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Monday, November 25, 2013

103. मगही कहानी संग्रह "सोरही" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



सोरही॰ = "सोरही" (मगही कहानी संग्रह), सम्पादक - डॉ॰ राम प्रसाद सिंह; प्रकाशक - मगही अकादमी, गया (बिहार); संस्करण 1979 ई॰; xiv+60 पृष्ठ । मूल्य 5 रुपइया ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 579

ई कहानी संग्रह में कुल 16 कहानी हइ ।

क्रम सं॰
विषय-सूची 
लेखक
पृष्ठ
0.
सूची
-------
ii
0.
भूमिका
डॉ॰ रामनरेश मिश्र 'हंस'
iii-viii
0.
लेखक परिचय
उपेन्द्र नाथ वर्मा
viii-xii, 60
0.
सम्पादक के ओर से
डॉ॰ राम प्रसाद सिंह
xiii-xiv




1.
लिटियो जर गेल
प्रो॰ लक्ष्मण प्रसाद चंद
1-5
2.
दुविधा
डॉ॰ स्वर्ण किरण
6-9
3.
इलाज
रामविलास 'रजकण'
10-12
4.
नौरंग
राजेश्वर पाठक 'राजेश'
13-16




5.
सेजियादान
राम नरेश प्रसाद वर्मा
17-18
6.
तहिया सोहराय हल
किसलय
19-24
7.
ललाइन मामा
महेश प्रबुद्ध
25-31
8.
भावना के चोर
रास विहारी पांडेय
32-33




9.
तीरथ के डोरी
जनकनंदन सिन्हा 'जनक'
34-35
10.
कवि आउ कल्पना
रामदेव मेहता 'मुकुल'
36-38
11.
इन्कलाब जिन्दाबाद
तारकेश्वर भारती
39-42
12.
घूरा के आग
डॉ॰ रामनरेश मिश्र 'हंस'
43-46




13.
सलीमा
डॉ॰ राम प्रसाद सिंह
47-50
14.
ससुरार
सूर्यनारायण शर्मा
51-53
15.
सुबह के भूलल
डॉ॰ सुरेश 'विमल'
54-56
16.
भात
प्रेम मणि
57-60


ठेठ मगही शब्द ("" से "" तक):
 1    अँचरा ("तों गँवारे रह गेलऽ । तोरा की फिकिर हे । सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।" उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ ।")    (सोरही॰2.2)
2    अउ (= आउ; और) (दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक । कारा तुरते सब हाल बता देलक । कारा के ओजय बइठा के सोहरा भीतर दने गेल अउ माय के सब बात समद देलक ।)    (सोरही॰4.4)
3    अखने (= अखनी; इस क्षण या समय) (कटनी में मोहरी के सतवाँ महीना हल । पहिलौंठ आउ कारा के परेम के चलते मोहरी कटनी भी ओइसन नञ करलक आउ अब ई हड़ताल आ गेल । अखने तो मोहरी के चुल्हवो उपास पड़े लगल ।; "मगर अखने तो रुपया नय हो जीतन माय । आउ जे तों कहली घी के दाम, से तो नय मिलतो । काहे कि जखने तोर जीतन के बाबू बैंक से भैंस लेवे ले दरखास देलखुन हल, ऊ बखत सी॰ओ॰ साहेब के दसखत कइला पर हीं रुपया मिललो हल । तखने चार किलो घी पर तय होलो हल ।" - "अच्छा, ओकरा छोड़हो मलकिनी । मगर एक सो अस्सी रुपया, जे दूध वला होवो हे, ऊ तो देबहो ने ।")    (सोरही॰2.26; 22.2)
4    अगोरना (ऊ बोलल - "अभी तक तो कुछो न करइत हली बाकि जल्दीये ढेर कुछ कर लेम । फिनो तो तोरो मिले ला अगोरे पड़तो ।" - "बोल, का करे जा रहलें हें ?")    (सोरही॰33.14)
5    अघाना (आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल । जर-जरावन हल नञ, ई से खाली आँटा के लिटिए सेंकके नून मिचाई जौरे बोर-बोरके खाके पेट के छुधा बुझाके अघाय के फिकिर में हल ।)    (सोरही॰44.11)
6    अजगुत (मन में एगो अजगुत डर समायल हल । उनकर हालत ऊ हदसल चिरईं नियन भेल हल, जे शिकारी के जाल में फँसल मौत के राह देखइत हो । ऊ रात ललाइन मामा के आँख में नीन नञ आयल मानो तकदीर जोरे नीनो हुनका से रुस गेल होय । रात भर ऊ उखीबिखी रहलन ।; 'हम तो हाथ-गोड़ बहुते परली लेकिन ऊ कुछो न सुनलन । लाचार होके सातो गो लिट्टी खाय पड़ल।'/  'तोहरो सपना तो बड़ा अजगुते हवऽ ।'/ 'अरे ! सपना कहाँ ? नीन आवत हल तब न । देखऽ न, बर्तन खाली हवऽ किन न ।' बाबू साहेब के ई बात सुनके लाला जी के हक्का-बक्का गूम ।)    (सोरही॰30.14-15; 45.11)
7    अटपट (खंजन चिरई के पोंछी नियन हरमेसे नाचइत रहे ओली फुलवा के आँख कउनो के खोज रहल हल । नौरंग ओकरे दने देखके अपन बन्हुक पर ताकऽ हल आउ पागल नियन अटपट बोल रहल हल । प्रिंसिपल के देखते मातर बोलल - "बतावऽ तो प्रिंसिपल, तोहर कउन लइका हमर फुलवा के साथे चुहलबाजी कइलक हे ?")    (सोरही॰13.13)
8    अतना (दे॰ एतना) (एम॰पी॰ एमेले॰ के अलेक्सन में ठाढ़ भेल नौरंग आउ बुलेट के बल पर कतना बूथ कैपचर कइले हल बाकि अबर अतना कुकरम कइला पर भी मुखियो न बन पवलका काहे कि ऊ मुखिया जइसन खेलवाड़ अलेक्सन ला थैली कउची खरच करो ।; सुने में आवऽ हल कि अबरी बिना अलेक्सन के नौरंग मंत्री बने जा रहल हे । बाकि कउन जानऽ हल कि अतना प्रभाव ओला नौरंग के अइसन अंत होयत ?)    (सोरही॰14.25; 16.10)
9    अधसानल ('पुट पुट ...' करके सब झूरियो जर गेलय । अधसानल आँटा के मोहरी आगू से हटा देलक । टीन के थरिवा अलग हो गेल । मोहरी बैठल-बैठल थारी आउ आग के देख ले हल ।)    (सोरही॰1.1)
10    अनका (ई सब सुनके मानसी के सिट्टी-पिट्टी गुम हो रहल हल, माथा चकरा रहल हल । तुरंते अनका सलाह देवे जाय ला हल तइयो ऊ सुनइत गेलन आउ सलीमा कहइत गेल ।)    (सोरही॰49.4)
11    अनछपल (मगही-कहानी-संग्रह 16 कहानी के संग्रह हे । नया-पुराना सभे मगही कहानीकार के अनछपल रचना के ई संग्रह मगही साहित्य के बड़हन उपलब्धि हे तो समानान्तर विकसित भाषा के कहानी साहित्य के दिड़निर्देश आउ समान्तर समकालीन हिन्दी कहानी लेल चुनौती भी ।)    (सोरही॰iii.2)
12    अनबोलता (सोमरी गाय के नजदीक पहुँच के सनेह से ओकर देह सहलावे लगल । ... जउन साल भगजोगनी के बाबू आँख मुनलन, ऊ साल एहु बेचारी का कम टटाएल ? कउन ठीक एही कारण बँझा गेल कि का ? एही साल से तो देह पर रोवाँ चढ़े लगल हल । आउ फिन मुदइया बढ़नी उग गेल । हमनी ला न, त इ अनबोलता जीव ला त तरस खा रामजी ।)    (सोरही॰59.24)
13    अनमुनाही (सोमरी गाय के नजदीक पहुँच के सनेह से ओकर देह सहलावे लगल । ... अनमुनाही रोशनी में जब एक बेर ऊ कातर होके ताकलक त सोमरी भीतर से कट गेल । एहु अभागन जीव हमनी के खूँटा पर कउन-कउन दुख न झेललक । जउन साल भगजोगनी के बाबू आँख मुनलन, ऊ साल एहु बेचारी का कम टटाएल ? कउन ठीक एही कारण बँझा गेल कि का ?)    (सोरही॰59.19)
14    अनमुनाहे ("राम सरन बाबू न हथ का ?" ललाइन मामा पुछलन । - "जी ऊ त अनमुनाहे घर से जे निकललन हे से अबले कहाँ अयलन हे ।" राम सरन बाबू के मेहरी दाल छौंकइत कहलन ।)    (सोरही॰28.14)
15    अनस (दे॰ अन्नस) (~ बरना) ("नय, कोय तकलीफ नय हे । तों अभी कहाँ गेली हल ?" आँख खोलके जीतन माय के तरफ देखते बोलला । - "इहे मुनिया कानना शुरू कइलक हल, तो तोरा अनस बरे गुन बाहर में फुसला रहलिये हल ।)    (सोरही॰23.23)
16    अनुभो (= अनुभव) (दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक । कारा तुरते सब हाल बता देलक । कारा के ओजय बइठा के सोहरा भीतर दने गेल अउ माय के सब बात समद देलक । सोहरा माय बूढ़ी हल ढेर दिना के अनुभो हल । पइसा असूले में माहिर हल ।)    (सोरही॰4.5)
17    अनेसा (= अन्देशा, भान) (बुढ़िया पइसा वसूले में जेतना तेज हल अपन काम में ओतनयँ माहिर । ओकरा अनेसा हो गेल । मोहरी कखनउँ कहँड़ऽ हल, कखनउँ कानऽ हल आउ कखनउँ बेहोस हो जा हल ।)    (सोरही॰5.9)
18    अन्हार (दसहरा के दिन लालचन के मकान के नेंव पड़ल । खूब उदसो होयल । दवा खनाय लगल । छकौड़ी भी लगल हलन । लालचन आके कहलन - "देख रे छकौड़िया, जरा ठीक से खनिहें ।" छकौड़ी के आँख तर अन्हेरा हो गेल । गिर परल सोचइत-सोचइत । न जानी काहे मुँह से लार टपकल आउ बुदबुदायल - "से ... जि  या  दा  न ! म.. र.. ला प.. र से.. ज जि..ता में ... कु... च्छो ... न ।" फिन कोई ओकर बोली न सुनलक ।)    (सोरही॰18.26)
19    अन्हारा (खैर, आझो जब ऊ आफिस से लउटल तो सगरो हल्का अन्हारा फैल रहल हल । हलाँकि सड़क पर काफी रोशनी हल बाकि ओकर मोहल्ला में गन्दगी आउ मच्छर में होड़ तो रहवे करऽ हे, आझकल रोशनी भी धोखा दे देलक हे ।)    (सोरही॰55.13)
20    अन्हेरा (ललाइन मामा के दूनो आँख लोरा गेल । लोर में आँख के सामने के सब्भे तस्वीर डूब गेल । चहुतरफा अन्हेरा छा गेल आउ ऊ अन्हेरिया में ललाइन मामा के लौकल जइसे धरती फट गेल हे आउ ऊ धीरे-धीरे ओकरा में समा रहलन हे सीता मइया नियन ।)    (सोरही॰26.22)
21    अन्हेरिया (= अन्हेरा + 'आ' प्रत्यय) (ललाइन मामा के दूनो आँख लोरा गेल । लोर में आँख के सामने के सब्भे तस्वीर डूब गेल । चहुतरफा अन्हेरा छा गेल आउ ऊ अन्हेरिया में ललाइन मामा के लौकल जइसे धरती फट गेल हे आउ ऊ धीरे-धीरे ओकरा में समा रहलन हे सीता मइया नियन ।)    (सोरही॰26.22)
22    अपछरा (= अप्सरा) (कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे । बड़ सुन्नर हइ, देखते बनऽ हइ । हमरा तो टकटक्की लग गेलो । अइसन चमकऽ हइ कि लगऽ हइ किरिंग फूटऽ हइ । हम कहलियन पान के कि जिरी पहिनके देखाहो तो । पहिन लेलथिन तो उड़ चललथिन । अपछरा अइसन लगे लगलथिन ।)    (सोरही॰39.11)
23    अपजस (= अपयश) (उनका विसवास हे, धन बटोरे के अनेक रस्ता हे, लेकिन समाज में रहके मान-मरजादा आउ जस बटोरे के एकेगो रस्ता हे - ईमान-धरम । जउन दिन आदमी अपन दिल से ई गुन निकाल फेंकऽ हे, ऊ दिन ओकर मान-मरजादा मर जाहे, जस अपजस बन जाहे ।)    (सोरही॰25.23)
24    अपनौती (= अपनापन) (" ... सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।" उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ । माय-बाप के रहला पर कारा दलान में सूतत हल । अब रात भर जगल रहत । चमइन के चिरौरी करत ।" कारा के अवाज में अपनौती हल ।)    (सोरही॰2.5)
25    अपसगुन (= अपशकुन) ("काहे तो हमरा सबके देखे के मन करइत हे बाबू । गया से बलदेव के बोला देतऽ हल ।" टुटइत अवाज में ललाइन मामा कहलन । ... छोटकी पुतोह के बुझायल मानो तनी देर खातिर खुलल ई आँख सदा के लेल बन्द होवे जा रहल हे । ई अपसगुन देखके उनकर आँख रो पड़ल ।)    (सोरही॰31.8)
26    अपसोस (= अफसोस) (अपसोस ! मोना, हमनी कम बच्चा पैदा करती हल ! हमर दोस्त राजेश केतना भगसाली हे जेकरा सिरिफ दू गो बच्चा हे । एगो बेटा, एगो बेटी !)    (सोरही॰56.24)
27    अबर (मंगरु - सच कहऽ हियो, जवानी कसम । मुदा जुगाड़ भेला पर ।/ बुधिया - अच्छा, अबर बिसवास कर ले हियो, बाकि एगो बढ़िया साड़ी-साया रहते हल तब न ? ऐसे कनबलिया सोभतइ ?)    (सोरही॰41.2)
28    अबरी (सुने में आवऽ हल कि अबरी बिना अलेक्सन के नौरंग मंत्री बने जा रहल हे । बाकि कउन जानऽ हल कि अतना प्रभाव ओला नौरंग के अइसन अंत होयत ?; ई सोचके रमिया अपन बेटे से पुछलक - "भगवान तीरथ के डोरी हरमेसे नऽ लगावथ, अबरी दीदी के साथे जाइत हिअउ । हमरा अब कोई हिच्छा न हउ, खाली भगवान के दरसन हो जाय आउ ऊ हमरा उठा लेथ ।"; हाँ, हाँ, एही सब सुने ला हइये हल हमरा । अबरी अइसने जतरा से अइवे कइली हल ।)    (सोरही॰16.9; 35.3; 54.4)
29    अमदी (= अदमी; आदमी) ('धत् ससुरा ! चुप भी रह ।', कलुवा खिसियाके खखुआयल, 'ईहाँ ई घूरा के आग बुता गेल आउ तोरा गउनइए सूझइत हउ ।' - 'सउँसे गाँव तो धुधुआके जर उठलइ बाबूजी । अब ई घूरा के पूछ हइ ? सभे अमदी घूरे-गनउरे हो गेलइ अब तो !' धलुवा के ई बात सनसनाइत उड़ल आउ घोर सन्नाटा में सन्न से गूम हो गेल ।)    (सोरही॰46.19)
30    अरग ( फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।")    (सोरही॰25.7)
31    अरजल (= अर्जित) (छकौड़ी हलन तो अमीर बाकि जमीनदारी जाय के बाद उनकर हालत पातर हो गेल हल । बहिन के बिआह में बाप के अरजल आठ बिगहा टाँड़ साफ हो गेल हल । सालो न लगल हल कि माय चल बसलन । लोग जुटके सलाह देलन - लाश के सत-गत गंगा में होयत ।)    (सोरही॰17.2)
32    अरदसिया ("हमर माय मरल जाहे, चलके देख ल वैद जी" - अप्पन दुनू हाथ जोड़के राधे सिसके लगल । ... वैद जी छो-पाँच में पड़ गेलन । राधे बड़ी देर से अरदसिया लगइले हल । ओकर उखी-बिखी देखके ऊ कहलन - "तू आगु चल । हम साइकिल से आ रहली हे ।" वैद जी के अइते-अइते रोगी लार-पोआर हो गेल ।)    (सोरही॰10.3)
33    अलबल (बुधिया - बस, भेलइ । इनका भिर जरी बोलना भी भारिये हो जाहे । कहीं कनबाली बना देता तब तो काटके हमरा खाइये जइता । हम कहलूँ से फेर लेलूँ । बाज अइलूँ कनबाली से । जिरी सा बोललूँ तो अलबल बके लगला । बाप रे, अइसन मरदाना ना देखलूँ हल ।/ मंगरु - बस कासा में ठुनका लग गेलो । अजी हँसी न कर रहलियो हे । रुपिया-पइसा के जुगाड़ करऽ हियो । भाग में होतो तो बनिये जइतो ।)    (सोरही॰40.21)
34    अलेक्सन (= एलेक्शन, election; चुनाव) (एम॰पी॰ एमेले॰ के अलेक्सन में ठाढ़ भेल नौरंग आउ बुलेट के बल पर कतना बूथ कैपचर कइले हल बाकि अबर अतना कुकरम कइला पर भी मुखियो न बन पवलका काहे कि ऊ मुखिया जइसन खेलवाड़ अलेक्सन ला थैली कउची खरच करो ।; सुने में आवऽ हल कि अबरी बिना अलेक्सन के नौरंग मंत्री बने जा रहल हे । बाकि कउन जानऽ हल कि अतना प्रभाव ओला नौरंग के अइसन अंत होयत ?)    (सोरही॰14.24, 26; 16.9)
35    अलेल्हा (= अज्ञानी, जो अपनी देखभाल स्वयं न कर सके, नबोज)(ई गीत के सुर इधर लहसल कि उधर अलेल्हा आग भी लहक के धधक उठल । टील्हा भिजुन के सभे लोग आग तापे लागि जुट गेलन ।)    (सोरही॰43.4)
36    अवाज (= आवाज) (" ... सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।" उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ । माय-बाप के रहला पर कारा दलान में सूतत हल । अब रात भर जगल रहत । चमइन के चिरौरी करत ।" कारा के अवाज में अपनौती हल ।)    (सोरही॰2.5)
37    असालतन (कई एक बरिस से दफ्तर में काम करेवाला लोगन के नौकरी के असालतन भेल । एह से न तो ई लोगन के लाइब्रेरी के किताब घरे ले जाय के सुविधा मिलल न कउनो बात ला एडवांस के सुविधा मिल सकल । नवल किशोर ढेर कोरसिस कइलन आउ अप्पन संगी-साथियन के नौकरी के असालतन करे ला दरखास के चालू करवइलन । बाकि मिनिस्टर साहब के कान पर जूँ न रेंगल ।; कुछ दिन बाद नवल किशोर के खबर मिलल कि मिनिस्टर साहब नयका रंगरुटन के नौकरी असालतन कर देलन आउ नवल किशोर आउ इनकर संगी-साथियन के केस के बिगाड़ के रख देलन ।)    (सोरही॰8.19, 23; 9.10)
38    असूलना (= वसूलना) (दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक । कारा तुरते सब हाल बता देलक । कारा के ओजय बइठा के सोहरा भीतर दने गेल अउ माय के सब बात समद देलक । सोहरा माय बूढ़ी हल ढेर दिना के अनुभो हल । पइसा असूले में माहिर हल ।)    (सोरही॰4.5)
39    आझ (सेठ के बेवहार से मंगरु के दिल में भारी ठेस लगल । बुदबुदाय लगल, हम ई सेठवा के केतना सेवा कइलूँ हे । बेराम पड़ गेल हल तो रात अधरतिया आउ दिन दुपहरिया डागडर के हियाँ दौड़ा-दौड़ी कइलूँ हल । गदिया पर कमनिस्टवन चढ़ाय कर देलकइ हल तो ओकरा बचावे ला हम जान पर खेल गेलूँ हल । से सेठवा आझ हमरा कह देलक कि हम केकरो मरे-जिये के ठेका लेलिअउ हे ।; लेकिन चहल-पहल में भी कलुवा धलुवा दूनो सवाँग के अप्पन लिटिए सिझावे के फिकिर रहल । तीन दिन से ऊ दूनो भूखल हल । मजूरी तो कइलक हल पर ऊहाँ खाली नस्ते भर मिलल हल । आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल ।)    (सोरही॰42.12; 44.7)
40    आझो (= आज भी) (रमिया ई कहिये रहल हल कि बढ़की दीदी भी दू बुलुका फेंकलन आउ उनकर बेमारी के धरमसाला बनल देह में रहइत परान तुरते निकल गेल । अइसन लगऽ हल ई दूनो भक्तिन परानी के भगवान अपन सावन के झूला पर बइठाके एके साथे अपना हीं लेले गेलन । जिनगी भर राँड़ बनके घर-बाहर के आँख से जे बचइत रहलन आझो अकेले ही ऊ सबके छोड़के चुप्पे से चल देलन ।)    (सोरही॰35.20)
41    आय (= आज) ("अच्छा, तो की काम हलइ, जे अइलहो ?" - "कुछ रुपया के जरूरत हइ मलकिनी । जीतन बाबू आय पचीस दिन से बीमार हथ । बोखार छोड़े के नाम नय लेहे । आय वैदजी कहलखिन 'हमरा से ठीक नय होतो, कहईं बाहर ले जा ।' मुदा, हमरा पास ओतना पैसा तो नय हे ।")    (सोरही॰21.14, 15)
42    आरत (= आर्त्त, पीड़ित) ("मगर मालकिन, खियाल करहो । हम उजर जयबय ।" बड़ी आरत होके कहलकी जीतन माय । - "धत ! तोंहूँ एक्के बात के जिद कैले हा । एक मरतबे कहो हियो, तो समझवे नय करो हो । आज तो कोय हालत से रुपया नय मिलतो । वैसने होतो तो कल्ह नय, परसूँ ले जयहा ।" - "जीतन के बाबू मर जयता मालकिन ।")    (सोरही॰22.20)
43    आर-पगार (= आरी-पगारी) (कारा अकेले डीह दने चल देलक । माघ के महीना हल । धनखेती में खेसाड़ी लहर मारऽ हल, तेकरा पर सीत के बून्द सज गेल हल । जल्दी के चलते कारा खेते-खेते चले लगल । रस्ते में जागीर के खेत मिलल । ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल ।)    (सोरही॰4.1)
44    आलस (= आलस्य) (पुरवा के लफार तेज हे । आलस से देह कसमसा रहल हे । मन करऽ हे, एक नीन्द आउ हो जाय । लेकिन ई मुदइया बढ़नी साहिल के काँटा के माफिक मन में बइठ गेल हे, जे रह-रह के डँस रहल हे । न जानी ई साल केकरा बहार के ले जायत ।)    (सोरही॰57.20)
45    इंजोर (भितरे से बड़की के करकस अवाज अभियो आवइत हल । जउन घर से चूड़ी खनके के अवाज अंगना से बाहर नञ जा हल, आझ ऊ घर के पुतोह के करकस अवाज से सात घर के अगना इंजोर होवऽ हे ।)    (सोरही॰27.5)
46    इनसाल (दे॰ इमसाल) (अपन बिआह के बाजा-गाजा, मड़वा के चहल-पहल आउ सोहाग के कोहबर सभे सिनेमा के तरह उनकर दिमाग के परदा पर आवे जाय लगल । लहकल आग के बुतावे ला पानी देवे जइसन ऊ अपन बात के आगे बढ़ौलन - "इनसाल सावन में हम अजोधेया जी जा हियो कनेवाँ, चले ला होतो तो कहिहऽ ।"; रमिया के मन करऽ हल कि ऊ अजोधेया के झूला पर भगवान के दरसन करइत । इनसाल ओकर फूआ दीदी उहाँ जा हलथिन । ई से ओहू अपन घर के मालिक के पुछलक बाकि ओकरा औडर न मिलल । हिन्दू के घर में राँड़ मेहरारु के कउन हालत होहे, का ई केकरो से छिपल हे ?)    (सोरही॰34.14, 22)
47    इन्हका (= इनका; इन्हें) (नवल किशोर ईमानदार किरानी हलन - न ऊधो के लेना न माधव के देना - हरहर-पटपट से दूर । टेम से दफ्तर जाना, टेम से डेरा आना, कउनो तरह के लटपट में शरीक न होना । दफ्तर के अफसर लोग इन्हका बेवकूफ समझऽ हलन आउ कहऽ हलन ई ढेर जिद्दी हथ ।; नवल किशोर एम॰ए॰ के इम्तहान देवे ला सोचलन आउ फारम भरलन बाकि इनकर बड़का भाई के लड़का बेमार पड़ल आउ मर गेल । से इन्हका कठिनाई भेल । बेमारी के टैम में दवा-दारू करे पड़ल आउ ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल ।)    (सोरही॰7.10; 8.3)
48    इन्हको (= म॰ इनको; हि॰ इन्हें भी; इनका भी) (देश में इमरजेन्सी घोषित कर देल गेल काहे कि विरोधी लोग नोच-चोंथ करे लगलन आउ कब की हो जायत केहू न कहइत हल । दफ्तर के कुछ लोग विरोध कइलन उनका जगह पर मिनिस्टर साहब नया रुटन के भरती कर लेलन आउ पुरान लोगन के धमकी देलन कि सब लोगन के नौकरी खतम हो जायत । नवल किशोर विरोधी लोगन में न हलन बाकि इन्हको नौकरी पर आँच आयल ।)    (सोरही॰9.2)
49    इमसाल (ई नावा गाम इमे साल बसल हल । जन-मजूर के जमीन मिले लगल तो मालिक ई सब के ऊसर जमीन पर घर बनावे लेल मजबूर कर देलक ।)    (सोरही॰2.19)
50    इसकोलिया (= इस्कुलिया) (ई दूनो एन्सिफेलाइटिस के चक्कर में पड़ गेलथुन । ई बिमरिया में चित्त के बिगड़ जाय से आउ बाई के उभड़ जाय से पहिले मथवे खराब होवऽ हे । इसकोलिया लइकन थोड़ा चंचल हो हथ, ई से ऊ लोग पर कम, पर कौलेजिया लइकन असथिर हो हथ, ई से उनका पर जादे जल्दी एकर असर होवऽ हे ।)    (सोरही॰46.9)
51    इस्कूल-विस्कूल (आझ मुनवाँ के माथ फूट गेलइ हे । बड़ी मानी खून गिरलइ हे । जयवा के भी पैर में चोट लग गेलइ हे । बगल ओलन ढनकलहन लइकवन सब मारकइ हे । केतना बेर कहली हे के कउनो इस्कूल-विस्कूल में बैठा दहूँ, पर तूँ तो अपने में मस्त हऽ । तोरा बाल-बच्चा के का जरूरत ?)    (सोरही॰56.10)
52    इहईं (= यहीं) (रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक । अइसहीं तीन-चार दफे फेंकलक आउ ओकर नस तीर लेलक । कइसहूँ कुहुँर के बोलल - "अच्छा हो दीदी, इहईं मर जइयो तो ठीक हो । रड़खेपा के जिनगी से मरके भगवान हीं चल जाईं तो एकरा से बढ़के आउ का चाही ?")    (सोरही॰35.14)
53    ईंटपारा (चंडाल पेट के चलते राधे बोकारो चल गेल । नहिरा जो बेटी ससुरा जो, हाथ-गोड़ चलाव बेटी सगरो खो । बोकारो में दूर-दराज के ढेर लोग ईंटा के चिमनी भट्ठा में काम कर रहलन हल । राधे भी ईंटपारा बन गेल । लाठा-कुड़ी चलावे से कोई मतलब न, रूखा-सूखा दस रुपए हजार ।)    (सोरही॰11.27)
54    ईंटा (= अईंटा; ईंट) (लालचन के दीठ छकौड़ी के मकान पर लगल हल । केतना दिन से ईंटा के घर बनावे ला सोचइत हलन । छकौड़ी के घर के बिना उनकर बेंवत ठीक न हो हल ।)    (सोरही॰18.15)
55    उँगरना (भोर होवे लगल हे । मुरगन के बाँग सुनाई देवे लगल हे । जानवर भी कहीं-कहीं उँगरे लगल हे । कउअन के कुहार शुरू हो गेल हे । कुक्कुर पछाए लगल हे ।)    (सोरही॰60.6)
56    उका (ऊ दबले जबान बोललथिन - का कहियो बाबू ! उका ऊ घरवा में सहीपुर के मेहमान घरे रंग खेले आयल हथिन । हमरो बेटिया तो ओही घरवा में हलइ, उहाँ से भाग अइलइ ।/ आउ कहलई - राम ! राम ! ई कउन तरीका हइ कि कोई मेहमान आवे तो गाँव के बेटिन साथे जइसे-तइसे रंग खेले । उहाँ सब धमधूर, धमार आउ बेपरद हँसी-मजाक करइत हथिन ।)    (सोरही॰51.16)
57    उखविखाना (मन ~) (आखिर कइसहूँ दुनहुँ पहुँचल । कारा बहरे खड़ा हो गेल । झोपड़ी में मोहरी कहँड़ रहल हल । चमइन के गेला पर कहँड़नय कम होल, मुदा तुरते कसके अवाज आल । कारा के मन उखविखा गेल । फेन चमइन आउ मोहरी के बात कारा गौर से सुने लगल ।)    (सोरही॰4.23)
58    उखी-बिखी ("हमर माय मरल जाहे, चलके देख ल वैद जी" - अप्पन दुनू हाथ जोड़के राधे सिसके लगल । ... वैद जी छो-पाँच में पड़ गेलन । राधे बड़ी देर से अरदसिया लगइले हल । ओकर उखी-बिखी देखके ऊ कहलन - "तू आगु चल । हम साइकिल से आ रहली हे ।" वैद जी के अइते-अइते रोगी लार-पोआर हो गेल ।)    (सोरही॰10.13-14)
59    उखीबिखी (मन में एगो अजगुत डर समायल हल । उनकर हालत ऊ हदसल चिरईं नियन भेल हल, जे शिकारी के जाल में फँसल मौत के राह देखइत हो । ऊ रात ललाइन मामा के आँख में नीन नञ आयल मानो तकदीर जोरे नीनो हुनका से रुस गेल होय । रात भर ऊ उखीबिखी रहलन ।)    (सोरही॰30.18)
60    उगल (~ रहना) (ललाइन मामा इसारा से पिये लागी पानी माँगलन । छोटकी पुतोह हालीसुन पानी लाके चमच से पिआवे लगलन - एक ... दू ... तीन चमच बस । पानी जइसे नरेटी में जाके अटक गेल हो, कुछ कंठ के पार भेल आउ कुछ बाहर बह गेल ।/ "उगले रहिहऽ ।" छोटकी पुतोह दने देखके ललाइन मामा एतना कहवे कइलन हल कि उनकर आँख मुँद गेल हमेशा खातिर ।)    (सोरही॰31.13)
61    उछाव (नवल किशोर साथी के पानी पिया देलन । साथी के नौकरी खतम हो गेल आउ ई नवल किशोर के जानी दुश्मन बन गेल बाकि नवल किशोर के फिकिर न भेल । ई दोगिना उछाव से खतरा के मुकाबला कइलन आउ अप्पन संगी-साथी के किस्मत बनावे ला, अप्पन घर के सँवारे ला, अप्पन नाता-हित के उठावे ला बराबर छटपटइलन ।)    (सोरही॰8.16)
62    उजरना (= उजड़ना) ("मगर मालकिन, खियाल करहो । हम उजर जयबय ।" बड़ी आरत होके कहलकी जीतन माय । - "धत ! तोंहूँ एक्के बात के जिद कैले हा । एक मरतबे कहो हियो, तो समझवे नय करो हो । आज तो कोय हालत से रुपया नय मिलतो । वैसने होतो तो कल्ह नय, परसूँ ले जयहा ।" - "जीतन के बाबू मर जयता मालकिन ।")    (सोरही॰22.20)
63    उज्जर (दुनिया के रूप रंग-बिरंग के हे । ऊ में नौरंग के आगु केकर आँख न चउन्हिया जाय ? अप्पन इलाका के सबसे जादे धन-दौलत ओला जमीनदार, सबसे बढ़का नेता, खाजामार टोपी आउ फह-फह उज्जर धोती ।)    (सोरही॰14.22)
64    उतरी (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । दसकरम के दिन कंटाह के कंठ में दूध अँटकल तो बिना पचीस रुपया के पारे न होयल । सीधा-बारी कुल मिलाके काफी हो गेल ।)    (सोरही॰17.21)
65    उतसो (= उदसो; उत्सव) (बुढ़िया दीदी रमिया के फुफसस हल । ऊ अपन भाई हीं आयल हल । ओकर भाई अंगरेजी राज के बड़का गो गिरहत आउ छोटमुट गो जमीनदार हल । पत साल सावन के महीना में ओकरा हीं खूब जोड़-सोड़ से झूला उतसो मनावल जा हल ।; जिनगी भर राँड़ बनके घर-बाहर के आँख से जे बचइत रहलन आझो अकेले ही ऊ सबके छोड़के चुप्पे से चल देलन । अजोधेया के साधु अपन चेला के सरयू में एहनी के परवह करे ला कहके भगवान के झूला उतसो के तइयारी में लग गेलन बाकि चेला तो भगवान के मूरत ला भी बनावइत हल ।)    (सोरही॰34.20; 35.22)
66    उदसो (= उतसो; उत्सव) (दसहरा के दिन लालचन के मकान के नेंव पड़ल । खूब उदसो होयल । दवा खनाय लगल । छकौड़ी भी लगल हलन । लालचन आके कहलन - "देख रे छकौड़िया, जरा ठीक से खनिहें ।" छकौड़ी के आँख तर अन्हेरा हो गेल । गिर परल सोचइत-सोचइत । न जानी काहे मुँह से लार टपकल आउ बुदबुदायल - "से ... जि  या  दा  न ! म.. र.. ला प.. र से.. ज जि..ता में ... कु... च्छो ... न ।" फिन कोई ओकर बोली न सुनलक ।)    (सोरही॰18.24)
67    उपास (कटनी में मोहरी के सतवाँ महीना हल । पहिलौंठ आउ कारा के परेम के चलते मोहरी कटनी भी ओइसन नञ करलक आउ अब ई हड़ताल आ गेल । अखने तो मोहरी के चुल्हवो उपास पड़े लगल ।; बढ़की दीदी आउ रमिया ऊ दिन अजोधेया में एकारसी के उपास कइले हलन । पारन के दिन हल । रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक ।)    (सोरही॰3.1; 35.10)
68    उमगल (= उत्तेजित, खुश, उमंगित) (सुग्गा के ठोर अइसन ओकर नाक हे । खंजन के पोछी के तरह चंचल आउ आम के फाँक के तरह बड़े-बड़े काजर से सजल नसा से भरल आउ प्रेम से उमगल ओकर आँख हे ।)    (सोरही॰36.7)
69    उलम्दाना (?) (ई 16 कहानी अपन कुछेक कमजोरी के बावजूद 'सोरही' बन सकल हे । हर कहानी अपने में उलम्दा के मानो कहऽ हे - 'मेरी हिम्मत देखिए, मेरी तबियत देखिए । जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं ।')    (सोरही॰viii.5)
70    उल्हा (हम का कहिअइ ओकरा ? भला, बेटिया के हम मना करतिअइ हल तब न ! तोर मइया सुर पकड़ लेलन हे कि सरिता हम्मर दमाद के उल्हा करके नाम हँसा देलन ।)    (सोरही॰52.7)
71    उसकुन (~ निकालना) (ललाइन मामा के लड़ाई-झगड़ा के जिनगी तनिको पसन्द न हे । उनकर समझ से जउन घर में ई सब नटलीला होवऽ हे, ऊ घर के लोग रेयान से भी गेल-गुजरल होवऽ हथ । इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ ।)    (सोरही॰25.18)
72    ऊहूँ ("आज खइलें हें ?" - "न ... ञ ।" - "भोरे ?" - "ऊहूँ ।" - "लगऽ हउ कत्तेक दिन से नञ खइलें हें ।" - "हाँ।" - "कहिया से ?" - "परसूँ सँझिया के खइलिए हल ।")    (सोरही॰5.1)
73    एक-ब-एक (= अचानक, अकस्मात्) ("नञ ... अइसन नञ हो सकऽ हे" ललाइन मामा एक-ब-एक चिहुँक उठलन मानो बइठल-बइठल बउआ रहल हथ, "ई सब छुछे बहाना हे, ढोंग हे, ऊ पागल न हे, भलुक हमरा पागल बना रहल हे ... अब हम सह न सकऽ ही ।")    (सोरही॰27.25)
74    एकागो (कारा मोहरी के दुखल अवाज से सहम गेल । पोआर बिछाके चद्दर उठइलक । मोहरी गोड़ पसारते टोकलक, "पहिले लिट्टी तो सेंक ल ।" - "दुत् ... ।" - "भोरे से भुखले ह । एकागो खाके जइहऽ ।")    (सोरही॰3.10)
75    एकारसी (बढ़की दीदी आउ रमिया ऊ दिन अजोधेया में एकारसी के उपास कइले हलन । पारन के दिन हल । रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक ।)    (सोरही॰35.10)
76    एजय (= एज्जे; इसी जगह) (ई नावा गाम इमे साल बसल हल । जन-मजूर के जमीन मिले लगल तो मालिक ई सब के ऊसर जमीन पर घर बनावे लेल मजबूर कर देलक । आपसी परेम में कैंची चलाके लोगन एक दोसर से अलग हो गेलन । ई मजूरन नदी के छाड़न पर आ गेलन । एजय से ई सब काम पर जा हलन ।)    (सोरही॰2.22)
77    एनहीं (जल्दी-जल्दी नेहाके ऊ सीढ़ी पर चढ़ रहलन हल कि देखलन सलीमा अमीना के साथे गते-गते एनहीं आ रहल हे । ई सूनसान रात में ओकरा देखके मानसी भौचक्का में पड़ गेलन ।)    (सोरही॰47.15)
78    एने-ओने (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । ... माथा मुड़यला के बाद छकौड़ी के भार कम हो गेल । अब ओहू एने-ओने जाय लगलन । खनी तरकारी लावथ तो खनी दही ला जाथ ।)    (सोरही॰17.24)
79    एन्ने-ओन्ने (मोहरी माथा उठाके कारा दने देखलक । फिन आग आउ थरिवा दने नजर झुक गेल । कारा बिन बोलले आग तर चल गेल । एन्ने-ओन्ने छितराल आग के समेटे लगल । आग फेन धुधुआय लगल ।)    (सोरही॰1.13)
80    एहिजा (= यहाँ, इस जगह) (उनका से एगो अदमी कहलक - "एहिजा से कुछ दूर पर एगो मंदिल बनइत हे। ओकरा में अब मूरति बइठावे ला हे । अपने बड़ अदमी लौकइत ही । अपने पर भगवान के किरपा हे आउ धरम में विसवास हे । ऊ मंदिल ला अपने कुछ दान दिहीं ।")    (सोरही॰33.2)
81    ओक-बोक (रमिया बड़की दीदी के साथे अजोधेया चल गेल । कहल जाहे राँड़ के देखके भगवानो हेरा जा हथ । हरिचंद पर विपत पड़ल तो भुँजल मछली कूदके पानी में चल गेल । अजोधेया हैजा से ओक-बोक हो रहल हल । अइसे तो सरकारी सूई घोंपा रहल हल । बाकि अंगरेजी सरकार के का गम हले कि लोग बचथ या मरथ । ऊ जमाना में बेमारिये जनसंख्या रोके के अच्छा उपाय हल ।)    (सोरही॰35.7)
82    ओजय (दे॰ ओज्जे, ओज्जइ) (दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक । कारा तुरते सब हाल बता देलक । कारा के ओजय बइठा के सोहरा भीतर दने गेल अउ माय के सब बात समद देलक ।; "नौकरवा के कीदो समद रहलहो हल मलकिनी, एकरे गुन ओजय बैठ गेलिये हल ।" - "अच्छा, तो की काम हलइ, जे अइलहो ?")    (सोरही॰4.4; 21.11)
83    ओजा (रुपया देते सी॰ओ॰ साहेब के जनाना बाहर झाँकलकी तो देखो हथ कि बहरसी दुआरी के बगल में एगो मेहरारु बैठल हथ । तब ओन्ने ताक के पूछो हथ - "के हा ओजा बैठल ? जरी मुँह देखावी ।" - "हम्मे हियय, जीतन माय, मलकिनी ।"; "की हलो जीतन माय ? ओजा काहे बैठ गेला हल ?")    (सोरही॰21.8, 10)
84    ओतनयँ (= ओतने, ओतनहीं) (बुढ़िया पइसा वसूले में जेतना तेज हल अपन काम में ओतनयँ माहिर । ओकरा अनेसा हो गेल । मोहरी कखनउँ कहँड़ऽ हल, कखनउँ कानऽ हल आउ कखनउँ बेहोस हो जा हल ।)    (सोरही॰5.8)
85    ओती (~ घड़ी) (ओती घड़ी राम सरन बाबू घर पर नञ हलन । उनकर मेहरी चुल्हा-चउका में बझल हलन । ललाइन मामा के देखइत ही ऊ बइठे खातिर मचिया बिछा देलन ।)    (सोरही॰28.7)
86    औडर (हम अइसन नेवता ला तइयार न हली बाकि हमरा मन में लेखक बने के ललसा बड़ी दिन से जमल हल । कोरसिस कइला पर भी कोई रचना छपल न हल । हम तुरते नस्ता के साथे चाह ला औडर देली आउ पतरिका के नाम, ओकर लगाव, बिकरी, आदि के बढ़िया उत्तर पाके उनका बिहने भेला अपना घर आवे ला नेवता दे देली ।; रमिया के मन करऽ हल कि ऊ अजोधेया के झूला पर भगवान के दरसन करइत । इनसाल ओकर फूआ दीदी उहाँ जा हलथिन । ई से ओहू अपन घर के मालिक के पुछलक बाकि ओकरा औडर न मिलल । हिन्दू के घर में राँड़ मेहरारु के कउन हालत होहे, का ई केकरो से छिपल हे ?)    (सोरही॰32.8; 34.23)
87    कँहड़ना (कारा के अवाज में अपनौती हल । मोहरी औरत अइसन लजाके बोलल - "जा जा, तोहरा के कहऽ हको ।" मोहरी हौले से कँहड़े लगल । कारा उठके थरिया तर चल गेल । बगले में मोहरी हल ।)    (सोरही॰2.7)
88    कंटाह (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । दसकरम के दिन कंटाह के कंठ में दूध अँटकल तो बिना पचीस रुपया के पारे न होयल । सीधा-बारी कुल मिलाके काफी हो गेल ।)    (सोरही॰17.22)
89    कइसउँ (= कइसूँ, कइसहूँ; किसी तरह) (कारा अकेले डीह दने चल देलक । माघ के महीना हल । धनखेती में खेसाड़ी लहर मारऽ हल, तेकरा पर सीत के बून्द सज गेल हल । जल्दी के चलते कारा खेते-खेते चले लगल । रस्ते में जागीर के खेत मिलल । ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल ।)    (सोरही॰4.1)
90    कइसहूँ (आखिर कइसहूँ दुनहुँ पहुँचल । कारा बहरे खड़ा हो गेल । झोपड़ी में मोहरी कहँड़ रहल हल । चमइन के गेला पर कहँड़नय कम होल, मुदा तुरते कसके अवाज आल । कारा के मन उखविखा गेल । फेन चमइन आउ मोहरी के बात कारा गौर से सुने लगल ।; मन में एक बार फिन भात पहाड़ जुकत खड़ा भे गेल । ई साल तो कइसहूँ निबाहिए देवे के चाही । एक मन करऽ हे, ई कुलच्छनी गइए के बेचके भोज-भात करा दी ।)    (सोरही॰4.21; 59.11)
91    कउची (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।")    (सोरही॰25.7)
92    कउन (गाँव भर के जनम-मरन के हिसाब-किताब उनकर दिमाग में लिखल हे । दरगहिया भुलेटना से केतना दिन के बड़ हे, मुनेसर कोइरी के बेटा के जनम कउन महीना में कउन दिन भेल हल, दुधेसर पाँड़े के दादा कउन दिन, कउन घड़ी कउन रोग से मरलन हल आदि सब्भे बात ऊ साफ-साफ बतावऽ हथ, तनिको एने-ओने न ।)    (सोरही॰26.12, 13)
93    ककहरा ("हमर माय मरल जाहे, चलके देख ल वैद जी" - अप्पन दुनू हाथ जोड़के राधे सिसके लगल । ... बिहने से दुपहरिया तक बेसुमार कै-दस्त हो चुकल हल । एही बीच राधे के एगो पड़ोसी जे डाकडरी के ककहरा सीख रहल हल, दूगो कैपसुल भी देलक । मगर ओकर कोई असर न होल ।)    (सोरही॰10.16)
94    कखनउँ (= कखनो, कखनुँ) (बुढ़िया पइसा वसूले में जेतना तेज हल अपन काम में ओतनयँ माहिर । ओकरा अनेसा हो गेल । मोहरी कखनउँ कहँड़ऽ हल, कखनउँ कानऽ हल आउ कखनउँ बेहोस हो जा हल ।)    (सोरही॰5.9, 10)
95    कखनउँ-कखनउँ (= कखनो-कखनो; कभी-कभी) (आग फेन धुधुआय लगल । मोहरी चुपचाप देखते रहल । हाँ ! कखनउँ-कखनउँ करवट बदल दे हल । जब कारा से नञ रहल गेल, कहलक - "हम लिट्टियन सेंक लेम, कम से कम अटवा तो सान दे । जब भगवाने हमरा भनसिआ बनइलक हे तब तों की करमें ?")    (सोरही॰1.15)
96    कखनी (ऊ थकके चूर हल तइयो अपन अवाज के कोसिस भर नरम बनाके बोलल - का बात हे ? लाइन कट गेल हे का ? कखनी से ? ढेर देरी से ? आउ लइकन आझ बड़ा सबेरहीं सुत गेलन सब ! देखऽ न, आझ आफिसे में तनी देर हो गेल । का करी, ई मार्च के महीना - अइसन जनमरु हे कि ... ।)    (सोरही॰55.26)
97    कट्टिस (अगर अकाल पड़ल, त भात के का होयत । ई साल तो कोई न मानत । तिसरके साल से टारइत अइली हे । ई साल टारे के मतलब हे जात से कट्टिस ।)    (सोरही॰58.3)
98    कठदलेली (= कठदलाली) ("अन्दाज से जने-तने सूई भोंकके आधा दवा आधा पानी मिलाके जनता के बूड़बक बनाके तू ढेर रुपइया ठगलऽ हे । अब अइसन ठगबनिजी न चलतो । ... आदमी नीम हकीम खतरे जान से बचत ।" राधे के बात सुनके वैदजी के तो ठकमुरकी मार देलक । ऊ ओकरा से कठदलेली करे के हियाव न कइलन ।)    (सोरही॰12.25-26)
99    कठमुरकी (~ मार देना) (हम देखली कि मिसराजी अपन पाकिट से कुछ निकाल के देल चाहइत हथ तो हम ओने मुड़ी घुमाके देखली - अरे ई तो सम्पादक जी हथ । कहली कि सम्पादक जी, अपने के तीन दिन में छपेओला पतरिका कहाँ हे ? सम्पादक जी के ई सुनके कठमुरकी मार देलक आउ कहलन कि ऊ तो कबे छप गेल हल ।)    (सोरही॰33.8)
100    कड़र (= कड़ा, कठोर) ("अरे हाँ, तोरा तो कालू के माय कड़र चीज से परहेज बतइलकउ हल ।" कारा आँटा सननञ छोड़के कहलक, "तोरा एजा रहनइ ठीक नञ हउ रात के एतना ठंढ हे । गाम पर के बात दोसर हल । एक बीघा खेत मिलल । अभी कब्जा भी नञ होल कि दोसर गाम बसावे पड़ल आउ गउँढ़ा के दस कट्ठा जागीर भी हाथ से निकल गेल ।")    (सोरही॰2.11)
101    कत्तेक ("आज खइलें हें ?" - "न ... ञ ।" - "भोरे ?" - "ऊहूँ ।" - "लगऽ हउ कत्तेक दिन से नञ खइलें हें ।" - "हाँ।" - "कहिया से ?" - "परसूँ सँझिया के खइलिए हल ।")    (सोरही॰5.2)
102    कननइ (एकाएक मोहरी बड़ी जोर से कहँड़ल, मुदा ... मुदा बुतरू के कननइ के आवाज नञ आल । कलुआ माय दीया से देखके काने लगल - "हे रे दइवा ... ।" सोहरा माय भी गुमसुम रहल ।)    (सोरही॰5.11)
103    कनवाँ (= छटाँक, एक सेर का सोलहवाँ हिस्सा) (लेकिन चहल-पहल में भी कलुवा धलुवा दूनो सवाँग के अप्पन लिटिए सिझावे के फिकिर रहल । तीन दिन से ऊ दूनो भूखल हल । मजूरी तो कइलक हल पर ऊहाँ खाली नस्ते भर मिलल हल । आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल ।)    (सोरही॰44.8)
104    कनेआ (दे॰ कनियाय) (फिन ललाइन मामा दने मूड़ी घुमा के पुछलन, "आझो बड़की पुतोह कुछ बोललन हे का ?" - "हाँ कनेआ, ओही रोज-रोज के राँड़ी बेटमारी आउ का होतवऽ ।" कहइत-कहइत ललाइन मामा के गेआरी भर आयल ।)    (सोरही॰28.17)
105    कर (= करवट) (जीतन माय अपन मरद भीर आके कहो हथ । "एत्ते जोर से काहे बोलो हा । आज एकइस दिना हो गेलो हे, जे खटिया पर गिरला हे से घुर के मुरियो नय उठयला हे, आउ एत्ते टनक से बोलला कि टोला-परोस के लोग सुन गेला होत ।" - "तों अभी गेली हल कहाँ जीतन माय ?" अपन कर फेरते बोलो हथ जीतन के बाप जुगल ।)    (सोरही॰19.6)
106    करकर (रोज-रोज के किचकिच आउ ~) (भितरे से बड़की के करकस अवाज अभियो आवइत हल । जउन घर से चूड़ी खनके के अवाज अंगना से बाहर नञ जा हल, आझ ऊ घर के पुतोह के करकस अवाज से सात घर के अगना इंजोर होवऽ हे । एही सब रोज-रोज के किचकिच आउ करकर से तंग आके मँझला आउ छोटका अपन चुल्हा-चउका अलग कर लेलन, तइयो ई घर में सुख आउ शांति नञ आयल ।)    (सोरही॰27.6)
107    करकस (= कर्कश) (~ अवाज) (भितरे से बड़की के करकस अवाज अभियो आवइत हल । जउन घर से चूड़ी खनके के अवाज अंगना से बाहर नञ जा हल, आझ ऊ घर के पुतोह के करकस अवाज से सात घर के अगना इंजोर होवऽ हे ।)    (सोरही॰27.3, 5)
108    कलकलाना ("हमर माय मरल जाहे, चलके देख ल वैद जी" - अप्पन दुनू हाथ जोड़के राधे सिसके लगल । "ई घड़ी हमरा चूतड़ कलकलावे के भी फुरसत न हउ । एगो हर्रे, सउँसे गाँव खोंखी । तू अप्पन माय के दवाखाना में ले आउ" - वैद जी राधे के कहलन ।)    (सोरही॰10.7)
109    कल्ह (= कल) ("मगर मालकिन, खियाल करहो । हम उजर जयबय ।" बड़ी आरत होके कहलकी जीतन माय । - "धत ! तोंहूँ एक्के बात के जिद कैले हा । एक मरतबे कहो हियो, तो समझवे नय करो हो । आज तो कोय हालत से रुपया नय मिलतो । वैसने होतो तो कल्ह नय, परसूँ ले जयहा ।" - "जीतन के बाबू मर जयता मालकिन ।")    (सोरही॰22.24)
110    कसट (= कष्ट) (सोहरा माय बूढ़ी हल । ढेर दिना के अनुभो हल । पइसा असूले में माहिर हल । दुआर पर आके बोलल - "बड़ ठंढ हइ ! तों सब तो वहाँ चल गेले हें । देख, मंगरुआ के हियाँ रुपइया बाकी रह गेल । ढोढ़ा के हियाँ तो सब कुछ रह गेल । एक मन तो करऽ हइ कि ओंहाँ कमइवे नञ करूँ ।" - "त सब की एक्के अइसन होवऽ हइ ? बड़ी कसट में हइ मामा ।" भला कारा के की मालूम कि गरजू होला से लोगन नजायज फइदा उठावऽ हथ ।)    (सोरही॰4.9)
111    कहँड़नय (आखिर कइसहूँ दुनहुँ पहुँचल । कारा बहरे खड़ा हो गेल । झोपड़ी में मोहरी कहँड़ रहल हल । चमइन के गेला पर कहँड़नय कम होल, मुदा तुरते कसके अवाज आल । कारा के मन उखविखा गेल । फेन चमइन आउ मोहरी के बात कारा गौर से सुने लगल ।)    (सोरही॰4.22)
112    कहँड़ना (आखिर कइसहूँ दुनहुँ पहुँचल । कारा बहरे खड़ा हो गेल । झोपड़ी में मोहरी कहँड़ रहल हल । चमइन के गेला पर कहँड़नय कम होल, मुदा तुरते कसके अवाज आल । कारा के मन उखविखा गेल । फेन चमइन आउ मोहरी के बात कारा गौर से सुने लगल ।; बुढ़िया पइसा वसूले में जेतना तेज हल अपन काम में ओतनयँ माहिर । ओकरा अनेसा हो गेल । मोहरी कखनउँ कहँड़ऽ हल, कखनउँ कानऽ हल आउ कखनउँ बेहोस हो जा हल ।; एकाएक मोहरी बड़ी जोर से कहँड़ल, मुदा ... मुदा बुतरू के कननइ के आवाज नञ आल । कलुआ माय दीया से देखके काने लगल - "हे रे दइवा ... ।" सोहरा माय भी गुमसुम रहल ।)    (सोरही॰4.22; 5.9, 11)
113    कहईं (= कहीं) ("अच्छा, तो की काम हलइ, जे अइलहो ?" - "कुछ रुपया के जरूरत हइ मलकिनी । जीतन बाबू आय पचीस दिन से बीमार हथ । बोखार छोड़े के नाम नय लेहे । आय वैदजी कहलखिन 'हमरा से ठीक नय होतो, कहईं बाहर ले जा ।' मुदा, हमरा पास ओतना पैसा तो नय हे ।"; "कइसन तबियत हो जीतन बाबू ?" - "बर बढ़िया ।" धीरे से जुगल बोलल । - "कोय तकलीफ भी होय ?" जवाब सुने ले धियान लगावो हथ आउ दिल धुकधुक करो लगल काहे कि कहईं जो कुछ तकलीफ बतइलका तब की करम ।)    (सोरही॰21.16; 23.20)
114    कहाकूप (~ अन्हार) (तहिया सोहराय हल । समूचे गाम दीया के लौ में जगमगा रहल हल । मगर एक घर अइसन भी हल, जेहमें अन्हार कहाकूप के राज हल ।)    (सोरही॰24.9)
115    कहिनो (सलीमा गते बोलल - "मामू जी ? अपने तो बदसाह के गादी के शान ही । अपने के तलवार आग उगिलऽ हे बाकि अपने कहिनो दिल के अवाज पर धेयान देली हे ? करेजा के भीतरे के अवाज कहिनो सुनली हे ?" मानसी दोविधा में पड़ गेलन ।)    (सोरही॰48.4, 5)
116    कहिया ("आज खइलें हें ?" - "न ... ञ ।" - "भोरे ?" - "ऊहूँ ।" - "लगऽ हउ कत्तेक दिन से नञ खइलें हें ।" - "हाँ।" - "कहिया से ?" - "परसूँ सँझिया के खइलिए हल ।"; हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।")    (सोरही॰5.4; 25.3)
117    कहियो (घंटी बजइते ओकर लइकन दउड़ल आवऽ हलन, आझ कोई न आयल । ओकर मन में तनी शक भेल । जरूर कोई बात हे न तो एकरा में नागा कहियो न पड़ऽ हल ।)    (सोरही॰55.22)
118    कानना (= कनना, रोना) (बुढ़िया पइसा वसूले में जेतना तेज हल अपन काम में ओतनयँ माहिर । ओकरा अनेसा हो गेल । मोहरी कखनउँ कहँड़ऽ हल, कखनउँ कानऽ हल आउ कखनउँ बेहोस हो जा हल ।)    (सोरही॰5.9)
119    कानी (मंगरु - बस कासा में ठुनका लग गेलो । अजी हँसी न कर रहलियो हे । रुपिया-पइसा के जुगाड़ करऽ हियो । भाग में होतो तो बनिये जइतो ।/ बुधिया - कानी गे मन पतियानी, सैयाँ गेला हे आँख लावे । अबके तो काटे दौड़ला हल, अब पुचकारे लगला । तोहर बिसवास कौन निगोड़ी करतो जी ?)    (सोरही॰40.24)
120    कान्हा (एही बीच ऊ हमर कान्हा डोलाके बोलल - देख, डाइरेक्टर साहेब आवइत हथुन ।)    (सोरही॰33.24)
121    काम-गिरथामा ("अच्छा, तो अब हम चुप रहो हियो । तों जा, अपन काम-गिरथामा देखो गोन ।" कहके जुगल अपन मुँह दोसर तरफ कर लेलका ।)    (सोरही॰20.15)
122    कासा (= काँसा) (बुधिया - बस, भेलइ । इनका भिर जरी बोलना भी भारिये हो जाहे । कहीं कनबाली बना देता तब तो काटके हमरा खाइये जइता । हम कहलूँ से फेर लेलूँ । बाज अइलूँ कनबाली से । जिरी सा बोललूँ तो अलबल बके लगला । बाप रे, अइसन मरदाना ना देखलूँ हल ।/ मंगरु - बस कासा में ठुनका लग गेलो । अजी हँसी न कर रहलियो हे । रुपिया-पइसा के जुगाड़ करऽ हियो । भाग में होतो तो बनिये जइतो ।)    (सोरही॰40.22)
123    काहे से कि (ढेर लोग के मुँह से अलगे-अलगे ढेर बात । बात जे भी होय बाकि दुर्घटना से लोग खुश हलन जरूर । काहे से कि देखके लौटइत लोग के मुँह पर खुशी के झलक जरूर लौकइत हल ।)    (सोरही॰16.24)
124    किचकिच (रोज-रोज के ~ आउ करकर) (भितरे से बड़की के करकस अवाज अभियो आवइत हल । जउन घर से चूड़ी खनके के अवाज अंगना से बाहर नञ जा हल, आझ ऊ घर के पुतोह के करकस अवाज से सात घर के अगना इंजोर होवऽ हे । एही सब रोज-रोज के किचकिच आउ करकर से तंग आके मँझला आउ छोटका अपन चुल्हा-चउका अलग कर लेलन, तइयो ई घर में सुख आउ शांति नञ आयल ।)    (सोरही॰27.6)
125    किरिंग (कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे । बड़ सुन्नर हइ, देखते बनऽ हइ । हमरा तो टकटक्की लग गेलो । अइसन चमकऽ हइ कि लगऽ हइ किरिंग फूटऽ हइ । हम कहलियन पान के कि जिरी पहिनके देखाहो तो । पहिन लेलथिन तो उड़ चललथिन । अपछरा अइसन लगे लगलथिन ।)    (सोरही॰39.6)
126    किरिया (मोहरी गोड़ पसारते टोकलक, "पहिले लिट्टी तो सेंक ल ।" - "दुत् ... ।" - "भोरे से भुखले ह । एकागो खाके जइहऽ ।" - "तों भी तो ... फिन ।" - "तोरा हम्मर किरिया, खा ल तब जइहऽ ।" कारा मोहरी के बात टार नञ सकल ।)    (सोरही॰3.12)
127    कीदो ("नौकरवा के कीदो समद रहलहो हल मलकिनी, एकरे गुन ओजय बैठ गेलिये हल ।" - "अच्छा, तो की काम हलइ, जे अइलहो ?")    (सोरही॰21.11)
128    कुकुहारो (= कुकहारो; कोलाहल) (छव-छव गो बच्चा के फौज लेके चलल का एतना आसान हे ? आउ इस्कूलो में पढ़ाई एतना सँहसता हे का ? मोना, उहाँ हम दफ्तर में मरऽ ही आ इहाँ अफसोस में तूँ मरऽ हऽ । उहों दिन भर परेशान आ घरो पर कुकुहारो ।)    (सोरही॰56.20)
129    कुहार (= कौहार, चिल्लाहट, शोर-गुल) (भोर होवे लगल हे । मुरगन के बाँग सुनाई देवे लगल हे । जानवर भी कहीं-कहीं उँगरे लगल हे । कउअन के कुहार शुरू हो गेल हे । कुक्कुर पछाए लगल हे ।)    (सोरही॰60.6)
130    कुहुँरना (रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक । अइसहीं तीन-चार दफे फेंकलक आउ ओकर नस तीर लेलक । कइसहूँ कुहुँर के बोलल - "अच्छा हो दीदी, इहईं मर जइयो तो ठीक हो । रड़खेपा के जिनगी से मरके भगवान हीं चल जाईं तो एकरा से बढ़के आउ का चाही ?")    (सोरही॰35.13)
131    केबाड़ (= किवाड़) (ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल । दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक ।)    (सोरही॰4.3)
132    कै (= कितना; उलटी, वमन) (पान से पुछलऽ हल कि कनबलिया कै भर के हइ आउ केतना खरच बइठले हल ।)    (सोरही॰40.7)
133    कोइरी (गाँव भर के जनम-मरन के हिसाब-किताब उनकर दिमाग में लिखल हे । दरगहिया भुलेटना से केतना दिन के बड़ हे, मुनेसर कोइरी के बेटा के जनम कउन महीना में कउन दिन भेल हल, दुधेसर पाँड़े के दादा कउन दिन, कउन घड़ी कउन रोग से मरलन हल आदि सब्भे बात ऊ साफ-साफ बतावऽ हथ, तनिको एने-ओने न ।)    (सोरही॰26.12)
134    कोर (= कौर, ग्रास) (रात में छोटकी पुतोह के बहुत कहे-सुने पर जब ललाइन मामा खाय लागि बइठलन त अन्न-जल न ढुकल । बड़ी मोसकिल से दु कोर खाके उठ गेलन ।)    (सोरही॰30.13)
135    कोरसिस (ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल । दोसरका साल फेर कोरसिस कइलन आउ बहुत दिक्कत आउ परेशानी से ई एम॰ए॰ कइलन ।; हम अइसन नेवता ला तइयार न हली बाकि हमरा मन में लेखक बने के ललसा बड़ी दिन से जमल हल । कोरसिस कइला पर भी कोई रचना छपल न हल । हम तुरते नस्ता के साथे चाह ला औडर देली आउ पतरिका के नाम, ओकर लगाव, बिकरी, आदि के बढ़िया उत्तर पाके उनका बिहने भेला अपना घर आवे ला नेवता दे देली ।)    (सोरही॰8.5; 32.7)
136    कोहबर (अपन बिआह के बाजा-गाजा, मड़वा के चहल-पहल आउ सोहाग के कोहबर सभे सिनेमा के तरह उनकर दिमाग के परदा पर आवे जाय लगल ।)    (सोरही॰34.12)
137    क्वाटर (जीतन माय सी॰ओ॰ साहेब के क्वाटर से निकलके चल देलकी । चल तो देलकी, मगर गोड़ बढ़यते नय बढ़ो हल ।)    (सोरही॰23.6)
138    खंघारना (फुलवा के अन्दर के बिगड़ल भूख जाग उठल हल न का ? ई से रोज ऊ केबिन पर आवऽ हल । ऊ दिन भी आयल हल आउ निचलका चहबच्चा पर बइठ के लुआ खंघारइत हल । हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन ।)    (सोरही॰14.7)
139    खखुआना (धलुवा ठकुआके गुनगुना हे - 'मइया के लोरवा से गंगा बढ़िअइलइ, बाबूजी के लोरे संसार । भइया के लोरे रामा जमुना बढ़िअइलइ, सभे दहौले चलल जाय ॥' - 'धत् ससुरा ! चुप भी रह ।', कलुवा खिसियाके खखुआयल, 'ईहाँ ई घूरा के आग बुता गेल आउ तोरा गउनइए सूझइत हउ ।')    (सोरही॰46.17)
140    खटखटिया (~ साइकिल) (सात बजे से पहिले तो ऊ कहियो घरे न पहुँच पावे । कए दफे तो ऊ हे कि बॉस के साफ-साफ कह देवे कि आउ सब लोग नीयर ओकरो एगो घर हे, ओकरो पत्नी हे, बच्चन हथ । आउ फिन एतना दूर से सफर । टूटल खटखटिया साइकिल के सहारा ।)    (सोरही॰55.8)
141    खनाना (दसहरा के दिन लालचन के मकान के नेंव पड़ल । खूब उदसो होयल । दवा खनाय लगल । छकौड़ी भी लगल हलन । लालचन आके कहलन - "देख रे छकौड़िया, जरा ठीक से खनिहें ।" छकौड़ी के आँख तर अन्हेरा हो गेल । गिर परल सोचइत-सोचइत । न जानी काहे मुँह से लार टपकल आउ बुदबुदायल - "से ... जि  या  दा  न ! म.. र.. ला प.. र से.. ज जि..ता में ... कु... च्छो ... न ।" फिन कोई ओकर बोली न सुनलक ।)    (सोरही॰18.25)
142    खनी (= कभी; समय, वक्त) (काम के सब भार लालचन पर हल । छकौड़ी तो उतरी लेले बइठल हलन । ... माथा मुड़यला के बाद छकौड़ी के भार कम हो गेल । अब ओहू एने-ओने जाय लगलन । खनी तरकारी लावथ तो खनी दही ला जाथ ।; आज से बीस-पचीस बरीस पहिले ललाइन मामा ई सुग्गी के पोसलन हल । रोज भोरे खनी उठके ऊ एकरा पढ़ावऽ हलन, जइसे कोय माय अपन बेटा के पढ़ावऽ हे।; साँझ खनी घूरा गनउरा के खेर-पतई बीनके कलुआ आग धरा देलक आउ गावे लगल - 'भँवरा के भेजलूँ रसवाला बगिया, रसवा ले अइले हइ थोर । एतने हीं रसवा में केकरा-केकरा बाँटिअइ, सगरी नगरी हित मोर ॥')    (सोरही॰17.24, 25; 30.2; 43.1)
143    खाजामार (~ टोपी) (दुनिया के रूप रंग-बिरंग के हे । ऊ में नौरंग के आगु केकर आँख न चउन्हिया जाय ? अप्पन इलाका के सबसे जादे धन-दौलत ओला जमीनदार, सबसे बढ़का नेता, खाजामार टोपी आउ फह-फह उज्जर धोती ।)    (सोरही॰14.22)
144    खियाल ("मगर मालकिन, खियाल करहो । हम उजर जयबय ।" बड़ी आरत होके कहलकी जीतन माय । - "धत ! तोंहूँ एक्के बात के जिद कैले हा । एक मरतबे कहो हियो, तो समझवे नय करो हो । आज तो कोय हालत से रुपया नय मिलतो । वैसने होतो तो कल्ह नय, परसूँ ले जयहा ।" - "जीतन के बाबू मर जयता मालकिन ।")    (सोरही॰22.20)
145    खिसियाना ('सुतवे कइली हल कि काली माई अपन जीभ लपलपावइत हाथ में लमहर तेगा लेले पहुँचला आउ खिसियाके कहला - खा हें ई सभे लिट्टी कि तोहर मूड़ी काट देईं ?'; धलुवा ठकुआके गुनगुना हे - 'मइया के लोरवा से गंगा बढ़िअइलइ, बाबूजी के लोरे संसार । भइया के लोरे रामा जमुना बढ़िअइलइ, सभे दहौले चलल जाय ॥' - 'धत् ससुरा ! चुप भी रह ।', कलुवा खिसियाके खखुआयल, 'ईहाँ ई घूरा के आग बुता गेल आउ तोरा गउनइए सूझइत हउ ।')    (सोरही॰45.8, 17)
146    खुरचन (फेन डाक्टर बने के कोरसिस कइलन तो दफ्तर के बड़ा बाबू एगो खुरचन निकाल देलन आउ दफ्तर के अफसर इनकर दरखास के दबवा देलन जे से नवल किशोर के मनोबल दब जाय आउ ऊ थउँस के बइठ जाय । बाकि नवल किशोर गजब जीवट के अदमी ।)    (सोरही॰8.7)
147    खेते-खेते (= खेतों से होकर) (कारा अकेले डीह दने चल देलक । माघ के महीना हल । धनखेती में खेसाड़ी लहर मारऽ हल, तेकरा पर सीत के बून्द सज गेल हल । जल्दी के चलते कारा खेते-खेते चले लगल । रस्ते में जागीर के खेत मिलल । ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल ।)    (सोरही॰3.27)
148    खेर-पतई (साँझ खनी घूरा गनउरा के खेर-पतई बीनके कलुआ आग धरा देलक आउ गावे लगल - 'भँवरा के भेजलूँ रसवाला बगिया, रसवा ले अइले हइ थोर । एतने हीं रसवा में केकरा-केकरा बाँटिअइ, सगरी नगरी हित मोर ॥')    (सोरही॰43.1)
149    खेलवाड़ (= खिलवाड़) (एम॰पी॰ एमेले॰ के अलेक्सन में ठाढ़ भेल नौरंग आउ बुलेट के बल पर कतना बूथ कैपचर कइले हल बाकि अबर अतना कुकरम कइला पर भी मुखियो न बन पवलका काहे कि ऊ मुखिया जइसन खेलवाड़ अलेक्सन ला थैली कउची खरच करो ।)    (सोरही॰14.26)
150    खेसाड़ी (कारा अकेले डीह दने चल देलक । माघ के महीना हल । धनखेती में खेसाड़ी लहर मारऽ हल, तेकरा पर सीत के बून्द सज गेल हल । जल्दी के चलते कारा खेते-खेते चले लगल । रस्ते में जागीर के खेत मिलल । ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल ।)    (सोरही॰3.26, 27)
151    खोइया (कहानी सच आउ असली जीवन-जगत के मनगढ़ंत कथा हे । ... असलियत के वजह से पढ़वइया आउ सुनवइया के जाने-सुने के मन करऽ हे आउ मनगढ़ंत होवे के वजह से मनोरंजनो हो हे । उपदेशो मिल जाहे । ऊ तो आम के आम आउ खोइया के दाम हो जाहे ।)    (सोरही॰xiii.5)
152    खोस (= खुश) (मंगरु सेठ झिंगर मल के हियाँ पहरेदारी करऽ हल आउ सेठ ओक्कर काम से बड़ खोस रहऽ हल । जहिया से मंगरु काम करे लगल याने चार बरिस से, तहिया से दू दरबान आउ तीन भंडारी काम से हटा देल गेल, लेकिन मंगरु के नौकरी पर आँच न आयल ।)    (सोरही॰41.7)
153    गउँढ़ा ("अरे हाँ, तोरा तो कालू के माय कड़र चीज से परहेज बतइलकउ हल ।" कारा आँटा सननञ छोड़के कहलक, "तोरा एजा रहनइ ठीक नञ हउ रात के एतना ठंढ हे । गाम पर के बात दोसर हल । एक बीघा खेत मिलल । अभी कब्जा भी नञ होल कि दोसर गाम बसावे पड़ल आउ गउँढ़ा के दस कट्ठा जागीर भी हाथ से निकल गेल ।")    (सोरही॰2.14)
154    गउनइ (धलुवा ठकुआके गुनगुना हे - 'मइया के लोरवा से गंगा बढ़िअइलइ, बाबूजी के लोरे संसार । भइया के लोरे रामा जमुना बढ़िअइलइ, सभे दहौले चलल जाय ॥' - 'धत् ससुरा ! चुप भी रह ।', कलुवा खिसियाके खखुआयल, 'ईहाँ ई घूरा के आग बुता गेल आउ तोरा गउनइए सूझइत हउ ।')    (सोरही॰46.17)
155    गड़ना (= सक॰ गाड़ना; अक॰ चुभना) (मंगरु - अच्छा तो धरती में गड़के कुछ रखलऽ-उखलऽ हे तो निकालऽ या माय-बाप चुप्पे-चोरी कुछ देलथुन होत तो सही सही बतावऽ ।/ बुधिया - जा जा, अप्पन काम पर जा, तोहरा से बात के बतंगड़ के करे ? का तो हम धरती में गड़ली हे रुपिया-पइसा । गोइठा-उइठा ला भी दस-बीस पइसा माँगऽ हियो सेकरो हिसाब तों लेइए ले हऽ ।)    (सोरही॰39.22; 40.1)
156    गमना (विचार मन में कइलक कि चार सौ रुपया सेठ जी से कौनो बहाना से माँग लूँ तो घरवाली के कनबाली आउ साड़ी-साया भी हो जाय । मुदा बड़का आदमी से कुछ माँगे के पहले मन, मिजाज आउ रुख गमल जाहे । सोचलक कि साँझ पहरा सेठ जी गद्दी से उठके घर जाय लगतन तब मूड़ी झुकाके उनका पिछुआयम । अपने पुछतन कि हमरा पाछु काहे चलल आवऽ हें, तब बकार निकासम ।)    (सोरही॰41.13)
157    गरजू (सोहरा माय बूढ़ी हल । ढेर दिना के अनुभो हल । पइसा असूले में माहिर हल । दुआर पर आके बोलल - "बड़ ठंढ हइ ! तों सब तो वहाँ चल गेले हें । देख, मंगरुआ के हियाँ रुपइया बाकी रह गेल । ढोढ़ा के हियाँ तो सब कुछ रह गेल । एक मन तो करऽ हइ कि ओंहाँ कमइवे नञ करूँ ।" - "त सब की एक्के अइसन होवऽ हइ ? बड़ी कसट में हइ मामा ।" भला कारा के की मालूम कि गरजू होला से लोगन नजायज फइदा उठावऽ हथ ।)    (सोरही॰4.10)
158    गरानी ("तोरा बाल-बच्चा के का जरूरत ? ई सब तो हम्मर पाप हथन ! हे भगवान, ई छव-छव गो फूल अइसन लइकन के मार खाइत चुपचाप देखऽ ही बाकि बाप जइसन पत्थल के करेजा कहाँ से लाऊँ ?" क्रोध, आवेश आउ गरानी में भरके श्रीमती जी रोय लगलन ।)    (सोरही॰56.13)
159    गलबलाना (सोमरी के दिल भक्तिभाव से गलबला गेल । भगवान जरूर निसाफ करतन । जात-धरम के रक्षा भगवान न करतन, त के करत ? ई बढ़नी उगे से का होवऽ हे, भगवान के मरजी के आगे सब झूठ हे ।)    (सोरही॰60.3)
160    गहिड़ा (= वि॰ गहरा; सं॰ गड्ढा, गर्त्त) (बजार के बहरी ओला नुक्कड़ पर के पुल के नीचे पीपर के पेड़ भिजुन ओला गहिड़ा में एगो मोटर कार गिरके दुर्घटना हो गेल हल । ई दुर्घटना देखके कोई दुखी न हो रहलन हल । थोड़हीं सन पहिले फुलवा के साथे, निसा में मातल अपनहीं कार हँकावइत नौरंग जाइत हलन ।)    (सोरही॰16.12)
161    गाँव-जेवार (उनकर मेहनत आउ अपन लगन से कुछे दिन में सुग्गी पड़िआइन हो गेल हल, सब बात सीख लेलक हल । फिन तो गाँव-जेवार में ललाइन मामा के सुग्गी के नाम ओइसहीं खिल गेल जइसे मैदान में जितल कोय नेता के नाम खिल जा हे ।)    (सोरही॰30.4)
162    गिरना-बजरना (= गिरना-बजड़ना) (तहिये भोर पहर समूचे गाम के गली-गली से अवाज आ रहल हल - "सुख सोहराय सुख सोहराय । लक्ष्मी भीतर दरिदर बहार ॥" आउ जीतन के माय रो रहली हल गिर-बजर के जार-बेजार । तहिया सोहराय हल ।)    (सोरही॰24.13)
163    गिरहत (बुढ़िया दीदी रमिया के फुफसस हल । ऊ अपन भाई हीं आयल हल । ओकर भाई अंगरेजी राज के बड़का गो गिरहत आउ छोटमुट गो जमीनदार हल । पत साल सावन के महीना में ओकरा हीं खूब जोड़-सोड़ से झूला उतसो मनावल जा हल ।)    (सोरही॰34.19)
164    गुन (दे॰ गुने) ("नौकरवा के कीदो समद रहलहो हल मलकिनी, एकरे गुन ओजय बैठ गेलिये हल ।" - "अच्छा, तो की काम हलइ, जे अइलहो ?"; "नय, कोय तकलीफ नय हे । तों अभी कहाँ गेली हल ?" आँख खोलके जीतन माय के तरफ देखते बोलला । - "इहे मुनिया कानना शुरू कइलक हल, तो तोरा अनस बरे गुन बाहर में फुसला रहलिये हल ।")    (सोरही॰21.11; 23.23)
165    गेआरी (दे॰ गियारी) (फिन ललाइन मामा दने मूड़ी घुमा के पुछलन, "आझो बड़की पुतोह कुछ बोललन हे का ?" - "हाँ कनेआ, ओही रोज-रोज के राँड़ी बेटमारी आउ का होतवऽ ।" कहइत-कहइत ललाइन मामा के गेआरी भर आयल ।)    (सोरही॰28.18)
166    गेल-गुजरल (ललाइन मामा के लड़ाई-झगड़ा के जिनगी तनिको पसन्द न हे । उनकर समझ से जउन घर में ई सब नटलीला होवऽ हे, ऊ घर के लोग रेयान से भी गेल-गुजरल होवऽ हथ । इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ ।)    (सोरही॰25.17-18)
167    गोइठा-उइठा (मंगरु - अच्छा तो धरती में गड़के कुछ रखलऽ-उखलऽ हे तो निकालऽ या माय-बाप चुप्पे-चोरी कुछ देलथुन होत तो सही सही बतावऽ ।/ बुधिया - जा जा, अप्पन काम पर जा, तोहरा से बात के बतंगड़ के करे ? का तो हम धरती में गड़ली हे रुपिया-पइसा । गोइठा-उइठा ला भी दस-बीस पइसा माँगऽ हियो सेकरो हिसाब तों लेइए ले हऽ ।)    (सोरही॰40.1)
168    गोड़ (= पैर) (दोसर दिन दुपहर दिन चढ़ला के करीब ऊ कुआँ पर मुँह धोके उतरइत हलन कि अचक्के में गोड़ पिछुल गेल आउ ऊ औंधे मुँह अँगना में गिर पड़लन । अइसन गिरलन कि तनिको टस से मस नञ भेलन ।; "उगले रहिहऽ ।" छोटकी पुतोह दने देखके ललाइन मामा एतना कहवे कइलन हल कि उनकर आँख मुँद गेल हमेशा खातिर । दहाड़ मारके छोटकी उनकर गोड़ पर गिर पड़लन ।)    (सोरही॰30.20; 31.15)
169    गोदी-कन्हा (दुनहूँ चले लगल । चान अधरतिया पर आ गेल हल । बुढ़िया के धीरे-धीरे चलते देख कारा कुढ़े लगल । अगर कहे तो कारा गोदी-कन्हा करके जल्दी पहुँचा देय ।)    (सोरही॰4.19)
170    गोन (दे॰ गन) ("अच्छा, जाहो, देखो गोन । जीतन खा लेलक होत ।" एक गो लमहर साँस लेके बोलल जुगल।; "अच्छा, तो अब हम चुप रहो हियो । तों जा, अपन काम-गिरथामा देखो गोन ।" कहके जुगल अपन मुँह दोसर तरफ कर लेलका ।)    (सोरही॰19.14; 20.16)
171    गोर (= गोड़; पैर) (धुरियारे ~) (जीतन माय जे रस्ता से जा रहली हल ओकर बगले में 'दुखहरन बाबा' के पिंडी हल । तब उनकर भीर लपकके गेली आउ उनकर आगू में पेटकुनिया देके कहो लगली - "हे दुखहरन बाबा ! हमरा जीतन बाबू के अच्छा कर देहून तो धुरियारे गोर जोरी पाठ देबो । पाँच बराहमन के पुआ-दूध से जवेनार भी करइबो । खियाल करहो दुखहरन बाबा ! आगू साल तोरा अंगरेजी बाजा बजाके बैठकी भी देबो ।")    (सोरही॰23.11)
172    गोरु-डाँगर ('आउ भी बहुत कुछ भेल ...' सोमरी के आँख लोरा गेल । भोरे-भोर ऊ गोरु-डाँगर के ठीक करे ला उठल हल । पूरब अकास पर नजर जइते बढ़नी देखा गेल । सोमरी एके बेर नीचे से ऊपर तक काँप गेल ।)    (सोरही॰57.8)
173    घँटोरना (बढ़की दीदी आउ रमिया ऊ दिन अजोधेया में एकारसी के उपास कइले हलन । पारन के दिन हल । रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक ।)    (सोरही॰35.12)
174    घराहर (?) (मंगरु - अच्छा, अच्छा, सुनलूँ तो, तो ई खिस्सा सुनावे के मतलब तोहर की हे, से न बतावऽ ।/ बुधिया - जा ! तूँ तो बीचे में बात छीप ले हकहो ।/ मंगरु - अच्छा, कहऽ कहऽ ।/ बुधिया - अजी ओइसने एक जोड़ा हमरो ला देतऽ हल ।/ मंगरु - हूँ । बाप रे बाप । कनबाली पहिनथी । रहे मड़इ आउ सपनाइ घराहर । खाय के रोजी न आउ नहाय के तड़के ।)    (सोरही॰39.18)
175    घास-पोआर (तेरुसे लगबहिए हप्ता भर एही पुरुवी छितान पर बढ़निया उगते रहल हल - एही ढंग से । घुरियो मारे ला बरसा न होयल । पियासल धरती जगह-जगह फट गेल, फसल मारल गेल । घास-पोआर कउन कहे, पेड़, बाग सूख टटा गेल ।)    (सोरही॰57.5)
176    घूरा-गनउरा (साँझ खनी घूरा गनउरा के खेर-पतई बीनके कलुआ आग धरा देलक आउ गावे लगल - 'भँवरा के भेजलूँ रसवाला बगिया, रसवा ले अइले हइ थोर । एतने हीं रसवा में केकरा-केकरा बाँटिअइ, सगरी नगरी हित मोर ॥'; 'धत् ससुरा ! चुप भी रह ।', कलुवा खिसियाके खखुआयल, 'ईहाँ ई घूरा के आग बुता गेल आउ तोरा गउनइए सूझइत हउ ।' - 'सउँसे गाँव तो धुधुआके जर उठलइ बाबूजी । अब ई घूरा के पूछ हइ ? सभे अमदी घूरे-गनउरे हो गेलइ अब तो !' धलुवा के ई बात सनसनाइत उड़ल आउ घोर सन्नाटा में सन्न से गूम हो गेल ।)    (सोरही॰43.1; 46.19)
177    चउन्हियाना (= चौंधियाना) (दुनिया के रूप रंग-बिरंग के हे । ऊ में नौरंग के आगु केकर आँख न चउन्हिया जाय ? अप्पन इलाका के सबसे जादे धन-दौलत ओला जमीनदार, सबसे बढ़का नेता, खाजामार टोपी आउ फह-फह उज्जर धोती ।)    (सोरही॰14.21)
178    चन्दर (~ लगना) (राधे गिड़गिड़ाय लगल - "ई घड़ी हम्मर हाथ सकड़ियाल हे । पैसा के फेर में हम फीफीहा हो गेली । माय के हालत देखके हमरा चन्दर लग रहल हे । हम निमक के सरियत रखेवाला आदमी ही । हम मर जइबो तो भले तोर पूँजी पानी में डूब जइतो ।")    (सोरही॰11.3)
179    चमइन (= चमाइन) (उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ । माय-बाप के रहला पर कारा दलान में सूतत हल । अब रात भर जगल रहत । चमइन के चिरौरी करत ।" कारा के अवाज में अपनौती हल ।; कारा अकेले डीह दने चल देलक । माघ के महीना हल । धनखेती में खेसाड़ी लहर मारऽ हल, तेकरा पर सीत के बून्द सज गेल हल । जल्दी के चलते कारा खेते-खेते चले लगल । रस्ते में जागीर के खेत मिलल । ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल । दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक ।; आखिर कइसहूँ दुनहुँ पहुँचल । कारा बहरे खड़ा हो गेल । झोपड़ी में मोहरी कहँड़ रहल हल । चमइन के गेला पर कहँड़नय कम होल, मुदा तुरते कसके अवाज आल । कारा के मन उखविखा गेल । फेन चमइन आउ मोहरी के बात कारा गौर से सुने लगल ।)    (सोरही॰2.4; 4.1, 22, 23)
180    चमकाना (मुँह ~) (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।")    (सोरही॰25.2)
181    चर-चर (= चार-चार) (आझकल रोशनी भी धोखा दे देलक हे । कोई दिन अइसन न बीते जउन दिन घंटा दू घंटा आउ कभी-कभी तो चर-चर घंटा तक लाइन कटल न रहे ।)    (सोरही॰55.17)
182    चहुतरफा (= चौतरफा) (ललाइन मामा के दूनो आँख लोरा गेल । लोर में आँख के सामने के सब्भे तस्वीर डूब गेल । चहुतरफा अन्हेरा छा गेल आउ ऊ अन्हेरिया में ललाइन मामा के लौकल जइसे धरती फट गेल हे आउ ऊ धीरे-धीरे ओकरा में समा रहलन हे सीता मइया नियन ।)    (सोरही॰26.22)
183    चाँड़ (बाकि फुलवा के भी भाग बड़ी चाँड़ हे । टूटल मड़ई, गन्दा महल्ला में जनमल आउ ई पक्का बंगला में राज कर रहल हे ।)    (सोरही॰14.17)
184    चाउर (जाने केतना दुआरी झाँकली ! बाकि अकाल तो सब नेम-धरम लील लेलक हल । कोई एक मुट्ठी चाउर न देलक ।; जे माँगला पर एक मुट्ठी चाउर न देलक, उहे उनका आँख मुँदइते भात ला माथा पर सवार हो गेल । एगो आदमी कहाँ तक करूँ, ए रामजी ! तनी रहे त तनी, एकबारगी तीन-तीन भात । एक भात मतलब दू मन चाउर । कहाँ तक करेजा बाँधूँ । केतना आरजू-मिनती कइलूँ कि ई राँड़ बेवा पर किरपा करऽ ऐ पंच-परमेश्वर लोग, एक भात पर मान जा । बाकि के मानऽ हे ।)    (सोरही॰58.24, 26; 59.3)
185    चाह (= चाय) (हम अइसन नेवता ला तइयार न हली बाकि हमरा मन में लेखक बने के ललसा बड़ी दिन से जमल हल । कोरसिस कइला पर भी कोई रचना छपल न हल । हम तुरते नस्ता के साथे चाह ला औडर देली आउ पतरिका के नाम, ओकर लगाव, बिकरी, आदि के बढ़िया उत्तर पाके उनका बिहने भेला अपना घर आवे ला नेवता दे देली ।)    (सोरही॰32.8)
186    चिन्हाना (= अ॰क्रि॰ पहचान में आना; स॰क्रि॰ पहचान कराना) (थोड़हीं सन पहिले फुलवा के साथे, निसा में मातल अपनहीं कार हँकावइत नौरंग जाइत हलन । आउ अब लोग देख रहलन हे कि नौरंग के लाश ई मोटर दुर्घटना में कुचा के चिन्हाइतो न हे ।)    (सोरही॰16.15)
187    चिरईं (मन में एगो अजगुत डर समायल हल । उनकर हालत ऊ हदसल चिरईं नियन भेल हल, जे शिकारी के जाल में फँसल मौत के राह देखइत हो । ऊ रात ललाइन मामा के आँख में नीन नञ आयल मानो तकदीर जोरे नीनो हुनका से रुस गेल होय । रात भर ऊ उखीबिखी रहलन ।)    (सोरही॰30.15)
188    चिरौरी (= अनुनय-विनय; दीनतापूर्वक किया गया आग्रह) (" ... सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।" उदास मोहरी एतना कहते के साथ लजा गेल । अँचरा सम्हार के गोड़ मोड़े लगल । - "अच्छा ई बात हे । त हम की कोय दिगर ही । कह तो दुनिया के बोला दिअउ । माय-बाप के रहला पर कारा दलान में सूतत हल । अब रात भर जगल रहत । चमइन के चिरौरी करत ।" कारा के अवाज में अपनौती हल ।)    (सोरही॰2.5)
189    चुप्पे-चोरी (मंगरु - अच्छा तो धरती में गड़के कुछ रखलऽ-उखलऽ हे तो निकालऽ या माय-बाप चुप्पे-चोरी कुछ देलथुन होत तो सही सही बतावऽ ।/ बुधिया - जा जा, अप्पन काम पर जा, तोहरा से बात के बतंगड़ के करे ? का तो हम धरती में गड़ली हे रुपिया-पइसा । गोइठा-उइठा ला भी दस-बीस पइसा माँगऽ हियो सेकरो हिसाब तों लेइए ले हऽ ।)    (सोरही॰39.23)
190    चूड़ा-दही (जेवनार पर बइठल लोग के सातो रास परसायल । लोग सराह-सराह के खयलन । चूड़ा-दही के बाद रंक के भी पूआ परोसल गेल ।)    (सोरही॰17.28)
191    चेहरा-मोहरा (हाड़-मास के ताना-बाना से बनल ऊ एगो मामूली अदमी हल । देखे-लेखे में बड़ा-कुरूप । चेहरा-मोहरा से भद्दा । कोई गुण न कोई सुनदरता । बाकि हल कलाकार, एगो नामी-गरामी कवि ।)    (सोरही॰36.6)
192    छछनना (जउन साल राधे अप्पन माय के इलाज करइलक ऊ साल भयंकर सूखा पड़ल । आदमी पानी पिये ला छछन गेल । खेत में न तो मजूर के काम मिले लगल, न घर में भीख ।)    (सोरही॰11.23)
193    छव-पाँच (दे॰ छो-पाँच) (छकौड़ी छव-पाँच में हलन । का कहल जाव समझ में न आ रहल हल ।)    (सोरही॰17.9)
194    छागल (= साकल; स्त्रियों के पैर में पहनने का एक वलयनुमा आभूषण) (सोमरी चुपचाप खड़ा नोह से धरती कुरेद रहल हे, आ मनेमन हिसाब बइठा रहल हे कि भात के इन्तजाम कइसे पूरा होयत । अपन कंठा आउ भगजोगनी के छागल बेच देला पर भी कुछ घट जायत का ?)    (सोरही॰60.10)
195    छाड़न (ई नावा गाम इमे साल बसल हल । जन-मजूर के जमीन मिले लगल तो मालिक ई सब के ऊसर जमीन पर घर बनावे लेल मजबूर कर देलक । आपसी परेम में कैंची चलाके लोगन एक दोसर से अलग हो गेलन । ई मजूरन नदी के छाड़न पर आ गेलन । एजय से ई सब काम पर जा हलन ।)    (सोरही॰2.22)
196    छितराल (मोहरी माथा उठाके कारा दने देखलक । फिन आग आउ थरिवा दने नजर झुक गेल । कारा बिन बोलले आग तर चल गेल । एन्ने-ओन्ने छितराल आग के समेटे लगल । आग फेन धुधुआय लगल ।)    (सोरही॰1.13)
197    छितान (= क्षितिज) (मुदइया फिन ई बढ़नी उगल । बाप रे, न जानी ई साल का होयत । लगऽ हे फिन ई साल बरसा न होयत । फसल मारल जायत । अकाल पड़त । तेरुसे लगबहिए हप्ता भर एही पुरुवी छितान पर बढ़निया उगते रहल हल - एही ढंग से । घुरियो मारे ला बरसा न होयल ।; लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे ।)    (सोरही॰57.3, 11)
198    छिहुलना (= फिसलना; चौंकना) (हुड़दंगी लइकन उपरका चहबच्चा पर उछिलइत-कूदइत ओकरा में नेहाइत हलन । ओकरा में से एगो लइका पम्प के मोटगर जलधारा के हाथ से रोकके फुलवा दने मोड़ देलक हल । पानी से सराबोर होके छिहुल के भाग उठल हल फुलवा ।)    (सोरही॰14.9)
199    छीपना (बीच में बात ~) (मंगरु - अच्छा, अच्छा, सुनलूँ तो, तो ई खिस्सा सुनावे के मतलब तोहर की हे, से न बतावऽ ।/ बुधिया - जा ! तूँ तो बीचे में बात छीप ले हकहो ।/ मंगरु - अच्छा, कहऽ कहऽ ।/ बुधिया - अजी ओइसने एक जोड़ा हमरो ला देतऽ हल ।/ मंगरु - हूँ । बाप रे बाप । कनबाली पहिनथी । रहे मड़इ आउ सपनाइ घराहर । खाय के रोजी न आउ नहाय के तड़के ।)    (सोरही॰39.14)
200    छुछे ("नञ ... अइसन नञ हो सकऽ हे" ललाइन मामा एक-ब-एक चिहुँक उठलन मानो बइठल-बइठल बउआ रहल हथ, "ई सब छुछे बहाना हे, ढोंग हे, ऊ पागल न हे, भलुक हमरा पागल बना रहल हे ... अब हम सह न सकऽ ही ।")    (सोरही॰27.26)
201    छोटका (~ बेटा; ~ भाय) (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।"; भितरे से बड़की के करकस अवाज अभियो आवइत हल । जउन घर से चूड़ी खनके के अवाज अंगना से बाहर नञ जा हल, आझ ऊ घर के पुतोह के करकस अवाज से सात घर के अगना इंजोर होवऽ हे । एही सब रोज-रोज के किचकिच आउ करकर से तंग आके मँझला आउ छोटका अपन चुल्हा-चउका अलग कर लेलन, तइयो ई घर में सुख आउ शांति नञ आयल ।)    (सोरही॰25.5; 27.6)
202    छोटकी (~ पुतोह; ~ बेटी) (बड़की हलके धँसोरलक हल कि बस ललाइन मामा पीठ के बल जमीन पर आ गेलन - धड़ाम । ऊ तो छोटकी बीच-बचाव कैलक नञ तो ... ।; "देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ । बात-बात पर छोटकी पर पड़ल रहऽ हउ । बात बरदास से बाहर हो गेला पर जब हम कुछ बोलऽ ही त मारे दउड़ऽ हउ ।"; लेकिन जब ललाइन मामा के देह थक गेल, उनका से काम-धन्धा नञ सपरे लगल त सुग्गी के खेयाल भी उनकर मन से उतर गेल । कोय-कोय दिन सुग्गी के अन्न-जल से भी भेंट नञ होवे । ई सेती जब राम सरन बाबू के छोटकी बेटी सुग्गी लागि जिद करे लगल त ऊ ओकरा दे देलन हल । रात में छोटकी पुतोह के बहुत कहे-सुने पर जब ललाइन मामा खाय लागि बइठलन त अन्न-जल न ढुकल ।)    (सोरही॰26.20; 27.11; 30.10, 12)
203    छोटमुट (बुढ़िया दीदी रमिया के फुफसस हल । ऊ अपन भाई हीं आयल हल । ओकर भाई अंगरेजी राज के बड़का गो गिरहत आउ छोटमुट गो जमीनदार हल । पत साल सावन के महीना में ओकरा हीं खूब जोड़-सोड़ से झूला उतसो मनावल जा हल ।)    (सोरही॰34.18)
204    छोटहन (बाकिर, एगो शर्त हे - कहानी छोटहन रहे । प्रेमचन्द के निन्दा भेल - किस्सागोई के वजह से।)    (सोरही॰iii.19)
205    छो-पाँच (~ में पड़ना) ("हम्मर माय दवाखाना में पैदल आवे जुकुर न हइ । टाँग-टूँग के लावे में टें बोले के डर हे । दरजनो कै-दस्त होवे से ओकर हाथ-गोड़ ऐंठ रहल हे । एही से घर चलके इलाज करे ला कह रहली हे ।" राधे रुन्हल कंठ से बोलल आउ अप्पन आँख के लोर धोती के कोर से पोछे लगल । वैद जी छो-पाँच में पड़ गेलन ।)    (सोरही॰10.12-13)
206    जउन (ललाइन मामा के लड़ाई-झगड़ा के जिनगी तनिको पसन्द न हे । उनकर समझ से जउन घर में ई सब नटलीला होवऽ हे, ऊ घर के लोग रेयान से भी गेल-गुजरल होवऽ हथ । इहे सेती जब बड़की लड़े के कोई उसकुन निकालऽ हे, ऊ चुपचाप उठके बाहर दूरा में चल आवऽ हथ ।)    (सोरही॰25.17)
207    जखने (= जखनी; जिस क्षण या समय) ("मगर अखने तो रुपया नय हो जीतन माय । आउ जे तों कहली घी के दाम, से तो नय मिलतो । काहे कि जखने तोर जीतन के बाबू बैंक से भैंस लेवे ले दरखास देलखुन हल, ऊ बखत सी॰ओ॰ साहेब के दसखत कइला पर हीं रुपया मिललो हल । तखने चार किलो घी पर तय होलो हल ।" - "अच्छा, ओकरा छोड़हो मलकिनी । मगर एक सो अस्सी रुपया, जे दूध वला होवो हे, ऊ तो देबहो ने ।")    (सोरही॰22.2)
208    जतन (= यत्न) (ऊ उठे ला चाहलन तो देह काँप गेल । अइसन बुझायल, मानो देह में एको ठोप खून न हो ... देह के सभे अंग सुन्ना पड़ गेल होय ... एकदम मुरदा ! बड़ी जतन से ऊ उठके खड़ा भेलन त देह के पोरे-पोर झनझना उठल कमजोरी से !)    (सोरही॰29.11)
209    जतरा (हाँ, हाँ, एही सब सुने ला हइये हल हमरा । अबरी अइसने जतरा से अइवे कइली हल ।)    (सोरही॰54.4)
210    जन-मजूर (ई नावा गाम इमे साल बसल हल । जन-मजूर के जमीन मिले लगल तो मालिक ई सब के ऊसर जमीन पर घर बनावे लेल मजबूर कर देलक ।)    (सोरही॰2.19)
211    जनमरु (ऊ थकके चूर हल तइयो अपन अवाज के कोसिस भर नरम बनाके बोलल - का बात हे ? लाइन कट गेल हे का ? कखनी से ? ढेर देरी से ? आउ लइकन आझ बड़ा सबेरहीं सुत गेलन सब ! देखऽ न, आझ आफिसे में तनी देर हो गेल । का करी, ई मार्च के महीना - अइसन जनमरु हे कि ... ।)    (सोरही॰56.2)
212    जनावर (लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे ।)    (सोरही॰57.12)
213    जमानी (= जवानी) (ललाइन मामा एगो लम्मा साँस लेलन त बुझायल, जइसे हवा में जहर घोर देवल गेल हे जे फैल गेल हे उनकर समूचे देह में । पीठ पर हाथ फेरलन त नस टभके लगल पकल घाव नियन । आझ भोरहरिये बड़की तनिसुन बात खातिर मार बइठल । कहाँ जमानी के काबू आउ कहाँ बुढ़ारी के टुटल देह । बड़की हलके धँसोरलक हल कि बस ललाइन मामा पीठ के बल जमीन पर आ गेलन - धड़ाम ।)    (सोरही॰26.18)
214    जर-जरावन (आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल । जर-जरावन हल नञ, ई से खाली आँटा के लिटिए सेंकके नून मिचाई जौरे बोर-बोरके खाके पेट के छुधा बुझाके अघाय के फिकिर में हल ।)    (सोरही॰44.9-10)
215    जरी (कारा के रसगर बात से मोहरी के ओठ विहँसल मुदा तुरते मलीन हो गेल । धीरे से बोलल, "हमरा से नञ ..." - "काहे ?" -"हमरा ... हमर बतिया समझहो काहे नञ ? हमरा से नञ होतो ।" - "आखिर बात की हे ? जरी सुनिअइ तो ... ।" - "तों गँवारे रह गेलऽ । तोरा की फिकिर हे । सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।"; बुधिया - बस, भेलइ । इनका भिर जरी बोलना भी भारिये हो जाहे । कहीं कनबाली बना देता तब तो काटके हमरा खाइये जइता । हम कहलूँ से फेर लेलूँ । बाज अइलूँ कनबाली से । जिरी सा बोललूँ तो अलबल बके लगला । बाप रे, अइसन मरदाना ना देखलूँ हल ।)    (सोरही॰1.21; 40.18)
216    जस (= यश) (उनका विसवास हे, धन बटोरे के अनेक रस्ता हे, लेकिन समाज में रहके मान-मरजादा आउ जस बटोरे के एकेगो रस्ता हे - ईमान-धरम । जउन दिन आदमी अपन दिल से ई गुन निकाल फेंकऽ हे, ऊ दिन ओकर मान-मरजादा मर जाहे, जस अपजस बन जाहे ।)    (सोरही॰25.21, 23)
217    जहिया (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।"; मंगरु सेठ झिंगर मल के हियाँ पहरेदारी करऽ हल आउ सेठ ओक्कर काम से बड़ खोस रहऽ हल । जहिया से मंगरु काम करे लगल याने चार बरिस से, तहिया से दू दरबान आउ तीन भंडारी काम से हटा देल गेल, लेकिन मंगरु के नौकरी पर आँच न आयल ।)    (सोरही॰25.6; 41.7)
218    जानल-पहिचानल (ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल । दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक ।)    (सोरही॰4.2-3)
219    जिमवारी (= जिम्मेवारी; जिम्मेदारी) (ओकरा बिना अइसन जिमवारी के काम आउ कउन दूसर कर सकऽ हे । एही गुने जहिया अइसन जिमवारी के काम आयल हे, बॉस ओकरे बोलाके सौंपलन हे ।)    (सोरही॰54.20, 21)
220    जिरह (वैदजी के गोस्सा सतमा असमान छू लेलक - "बोकारो से अइलऽ हँ तो लंगट-बोकारी मत कर । हम तोर माय के जान बचैली हे । एक सौ रुपया आउ लेबउ ।" "जादे नींबू मले से तीता हो जाहे । तू हम्मर माय के जान बचइलऽ हे तो का हम्मर जान ले लेवऽ ?" राधे जिरह कइलक - "तू तो हम्मर माय के देह पर अप्पन हाथ साफ कइलऽ हे । तोरा तो निमन से पानी चढ़ावे के भी लूर न हो ।")    (सोरही॰12.12)
221    जिरी (= जरी; थोड़ा) (कल्ह अइलथिन हे, आउ पान ला निम्मन-निम्मन दूगो कनबाली लइलथिन हे । बड़ सुन्नर हइ, देखते बनऽ हइ । हमरा तो टकटक्की लग गेलो । अइसन चमकऽ हइ कि लगऽ हइ किरिंग फूटऽ हइ । हम कहलियन पान के कि जिरी पहिनके देखाहो तो । पहिन लेलथिन तो उड़ चललथिन । अपछरा अइसन लगे लगलथिन ।; बुधिया - बस, भेलइ । इनका भिर जरी बोलना भी भारिये हो जाहे । कहीं कनबाली बना देता तब तो काटके हमरा खाइये जइता । हम कहलूँ से फेर लेलूँ । बाज अइलूँ कनबाली से । जिरी सा बोललूँ तो अलबल बके लगला । बाप रे, अइसन मरदाना ना देखलूँ हल ।)    (सोरही॰39.10; 40.20)
222    जुकत (= जुकुत, समान, सदृश) (मन में एक बार फिन भात पहाड़ जुकत खड़ा भे गेल । ई साल तो कइसहूँ निबाहिए देवे के चाही । एक मन करऽ हे, ई कुलच्छनी गइए के बेचके भोज-भात करा दी ।)    (सोरही॰59.11)
223    जुकुर (= लायक) ("हम्मर माय दवाखाना में पैदल आवे जुकुर न हइ । टाँग-टूँग के लावे में टें बोले के डर हे । दरजनो कै-दस्त होवे से ओकर हाथ-गोड़ ऐंठ रहल हे । एही से घर चलके इलाज करे ला कह रहली हे ।" राधे रुन्हल कंठ से बोलल आउ अप्पन आँख के लोर धोती के कोर से पोछे लगल ।)    (सोरही॰10.9)
224    जुवानी (= जुआनी; जवानी) (लछमिनियाँ कलुआ के औरत तो हइए हल बाकि जुम्मन के चहेती भी हल । बड़ी चालबाज, बड़ी सुन्नर आउ सहजे मोह लेवे ओला जुवानी से भरल हल ।)    (सोरही॰15.19)
225    जेजा (= जहाँ, जिस जगह) (ओकर शरीर सिहरे लगल । रोमाँ रोमाँ तक कपे लगल । ओकर नजर आग पर गेल, जेजा लिट्टी लगल हल । ओकरा ठंढ से बचे के चाही । लपक के आग तर गेल । देखलक कि लिट्टियन सब जर गेल हल ।)    (सोरही॰5.17)
226    जेवनार (= ज्योनार) (जेवनार पर बइठल लोग के सातो रास परसायल । लोग सराह-सराह के खयलन । चूड़ा-दही के बाद रंक के भी पूआ परोसल गेल ।)    (सोरही॰17.27)
227    जोखा (बुधिया - तोहरा बनावे के मन हइए ना हो तो बेकारे पूछऽ ह ।/ मंगरु - जानिअइ भी ? कहीं जोखा लग जाय, जोगाड़ हो जाय रुपइया के, तो काहे न बन जा सकऽ हो ।)    (सोरही॰40.10)
228    जोड़ना-जाड़ना (पास-पड़ोस के दस-पाँच अदमी भी जुट गेलन । सब के राय भेल - हिसाब-किताब साफ रहे के चाही । जोड़-जाड़ के खरचा पूरे पनरह सौ होयल । सुनके होश गुम हो गेल छकौड़ी के ।)    (सोरही॰18.11)
229    जोड़-सोड़ (बुढ़िया दीदी रमिया के फुफसस हल । ऊ अपन भाई हीं आयल हल । ओकर भाई अंगरेजी राज के बड़का गो गिरहत आउ छोटमुट गो जमीनदार हल । पत साल सावन के महीना में ओकरा हीं खूब जोड़-सोड़ से झूला उतसो मनावल जा हल ।)    (सोरही॰34.20)
230    जोरी (= जोड़ी) (जीतन माय जे रस्ता से जा रहली हल ओकर बगले में 'दुखहरन बाबा' के पिंडी हल । तब उनकर भीर लपकके गेली आउ उनकर आगू में पेटकुनिया देके कहो लगली - "हे दुखहरन बाबा ! हमरा जीतन बाबू के अच्छा कर देहून तो धुरियारे गोर जोरी पाठ देबो । पाँच बराहमन के पुआ-दूध से जवेनार भी करइबो । खियाल करहो दुखहरन बाबा ! आगू साल तोरा अंगरेजी बाजा बजाके बैठकी भी देबो ।")    (सोरही॰23.11)
231    झप-सबर (= झट दबर; तुरते, झट से) (पंडी जी समझइलथिन - अरे ई सभै के नयकी बीमारी के परकोप हइ । मंगर आउ मोहन दूनो के झपसबर अस्पताल ले चलऽ हो भाई । ई दूनो एन्सिफेलाइटिस के चक्कर में पड़ गेलथुन ।)    (सोरही॰46.6)
232    झामर (बिन माँगले दवा के मनमाना दाम मिले से वैद जी मने मने खुश हलन मगर बीसो मरीज के सामने राधे उनकर बोली बन्द कर देलक हल एही से गम हल । मोरवा चारो तरफ से नाच आवऽ हे मगर अप्पन गोड़ देखके मुँह झामर कर ले हे ।)    (सोरही॰12.17)
233    झूरी (= टहनियों के सूखे टुकड़े; सूखा काठ, डंठल आदि के छोटे खंड; झुर्री) ('पुट पुट ...' करके सब झूरियो जर गेलय । अधसानल आँटा के मोहरी आगू से हटा देलक । टीन के थरिवा अलग हो गेल । मोहरी बैठल-बैठल थारी आउ आग के देख ले हल ।)    (सोरही॰1.1)
234    झौंसायल (जर-जरावन हल नञ, ई से खाली आँटा के लिटिए सेंकके नून मिचाई जौरे बोर-बोरके खाके पेट के छुधा बुझाके अघाय के फिकिर में हल । सभे लिट्टी झौंसायल नियन हल ।)    (सोरही॰44.11)
235    टटगर (फेर पूरब दने दूनो हाथ उठाके बड़की कहलक - "हे सुरुज भगमान, जहिया तूँ बुढ़िया के धरती से उठइबऽ, ओही साल हम दोबर सूप आउ नरियर से तोरा अरग चढ़ायम । नञ जाने कउची खाके आयल हे, परनाती आउ परनतिनी देख लेलक तइयो मौत नञ आवऽ हे । एकर जोड़ी के गाँव के कतेक लोग उठ गेलन बाकि ई अबहीं ले बेटन के कमाई पर राज भोगे लागि टटगर होके बइठल हे ।")    (सोरही॰25.10)
236    टटाना (तेरुसे लगबहिए हप्ता भर एही पुरुवी छितान पर बढ़निया उगते रहल हल - एही ढंग से । घुरियो मारे ला बरसा न होयल । पियासल धरती जगह-जगह फट गेल, फसल मारल गेल । घास-पोआर कउन कहे, पेड़, बाग सूख टटा गेल ।; सोमरी गाय के नजदीक पहुँच के सनेह से ओकर देह सहलावे लगल । ... अनमुनाही रोशनी में जब एक बेर ऊ कातर होके ताकलक त सोमरी भीतर से कट गेल । एहु अभागन जीव हमनी के खूँटा पर कउन-कउन दुख न झेललक । जउन साल भगजोगनी के बाबू आँख मुनलन, ऊ साल एहु बेचारी का कम टटाएल ? कउन ठीक एही कारण बँझा गेल कि का ?)    (सोरही॰57.5; 59.22)
237    टाँगना-टूँगना (अइसन गिरलन कि तनिको टस से मस नञ भेलन । उनका गिरते देखके तीनो पुतोह तीन दने से हाय-हाय करते दउड़ पड़लन । ललाइन मामा बधोस हलन । टाँग-टूँग के उनका अँगना में खटिया पर सुतावल गेल आउ होश में लावे के उपाय कइल गेल ।)    (सोरही॰30.23)
238    टाँड़ (छकौड़ी हलन तो अमीर बाकि जमीनदारी जाय के बाद उनकर हालत पातर हो गेल हल । बहिन के बिआह में बाप के अरजल आठ बिगहा टाँड़ साफ हो गेल हल । सालो न लगल हल कि माय चल बसलन । लोग जुटके सलाह देलन - लाश के सत-गत गंगा में होयत ।)    (सोरही॰17.2)
239    टील्हा (ई गीत के सुर इधर लहसल कि उधर अलेल्हा आग भी लहक के धधक उठल । टील्हा भिजुन के सभे लोग आग तापे लागि जुट गेलन ।)    (सोरही॰43.4)
240    टेंट (राधे के आँख तर अन्हार छा गेल । ऊ हिसाब करके बोलल - "हमरा रुपइया के मोह न हे, तू इलाज करऽ । देह-समांग रहतो तो पाई-पाई चुकता कर देवो ।" "उधार इलाज करे में हमरा संस-बरक्कत न मिलऽ हे । दवा खरीदे में पूँजी लगऽ हे । रोग दूर हो गेला पर लोग साँझ-बिहान करे लगऽ हथ । जेकर टेंट में पइसा न हे ओकरा से हम लास-फास न रखऽ ही ।")    (सोरही॰10.26)
241    टेट (दे॰ टेंट, टेँट) (काम-धाम से जब फुरसत मिलल, लालचन छकौड़ी के बोलाके कहलन - "बेटा ! अब तू निफिकिर हो गेलऽ, अपन हिसाब-किताब समझ ल । लोग-बाग के सामने सब कुछ तय हो जाय तो अच्छा हे ।" छकौड़ी के टेट तो खाली हल । का हिसाब समझथ ।)    (सोरही॰18.5)
242    टेसना (ओकरा में से एगो लइका पम्प के मोटगर जलधारा के हाथ से रोकके फुलवा दने मोड़ देलक हल । पानी से सराबोर होके छिहुल के भाग उठल हल फुलवा । फिनो बनावटी क्रोध देखाके खिसिआयल आउ मुँहजरा, पगजरौना आदि पेआर भरल कुछ गारी सुनौलक । ओहे घड़ी नौरंग के घर के लउँड़ी फुलवा के खोजते केबिन पर आयल हल आउ फुलवा के साथे लइकन के हुड़दंग देख लेलक । बस ऊहे जाके नौरंग से नीमक-मिचाई लगा के टेस देलक हल ।)    (सोरही॰14.13)
243    टैम (= टाइम) (नवल किशोर ईमानदार किरानी हलन - न ऊधो के लेना न माधव के देना - हरहर-पटपट से दूर । टैम से दफ्तर जाना, टैम से डेरा आना, कउनो तरह के लटपट में शरीक न होना । दफ्तर के अफसर लोग इन्हका बेवकूफ समझऽ हलन आउ कहऽ हलन ई ढेर जिद्दी हथ ।; नवल किशोर एम॰ए॰ के इम्तहान देवे ला सोचलन आउ फारम भरलन बाकि इनकर बड़का भाई के लड़का बेमार पड़ल आउ मर गेल । से इन्हका कठिनाई भेल । बेमारी के टैम में दवा-दारू करे पड़ल आउ ई तैयारी न कर सकलन, इम्तहान छोड़े पड़ गेल ।)    (सोरही॰7.9; 8.4)
244    टोला-टाटी (हल्ला-गुदाल सुनके टोला-टाटी के लोग ललाइन मामा के अँगना में जुम गेलन । बड़की पुतोह मुँह चमका-चमका के बकइत हल - "ई बुढ़िया न जाने कहिया ले जियत । डेढ़ बीघा के पैदा अकेले खा जाहे आउ बइठल-बइठल पिंगिल छाँटऽ हे । बाँट-बखरा में बरतन-बासन भी ठीक से न बाँटल गेल । खाली छोटके दने ताकइत फिरऽ हे ।")    (सोरही॰25.1)
245    टोला-परोस (जीतन माय अपन मरद भीर आके कहो हथ । "एत्ते जोर से काहे बोलो हा । आज एकइस दिना हो गेलो हे, जे खटिया पर गिरला हे से घुर के मुरियो नय उठयला हे, आउ एत्ते टनक से बोलला कि टोला-परोस के लोग सुन गेला होत ।")    (सोरही॰19.5)
246    टोला-परोसा (दे॰ टोला-परोस) (भोजन के दिन ला जेवार के बाबा जी नेवतल गेलन । गोतिया भाई टोला-परोसा भी पीछे न रहलन । हित-नाता के नेवता तो पहिलहीं फिर गेल हल ।)    (सोरही॰17.18)
247    ठकमुरकी ("अन्दाज से जने-तने सूई भोंकके आधा दवा आधा पानी मिलाके जनता के बूड़बक बनाके तू ढेर रुपइया ठगलऽ हे । अब अइसन ठगबनिजी न चलतो । ... आदमी नीम हकीम खतरे जान से बचत ।" राधे के बात सुनके वैदजी के तो ठकमुरकी मार देलक ।)    (सोरही॰12.25)
248    ठकुआना (पूरा भीड़ दूनो तरफ दौड़ जाहे । लोर से भींजल लिट्टी कलुवा के मुँह से गिर जाहे । धलुवा ठकुआके गुनगुना हे - 'मइया के लोरवा से गंगा बढ़िअइलइ, बाबूजी के लोरे संसार । भइया के लोरे रामा जमुना बढ़िअइलइ, सभे दहौले चलल जाय ॥')    (सोरही॰46.14)
249    ठगबनिजी ("अन्दाज से जने-तने सूई भोंकके आधा दवा आधा पानी मिलाके जनता के बूड़बक बनाके तू ढेर रुपइया ठगलऽ हे । अब अइसन ठगबनिजी न चलतो । ... आदमी नीम हकीम खतरे जान से बचत ।" राधे के बात सुनके वैदजी के तो ठकमुरकी मार देलक ।)    (सोरही॰12.22)
250    ठौरे (बड़ी जतन से ऊ उठके खड़ा भेलन त देह के पोरे-पोर झनझना उठल कमजोरी से ! पीठ सीधा करके खड़ा होवे ला चाहलन त नस टभके लगल । ऊ ठौरे खम्भा पकड़के छन भर ला अपन देह के दुख-दरद में डूब गेलन ।)    (सोरही॰29.13)
251    डगरिन (कारा के रसगर बात से मोहरी के ओठ विहँसल मुदा तुरते मलीन हो गेल । धीरे से बोलल, "हमरा से नञ ...।" - "काहे ?" -"हमरा ... हमर बतिया समझहो काहे नञ ? हमरा से नञ होतो ।" - "आखिर बात की हे ? जरी सुनिअइ तो ... ।" - "तों गँवारे रह गेलऽ । तोरा की फिकिर हे । सास-ससुर रहतन हल त डगरिन बोलइतन हल । तोहरा तो लिट्टिये सूझऽ हो ।"; एतने में कलुआ माय बोलल - "कारा ! कारा ! रे कारा !!!" - "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।" - "अच्छा तुरते ।" एतना कहके कारा डीह दने सोझिया गेल ।)    (सोरही॰2.1; 3.20)
252    डाहत (~ लगाना) (ठेहुना भर खेसाड़ी देखके कारा के मन सिहर गेल । कइसउँ आर-पगार लाँघते-लाँघते कारा चमइन के दुआरी जा धमकल । दुआर बन हल । कारा डाहत लगावे लगल । जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक ।)    (सोरही॰4.2)
253    डीह (कारा झोपड़ी के दुआरे पर से घूर गेल आउ लिट्टी लगावे लगल । कारा हबर-दबर में लिट्टी सजा देलक आग पर । एतने में कलुआ माय बोलल - "कारा ! कारा ! रे कारा !!!" - "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।" - "अच्छा तुरते ।" एतना कहके कारा डीह दने सोझिया गेल ।)    (सोरही॰3.20, 21)
254    ढनकलहन (= 'ढनकलहा' का बहु॰) (आझ मुनवाँ के माथ फूट गेलइ हे । बड़ी मानी खून गिरलइ हे । जयवा के भी पैर में चोट लग गेलइ हे । बगल ओलन ढनकलहन लइकवन सब मारकइ हे । केतना बेर कहली हे के कउनो इस्कूल-विस्कूल में बैठा दहूँ, पर तूँ तो अपने में मस्त हऽ । तोरा बाल-बच्चा के का जरूरत ?)    (सोरही॰56.9)
255    ढुकना (= घुसना) (रात में छोटकी पुतोह के बहुत कहे-सुने पर जब ललाइन मामा खाय लागि बइठलन त अन्न-जल न ढुकल । बड़ी मोसकिल से दु कोर खाके उठ गेलन ।)    (सोरही॰30.13)
256    ढुकाना (= घुसाना) ("देख बलदेव, अबकी बड़की के लेते जइहें, न तो ई नटिनियाँ दहँज-दहँज के हमरा जान मार देतउ । बात-बात पर छोटकी पर पड़ल रहऽ हउ । बात बरदास से बाहर हो गेला पर जब हम कुछ बोलऽ ही त मारे दउड़ऽ हउ । पुतोह ढुकावऽ हे लोग बुढ़ारी में सेवा करावे लागी न कि मार खाय ला ।")    (सोरही॰27.12)
257    ढेना-ढेनी ("कहाँ से एक सेर फल देवो जीतन माय ! दिन खा हा तो रात ले झँखिहा । कमायवला हम बीमारे हियो । ढेना-ढेनी चार गो बुतरू हो, उनकर भी देख-रेख तोरे पर हो ।")    (सोरही॰19.24)
258    ढेरकामनी (= ढेरमनी) (नवल किशोर सपना देखलन - एगो बढ़िया बिल्डिंग होयत, ओमें बिजली चमचमायत, फोन लगत, किताबन के ढेर एन्ने-ओन्ने लोकत, अप्पन ढेरकामनी किताब छपत आउ ढेरकामनी लोग आयत-जायत ।)    (सोरही॰7.5, 6)
259    तंगी (वाह, गनेस बाबू ! वाह ! अपने भी खूब कहइत ही । बैल न कूदे, कूदे तंगी । कोई पाप भी करे आउ उल्टे पर के मत्थे कलंक भी थोप दे ।)    (सोरही॰53.20)
260    तखने (= तखनी; उस क्षण या समय) ("मगर अखने तो रुपया नय हो जीतन माय । आउ जे तों कहली घी के दाम, से तो नय मिलतो । काहे कि जखने तोर जीतन के बाबू बैंक से भैंस लेवे ले दरखास देलखुन हल, ऊ बखत सी॰ओ॰ साहेब के दसखत कइला पर हीं रुपया मिललो हल । तखने चार किलो घी पर तय होलो हल ।" - "अच्छा, ओकरा छोड़हो मलकिनी । मगर एक सो अस्सी रुपया, जे दूध वला होवो हे, ऊ तो देबहो ने ।")    (सोरही॰22.4)
261    तनखा (मंगरु - थोड़ा रुपइया के काम आ गेले ह मालिक ! / सेठ - देख, ई आदत ठीक न हे । एक बेर तनखा उठामऽ हँ तो तोरो लेल अइसन लगऽ हउ आउ हमरो हिसाब-किताब ठीक रहे हे । ना, पहले पइसा न देबउ, कइसनो काम रहउ ।)    (सोरही॰41.22)
262    तनिसुन (= तनी + सुन/ सन) (ललाइन मामा एगो लम्मा साँस लेलन त बुझायल, जइसे हवा में जहर घोर देवल गेल हे जे फैल गेल हे उनकर समूचे देह में । पीठ पर हाथ फेरलन त नस टभके लगल पकल घाव नियन । आझ भोरहरिये बड़की तनिसुन बात खातिर मार बइठल । कहाँ जमानी के काबू आउ कहाँ बुढ़ारी के टुटल देह । बड़की हलके धँसोरलक हल कि बस ललाइन मामा पीठ के बल जमीन पर आ गेलन - धड़ाम ।)    (सोरही॰26.17)
263    तमाकुल (= तमाकू; तम्बाकू) (लेकिन चहल-पहल में भी कलुवा धलुवा दूनो सवाँग के अप्पन लिटिए सिझावे के फिकिर रहल । तीन दिन से ऊ दूनो भूखल हल । मजूरी तो कइलक हल पर ऊहाँ खाली नस्ते भर मिलल हल । आझ तीन दिन काम कइला पर एक दिन के मजूरी पौलक हल । ओही मजूरी में से एक पत्ता खइनी, आधा कनवाँ तमाकुल आउ एक लबनी ताड़ी के साथे एक सेर आँटा कीनके ले आयल हल ।)    (सोरही॰44.8)
264    तरेगन (= तरिंगन; तारा) (भनभनाके ऊ पुछलन - "बदसाह के लइकी पर कउन अइसन आफत आ गेल हे कि तोरा इहाँ आवे पड़ल ?" सलीमा अकास के तरेगन गिनइत चुप रह गेल । ई देखके मानसी आउ गिल-पिल में पड़ गेलन, पुछलन - "बात का हे सलीमा ?")    (सोरही॰47.22)
265    तहिया (मंगरु सेठ झिंगर मल के हियाँ पहरेदारी करऽ हल आउ सेठ ओक्कर काम से बड़ खोस रहऽ हल । जहिया से मंगरु काम करे लगल याने चार बरिस से, तहिया से दू दरबान आउ तीन भंडारी काम से हटा देल गेल, लेकिन मंगरु के नौकरी पर आँच न आयल ।)    (सोरही॰41.8)
266    तितुलिया (~ घास) (अइसन भी बज्जर अकाल पड़ऽ हे । तिनका तिनका झुलस गेल । भगवान भी अइसन पथरा गेलन कि साल भर लोर भी न चुअएलन । जाने कउन बेइमान शैतान के पाप ला भगवान जी पूरा धरती के दहँज देलन । ई भी कउनो निसाफ के ढंग हे कि चार गो पापी हैवान के कारण कोटि कोटि आदमी के मूड़ी ममोड़ देल जाय । भर साल तितुलिया घास के रोटी चिबावइत गुजरल ।)    (सोरही॰58.14)
267    तिनडोरिया (= तिनडड़िया, तिनडिड़िया) (लगऽ हे अबहीं पूरा भोर भी न भेल हे । शुक्कर के कहीं कुछ पता न ! तिनडोरिया भी पुरवाही छितान पर न उतरल हे । अबहीं कोई मुरगा के बाँग भी न सुनाई देलक हे । न ही कउनो बकरी के मेमिअइनी, आउ न कोई जनावर के डकारे के अवाज आयल हे ।)    (सोरही॰57.11)
268    तिरियाना (= खींचना, घसीटना; पकड़कर ले जाना) ("अच्छा तो एती घड़ी हम जा हीवऽ । अगरचे कल्ह तक पता न लगतवऽ तब अन्धा-धुन्ध गोली चला देवबऽ ।" ई कहके नौरंग फुलवा के हाथ धरके तिरिअवले गेट से बाहर हो गेलन ।)    (सोरही॰14.1)
269    तिसरका (अगर अकाल पड़ल, त भात के का होयत । ई साल तो कोई न मानत । तिसरके साल से टारइत अइली हे । ई साल टारे के मतलब हे जात से कट्टिस ।)    (सोरही॰58.2)
270    तीरना (= खींचना) (रमिया एक-ब-एक दू बुलुका पानी फेंकलक । पेट खाली हल । तरास लगल तो पानी घँटोर गेल आउ फिनो बलबल फेंक देलक । अइसहीं तीन-चार दफे फेंकलक आउ ओकर नस तीर लेलक । कइसहूँ कुहुँर के बोलल - "अच्छा हो दीदी, इहईं मर जइयो तो ठीक हो । रड़खेपा के जिनगी से मरके भगवान हीं चल जाईं तो एकरा से बढ़के आउ का चाही ?")    (सोरही॰35.13)
271    तुरते ( कारा के रसगर बात से मोहरी के ओठ विहँसल मुदा तुरते मलीन हो गेल ।; "की बात हइ चाची ?" - "जो डीह पर से डगरिन बोलइले आव ।" - "अच्छा तुरते ।" एतना कहके कारा डीह दने सोझिया गेल ।; जानल-पहिचानल सोहर केबाड़ खोललक । कारा तुरते सब हाल बता देलक । कारा के ओजय बइठा के सोहरा भीतर दने गेल अउ माय के सब बात समद देलक ।; झोपड़ी में मोहरी कहँड़ रहल हल । चमइन के गेला पर कहँड़नय कम होल, मुदा तुरते कसके अवाज आल ।; कोरसिस कइला पर भी कोई रचना छपल न हल । हम तुरते नस्ता के साथे चाह ला औडर देली आउ पतरिका के नाम, ओकर लगाव, बिकरी, आदि के बढ़िया उत्तर पाके उनका बिहने भेला अपना घर आवे ला नेवता दे देली ।; रमिया ई कहिये रहल हल कि बढ़की दीदी भी दू बुलुका फेंकलन आउ उनकर बेमारी के धरमसाला बनल देह में रहइत परान तुरते निकल गेल ।)    (सोरही॰1.18; 3.21; 4.3, 23; 32.8; 35.17)
272    तुरी (= बार, दफा) (जहिया से ई नटिनियाँ आयल हे हमरा जीना मोहाल कर देलक हे । देखऽ न, आझ फिर मारकवऽ हे । हमरा तो अइसन बुझा हे अबकी ई हमरा जान लेके इहाँ से निकलतो । कै तुरी लड़का के कहली कि ई रकसिनियाँ के लेले जो लेकिन ऊहो हमर बात के ई कान से सुनके ऊ कान से निकाल देलक ।)    (सोरही॰28.21)
273    तेरुस (= परसाल के पहले वाला वर्ष) (मुदइया फिन ई बढ़नी उगल । बाप रे, न जानी ई साल का होयत । लगऽ हे फिन ई साल बरसा न होयत । फसल मारल जायत । अकाल पड़त । तेरुसे लगबहिए हप्ता भर एही पुरुवी छितान पर बढ़निया उगते रहल हल - एही ढंग से । घुरियो मारे ला बरसा न होयल ।)    (सोरही॰57.3)
274    थउँसना (फेन डाक्टर बने के कोरसिस कइलन तो दफ्तर के बड़ा बाबू एगो खुरचन निकाल देलन आउ दफ्तर के अफसर इनकर दरखास के दबवा देलन जे से नवल किशोर के मनोबल दब जाय आउ ऊ थउँस के बइठ जाय । बाकि नवल किशोर गजब जीवट के अदमी ।)    (सोरही॰8.9)
275    थोड़के (= थोड़िक्के; थोड़े) ("सब एक जइसन नञ होवऽ हथ । भला तों थोड़के दे देमें ।" बुढ़िया कारा पर उपहास कइलक । बुढ़िया के बात सुनते के साथ कारा के धिआन अपन पाँच रुपइया पर चल गेल । बिना सोचले समझले बोल देलक - "हाँ मामा, पाँच रुपइया तो नगद बोहनी कर देबउ ।")    (सोरही॰4.11)

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