[पहिला बृहत् मगही सम्मेलन 6 जनवरी 1957 में एकंगरसराय में होले हल जेकर आयोजन
डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री जी कइलथिन हल । ई सम्मेलन के उद्घाटन कइलथिन हल आचार्य
बदरीनाथ वर्मा,
शिक्षा मंत्री, बिहार; सभापति हलथिन भिक्षु जगदीश काश्यप जी आउ
स्वागताध्यक्ष हलथिन श्री निशिचन्द्र चौधरी । ई सम्मेलन के रिपोर्ट श्रीकान्त
शास्त्री आउ ठाकुर रामबालक सिंह द्वारा सम्पादित मासिक पत्रिका 'मगही' के फरवरी 1957, अंक 4 में प्रकाशित कइल गेले हल । डॉ॰ हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी जी के कृपा
से ई पत्रिका के प्रति हमरा देखे ल मिलल । - नारायण
प्रसाद]
इ सम्मेलन में पधारल भाइ आउर बहिन !
इ सम्मेलन के सभापति बना के हमरा पर जे
भार देलऽ हे एकरा हम अप्पन सौभाग्य मानऽ ही । मगही हम्मर अप्पन मातृभासा हे । जे
अदमी अप्पन भासा बोले में लजा हे इया ओकरा भूल जाहे ऊ तो अप्पन माय के दूध भूल जा
सकऽ हे । बंगाली सभ में अप्पन भासा ला बड़ी ममता हे । एकरा पीछे एगो इतिहास हे । जब
अंगरेज लोग इहाँ अइलन तब लोग इहाँ से इंगलैंड गेलन । मैक्स मूलर नाम करके एगो
अंगरेज हलन । उ भारत से लौट के जब इंगलैंड गेलन तो बंगला के कवि माइकल मधुसूदन से
बंगला में कुच्छ लिखे ला कहलथिन । माइकल जी असमर्थता परघट कयलथिन, बाकि उत्साह देलावे से 'मेघनाद वध' बंगला में लिखलथिन जे बंगला साहित्य के
एगो बड़का गो रतन हे ।
इ केहानी हम इ लागी कहली कि लोग के अप्पन
बोली बोले में दिल घबड़ाय लगऽ हे । बाकि माइकल के उदाहरण से उत्साह होवऽ हे । कोइ देस
इया जात के तबहिंए बुरा दिन आवऽ हे जब उ अप्पन भासा के भुतला जाहे । हम्मर ओही दसा
हे । अबहिंए स्वागताध्यक्ष महोदय कहलथिन कि हिन्दुस्तान के आधा इतिहास तो मगध के
हे । इ बात ठीक हे । बाकि उहँइ के लोग अप्पन भासा भूल गेलन हे । हमन्ही अप्पन बोली बोले में लजा ही । एगो कलकतिआ
अदमी से पूछली कि कहाँ से आवऽ हऽ । उ जवाब देलक - हम फलाना लम्बर के गोमटी में काम
करता रहा । जब हम इ कहली कि हमरा नीअर देहाती अदमी से का सहरु बोली बोलऽ हऽ तब उ
लजायल ।
उ दिन बीत गेल । अब फिन अप्पन विकास के
खातिर इ जरूरी हे कि अप्पन भासा के विकास कयल जाय । अइसे तो लोग 'हइए था साहेब' बोलवे करऽ हथ । खिचड़िया हिन्दी बोले के कारन इ हे कि हमन्हीं मगहिआ मगही
बोले में लजा ही । उ सुभाव से निकस न पावऽ हे । जब हिन्दी बोले लगऽ ही तो उ
हिन्दिए के राहे निकल जाहे जेकरा से खिचड़िआ हिन्दी बोला जाहे ।
बाकि एकर मतलब इ न हे कि हम राष्ट्रभासा
हिन्दी के अनादर करी । बहुत पहिले वैदिक युग हल । ऋग्वेद के भासा सबसे पुराना मानल
जाहे । एकर भाषा संस्कृत न हे । वेद में सभ भासा के संगरह हे । एकरा से एक्कर
व्याकरण कठिन भे गेल । जाय लागी,
जाय खातिर - इ
निमित्तार्थक क्रिया हे उ वेद में पावल जाहे । 'गन्तुम्' के 13 रूप
वेद में मिलऽ हे । उ समय अप्पन-अप्पन राज्य के भासा परचलित हल ।
हमन्हीं राष्ट्रीय एकता लागी हिन्दी के
उन्नति करी बाकि मगही अप्पन बोली के न भूली । जेतना प्रस्ताव भेल हे सब के काम के
रूप में देखावे के चाही । हम तो चाहऽ ही कि मगही में रह के काम करी । चीन गेली तो
हमरा लोग बड़ी आदर से देखऽ हलन । एकर कारन इ हल कि हम मगह के हली । दुनियाँ में
आज्झो मगह के बड़ा नाम हे । ओकरा लागी लोग के दिल में बड़का गो जगहा हे । मगहे में
एगो राजा हलन जे अप्पन एकलौता बेटा के अप्पन भासा के परचार ला देस-विदेस में भेजलन
।
हमन्हीं सभ के चाही कि अप्पन भासा के
उद्धार करे ला कमर कस के तइयार हो जाइ । मगही के बिना हमनी के उद्धार न हो सके ।
[मासिक पत्रिका 'मगही', फरवरी 1957, अंक 4, पृ॰11-12 से साभार]
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