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Sunday, September 03, 2006

1. मगही के मानक रूप




मगही के मानक रूप - डॉ० राम प्रसाद सिंह

मगही आज के भासा नऽ हे बलुक 2½ हजार बरीस पहिले मागधी के रूप में भारत के जन भासा हले । येही गुने महात्मा बुद्ध येही जनभासा के अपन धरम प्रचार ला चुनलन हल । ई सिध हो चुकल हे कि ईसा के पाँच सौ बरीस पहिले त्रिपिटक के रचना मागधी भासा में भेल हल जउन भासा मगध, कोसल आउ विदेह में फैलल हल । ओकरा बाद ओकर अनुवाद पालि में भेल आउ महेन्द्र के मार्फत लंका में फैलावल गेल ।

धरम प्रचार के बाद नाटक में मागधी के प्रयोग ईसा के १ली सती से छठी सती तक भेल । छठी से १५वीं सती तक साहित्य में अपभ्रंश के प्रयोग मिलऽ हे । येही समय में सिधन के साहित्य के विकास भेल हल जेकरा में पुराना मगही के बीज रूप मिलऽ हे । येही समय में मागधी मगही बनल आउ सरहपा के क्रांतिकारी आगमन भेल । बुद्ध काल से सरह काल तक मागधी-मगही जनभासा आउ साहित्य भासा दूनो रूप में बेवहार होइत रहल ।

काल के बाद - १२वीं सती से मगही साहित्य के लगातार सिष्ट परम्परा नऽ मिलऽ हे बाकि जन जीवन में आउ जन बोली में एकर स्थान बनल रहल । जन जीवन के खाली बोलिये में नऽ बलुक लिखा-पढ़ी में भी एकर प्रयोग होइत रहल । यानि मगही खाली बोलिये के रूप में नऽ बलुक भासा के रूप में प्रतिष्ठित रहल हे ।

पुराना जमाना में मागधी भारत के केन्द्रीय भासा रहल हे - मगध, कोसल आउ विदेह एकर मुख केन्द्र रहल हे । आजो बिहार के 2½ करोड़ लोग मगही बोलऽ आउ लिखऽ पढ़ऽ हथ । गया, पटना, नालंदा, औरंगाबाद, नवादा जिलन में पूरे रूप से आउ हजारीबाग, पलामू, मुंगेर, धनबाद आउ राँची में जादेतर तथा वैसाली, पुरुलिया, असाम आउ उड़ीसा में भी तनी मानी मगही बोलल जा हे । भासा विज्ञान के अनुसार कोई भी ५-६ मील पर तनी मानी बदल जा हे - मगही में भी ई बात हे । तो सवाल हे कि कउन जगह के बोली के मगही भासा के मानक रूप मानल जाय ई बड़ा विवाद के सवाल हे ।

ई सवाल के उत्तर ला परम्परा आउ विद्वानन के सहारा लेल स्वाभाविक हे पुराना गया आउ पटना जिला के मगही बोली के सब विद्वान 'आदर्श मगही' मानइत अयलन हे आउ ई मगध राज के बीच में भी रहल हे । ई गुने इतिहास, भूगोल आउ संस्कृति के लेहाज से गया-पटना के मगही बोली आदर्श आउ मानक माने जुकुर हे । एकरा में कोई खास भिन्नता के जगह नऽ लोके । बाकि जब आज मगही के साहित्य रूप प्रतिष्ठित हो रहल हे तो जगह-जगह के बोली में भिन्नता के दूर कर के एकरूपता लावे परत नऽ तो मानक रूप के अभाव में साहित्य सिरजेन में थोड़ा बाधा होयत आउ दोसर भासा बोले ओलन के समझे में भी तनी दिक्कत होयत । ई गुने ई समय जरुरी हो गेल हे कि मगही के मानक रूप पर विचार कैल जाय ।

आज जोर से सगरो अवाज उठ रहल हे कि आखिर मगह के बोली के कौन स्थान के मानक रूप मान के साहित्य में व्यवहार कयल जाय ? एकरा पर काफी बहस-मुहाबसा चलइत रहल हे । बाकि जादेतर विद्वान गया-पटना के मगही के 'आदर्श मगही' मानलन हे । डॉ० श्रीकांत शास्त्री भी यही मानऽ हलन । एक बात विचारे के हे । पटना आउ बिहार सरीफ के बोली पर मध्य काल के फारसी-उर्दू के प्रभाव के नकारल न जा सकऽ हे । डॉ० सम्पत्ति अर्याणी भी एकरा कबूल करऽ हथ आउ डॉ० वासुदेवनंदन प्रसाद भी एकरा मानऽ हथ । बाकि गया धरम स्थान रहे के कारन अप्पन रूढ़ि से चिपकल रहे के कारन इहाँ के मगही के बिगड़े के कम मौका मिलल हे । इहाँ के मगही बोली सुद्ध रूप में मिलऽ हे । ईसे इहाँ केन्द्रीय आउ आदर्श मगही के सुद्ध मान के एकरे मगही के मानक मानल जा सकऽ हे । पहिले सब विद्वान भी ई बात के मानलन हे । हम भी समझऽ ही कि गया आउ एकर अगल-बगल के मगही के स्तरीय मान के मगही के मानक रूप निश्चित कयल जाय तो अच्छा होयत । गया के बोली के एगो उदाहरण –

"एगो बाबाजी हलन । रात मांथ तो सवे सेर आउ दिन मांगथ तो सवे सेर । से एक दिन उनकर मेहरारु कहलथिन कि एकरा से तो काम न चलतो । कुछ कुछ दोसर उपाय पत्तर करऽ तो धरम-करम चलतो । बबा जी कहलन कि का करे के चाहीं आउ का नऽ करे के चाहीं ? पड़िताइन कहलथिन कि परदेस जा के कुछ कमा-धमा । बाबा जी दोसरके दिन तड़के निकललन । कुछ दूर गेलापर पिआस लगल तो एगो इनरा पर बइठ गेलन आउ बान्हल कलेवा के खोललन तो ओकरा में सात गो लिट्टी हल । बाबाजी सोचलन कि एगो खाऊँ कि दूगो खाऊँ इया सातो ख जाऊँ ।"

उपरे के उदाहरण में एके साथ कईगो सवाल के जबाब लोकऽ हे । हिन्दी में 'क्या' सर्वनाम ला मगही में दू सब्द हे - 'का' आउ 'की' । गया में 'का' आउ राजगिर में 'की' के बेवहार होवऽ हे । मुदा ई मैथिली के प्रभाव के कारन होवऽ हे । ई मगही के प्रकृति के मोताविक नऽ हे बलुक मैथिली के प्रकृति के मोताविक हे । ई गुने मगही में 'क्या' ला 'की' से जादे 'का' के प्रयोग अच्छा हे ।

हिन्दी में 'या' आउ 'अथवा' ला मगही में 'इया' आउ 'आ' के प्रयोग मिलऽ हे । 'आ' के प्रयोग न के बराबर हे । ई गुने एकरापर विचार कइल बेकार हे । 'अथवा' आउ 'या' ला मगही में 'इया' सब्द ही रखे के चाहीं ।

'और' ला मगही में 'आउ' आउ 'अउ' दू सब्द के प्रयोग होवऽ हे । बाकि 'आउ' के व्यापक प्रयोग देख के 'और' ला 'आउ' के ही प्रयोग होवे देवे के चाहीं ।

जहाँ तक आकारांत संज्ञा के सवाल हे, जइसे हथा, गोड़ा, दला, भत्ता आदि, एकरा स्थान पर हाथ, गोड़, दाल, भात आदि अकारांत सब्द ही रहे देवे में सुन्दरता ला अच्छा हे ।

मगही में तीनों 'स' के झमेला करीब खतमे हे । तालव्य 'श' आउ मूर्धन्य 'ष' के जगह पर दन्त्य 'स' के प्रचलन न खाली मगही ला बलुक सुगमता ला भी अपनावे जुकुर हे । येही तरह टवर्ग 'ण' के प्रयोग भी खतमे हे आउ तवर्ग 'न' के प्रयोग होवे लगल हे जे ठीक हे ।

मगही में संयुक्ताक्षर के प्रयोग कम होवऽ हे बाकि अइसन नऽ कि होयबे न करे, होवऽ हे, जइसे -- कच्चा-बच्चा, चहबच्चा, बग्-बग् उज्जर घूच्च अन्हरिया आदि । मगही में कम संयुक्ताक्षर के मान के सब संयुक्ताक्षर के 'पूर्णाक्षर' में बदले लगल जाय तो अनर्थ हो जायत । जइसन हठ कभी-कभी देखल जा हे जइसे - 'संस्कृति' के 'सनसकिरति' में लिख के कहाँ तक मगही के उपकार कैल जा सकऽ हे । जहाँ संयुक्ताक्षर के पूर्णाक्षर में बदलल जाय उहाँ ई भी ध्यान रखल जरूरी हे कि ऊ सब्द मगही के प्रकृति के पार न कर जाय आउ बिगड़ के हँसी के आलंबन न बन जाय । जहाँ तक मगही के प्रकृति में ढलके संयुक्ताक्षर के 'पूर्णाक्षर' में बदलल जाय आउ ओकर अरथ में अनरथ न हो जाय तो ऊ ठीक हे । न तो अनावश्यक बिगड़ाव के कम से कम स्थान देवे के चाहीं न तो मगही के सुन्दरता बने के बजाय बिगड़ जाय तो ठेठ ध्वनि के रक्षा करे के चक्कर में ओकर ठेठपन तो खतमे हो जायत, अरथ के अनरथ भी हो जायत ।

कोई भी भासा में खाली ओकरे अपन सब्द -धन न रहे बलुक दोसर भासा से भी लेवल गेल सब्द भी काफी मात्रा में मिलऽ हे । मगही भासा भी एकर अपवाद नहे हो सकऽ हे । अपवाद बने पर मर जायत । तब सवाल उठऽ हे कि मगही के अलावे दोसर सब्द के हम कइसे आउ कउन रूप में अपनावीं । अभी दू तरह के विचार चल रहल हे - (१) बाहरी सब्द के तत्सम रूप में अपनावल जाय (२) ओकरा मगही करन करके अपनावल जाय । कहल जाहे कि तत्सम रूप के अपनावे पर मगही ध्वनि लुप्त होइत जायत आउ मगही के ठेठपन समाप्त होवे के डर हे । दोसर सवाल हे - दोसर भासा के सब्द के मगही करन कैल जाय । बाकि सवाल हे मगही करन इया विकृति करन ? भासा विज्ञानी कहतन विकासी करन । बाकि विकास तो कयल न जाय, होइत रहऽ हे । मगही करन भी अपने आप होइत जायत । हँऽ, हमनी कभी-कभी विकृति करन जरूर कर ले ही । आउ अरथ के अनरथ होवे लगऽ हे । तब समस्या हल कइसे होय ? बीना के तार जादे कसा हे तो टूटे के भय हे, ढीला छोड़ देल जाय तो सूरे न निकलत । तब तो मध्यम मारग ही हमनी के सहारा हे ।

बीच के रहता निकाले के पहिले बिहार के दोसर दू भासा में हो रहल प्रयोग पर विचार कइल कोई बेजाय न हे । मैथिली थोड़े पहिले धनी भेल - साहित्यिक रूप अपना लेलक, सब्द धन के बढ़ा लेलक । बाकि सब कोई जानऽ हथ कि ओकरा में सैकड़े ८० सब्द संस्कृत आउ हिन्दी के प्रयोग होवऽ हे । भोजपुरी भी ओही रहता अपनवले हे । भोजपुरी में अभी दूगो धारा चलइत हे - एगो प्रधान भोजपुरी लिखऽ हथ आउ दोसर जे ठेठ भोजपुरिया के प्रयोग करऽ हथ । उहाँ एगो तीसर ग्रुप हे - लोहा सिंह के जे खड़ी बोली आउ बिगड़ल अंगरेज के सब्द मिला के लिखऽ हथ आउ हँसी पैदा करऽ हथ । हिन्दीओ में दूगो धारा चलल हे - हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाणभट्ट के आत्म कथा आउ प्रेमचन्द के गोदान । भासा साहित्य में अइसन तो चलते रहत ।

ई हमनी के का करेला हे ? ई भी देखेला हे कि मगही बिहार के दोसर-दोसर भासा से पीछे न पड़ जाय ? आउ आदर्श परम्परा के ढोवे में पीछे पड़ के मेटा न जाय । अभी एकर साहित्यिक रूप बन रहल हे । सब्द-धन बढ़ रहल हे तऽ हमनी के दिल खोल के बढ़े देवे के चाहीं । रूढ़-परम्परा में बन्ह के, एकर मिठास आउ ध्वनि के कायम रखे के कठघरा में पड़ के एकर विनासी प्रयास हमनी न कर बइठीं । ई गुने फिनो हमरा बिचला रहता, मध्यम मार्ग के इयाद आवऽ हे - बुद्ध के जमीन जे ठहरल ।

मध्यम मार्ग कइसे अपनावल जाय ? बात पिछु हमनी वेद इया तुलसीदास के उदाहरन दे ही । इहाँ भी तुलसीदास से रहता लोक सकऽ हे । मानस अवधी के पोथी हे बाकि ओकरा में अवधी के अपन ठेठ सब्द केतना हे ? तइयो ऊ अवधीये के मानल जा हे । गोस्वामी जी अवधी के कइसे धनी बनवलन, सब विद्वान जानऽ हथ । रामायन के भासा के सुभाव अवधी हे, ओकर प्रकृति अवधी हे, बाकि सब्द ? ओकर जादेतर सब्द संस्कृत के हे । तुलसीदास ऊ सब सब्दन के कइसे प्रयोग कयलन । प्रयोग में उनकर दूगो दृष्टिकोन लोकऽ हे - (१) पात्र के मोताविक प्रयोग (२) प्रसंग के मोताविक प्रयोग, बाकि कोई भी प्रयोग में ऊ भासा के बिगड़लन नऽ हे बलुक अवधी के जामा पहना देलन हे आउ जहाँ जरूरत न समझलन उहाँ अवधी जमो नऽ पहनवलन । रामायन में एगो-दूगो नऽ बलुक सैकड़न प्रसंग मिलत जहाँ सुद्ध तत्सम के बढ़िया प्रयोग मिलत तइयो ऊ अवधीये हे । देखीं –

पुर रम्यता राम जब देखी । हरषे अनुज समेत विसेषी ।।
बापी कूप सरित सर नाना । सलिल सुधा सम मनि सोपाना ।।
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा । कूजत कल बहु वरन बिहंगा ।।
बरन बरन विक से बन जाता । त्रिविध समीर सदा सुख दाता ।।
सुमन वाटिका बाग वन, विपुल विहग निवास ।
फूलत फलत सुपल्लवत, सोहत पुर चहु पास ।।


मानस के ई अत्यन्त सधारन उदाहरन हे । संस्कृत लदल प्रयोग तो रामायन के अपन विसेखता हे । उपरे के उदाहरन में अवधी के ठेठ सब्द केतना हे ? तइयो ई अवधीये मानल जायत काहे से कि एकर क्रिया सब अवधी के हे । दोहा के अन्तिम लाइन में 'फूलत', 'फलत', 'सुपल्लवत', आउ 'सोहत' सब्द के अवधी करन कर देल गेल हे । सुमन, वाटिका, वागवन, विपुल, विहंग, निवास सब सब्द सूच्चा तत्सम हथ । तत्सम सब्द के अवधी करन के कइसन कला हे !

हमनी के आज अइसने रहता के अपनावे पड़त । सब दोसर सब्द के बिगाड़ के मगही में प्रयोग करे के जरूरत नऽ हे । एकरा से खाली बिगड़ाव पैदा होयत, भासा-साहित्य के विकास न होयत । हँऽ, क्रिया पद के मगही करन जरूरी हे । क्रिया ही कोई भासा के प्रकृति के परिचय दे हे । सम्बन्ध आउ सर्वनाम ओकर सहायक होवऽ हथ । संज्ञा के भासा परिवर्तन में कोई खास महत्व न होवे । जइसे --

१. ओकरा चार गो बेटा हलनमगही
२. ओकरा चार गो बेटा रहलनसभोजपुरी
३. ओकरा चारि गोट बेटा छलेकमैथिली

ई तीनों वाक्य में "हलन, रहलनस, छलेक" क्रिया पद ही जइसन हथ जे एक दोसर से अलगाव पैदा करऽ हथ । ई गुने हमरा कहे के मतलब हे कि दोसर भासा सब्द लेइत खानी क्रिया पद के मगही करन तो जरूरी हे बाकि संज्ञा पद के बिगाड़े के जरूरत न हे । जहाँ सब्द-रूप के परिवर्तन बीना कामे नऽ चले लायक हे इया मगही के प्रकृति के एकदम खिलाफ हो जा रहल हे तबहिये सब्द रूप बदलल जाय के चाही जइसन रामायन आदि ग्रन्थ में कैल मिलऽ हे ।

- "मगही के मानक रूप" (मगही निबंध संग्रह), मगही अकादमी, तूतबाड़ी, गया, १९८७, पृष्ठ १-६.

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