सारथी॰ =
मगही पत्रिका "सारथी॰";
सम्पादक - श्री
मिथिलेश, मगही मंडप, वारिसलीगंज, जि॰ नवादा, मो॰ 08084412478; मार्च
2012, अंक-17; कुल 40 पृष्ठ ।
ठेठ
मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर
पृष्ठ संख्या, आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति
संख्या दर्शावऽ हइ ।
कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (‘मगही पत्रिका’ के अंक 1-21, ‘बंग मागधी’ के अंक 1-2, 'झारखंड मागधी', अंक 1 एवं सारथी, अंक-16 तक संकलित शब्द के
अतिरिक्त) - 533
ठेठ मगही शब्द (अ
से थ तक):
1 अँटाना (= आँट में लाना) (ऊ फेन बुदबुदाल, 'लुझनावली तो दू-चार दिन में मनइते-फुसलइते, डरइते-धमकइते आँट में आ गेल हल, जानय पड़िया के अँटावइ ले कौन-कौन बेलना बेले पड़त । लुझना तो सीधा-सपट्टा हमर एहसान से दबके मुँह गड़इले खोंखे के भी हिम्मत नञ् करऽ हल, मुदा ससुरा ई बीझना के आँख से तो आगे टपकइत रहऽ हे ।') (सारथी॰12:17:22:2.48)
2 अंगइठी (अइसइँ जब सब कष्टी के कष्ट सुन लेलका त कहलका, "अब हम जइबइ, जल पिलाव ।" / उनखा जल पिलावल गेल, अंगइठी लेलका फेन स्वभाविक रूप में आ गेला । लोग-बाग उनखा घेर लेलक । सवाल पर सवाल पूछऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:11:3.50)
3 अइठकी-बइठकी (नरेन भाय त ऊ यात्रा में एगो सवाल छोड़ि के दोसर दिन चलि देलन बकि हमर नीन हरि गेलन । चिंतन मनन चलऽ लगल । अइठकी-बइठकी भेल आउ निर्णय भेल कि 'सारथी' के फेनु प्रकाशित करावल जाय ।) (सारथी॰12:17:2:1.29)
4 अइसइँ (दे॰ अइसहीं, अइसीं) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । ... हिसाब-किताब में जित्ते गाय गिले ले तइयार । तिलका-घर के की, सब के सब अइसइँ लंगो-तंगो । परदेस के कमाय महाजने के हाथ या अइला पर जलसा-जुलूस में खतम । कुछ सेंगरे तब ने ।; अइसइँ जब सब कष्टी के कष्ट सुन लेलका त कहलका, "अब हम जइबइ, जल पिलाव ।" / उनखा जल पिलावल गेल, अंगइठी लेलका फेन स्वभाविक रूप में आ गेला । लोग-बाग उनखा घेर लेलक । सवाल पर सवाल पूछऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:8:1.51, 11:3.47)
5 अउने-पउने (दे॰ औने-पौने) (गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे । गाँव के जमीन पानी बिन तरासल हे । नहर, कुआँ, बोरिंग पर केकरो धियान नञ् । खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे ।) (सारथी॰12:17:9:1.28)
6 अगवे (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । ... अगवे गेहुँम के आँटा आउ डबल स्टीम सीतवा चाउर आध मन के करीब बीझना के माय ड्योढ़ी से लेके आल हल ।) (सारथी॰12:17:21:1.41)
7 अड्डी (~ मारके बइठ जाना) ('तूँ अपना के हारल काहे बूझऽ हा ? दुर्दिन कि हमर जिनगी में अड्डी मारके बइठ जइतन ? ई आल हे त जइबे करत । अन्हरिया रात आवऽ हे सबेरा लावइ ले, याद रखि ला ।' तनी तनइत सुनीता बोलल ।) (सारथी॰12:17:15:3.24)
8 अदंक (= आतंक, डर, भय) (तिलका शहर पहुँच गेल । ... पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल । तहिया हरदम माय के गोझनउठे धइले रहऽ हल । बाऊ साथे आल त परदेसे जाय लेल । ऊ धरमसाला के आगू पहुँचल । देखलक कि सैकड़ों आदमी ओरे-धारी लैन लगइले हे । पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे ।) (सारथी॰12:17:9:1.19)
9 अद्धा (= वि॰ आधा; सं॰ आधा भाग; ईंट आदि का आधा भाग; शराब की आधी बोतल; शराब का नपना) (कापो चा त घरो से बहराय में तेरह तुरी सोचो हथ । / "की बाबा, फटफटिया चढ़भो ... ?" / कापो चा बिन देखले माय-बहीन उकटे लगो हला । कभी-कभार त एका अद्धा फेंक भी दे हला - लगो चाहे नञ् ।) (सारथी॰12:17:13:1.14)
10 अधअदमी (जब जंगल में सड़क बने लगल त देह पर तनि रोगन चढ़ल । सब जन्नी-मरद, हियाँ तक कि छोट-छोट बाल-बुतरू से लेके अधअदमी तक के काम मिल गेल हल ।) (सारथी॰12:17:8:2.3-4)
11 अधखुलल (कुछ औरत अपन आँख मुनले जोर-जोर से ताली बजा-बजा मगन गावइत दिख रहलन हल । कुछ एकदम लुज-लुज बूढ़ी बुतरू-सन चकित खिड़की के बाहर के नजारा देखे में बिसित हलन । उनखर पिचकल गाल वला मुँह खुलल हल । किनखो मुँह के कोर से लार गिर रहल हल । कभी-कभार उनखर अधखुलल मुँह से गावल भजन के एकाध टुकड़ी हउले से फिसलि जा हल ।) (सारथी॰12:17:24:1.24)
12 अधछेछर (नरेन्दर करवट बदलि लेलक हे । अहल-बहल सोंचते-सोंचते फेनो नींद आ जाहे । अधछेछर नींद में फेनो सपना देखऽ लगऽ हे । ऊ पटना में अपन बड़का भइया के पास हे । खाय-पीये मिल जाहे बकि भाभी के ताना के साथ ।) (सारथी॰12:17:16:2.34)
13 अधमने (थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:24:3.32)
14 अनइ-जनइ (खा-पी के बाहरे बथान पर सुत गेल । अधरात के नीन टूटल । एन्ने-ओन्ने हिअइलक त देखऽ हे कि सामने वला घर के केबाड़ी खुलल हे । एकाध जन्नी के अनइ-जनइ भी देखलक । पहिले तो लगल कि बहरभूँइ के बात होत ।) (सारथी॰12:17:9:3.5)
15 अनबेरा (हमरा नींद कहाँ ! हम त टुक-टुक आवइत-जाइत लोग-बाग, गाड़ी देखइ के अनबेरा में उठल, बइठल, घूमइत समय बितावऽ लगलूँ । गाड़ी आवे, रुके, पसिंजर उतरे, चढ़े । लाल-लाल अंगा पेन्हले कुली के माथा पर भारी-भारी समान !) (सारथी॰12:17:26:2.13)
16 अनमनाल (गाड़ी रुकल । भीड़ में ऊ दुन्नूँ औरत-मरद अन्हार में बदलि गेल । बुजुर्ग के चेहरा पर स्याह परछाईं तैर रहल हल, ठिसुआल सन । ऊ सामने के खिड़की से अनमनाल अंदाज में लटफरेम के अन्हार दने घूरऽ लगलन ।) (सारथी॰12:17:25:2.33)
17 अन्हार-पन्हार (जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । ... बूढ़-पुरनियाँ के हाथ पर दू पइसा अइलो नञ् कि साँझे-बिहने चाह पीअइ ले हाजिर । बूढ़ आदमी चाह के सवाद के साथ-साथ बातचीत के माने-मतलब भी बूझे लगलन । अन्हार-पन्हार में चलइ वला खिस्सा-गलबात पर उनकर कान खड़क जा हल ।) (सारथी॰12:17:9:1.1)
18 अन्होर (दे॰ 'अनोर') (तड़ाक ... । बीझना ओकर गाल पर एक चमेटा जड़ देलक हल । मगर ई सब बात के तो लमहर पाँख होवऽ हे, उड़ते-फिरते सउँसे गाम अन्होर । केकरा-केकरा चमेटा मारले चले बीझना ?) (सारथी॰12:17:21:3.23)
19 अपसोवारथी ("अइसे काहे बोलइत ह जी ! अपसोवारथी वाला बात ! ... लोग कहइत हलथी कि ढेर कम्बल आयल हइ बाँटे खातिर ... टरके-टरक आयल हइ ।" बेदामी कहलक ।) (सारथी॰12:17:5:3.29)
20 अबधुर (= अबधर; अब तक, अभी) (अरे बेदामी ! का करबऽ । देख न केतना लूल-लांगड़ आउ कोढ़ी-काबर निराश लउट गेलन । दिन भर मांगतन, ऊ भी छूटल । अब त कम्बल मिलतो न । कम्बल त गूलर के फूल हो गेल । बाकिर सोचऽ ... का जनी अबधुर राजा आ जथी आउ कम्बल बाँटे लगतथी त हमनी के बड़का मोटरी हो जायत ।) (सारथी॰12:17:5:3.5)
21 अरखना-परखना (कभी-कभार उनखर अधखुलल मुँह से गावल भजन के एकाध टुकड़ी हउले से फिसलि जा हल । ऊ जउन कदर वातावरण में डूबके अरख-परख रहलन हल, ओकरा देखइत ई नञ् लगि रहल हल कि ऊ गुरु-स्तुति में मन लगा रहलन हे ।) (सारथी॰12:17:24:1.27)
22 अरूआ (~ लड़की) (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?") (सारथी॰12:17:19:1.15)
23 अलंग ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।) (सारथी॰12:17:13:3.10)
24 अलगइले (= अलगाना+'ले' प्रत्यय; उठइले; उठाए हुए) (आझ बीझना पर ईहे 32 नम्बर पहाड़ बनके गिरल हे । बाझो सिंह के कइसे पता चलल कि पड़िया 32 नम्बर के पेन्हऽ हइ ? एकर माने तेतरा के बात सोलह आना सच हे । ऊ कह रहल हल, 'बाझो सिंह अइसहीं नञ् तोर बियाह में गोड़ अलगइले हलउ । ऊ तोर मेहरारू के कुमारे में नाप-जोख ... ।'; बीझना के माय ई सब जानऽ हल कि नञ् पता नञ्, मुदा महीना दिन पुरते-पुरते पड़िया नयकी कनियाय से नयकी कमिनियाँ बन गेल । बाझो सिंह भी एहे दिन देखे ल ने ओकर बियाह में गोड़ अलगइले हल ।) (सारथी॰12:17:21:3.14, 22:1.22)
25 अलता (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । चौड़ा पाड़ वाला कथई रंग के दू गो साड़ी, सिलल-सिलावल साया-बिलौज, तीन भर के पायल, रंगन-रंगन के चार डिब्बा चूड़ी, अलता, अइना, कंघी, पाउडर दौरा नियर साज के पेठा देलन हल ।; अभी पड़िया के गोड़ के अलता मेटाल भी नञ् हल कि बीझना बिदके लगल । जनु ओकर कान में के कौन मंतर फूँक देलक हे कि पड़िया से भर मुँह बोले नञ् ।) (सारथी॰12:17:21:1.37, 2.2)
26 अहियात (घाट से थोड़े हटि के पतित पावनी सरयू नदी कलकल प्रवाहित हो रहलन हल । हम त जादे से जादे सकरी, टाटी नदी देखली हल, जे बरसात में त अहियात हो जाहे आउ बकिये सालो भर सुक्खल के सुक्खल । फाँकऽ बालू !) (सारथी॰12:17:26:3.43)
27 अहो (= उम्र या दरजा में कम लोगों को संबोधित करने में प्रयुक्त शब्द) (ऊ रुकि के पुछलन, 'कहाँ घर हउ नुनु ?' - 'वारिसलीगंज', हम मुस्कुरायत कहली । - 'तूँ डॉ॰ प्रकाश के बेटा हीं हो ?' ऊ पुछलन, 'आउ कोय अइलउ हे ?' - 'मइयो अइलइ हे ।' बड़े सरकार किशोर शरण जी दने निहारि के कहलन, 'अहो किशोरी, बुतरुआ पर ध्यान रखिहीं', आउ बाबा आगू बढ़ि गेला । हम त हैब-गैब में हली उनखर रूप-रंग देखि के ... ममता से भरल ! दया के प्रतिभूति !) (सारथी॰12:17:27:1.52)
28 आँख-समांग (~ बिला जाना) (बीझना ! हम्मर भतार ! ... मोछमुतवा के जनु के सहका देलकइ कि बियाह के बाद से नतीजा कर रहल हे । आउ बाझो सिंह ! ओकर आँख समांग बिला जाय निपुतरा के । आझ हमरा कोय करम के नञ् छोड़त हल । एगो नफरत के शिकार बनइले हल त एगो वासना के । ई मरद जात, जनानी के देह के गिंजन करइ लेल ही जलमल हे कीऽ ?) (सारथी॰12:17:23:2.47)
29 आँट (~ में नञ् आना) (बाझो सिंह एकसरे दलान पर बइठके बूँट के खस्सी जइसन चखना पर अंग्रेजी दारू चढ़ा रहल हल । दू-चार पैग के बाद आँख गोल-गोल हो गेल जेकरा में खून अब टपके कि तब । ... दू महीना से जादे हो गेल । पड़िया अभी तक आँट में नञ् आल । ऊ थूक निगलइत बुदबुदाय लगल, 'पड़िया ! आझ तोर जुआनी के रस भी दारुए में पिलाके पी जइबउ ।'; ऊ फेन बुदबुदाल, 'लुझनावली तो दू-चार दिन में मनइते-फुसलइते, डरइते-धमकइते आँट में आ गेल हल, जानय पड़िया के अँटावइ ले कौन-कौन बेलना बेले पड़त । लुझना तो सीधा-सपट्टा हमर एहसान से दबके मुँह गड़इले खोंखे के भी हिम्मत नञ् करऽ हल, मुदा ससुरा ई बीझना के आँख से तो आगे टपकइत रहऽ हे ।') (सारथी॰12:17:22:2.41, 47)
30 आँधी-बतास ("देखऽ बेदामी ... भोट के बेरा रहतइ हल न, त रजवा जरूर अतउ हल । आँधी-बतास में उड़ के भी, बाढ़ में दहा के भी ... कइसहूँ पहुँचतउ हल । आके फुसलतउ हल, घिघिअतउ हल बाकिर अभी ?" चल्हवा बड़बड़ाइत हल आउ ओकर साँस धौकनी नियन चले लगल हल ।) (सारथी॰12:17:6:2.17)
31 आगरों ('एक दिन तोहूँ चल जइहऽ तिलक ।' भउजी हँसइत कहलकी ।/ भउजी के बात याद अइते ओकरा लगे लगल कि सच्चोक में भउजी आगरों जानऽ हली । पहिले बाऊ परदेस कमाय ले जा हलन । भइया, हम, दीदी आउ मइया घर पर ।; हिसाब जोड़े-नारे में मइया एकदमे भोंजल हे । ऊकी, तहिया फूफा के हाथ बाऊ रुपइया भेजइलका हल । महाजन आल आउ तीन-तेरह करके कुल्ले हथिया लेलक । महाजनो के जइसे आगरों हो जइतो । केकरा हीं पइसा अइलो, केकरा हीं नञ् अइलो या केकरा कहिया अइतो, जइसे तार लगल हे ।) (सारथी॰12:17:8:1.3, 40)
32 आन्हर-कान (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?") (सारथी॰12:17:19:1.16)
33 आर (= बड़ी आरी) ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।) (सारथी॰12:17:13:3.10)
34 आल-औलाद (मौगी कुरोध के बोललइ, "दुर्रर्र ने जाय छुछुन्नर ! ... हम बे नगन होल जाही । ई पाछूहिया को की देखऽ हीं ?" सोमरा कहलकइ, "अरे देखऽ हिअइ - हमर सातो पहुरा कहाँ हइ ?" मौगी कहलकइ, "दुर्र हो ! ... लाजो नै लगऽ हइ मर्दवा के ! ... चलें ने घर में खूब दीया बत्ती बारके देखइत रहिहें । सात पहुरा कि, ई अइसन समुंदर हइ कि एकरा में तों, तोर आल-औलाद सब समा जइतउ, पता नै चलतउ ।" कनियाय घर अइली - सलियाने बच्चा ।; मागु से कहलकइ - तों ठीक कहलहीं हल ! एकरा में तोर सातो पहुरा कि, तोर आल-औलाद सब समा जइतउ ।) (सारथी॰12:17:18:3.11, 19:3.36)
35 आहि-उपाय (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।) (सारथी॰12:17:27:3.38)
36 इन्द्री (= इन्द्रिय) (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल । भगत के छोम्मा इन्द्री जाग गेल ।) (सारथी॰12:17:11:2.47)
37 इसपिरेस (= एक्सप्रेस) (जमात एगो खलिया बेंच हथियाके बइठ गेल । पता चलल - साढ़े ग्यारह बजे रात के एक नम्बर लटफरेम पर गाड़ी आवत ... इसपिरेस ! एकर पहिले हम इसपिरेस पर नञ् चढ़लूँ हल ।) (सारथी॰12:17:26:1.47, 48)
38 उकात (= औकात) (बाझो सिंह के अदमी आवे तब ... दरद के दू-चार गोली या कभी-कभी सुइया भोंकवा दे । पलस्तरा करावे के ने ओकर उकात, ने बाझो सिंह के कोय मतलब । रहल हरवाहा के बात, तो लुझन के छोटका बेटा बीझना छौड़गरे हल, जे अपन बाप के झाड़ा-पखाना करवाके मालिक के हुकुम बजावे ले चलिए जा हल ।; सपना भी उकाते के देखके उड़ान भरऽ हे, एकदम नापल-जोखल । घोड़ा पर सवार राजकुमार महल के अँटारी से झाँकइत राकुमारी के गोदी उठाके फुर्रऽऽऽ जइसन सपना भला बीझना के आँख पर कहाँ से बइठत, मुदा ओकर सपना भी कम अजगुत नञ् रहऽ हल ।; नोट के धाह तो बड़का-बड़का के चुंगार दे हे, ई कंगलवा बीझना के की उकात । दू-चार हजार खरच करवइ कि पड़िया हम्मर गोदी में ।) (सारथी॰12:17:20:1.44, 3.37, 22:3.6)
39 उजलत (= हड़बड़ी, जल्दीबाजी; देर होने की वजह से झुंझलाहट) (हम किशोरी शरण जी के साथ जा रहलूँ हल । ओतबड़ पंगत में मंत्रोच्चार चलि रहल हल । व्यवस्था के तारीफ ... कोय हर-हर खर-खर नञ् । कोय उजलत नञ्, कोय कमी नञ् । छप्पन प्रकार ! अपूर्व स्वाद ! आत्मा तृप्त ।) (सारथी॰12:17:27:2.20)
40 उजास (पड़िया अन्हार होवे के अनेसा में गुदगुदी महसूस कर रहल हल, 'आझ तो पुछिए लेबइ कि काहे तूँ हमरा से फड़कल रहऽ ह ।' मन में ढेर बात सोरिअइले मगर बीच-बीचे से ओझरा जाय । ढिबरी के तरेंगनी उजास में भीतरी मन के पियास बढ़ल जा रहल हल ।; ऊ बच्ची के बुट्टी भर के मुट्ठी अपन हाथ में थामि रखलक हल आउ थोड़े झुकइत बच्ची के चेहरा से अपन मुँह सटा के हौले-हौले, आगू-पीछू झुकि-झुकि के बुजुर्ग दने इशारा करि के ओकर जुबान से बोलावे के जतन करि रहलन हल - बोल बुनियाँ ... नान्ना ! बोल ... नान्ना ! बुजुर्ग के चेहरा ममता के उजास फेंकइत खुशी से झलमल-झलमल करि रहल हल ।) (सारथी॰12:17:21:3.38, 25:1.27)
41 उथायल-बथायल (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?") (सारथी॰12:17:19:1.16)
42 उनइस-बीस (बाझो सिंह के देहरी से जुड़ल रहइ लेल भी ई जरूरी हे । आखिर घटल-बढ़ल उनइस-बीस वहइँ से ने पूरा होवऽ हे । बीझना के काँधा पर भी पालो रखा गेल हल । समय से पहिले जुआन हो गेल । दिन भर के हरवाही बैल-धूर के सानी-पानी, मालिक के दियल डेढ़ कट्ठा घेरवारी सब ओकरे जिम्मे ।) (सारथी॰12:17:20:3.23)
43 उबना-डूबना (ताली के गड़गड़ाहट में कापो बाबू के कुछ नञ् बुझायल । असमंजस में उबे-डूबे रहला हल कि तिरबेनी सिंह टोकलका, "की हो भयवा, कुछ बुझलहीं ?" / "नञ् यार, की बात हइ ?" / "इहाँ एन.टी.पी.सी. खुलतइ । कोयला से बिजली बनतइ ।") (सारथी॰12:17:13:2.2)
44 उमकना ("नञ् बेटा, तोरा नञ् पता हउ कि बीमार बाप आउ माय ले, सिरहाना में बइठल बेटा कतना बेसकीमती होवो हइ । ओइसहीं आरी पर किसान के देखके खेत झुमऽ लगो हइ, ओकर मन के उद्गार उमक जा हइ फसल के रूप में । इहे हमर संस्कार हइ, बेटा ।"; छप्पर से टाँगल लालटेन निकाल के पड़िया के आगू कइलक त लाज बांध तोड़के उमके लगल । सिर से नोंह तक रेशमी रूइया के फाहा बनल पड़िया बीझना के छुअन से समटाल जा रहल हल ।) (सारथी॰12:17:14:1.39, 21:2.21)
45 उरमना ('खाय के मन नञ् हउ, सुतऽ दे ।' - 'दुइयो कौर खा ल । खाली पेट फेन गैस्टिकवा उरम्हि जइतो ... लेनी के देनी ... पइसा ने कौड़ी ।') (सारथी॰12:17:16:1.43)
46 उसराना (= उसरना; काम आगे बढ़ना, प्रगति दीख पड़ना) (बाझो सिंह के लगल कि अबरी निशाना ठीक बइठल हे । ऊ बोललन - 'एक आदमी से केतना काम उसरइतइ, दुन्नु सास पुतोह के कल भेज दिहें । आउ हाँ ! इमलिया तर वला खेत के सभे मरहीना काटके कल साँझ तक ले आना हउ । ओकरा में हर चढ़ावे के हइ ।') (सारथी॰12:17:23:1.28)
47 उस्सठ (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । गारी-गलौज तो मानऽ ओकर बपौती हे ।) (सारथी॰12:17:8:1.42)
48 ऊकी (= उका, उकी) (हिसाब जोड़े-नारे में मइया एकदमे भोंजल हे । ऊकी, तहिया फूफा के हाथ बाऊ रुपइया भेजइलका हल । महाजन आल आउ तीन-तेरह करके कुल्ले हथिया लेलक ।) (सारथी॰12:17:8:1.37)
49 ऊराते (ऊपर नीचे सोचते पढ़ते ऊराते उठल, अप्पन झोरा में थोड़े सा सामान समेट के रखलक आर गाँव छोड़के चल देलक कइएक उदेस लेके ।) (सारथी॰12:17:19:2.38)
50 एकलगायत (आसिन के महीना जब एकलगायत त्योहार मनावे ल परदेस से कमा-कमा के सब लौट रहल हल, पड़िया घर-दुआर, देवता-देवी छोड़के माउग-मरद, बाले-बच्चे अइँटाखोल जाय ले तैयार हे । एक जुटी पर दस हजार, ओकरा में पाँच हजार से बेसी दादनी, जे पहिलहीं अँचरा के खुँटी से ससर गेल हल । भट्ठा पर चढ़े घड़ी पाँच हजार से कमे हाथ लगल ।) (सारथी॰12:17:20:1.12)
51 एकलगायते (बाझो सिंह एकसरे दलान पर बइठके बूँट के खस्सी जइसन चखना पर अंग्रेजी दारू चढ़ा रहल हल । दू-चार पैग के बाद आँख गोल-गोल हो गेल जेकरा में खून अब टपके कि तब । ठोर पर जीभ एकलगायते नाच रहल हल ।) (सारथी॰12:17:22:2.39)
52 एकलगौरी (सावन के महीना । एकलगौरी बारिस से नदी-नाला उमता गेल । गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब !; हम भी जुआनी में अइसन छलांग लगावऽ हली बकि एक्के बेर । फिन रुकके दोहरा सकऽ हली मुदा ई छोकरा त एकलगौरी करवटिया छलांग लगइते रहल । देखताहर सब भौंचक हलन ।) (सारथी॰12:17:10:1.14, 30:2.17)
53 एकलौठा (साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला । .. तय भेल कि पाँच अदमी आगू टरेन से जायत रसद-बुतात लेके आउ पाँच पांडव जानवर साथ गंगा हेलता । चानो का कहलका, 'मंगलामुखी सदा सुखी । कल हाँका हो जाय के चाही ।' जोड़ल गेल - पचीस भैंस, पाँच अदमी । सब के सब जुआन, एकलौठा, कसरती, पहलवान ! चेथरूआ सबसे छोट भले हल, मुदा हल सहसगर, लमहर, छरहर, पट्ठा छोंड़ा ।) (सारथी॰12:17:10:2.3)
54 एका (= एकाक; एकाध) (कापो चा त घरो से बहराय में तेरह तुरी सोचो हथ । / "की बाबा, फटफटिया चढ़भो ... ?" / कापो चा बिन देखले माय-बहीन उकटे लगो हला । कभी-कभार त एका अद्धा फेंक भी दे हला - लगो चाहे नञ् ।) (सारथी॰12:17:13:1.14)
55 एकागो (सरकार के नाक में दम करे आउ कोय अहम् फैसला नञ् लेवे देवे में हम्मर भूमिका अहम् । मोका मिलत तो बाप-दादा के नाम पर एकागो बंदरगाह, हवाई अड्डा, स्टेडियम या कौलेज खोलवावे के काम सुनिश्चित समझऽ ।) (सारथी॰12:17:36:2.44)
56 एज्जइ (= एज्जे; यहीं) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे । नीचू में खेत आउ तनि ऊपर में चउड़गर जगह । तेकर ऊपर पहाड़ के फुलंगी । बाल-बुतरू के खेलइत देखऽ तो लगतो कि ओकरा पहाड़ अपन गोदी में खेला रहल हे । सबसे पहिले एज्जइ रउद आवऽ हे ।) (सारथी॰12:17:7:1.23)
57 एतबार (दे॰ एतवार) (~ के ~ = प्रत्येक रविवार को) (बाऊ जी परदेस आउ बस बाल-बच्चे घर में । ... गरमी के दिन में बीड़ी के पत्ता तोड़ऽ हे । अइसे सब मिलके लकड़ी चूनऽ हल । पोरगर-पोरठगर लकड़ी नञ् काट पावऽ हल । ई लेल झाड़ियो-झूरी चून ले हल । ओकरे में से चून-बिछ के कहियो मइया हाट पहुँचा दे हल । एतबार के एतबार हाट लगऽ हे ।) (सारथी॰12:17:8:1.24, 25)
58 एत्तेक (बनछिल्ली में कुछ खेत हे । धान उपजऽ हे । धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।) (सारथी॰12:17:8:1.10)
59 ओइसनकी (ऊ जउन कदर वातावरण में डूबके अरख-परख रहलन हल, ओकरा देखइत ई नञ् लगि रहल हल कि ऊ गुरु-स्तुति में मन लगा रहलन हे । ओइसनकी बस बरबस समवेत गावल जाय वला भजननुमा गुरु-स्तुति में एकाध टप्पा अलबलायत दोहरा देवे के कोशिश भर करि रहलन हल ।) (सारथी॰12:17:24:1.30)
60 ओतबड़ (दे॰ 'एतबड़' भी) (= उतना बड़ा) (हम किशोरी शरण जी के साथ जा रहलूँ हल । ओतबड़ पंगत में मंत्रोच्चार चलि रहल हल । व्यवस्था के तारीफ ... कोय हर-हर खर-खर नञ् । कोय उजलत नञ्, कोय कमी नञ् । छप्पन प्रकार ! अपूर्व स्वाद ! आत्मा तृप्त ।) (सारथी॰12:17:27:2.18)
61 ओतुने (= ओत्ते; वहीं पर) (हमर सर्वप्रिय जगह सरयू के किनारे हनुमान मंदिर हल । ओतुने कुइयाँ पर बइठ गेलूँ ।) (सारथी॰12:17:28:2.22)
62 ओरे-धारी (एतबार के एतबार हाट लगऽ हे । गाँव से तनिक दूर पर हाट हे । एकाध बेरा तिलको हाट गेल हे । मारे जमघट । मुरगा-मुरगा के लड़ाय । समान बेचइ वला ओरे-धारी लैन लगइले । कपड़ा-लत्ता से लेके खाय-पीअइ के सब समान ।; अब तो सड़क पकिया हो गेल हल । गाड़ी-छागड़ चले लगल । जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । मारे ओरे-धारी खटिया बिछल रहऽ हे ।; तिलका शहर पहुँच गेल । ... पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल । तहिया हरदम माय के गोझनउठे धइले रहऽ हल । बाऊ साथे आल त परदेसे जाय लेल । ऊ धरमसाला के आगू पहुँचल । देखलक कि सैकड़ों आदमी ओरे-धारी लैन लगइले हे । पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे ।) (सारथी॰12:17:8:1.28, 3.48, 9:1.15-16)
63 ओहयँ (दे॰ ओहईं) (दीदी के पहुना परदेस कमाय गेलन आउ एक दिन मालूम होल कि कोय दोसर जन्नी साथ ओहयँ रह गेलन । दीदी केतना कानऽ हल । ओहे बच्छर माय खटिया पर गिरल से उठिये गेल ।) (सारथी॰12:17:8:3.21)
64 औरदा (संझकी एन्ने पूरब से टोहले घरे-घर पैंसते दक्खिन टोला में बुझन के खटिया तर पसर गेल । बीझना भी सवेरगरे खर-खरिहानी लगाके बाप भिजुन पहुँच गेल हल । टोला-टाटी के हीत-चीत भी जुमल । केकर हाथ के पानी पैठ होत । बुझन के साँझ चढ़ि गेल हल । माने एकरे औरदा पूरा ।) (सारथी॰12:17:20:2.47)
65 औसान (= आसान) ('खैर, ऊ नीसा में रहतन त हम्मर काम औसान भी हो सकऽ हे ।' ऊ दौड़के आल आउ आगू में खाड़ होके बोलल, 'एतना देरी काहे कर देहो ?'; पड़िया के देखके लार टपक गेल होत आउ मांग में सेनुर नञ् देखके हमरा साथ हिसाब-किताब बइठा देलक । नजर तर रखइ ले कमिनियाँ बनावे से औसान की हो सकऽ हे भला ? मौका मिलते हाथ साफ, मगर बाझो सिंह ! हमहूँ लुझन के औलाद ... कहते-कहते लगल कि बीझना के मुँह पर कोय हाथ रख देलक हे ।) (सारथी॰12:17:21:3.52, 22:2.31)
66 कखनउँ (= कभी) (तिलका बाऊ साथ रपेटले जा रहल हल, एकदम भाउठे-भाउठे । ई लेल कखनउँ सोता तो कखनउँ झार-झंखार आउ कखनउँ पहाड़ियो पर चढ़े पड़ऽ हल ।) (सारथी॰12:17:7:2.45, 46)
67 कचेड़ (जानवर त खेती के जान हे । जान बचावइ ले जान के बाजी लगाना त लाजिमे हल । / गंगा हेलवइया में पतिपदा सबसे सेसर हला । ऊ जब कमर कसलका त चानो का, रमेसर, बलेसर आउ चेथरूआ भी सुरफराल । सब में चेथरूआ सबसे कचेड़ हल । साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला ।) (सारथी॰12:17:10:1.43)
68 कछौटा (तोर माय बच्चे में मर गेलउ । ... हम मन कड़र करि लेलों । - रे मन ! एक बेरी जेकर आगू लंगौटी खोललों, ऊ बेचारी चलि देलक भगवान घर । अब फेर दोसरा आगे लंगौटी खोलना मर्द के काम नै हिकइ । बेटा के कछौटा के पक्का होवे के चाही । दोसरा साथ जइबइ तब मरलो पर ओकर आत्मा कहँड़इत रहतइ ।) (सारथी॰12:17:17:2.44)
69 कछौटी (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।") (सारथी॰12:17:18:1.7)
70 कज्जउ-कज्जउ (दे॰ कज्जो-कज्जो) (अब तो सड़क पकिया हो गेल हल । गाड़ी-छागड़ चले लगल । जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । मारे ओरे-धारी खटिया बिछल रहऽ हे ।) (सारथी॰12:17:8:3.47)
71 कटघुरनी (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।") (सारथी॰12:17:18:1.6)
72 कठकुक्कुर (चार दिन के बाद भुक्खल-पियासल गोपाल के माय के बलड-परेसर लो हो गेल आउ डॉक्टर आवे से पहिलहीं ऊ बेटा के ठमा चल गेली । गाम में हाहाकार मच गेल । सभे के लगल ... अब कापो चा भी ... बाकि नञ् ... कापो चा के करेजा कठकुक्कुर हो गेल हल । आँख में एक्को बून लोर नञ् ... खाली भासो के कहलखिन - "अंतिम बार चल के देखा दे ।") (सारथी॰12:17:14:3.28)
73 कठघोड़ा (पड़ोस के मोदखाना से आधा किलो मोटका चावल आउ पाव भर आलू आल । गोलहत उतरइत-उतरइत बुतरू-बानर पाँच तुरी भंसा हुलकि आल । हर बार - 'सीझऽ दे, खइहें' के भरोसा पर दुइयो भाय नाक में सीझइत भात के भाप भरि लउटि आवे आउ कठघोड़ा में बिसरि के बिसित हो जाय ।) (सारथी॰12:17:16:1.30)
74 कतबड़ (= केतबड़; कितना बड़ा) (अचक्के चेथरूआ भिजुन एगो सोंस उपराल । ऊ हड़बड़ा के कहलक, 'बाप रे बाप ! कतबड़ गो सोंस हइ कका ! सुनऽ हिअइ कि एकरा फूँकला से अदमी के देह फूलि जा हइ ... कहइँ ... ।' बलेसर हँसइत कहलक, 'सोंस डेरगूह जानवर होवऽ हइ । ऊ त अदमी के देखइते मातर भागऽ हइ ।') (सारथी॰12:17:10:3.25)
75 कथक्कड़ी (= कथा-वार्ता कहने की क्रिया या तरीका) (उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।) (सारथी॰12:17:14:2.28)
76 कद-काठी-सोलिट (~ देह वाली लड़की) (लड़की देखो लगला । मिले तो जादातर काना ले कानी । ई तो तइये हलइ मुदा ई बढ़िया कद-काठी-सोलिट देह वाली चाहऽ हलखिन से नै मिल रहल हल । आखिर उहे मिल गेल । तनी बेटवे नियर पतलडेर । बान्हि के कि कहना ? ... घोड़ कटार बान्हि । कार कसौटी पाथल सन । ओकरा में हीरा के चमक जइसे भीतर से फूल रहल हे ।) (सारथी॰12:17:18:2.12)
77 कनकनाना (= ?) (हमर गाड़ी के समय हो गेल । ध्वनि विस्तारक यंत्र से प्रचार होवऽ लगल - वाराणसी अयोध्या जाने वाले यात्री ध्यान दें ... ! बिड़नी के खोंता नियन यात्री कनकना गेलन । सामान समटाय लगल ... छूटे नञ् ... बढ़ियाँ से ... एक साथ ... आगू चलऽ ... आगू चलऽ ... जेनरल बोगी, ... भीड़ होतो ... !) (सारथी॰12:17:26:2.23)
78 कपड़िया (~ दोकान) (ऊ निर्णय लेहे - खेती में जान न देब । ऊ धनबाद आ गेल हे । केशवचन्द साहू के कपड़िया दोकान में नौकरी करऽ लगल हे ।) (सारथी॰12:17:16:2.42)
79 कबड्डी (ले ~ भागना) (ऊ ले कबड्डी टेहुना तक साड़ी उठाके भागे लगल । बाझो सिंह ई हरकत ले तैयार नञ् हल । ओकरा नञ् जाने कौन मशीन के बोल्ट ढील हो गेल हल कि आँख तर अंधार लगे लगल ।) (सारथी॰12:17:23:2.33)
80 कबाड़ना (= उखाड़ना) ("अगे मइया ! जोर से बुनी-पानी आवइत हइ बिलटुआ के बाबू ! उठऽ-उठऽ, अब इहाँ से डेरा खंभा कबाड़ऽ ।" अकबकाएल बोललक मेहरारू ।) (सारथी॰12:17:5:1.44)
81 कब्जियाना (गाड़ी के हड़हड़ी में खोवल कखने आँख लगि गेल कुछ पता न चलल । ऊ त हमरा ठीक नो बजे माय जगइलन, "शंभूऽऽ ! उठ जा बेटा ... ! अयोध्या आ गेलो नुनु ।" हम हड़बड़ा के नीचे आ गेलूँ आउ सामान कब्जिया लेलूँ ।) (सारथी॰12:17:26:3.2)
82 कमिनियाँ (बीझना के माय ई सब जानऽ हल कि नञ् पता नञ्, मुदा महीना दिन पुरते-पुरते पड़िया नयकी कनियाय से नयकी कमिनियाँ बन गेल । बाझो सिंह भी एहे दिन देखे ल ने ओकर बियाह में गोड़ अलगइले हल ।; पड़िया के देखके लार टपक गेल होत आउ मांग में सेनुर नञ् देखके हमरा साथ हिसाब-किताब बइठा देलक । नजर तर रखइ ले कमिनियाँ बनावे से औसान की हो सकऽ हे भला ? मौका मिलते हाथ साफ, मगर बाझो सिंह ! हमहूँ लुझन के औलाद ... कहते-कहते लगल कि बीझना के मुँह पर कोय हाथ रख देलक हे ।) (सारथी॰12:17:22:1.37, 2.30)
83 करका (~ धुइयाँ; ~ बादर; ~ नाग) (जइसहीं कोय भोंपू के अवाज या गाड़ी के सीटी कापो चा के कान के चदरा से टकरा हे, मन बउख जाहे कापो चा के । घर के बगले में एन.टी.पी.सी. के घेरबारी हे । घेरबारी में घेराल मोटगर मोटगर उँचगर चिमनी से करका धुइयाँ निकलके कापो चा के दिलोदिमाग पर छा जाहे ।; चिमनी से निकसइत करका बादर घेर लेलक कापो चा के - करका नाग नियन ।) (सारथी॰12:17:13:1.7, 36, 37)
84 करगे (शनिचर कहलकइ - "जो ने, करगे में मनोज सिंह वाला मरचइया फरि को लुथड़ी भेल हइ । अरिया तर छोड़के एक मुट्ठा घीचि लिहें । असली सीटिया मिरचाय हइ । तनी गो खइभीं, कान झनझना देतउ ।") (सारथी॰12:17:17:3.8)
85 कलौ (= कलउ, कलउआ; कलेवा) (सब के कलौ हो ... पक्का चार दिन के खोराकी । सब के जमा करि के बोरिया में बान्ह देलियो हे । एकरा तूँ अपन मुरेठा पर रख लिहऽ । तोरा छोड़के कोय एकरा पार नञ् करि सकऽ हे ।; ओने सब हेलवार होश में आल त भूख से अँतड़ी कुलबुलाय लगल । चेथरूआ चिल्लाल - 'अजी पतित का ! कन्ने गेलहो जी ?'/ 'की हलउ रेऽऽ ?' पतित दा लपकल अइला । उनखर मूड़ी पर मोटरी नञ् देखिके चेथरूआ पुछलक, 'कलौ वला मोटरिया कका ?' / 'जाऽऽ !' अकचकायल पतित दा के मुँह से निकलल ।; 'ओकर फिकिर छोड़ऽ । तोहनी सबके खाय, सुते आउ कलौ के इन्तजाम हम आजे रात करि देबो । पहिले चलऽ तो, तब ने हमर करिश्मा देखबऽ ।') (सारथी॰12:17:10:3.1, 11:1.20, 2.15)
86 कष्टी (= कष्ट; कष्ट पाने वाला, दुखी) (कष्टी के लमहर कतार लगि गेल । केकरो बीमारी हे, त केकरो घर नञ् बनि रहल हे । केकरो नौकरी नञ् लगि रहल हे, त केकरो बदली नञ् हो रहल हे ।; अइसइँ जब सब कष्टी के कष्ट सुन लेलका त कहलका, "अब हम जइबइ, जल पिलाव ।" / उनखा जल पिलावल गेल, अंगइठी लेलका फेन स्वभाविक रूप में आ गेला । लोग-बाग उनखा घेर लेलक । सवाल पर सवाल पूछऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:11:3.31, 47)
87 कहतो-महतो (लैन होटल ! बूढ़-पुरनियाँ के चर्चा के विषय । सब के एक्के बात, 'अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।') (सारथी॰12:17:9:1.7)
88 काच-कीच (रमेसर बोलल, 'एक त करैला, दोसर नीम पर चढ़ल । भूख के मारे खड़ा त होल नञ् जाहे आउ ऊपर से भैंस हाँकले काच-कीच में केक्कर समांग से चलबइ ?') (सारथी॰12:17:11:1.45)
89 काना (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! कल्ह गेलिअइ पोखरिया में नहाय ले । झिगुलिया नहा को पीड़िया पर पुतली बदलब करऽ हलइ, अनचोक्के हमर नजरिया ओने चल गेलइ । छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! एने की हुलकइ हें, लहँगा ले लुलके हें । देबउ अँखिये में टकुआ भोंकि । हमरा नजर लगावइ हें, जुअन पिट्टा ! तोरा जुआनी में आग धर दिअउ ! तोर सरधा में गरदा पोरि दिअउ । देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।") (सारथी॰12:17:17:3.43)
90 किछार (सावन के महीना । एकलगौरी बारिस से नदी-नाला उमता गेल । गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय !) (सारथी॰12:17:10:1.16, 17)
91 कुच्चा (इंतजार के घड़ी बीतल । सुनीता पहिले एक्के थरिया में गोलहत काढ़ि के बाँस के बीयन से सेरावऽ लगल । कुच्चा के कुद्दी दुइयो के हाथ में दे देलक ।) (सारथी॰12:17:16:1.34)
92 कुमर ठिल्ला (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! कल्ह गेलिअइ पोखरिया में नहाय ले । झिगुलिया नहा को पीड़िया पर पुतली बदलब करऽ हलइ, अनचोक्के हमर नजरिया ओने चल गेलइ । छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! एने की हुलकइ हें, लहँगा ले लुलके हें । देबउ अँखिये में टकुआ भोंकि । हमरा नजर लगावइ हें, जुअन पिट्टा ! तोरा जुआनी में आग धर दिअउ ! तोर सरधा में गरदा पोरि दिअउ । देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।") (सारथी॰12:17:17:3.44)
93 केता (= केत्ता; कहाँ; कितना) (गुरगेट भैंस के छूए-छूए पर हो गेल मुदा पतित का भी धैल पतित हला । भैंस के सींग पकड़िके ओकर रूख बामा दने कइलका आउ डुबकी मारि के खींचऽ लगला । ऊ अपन सब ताकत झोंक देलका । नतीजा भेल भैंस गुरगेट से बचि गेल । एकरे में उनखर माथा के मोटरी केता गिर गेल, उनका कुछ पता नञ् ।) (सारथी॰12:17:10:3.48)
94 कोंखा (भर ~ चरना) (चद्दर नञ् रहे के चलते ऊ कत्तेक बार रूसल हल । गोरू बंधल के बंधले छोड़ दे हल । तहिया दीदी चरावे ले जा हल आउ बिहने से संझउकी तक जंगले में चरइते रह जा हल । खाय लेल साथ ले जा हल । साँझ के घर अइला पर कहऽ हल, 'देख तो, कइसन भर कोंखा चरले हे । अइसन कहियो चरलउ हल ?') (सारथी॰12:17:7:1.42)
95 कोचना (~ चाटना) (ई बड़का घर के मरद जात, जेकर छूअल पानी नञ् पीए, ओकर कोचना भी चाटे ले तैयार ! ... छीः ... ।) (सारथी॰12:17:23:3.23)
96 कोठी-कनरा (पहिले भी ई गाम संपन्न हल ... धन-धान्य से भरल-पूरल हल ... गाय-भैंस से गोंड़ी अघाल हल । मुदा अब ... मुआवजा मिलला के बाद जैसे ई गाम जादे विकास करि गेल हल ... कुछ मायने में । घर से कोठी-कनरा खतम हो गेल हल आउ डराम आ गेल हल अनाज रखे ला ।) (सारथी॰12:17:14:2.46)
97 कोढ़ी-काबर (अरे बेदामी ! का करबऽ । देख न केतना लूल-लांगड़ आउ कोढ़ी-काबर निराश लउट गेलन । दिन भर मांगतन, ऊ भी छूटल । अब त कम्बल मिलतो न । कम्बल त गूलर के फूल हो गेल । बाकिर सोचऽ ... का जनी अबधुर राजा आ जथी आउ कम्बल बाँटे लगतथी त हमनी के बड़का मोटरी हो जायत ।) (सारथी॰12:17:5:3.1)
98 कोदार (= कुदार, कुदाल) (" .. तब देखऽ हीं सूतल-सूतल पेट बाढ़ि गेलइ । ई कि हिको तब चीनी के बेमारी । ई कि तब हाट बलेसर तब पाद बलेसर । कुल बलेसर ओकरे पर चढ़ल हइ । तों सबेरे किसान के काम करे ले जइभीं । दिन भर कोदार पारो, भूख लगतउ, अनाज तो अनाज, माटी समेत पेट में पच जइतउ ।") (सारथी॰12:17:17:2.5)
99 कौनी (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।) (सारथी॰12:17:10:1.20)
100 खड़ाम (= खड़ाऊँ) (गोंड़ी सून हो गेल हल ... घरे-घर टरेक्टर आ गेल हल - हर जोते ले । सभे के पक्का मकान ... हाथ मटियावे ला लाइफबाय सामुन, खड़ाम के जगह हवाई चप्पल, औरतन के सीधा पल्ला अब उलट गेल हल ... अँचरा विन्डोबा हो गेल हल ।) (सारथी॰12:17:14:2.51)
101 खतगर (सोमर कहलकइ, "तब कर दहीं काहे नै बाबू ?" शनीचर कहलकइ, "बियहवा करभीं तब सातो पहुरा बिक जइतउ । बड़ी खतगर सुगरी खोजके लइलिअउ हे । एकर माय बारह बच्चा बियावऽ हइ, एक बेरी में देखऽ हीं, पहिलठ में सात बच्चा बिअइलइ । सोचलिअइ हल - पाँचो के खस्सी खोला देबइ । दू गो सुगरी अगिला साल मोखि जइतइ । बस झरइत नै झरतइ । खसिया के बेचके अगिला साल तोर बियाह ।') (सारथी॰12:17:18:1.13)
102 खदबद (= बहुत अधिक; पूरी तरह भरा) (नवादा से आगू पहिल तुरी जा रहलूँ हल । गया जंक्शन देखि के त हम चकड़बम रहि गेलूँ - बाप रे बाप ! लैन पर लैन, गाड़ी पर गाड़ी, लटफरेम पर लटफरेम, खदबद टीटी !) (सारथी॰12:17:26:1.35)
103 खमौनी (= ठेकुआ) (अयोध्या के सबसे बड़गो पहचान भगवान राम के भक्त महाबली हनुमान ! से, उतरते के साथ हमर नजर उनखे पर पड़ि गेल, जे एगो यात्री के बगल से खमौनी के गठरी लेके यात्री-शेड के ऊपर छड़पि गेलन ।) (सारथी॰12:17:26:3.6)
104 खरकना (= घसकना, सरकना; चुपचाप चला जाना; पानी आदि की धारा या वेग का घटना; व्यय होना) (चल्हवा के बेजाय मन देखके बेदामी के बेचैनी हो गेल । ऊ खरकले उठल । अपन लूगा के दम लगाके गारलक आउ चल्हवा पर फइला देलक । चल्हवा पर निशा नियन नींद सवार हो गेल हल ।) (सारथी॰12:17:6:2.23)
105 खर-खरिहानी (अगहन महीना के छोटगर दिन चार बजल कि साँझ भरल । लरम-लरम जाड़ा में सुरूज के लरम-लरम किरण पछियाही टोला में समा रहल हल । संझकी एन्ने पूरब से टोहले घरे-घर पैंसते दक्खिन टोला में बुझन के खटिया तर पसर गेल । बीझना भी सवेरगरे खर-खरिहानी लगाके बाप भिजुन पहुँच गेल हल ।) (सारथी॰12:17:20:2.43)
106 खराने (बाझो सिंह के नीसा अब नीन में बदलल जा रहल हल जे आँख के पिपनी पर ठहर गेल आउ ओजय खराने चौकी पर सुत गेल मगर ठोर पर 'प ... ड़ि ... या ! प ... ड़ि ... या !' के शब्द खर्राटा के रूप ले लेलक हल ।) (सारथी॰12:17:22:3.16)
107 खाना-पेन्हना ("बाकि आझ के दौर में एकर (खेत-पथार के) भेलू घट गेल हे, बाऊजी । एगो बिजनसिया तनी गो दोकान देके कोय भी किसान से बढ़ियाँ खा-पेन्ह रहल हे । आझ सबसे बड़का चीज पइसा हे । एकरे से तरक्की संभव हे । तोर विचार सड़ गेलो हे ।") (सारथी॰12:17:14:1.21)
108 खायक ('सुतिहा नञ् ... खायक बनावऽ हियो', सुनीता बोलल । ऊ सोच रहल हल - अब की करे के चाही ? नरेन्दर के दशा देखि के ओकर भूख त परा गेल हल, बकि दुइयो छौंड़न ?) (सारथी॰12:17:16:1.13)
109 खावा-खरची (दीदी के पहुना परदेस कमाय गेलन आउ एक दिन मालूम होल कि कोय दोसर जन्नी साथ ओहयँ रह गेलन । दीदी केतना कानऽ हल । ओहे बच्छर माय खटिया पर गिरल से उठिये गेल । माय के बीमार पड़ला पर बाऊ आउ भइया अइलन हल । कुछ दिन तक घर में रहलन मुदा खावा-खरची के चोंचा पड़े लगल त पहिले भइया गेलन ।) (सारथी॰12:17:8:3.25)
110 खिंड़ना (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।) (सारथी॰12:17:27:3.39)
111 खिखिर (= खरगोश की जाति का लंबे कान और मटमैले रंग का एक जंगली जीव; ~ के मान = बहुत उपजाऊ जमीन) (अब लाली धपे लगल हल । रतचलवन जानवर कोर पकड़ लेलक हल । खाली सियार, वनबिलाड़ या खिखिर धउगइत-भागइत एन्ने-ओन्ने झलक जा हल । सियार या वनबिलाड़ डगर काटलक त बाउ थुकथुका के आगू बढ़इत बुदबुदाय लगऽ हल - 'या जंगलिया माय, तनि सहाय रहिहऽ । एगो पिलुआ साथ हको । अइते पाठी चढ़इवन ।') (सारथी॰12:17:7:3.2)
112 खिटखिटाना (बुढ़ारी में त अइसहों बूढ़ा खिटखिटा जा हथ, बाकि कापो चा - कापो चा खिटखिटाय वला बूढ़ा नञ् हला ।) (सारथी॰12:17:13:1.16, 17)
113 खिसियाल (आजकल बीझना बड़ी खिसियाल रहऽ हो, की बात हे ? पड़िया बोलल, 'जी, चउरा लावे जा रहलिए हे ।' - 'अरे छोड़ो ने ! चउरा तो जइवे करतइ । अच्छा ई बतावो, बीझना से बियाह करके खुश ह ने ?' पड़िया मूड़ी गोतले, ने हाँ ने हूँ ।) (सारथी॰12:17:23:1.48)
114 खिस्सा-गलबात (जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । ... बूढ़-पुरनियाँ के हाथ पर दू पइसा अइलो नञ् कि साँझे-बिहने चाह पीअइ ले हाजिर । बूढ़ आदमी चाह के सवाद के साथ-साथ बातचीत के माने-मतलब भी बूझे लगलन । अन्हार-पन्हार में चलइ वला खिस्सा-गलबात पर उनकर कान खड़क जा हल ।) (सारथी॰12:17:9:1.2)
115 खुंडी-खुंडी (मन के पीड़ा आँख के लोर बनि गेल । ओकर लोराल आँखि तर दुन्नूँ नन्हकन के चेहरा घूमि गेल । ओकर करेजा खुंडी-खुंडी हो गेल । ऊ काँपि उठल । देह के रोइयाँ गनगना गेल - आज भी चूल्हा जरावे भर कमाय न भेल !) (सारथी॰12:17:15:1.38)
116 खुसुर-फुसुर (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल ।) (सारथी॰12:17:11:2.46)
117 खूँटना (अँचरा ~) (नरेन्दर अपन गठरी साइकिल पर रखि के बाजार दने सोझिया जा हे । / सुनीता जगल त गठरी साइकिल न देखि के बुदबुदायल, "एते सबेरे ! बिन खइले !" ऊ सोंचऽ लगल - खइतन हल की ? घर में हइये की हल ? अइसे कते दिन चलत ? अब हमरो अँचरा खूँटऽ पड़त ।) (सारथी॰12:17:16:3.40)
118 खेती-पाती (गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे । गाँव के जमीन पानी बिन तरासल हे । नहर, कुआँ, बोरिंग पर केकरो धियान नञ् । खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे ।; तिलका के आँख तर गाँव, गाँव के सिमाना आउ पहाड़ पर से गिरइत झरना अइते रहल । ओकरा लगे लगल, अगर झरना के पानी सोझिया के गाँव दने मोड़ दे तो खेती-पाती हो सकऽ हे ।) (सारथी॰12:17:9:1.28, 3.26)
119 गँठियाना (नरेन्दर भारी मन से पसरल अंगा, पैंट, फराक समेटलक आउ गँठियाके साइकिल पर रखि घर दने सोझिया गेल ।) (सारथी॰12:17:15:1.44)
120 गंगकिनारी ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।) (सारथी॰12:17:13:3.10)
121 गड़कल (एक तुरी फिन नरेन्दर बाजार के देखलक बगुला-सन लिलकल आँखि से । एक से एक बढ़ि के सजल-सजावल गड़कल दोकान । सामान के अम्बार लगल ।) (सारथी॰12:17:15:1.27)
122 गढ़गर (~ नीन) (थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।; कवि-गोष्ठी में जब सुनताहर उबो लगो हलो, झुको लगो हला, तउ गुरु जी के बोलावल जा हल - 'जाग गे बहिना, तोड़ अपन निन्दिया ।' की पता हल कि हमनी के जगाके ई अपने सुत जइता ... गढ़गर नीन में, ... लमहर नीन में । आझ ऊ अपन खोंता फुलंगी पर बना लेलका ।) (सारथी॰12:17:24:3.31, 35:1.34)
123 गत्त (= गत; गति) (उनखर नजर गोपाल-माय के सेनूर भरल मांग पर जाके ठहर गेल । आँख में याद के बादर उमड़ल-घुमड़ल आउ दू बून पानी बरसा देलक ... रंथी पर ... । / 'राम नाम सत्त हे - सबके इहे गत्त हे ।' / आझ भोरहीं से कापो चा के मन बउखल हल ... कहलखिन हल - "ऐं हो, हमरा अगिया के देतइ ?") (सारथी॰12:17:14:3.35)
124 गद (~ दियाँ बइठ जाना) (चानो का कहलका, "तों सब एजइ अन्हार में रूकि जो !" सब 'हउ' कहलक कि भैंस गद दियाँ बइठ गेल । चानो का कहलका, "जब बोलइबो, तबे सब अइहऽ ।") (सारथी॰12:17:11:2.30)
125 गदगदाना (= गद्गद होना) (धर्म के विज्ञान-सम्मत व्याख्या जेतना सहज ढंग से ऊ करो हला - मन गदगदा जा हल । जइसन उनखर शरीर लचकदार, ओइसन उनखर बोली खनकदार ।) (सारथी॰12:17:34:3.10)
126 गपियाना (एक रोज रेणु जी पटना के कॉफी हाउस में अप्पन मित्र मंडली संगे बइठल गपिया रहलन हल । एगो नौजवान नौसिखुआ कहानीकार ललक के रेणु जी के अप्पन एगो ताजा लिखल कहानी देलन पढ़े ला आउ उनखर राय जाने ला चाहलन ।) (सारथी॰12:17:3:1.38)
127 गब्भिन (= गाभिन) (भैंस पानी के सीना चीरि के सरकऽ लगल जइसे हवा के सीना चीरइत जहाज । चेथरूआ गब्भिन भैंस के पकड़ले हल । ऊ ओकर पीठ पर डंडा मारके धारा छोड़ाब करऽ हल । पतित दा चिकरला, 'अरे ... रे ... रे ... ! गब्भिन हइ । ओकरा पीठ पर मत मारहीं । ओकरा छोड़ आउ दोसर के पकड़, नञ त ऊ छँटि जइतइ ।') (सारथी॰12:17:10:3.16, 19)
128 गर-गोरू (पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे । बाहरी आदमी एकदम नञ् अइतो । गामे के आदमी पहमे समाद जइतो आउ काम पर जाय वलन सब झोंड़ के झोंड़ शहरे अइतो । समाद देवे वला आदमी के सब कुछ समदल रहऽ हे । मर-मजूरी के सब बात तय । गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे ।) (सारथी॰12:17:9:1.25)
129 गल-गलवात (दे॰ गर-गलबात) (अकादमी के गेट पर गाछ के छाहुर में मन के बात मने में दबइले ठकुआयल ठाढ़ हली । एतने में पटना से श्री घमंडी राम, श्री हरीन्द्र विद्यार्थी आउ श्री राजकुमार 'प्रेमी' हमरा सभे के खोजइत पहुँचला । गल-गलवात होवो लगल ।) (सारथी॰12:17:31:3.49)
130 गली-गुच्ची (रात में कत्तेक टरक, बस रूकऽ हे । रात भर चूल्हा जरते रहऽ हे । गली-गुच्ची में अन्हारो में धपधप्पी होते रहऽ हे । ओकर माथा झनझना गेल आउ लगल कि गली के धपधप्पी सुनके नीन टूटल आउ बूढ़-पुरनियाँ के बात कान में गूँजे लगल - "अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।") (सारथी॰12:17:9:2.12)
131 गाड़ी-छागड़ (जंगल के आदमी सब मने-मन मलपूआ पकावऽ हल । काम भी मिल गेल आउ गाड़ी-छागड़ चलत । सहर एकदम्मे नजीक हो जात । कुछ दिन के बाद मिट्टी उलटे वली मसीन आ गेल । तेकर बाद आदमी के काम छिना गेल ।) (सारथी॰12:17:8:2.12)
132 गाम-गराम ('जे पेट देलथिन, आहार ऊहे देथिन । अब दिन ढलल जा हे । चलऽ, कोय गाम-गराम में डेरा डालल जाय ।' चानो का बोलला ।) (सारथी॰12:17:11:1.41)
133 गारी-घिन्ना (ऊ निर्णय लेहे - खेती में जान न देब । ऊ धनबाद आ गेल हे । केशवचन्द साहू के कपड़िया दोकान में नौकरी करऽ लगल हे । ईमानदारी से दोकान के काम में लगल हे । ओकरा पर चोरी के इलजाम लगि गेल हे ... लांछन ... गारी-घिन्ना ... मार-पीट ।) (सारथी॰12:17:16:2.45)
134 गिरथाइन (हइ घरनी, घर भागत हइ, बिन घरनी घर पादत हइ । गिरथाइन रहतउ हल, सब ओरिया जइतउ हल । तोर माय बच्चे में मर गेलउ । बहुत बरतुहार अइलइ कि (हम फेर बियाह कर लूँ, लेकिन) हम मन कड़र करि लेलों ।) (सारथी॰12:17:17:2.12)
135 गुमटी ( तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल ।; "तोर बाऊजी सठिया गेलथुन हें यार । हमनी के बड़ भाग कि ई एरिया में एन.टी.पी.सी. खुल रहलइ हे । विकास के समुन्दर उमड़तइ - चकाचक रोड - चोबीसो घंटा बिजली - इनकम बढ़ जइतइ हमनी के - एगो गुमटियो रखके अच्छा कमा लेतइ लोग ।") (सारथी॰12:17:9:1.11, 14:1.3)
136 गुमनगर (= गुमान+गर) (एक हाँक पर लुझन हाथ जोड़ले, टेहुना से ऊपर झुकके 'जी मालिक !' कहऽ हल त रोम-रोम में वफादारी झलक जा हल । ई नयका पीढ़ी जनु काहे गुमनगर आउ दिमगगर होल जाहे । बाप के संस्कार पूत में नञ् आवे के मतलब जरूर कहँय कुछ पक रहल हे ।) (सारथी॰12:17:21:1.9)
137 गुरगेट (= भँवरी, भँवर) (आगू में गुरगेट हल । पतित दा के गाभिन भैंस ओकरे रूख कइले जा रहल हल । ई देखइत पतित दा के कलेजा मुँह के आ गेल । ऊ आव देखलका न ताव, बड़ी वेग से पानी काटले बढ़ऽ लगला जइसे कोय गाय अपन बछड़ू दने दुमकऽ हे ।; गुरगेट भैंस के छूए-छूए पर हो गेल मुदा पतित का भी धैल पतित हला । भैंस के सींग पकड़िके ओकर रूख बामा दने कइलका आउ डुबकी मारि के खींचऽ लगला । ऊ अपन सब ताकत झोंक देलका । नतीजा भेल भैंस गुरगेट से बचि गेल ।) (सारथी॰12:17:10:3.31, 42, 47)
138 गूँड़ (= गुड़) (~ गोबर होना) (भैंस हँका गेल । आगू-आगू भैंस, पीछू-पीछू चरवाह । सूरज डूब गेल । अन्हार दउगल आ रहल हल । आसमान में बादर भी अपन तंबू तानि रहल हल । चानो का कहलका, 'गोड़ झारके चल । कहइँ पानी पड़ऽ लगलउ त सब गूँड़ गोबर हो जइतउ ।') (सारथी॰12:17:11:2.4)
139 गेठरी-मोटरी (गया के मोसाफिरखाना देखि के त हम दंग रहि गेलूँ । ... चारो पट्टी बइठे के बेंच बनल, पानी, पाखाना के सुविधा अलग । सब सुरक्षित जगह टेबके डेरा जमा लेलन ... बीच में गेठरी-मोटरी, चारो पट्टी सुत्तल-बइठल साथी । हमरा नींद कहाँ !; हमरा रात के यात्रा ठीक नञ् लगतो । झकझक इंजोर में देखइत गेलूँ, बकि अन्हार में ई सुविधा कहाँ ! हम मनुआय लगलूँ । अइसन में हमरा नींद आ जइतो । हम अउँघऽ लगलूँ त हमरा ऊपर के सीट पर चढ़ा देल गेल । गेठरी-मोटरी सरियाके हम सुते भर जगह बनइलूँ आउ चोर-पाकिट पर हाथ रखले बैल-पगहा बेचि के सुत गेलूँ ।) (सारथी॰12:17:26:2.11, 37)
140 गेहूम (दे॰ गोहूम) ("तोर मुँह काहे लटकल हो, कापो ... ?" / "मुँह लटकावे के तो बात हइये हइ, मनिज्जर साहेब । ई धरती हम्मर माय ... हमनी एकर बेटा ... ई माय हमरा से छिना जायत ... एकर धरती पर गेहूम के बाली, बूँट-खेसारी के हरियरी कइसे झूमत ... ई बाउग, ई मकई के पेड़ ... बुढ़ारियो में भुट्टा, मखाना आउ लावा कहाँ से चलतइ मनीजर साहेब ? एकलाश लाल नियन दू रूपिया में एगो भुट्टा खरीदवऽ की ?") (सारथी॰12:17:13:3.1)
141 गैंठि (दे॰ गैंठी, गेंठी) (शनीचर कहलकइ, "सातो पहुरा बहुरा लिहें ।" सोमर गैंठि बान्हि लेलकइ - "बाबू ! हम पहुरा बहुरा के रहबउ । बाबू गैंठिया बान्हि लेलिअउ ।") (सारथी॰12:17:19:1.29)
142 गैस्टिक ('खाय के मन नञ् हउ, सुतऽ दे ।' - 'दुइयो कौर खा ल । खाली पेट फेन गैस्टिकवा उरम्हि जइतो ... लेनी के देनी ... पइसा ने कौड़ी ।'; ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल ।) (सारथी॰12:17:16:1.43, 50)
143 गोझनउठा (तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल । तहिया हरदम माय के गोझनउठे धइले रहऽ हल । बाऊ साथे आल त परदेसे जाय लेल ।) (सारथी॰12:17:9:1.13)
144 गोड़-हाथ (~ करना) ("सोमरा कहलकइ, "तब छोड़ दे बाबू । हमर पहुरे बिक जायत, तब हम नै बियाह करब ।" शनीचर कहलकइ, "बियहवा भी जरूरी हइ । मौगी बड़ी सुख देतउ । खाय ले बना देतउ, जन-फरजन होतउ । बेमार पड़भीं तब गोड़-हाथ करि देतउ । हमरो सेवा करत ।") (सारथी॰12:17:18:1.24)
145 गोबरलिट्टी (< गोबारा + लिट्टी) (एगो उज्जर रंग के गमछा, लंगोट आउ लिट्टी जरूर रहतो । अपन लिटिया के ऊ 'गोबरलिट्टी' कहो हलथिन ... गोबरलिट्टी ।; लौटती बेरा ऊ मोगलसराय में कहलथिन - 'किरण जी, हमर गोबरलिटिया झर गेलो, तों अपन बभनचूड़वा निकालहो ने ... ।' हम उनखर मुँहा हिअइते रह गेलूँ हल ।) (सारथी॰12:17:34:1.46, 47, 2.36)
146 गोरखिया (बात ई हे कि सउँसे गाँव के जनावर एक्के सहेर में चरऽ हे । तिलका के खेले के भी समय मिल जा हे । सहेर के देखइ लेल फेराफेरी बाँध दे हे आउ गोरखिया सब मारे गुल्ली-डंडा, फेद-फेदी आउ कहियो हाथी-घोड़ा के खेल ।; उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।) (सारथी॰12:17:7:2.8, 14:2.24)
147 गोलका (= गोल आकार वाला) (उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।) (सारथी॰12:17:14:2.23)
148 गोलहत (पड़ोस के मोदखाना से आधा किलो मोटका चावल आउ पाव भर आलू आल । गोलहत उतरइत-उतरइत बुतरू-बानर पाँच तुरी भंसा हुलकि आल । हर बार - 'सीझऽ दे, खइहें' के भरोसा पर दुइयो भाय नाक में सीझइत भात के भाप भरि लउटि आवे आउ कठघोड़ा में बिसरि के बिसित हो जाय ।; इंतजार के घड़ी बीतल । सुनीता पहिले एक्के थरिया में गोलहत काढ़ि के बाँस के बीयन से सेरावऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:16:1.26, 33)
149 गोलहत्थे (शनीचर पुछलकइ - "मोटरिया में की हिकउ ?"/ सोमरा बोलल, "चिनियाबेदाम ।"/ ... सोमरा कहलकइ, "हाँ बाबू ! सुधीर सिंह कहलकइ, उखाड़ दे सोमर । उखाड़ देलिअइ । पाँच सेर लगू मजूरी में देलकइ आर लोढ़ लेलिअइ । अब जा हियो बनावे ले । की बनइयो ? गोलहत्थे बना दियो बाबू ?") (सारथी॰12:17:17:1.26)
150 गोवा (= गोब्बा) (भोरगरे जानवर खुट्टा से खुल गेल । सबके हाथ में तेल पिलावल लाठी, जेकरा में पत्तर ठोकल, गोवा लगल । गंगा के किछार पर भीड़ जमा होवऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:10:2.8)
151 गोसइयाँ (ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल । कमजोर अइसन भे गेल हल कि बाजार जाना बंद हो गेल हल । तहियो घर के हाल गोसइयें जानऽ हलन । सुनीता के प्यार नरेन्दर के जिअइले हल ।) (सारथी॰12:17:16:1.54)
152 गोसाल (= गोस्सा में; क्रुद्ध) (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल ।) (सारथी॰12:17:11:2.45)
153 घटल-बढ़ल (बाझो सिंह के देहरी से जुड़ल रहइ लेल भी ई जरूरी हे । आखिर घटल-बढ़ल उनइस-बीस वहइँ से ने पूरा होवऽ हे । बीझना के काँधा पर भी पालो रखा गेल हल । समय से पहिले जुआन हो गेल । दिन भर के हरवाही बैल-धूर के सानी-पानी, मालिक के दियल डेढ़ कट्ठा घेरवारी सब ओकरे जिम्मे ।) (सारथी॰12:17:20:3.22)
154 घट्टा (= घट्ठा) ("भैया लोग ! एन.टी.पी.सी. खुल रहलो हे । सरकार जमीन ले लेतो । ओकर अढ़ाइ गुना दाम देतो । सभे के रज-गज होतो ।" एकरा पर तोखी सिंह चउँकलथिन - "देखलहो नञ्, राजगीर में बारूद फैक्ट्री खुललइ । सिठौरा राजा हो गेलइ । जेकर बाप के घास गढ़ते-गढ़ते घट्टा पड़ गेलइ हल, ओकर जाल-जलमल फटफटिया चढ़ रहलो हे ।") (सारथी॰12:17:13:2.44)
155 घरजाना (= प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति का भोज; सार्वजनिक काम के लिए हर परिवार से एक आदमी से काम अथवा उसके बदले एक मजदूर की मजदूरी लेने का प्रचलन) (ई दुनो ओने निहोरा-पाती में लगल हल तब तक ओने ओकर मरीज दम तोड़ चुकलइ हल ।/ आखिर लहाश घर लाको सब विध-वेहवार करके मँड़रिया पर जला देलक । तेरह दिन में घरजाना करके पाक हो गेल ।) (सारथी॰12:17:19:1.3)
156 घरैतिन (शनीचर घूर लहराके ताप रहल हल, साथे सोच रहल हे, "साँझ पड़लइ, सोमर कहाँ अँटक गेलइ ? ... कखने खाय ले बनइतइ ? दोसर कोय खाय बनावइ वाली घरैतिन भी तो नञ् हइ जेकरा भरोसे बइठल हइ ।"; शनीचर कहलकइ, "बेटा ! कमाय के हिसकी करी, खाय के नञ् । ऊ बड़का हिकइ, तों मजूरा । बेंगा घोड़वा के हिसकी नाल ठोकइलकइ, बेंगा के पेटे फाटि गेलइ, से हाल । ओकरा पक्का हइ, घर में घरैतियन, साधन हइ रखइ के, तों सुखा के धरि देभीं, चूहा खा जइतउ । मुँह फारि के रहि जइबें ।") (सारथी॰12:17:17:1.10, 42)
157 घीचना (= घींचना; खींचना) (शनिचर कहलकइ - "जो ने, करगे में मनोज सिंह वाला मरचइया फरि को लुथड़ी भेल हइ । अरिया तर छोड़के एक मुट्ठा घीचि लिहें । असली सीटिया मिरचाय हइ । तनी गो खइभीं, कान झनझना देतउ ।") (सारथी॰12:17:17:3.10)
158 घुड़की (~ मारना) (बाऊ के टिटकारी सुनके तिलका तनि मनसूआ भरके चाल बढ़ा देलक । गोड़ त दनादन उठ रहल हल । रतगरे जगे पड़ल हल । नञ् तो ऊ रउदा उगला तक सुतले रहऽ हल । बस, पोवार में घुड़की मारले हथ, हाथ-गोड़ ममोरले सूतल रहऽ हल । भउजी या दीदी ऊपर से गेनरा धर दे हे ।) (सारथी॰12:17:7:1.10)
159 घुमनइ (बनछिल्ली में कुछ खेत हे । धान उपजऽ हे । धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।) (सारथी॰12:17:8:1.11)
160 घुरी (= घड़ी, समय, बखत) (धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।) (सारथी॰12:17:8:1.14)
161 घेरबारी (दे॰ घेरवारी) (जइसहीं कोय भोंपू के अवाज या गाड़ी के सीटी कापो चा के कान के चदरा से टकरा हे, मन बउख जाहे कापो चा के । घर के बगले में एन.टी.पी.सी. के घेरबारी हे । घेरबारी में घेराल मोटगर मोटगर उँचगर चिमनी से करका धुइयाँ निकलके कापो चा के दिलोदिमाग पर छा जाहे ।) (सारथी॰12:17:13:1.5, 6)
162 घेराल (= घेरा हुआ) (जइसहीं कोय भोंपू के अवाज या गाड़ी के सीटी कापो चा के कान के चदरा से टकरा हे, मन बउख जाहे कापो चा के । घर के बगले में एन.टी.पी.सी. के घेरबारी हे । घेरबारी में घेराल मोटगर मोटगर उँचगर चिमनी से करका धुइयाँ निकलके कापो चा के दिलोदिमाग पर छा जाहे ।) (सारथी॰12:17:13:1.6)
163 घेवारी (हप्ते दिन बाद बीझना के बोलाके बाझो सिंह कहलन, 'अरे बीझना ! एन्ने देख रहलिअउ हे, बड़ी मनबढ़ू होल जाहीं । खेत-खंधा पर ध्याने नञ्, बैल-धुर उपासले, एक ड्राम चाउर फटके ले हइ ऊहो तोर माय सास पुतोह के हाथ में दहिए जम रहलउ हे । हमरा ई सब करवे ले दोसर मजदूर रखहीं पड़त त शादी-बियाह, मरी-गमी आउ डेढ़ कट्ठा घेवारी ... । सबसे चोथू हमरे बूझऽ हीं ।' बीझना के लगल कि बाझो सिंह अपन उकात दिखा रहल हे ।) (सारथी॰12:17:23:1.19)
164 घोड़ कटार (लड़की देखो लगला । मिले तो जादातर काना ले कानी । ई तो तइये हलइ मुदा ई बढ़िया कद-काठी-सोलिट देह वाली चाहऽ हलखिन से नै मिल रहल हल । आखिर उहे मिल गेल । तनी बेटवे नियर पतलडेर । बान्हि के कि कहना ? ... घोड़ कटार बान्हि । कार कसौटी पाथल सन । ओकरा में हीरा के चमक जइसे भीतर से फूल रहल हे ।) (सारथी॰12:17:18:2.15)
165 चउगरदा (दे॰ चउगिरदा, चउगिरदी) (ऊ आझ भी अशरीरी रूप में मौजूद हका - मगहिया माटी के सोन्ह महक बनके, हरेक कवि-गोष्ठी में माँ सरस्वती के प्रतिनिधि बनके, सब मगही कवियन के प्रेरणा स्रोत बनके । चउगरदा उनखर थिरकन आउ खनकल आवाज सूक्ष्म सत्ता के रूप में प्रतिध्वनि होते रहे हे - हमनी के आत्मा में ।) (सारथी॰12:17:35:1.42)
166 चउगिरदा (दे॰ चउगिरदी) ("भागवत बाबू ! अपने गाम के जेठ-रैयत हथिन । सोचथिन कि एन.टी.पी.सी. चालू हो गेल । हठुआमनी दमगर-दमगर राकस नियन चिमनी से धुइयाँ निकसो लगल, बिजली तैयार होवो लगल - सौंसे खेत-पथार के ऊपर से मोटका-मोटका तार टंगना नियन टंगा गेल - चउगिरदा करका बादर छुट्टा साँढ़ नियन टहलो लगल - जउन खेत में मिरचाय, रेंड़ी, बैंगन उपजो हे, ऊ बलसुनरी मट्टी पर कोयला के करका पौडर बिछ जइतो । की करभो तखने ?" चुप्पी के वातावरण में अपन शंखनाद कइलका कापो सिंह ।) (सारथी॰12:17:13:3.37)
167 चउरगर (दे॰ चउड़गर, चौड़गर) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे ।) (सारथी॰12:17:7:1.14)
168 चउल (~ मारना) (तिलका मुँह फुलाके चउल मारऽ हल, 'हाँ, तों तो गढ़के खिलावऽ हीं ने, हम तो बस घुमइले चलऽ हिअइ। हइ ने ? एक दिन गोरू चरावे गेलें तो एतबड़ बड़ाय । रोज चराहीं तब ने बुझाव ।' - 'रोज चरावे में की हइ । तों घर के काम करहीं, हम चरइबइ ।') (सारथी॰12:17:7:1.44)
169 चकड़बम (नवादा से आगू पहिल तुरी जा रहलूँ हल । गया जंक्शन देखि के त हम चकड़बम रहि गेलूँ - बाप रे बाप ! लैन पर लैन, गाड़ी पर गाड़ी, लटफरेम पर लटफरेम, खदबद टीटी !) (सारथी॰12:17:26:1.33)
170 चकाचक (अब तो सड़क पकिया हो गेल हल । गाड़ी-छागड़ चले लगल । जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । मारे ओरे-धारी खटिया बिछल रहऽ हे ।; तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल ।; "तोर बाऊजी सठिया गेलथुन हें यार । हमनी के बड़ भाग कि ई एरिया में एन.टी.पी.सी. खुल रहलइ हे । विकास के समुन्दर उमड़तइ - चकाचक रोड - चोबीसो घंटा बिजली - इनकम बढ़ जइतइ हमनी के - एगो गुमटियो रखके अच्छा कमा लेतइ लोग ।") (सारथी॰12:17:8:3.48, 9:1.9, 14:1.2)
171 चक्खी-पक्खी (बाऊ आउ भइया तो परदेसे में । काम-किरिया खातिर अइलन । काम-किरिया करके बाऊ चल गेलन हल आउ भइया भउजी के कहला पर रुक गेल हल । मुदा जब पइसा-कउड़ी ओरिआल त एक महीना के बाद ओहो परदेसे । हाँ, जब तक रहलन हल, तिलका के मउज । दोसरे-तेसरे कुछ चक्खी-पक्खी होइये जा हल । गाम-गिराम के साथी-संगी अघाल रहऽ हल ।) (सारथी॰12:17:8:3.41)
172 चखना (बाझो सिंह एकसरे दलान पर बइठके बूँट के खस्सी जइसन चखना पर अंग्रेजी दारू चढ़ा रहल हल ।) (सारथी॰12:17:22:2.36)
173 चनका-बुन (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।) (सारथी॰12:17:27:3.36)
174 चमचमी (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । चौड़ा पाड़ वाला कथई रंग के दू गो साड़ी, सिलल-सिलावल साया-बिलौज, तीन भर के पायल, रंगन-रंगन के चार डिब्बा चूड़ी, अलता, अइना, कंघी, पाउडर दौरा नियर साज के पेठा देलन हल । ओकरा में एगो चमाचम डिब्बा फूल काढ़ल चमचमी से पैक कइल अलगे से धइल हल ।) (सारथी॰12:17:21:1.39)
175 चरवाह (= चरवाहा) ('ठीक हे । चलऽ हो, भैंस के हाँकऽ । घंटा दू घंटा में कोय गाम मिलवे करतइ ।' पतित दा सुरफरायत कहलका ।/ भैंस हँका गेल । आगू-आगू भैंस, पीछू-पीछू चरवाह । सूरज डूब गेल । अन्हार दउगल आ रहल हल ।) (सारथी॰12:17:11:1.54)
176 चस्का-चरणवार (ठीके में ऊ गाम तरक्की कर गेल हल । ई विकास के विन्डोबा गोपाल के भी लग गेल । गुटखा, सिकरेट, दारू आउ जुआ के चस्का-चरणवार लगते गेल ।) (सारथी॰12:17:14:3.7)
177 चहकल (सवाद के ~) (ओने बड़का बाऊ के बोली सवाद के चहकल - माड़ भात ! माड़ भात !! माड़ भात !!!) (सारथी॰12:17:16:1.24)
178 चाँपना (= चापना; दाबना) ('आझ तो पड़िया रानी ! हमरो पियास मेटावो पड़तउ ।' पड़िया अकबकाल चिल्हरे लगल त बाझो सिंह दहिना हाथ से मुँह चाप देलक आउ गोदी में उठाके चौकी पर आस्ते से सुता देलक । मुँह चाँपले चिरौरी शुरू । 'देख पड़िया ! तोरा कुमारे में बजार जइते देखलिअउ हल । तखनिए हमर जी में तूँ समा गेलें हल ।') (सारथी॰12:17:23:2.18)
179 चापना (= चाँपना; दाबना) ('आझ तो पड़िया रानी ! हमरो पियास मेटावो पड़तउ ।' पड़िया अकबकाल चिल्हरे लगल त बाझो सिंह दहिना हाथ से मुँह चाप देलक आउ गोदी में उठाके चौकी पर आस्ते से सुता देलक । मुँह चाँपले चिरौरी शुरू । 'देख पड़िया ! तोरा कुमारे में बजार जइते देखलिअउ हल । तखनिए हमर जी में तूँ समा गेलें हल ।') (सारथी॰12:17:23:2.16)
180 चितंग (अदमी आउ जनावर दुन्नूँ थकि के थउआ । कछार लउकऽ लगल ... जय गंगे ... अब की ! / कछार पर सब थकि के चितंग । किनखो देह-गात के होश-हवाश नञ् । पीड़ा से अंग टूट रहल हे ।) (सारथी॰12:17:11:1.4)
181 चिरचिरी (भेलइ ई कि साँझ चार बजे से ओकरा दरद शुरूह भेलइ । डगरिन तेल से पिछलइकइ । कोय कहलकइ - सूअर के तेल मरीच गरम करके पिला दहो, सेहो कइलकइ । ... कोय कहलकइ - चिरचिरी के उखाड़के माथा के बाल में बाँध दहीं, छट दो को बच्चा हो जइतइ, ओकरो से कोय फायदा नै ।) (सारथी॰12:17:18:3.22)
182 चुंगारना (नोट के धाह तो बड़का-बड़का के चुंगार दे हे, ई कंगलवा बीझना के की उकात । दू-चार हजार खरच करवइ कि पड़िया हम्मर गोदी में ।) (सारथी॰12:17:22:3.5)
183 चुग्गा (= पक्षियों दिया जाने वाला दाना या अनाज का कण) (पता नञ् कजा, कखने आउ कइसे हम्मर मानस पिंजड़ा में चुग्गा खातिर एगो पखेरू घुस गेल आउ जोगल चुग्गा के चुगइत रहल । एक्कर पता त हमरा 9 अगस्त 2007 के साँझ में चलल, जब हम अप्पन घर पहुँचली । चुग्गा के दाना खतम भे गेल त ऊ पखेरू बाहर निकलइ लेल फड़फड़ाय लगल ।) (सारथी॰12:17:31:1.17, 20)
184 चुनियाना (माय के गोदी से बच्ची सरकि के हिलइत-डुलइत डिब्बा में डगमगाइत खड़ी रहइ के चेष्टा करि रहल हल । अपन माय के घुटना थम्हले ऊ तुरी-तुरी लुढ़कि के गिर जा रहल हल । एक-दू तुरी ओकर थकल-चूरल माय ओकरा उठइलन, मुदा तेसर तुरी ऊ खिजलाके बेटी के पीठ पर एगो हौले धौल जमा देलन । बच्ची सहमल आउ एने-ओन्ने मासूम-सन निहारइत अपन होठ चुनियावइत सिकोड़के बिसुरे लगल ।) (सारथी॰12:17:24:3.17)
185 चूनना-बिछना (= चुनना-बिछना) (बाऊ जी परदेस आउ बस बाल-बच्चे घर में । ... गरमी के दिन में बीड़ी के पत्ता तोड़ऽ हे । अइसे सब मिलके लकड़ी चूनऽ हल । पोरगर-पोरठगर लकड़ी नञ् काट पावऽ हल । ई लेल झाड़ियो-झूरी चून ले हल । ओकरे में से चून-बिछ के कहियो मइया हाट पहुँचा दे हल ।) (सारथी॰12:17:8:1.23)
186 चेधगर (= ?) (बचवा चारो चेधगर हो गेलइ । कुछ-कुछ करो लगलइ । मालिक के काम में लगइ कि तुरत काम झारि दइ ।) (सारथी॰12:17:19:2.8)
187 चोंचा (दीदी के पहुना परदेस कमाय गेलन आउ एक दिन मालूम होल कि कोय दोसर जन्नी साथ ओहयँ रह गेलन । दीदी केतना कानऽ हल । ओहे बच्छर माय खटिया पर गिरल से उठिये गेल । माय के बीमार पड़ला पर बाऊ आउ भइया अइलन हल । कुछ दिन तक घर में रहलन मुदा खावा-खरची के चोंचा पड़े लगल त पहिले भइया गेलन ।) (सारथी॰12:17:8:3.26)
188 चोटगर (~ हथौड़ा) (चिरईं पालनिहार के हँका-हँका के बता दी, हमहूँ एगो सतरंगी पखेरू पालि के तोहर जमात में शामिल भे गेलूँ हे । एतनइँ में, विवेक चोटगर हथौड़ा दइत मन के हुकुम देलक ई पखेरू के मगही के अंगना से खुलल अकास तक आजाद परवाज लेल अप्पन मानस-पिंजड़ा के दरवाजा खोल द ।) (सारथी॰12:17:31:1.28)
189 चोथू (हप्ते दिन बाद बीझना के बोलाके बाझो सिंह कहलन, 'अरे बीझना ! एन्ने देख रहलिअउ हे, बड़ी मनबढ़ू होल जाहीं । खेत-खंधा पर ध्याने नञ्, बैल-धुर उपासले, एक ड्राम चाउर फटके ले हइ ऊहो तोर माय सास पुतोह के हाथ में दहिए जम रहलउ हे । हमरा ई सब करवे ले दोसर मजदूर रखहीं पड़त त शादी-बियाह, मरी-गमी आउ डेढ़ कट्ठा घेवारी ... । सबसे चोथू हमरे बूझऽ हीं ।' बीझना के लगल कि बाझो सिंह अपन उकात दिखा रहल हे ।) (सारथी॰12:17:23:1.20)
190 चोन्हीं (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।") (सारथी॰12:17:18:1.4)
191 चोबीस (= चौबीस) ("तोर बाऊजी सठिया गेलथुन हें यार । हमनी के बड़ भाग कि ई एरिया में एन.टी.पी.सी. खुल रहलइ हे । विकास के समुन्दर उमड़तइ - चकाचक रोड - चोबीसो घंटा बिजली - इनकम बढ़ जइतइ हमनी के - एगो गुमटियो रखके अच्छा कमा लेतइ लोग ।") (सारथी॰12:17:14:1.2)
192 चौड़गर (खिड़की के बाहर घुप्प अन्हार लटफरेम पर खड़ी माय के चेहरा पर चौड़गर मुस्कान जगमगाय लगल । अपन माय के गोदी में टिकल बच्ची जोर से किलकइत हवा में अपन दहिना तरहत्थी उछाल के फिन कहलक - नान्ना !) (सारथी॰12:17:25:3.16)
193 चौपट्टी (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।) (सारथी॰12:17:27:3.40)
194 छप्पल (= छपा हुआ) (तिलका देखलक कि ठेकेदार के आदमी एगो छप्पल फारम पर एकाएकी टिप्पी ले रहल हे । ऊ तनि दूरिये में खड़ा हो गेल । ढेर देरी तक खड़ा रहल । खड़ा-खड़ा ओकर गोड़ थुम्ह गेल । थकल तो हइये हल । भूख भी लग गेल हल ।) (सारथी॰12:17:9:1.36)
195 छहाछित (= साक्षात्) (ऊ अदमी आदर सनल गील आवाज में बोलल, 'तूँ हमरा ले छहाछित भगमान ह ।'/ 'तूँ के ह ?' चानो का हकबकायल पुछलका ।; कोय कहि रहल हल, "छहाछित गहिलवा मइया आ गेलथिन । देखलहीं, मुँहाँ में जइसइँ दल देलकइ कि मनकमना पूरा हो गेलइ । भाय, देवी-देवता में भारी जश हइ ।") (सारथी॰12:17:10:1.6, 11:3.26)
196 छहेछात (= साक्षात्) (नहा-धो के तैयार भेलूँ त भोज के पंगत लग गेल । चूड़ा, दही, चीनी के मगहिया भोज । ऊपर से जी फेरन परवर के भुंजिया । डॉ. आनन्द के नेह-सनेह अउ अपनापन के कोय ओर-छोर नञ् हल । डॉ. आनन्द त छहेछात आनन्द के प्रतिमूर्ति हथिन ।) (सारथी॰12:17:31:3.31)
197 छान-पग्गह (= छान-पगहा) (परदेस की खातिर ? बाऊ बोलइ ले चाह रहलन हल कि तिलका कहे लगल, 'हम शहर नञ् जाम बाउ । घरो में तो एक आदमी चाही । हरियर खेती देखके गाय-गोरू रात में छान-पग्गह तोड़ते रहऽ हे ।) (सारथी॰12:17:9:3.23)
198 छिनाना ("तोर मुँह काहे लटकल हो, कापो ... ?" / "मुँह लटकावे के तो बात हइये हइ, मनिज्जर साहेब । ई धरती हम्मर माय ... हमनी एकर बेटा ... ई माय हमरा से छिना जायत ... एकर धरती पर गेहूम के बाली, बूँट-खेसारी के हरियरी कइसे झूमत ... ई बाउग, ई मकई के पेड़ ... बुढ़ारियो में भुट्टा, मखाना आउ लावा कहाँ से चलतइ मनीजर साहेब ? एकलाश लाल नियन दू रूपिया में एगो भुट्टा खरीदवऽ की ?") (सारथी॰12:17:13:2.49)
199 छीछोर ('अच्छा ! ऊ जीनीस जे पेठइलियो हल ऊ कइसन लगलो ?' पड़िया बूझ न रहल हल ई बुझउअल । / 'अरे ! ऊहे 32 नम्बर वला, सइजगर हलो ने ?' पड़िया के कान झनझनाय लगल ... । / मलिकवा केतना छीछोर अदमी हइ ! ऊ घर दने दउरी लेले बढ़े लगल । पीछे-पीछे बाझो सिंह बी बढ़े लगल ।) (सारथी॰12:17:23:2.5)
200 छुआइन (बीझना बेगर हुँकारी भरले खँचिया आउ हँसुआ लेके बधार देने सोझिया गेल । ओकर आँख तर चमारी के बेटा फुदना के मोबाइल नाचे लगल, 'गाना, फोटू, आउ वी.डी.ओ. ... मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए ... मगर साला ऊ फुदना ! मोबाइल छुए में छुआइन हो जा हलइ ।') (सारथी॰12:17:23:1.3)
201 छुकछुकाल (हमरा अभियो याद हे, हमर पसिंजर गाड़ी छो नम्बर के प्लेटफारम पर रुकल हल । कुछ गाड़ी रुकल हे, कुछ छुकछुकाल आ रहल हे, त कुछ जा रहल हे, ... गाड़ी के हौरन ... भोंऽऽऽ ! ... पटरी के खटखट !) (सारथी॰12:17:26:1.38)
202 छुछुन्नर (= छछून्दर) (आगू सोमरा हेलल, मागु से कहलक - लुगवा ऊपरि करि लिहें, तों हमरा से नाटा हहीं, सड़ीवा भींग जइतउ ! जब पूरा बीच आयल तब औरतिया पूरा कपड़ा पेट पर चढ़ा लेलक । सोमरा पीछे घूम के देखलक । मौगी कुरोध के बोललइ, "दुर्रर्र ने जाय छुछुन्नर ! ... हम बे नगन होल जाही । ई पाछूहिया को की देखऽ हीं ?" सोमरा कहलकइ, "अरे देखऽ हिअइ - हमर सातो पहुरा कहाँ हइ ?"; डाकदर कहलकइ, "जाव, सरकार से कहो । साला नेता ! घोषणा करेगा लम्बा-लम्बा और काम छुछुन्नर वाला ।") (सारथी॰12:17:18:3.3, 51)
203 छोंड़ा (= छौंड़ा) (साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला । .. तय भेल कि पाँच अदमी आगू टरेन से जायत रसद-बुतात लेके आउ पाँच पांडव जानवर साथ गंगा हेलता । चानो का कहलका, 'मंगलामुखी सदा सुखी । कल हाँका हो जाय के चाही ।' जोड़ल गेल - पचीस भैंस, पाँच अदमी । सब के सब जुआन, एकलौठा, कसरती, पहलवान ! चेथरूआ सबसे छोट भले हल, मुदा हल सहसगर, लमहर, छरहर, पट्ठा छोंड़ा ।) (सारथी॰12:17:10:2.5)
204 छोड़ल-छाड़ल (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?") (सारथी॰12:17:19:1.16)
205 छोफिट्टा (~ जुआन) (अट्ठारह बीघा के जोतदार कापो चा - आझ बेचारा । दू जोड़ा हाथी नियन बैल, दू गो दोगली गाय, एगो गुजराती भैंस गोंड़ी पर शोभो हलइ कापो चा के । देवना बराहिल ... ई कड़कड़िया मोंछ, छोफिट्टा जुआन, सिलेब रंग एकदम पकिया ।) (सारथी॰12:17:13:1.25)
206 छोम्मा (= छठा) (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल । भगत के छोम्मा इन्द्री जाग गेल ।) (सारथी॰12:17:11:2.47)
207 जंगलिया (अब लाली धपे लगल हल । रतचलवन जानवर कोर पकड़ लेलक हल । खाली सियार, वनबिलाड़ या खिखिर धउगइत-भागइत एन्ने-ओन्ने झलक जा हल । सियार या वनबिलाड़ डगर काटलक त बाउ थुकथुका के आगू बढ़इत बुदबुदाय लगऽ हल - 'या जंगलिया माय, तनि सहाय रहिहऽ । एगो पिलुआ साथ हको । अइते पाठी चढ़इवन ।') (सारथी॰12:17:7:3.6)
208 जन-फरजन ("सोमरा कहलकइ, "तब छोड़ दे बाबू । हमर पहुरे बिक जायत, तब हम नै बियाह करब ।" शनीचर कहलकइ, "बियहवा भी जरूरी हइ । मौगी बड़ी सुख देतउ । खाय ले बना देतउ, जन-फरजन होतउ । बेमार पड़भीं तब गोड़-हाथ करि देतउ । हमरो सेवा करत ।") (सारथी॰12:17:18:1.24)
209 जन्नी-मरदाना (वहाँ के दिरिस त अजीबोगरीब हल । चार गो डिलैट बरि रहल हल । सो दू सो के मजमा जुटल हल । जन्नी-मरदाना, बुतरू, जुआन, बूढ़ा-बूढ़ी सब तमाशा देखि रहल हल गोल घेरा बनाके । ऊ घेरा में एगो अदमी हाथ में लाठी लेले नाच रहल हल । कुछ गवइया लोरकायन गा रहल हल ।) (सारथी॰12:17:11:2.24)
210 जमतगर (संयोग से ऊहे डिब्बा में आठ-दस जन्नी-मरद अयोध्या तक के सहयात्री भे गेलन । जमतगर हो गेला से हमर मन गद्गद् हो गेल । हमर विचार से यात्रा एकल्ले के चीज न हे ।) (सारथी॰12:17:26:1.28)
211 जर-जमीन (खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे । सुनल जाहे कि पहिले कल-करखाना चलावइ लेल मजूर बसावल जा हल । अब तो किसान के जर-जमीन हथिया के ओकरा मजूर बनावइ के चलन हो गेल हे ।) (सारथी॰12:17:9:1.31)
212 जाल-जलमल ("भैया लोग ! एन.टी.पी.सी. खुल रहलो हे । सरकार जमीन ले लेतो । ओकर अढ़ाइ गुना दाम देतो । सभे के रज-गज होतो ।" एकरा पर तोखी सिंह चउँकलथिन - "देखलहो नञ्, राजगीर में बारूद फैक्ट्री खुललइ । सिठौरा राजा हो गेलइ । जेकर बाप के घास गढ़ते-गढ़ते घट्टा पड़ गेलइ हल, ओकर जाल-जलमल फटफटिया चढ़ रहलो हे ।") (सारथी॰12:17:13:2.45)
213 जित्ते (= जिन्दा/ जीवित ही) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । ... घर-अंगना हिअइतो । बेटी-बहू पर नज्जर गड़इतो । हिसाब-किताब में जित्ते गाय गिले ले तइयार ।) (सारथी॰12:17:8:1.50)
214 जिनोर (दे॰ जिनोरा) (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।) (सारथी॰12:17:10:1.20)
215 जियान (ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल ।) (सारथी॰12:17:16:1.52)
216 जीतिया (उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।) (सारथी॰12:17:14:2.25)
217 जीनीस (= जिनिस; वस्तु, चीज, सामान) ('अच्छा ! ऊ जीनीस जे पेठइलियो हल ऊ कइसन लगलो ?' पड़िया बूझ न रहल हल ई बुझउअल । / 'अरे ! ऊहे 32 नम्बर वला, सइजगर हलो ने ?' पड़िया के कान झनझनाय लगल ... । / मलिकवा केतना छीछोर अदमी हइ ! ऊ घर दने दउरी लेले बढ़े लगल । पीछे-पीछे बाझो सिंह बी बढ़े लगल ।) (सारथी॰12:17:23:1.54)
218 जुअन पिट्टा (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! कल्ह गेलिअइ पोखरिया में नहाय ले । झिगुलिया नहा को पीड़िया पर पुतली बदलब करऽ हलइ, अनचोक्के हमर नजरिया ओने चल गेलइ । छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! एने की हुलकइ हें, लहँगा ले लुलके हें । देबउ अँखिये में टकुआ भोंकि । हमरा नजर लगावइ हें, जुअन पिट्टा ! तोरा जुआनी में आग धर दिअउ ! तोर सरधा में गरदा पोरि दिअउ । देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।") (सारथी॰12:17:17:3.46)
219 जुअनका (मीटिंग खतम । सभे कापो बाबू के बात से सहमत हला बाकि एन.टी.पी.सी. के लोभ - विकास के सपना सबके भरमइले रहल । जब गाम के जुअनकन ई बात सुनलक तउ अलगे माहौल हल ।) (सारथी॰12:17:13:3.46)
220 जुटी (आसिन के महीना जब एकलगायत त्योहार मनावे ल परदेस से कमा-कमा के सब लौट रहल हल, पड़िया घर-दुआर, देवता-देवी छोड़के माउग-मरद, बाले-बच्चे अइँटाखोल जाय ले तैयार हे । एक जुटी पर दस हजार, ओकरा में पाँच हजार से बेसी दादनी, जे पहिलहीं अँचरा के खुँटी से ससर गेल हल । भट्ठा पर चढ़े घड़ी पाँच हजार से कमे हाथ लगल ।) (सारथी॰12:17:20:1.16)
221 जुठकठार (अभी पड़िया के गोड़ के अलता मेटाल भी नञ् हल कि बीझना बिदके लगल । जनु ओकर कान में के कौन मंतर फूँक देलक हे कि पड़िया से भर मुँह बोले नञ् । ... कभी लगे कि दौड़के घर जाऊँ आउ पड़िया के अकवार के प्यार के झुलुआ में झुलते रहूँ, कभी लगे कि जुठकठार पड़िया में हमरा लेल बचल की हे ? ओकरा कोहबर रात याद आवे लगल ।) (सारथी॰12:17:21:2.10)
222 जेठ-रैयत (साँझ के महरानी थान में मिटिंग लगल । गाम के जेठ-रैयत, बटइदार आउ पट्टेदार सभे जुटलथिन हल - भागवत बाबू, तिरपित बाबू, रामशरण बाबू, एकादश बाबू, मनीजर साहेब, पटवारी जी, तोखी सिंह, दशरथ सिंह, कापो सिंह, किसुन महतो, रामस्वरूप पांडे, ओगैरह तीनो टोला के लोग ।) (सारथी॰12:17:13:2.31)
223 जेभी (= जेब) (ओकर हाथ ओइसइँ जेभी से बहरा गेल, जइसे तातल खिचड़ी छूके अंगुरी । सड़क के किनारे पसरल सामान पर ओकर नजर ठहरि गेल । ऊ मने मन बुदबुदा हे - 'सब कुछ त ओइसइँ धइल हे । एगो पैंट आउ एगो फराके त बिक पाल ... सबेरे-सबेरे के बोहनी । औने-पौने भाव लगा देलूँ ।') (सारथी॰12:17:15:1.11)
224 जैन (बीझना के घाव भी अभी हरियरे । ऊ टेवानले हल कि बाझो सिंह के ड्योढ़ी पर दुन्नू के लस्टम-पस्टम करते देख लूँ, ओजय दुन्नू के कुट्टी-कुट्टी काटके जमुई जंगल में पाटी जैन कर लेम । बाझो सिंह के लठैत आउ गुंडा कि थाना पुलिस से भी निपटे ले एक्के उपाय - लाल झंडा जिन्दाबाद !) (सारथी॰12:17:22:1.51)
225 जोगना (= यत्न से रखना) ("बेटा, कुल आउ कपड़ा जोगे के चाही । ई खेत नञ् हम्मर हे, नञ् तोहर । ई पुरखन के धरोहर हे, संस्कार हे । एकरा जोगावो, तभिये नाम होतो । बाप-दादा के पगड़ी बेचके फटफटिया चढ़बऽ, त पुरखन की कहथुन ?") (सारथी॰12:17:14:1.47)
226 जोड़ना-नारना (हिसाब ~) (हिसाब जोड़े-नारे में मइया एकदमे भोंजल हे । ऊकी, तहिया फूफा के हाथ बाऊ रुपइया भेजइलका हल । महाजन आल आउ तीन-तेरह करके कुल्ले हथिया लेलक ।) (सारथी॰12:17:8:1.36)
227 जोतदार (= जोतनुआ, जोतनू, जोतमल; किसान, कृषक, खेतिहर) (केसर महतो कहो हलथिन, 'बेचारा कापो भइया ... ।' आझ कापो चा 'बेचारा' हो गेलथिन । अट्ठारह बीघा के जोतदार कापो चा - आझ बेचारा । दू जोड़ा हाथी नियन बैल, दू गो दोगली गाय, एगो गुजराती भैंस गोंड़ी पर शोभो हलइ कापो चा के । देवना बराहिल ... ई कड़कड़िया मोंछ, छोफिट्टा जुआन, सिलेब रंग एकदम पकिया ।) (सारथी॰12:17:13:1.21)
228 जोहनइ (बनछिल्ली में कुछ खेत हे । धान उपजऽ हे । धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।) (सारथी॰12:17:8:1.12)
229 जोहिआना (भोरगरे जानवर खुट्टा से खुल गेल । सबके हाथ में तेल पिलावल लाठी, जेकरा में पत्तर ठोकल, गोवा लगल । गंगा के किछार पर भीड़ जमा होवऽ लगल । सबके मुँह से एक्के सबद - 'चल, आज हाँका हइ भाय !' सले-सले पाँचो हेलवार भैंस जोहिअइले गंगा के किछार पर पहुँच गेल ।) (सारथी॰12:17:10:2.11)
230 झंझुआना (रात जब निसबद होल त टोला में कुत्ता झंझुआय लगल । पड़िया सच्चे अनुमान लगइलक कि ऊ आ रहलथिन हे ।) (सारथी॰12:17:21:3.45)
231 झक्क (~ सफेद) (ऊ अब भी अपन बगल में बइठल, सीना पर दाढ़ी लहरायत बुजुर्ग के जरी शक भरल निगाह से देखि रहल हल । उज्जर दाढ़ी-मोंछ के बीच से झाँकइत ऊ बूढ़ा के आत्मविश्वास से भरल झक्क सफेद मुस्कुराहट जनु ऊ थकल-परेशान माय के कहईं हौले से थिरथम्मन कइलक । थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:24:3.28)
232 झखुराही (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।") (सारथी॰12:17:18:1.4)
233 झाड़ा-पखाना (बाझो सिंह के अदमी आवे तब ... दरद के दू-चार गोली या कभी-कभी सुइया भोंकवा दे । पलस्तरा करावे के ने ओकर उकात, ने बाझो सिंह के कोय मतलब । रहल हरवाहा के बात, तो लुझन के छोटका बेटा बीझना छौड़गरे हल, जे अपन बाप के झाड़ा-पखाना करवाके मालिक के हुकुम बजावे ले चलिए जा हल ।) (सारथी॰12:17:20:1.47)
234 झाड़ी-झूरी (बाऊ जी परदेस आउ बस बाल-बच्चे घर में । ... गरमी के दिन में बीड़ी के पत्ता तोड़ऽ हे । अइसे सब मिलके लकड़ी चूनऽ हल । पोरगर-पोरठगर लकड़ी नञ् काट पावऽ हल । ई लेल झाड़ियो-झूरी चून ले हल । ओकरे में से चून-बिछ के कहियो मइया हाट पहुँचा दे हल ।) (सारथी॰12:17:8:1.23)
235 झुरझुरी (अगहन के शुरूह में ठंढा धीरे-धीरे धरती पर दुलहिन जइसन सुकुर-सुकुर पँव रख के उतर रहल हल । साँझ के समय झुरझुरी सन लगो लगल हल ।) (सारथी॰12:17:17:1.3)
236 झौहर-झौहर (~ कानना) (एतना कहते-कहते सोमर आँख बंद कर लेलक । सोमरा बाल-बच्चा समेत झौहर-झौहर कानो लगल । गाँव जानलक । अप्पन किसान अइलइ - कफन ले पैसा देलकइ । मुर्दा चला को उतरी पिन्हने दोसर दिन किसान यहाँ पहुँचल - मालिक ! बाबू के लड्डू-पूड़ी करि दइ ले चाहऽ हिअइ चौरासी के भोज ।") (सारथी॰12:17:19:1.33)
237 टप्पा ('बस एक टप्पा आउ नुनु । तनि मलकले चल । एकदम नूर के दम जाय के चाही ।' । फेर तनि ठहर के, 'मिलतइ हो ... पूरी, जिलेबी आउ आलू बैगन के तरकरियो । भर दोना । हहर मत ।') (सारथी॰12:17:7:1.1)
238 टरके-टरक (= ट्रक के ट्रक) ("अइसे काहे बोलइत ह जी ! अपसोवारथी वाला बात ! ... लोग कहइत हलथी कि ढेर कम्बल आयल हइ बाँटे खातिर ... टरके-टरक आयल हइ ।" बेदामी कहलक ।) (सारथी॰12:17:5:3.32)
239 टीकस (= टिकस; टिकट) (बड़का भइया भी गाड़ी चढ़ावे साथ अइलन हल । ऊहे टीकस भी कटा देलन आउ गाड़ी चढ़े-चढ़े घरी तक एक किलो संतरा भी हमरा थमा देलन ।) (सारथी॰12:17:26:1.25)
240 टीटी (= T.T.E.) (नवादा से आगू पहिल तुरी जा रहलूँ हल । गया जंक्शन देखि के त हम चकड़बम रहि गेलूँ - बाप रे बाप ! लैन पर लैन, गाड़ी पर गाड़ी, लटफरेम पर लटफरेम, खदबद टीटी !) (सारथी॰12:17:26:1.35)
241 टुनमुन (~ बच्ची) (सफेद दाढ़ी वला बुजुर्ग आउ ओकर गोदी में बइठल टुनमुन बच्ची के आपस में तालमेल बइठावे में कोय जादे समय न लगल ।) (सारथी॰12:17:24:3.35)
242 टेबना (= चुनना, परखना, टटोलना) (गया के मोसाफिरखाना देखि के त हम दंग रहि गेलूँ । ... चारो पट्टी बइठे के बेंच बनल, पानी, पाखाना के सुविधा अलग । सब सुरक्षित जगह टेबके डेरा जमा लेलन ... बीच में गेठरी-मोटरी, चारो पट्टी सुत्तल-बइठल साथी । हमरा नींद कहाँ !) (सारथी॰12:17:26:2.10)
243 टेवानले (बीझना के घाव भी अभी हरियरे । ऊ टेवानले हल कि बाझो सिंह के ड्योढ़ी पर दुन्नू के लस्टम-पस्टम करते देख लूँ, ओजय दुन्नू के कुट्टी-कुट्टी काटके जमुई जंगल में पाटी जैन कर लेम । बाझो सिंह के लठैत आउ गुंडा कि थाना पुलिस से भी निपटे ले एक्के उपाय - लाल झंडा जिन्दाबाद !) (सारथी॰12:17:22:1.48)
244 टोनगर (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।) (सारथी॰12:17:10:1.22)
245 टोला (पछियारी टोला में बीझना के कान नञ् देवल जाय । सगरे एक्के चर्चा ... बीझना वली बाझो सिंह तर बिलउज खोल के अंदर के जिनिस देखा रहल हल कि बाझो सिंह ओकरा ड्योढ़ी से भगा देलक, ई कहके कि हम तोर बाप दाखिल हियो आउ तूँ हमरा बदनाम करे लेल अइलऽ हे ?; एन्ने दक्खिन टोला में अलगे चर्चा - बाझो सिंह बीझना वली से ड्योढ़ी पर जोर-जबरदस्ती कर रहल हल कि बीझना वली एक लात मारके भाग आल ।; पछियारी टोला के हो-हल्ला में दक्खिन टोला के खुसुर-फुसुर बिला गेल ।) (सारथी॰12:17:23:3.5, 12, 17)
246 ठइयाँ (= ठामा; जगह) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे ।) (सारथी॰12:17:7:1.14)
247 ठकुआयल (अकादमी के गेट पर गाछ के छाहुर में मन के बात मने में दबइले ठकुआयल ठाढ़ हली । एतने में पटना से श्री घमंडी राम, श्री हरीन्द्र विद्यार्थी आउ श्री राजकुमार 'प्रेमी' हमरा सभे के खोजइत पहुँचला । गल-गलवात होवो लगल ।) (सारथी॰12:17:31:3.45)
248 ठगबनीजी (नरेन्दर सोचऽ हे - ठगबनीजी के घोषणा ! गरीब के पूछ कहउँ नञ् । बड़का लेल विज्ञापन । पैसा-वलन के पूछ । ऊ ई अंधेर व्यवस्था पर पच् दनी थूक दे हे ।) (सारथी॰12:17:16:1.7)
249 ठाँव-कुठाँव (भूख पहिला सवाल रहऽ हे आउ ओकरा खातिर ऊँच-नीच, ठाँव-कुठाँव सब लाँघे पड़ऽ हे । जीअइ लेल तो जहरो ने पीअ हे आदमी । इज्जत ढोवइ वलन भूख के आगू हार रहल हल ।) (सारथी॰12:17:8:2.46)
250 ठिठियाल (~ चलना) (लैन होटल ! बूढ़-पुरनियाँ के चर्चा के विषय । सब के एक्के बात, 'अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।') (सारथी॰12:17:9:1.8)
251 ठिसुआल (गाड़ी रुकल । भीड़ में ऊ दुन्नूँ औरत-मरद अन्हार में बदलि गेल । बुजुर्ग के चेहरा पर स्याह परछाईं तैर रहल हल, ठिसुआल सन । ऊ सामने के खिड़की से अनमनाल अंदाज में लटफरेम के अन्हार दने घूरऽ लगलन ।) (सारथी॰12:17:25:2.32)
252 डगराना (= लुढ़कना; लुढ़काना) (एक दन्ने जउन समाज में जात-पाँत, अगड़ा-पिछड़ा, हिन्दू-मुसलमान के झंझट अपन हाट लगइले हे, आपसी मतभेद के भाँग कुँइए में घोराल हे, एक-दोसर के टंगरी खींचे में हम डगरा के बैंगन हो रहलूँ हें, राय-छितिर हो रहलूँ हें, गुरुजी के गरहाजिरी अखरो हइ ।) (सारथी॰12:17:34:2.47)
253 डगरिन (कनियाय घर अइली - सलियाने बच्चा । एगारह साल में एगारह बच्चा । सब तो एकर जान छोड़के चल देलकइ, हाथ में बच गेलइ चार । दू बेटा - दू बेटी । बारहवाँ में बेचारी अपने चलि देलकइ ।/ भेलइ ई कि साँझ चार बजे से ओकरा दरद शुरूह भेलइ । डगरिन तेल से पिछलइकइ । कोय कहलकइ - सूअर के तेल मरीच गरम करके पिला दहो, सेहो कइलकइ ।) (सारथी॰12:17:18:3.18)
254 डराम (= ड्राम, dram) (पहिले भी ई गाम संपन्न हल ... धन-धान्य से भरल-पूरल हल ... गाय-भैंस से गोंड़ी अघाल हल । मुदा अब ... मुआवजा मिलला के बाद जैसे ई गाम जादे विकास करि गेल हल ... कुछ मायने में । घर से कोठी-कनरा खतम हो गेल हल आउ डराम आ गेल हल अनाज रखे ला ।) (सारथी॰12:17:14:2.47)
255 डिलैट (वहाँ के दिरिस त अजीबोगरीब हल । चार गो डिलैट बरि रहल हल । सो दू सो के मजमा जुटल हल । जन्नी-मरदाना, बुतरू, जुआन, बूढ़ा-बूढ़ी सब तमाशा देखि रहल हल गोल घेरा बनाके । ऊ घेरा में एगो अदमी हाथ में लाठी लेले नाच रहल हल । कुछ गवइया लोरकायन गा रहल हल ।) (सारथी॰12:17:11:2.23)
256 डेर (= डेब, ऐंचा, भेंगा, बकड़ेर, कनडेब; देखते समय एक आँख झपकाने या बंद रखने वाला; एक सींग ऊपर और दूसरी नीचे वाला मवेशी, सरगपताली; एक ओर मुड़े टोंड का हल; ऊपर-नीचे जलने वाली (लौ)) (सोमरा अप्पन छोटका अँखिया से देखलकइ, बड़का मूँद के, कहलकइ, "हमरा तो दुन्नो से लखा दे हइ बाबू ! तब हमरा काना कइसे कहलहीं ?" शनीचर कहलकइ, "तों कान नै हहीं, डेर हहीं । मौगी होतउ पतलडेर । देखतउ तोरा, लगतउ दोसरा के देखब करऽ हइ । देखतउ पूरब, तब लगतउ दक्खिन देख रहलइ ह आर कि !") (सारथी॰12:17:18:1.53)
257 डेरगूह (अचक्के चेथरूआ भिजुन एगो सोंस उपराल । ऊ हड़बड़ा के कहलक, 'बाप रे बाप ! कतबड़ गो सोंस हइ कका ! सुनऽ हिअइ कि एकरा फूँकला से अदमी के देह फूलि जा हइ ... कहइँ ... ।' बलेसर हँसइत कहलक, 'सोंस डेरगूह जानवर होवऽ हइ । ऊ त अदमी के देखइते मातर भागऽ हइ ।') (सारथी॰12:17:10:3.28)
258 ढिकली (सीढ़ी के ऊपर मंदिर में बाबा किशोरी शरण जी हमनियें के इंतजार करि रहलन हल । प्रसाद में खोवा के बनल चउड़गर-चउड़गर दू-दू गो लाय आउ मिसरी के बड़-बड़ ढिकली मिलल । ऊहे हमर सब के बालभोगी भेल ।) (सारथी॰12:17:27:1.13)
259 ढेंउस (= ढउँसा, ढौंसा, ढाउँसा) (घुंघरैला केश गरदन पर झूलो हल ... भेंभा नियन । धोती-कुरता, गोड़ में जुत्ता ... एगो छाता आउ एगो करका बेग जरूरी । बेग भी कइसन ... बरसाती बेंग जइसन । बेंग भी नञ् कहो ... बरसाती ढेंउस नियन ।) (सारथी॰12:17:34:1.42)
260 ढेरकुनी (= ढेरमनी; बहुत सारा) ('तनि मलकले चल । फेर हुआँ भी लमहर लइन लगावे पड़तउ । ढेरकुनी ने पहुँच जा हइ ।' बाऊ टिटकारी मारलन ।) (सारथी॰12:17:8:3.1)
261 ढेला-ढक्कर (~ करना) (ओने यमुना सिंह मतिछिन नियन गामे-गाम भटकइत चलऽ हला । उनखर हरकत से घरइया सब परेशान हो गेला । ईहे क्रम में एक दिन यमुना सिंह नरहट गाँव पहुँच गेला । वहाँ के लोग-बाग उनखा पागल समझि के ढेला-ढक्कर करऽ लगला । उनखर माथा-ताथा फूट गेलन । गाँव वलन उनखा मार-पीट के गाँव से भगा देलक ।) (सारथी॰12:17:27:3.31)
262 ढेह (= ढेव; समुद्र का ज्वार; पानी की लहर, तरंग, हलफा) (मइया गंगा अपन मस्त चाल में बह रहली हल । हरेक ढेह में सोना आउ चाँदी के मिलावट हल आउ एन्ने कापो सिंह के मन ढेह उठ रहल हल - "अब तोंहीं कुछ करहो मइया । ई बउड़हवन के मति-गति देहो । गंगोतरी से गंगा-सागर तक तोरा गेन्हावे के ठीका लेलको हे ।"; ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल ।) (सारथी॰12:17:13:2.20, 22, 16:1.49)
263 तइरनइ (सरयू देखि के हम अचंभित रहि गेली ... चैत में कलकल धारा ! हम ऊ स्वर्गिक छटा निहारइत सोचऽ लगली - काश ! एजइ हमर घर रहत हल कि रोज डुबकी लगइतूँ हल । तइरनइ हमर कमजोरी हे !) (सारथी॰12:17:26:3.48)
264 तरासल (गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे । गाँव के जमीन पानी बिन तरासल हे । नहर, कुआँ, बोरिंग पर केकरो धियान नञ् । खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे ।) (सारथी॰12:17:9:1.27)
265 तसमय (= तसमई; खीर; दूध में उबला हुआ शक्कर मिला चावल) (झटपट सब इन्तजाम हो गेल । सब छक के घी वाला छानल पूरी आउ तसमय खइलका । कठौती पर शुद्ध घी के पकवान गमछी में बान्हलका आउ भर खर्राटा मार के सुतला ।) (सारथी॰12:17:12:1.4)
266 तिअन-तासन (मइया हाट से तिअन-तासन लेल अलुआ, नोन, तेल, मिरचाय के साथे-साथ मिठगर चीजो लेले आवऽ हल । हरदी तो उपजवे करऽ हे । कहियो-कहियो सालन भी आवऽ हल । ऊ दिन तो मानऽ तेहवार हो जा हल ।) (सारथी॰12:17:8:1.31)
267 तुरिया (कत्तेक ~) (तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल ।) (सारथी॰12:17:9:1.12)
268 तेजपत्ता (= चतपत्ता; चतपताय) (ओने सुनीता खौलल पानी में तलछट चाय के पत्ती तरहत्थी पर लेके डालि देलक । चीनी झरि गेल हल । ऊ चुटकी भर निम्मक अउ तेजपत्ता देके छानि देलक । दू कप में ढारि के उठल आउ एगो नरेन्दर के थमाके दोसरका में खड़े-खड़े होठ लगा देलक ।) (सारथी॰12:17:15:2.44)
269 थक्कल-हारल ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।) (सारथी॰12:17:13:3.13)
270 थिरथम्मन (ऊ अब भी अपन बगल में बइठल, सीना पर दाढ़ी लहरायत बुजुर्ग के जरी शक भरल निगाह से देखि रहल हल । उज्जर दाढ़ी-मोंछ के बीच से झाँकइत ऊ बूढ़ा के आत्मविश्वास से भरल झक्क सफेद मुस्कुराहट जनु ऊ थकल-परेशान माय के कहईं हौले से थिरथम्मन कइलक । थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:24:3.30)
271 थुम्हना (तिलका देखलक कि ठेकेदार के आदमी एगो छप्पल फारम पर एकाएकी टिप्पी ले रहल हे । ऊ तनि दूरिये में खड़ा हो गेल । ढेर देरी तक खड़ा रहल । खड़ा-खड़ा ओकर गोड़ थुम्ह गेल । थकल तो हइये हल । भूख भी लग गेल हल ।) (सारथी॰12:17:9:1.39)
2 अंगइठी (अइसइँ जब सब कष्टी के कष्ट सुन लेलका त कहलका, "अब हम जइबइ, जल पिलाव ।" / उनखा जल पिलावल गेल, अंगइठी लेलका फेन स्वभाविक रूप में आ गेला । लोग-बाग उनखा घेर लेलक । सवाल पर सवाल पूछऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:11:3.50)
3 अइठकी-बइठकी (नरेन भाय त ऊ यात्रा में एगो सवाल छोड़ि के दोसर दिन चलि देलन बकि हमर नीन हरि गेलन । चिंतन मनन चलऽ लगल । अइठकी-बइठकी भेल आउ निर्णय भेल कि 'सारथी' के फेनु प्रकाशित करावल जाय ।) (सारथी॰12:17:2:1.29)
4 अइसइँ (दे॰ अइसहीं, अइसीं) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । ... हिसाब-किताब में जित्ते गाय गिले ले तइयार । तिलका-घर के की, सब के सब अइसइँ लंगो-तंगो । परदेस के कमाय महाजने के हाथ या अइला पर जलसा-जुलूस में खतम । कुछ सेंगरे तब ने ।; अइसइँ जब सब कष्टी के कष्ट सुन लेलका त कहलका, "अब हम जइबइ, जल पिलाव ।" / उनखा जल पिलावल गेल, अंगइठी लेलका फेन स्वभाविक रूप में आ गेला । लोग-बाग उनखा घेर लेलक । सवाल पर सवाल पूछऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:8:1.51, 11:3.47)
5 अउने-पउने (दे॰ औने-पौने) (गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे । गाँव के जमीन पानी बिन तरासल हे । नहर, कुआँ, बोरिंग पर केकरो धियान नञ् । खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे ।) (सारथी॰12:17:9:1.28)
6 अगवे (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । ... अगवे गेहुँम के आँटा आउ डबल स्टीम सीतवा चाउर आध मन के करीब बीझना के माय ड्योढ़ी से लेके आल हल ।) (सारथी॰12:17:21:1.41)
7 अड्डी (~ मारके बइठ जाना) ('तूँ अपना के हारल काहे बूझऽ हा ? दुर्दिन कि हमर जिनगी में अड्डी मारके बइठ जइतन ? ई आल हे त जइबे करत । अन्हरिया रात आवऽ हे सबेरा लावइ ले, याद रखि ला ।' तनी तनइत सुनीता बोलल ।) (सारथी॰12:17:15:3.24)
8 अदंक (= आतंक, डर, भय) (तिलका शहर पहुँच गेल । ... पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल । तहिया हरदम माय के गोझनउठे धइले रहऽ हल । बाऊ साथे आल त परदेसे जाय लेल । ऊ धरमसाला के आगू पहुँचल । देखलक कि सैकड़ों आदमी ओरे-धारी लैन लगइले हे । पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे ।) (सारथी॰12:17:9:1.19)
9 अद्धा (= वि॰ आधा; सं॰ आधा भाग; ईंट आदि का आधा भाग; शराब की आधी बोतल; शराब का नपना) (कापो चा त घरो से बहराय में तेरह तुरी सोचो हथ । / "की बाबा, फटफटिया चढ़भो ... ?" / कापो चा बिन देखले माय-बहीन उकटे लगो हला । कभी-कभार त एका अद्धा फेंक भी दे हला - लगो चाहे नञ् ।) (सारथी॰12:17:13:1.14)
10 अधअदमी (जब जंगल में सड़क बने लगल त देह पर तनि रोगन चढ़ल । सब जन्नी-मरद, हियाँ तक कि छोट-छोट बाल-बुतरू से लेके अधअदमी तक के काम मिल गेल हल ।) (सारथी॰12:17:8:2.3-4)
11 अधखुलल (कुछ औरत अपन आँख मुनले जोर-जोर से ताली बजा-बजा मगन गावइत दिख रहलन हल । कुछ एकदम लुज-लुज बूढ़ी बुतरू-सन चकित खिड़की के बाहर के नजारा देखे में बिसित हलन । उनखर पिचकल गाल वला मुँह खुलल हल । किनखो मुँह के कोर से लार गिर रहल हल । कभी-कभार उनखर अधखुलल मुँह से गावल भजन के एकाध टुकड़ी हउले से फिसलि जा हल ।) (सारथी॰12:17:24:1.24)
12 अधछेछर (नरेन्दर करवट बदलि लेलक हे । अहल-बहल सोंचते-सोंचते फेनो नींद आ जाहे । अधछेछर नींद में फेनो सपना देखऽ लगऽ हे । ऊ पटना में अपन बड़का भइया के पास हे । खाय-पीये मिल जाहे बकि भाभी के ताना के साथ ।) (सारथी॰12:17:16:2.34)
13 अधमने (थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:24:3.32)
14 अनइ-जनइ (खा-पी के बाहरे बथान पर सुत गेल । अधरात के नीन टूटल । एन्ने-ओन्ने हिअइलक त देखऽ हे कि सामने वला घर के केबाड़ी खुलल हे । एकाध जन्नी के अनइ-जनइ भी देखलक । पहिले तो लगल कि बहरभूँइ के बात होत ।) (सारथी॰12:17:9:3.5)
15 अनबेरा (हमरा नींद कहाँ ! हम त टुक-टुक आवइत-जाइत लोग-बाग, गाड़ी देखइ के अनबेरा में उठल, बइठल, घूमइत समय बितावऽ लगलूँ । गाड़ी आवे, रुके, पसिंजर उतरे, चढ़े । लाल-लाल अंगा पेन्हले कुली के माथा पर भारी-भारी समान !) (सारथी॰12:17:26:2.13)
16 अनमनाल (गाड़ी रुकल । भीड़ में ऊ दुन्नूँ औरत-मरद अन्हार में बदलि गेल । बुजुर्ग के चेहरा पर स्याह परछाईं तैर रहल हल, ठिसुआल सन । ऊ सामने के खिड़की से अनमनाल अंदाज में लटफरेम के अन्हार दने घूरऽ लगलन ।) (सारथी॰12:17:25:2.33)
17 अन्हार-पन्हार (जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । ... बूढ़-पुरनियाँ के हाथ पर दू पइसा अइलो नञ् कि साँझे-बिहने चाह पीअइ ले हाजिर । बूढ़ आदमी चाह के सवाद के साथ-साथ बातचीत के माने-मतलब भी बूझे लगलन । अन्हार-पन्हार में चलइ वला खिस्सा-गलबात पर उनकर कान खड़क जा हल ।) (सारथी॰12:17:9:1.1)
18 अन्होर (दे॰ 'अनोर') (तड़ाक ... । बीझना ओकर गाल पर एक चमेटा जड़ देलक हल । मगर ई सब बात के तो लमहर पाँख होवऽ हे, उड़ते-फिरते सउँसे गाम अन्होर । केकरा-केकरा चमेटा मारले चले बीझना ?) (सारथी॰12:17:21:3.23)
19 अपसोवारथी ("अइसे काहे बोलइत ह जी ! अपसोवारथी वाला बात ! ... लोग कहइत हलथी कि ढेर कम्बल आयल हइ बाँटे खातिर ... टरके-टरक आयल हइ ।" बेदामी कहलक ।) (सारथी॰12:17:5:3.29)
20 अबधुर (= अबधर; अब तक, अभी) (अरे बेदामी ! का करबऽ । देख न केतना लूल-लांगड़ आउ कोढ़ी-काबर निराश लउट गेलन । दिन भर मांगतन, ऊ भी छूटल । अब त कम्बल मिलतो न । कम्बल त गूलर के फूल हो गेल । बाकिर सोचऽ ... का जनी अबधुर राजा आ जथी आउ कम्बल बाँटे लगतथी त हमनी के बड़का मोटरी हो जायत ।) (सारथी॰12:17:5:3.5)
21 अरखना-परखना (कभी-कभार उनखर अधखुलल मुँह से गावल भजन के एकाध टुकड़ी हउले से फिसलि जा हल । ऊ जउन कदर वातावरण में डूबके अरख-परख रहलन हल, ओकरा देखइत ई नञ् लगि रहल हल कि ऊ गुरु-स्तुति में मन लगा रहलन हे ।) (सारथी॰12:17:24:1.27)
22 अरूआ (~ लड़की) (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?") (सारथी॰12:17:19:1.15)
23 अलंग ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।) (सारथी॰12:17:13:3.10)
24 अलगइले (= अलगाना+'ले' प्रत्यय; उठइले; उठाए हुए) (आझ बीझना पर ईहे 32 नम्बर पहाड़ बनके गिरल हे । बाझो सिंह के कइसे पता चलल कि पड़िया 32 नम्बर के पेन्हऽ हइ ? एकर माने तेतरा के बात सोलह आना सच हे । ऊ कह रहल हल, 'बाझो सिंह अइसहीं नञ् तोर बियाह में गोड़ अलगइले हलउ । ऊ तोर मेहरारू के कुमारे में नाप-जोख ... ।'; बीझना के माय ई सब जानऽ हल कि नञ् पता नञ्, मुदा महीना दिन पुरते-पुरते पड़िया नयकी कनियाय से नयकी कमिनियाँ बन गेल । बाझो सिंह भी एहे दिन देखे ल ने ओकर बियाह में गोड़ अलगइले हल ।) (सारथी॰12:17:21:3.14, 22:1.22)
25 अलता (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । चौड़ा पाड़ वाला कथई रंग के दू गो साड़ी, सिलल-सिलावल साया-बिलौज, तीन भर के पायल, रंगन-रंगन के चार डिब्बा चूड़ी, अलता, अइना, कंघी, पाउडर दौरा नियर साज के पेठा देलन हल ।; अभी पड़िया के गोड़ के अलता मेटाल भी नञ् हल कि बीझना बिदके लगल । जनु ओकर कान में के कौन मंतर फूँक देलक हे कि पड़िया से भर मुँह बोले नञ् ।) (सारथी॰12:17:21:1.37, 2.2)
26 अहियात (घाट से थोड़े हटि के पतित पावनी सरयू नदी कलकल प्रवाहित हो रहलन हल । हम त जादे से जादे सकरी, टाटी नदी देखली हल, जे बरसात में त अहियात हो जाहे आउ बकिये सालो भर सुक्खल के सुक्खल । फाँकऽ बालू !) (सारथी॰12:17:26:3.43)
27 अहो (= उम्र या दरजा में कम लोगों को संबोधित करने में प्रयुक्त शब्द) (ऊ रुकि के पुछलन, 'कहाँ घर हउ नुनु ?' - 'वारिसलीगंज', हम मुस्कुरायत कहली । - 'तूँ डॉ॰ प्रकाश के बेटा हीं हो ?' ऊ पुछलन, 'आउ कोय अइलउ हे ?' - 'मइयो अइलइ हे ।' बड़े सरकार किशोर शरण जी दने निहारि के कहलन, 'अहो किशोरी, बुतरुआ पर ध्यान रखिहीं', आउ बाबा आगू बढ़ि गेला । हम त हैब-गैब में हली उनखर रूप-रंग देखि के ... ममता से भरल ! दया के प्रतिभूति !) (सारथी॰12:17:27:1.52)
28 आँख-समांग (~ बिला जाना) (बीझना ! हम्मर भतार ! ... मोछमुतवा के जनु के सहका देलकइ कि बियाह के बाद से नतीजा कर रहल हे । आउ बाझो सिंह ! ओकर आँख समांग बिला जाय निपुतरा के । आझ हमरा कोय करम के नञ् छोड़त हल । एगो नफरत के शिकार बनइले हल त एगो वासना के । ई मरद जात, जनानी के देह के गिंजन करइ लेल ही जलमल हे कीऽ ?) (सारथी॰12:17:23:2.47)
29 आँट (~ में नञ् आना) (बाझो सिंह एकसरे दलान पर बइठके बूँट के खस्सी जइसन चखना पर अंग्रेजी दारू चढ़ा रहल हल । दू-चार पैग के बाद आँख गोल-गोल हो गेल जेकरा में खून अब टपके कि तब । ... दू महीना से जादे हो गेल । पड़िया अभी तक आँट में नञ् आल । ऊ थूक निगलइत बुदबुदाय लगल, 'पड़िया ! आझ तोर जुआनी के रस भी दारुए में पिलाके पी जइबउ ।'; ऊ फेन बुदबुदाल, 'लुझनावली तो दू-चार दिन में मनइते-फुसलइते, डरइते-धमकइते आँट में आ गेल हल, जानय पड़िया के अँटावइ ले कौन-कौन बेलना बेले पड़त । लुझना तो सीधा-सपट्टा हमर एहसान से दबके मुँह गड़इले खोंखे के भी हिम्मत नञ् करऽ हल, मुदा ससुरा ई बीझना के आँख से तो आगे टपकइत रहऽ हे ।') (सारथी॰12:17:22:2.41, 47)
30 आँधी-बतास ("देखऽ बेदामी ... भोट के बेरा रहतइ हल न, त रजवा जरूर अतउ हल । आँधी-बतास में उड़ के भी, बाढ़ में दहा के भी ... कइसहूँ पहुँचतउ हल । आके फुसलतउ हल, घिघिअतउ हल बाकिर अभी ?" चल्हवा बड़बड़ाइत हल आउ ओकर साँस धौकनी नियन चले लगल हल ।) (सारथी॰12:17:6:2.17)
31 आगरों ('एक दिन तोहूँ चल जइहऽ तिलक ।' भउजी हँसइत कहलकी ।/ भउजी के बात याद अइते ओकरा लगे लगल कि सच्चोक में भउजी आगरों जानऽ हली । पहिले बाऊ परदेस कमाय ले जा हलन । भइया, हम, दीदी आउ मइया घर पर ।; हिसाब जोड़े-नारे में मइया एकदमे भोंजल हे । ऊकी, तहिया फूफा के हाथ बाऊ रुपइया भेजइलका हल । महाजन आल आउ तीन-तेरह करके कुल्ले हथिया लेलक । महाजनो के जइसे आगरों हो जइतो । केकरा हीं पइसा अइलो, केकरा हीं नञ् अइलो या केकरा कहिया अइतो, जइसे तार लगल हे ।) (सारथी॰12:17:8:1.3, 40)
32 आन्हर-कान (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?") (सारथी॰12:17:19:1.16)
33 आर (= बड़ी आरी) ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।) (सारथी॰12:17:13:3.10)
34 आल-औलाद (मौगी कुरोध के बोललइ, "दुर्रर्र ने जाय छुछुन्नर ! ... हम बे नगन होल जाही । ई पाछूहिया को की देखऽ हीं ?" सोमरा कहलकइ, "अरे देखऽ हिअइ - हमर सातो पहुरा कहाँ हइ ?" मौगी कहलकइ, "दुर्र हो ! ... लाजो नै लगऽ हइ मर्दवा के ! ... चलें ने घर में खूब दीया बत्ती बारके देखइत रहिहें । सात पहुरा कि, ई अइसन समुंदर हइ कि एकरा में तों, तोर आल-औलाद सब समा जइतउ, पता नै चलतउ ।" कनियाय घर अइली - सलियाने बच्चा ।; मागु से कहलकइ - तों ठीक कहलहीं हल ! एकरा में तोर सातो पहुरा कि, तोर आल-औलाद सब समा जइतउ ।) (सारथी॰12:17:18:3.11, 19:3.36)
35 आहि-उपाय (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।) (सारथी॰12:17:27:3.38)
36 इन्द्री (= इन्द्रिय) (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल । भगत के छोम्मा इन्द्री जाग गेल ।) (सारथी॰12:17:11:2.47)
37 इसपिरेस (= एक्सप्रेस) (जमात एगो खलिया बेंच हथियाके बइठ गेल । पता चलल - साढ़े ग्यारह बजे रात के एक नम्बर लटफरेम पर गाड़ी आवत ... इसपिरेस ! एकर पहिले हम इसपिरेस पर नञ् चढ़लूँ हल ।) (सारथी॰12:17:26:1.47, 48)
38 उकात (= औकात) (बाझो सिंह के अदमी आवे तब ... दरद के दू-चार गोली या कभी-कभी सुइया भोंकवा दे । पलस्तरा करावे के ने ओकर उकात, ने बाझो सिंह के कोय मतलब । रहल हरवाहा के बात, तो लुझन के छोटका बेटा बीझना छौड़गरे हल, जे अपन बाप के झाड़ा-पखाना करवाके मालिक के हुकुम बजावे ले चलिए जा हल ।; सपना भी उकाते के देखके उड़ान भरऽ हे, एकदम नापल-जोखल । घोड़ा पर सवार राजकुमार महल के अँटारी से झाँकइत राकुमारी के गोदी उठाके फुर्रऽऽऽ जइसन सपना भला बीझना के आँख पर कहाँ से बइठत, मुदा ओकर सपना भी कम अजगुत नञ् रहऽ हल ।; नोट के धाह तो बड़का-बड़का के चुंगार दे हे, ई कंगलवा बीझना के की उकात । दू-चार हजार खरच करवइ कि पड़िया हम्मर गोदी में ।) (सारथी॰12:17:20:1.44, 3.37, 22:3.6)
39 उजलत (= हड़बड़ी, जल्दीबाजी; देर होने की वजह से झुंझलाहट) (हम किशोरी शरण जी के साथ जा रहलूँ हल । ओतबड़ पंगत में मंत्रोच्चार चलि रहल हल । व्यवस्था के तारीफ ... कोय हर-हर खर-खर नञ् । कोय उजलत नञ्, कोय कमी नञ् । छप्पन प्रकार ! अपूर्व स्वाद ! आत्मा तृप्त ।) (सारथी॰12:17:27:2.20)
40 उजास (पड़िया अन्हार होवे के अनेसा में गुदगुदी महसूस कर रहल हल, 'आझ तो पुछिए लेबइ कि काहे तूँ हमरा से फड़कल रहऽ ह ।' मन में ढेर बात सोरिअइले मगर बीच-बीचे से ओझरा जाय । ढिबरी के तरेंगनी उजास में भीतरी मन के पियास बढ़ल जा रहल हल ।; ऊ बच्ची के बुट्टी भर के मुट्ठी अपन हाथ में थामि रखलक हल आउ थोड़े झुकइत बच्ची के चेहरा से अपन मुँह सटा के हौले-हौले, आगू-पीछू झुकि-झुकि के बुजुर्ग दने इशारा करि के ओकर जुबान से बोलावे के जतन करि रहलन हल - बोल बुनियाँ ... नान्ना ! बोल ... नान्ना ! बुजुर्ग के चेहरा ममता के उजास फेंकइत खुशी से झलमल-झलमल करि रहल हल ।) (सारथी॰12:17:21:3.38, 25:1.27)
41 उथायल-बथायल (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?") (सारथी॰12:17:19:1.16)
42 उनइस-बीस (बाझो सिंह के देहरी से जुड़ल रहइ लेल भी ई जरूरी हे । आखिर घटल-बढ़ल उनइस-बीस वहइँ से ने पूरा होवऽ हे । बीझना के काँधा पर भी पालो रखा गेल हल । समय से पहिले जुआन हो गेल । दिन भर के हरवाही बैल-धूर के सानी-पानी, मालिक के दियल डेढ़ कट्ठा घेरवारी सब ओकरे जिम्मे ।) (सारथी॰12:17:20:3.23)
43 उबना-डूबना (ताली के गड़गड़ाहट में कापो बाबू के कुछ नञ् बुझायल । असमंजस में उबे-डूबे रहला हल कि तिरबेनी सिंह टोकलका, "की हो भयवा, कुछ बुझलहीं ?" / "नञ् यार, की बात हइ ?" / "इहाँ एन.टी.पी.सी. खुलतइ । कोयला से बिजली बनतइ ।") (सारथी॰12:17:13:2.2)
44 उमकना ("नञ् बेटा, तोरा नञ् पता हउ कि बीमार बाप आउ माय ले, सिरहाना में बइठल बेटा कतना बेसकीमती होवो हइ । ओइसहीं आरी पर किसान के देखके खेत झुमऽ लगो हइ, ओकर मन के उद्गार उमक जा हइ फसल के रूप में । इहे हमर संस्कार हइ, बेटा ।"; छप्पर से टाँगल लालटेन निकाल के पड़िया के आगू कइलक त लाज बांध तोड़के उमके लगल । सिर से नोंह तक रेशमी रूइया के फाहा बनल पड़िया बीझना के छुअन से समटाल जा रहल हल ।) (सारथी॰12:17:14:1.39, 21:2.21)
45 उरमना ('खाय के मन नञ् हउ, सुतऽ दे ।' - 'दुइयो कौर खा ल । खाली पेट फेन गैस्टिकवा उरम्हि जइतो ... लेनी के देनी ... पइसा ने कौड़ी ।') (सारथी॰12:17:16:1.43)
46 उसराना (= उसरना; काम आगे बढ़ना, प्रगति दीख पड़ना) (बाझो सिंह के लगल कि अबरी निशाना ठीक बइठल हे । ऊ बोललन - 'एक आदमी से केतना काम उसरइतइ, दुन्नु सास पुतोह के कल भेज दिहें । आउ हाँ ! इमलिया तर वला खेत के सभे मरहीना काटके कल साँझ तक ले आना हउ । ओकरा में हर चढ़ावे के हइ ।') (सारथी॰12:17:23:1.28)
47 उस्सठ (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । गारी-गलौज तो मानऽ ओकर बपौती हे ।) (सारथी॰12:17:8:1.42)
48 ऊकी (= उका, उकी) (हिसाब जोड़े-नारे में मइया एकदमे भोंजल हे । ऊकी, तहिया फूफा के हाथ बाऊ रुपइया भेजइलका हल । महाजन आल आउ तीन-तेरह करके कुल्ले हथिया लेलक ।) (सारथी॰12:17:8:1.37)
49 ऊराते (ऊपर नीचे सोचते पढ़ते ऊराते उठल, अप्पन झोरा में थोड़े सा सामान समेट के रखलक आर गाँव छोड़के चल देलक कइएक उदेस लेके ।) (सारथी॰12:17:19:2.38)
50 एकलगायत (आसिन के महीना जब एकलगायत त्योहार मनावे ल परदेस से कमा-कमा के सब लौट रहल हल, पड़िया घर-दुआर, देवता-देवी छोड़के माउग-मरद, बाले-बच्चे अइँटाखोल जाय ले तैयार हे । एक जुटी पर दस हजार, ओकरा में पाँच हजार से बेसी दादनी, जे पहिलहीं अँचरा के खुँटी से ससर गेल हल । भट्ठा पर चढ़े घड़ी पाँच हजार से कमे हाथ लगल ।) (सारथी॰12:17:20:1.12)
51 एकलगायते (बाझो सिंह एकसरे दलान पर बइठके बूँट के खस्सी जइसन चखना पर अंग्रेजी दारू चढ़ा रहल हल । दू-चार पैग के बाद आँख गोल-गोल हो गेल जेकरा में खून अब टपके कि तब । ठोर पर जीभ एकलगायते नाच रहल हल ।) (सारथी॰12:17:22:2.39)
52 एकलगौरी (सावन के महीना । एकलगौरी बारिस से नदी-नाला उमता गेल । गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब !; हम भी जुआनी में अइसन छलांग लगावऽ हली बकि एक्के बेर । फिन रुकके दोहरा सकऽ हली मुदा ई छोकरा त एकलगौरी करवटिया छलांग लगइते रहल । देखताहर सब भौंचक हलन ।) (सारथी॰12:17:10:1.14, 30:2.17)
53 एकलौठा (साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला । .. तय भेल कि पाँच अदमी आगू टरेन से जायत रसद-बुतात लेके आउ पाँच पांडव जानवर साथ गंगा हेलता । चानो का कहलका, 'मंगलामुखी सदा सुखी । कल हाँका हो जाय के चाही ।' जोड़ल गेल - पचीस भैंस, पाँच अदमी । सब के सब जुआन, एकलौठा, कसरती, पहलवान ! चेथरूआ सबसे छोट भले हल, मुदा हल सहसगर, लमहर, छरहर, पट्ठा छोंड़ा ।) (सारथी॰12:17:10:2.3)
54 एका (= एकाक; एकाध) (कापो चा त घरो से बहराय में तेरह तुरी सोचो हथ । / "की बाबा, फटफटिया चढ़भो ... ?" / कापो चा बिन देखले माय-बहीन उकटे लगो हला । कभी-कभार त एका अद्धा फेंक भी दे हला - लगो चाहे नञ् ।) (सारथी॰12:17:13:1.14)
55 एकागो (सरकार के नाक में दम करे आउ कोय अहम् फैसला नञ् लेवे देवे में हम्मर भूमिका अहम् । मोका मिलत तो बाप-दादा के नाम पर एकागो बंदरगाह, हवाई अड्डा, स्टेडियम या कौलेज खोलवावे के काम सुनिश्चित समझऽ ।) (सारथी॰12:17:36:2.44)
56 एज्जइ (= एज्जे; यहीं) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे । नीचू में खेत आउ तनि ऊपर में चउड़गर जगह । तेकर ऊपर पहाड़ के फुलंगी । बाल-बुतरू के खेलइत देखऽ तो लगतो कि ओकरा पहाड़ अपन गोदी में खेला रहल हे । सबसे पहिले एज्जइ रउद आवऽ हे ।) (सारथी॰12:17:7:1.23)
57 एतबार (दे॰ एतवार) (~ के ~ = प्रत्येक रविवार को) (बाऊ जी परदेस आउ बस बाल-बच्चे घर में । ... गरमी के दिन में बीड़ी के पत्ता तोड़ऽ हे । अइसे सब मिलके लकड़ी चूनऽ हल । पोरगर-पोरठगर लकड़ी नञ् काट पावऽ हल । ई लेल झाड़ियो-झूरी चून ले हल । ओकरे में से चून-बिछ के कहियो मइया हाट पहुँचा दे हल । एतबार के एतबार हाट लगऽ हे ।) (सारथी॰12:17:8:1.24, 25)
58 एत्तेक (बनछिल्ली में कुछ खेत हे । धान उपजऽ हे । धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।) (सारथी॰12:17:8:1.10)
59 ओइसनकी (ऊ जउन कदर वातावरण में डूबके अरख-परख रहलन हल, ओकरा देखइत ई नञ् लगि रहल हल कि ऊ गुरु-स्तुति में मन लगा रहलन हे । ओइसनकी बस बरबस समवेत गावल जाय वला भजननुमा गुरु-स्तुति में एकाध टप्पा अलबलायत दोहरा देवे के कोशिश भर करि रहलन हल ।) (सारथी॰12:17:24:1.30)
60 ओतबड़ (दे॰ 'एतबड़' भी) (= उतना बड़ा) (हम किशोरी शरण जी के साथ जा रहलूँ हल । ओतबड़ पंगत में मंत्रोच्चार चलि रहल हल । व्यवस्था के तारीफ ... कोय हर-हर खर-खर नञ् । कोय उजलत नञ्, कोय कमी नञ् । छप्पन प्रकार ! अपूर्व स्वाद ! आत्मा तृप्त ।) (सारथी॰12:17:27:2.18)
61 ओतुने (= ओत्ते; वहीं पर) (हमर सर्वप्रिय जगह सरयू के किनारे हनुमान मंदिर हल । ओतुने कुइयाँ पर बइठ गेलूँ ।) (सारथी॰12:17:28:2.22)
62 ओरे-धारी (एतबार के एतबार हाट लगऽ हे । गाँव से तनिक दूर पर हाट हे । एकाध बेरा तिलको हाट गेल हे । मारे जमघट । मुरगा-मुरगा के लड़ाय । समान बेचइ वला ओरे-धारी लैन लगइले । कपड़ा-लत्ता से लेके खाय-पीअइ के सब समान ।; अब तो सड़क पकिया हो गेल हल । गाड़ी-छागड़ चले लगल । जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । मारे ओरे-धारी खटिया बिछल रहऽ हे ।; तिलका शहर पहुँच गेल । ... पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल । तहिया हरदम माय के गोझनउठे धइले रहऽ हल । बाऊ साथे आल त परदेसे जाय लेल । ऊ धरमसाला के आगू पहुँचल । देखलक कि सैकड़ों आदमी ओरे-धारी लैन लगइले हे । पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे ।) (सारथी॰12:17:8:1.28, 3.48, 9:1.15-16)
63 ओहयँ (दे॰ ओहईं) (दीदी के पहुना परदेस कमाय गेलन आउ एक दिन मालूम होल कि कोय दोसर जन्नी साथ ओहयँ रह गेलन । दीदी केतना कानऽ हल । ओहे बच्छर माय खटिया पर गिरल से उठिये गेल ।) (सारथी॰12:17:8:3.21)
64 औरदा (संझकी एन्ने पूरब से टोहले घरे-घर पैंसते दक्खिन टोला में बुझन के खटिया तर पसर गेल । बीझना भी सवेरगरे खर-खरिहानी लगाके बाप भिजुन पहुँच गेल हल । टोला-टाटी के हीत-चीत भी जुमल । केकर हाथ के पानी पैठ होत । बुझन के साँझ चढ़ि गेल हल । माने एकरे औरदा पूरा ।) (सारथी॰12:17:20:2.47)
65 औसान (= आसान) ('खैर, ऊ नीसा में रहतन त हम्मर काम औसान भी हो सकऽ हे ।' ऊ दौड़के आल आउ आगू में खाड़ होके बोलल, 'एतना देरी काहे कर देहो ?'; पड़िया के देखके लार टपक गेल होत आउ मांग में सेनुर नञ् देखके हमरा साथ हिसाब-किताब बइठा देलक । नजर तर रखइ ले कमिनियाँ बनावे से औसान की हो सकऽ हे भला ? मौका मिलते हाथ साफ, मगर बाझो सिंह ! हमहूँ लुझन के औलाद ... कहते-कहते लगल कि बीझना के मुँह पर कोय हाथ रख देलक हे ।) (सारथी॰12:17:21:3.52, 22:2.31)
66 कखनउँ (= कभी) (तिलका बाऊ साथ रपेटले जा रहल हल, एकदम भाउठे-भाउठे । ई लेल कखनउँ सोता तो कखनउँ झार-झंखार आउ कखनउँ पहाड़ियो पर चढ़े पड़ऽ हल ।) (सारथी॰12:17:7:2.45, 46)
67 कचेड़ (जानवर त खेती के जान हे । जान बचावइ ले जान के बाजी लगाना त लाजिमे हल । / गंगा हेलवइया में पतिपदा सबसे सेसर हला । ऊ जब कमर कसलका त चानो का, रमेसर, बलेसर आउ चेथरूआ भी सुरफराल । सब में चेथरूआ सबसे कचेड़ हल । साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला ।) (सारथी॰12:17:10:1.43)
68 कछौटा (तोर माय बच्चे में मर गेलउ । ... हम मन कड़र करि लेलों । - रे मन ! एक बेरी जेकर आगू लंगौटी खोललों, ऊ बेचारी चलि देलक भगवान घर । अब फेर दोसरा आगे लंगौटी खोलना मर्द के काम नै हिकइ । बेटा के कछौटा के पक्का होवे के चाही । दोसरा साथ जइबइ तब मरलो पर ओकर आत्मा कहँड़इत रहतइ ।) (सारथी॰12:17:17:2.44)
69 कछौटी (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।") (सारथी॰12:17:18:1.7)
70 कज्जउ-कज्जउ (दे॰ कज्जो-कज्जो) (अब तो सड़क पकिया हो गेल हल । गाड़ी-छागड़ चले लगल । जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । मारे ओरे-धारी खटिया बिछल रहऽ हे ।) (सारथी॰12:17:8:3.47)
71 कटघुरनी (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।") (सारथी॰12:17:18:1.6)
72 कठकुक्कुर (चार दिन के बाद भुक्खल-पियासल गोपाल के माय के बलड-परेसर लो हो गेल आउ डॉक्टर आवे से पहिलहीं ऊ बेटा के ठमा चल गेली । गाम में हाहाकार मच गेल । सभे के लगल ... अब कापो चा भी ... बाकि नञ् ... कापो चा के करेजा कठकुक्कुर हो गेल हल । आँख में एक्को बून लोर नञ् ... खाली भासो के कहलखिन - "अंतिम बार चल के देखा दे ।") (सारथी॰12:17:14:3.28)
73 कठघोड़ा (पड़ोस के मोदखाना से आधा किलो मोटका चावल आउ पाव भर आलू आल । गोलहत उतरइत-उतरइत बुतरू-बानर पाँच तुरी भंसा हुलकि आल । हर बार - 'सीझऽ दे, खइहें' के भरोसा पर दुइयो भाय नाक में सीझइत भात के भाप भरि लउटि आवे आउ कठघोड़ा में बिसरि के बिसित हो जाय ।) (सारथी॰12:17:16:1.30)
74 कतबड़ (= केतबड़; कितना बड़ा) (अचक्के चेथरूआ भिजुन एगो सोंस उपराल । ऊ हड़बड़ा के कहलक, 'बाप रे बाप ! कतबड़ गो सोंस हइ कका ! सुनऽ हिअइ कि एकरा फूँकला से अदमी के देह फूलि जा हइ ... कहइँ ... ।' बलेसर हँसइत कहलक, 'सोंस डेरगूह जानवर होवऽ हइ । ऊ त अदमी के देखइते मातर भागऽ हइ ।') (सारथी॰12:17:10:3.25)
75 कथक्कड़ी (= कथा-वार्ता कहने की क्रिया या तरीका) (उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।) (सारथी॰12:17:14:2.28)
76 कद-काठी-सोलिट (~ देह वाली लड़की) (लड़की देखो लगला । मिले तो जादातर काना ले कानी । ई तो तइये हलइ मुदा ई बढ़िया कद-काठी-सोलिट देह वाली चाहऽ हलखिन से नै मिल रहल हल । आखिर उहे मिल गेल । तनी बेटवे नियर पतलडेर । बान्हि के कि कहना ? ... घोड़ कटार बान्हि । कार कसौटी पाथल सन । ओकरा में हीरा के चमक जइसे भीतर से फूल रहल हे ।) (सारथी॰12:17:18:2.12)
77 कनकनाना (= ?) (हमर गाड़ी के समय हो गेल । ध्वनि विस्तारक यंत्र से प्रचार होवऽ लगल - वाराणसी अयोध्या जाने वाले यात्री ध्यान दें ... ! बिड़नी के खोंता नियन यात्री कनकना गेलन । सामान समटाय लगल ... छूटे नञ् ... बढ़ियाँ से ... एक साथ ... आगू चलऽ ... आगू चलऽ ... जेनरल बोगी, ... भीड़ होतो ... !) (सारथी॰12:17:26:2.23)
78 कपड़िया (~ दोकान) (ऊ निर्णय लेहे - खेती में जान न देब । ऊ धनबाद आ गेल हे । केशवचन्द साहू के कपड़िया दोकान में नौकरी करऽ लगल हे ।) (सारथी॰12:17:16:2.42)
79 कबड्डी (ले ~ भागना) (ऊ ले कबड्डी टेहुना तक साड़ी उठाके भागे लगल । बाझो सिंह ई हरकत ले तैयार नञ् हल । ओकरा नञ् जाने कौन मशीन के बोल्ट ढील हो गेल हल कि आँख तर अंधार लगे लगल ।) (सारथी॰12:17:23:2.33)
80 कबाड़ना (= उखाड़ना) ("अगे मइया ! जोर से बुनी-पानी आवइत हइ बिलटुआ के बाबू ! उठऽ-उठऽ, अब इहाँ से डेरा खंभा कबाड़ऽ ।" अकबकाएल बोललक मेहरारू ।) (सारथी॰12:17:5:1.44)
81 कब्जियाना (गाड़ी के हड़हड़ी में खोवल कखने आँख लगि गेल कुछ पता न चलल । ऊ त हमरा ठीक नो बजे माय जगइलन, "शंभूऽऽ ! उठ जा बेटा ... ! अयोध्या आ गेलो नुनु ।" हम हड़बड़ा के नीचे आ गेलूँ आउ सामान कब्जिया लेलूँ ।) (सारथी॰12:17:26:3.2)
82 कमिनियाँ (बीझना के माय ई सब जानऽ हल कि नञ् पता नञ्, मुदा महीना दिन पुरते-पुरते पड़िया नयकी कनियाय से नयकी कमिनियाँ बन गेल । बाझो सिंह भी एहे दिन देखे ल ने ओकर बियाह में गोड़ अलगइले हल ।; पड़िया के देखके लार टपक गेल होत आउ मांग में सेनुर नञ् देखके हमरा साथ हिसाब-किताब बइठा देलक । नजर तर रखइ ले कमिनियाँ बनावे से औसान की हो सकऽ हे भला ? मौका मिलते हाथ साफ, मगर बाझो सिंह ! हमहूँ लुझन के औलाद ... कहते-कहते लगल कि बीझना के मुँह पर कोय हाथ रख देलक हे ।) (सारथी॰12:17:22:1.37, 2.30)
83 करका (~ धुइयाँ; ~ बादर; ~ नाग) (जइसहीं कोय भोंपू के अवाज या गाड़ी के सीटी कापो चा के कान के चदरा से टकरा हे, मन बउख जाहे कापो चा के । घर के बगले में एन.टी.पी.सी. के घेरबारी हे । घेरबारी में घेराल मोटगर मोटगर उँचगर चिमनी से करका धुइयाँ निकलके कापो चा के दिलोदिमाग पर छा जाहे ।; चिमनी से निकसइत करका बादर घेर लेलक कापो चा के - करका नाग नियन ।) (सारथी॰12:17:13:1.7, 36, 37)
84 करगे (शनिचर कहलकइ - "जो ने, करगे में मनोज सिंह वाला मरचइया फरि को लुथड़ी भेल हइ । अरिया तर छोड़के एक मुट्ठा घीचि लिहें । असली सीटिया मिरचाय हइ । तनी गो खइभीं, कान झनझना देतउ ।") (सारथी॰12:17:17:3.8)
85 कलौ (= कलउ, कलउआ; कलेवा) (सब के कलौ हो ... पक्का चार दिन के खोराकी । सब के जमा करि के बोरिया में बान्ह देलियो हे । एकरा तूँ अपन मुरेठा पर रख लिहऽ । तोरा छोड़के कोय एकरा पार नञ् करि सकऽ हे ।; ओने सब हेलवार होश में आल त भूख से अँतड़ी कुलबुलाय लगल । चेथरूआ चिल्लाल - 'अजी पतित का ! कन्ने गेलहो जी ?'/ 'की हलउ रेऽऽ ?' पतित दा लपकल अइला । उनखर मूड़ी पर मोटरी नञ् देखिके चेथरूआ पुछलक, 'कलौ वला मोटरिया कका ?' / 'जाऽऽ !' अकचकायल पतित दा के मुँह से निकलल ।; 'ओकर फिकिर छोड़ऽ । तोहनी सबके खाय, सुते आउ कलौ के इन्तजाम हम आजे रात करि देबो । पहिले चलऽ तो, तब ने हमर करिश्मा देखबऽ ।') (सारथी॰12:17:10:3.1, 11:1.20, 2.15)
86 कष्टी (= कष्ट; कष्ट पाने वाला, दुखी) (कष्टी के लमहर कतार लगि गेल । केकरो बीमारी हे, त केकरो घर नञ् बनि रहल हे । केकरो नौकरी नञ् लगि रहल हे, त केकरो बदली नञ् हो रहल हे ।; अइसइँ जब सब कष्टी के कष्ट सुन लेलका त कहलका, "अब हम जइबइ, जल पिलाव ।" / उनखा जल पिलावल गेल, अंगइठी लेलका फेन स्वभाविक रूप में आ गेला । लोग-बाग उनखा घेर लेलक । सवाल पर सवाल पूछऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:11:3.31, 47)
87 कहतो-महतो (लैन होटल ! बूढ़-पुरनियाँ के चर्चा के विषय । सब के एक्के बात, 'अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।') (सारथी॰12:17:9:1.7)
88 काच-कीच (रमेसर बोलल, 'एक त करैला, दोसर नीम पर चढ़ल । भूख के मारे खड़ा त होल नञ् जाहे आउ ऊपर से भैंस हाँकले काच-कीच में केक्कर समांग से चलबइ ?') (सारथी॰12:17:11:1.45)
89 काना (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! कल्ह गेलिअइ पोखरिया में नहाय ले । झिगुलिया नहा को पीड़िया पर पुतली बदलब करऽ हलइ, अनचोक्के हमर नजरिया ओने चल गेलइ । छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! एने की हुलकइ हें, लहँगा ले लुलके हें । देबउ अँखिये में टकुआ भोंकि । हमरा नजर लगावइ हें, जुअन पिट्टा ! तोरा जुआनी में आग धर दिअउ ! तोर सरधा में गरदा पोरि दिअउ । देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।") (सारथी॰12:17:17:3.43)
90 किछार (सावन के महीना । एकलगौरी बारिस से नदी-नाला उमता गेल । गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय !) (सारथी॰12:17:10:1.16, 17)
91 कुच्चा (इंतजार के घड़ी बीतल । सुनीता पहिले एक्के थरिया में गोलहत काढ़ि के बाँस के बीयन से सेरावऽ लगल । कुच्चा के कुद्दी दुइयो के हाथ में दे देलक ।) (सारथी॰12:17:16:1.34)
92 कुमर ठिल्ला (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! कल्ह गेलिअइ पोखरिया में नहाय ले । झिगुलिया नहा को पीड़िया पर पुतली बदलब करऽ हलइ, अनचोक्के हमर नजरिया ओने चल गेलइ । छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! एने की हुलकइ हें, लहँगा ले लुलके हें । देबउ अँखिये में टकुआ भोंकि । हमरा नजर लगावइ हें, जुअन पिट्टा ! तोरा जुआनी में आग धर दिअउ ! तोर सरधा में गरदा पोरि दिअउ । देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।") (सारथी॰12:17:17:3.44)
93 केता (= केत्ता; कहाँ; कितना) (गुरगेट भैंस के छूए-छूए पर हो गेल मुदा पतित का भी धैल पतित हला । भैंस के सींग पकड़िके ओकर रूख बामा दने कइलका आउ डुबकी मारि के खींचऽ लगला । ऊ अपन सब ताकत झोंक देलका । नतीजा भेल भैंस गुरगेट से बचि गेल । एकरे में उनखर माथा के मोटरी केता गिर गेल, उनका कुछ पता नञ् ।) (सारथी॰12:17:10:3.48)
94 कोंखा (भर ~ चरना) (चद्दर नञ् रहे के चलते ऊ कत्तेक बार रूसल हल । गोरू बंधल के बंधले छोड़ दे हल । तहिया दीदी चरावे ले जा हल आउ बिहने से संझउकी तक जंगले में चरइते रह जा हल । खाय लेल साथ ले जा हल । साँझ के घर अइला पर कहऽ हल, 'देख तो, कइसन भर कोंखा चरले हे । अइसन कहियो चरलउ हल ?') (सारथी॰12:17:7:1.42)
95 कोचना (~ चाटना) (ई बड़का घर के मरद जात, जेकर छूअल पानी नञ् पीए, ओकर कोचना भी चाटे ले तैयार ! ... छीः ... ।) (सारथी॰12:17:23:3.23)
96 कोठी-कनरा (पहिले भी ई गाम संपन्न हल ... धन-धान्य से भरल-पूरल हल ... गाय-भैंस से गोंड़ी अघाल हल । मुदा अब ... मुआवजा मिलला के बाद जैसे ई गाम जादे विकास करि गेल हल ... कुछ मायने में । घर से कोठी-कनरा खतम हो गेल हल आउ डराम आ गेल हल अनाज रखे ला ।) (सारथी॰12:17:14:2.46)
97 कोढ़ी-काबर (अरे बेदामी ! का करबऽ । देख न केतना लूल-लांगड़ आउ कोढ़ी-काबर निराश लउट गेलन । दिन भर मांगतन, ऊ भी छूटल । अब त कम्बल मिलतो न । कम्बल त गूलर के फूल हो गेल । बाकिर सोचऽ ... का जनी अबधुर राजा आ जथी आउ कम्बल बाँटे लगतथी त हमनी के बड़का मोटरी हो जायत ।) (सारथी॰12:17:5:3.1)
98 कोदार (= कुदार, कुदाल) (" .. तब देखऽ हीं सूतल-सूतल पेट बाढ़ि गेलइ । ई कि हिको तब चीनी के बेमारी । ई कि तब हाट बलेसर तब पाद बलेसर । कुल बलेसर ओकरे पर चढ़ल हइ । तों सबेरे किसान के काम करे ले जइभीं । दिन भर कोदार पारो, भूख लगतउ, अनाज तो अनाज, माटी समेत पेट में पच जइतउ ।") (सारथी॰12:17:17:2.5)
99 कौनी (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।) (सारथी॰12:17:10:1.20)
100 खड़ाम (= खड़ाऊँ) (गोंड़ी सून हो गेल हल ... घरे-घर टरेक्टर आ गेल हल - हर जोते ले । सभे के पक्का मकान ... हाथ मटियावे ला लाइफबाय सामुन, खड़ाम के जगह हवाई चप्पल, औरतन के सीधा पल्ला अब उलट गेल हल ... अँचरा विन्डोबा हो गेल हल ।) (सारथी॰12:17:14:2.51)
101 खतगर (सोमर कहलकइ, "तब कर दहीं काहे नै बाबू ?" शनीचर कहलकइ, "बियहवा करभीं तब सातो पहुरा बिक जइतउ । बड़ी खतगर सुगरी खोजके लइलिअउ हे । एकर माय बारह बच्चा बियावऽ हइ, एक बेरी में देखऽ हीं, पहिलठ में सात बच्चा बिअइलइ । सोचलिअइ हल - पाँचो के खस्सी खोला देबइ । दू गो सुगरी अगिला साल मोखि जइतइ । बस झरइत नै झरतइ । खसिया के बेचके अगिला साल तोर बियाह ।') (सारथी॰12:17:18:1.13)
102 खदबद (= बहुत अधिक; पूरी तरह भरा) (नवादा से आगू पहिल तुरी जा रहलूँ हल । गया जंक्शन देखि के त हम चकड़बम रहि गेलूँ - बाप रे बाप ! लैन पर लैन, गाड़ी पर गाड़ी, लटफरेम पर लटफरेम, खदबद टीटी !) (सारथी॰12:17:26:1.35)
103 खमौनी (= ठेकुआ) (अयोध्या के सबसे बड़गो पहचान भगवान राम के भक्त महाबली हनुमान ! से, उतरते के साथ हमर नजर उनखे पर पड़ि गेल, जे एगो यात्री के बगल से खमौनी के गठरी लेके यात्री-शेड के ऊपर छड़पि गेलन ।) (सारथी॰12:17:26:3.6)
104 खरकना (= घसकना, सरकना; चुपचाप चला जाना; पानी आदि की धारा या वेग का घटना; व्यय होना) (चल्हवा के बेजाय मन देखके बेदामी के बेचैनी हो गेल । ऊ खरकले उठल । अपन लूगा के दम लगाके गारलक आउ चल्हवा पर फइला देलक । चल्हवा पर निशा नियन नींद सवार हो गेल हल ।) (सारथी॰12:17:6:2.23)
105 खर-खरिहानी (अगहन महीना के छोटगर दिन चार बजल कि साँझ भरल । लरम-लरम जाड़ा में सुरूज के लरम-लरम किरण पछियाही टोला में समा रहल हल । संझकी एन्ने पूरब से टोहले घरे-घर पैंसते दक्खिन टोला में बुझन के खटिया तर पसर गेल । बीझना भी सवेरगरे खर-खरिहानी लगाके बाप भिजुन पहुँच गेल हल ।) (सारथी॰12:17:20:2.43)
106 खराने (बाझो सिंह के नीसा अब नीन में बदलल जा रहल हल जे आँख के पिपनी पर ठहर गेल आउ ओजय खराने चौकी पर सुत गेल मगर ठोर पर 'प ... ड़ि ... या ! प ... ड़ि ... या !' के शब्द खर्राटा के रूप ले लेलक हल ।) (सारथी॰12:17:22:3.16)
107 खाना-पेन्हना ("बाकि आझ के दौर में एकर (खेत-पथार के) भेलू घट गेल हे, बाऊजी । एगो बिजनसिया तनी गो दोकान देके कोय भी किसान से बढ़ियाँ खा-पेन्ह रहल हे । आझ सबसे बड़का चीज पइसा हे । एकरे से तरक्की संभव हे । तोर विचार सड़ गेलो हे ।") (सारथी॰12:17:14:1.21)
108 खायक ('सुतिहा नञ् ... खायक बनावऽ हियो', सुनीता बोलल । ऊ सोच रहल हल - अब की करे के चाही ? नरेन्दर के दशा देखि के ओकर भूख त परा गेल हल, बकि दुइयो छौंड़न ?) (सारथी॰12:17:16:1.13)
109 खावा-खरची (दीदी के पहुना परदेस कमाय गेलन आउ एक दिन मालूम होल कि कोय दोसर जन्नी साथ ओहयँ रह गेलन । दीदी केतना कानऽ हल । ओहे बच्छर माय खटिया पर गिरल से उठिये गेल । माय के बीमार पड़ला पर बाऊ आउ भइया अइलन हल । कुछ दिन तक घर में रहलन मुदा खावा-खरची के चोंचा पड़े लगल त पहिले भइया गेलन ।) (सारथी॰12:17:8:3.25)
110 खिंड़ना (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।) (सारथी॰12:17:27:3.39)
111 खिखिर (= खरगोश की जाति का लंबे कान और मटमैले रंग का एक जंगली जीव; ~ के मान = बहुत उपजाऊ जमीन) (अब लाली धपे लगल हल । रतचलवन जानवर कोर पकड़ लेलक हल । खाली सियार, वनबिलाड़ या खिखिर धउगइत-भागइत एन्ने-ओन्ने झलक जा हल । सियार या वनबिलाड़ डगर काटलक त बाउ थुकथुका के आगू बढ़इत बुदबुदाय लगऽ हल - 'या जंगलिया माय, तनि सहाय रहिहऽ । एगो पिलुआ साथ हको । अइते पाठी चढ़इवन ।') (सारथी॰12:17:7:3.2)
112 खिटखिटाना (बुढ़ारी में त अइसहों बूढ़ा खिटखिटा जा हथ, बाकि कापो चा - कापो चा खिटखिटाय वला बूढ़ा नञ् हला ।) (सारथी॰12:17:13:1.16, 17)
113 खिसियाल (आजकल बीझना बड़ी खिसियाल रहऽ हो, की बात हे ? पड़िया बोलल, 'जी, चउरा लावे जा रहलिए हे ।' - 'अरे छोड़ो ने ! चउरा तो जइवे करतइ । अच्छा ई बतावो, बीझना से बियाह करके खुश ह ने ?' पड़िया मूड़ी गोतले, ने हाँ ने हूँ ।) (सारथी॰12:17:23:1.48)
114 खिस्सा-गलबात (जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । ... बूढ़-पुरनियाँ के हाथ पर दू पइसा अइलो नञ् कि साँझे-बिहने चाह पीअइ ले हाजिर । बूढ़ आदमी चाह के सवाद के साथ-साथ बातचीत के माने-मतलब भी बूझे लगलन । अन्हार-पन्हार में चलइ वला खिस्सा-गलबात पर उनकर कान खड़क जा हल ।) (सारथी॰12:17:9:1.2)
115 खुंडी-खुंडी (मन के पीड़ा आँख के लोर बनि गेल । ओकर लोराल आँखि तर दुन्नूँ नन्हकन के चेहरा घूमि गेल । ओकर करेजा खुंडी-खुंडी हो गेल । ऊ काँपि उठल । देह के रोइयाँ गनगना गेल - आज भी चूल्हा जरावे भर कमाय न भेल !) (सारथी॰12:17:15:1.38)
116 खुसुर-फुसुर (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल ।) (सारथी॰12:17:11:2.46)
117 खूँटना (अँचरा ~) (नरेन्दर अपन गठरी साइकिल पर रखि के बाजार दने सोझिया जा हे । / सुनीता जगल त गठरी साइकिल न देखि के बुदबुदायल, "एते सबेरे ! बिन खइले !" ऊ सोंचऽ लगल - खइतन हल की ? घर में हइये की हल ? अइसे कते दिन चलत ? अब हमरो अँचरा खूँटऽ पड़त ।) (सारथी॰12:17:16:3.40)
118 खेती-पाती (गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे । गाँव के जमीन पानी बिन तरासल हे । नहर, कुआँ, बोरिंग पर केकरो धियान नञ् । खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे ।; तिलका के आँख तर गाँव, गाँव के सिमाना आउ पहाड़ पर से गिरइत झरना अइते रहल । ओकरा लगे लगल, अगर झरना के पानी सोझिया के गाँव दने मोड़ दे तो खेती-पाती हो सकऽ हे ।) (सारथी॰12:17:9:1.28, 3.26)
119 गँठियाना (नरेन्दर भारी मन से पसरल अंगा, पैंट, फराक समेटलक आउ गँठियाके साइकिल पर रखि घर दने सोझिया गेल ।) (सारथी॰12:17:15:1.44)
120 गंगकिनारी ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।) (सारथी॰12:17:13:3.10)
121 गड़कल (एक तुरी फिन नरेन्दर बाजार के देखलक बगुला-सन लिलकल आँखि से । एक से एक बढ़ि के सजल-सजावल गड़कल दोकान । सामान के अम्बार लगल ।) (सारथी॰12:17:15:1.27)
122 गढ़गर (~ नीन) (थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।; कवि-गोष्ठी में जब सुनताहर उबो लगो हलो, झुको लगो हला, तउ गुरु जी के बोलावल जा हल - 'जाग गे बहिना, तोड़ अपन निन्दिया ।' की पता हल कि हमनी के जगाके ई अपने सुत जइता ... गढ़गर नीन में, ... लमहर नीन में । आझ ऊ अपन खोंता फुलंगी पर बना लेलका ।) (सारथी॰12:17:24:3.31, 35:1.34)
123 गत्त (= गत; गति) (उनखर नजर गोपाल-माय के सेनूर भरल मांग पर जाके ठहर गेल । आँख में याद के बादर उमड़ल-घुमड़ल आउ दू बून पानी बरसा देलक ... रंथी पर ... । / 'राम नाम सत्त हे - सबके इहे गत्त हे ।' / आझ भोरहीं से कापो चा के मन बउखल हल ... कहलखिन हल - "ऐं हो, हमरा अगिया के देतइ ?") (सारथी॰12:17:14:3.35)
124 गद (~ दियाँ बइठ जाना) (चानो का कहलका, "तों सब एजइ अन्हार में रूकि जो !" सब 'हउ' कहलक कि भैंस गद दियाँ बइठ गेल । चानो का कहलका, "जब बोलइबो, तबे सब अइहऽ ।") (सारथी॰12:17:11:2.30)
125 गदगदाना (= गद्गद होना) (धर्म के विज्ञान-सम्मत व्याख्या जेतना सहज ढंग से ऊ करो हला - मन गदगदा जा हल । जइसन उनखर शरीर लचकदार, ओइसन उनखर बोली खनकदार ।) (सारथी॰12:17:34:3.10)
126 गपियाना (एक रोज रेणु जी पटना के कॉफी हाउस में अप्पन मित्र मंडली संगे बइठल गपिया रहलन हल । एगो नौजवान नौसिखुआ कहानीकार ललक के रेणु जी के अप्पन एगो ताजा लिखल कहानी देलन पढ़े ला आउ उनखर राय जाने ला चाहलन ।) (सारथी॰12:17:3:1.38)
127 गब्भिन (= गाभिन) (भैंस पानी के सीना चीरि के सरकऽ लगल जइसे हवा के सीना चीरइत जहाज । चेथरूआ गब्भिन भैंस के पकड़ले हल । ऊ ओकर पीठ पर डंडा मारके धारा छोड़ाब करऽ हल । पतित दा चिकरला, 'अरे ... रे ... रे ... ! गब्भिन हइ । ओकरा पीठ पर मत मारहीं । ओकरा छोड़ आउ दोसर के पकड़, नञ त ऊ छँटि जइतइ ।') (सारथी॰12:17:10:3.16, 19)
128 गर-गोरू (पहिले ठीकेदार गाँव-गाँव जाके आदमी तलासऽ हल । मुदा अब जंगल दने नञ् जा हे । अदंक भर गेल हे । बाहरी आदमी एकदम नञ् अइतो । गामे के आदमी पहमे समाद जइतो आउ काम पर जाय वलन सब झोंड़ के झोंड़ शहरे अइतो । समाद देवे वला आदमी के सब कुछ समदल रहऽ हे । मर-मजूरी के सब बात तय । गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे ।) (सारथी॰12:17:9:1.25)
129 गल-गलवात (दे॰ गर-गलबात) (अकादमी के गेट पर गाछ के छाहुर में मन के बात मने में दबइले ठकुआयल ठाढ़ हली । एतने में पटना से श्री घमंडी राम, श्री हरीन्द्र विद्यार्थी आउ श्री राजकुमार 'प्रेमी' हमरा सभे के खोजइत पहुँचला । गल-गलवात होवो लगल ।) (सारथी॰12:17:31:3.49)
130 गली-गुच्ची (रात में कत्तेक टरक, बस रूकऽ हे । रात भर चूल्हा जरते रहऽ हे । गली-गुच्ची में अन्हारो में धपधप्पी होते रहऽ हे । ओकर माथा झनझना गेल आउ लगल कि गली के धपधप्पी सुनके नीन टूटल आउ बूढ़-पुरनियाँ के बात कान में गूँजे लगल - "अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।") (सारथी॰12:17:9:2.12)
131 गाड़ी-छागड़ (जंगल के आदमी सब मने-मन मलपूआ पकावऽ हल । काम भी मिल गेल आउ गाड़ी-छागड़ चलत । सहर एकदम्मे नजीक हो जात । कुछ दिन के बाद मिट्टी उलटे वली मसीन आ गेल । तेकर बाद आदमी के काम छिना गेल ।) (सारथी॰12:17:8:2.12)
132 गाम-गराम ('जे पेट देलथिन, आहार ऊहे देथिन । अब दिन ढलल जा हे । चलऽ, कोय गाम-गराम में डेरा डालल जाय ।' चानो का बोलला ।) (सारथी॰12:17:11:1.41)
133 गारी-घिन्ना (ऊ निर्णय लेहे - खेती में जान न देब । ऊ धनबाद आ गेल हे । केशवचन्द साहू के कपड़िया दोकान में नौकरी करऽ लगल हे । ईमानदारी से दोकान के काम में लगल हे । ओकरा पर चोरी के इलजाम लगि गेल हे ... लांछन ... गारी-घिन्ना ... मार-पीट ।) (सारथी॰12:17:16:2.45)
134 गिरथाइन (हइ घरनी, घर भागत हइ, बिन घरनी घर पादत हइ । गिरथाइन रहतउ हल, सब ओरिया जइतउ हल । तोर माय बच्चे में मर गेलउ । बहुत बरतुहार अइलइ कि (हम फेर बियाह कर लूँ, लेकिन) हम मन कड़र करि लेलों ।) (सारथी॰12:17:17:2.12)
135 गुमटी ( तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल ।; "तोर बाऊजी सठिया गेलथुन हें यार । हमनी के बड़ भाग कि ई एरिया में एन.टी.पी.सी. खुल रहलइ हे । विकास के समुन्दर उमड़तइ - चकाचक रोड - चोबीसो घंटा बिजली - इनकम बढ़ जइतइ हमनी के - एगो गुमटियो रखके अच्छा कमा लेतइ लोग ।") (सारथी॰12:17:9:1.11, 14:1.3)
136 गुमनगर (= गुमान+गर) (एक हाँक पर लुझन हाथ जोड़ले, टेहुना से ऊपर झुकके 'जी मालिक !' कहऽ हल त रोम-रोम में वफादारी झलक जा हल । ई नयका पीढ़ी जनु काहे गुमनगर आउ दिमगगर होल जाहे । बाप के संस्कार पूत में नञ् आवे के मतलब जरूर कहँय कुछ पक रहल हे ।) (सारथी॰12:17:21:1.9)
137 गुरगेट (= भँवरी, भँवर) (आगू में गुरगेट हल । पतित दा के गाभिन भैंस ओकरे रूख कइले जा रहल हल । ई देखइत पतित दा के कलेजा मुँह के आ गेल । ऊ आव देखलका न ताव, बड़ी वेग से पानी काटले बढ़ऽ लगला जइसे कोय गाय अपन बछड़ू दने दुमकऽ हे ।; गुरगेट भैंस के छूए-छूए पर हो गेल मुदा पतित का भी धैल पतित हला । भैंस के सींग पकड़िके ओकर रूख बामा दने कइलका आउ डुबकी मारि के खींचऽ लगला । ऊ अपन सब ताकत झोंक देलका । नतीजा भेल भैंस गुरगेट से बचि गेल ।) (सारथी॰12:17:10:3.31, 42, 47)
138 गूँड़ (= गुड़) (~ गोबर होना) (भैंस हँका गेल । आगू-आगू भैंस, पीछू-पीछू चरवाह । सूरज डूब गेल । अन्हार दउगल आ रहल हल । आसमान में बादर भी अपन तंबू तानि रहल हल । चानो का कहलका, 'गोड़ झारके चल । कहइँ पानी पड़ऽ लगलउ त सब गूँड़ गोबर हो जइतउ ।') (सारथी॰12:17:11:2.4)
139 गेठरी-मोटरी (गया के मोसाफिरखाना देखि के त हम दंग रहि गेलूँ । ... चारो पट्टी बइठे के बेंच बनल, पानी, पाखाना के सुविधा अलग । सब सुरक्षित जगह टेबके डेरा जमा लेलन ... बीच में गेठरी-मोटरी, चारो पट्टी सुत्तल-बइठल साथी । हमरा नींद कहाँ !; हमरा रात के यात्रा ठीक नञ् लगतो । झकझक इंजोर में देखइत गेलूँ, बकि अन्हार में ई सुविधा कहाँ ! हम मनुआय लगलूँ । अइसन में हमरा नींद आ जइतो । हम अउँघऽ लगलूँ त हमरा ऊपर के सीट पर चढ़ा देल गेल । गेठरी-मोटरी सरियाके हम सुते भर जगह बनइलूँ आउ चोर-पाकिट पर हाथ रखले बैल-पगहा बेचि के सुत गेलूँ ।) (सारथी॰12:17:26:2.11, 37)
140 गेहूम (दे॰ गोहूम) ("तोर मुँह काहे लटकल हो, कापो ... ?" / "मुँह लटकावे के तो बात हइये हइ, मनिज्जर साहेब । ई धरती हम्मर माय ... हमनी एकर बेटा ... ई माय हमरा से छिना जायत ... एकर धरती पर गेहूम के बाली, बूँट-खेसारी के हरियरी कइसे झूमत ... ई बाउग, ई मकई के पेड़ ... बुढ़ारियो में भुट्टा, मखाना आउ लावा कहाँ से चलतइ मनीजर साहेब ? एकलाश लाल नियन दू रूपिया में एगो भुट्टा खरीदवऽ की ?") (सारथी॰12:17:13:3.1)
141 गैंठि (दे॰ गैंठी, गेंठी) (शनीचर कहलकइ, "सातो पहुरा बहुरा लिहें ।" सोमर गैंठि बान्हि लेलकइ - "बाबू ! हम पहुरा बहुरा के रहबउ । बाबू गैंठिया बान्हि लेलिअउ ।") (सारथी॰12:17:19:1.29)
142 गैस्टिक ('खाय के मन नञ् हउ, सुतऽ दे ।' - 'दुइयो कौर खा ल । खाली पेट फेन गैस्टिकवा उरम्हि जइतो ... लेनी के देनी ... पइसा ने कौड़ी ।'; ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल ।) (सारथी॰12:17:16:1.43, 50)
143 गोझनउठा (तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल । तहिया हरदम माय के गोझनउठे धइले रहऽ हल । बाऊ साथे आल त परदेसे जाय लेल ।) (सारथी॰12:17:9:1.13)
144 गोड़-हाथ (~ करना) ("सोमरा कहलकइ, "तब छोड़ दे बाबू । हमर पहुरे बिक जायत, तब हम नै बियाह करब ।" शनीचर कहलकइ, "बियहवा भी जरूरी हइ । मौगी बड़ी सुख देतउ । खाय ले बना देतउ, जन-फरजन होतउ । बेमार पड़भीं तब गोड़-हाथ करि देतउ । हमरो सेवा करत ।") (सारथी॰12:17:18:1.24)
145 गोबरलिट्टी (< गोबारा + लिट्टी) (एगो उज्जर रंग के गमछा, लंगोट आउ लिट्टी जरूर रहतो । अपन लिटिया के ऊ 'गोबरलिट्टी' कहो हलथिन ... गोबरलिट्टी ।; लौटती बेरा ऊ मोगलसराय में कहलथिन - 'किरण जी, हमर गोबरलिटिया झर गेलो, तों अपन बभनचूड़वा निकालहो ने ... ।' हम उनखर मुँहा हिअइते रह गेलूँ हल ।) (सारथी॰12:17:34:1.46, 47, 2.36)
146 गोरखिया (बात ई हे कि सउँसे गाँव के जनावर एक्के सहेर में चरऽ हे । तिलका के खेले के भी समय मिल जा हे । सहेर के देखइ लेल फेराफेरी बाँध दे हे आउ गोरखिया सब मारे गुल्ली-डंडा, फेद-फेदी आउ कहियो हाथी-घोड़ा के खेल ।; उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।) (सारथी॰12:17:7:2.8, 14:2.24)
147 गोलका (= गोल आकार वाला) (उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।) (सारथी॰12:17:14:2.23)
148 गोलहत (पड़ोस के मोदखाना से आधा किलो मोटका चावल आउ पाव भर आलू आल । गोलहत उतरइत-उतरइत बुतरू-बानर पाँच तुरी भंसा हुलकि आल । हर बार - 'सीझऽ दे, खइहें' के भरोसा पर दुइयो भाय नाक में सीझइत भात के भाप भरि लउटि आवे आउ कठघोड़ा में बिसरि के बिसित हो जाय ।; इंतजार के घड़ी बीतल । सुनीता पहिले एक्के थरिया में गोलहत काढ़ि के बाँस के बीयन से सेरावऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:16:1.26, 33)
149 गोलहत्थे (शनीचर पुछलकइ - "मोटरिया में की हिकउ ?"/ सोमरा बोलल, "चिनियाबेदाम ।"/ ... सोमरा कहलकइ, "हाँ बाबू ! सुधीर सिंह कहलकइ, उखाड़ दे सोमर । उखाड़ देलिअइ । पाँच सेर लगू मजूरी में देलकइ आर लोढ़ लेलिअइ । अब जा हियो बनावे ले । की बनइयो ? गोलहत्थे बना दियो बाबू ?") (सारथी॰12:17:17:1.26)
150 गोवा (= गोब्बा) (भोरगरे जानवर खुट्टा से खुल गेल । सबके हाथ में तेल पिलावल लाठी, जेकरा में पत्तर ठोकल, गोवा लगल । गंगा के किछार पर भीड़ जमा होवऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:10:2.8)
151 गोसइयाँ (ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल । कमजोर अइसन भे गेल हल कि बाजार जाना बंद हो गेल हल । तहियो घर के हाल गोसइयें जानऽ हलन । सुनीता के प्यार नरेन्दर के जिअइले हल ।) (सारथी॰12:17:16:1.54)
152 गोसाल (= गोस्सा में; क्रुद्ध) (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल ।) (सारथी॰12:17:11:2.45)
153 घटल-बढ़ल (बाझो सिंह के देहरी से जुड़ल रहइ लेल भी ई जरूरी हे । आखिर घटल-बढ़ल उनइस-बीस वहइँ से ने पूरा होवऽ हे । बीझना के काँधा पर भी पालो रखा गेल हल । समय से पहिले जुआन हो गेल । दिन भर के हरवाही बैल-धूर के सानी-पानी, मालिक के दियल डेढ़ कट्ठा घेरवारी सब ओकरे जिम्मे ।) (सारथी॰12:17:20:3.22)
154 घट्टा (= घट्ठा) ("भैया लोग ! एन.टी.पी.सी. खुल रहलो हे । सरकार जमीन ले लेतो । ओकर अढ़ाइ गुना दाम देतो । सभे के रज-गज होतो ।" एकरा पर तोखी सिंह चउँकलथिन - "देखलहो नञ्, राजगीर में बारूद फैक्ट्री खुललइ । सिठौरा राजा हो गेलइ । जेकर बाप के घास गढ़ते-गढ़ते घट्टा पड़ गेलइ हल, ओकर जाल-जलमल फटफटिया चढ़ रहलो हे ।") (सारथी॰12:17:13:2.44)
155 घरजाना (= प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति का भोज; सार्वजनिक काम के लिए हर परिवार से एक आदमी से काम अथवा उसके बदले एक मजदूर की मजदूरी लेने का प्रचलन) (ई दुनो ओने निहोरा-पाती में लगल हल तब तक ओने ओकर मरीज दम तोड़ चुकलइ हल ।/ आखिर लहाश घर लाको सब विध-वेहवार करके मँड़रिया पर जला देलक । तेरह दिन में घरजाना करके पाक हो गेल ।) (सारथी॰12:17:19:1.3)
156 घरैतिन (शनीचर घूर लहराके ताप रहल हल, साथे सोच रहल हे, "साँझ पड़लइ, सोमर कहाँ अँटक गेलइ ? ... कखने खाय ले बनइतइ ? दोसर कोय खाय बनावइ वाली घरैतिन भी तो नञ् हइ जेकरा भरोसे बइठल हइ ।"; शनीचर कहलकइ, "बेटा ! कमाय के हिसकी करी, खाय के नञ् । ऊ बड़का हिकइ, तों मजूरा । बेंगा घोड़वा के हिसकी नाल ठोकइलकइ, बेंगा के पेटे फाटि गेलइ, से हाल । ओकरा पक्का हइ, घर में घरैतियन, साधन हइ रखइ के, तों सुखा के धरि देभीं, चूहा खा जइतउ । मुँह फारि के रहि जइबें ।") (सारथी॰12:17:17:1.10, 42)
157 घीचना (= घींचना; खींचना) (शनिचर कहलकइ - "जो ने, करगे में मनोज सिंह वाला मरचइया फरि को लुथड़ी भेल हइ । अरिया तर छोड़के एक मुट्ठा घीचि लिहें । असली सीटिया मिरचाय हइ । तनी गो खइभीं, कान झनझना देतउ ।") (सारथी॰12:17:17:3.10)
158 घुड़की (~ मारना) (बाऊ के टिटकारी सुनके तिलका तनि मनसूआ भरके चाल बढ़ा देलक । गोड़ त दनादन उठ रहल हल । रतगरे जगे पड़ल हल । नञ् तो ऊ रउदा उगला तक सुतले रहऽ हल । बस, पोवार में घुड़की मारले हथ, हाथ-गोड़ ममोरले सूतल रहऽ हल । भउजी या दीदी ऊपर से गेनरा धर दे हे ।) (सारथी॰12:17:7:1.10)
159 घुमनइ (बनछिल्ली में कुछ खेत हे । धान उपजऽ हे । धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।) (सारथी॰12:17:8:1.11)
160 घुरी (= घड़ी, समय, बखत) (धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।) (सारथी॰12:17:8:1.14)
161 घेरबारी (दे॰ घेरवारी) (जइसहीं कोय भोंपू के अवाज या गाड़ी के सीटी कापो चा के कान के चदरा से टकरा हे, मन बउख जाहे कापो चा के । घर के बगले में एन.टी.पी.सी. के घेरबारी हे । घेरबारी में घेराल मोटगर मोटगर उँचगर चिमनी से करका धुइयाँ निकलके कापो चा के दिलोदिमाग पर छा जाहे ।) (सारथी॰12:17:13:1.5, 6)
162 घेराल (= घेरा हुआ) (जइसहीं कोय भोंपू के अवाज या गाड़ी के सीटी कापो चा के कान के चदरा से टकरा हे, मन बउख जाहे कापो चा के । घर के बगले में एन.टी.पी.सी. के घेरबारी हे । घेरबारी में घेराल मोटगर मोटगर उँचगर चिमनी से करका धुइयाँ निकलके कापो चा के दिलोदिमाग पर छा जाहे ।) (सारथी॰12:17:13:1.6)
163 घेवारी (हप्ते दिन बाद बीझना के बोलाके बाझो सिंह कहलन, 'अरे बीझना ! एन्ने देख रहलिअउ हे, बड़ी मनबढ़ू होल जाहीं । खेत-खंधा पर ध्याने नञ्, बैल-धुर उपासले, एक ड्राम चाउर फटके ले हइ ऊहो तोर माय सास पुतोह के हाथ में दहिए जम रहलउ हे । हमरा ई सब करवे ले दोसर मजदूर रखहीं पड़त त शादी-बियाह, मरी-गमी आउ डेढ़ कट्ठा घेवारी ... । सबसे चोथू हमरे बूझऽ हीं ।' बीझना के लगल कि बाझो सिंह अपन उकात दिखा रहल हे ।) (सारथी॰12:17:23:1.19)
164 घोड़ कटार (लड़की देखो लगला । मिले तो जादातर काना ले कानी । ई तो तइये हलइ मुदा ई बढ़िया कद-काठी-सोलिट देह वाली चाहऽ हलखिन से नै मिल रहल हल । आखिर उहे मिल गेल । तनी बेटवे नियर पतलडेर । बान्हि के कि कहना ? ... घोड़ कटार बान्हि । कार कसौटी पाथल सन । ओकरा में हीरा के चमक जइसे भीतर से फूल रहल हे ।) (सारथी॰12:17:18:2.15)
165 चउगरदा (दे॰ चउगिरदा, चउगिरदी) (ऊ आझ भी अशरीरी रूप में मौजूद हका - मगहिया माटी के सोन्ह महक बनके, हरेक कवि-गोष्ठी में माँ सरस्वती के प्रतिनिधि बनके, सब मगही कवियन के प्रेरणा स्रोत बनके । चउगरदा उनखर थिरकन आउ खनकल आवाज सूक्ष्म सत्ता के रूप में प्रतिध्वनि होते रहे हे - हमनी के आत्मा में ।) (सारथी॰12:17:35:1.42)
166 चउगिरदा (दे॰ चउगिरदी) ("भागवत बाबू ! अपने गाम के जेठ-रैयत हथिन । सोचथिन कि एन.टी.पी.सी. चालू हो गेल । हठुआमनी दमगर-दमगर राकस नियन चिमनी से धुइयाँ निकसो लगल, बिजली तैयार होवो लगल - सौंसे खेत-पथार के ऊपर से मोटका-मोटका तार टंगना नियन टंगा गेल - चउगिरदा करका बादर छुट्टा साँढ़ नियन टहलो लगल - जउन खेत में मिरचाय, रेंड़ी, बैंगन उपजो हे, ऊ बलसुनरी मट्टी पर कोयला के करका पौडर बिछ जइतो । की करभो तखने ?" चुप्पी के वातावरण में अपन शंखनाद कइलका कापो सिंह ।) (सारथी॰12:17:13:3.37)
167 चउरगर (दे॰ चउड़गर, चौड़गर) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे ।) (सारथी॰12:17:7:1.14)
168 चउल (~ मारना) (तिलका मुँह फुलाके चउल मारऽ हल, 'हाँ, तों तो गढ़के खिलावऽ हीं ने, हम तो बस घुमइले चलऽ हिअइ। हइ ने ? एक दिन गोरू चरावे गेलें तो एतबड़ बड़ाय । रोज चराहीं तब ने बुझाव ।' - 'रोज चरावे में की हइ । तों घर के काम करहीं, हम चरइबइ ।') (सारथी॰12:17:7:1.44)
169 चकड़बम (नवादा से आगू पहिल तुरी जा रहलूँ हल । गया जंक्शन देखि के त हम चकड़बम रहि गेलूँ - बाप रे बाप ! लैन पर लैन, गाड़ी पर गाड़ी, लटफरेम पर लटफरेम, खदबद टीटी !) (सारथी॰12:17:26:1.33)
170 चकाचक (अब तो सड़क पकिया हो गेल हल । गाड़ी-छागड़ चले लगल । जगह-जगह पर चाह-पानी के दोकान भी खुल गेल हल । कज्जउ-कज्जउ तो होटलो खुल गेल। लैन होटल । चकाचक । मारे ओरे-धारी खटिया बिछल रहऽ हे ।; तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल ।; "तोर बाऊजी सठिया गेलथुन हें यार । हमनी के बड़ भाग कि ई एरिया में एन.टी.पी.सी. खुल रहलइ हे । विकास के समुन्दर उमड़तइ - चकाचक रोड - चोबीसो घंटा बिजली - इनकम बढ़ जइतइ हमनी के - एगो गुमटियो रखके अच्छा कमा लेतइ लोग ।") (सारथी॰12:17:8:3.48, 9:1.9, 14:1.2)
171 चक्खी-पक्खी (बाऊ आउ भइया तो परदेसे में । काम-किरिया खातिर अइलन । काम-किरिया करके बाऊ चल गेलन हल आउ भइया भउजी के कहला पर रुक गेल हल । मुदा जब पइसा-कउड़ी ओरिआल त एक महीना के बाद ओहो परदेसे । हाँ, जब तक रहलन हल, तिलका के मउज । दोसरे-तेसरे कुछ चक्खी-पक्खी होइये जा हल । गाम-गिराम के साथी-संगी अघाल रहऽ हल ।) (सारथी॰12:17:8:3.41)
172 चखना (बाझो सिंह एकसरे दलान पर बइठके बूँट के खस्सी जइसन चखना पर अंग्रेजी दारू चढ़ा रहल हल ।) (सारथी॰12:17:22:2.36)
173 चनका-बुन (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।) (सारथी॰12:17:27:3.36)
174 चमचमी (बाझो सिंह बढ़-चढ़ के खरच-बरच कर रहला हल । चौड़ा पाड़ वाला कथई रंग के दू गो साड़ी, सिलल-सिलावल साया-बिलौज, तीन भर के पायल, रंगन-रंगन के चार डिब्बा चूड़ी, अलता, अइना, कंघी, पाउडर दौरा नियर साज के पेठा देलन हल । ओकरा में एगो चमाचम डिब्बा फूल काढ़ल चमचमी से पैक कइल अलगे से धइल हल ।) (सारथी॰12:17:21:1.39)
175 चरवाह (= चरवाहा) ('ठीक हे । चलऽ हो, भैंस के हाँकऽ । घंटा दू घंटा में कोय गाम मिलवे करतइ ।' पतित दा सुरफरायत कहलका ।/ भैंस हँका गेल । आगू-आगू भैंस, पीछू-पीछू चरवाह । सूरज डूब गेल । अन्हार दउगल आ रहल हल ।) (सारथी॰12:17:11:1.54)
176 चस्का-चरणवार (ठीके में ऊ गाम तरक्की कर गेल हल । ई विकास के विन्डोबा गोपाल के भी लग गेल । गुटखा, सिकरेट, दारू आउ जुआ के चस्का-चरणवार लगते गेल ।) (सारथी॰12:17:14:3.7)
177 चहकल (सवाद के ~) (ओने बड़का बाऊ के बोली सवाद के चहकल - माड़ भात ! माड़ भात !! माड़ भात !!!) (सारथी॰12:17:16:1.24)
178 चाँपना (= चापना; दाबना) ('आझ तो पड़िया रानी ! हमरो पियास मेटावो पड़तउ ।' पड़िया अकबकाल चिल्हरे लगल त बाझो सिंह दहिना हाथ से मुँह चाप देलक आउ गोदी में उठाके चौकी पर आस्ते से सुता देलक । मुँह चाँपले चिरौरी शुरू । 'देख पड़िया ! तोरा कुमारे में बजार जइते देखलिअउ हल । तखनिए हमर जी में तूँ समा गेलें हल ।') (सारथी॰12:17:23:2.18)
179 चापना (= चाँपना; दाबना) ('आझ तो पड़िया रानी ! हमरो पियास मेटावो पड़तउ ।' पड़िया अकबकाल चिल्हरे लगल त बाझो सिंह दहिना हाथ से मुँह चाप देलक आउ गोदी में उठाके चौकी पर आस्ते से सुता देलक । मुँह चाँपले चिरौरी शुरू । 'देख पड़िया ! तोरा कुमारे में बजार जइते देखलिअउ हल । तखनिए हमर जी में तूँ समा गेलें हल ।') (सारथी॰12:17:23:2.16)
180 चितंग (अदमी आउ जनावर दुन्नूँ थकि के थउआ । कछार लउकऽ लगल ... जय गंगे ... अब की ! / कछार पर सब थकि के चितंग । किनखो देह-गात के होश-हवाश नञ् । पीड़ा से अंग टूट रहल हे ।) (सारथी॰12:17:11:1.4)
181 चिरचिरी (भेलइ ई कि साँझ चार बजे से ओकरा दरद शुरूह भेलइ । डगरिन तेल से पिछलइकइ । कोय कहलकइ - सूअर के तेल मरीच गरम करके पिला दहो, सेहो कइलकइ । ... कोय कहलकइ - चिरचिरी के उखाड़के माथा के बाल में बाँध दहीं, छट दो को बच्चा हो जइतइ, ओकरो से कोय फायदा नै ।) (सारथी॰12:17:18:3.22)
182 चुंगारना (नोट के धाह तो बड़का-बड़का के चुंगार दे हे, ई कंगलवा बीझना के की उकात । दू-चार हजार खरच करवइ कि पड़िया हम्मर गोदी में ।) (सारथी॰12:17:22:3.5)
183 चुग्गा (= पक्षियों दिया जाने वाला दाना या अनाज का कण) (पता नञ् कजा, कखने आउ कइसे हम्मर मानस पिंजड़ा में चुग्गा खातिर एगो पखेरू घुस गेल आउ जोगल चुग्गा के चुगइत रहल । एक्कर पता त हमरा 9 अगस्त 2007 के साँझ में चलल, जब हम अप्पन घर पहुँचली । चुग्गा के दाना खतम भे गेल त ऊ पखेरू बाहर निकलइ लेल फड़फड़ाय लगल ।) (सारथी॰12:17:31:1.17, 20)
184 चुनियाना (माय के गोदी से बच्ची सरकि के हिलइत-डुलइत डिब्बा में डगमगाइत खड़ी रहइ के चेष्टा करि रहल हल । अपन माय के घुटना थम्हले ऊ तुरी-तुरी लुढ़कि के गिर जा रहल हल । एक-दू तुरी ओकर थकल-चूरल माय ओकरा उठइलन, मुदा तेसर तुरी ऊ खिजलाके बेटी के पीठ पर एगो हौले धौल जमा देलन । बच्ची सहमल आउ एने-ओन्ने मासूम-सन निहारइत अपन होठ चुनियावइत सिकोड़के बिसुरे लगल ।) (सारथी॰12:17:24:3.17)
185 चूनना-बिछना (= चुनना-बिछना) (बाऊ जी परदेस आउ बस बाल-बच्चे घर में । ... गरमी के दिन में बीड़ी के पत्ता तोड़ऽ हे । अइसे सब मिलके लकड़ी चूनऽ हल । पोरगर-पोरठगर लकड़ी नञ् काट पावऽ हल । ई लेल झाड़ियो-झूरी चून ले हल । ओकरे में से चून-बिछ के कहियो मइया हाट पहुँचा दे हल ।) (सारथी॰12:17:8:1.23)
186 चेधगर (= ?) (बचवा चारो चेधगर हो गेलइ । कुछ-कुछ करो लगलइ । मालिक के काम में लगइ कि तुरत काम झारि दइ ।) (सारथी॰12:17:19:2.8)
187 चोंचा (दीदी के पहुना परदेस कमाय गेलन आउ एक दिन मालूम होल कि कोय दोसर जन्नी साथ ओहयँ रह गेलन । दीदी केतना कानऽ हल । ओहे बच्छर माय खटिया पर गिरल से उठिये गेल । माय के बीमार पड़ला पर बाऊ आउ भइया अइलन हल । कुछ दिन तक घर में रहलन मुदा खावा-खरची के चोंचा पड़े लगल त पहिले भइया गेलन ।) (सारथी॰12:17:8:3.26)
188 चोटगर (~ हथौड़ा) (चिरईं पालनिहार के हँका-हँका के बता दी, हमहूँ एगो सतरंगी पखेरू पालि के तोहर जमात में शामिल भे गेलूँ हे । एतनइँ में, विवेक चोटगर हथौड़ा दइत मन के हुकुम देलक ई पखेरू के मगही के अंगना से खुलल अकास तक आजाद परवाज लेल अप्पन मानस-पिंजड़ा के दरवाजा खोल द ।) (सारथी॰12:17:31:1.28)
189 चोथू (हप्ते दिन बाद बीझना के बोलाके बाझो सिंह कहलन, 'अरे बीझना ! एन्ने देख रहलिअउ हे, बड़ी मनबढ़ू होल जाहीं । खेत-खंधा पर ध्याने नञ्, बैल-धुर उपासले, एक ड्राम चाउर फटके ले हइ ऊहो तोर माय सास पुतोह के हाथ में दहिए जम रहलउ हे । हमरा ई सब करवे ले दोसर मजदूर रखहीं पड़त त शादी-बियाह, मरी-गमी आउ डेढ़ कट्ठा घेवारी ... । सबसे चोथू हमरे बूझऽ हीं ।' बीझना के लगल कि बाझो सिंह अपन उकात दिखा रहल हे ।) (सारथी॰12:17:23:1.20)
190 चोन्हीं (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।") (सारथी॰12:17:18:1.4)
191 चोबीस (= चौबीस) ("तोर बाऊजी सठिया गेलथुन हें यार । हमनी के बड़ भाग कि ई एरिया में एन.टी.पी.सी. खुल रहलइ हे । विकास के समुन्दर उमड़तइ - चकाचक रोड - चोबीसो घंटा बिजली - इनकम बढ़ जइतइ हमनी के - एगो गुमटियो रखके अच्छा कमा लेतइ लोग ।") (सारथी॰12:17:14:1.2)
192 चौड़गर (खिड़की के बाहर घुप्प अन्हार लटफरेम पर खड़ी माय के चेहरा पर चौड़गर मुस्कान जगमगाय लगल । अपन माय के गोदी में टिकल बच्ची जोर से किलकइत हवा में अपन दहिना तरहत्थी उछाल के फिन कहलक - नान्ना !) (सारथी॰12:17:25:3.16)
193 चौपट्टी (संयोग बूझऽ, ऊ गाँव में हैजा फैल गेल । आदमी चील-कौआ नियन पटपटाय लगल । गाँव वलन के चनका-बुन छिटकल - 'हो न हो, ऊहे पगलवा के करामात रहे । बुझा हउ पहुँचल फकीर हलउ ... खोज । ऊहे आहि-उपाय करतउ ।' फिन की हल, आदमी खिंड़ल । यमुना सिंह के पकड़ि के लावल गेल । ऊ चौपट्टी गाँव घूम गेला । सुनऽ ही, महामारी थमि गेल ।) (सारथी॰12:17:27:3.40)
194 छप्पल (= छपा हुआ) (तिलका देखलक कि ठेकेदार के आदमी एगो छप्पल फारम पर एकाएकी टिप्पी ले रहल हे । ऊ तनि दूरिये में खड़ा हो गेल । ढेर देरी तक खड़ा रहल । खड़ा-खड़ा ओकर गोड़ थुम्ह गेल । थकल तो हइये हल । भूख भी लग गेल हल ।) (सारथी॰12:17:9:1.36)
195 छहाछित (= साक्षात्) (ऊ अदमी आदर सनल गील आवाज में बोलल, 'तूँ हमरा ले छहाछित भगमान ह ।'/ 'तूँ के ह ?' चानो का हकबकायल पुछलका ।; कोय कहि रहल हल, "छहाछित गहिलवा मइया आ गेलथिन । देखलहीं, मुँहाँ में जइसइँ दल देलकइ कि मनकमना पूरा हो गेलइ । भाय, देवी-देवता में भारी जश हइ ।") (सारथी॰12:17:10:1.6, 11:3.26)
196 छहेछात (= साक्षात्) (नहा-धो के तैयार भेलूँ त भोज के पंगत लग गेल । चूड़ा, दही, चीनी के मगहिया भोज । ऊपर से जी फेरन परवर के भुंजिया । डॉ. आनन्द के नेह-सनेह अउ अपनापन के कोय ओर-छोर नञ् हल । डॉ. आनन्द त छहेछात आनन्द के प्रतिमूर्ति हथिन ।) (सारथी॰12:17:31:3.31)
197 छान-पग्गह (= छान-पगहा) (परदेस की खातिर ? बाऊ बोलइ ले चाह रहलन हल कि तिलका कहे लगल, 'हम शहर नञ् जाम बाउ । घरो में तो एक आदमी चाही । हरियर खेती देखके गाय-गोरू रात में छान-पग्गह तोड़ते रहऽ हे ।) (सारथी॰12:17:9:3.23)
198 छिनाना ("तोर मुँह काहे लटकल हो, कापो ... ?" / "मुँह लटकावे के तो बात हइये हइ, मनिज्जर साहेब । ई धरती हम्मर माय ... हमनी एकर बेटा ... ई माय हमरा से छिना जायत ... एकर धरती पर गेहूम के बाली, बूँट-खेसारी के हरियरी कइसे झूमत ... ई बाउग, ई मकई के पेड़ ... बुढ़ारियो में भुट्टा, मखाना आउ लावा कहाँ से चलतइ मनीजर साहेब ? एकलाश लाल नियन दू रूपिया में एगो भुट्टा खरीदवऽ की ?") (सारथी॰12:17:13:2.49)
199 छीछोर ('अच्छा ! ऊ जीनीस जे पेठइलियो हल ऊ कइसन लगलो ?' पड़िया बूझ न रहल हल ई बुझउअल । / 'अरे ! ऊहे 32 नम्बर वला, सइजगर हलो ने ?' पड़िया के कान झनझनाय लगल ... । / मलिकवा केतना छीछोर अदमी हइ ! ऊ घर दने दउरी लेले बढ़े लगल । पीछे-पीछे बाझो सिंह बी बढ़े लगल ।) (सारथी॰12:17:23:2.5)
200 छुआइन (बीझना बेगर हुँकारी भरले खँचिया आउ हँसुआ लेके बधार देने सोझिया गेल । ओकर आँख तर चमारी के बेटा फुदना के मोबाइल नाचे लगल, 'गाना, फोटू, आउ वी.डी.ओ. ... मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए ... मगर साला ऊ फुदना ! मोबाइल छुए में छुआइन हो जा हलइ ।') (सारथी॰12:17:23:1.3)
201 छुकछुकाल (हमरा अभियो याद हे, हमर पसिंजर गाड़ी छो नम्बर के प्लेटफारम पर रुकल हल । कुछ गाड़ी रुकल हे, कुछ छुकछुकाल आ रहल हे, त कुछ जा रहल हे, ... गाड़ी के हौरन ... भोंऽऽऽ ! ... पटरी के खटखट !) (सारथी॰12:17:26:1.38)
202 छुछुन्नर (= छछून्दर) (आगू सोमरा हेलल, मागु से कहलक - लुगवा ऊपरि करि लिहें, तों हमरा से नाटा हहीं, सड़ीवा भींग जइतउ ! जब पूरा बीच आयल तब औरतिया पूरा कपड़ा पेट पर चढ़ा लेलक । सोमरा पीछे घूम के देखलक । मौगी कुरोध के बोललइ, "दुर्रर्र ने जाय छुछुन्नर ! ... हम बे नगन होल जाही । ई पाछूहिया को की देखऽ हीं ?" सोमरा कहलकइ, "अरे देखऽ हिअइ - हमर सातो पहुरा कहाँ हइ ?"; डाकदर कहलकइ, "जाव, सरकार से कहो । साला नेता ! घोषणा करेगा लम्बा-लम्बा और काम छुछुन्नर वाला ।") (सारथी॰12:17:18:3.3, 51)
203 छोंड़ा (= छौंड़ा) (साँझ के सब पतिपदा के दलान पर जमा होला । .. तय भेल कि पाँच अदमी आगू टरेन से जायत रसद-बुतात लेके आउ पाँच पांडव जानवर साथ गंगा हेलता । चानो का कहलका, 'मंगलामुखी सदा सुखी । कल हाँका हो जाय के चाही ।' जोड़ल गेल - पचीस भैंस, पाँच अदमी । सब के सब जुआन, एकलौठा, कसरती, पहलवान ! चेथरूआ सबसे छोट भले हल, मुदा हल सहसगर, लमहर, छरहर, पट्ठा छोंड़ा ।) (सारथी॰12:17:10:2.5)
204 छोड़ल-छाड़ल (रोज कुछ ने कुछ इलाज चलइत रहलइ । एक दिन सोमरा कहलकइ, "बाबू ! दोसर बियाह कर लियउ ?" शनीचर कहलखिन, "अब तोरा काना के अरूआ लड़की मिलतउ ? मिलतउ उथायल-बथायल, आन्हर-कान, छोड़ल-छाड़ल, बच्चा वाली । ऊ माथा के बोझ हो जइतउ । ऊ अप्पन बच्चा के मानतइ कि तोर बचवा के ?") (सारथी॰12:17:19:1.16)
205 छोफिट्टा (~ जुआन) (अट्ठारह बीघा के जोतदार कापो चा - आझ बेचारा । दू जोड़ा हाथी नियन बैल, दू गो दोगली गाय, एगो गुजराती भैंस गोंड़ी पर शोभो हलइ कापो चा के । देवना बराहिल ... ई कड़कड़िया मोंछ, छोफिट्टा जुआन, सिलेब रंग एकदम पकिया ।) (सारथी॰12:17:13:1.25)
206 छोम्मा (= छठा) (चानो का गरजला, "अबकी लाठी में सुरधामे ! हमरा चीन्हलें कि नञ् ?' भगत त हक्का-बक्का ! ई फेन लाठी उसाहलका, "टुकुर-टुकुर की ताकऽ हें ? चीन्हलें कि दिअउ फेन लाठी ?" लाठी से भी जादे खतरनाक इनखर गोसाल चेहरा बुझा रहल हल । भगत के भूत परा गेल । भीड़ खुसुर-फुसुर करे लगल । भगत के छोम्मा इन्द्री जाग गेल ।) (सारथी॰12:17:11:2.47)
207 जंगलिया (अब लाली धपे लगल हल । रतचलवन जानवर कोर पकड़ लेलक हल । खाली सियार, वनबिलाड़ या खिखिर धउगइत-भागइत एन्ने-ओन्ने झलक जा हल । सियार या वनबिलाड़ डगर काटलक त बाउ थुकथुका के आगू बढ़इत बुदबुदाय लगऽ हल - 'या जंगलिया माय, तनि सहाय रहिहऽ । एगो पिलुआ साथ हको । अइते पाठी चढ़इवन ।') (सारथी॰12:17:7:3.6)
208 जन-फरजन ("सोमरा कहलकइ, "तब छोड़ दे बाबू । हमर पहुरे बिक जायत, तब हम नै बियाह करब ।" शनीचर कहलकइ, "बियहवा भी जरूरी हइ । मौगी बड़ी सुख देतउ । खाय ले बना देतउ, जन-फरजन होतउ । बेमार पड़भीं तब गोड़-हाथ करि देतउ । हमरो सेवा करत ।") (सारथी॰12:17:18:1.24)
209 जन्नी-मरदाना (वहाँ के दिरिस त अजीबोगरीब हल । चार गो डिलैट बरि रहल हल । सो दू सो के मजमा जुटल हल । जन्नी-मरदाना, बुतरू, जुआन, बूढ़ा-बूढ़ी सब तमाशा देखि रहल हल गोल घेरा बनाके । ऊ घेरा में एगो अदमी हाथ में लाठी लेले नाच रहल हल । कुछ गवइया लोरकायन गा रहल हल ।) (सारथी॰12:17:11:2.24)
210 जमतगर (संयोग से ऊहे डिब्बा में आठ-दस जन्नी-मरद अयोध्या तक के सहयात्री भे गेलन । जमतगर हो गेला से हमर मन गद्गद् हो गेल । हमर विचार से यात्रा एकल्ले के चीज न हे ।) (सारथी॰12:17:26:1.28)
211 जर-जमीन (खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे । सुनल जाहे कि पहिले कल-करखाना चलावइ लेल मजूर बसावल जा हल । अब तो किसान के जर-जमीन हथिया के ओकरा मजूर बनावइ के चलन हो गेल हे ।) (सारथी॰12:17:9:1.31)
212 जाल-जलमल ("भैया लोग ! एन.टी.पी.सी. खुल रहलो हे । सरकार जमीन ले लेतो । ओकर अढ़ाइ गुना दाम देतो । सभे के रज-गज होतो ।" एकरा पर तोखी सिंह चउँकलथिन - "देखलहो नञ्, राजगीर में बारूद फैक्ट्री खुललइ । सिठौरा राजा हो गेलइ । जेकर बाप के घास गढ़ते-गढ़ते घट्टा पड़ गेलइ हल, ओकर जाल-जलमल फटफटिया चढ़ रहलो हे ।") (सारथी॰12:17:13:2.45)
213 जित्ते (= जिन्दा/ जीवित ही) (केतना उस्सठ होवऽ हे महाजन । तनिक दाया-माया नञ् । धिरका-धिरका के पइसा वसूलतो । ... घर-अंगना हिअइतो । बेटी-बहू पर नज्जर गड़इतो । हिसाब-किताब में जित्ते गाय गिले ले तइयार ।) (सारथी॰12:17:8:1.50)
214 जिनोर (दे॰ जिनोरा) (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।) (सारथी॰12:17:10:1.20)
215 जियान (ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल ।) (सारथी॰12:17:16:1.52)
216 जीतिया (उनखर आँख ठहर गेल भत्तूथान के गोलका बर गाछ पर । एकर छाहुर में बइठो हल सभे गोरखिया, हरवाहा, किसान, मजूर । एकर छाहुर में होवो हल जीतिया के रिहलसल ... धनरोपनी के खनकल गीत, दादुर के संगीत में मिलके आरकेस्ट्रा के धुन बन जा हल । एकरे तर झिलोर दा के कथक्कड़ी आउ अमका बा के 'सातो भइया घाटम' गीत गूँजो हल ।) (सारथी॰12:17:14:2.25)
217 जीनीस (= जिनिस; वस्तु, चीज, सामान) ('अच्छा ! ऊ जीनीस जे पेठइलियो हल ऊ कइसन लगलो ?' पड़िया बूझ न रहल हल ई बुझउअल । / 'अरे ! ऊहे 32 नम्बर वला, सइजगर हलो ने ?' पड़िया के कान झनझनाय लगल ... । / मलिकवा केतना छीछोर अदमी हइ ! ऊ घर दने दउरी लेले बढ़े लगल । पीछे-पीछे बाझो सिंह बी बढ़े लगल ।) (सारथी॰12:17:23:1.54)
218 जुअन पिट्टा (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! कल्ह गेलिअइ पोखरिया में नहाय ले । झिगुलिया नहा को पीड़िया पर पुतली बदलब करऽ हलइ, अनचोक्के हमर नजरिया ओने चल गेलइ । छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! एने की हुलकइ हें, लहँगा ले लुलके हें । देबउ अँखिये में टकुआ भोंकि । हमरा नजर लगावइ हें, जुअन पिट्टा ! तोरा जुआनी में आग धर दिअउ ! तोर सरधा में गरदा पोरि दिअउ । देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।") (सारथी॰12:17:17:3.46)
219 जुअनका (मीटिंग खतम । सभे कापो बाबू के बात से सहमत हला बाकि एन.टी.पी.सी. के लोभ - विकास के सपना सबके भरमइले रहल । जब गाम के जुअनकन ई बात सुनलक तउ अलगे माहौल हल ।) (सारथी॰12:17:13:3.46)
220 जुटी (आसिन के महीना जब एकलगायत त्योहार मनावे ल परदेस से कमा-कमा के सब लौट रहल हल, पड़िया घर-दुआर, देवता-देवी छोड़के माउग-मरद, बाले-बच्चे अइँटाखोल जाय ले तैयार हे । एक जुटी पर दस हजार, ओकरा में पाँच हजार से बेसी दादनी, जे पहिलहीं अँचरा के खुँटी से ससर गेल हल । भट्ठा पर चढ़े घड़ी पाँच हजार से कमे हाथ लगल ।) (सारथी॰12:17:20:1.16)
221 जुठकठार (अभी पड़िया के गोड़ के अलता मेटाल भी नञ् हल कि बीझना बिदके लगल । जनु ओकर कान में के कौन मंतर फूँक देलक हे कि पड़िया से भर मुँह बोले नञ् । ... कभी लगे कि दौड़के घर जाऊँ आउ पड़िया के अकवार के प्यार के झुलुआ में झुलते रहूँ, कभी लगे कि जुठकठार पड़िया में हमरा लेल बचल की हे ? ओकरा कोहबर रात याद आवे लगल ।) (सारथी॰12:17:21:2.10)
222 जेठ-रैयत (साँझ के महरानी थान में मिटिंग लगल । गाम के जेठ-रैयत, बटइदार आउ पट्टेदार सभे जुटलथिन हल - भागवत बाबू, तिरपित बाबू, रामशरण बाबू, एकादश बाबू, मनीजर साहेब, पटवारी जी, तोखी सिंह, दशरथ सिंह, कापो सिंह, किसुन महतो, रामस्वरूप पांडे, ओगैरह तीनो टोला के लोग ।) (सारथी॰12:17:13:2.31)
223 जेभी (= जेब) (ओकर हाथ ओइसइँ जेभी से बहरा गेल, जइसे तातल खिचड़ी छूके अंगुरी । सड़क के किनारे पसरल सामान पर ओकर नजर ठहरि गेल । ऊ मने मन बुदबुदा हे - 'सब कुछ त ओइसइँ धइल हे । एगो पैंट आउ एगो फराके त बिक पाल ... सबेरे-सबेरे के बोहनी । औने-पौने भाव लगा देलूँ ।') (सारथी॰12:17:15:1.11)
224 जैन (बीझना के घाव भी अभी हरियरे । ऊ टेवानले हल कि बाझो सिंह के ड्योढ़ी पर दुन्नू के लस्टम-पस्टम करते देख लूँ, ओजय दुन्नू के कुट्टी-कुट्टी काटके जमुई जंगल में पाटी जैन कर लेम । बाझो सिंह के लठैत आउ गुंडा कि थाना पुलिस से भी निपटे ले एक्के उपाय - लाल झंडा जिन्दाबाद !) (सारथी॰12:17:22:1.51)
225 जोगना (= यत्न से रखना) ("बेटा, कुल आउ कपड़ा जोगे के चाही । ई खेत नञ् हम्मर हे, नञ् तोहर । ई पुरखन के धरोहर हे, संस्कार हे । एकरा जोगावो, तभिये नाम होतो । बाप-दादा के पगड़ी बेचके फटफटिया चढ़बऽ, त पुरखन की कहथुन ?") (सारथी॰12:17:14:1.47)
226 जोड़ना-नारना (हिसाब ~) (हिसाब जोड़े-नारे में मइया एकदमे भोंजल हे । ऊकी, तहिया फूफा के हाथ बाऊ रुपइया भेजइलका हल । महाजन आल आउ तीन-तेरह करके कुल्ले हथिया लेलक ।) (सारथी॰12:17:8:1.36)
227 जोतदार (= जोतनुआ, जोतनू, जोतमल; किसान, कृषक, खेतिहर) (केसर महतो कहो हलथिन, 'बेचारा कापो भइया ... ।' आझ कापो चा 'बेचारा' हो गेलथिन । अट्ठारह बीघा के जोतदार कापो चा - आझ बेचारा । दू जोड़ा हाथी नियन बैल, दू गो दोगली गाय, एगो गुजराती भैंस गोंड़ी पर शोभो हलइ कापो चा के । देवना बराहिल ... ई कड़कड़िया मोंछ, छोफिट्टा जुआन, सिलेब रंग एकदम पकिया ।) (सारथी॰12:17:13:1.21)
228 जोहनइ (बनछिल्ली में कुछ खेत हे । धान उपजऽ हे । धान के रोपा में बाऊ आवऽ हलन आउ सोहराय के बादे जा हलन । एतना दिन में नानीघर, फूआ दीदी घर, ... ने मालूम केतना जगह घूम जा हलन । ओकरा बाद में समझ में आल कि एत्तेक जगह घुमनइ के मतलब हल कि परदेस जाय ले आदमी जोहनइ । जाय खनी गाँव-जेवार से हित-कुटुम के कत्तेक आदमी साथ जा हलन ।) (सारथी॰12:17:8:1.12)
229 जोहिआना (भोरगरे जानवर खुट्टा से खुल गेल । सबके हाथ में तेल पिलावल लाठी, जेकरा में पत्तर ठोकल, गोवा लगल । गंगा के किछार पर भीड़ जमा होवऽ लगल । सबके मुँह से एक्के सबद - 'चल, आज हाँका हइ भाय !' सले-सले पाँचो हेलवार भैंस जोहिअइले गंगा के किछार पर पहुँच गेल ।) (सारथी॰12:17:10:2.11)
230 झंझुआना (रात जब निसबद होल त टोला में कुत्ता झंझुआय लगल । पड़िया सच्चे अनुमान लगइलक कि ऊ आ रहलथिन हे ।) (सारथी॰12:17:21:3.45)
231 झक्क (~ सफेद) (ऊ अब भी अपन बगल में बइठल, सीना पर दाढ़ी लहरायत बुजुर्ग के जरी शक भरल निगाह से देखि रहल हल । उज्जर दाढ़ी-मोंछ के बीच से झाँकइत ऊ बूढ़ा के आत्मविश्वास से भरल झक्क सफेद मुस्कुराहट जनु ऊ थकल-परेशान माय के कहईं हौले से थिरथम्मन कइलक । थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:24:3.28)
232 झखुराही (चुप्पी तोड़इत सोमरा कहलकइ - बाबू ! ... छौंड़ी बड़ा जोर से कुरोधि को बोललइ, "रे काना ! कुमर ठिल्ला ! ... देखें नै - सेहे सती अभी तक बियाह नै भेलउ । बुढ़खुट्टा तो हो गेलें ।" ... शनीचर कहलकइ - "के, शोधना के बेटिया ! ऊ चोन्हीं, झखुराही रे ! ओकरे नियर तोर मागु नै होतइ ? देखहीं ने, अइसन कटघुरनी मागु नानि को देबउ कि देखइ वाला देखते रहि जइतइ । कार कछौटी शामर बान्हि; देखे राही पादे सिपाही । बियहवा तो कहीं तब इहे अगहन में करि दिअउ ।") (सारथी॰12:17:18:1.4)
233 झाड़ा-पखाना (बाझो सिंह के अदमी आवे तब ... दरद के दू-चार गोली या कभी-कभी सुइया भोंकवा दे । पलस्तरा करावे के ने ओकर उकात, ने बाझो सिंह के कोय मतलब । रहल हरवाहा के बात, तो लुझन के छोटका बेटा बीझना छौड़गरे हल, जे अपन बाप के झाड़ा-पखाना करवाके मालिक के हुकुम बजावे ले चलिए जा हल ।) (सारथी॰12:17:20:1.47)
234 झाड़ी-झूरी (बाऊ जी परदेस आउ बस बाल-बच्चे घर में । ... गरमी के दिन में बीड़ी के पत्ता तोड़ऽ हे । अइसे सब मिलके लकड़ी चूनऽ हल । पोरगर-पोरठगर लकड़ी नञ् काट पावऽ हल । ई लेल झाड़ियो-झूरी चून ले हल । ओकरे में से चून-बिछ के कहियो मइया हाट पहुँचा दे हल ।) (सारथी॰12:17:8:1.23)
235 झुरझुरी (अगहन के शुरूह में ठंढा धीरे-धीरे धरती पर दुलहिन जइसन सुकुर-सुकुर पँव रख के उतर रहल हल । साँझ के समय झुरझुरी सन लगो लगल हल ।) (सारथी॰12:17:17:1.3)
236 झौहर-झौहर (~ कानना) (एतना कहते-कहते सोमर आँख बंद कर लेलक । सोमरा बाल-बच्चा समेत झौहर-झौहर कानो लगल । गाँव जानलक । अप्पन किसान अइलइ - कफन ले पैसा देलकइ । मुर्दा चला को उतरी पिन्हने दोसर दिन किसान यहाँ पहुँचल - मालिक ! बाबू के लड्डू-पूड़ी करि दइ ले चाहऽ हिअइ चौरासी के भोज ।") (सारथी॰12:17:19:1.33)
237 टप्पा ('बस एक टप्पा आउ नुनु । तनि मलकले चल । एकदम नूर के दम जाय के चाही ।' । फेर तनि ठहर के, 'मिलतइ हो ... पूरी, जिलेबी आउ आलू बैगन के तरकरियो । भर दोना । हहर मत ।') (सारथी॰12:17:7:1.1)
238 टरके-टरक (= ट्रक के ट्रक) ("अइसे काहे बोलइत ह जी ! अपसोवारथी वाला बात ! ... लोग कहइत हलथी कि ढेर कम्बल आयल हइ बाँटे खातिर ... टरके-टरक आयल हइ ।" बेदामी कहलक ।) (सारथी॰12:17:5:3.32)
239 टीकस (= टिकस; टिकट) (बड़का भइया भी गाड़ी चढ़ावे साथ अइलन हल । ऊहे टीकस भी कटा देलन आउ गाड़ी चढ़े-चढ़े घरी तक एक किलो संतरा भी हमरा थमा देलन ।) (सारथी॰12:17:26:1.25)
240 टीटी (= T.T.E.) (नवादा से आगू पहिल तुरी जा रहलूँ हल । गया जंक्शन देखि के त हम चकड़बम रहि गेलूँ - बाप रे बाप ! लैन पर लैन, गाड़ी पर गाड़ी, लटफरेम पर लटफरेम, खदबद टीटी !) (सारथी॰12:17:26:1.35)
241 टुनमुन (~ बच्ची) (सफेद दाढ़ी वला बुजुर्ग आउ ओकर गोदी में बइठल टुनमुन बच्ची के आपस में तालमेल बइठावे में कोय जादे समय न लगल ।) (सारथी॰12:17:24:3.35)
242 टेबना (= चुनना, परखना, टटोलना) (गया के मोसाफिरखाना देखि के त हम दंग रहि गेलूँ । ... चारो पट्टी बइठे के बेंच बनल, पानी, पाखाना के सुविधा अलग । सब सुरक्षित जगह टेबके डेरा जमा लेलन ... बीच में गेठरी-मोटरी, चारो पट्टी सुत्तल-बइठल साथी । हमरा नींद कहाँ !) (सारथी॰12:17:26:2.10)
243 टेवानले (बीझना के घाव भी अभी हरियरे । ऊ टेवानले हल कि बाझो सिंह के ड्योढ़ी पर दुन्नू के लस्टम-पस्टम करते देख लूँ, ओजय दुन्नू के कुट्टी-कुट्टी काटके जमुई जंगल में पाटी जैन कर लेम । बाझो सिंह के लठैत आउ गुंडा कि थाना पुलिस से भी निपटे ले एक्के उपाय - लाल झंडा जिन्दाबाद !) (सारथी॰12:17:22:1.48)
244 टोनगर (गंगा के दुन्नूँ किछार लबालब ! पाट फैलके एतबड़ गो हो गेल कि ऊ किछार तनियो नञ् जनाय ! गंगा के पानी सोता से बहइत खेत-खंधा में घुसऽ लगल । लहलहायत जिनोर, नरकटिया, चीना, कौनी के फसील गंगा के पानी अइसइँ निंगलऽ लगल जइसे भुक्खल राछसीनी टोनगर शिकार के ।) (सारथी॰12:17:10:1.22)
245 टोला (पछियारी टोला में बीझना के कान नञ् देवल जाय । सगरे एक्के चर्चा ... बीझना वली बाझो सिंह तर बिलउज खोल के अंदर के जिनिस देखा रहल हल कि बाझो सिंह ओकरा ड्योढ़ी से भगा देलक, ई कहके कि हम तोर बाप दाखिल हियो आउ तूँ हमरा बदनाम करे लेल अइलऽ हे ?; एन्ने दक्खिन टोला में अलगे चर्चा - बाझो सिंह बीझना वली से ड्योढ़ी पर जोर-जबरदस्ती कर रहल हल कि बीझना वली एक लात मारके भाग आल ।; पछियारी टोला के हो-हल्ला में दक्खिन टोला के खुसुर-फुसुर बिला गेल ।) (सारथी॰12:17:23:3.5, 12, 17)
246 ठइयाँ (= ठामा; जगह) (कहियो सबेरे उठ जा हल त दलदल कँपइत पहाड़ के पुरवारी ठइयाँ चउरगर पत्थर पर बइठ के रउद खइते रहऽ हल । ओजा गाँव के अउरो ढेर सा बुतरू-बानर से लेके बड़गर आदमी तक रउद सेंके हे ।) (सारथी॰12:17:7:1.14)
247 ठकुआयल (अकादमी के गेट पर गाछ के छाहुर में मन के बात मने में दबइले ठकुआयल ठाढ़ हली । एतने में पटना से श्री घमंडी राम, श्री हरीन्द्र विद्यार्थी आउ श्री राजकुमार 'प्रेमी' हमरा सभे के खोजइत पहुँचला । गल-गलवात होवो लगल ।) (सारथी॰12:17:31:3.45)
248 ठगबनीजी (नरेन्दर सोचऽ हे - ठगबनीजी के घोषणा ! गरीब के पूछ कहउँ नञ् । बड़का लेल विज्ञापन । पैसा-वलन के पूछ । ऊ ई अंधेर व्यवस्था पर पच् दनी थूक दे हे ।) (सारथी॰12:17:16:1.7)
249 ठाँव-कुठाँव (भूख पहिला सवाल रहऽ हे आउ ओकरा खातिर ऊँच-नीच, ठाँव-कुठाँव सब लाँघे पड़ऽ हे । जीअइ लेल तो जहरो ने पीअ हे आदमी । इज्जत ढोवइ वलन भूख के आगू हार रहल हल ।) (सारथी॰12:17:8:2.46)
250 ठिठियाल (~ चलना) (लैन होटल ! बूढ़-पुरनियाँ के चर्चा के विषय । सब के एक्के बात, 'अब हमनी सब के सत-पत उठइत जा रहल हे । कोय कहतो-महतो नञ् । छँउड़िन ठिठियाल चलऽ हइ ।') (सारथी॰12:17:9:1.8)
251 ठिसुआल (गाड़ी रुकल । भीड़ में ऊ दुन्नूँ औरत-मरद अन्हार में बदलि गेल । बुजुर्ग के चेहरा पर स्याह परछाईं तैर रहल हल, ठिसुआल सन । ऊ सामने के खिड़की से अनमनाल अंदाज में लटफरेम के अन्हार दने घूरऽ लगलन ।) (सारथी॰12:17:25:2.32)
252 डगराना (= लुढ़कना; लुढ़काना) (एक दन्ने जउन समाज में जात-पाँत, अगड़ा-पिछड़ा, हिन्दू-मुसलमान के झंझट अपन हाट लगइले हे, आपसी मतभेद के भाँग कुँइए में घोराल हे, एक-दोसर के टंगरी खींचे में हम डगरा के बैंगन हो रहलूँ हें, राय-छितिर हो रहलूँ हें, गुरुजी के गरहाजिरी अखरो हइ ।) (सारथी॰12:17:34:2.47)
253 डगरिन (कनियाय घर अइली - सलियाने बच्चा । एगारह साल में एगारह बच्चा । सब तो एकर जान छोड़के चल देलकइ, हाथ में बच गेलइ चार । दू बेटा - दू बेटी । बारहवाँ में बेचारी अपने चलि देलकइ ।/ भेलइ ई कि साँझ चार बजे से ओकरा दरद शुरूह भेलइ । डगरिन तेल से पिछलइकइ । कोय कहलकइ - सूअर के तेल मरीच गरम करके पिला दहो, सेहो कइलकइ ।) (सारथी॰12:17:18:3.18)
254 डराम (= ड्राम, dram) (पहिले भी ई गाम संपन्न हल ... धन-धान्य से भरल-पूरल हल ... गाय-भैंस से गोंड़ी अघाल हल । मुदा अब ... मुआवजा मिलला के बाद जैसे ई गाम जादे विकास करि गेल हल ... कुछ मायने में । घर से कोठी-कनरा खतम हो गेल हल आउ डराम आ गेल हल अनाज रखे ला ।) (सारथी॰12:17:14:2.47)
255 डिलैट (वहाँ के दिरिस त अजीबोगरीब हल । चार गो डिलैट बरि रहल हल । सो दू सो के मजमा जुटल हल । जन्नी-मरदाना, बुतरू, जुआन, बूढ़ा-बूढ़ी सब तमाशा देखि रहल हल गोल घेरा बनाके । ऊ घेरा में एगो अदमी हाथ में लाठी लेले नाच रहल हल । कुछ गवइया लोरकायन गा रहल हल ।) (सारथी॰12:17:11:2.23)
256 डेर (= डेब, ऐंचा, भेंगा, बकड़ेर, कनडेब; देखते समय एक आँख झपकाने या बंद रखने वाला; एक सींग ऊपर और दूसरी नीचे वाला मवेशी, सरगपताली; एक ओर मुड़े टोंड का हल; ऊपर-नीचे जलने वाली (लौ)) (सोमरा अप्पन छोटका अँखिया से देखलकइ, बड़का मूँद के, कहलकइ, "हमरा तो दुन्नो से लखा दे हइ बाबू ! तब हमरा काना कइसे कहलहीं ?" शनीचर कहलकइ, "तों कान नै हहीं, डेर हहीं । मौगी होतउ पतलडेर । देखतउ तोरा, लगतउ दोसरा के देखब करऽ हइ । देखतउ पूरब, तब लगतउ दक्खिन देख रहलइ ह आर कि !") (सारथी॰12:17:18:1.53)
257 डेरगूह (अचक्के चेथरूआ भिजुन एगो सोंस उपराल । ऊ हड़बड़ा के कहलक, 'बाप रे बाप ! कतबड़ गो सोंस हइ कका ! सुनऽ हिअइ कि एकरा फूँकला से अदमी के देह फूलि जा हइ ... कहइँ ... ।' बलेसर हँसइत कहलक, 'सोंस डेरगूह जानवर होवऽ हइ । ऊ त अदमी के देखइते मातर भागऽ हइ ।') (सारथी॰12:17:10:3.28)
258 ढिकली (सीढ़ी के ऊपर मंदिर में बाबा किशोरी शरण जी हमनियें के इंतजार करि रहलन हल । प्रसाद में खोवा के बनल चउड़गर-चउड़गर दू-दू गो लाय आउ मिसरी के बड़-बड़ ढिकली मिलल । ऊहे हमर सब के बालभोगी भेल ।) (सारथी॰12:17:27:1.13)
259 ढेंउस (= ढउँसा, ढौंसा, ढाउँसा) (घुंघरैला केश गरदन पर झूलो हल ... भेंभा नियन । धोती-कुरता, गोड़ में जुत्ता ... एगो छाता आउ एगो करका बेग जरूरी । बेग भी कइसन ... बरसाती बेंग जइसन । बेंग भी नञ् कहो ... बरसाती ढेंउस नियन ।) (सारथी॰12:17:34:1.42)
260 ढेरकुनी (= ढेरमनी; बहुत सारा) ('तनि मलकले चल । फेर हुआँ भी लमहर लइन लगावे पड़तउ । ढेरकुनी ने पहुँच जा हइ ।' बाऊ टिटकारी मारलन ।) (सारथी॰12:17:8:3.1)
261 ढेला-ढक्कर (~ करना) (ओने यमुना सिंह मतिछिन नियन गामे-गाम भटकइत चलऽ हला । उनखर हरकत से घरइया सब परेशान हो गेला । ईहे क्रम में एक दिन यमुना सिंह नरहट गाँव पहुँच गेला । वहाँ के लोग-बाग उनखा पागल समझि के ढेला-ढक्कर करऽ लगला । उनखर माथा-ताथा फूट गेलन । गाँव वलन उनखा मार-पीट के गाँव से भगा देलक ।) (सारथी॰12:17:27:3.31)
262 ढेह (= ढेव; समुद्र का ज्वार; पानी की लहर, तरंग, हलफा) (मइया गंगा अपन मस्त चाल में बह रहली हल । हरेक ढेह में सोना आउ चाँदी के मिलावट हल आउ एन्ने कापो सिंह के मन ढेह उठ रहल हल - "अब तोंहीं कुछ करहो मइया । ई बउड़हवन के मति-गति देहो । गंगोतरी से गंगा-सागर तक तोरा गेन्हावे के ठीका लेलको हे ।"; ओने सुनीता के माथा में दू साल पहिले के घटना ढेह मारऽ लगल - नरेन्दर के गैस्टिक हो गेल हल । ढेर दिन तक उल्टी होवइत रहल । कते से देखइलक, तइयो रोग नञ् गेल । ढेर पइसा के जियान हो गेल हल ।) (सारथी॰12:17:13:2.20, 22, 16:1.49)
263 तइरनइ (सरयू देखि के हम अचंभित रहि गेली ... चैत में कलकल धारा ! हम ऊ स्वर्गिक छटा निहारइत सोचऽ लगली - काश ! एजइ हमर घर रहत हल कि रोज डुबकी लगइतूँ हल । तइरनइ हमर कमजोरी हे !) (सारथी॰12:17:26:3.48)
264 तरासल (गाँव वलन आदमी शहर बनावइ लेल भुक्खल-पियासल गर-गोरू सन झुंड के झुंड बहरा रहल हे । गाँव के जमीन पानी बिन तरासल हे । नहर, कुआँ, बोरिंग पर केकरो धियान नञ् । खेती-पाती के जमीन अउने-पउने में हथियावल जाहे ।) (सारथी॰12:17:9:1.27)
265 तसमय (= तसमई; खीर; दूध में उबला हुआ शक्कर मिला चावल) (झटपट सब इन्तजाम हो गेल । सब छक के घी वाला छानल पूरी आउ तसमय खइलका । कठौती पर शुद्ध घी के पकवान गमछी में बान्हलका आउ भर खर्राटा मार के सुतला ।) (सारथी॰12:17:12:1.4)
266 तिअन-तासन (मइया हाट से तिअन-तासन लेल अलुआ, नोन, तेल, मिरचाय के साथे-साथ मिठगर चीजो लेले आवऽ हल । हरदी तो उपजवे करऽ हे । कहियो-कहियो सालन भी आवऽ हल । ऊ दिन तो मानऽ तेहवार हो जा हल ।) (सारथी॰12:17:8:1.31)
267 तुरिया (कत्तेक ~) (तिलका शहर पहुँच गेल । चकाचक दर-दोकान । मर-मिठाय आउ रंगन-रंगन के चीज । बस खातिर गुमटी । पहिले माय साथ कत्तेक तुरिया आल हल ।) (सारथी॰12:17:9:1.12)
268 तेजपत्ता (= चतपत्ता; चतपताय) (ओने सुनीता खौलल पानी में तलछट चाय के पत्ती तरहत्थी पर लेके डालि देलक । चीनी झरि गेल हल । ऊ चुटकी भर निम्मक अउ तेजपत्ता देके छानि देलक । दू कप में ढारि के उठल आउ एगो नरेन्दर के थमाके दोसरका में खड़े-खड़े होठ लगा देलक ।) (सारथी॰12:17:15:2.44)
269 थक्कल-हारल ("ई तो ठीके कहऽ हो कापो भइया । एतना दिन से जोत-कोड़ रहलिअइ हे, एगो अपनापन के बोध हो गेलइ हे । ई खेत, ई बगइचा, ई गंगकिनारी, ई आर, ई अलंग, सभे कुछ अपना लगो हे । दू अंगुल आरी ले फौदारी हो गेलइ हल भइया । बाकि ... " एगो थक्कल-हारल सिपाही नियन कहलका पटवारी जी ।) (सारथी॰12:17:13:3.13)
270 थिरथम्मन (ऊ अब भी अपन बगल में बइठल, सीना पर दाढ़ी लहरायत बुजुर्ग के जरी शक भरल निगाह से देखि रहल हल । उज्जर दाढ़ी-मोंछ के बीच से झाँकइत ऊ बूढ़ा के आत्मविश्वास से भरल झक्क सफेद मुस्कुराहट जनु ऊ थकल-परेशान माय के कहईं हौले से थिरथम्मन कइलक । थकान आउ गढ़गर नीन के वजह से थोड़के देरी में ऊ नौजवान माय अधमने से ऊँघऽ लगल ।) (सारथी॰12:17:24:3.30)
271 थुम्हना (तिलका देखलक कि ठेकेदार के आदमी एगो छप्पल फारम पर एकाएकी टिप्पी ले रहल हे । ऊ तनि दूरिये में खड़ा हो गेल । ढेर देरी तक खड़ा रहल । खड़ा-खड़ा ओकर गोड़ थुम्ह गेल । थकल तो हइये हल । भूख भी लग गेल हल ।) (सारथी॰12:17:9:1.39)
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