मपध॰
= मासिक "मगही पत्रिका"; सम्पादक - श्री धनंजय श्रोत्रिय, नई दिल्ली/ पटना
पहिला
बारह अंक के प्रकाशन-विवरण ई प्रकार हइ -
---------------------------------------------
वर्ष अंक महीना कुल
पृष्ठ
---------------------------------------------
2001 1 जनवरी 44
2001 2 फरवरी 44
2002 3 मार्च 44
2002 4 अप्रैल 44
2002 5-6 मई-जून 52
2002 7 जुलाई 44
2002 8-9 अगस्त-सितम्बर 52
2002 10-11 अक्टूबर-नवंबर 52
2002 12 दिसंबर 44
---------------------------------------------
मार्च-अप्रैल
2011 (नवांक-1) से
द्वैमासिक के रूप में अभी तक 'मगही पत्रिका' के नियमित प्रकाशन हो रहले ह ।
ठेठ
मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर
पृष्ठ संख्या, चउठा कॉलम संख्या (एक्के कॉलम रहलो पर
सन्दर्भ भ्रामक नञ् रहे एकरा लगी कॉलम सं॰ 1 देल गेले ह), आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति
संख्या दर्शावऽ हइ ।
कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (अंक 1-6 तक संकलित शब्द के
अतिरिक्त) - 247
ठेठ मगही शब्द:
1 अउरत-बानी (दे॰ औरत-बानी) (रवींद्र कुमार के 'मन के पंछी' कहानी तो एते चलल कि घरे-घर अउरत-बानी ओकरा रट गेलथिन ।) (मपध॰02:7:8:1.16)
2 अकबार (भर ~) (पहिले सुनऽ हलूँ आउ अब सछात् देखलूँ कि मगही माय के खोंयछा में अनेक अनमोल रतन के खान पड़ल हे । हम कउनो जौहरी तो ही नञ्, जे सब रतन के परेख सकूँ । मोटबुधिया के जे पाँच गो रतन असानी से परेख में आल, हँथिया लेलूँ । तीन गो के माथा पर उठा लेलूँ आउ दू गो के हपोट में भर अकबार धर के चल पड़लूँ हे । अब तो जौहरिए बतैतन कि किनखा हम माथा पर लाद लैलूँ आउ किनखा अकबार भर के ।) (मपध॰02:7:4:1.16, 17)
3 अजदाह (धेयान रहे, उनकर ई राय हमर भाय-बंधु से रिश्ता-नाता जोड़ेवाला सोभाव के बारे में हे । बाकि धूरी से रस्सी बाँटे के हमर सोभाव कउनो अझका नञ् हे । आउ ईहे सोभाव हमरा सैंकड़न अजदाह आउ आत्मीयजन से मिलैलक हे । लोग के चाहे जे राय रहे ।) (मपध॰02:7:4:1.5)
4 अदमी (= आदमी) (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।; रामबालक जी परिचय देलन - ई श्रीकांत शास्त्री हथ । मगही ला समर्पित अदमी । हिंदी आउ संस्कृत के प्रकांड विद्वान हथ । मगही के अलख जगावे ला निकललन हे ।) (मपध॰02:7:7:1.12, 14:2.6)
5 अधपाकल (= आधा पका हुआ) (बुन्नी बून-बून टपके लगऽ हे तो दिल के घावो टभके लगऽ हे । फिनो दादुर जोर-जोर गरज-दरज के दिल के दरद के बात पूछ-पूछ के बेभाव मारे लगे आउ झींगुर लहरा-लहरा के पीरा के लहर के कहर बना दे तो दिल के घाव अधपाकल बरतोर नियन धीरे-धीरे सिहरन आउ सिसुकी बढ़इवे करत ।) (मपध॰02:7:23:2.5)
6 अनमन (जइसन हम्मर बचपन में हल ओइसने अनमन खाड़ा हे । परसाल के सुखाड़ के भी इ दुनूँ बेकति पर कोई असर न भेल ।) (मपध॰02:7:35:2.1)
7 अनसायल-मनसायल (भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । किसान होवे या ऋषि सब्भे एहिजा प्रकृति के बीच रसल-बसल चाहऽ हे । ऊ लोग के चिहुँकल-चिकुरल, ठिठुरल-बिठुरल, अनसायल-मनसायल सब्भे में प्रकृति के एगो लमहर आउ मनहर भूमिका होवऽ हे ।) (मपध॰02:7:23:1.5)
8 अनेगा (= अनेक) (जब हम अप्पन आँख होस में खोलली तो अप्पन अँगना में खटोला पर पड़ल-पड़ल सोचइत रहऽ हली कि ई बर के पेड़ के के रोपलक, के पटयलक, के सिरजलक, आउर-आउर अनेगा बात पानी के हलफा नीयर आवइत जाइत रहल हे ।; इ पेड़ के देख के अनेगा विचार हम्मर दिल में उठइत, गिरइत, मरइत आउर सिरजइत रहल हे ।) (मपध॰02:7:35:1.21, 2.21)
9 अरराना (लोग के बिसवास हे कि एकर एक डाँड़ काटे पर सौंसे इनारा अररा के गिर पड़ सकऽ हे । दुन्नूँ में बड़ी परेम हे । कुइयाँ, पेड़ के दुक्ख न सह सके आउर पेड़, कुइयाँ के दुक्ख के सहे ला न तइयार हे ।) (मपध॰02:7:35:2.8)
10 अलसाना (= आलसी बनना या होना) (उनकर वाणी में अइसन प्रेरणा बसऽ हल कि अलसाय आउर कदराय में केकरो बनवे न करऽ हल ।) (मपध॰02:7:13:1.18)
11 आठ-बीस (चेहरा पर ~ बजाना) ( ('डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री अंक' जेकर जरूरत हम महसूस कर रहलि हल, निकाले के सूचना जब 'मगही पत्रिका' में छापली त दु-चार गो झमठगर मगही के विदमान पूछ बैठलन हमरा से - "श्रीकांत शास्त्री आपके रिश्तेदार थे क्या ?" बस, प्रभाकर श्रोत्रिय के इयाद करके उनकर चेहरा पर 'आठ-बीस' बजा देली ।) (मपध॰02:7:5:1.24)
12 आभी-गाभी (~ मारना = हँसी-मजाक या व्यंग्य करना) (खाना भेल बाबा के बंद तीन-चार साँझ / पुतुहुन सभ मारऽ हलथिन ... जोर जोर से / चढ़े देलन सिरमौरी न हाय रे । / सभ उल्लू दुत्थू करे लगलन उनखा / आयल हल जेहू भुलायल भटकायल बरतुहार सभ / आभी गाभी मारऽ हलथिन टोला परोस के ।) (मपध॰02:7:33:2.30)
13 आवा-जाही (मित्र रवींद्र कुमार आउ महेश्वर तिवारी के साथ मिल के हम नालंदा कॉलेज आउ नालंदा पालि प्रतिष्ठान, नालंदा के बहुत्ते आचार्य आउ छात्र सब के ग्राहक बना लेली । हमरा हीं शास्त्री जी के आवा-जाही बढ़े लगल ।) (मपध॰02:7:16:3.11)
14 इँकसना (= निकसना; निकलना) (हम जाके उनका हरिश्चन्दर जी के संवाद सुनइली त ऊ तुरंते जल्दी-जल्दी कुल्ला-गरारा करके बाहर अयलन । हमहूँ बाहर इँकसली । डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री से प्रणाम-पाती होल । उनका से दूरा पर बिछल चौंकी पर बैठे ला रवींद्र जी अनुरोध कैलका ।; दिल से इँकसल शबद कैसन मिठगर आउ अपनापन लेल होवऽ हे, ई कवि आउ कहानीकार जरूरे महसूस करे हे ।; अप्पन रचना कविता-कहानी सम्मेलन में अइहऽ त लेले अइहऽ । 'मगही' पत्रिका भी इँकस रहल हे, एकरा ला भी रचना भेजिहऽ ।) (मपध॰02:7:20:2.11, 29, 3.4)
15 इचना (समूचे कविता के निचोड़ 'वर बिक्री' में मुद्रा-दोहन के दर्शन प्रकट करे ला हे - बाबा का करथ ? / बाबा तो चाहलन हल / फसाऊँ रेहु अउ भंकुरा बड़ा / बकि इचना भी न फँस सकल / हाय हाय !) (मपध॰02:7:26:1.12, 33:2.34)
16 उकसना (जब गगन-कदंब के डउँची पर लगल पवन-हिंडोला पर बदरी कजरी गावे लगऽ हे तो सावन के पावस सोहावन रात उकसऽ हे । भादो के भदइ रात उकसऽ हे ।) (मपध॰02:7:24:1.4, 5)
17 उगेन (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.24)
18 उछाह (= उत्साह) (दरजन भर लेखक के हमरा दाहड़ के पानी नियन रोके पड़ल, काहे कि दूर-दूर तक उनका शास्त्री जी से कोय लेना-देना नञ् हल । उनकर उछाह फेर करगियाम । ई भरोसा दे रहली हे ।) (मपध॰02:7:6:1.22)
19 उठान-गिरान (केतना उठा-पटक, उलट-पुलट आउ उठान-गिरान देखलक हे ई ? हमरे लंगटे बुलइते से लेके आज्झ डाकदर साहेब के पदवी ला देख चुकल हे इ । आउर ओहु दिन इ टुक-टुक देखइत रहत जउन दिन हम्मर अंतिम सवारी 'राम-राम सत्त हे' कहइत उठ खाड़ा होत ।) (मपध॰02:7:36:3.6)
20 उठा-पटक (रवींद्र जी आउ हरिश्चन्दर जी में उठा-पटक छोड़ के सब हो जा हल । तेज-तर्रार रवींद्र जी के आगू हरिश्चन्दर जी तर्क करे में मात खा जा हला ।) (मपध॰02:7:20:1.15)
21 उड़कना (नानी हीं एगो डंटा देखलक । पूछे पर पता चलल कि जेकर पास इ डंटा रहत उ जेतना आदमी आउ जानवर के खदेड़ के लावे ला चाहत, ले आवत । बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल ।) (मपध॰02:7:37:3.1)
22 उपछना (एगो पत्रकार मित्र पूछ बइठल - "धनंजय, प्रभाकर श्रोत्रिय तुम्हारे रिश्तेदार हैं ?" हम बेलाग नहकार गेली । हलाँकि ऊ माहौल में चाहती हल त थोड़े जस हमहूँ अपना दने उपछ सकती हल, अपना के प्रभाकर जी के रिश्तेदार बता के ।) (मपध॰02:7:5:1.8)
23 उपास (= उपवास) (का हरज होल ? न खइली । सोचली कि उपास रह गेला से अच्छे होत । पेट शुद्ध हो जात ।) (मपध॰02:7:13:2.37)
24 उमताना (वहाँ शास्त्री जी संस्थान के जरूरत पर जे भाषण कैलन ओकरा से साफ झलकऽ हल कि ऊ मगही के सम्हारे ला केतना उमतायल हलन, केतना बेदम हलन आउर मगही में शोध कार्य करे के समय आ गेल हे एकरा केतना साफ-साफ देखऽ हलन ।) (मपध॰02:7:12:3.15)
25 उमसना (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.25)
26 उल्लू-दुत्थू (= उल्लू-धुत्तू ) (खाना भेल बाबा के बंद तीन-चार साँझ / पुतुहुन सभ मारऽ हलथिन ... जोर जोर से / चढ़े देलन सिरमौरी न हाय रे । / सभ उल्लू दुत्थू करे लगलन उनखा / आयल हल जेहू भुलायल भटकायल बरतुहार सभ / आभी गाभी मारहन हलथिन टोला परोस के ।) (मपध॰02:7:33:2.28)
27 एतना (= इतना) (एतना क्लिष्ट कल्पना होवे पर भी इनकर भाव के दरसावे में कहीं बनावटीपन, असुभावीपन इया बाहरी आडंबर आदि के लेस मातर भी चिन्हा न बुझाय ।) (मपध॰02:7:10:2.10)
28 एत्ते (= एतना; इतना; एज्जे; इसी जगह, यहीं) (ओकर बाद देखऽ ही एगो भरपेजी फोटो हमरो छपल हे । फोटो के निच्चे छप्पल हे मगही रथ के सारथी - श्री रवींद्र कुमार । अप्पन फोटो देख के मन पुलकित हो गेल । आँख से लोर चूए लगल । सोंचे लगली - हम का एत्ते कयली हे जे हमरा एतना प्रतिष्ठा देल गेल ।; हम ने तो निराला से मिल रहली हल आउ न बर्नाड शॉ से । तइयो हमरा एगो मगही-सेवी मगही कवि से मिल के एत्ते आत्म-संतोख होल जेत्ते कउनो यथार्थ सरस्वती-पुत्र से मिलके कउनो साहित्यिक जीव के हो सकऽ हे ।) (मपध॰02:7:15:3.12, 39:1.33)
29 ओघड़ाना (हम्मर भुरुकवा दस बजे के बाद उगे हे ! आउर दिन के तरह ऊहो दिन भुरुकवा उगे के इंतजार में बिछाओन पर ओघड़ाल हली कि छोटकी बेटी हँकारलक, "कोय मिले ला अयलथुन हे ।" - "केऽ ... !" - "अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ ।") (मपध॰02:7:19:1.19)
30 ओझा-सोखा-डाइन (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.9)
31 ओनहनी (... एगो बिरहिन के बिंब उकेरल गेल हे । घर के पीपर-बर आउ ओकरा पर भगजोगिनी द्वारा सजावल देवाली के हुलास, फिनो ओहिजे गुरबिनी बगुलिया के कुँहकन में संयोग-वियोग के कबड्डी आउ ओनहनी के बीच टंगल ढुलुआ के पेम्हा बनल विरह व्यथा !) (मपध॰02:7:24:2.13)
32 ओनहनीं (= ओकन्हीं) (मगह में बहुत्ते संत, महात्मा, कवि, कलाकार होलन हे । ओनहनीं के मगही गीत सउँसे मगही छेत्र में गावल जाहे ।) (मपध॰02:7:38:3.30)
33 ओलरना (विरहिन के लोरे-झोरे अवस्था पर व्यंग्य कसइत मधुर विनोद भरल मुसुकान के साथ बलमुआँ पूछऽ हे - रे धनियाँ ! केकर सेज पर आझ तू ओलरले कि मोतिया झर गेलउ आउ बेनियाँ बिखर गेलउ ?; भाव के बिंबन लेल बारलक, अलसल, घुरमल, मेहल, नेहल, पइसिके, बुज्झौलक, परसइ, ओलरलऽ, बेनियाँ आदि शब्द-प्रयोग के अर्थगर्भता बड़ा विलक्षण हे एजो । बुज्झौलक के जगह बुझौलक, ओलरलऽ के जगह सुतलऽ कर देउँ तो अर्थ-बिंब एकदमें ढह जायत ।) (मपध॰02:7:24:1.16, 2.21)
34 ओहिजे (= वहीं) (... एगो बिरहिन के बिंब उकेरल गेल हे । घर के पीपर-बर आउ ओकरा पर भगजोगिनी द्वारा सजावल देवाली के हुलास, फिनो ओहिजे गुरबिनी बगुलिया के कुँहकन में संयोग-वियोग के कबड्डी आउ ओनहनी के बीच टंगल ढुलुआ के पेम्हा बनल विरह व्यथा !) (मपध॰02:7:24:2.12)
35 ओहीं (= वहीं) (हम सरधा से नत होके ओहीं पर बिच्छल कुरसी पर बइठ गेली ।) (मपध॰02:7:38:2.11)
36 कच-कुच (राह लड़िका के आँख नीयर बंद हो चुकल हल । आस-पास के गाँव दूर-दूर पर हल । इ गुने गाँव के कच-कुच भी नहिंए सुनाई पड़ऽ हल ।) (मपध॰02:7:34:1.21)
37 कदराना (= कायर होना, डरना) (उनकर वाणी में अइसन प्रेरणा बसऽ हल कि अलसाय आउर कदराय में केकरो बनवे न करऽ हल ।) (मपध॰02:7:13:1.19)
38 कधियो (= कभी-कभी) (आद पड़ऽ हे शास्त्री जी के सादगी के । कधियो रामबालक सिंह आउ कधियो अपने हम्मर डेरा लोहानीपुर, पटना आवऽ हलन । तखनी हम पटना सायंश कॉलेज के विद्यार्थी हली ।) (मपध॰02:7:14:3.23, 24)
39 कन्ने (= कने; किधर) (हमरा इ बूझ बुझले न पार लग रहल हल । का हम कहूँ, इ बुझयवे न करऽ हल । लगऽ हल कि हम इ कन्ने घनचक्कर में आके फँस गेलूँ ।; "तूँ के हऽ ? कन्ने चललऽ हऽ ?" ई हल कृष्णदेव बाबू के सवाल ।) (मपध॰02:7:34:3.2, 38:2.13)
40 कबहियो (= कभियो; कभी भी) (चुटकी आउ व्यंग तो बाते-बात पर फुटइत रहऽ हलइ । 'मगही' के फगुआ अंक में छपल उनकर कविता हम कबहियो न भूल सकऽ ही ।; ई की बोल रहलऽ हे तूँ ! तोहरा निअर जोद्धा कबहिओ हार मानेवाला हो सकऽ हे की ?) (मपध॰02:7:9:1.22, 19:3.7)
41 कल्ला (= जबड़ा, दाढ़) (जब 'मगही' के प्रकाशन रुक गेल आउ 'शोध' जलमतहीं काल के कल्ला में चल गेल त शास्त्री जी लगभग फरास हो गेलन ।) (मपध॰02:7:6:1.15)
42 कहलाम (= कहनाम) (सिरनामा पढ़ के हँस मत दीहऽ । सिरनामा ठीक हे - बर, बुढ़वा बर । बुढ़वा बर से अपने लोग उ मैथिल उदंत बर के बात मत समझ लेव जे बूढ़ा कहे पर चमक उठऽ हलन । उनकर कहलाम हल कि हमरा बिआह करना हे न कि चना चिबाना । इ गुने हम्मर दाँत देखना नजायज हे ।) (मपध॰02:7:35:1.6)
43 कान-कुतुर (~ करना) (ए वर्मा जी, एक बात हमरा से सीखऽ ! मगही भाई लोगन अउपचारिक सुआगत-सम्मान में कभिओ कान-कुतुर नञ् करतन, मुदा जब काम के बात करवऽ तऽ ढेंका कस के चुप्पी साध लेथुन ।) (मपध॰02:7:19:3.17)
44 किअउरी (= किअउटी; छोटा कीआ; सूखा सिंदूर रखने की छोटी डिबिया; लकड़ी की ढक्कनदार डिबिया) (सोचलक कि जो रकसिनियाँ जान गेल तो बड़ा तंग करत । इ गुने फिन रकसिनियाँ के मैया हीं पहुँचल । दूगो किअउरी देख के पुछलक कि इ का हउ नानी । रकसिनियाँ कहलक - बेटा, एगो में हमर परान आउ दोसरा में तोहर माय के परान हउ । खोललँ तो दुन्नु मर जायम । रख दे जल्दी सबर ! एक दिन बिजैपाल रकसिनियाँ से चुप्पे-चुप्पे किअउरी लेके चंपत भे गेल । जइसहीं किअउरी खोललक कि दुन्नु माय-बेटी बम बोल गेलन ।) (मपध॰02:7:37:3.14, 21, 22)
45 कुँहकना-चिहुँकना (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.27)
46 कुनमुनाना ("कोय मिले ला अयलथुन हे ।" - "केऽ ... !" - "अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ ।" कुनमुनाइत ठुनकैत नीन से विदाई लेके बाहर निकललूँ ! बैठकी में मिलला मगही के मीसन । जी मीसन, डॉ॰ श्रीकांत !) (मपध॰02:7:19:1.22)
47 केत्ते (= कत्ते) ('मगही' के पहिला अंक 1955 के नवंबर में प्रकाशित होल । हम्मर कहानी हल - 'असमानी रंग' । तब से केत्ते ने हम्मर कहानी 'मगही' में प्रकाशित होल । 'पित्तर के फुचकारी', 'टुरवा', 'मन के पंछी', 'सब्भे स्वाहा' ... अउ केत्ते ने ।) (मपध॰02:7:14:3.18, 20)
48 केहानी (= कहानी) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ ।) (मपध॰02:7:34:2.4)
49 कैक (= कइएक) (कैक महीना बाद 'मगध शोध संस्थान' के गठन ला नालंदा में भिक्षु जगदीश काश्यप के सभापतित्व में एगो बड़गो बैठक बुलावल गेल ।) (मपध॰02:7:12:3.1)
50 कोइरी (एगो हल राजा । ऊ एगो पेठिआ लगबावऽ हल । ओकर इ हुकुम हल कि जेकर जौन चीज साँझ तक न बिके ओकरा सरकारी खजाना से खरीद लेल जाय । एगो कोइरी के एगो रकसीनी हाँथ लगल । ओकरा बेचे ला ऊ राजा के पेठिआ में आवल ।) (मपध॰02:7:37:1.5)
51 कोप-काप (~ जंगल) (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक । छोटकी रनियाँ के गोड़ भारी हलइ । का बेचारिन ! उ कोप काप जंगल में पीपर-पाँकड़ तर बइठल रहे, पोकहा चुन-चुन खाय, गबदा-गुबदी के पानी पिये ।) (मपध॰02:7:37:1.17)
52 कौंपी (= कॉपी, प्रति) (पहिलाअंक दू हजार छापलूँ । ओकर अइसन धूम मचल कि हो रे बस ! पटना, कलकत्ता, दिल्ली के करीब सबे अखबारन में ऊ अंक के बड़ाई छपल । फिन तो मगही के जे प्रचार भेल कि लोग मगही कार्यालय में आ-आ के 'मगही' खरीदे लगलन । बड़ी मोसकिल से दस-पाँच कौंपी बचा के रखऽ हलूँ । अब तो एक्को अंक हमरा पास न बचल हे ।) (मपध॰02:7:7:2.27)
53 खाड़ा (= खड़ा) (करेजा धक् सिन कयलक । सामने देखऽ ही तो एगो जन्नी उज्जर बग-बग साड़ी पहिरले राह रोक के खाड़ा हे ।) (मपध॰02:7:34:2.7)
54 खालिस (= शुद्ध) (ऊ गीत खालिस मगही भासा में हल । छंद 'दंडक' हल । गीत में मगही, हिंदी के अप्पन सहोदर बता के, दुन्नू के हिल-मिल के रहे के उपदेस देलक हल । गीत लमहर होवहूँ पर हल बड़ लहरेदार । हम सौंसे गीत पढ़ गेली ।; गीत में भाव अपूर्व हल । मगर भासा खालिस मगही हल ।; ऊ कहलन, हमरा हीं बियाह-सादी में जे गीत गावल जा हे, सब सहरी भाषा में न रह के खालिस मगहिए में रहऽ हे ।) (मपध॰02:7:38:3.4, 16, 39:1.27)
55 खेत-पथार (बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल । गर-गोरखिया, अदमी, जन-मजूर सभ के डंटा से खदेड़ लौलक । अब तो मर-मकान बन गेल, खेत-पथार जोताय-कोड़ाय लगल । घर-गिरहस्थी के सभ समान भे गेल ।) (मपध॰02:7:37:3.5)
56 खेलड़नी (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.8)
57 खोंयछा (= खोइँछा) (पहिले सुनऽ हलूँ आउ अब सछात् देखलूँ कि मगही माय के खोंयछा में अनेक अनमोल रतन के खान पड़ल हे ।) (मपध॰02:7:4:1.13)
58 खोरठगर (हमरा जानकारी में खोरठगर से खोरठगर जेतना धातु के कुंदन बनावे के काम डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री कयलन, ओतना आज तक कोय मइया के लाल नञ् कर सकल हे, नञ् करत ।) (मपध॰02:7:6:1.32)
59 खोसी (= खुशी) (मगही में बातचीत करऽ हऽ । सुनऽ ही ही हस्तलिखित पत्रिका निकालऽ हऽ । ओकरा में हिंदी आउ मगहियो के रचना रहऽ हे । ई बड़ी खोसी के बात हे ।) (मपध॰02:7:14:2.14)
60 गबदा-गुबदी (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक । छोटकी रनियाँ के गोड़ भारी हलइ । का बेचारिन ! उ कोप काप जंगल में पीपर-पाँकड़ तर बइठल रहे, पोकहा चुन-चुन खाय, गबदा-गुबदी के पानी पिये ।) (मपध॰02:7:37:1.19)
61 गर-गोरखिया (बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल । गर-गोरखिया, अदमी, जन-मजूर सभ के डंटा से खदेड़ लौलक । अब तो मर-मकान बन गेल, खेत-पथार जोताय-कोड़ाय लगल । घर-गिरहस्थी के सभ समान भे गेल ।) (मपध॰02:7:37:3.3)
62 गामे-गाम ('मगही पत्रिका' शुरू कयलूँ, तभियो नाया रिश्ता बनावे के लत आउ सफलता के मनकामना लेके सहरे-सहर, गामे-गाम घूमे लगलूँ । पटना जिला के नौबतपुर आउ विक्रम प्रखंड आउ औरंगाबाद जिला {सउँसे} के अपवाद मान लेल जाय, एकर अलामे पूरा मग्गह ढूँढ़ मारलूँ ।) (मपध॰02:7:4:1.7)
63 गिरही (= गृह; गाँठ, दे॰ गिरह) (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.20)
64 गुने (= कारण; ई ~ = इस कारण) (कुछ आउ मगही के अनमोल रतन हथ, जिनका पर हम कत्ते दिन से घात लगैले हूँ । बाकि, रावण वला हाल नञ् हो जाय दूर लयते-लयते, ई गुने थोड़े थाह-थाह के डेग फान रहलूँ हे ।; राह लड़िका के आँख नीयर बंद हो चुकल हल । आस-पास के गाँव दूर-दूर पर हल । इ गुने गाँव के कच-कुच भी नहिंए सुनाई पड़ऽ हल ।) (मपध॰02:7:4:1.26, 34:1.21)
65 गुरबिनी (= गुर्विणी, गाभिन, गर्भवती) (इ पेड़ आदमीए के नऽ, चिरई-चुरगुनी सभ के भी आश्रय देले हे । एगो बगुला-बगुली के जोड़ा एकरा पर बड़ी दिन ला रहल । जाड़ा के रात में गुरबीनी बगुली जब 'हाय-दुख' करे लगऽ हल तब हम्मर करेजा फटे लगऽ हल आउर हम आकुल-व्याकुल होके अप्पन कोठरी से निकल के टहले लगऽ हली ।) (मपध॰02:7:36:1.30)
66 गो (= ठो; एगो = एक ठो) (श्रीकांत शास्त्री जी के संपादकीय बड़ सटीक होवऽ हल । 'एगो मस्त मगहिया' के नाम से अंगरेजी कविता के मगही कविता रूपांतर 'मगही' में छपइत रहऽ हल ।; मगहीभाषा के विकास ला ऊ हरसट्ठे सोंचइत रहऽ हलन । मगहियन सब के एकठामा जमा करे के एगो योजना बनयलन । सबसे सहयोग लेलन । एकंगरसराय में एगो बृहत् मगही सम्मेलन के आयोजन कइलन ।) (मपध॰02:7:15:1.27, 2.1, 2)
67 घनचक्कर (हमरा इ बूझ बुझले न पार लग रहल हल । का हम कहूँ, इ बुझयवे न करऽ हल । लगऽ हल कि हम इ कन्ने घनचक्कर में आके फँस गेलूँ ।) (मपध॰02:7:34:3.2)
68 घर-गिरहस्थी (बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल । गर-गोरखिया, अदमी, जन-मजूर सभ के डंटा से खदेड़ लौलक । अब तो मर-मकान बन गेल, खेत-पथार जोताय-कोड़ाय लगल । घर-गिरहस्थी के सभ समान भे गेल ।) (मपध॰02:7:37:3.6)
69 घुरमना (= घुमना) (हम्मर दिमाग में रात-दिन ई घुरमइत रहऽ हे कि का हम पापिन ही ? हम्मर पाप के केउ निगरह न हे ?) (मपध॰02:7:34:2.25)
70 चकचकाना (हालाँकि कृष्ण आउ राधा के प्रेमगाथा ला एकर हिरदा में सहज रुझान हे बाकि ब्रजलोक संस्कृति के साथे-साथ मगधलोक संस्कृति के खासियत के भी अपन चकचकावित भाषा में संजोगे के जतन कयलन हे ।) (मपध॰02:7:10:2.15)
71 चन्नन (= चन्दन) (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:7:1.9)
72 चमरखानी ("अप्पन रचना कविता-कहानी सम्मेलन में अइहऽ त लेले अइहऽ । 'मगही' पत्रिका भी इँकस रहल हे, एकरा ला भी रचना भेजिहऽ ।" कहके ऊ धोती-कुरता ओला सज्जन {डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री} चमरखानी चप्पल घसीटते चल गेला । बाकि हमन्हीं पर एक छाप देके ।) (मपध॰02:7:20:3.7)
73 चाननी (चाँद अप्पन मड़ई में साँझ से उदास बइठल हल । चाननी भी धुमइल साड़ी पहिनले गुमसुम कुछ सोंच-विचार रहल हल । चाँद रह रह के तमाखू पीके ओकर धुँआ धरती दने फेंक दे हल जेकरा से तरवन के पतवन सभ खड़खड़ा उठऽ हल ।) (मपध॰02:7:34:1.2)
74 चिन्हा (= चिह्न) (एतना क्लिष्ट कल्पना होवे पर भी इनकर भाव के दरसावे में कहीं बनावटीपन, असुभावीपन इया बाहरी आडंबर आदि के लेस मातर भी चिन्हा न बुझाय ।) (मपध॰02:7:10:2.12)
75 चिरई-चुरगुनी (इ पेड़ आदमीए के नऽ, चिरई-चुरगुनी सभ के भी आश्रय देले हे ।) (मपध॰02:7:36:1.27)
76 चिहुँकल-चिकुरल (भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । किसान होवे या ऋषि सब्भे एहिजा प्रकृति के बीच रसल-बसल चाहऽ हे । ऊ लोग के चिहुँकल-चिकुरल, ठिठुरल-बिठुरल, अनसायल-मनसायल सब्भे में प्रकृति के एगो लमहर आउ मनहर भूमिका होवऽ हे ।) (मपध॰02:7:23:1.5)
77 छहँकी ('बिहान' के चउथा अंक में छपल उनकर 'पहिला सपनमा' आउ 'मुक्ति दिवस' सिरनामी गीतन में भी हम इनकर अटूट राष्ट्र-प्रेम के छहँकी पावऽ ही ।) (मपध॰02:7:11:1.9)
78 छुट्टी-छपाटी (आझकल हम खाली ओकील रह गेली हे, ए गुने जो कउनो छुट्टी-छपाटी के दिन आवऽ तब हम सब चीज तोहरा देखइयो । बाद में जइसन तोहर मन अइतो ओइसने करिहऽ ।) (मपध॰02:7:39:1.10)
79 जँतपिसनी (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.8)
80 जन्ने-तन्ने (ऊ घड़ी हमहुँ अखबारी संपादक हली । जन्ने-तन्ने सक्रिय रहे से थोड़े तेजी से पहचान बन रहल हल ।) (मपध॰02:7:5:1.4)
81 जर-जलपान (उठलन सभ बरतुहार / काहे-काहे ठहरल जाए समय हे तो भोजन के / बन रहल हे जर जलपान आउ रसोई भी / सर सरबत तो घोरा भी चुकल हे ।) (मपध॰02:7:33:1.28)
82 जर-जेवार (बाबा हलन शेरे-बब्बर जर में जेवार में / दुनियाँ जहान में / ओहि बनलन सियार / अप्पन मान में ।) (मपध॰02:7:33:2.21)
83 जलमना (= जन्म लेना, पैदा होना) (फिन बोललन हल - जलमला होत तो बुतरू होल हे ! बुतरू होल हे ! - मगहिए के अमरित नियर वाणी तोर कान में पहिले गेलो होत । ... अपन बोली बोले में लजा हऽ काहे ?) (मपध॰02:7:14:2.19)
84 जात-पात (दुनियाँ के भगमान दू आँख देलन हे बाकि अमदी दू नीयर काहे देखऽ हे । जात-पात, धरम-करम के पचड़ा उपरी हे के भितरी, ई भगमान के बनावल हे कि अमदी के ?) (मपध॰02:7:34:2.29)
85 जानल-पहचानल (पंडित जी के तुरतम्मे टीसन जाय के हल । ऊ ओन्ने गेलन आउ हम कृष्णदेव बाबू दन्ने । एगो हमर जानल-पहचानल छात्र उनखर मकान के पता बता देलक ।) (मपध॰02:7:38:1.28)
86 जीवनदानी (उठ गेला तो लगे हे मगही के जीवनदानी चल गेला । मगही माता के गोदी आज सूना-सूना लगऽ हे ।) (मपध॰02:7:13:3.34)
87 जेत्ते (= जितना; जहाँ भी) (एत्ते ... जेत्ते) (हम ने तो निराला से मिल रहली हल आउ न बर्नाड शॉ से । तइयो हमरा एगो मगही-सेवी मगही कवि से मिल के एत्ते आत्म-संतोख होल जेत्ते कउनो यथार्थ सरस्वती-पुत्र से मिलके कउनो साहित्यिक जीव के हो सकऽ हे ।) (मपध॰02:7:39:1.33)
88 जेवार (सो घर चेलई, दू सो घर जजमनका हे / टोला परोस आउ जेवार में पूछ हे / हर घर जलम आउ जतरा बताना हे / सराध आउ बिआह मरनी जिनी कराना हे ।; इ गुने के लेवे जाय इ पाप । फल इ भेल कि जब कि जेवार के सभे तार-खजूर धूर-जानवर के खिला देल गेल उहाँ इ पेड़ के कोई एगो पत्तो न छूलक ।) (मपध॰02:7:33:1.8, 35:2.13)
89 जोतना-कोड़ना (बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल । गर-गोरखिया, अदमी, जन-मजूर सभ के डंटा से खदेड़ लौलक । अब तो मर-मकान बन गेल, खेत-पथार जोताय-कोड़ाय लगल । घर-गिरहस्थी के सभ समान भे गेल ।) (मपध॰02:7:37:3.6)
90 जोतिसी (= ज्योतिषी) (घाघ-भड्डरी तो प्रकृति के तेवर परख-परख के बड़हन जोतिसी नियन भविस्सबानी करलका हे, बलुक सगुन-विचार में जोतिसी लोगन के भी कान काट लेलका हे ।) (मपध॰02:7:23:1.11, 12)
91 झमठगर ('डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री अंक' जेकर जरूरत हम महसूस कर रहलि हल, निकाले के सूचना जब 'मगही पत्रिका' में छापली त दु-चार गो झमठगर मगही के विदमान पूछ बैठलन हमरा से - "श्रीकांत शास्त्री आपके रिश्तेदार थे क्या ?") (मपध॰02:7:5:1.23)
92 टटका (हम अपन टटका गीत उठा के हाँथ में धर देली - 'कहमा पिया केर गाँव हे ।' पढ़ के खुश हो गेलन । रात कवि सम्मेलन में हम पहले-पहल मगही गीत सुनउली, जे 'मगही' के अधिवेशन अंक में छपल, हलाँकि छापे ला ऊ गीत हम उनका नञ् देली हल ।) (मपध॰02:7:17:1.19)
93 टिटिहिआँ (= टिटहीं; टिटहरा, टिट्टिभ) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ ।) (मपध॰02:7:34:1.34)
94 टीकी (= टीक, चोटी, शिखा) (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:7:1.9)
95 टुक-टुक (~ देखना) (केतना उठा-पटक, उलट-पुलट आउ उठान-गिरान देखलक हे ई ? हमरे लंगटे बुलइते से लेके आज्झ डाकदर साहेब के पदवी ला देख चुकल हे इ । आउर ओहु दिन इ टुक-टुक देखइत रहत जउन दिन हम्मर अंतिम सवारी 'राम-राम सत्त हे' कहइत उठ खाड़ा होत ।) (मपध॰02:7:36:3.9)
96 टूटन (प्रो॰ वर्मा के संस्मरण में उनकर टूटन के झलक साफ मिलऽ हे ।) (मपध॰02:7:6:1.19)
97 टेढ़की (= टेंढ़की; एक प्रकार की पालकी जिसमें टेढ़ा बाँस लगाया जाता है) (लड़की के भाई हाथ में तरवार लेले, पीअर धोती पहिनले, काजर कयले आवऽ हे आउर बर के पत्ता काटऽ हे । बाद लड़की के लोग घर ले जा हथ । इ नेग में हमरा बियाह-जुद्ध के असर बुझा हे । जुग बीत गेल बाकि नाटक चालू हे । बियाह के बल्लम, बरछा, सिंगा, तुरहा, टेढ़की, झंडा, पताका बतावऽ हे, बराती लड़ाई के जमाइत हे, आउर आज्झो लोग पराचीन जुग के लड़ाई के बियाह के दिरिस उपस्थित कर दे हथ ।) (मपध॰02:7:35:2.23)
98 टोला-परोस (सो घर चेलई, दू सो घर जजमनका हे / टोला परोस आउ जेवार में पूछ हे / हर घर जलम आउ जतरा बताना हे / सराध आउ बिआह मरनी जिनी कराना हे ।) (मपध॰02:7:33:1.8)
99 ठड़ी (= खड़ी; खड़ा) (1956 के ऊ दिन हम ससुरारे में हली जब कि हरिश्चन्दर जी सुबजे-सुबह भाग के केबाड़ी थपथपा के पुकारलका - "रवींदर ! रवींदर !" खिड़की से झाँक के देखली त हरिश्चन्दर जी एगो हमन्हीं से बड़ उमिर के जुबक के साथ बहिरसी ठड़ी हथ ।) (मपध॰02:7:20:1.33)
100 ठामा (= जगह) (मगहीभाषा के विकास ला ऊ हरसट्ठे सोंचइत रहऽ हलन । मगहियन सब के एक ठामा जमा करे के एगो योजना बनयलन । सबसे सहयोग लेलन । एकंगरसराय में एगो बृहत् मगही सम्मेलन के आयोजन कइलन ।) (मपध॰02:7:15:1.37)
101 ठिठुरल-बिठुरल (भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । किसान होवे या ऋषि सब्भे एहिजा प्रकृति के बीच रसल-बसल चाहऽ हे । ऊ लोग के चिहुँकल-चिकुरल, ठिठुरल-बिठुरल, अनसायल-मनसायल सब्भे में प्रकृति के एगो लमहर आउ मनहर भूमिका होवऽ हे ।) (मपध॰02:7:23:1.5)
102 ठो (= ठो) (फिन नालंदा के कइ ठो भिक्षु सबसे मिलली हल । कुछ भिक्षु अप्पन लेख के अंगरेजी में डिक्टेशन देलन हल । रामबालक सिंह आशुलिपि में डिक्टेशन लेलन हल । फिन ऊ सब लेख के मगही रूपांतर कइल गेल हल । 'मगही' में ऊ सब लेख छापल गेल हल ।; 'मगही' के मगही सम्मेलन विशेषांक निकसल । पहिला पेज में भिक्षु जगदीश काश्यप के भरपेजी फोटो छपल हल । ओक्कर बाद कइ ठो पेज में मगही सम्मेलन उत्सव के फोटो हल ।) (मपध॰02:7:15:1.19, 3.5)
103 डउँची (= डउँघी) (जब गगन-कदंब के डउँची पर लगल पवन-हिंडोला पर बदरी कजरी गावे लगऽ हे तो सावन के पावस सोहावन रात उकसऽ हे । भादो के भदइ रात उकसऽ हे ।) (मपध॰02:7:24:1.2)
104 डाँड़ (लोग के बिसवास हे कि एकर एक डाँड़ काटे पर सौंसे इनारा अररा के गिर पड़ सकऽ हे । दुन्नूँ में बड़ी परेम हे । कुइयाँ, पेड़ के दुक्ख न सह सके आउर पेड़, कुइयाँ के दुक्ख के सहे ला न तइयार हे ।) (मपध॰02:7:35:2.7)
105 ढुर-ढुर (~ लोर) (इनका हम मगही के राष्ट्रीय कवि कह सकऽ ही । इनकर गीतन में हम देस के दुरदसा पर इनका ढुर-ढुर लोर बहावइत न देखी आउ न मधुर सुर में खाली अतीत के गाथे सुनावइत पावऽ ही ।) (मपध॰02:7:10:1.6)
106 ढेंका (ए वर्मा जी, एक बात हमरा से सीखऽ ! मगही भाई लोगन अउपचारिक सुआगत-सम्मान में कभिओ कान-कुतुर नञ् करतन, मुदा जब काम के बात करवऽ तऽ ढेंका कस के चुप्पी साध लेथुन ।) (मपध॰02:7:19:3.19)
107 तइयो (= तो भी, तथापि) (ऊ एगो कौपी बढ़ावइत कहलन, 'भिन्नरुचिर्हि लोकः' । एही गुने हम्मर गीत तोरा पसिन पड़तो कि न, हम न जानऽ ही । तइयो ले लऽ आउ देख लऽ, हिंदी आउ मगही लगी हम्मर की विचार हे ।) (मपध॰02:7:38:3.1)
108 तखनी (= उस क्षण; उस समय) (खुला अधिवेशन में आचार्य बदरीनाथ वर्मा के लमहर भाषण होल हल । तखनी ऊ बिहार सरकार के शिक्षा मंत्री हलन ।) (मपध॰02:7:15:2.21)
109 तनिक्के (= थोड़े ही, कुछ ही) (ऊ चुपचाप उठलन आउ तनिक्के देर में कइ ठो ड्राइंग कौपी ले अइलन । सायत उप्पर लिखल हल - मगही गीत ।) (मपध॰02:7:38:2.26)
110 तरी (= तरह) (जवाहरलाल त्रिपिटक के नागरी में छपावे के काम में लगा देलन हे । फुरसत न हे । संपादक छपल-छपल अंक देखे, ई ठीक न हे । डॉ॰ शास्त्री निम्मन तरी से संपादन कर सकऽ हथ ।) (मपध॰02:7:16:1.31)
111 तिकड़ी (1955 में जब 'मगही' छपे ल शुरू होल, ऊ समय शास्त्री जी के साथ ठाकुर रामबालक सिंह के अलामे नउजवान के एगो तिकड़ी हल । ऊ तिकड़ी के दू हस्ताक्षर से अपने के खूब परचे हे । ऊ हथ - मगही के सेसर कहानीकार श्री रवींद्र कुमार आउ मगही के सेसर गीतकार डॉ॰ हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी ।) (मपध॰02:7:6:1.10)
112 तिनफक्का (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:7:1.8)
113 थाहना (कुछ आउ मगही के अनमोल रतन हथ, जिनका पर हम कत्ते दिन से घात लगैले हूँ । बाकि, रावण वला हाल नञ् हो जाय दूर लयते-लयते, ई गुने थोड़े थाह-थाह के डेग फान रहलूँ हे ।) (मपध॰02:7:4:1.27)
114 थेथर (= जिस पर समझाने-बुझाने या ताड़ने का कोई असर न हो) (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.20)
115 दमाद (= दामाद) (खैर, लोग जिनका परिवार कहऽ हे, उनको पर चरचा जरूरी हे । सबसे पहिले खोजते-ढुँढ़ते श्री विष्णुकांत शर्मा जी के पास गेली, जे जहानाबाद में ऊटा में रहऽ हथ, आउ उनकर बड़का दमाद हथ ।) (मपध॰02:7:5:1.29)
116 दाहड़ (= दहाड़) (दरजन भर लेखक के हमरा दाहड़ के पानी नियन रोके पड़ल, काहे कि दूर-दूर तक उनका शास्त्री जी से कोय लेना-देना नञ् हल । उनकर उछाह फेर करगियाम । ई भरोसा दे रहली हे ।) (मपध॰02:7:6:1.21)
117 दिया (= से होकर, के रास्ते; के बारे में) (केतारी के खेत दिया रस्ता लग चुकल हल । खेत तुरते पटावल-कोड़ल गेल हल । उ हावा में अप्पन सोंधई रह-रह के बगेर रहल हल ।) (मपध॰02:7:34:1.24)
118 दिरिस (= दृश्य) (लड़की के भाई हाथ में तरवार लेले, पीअर धोती पहिनले, काजर कयले आवऽ हे आउर बर के पत्ता काटऽ हे । बाद लड़की के लोग घर ले जा हथ । इ नेग में हमरा बियाह-जुद्ध के असर बुझा हे । जुग बीत गेल बाकि नाटक चालू हे । बियाह के बल्लम, बरछा, सिंगा, तुरहा, टेढ़की, झंडा, पताका बतावऽ हे, बराती लड़ाई के जमाइत हे, आउर आज्झो लोग पराचीन जुग के लड़ाई के बियाह के दिरिस उपस्थित कर दे हथ ।) (मपध॰02:7:35:2.26)
119 दुब्बर-पातर (= दुबला-पतला) (अप्पन दुब्बर-पातर देह से जउन दू गो मोट-घोट के अकबार सकलूँ, ऊ हथ - मगही के जानल-मानल गायक आउ उन्नायक श्री दीनबंधु आउ मगही के धुनी साहित्तकार डॉ॰ भरत सिंह ।; ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:4:1.23, 7:1.11)
120 दूरा (हम जाके उनका हरिश्चन्दर जी के संवाद सुनइली त ऊ तुरंते जल्दी-जल्दी कुल्ला-गरारा करके बाहर अयलन । हमहूँ बाहर इँकसली । डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री से प्रणाम-पाती होल । उनका से दूरा पर बिछल चौंकी पर बैठे ला रवींद्र जी अनुरोध कैलका ।) (मपध॰02:7:20:2.13)
121 दोगना (= दुगुना) (पंडित जी के संपादन में मगही के दिन दोगना आउ रात चौगना रूप निखरइत रहल ।) (मपध॰02:7:7:2.30)
122 दोसर (= दूसरा) (मगही लेखन-आंदोलन से हमरा जोड़े के कोरसिस शास्त्री जी लगातार करइत रहलन । एकंगरसराय उत्सव के हमर बड़गर उपलब्धि हल महोदय राम नरेश पाठक से परिचय । उनकर आग्रह भी हमरा मगही दने खींचे लगल । ऊ दुनों के सलाह होल कि बिहारशरीफ में दोसर मगही महासम्मेलन हमरा बोलाना चाही । मगध संघ के चौदहवाँ अधिवेशन पर 5 अप्रैल 1964 के दिन दोसर मगही महासम्मेलन संपन्न होल ।) (मपध॰02:7:17:1.36)
123 दोसरका (= दूसरा) (दोसरका रचना 'तोरा हम नञ् भुलइबो हे' के डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री के पास भेज देली जे 'मगही', वर्ष-1, अंक-11 के सितंबर 1956 में छपल ।) (मपध॰02:7:20:3.21)
124 धनरोपनी (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.8)
125 धरखा (= ताखा) (उ ओकरा से नानी नाती के नाता जोड़लक । कुछ दिन रहे के बाद रकसिनियाँ से बिजैपाल पुछलक कि अँय नानी, धरखाबा पर छो गो आँख केकर रक्खल हइ ? नानी कहलक कि इ छोवो आँख राजा के रानी के हउ । तोहर महतारी हिआँ पेठा देलकउ हे ।) (मपध॰02:7:37:2.8)
126 धुँधुआना (नञ् श्रीकांत जी, मीसन हवा में घुल-मिल गेलो । ई चिनगारी कभी न कभी धुँधुऐतो । आउर, उ दिन दूर नञ् हो । तोहर समरपन व्यर्थ नञ् हे, ई विसवास हे ।) (मपध॰02:7:40:2.3)
127 धुधुआना-धधाना (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.28)
128 धूर-जानवर (इ गुने के लेवे जाय इ पाप । फल इ भेल कि जब कि जेवार के सभे तार-खजूर धूर-जानवर के खिला देल गेल उहाँ इ पेड़ के कोई एगो पत्तो न छूलक ।) (मपध॰02:7:35:2.13)
129 धोबिनियाँ (= धोबिन) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ ।) (मपध॰02:7:34:1.35)
130 नजायज (= नाजायज) (सिरनामा पढ़ के हँस मत दीहऽ । सिरनामा ठीक हे - बर, बुढ़वा बर । बुढ़वा बर से अपने लोग उ मैथिल उदंत बर के बात मत समझ लेव जे बूढ़ा कहे पर चमक उठऽ हलन । उनकर कहलाम हल कि हमरा बिआह करना हे न कि चना चिबाना । इ गुने हम्मर दाँत देखना नजायज हे ।) (मपध॰02:7:35:1.8)
131 नटनागर (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.8)
132 नहस (= अपशकुन; नाश; नष्ट) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ ।) (मपध॰02:7:34:2.1)
133 नहिरा (= नइहर, मायका) (एक दिन अपन महतारी से आंधर होवे के जब केहानी सुनलक तो राजा के रकसिनियाँ हीं पहुँचल आउ ओकरा से कहलक कि हम अब हींअईं रहबउ । रकसिनियाँ डर गेल । उ कहलक कि हमर नहिरा से हमर माय के हाल चाल ले आव तब रहिहें ।) (मपध॰02:7:37:1.19)
134 निकसना (= निकलना) ('मगही' के मगही सम्मेलन विशेषांक निकसल । पहिला पेज में भिक्षु जगदीश काश्यप के भरपेजी फोटो छपल हल । ओक्कर बाद कइ ठो पेज में मगही सम्मेलन उत्सव के फोटो हल ।) (मपध॰02:7:15:3.2)
135 निकासना (= निकालना) (मगही में बातचीत करऽ हऽ । सुनऽ ही ही हस्तलिखित पत्रिका निकालऽ हऽ । ओकरा में हिंदी आउ मगहियो के रचना रहऽ हे । ई बड़ी खोसी के बात हे । ... अब हमनी पटना से एगो मगही पत्रिका निकासे जा रहली हे । तोहनी के सहयोग जरूरी हे ।) (मपध॰02:7:14:2.16)
136 निच्चे (= नीचे) (ओकर बाद देखऽ ही एगो भरपेजी फोटो हमरो छपल हे । फोटो के निच्चे छप्पल हे मगही रथ के सारथी - श्री रवींद्र कुमार । अप्पन फोटो देख के मन पुलकित हो गेल । आँख से लोर चूए लगल । सोंचे लगली - हम का एत्ते कयली हे जे हमरा एतना प्रतिष्ठा देल गेल ।) (मपध॰02:7:15:3.8)
137 नितराना (= इतराना, इठलाना) (संस्थान गठित हो गेल तो अइसन नितरैलन जैसे कि उनका दौलत मिल गेल ।) (मपध॰02:7:12:3.19)
138 नीयर (= नियर, नियन; सदृश) (राह लड़िका के आँख नीयर बंद हो चुकल हल । आस-पास के गाँव दूर-दूर पर हल । इ गुने गाँव के कच-कुच भी नहिंए सुनाई पड़ऽ हल ।; हम भूत न ही, हम भी धरतीए के जीव ही मीरा । हमर परान बेअग्गर हे मीरा, अपनहीं नीयर लोग से कुछ कह सुनाके, अप्पन दिल-दिमाग के ठंढा करे ला ।) (मपध॰02:7:34:1.19, 2.22)
139 नेछावर (ई सब एतना जे लिख रहलूँ हे, ई सभ काम पंडित जी के हाँथ से होवऽ हल । तन, मन, धन, सब कुछ पंडित जी मगही आंदोलन ला नेछावर कइले हलन ।) (मपध॰02:7:8:1.34)
140 नेहाना (= अ॰क्रि॰ नहाना; स॰क्रि॰ नहलाना) (लगल कि ओकरा हिरदा से लगा लेऊँ आउ अप्पन वात्सल्य प्रेम से नेहा देऊँ । बाकि हमरा गीला देख के ऊ चुप हो गेल हल ।) (मपध॰02:7:34:3.25)
141 नो (= नौ) (नो बजे दिन में जगली त रवींद्र जी के दुनहूँ रचना सुनइली । 'किन-किन बोलइ कंगनवाँ' त उनका एतना भा गेल कि ऊ ठान लेलका कि ओकरा ऊ सम्मेलन में जरूरे सुनइतन ।) (मपध॰02:7:20:3.13)
142 पछियारी (काव्यभासा के ख्याल से एहमें मगही के प्रयोगधर्मिता एकदेसीय होके उभरल हे । एहमें नालंदा के पछियारी भाग के भासा-प्रयोग कैल गेल हे ।) (मपध॰02:7:26:2.19)
143 पटावल-कोड़ल (केतारी के खेत दिया रस्ता लग चुकल हल । खेत तुरते पटावल-कोड़ल गेल हल । उ हावा में अप्पन सोंधई रह-रह के बगेर रहल हल ।) (मपध॰02:7:34:1.25)
144 परनाम-पाती ("कोय मिले ला अयलथुन हे ।" - "केऽ ... !" - "अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ ।" कुनमुनाइत ठुनकैत नीन से विदाई लेके बाहर निकललूँ ! बैठकी में मिलला मगही के मीसन । जी मीसन, डॉ॰ श्रीकांत ! गोर देह, मुदा समय के मार से छत-बिछत सरीर पर लेपल झाईं, कारिख, जहाँ-तहाँ झुर्री से झाँकइत हतासा के टेढ़-मेढ़ लकीर ! परनाम-पाती भेल । आउर हम भौंचक्के देख रहलुँ हे । बार-बार, अनेक बार निहार रहलुँ हे । ई उहे श्रीकांत जी हथ, जिनका से पहिलुक मिलन मगही-हिंदी के प्रसिद्ध साहित्तकार श्री हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी के घर होल हल ।) (मपध॰02:7:19:1.29)
145 परेख (= परख) (पहिले सुनऽ हलूँ आउ अब सछात् देखलूँ कि मगही माय के खोंयछा में अनेक अनमोल रतन के खान पड़ल हे । हम कउनो जौहरी तो ही नञ्, जे सब रतन के परेख सकूँ । मोटबुधिया के जे पाँच गो रतन असानी से परेख में आल, हँथिया लेलूँ ।) (मपध॰02:7:4:1.14, 15)
146 परोगराम (= प्रोग्राम) (लगल कि एतना दिन तक ऊ मगही आउर शोधे पर सोचते रहलन हल आउर कुछ पर न । लेकिन, परोगराम एतना बोझिल हल कि हमनी सबके ऊ व्यवहारिक न लगल । तब शास्त्री जी ऊ परोगराम के एक गुटका संस्करण भी आगे बढ़ौलन ।) (मपध॰02:7:12:3.31, 13:1.1)
147 पसिन (= पसन्द) (ऊ एगो कौपी बढ़ावइत कहलन, 'भिन्नरुचिर्हि लोकः' । एही गुने हम्मर गीत तोरा पसिन पड़तो कि न, हम न जानऽ ही । तइयो ले लऽ आउ देख लऽ, हिंदी आउ मगही लगी हम्मर की विचार हे ।) (मपध॰02:7:38:2.31)
148 पहिरना (= पेन्हना; पहनना) (करेजा धक् सिन कयलक । सामने देखऽ ही तो एगो जन्नी उज्जर बग-बग साड़ी पहिरले राह रोक के खाड़ा हे ।) (मपध॰02:7:34:2.7)
149 पीपर-पाँकड़ (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक । छोटकी रनियाँ के गोड़ भारी हलइ । का बेचारिन ! उ कोप काप जंगल में पीपर-पाँकड़ तर बइठल रहे, पोकहा चुन-चुन खाय, गबदा-गुबदी के पानी पिये ।) (मपध॰02:7:37:1.18)
150 पीपर-बर (... एगो बिरहिन के बिंब उकेरल गेल हे । घर के पीपर-बर आउ ओकरा पर भगजोगिनी द्वारा सजावल देवाली के हुलास, फिनो ओहिजे गुरबिनी बगुलिया के कुँहकन में संयोग-वियोग के कबड्डी आउ ओनहनी के बीच टंगल ढुलुआ के पेम्हा बनल विरह व्यथा !) (मपध॰02:7:24:2.11)
151 पेठाना (= भेजवाना) (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक ।; उ ओकरा से नानी नाती के नाता जोड़लक । कुछ दिन रहे के बाद रकसिनियाँ से बिजैपाल पुछलक कि अँय नानी, धरखाबा पर छो गो आँख केकर रक्खल हइ ? नानी कहलक कि इ छोवो आँख राजा के रानी के हउ । तोहर महतारी हिआँ पेठा देलकउ हे ।) (मपध॰02:7:37:1.15, 2.11)
152 पेठिआ (= छोटा हाट, सप्ताह के निश्चित दिन या दिनों को लगनेवाला पसरहट्टा, गुदरी बाजार) (एगो हल राजा । ऊ एगो पेठिआ लगबावऽ हल । ओकर इ हुकुम हल कि जेकर जौन चीज साँझ तक न बिके ओकरा सरकारी खजाना से खरीद लेल जाय । एगो कोइरी के एगो रकसीनी हाँथ लगल । ओकरा बेचे ला ऊ राजा के पेठिआ में आवल ।) (मपध॰02:7:37:1.1, 7)
153 पेम्हा (... एगो बिरहिन के बिंब उकेरल गेल हे । घर के पीपर-बर आउ ओकरा पर भगजोगिनी द्वारा सजावल देवाली के हुलास, फिनो ओहिजे गुरबिनी बगुलिया के कुँहकन में संयोग-वियोग के कबड्डी आउ ओनहनी के बीच टंगल ढुलुआ के पेम्हा बनल विरह व्यथा !) (मपध॰02:7:24:2.14)
154 पोकहा (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक । छोटकी रनियाँ के गोड़ भारी हलइ । का बेचारिन ! उ कोप काप जंगल में पीपर-पाँकड़ तर बइठल रहे, पोकहा चुन-चुन खाय, गबदा-गुबदी के पानी पिये ।) (मपध॰02:7:37:1.18)
155 प्रणाम-पाती (हम जाके उनका हरिश्चन्दर जी के संवाद सुनइली त ऊ तुरंते जल्दी-जल्दी कुल्ला-गरारा करके बाहर अयलन । हमहूँ बाहर इँकसली । डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री से प्रणाम-पाती होल । उनका से दूरा पर बिछल चौंकी पर बैठे ला रवींद्र जी अनुरोध कैलका ।) (मपध॰02:7:20:2.12)
156 फटल-चिटल (विचार आउर रहन-सहन आउर पहनावा में बहुत सादा हलन । कभी-कभी कपड़ा फटल-चिटल आउर मइल भी पहिनले उनका देखलूँ हल ।) (मपध॰02:7:13:3.22)
157 फटिहर (फटा-चिटा) (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:7:1.11)
158 फरकाना (= फरक करना; अलग करना) (ई अधिवेशन के अवसर पर जब हम एकंगरसराय पहुँचली तो मित्र मंडली से हमरा फरका के शास्त्री जी मिठाई के दोकान में ले गेलन । नास्ता-पानी करा के पुछलन - काम हो गेलई ?) (मपध॰02:7:17:1.15)
159 फरास (जब 'मगही' के प्रकाशन रुक गेल आउ 'शोध' जलमतहीं काल के कल्ला में चल गेल त शास्त्री जी लगभग फरास हो गेलन ।) (मपध॰02:7:6:1.15)
160 फलिहँती (इनकर सबसे बड़हन खासियत ई हे कि ई नया भारत के निरमान ला तत्काली रचनात्मक विकास के बारे में सटीक उद्बोधन गान लिखलन हे । एही से इनकर कन्हइया जे बंसी वजावऽ हे, तो उ अपन कर्मजोग के फलिहँती पर हरखित होके, न कि अपन एकांत प्रेम साधना में एकदम डूब के ।) (मपध॰02:7:10:1.11)
161 फिनु (= फिन, फेन, फेनु, फेर; फिर) (मगही में बनल दू फिल्म में से एक 'मोरे मन मितवा' लगी दिसंबर 1964 में बंबई में हम मुहम्मद रफी, मुकेश, आशा भोंसले, सुमन कल्याणपुर आउ मन्ना डे से अपन मगही गीत के रेकार्डिंग करा रहली हल । फिनु जब सूर्या मैग्नेटिक्स, पटना से मगही के पहिला कैसेट जारी करैली, जेकर दसो गीत हम्मर हे त शास्त्री जी के याद करे बिन नञ् रह सकली जिनकर प्रेरणा से हम मगही में अयली हल ।; उनखा भिजुन आवे के गरज बतयली । तनी देर खातिर ऊ हमरा दन्ने गंभीर होके ताकते रहलन । फिनु छन भर लगी मौन हो गेलन ।) (मपध॰02:7:18:3.21, 38:2.20)
162 फिनो (= फिन, फेन, फेनु, फेर; फिर) (अलंकार के उपयोग में विधायक में कल्पना जउन भूमिका के सहारा लेलक हे ऊ बिरहिनी के दारुन विरह-व्यथा के एक अइसन भावलोक में ले जाहे कि पहुँचे पर ऊ फिनो भावोन्मिलन के ओहो पहलकी दशा में लौट आवऽ हे ।) (मपध॰02:7:11:2.12)
163 बंडा (~ बैल) (ओकरा पीछे कित्ता जवानी हल / आधा घर खपड़ा के आधा हल फूस के । झूमइत हल बंडा बैल एगो / बंधल हल करिया अइसन मरकुट बाछी - / जरठ खुट्टा पर ।) (मपध॰02:7:32:2.2)
164 बउआ (एगो बात आउ कहलन हल ... बउआ, तोहनी सब खेलऽ ! पढ़ऽ ! मगर बातचीत मगहिए में करऽ ! ... मगही में बतियाय के ई पहिला संदेश हल ।) (मपध॰02:7:14:1.28)
165 बउसाह (बुद्ध पूर्णिमा 1964 के दिन मगध शोध संस्थान के उद्घाटन इतिहासवेत्ता डॉ॰ के॰के॰ दत्त कइलन । ... सरकार के भाषा सर्वेक्षण के काम से आउ देश-विदेश के लोकभाषा विषयक सभे मंच से संस्थान जुड़ गेल । शास्त्री जी भर बउसाह जोर लगा के संस्थान के खड़ा कर देलन ।) (मपध॰02:7:18:1.18)
166 बकड़ी (= बकरी) (सुग्गा भरल डंटिया से रूहचुह पँकड़िया, तहहँइ रे चरवइ न मरूअन रोइ-रोइ बकड़िया । सरपत सरिया से ढपल डगरिया, जहाँ रे खेलइ मयना-मयनी लुकाचोरिया ॥) (मपध॰02:7:10:2.25)
167 बखत (ऊ बतउलन - हम एकरा में के जादेतर गीत के आझ से बीस बच्छर पहिले लिखली हल । ई सब मगही के रचइत देख के कुछ इयार-दोस सब हम्मर हँसी उड़ावऽ हलन । ... एही सिलसिला में ऊ आगे बतउलन - जउन बखत तक महात्मा गाँधी चरखा के नामो न लेलन हल, ऊ बखत हम चरखा पर मगही गीत लिखली हल ।) (मपध॰02:7:38:3.25, 27)
168 बगेरना (केतारी के खेत दिया रस्ता लग चुकल हल । खेत तुरते पटावल-कोड़ल गेल हल । उ हावा में अप्पन सोंधई रह-रह के बगेर रहल हल ।) (मपध॰02:7:34:1.26)
169 बड़ (= बड़ा, बहुत) (ऊ गीत खालिस मगही भासा में हल । छंद 'दंडक' हल । गीत में मगही, हिंदी के अप्पन सहोदर बता के, दुन्नू के हिल-मिल के रहे के उपदेस देलक हल । गीत लमहर होवहूँ पर हल बड़ लहरेदार । हम सौंसे गीत पढ़ गेली ।) (मपध॰02:7:38:3.8)
170 बड़गर (अपन बात के पुष्टि ले एगो घटना के चरचा जरूरी समझऽ ही । दिल्ली में 'वागार्थ' पत्रिका के करता-धरता एगो बड़गर कार्यक्रम कर रहलन हल, 'इंडिया इंटरनेशनल सेंटर' में । ऊ घड़ी तक 'वागार्थ' हिंदी के साहित्तिक पत्रिका में अपन सेसर स्थान बना चुकल हल ।; मगही लेखन-आंदोलन से हमरा जोड़े के कोरसिस शास्त्री जी लगातार करइत रहलन । एकंगरसराय उत्सव के हमर बड़गर उपलब्धि हल महोदय राम नरेश पाठक से परिचय । उनकर आग्रह भी हमरा मगही दने खींचे लगल । ऊ दुनों के सलाह होल कि बिहारशरीफ में दोसर मगही महासम्मेलन हमरा बोलाना चाही । मगध संघ के चौदहवाँ अधिवेशन पर 5 अप्रैल 1964 के दिन दोसर मगही महासम्मेलन संपन्न होल ।) (मपध॰02:7:5:1.1, 17:1.29)
171 बदरकट्टू (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.23)
172 बदरी (= बदली) (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।; जब गगन-कदंब के डउँची पर लगल पवन-हिंडोला पर बदरी कजरी गावे लगऽ हे तो सावन के पावस सोहावन रात उकसऽ हे । भादो के भदइ रात उकसऽ हे ।) (मपध॰02:7:23:1.25, 24:1.3)
173 बर (= बरगद; वटवृक्ष) (सिरनामा पढ़ के हँस मत दीहऽ । सिरनामा ठीक हे - बर, बुढ़वा बर । बुढ़वा बर से अपने लोग उ मैथिल उदंत बर के बात मत समझ लेव जे बूढ़ा कहे पर चमक उठऽ हलन । ... तो हम्मर बुढ़वा बर से माने मतलब उ मैथिल उदंत बर से न लगा के एगो बर के पेड़ से लगावल जाय ।) (मपध॰02:7:35:1.2, 3, 4, 9, 10)
174 बरतुहार (बरतुहार भी नहला पर दहला जमा के बाबा के भद्द कर दे हे । कवि बाबा के घरेलू औकात चित्रित कर के उनकर खबर लेलन हे ।; बाबा के औकात में उनकर खाना तक बंद हो गेल । उनखा पर बरतुहार बिगाड़े के लांछन लगल हे ।) (मपध॰02:7:26:1.4, 23)
175 बरतोर (= बलतोड़) (बुन्नी बून-बून टपके लगऽ हे तो दिल के घावो टभके लगऽ हे । फिनो दादुर जोर-जोर गरज-दरज के दिल के दरद के बात पूछ-पूछ के बेभाव मारे लगे आउ झींगुर लहरा-लहरा के पीरा के लहर के कहर बना दे तो दिल के घाव अधपाकल बरतोर नियन धीरे-धीरे सिहरन आउ सिसुकी बढ़इवे करत ।) (मपध॰02:7:23:2.5)
176 बलुक (= बल्कि) ('वर बिक्री' में कवि नैतुक-अनैतिक के सवाल न उठौलन हे बलुक बराहमन समाज के एगो विशिष्ट मनोवृत्ति के खोखलापन प्रकट कैलन हे ।) (मपध॰02:7:26:1.32)
177 बसियाना (= बासी हो जाना) (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.27)
178 बहस-मोहाबिसा (बिहारशरीफ के कुमार टॉकीज के पास के चाय के दुकान पर रवींद्र एवं पार्टी के जमावड़ा यादगार स्वरूप बन गेल हल । बहस-मोहाबिसा, कविता-वाचन, गीत-गायन के रोज-रोज सिलसिला देख के दुकानदार ऊब के बरदास करऽ हल ।) (मपध॰02:7:20:1.21)
179 बहिरसी (= बहरसी; बाहर) (1956 के ऊ दिन हम ससुरारे में हली जब कि हरिश्चन्दर जी सुबजे-सुबह भाग के केबाड़ी थपथपा के पुकारलका - "रवींदर ! रवींदर !" खिड़की से झाँक के देखली त हरिश्चन्दर जी एगो हमन्हीं से बड़ उमिर के जुबक के साथ बहिरसी ठड़ी हथ ।) (मपध॰02:7:20:1.32)
180 बान्ह (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.28)
181 बाबू (= लड़का) (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.21)
182 बिछाओन (= बिछावन) (हम्मर भुरुकवा दस बजे के बाद उगे हे ! आउर दिन के तरह ऊहो दिन भुरुकवा उगे के इंतजार में बिछाओन पर ओघड़ाल हली कि छोटकी बेटी हँकारलक, "कोय मिले ला अयलथुन हे ।" - "केऽ ... !" - "अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ ।") (मपध॰02:7:19:1.18)
183 बिदागी (= बिदाई) (नानी कहलक कि फलना जगह धान के खेत हउ । उहाँ रोज धान कटा हे आउ रोज धान रोपा हे । उ धान के माड़ से इ आँख रानी के साट देल जाय तो रानी देखे लग सकऽ हे । फेन का हल । बिजैपाल नानी हीं से बिदागी लेके धान के खेत में गेल आउ पाँच बाल लेके घर पहुँचल । चार बाल के तो कूट-काट के भात बना के माड़ गारलक आउ ओकरा से छोवो आँख तीनों महतारिन के लगा देलक आउ एक बाल बुन देलक ।) (मपध॰02:7:37:2.18)
184 बुढ़वा (= बूढ़ा) (सिरनामा पढ़ के हँस मत दीहऽ । सिरनामा ठीक हे - बर, बुढ़वा बर । बुढ़वा बर से अपने लोग उ मैथिल उदंत बर के बात मत समझ लेव जे बूढ़ा कहे पर चमक उठऽ हलन ।) (मपध॰02:7:35:1.3)
185 बुन्नी (बुन्नी बून-बून टपके लगऽ हे तो दिल के घावो टभके लगऽ हे ।) (मपध॰02:7:23:2.1)
186 बेअग्गर (= व्यग्र) (करेजा धक् सिन कयलक । सामने देखऽ ही तो एगो जन्नी उज्जर बग-बग साड़ी पहिरले राह रोक के खाड़ा हे । ... हम्मर मन में आल कि का इ भूत हे ! हम भूत न ही, हम भी धरतीए के जीव ही मीरा । हमर परान बेअग्गर हे मीरा, अपनहीं नीयर लोग से कुछ कह सुनाके, अप्पन दिल-दिमाग के ठंढा करे ला ।) (मपध॰02:7:34:2.22)
187 बेतुहार (~ खरच) ('पंडित जी' के बेतुहार खरच देख के पंडिताइन रंज रहऽ हलथिन । ऊ अप्पन अलगे कोठली में पूजा-पाठ, चउका-बरतन करऽ हलथिन ।) (मपध॰02:7:8:2.23)
188 बेलाग (एगो पत्रकार मित्र पूछ बइठल - "धनंजय, प्रभाकर श्रोत्रिय तुम्हारे रिश्तेदार हैं ?" हम बेलाग नहकार गेली । हलाँकि ऊ माहौल में चाहती हल त थोड़े जस हमहूँ अपना दने उपछ सकती हल, अपना के प्रभाकर जी के रिश्तेदार बता के ।) (मपध॰02:7:5:1.8)
189 बेलाना (= दूर करना, भगाना, हाँकना) (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक ।) (मपध॰02:7:37:1.14)
190 भंकुरा (समूचे कविता के निचोड़ 'वर बिक्री' में मुद्रा-दोहन के दर्शन प्रकट करे ला हे - बाबा का करथ ? / बाबा तो चाहलन हल / फसाऊँ रेहु अउ भंकुरा बड़ा / बकि इचना भी न फँस सकल / हाय हाय !) (मपध॰02:7:26:1.12, 33:2.34)
191 भरपेजी (~ फोटो) ('मगही' के मगही सम्मेलन विशेषांक निकसल । पहिला पेज में भिक्षु जगदीश काश्यप के भरपेजी फोटो छपल हल । ओक्कर बाद कइ ठो पेज में मगही सम्मेलन उत्सव के फोटो हल । ओकर बाद देखऽ ही एगो भरपेजी फोटो हमरो छपल हे ।) (मपध॰02:7:15:3.4, 7)
192 भविस्सबानी (= भविष्यवाणी) (घाघ-भड्डरी तो प्रकृति के तेवर परख-परख के बड़हन जोतिसी नियन भविस्सबानी करलका हे, बलुक सगुन-विचार में जोतिसी लोगन के भी कान काट लेलका हे ।) (मपध॰02:7:23:1.11)
193 भिजुन (= भिर, भिरू; पास) (उनखा भिजुन आवे के गरज बतयली । तनी देर खातिर ऊ हमरा दन्ने गंभीर होके ताकते रहलन । फिनु छन भर लगी मौन हो गेलन ।) (मपध॰02:7:38:2.18)
194 भुरुकवा (= भोर का तारा; शुक्र) (हम्मर भुरुकवा दस बजे के बाद उगे हे ! आउर दिन के तरह ऊहो दिन भुरुकवा उगे के इंतजार में बिछाओन पर ओघड़ाल हली कि छोटकी बेटी हँकारलक, "कोय मिले ला अयलथुन हे ।" - "केऽ ... !" - "अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ ।") (मपध॰02:7:19:1.16, 18)
195 मइल (= मैला, गंदा) (विचार आउर रहन-सहन आउर पहनावा में बहुत सादा हलन । कभी-कभी कपड़ा फटल-चिटल आउर मइल भी पहिनले उनका देखलूँ हल ।) (मपध॰02:7:13:3.22)
196 मइल-कुचइल (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:7:1.11)
197 मधे (= मद्धे; बीच में) (हमर जरूरत के कोय चीज प्राप्त नञ् हो सकल हुआँ । उनका पास डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री से जुड़ल जे चीज हे, ऊ हे - 'धन मधे धन, तीन लुंडा सन ।') (मपध॰02:7:6:1.1)
198 मरनी-जिनी (सो घर चेलई, दू सो घर जजमनका हे / टोला परोस आउ जेवार में पूछ हे / हर घर जलम आउ जतरा बताना हे / सराध आउ बिआह मरनी जिनी कराना हे ।) (मपध॰02:7:33:1.10)
199 मर-मकान (बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल । गर-गोरखिया, अदमी, जन-मजूर सभ के डंटा से खदेड़ लौलक । अब तो मर-मकान बन गेल, खेत-पथार जोताय-कोड़ाय लगल । घर-गिरहस्थी के सभ समान भे गेल ।) (मपध॰02:7:37:3.5)
200 महिन्ने-महिन्ने (= हर महीना) (मगही लेखन में निखार आउ साहित्तिक विधा के पहचान उकेरेवाला पत्र बन के 'मगही' महिन्ने-महिन्ने छपे लगल ।) (मपध॰02:7:16:3.1)
201 माड़ (= माँड़) (नानी कहलक कि फलना जगह धान के खेत हउ । उहाँ रोज धान कटा हे आउ रोज धान रोपा हे । उ धान के माड़ से इ आँख रानी के साट देल जाय तो रानी देखे लग सकऽ हे । फेन का हल । बिजैपाल नानी हीं से बिदागी लेके धान के खेत में गेल आउ पाँच बाल लेके घर पहुँचल । चार बाल के तो कूट-काट के भात बना के माड़ गारलक आउ ओकरा से छोवो आँख तीनों महतारिन के लगा देलक आउ एक बाल बुन देलक ।) (मपध॰02:7:37:2.15, 20)
202 मातर (= मात्र) (एतना क्लिष्ट कल्पना होवे पर भी इनकर भाव के दरसावे में कहीं बनावटीपन, असुभावीपन इया बाहरी आडंबर आदि के लेस मातर भी चिन्हा न बुझाय ।) (मपध॰02:7:10:2.12)
203 मान (= माँद) (बाबा हलन शेरे-बब्बर जर में जेवार में / दुनियाँ जहान में / ओहि बनलन सियार / अप्पन मान में ।) (मपध॰02:7:33:2.24)
204 मिठगर (= मीठा) (दिल से इँकसल शबद कैसन मिठगर आउ अपनापन लेल होवऽ हे, ई कवि आउ कहानीकार जरूरे महसूस करे हे ।; मगही भाषा भोजपुरी भाषा के समान लठमार भाषा न हे, मिठगर भाषा हे आउ ढेर मनी शब्द मिलइत-जुलइत हे । हिंदी भाषा के बीच मगही के शब्द के प्रयोग से आकर्षण आयत ऐसन धारना बँधल ।) (मपध॰02:7:20:2.29, 22:1.16)
205 मिनती (= विनती, प्रार्थना) (हमनी उनखा निर्देशक बनके आशीर्वचन देवे ला मिनती कइली हल । मान गेलन हल । कुछ दानो-दक्षिणा देलन हल ।) (मपध॰02:7:15:1.16)
206 मीरा (करेजा धक् सिन कयलक । सामने देखऽ ही तो एगो जन्नी उज्जर बग-बग साड़ी पहिरले राह रोक के खाड़ा हे । ... हम्मर मन में आल कि का इ भूत हे ! हम भूत न ही, हम भी धरतीए के जीव ही मीरा । हमर परान बेअग्गर हे मीरा, अपनहीं नीयर लोग से कुछ कह सुनाके, अप्पन दिल-दिमाग के ठंढा करे ला ।) (मपध॰02:7:34:2.21, 22)
207 मुला (= मुदा, लेकिन) (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।; डॉ॰ शिवनंदन प्रसाद के हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली चल गेला के बाद मंत्री के काम डॉ॰ रामनंदन सँभारे लगलथिन । मुला जभी कोय काम होवे त 'पंडित जी' के बे अइले न होवऽ हल ।; कुछ दिन तक ऊ सुभाष हाई स्कूल, इसलामपुर में शिक्षक के काम कयलथिन हल । मुला विश्वविद्यालय में तो जात-पाँत, भाई-भतीजावाद भरल हे । इनखर पांडित्य आउ गहिरा अध्ययन के केऊ कदर न कइलकइ ।; निरगुन के एतना भंडार 'पंडित जी' के पास हल कि कई मरतबे हमरा मन होल कि सेंगरन कर लेऊँ । मुला सेंगरन न हो सकल ।) (मपध॰02:7:7:1.10, 8:2.8, 33, 9:1.10)
208 मोट-घोट (अप्पन दुब्बर-पातर देह से जउन दू गो मोट-घोट के अकबार सकलूँ, ऊ हथ - मगही के जानल-मानल गायक आउ उन्नायक श्री दीनबंधु आउ मगही के धुनी साहित्तकार डॉ॰ भरत सिंह ।) (मपध॰02:7:4:1.23)
209 मोटबुधिया (पहिले सुनऽ हलूँ आउ अब सछात् देखलूँ कि मगही माय के खोंयछा में अनेक अनमोल रतन के खान पड़ल हे । हम कउनो जौहरी तो ही नञ्, जे सब रतन के परेख सकूँ । मोटबुधिया के जे पाँच गो रतन असानी से परेख में आल, हँथिया लेलूँ ।) (मपध॰02:7:4:1.15)
210 मौसिऔत (न बाबा ! दुनु श्रीकांत के बीच बड़गो अंतराल हे ! बड़गो ! - "अरे मौसिऔत, की घुर-घुर देख रहलऽ हे ।" - "हाँ, तोहरे देख रहलुँ हे । कउन हाल कर लेलऽ हे !") (मपध॰02:7:19:2.27)
211 रकसीनी (एगो कोइरी के एगो रकसीनी हाँथ लगल । ओकरा बेचे ला ऊ राजा के पेठिआ में आवल । मुला जान के मक्खी के खाओ ? रुपइया दे के रकसीनी मोल के ले ?; एक दिन अपन महतारी से आंधर होवे के जब केहानी सुनलक तो राजा के रकसिनियाँ हीं पहुँचल आउ ओकरा से कहलक कि हम अब हींअईं रहबउ । रकसिनियाँ डर गेल ।) (मपध॰02:7:37:1.5, 8, 30, 32)
212 रद्दी-सद्दी (कहे लगलन बाबा जी, आज के पढ़ाऐ सभ / रद्दी हे सद्दी हे, न केऊ काम के / इनखा तो अप्पन ढंग के पढ़ायम हम / हमरा तो इनखा के पंडित बनाना हे ।) (मपध॰02:7:33:1.4)
213 रेहु (समूचे कविता के निचोड़ 'वर बिक्री' में मुद्रा-दोहन के दर्शन प्रकट करे ला हे - बाबा का करथ ? / बाबा तो चाहलन हल / फसाऊँ रेहु अउ भंकुरा बड़ा / बकि इचना भी न फँस सकल / हाय हाय !) (मपध॰02:7:26:1.12, 33:2.34)
214 लंगटे (= नंगे) (केतना उठा-पटक, उलट-पुलट आउ उठान-गिरान देखलक हे ई ? हमरे लंगटे बुलइते से लेके आज्झ डाकदर साहेब के पदवी ला देख चुकल हे इ । आउर ओहु दिन इ टुक-टुक देखइत रहत जउन दिन हम्मर अंतिम सवारी 'राम-राम सत्त हे' कहइत उठ खाड़ा होत ।) (मपध॰02:7:36:3.6)
215 लठमार (मगही भाषा भोजपुरी भाषा के समान लठमार भाषा न हे, मिठगर भाषा हे आउ ढेर मनी शब्द मिलइत-जुलइत हे । हिंदी भाषा के बीच मगही के शब्द के प्रयोग से आकर्षण आयत ऐसन धारना बँधल ।) (मपध॰02:7:22:1.15)
216 लमहर (= लमगर; लम्बा) (खुला अधिवेशन में आचार्य बदरीनाथ वर्मा के लमहर भाषण होल हल । तखनी ऊ बिहार सरकार के शिक्षा मंत्री हलन ।; ऊ गीत खालिस मगही भासा में हल । छंद 'दंडक' हल । गीत में मगही, हिंदी के अप्पन सहोदर बता के, दुन्नू के हिल-मिल के रहे के उपदेस देलक हल । गीत लमहर होवहूँ पर हल बड़ लहरेदार । हम सौंसे गीत पढ़ गेली ।) (मपध॰02:7:15:2.20, 38:3.8)
217 लेहाज (= लिहाज; संकोच; सम्मान करने का भाव) (कैक महीना बाद 'मगध शोध संस्थान' के गठन ला नालंदा में भिक्षु जगदीश काश्यप के सभापतित्व में एगो बड़गो बैठक बुलावल गेल । ओकरा में भारत सरकार के उपमंत्री प्रो॰ सिद्धेश्वर प्रसाद, नालंदा पाली इंस्टीच्यूट के आधा दर्जन प्राध्यापक, डॉ॰ सरयू प्रसाद, प्रो॰ मौआर इत्यादि भी सरीक होलन हल । हम देखली कि सब कोय शास्त्री जी के आदर करऽ हलन । आदर न, लेहाज कहल जाय तो जादा सही होत ।) (मपध॰02:7:12:3.11)
218 लोरे-झोरे (विरहिन के लोरे-झोरे अवस्था पर व्यंग्य कसइत मधुर विनोद भरल मुसुकान के साथ बलमुआँ पूछऽ हे - रे धनियाँ ! केकर सेज पर आझ तू ओलरले कि मोतिया झर गेलउ आउ बेनियाँ बिखर गेलउ ?) (मपध॰02:7:24:1.16)
219 व्यवहारिक (= व्यावहारिक) (लगल कि एतना दिन तक ऊ मगही आउर शोधे पर सोचते रहलन हल आउर कुछ पर न । लेकिन, परोगराम एतना बोझिल हल कि हमनी सबके ऊ व्यवहारिक न लगल । तब शास्त्री जी ऊ परोगराम के एक गुटका संस्करण भी आगे बढ़ौलन ।) (मपध॰02:7:12:3.32)
220 सनवाहा ("लोग इनखा बर्हम बाबा कहऽ हे । दिन के हर-हुमाद तो जरइते देखवे करऽ होइती । ... हम्मर ई सभ कुछ हलन ! हमरा हीं ई गाय-गोरू के सनवाहा हलन !" कहके ऊ एक-ब-एक गायब हो गेल ।) (मपध॰02:7:34:3.30)
221 सबर (= दबर) (जल्दी ~) (सोचलक कि जो रकसिनियाँ जान गेल तो बड़ा तंग करत । इ गुने फिन रकसिनियाँ के मैया हीं पहुँचल । दूगो किअउरी देख के पुछलक कि इ का हउ नानी । रकसिनियाँ कहलक - बेटा, एगो में हमर परान आउ दोसरा में तोहर माय के परान हउ । खोललँ तो दुन्नु मर जायम । रख दे जल्दी सबर !) (मपध॰02:7:37:3.19)
222 सरदाना (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.26)
223 सर-सरबत (उठलन सभ बरतुहार / काहे-काहे ठहरल जाए समय हे तो भोजन के / बन रहल हे जर जलपान आउ रसोई भी / सर सरबत तो घोरा भी चुकल हे ।) (मपध॰02:7:33:1.29)
224 सले-सले (= धीरे-धीरे) (मेह बरस के छूट चुकल हल बाकि हावा सले-सले बह रहल हल ।) (मपध॰02:7:34:3.28)
225 सल्ले-सल्ले (= सले-सले; धीरे-धीरे) (कइसे घाव के टीस अइसन ई पीरा उभरऽ हे ओकर नयन में सपना बन के सल्ले-सल्ले मन परान पर छा जाहे, एकर बरनन में कवि जउन रूपक के सहारा लेलन हे, उ भाव के दरसावे में केतना मदद करऽ हे, देखते बनऽ हे ।) (मपध॰02:7:11:2.7)
226 सहेर (नानी हीं एगो डंटा देखलक । पूछे पर पता चलल कि जेकर पास इ डंटा रहत उ जेतना आदमी आउ जानवर के खदेड़ के लावे ला चाहत, ले आवत । बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल ।) (मपध॰02:7:37:3.2)
227 साइत (= शायद) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ ।) (मपध॰02:7:34:2.3)
228 सिन (= सन; -सा) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ । करेजा धक् सिन कयलक । सामने देखऽ ही तो एगो जन्नी उज्जर बग-बग साड़ी पहिरले राह रोक के खाड़ा हे ।) (मपध॰02:7:34:2.5)
229 सिमाना (= सीमा) (अजगुत लगल कि आदमी के सोंच के स्तर के सिमाना केतना सिकुड़ गेल हे ।) (मपध॰02:7:5:1.24)
230 सिरनामा (= शीर्षक) (अंगरेजी कवि टेनिसन के रचल कविता 'ए सिलवर पेनी' के मगही में जे अनुवाद 'पंडित जी' कयलथिन हल, ओकर सिरनामा हलइ 'चकमक चानी के एकनिया' ।; सिरनामा पढ़ के हँस मत दीहऽ । सिरनामा ठीक हे - बर, बुढ़वा बर । बुढ़वा बर से अपने लोग उ मैथिल उदंत बर के बात मत समझ लेव जे बूढ़ा कहे पर चमक उठऽ हलन ।) (मपध॰02:7:9:1.19, 35:1.2)
231 सिरनामी (= शीर्षक वाला) (ढोला-मारू आउ होरिल-मयना के पुरान प्रेम-प्रसंग के प्रतिज्ञा के रूप में उल्लेख कवि के जनपदीय संस्कृतिप्रियता के परिचय दे हे, जे इनकर हिरदा के आवेग के रस से भिंजा दे हे, ठीक ओइसहीं जइसे कवींद्र रवींद्र के इयाद के हरदम कंकावती आदि के व्यथा जगावऽ हे । {दे॰ 'विष्टि पड़े टापुर-टापुर' सिरनामी कविता ।}; 'बिहान' के चउथा अंक में छपल उनकर 'पहिला सपनमा' आउ 'मुक्ति दिवस' सिरनामी गीतन में भी हम इनकर अटूट राष्ट्र-प्रेम के छहँकी पावऽ ही ।) (मपध॰02:7:11:1.4, 8)
232 सिसिआना (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.26)
233 सुगंधी (= सुगंध) (लगऽ हे आज्झ कोई भगत जरूर हुमाद जरौलक हे, सेर दू सेर ला । आग बुझ चुकल हल बाकि हुमाद के सुगंधी बाकी हल ।) (मपध॰02:7:34:1.33)
234 सुतरी (= सुतली; सन या पाट की रस्सी, डोरी, रस्सी) (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.21)
235 सेंगरन (= संग्रह) (निरगुन के एतना भंडार 'पंडित जी' के पास हल कि कई मरतबे हमरा मन होल कि सेंगरन कर लेऊँ । मुला सेंगरन न हो सकल ।) (मपध॰02:7:9:1.10, 11)
236 सोंधई (= सोन्हई) (केतारी के खेत दिया रस्ता लग चुकल हल । खेत तुरते पटावल-कोड़ल गेल हल । उ हावा में अप्पन सोंधई रह-रह के बगेर रहल हल ।) (मपध॰02:7:34:1.26)
237 सोभाव (= स्वभाव) (धेयान रहे, उनकर ई राय हमर भाय-बंधु से रिश्ता-नाता जोड़ेवाला सोभाव के बारे में हे । बाकि धूरी से रस्सी बाँटे के हमर सोभाव कउनो अझका नञ् हे ।) (मपध॰02:7:4:1.3, 4)
238 सौंसे (दे॰ सउँसे) (लोग के बिसवास हे कि एकर एक डाँड़ काटे पर सौंसे इनारा अररा के गिर पड़ सकऽ हे । दुन्नूँ में बड़ी परेम हे । कुइयाँ, पेड़ के दुक्ख न सह सके आउर पेड़, कुइयाँ के दुक्ख के सहे ला न तइयार हे ।) (मपध॰02:7:35:2.7)
239 हँथिआना (= हथिआना, हथियाना) (तीनों ऊ रतन हथ जिनका हम हँथिअइलूँ हे । ऊ हथ - मगही के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार श्री रवींद्र कुमार, मगही सात्य के वरेण्य मर्मज्ञ डॉ॰ रामनरेश मिश्र 'हंस' आउ प्रेम के साथ पुकारल जायवला श्री राजकुमार प्रेमी जी ।) (मपध॰02:7:4:1.20)
240 हपोट (पहिले सुनऽ हलूँ आउ अब सछात् देखलूँ कि मगही माय के खोंयछा में अनेक अनमोल रतन के खान पड़ल हे । हम कउनो जौहरी तो ही नञ्, जे सब रतन के परेख सकूँ । मोटबुधिया के जे पाँच गो रतन असानी से परेख में आल, हँथिया लेलूँ । तीन गो के माथा पर उठा लेलूँ आउ दू गो के हपोट में भर अकबार धर के चल पड़लूँ हे । अब तो जौहरिए बतैतन कि किनखा हम माथा पर लाद लैलूँ आउ किनखा अकबार भर के ।) (मपध॰02:7:4:1.16)
241 हमनी (= हमन्हीं; हमलोग) (निर्देशक के काम निर्देश देना भर हे, पालन करना तो हमनी के काम हे । मोहक मुसकान के साथ काश्यप जी 'मगही' ला पहला चंदा शास्त्री जी के सौंप देलन ।) (मपध॰02:7:16:2.7)
242 हमन्हीं (= हमलोग) ("अप्पन रचना कविता-कहानी सम्मेलन में अइहऽ त लेले अइहऽ । 'मगही' पत्रिका भी इँकस रहल हे, एकरा ला भी रचना भेजिहऽ ।" कहके ऊ धोती-कुरता ओला सज्जन {डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री} चमरखानी चप्पल घसीटते चल गेला । बाकि हमन्हीं पर एक छाप देके ।) (मपध॰02:7:20:3.8)
243 हरजोतवा (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.7)
244 हर-हुमाद (- लोग इनखा बर्हम बाबा कहऽ हे । दिन के हर-हुमाद तो जरइते देखवे करऽ होइती । - तो का इ बर्हम बाबा के सेवकिन हे !) (मपध॰02:7:34:3.18)
245 हारल-टूटल (शास्त्री जी के अंत एगो हारल-टूटल अमदी के अंत हल । ... शास्त्री जी के अवसान 29 जुलाई 1973 के दिन होल । हमरा खबर देर से मिलल ।) (मपध॰02:7:18:1.23)
246 हुआँ (= वहाँ) (हमर जरूरत के कोय चीज प्राप्त नञ् हो सकल हुआँ । उनका पास डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री से जुड़ल जे चीज हे, ऊ हे - 'धन मधे धन, तीन लुंडा सन ।') (मपध॰02:7:5:1.30)
247 हुमाद (= हुमाध; समिधा) (लगऽ हे आज्झ कोई भगत जरूर हुमाद जरौलक हे, सेर दू सेर ला । आग बुझ चुकल हल बाकि हुमाद के सुगंधी बाकी हल ।) (मपध॰02:7:34:1.31, 32)
2 अकबार (भर ~) (पहिले सुनऽ हलूँ आउ अब सछात् देखलूँ कि मगही माय के खोंयछा में अनेक अनमोल रतन के खान पड़ल हे । हम कउनो जौहरी तो ही नञ्, जे सब रतन के परेख सकूँ । मोटबुधिया के जे पाँच गो रतन असानी से परेख में आल, हँथिया लेलूँ । तीन गो के माथा पर उठा लेलूँ आउ दू गो के हपोट में भर अकबार धर के चल पड़लूँ हे । अब तो जौहरिए बतैतन कि किनखा हम माथा पर लाद लैलूँ आउ किनखा अकबार भर के ।) (मपध॰02:7:4:1.16, 17)
3 अजदाह (धेयान रहे, उनकर ई राय हमर भाय-बंधु से रिश्ता-नाता जोड़ेवाला सोभाव के बारे में हे । बाकि धूरी से रस्सी बाँटे के हमर सोभाव कउनो अझका नञ् हे । आउ ईहे सोभाव हमरा सैंकड़न अजदाह आउ आत्मीयजन से मिलैलक हे । लोग के चाहे जे राय रहे ।) (मपध॰02:7:4:1.5)
4 अदमी (= आदमी) (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।; रामबालक जी परिचय देलन - ई श्रीकांत शास्त्री हथ । मगही ला समर्पित अदमी । हिंदी आउ संस्कृत के प्रकांड विद्वान हथ । मगही के अलख जगावे ला निकललन हे ।) (मपध॰02:7:7:1.12, 14:2.6)
5 अधपाकल (= आधा पका हुआ) (बुन्नी बून-बून टपके लगऽ हे तो दिल के घावो टभके लगऽ हे । फिनो दादुर जोर-जोर गरज-दरज के दिल के दरद के बात पूछ-पूछ के बेभाव मारे लगे आउ झींगुर लहरा-लहरा के पीरा के लहर के कहर बना दे तो दिल के घाव अधपाकल बरतोर नियन धीरे-धीरे सिहरन आउ सिसुकी बढ़इवे करत ।) (मपध॰02:7:23:2.5)
6 अनमन (जइसन हम्मर बचपन में हल ओइसने अनमन खाड़ा हे । परसाल के सुखाड़ के भी इ दुनूँ बेकति पर कोई असर न भेल ।) (मपध॰02:7:35:2.1)
7 अनसायल-मनसायल (भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । किसान होवे या ऋषि सब्भे एहिजा प्रकृति के बीच रसल-बसल चाहऽ हे । ऊ लोग के चिहुँकल-चिकुरल, ठिठुरल-बिठुरल, अनसायल-मनसायल सब्भे में प्रकृति के एगो लमहर आउ मनहर भूमिका होवऽ हे ।) (मपध॰02:7:23:1.5)
8 अनेगा (= अनेक) (जब हम अप्पन आँख होस में खोलली तो अप्पन अँगना में खटोला पर पड़ल-पड़ल सोचइत रहऽ हली कि ई बर के पेड़ के के रोपलक, के पटयलक, के सिरजलक, आउर-आउर अनेगा बात पानी के हलफा नीयर आवइत जाइत रहल हे ।; इ पेड़ के देख के अनेगा विचार हम्मर दिल में उठइत, गिरइत, मरइत आउर सिरजइत रहल हे ।) (मपध॰02:7:35:1.21, 2.21)
9 अरराना (लोग के बिसवास हे कि एकर एक डाँड़ काटे पर सौंसे इनारा अररा के गिर पड़ सकऽ हे । दुन्नूँ में बड़ी परेम हे । कुइयाँ, पेड़ के दुक्ख न सह सके आउर पेड़, कुइयाँ के दुक्ख के सहे ला न तइयार हे ।) (मपध॰02:7:35:2.8)
10 अलसाना (= आलसी बनना या होना) (उनकर वाणी में अइसन प्रेरणा बसऽ हल कि अलसाय आउर कदराय में केकरो बनवे न करऽ हल ।) (मपध॰02:7:13:1.18)
11 आठ-बीस (चेहरा पर ~ बजाना) ( ('डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री अंक' जेकर जरूरत हम महसूस कर रहलि हल, निकाले के सूचना जब 'मगही पत्रिका' में छापली त दु-चार गो झमठगर मगही के विदमान पूछ बैठलन हमरा से - "श्रीकांत शास्त्री आपके रिश्तेदार थे क्या ?" बस, प्रभाकर श्रोत्रिय के इयाद करके उनकर चेहरा पर 'आठ-बीस' बजा देली ।) (मपध॰02:7:5:1.24)
12 आभी-गाभी (~ मारना = हँसी-मजाक या व्यंग्य करना) (खाना भेल बाबा के बंद तीन-चार साँझ / पुतुहुन सभ मारऽ हलथिन ... जोर जोर से / चढ़े देलन सिरमौरी न हाय रे । / सभ उल्लू दुत्थू करे लगलन उनखा / आयल हल जेहू भुलायल भटकायल बरतुहार सभ / आभी गाभी मारऽ हलथिन टोला परोस के ।) (मपध॰02:7:33:2.30)
13 आवा-जाही (मित्र रवींद्र कुमार आउ महेश्वर तिवारी के साथ मिल के हम नालंदा कॉलेज आउ नालंदा पालि प्रतिष्ठान, नालंदा के बहुत्ते आचार्य आउ छात्र सब के ग्राहक बना लेली । हमरा हीं शास्त्री जी के आवा-जाही बढ़े लगल ।) (मपध॰02:7:16:3.11)
14 इँकसना (= निकसना; निकलना) (हम जाके उनका हरिश्चन्दर जी के संवाद सुनइली त ऊ तुरंते जल्दी-जल्दी कुल्ला-गरारा करके बाहर अयलन । हमहूँ बाहर इँकसली । डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री से प्रणाम-पाती होल । उनका से दूरा पर बिछल चौंकी पर बैठे ला रवींद्र जी अनुरोध कैलका ।; दिल से इँकसल शबद कैसन मिठगर आउ अपनापन लेल होवऽ हे, ई कवि आउ कहानीकार जरूरे महसूस करे हे ।; अप्पन रचना कविता-कहानी सम्मेलन में अइहऽ त लेले अइहऽ । 'मगही' पत्रिका भी इँकस रहल हे, एकरा ला भी रचना भेजिहऽ ।) (मपध॰02:7:20:2.11, 29, 3.4)
15 इचना (समूचे कविता के निचोड़ 'वर बिक्री' में मुद्रा-दोहन के दर्शन प्रकट करे ला हे - बाबा का करथ ? / बाबा तो चाहलन हल / फसाऊँ रेहु अउ भंकुरा बड़ा / बकि इचना भी न फँस सकल / हाय हाय !) (मपध॰02:7:26:1.12, 33:2.34)
16 उकसना (जब गगन-कदंब के डउँची पर लगल पवन-हिंडोला पर बदरी कजरी गावे लगऽ हे तो सावन के पावस सोहावन रात उकसऽ हे । भादो के भदइ रात उकसऽ हे ।) (मपध॰02:7:24:1.4, 5)
17 उगेन (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.24)
18 उछाह (= उत्साह) (दरजन भर लेखक के हमरा दाहड़ के पानी नियन रोके पड़ल, काहे कि दूर-दूर तक उनका शास्त्री जी से कोय लेना-देना नञ् हल । उनकर उछाह फेर करगियाम । ई भरोसा दे रहली हे ।) (मपध॰02:7:6:1.22)
19 उठान-गिरान (केतना उठा-पटक, उलट-पुलट आउ उठान-गिरान देखलक हे ई ? हमरे लंगटे बुलइते से लेके आज्झ डाकदर साहेब के पदवी ला देख चुकल हे इ । आउर ओहु दिन इ टुक-टुक देखइत रहत जउन दिन हम्मर अंतिम सवारी 'राम-राम सत्त हे' कहइत उठ खाड़ा होत ।) (मपध॰02:7:36:3.6)
20 उठा-पटक (रवींद्र जी आउ हरिश्चन्दर जी में उठा-पटक छोड़ के सब हो जा हल । तेज-तर्रार रवींद्र जी के आगू हरिश्चन्दर जी तर्क करे में मात खा जा हला ।) (मपध॰02:7:20:1.15)
21 उड़कना (नानी हीं एगो डंटा देखलक । पूछे पर पता चलल कि जेकर पास इ डंटा रहत उ जेतना आदमी आउ जानवर के खदेड़ के लावे ला चाहत, ले आवत । बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल ।) (मपध॰02:7:37:3.1)
22 उपछना (एगो पत्रकार मित्र पूछ बइठल - "धनंजय, प्रभाकर श्रोत्रिय तुम्हारे रिश्तेदार हैं ?" हम बेलाग नहकार गेली । हलाँकि ऊ माहौल में चाहती हल त थोड़े जस हमहूँ अपना दने उपछ सकती हल, अपना के प्रभाकर जी के रिश्तेदार बता के ।) (मपध॰02:7:5:1.8)
23 उपास (= उपवास) (का हरज होल ? न खइली । सोचली कि उपास रह गेला से अच्छे होत । पेट शुद्ध हो जात ।) (मपध॰02:7:13:2.37)
24 उमताना (वहाँ शास्त्री जी संस्थान के जरूरत पर जे भाषण कैलन ओकरा से साफ झलकऽ हल कि ऊ मगही के सम्हारे ला केतना उमतायल हलन, केतना बेदम हलन आउर मगही में शोध कार्य करे के समय आ गेल हे एकरा केतना साफ-साफ देखऽ हलन ।) (मपध॰02:7:12:3.15)
25 उमसना (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.25)
26 उल्लू-दुत्थू (= उल्लू-धुत्तू ) (खाना भेल बाबा के बंद तीन-चार साँझ / पुतुहुन सभ मारऽ हलथिन ... जोर जोर से / चढ़े देलन सिरमौरी न हाय रे । / सभ उल्लू दुत्थू करे लगलन उनखा / आयल हल जेहू भुलायल भटकायल बरतुहार सभ / आभी गाभी मारहन हलथिन टोला परोस के ।) (मपध॰02:7:33:2.28)
27 एतना (= इतना) (एतना क्लिष्ट कल्पना होवे पर भी इनकर भाव के दरसावे में कहीं बनावटीपन, असुभावीपन इया बाहरी आडंबर आदि के लेस मातर भी चिन्हा न बुझाय ।) (मपध॰02:7:10:2.10)
28 एत्ते (= एतना; इतना; एज्जे; इसी जगह, यहीं) (ओकर बाद देखऽ ही एगो भरपेजी फोटो हमरो छपल हे । फोटो के निच्चे छप्पल हे मगही रथ के सारथी - श्री रवींद्र कुमार । अप्पन फोटो देख के मन पुलकित हो गेल । आँख से लोर चूए लगल । सोंचे लगली - हम का एत्ते कयली हे जे हमरा एतना प्रतिष्ठा देल गेल ।; हम ने तो निराला से मिल रहली हल आउ न बर्नाड शॉ से । तइयो हमरा एगो मगही-सेवी मगही कवि से मिल के एत्ते आत्म-संतोख होल जेत्ते कउनो यथार्थ सरस्वती-पुत्र से मिलके कउनो साहित्यिक जीव के हो सकऽ हे ।) (मपध॰02:7:15:3.12, 39:1.33)
29 ओघड़ाना (हम्मर भुरुकवा दस बजे के बाद उगे हे ! आउर दिन के तरह ऊहो दिन भुरुकवा उगे के इंतजार में बिछाओन पर ओघड़ाल हली कि छोटकी बेटी हँकारलक, "कोय मिले ला अयलथुन हे ।" - "केऽ ... !" - "अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ ।") (मपध॰02:7:19:1.19)
30 ओझा-सोखा-डाइन (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.9)
31 ओनहनी (... एगो बिरहिन के बिंब उकेरल गेल हे । घर के पीपर-बर आउ ओकरा पर भगजोगिनी द्वारा सजावल देवाली के हुलास, फिनो ओहिजे गुरबिनी बगुलिया के कुँहकन में संयोग-वियोग के कबड्डी आउ ओनहनी के बीच टंगल ढुलुआ के पेम्हा बनल विरह व्यथा !) (मपध॰02:7:24:2.13)
32 ओनहनीं (= ओकन्हीं) (मगह में बहुत्ते संत, महात्मा, कवि, कलाकार होलन हे । ओनहनीं के मगही गीत सउँसे मगही छेत्र में गावल जाहे ।) (मपध॰02:7:38:3.30)
33 ओलरना (विरहिन के लोरे-झोरे अवस्था पर व्यंग्य कसइत मधुर विनोद भरल मुसुकान के साथ बलमुआँ पूछऽ हे - रे धनियाँ ! केकर सेज पर आझ तू ओलरले कि मोतिया झर गेलउ आउ बेनियाँ बिखर गेलउ ?; भाव के बिंबन लेल बारलक, अलसल, घुरमल, मेहल, नेहल, पइसिके, बुज्झौलक, परसइ, ओलरलऽ, बेनियाँ आदि शब्द-प्रयोग के अर्थगर्भता बड़ा विलक्षण हे एजो । बुज्झौलक के जगह बुझौलक, ओलरलऽ के जगह सुतलऽ कर देउँ तो अर्थ-बिंब एकदमें ढह जायत ।) (मपध॰02:7:24:1.16, 2.21)
34 ओहिजे (= वहीं) (... एगो बिरहिन के बिंब उकेरल गेल हे । घर के पीपर-बर आउ ओकरा पर भगजोगिनी द्वारा सजावल देवाली के हुलास, फिनो ओहिजे गुरबिनी बगुलिया के कुँहकन में संयोग-वियोग के कबड्डी आउ ओनहनी के बीच टंगल ढुलुआ के पेम्हा बनल विरह व्यथा !) (मपध॰02:7:24:2.12)
35 ओहीं (= वहीं) (हम सरधा से नत होके ओहीं पर बिच्छल कुरसी पर बइठ गेली ।) (मपध॰02:7:38:2.11)
36 कच-कुच (राह लड़िका के आँख नीयर बंद हो चुकल हल । आस-पास के गाँव दूर-दूर पर हल । इ गुने गाँव के कच-कुच भी नहिंए सुनाई पड़ऽ हल ।) (मपध॰02:7:34:1.21)
37 कदराना (= कायर होना, डरना) (उनकर वाणी में अइसन प्रेरणा बसऽ हल कि अलसाय आउर कदराय में केकरो बनवे न करऽ हल ।) (मपध॰02:7:13:1.19)
38 कधियो (= कभी-कभी) (आद पड़ऽ हे शास्त्री जी के सादगी के । कधियो रामबालक सिंह आउ कधियो अपने हम्मर डेरा लोहानीपुर, पटना आवऽ हलन । तखनी हम पटना सायंश कॉलेज के विद्यार्थी हली ।) (मपध॰02:7:14:3.23, 24)
39 कन्ने (= कने; किधर) (हमरा इ बूझ बुझले न पार लग रहल हल । का हम कहूँ, इ बुझयवे न करऽ हल । लगऽ हल कि हम इ कन्ने घनचक्कर में आके फँस गेलूँ ।; "तूँ के हऽ ? कन्ने चललऽ हऽ ?" ई हल कृष्णदेव बाबू के सवाल ।) (मपध॰02:7:34:3.2, 38:2.13)
40 कबहियो (= कभियो; कभी भी) (चुटकी आउ व्यंग तो बाते-बात पर फुटइत रहऽ हलइ । 'मगही' के फगुआ अंक में छपल उनकर कविता हम कबहियो न भूल सकऽ ही ।; ई की बोल रहलऽ हे तूँ ! तोहरा निअर जोद्धा कबहिओ हार मानेवाला हो सकऽ हे की ?) (मपध॰02:7:9:1.22, 19:3.7)
41 कल्ला (= जबड़ा, दाढ़) (जब 'मगही' के प्रकाशन रुक गेल आउ 'शोध' जलमतहीं काल के कल्ला में चल गेल त शास्त्री जी लगभग फरास हो गेलन ।) (मपध॰02:7:6:1.15)
42 कहलाम (= कहनाम) (सिरनामा पढ़ के हँस मत दीहऽ । सिरनामा ठीक हे - बर, बुढ़वा बर । बुढ़वा बर से अपने लोग उ मैथिल उदंत बर के बात मत समझ लेव जे बूढ़ा कहे पर चमक उठऽ हलन । उनकर कहलाम हल कि हमरा बिआह करना हे न कि चना चिबाना । इ गुने हम्मर दाँत देखना नजायज हे ।) (मपध॰02:7:35:1.6)
43 कान-कुतुर (~ करना) (ए वर्मा जी, एक बात हमरा से सीखऽ ! मगही भाई लोगन अउपचारिक सुआगत-सम्मान में कभिओ कान-कुतुर नञ् करतन, मुदा जब काम के बात करवऽ तऽ ढेंका कस के चुप्पी साध लेथुन ।) (मपध॰02:7:19:3.17)
44 किअउरी (= किअउटी; छोटा कीआ; सूखा सिंदूर रखने की छोटी डिबिया; लकड़ी की ढक्कनदार डिबिया) (सोचलक कि जो रकसिनियाँ जान गेल तो बड़ा तंग करत । इ गुने फिन रकसिनियाँ के मैया हीं पहुँचल । दूगो किअउरी देख के पुछलक कि इ का हउ नानी । रकसिनियाँ कहलक - बेटा, एगो में हमर परान आउ दोसरा में तोहर माय के परान हउ । खोललँ तो दुन्नु मर जायम । रख दे जल्दी सबर ! एक दिन बिजैपाल रकसिनियाँ से चुप्पे-चुप्पे किअउरी लेके चंपत भे गेल । जइसहीं किअउरी खोललक कि दुन्नु माय-बेटी बम बोल गेलन ।) (मपध॰02:7:37:3.14, 21, 22)
45 कुँहकना-चिहुँकना (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.27)
46 कुनमुनाना ("कोय मिले ला अयलथुन हे ।" - "केऽ ... !" - "अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ ।" कुनमुनाइत ठुनकैत नीन से विदाई लेके बाहर निकललूँ ! बैठकी में मिलला मगही के मीसन । जी मीसन, डॉ॰ श्रीकांत !) (मपध॰02:7:19:1.22)
47 केत्ते (= कत्ते) ('मगही' के पहिला अंक 1955 के नवंबर में प्रकाशित होल । हम्मर कहानी हल - 'असमानी रंग' । तब से केत्ते ने हम्मर कहानी 'मगही' में प्रकाशित होल । 'पित्तर के फुचकारी', 'टुरवा', 'मन के पंछी', 'सब्भे स्वाहा' ... अउ केत्ते ने ।) (मपध॰02:7:14:3.18, 20)
48 केहानी (= कहानी) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ ।) (मपध॰02:7:34:2.4)
49 कैक (= कइएक) (कैक महीना बाद 'मगध शोध संस्थान' के गठन ला नालंदा में भिक्षु जगदीश काश्यप के सभापतित्व में एगो बड़गो बैठक बुलावल गेल ।) (मपध॰02:7:12:3.1)
50 कोइरी (एगो हल राजा । ऊ एगो पेठिआ लगबावऽ हल । ओकर इ हुकुम हल कि जेकर जौन चीज साँझ तक न बिके ओकरा सरकारी खजाना से खरीद लेल जाय । एगो कोइरी के एगो रकसीनी हाँथ लगल । ओकरा बेचे ला ऊ राजा के पेठिआ में आवल ।) (मपध॰02:7:37:1.5)
51 कोप-काप (~ जंगल) (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक । छोटकी रनियाँ के गोड़ भारी हलइ । का बेचारिन ! उ कोप काप जंगल में पीपर-पाँकड़ तर बइठल रहे, पोकहा चुन-चुन खाय, गबदा-गुबदी के पानी पिये ।) (मपध॰02:7:37:1.17)
52 कौंपी (= कॉपी, प्रति) (पहिलाअंक दू हजार छापलूँ । ओकर अइसन धूम मचल कि हो रे बस ! पटना, कलकत्ता, दिल्ली के करीब सबे अखबारन में ऊ अंक के बड़ाई छपल । फिन तो मगही के जे प्रचार भेल कि लोग मगही कार्यालय में आ-आ के 'मगही' खरीदे लगलन । बड़ी मोसकिल से दस-पाँच कौंपी बचा के रखऽ हलूँ । अब तो एक्को अंक हमरा पास न बचल हे ।) (मपध॰02:7:7:2.27)
53 खाड़ा (= खड़ा) (करेजा धक् सिन कयलक । सामने देखऽ ही तो एगो जन्नी उज्जर बग-बग साड़ी पहिरले राह रोक के खाड़ा हे ।) (मपध॰02:7:34:2.7)
54 खालिस (= शुद्ध) (ऊ गीत खालिस मगही भासा में हल । छंद 'दंडक' हल । गीत में मगही, हिंदी के अप्पन सहोदर बता के, दुन्नू के हिल-मिल के रहे के उपदेस देलक हल । गीत लमहर होवहूँ पर हल बड़ लहरेदार । हम सौंसे गीत पढ़ गेली ।; गीत में भाव अपूर्व हल । मगर भासा खालिस मगही हल ।; ऊ कहलन, हमरा हीं बियाह-सादी में जे गीत गावल जा हे, सब सहरी भाषा में न रह के खालिस मगहिए में रहऽ हे ।) (मपध॰02:7:38:3.4, 16, 39:1.27)
55 खेत-पथार (बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल । गर-गोरखिया, अदमी, जन-मजूर सभ के डंटा से खदेड़ लौलक । अब तो मर-मकान बन गेल, खेत-पथार जोताय-कोड़ाय लगल । घर-गिरहस्थी के सभ समान भे गेल ।) (मपध॰02:7:37:3.5)
56 खेलड़नी (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.8)
57 खोंयछा (= खोइँछा) (पहिले सुनऽ हलूँ आउ अब सछात् देखलूँ कि मगही माय के खोंयछा में अनेक अनमोल रतन के खान पड़ल हे ।) (मपध॰02:7:4:1.13)
58 खोरठगर (हमरा जानकारी में खोरठगर से खोरठगर जेतना धातु के कुंदन बनावे के काम डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री कयलन, ओतना आज तक कोय मइया के लाल नञ् कर सकल हे, नञ् करत ।) (मपध॰02:7:6:1.32)
59 खोसी (= खुशी) (मगही में बातचीत करऽ हऽ । सुनऽ ही ही हस्तलिखित पत्रिका निकालऽ हऽ । ओकरा में हिंदी आउ मगहियो के रचना रहऽ हे । ई बड़ी खोसी के बात हे ।) (मपध॰02:7:14:2.14)
60 गबदा-गुबदी (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक । छोटकी रनियाँ के गोड़ भारी हलइ । का बेचारिन ! उ कोप काप जंगल में पीपर-पाँकड़ तर बइठल रहे, पोकहा चुन-चुन खाय, गबदा-गुबदी के पानी पिये ।) (मपध॰02:7:37:1.19)
61 गर-गोरखिया (बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल । गर-गोरखिया, अदमी, जन-मजूर सभ के डंटा से खदेड़ लौलक । अब तो मर-मकान बन गेल, खेत-पथार जोताय-कोड़ाय लगल । घर-गिरहस्थी के सभ समान भे गेल ।) (मपध॰02:7:37:3.3)
62 गामे-गाम ('मगही पत्रिका' शुरू कयलूँ, तभियो नाया रिश्ता बनावे के लत आउ सफलता के मनकामना लेके सहरे-सहर, गामे-गाम घूमे लगलूँ । पटना जिला के नौबतपुर आउ विक्रम प्रखंड आउ औरंगाबाद जिला {सउँसे} के अपवाद मान लेल जाय, एकर अलामे पूरा मग्गह ढूँढ़ मारलूँ ।) (मपध॰02:7:4:1.7)
63 गिरही (= गृह; गाँठ, दे॰ गिरह) (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.20)
64 गुने (= कारण; ई ~ = इस कारण) (कुछ आउ मगही के अनमोल रतन हथ, जिनका पर हम कत्ते दिन से घात लगैले हूँ । बाकि, रावण वला हाल नञ् हो जाय दूर लयते-लयते, ई गुने थोड़े थाह-थाह के डेग फान रहलूँ हे ।; राह लड़िका के आँख नीयर बंद हो चुकल हल । आस-पास के गाँव दूर-दूर पर हल । इ गुने गाँव के कच-कुच भी नहिंए सुनाई पड़ऽ हल ।) (मपध॰02:7:4:1.26, 34:1.21)
65 गुरबिनी (= गुर्विणी, गाभिन, गर्भवती) (इ पेड़ आदमीए के नऽ, चिरई-चुरगुनी सभ के भी आश्रय देले हे । एगो बगुला-बगुली के जोड़ा एकरा पर बड़ी दिन ला रहल । जाड़ा के रात में गुरबीनी बगुली जब 'हाय-दुख' करे लगऽ हल तब हम्मर करेजा फटे लगऽ हल आउर हम आकुल-व्याकुल होके अप्पन कोठरी से निकल के टहले लगऽ हली ।) (मपध॰02:7:36:1.30)
66 गो (= ठो; एगो = एक ठो) (श्रीकांत शास्त्री जी के संपादकीय बड़ सटीक होवऽ हल । 'एगो मस्त मगहिया' के नाम से अंगरेजी कविता के मगही कविता रूपांतर 'मगही' में छपइत रहऽ हल ।; मगहीभाषा के विकास ला ऊ हरसट्ठे सोंचइत रहऽ हलन । मगहियन सब के एकठामा जमा करे के एगो योजना बनयलन । सबसे सहयोग लेलन । एकंगरसराय में एगो बृहत् मगही सम्मेलन के आयोजन कइलन ।) (मपध॰02:7:15:1.27, 2.1, 2)
67 घनचक्कर (हमरा इ बूझ बुझले न पार लग रहल हल । का हम कहूँ, इ बुझयवे न करऽ हल । लगऽ हल कि हम इ कन्ने घनचक्कर में आके फँस गेलूँ ।) (मपध॰02:7:34:3.2)
68 घर-गिरहस्थी (बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल । गर-गोरखिया, अदमी, जन-मजूर सभ के डंटा से खदेड़ लौलक । अब तो मर-मकान बन गेल, खेत-पथार जोताय-कोड़ाय लगल । घर-गिरहस्थी के सभ समान भे गेल ।) (मपध॰02:7:37:3.6)
69 घुरमना (= घुमना) (हम्मर दिमाग में रात-दिन ई घुरमइत रहऽ हे कि का हम पापिन ही ? हम्मर पाप के केउ निगरह न हे ?) (मपध॰02:7:34:2.25)
70 चकचकाना (हालाँकि कृष्ण आउ राधा के प्रेमगाथा ला एकर हिरदा में सहज रुझान हे बाकि ब्रजलोक संस्कृति के साथे-साथ मगधलोक संस्कृति के खासियत के भी अपन चकचकावित भाषा में संजोगे के जतन कयलन हे ।) (मपध॰02:7:10:2.15)
71 चन्नन (= चन्दन) (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:7:1.9)
72 चमरखानी ("अप्पन रचना कविता-कहानी सम्मेलन में अइहऽ त लेले अइहऽ । 'मगही' पत्रिका भी इँकस रहल हे, एकरा ला भी रचना भेजिहऽ ।" कहके ऊ धोती-कुरता ओला सज्जन {डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री} चमरखानी चप्पल घसीटते चल गेला । बाकि हमन्हीं पर एक छाप देके ।) (मपध॰02:7:20:3.7)
73 चाननी (चाँद अप्पन मड़ई में साँझ से उदास बइठल हल । चाननी भी धुमइल साड़ी पहिनले गुमसुम कुछ सोंच-विचार रहल हल । चाँद रह रह के तमाखू पीके ओकर धुँआ धरती दने फेंक दे हल जेकरा से तरवन के पतवन सभ खड़खड़ा उठऽ हल ।) (मपध॰02:7:34:1.2)
74 चिन्हा (= चिह्न) (एतना क्लिष्ट कल्पना होवे पर भी इनकर भाव के दरसावे में कहीं बनावटीपन, असुभावीपन इया बाहरी आडंबर आदि के लेस मातर भी चिन्हा न बुझाय ।) (मपध॰02:7:10:2.12)
75 चिरई-चुरगुनी (इ पेड़ आदमीए के नऽ, चिरई-चुरगुनी सभ के भी आश्रय देले हे ।) (मपध॰02:7:36:1.27)
76 चिहुँकल-चिकुरल (भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । किसान होवे या ऋषि सब्भे एहिजा प्रकृति के बीच रसल-बसल चाहऽ हे । ऊ लोग के चिहुँकल-चिकुरल, ठिठुरल-बिठुरल, अनसायल-मनसायल सब्भे में प्रकृति के एगो लमहर आउ मनहर भूमिका होवऽ हे ।) (मपध॰02:7:23:1.5)
77 छहँकी ('बिहान' के चउथा अंक में छपल उनकर 'पहिला सपनमा' आउ 'मुक्ति दिवस' सिरनामी गीतन में भी हम इनकर अटूट राष्ट्र-प्रेम के छहँकी पावऽ ही ।) (मपध॰02:7:11:1.9)
78 छुट्टी-छपाटी (आझकल हम खाली ओकील रह गेली हे, ए गुने जो कउनो छुट्टी-छपाटी के दिन आवऽ तब हम सब चीज तोहरा देखइयो । बाद में जइसन तोहर मन अइतो ओइसने करिहऽ ।) (मपध॰02:7:39:1.10)
79 जँतपिसनी (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.8)
80 जन्ने-तन्ने (ऊ घड़ी हमहुँ अखबारी संपादक हली । जन्ने-तन्ने सक्रिय रहे से थोड़े तेजी से पहचान बन रहल हल ।) (मपध॰02:7:5:1.4)
81 जर-जलपान (उठलन सभ बरतुहार / काहे-काहे ठहरल जाए समय हे तो भोजन के / बन रहल हे जर जलपान आउ रसोई भी / सर सरबत तो घोरा भी चुकल हे ।) (मपध॰02:7:33:1.28)
82 जर-जेवार (बाबा हलन शेरे-बब्बर जर में जेवार में / दुनियाँ जहान में / ओहि बनलन सियार / अप्पन मान में ।) (मपध॰02:7:33:2.21)
83 जलमना (= जन्म लेना, पैदा होना) (फिन बोललन हल - जलमला होत तो बुतरू होल हे ! बुतरू होल हे ! - मगहिए के अमरित नियर वाणी तोर कान में पहिले गेलो होत । ... अपन बोली बोले में लजा हऽ काहे ?) (मपध॰02:7:14:2.19)
84 जात-पात (दुनियाँ के भगमान दू आँख देलन हे बाकि अमदी दू नीयर काहे देखऽ हे । जात-पात, धरम-करम के पचड़ा उपरी हे के भितरी, ई भगमान के बनावल हे कि अमदी के ?) (मपध॰02:7:34:2.29)
85 जानल-पहचानल (पंडित जी के तुरतम्मे टीसन जाय के हल । ऊ ओन्ने गेलन आउ हम कृष्णदेव बाबू दन्ने । एगो हमर जानल-पहचानल छात्र उनखर मकान के पता बता देलक ।) (मपध॰02:7:38:1.28)
86 जीवनदानी (उठ गेला तो लगे हे मगही के जीवनदानी चल गेला । मगही माता के गोदी आज सूना-सूना लगऽ हे ।) (मपध॰02:7:13:3.34)
87 जेत्ते (= जितना; जहाँ भी) (एत्ते ... जेत्ते) (हम ने तो निराला से मिल रहली हल आउ न बर्नाड शॉ से । तइयो हमरा एगो मगही-सेवी मगही कवि से मिल के एत्ते आत्म-संतोख होल जेत्ते कउनो यथार्थ सरस्वती-पुत्र से मिलके कउनो साहित्यिक जीव के हो सकऽ हे ।) (मपध॰02:7:39:1.33)
88 जेवार (सो घर चेलई, दू सो घर जजमनका हे / टोला परोस आउ जेवार में पूछ हे / हर घर जलम आउ जतरा बताना हे / सराध आउ बिआह मरनी जिनी कराना हे ।; इ गुने के लेवे जाय इ पाप । फल इ भेल कि जब कि जेवार के सभे तार-खजूर धूर-जानवर के खिला देल गेल उहाँ इ पेड़ के कोई एगो पत्तो न छूलक ।) (मपध॰02:7:33:1.8, 35:2.13)
89 जोतना-कोड़ना (बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल । गर-गोरखिया, अदमी, जन-मजूर सभ के डंटा से खदेड़ लौलक । अब तो मर-मकान बन गेल, खेत-पथार जोताय-कोड़ाय लगल । घर-गिरहस्थी के सभ समान भे गेल ।) (मपध॰02:7:37:3.6)
90 जोतिसी (= ज्योतिषी) (घाघ-भड्डरी तो प्रकृति के तेवर परख-परख के बड़हन जोतिसी नियन भविस्सबानी करलका हे, बलुक सगुन-विचार में जोतिसी लोगन के भी कान काट लेलका हे ।) (मपध॰02:7:23:1.11, 12)
91 झमठगर ('डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री अंक' जेकर जरूरत हम महसूस कर रहलि हल, निकाले के सूचना जब 'मगही पत्रिका' में छापली त दु-चार गो झमठगर मगही के विदमान पूछ बैठलन हमरा से - "श्रीकांत शास्त्री आपके रिश्तेदार थे क्या ?") (मपध॰02:7:5:1.23)
92 टटका (हम अपन टटका गीत उठा के हाँथ में धर देली - 'कहमा पिया केर गाँव हे ।' पढ़ के खुश हो गेलन । रात कवि सम्मेलन में हम पहले-पहल मगही गीत सुनउली, जे 'मगही' के अधिवेशन अंक में छपल, हलाँकि छापे ला ऊ गीत हम उनका नञ् देली हल ।) (मपध॰02:7:17:1.19)
93 टिटिहिआँ (= टिटहीं; टिटहरा, टिट्टिभ) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ ।) (मपध॰02:7:34:1.34)
94 टीकी (= टीक, चोटी, शिखा) (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:7:1.9)
95 टुक-टुक (~ देखना) (केतना उठा-पटक, उलट-पुलट आउ उठान-गिरान देखलक हे ई ? हमरे लंगटे बुलइते से लेके आज्झ डाकदर साहेब के पदवी ला देख चुकल हे इ । आउर ओहु दिन इ टुक-टुक देखइत रहत जउन दिन हम्मर अंतिम सवारी 'राम-राम सत्त हे' कहइत उठ खाड़ा होत ।) (मपध॰02:7:36:3.9)
96 टूटन (प्रो॰ वर्मा के संस्मरण में उनकर टूटन के झलक साफ मिलऽ हे ।) (मपध॰02:7:6:1.19)
97 टेढ़की (= टेंढ़की; एक प्रकार की पालकी जिसमें टेढ़ा बाँस लगाया जाता है) (लड़की के भाई हाथ में तरवार लेले, पीअर धोती पहिनले, काजर कयले आवऽ हे आउर बर के पत्ता काटऽ हे । बाद लड़की के लोग घर ले जा हथ । इ नेग में हमरा बियाह-जुद्ध के असर बुझा हे । जुग बीत गेल बाकि नाटक चालू हे । बियाह के बल्लम, बरछा, सिंगा, तुरहा, टेढ़की, झंडा, पताका बतावऽ हे, बराती लड़ाई के जमाइत हे, आउर आज्झो लोग पराचीन जुग के लड़ाई के बियाह के दिरिस उपस्थित कर दे हथ ।) (मपध॰02:7:35:2.23)
98 टोला-परोस (सो घर चेलई, दू सो घर जजमनका हे / टोला परोस आउ जेवार में पूछ हे / हर घर जलम आउ जतरा बताना हे / सराध आउ बिआह मरनी जिनी कराना हे ।) (मपध॰02:7:33:1.8)
99 ठड़ी (= खड़ी; खड़ा) (1956 के ऊ दिन हम ससुरारे में हली जब कि हरिश्चन्दर जी सुबजे-सुबह भाग के केबाड़ी थपथपा के पुकारलका - "रवींदर ! रवींदर !" खिड़की से झाँक के देखली त हरिश्चन्दर जी एगो हमन्हीं से बड़ उमिर के जुबक के साथ बहिरसी ठड़ी हथ ।) (मपध॰02:7:20:1.33)
100 ठामा (= जगह) (मगहीभाषा के विकास ला ऊ हरसट्ठे सोंचइत रहऽ हलन । मगहियन सब के एक ठामा जमा करे के एगो योजना बनयलन । सबसे सहयोग लेलन । एकंगरसराय में एगो बृहत् मगही सम्मेलन के आयोजन कइलन ।) (मपध॰02:7:15:1.37)
101 ठिठुरल-बिठुरल (भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । किसान होवे या ऋषि सब्भे एहिजा प्रकृति के बीच रसल-बसल चाहऽ हे । ऊ लोग के चिहुँकल-चिकुरल, ठिठुरल-बिठुरल, अनसायल-मनसायल सब्भे में प्रकृति के एगो लमहर आउ मनहर भूमिका होवऽ हे ।) (मपध॰02:7:23:1.5)
102 ठो (= ठो) (फिन नालंदा के कइ ठो भिक्षु सबसे मिलली हल । कुछ भिक्षु अप्पन लेख के अंगरेजी में डिक्टेशन देलन हल । रामबालक सिंह आशुलिपि में डिक्टेशन लेलन हल । फिन ऊ सब लेख के मगही रूपांतर कइल गेल हल । 'मगही' में ऊ सब लेख छापल गेल हल ।; 'मगही' के मगही सम्मेलन विशेषांक निकसल । पहिला पेज में भिक्षु जगदीश काश्यप के भरपेजी फोटो छपल हल । ओक्कर बाद कइ ठो पेज में मगही सम्मेलन उत्सव के फोटो हल ।) (मपध॰02:7:15:1.19, 3.5)
103 डउँची (= डउँघी) (जब गगन-कदंब के डउँची पर लगल पवन-हिंडोला पर बदरी कजरी गावे लगऽ हे तो सावन के पावस सोहावन रात उकसऽ हे । भादो के भदइ रात उकसऽ हे ।) (मपध॰02:7:24:1.2)
104 डाँड़ (लोग के बिसवास हे कि एकर एक डाँड़ काटे पर सौंसे इनारा अररा के गिर पड़ सकऽ हे । दुन्नूँ में बड़ी परेम हे । कुइयाँ, पेड़ के दुक्ख न सह सके आउर पेड़, कुइयाँ के दुक्ख के सहे ला न तइयार हे ।) (मपध॰02:7:35:2.7)
105 ढुर-ढुर (~ लोर) (इनका हम मगही के राष्ट्रीय कवि कह सकऽ ही । इनकर गीतन में हम देस के दुरदसा पर इनका ढुर-ढुर लोर बहावइत न देखी आउ न मधुर सुर में खाली अतीत के गाथे सुनावइत पावऽ ही ।) (मपध॰02:7:10:1.6)
106 ढेंका (ए वर्मा जी, एक बात हमरा से सीखऽ ! मगही भाई लोगन अउपचारिक सुआगत-सम्मान में कभिओ कान-कुतुर नञ् करतन, मुदा जब काम के बात करवऽ तऽ ढेंका कस के चुप्पी साध लेथुन ।) (मपध॰02:7:19:3.19)
107 तइयो (= तो भी, तथापि) (ऊ एगो कौपी बढ़ावइत कहलन, 'भिन्नरुचिर्हि लोकः' । एही गुने हम्मर गीत तोरा पसिन पड़तो कि न, हम न जानऽ ही । तइयो ले लऽ आउ देख लऽ, हिंदी आउ मगही लगी हम्मर की विचार हे ।) (मपध॰02:7:38:3.1)
108 तखनी (= उस क्षण; उस समय) (खुला अधिवेशन में आचार्य बदरीनाथ वर्मा के लमहर भाषण होल हल । तखनी ऊ बिहार सरकार के शिक्षा मंत्री हलन ।) (मपध॰02:7:15:2.21)
109 तनिक्के (= थोड़े ही, कुछ ही) (ऊ चुपचाप उठलन आउ तनिक्के देर में कइ ठो ड्राइंग कौपी ले अइलन । सायत उप्पर लिखल हल - मगही गीत ।) (मपध॰02:7:38:2.26)
110 तरी (= तरह) (जवाहरलाल त्रिपिटक के नागरी में छपावे के काम में लगा देलन हे । फुरसत न हे । संपादक छपल-छपल अंक देखे, ई ठीक न हे । डॉ॰ शास्त्री निम्मन तरी से संपादन कर सकऽ हथ ।) (मपध॰02:7:16:1.31)
111 तिकड़ी (1955 में जब 'मगही' छपे ल शुरू होल, ऊ समय शास्त्री जी के साथ ठाकुर रामबालक सिंह के अलामे नउजवान के एगो तिकड़ी हल । ऊ तिकड़ी के दू हस्ताक्षर से अपने के खूब परचे हे । ऊ हथ - मगही के सेसर कहानीकार श्री रवींद्र कुमार आउ मगही के सेसर गीतकार डॉ॰ हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी ।) (मपध॰02:7:6:1.10)
112 तिनफक्का (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:7:1.8)
113 थाहना (कुछ आउ मगही के अनमोल रतन हथ, जिनका पर हम कत्ते दिन से घात लगैले हूँ । बाकि, रावण वला हाल नञ् हो जाय दूर लयते-लयते, ई गुने थोड़े थाह-थाह के डेग फान रहलूँ हे ।) (मपध॰02:7:4:1.27)
114 थेथर (= जिस पर समझाने-बुझाने या ताड़ने का कोई असर न हो) (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.20)
115 दमाद (= दामाद) (खैर, लोग जिनका परिवार कहऽ हे, उनको पर चरचा जरूरी हे । सबसे पहिले खोजते-ढुँढ़ते श्री विष्णुकांत शर्मा जी के पास गेली, जे जहानाबाद में ऊटा में रहऽ हथ, आउ उनकर बड़का दमाद हथ ।) (मपध॰02:7:5:1.29)
116 दाहड़ (= दहाड़) (दरजन भर लेखक के हमरा दाहड़ के पानी नियन रोके पड़ल, काहे कि दूर-दूर तक उनका शास्त्री जी से कोय लेना-देना नञ् हल । उनकर उछाह फेर करगियाम । ई भरोसा दे रहली हे ।) (मपध॰02:7:6:1.21)
117 दिया (= से होकर, के रास्ते; के बारे में) (केतारी के खेत दिया रस्ता लग चुकल हल । खेत तुरते पटावल-कोड़ल गेल हल । उ हावा में अप्पन सोंधई रह-रह के बगेर रहल हल ।) (मपध॰02:7:34:1.24)
118 दिरिस (= दृश्य) (लड़की के भाई हाथ में तरवार लेले, पीअर धोती पहिनले, काजर कयले आवऽ हे आउर बर के पत्ता काटऽ हे । बाद लड़की के लोग घर ले जा हथ । इ नेग में हमरा बियाह-जुद्ध के असर बुझा हे । जुग बीत गेल बाकि नाटक चालू हे । बियाह के बल्लम, बरछा, सिंगा, तुरहा, टेढ़की, झंडा, पताका बतावऽ हे, बराती लड़ाई के जमाइत हे, आउर आज्झो लोग पराचीन जुग के लड़ाई के बियाह के दिरिस उपस्थित कर दे हथ ।) (मपध॰02:7:35:2.26)
119 दुब्बर-पातर (= दुबला-पतला) (अप्पन दुब्बर-पातर देह से जउन दू गो मोट-घोट के अकबार सकलूँ, ऊ हथ - मगही के जानल-मानल गायक आउ उन्नायक श्री दीनबंधु आउ मगही के धुनी साहित्तकार डॉ॰ भरत सिंह ।; ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:4:1.23, 7:1.11)
120 दूरा (हम जाके उनका हरिश्चन्दर जी के संवाद सुनइली त ऊ तुरंते जल्दी-जल्दी कुल्ला-गरारा करके बाहर अयलन । हमहूँ बाहर इँकसली । डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री से प्रणाम-पाती होल । उनका से दूरा पर बिछल चौंकी पर बैठे ला रवींद्र जी अनुरोध कैलका ।) (मपध॰02:7:20:2.13)
121 दोगना (= दुगुना) (पंडित जी के संपादन में मगही के दिन दोगना आउ रात चौगना रूप निखरइत रहल ।) (मपध॰02:7:7:2.30)
122 दोसर (= दूसरा) (मगही लेखन-आंदोलन से हमरा जोड़े के कोरसिस शास्त्री जी लगातार करइत रहलन । एकंगरसराय उत्सव के हमर बड़गर उपलब्धि हल महोदय राम नरेश पाठक से परिचय । उनकर आग्रह भी हमरा मगही दने खींचे लगल । ऊ दुनों के सलाह होल कि बिहारशरीफ में दोसर मगही महासम्मेलन हमरा बोलाना चाही । मगध संघ के चौदहवाँ अधिवेशन पर 5 अप्रैल 1964 के दिन दोसर मगही महासम्मेलन संपन्न होल ।) (मपध॰02:7:17:1.36)
123 दोसरका (= दूसरा) (दोसरका रचना 'तोरा हम नञ् भुलइबो हे' के डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री के पास भेज देली जे 'मगही', वर्ष-1, अंक-11 के सितंबर 1956 में छपल ।) (मपध॰02:7:20:3.21)
124 धनरोपनी (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.8)
125 धरखा (= ताखा) (उ ओकरा से नानी नाती के नाता जोड़लक । कुछ दिन रहे के बाद रकसिनियाँ से बिजैपाल पुछलक कि अँय नानी, धरखाबा पर छो गो आँख केकर रक्खल हइ ? नानी कहलक कि इ छोवो आँख राजा के रानी के हउ । तोहर महतारी हिआँ पेठा देलकउ हे ।) (मपध॰02:7:37:2.8)
126 धुँधुआना (नञ् श्रीकांत जी, मीसन हवा में घुल-मिल गेलो । ई चिनगारी कभी न कभी धुँधुऐतो । आउर, उ दिन दूर नञ् हो । तोहर समरपन व्यर्थ नञ् हे, ई विसवास हे ।) (मपध॰02:7:40:2.3)
127 धुधुआना-धधाना (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.28)
128 धूर-जानवर (इ गुने के लेवे जाय इ पाप । फल इ भेल कि जब कि जेवार के सभे तार-खजूर धूर-जानवर के खिला देल गेल उहाँ इ पेड़ के कोई एगो पत्तो न छूलक ।) (मपध॰02:7:35:2.13)
129 धोबिनियाँ (= धोबिन) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ ।) (मपध॰02:7:34:1.35)
130 नजायज (= नाजायज) (सिरनामा पढ़ के हँस मत दीहऽ । सिरनामा ठीक हे - बर, बुढ़वा बर । बुढ़वा बर से अपने लोग उ मैथिल उदंत बर के बात मत समझ लेव जे बूढ़ा कहे पर चमक उठऽ हलन । उनकर कहलाम हल कि हमरा बिआह करना हे न कि चना चिबाना । इ गुने हम्मर दाँत देखना नजायज हे ।) (मपध॰02:7:35:1.8)
131 नटनागर (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.8)
132 नहस (= अपशकुन; नाश; नष्ट) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ ।) (मपध॰02:7:34:2.1)
133 नहिरा (= नइहर, मायका) (एक दिन अपन महतारी से आंधर होवे के जब केहानी सुनलक तो राजा के रकसिनियाँ हीं पहुँचल आउ ओकरा से कहलक कि हम अब हींअईं रहबउ । रकसिनियाँ डर गेल । उ कहलक कि हमर नहिरा से हमर माय के हाल चाल ले आव तब रहिहें ।) (मपध॰02:7:37:1.19)
134 निकसना (= निकलना) ('मगही' के मगही सम्मेलन विशेषांक निकसल । पहिला पेज में भिक्षु जगदीश काश्यप के भरपेजी फोटो छपल हल । ओक्कर बाद कइ ठो पेज में मगही सम्मेलन उत्सव के फोटो हल ।) (मपध॰02:7:15:3.2)
135 निकासना (= निकालना) (मगही में बातचीत करऽ हऽ । सुनऽ ही ही हस्तलिखित पत्रिका निकालऽ हऽ । ओकरा में हिंदी आउ मगहियो के रचना रहऽ हे । ई बड़ी खोसी के बात हे । ... अब हमनी पटना से एगो मगही पत्रिका निकासे जा रहली हे । तोहनी के सहयोग जरूरी हे ।) (मपध॰02:7:14:2.16)
136 निच्चे (= नीचे) (ओकर बाद देखऽ ही एगो भरपेजी फोटो हमरो छपल हे । फोटो के निच्चे छप्पल हे मगही रथ के सारथी - श्री रवींद्र कुमार । अप्पन फोटो देख के मन पुलकित हो गेल । आँख से लोर चूए लगल । सोंचे लगली - हम का एत्ते कयली हे जे हमरा एतना प्रतिष्ठा देल गेल ।) (मपध॰02:7:15:3.8)
137 नितराना (= इतराना, इठलाना) (संस्थान गठित हो गेल तो अइसन नितरैलन जैसे कि उनका दौलत मिल गेल ।) (मपध॰02:7:12:3.19)
138 नीयर (= नियर, नियन; सदृश) (राह लड़िका के आँख नीयर बंद हो चुकल हल । आस-पास के गाँव दूर-दूर पर हल । इ गुने गाँव के कच-कुच भी नहिंए सुनाई पड़ऽ हल ।; हम भूत न ही, हम भी धरतीए के जीव ही मीरा । हमर परान बेअग्गर हे मीरा, अपनहीं नीयर लोग से कुछ कह सुनाके, अप्पन दिल-दिमाग के ठंढा करे ला ।) (मपध॰02:7:34:1.19, 2.22)
139 नेछावर (ई सब एतना जे लिख रहलूँ हे, ई सभ काम पंडित जी के हाँथ से होवऽ हल । तन, मन, धन, सब कुछ पंडित जी मगही आंदोलन ला नेछावर कइले हलन ।) (मपध॰02:7:8:1.34)
140 नेहाना (= अ॰क्रि॰ नहाना; स॰क्रि॰ नहलाना) (लगल कि ओकरा हिरदा से लगा लेऊँ आउ अप्पन वात्सल्य प्रेम से नेहा देऊँ । बाकि हमरा गीला देख के ऊ चुप हो गेल हल ।) (मपध॰02:7:34:3.25)
141 नो (= नौ) (नो बजे दिन में जगली त रवींद्र जी के दुनहूँ रचना सुनइली । 'किन-किन बोलइ कंगनवाँ' त उनका एतना भा गेल कि ऊ ठान लेलका कि ओकरा ऊ सम्मेलन में जरूरे सुनइतन ।) (मपध॰02:7:20:3.13)
142 पछियारी (काव्यभासा के ख्याल से एहमें मगही के प्रयोगधर्मिता एकदेसीय होके उभरल हे । एहमें नालंदा के पछियारी भाग के भासा-प्रयोग कैल गेल हे ।) (मपध॰02:7:26:2.19)
143 पटावल-कोड़ल (केतारी के खेत दिया रस्ता लग चुकल हल । खेत तुरते पटावल-कोड़ल गेल हल । उ हावा में अप्पन सोंधई रह-रह के बगेर रहल हल ।) (मपध॰02:7:34:1.25)
144 परनाम-पाती ("कोय मिले ला अयलथुन हे ।" - "केऽ ... !" - "अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ ।" कुनमुनाइत ठुनकैत नीन से विदाई लेके बाहर निकललूँ ! बैठकी में मिलला मगही के मीसन । जी मीसन, डॉ॰ श्रीकांत ! गोर देह, मुदा समय के मार से छत-बिछत सरीर पर लेपल झाईं, कारिख, जहाँ-तहाँ झुर्री से झाँकइत हतासा के टेढ़-मेढ़ लकीर ! परनाम-पाती भेल । आउर हम भौंचक्के देख रहलुँ हे । बार-बार, अनेक बार निहार रहलुँ हे । ई उहे श्रीकांत जी हथ, जिनका से पहिलुक मिलन मगही-हिंदी के प्रसिद्ध साहित्तकार श्री हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी के घर होल हल ।) (मपध॰02:7:19:1.29)
145 परेख (= परख) (पहिले सुनऽ हलूँ आउ अब सछात् देखलूँ कि मगही माय के खोंयछा में अनेक अनमोल रतन के खान पड़ल हे । हम कउनो जौहरी तो ही नञ्, जे सब रतन के परेख सकूँ । मोटबुधिया के जे पाँच गो रतन असानी से परेख में आल, हँथिया लेलूँ ।) (मपध॰02:7:4:1.14, 15)
146 परोगराम (= प्रोग्राम) (लगल कि एतना दिन तक ऊ मगही आउर शोधे पर सोचते रहलन हल आउर कुछ पर न । लेकिन, परोगराम एतना बोझिल हल कि हमनी सबके ऊ व्यवहारिक न लगल । तब शास्त्री जी ऊ परोगराम के एक गुटका संस्करण भी आगे बढ़ौलन ।) (मपध॰02:7:12:3.31, 13:1.1)
147 पसिन (= पसन्द) (ऊ एगो कौपी बढ़ावइत कहलन, 'भिन्नरुचिर्हि लोकः' । एही गुने हम्मर गीत तोरा पसिन पड़तो कि न, हम न जानऽ ही । तइयो ले लऽ आउ देख लऽ, हिंदी आउ मगही लगी हम्मर की विचार हे ।) (मपध॰02:7:38:2.31)
148 पहिरना (= पेन्हना; पहनना) (करेजा धक् सिन कयलक । सामने देखऽ ही तो एगो जन्नी उज्जर बग-बग साड़ी पहिरले राह रोक के खाड़ा हे ।) (मपध॰02:7:34:2.7)
149 पीपर-पाँकड़ (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक । छोटकी रनियाँ के गोड़ भारी हलइ । का बेचारिन ! उ कोप काप जंगल में पीपर-पाँकड़ तर बइठल रहे, पोकहा चुन-चुन खाय, गबदा-गुबदी के पानी पिये ।) (मपध॰02:7:37:1.18)
150 पीपर-बर (... एगो बिरहिन के बिंब उकेरल गेल हे । घर के पीपर-बर आउ ओकरा पर भगजोगिनी द्वारा सजावल देवाली के हुलास, फिनो ओहिजे गुरबिनी बगुलिया के कुँहकन में संयोग-वियोग के कबड्डी आउ ओनहनी के बीच टंगल ढुलुआ के पेम्हा बनल विरह व्यथा !) (मपध॰02:7:24:2.11)
151 पेठाना (= भेजवाना) (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक ।; उ ओकरा से नानी नाती के नाता जोड़लक । कुछ दिन रहे के बाद रकसिनियाँ से बिजैपाल पुछलक कि अँय नानी, धरखाबा पर छो गो आँख केकर रक्खल हइ ? नानी कहलक कि इ छोवो आँख राजा के रानी के हउ । तोहर महतारी हिआँ पेठा देलकउ हे ।) (मपध॰02:7:37:1.15, 2.11)
152 पेठिआ (= छोटा हाट, सप्ताह के निश्चित दिन या दिनों को लगनेवाला पसरहट्टा, गुदरी बाजार) (एगो हल राजा । ऊ एगो पेठिआ लगबावऽ हल । ओकर इ हुकुम हल कि जेकर जौन चीज साँझ तक न बिके ओकरा सरकारी खजाना से खरीद लेल जाय । एगो कोइरी के एगो रकसीनी हाँथ लगल । ओकरा बेचे ला ऊ राजा के पेठिआ में आवल ।) (मपध॰02:7:37:1.1, 7)
153 पेम्हा (... एगो बिरहिन के बिंब उकेरल गेल हे । घर के पीपर-बर आउ ओकरा पर भगजोगिनी द्वारा सजावल देवाली के हुलास, फिनो ओहिजे गुरबिनी बगुलिया के कुँहकन में संयोग-वियोग के कबड्डी आउ ओनहनी के बीच टंगल ढुलुआ के पेम्हा बनल विरह व्यथा !) (मपध॰02:7:24:2.14)
154 पोकहा (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक । छोटकी रनियाँ के गोड़ भारी हलइ । का बेचारिन ! उ कोप काप जंगल में पीपर-पाँकड़ तर बइठल रहे, पोकहा चुन-चुन खाय, गबदा-गुबदी के पानी पिये ।) (मपध॰02:7:37:1.18)
155 प्रणाम-पाती (हम जाके उनका हरिश्चन्दर जी के संवाद सुनइली त ऊ तुरंते जल्दी-जल्दी कुल्ला-गरारा करके बाहर अयलन । हमहूँ बाहर इँकसली । डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री से प्रणाम-पाती होल । उनका से दूरा पर बिछल चौंकी पर बैठे ला रवींद्र जी अनुरोध कैलका ।) (मपध॰02:7:20:2.12)
156 फटल-चिटल (विचार आउर रहन-सहन आउर पहनावा में बहुत सादा हलन । कभी-कभी कपड़ा फटल-चिटल आउर मइल भी पहिनले उनका देखलूँ हल ।) (मपध॰02:7:13:3.22)
157 फटिहर (फटा-चिटा) (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:7:1.11)
158 फरकाना (= फरक करना; अलग करना) (ई अधिवेशन के अवसर पर जब हम एकंगरसराय पहुँचली तो मित्र मंडली से हमरा फरका के शास्त्री जी मिठाई के दोकान में ले गेलन । नास्ता-पानी करा के पुछलन - काम हो गेलई ?) (मपध॰02:7:17:1.15)
159 फरास (जब 'मगही' के प्रकाशन रुक गेल आउ 'शोध' जलमतहीं काल के कल्ला में चल गेल त शास्त्री जी लगभग फरास हो गेलन ।) (मपध॰02:7:6:1.15)
160 फलिहँती (इनकर सबसे बड़हन खासियत ई हे कि ई नया भारत के निरमान ला तत्काली रचनात्मक विकास के बारे में सटीक उद्बोधन गान लिखलन हे । एही से इनकर कन्हइया जे बंसी वजावऽ हे, तो उ अपन कर्मजोग के फलिहँती पर हरखित होके, न कि अपन एकांत प्रेम साधना में एकदम डूब के ।) (मपध॰02:7:10:1.11)
161 फिनु (= फिन, फेन, फेनु, फेर; फिर) (मगही में बनल दू फिल्म में से एक 'मोरे मन मितवा' लगी दिसंबर 1964 में बंबई में हम मुहम्मद रफी, मुकेश, आशा भोंसले, सुमन कल्याणपुर आउ मन्ना डे से अपन मगही गीत के रेकार्डिंग करा रहली हल । फिनु जब सूर्या मैग्नेटिक्स, पटना से मगही के पहिला कैसेट जारी करैली, जेकर दसो गीत हम्मर हे त शास्त्री जी के याद करे बिन नञ् रह सकली जिनकर प्रेरणा से हम मगही में अयली हल ।; उनखा भिजुन आवे के गरज बतयली । तनी देर खातिर ऊ हमरा दन्ने गंभीर होके ताकते रहलन । फिनु छन भर लगी मौन हो गेलन ।) (मपध॰02:7:18:3.21, 38:2.20)
162 फिनो (= फिन, फेन, फेनु, फेर; फिर) (अलंकार के उपयोग में विधायक में कल्पना जउन भूमिका के सहारा लेलक हे ऊ बिरहिनी के दारुन विरह-व्यथा के एक अइसन भावलोक में ले जाहे कि पहुँचे पर ऊ फिनो भावोन्मिलन के ओहो पहलकी दशा में लौट आवऽ हे ।) (मपध॰02:7:11:2.12)
163 बंडा (~ बैल) (ओकरा पीछे कित्ता जवानी हल / आधा घर खपड़ा के आधा हल फूस के । झूमइत हल बंडा बैल एगो / बंधल हल करिया अइसन मरकुट बाछी - / जरठ खुट्टा पर ।) (मपध॰02:7:32:2.2)
164 बउआ (एगो बात आउ कहलन हल ... बउआ, तोहनी सब खेलऽ ! पढ़ऽ ! मगर बातचीत मगहिए में करऽ ! ... मगही में बतियाय के ई पहिला संदेश हल ।) (मपध॰02:7:14:1.28)
165 बउसाह (बुद्ध पूर्णिमा 1964 के दिन मगध शोध संस्थान के उद्घाटन इतिहासवेत्ता डॉ॰ के॰के॰ दत्त कइलन । ... सरकार के भाषा सर्वेक्षण के काम से आउ देश-विदेश के लोकभाषा विषयक सभे मंच से संस्थान जुड़ गेल । शास्त्री जी भर बउसाह जोर लगा के संस्थान के खड़ा कर देलन ।) (मपध॰02:7:18:1.18)
166 बकड़ी (= बकरी) (सुग्गा भरल डंटिया से रूहचुह पँकड़िया, तहहँइ रे चरवइ न मरूअन रोइ-रोइ बकड़िया । सरपत सरिया से ढपल डगरिया, जहाँ रे खेलइ मयना-मयनी लुकाचोरिया ॥) (मपध॰02:7:10:2.25)
167 बखत (ऊ बतउलन - हम एकरा में के जादेतर गीत के आझ से बीस बच्छर पहिले लिखली हल । ई सब मगही के रचइत देख के कुछ इयार-दोस सब हम्मर हँसी उड़ावऽ हलन । ... एही सिलसिला में ऊ आगे बतउलन - जउन बखत तक महात्मा गाँधी चरखा के नामो न लेलन हल, ऊ बखत हम चरखा पर मगही गीत लिखली हल ।) (मपध॰02:7:38:3.25, 27)
168 बगेरना (केतारी के खेत दिया रस्ता लग चुकल हल । खेत तुरते पटावल-कोड़ल गेल हल । उ हावा में अप्पन सोंधई रह-रह के बगेर रहल हल ।) (मपध॰02:7:34:1.26)
169 बड़ (= बड़ा, बहुत) (ऊ गीत खालिस मगही भासा में हल । छंद 'दंडक' हल । गीत में मगही, हिंदी के अप्पन सहोदर बता के, दुन्नू के हिल-मिल के रहे के उपदेस देलक हल । गीत लमहर होवहूँ पर हल बड़ लहरेदार । हम सौंसे गीत पढ़ गेली ।) (मपध॰02:7:38:3.8)
170 बड़गर (अपन बात के पुष्टि ले एगो घटना के चरचा जरूरी समझऽ ही । दिल्ली में 'वागार्थ' पत्रिका के करता-धरता एगो बड़गर कार्यक्रम कर रहलन हल, 'इंडिया इंटरनेशनल सेंटर' में । ऊ घड़ी तक 'वागार्थ' हिंदी के साहित्तिक पत्रिका में अपन सेसर स्थान बना चुकल हल ।; मगही लेखन-आंदोलन से हमरा जोड़े के कोरसिस शास्त्री जी लगातार करइत रहलन । एकंगरसराय उत्सव के हमर बड़गर उपलब्धि हल महोदय राम नरेश पाठक से परिचय । उनकर आग्रह भी हमरा मगही दने खींचे लगल । ऊ दुनों के सलाह होल कि बिहारशरीफ में दोसर मगही महासम्मेलन हमरा बोलाना चाही । मगध संघ के चौदहवाँ अधिवेशन पर 5 अप्रैल 1964 के दिन दोसर मगही महासम्मेलन संपन्न होल ।) (मपध॰02:7:5:1.1, 17:1.29)
171 बदरकट्टू (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.23)
172 बदरी (= बदली) (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।; जब गगन-कदंब के डउँची पर लगल पवन-हिंडोला पर बदरी कजरी गावे लगऽ हे तो सावन के पावस सोहावन रात उकसऽ हे । भादो के भदइ रात उकसऽ हे ।) (मपध॰02:7:23:1.25, 24:1.3)
173 बर (= बरगद; वटवृक्ष) (सिरनामा पढ़ के हँस मत दीहऽ । सिरनामा ठीक हे - बर, बुढ़वा बर । बुढ़वा बर से अपने लोग उ मैथिल उदंत बर के बात मत समझ लेव जे बूढ़ा कहे पर चमक उठऽ हलन । ... तो हम्मर बुढ़वा बर से माने मतलब उ मैथिल उदंत बर से न लगा के एगो बर के पेड़ से लगावल जाय ।) (मपध॰02:7:35:1.2, 3, 4, 9, 10)
174 बरतुहार (बरतुहार भी नहला पर दहला जमा के बाबा के भद्द कर दे हे । कवि बाबा के घरेलू औकात चित्रित कर के उनकर खबर लेलन हे ।; बाबा के औकात में उनकर खाना तक बंद हो गेल । उनखा पर बरतुहार बिगाड़े के लांछन लगल हे ।) (मपध॰02:7:26:1.4, 23)
175 बरतोर (= बलतोड़) (बुन्नी बून-बून टपके लगऽ हे तो दिल के घावो टभके लगऽ हे । फिनो दादुर जोर-जोर गरज-दरज के दिल के दरद के बात पूछ-पूछ के बेभाव मारे लगे आउ झींगुर लहरा-लहरा के पीरा के लहर के कहर बना दे तो दिल के घाव अधपाकल बरतोर नियन धीरे-धीरे सिहरन आउ सिसुकी बढ़इवे करत ।) (मपध॰02:7:23:2.5)
176 बलुक (= बल्कि) ('वर बिक्री' में कवि नैतुक-अनैतिक के सवाल न उठौलन हे बलुक बराहमन समाज के एगो विशिष्ट मनोवृत्ति के खोखलापन प्रकट कैलन हे ।) (मपध॰02:7:26:1.32)
177 बसियाना (= बासी हो जाना) (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.27)
178 बहस-मोहाबिसा (बिहारशरीफ के कुमार टॉकीज के पास के चाय के दुकान पर रवींद्र एवं पार्टी के जमावड़ा यादगार स्वरूप बन गेल हल । बहस-मोहाबिसा, कविता-वाचन, गीत-गायन के रोज-रोज सिलसिला देख के दुकानदार ऊब के बरदास करऽ हल ।) (मपध॰02:7:20:1.21)
179 बहिरसी (= बहरसी; बाहर) (1956 के ऊ दिन हम ससुरारे में हली जब कि हरिश्चन्दर जी सुबजे-सुबह भाग के केबाड़ी थपथपा के पुकारलका - "रवींदर ! रवींदर !" खिड़की से झाँक के देखली त हरिश्चन्दर जी एगो हमन्हीं से बड़ उमिर के जुबक के साथ बहिरसी ठड़ी हथ ।) (मपध॰02:7:20:1.32)
180 बान्ह (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.28)
181 बाबू (= लड़का) (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.21)
182 बिछाओन (= बिछावन) (हम्मर भुरुकवा दस बजे के बाद उगे हे ! आउर दिन के तरह ऊहो दिन भुरुकवा उगे के इंतजार में बिछाओन पर ओघड़ाल हली कि छोटकी बेटी हँकारलक, "कोय मिले ला अयलथुन हे ।" - "केऽ ... !" - "अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ ।") (मपध॰02:7:19:1.18)
183 बिदागी (= बिदाई) (नानी कहलक कि फलना जगह धान के खेत हउ । उहाँ रोज धान कटा हे आउ रोज धान रोपा हे । उ धान के माड़ से इ आँख रानी के साट देल जाय तो रानी देखे लग सकऽ हे । फेन का हल । बिजैपाल नानी हीं से बिदागी लेके धान के खेत में गेल आउ पाँच बाल लेके घर पहुँचल । चार बाल के तो कूट-काट के भात बना के माड़ गारलक आउ ओकरा से छोवो आँख तीनों महतारिन के लगा देलक आउ एक बाल बुन देलक ।) (मपध॰02:7:37:2.18)
184 बुढ़वा (= बूढ़ा) (सिरनामा पढ़ के हँस मत दीहऽ । सिरनामा ठीक हे - बर, बुढ़वा बर । बुढ़वा बर से अपने लोग उ मैथिल उदंत बर के बात मत समझ लेव जे बूढ़ा कहे पर चमक उठऽ हलन ।) (मपध॰02:7:35:1.3)
185 बुन्नी (बुन्नी बून-बून टपके लगऽ हे तो दिल के घावो टभके लगऽ हे ।) (मपध॰02:7:23:2.1)
186 बेअग्गर (= व्यग्र) (करेजा धक् सिन कयलक । सामने देखऽ ही तो एगो जन्नी उज्जर बग-बग साड़ी पहिरले राह रोक के खाड़ा हे । ... हम्मर मन में आल कि का इ भूत हे ! हम भूत न ही, हम भी धरतीए के जीव ही मीरा । हमर परान बेअग्गर हे मीरा, अपनहीं नीयर लोग से कुछ कह सुनाके, अप्पन दिल-दिमाग के ठंढा करे ला ।) (मपध॰02:7:34:2.22)
187 बेतुहार (~ खरच) ('पंडित जी' के बेतुहार खरच देख के पंडिताइन रंज रहऽ हलथिन । ऊ अप्पन अलगे कोठली में पूजा-पाठ, चउका-बरतन करऽ हलथिन ।) (मपध॰02:7:8:2.23)
188 बेलाग (एगो पत्रकार मित्र पूछ बइठल - "धनंजय, प्रभाकर श्रोत्रिय तुम्हारे रिश्तेदार हैं ?" हम बेलाग नहकार गेली । हलाँकि ऊ माहौल में चाहती हल त थोड़े जस हमहूँ अपना दने उपछ सकती हल, अपना के प्रभाकर जी के रिश्तेदार बता के ।) (मपध॰02:7:5:1.8)
189 बेलाना (= दूर करना, भगाना, हाँकना) (तूँ अप्पन रानी के आँख काढ़ के जंगल में बेला दऽ । राजा बेचारा का करे ? उ अप्पन तीनों रानी के आँख काढ़ के जंगल में पेठा देलक ।) (मपध॰02:7:37:1.14)
190 भंकुरा (समूचे कविता के निचोड़ 'वर बिक्री' में मुद्रा-दोहन के दर्शन प्रकट करे ला हे - बाबा का करथ ? / बाबा तो चाहलन हल / फसाऊँ रेहु अउ भंकुरा बड़ा / बकि इचना भी न फँस सकल / हाय हाय !) (मपध॰02:7:26:1.12, 33:2.34)
191 भरपेजी (~ फोटो) ('मगही' के मगही सम्मेलन विशेषांक निकसल । पहिला पेज में भिक्षु जगदीश काश्यप के भरपेजी फोटो छपल हल । ओक्कर बाद कइ ठो पेज में मगही सम्मेलन उत्सव के फोटो हल । ओकर बाद देखऽ ही एगो भरपेजी फोटो हमरो छपल हे ।) (मपध॰02:7:15:3.4, 7)
192 भविस्सबानी (= भविष्यवाणी) (घाघ-भड्डरी तो प्रकृति के तेवर परख-परख के बड़हन जोतिसी नियन भविस्सबानी करलका हे, बलुक सगुन-विचार में जोतिसी लोगन के भी कान काट लेलका हे ।) (मपध॰02:7:23:1.11)
193 भिजुन (= भिर, भिरू; पास) (उनखा भिजुन आवे के गरज बतयली । तनी देर खातिर ऊ हमरा दन्ने गंभीर होके ताकते रहलन । फिनु छन भर लगी मौन हो गेलन ।) (मपध॰02:7:38:2.18)
194 भुरुकवा (= भोर का तारा; शुक्र) (हम्मर भुरुकवा दस बजे के बाद उगे हे ! आउर दिन के तरह ऊहो दिन भुरुकवा उगे के इंतजार में बिछाओन पर ओघड़ाल हली कि छोटकी बेटी हँकारलक, "कोय मिले ला अयलथुन हे ।" - "केऽ ... !" - "अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ ।") (मपध॰02:7:19:1.16, 18)
195 मइल (= मैला, गंदा) (विचार आउर रहन-सहन आउर पहनावा में बहुत सादा हलन । कभी-कभी कपड़ा फटल-चिटल आउर मइल भी पहिनले उनका देखलूँ हल ।) (मपध॰02:7:13:3.22)
196 मइल-कुचइल (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।) (मपध॰02:7:7:1.11)
197 मधे (= मद्धे; बीच में) (हमर जरूरत के कोय चीज प्राप्त नञ् हो सकल हुआँ । उनका पास डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री से जुड़ल जे चीज हे, ऊ हे - 'धन मधे धन, तीन लुंडा सन ।') (मपध॰02:7:6:1.1)
198 मरनी-जिनी (सो घर चेलई, दू सो घर जजमनका हे / टोला परोस आउ जेवार में पूछ हे / हर घर जलम आउ जतरा बताना हे / सराध आउ बिआह मरनी जिनी कराना हे ।) (मपध॰02:7:33:1.10)
199 मर-मकान (बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल । गर-गोरखिया, अदमी, जन-मजूर सभ के डंटा से खदेड़ लौलक । अब तो मर-मकान बन गेल, खेत-पथार जोताय-कोड़ाय लगल । घर-गिरहस्थी के सभ समान भे गेल ।) (मपध॰02:7:37:3.5)
200 महिन्ने-महिन्ने (= हर महीना) (मगही लेखन में निखार आउ साहित्तिक विधा के पहचान उकेरेवाला पत्र बन के 'मगही' महिन्ने-महिन्ने छपे लगल ।) (मपध॰02:7:16:3.1)
201 माड़ (= माँड़) (नानी कहलक कि फलना जगह धान के खेत हउ । उहाँ रोज धान कटा हे आउ रोज धान रोपा हे । उ धान के माड़ से इ आँख रानी के साट देल जाय तो रानी देखे लग सकऽ हे । फेन का हल । बिजैपाल नानी हीं से बिदागी लेके धान के खेत में गेल आउ पाँच बाल लेके घर पहुँचल । चार बाल के तो कूट-काट के भात बना के माड़ गारलक आउ ओकरा से छोवो आँख तीनों महतारिन के लगा देलक आउ एक बाल बुन देलक ।) (मपध॰02:7:37:2.15, 20)
202 मातर (= मात्र) (एतना क्लिष्ट कल्पना होवे पर भी इनकर भाव के दरसावे में कहीं बनावटीपन, असुभावीपन इया बाहरी आडंबर आदि के लेस मातर भी चिन्हा न बुझाय ।) (मपध॰02:7:10:2.12)
203 मान (= माँद) (बाबा हलन शेरे-बब्बर जर में जेवार में / दुनियाँ जहान में / ओहि बनलन सियार / अप्पन मान में ।) (मपध॰02:7:33:2.24)
204 मिठगर (= मीठा) (दिल से इँकसल शबद कैसन मिठगर आउ अपनापन लेल होवऽ हे, ई कवि आउ कहानीकार जरूरे महसूस करे हे ।; मगही भाषा भोजपुरी भाषा के समान लठमार भाषा न हे, मिठगर भाषा हे आउ ढेर मनी शब्द मिलइत-जुलइत हे । हिंदी भाषा के बीच मगही के शब्द के प्रयोग से आकर्षण आयत ऐसन धारना बँधल ।) (मपध॰02:7:20:2.29, 22:1.16)
205 मिनती (= विनती, प्रार्थना) (हमनी उनखा निर्देशक बनके आशीर्वचन देवे ला मिनती कइली हल । मान गेलन हल । कुछ दानो-दक्षिणा देलन हल ।) (मपध॰02:7:15:1.16)
206 मीरा (करेजा धक् सिन कयलक । सामने देखऽ ही तो एगो जन्नी उज्जर बग-बग साड़ी पहिरले राह रोक के खाड़ा हे । ... हम्मर मन में आल कि का इ भूत हे ! हम भूत न ही, हम भी धरतीए के जीव ही मीरा । हमर परान बेअग्गर हे मीरा, अपनहीं नीयर लोग से कुछ कह सुनाके, अप्पन दिल-दिमाग के ठंढा करे ला ।) (मपध॰02:7:34:2.21, 22)
207 मुला (= मुदा, लेकिन) (ई काम ला हमनी 'पंडित जी' के गाँव नारायनपुर गेलूँ । हमनी समझइत हलियइ कि 'पंडित जी' तिनफक्का चन्नन लगउले, खड़ाऊँ पेन्हले, टीकी बढ़इले, कउनो बड़गो पुजारी होथिन । मुला जाही त का देखऽ ही कि खद्दर के मइल-कुचइल धोती आउ फटिहर गंजी पेन्हले एगो दुब्बर-पातर अदमी आठ-दस गो लइकन के पढ़ावइत हलथिन ।; डॉ॰ शिवनंदन प्रसाद के हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली चल गेला के बाद मंत्री के काम डॉ॰ रामनंदन सँभारे लगलथिन । मुला जभी कोय काम होवे त 'पंडित जी' के बे अइले न होवऽ हल ।; कुछ दिन तक ऊ सुभाष हाई स्कूल, इसलामपुर में शिक्षक के काम कयलथिन हल । मुला विश्वविद्यालय में तो जात-पाँत, भाई-भतीजावाद भरल हे । इनखर पांडित्य आउ गहिरा अध्ययन के केऊ कदर न कइलकइ ।; निरगुन के एतना भंडार 'पंडित जी' के पास हल कि कई मरतबे हमरा मन होल कि सेंगरन कर लेऊँ । मुला सेंगरन न हो सकल ।) (मपध॰02:7:7:1.10, 8:2.8, 33, 9:1.10)
208 मोट-घोट (अप्पन दुब्बर-पातर देह से जउन दू गो मोट-घोट के अकबार सकलूँ, ऊ हथ - मगही के जानल-मानल गायक आउ उन्नायक श्री दीनबंधु आउ मगही के धुनी साहित्तकार डॉ॰ भरत सिंह ।) (मपध॰02:7:4:1.23)
209 मोटबुधिया (पहिले सुनऽ हलूँ आउ अब सछात् देखलूँ कि मगही माय के खोंयछा में अनेक अनमोल रतन के खान पड़ल हे । हम कउनो जौहरी तो ही नञ्, जे सब रतन के परेख सकूँ । मोटबुधिया के जे पाँच गो रतन असानी से परेख में आल, हँथिया लेलूँ ।) (मपध॰02:7:4:1.15)
210 मौसिऔत (न बाबा ! दुनु श्रीकांत के बीच बड़गो अंतराल हे ! बड़गो ! - "अरे मौसिऔत, की घुर-घुर देख रहलऽ हे ।" - "हाँ, तोहरे देख रहलुँ हे । कउन हाल कर लेलऽ हे !") (मपध॰02:7:19:2.27)
211 रकसीनी (एगो कोइरी के एगो रकसीनी हाँथ लगल । ओकरा बेचे ला ऊ राजा के पेठिआ में आवल । मुला जान के मक्खी के खाओ ? रुपइया दे के रकसीनी मोल के ले ?; एक दिन अपन महतारी से आंधर होवे के जब केहानी सुनलक तो राजा के रकसिनियाँ हीं पहुँचल आउ ओकरा से कहलक कि हम अब हींअईं रहबउ । रकसिनियाँ डर गेल ।) (मपध॰02:7:37:1.5, 8, 30, 32)
212 रद्दी-सद्दी (कहे लगलन बाबा जी, आज के पढ़ाऐ सभ / रद्दी हे सद्दी हे, न केऊ काम के / इनखा तो अप्पन ढंग के पढ़ायम हम / हमरा तो इनखा के पंडित बनाना हे ।) (मपध॰02:7:33:1.4)
213 रेहु (समूचे कविता के निचोड़ 'वर बिक्री' में मुद्रा-दोहन के दर्शन प्रकट करे ला हे - बाबा का करथ ? / बाबा तो चाहलन हल / फसाऊँ रेहु अउ भंकुरा बड़ा / बकि इचना भी न फँस सकल / हाय हाय !) (मपध॰02:7:26:1.12, 33:2.34)
214 लंगटे (= नंगे) (केतना उठा-पटक, उलट-पुलट आउ उठान-गिरान देखलक हे ई ? हमरे लंगटे बुलइते से लेके आज्झ डाकदर साहेब के पदवी ला देख चुकल हे इ । आउर ओहु दिन इ टुक-टुक देखइत रहत जउन दिन हम्मर अंतिम सवारी 'राम-राम सत्त हे' कहइत उठ खाड़ा होत ।) (मपध॰02:7:36:3.6)
215 लठमार (मगही भाषा भोजपुरी भाषा के समान लठमार भाषा न हे, मिठगर भाषा हे आउ ढेर मनी शब्द मिलइत-जुलइत हे । हिंदी भाषा के बीच मगही के शब्द के प्रयोग से आकर्षण आयत ऐसन धारना बँधल ।) (मपध॰02:7:22:1.15)
216 लमहर (= लमगर; लम्बा) (खुला अधिवेशन में आचार्य बदरीनाथ वर्मा के लमहर भाषण होल हल । तखनी ऊ बिहार सरकार के शिक्षा मंत्री हलन ।; ऊ गीत खालिस मगही भासा में हल । छंद 'दंडक' हल । गीत में मगही, हिंदी के अप्पन सहोदर बता के, दुन्नू के हिल-मिल के रहे के उपदेस देलक हल । गीत लमहर होवहूँ पर हल बड़ लहरेदार । हम सौंसे गीत पढ़ गेली ।) (मपध॰02:7:15:2.20, 38:3.8)
217 लेहाज (= लिहाज; संकोच; सम्मान करने का भाव) (कैक महीना बाद 'मगध शोध संस्थान' के गठन ला नालंदा में भिक्षु जगदीश काश्यप के सभापतित्व में एगो बड़गो बैठक बुलावल गेल । ओकरा में भारत सरकार के उपमंत्री प्रो॰ सिद्धेश्वर प्रसाद, नालंदा पाली इंस्टीच्यूट के आधा दर्जन प्राध्यापक, डॉ॰ सरयू प्रसाद, प्रो॰ मौआर इत्यादि भी सरीक होलन हल । हम देखली कि सब कोय शास्त्री जी के आदर करऽ हलन । आदर न, लेहाज कहल जाय तो जादा सही होत ।) (मपध॰02:7:12:3.11)
218 लोरे-झोरे (विरहिन के लोरे-झोरे अवस्था पर व्यंग्य कसइत मधुर विनोद भरल मुसुकान के साथ बलमुआँ पूछऽ हे - रे धनियाँ ! केकर सेज पर आझ तू ओलरले कि मोतिया झर गेलउ आउ बेनियाँ बिखर गेलउ ?) (मपध॰02:7:24:1.16)
219 व्यवहारिक (= व्यावहारिक) (लगल कि एतना दिन तक ऊ मगही आउर शोधे पर सोचते रहलन हल आउर कुछ पर न । लेकिन, परोगराम एतना बोझिल हल कि हमनी सबके ऊ व्यवहारिक न लगल । तब शास्त्री जी ऊ परोगराम के एक गुटका संस्करण भी आगे बढ़ौलन ।) (मपध॰02:7:12:3.32)
220 सनवाहा ("लोग इनखा बर्हम बाबा कहऽ हे । दिन के हर-हुमाद तो जरइते देखवे करऽ होइती । ... हम्मर ई सभ कुछ हलन ! हमरा हीं ई गाय-गोरू के सनवाहा हलन !" कहके ऊ एक-ब-एक गायब हो गेल ।) (मपध॰02:7:34:3.30)
221 सबर (= दबर) (जल्दी ~) (सोचलक कि जो रकसिनियाँ जान गेल तो बड़ा तंग करत । इ गुने फिन रकसिनियाँ के मैया हीं पहुँचल । दूगो किअउरी देख के पुछलक कि इ का हउ नानी । रकसिनियाँ कहलक - बेटा, एगो में हमर परान आउ दोसरा में तोहर माय के परान हउ । खोललँ तो दुन्नु मर जायम । रख दे जल्दी सबर !) (मपध॰02:7:37:3.19)
222 सरदाना (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.26)
223 सर-सरबत (उठलन सभ बरतुहार / काहे-काहे ठहरल जाए समय हे तो भोजन के / बन रहल हे जर जलपान आउ रसोई भी / सर सरबत तो घोरा भी चुकल हे ।) (मपध॰02:7:33:1.29)
224 सले-सले (= धीरे-धीरे) (मेह बरस के छूट चुकल हल बाकि हावा सले-सले बह रहल हल ।) (मपध॰02:7:34:3.28)
225 सल्ले-सल्ले (= सले-सले; धीरे-धीरे) (कइसे घाव के टीस अइसन ई पीरा उभरऽ हे ओकर नयन में सपना बन के सल्ले-सल्ले मन परान पर छा जाहे, एकर बरनन में कवि जउन रूपक के सहारा लेलन हे, उ भाव के दरसावे में केतना मदद करऽ हे, देखते बनऽ हे ।) (मपध॰02:7:11:2.7)
226 सहेर (नानी हीं एगो डंटा देखलक । पूछे पर पता चलल कि जेकर पास इ डंटा रहत उ जेतना आदमी आउ जानवर के खदेड़ के लावे ला चाहत, ले आवत । बिजैपाल लेलक डंटा आउ उड़क देलक । अब डंटा लेके सहेर के सहेर गाय, भईंस, बैल आउ भैंसा ले आवल ।) (मपध॰02:7:37:3.2)
227 साइत (= शायद) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ ।) (मपध॰02:7:34:2.3)
228 सिन (= सन; -सा) (हम आगे बढ़े ला चाहली कि टिटिहिआँ बोलल - टिं-टिं-टिं । एकरा कुछ लोग धोबिनियाँ कहऽ हथ आउर बड़ा नहस मानऽ हथ लोग एकर बोली के । संस्कारबस हमहूँ थूक फेंकहीं जा रहली हल कि एगो आवाज आयल साइत मेहरारू के - जरा हमरो राम केहानी सुनबऽ । करेजा धक् सिन कयलक । सामने देखऽ ही तो एगो जन्नी उज्जर बग-बग साड़ी पहिरले राह रोक के खाड़ा हे ।) (मपध॰02:7:34:2.5)
229 सिमाना (= सीमा) (अजगुत लगल कि आदमी के सोंच के स्तर के सिमाना केतना सिकुड़ गेल हे ।) (मपध॰02:7:5:1.24)
230 सिरनामा (= शीर्षक) (अंगरेजी कवि टेनिसन के रचल कविता 'ए सिलवर पेनी' के मगही में जे अनुवाद 'पंडित जी' कयलथिन हल, ओकर सिरनामा हलइ 'चकमक चानी के एकनिया' ।; सिरनामा पढ़ के हँस मत दीहऽ । सिरनामा ठीक हे - बर, बुढ़वा बर । बुढ़वा बर से अपने लोग उ मैथिल उदंत बर के बात मत समझ लेव जे बूढ़ा कहे पर चमक उठऽ हलन ।) (मपध॰02:7:9:1.19, 35:1.2)
231 सिरनामी (= शीर्षक वाला) (ढोला-मारू आउ होरिल-मयना के पुरान प्रेम-प्रसंग के प्रतिज्ञा के रूप में उल्लेख कवि के जनपदीय संस्कृतिप्रियता के परिचय दे हे, जे इनकर हिरदा के आवेग के रस से भिंजा दे हे, ठीक ओइसहीं जइसे कवींद्र रवींद्र के इयाद के हरदम कंकावती आदि के व्यथा जगावऽ हे । {दे॰ 'विष्टि पड़े टापुर-टापुर' सिरनामी कविता ।}; 'बिहान' के चउथा अंक में छपल उनकर 'पहिला सपनमा' आउ 'मुक्ति दिवस' सिरनामी गीतन में भी हम इनकर अटूट राष्ट्र-प्रेम के छहँकी पावऽ ही ।) (मपध॰02:7:11:1.4, 8)
232 सिसिआना (जब बदरी उमसइत होय तो कोई निगोड़ी विरहिन धीरज कइसे रख सकऽ हे भला । सिसिआइत सरदी सरदा गेल, कुँहकइत-चिहुँकइत वसंतो बसिया गेल । धुधुआइत-धधाइत बइसक्खो बीत गेल । धीरजा के बान्ह नञ् टूटल ।) (मपध॰02:7:23:1.26)
233 सुगंधी (= सुगंध) (लगऽ हे आज्झ कोई भगत जरूर हुमाद जरौलक हे, सेर दू सेर ला । आग बुझ चुकल हल बाकि हुमाद के सुगंधी बाकी हल ।) (मपध॰02:7:34:1.33)
234 सुतरी (= सुतली; सन या पाट की रस्सी, डोरी, रस्सी) (कुछ दिन मगही के पत्र-पत्रिका आउ छोट-छोट किताब पढ़के ढेर मनी शब्द संगृहीत हो गेल - इन्नर {इंद्र}, गिरही {गृह}, थेथर, पहुँचा, इम्हक, कूँची, सुतरी, बुतरू, लइका {लड़का के अर्थ में}, बाबू {गया जिला में लड़का के खातिर प्रयुक्त}, टिकाऊ, बजार, इंजोरिया, बदरकट्टू {बदरी फटने पर}, हरसट्ठे {हमेशा}, लस {चिपकने का गुण, 'रस' का रूपांतर}, उगेन {बदली फटने के बाद - साफ दिन} वगैरह ।) (मपध॰02:7:22:1.21)
235 सेंगरन (= संग्रह) (निरगुन के एतना भंडार 'पंडित जी' के पास हल कि कई मरतबे हमरा मन होल कि सेंगरन कर लेऊँ । मुला सेंगरन न हो सकल ।) (मपध॰02:7:9:1.10, 11)
236 सोंधई (= सोन्हई) (केतारी के खेत दिया रस्ता लग चुकल हल । खेत तुरते पटावल-कोड़ल गेल हल । उ हावा में अप्पन सोंधई रह-रह के बगेर रहल हल ।) (मपध॰02:7:34:1.26)
237 सोभाव (= स्वभाव) (धेयान रहे, उनकर ई राय हमर भाय-बंधु से रिश्ता-नाता जोड़ेवाला सोभाव के बारे में हे । बाकि धूरी से रस्सी बाँटे के हमर सोभाव कउनो अझका नञ् हे ।) (मपध॰02:7:4:1.3, 4)
238 सौंसे (दे॰ सउँसे) (लोग के बिसवास हे कि एकर एक डाँड़ काटे पर सौंसे इनारा अररा के गिर पड़ सकऽ हे । दुन्नूँ में बड़ी परेम हे । कुइयाँ, पेड़ के दुक्ख न सह सके आउर पेड़, कुइयाँ के दुक्ख के सहे ला न तइयार हे ।) (मपध॰02:7:35:2.7)
239 हँथिआना (= हथिआना, हथियाना) (तीनों ऊ रतन हथ जिनका हम हँथिअइलूँ हे । ऊ हथ - मगही के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार श्री रवींद्र कुमार, मगही सात्य के वरेण्य मर्मज्ञ डॉ॰ रामनरेश मिश्र 'हंस' आउ प्रेम के साथ पुकारल जायवला श्री राजकुमार प्रेमी जी ।) (मपध॰02:7:4:1.20)
240 हपोट (पहिले सुनऽ हलूँ आउ अब सछात् देखलूँ कि मगही माय के खोंयछा में अनेक अनमोल रतन के खान पड़ल हे । हम कउनो जौहरी तो ही नञ्, जे सब रतन के परेख सकूँ । मोटबुधिया के जे पाँच गो रतन असानी से परेख में आल, हँथिया लेलूँ । तीन गो के माथा पर उठा लेलूँ आउ दू गो के हपोट में भर अकबार धर के चल पड़लूँ हे । अब तो जौहरिए बतैतन कि किनखा हम माथा पर लाद लैलूँ आउ किनखा अकबार भर के ।) (मपध॰02:7:4:1.16)
241 हमनी (= हमन्हीं; हमलोग) (निर्देशक के काम निर्देश देना भर हे, पालन करना तो हमनी के काम हे । मोहक मुसकान के साथ काश्यप जी 'मगही' ला पहला चंदा शास्त्री जी के सौंप देलन ।) (मपध॰02:7:16:2.7)
242 हमन्हीं (= हमलोग) ("अप्पन रचना कविता-कहानी सम्मेलन में अइहऽ त लेले अइहऽ । 'मगही' पत्रिका भी इँकस रहल हे, एकरा ला भी रचना भेजिहऽ ।" कहके ऊ धोती-कुरता ओला सज्जन {डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री} चमरखानी चप्पल घसीटते चल गेला । बाकि हमन्हीं पर एक छाप देके ।) (मपध॰02:7:20:3.8)
243 हरजोतवा (मगही में पावस गीत के बड़हन भंडार हे । भारतीय जीवन के चिर सहचरी हे प्रकृति । ... इहे से एजा के भगत होवे या संत, हरजोतवा किसान होय या धनरोपनी, जँतपिसनी होय या खेलड़नी, नटनागर होय या ओझा-सोखा-डाइन सब्भे गीत के सहारा ले-ले के प्रकृति के संग घुलऽ-मिलऽ हथ ।) (मपध॰02:7:23:1.7)
244 हर-हुमाद (- लोग इनखा बर्हम बाबा कहऽ हे । दिन के हर-हुमाद तो जरइते देखवे करऽ होइती । - तो का इ बर्हम बाबा के सेवकिन हे !) (मपध॰02:7:34:3.18)
245 हारल-टूटल (शास्त्री जी के अंत एगो हारल-टूटल अमदी के अंत हल । ... शास्त्री जी के अवसान 29 जुलाई 1973 के दिन होल । हमरा खबर देर से मिलल ।) (मपध॰02:7:18:1.23)
246 हुआँ (= वहाँ) (हमर जरूरत के कोय चीज प्राप्त नञ् हो सकल हुआँ । उनका पास डॉ॰ श्रीकांत शास्त्री से जुड़ल जे चीज हे, ऊ हे - 'धन मधे धन, तीन लुंडा सन ।') (मपध॰02:7:5:1.30)
247 हुमाद (= हुमाध; समिधा) (लगऽ हे आज्झ कोई भगत जरूर हुमाद जरौलक हे, सेर दू सेर ला । आग बुझ चुकल हल बाकि हुमाद के सुगंधी बाकी हल ।) (मपध॰02:7:34:1.31, 32)
No comments:
Post a Comment