? यहाँ तो से नञ ?) (आपीप॰108.20)
655 पाछू (= पीछे, बाद में) (आखिर ऊ तय कैलक रात जहर खा के सुत जाय । सबेरे संसार से विदा । पाछू जेकरा जे कहइ के होवइ से कहते रहे, करते रहे ।; जा, हम ओतै बहस नञ जानी ! देखऽ हो महेश रात-दिन करि को सरकारी रूपइया निकाललका संसार अबूध हइ ? तों एगो बुधगर ... । ई बात धन्नू चा के लग गेलन छक दोको करेजा में । ठीक हइ, घूस में पैसा लागतौ ! पाछू हमरा नञ कहिहें । पैसवा खरच होवऽ हइ तब तोरा देह में नोचनी लागो लगऽ हौ ।) (आपीप॰15.10; 113.23)
656 पाछू-पाछू (सूपन कहलकइ - ऊ लहसवा कने से रहतइ पगली । बनिया ले जइतइ लहास ? चलें हम्मर घाट सूना हे । छोड़ें इ सब बम-बखेड़ा । - जो ने तोर घाट, तों अगोरें । हम देख लेवइ तब जइवइ । चिकुलिया चल देलकइ आगू-आगू । लाचार पाछू-पाछू सूपन भी गेला ।; सितिया लोटवा लैत मुस्का के कहलकइ - जो रे भोम्हा ! तोरा कुछ नञ बुझो अइलौ ! अऽ भीतर चल गेलइ । दूधा उझलि को लोटवा मैया पहमा भेजवा देलकइ । सौखवा दू छन खड़ा सोचैत रहलइ - हमरा कि नञ बुझो अइलइ ? फेर इहे सोचैत घर चल अइलै । बिहान दस बजे सितिया के रोकसदी हो गेलइ । सौखवा सवारी के पाछू-पाछू मन में इहे छगुनैत - 'हमरा कि नञ बुझो अइलइ ड़ सितिया से पूछ के रहबै ।' टीशन तक गेलइ ।) (आपीप॰36.12; 79.23)
657 पाटी (= पार्टी) (काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में !) (आपीप॰60.20)
658 पात (= श्राद्ध में दान करने के बरतन आदि) (उन्नैस हाथ लम्बा, दू हाथ चौड़ा, मारकिन के कपड़ा, गोबर से नीप जगह पर बिछा देल गेल हे । जेकरा पर लगल हे उन्नैस पात ! हर एक पात पर पीतर के एक थरिया, एक लोटा, एक गिलास, एक साड़ी, एक नम्बर कुर्त्ता ले कपड़ा । चावर-दाल, आलू-केला, सेव-नारंगी, पूड़ी-मिठाय ! मिठाय में लड्डू-जिलेबी-खाजा ! कपटी में रसगुल्ला ।) (आपीप॰68.15)
659 पाद (= अधोवायु, अपान वायु) (घीढारी जे करे सेकरा साल भर नदी नञ नाँघइ के चाही, बरी नञ पारइ के चाही, कोहड़ा लगावइ के या खाय के नञ चाही, सराध के अन्न नञ खाय के चाही ! एकर भाय के बियाह ठीक हो गेलइ हे । ई गांग पानी, नदी-नाला रहे तऽ कहल जाय ! ई गांग, बड़की गांग । ... बाप रे ! ओकरा नाँघि को ओय पार जाना ! जानि को जहर खाना ! तब दोष केकर ? हम्मर ! जे हम पार गेलियै । हम्मर बात घोड़ा के पाद ! बूढ़ भेलों तऽ दूर गेलों !) (आपीप॰98.9)
660 पारना (चिघार ~) (तहिने से जिछना ले सब बुतरू फुलवा बन गेल । उ पागल नियर जेकरा पकड़ऽ हइ सेकरा दबोचिये ले हइ । छाती से लगा ले हइ, चूम ले हइ । आव बुतरू-वानर ओकरा देख के चिघार पार के भाग जा हइ । भाग रेऽऽऽ, जिछनाऽऽऽ ... !) (आपीप॰5.17)
661 पाहुर (= छोटा बच्चा) (सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । .... सबेरे आधा दाम पर सूअर के पाहुर ले आवे ! काहे तऽ मरल पाहुर फेर ओकरे लौटा देते हल । भैंसि किसान अलगे ! गाय किसान अलगे हूर दिये । ई परम्परा अब समाप्त हो गेल । ई खास किसान के उत्सव हलइ । लछमी के तेउहार । किसान के लछमी तो गाइये, भैंर, बकरी आदि न हलइ ! ... उ पुरान प्रथा हम तनी-मनी देखलों हँ जब हम दस-बारह बरस के हलौं !; हूर ले पाहुर आ गेल ! ओकर चारो गोड़ मजबूत रस्सी से कसि को बान्हि देलकइ । ओकरा में एक से दू गो नौजवान पैना पेस के उठा लै, आर हूर ... ले हूर ... कह के भैंसिया के सिंघिया भिजुन दै। कोय-कोय भैंस तो पाहुर के किकियाहट सुन के लेह कबड्डी भागइ । कोय भैंस एकाह चौतर मारइ, पाहुर कें कें करइ !) (आपीप॰75.2, 9, 12, 13)
662 पिन्हना (= पेन्हना; पहनना) (हमर पाँव के आहट पाको एक बुढ़िया घर से निकलल, पाँचो हाथ नम्बा तगड़ा गोर बुराक, माथा के बाल उज्जर बर्फ, फह-फह बगुला के पाँखि सन साड़ी पिन्हने, जइसे छहाछत भारत माता, शीश मुकुट हिमवान देश का, या खुद सरसती माता ।; कुश के चटाय पर ओघड़इलों कि देखऽ ही, एगो बड़ी सुन्नर, जवान लड़की अधनंगा पोशाक पिन्हने घर में आयल !; जे उज्जर बगुला के पाँखि नियर कपड़ा पिन्हऽ हइ, खस साबुन लगावऽ हइ, चप्पल से नीचे नञ उतरऽ हइ, मुँह में पौडर लगावऽ हइ, कान में अतर के फाहा खोंसऽ हइ, से कइसे ओकरा जौरे सुततइ ? हरजोतवा जौरे !) (आपीप॰8.3, 15; 90.1)
663 पिन्हाना (= पेन्हाना; पहनाना) (कुछ सोंच के चिकुलिया कहलकइ - अजी एक काम करो ने ! हम पटना में देखलियइ हे, एइसे करइत । ताजा लहास हइ, अभी महकले ह नञ । एकरा पानी से निकाल के धो-धा के अप्पन कपड़ा पिन्हा के, तेल-फुलेल लगा के, अतर छिट के, रंथी पर सुता के, चारो कोना पर धूप-गुंगुल जरावैत रहिहो ! अऽ टिशनमा गेटा पर धर दिहो ! कफन के नाम पर अच्छे आ जइतो ! ई मुरदा घाट से बढ़िया ।; सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । साँझे सब किसान अपन बैल के सींग में तेल लगा लगा उरेह के नैका अपना हाथ से बनावल तरह तरह के फूल वाला फुदना सींग में पिन्हा रहल हे ।) (आपीप॰33.14; 74.15)
664 पिरथमी (= पृथ्वी) (हे बेटा ! जनिऔरी जात लक्ष्मी हथिन, लछमी ! जिनका से ई पिरथमी चल रहलइ हे । ऊ पूजय के चीज हिखिन । ओकर चेहरा नञ देखी, आँख नै मिलाबी । आँखिये से तो उ सब गुण बान ओझरइवे करऽ हइ । अगर औरत के देखो पड़े तऽ ओकर गोड़ देखइ के चाही ।) (आपीप॰77.21)
665 पीड़िया (एक मन करे पोखरिये के पानी पीली, बकि मन नञ भरे । जमकल पानी - सरदी-बोखार तो धैल हइ । नजर उठइलूँ पोखर के पीड़िया पर पच्छिम देखऽ ही माटी के दुमहला मकान, खपड़ा पोस, बहुत सुन्दर ।) (आपीप॰7.10)
666 पीना-पाना (गेलइ सूपन के बोलावइ ले तऽ देखे हे पी पा के बराबर ! उठैलकइ - तब तक निशा के हलका सुरूर आ गेलइ हल ! उठ के गाना गावो लगलइ आर नाचो लगलइ - "लोहा के गाटर में सड़िया जे फँसलौ, लहँगा भेलौ उघार गे ! घड़-घड़ घड़-घड़ गाड़ी अइलौ, भेलौ पुल के पार गे !" एतना कह के मागु के अँचरा खींचो लगला ।) (आपीप॰35.5)
667 पीपर (= पीपल) (तीनों गंगा के किछार में पीपर छाहुर तर बैठ गेला ।) (आपीप॰33.12)
668 पीयब (धन्नू चा महेश सबेरे तैयार होको जाफरी साहब के डेरवे में पकड़लका । जाफरी साहब नुग्गी पिन्हने वरंडा पर बैठि को चाह पीयब करऽ हलखिन । फेर भीतर हाँक देलखिन । हुनकर बेटी दू गो चाय आर लेने हाजिर हो गेलन ।) (आपीप॰118.24)
669 पुच्छी (= पूँछ) (सावन में जनमलें, भादो में देखले बाढ़, तऽ कहलें कत्ते पानी ! इ बाढ़ नञ, बाढ़ के पुच्छी हे । सन बीस वाला बाढ़ में टिल्हा-टाँकर सब डूब गेल हल ।) (आपीप॰1.13)
670 पुत्ता (छउड़ा ~, छउँड़ा ~) (जो तोरा से कुच्छो नञ होतौ । हम जो मरद रहतियौ हल तब देखा देतियौ हल ! हमरा सहियारल नञ जा हउ । देह में उद्वेग लगल हौ । हमरे चीज अऽ हम कहँय नञ । जो रे छउड़ा पुत्ता ! तोरा भोग नञ होइहौ !; बिहान महेश पपुआ माय भिजुन आयल । सारी नो सो से समझा देलकइ । पपुआ माय भीतर से कड़मड़ा गेलइ । कि कहऽ हो महेश ? तीन हजार ... मर दुर्र ... हो ... ई तो दीना दीनी डकैती भेलइ ! बम पिस्तौल से नञ लूटऽ हइ, कलम के मारि मरऽ हइ । गे मइयो रे ! छउँड़ा पुत्ता ... नञ लेब रूपइया ! करजे ने होत, जाय भँगलाहा ।) (आपीप॰38.2; 118.11)
671 पुन्न-परताप (= पुण्य-प्रताप) (कोय-कोय बेटा भगीरथ ! कभी-कभी पुरबज के पुन्न-परताप से पैदा होहे जे वंस के तार दै हे ।) (आपीप॰66.3)
672 पुरखायन (= पुरखैन) (पपुआ माय केहुनाठी से धक्का दैत कहलकन - हटो जी ! आँचो लगावो देवा कि नञ ? चाचा तनी सा हँट गेलखिन । पपुआ माय चूल्हा में गोइठा पैसावैत कहलकइ - हूँ हूँ, निकरामती मरद के गाल कतै ? अपनै मन बिलैया पुरखायन ! हमरा भिजुन जते सुना ला ! हम जानो हियौ नञ । घर बुधि बारह, बाहर बुधि तीन ! गाँव से बाहर विधाता उहो लेलका छीन ।) (आपीप॰112.7)
673 पुरनका (चुपके से एक देसी सिक्स रौण्ड पिसतौल कीनलकइ अऽ बारह गो गोली ! मइयो के जानो नञ देलकइ । एक रात फेर अइलइ - परकल गीदरा ककड़ी खेत ! उहे बेला ! छउँड़ी सबसे पहिले जगलै । भैवा के उठैलकइ ! ई उठि को आराम से, दिमाग असथिर करके तेजी से एक-एक गोली चारो के लगा को नरभस करि देलकइ ! फेर दू गोली कनपट्टी अऽ सीना में उतार के, तीनों उठल, वहाँ से चल देलक ! राते रात । अप्पन पुरनका घर आ गेल ।) (आपीप॰110.18)
674 पुरनकी (काँगरेस टूटि को दू पाटी बन गेल ! मुरार जी वाली आव इन्दिरा वाली ! नैकी-पुरनकी ! ई रह गेलखिन पुरनकी काँगरेस में !) (आपीप॰60.21)
675 पुरान (= पुराण) (आयल फागुन । अनरुध आ गेला । घर में खैलका । हाथ पोंछने मित्र भिजुन गेला । दोनो दोस्त गले-गले मिलला । कुछ ऐनौक-औनौक, कुछ देश-देशान्तर के खिस्सा । कुछ हाल-चाल । फेर मनोज अप्पन दुख के पुरान उलटे लगला । पुरान उलटते आँखि से ढब-ढब लोर गिरो लगल !) (आपीप॰103.13)
676 पूछने-पूछने (= पूछते-पूछते) (हम कहलूँ, रसतवो तो देखल नञ ने हइ ? फेर उ झपटल बाज नियर - कौन बूढ़ा हा ? जुआन तो हा । पूछने-पूछने लोग लन्दन चल जाहे, तों छौड़ा पूत के ओहारी कण्टा तर के गाँव भी नञ जा सकऽ हा ?) (आपीप॰6.22)
677 पूड़ी-तरकारी (कतना आदमी के खिलाना हइ पहिले ई तो ऐडिया मिल जाय । हर टोला के, महल्ला के, जाति के लोग अप्पन जनसंख्या बता देलखिन । फेर तो इसटिमिट बन गेल - दू थान ! लड्डू-जिलेबी, पूड़ी-तरकारी, आलू-परवल के रतोवा ! दही-चीनी रेड़म-रेड़ ! बस एकरा से जादा नञ !) (आपीप॰67.16)
678 पूड़ी-मिठाय (उन्नैस हाथ लम्बा, दू हाथ चौड़ा, मारकिन के कपड़ा, गोबर से नीप जगह पर बिछा देल गेल हे । जेकरा पर लगल हे उन्नैस पात ! हर एक पात पर पीतर के एक थरिया, एक लोटा, एक गिलास, एक साड़ी, एक नम्बर कुर्त्ता ले कपड़ा । चावर-दाल, आलू-केला, सेव-नारंगी, पूड़ी-मिठाय ! मिठाय में लड्डू-जिलेबी-खाजा ! कपटी में रसगुल्ला ।) (आपीप॰68.17)
679 पूनी (= चरखा या तकली पर सूत कातने के लिए बनी धुनी रूई की बत्ती) (टमाटर थकल-हारल गर्मी में पीपर के घनगर छाँह में बैठ के सोचऽ लगला, ओकरा जैसे लखा रहल हल, आगे रास्ता बहुत हइ । इ तो सबसे नीचला लोअर कोट हइ । एकर कौन ? केस में मानो अभी तो चरखा में पूनिये लगल हइ ।) (आपीप॰22.14)
680 पें (बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल । पें कि करइत हल बेचारा ! ... बहुत आदमी ओकरा बान्ह-छान के गिरा देलकइ - दहिना पुट्ठा पर सड़सी से दाग के तिरसूल के चिन्ह बना देल गेल ।) (आपीप॰69.11)
681 पेन्हना (= पहनना) (जब पूर्ण पिण्ड दान हो गेल तब पंडित जी हुकुम देलका - अब सँढ़दग्गी होवो दा । बाछा उदंत लायल गेल । दुहाव के पाँचो टुक पोसाक मिलल । ऊ पेन्ह के पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ धिपल सड़सी उठैलक । बाछा सड़सी देखते माँतर भूत हो गेल ।; छउँड़ी सलवार फराक पिन्हऽ लगलइ । मइया कहलकइ - दुर ने जाय ! छिछियैली ! ई लदर-फदर ... एकरा पिन्ह के रोपइ में बनतौ ? पेन्ह ले घंघरिया आव उपर से अधबहिमा कमीचवा । सेकर उपर ओढ़निया ले ले । छउँड़ी सेहे कइलकइ ।) (आपीप॰69.9; 105.13)
682 पैड़िया (एक ~ रस्ता) (आरी-अहरी (उठ बन्दा, चल परसंडा, से चल देलूँ । जेठ के महीना । चलैत-चलैत दस एगारह बज गेल । टप-टप देह से घाम चूअऽ लगल, पियास से ठोर तिल-तिल सूखे लगल । एक पैड़िया रसता खेते-खेत कहैं आरी-अहरी काँटा-कुस्सा पार कइने-कइने पहुँचलों जहाँ देख के मन प्रसन्न हो गेल । जल भरल तालाब, तालाब पर घनगर पिपर के गाछ ।) (आपीप॰7.1)
683 पैड़ियानि (= पड़िआइन, पाँड़े की स्त्री) (करऽ ~ चौठ !) (टमाटर साव दोनों के खूब समझइलकइ - मुदा ! छौड़ी मुसकुरा के कहलकइ बाबू ! तोरा डर लगो तऽ चल जा, हम अभी नञ जइवो ! छँउड़ो ओतने बात ! टमाटर दुइयो जीव चित्त ! अब कि करवा, करो पैड़ियानि चौठ ... !) (आपीप॰28.4)
684 पैना (हूर ले पाहुर आ गेल ! ओकर चारो गोड़ मजबूत रस्सी से कसि को बान्हि देलकइ । ओकरा में एक से दू गो नौजवान पैना पेस के उठा लै, आर हूर ... ले हूर ... कह के भैंसिया के सिंघिया भिजुन दै। कोय-कोय भैंस तो पाहुर के किकियाहट सुन के लेह कबड्डी भागइ । कोय भैंस एकाह चौतर मारइ, पाहुर कें कें करइ !; अनरूध समझैलकन - मनोज धीरज धर ! कछौटा बान्ह ! तोरा राम-लछुमन दू बेटा । संसार कि कहतौ ? बियाह करभो बुढ़ारी में ! नतीजा ! कहावत में हइ - रात के तेल लगावी गेनरा ले, बुढ़ापा के बियाह दोसरा ले । अऽ बेटवा हो जइतो दुसमन ! मामूली नञ, भारी दुसमन ! अथी में पैना करि को खड़ी करि देतो !) (आपीप॰75.10; 104.1)
685 पोछना-पाछना (तोरा टीवेल भिजुन खेत हइयै हो । ओजौका दू बीघा खेत टेबि को जेकरा जिमा नया माल हइ, ओकरा बटैया दे देहो । कड़ैती नञ, कसरैती नञ, कंजूसी नञ, हिसाब-किताब नञ । दुलार करहीं, पोछैत-पाछैत मुँह खाय, आँखि लजाय ! राजी हो जइतइ । जब तक नया हइ, रहतइ, पुरान होतइ, घर जायत । आर कि ?) (आपीप॰104.17)
686 पोदीना (= पुदीना) (गरमी दिन में खेत जइतन । ओने से लेने अइतन दौरी भरल कदुआ, ककड़ी, लालमी, खीरा, बतिया, रामतोड़इ, तारबूज, खरबूज, पोदीना के पत्ता ! पेट के ठीक करे, गैस नकाले ! गेन्हारी साग !) (आपीप॰91.14)
687 पोस्टमाटम (पुलिस थाना लाके मृतक के फोटो लेलक आर पोस्टमाटम ले सदर असपताल भेज देलक ।; कलेट्टर सी॰बी॰आइ॰ के जाँच ले लिख देलकइ । सी॰बी॰आइ॰ लिखलकइ जवाब में - अभी हमरा पाले बहुत केस धरल हइ ! हमरा लड़की के फोटो अऽ पोस्टमाटम रिपोट मिल जाय के चाही !) (आपीप॰37.3; 39.15)
688 फजिरे-फजिर (= भोरे-भोरे; सुबह-सुबह ही) (धन्नू चा कहलखिन हम चाह नै पियऽ हियै । ऊ बहुत आगरह कैलखिन, मुदा ई अप्पन बात पर अड़ले रहलखिन । बुतरू खड़ी-खड़ी चाह लेने घर चल गेल । जाफरी साहेब पूछलखिन - किधर फजिरे फजिर आये साहब ?) (आपीप॰119.4)
689 फरना (= फलना) (टमाटर फरो लगल, पाको लगल, बाजार में बिको लगल ।) (आपीप॰106.8)
690 फरस-बुकनी (~ छोड़ेवाला) (हम बियाहवइ कुर्सी पर बैठइ वाला के । हमरा आँखि में पाँखि एक्के गो माया बेटी ! सेकरा करवइ हरजोतवा से ? किरानी बाबू कहलखिन - एकरा कुछ के कमी नञ हइ । धन आरे-दुरे । औकात मुताबिक इहे ठीक हइ । कुरसी पर बैठइ वाला सिरिफ फरस बुकनी छोड़इ वाला होतौ । लसर मेरहा ! देखइ में चिक्कन जेकर जूरा करे महँ महँ, पेट करे कुह कुह ! बेटिया जिनगी भर कानते रहतौ । कुरसी पर बैठइ वाला तो हमहूँ ने हिकियै ! तऽ कि हइ । सोचहीं ने ।) (आपीप॰89.19)
691 फरहर (मइया पूछलकइ - कैसन मन हौ गे ? अच्छे हइ मइया । जो सबेरे नहा-सोना ले, मन फरेस हो जइतौ । कै भेलो हे, खिचड़ी बना को खा ले । छरहर बनइहें, खूब सिझा के, मूँग दाल वाला । फरहर बनइभीं तब ने पचतौ ।) (आपीप॰16.9)
692 फराक (= फ्रॉक) (छउँड़ी सलवार फराक पिन्हऽ लगलइ । मइया कहलकइ - दुर ने जाय ! छिछियैली ! ई लदर-फदर ... एकरा पिन्ह के रोपइ में बनतौ ? पेन्ह ले घंघरिया आव उपर से अधबहिमा कमीचवा । सेकर उपर ओढ़निया ले ले । छउँड़ी सेहे कइलकइ ।) (आपीप॰105.11)
693 फराटी (= फराठी; फट्ठी; बाँस को फाड़कर बनाया चिपटा बत्ता या लट्ठा; बाँस का फाड़न) (ई अप्पन बिट्टा से बाँस काटि को खूब बढ़िया मचान गड़ि देलखिन - उपर से निच्चू पलानी भी । मचान के फराटी पर गद्देदार नेबारी के बिछौना । एकाएकी तीन में कोय ओजो रहो लगल । मनोज के छुट्टी मिले तऽ ओजइ गिरल रहथ ।) (आपीप॰106.3)
694 फरेस (= फ़्रेश) (मइया पूछलकइ - कैसन मन हौ गे ? अच्छे हइ मइया । जो सबेरे नहा-सोना ले, मन फरेस हो जइतौ । कै भेलो हे, खिचड़ी बना को खा ले । छरहर बनइहें, खूब सिझा के, मूँग दाल वाला । फरहर बनइभीं तब ने पचतौ ।) (आपीप॰16.8)
695 फर्द (= फरद) (कुछ दिन बाद ऊ टेबि को अइलइ, खूब सोचि विचारि को ! अपन जाति के मोहल्ला में जाको सड़क किनारे । चौराहा पर फर्द में टाट के झोपड़ी देको चाह के दोकान देलकइ ! छउँड़ा बाजार में उट्ठा सो-पचास कमा लै । मैया-धीया यहाँ चाह के दोकान पर रहइ ।) (आपीप॰108.3)
696 फलदान (= छेका; विवाह पक्का करने की एक रस्म जिसमें किसी शुभ लग्न में वधू पक्ष की ओर से नकद, मिठाई और फल आदि दिया जाता है) (बड़ा मेहनत से मिल गेल करमचारी ! ओकर बाप भी हिनका पसीन कैलक । हिनकरो मन डूब गेल । खनदान भी बढ़िया । दू बीघा जमीन भी ! बाप चालू-पुरजा, घर पक्का-पोस्त, खाय-पीये में ठोस ! छोट घास-दाना में बड़ बढ़ियाँ । करीब तक पहुँच गेलखिन ! तीन लाख से एक छेदाम भी कम नञ ! वहाँ तो हों, जी हाँ कह के लौट अइला, फलदान के डेट देको ।; फलदान के दिन नगीच आ गेल । इष्ट-मित्र जुटला । फलदान के सरंजाम के हिसाब जोड़ो लगला !; लड़का के माँग हीरो हुन्डा ! बाप रे बाप ! कहाँ से जुटैबइ ? दिल बैठ गेल । फलदान के दिन टाल देलका !) (आपीप॰87.22; 88.2, 3, 9)
697 फसील (= फसल) (किसान लड़का के खोज होवो लगल ! संजोग से मिल गेल । बीस बीघा हिस्सा, दुआर पर टरेक्टर मैसी - फारगूसन । घर दोबारा पक्का पोस्त ! बाहर भीतर पलिस्तर ! ऐंगना भी पलिस्तर । कहैं माटी के दरेस नञ । ऐंगना में चाँपाकल, पैखाना, घर में टी॰भी॰ रेडियो कि नञ जे सब सामान होवऽ हइ । खेत में नहर-टीवेल । सालो भर सब तरह के फसील !) (आपीप॰89.2)
698 फह-फह (उज्जर ~) (हमर पाँव के आहट पाको एक बुढ़िया घर से निकलल, पाँचो हाथ नम्बा तगड़ा गोर बुराक, माथा के बाल उज्जर बर्फ, फह-फह बगुला के पाँखि सन साड़ी पिन्हने, जइसे छहाछत भारत माता, शीश मुकुट हिमवान देश का, या खुद सरसती माता ।) (आपीप॰8.3)
699 फाँड़ा (अचके जिछना के आँख चमक गेल । ओकरा याद आयल, वहाँ अस्पताल में खून खरीदल जा हइ । डूबइत के तिनका ... इहे उमक पर चल देलक पटना । जिछना सबसे पहले अस्पताल पहुँचल जजा खून खरीदल जा हल । खून बेच के खड़-खड़ौआ पाँच सौ रुपइया नगदी फाँड़ा में खोंस एन्ने-ओन्ने देखले दवाय के दोकान पर जा रहल हल ।) (आपीप॰4.25)
700 फारम (= फ़ॉर्म) (कहवै कि ? कत्ते लगतइ ? हजार-दू हजार । तब निकलवो तो करतइ - बीस हजार । रहे दू हजार कम्मे छौड़ा पूत के । धन्नू चा 'बेस' कहि को सबेरे चलि देलका बलौक ! अगरीकलचर लोन लै ले ! फारम लेलका - पाँच रूपइया ।) (आपीप॰114.4)
701 फिरिस (गाँव के गभरू जुआन सबेरे से भिड़ गेल काम में । सराध के फिरिस तैयार - पूरा विलखो सर्ग ।) (आपीप॰67.21)
702 फिहा-फिहा (ऐसन मत बोल बेटा । - नञ वप्पा ... बड़ी दरद ... वप्पा ! आँख मूँद लेलक, गुम हो गेल । अब जिछना के मुँह में वकारे नञ ! धान दिये लावा होय लावा ... । ऊ फिहा-फिहा हो गेल । अँगना में देखइ वालन के मेला जुट गेल ।) (आपीप॰3.19-20)
703 फुदना (सुखराती के बिहान हूर पड़तइ हल । साँझे सब किसान अपन बैल के सींग में तेल लगा लगा उरेह के नैका अपना हाथ से बनावल तरह तरह के फूल वाला फुदना सींग में पिन्हा रहल हे । गारा में नया रंग-बिरंगा जोठ पगहा । बैल के पूरा देह पर चिलिम के छाप, लाल-पीयर-हरियर तरह तरह के रंग में देखैत बने ।; गाय के तो सिंगार मत कहो, देखैत बनतो हल । सींग में औरत आको, जेकरा दुबिनी कहऽ हइ, घी सिन्नुर लगा दिये । कोय ललका, कोय किसान भखरा सिन्नुर लगवावे । कोय सोनमा सिन्नुर से सींग चमचमावय ले लगावावै । जोठ फुदना चिलिम छाप , चिरमिच्ची छाप । तरह-तरह के छाप मत पूछो । मरद गाय के सींग में सिन्नुर नञ लगावऽ हलइ ! काहे तऽ गाय माता हिखिन !) (आपीप॰74.14, 19)
704 फुसलौनी (ऊ बुढ़िया हिकइ दलाल, फुसलौनी माय, गहकी बझा को लावऽ हइ । उहे आमदनी से ई चलि रहलइ हे । आर कि कुछ रोजी-रोजगार हइ ? कि खेती ?) (आपीप॰10.6)
705 फूस-फास (इ हथिन विधायक जी ! सांसद जी ! इ जनता के वोट नञ माँगऽ हथिन, क्रिमनल से वोट लुटवा लऽ हथिन । ... इ घोटाला करऽ हथिन ! जेल जा हथिन, तइयो कुरसी नञ छोड़ऽ हथिन । ... इनकर अलग वेवस्था होवऽ हइ, जहाँ सारी सुविधा हिनकरा हइ । ... वहाँ सारी से मिलऽ हथिन । घरवाली से मिलऽ हथिन ! ... फेर बाहर आवऽ हथिन । सड़क के मिट्टी खा हथिन, गिट्टी खा हथिन । अलकतरा पियऽ हथिन । केस हो जा हइ फूस-फास । बेदाग कोट से बरी हो जा हथिन ।) (आपीप॰27.8)
706 फेर (= फिन, फिनो, फिर) (दू गुड़िया हाथ में देइत कहलकइ - ले बेटा, एतना से की होतइ ? ... फुलवा सवाद-सवाद के खइलक आव हलस के सुत गेल । बिहान फेर बोखार ।; ऊ रात अदरा के खीर-पूड़ी बनलइ हल, आँठे-आँठ खा लेलकइ हल ! इ अलाय-बलाय चीज पेट में जाते मातर फेंक देलकइ । फेर कुल्ला कलाला करके सुतलइ ! फेर दुबारे कै । दोसर बेरी में मइया जागलइ । पूछलकइ - कि भेलौ गे ? कुछो ने मइया । नञ पचलइ । बिगि देलकइ ।) (आपीप॰3.1; 15.23, 24)
707 फोंफाही (धन्नू चा कुरोधि को कहलखिन - फोंफाही ! तोरा अथी में अथी करों ! तऽ हम कि जानऽ हलियै ! फाँसी होतइ से हमरा ने ! हम जानवइ । तों बइठें चुपचाप ।) (आपीप॰121.14)
708 फोटू (= फोटो) (बिना ओकरा तोड़ने जीत असम्भव ! किलियर फोटू हो कि ज्ञानदा बाबू जीत जयथुन ! से दिन से ओकरा न रात के नींद, न दिन के चैन मिलो लगलइ ।; नाव ओय पार लगल हल । कनियाय कल-कल छल-छल करि को बहैत गंगा के निरमल धार के देख हरखित मन से परनाम कैलकी । फेर बुढ़िया के एक-एक बात - साल भर नदी पार नञ जाय के चाही, कोहड़ा नञ रोपइ के चाही ... आदि-आदि दिमाग में सिनेमा के फोटू सन आवो लगलन ।) (आपीप॰62.18; 99.19)
709 फोरन (ई नोट के गड्डी हाथ में ले को गिनलक तऽ देखे हे पाँच हजार ! गड्डी लौटावैत जेलर से कहलक - एतना में फोरन होतइ ? कम से कम एतना आर । तब हँटवौ !) (आपीप॰46.6)
710 फोहवा (हम अपन औरत से बतिया रहलूँ हल कि - तों हीं जाऽ । जिद्द मार देलक । नेवता के बात हइ, हम चिलकौरी, बिसतौरियो नञ पूरल ह । एतना गो फोहवा के कहाँ ले जावँ ? नेवता मारना अच्छा नञ हो । तभी दूध देवइ वाला आल । कहलक - दुर महराय ! गुलामगढ़ से आजादनगर जाय में कुछ हइ ? तीरे-कोने मुसकिल से तीन कोस ।) (आपीप॰6.9)
711 फौदारी (फौदारी तो एक सीमाना तक चल के झर सके ह ! मुदा दीवानी के दीवानगी तो निराला हइ । चाहो तो पुश्त-दर-पुश्त खींच सकइ हा !) (आपीप॰22.5)
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