कहानीकार - मुनिलाल सिन्हा, ग्राम-माछिल, डाक-पाई बिगहा, जिला-जहानाबाद
ई तो जानल बात हे कि हमरा हीं तेतीस करोड़ देवी-देवता के कल्पना करल गेल हे । एकरा में सूरज देव से लेके अग्नि, जल, पवन, अन्न आउ अइसने सब चीज हथ, जे मनुष्य के कोई तरह से रच्छा आउ भलाई में लगल रहऽ हथ । भय से रच्छा के कल्पना करिए के देवी-देवता के कल्पना करल गेल हे ।
शक्ति ला देवी जी, बुद्धि ला सरस्वती जी, गाँव-घर के निगरानी ला गोरइया डिहवार, डाक, फूल डाक, ईशरा डाक, लहरा डाक, त घर के परिवार के रच्छा ला टिपउर, मनुस्देवा, बाबा बकतउर आउ बराहदेव हथ ।
ई सब देवतन के अलग-अलग तरह के भोजन हे । माँ काली ला भईंसा, देवी जी ला पठिया, सरस्वती ला फल-फूल आउ मिष्टान्न, गोरइया आउ डाक ला खस्सी-भेंड़ा, सूअर, मुर्गा, कबूतर, टिपउर ला खस्सी-भेंड़ा आउ डाक गोरइया के तो खूनो पीए से जब तरास न जाय त अलगे से तपावन (दारू) देल जाहे, तब जाके उनकर पियास बुझऽ हे ।
खैर, ई सब के भोजन आउ खान-पान में तो कोई विशेषता न हे कि जेकरा चलावे के जरूरत पड़े । बाकि हँ, हमरा हीं एगो देवता हथ, जिनकर भोजन एगो विचित्र चीज हे । ई देवता हथ ढेलमरवा बाबा जी । से इनकर भूख मिटऽ हे दू चार ढेला खाय पर । इनकर स्थान हे सड़क के बगल में इया अहरा-पइन के पीठ पर जहाँ रहगीर के आवे जाय के आम रास्ता हे । त जे गेलन सेहि इनका एक ढेला देइए के आगे बढ़लन । अगर न देतन आउ इनका बिना ढेला मारले आगे बढ़ गेलन, तो फिन जयबऽ कहाँ ? ई आझ इया कल्ह एकर बदला लेइए के छोड़तन, काहे कि भूखले रह गेलन । ढेले इनकर भोजन आउ नाश्ता हे आउ एही न मिलल, त ई अब खा हथ कउची ? ढेले खा हथ आउ ऊ बिना ढेले देले चल गेलन त आझ न कल्ह उनका तो कुफल मिलवे करतइन ।
ढेलमरवा बाबा छेमा भी कइसे कर सकऽ हथ ? इनकर पावने शक्ति एतना न तेज हे कि मत कहऽ ! एही से तो ऊ आम रास्ता पर अप्पन आसन जमौले हथ कि हजार-पान सौ ढेला रोज मिल जात, त चलऽ अप्पन भूखल लहालोट मिजाज एकदम शांत हो जात । स्थिर होके रात में सुत गेलन आउ तीन बजे से मोसाफिर भाई के आवे के बाट जोहे लगलन । अब अइसन भूखल-छछनइत आउ पित-पिताल हालत में इनकर भूख के नजर-अंदाज करके जे गुजरे के जुर्रत करतन त उनका इया उनकर बाल-बच्चा के दूसरे दिन परेशान कर न देतन ?
हम्मर घर से पच्छिम एक किलोमीटर के दूरी पर एगो बड़का लहरा के पिण्ड पर ई बाबा के स्थान हे, जहाँ ढेला के एगो छोटा पहाड़े खड़ा हे ।
हमरा हीं से पच्छिमे दू किलोमीटर पर 'मेन' गाँव में बूढ़वा महादे हथ । उनका भिर हर साल फागुन तिरोस्ती के बिहानी होके एगो स्थानीय मेला लगऽ हे जेकर नाम हे कोचामहादे इया कोचामठ के मेला । खूब कुस्ती भी होवऽ हे आउ कीर्तन आउ होली भी होवऽ हे । सब सामान बिकऽ हे । औरत-मरद से तो मारे देह छीला हे । माने चूँटी ससरे के इया तिल रखे के भी जगह न रहे ।
एक बार के बात हे कि ओही मेला में जाइत घड़ी जब अहरा पर चढ़ली हे त नजदीक में पहुँचे पर देखली कि दूगो महिला ओजउने बाबा के एक-एक ढेला मारलन । फिन एक औरत अप्पन साल भर के लइका के हाथ में एगो ढेला धरा के गोदी में लेलहीं कहलक - 'बाबू रे ! इनका पर फेंक द ढेला ! ई ढेलमरवा बाबा जी हथिन ।'
ढेला बुतरू से उनका पर फेंकवा देलन । बाबा के भोजन हो गेल । औरत कह रहलन हे - 'इया ढेलमरवा बाबा जी ! एकरा अपने नियन अजड़-अमर कर देहूँ कि हम्मर बाबू के अंगुरी भी न पिराय ।'
एकर बाद तीन आदमी जे हमरा से आगे-आगे जा रहलन हल, ओकरा में से दू गो नवयुवक एक-एक ढेला बाबा के मारलन । एकर बाद जब न रहल गेल तब चालीस इया पैतालीस के जे हलन से एक ढेला बगल से उठा के बाबा के कचाक से मार देलन । उनका साथे वाला एगो लइका पूछ देलक - अपने भी ई सब के मानऽ ही ? हमनिए नियन अपने भी अईंटा ढेला चलावऽ ही ?'
उनकर जवाब हल - 'हँ जी, पढ़ लिख जाय से हम का अप्पन पूर्वज से भी बढ़ गेली कि उनकर चलावल प्रथा छोड़ देईं ? का जानी का समझ के हमनी के पूर्वज ई सब चला देलन हे । हम छोड़ीं काहे ?'
हमहूँ ओखनिए के पीछे-पीछे चलल जाइत हली । हमरा से न रहल गेल, से उनका से परिचय पूछ बइठली - 'अपने के कहाँ मकान हे बाबू साहेब ?'
जवाब देलन - 'मकान हे नालन्दा के खण्डहर के बगले एगो गाँव में ।'
'अपने कहूँ बाहर रहऽ ही ?'
'हँ, रहऽ हियो कलकत्ता । उहईं एगो महाविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में प्रोफेसर हियो । ई लइकन हमरे शिष्य आउ सम्बन्धी हथुन ।'
एतना सुनइते हम तो एकदम गुम हो गेली । बतावऽ, ई एगो प्रोफेसर हथ । कलकत्ता महानगर में रहऽ हथ आउ आधा उमर भी बीत गेलइन । न तो ई कलकत्ता के संस्कृति आउ सभ्यता से कुछ सीखलन, न नालन्दा के पुरनका इतिहास के इनका पर कोई असर भेल । न अप्पन उमर से कुछ सीखलन आउ न आझ के विज्ञान के युग से कोई सीख लेलन । संसार जब मंगल ग्रह पर जाय के तइयारी कर रहल हे, त ई नालन्दा के कोख में पैदा लेके देहात के ढेलमरवा बाबा जी पर ढेला फेंक के अप्पन अमरता के वरदान ला घिघियाइत चलइत हथन ।
अइसने एगो खगोल विद्या के प्रोफेसर हलन । वर्ग में लइकन के पढ़ावऽ हलन कि पृथ्वी आउ सूर्य के बीच में चन्द्रमा के पड़ जाय से सूर्यग्रहण लगऽ हे । आउ जब घरे आवऽ हलन त सूर्यग्रहण लगे पर जल्दी-जल्दी स्नान करके दरब आउ जौ छू के दान करऽ हलन जे में जल्दी से जल्दी सूर्य देव राहू से मुक्त हो जाथ ।
त ई तो हे विज्ञान के युग । ई केकरो प्रतीक्षा में ठहरल थोड़े रहत ? समय आउ ज्वार कोई के प्रतीक्षा कयलक हे ? ऊ तो भाटा बन के घसकिए जात, आगे सरकिए जात । छूट जायम से हमनी न ! लोग जयतन मंगल पर त हम हिअईं से गोड़ लाग लेम - 'दोहाई मंगल देव के, हमरा आउ हम्मर बाल-बच्चा के उहईं रह के मंगल करिहऽ !
एही सब सोचइते आउ छौ-पाँच करइते 'कोचामठ' पहुँच के ओकर रंगारंग प्रोग्राम में एकदम से रंग गेली ।
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-३, अंक-४, अप्रैल १९९७, पृ॰१३-१४ से साभार]
ई तो जानल बात हे कि हमरा हीं तेतीस करोड़ देवी-देवता के कल्पना करल गेल हे । एकरा में सूरज देव से लेके अग्नि, जल, पवन, अन्न आउ अइसने सब चीज हथ, जे मनुष्य के कोई तरह से रच्छा आउ भलाई में लगल रहऽ हथ । भय से रच्छा के कल्पना करिए के देवी-देवता के कल्पना करल गेल हे ।
शक्ति ला देवी जी, बुद्धि ला सरस्वती जी, गाँव-घर के निगरानी ला गोरइया डिहवार, डाक, फूल डाक, ईशरा डाक, लहरा डाक, त घर के परिवार के रच्छा ला टिपउर, मनुस्देवा, बाबा बकतउर आउ बराहदेव हथ ।
ई सब देवतन के अलग-अलग तरह के भोजन हे । माँ काली ला भईंसा, देवी जी ला पठिया, सरस्वती ला फल-फूल आउ मिष्टान्न, गोरइया आउ डाक ला खस्सी-भेंड़ा, सूअर, मुर्गा, कबूतर, टिपउर ला खस्सी-भेंड़ा आउ डाक गोरइया के तो खूनो पीए से जब तरास न जाय त अलगे से तपावन (दारू) देल जाहे, तब जाके उनकर पियास बुझऽ हे ।
खैर, ई सब के भोजन आउ खान-पान में तो कोई विशेषता न हे कि जेकरा चलावे के जरूरत पड़े । बाकि हँ, हमरा हीं एगो देवता हथ, जिनकर भोजन एगो विचित्र चीज हे । ई देवता हथ ढेलमरवा बाबा जी । से इनकर भूख मिटऽ हे दू चार ढेला खाय पर । इनकर स्थान हे सड़क के बगल में इया अहरा-पइन के पीठ पर जहाँ रहगीर के आवे जाय के आम रास्ता हे । त जे गेलन सेहि इनका एक ढेला देइए के आगे बढ़लन । अगर न देतन आउ इनका बिना ढेला मारले आगे बढ़ गेलन, तो फिन जयबऽ कहाँ ? ई आझ इया कल्ह एकर बदला लेइए के छोड़तन, काहे कि भूखले रह गेलन । ढेले इनकर भोजन आउ नाश्ता हे आउ एही न मिलल, त ई अब खा हथ कउची ? ढेले खा हथ आउ ऊ बिना ढेले देले चल गेलन त आझ न कल्ह उनका तो कुफल मिलवे करतइन ।
ढेलमरवा बाबा छेमा भी कइसे कर सकऽ हथ ? इनकर पावने शक्ति एतना न तेज हे कि मत कहऽ ! एही से तो ऊ आम रास्ता पर अप्पन आसन जमौले हथ कि हजार-पान सौ ढेला रोज मिल जात, त चलऽ अप्पन भूखल लहालोट मिजाज एकदम शांत हो जात । स्थिर होके रात में सुत गेलन आउ तीन बजे से मोसाफिर भाई के आवे के बाट जोहे लगलन । अब अइसन भूखल-छछनइत आउ पित-पिताल हालत में इनकर भूख के नजर-अंदाज करके जे गुजरे के जुर्रत करतन त उनका इया उनकर बाल-बच्चा के दूसरे दिन परेशान कर न देतन ?
हम्मर घर से पच्छिम एक किलोमीटर के दूरी पर एगो बड़का लहरा के पिण्ड पर ई बाबा के स्थान हे, जहाँ ढेला के एगो छोटा पहाड़े खड़ा हे ।
हमरा हीं से पच्छिमे दू किलोमीटर पर 'मेन' गाँव में बूढ़वा महादे हथ । उनका भिर हर साल फागुन तिरोस्ती के बिहानी होके एगो स्थानीय मेला लगऽ हे जेकर नाम हे कोचामहादे इया कोचामठ के मेला । खूब कुस्ती भी होवऽ हे आउ कीर्तन आउ होली भी होवऽ हे । सब सामान बिकऽ हे । औरत-मरद से तो मारे देह छीला हे । माने चूँटी ससरे के इया तिल रखे के भी जगह न रहे ।
एक बार के बात हे कि ओही मेला में जाइत घड़ी जब अहरा पर चढ़ली हे त नजदीक में पहुँचे पर देखली कि दूगो महिला ओजउने बाबा के एक-एक ढेला मारलन । फिन एक औरत अप्पन साल भर के लइका के हाथ में एगो ढेला धरा के गोदी में लेलहीं कहलक - 'बाबू रे ! इनका पर फेंक द ढेला ! ई ढेलमरवा बाबा जी हथिन ।'
ढेला बुतरू से उनका पर फेंकवा देलन । बाबा के भोजन हो गेल । औरत कह रहलन हे - 'इया ढेलमरवा बाबा जी ! एकरा अपने नियन अजड़-अमर कर देहूँ कि हम्मर बाबू के अंगुरी भी न पिराय ।'
एकर बाद तीन आदमी जे हमरा से आगे-आगे जा रहलन हल, ओकरा में से दू गो नवयुवक एक-एक ढेला बाबा के मारलन । एकर बाद जब न रहल गेल तब चालीस इया पैतालीस के जे हलन से एक ढेला बगल से उठा के बाबा के कचाक से मार देलन । उनका साथे वाला एगो लइका पूछ देलक - अपने भी ई सब के मानऽ ही ? हमनिए नियन अपने भी अईंटा ढेला चलावऽ ही ?'
उनकर जवाब हल - 'हँ जी, पढ़ लिख जाय से हम का अप्पन पूर्वज से भी बढ़ गेली कि उनकर चलावल प्रथा छोड़ देईं ? का जानी का समझ के हमनी के पूर्वज ई सब चला देलन हे । हम छोड़ीं काहे ?'
हमहूँ ओखनिए के पीछे-पीछे चलल जाइत हली । हमरा से न रहल गेल, से उनका से परिचय पूछ बइठली - 'अपने के कहाँ मकान हे बाबू साहेब ?'
जवाब देलन - 'मकान हे नालन्दा के खण्डहर के बगले एगो गाँव में ।'
'अपने कहूँ बाहर रहऽ ही ?'
'हँ, रहऽ हियो कलकत्ता । उहईं एगो महाविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में प्रोफेसर हियो । ई लइकन हमरे शिष्य आउ सम्बन्धी हथुन ।'
एतना सुनइते हम तो एकदम गुम हो गेली । बतावऽ, ई एगो प्रोफेसर हथ । कलकत्ता महानगर में रहऽ हथ आउ आधा उमर भी बीत गेलइन । न तो ई कलकत्ता के संस्कृति आउ सभ्यता से कुछ सीखलन, न नालन्दा के पुरनका इतिहास के इनका पर कोई असर भेल । न अप्पन उमर से कुछ सीखलन आउ न आझ के विज्ञान के युग से कोई सीख लेलन । संसार जब मंगल ग्रह पर जाय के तइयारी कर रहल हे, त ई नालन्दा के कोख में पैदा लेके देहात के ढेलमरवा बाबा जी पर ढेला फेंक के अप्पन अमरता के वरदान ला घिघियाइत चलइत हथन ।
अइसने एगो खगोल विद्या के प्रोफेसर हलन । वर्ग में लइकन के पढ़ावऽ हलन कि पृथ्वी आउ सूर्य के बीच में चन्द्रमा के पड़ जाय से सूर्यग्रहण लगऽ हे । आउ जब घरे आवऽ हलन त सूर्यग्रहण लगे पर जल्दी-जल्दी स्नान करके दरब आउ जौ छू के दान करऽ हलन जे में जल्दी से जल्दी सूर्य देव राहू से मुक्त हो जाथ ।
त ई तो हे विज्ञान के युग । ई केकरो प्रतीक्षा में ठहरल थोड़े रहत ? समय आउ ज्वार कोई के प्रतीक्षा कयलक हे ? ऊ तो भाटा बन के घसकिए जात, आगे सरकिए जात । छूट जायम से हमनी न ! लोग जयतन मंगल पर त हम हिअईं से गोड़ लाग लेम - 'दोहाई मंगल देव के, हमरा आउ हम्मर बाल-बच्चा के उहईं रह के मंगल करिहऽ !
एही सब सोचइते आउ छौ-पाँच करइते 'कोचामठ' पहुँच के ओकर रंगारंग प्रोग्राम में एकदम से रंग गेली ।
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-३, अंक-४, अप्रैल १९९७, पृ॰१३-१४ से साभार]
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