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Friday, November 09, 2012

76. मगही उपन्यास "अदमी ऑ देओता" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



अदेरा॰ = "अदमी ऑ देओता" (मगही उपन्यास) - डॉ॰ रामनन्दन; प्रथम संस्करणः मई 1965;  प्रकाशकः बिहार मगही मंडल,  पटना-5; मूल्य - डेढ़ रुपइया; कुल 4 + 68 पृष्ठ । प्राप्ति-स्थानः बिहार मगही मंडल, V-34, विद्यापुरी, पटना-800 020.

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ, आउ दोसर संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

कुल शब्द-संख्या : 578

ठेठ मगही शब्द ('' से '' तक) :

अँगारना (= अंगीकार करना, मानना, स्वीकार करना, पर ध्यान देना)     ("महाराज" पुजेरी जी विरोधी भाव से बोललन, "अपने खुद्दे उनका सामने जायल जाय, आउ उनकर गोहार सुनल जाय । पूरा पुजेरी जमात के जीमन-मरन के बात हे, हिन्दू धरम के रच्छा के सवाल हे ! ऊ सब हम्मर कहल न अँगारतन । अपनऽहीं के जाहूँ के चाही ।")    (अदेरा॰15.28)
अंते (= निवास स्थान के अतिरिक्त अन्य ग्राम या स्थान)     (अदमी मांस खाय लगलन । ओहू मोहाल भेल तो कोई जट्टा छोड़ के साधु बन गेल आउ भिच्छाटन  ला अंते के राह धयलक, कोई समुन्दर किंछारे कोई गुफा में बास कयलक, तो कोई दिआरा में घर बसौलक ।)    (अदेरा॰1.8)
अकचकाना (= आश्चर्यचकित होना)     (अइसन ! - राजा अकचकयलन - तब तो जे राजा जिनगी भर अपना परजा के पालन पुत्तर अइसन कइलक सेकरा मुक्ति न लिखल हे ।)    (अदेरा॰45.25)
अकरमनई (= अकर्मण्यता)     (अगर जो एक आदमी के धरम-करम दोसर के धरम-करम से टकराय इया ओकरा से अनका पर जोर-जबरदस्ती कइल जाय इया अपन धरम के ढोंग करके राजनीति में टाँग अड़ावल जाय, समाज में अकरमनई फैलावल जाय तब तो राजशक्ति के आगे आबहीं परत !)    (अदेरा॰19.8)
अकवार (दे॰ अँकवार)     (ई बात सुन के बरम्हा जी के तो खुशी के ठेकाने न रहल । आनन्द से पागल होके विष्णु जी के अकवार में लटपटा गेलन आउ कहलन - "धन्य ! अइसन जुक्ती आउ के बताबित !" बाकि अब रात कम हल से बिदा लेके भागलन सिउ जी देने ।)    (अदेरा॰11.30)
अक्किल-ग्यान     (जब पेट में भूख के अगिन धधकऽ हे तो ओकर जीभ लपलपा के गियारी पार करइत ब्रह्मांड में पहुँचऽ हे आउ मगज के सब अक्किल-ग्यान जार खोर के राख कर दे हे ।)    (अदेरा॰4.18)
अगड़बम्म     (महेस जी ! ई तो औघड़े बाबा हथ, पूरा बम भोला । भाँग धथुरा छान के अगड़बम्म बनल रहऽ हथ । भभुती रमौले बघछाला पर आसन मारले ध्यान में मगन हथ ।)    (अदेरा॰2.22)
अगाड़ी (= आगे, आइंदा)     (लोग चुप होके देखे लगलन कि अब अगाड़ी का होवऽ हे ।)    (अदेरा॰15.13)
अगाह (= आगाह)     (एतना कहके राजा फिन धिम हो गेलन आउ हाथ गिरा के सनत भाव के बोललन - अपने सब लोग के हम अगाह कर देही कि मानुष लोग के परिच्छा अबगे सुरूए होयल हे ।)    (अदेरा॰32 (घ).8)
अचम्भो (= अचम्भा, आश्चर्य)     (एन्ने सिउजी के प्रान आवे आउ जाय, जाय आउ आवे । बड़ी अचम्भो में परलन कि का बात हे कि जे कासीपुरी में जाहे सेई सट जाहे । दू बच्छर से जोगिनिन गेलन, चौंसठ में एक न घुर के ताकलन ।; ई सिउलोक हे । हम दिवोदास ही ... बात दोहरावल जाय लगल । एतने बात हाली-हाली कहे लगल ।/ बिग्यानी मुट्ठी पर ठुड्डी टेकले अचम्भो में बइठल हे ।)    (अदेरा॰37.22; 68.27)
अछइते (= छइते; रहते, होते हुए)     (तोहनी के अछइते हमरा कासी के कोई हाल तक न मिले ! अब तोहनियें जा आउ जे कुछ उपाय कर सकऽ, करऽ ।)    (अदेरा॰41.15)
अछते (= अछइते, छइते; रहते, होते हुए)     (सब सुख समरिधि अछते हमर मन जब ई सब बात सोच के घबड़ा हे तब लगऽ हे कि सब बेअरथ हे, सब बेकार हे ! अइसहीं सोचइत सोचइत हमरा लगऽ हे कि एक दिन हम पागल हो जायम ।)    (अदेरा॰49.8)
अछुत्ता (= अछूता)     (हम ! बरह्मा ! का कर सकऽ ही ? अन्न सिरजूँ कइसे, जल बनाऊँ कइसे ? बफगर हवा रोख से बहे तब न ! आउ बाकी काम ला जइसन ऊ लोग दुनियावो लोक बेवहार से अछुत्ता, ओइसने हम ।)    (अदेरा॰3.9)
अजुका (= आज का)     (भारत के अजुका समस्या में भी ई कथा के तत्त आउ घटना अन्योक्ति रूप से बड़ा सटीक बइठऽ हे ।)    (अदेरा॰क.17)
अझुराना (= उलझना, फँसना)     (अइसने राजा के कहल जाहे अधिनायक । बाकि अइसने अधिनायक ठकुरसोहाती बात में अझुरा हे, आउ अपने-अपने अधरम के मारग दने सरके लगऽ हे ।)    (अदेरा॰38.25)
अड़ाई     (दिन बीतल, हप्ता निकसल, पख भागल, महिन्ना गुदस्त भेल, साल आके ठेंकल बाकि चौंसठ में एक जोगिन के भी चित्ता तक न होयल । अब सिउजी के मन अड़ाई न भेल । हार-पार के देलन हंकारा सुरूज देओ के ।)    (अदेरा॰33.28)
अतत्तह (= उपद्रव, बखेड़ा, उत्पात)     (असल दोस कासिये के हे । पहिले ऊ मोहहरनी हल । अब उल्टे मोहनी हो रहल हे । जे जा हे सेकरे मोह ले हे । करे अतत्तह । हमहूँ बाज न आ सकी ।)    (अदेरा॰42.4)
अदमी     (अदमी जानवर बन गेलन, जानवर खुरी रगड़ रगड़ के मरे लगलन । केतना गाँव-गिराँव तो सच्छात मसान बन गेल ।; कुछ लोग के सुझाओ होयल कि जेतना अदमी हथ ऊ सब से कुछ न कुछ खेती-बारी के काम लेल जाय, एकरा में बरन, आसरम इया उमर के कोई लेहाज न कइल जाय ।)    (अदेरा॰1.12; 22.4)
अनकर (= दोसर के; दूसरे का)     (अनकर भरोसा न करके जहाँ तक हो सके आपुस में मिलजुल के जमात बना के कुआँ तलाओ निरमान कर कर के आउ जहाँ नद्दी इया सोता में पानी मिले ओकरा बान्ह-छान के पटवन आउ खेती के परबन्ध करना ।; अपन बुध-गेयान इ अनकर हित में लगावे, कोई के अइसन वचन न कहे जेकरा से उदवेग हो जाय ।)    (अदेरा॰24.16; 66.23)
अनका (= आन, दोसर; दूसरा)     (अगर जो एक आदमी के धरम-करम दोसर के धरम-करम से टकराय इया ओकरा से अनका पर जोर-जबरदस्ती कइल जाय इया अपन धरम के ढोंग करके राजनीति में टाँग अड़ावल जाय, समाज में अकरमनई फैलावल जाय तब तो राजशक्ति के आगे आबहीं परत !; सुनऽ, अगर जो हमर भलाई चाहऽ ह, तो जा तूँहीं । देखऽ, लोग का करइत हथ, कुछ हो सकऽ हे कि न । बाकि देखऽ, तूहूँ अनके सब लोगिन नियन मत कर दीहऽ ।)    (अदेरा॰19.7; 50.16)
अन-जल (= अन्न-जल)     (कुछ लोग के विचार हल कि ई सब जतन से साइते कुछ फल निकले, अच्छा होय कि ई देस छोड़ के कहीं अइसन जगुन चलल जाय जहाँ ई दुरभिछ के परभाव न होय आउ जहाँ अन-जल सुगम से मिल जाय ।; जउन दिन हम कासी छोड़ली ओही दिन उ परन ठानलन कि जब तक हम फिन कासी न बहुरऽ ही तब तक उ अन-जल न गरासतन । अब जा, आउ उनका ले आवऽ ।)    (अदेरा॰22.9; 64.24)
अनबेरा     (बरम्हा जी विष्णु जी के दुहारी पर पहुँचलन तो केबाड़ी बंद । हाँक पारलन, सिकड़ी खटखटौलन तो ओने से आके लछमी जी केबाड़ी खोललन । ई घड़ी अनबेरा, ओकरो में कोहागल मन इनखा देख के लछमी जी घबड़ा गेलन । परनाम-पाती तो एकदम बिसरिये गेलन, छुटइते पुछलन - "हालचाल तो अच्छा हे न ?")    (अदेरा॰10.31)
अनभो (= अनुभो; अनुभव)     (बस एक अजर-अमर अभेद-अछेद, अनदेख परब्रह्म परमेश्वर के समझी, ओकरे पर भरोसा रखी, अपन आत्मा के ओकरे अंश मानी आउ ओकर बल पराक्रम के अनभो करी ।)    (अदेरा॰21.5)
अनाज-उनाज     (खेती के बीहन राज के तरफ से बाँटना, जे धनीमानी अनाज-उनाज सइतले हथ उनका से लेके राज के भुक्खे मरइत ढनमनाइत लोग में बाँटना ।)    (अदेरा॰24.20)
अनुभो (= अनभो; अनुभव)     (बस एक अजर-अमर अभेद-अछेद, अनदेख परब्रह्म परमेश्वर के समझी, ओकरे पर भरोसा रखी, अपन आत्मा के ओकरे अंश मानी आउ ओकर बल पराक्रम के अनभो करी । अंतस में ओकर जे तेज हे, जे आग हे ओकर गर्मी अनुभो करी आउ अपन भाग के अपन मुट्ठी में लेके खड़ा हो जाई ।)    (अदेरा॰21.6)
अनेगा (= अनेक, बहुत, कइ एक)     (दोसर बात रहल, पाँडे परोहित लोग के जीविका के । जइसे आउ अनेगा जमात सब राज रूपी सरीर के अंग हथ ओइसहीं पाँडे परोहित लोगिन भी राज के एगो बड़ी महत के अंग हथ ।)    (अदेरा॰19.24)
अनेसा (= अन्देशा)     (रिपुंजय इनकर मुखड़ा पर गौर कयलन कि कहीं गोसाय के छँहकी तो न हे । बाकि कोई अनेसा न पा के सहियार सहियार के समझावे लगलन ।)    (अदेरा॰8.21)
अनोर (~ करना, ~ होना)     ("राजाधिराज महराज दिवोदास की जय" के घोष से असमान अनोर करइत गेलन । बाकि पांडे-पुरोहित के गिरोह गुम्मी नाधले अइसन लौटलन जइसे अपन कोई हित-नाता के परवह करके मसान से घूरल आवइत होथ ।; रंग-बिरंग के बाजा से असमान अनोर हो गेल ।)    (अदेरा॰32 (घ).19; 64.4)
अन्हार (= अन्धकार)     (जहाँ-जहाँ ऊ हथ, बुझा हे कि जोत बरइत हे आउ लोग ऊ जोत भिर जाके अपन मन के अन्हार दूर करइत हथ ।)    (अदेरा॰31.26)
अपन (= अप्पन; अपना)     (जब तक ई न करम, हमनी अदमी न बनम, कुकुर नियन पोंछडोलवा बनल रहम, अपन आदमीयत न समझम, आत्मा के न चीन्हम ।)    (अदेरा॰21.2)
अपरूपी     (कहथ, जगत मिथ्या हे अपरूपी बिलाय वाला, सत्त एगो बर्हम हे, सकल पदारथ के मूल । मानुष जन खाली नमंतरी हथ, काल उताहुल होय पर बिलाय वाला ।)    (अदेरा॰51.15)
अप्पन (= अपना)     (इनका तो अप्पन तन के फिकरे न हे कि का पेन्हूँ, का ओढ़ूँ, इया का खाऊँ । तो दोसर के का कहल जाओ ।)    (अदेरा॰2.23)
अप्पन-आन (= अपना-पराया)     (अइसने गाढ़ में अप्पन-आन के होहे पहचान । अब अप्पन नाता-गोता के दूत-उत बना के भेजी तो लोग एही कहत कि अपपन चीन्हऽ हथ ।)    (अदेरा॰41.5)
अबई (= आगमन)     (जइसहीं इनकर अबई से राज में सरगरमी फइलल कि राज के अमला-फयला उनका अगाह कर देलन आउ राजा सब नकलपचीसी के काट ला अपन अदमिन के सिखा-पढ़ा के गाँवे-गाँव, घरे-घर फिरा देलन कि झूठ के जंतर-मंतर, जादू-टोना के फेर में कोई न परे ।)    (अदेरा॰33.2)
अबगे     (एतना कहके राजा फिन धिम हो गेलन आउ हाथ गिरा के सनत भाव के बोललन - अपने सब लोग के हम अगाह कर देही कि मानुष लोग के परिच्छा अबगे सुरूए होयल हे ।)    (अदेरा॰32 (घ).9)
अबरी (= इस बार; अगली बार, आइंदा कभी)     (तब फिन दोसर रूप धरलन । अबरी बनलन जाँचक । एहू में राजा-परजा कोई कइसनो चीज ला मोह न देखइलक आउ ई जे माँगलन सब मिलइत चल गेल ।; जब ई में सुफल न भेलन तब सुरुजदेओ फिनो रूप बदललन आउ अबरी ठीक एकर उल्टे बात बतावे लगलन ।)    (अदेरा॰35.7, 32)
अबहियें (= अबहिएँ; अभी ही)     (आउ एही हठधरमी में न उनकनिये से राज सम्हरत आउ न कोई के सम्हारहीं देतन । ओखनिन से हमनी के कोई समझौता होना आउ कठिन हो जायत । सेई से अबहियें कुछ करे के चाही ।)    (अदेरा॰30.26)
अमला (= कर्मचारी; कोर्ट-कचहरी में काम करने वाले लोग, कारिंदा)     (एकरा ला सउँसे देस के कई हलका में बाँट के सब में एक्कगो राज के अमला के परबन्ध करना जे ऊ हलका के जनता से मिलके उनकर जरूरत के अनुसार दुरभिछ दूर करे के इंतजाम करथ आउ अभी तुरत उनकर जरूरत कूत के राजा के पास भेजथ कि ओकर अनुसार राज के तरफ से परबन्ध कइल जा सके ।)    (अदेरा॰24.10)
अलगंठे     (अब जो हम कुछ कयलो चाही तो हो न सके । आउ कुछ करना औसो के हे । न कइली तो हम तो चल जायम अलगंठे ।)    (अदेरा॰3.13)
अलम (= अवलम्ब; सहारा, साधन, आश्रय; भरोसा; विश्राम)     (साधारन लोग अगम, अगोचर परब्रहम परमेस्वर के धेयान में न ला सके । ऊ कुछ देखाउर चीज खोजऽ हे जेकरा अलम बना के परलोक के बात सोंचे आउ मुक्ति पावे ।)    (अदेरा॰55.19)
अलासक्के     (ई सब के नीमन तरी सुराग लगा के अइसन बुद्धि से काम ल जे में राजा आउ परजा अलासक्के में धरम से डिग जाथ ।)    (अदेरा॰34.15)
अलोप (= विलुप्त, गायब)     (पाँडे-पुरोहित के आदर-मान अलोप हो गेल । हवन-कुंड भस गेल, जग्ग-मंडप ढह-ढनमना गेल । देवी-देओता के भोजन छाजन कइसे चले ? सब रसे-रसे दुबराय लगलन ।; रिपुंजय सरधा से भरके झुकइत हाथ जोड़ के माथा चढ़ौलन । हाथ गिरा के आँख खोलऽ हथ तो बरम्हा अलोप !)    (अदेरा॰1.17; 9.27)
असमान (= आसमान)     (जब बादर में भाफ रहऽ हे आउ पहाड़ के ढलाओं पर उपरे ठेला के इया असमान में उपरे चढ़ के ठंढा हो हे तो पानी बन जाहे आउ बरखा के रूप में गिरे लगऽ हे, एही में इन्द्र अप्पन नाम लूट ले हथ ।)    (अदेरा॰4.25)
असरा (~ देखना)     (एन्ने बरम्हा जी बइठका में बइठलन, ओन्ने से तुरन्ते विष्णु जी कपड़ा सम्हारइत, आँख पोंछइत हदबदायल धाबे-धुबी अयलन । ... बरम्हा जी बिना पूछे-माते असरा देखले अपन धरम संकट के बात बतौलन ।; तब इयाद परल कि ई सब करमात तो बर्हमा जी के हे, ओही तो दिवोदास के कासी के राज देलन आउ ओकर देओता लोगिन के देस निकाला के सरत कबुललन । हमर संका उठौला पर ओही असरो दिऔलन हल कि औसर आवे पर देखल जायत ।)    (अदेरा॰11.10; 37.29)
असूलना (= वसूलना)     (सब लोग इहे समझलक कि ई देओता लोगिन के परकोप हे । राजा ऊ लोग के देस निकाला देलन हे सेई से अब ऊ सब बदला असूलइत हथ ।)    (अदेरा॰32 (क).10)
अस्तर-बस्तर     (पारवती जी छिछ काट के छटकइत बोललन - फरके, फरके, फरके !! तनि देखऽ ! पसेना से देह के भभूत तो लसिआयल हइन - सब अस्तर-बस्तर लेसारतन !)    (अदेरा॰32 (ज).4)
अहेर     (काशी के व्यवस्था के ई नियम हल कि जेतना लोग कमाय जुकुर हथ से सब खेत-बाध में, नदी-तलाओ में, अहेर में मेहनत करथ आउ बाँट-चुट के खाथ ।)    (अदेरा॰9.5)
आ (= आउ; और)     (कइसन मौज काटइत ह अपने आ हमरा कासीपुरी से निकलवा के तनी खोजो पुछार न करऽ कि सिउ मरइत हथ कि जीअइत ।)    (अदेरा॰38.3)
आउ (= आ; और)     (अइसने राजा के कहल जाहे अधिनायक । बाकि अइसने अधिनायक ठकुरसोहाती बात में अझुरा हे, आउ अपने-अपने अधरम के मारग दने सरके लगऽ हे ।; बर्हामन के भेस में बर्हमा जी चभिला-चभिला के बतिआय लगलन - राजन्, ओइसे तो हम ही इहाँ के पुरान रहवइया बाकि कहाँ राज-दरबार आउ कहाँ एगो अदना बर्हामन !)    (अदेरा॰38.25; 39.20)
आगम-निगम     (बर्हामन देओता, अपन जीवन में हम अनगिनती बर्हामन के दरसन कइली बाकि अपने अइसन ग्यानी, ध्यानी आउ तपस्वी के दरसन से पहिला तुरी जीउ जुड़ायल हे । हमरा अब ई बात के पूरा बिस्वास हो गेल हे कि अपने आगम-निगम जानऽ ही ।)    (अदेरा॰47.30)
आगू (= आगे, सामने; आइंदा)     (इनकर बल पराक्रम के आगू सब बैरी पनाह माँगऽ हल, संकट समस्या तो छीछ काट के भागऽ हल ।; कुछ छिन तो निसबद्दी रहल, बाद में कुछ भनभनाहट होयल, आपुस में कुछ राय-मोसवरा होयल आउ अंत में अगाड़ी से दू अदमी निकल के आगू बढ़लन ।)    (अदेरा॰5.27; 16:30)
आपुस (= आपस)     (कुछ छिन तो निसबद्दी रहल, बाद में कुछ भनभनाहट होयल, आपुस में कुछ राय-मोसवरा होयल आउ अंत में अगाड़ी से दू अदमी निकल के आगू बढ़लन । राजा उनका अपना साथे लेके अपन कक्छी में चल गेलन ।; ई तरी हम चाहऽ ही कि हमनी सब कोई आपुस के भेद-भाव विसार के एकजुट होके देश के संकट से जल्दी-से-जल्दी उबार ली ।)    (अदेरा॰16.29; 20.9)
आस (= आशा) (~ बन्हना)     ("बोलऽ बोलऽ, निधड़क बोलऽ ।" बरम्हा जी के आस बन्हल ।)    (अदेरा॰8.6)
इज्जत-मरजाद     (धरतीये के राज तो असल हे, बिना धरती के राज के हमनी के आउ दुन्नो लोक के राज भी तुच्छ हे । सब रसद-बुतात, ऐस-आराम, इज्जत-मरजाद तो धरतीये के राज पर हे ।)    (अदेरा॰12.18)
इड़ोत     (सिउजी कहलन आउ जोगिनिन उहईं से सीधे काशी जी ला आकास मारग से फराफर्र उड़ चललन । जब ला उनकर धारी आँख के सामने रहल तब ला सिउजी एकटक देखइत रहलन । इड़ोत होइते संतोष के लम्मा साँस लेलन आउ अप्पन नित्तम के करम-धरम में लग गेलन ।)    (अदेरा॰32 (झ).4)
इनरा-कुइयाँ     (जे जतन ई सब बात के तूल में कइल जायत ऊ मेहनत, समय आउ सम्पत गाँवें-गाँवें, जगहे-जगहे इनरा-कुइयाँ खनावे आउ दुरभिछ दूर करे के दोसर-दोसर उपाय करे में लगावल जाय तो जादे अच्छा होयत ।)    (अदेरा॰22.2)
इन्नर (= इन्द्र)     (दुस्ट लोगिन ला तो ई सुरूज नियन बन गेलन बाकि मीत लोगिन ला चान नियन । दुस्मन से अखंड जुद्ध करे में देओतन के राजा इन्नर नियन गुनवान हो गेलन आउ बैरिन के जमीन तक बान्ह लेवे में बरून देओता नियन महान् ।)    (अदेरा॰25.23)
इमनदार (= ईमानदार)     (हथ इ लोग धुरफंदी, से से उलट-फेर करके समाज के, राज के, इहाँ तक कि धरम-करम के बेवस्था भी हथिया लेलन हे । धरती के सब बेवस्था ई तिनकउड़िया जमात चला रहल हे आउ सत्तवादी, इमनदार, चलित्तरमान लोग इ हुड़दंगी के भउँरी में पर के चाहे तो बूड़ गेलन चाहे अपन सत्त के जीवन के बचावे ला किनारा लगलन, हयरा नियन जंगल के सरन लेलन ।)    (अदेरा॰8.11)
इलोत     (ई परकार दिवोदास जइसे दूजा सिउ बन के विमान पर पाँव रखलन आउ देखइत देखइत में असमान में उड़लन आउ इलोत हो गेलन ।)    (अदेरा॰59.25)
इलोह (= इनोह)     (हाँ, हाँ । रसे-रसे हम ओही बात पर आ रहली हे । जब हमरा कोई बिसय के ग्यान होवऽ हे तब समझी कि ओही ओकर इलोह के एगो रेघी हे । जइसे जइसे ई सिरिस्टी के ग्यान बढ़इत जा हे तइसे तइसे समझी कि हम ब्रह्म के नजिकायल जा ही ।)    (अदेरा॰46.18)
इहईं (= हिएँ; यहीं)     (कुछ लोग देश छोड़ के भागे के बात करऽ हथ । बाकि अप्पन भूमि से हमरा सोना न मिले तब न ! सोना रहइत हम निकाल न सकी तो ई तो हमर नपुंसकई हे जे कहूँ दोसरा जगह जाय पर भी कायम रहत । से हम तो इहईं रह के धरती पर सरग उतार सकऽ ही ।; आखिर हार-पार के एहू तय कइलन कि तब मंदराचल लौट के जाय से अच्छा एही हे कि इहईं रह के कुछ जतन करइत रही ।)    (अदेरा॰23.26; 40.27)
उँच्चा (= ऊँचा)     (बर्हमचारी के अपन विद्या अध्ययन के धुन हे कि नया से नया आध्यात्मिक आउ भौतिक ग्यान-विग्यान के पचा के दुनिया में अपन देस के नाम उँच्चा करूँ , एकर अलावे न राजनीति से सरोकार हे, न धन आउ मान के चिन्ता ।)    (अदेरा॰31.18)
उखबिक्खी     (इनखर उखबिक्खी सरसती जी देखलन तो भीरी आके बड़ी मेहरायल बोली में पुछलन - "भला कउन अइसन गाढ़ परल हे अपने के कि आँख के नीन तक हर लेलक ?"; मंदर पर्वत के एगो खोह में रतन पदारथ जड़ल मंदिल । ... एकरे भितरी एगो जीउ बघछाला पर लोघड़ल, चितपट-पटचित हो रहलन हे । देखइते बुझा हे कि उखबिक्खी में हथ ।; मंदराचल पर उख-बिक्खी में बइठल सिउजी के आँख कासी जी दने टक-टक्की लगौले जइसे पथरा गेल । जोगिनिन अब आबऽ हे, अब आबऽ हे, अब आबऽ हे !)    (अदेरा॰10.7; 32 (घ).27; 33.24)
उघारना     (कक्छ में राजा आउ परोहित-समाज के अगुआ लोगिन के बीच आध घड़ी तक खूब गठ के बात भेल । राजा अपन हिरदा उघार के रख देलन, परोहित लोग भी अपने रोजी-रोटी के समस्या साफ कर देलन ।; तब सिउजी अपन मन के परोगराम उघारलन - देखऽ, हम चाहऽ ही कि हमनी फिन से काशी जी के राजगद्दी हँथिआवी ।)    (अदेरा॰17.2; 32 (ज).17)
उजबुजाना     (बरम्हा जी के बुझायल कि डूबइत पानी में जे केला के थुम्ही धरायल हल से पिछुल गेल आउ फिनो उजबुजाय लगलन ।)    (अदेरा॰12.23)
उजुरदार (= उज्र/ एतराज/ आपत्ति करनेवाला; निवेदन करनेवाला)     (अब भंडार में कोई बात के कमी तो हइये न हे । अपने के परताप से, ई जग्ग में अपने के जथा-जोग मदद के उजुरदार ही ।)    (अदेरा॰40.9)
उताहुल     (अब रिपुंजय के करगी कटावइत न बनल । छिन भर थम के बोललन - "अच्छा, अपने जब भार देवे ला उताहुले ही तब हम अग्याँ माथा चढ़ावऽ ही, बाकि छमा होय तो एक बिनती ई दासो के हे ।"; राजा दिवोदास से मिले ला ई उताहुल हलन से एगो बिरधा बर्हामन के रूप धर के पहुँच गेलन दरबार में ।; ई सुनइते रानी सब राजा के बोलावे ला उताहुल भेलन बाकि गनेस जी रोकइत कहलन - न अइसन काम भुलैलो न करी । ई सुन के तो ऊ आउ चमकतन ।; कहथ, जगत मिथ्या हे अपरूपी बिलाय वाला, सत्त एगो बर्हम हे, सकल पदारथ के मूल । मानुष जन खाली नमंतरी हथ, काल उताहुल होय पर बिलाय वाला ।)    (अदेरा॰8.4; 39.13; 45.1; 51.16)
उदंत     (जहाँ पारवती तहाँ शंकर । निमोछिया निकुचिया छौंड़न-छौंड़िन से लेके उदंत बुढ़वा-बुढ़िया तक शंकर-पारवती के सुमिर-सुमिर के उभ-चुभ होइत रहऽ हथ !)    (अदेरा॰3.30)
उदवेग (= उद्वेग)     (अपन बुध-गेयान इ अनकर हित में लगावे, कोई के अइसन वचन न कहे जेकरा से उदवेग हो जाय ।)    (अदेरा॰66.24)
उदेस (= उद्देश्य)     (अब सभा के कारवाई सुरू होयल । सबसे पहिले राजा सभा में जुमल लोगिन के स्वागत कयलन आउ तब बोलावे के उदेस के बखान कयलन ।; रिपुंजय तो अपन उदेस पुरावे के एगो हथकंडा हलन । अब तो जब उ उदेस पूरा हो गेल हे तब कोई उपाय कर के हमनी के अपन गद्दी लौटाना जरूरी हे ।)    (अदेरा॰20.19; 28.9)
उन्ती (= उन्नति)     (राज में संगीत के एतना उन्ती भेल कि इनका सामने गंधर्व लोगिन के भी गर्व चूर हो गेल ।)    (अदेरा॰26.19)
उन्ती-बढ़न्ती     (राजा ई बात के नीमन तरी बूझइत हलन कि परजा के सुख-समरिधि आउ राज के उन्ती-बढ़न्ती लागी घरेलू नीति आउ विदेसी नीति दुन्नों के अइसन गंगा-जमुनी बना के चलना हे कि भीतर-बाहर दुन्नों दने से सान्ती रहे आउ देस दिनोदिन आगू मुहें बढ़इत चल जाय ।)    (अदेरा॰25.10)
उपजाना     (हम अगिन बना के वैस्वानर आउ जठराग्नि दुन्नो के जगायम, बहरी-भितरी दुन्नों जगह वायु के संचार करम, मेघ बना के गगन में बिजली चमका देम आउ बरसा करके फसिल उपजायम ।)    (अदेरा॰32 (ग).33)
उपद्दर (= उपद्रव)     (गाँवे-गाँव में अइसन परबंध कइल गेल कि थोड़िके दिन में अति बरखा, अति धूप, मूस-चुहा के उपद्दर, टिड्डी गिरनई, सुग्गा-तोता अइसन पंछी सब से खेती के बरबादी, आउ अपन देस पर कोई दुस्मन के चढ़ाई - ई छओ परकार के ईति के भय भाग गेल ।; पंडितराज, तब तो एकर माने ई हे कि अपने हमरा खड़जंतरी लोग के गोड़ पर तरुआर रक्खे कहइत ही । - एकदम न, राजन हमरा गलती न समझल जाय । हमरा कहना हे कि जे औताहर उपद्दर के छहँकी बुझा रहल हे, ओकरा हठ धर्मी तेयाग के बात-समझौता से तय-तमान कर लेल जाय ।)    (अदेरा॰26.22; 54.30)
उपरे (~ महें = ऊपर तरफ; ~ से = बाहर से, देखने में)     (इ तो धन मानऽ कि हिमालय पर्वत हे जेकरा से बंगाल के खाड़ी से आवे वाली हवा रुकऽ हे, उपरे महें उठऽ हे आउ ठंढा के बरसऽ हे ।; सच्चा नेता जे उपरे से सोभाओ आउ बेहवार में रुई के फाहा नियन कोमल रहे आउ भितरे से नियम आउ चाल-चलन में नरियल नियन कठोर !)    (अदेरा॰2.29; 7.29)
उपलाना     (घोर अकाल ! कई बच्छर से बून-पानी बिन सुखारे सुखार । सउँसे काशी छेत्र जल बिनु रकटल । जे गंगा उपलायल चलऽ हल से जइसे दुबरा के सितुहिया सोता बन गेल ।; बरम्हा जी के छन मन आनन्द से गद्गद हो गेल । आदर आउ सन्मान से उपलाइत मधुर बानी में बोललन - "महामते रिपुंजय !"; पितामह ! आज धरती पर जनता से जादे नेता हथ । गाँवे-गाँव घरे-घर नेता उपलायल चलऽ हथ । हथ इ लोग धुरफंदी, से से उलट-फेर करके समाज के, राज के, इहाँ तक कि धरम-करम के बेवस्था भी हथिया लेलन हे ।)    (अदेरा॰1.3; 6.21; 8.8)
उपलाना-पटाना     (मंदर पर्वत के एगो खोह में रतन पदारथ जड़ल मंदिल । सरब परकार के सौख-मौज, ऐस-आराम के सरजाम से भरपूर । कोई बात के कमी न । सुख-समरिधि उपलायल-पटायल चलइत ।)    (अदेरा॰32 (घ).25)
उबियाना (= ऊब जाना)     (अइसन निरजन जगह में रहइत रहइत जीउ उबिया गेल !; पहिले के आयल लोग नियन ई लोग भी इहईं बस गेलन । अब जरिक्को देरी होय पर सिउ जी तुरते उबिया जाथ ।)    (अदेरा॰28.23; 41.25)
उभ-चुभ     (जहाँ पारवती तहाँ शंकर । निमोछिया निकुचिया छौंड़न-छौंड़िन से लेके उदंत बुढ़वा-बुढ़िया तक शंकर-पारवती के सुमिर-सुमिर के उभ-चुभ होइत रहऽ हथ !)    (अदेरा॰4.1)
उमगना (= उमंगित होना; उमंग में उछलना-कूदना; प्रसन्न होना; उत्पन्न होना)     (ई जगत के भौतिक सुख से भरल-पूरल अपने के हिरदा में निरवेद उपजल हे, सान्ती के लालसा उमगल हे ।)    (अदेरा॰49.17)
उसकी (= व्यंग्य, हँसी-ठट्ठा, चुहल; इशारा)     (एतना समय में बर्हमा जी के सरगनई में ई जमात बड़ी जतन कइलक कि कइसहूँ राजा या परजा कोई अधरम के काम करथ, ढेर उसकी भी छोड़ल गेल बाकि अभी ऊ समय न आयल हल जेकरा सोंच के बर्हमा जी इहाँ धावा बोललन हल ।; अइसन सुख चैन हे कि कोई के मगज मारे के कोई जरूरते न हे । एही ओजह हे कि देओतन के तनी सुन उसकी में इनकर मगज के कलई जवाब दे दे हे आउ लोग ओकर फेर में पर जा हथ ।)    (अदेरा॰40.24; 56.31)
उहईं     (उनकर तो अपन देओलोक हइए हे, उहईं चल जाथ, आउ हमरा भूलोक के निस्कंटक राज करे देथ ।)    (अदेरा॰9.17)
ऊहुँक     (अच्छा, इन्द्र ! कुछ कर सकतन ? ऊहुँक ! उनको से का होयत ? धरती पर के लोग तो एही समझले बइठल हथ कि इन्दरे भगवान बरखा बरखावऽ हथ, बाकि ई का बरखौतन ?)    (अदेरा॰4.22)
एकक (= एक-एक)     (एकक कर के उ देओता सब के ध्यान करे लगलन ।)    (अदेरा॰2.9)
एकक्के (= एक-एक ही)     (राज-काज चलावे में जे तप के जरूरत हे ऊ अइसन कइलन कि रुद्र भी झुठा गेलन । आने कि असली देओता लोगिन में तो एकक्के गुन हल, इनका में एक्के साथे ऊ सब गुन जमा हो गेल, जइसे सब्भे देओता के ई अकेले औतार होवथ ।)    (अदेरा॰25.26)
एकदम्मे (= बिलकुल ही)     (ई घड़ी के अकाल से तो एही बुझाइत हे कि थोड़िके दिन में धरती एकदम्मे मसान बन जायत ।)    (अदेरा॰12.25)
एकबयक (दे॰ एकबैक)     (ई सब बात सुन के विष्णु जी एक तुरी बरम्हा जी के उदास आउ सोंच में डुबल मुखड़ा पर गौर से नजर फेरलन आउ एकबयक ठठा के हँस देलन ।; एतना कह के राजा थोड़े देरी चुप रहलन आउ फिन एकबयक ठठा के हँस देलन । फिन बोललन - अच्छा, देख लेम एहू चलबाजी !)    (अदेरा॰11.16; 32 (ख).31)
एकबैक (= अचानक)     (थोड़े देर गुम-सुम रहला पर इ एकबैक आसन से कूद परलन आउ जब तक नारद कुछ कहथ तब तक "अच्छा देखऽ का होबऽ हे" कहइत अपन हंस के सवारी ठोकलन आउ सनासन्न उड़ चलन हुआँ जहाँ रिपुंजय तपस्या करइत हलन ।)    (अदेरा॰6.9)
एकाएकी (= एक एक करके)     (दुरदिन के रास जे उदासी, जे हरासी के फुल्ली लोगिन के मानस पर जम गेल हल से इनकर भाषण के झिकोरा से जइसे झहर-झहर के उड़े लगल आउ तरे से विमल विचार के मेहराब रसे-रसे चकमकाय लगल । एकाएकी लोग बोले लगलन आउ राजा सब के सुझाओ के बड़ी गौर से सुने लगलन ।; आजकल जइसे बिना तार के तार चल जाहे ओइसहीं सब जोगिनियन के खट-सिन पता चल गेल कि सिउजी के बोलहटा हे । सब जहाँ हलन तहईं से फटाफट एकाएकी आवे लगलन ।; ई सब बात के नतीजा ई भेल कि धरम भठे लगल, अधरम के मन हरखित भेल । आठो सिद्धि जे आके इहाँ बसलन हल, सब एकाएकी अपन-अपन डेरा-डंडा खसकावे लगलन ।; बात बात में एकाएकी सब से भेंट हो गेल आउ देओतन के विजय के बात से गिलपिल हो गेलन ।)    (अदेरा॰21.20; 32 (ज).11; 52.6; 59.30)
एक्कगो (= एक-एक)     (एकरा ला सउँसे देस के कई हलका में बाँट के सब में एक्कगो राज के अमला के परबन्ध करना जे ऊ हलका के जनता से मिलके उनकर जरूरत के अनुसार दुरभिछ दूर करे के इंतजाम करथ आउ अभी तुरत उनकर जरूरत कूत के राजा के पास भेजथ कि ओकर अनुसार राज के तरफ से परबन्ध कइल जा सके ।)    (अदेरा॰24.10)
एक्के (= एक ही)     (एक्के बात ला उ लोग जरी दुखी हथ कि ऊ लोग के अनादर करके कासीपुरी से निकाल बाहर कइल गेल हे ।)    (अदेरा॰57.18)
एत्ता (= इतना; इस जगह)     (आउ फिन अदमी के बढ़न्ती रोके के बात भी तो खूब हे । जहाँ दुरभिछ से एत्ता आदमी रोजीना मर रहल हे हुआँ ई कहना कि आदमी फाजिल हे, समस्या के उल्टा समझना हे ।; राजा बोललन - हम न जानइत ही कि अपने में का गुन हे ! एही ला हम आज एत्ता भोरहरिये अपने के कस्ट देली हे ।)    (अदेरा॰23.20; 48.7)
एन्ने     (एन्ने बरम्हा जी बइठका में बइठलन, ओन्ने से तुरन्ते विष्णु जी कपड़ा सम्हारइत, आँख पोंछइत हदबदायल धाबे-धुबी अयलन ।)    (अदेरा॰11.7)
एलान (= घोषणा)     (जे आदमी ई नियम के खिलाफ काम करत ऊ राज के नया नियम-कानून के मोताबिक सजाय के भागी बनत । ई एलान जेइ सुनलक सेइ अचंभो में आ गेल ।)    (अदेरा॰14.4)
एही (= यही)     (ई घड़ी के अकाल से तो एही बुझाइत हे कि थोड़िके दिन में धरती एकदम्मे मसान बन जायत ।)    (अदेरा॰12.25)
एही (= यही)     (थोड़े देर तो बरम्हा जी के एही बुझायल कि रूद्र अपन तिरसूल से, विष्णु अपन गदा से आउ इन्द्र अपन बज्जड़ से इनकर कपार पर वार करइत हथ ।)    (अदेरा॰9.20)
ओनहीं (= उधर ही)     (जैगीषव्य मुनि से निवटना हल कि बर्हामन लोग के एगो लमहर जमात पहुँच गेल । दूर से सिउजी के जयजयकार के गदाल जे होयल से इनकर नजर ओनहीं खिंचा गेल ।)    (अदेरा॰65.21)
ओन्ने     (एन्ने बरम्हा जी बइठका में बइठलन, ओन्ने से तुरन्ते विष्णु जी कपड़ा सम्हारइत, आँख पोंछइत हदबदायल धाबे-धुबी अयलन ।)    (अदेरा॰11.7)
ओरिआना (= समाप्त होना)     (गनेस जी कहलन - न ! खाली करम के बल पर मुक्ति न मिल सके । हाँ, सरग के भागी औसो के होयत, बाकि सरग के सुख भोगइत भोगइत जइसहीं पुन्न ओरिआयल कि फिन ओकरो मिरितलोक में जलम धारन करे परत ।)    (अदेरा॰45.23)
ओही (= वही, वे ही)     (अपने जाथ विष्णुजी भिजुन । देओतन पर जब कोई भीर परऽ हे तब ओही कुछ उपाय करऽ हथ, इया बतावऽ हथ । अभी सब सोंच-फिकिर बिसार के अपने उनके सरन में जाथ, देखथ उ का कहऽ हथ ।)    (अदेरा॰10.25)
ओहू (= ओहो; वह भी)     (अदमी मांस खाय लगलन । ओहू मोहाल भेल तो कोई जट्टा छोड़ के साधु बन गेल आउ भिच्छाटन  ला अंते के राह धयलक, कोई समुन्दर किंछारे कोई गुफा में बास कयलक, तो कोई दिआरा में घर बसौलक ।)    (अदेरा॰1.7)
औघड़-फक्कड़     (शंकर जी फुलझरिया नियन बउँसे लगलन - देखऽ, हम तो तोरा हरदम अपन देवी मानली । अरे, हमरा नियन औघड़-फक्कड़ के तोरे नियन बुधगर-गेअनगर घरनी तो जिनगी के पहिया के काम करऽ हथ ।)    (अदेरा॰32 (छ).16)
औताहर     (पंडितराज, तब तो एकर माने ई हे कि अपने हमरा खड़जंतरी लोग के गोड़ पर तरुआर रक्खे कहइत ही । - एकदम न, राजन हमरा गलती न समझल जाय । हमरा कहना हे कि जे औताहर उपद्दर के छहँकी बुझा रहल हे, ओकरा हठ धर्मी तेयाग के बात-समझौता से तय-तमान कर लेल जाय ।)    (अदेरा॰54.30)
औसर (= अवसर)     (तब इयाद परल कि ई सब करमात तो बर्हमा जी के हे, ओही तो दिवोदास के कासी के राज देलन आउ ओकर देओता लोगिन के देस निकाला के सरत कबुललन । हमर संका उठौला पर ओही असरो दिऔलन हल कि औसर आवे पर देखल जायत ।)    (अदेरा॰37.29)
औसान (= आसान, सहज)     (दुन्नों दने के सद्भावना के ओजह से बात के तय-तमन्ना बड़ी औसान हो गेल ।)    (अदेरा॰17.9)
औसो (~ के = ऐसे भी)     (अब जो हम कुछ कयलो चाही तो हो न सके । आउ कुछ करना औसो के हे । न कइली तो हम तो चल जायम अलगंठे ।; गनेस जी कहलन - न ! खाली करम के बल पर मुक्ति न मिल सके । हाँ, सरग के भागी औसो के होयत, बाकि सरग के सुख भोगइत भोगइत जइसहीं पुन्न ओरिआयल कि फिन ओकरो मिरितलोक में जलम धारन करे परत ।; भला एहू कहे के हे ! - बिस्नु सफाई देलन - अपने के हुकुम होइत हे तो औसो के जायम ।)    (अदेरा॰3.12; 45.22; 50.19)
कइसहूँ (= कइसूँ; किसी भी तरह)     (ई लोग बड़ी बौखलायल हलन आउ अपना में मिल के अपन बात कइसहूँ जरूर राजा भीर पहुँचावे ला सोंच लेलन हल ।; एतना समय में बर्हमा जी के सरगनई में ई जमात बड़ी जतन कइलक कि कइसहूँ राजा या परजा कोई अधरम के काम करथ, ढेर उसकी भी छोड़ल गेल बाकि अभी ऊ समय न आयल हल जेकरा सोंच के बर्हमा जी इहाँ धावा बोललन हल ।)    (अदेरा॰15.6; 40.23)
कटकटाना     (साथे पूरा जुलूस चलल तो धूरी उड़ के बादल नियन छा गेल आउ कटकटायल रउदा में छाता के काम कइलक ।)    (अदेरा॰64.17)
कनेटा     (एक मुट्ठी भर अन्न ला लोग छछने, एक चिरु जल ला केतना कुइआँ के कनेटा हुलके । चिरईं चुरगुनी भाग के जंगल में सरन लेलन, अदमी मांस खाय लगलन ।)    (अदेरा॰1.6)
कन्ने (= कने; किधर, कहाँ)     (ई सब होइते हल कि गरुड़ जी आके दंडवत कइलन आउ महादे जी के आवे के खबर सुनौलन । ई खबर से बिस्नुजी खुसी से चारो दन्ने निहारे लगलन आ पुछलन कि ऊ कन्ने हथ ।)    (अदेरा॰60.22)
कबरना (= उखड़ना)     (भूलोक से अपन जड़ी कबरइत देख के देओतन के जमात में बड़ी खलबली मचल ।)    (अदेरा॰27.10)
कमनई (= कम होना)     (आउ फिन अदमी के बढ़न्ती रोके के बात भी तो खूब हे । जहाँ दुरभिछ से एत्ता आदमी रोजीना मर रहल हे हुआँ ई कहना कि आदमी फाजिल हे, समस्या के उल्टा समझना हे । हियाँ तो मसला हे कि कइसे लोग के बचावल जाय, अदमी के कमनई रोकल जाय ।)    (अदेरा॰23.23)
कमियाँ-नफ्फर     (अब तो इनका बड़ी दुख आउ चिन्ता भेल कि धरम से डिगावे के जतन करके पापो के भागी बनली आउ कमियाँ-नफ्फर नियन सिउजी के डाँटो के भागी बनली ।)    (अदेरा॰37.6)
कम्मर (= कमर, कटि)     (मोह में परल ह रिपुंजय ? जब ला जीउ अपने से कुछ न करे, हम कुछ न कर सकी, साहारा मातर हम दे ही । जब कोई कम्मर कस्सऽ हे, हाथ-गोड़ चलवऽ हे तब हमहूँ भितरे से कुछ काबू भरऽ ही । जो कोई हाथ-गोड़ छान के घुरमुरिया लगा ले, तो बूझ ल, हम ओकरा कुछ न कर सकी ।)    (अदेरा॰7.13)
करगी (= किनारा)     (अब रिपुंजय के करगी कटावइत न बनल । छिन भर थम के बोललन - "अच्छा, अपने जब भार देवे ला उताहुले ही तब हम अग्याँ माथा चढ़ावऽ ही, बाकि छमा होय तो एक बिनती ई दासो के हे ।")    (अदेरा॰8.3)
करमात (= करामात)     (तब इयाद परल कि ई सब करमात तो बर्हमा जी के हे, ओही तो दिवोदास के कासी के राज देलन आउ ओकर देओता लोगिन के देस निकाला के सरत कबुललन ।)    (अदेरा॰37.26)
कहना (~ में होना; ~ मानना)     (आउरो कुछ लोग हथ जे हमनी के कहना में हथ ।; ढाढ़स धरी, कम्मर कसी आउ अपन मगज के बुद्धि आउ बाहु के बल पर भरोसा रक्खी आउ हमर कहना मानी, आउ फिन देओतन के ई षड्यंत्र के भी कउन तरी अपने लोग के मदद से पुरजे-पुरजे उखाड़ फेंकऽ ही से देख ली ।)    (अदेरा॰32.24; 32 (ग).24)
कहिया (= कब, किस दिन)     (अब कहिया तोर दरसन होयत ! कखनी तोर देह के परस मिलत !)    (अदेरा॰32 (च).4)
कहूँ (= कहीं भी)     (कुछ लोग देश छोड़ के भागे के बात करऽ हथ । बाकि अप्पन भूमि से हमरा सोना न मिले तब न ! सोना रहइत हम निकाल न सकी तो ई तो हमर नपुंसकई हे जे कहूँ दोसरा जगह जाय पर भी कायम रहत ।)    (अदेरा॰23.26)
काबिज     (अपन सृष्टि काबिज रक्खे ला हम ओकर ई सरत मान लेली हे कि देओतन धरती छोड़ देतन ।)    (अदेरा॰10.18)
किंछार     (हम आजे अपन जेठ पूत समरंजय के राजमुकुट देके अपने लोग के असीस आउ मदद ला विनती करम । तेकर बाद गंगा के पच्छिमी किंछार पर एगो मंदिल बनवा के सिउलिंग के अस्थापना करम ।)    (अदेरा॰59.1)
किंछारे (= किनारे)     (अदमी मांस खाय लगलन । ओहू मोहाल भेल तो कोई जट्टा छोड़ के साधु बन गेल आउ भिच्छाटन  ला अंते के राह धयलक, कोई समुन्दर किंछारे कोई गुफा में बास कयलक, तो कोई दिआरा में घर बसौलक ।)    (अदेरा॰1.9)
किरिंग (= किरण)     ( फरिछ धपइते सुरूजदेओ कासीपुरी में हलन । एक्के दफे अपन सहस्सरो-सहस्सर किरिंग छितरा के घरे-घर, जने-जन में बेआप गेलन बाकि कनहूँ इनका ई न बुझायल कि धरम-करम में कोई खामी हे ।; जउन दिन आदमजात ई समझे लगत कि हमहीं सरब सक्तीमान ही, हमरा से उपरे कोइ न हे, ओही दिन ओकर दिवाला बोल जायत आउ ओकर मंगल के किरिंग तब तक न फूटत जब तक उ भगमान के सरनागत न लगत, अध्यातम के सहारा न लेत ।)    (अदेरा॰34.26; 36.18)
कुइआँ (= कुआँ)     (एक मुट्ठी भर अन्न ला लोग छछने, एक चिरु जल ला केतना कुइआँ के कनेटा हुलके । चिरईं चुरगुनी भाग के जंगल में सरन लेलन, अदमी मांस खाय लगलन ।)    (अदेरा॰1.6)
कुचवाना (मूड़ी ~)     (सिउजी के ई जुगती से सुरूजदेओ के मन तो न भरल, बाकि मालिक के मरजी । खिलाफी बतकुच्चन करके अपन मूड़ी कुचवाओ । माथा झुका के कहलन - जे अग्याँ, जाही । देखी, अपन बौसाओ भर तो बाज नहियें आयम ।)    (अदेरा॰34.19)
कुनमुनाना     (मत पूछ, रानी ! - शंकर जी करवट बदलइत कुनमुनइलन - अब लगइत हे कि प्रान निकल जायत !)    (अदेरा॰32 (च).9)
कूतना (= अनुमान लगाना, अटकल लगाना)     (एकरा ला सउँसे देस के कई हलका में बाँट के सब में एक्कगो राज के अमला के परबन्ध करना जे ऊ हलका के जनता से मिलके उनकर जरूरत के अनुसार दुरभिछ दूर करे के इंतजाम करथ आउ अभी तुरत उनकर जरूरत कूत के राजा के पास भेजथ कि ओकर अनुसार राज के तरफ से परबन्ध कइल जा सके ।)    (अदेरा॰24.12)
केतवर (= केतवड़; कितना; तु॰ एतवड़)     (अपने ई न सोचली कि देओतन के धरती निकाला, ओहू एगो मिरित भुवन के राजा के जिद पर, ई केतवर भारी बात हे ।)    (अदेरा॰12.15)
केबाड़ी (= किवाड़)     (बरम्हा जी विष्णु जी के दुहारी पर पहुँचलन तो केबाड़ी बंद । हाँक पारलन, सिकड़ी खटखटौलन तो ओने से आके लछमी जी केबाड़ी खोललन ।)    (अदेरा॰10.30, 31)
कोहागल (~ मन)     (बरम्हा जी विष्णु जी के दुहारी पर पहुँचलन तो केबाड़ी बंद । हाँक पारलन, सिकड़ी खटखटौलन तो ओने से आके लछमी जी केबाड़ी खोललन । ई घड़ी अनबेरा, ओकरो में कोहागल मन इनखा देख के लछमी जी घबड़ा गेलन । परनाम-पाती तो एकदम बिसरिये गेलन, छुटइते पुछलन - "हालचाल तो अच्छा हे न ?")    (अदेरा॰10.31)
खक्खन     (अब सिउजी के मन अड़ाई न भेल । हार-पार के देलन हंकारा सुरूज देओ के । सुरूज देओ के आना हल कि छेम-कुसल का होयत, ई खक्खन में अपन दुखड़े ले बइठलन ।)    (अदेरा॰33.30)
खटतुरुस     (गुरुजी के ई खटतुरुस बतरस से देओतन के जीउ पिचपिचा गेल । पेट में जेतना बात भर के अइलन हल सब लगल जइसे मुँह से वुलक्का मार के निकल जायत ।)    (अदेरा॰29.4)
खटवास-पटवास     (काशी के सुन्नरतई के बरोबरी करत हिमालय ! रतन-बरसी काशी, सुख-समरिधि में तीनो लोक में सेसर काशी, पापमोचनी काशी ! ओकर परतुक हे कहीं ? बाकि हाय-हाय कइला से आउ खटवास-पटवास लेला से जो कोई काम होय लगे तब तो भेल ।)    (अदेरा॰32 (छ).5-6)
खड़जंतर (= षड्यंत्र)     (ई सब बात के हाल राजा भिर पहुँचे, तो कपार ठोकथ । बूझे लगलन कि हमर सामरथ में कमी हो गेल कि देओतन के खड़जंतर सुफल हो गेल । अब इनकर मन दुनिये से एकदम उचट गेल आउ बड़ी बेअगरी से ऊ दिन के असरा जोहे लगलन जब कोई बर्हामन देओता आके उपदेस देतन ।; सिउजी, जे ई लोग के सरगना होके इहाँ विराजमान हलन, उनका फिन से बोलाके परतिस्ठा कइल जाय जेमें उ लोग के मन में जे काँटा हे से निकल जाय । न तो देखइते ही कि अभी उ लोग के खडजंतर से राज में तनी मनी गड़बड़ी होइये रहल हे, अपने के बानप्रस्त आसरम में परवेस कइला पर तो कोई अइसन न हे जे अपने नियन सासन सम्हार सकता ।)    (अदेरा॰52.8; 54.23)
खड़जंतरी     (पंडितराज, तब तो एकर माने ई हे कि अपने हमरा खड़जंतरी लोग के गोड़ पर तरुआर रक्खे कहइत ही ।)    (अदेरा॰54.28)
खनई-पिनई (= खाना-पीना)     (सच्चे, भाषण तो इ अइसन लरछेदार देवे लगथ कि अदमी तो अदमीये, हिरना-हिरनी भी खनई-पिनई बिसर जाय, बयार जइसे चलनई भुला जाय आउ पेड़-बगाध आदर से फूल बरसावे लगे ।)    (अदेरा॰51.13)
खरच-बरच     (अब अदमी लोग एही समझऽ हथ कि अगर जो कइसहूँ देओता-देवी के मना लेल जाय तो बेड़ा पार हे । कोई देओता के टीप लेलन, कुछ दिन साँझे-बिहने हाजिरी देलन, फल-फूल, सिरनी चढ़ौलन, कुछ गुनानुवाद गा देलन । बस चलऽ, बिना खरच-बरच के लइकन-फइकन के रोग-बेयाध दूर ।)    (अदेरा॰9.2)
खस्सी-पठरु     (आउ फिन "जय काली, जय दुर्गा" । फौदारी करे गेलन - जय दुर्गा, चोरी करे गेलन - जय दुर्गा ! बोझा उठावइत जय दुर्गा ! खस्सी पठरु पीटइत जय दुर्गा !)    (अदेरा॰4.4)
खाय (= खाइक; खाना, भोजन)     (बिहने पहर राजा के भनसा में भनसारी लोग खाय बनावे ला आग जरावे लगलन तो ल न, उ तो तितकियो न धरे ! ई का भेल !)    (अदेरा॰32 (क).1)
खाय-ओय (= खाइक-उक; भोजन-उजन; खाना-वाना)     (सब कोई जहाँ के तहाँ माथा पर हाथ धइले बइठल हे कि अब खाय-ओय कइसे बनत !)    (अदेरा॰32 (क).7-8)
खिबखिबाना     ('नारायण, नारायण' गोहरावइत नारद जी आ धमकलन । इनकर बोली सुनइते बरम्हा जी आँख खोललन बाकि मन खिबखिबायल हल से छुटइते बोललन - "का 'नारायण, नारायण' के रट्ट लगौले ह, झुट्ठो के ! ...")    (अदेरा॰5.8-9)
खुद्दे (= खुद ही, स्वयं ही)     ("महाराज" पुजेरी जी विरोधी भाव से बोललन, "अपने खुद्दे उनका सामने जायल जाय, आउ उनकर गोहार सुनल जाय । पूरा पुजेरी जमात के जीमन-मरन के बात हे, हिन्दू धरम के रच्छा के सवाल हे ! ऊ सब हम्मर कहल न अँगारतन । अपनऽहीं के जाहूँ के चाही ।"; अपने खुद्दे ई संसार के मोह माया से विरक्त हो गेली हे, हम तो खाली निमित्त मातर ठहरली ।)    (अदेरा॰15.25; 57.30)
खुनुस (= खुन्नुस, खुनस; गुरही; किसी बात की मन में पड़ी गाँठ; गुरी, अनबन, अप्रसन्नता, बैर-भाव, द्वेष)     (परिवार में कलह के बसेरा हो गेल, गोतियारो में बैर चलल, पट्टी-पट्टी में झगड़ा ठनल, गाँव-जेवार में फरसाद के खुनुस चले लगल ।)    (अदेरा॰44.24)
खेत-बाध     (काशी के व्यवस्था के ई नियम हल कि जेतना लोग कमाय जुकुर हथ से सब खेत-बाध में, नदी-तलाओ में, अहेर में मेहनत करथ आउ बाँट-चुट के खाथ ।; फरके से काशी जी पर नजर परइते सब जोगिनिन के मने हरखित हो गेल । नगर के चारो दन्ने लुहलुह हरिअर खेत-बाध देख के लगल कि उतर के ओकरे में लोट-पोट करे लगथ ।)    (अदेरा॰9.5; 32 (झ).8)
खेती-बारी     (कुछ लोग के सुझाओ होयल कि जेतना अदमी हथ ऊ सब से कुछ न कुछ खेती-बारी के काम लेल जाय, एकरा में बरन, आसरम इया उमर के कोई लेहाज न कइल जाय ।)    (अदेरा॰22.5)
खोज-पुछार     (परजा के सुख-दुख के खोज-पुछार होय लगल । सब एही समझलन कि नया राज लोग के जिनगी में नया आस-विस्वास, नया जोस-खरोस ले के आयल हे ।; कइसन मौज काटइत ह अपने आ हमरा कासीपुरी से निकलवा के तनी खोजो पुछार न करऽ कि सिउ मरइत हथ कि जीअइत ।)    (अदेरा॰25.6; 38.3)
खोसामद-बरामद     (धरती के ऐस-आराम, सौख-मौज सरग में आउ मंदराचल पर कहाँ पाई ! रोज छपनो परकार के भोग, पाँड़े-पुजेरी के साँझे-बिहने-दुपहरिया के गुनानुवाद, स्तुति-वंदना, रोज हजारो मानुस लोग के खोसामद-बरामद !)    (अदेरा॰27.22)
गंगा-जमुनी     (राजा ई बात के नीमन तरी बूझइत हलन कि परजा के सुख-समरिधि आउ राज के उन्ती-बढ़न्ती लागी घरेलू नीति आउ विदेसी नीति दुन्नों के अइसन गंगा-जमुनी बना के चलना हे कि भीतर-बाहर दुन्नों दने से सान्ती रहे आउ देस दिनोदिन आगू मुहें बढ़इत चल जाय ।)    (अदेरा॰25.11)
गदगरना     (हमरा अब ई बात के पूरा बिस्वास हो गेल हे कि अपने आगम-निगम जानऽ ही ।/ जोतिसी के भेस में बइठल गनेस जी मनेमन गदगर रहलन हे । अपन परभाओ के आउ जोड़गर बनावे ला नजर गिरावइत बोललन - हँ-हँ-हँ-हँ । हम का जानम ! एही जरी-मनी अच्छर ग्यान हे, आउ सब अपने अइसन भगत जजमान सब के सरधा परेम हे, आउ का ।)    (अदेरा॰48.1)
गदाल (= गुदाल; शोर)     (उहाँ परजा के जमात दू दल में बँटल हल । एक दल पांडे-पुरोहित के हल जे गदाल कइले हल - "धरम-करम संकट में", "देओतन के बोलावल जाय" आउ दोसर दल, लोग के हल जे राजा के दोहाई देइत हलन कि संकट से कइसे उबार होय ।)    (अदेरा॰32 (ग).10)
गमना (= समझना, अन्दाजा या अनुमान लगाना)     (बिरहस्पति जी भी जमात के रंगत कुछ गमलन, से फिन नरमा के बोललन - "ई तो हम अप्पन मन के भओना बतइलिइयो, अब तोहनिने ई घड़ी के हलावत सोंच के बतावऽ कि का कइल जा सकऽ हे । राजा रिपुंजय के बर्हमा बरदान देलन हे, ओकर उल्लंघन न कइल जा सके ।"; सब भनसारी भानस के दुअरिये पर जौर होके राजा के अगवानी ला अपन मन में ढाढ़स बान्हे लगलन । राजा ई लोग के आज के बरताव देख के दूरे से गम गेलन कि आज कोई गड़बड़ी हे ।)    (अदेरा॰29.10; 32 (क).25)
गरभ-गिरउनी     (ढेर जोगिनी तो जादू-टोना आउ जंतर-मंतर के चलनसार करे लगल, कोई कहे कि वसीकरन मंतर जानऽ ही, तो कोई कहे कि अदमियें उड़ावे के जादू करऽ ही, कोई गरभ-धरउनी बनल, तो कोई गरभ-गिरउनी ।)    (अदेरा॰32 (झ).29-30)
गरभ-धरउनी     (ढेर जोगिनी तो जादू-टोना आउ जंतर-मंतर के चलनसार करे लगल, कोई कहे कि वसीकरन मंतर जानऽ ही, तो कोई कहे कि अदमियें उड़ावे के जादू करऽ ही, कोई गरभ-धरउनी बनल, तो कोई गरभ-गिरउनी ।)    (अदेरा॰32 (झ).29)
गरहाजिरी (= गैरहाजिरी, अनुपस्थिति)     (देवी-देओता तो धरती छोड़ के चलियो गेलन हे, उनकर गरहाजिरी में अपन बिस्वास के अनुसार कोई घर में बइठल उनकर नाम के माला जपे इया उनका पर फूल माला चढ़ावे तो एकरा तो सिच्छा आउ परचार से रस्से-रस्से कम कइल जा सकऽ हे ।)    (अदेरा॰23.5-6)
गरान (= ग्लानि)     (सब जतन कर के हार गेलन तब सब के सब गरान से मरे तुल हो गेलन । अपने में लोग बतिआथ कि मत्तोरी के, एगो आदमजात के हमनी बस में न कर सकली ।)    (अदेरा॰42.29)
गलबाद     (अपने तो ग्यानी ही, गुरुजी महराज । हम अपने आगू का गलबाद करूँ । अपने तो जानऽ ही कि जो कोई रोग के लच्छन बुझइते ओकरा रोके के जतन न कइल जाय आउ बढ़े ला छोड़ देल जाय तो फिन रोगी के जाने पर परऽ हे ।)    (अदेरा॰30.17)
गाँव-गिराँव     (अदमी जानवर बन गेलन, जानवर खुरी रगड़ रगड़ के मरे लगलन । केतना गाँव-गिराँव तो सच्छात मसान बन गेल ।)    (अदेरा॰1.13)
गाँव-जेवार     (परिवार में कलह के बसेरा हो गेल, गोतियारो में बैर चलल, पट्टी-पट्टी में झगड़ा ठनल, गाँव-जेवार में फरसाद के खुनुस चले लगल ।)    (अदेरा॰44.24)
गाढ़ (= विपत्ति)     (जब कोई गाढ़ परऽ हे तबऽहियें न अपना से सेसर बुध-गेयान वाला भिर जाहे ।)    (अदेरा॰32 (छ).17)
गाहे-बेगाहे     (महजाल के गेंठी जइसे राज के अमला सब होवथ आउ तार राज के वेवस्था । गाहे-बेगाहे राजा उठथ आउ कभी राज के ई कोना तो कभी ऊ कोना के निरिख-परिख आवथ ।)    (अदेरा॰25.4)
गियारी     (जब पेट में भूख के अगिन धधकऽ हे तो ओकर जीभ लपलपा के गियारी पार करइत ब्रह्मांड में पहुँचऽ हे आउ मगज के सब अक्किल-ग्यान जार खोर के राख कर दे हे ।)    (अदेरा॰4.17)
गिरनई     (गाँवे-गाँव में अइसन परबंध कइल गेल कि थोड़िके दिन में अति बरखा, अति धूप, मूस-चुहा के उपद्दर, टिड्डी गिरनई, सुग्गा-तोता अइसन पंछी सब से खेती के बरबादी, आउ अपन देस पर कोई दुस्मन के चढ़ाई - ई छओ परकार के ईति के भय भाग गेल ।)    (अदेरा॰26.22)
गिरपरता     (अदमी आउ भूलोक के गिरपरता होके रहना केता हिनस्तई के बात हे, ई बात तोनी न सोचलऽ ।)    (अदेरा॰28.29)
गिलपिल     (बरम्हा जी के छन मन आनन्द से गद्गद हो गेल । आदर आउ सन्मान से उपलाइत मधुर बानी में बोललन - "महामते रिपुंजय !" अइसन निसबद्दी में ई गंभीर बानी से रिपुंजय के ध्यान फट सिन् टूट गेल । आँख खुलइते आगू साच्छात बरम्हा जी के दरसन से गिलपिल हो गेलन आउ साष्टांग दंडवत में डंटा नियन गिर गेलन ।; बात बात में एकाएकी सब से भेंट हो गेल आउ देओतन के विजय के बात से गिलपिल हो गेलन ।)    (अदेरा॰6.23-24; 59.31)
गुदस्त     (दिन बीतल, हप्ता निकसल, पख भागल, महिन्ना गुदस्त भेल, साल आके ठेंकल बाकि चौंसठ में एक जोगिन के भी चित्ता तक न होयल । अब सिउजी के मन अड़ाई न भेल । हार-पार के देलन हंकारा सुरूज देओ के ।; बाकि ई कइसे हो सकऽ हे महाराज ! दुनियाँ में एत्ता बिसय हे ओकर एकाधे गो के ग्यान परापित करइत जिनगी गुदस्त हो जायत ।)    (अदेरा॰33.27; 46.21)
गुने (= गुनी; कारण, चलते)     (हम कोई भिखमंगी पर जीये वाला बर्हामन न ही, कोई के आगू हाथ न पसारी । एही गुने कोइ के ठकुरसोहाती भी न बोली ।)    (अदेरा॰39.26)
गुबदी (= चुबदी, बहुत छोटा गड्ढा)     (जइसे कोई गुबदी भिर आके पानी के धारा हाली सिन दउड़ के गिरऽ हे ओइसहीं चौंसठो जोगिनिन काशी के भीरी अइला पर अपन चाल तेज करके नगर के महल्ले-महल्ले उतर गेलन ।)    (अदेरा॰32 (झ).11)
गुम्मी     ("राजाधिराज महराज दिवोदास की जय" के घोष से असमान अनोर करइत गेलन । बाकि पांडे-पुरोहित के गिरोह गुम्मी नाधले अइसन लौटलन जइसे अपन कोई हित-नाता के परवह करके मसान से घूरल आवइत होथ ।)    (अदेरा॰32 (घ).20)
गुरू-पिंडा     (सब बुतरुन गुरू पिंडा में माघ सिरी पंचमी के खल्ली छुअइत गोहरावऽ हे - "सारसत्त देहू सुमत्ती " ।)    (अदेरा॰4.9)
गेंठी (= गाँठ)     (महजाल के गेंठी जइसे राज के अमला सब होवथ आउ तार राज के वेवस्था । गाहे-बेगाहे राजा उठथ आउ कभी राज के ई कोना तो कभी ऊ कोना के निरिख-परिख आवथ ।)    (अदेरा॰25.3)
गेरा (= गियारी, गरदन)     (ई सुन के बरम्हा जी के मन तो कयलक कि झपट के गेरा में लटपटा जाऊँ बाकि उहाँ पहिलऽहीं से साँप लटपटायल देख के इनकर जोस ठंढा गेल आउ छुच्छे परनाम करके बिदा लेलन ।)    (अदेरा॰13.11)
गोतिया     (सरग में तो दोसरा के देखके जरे ओला, गोतिया के गलावे ओला इन्दर हथ, धरती पर अइसन कोई न रहल जेकरा कोई के देख के जरनी बरे ।)    (अदेरा॰27.2)
गोतियारो (= गोतियारी)     (परिवार में कलह के बसेरा हो गेल, गोतियारो में बैर चलल, पट्टी-पट्टी में झगड़ा ठनल, गाँव-जेवार में फरसाद के खुनुस चले लगल ।)    (अदेरा॰44.23)
गोस्सा (= गुस्सा)     (अब तो इनका बड़ी दुख आउ चिन्ता भेल कि धरम से डिगावे के जतन करके पापो के भागी बनली आउ कमियाँ-नफ्फर नियन सिउजी के डाँटो के भागी बनली । उनकर गोस्सा में परे से भल हे कि जहर पी के पर रहूँ, उनकर नजर से दूर रहला फतंगी बन जाऊँ इया सन्यास ले लूँ, का करूँ !)    (अदेरा॰37.7)
घँसगढ़ा     (ई सब बात सुन के तो सुरूजदेओ के माथे चकरा गेल । एगो घँसगढ़बो एही भक्खा बोले !)    (अदेरा॰36.21)
घड़ी (= क्षण, पल, समय, बखत)     (सूरज उगे घड़ी पूरब में सुक्खल पेड़ पर कउआ बोललो - भागऽ न, का जानी कइसन भयंकर बात होतो । दोकान सब के धारी के बीच में दू वनइया मिरिग पार हो गेलो, बड़ दुखदायी बात होतो । पच्छिम असमान में बढ़नियाँ (धूमकेतु) उगलो, सब रोजगरिया (वैस) के नास होतो ।)    (अदेरा॰44.3)
घाँखड़     ("गुरु महराज", बिच्चे में एगो घाँखड़ देओता बात काटइत टपक पड़लन, "हम एक बात अरज कइल चाहऽ ही ।")    (अदेरा॰29.17)
घुन्नी (~ भर = जरा सा)     (अगर जो हमरा में तप के घुन्नी भर भी बल होयत तो देओतन के सुझा देम कि उनका बिना भी अदमी अपन बाहुबल से कइसे दुनियाँ चला ले हे ।; जउन महापुरुष में काम, क्रोध, लोभ, मोह, हरख आउ अहंकार घुन्नी भर भी न हे, जउन अइसन धरमात्मा हे, ओकर धरम में बिघनी डाल के जे पाप हम करम ओकरा से निस्तार कइसे होयत ?)    (अदेरा॰32 (ग).3; 34.9)
घुरना (= लौटना)     (एन्ने सिउजी के प्रान आवे आउ जाय, जाय आउ आवे । बड़ी अचम्भो में परलन कि का बात हे कि जे कासीपुरी में जाहे सेई सट जाहे । दू बच्छर से जोगिनिन गेलन, चौंसठ में एक न घुर के ताकलन ।)    (अदेरा॰37.23)
घुरमुरिया (हाथ-गोड़ छान के ~ लगाना)     (मोह में परल ह रिपुंजय ? जब ला जीउ अपने से कुछ न करे, हम कुछ न कर सकी, साहारा मातर हम दे ही । जब कोई कम्मर कस्सऽ हे, हाथ-गोड़ चलवऽ हे तब हमहूँ भितरे से कुछ काबू भरऽ ही । जो कोई हाथ-गोड़ छान के घुरमुरिया लगा ले, तो बूझ ल, हम ओकरा कुछ न कर सकी ।)    (अदेरा॰7.15)
घूरना (= लौटना, वापस आना या जाना)     ("राजाधिराज महराज दिवोदास की जय" के घोष से असमान अनोर करइत गेलन । बाकि पांडे-पुरोहित के गिरोह गुम्मी नाधले अइसन लौटलन जइसे अपन कोई हित-नाता के परवह करके मसान से घूरल आवइत होथ ।)    (अदेरा॰32 (घ).21)
घोर-मट्ठा (~ करना)     (सच्चा नेता जे उपरे से सोभाओ आउ बेहवार में रुई के फाहा नियन कोमल रहे आउ भितरे से नियम आउ चाल-चलन में नरियल नियन कठोर ! सब के लेखा-जोखा हमरा भिजुन हे । दोसर कोई के राज देल गेल तो सब घोर-मट्ठा करके रख देत ।)    (अदेरा॰8.2)
चकरचाल     (अपने तो जानइते ही कि हमर गोड़ में चकरी लगल हे । अपन चकरचाल में हम देखली कि महापुरुष रीपुंजय अपन काशी छेत्र में तपस्या कर रहलन हे । इनकर बल पराक्रम के आगू सब बैरी पनाह माँगऽ हल, संकट समस्या तो छीछ काट के भागऽ हल ।)    (अदेरा॰5.25)
चकरब्योंत     (तब मन में विचार कइलन कि अब बिन कोई चकरब्योंत के काम सुफल होय वाला न हे । बदललन अपन चोला आउ पहुच गेलन राजा हीं ।)    (अदेरा॰34.28)
चकरियाना (= चकराना)     (पहिले तो ई बात सुन के सरसती के माथा चकरिया गेल बाकि फिन तुरते एगो उपाय सूझल ।)    (अदेरा॰10.22)
चकरी     (अपने तो जानइते ही कि हमर गोड़ में चकरी लगल हे । अपन चकरचाल में हम देखली कि महापुरुष रीपुंजय अपन काशी छेत्र में तपस्या कर रहलन हे । इनकर बल पराक्रम के आगू सब बैरी पनाह माँगऽ हल, संकट समस्या तो छीछ काट के भागऽ हल ।)    (अदेरा॰5.25)
चनरमा (= चन्द्रमा)     (का कहूँ, आज अइसन देह में लहर ओहू घड़ी न बुझा हल जउन घड़ी हलाहल पान कइली हल । अब तो चनरमा के अमरित बरसावे से भी ई लहर पझाइत न हे । जो हमर भल चाहऽ तो तत्लब्जी कोई जतन करऽ ।)    (अदेरा॰38.14)
चपसना (मन ~)     (अब के धरती के संकट-अकाल दुरभिच्छ के भागला पर सगरो खुसहाली होय से सब देओतन के मन इ बात ला चपसे लगल कि कखनी ऊ सुख के भोगे ला हुआँ पहुँचूँ ।)    (अदेरा॰27.19)
चभिलाना (= चम्हलाना, चँभलाना, चभलाना)     (बर्हामन के भेस में बर्हमा जी चभिला-चभिला के बतिआय लगलन - राजन्, ओइसे तो हम ही इहाँ के पुरान रहवइया बाकि कहाँ राज-दरबार आउ कहाँ एगो अदना बर्हामन !)    (अदेरा॰39.18)
चलता (~ करना)     (पहिले के आयल लोग नियन ई लोग भी इहईं बस गेलन । अब जरिक्को देरी होय पर सिउ जी तुरते उबिया जाथ । संकुकर्न आउ महाकाल के गेला कुच्छे दिन होयल कि घंटाकर्न आउ महोदर के पीठ ठोक के चलता कइलन । बाकि ई लोग भी ओहे राह धइलन ।)    (अदेरा॰41.27)
चलती     (जेकरा हीं लछमी जी पहुँच गेलन धन-धन हो गेल । के न भुखहूँ रह के इनका मेवा-मिस्टान पवा देत । इनके चलते विष्णु के भी चलती हो जाहे । जहाँ कोई पंघत में कोर उठावे लगल तो सबसे पहिले - "जय लछमी नरायण " ।)    (अदेरा॰3.25)
चलनई     (सच्चे, भाषण तो इ अइसन लरछेदार देवे लगथ कि अदमी तो अदमीये, हिरना-हिरनी भी खनई-पिनई बिसर जाय, बयार जइसे चलनई भुला जाय आउ पेड़-बगाध आदर से फूल बरसावे लगे ।)    (अदेरा॰51.13)
चलबाजी (= चालबाजी)     (एतना कह के राजा थोड़े देरी चुप रहलन आउ फिन एकबयक ठठा के हँस देलन । फिन बोललन - अच्छा, देख लेम एहू चलबाजी !)    (अदेरा॰32 (ख).31)
चान (= चाँद)     (दुस्ट लोगिन ला तो ई सुरूज नियन बन गेलन बाकि मीत लोगिन ला चान नियन ।)    (अदेरा॰25.22)
चाही (= चाहिए)     (अब जो हम कुछ कयलो चाही तो हो न सके । आउ कुछ करना औसो के हे । न कइली तो हम तो चल जायम अलगंठे ।; आउ एही हठधरमी में न उनकनिये से राज सम्हरत आउ न कोई के सम्हारहीं देतन । ओखनिन से हमनी के कोई समझौता होना आउ कठिन हो जायत । सेई से अबहियें कुछ करे के चाही ।)    (अदेरा॰3.12; 30.26)
चितपट-पटचित     (मंदर पर्वत के एगो खोह में रतन पदारथ जड़ल मंदिल । ... एकरे भितरी एगो जीउ बघछाला पर लोघड़ल, चितपट-पटचित हो रहलन हे ।)    (अदेरा॰32 (घ).26)
चिरईं-चुरगुनी     (एक मुट्ठी भर अन्न ला लोग छछने, एक चिरु जल ला केतना कुइआँ के कनेटा हुलके । चिरईं चुरगुनी भाग के जंगल में सरन लेलन, अदमी मांस खाय लगलन ।)    (अदेरा॰1.6)
चिरु (= चुरू, चुल्लू)     (एक मुट्ठी भर अन्न ला लोग छछने, एक चिरु जल ला केतना कुइआँ के कनेटा हुलके । चिरईं चुरगुनी भाग के जंगल में सरन लेलन, अदमी मांस खाय लगलन ।)    (अदेरा॰1.5)
चीन्हना (= पहचानना)     (जब तक ई न करम, हमनी अदमी न बनम, कुकुर नियन पोंछडोलवा बनल रहम, अपन आदमीयत न समझम, आत्मा के न चीन्हम ।)    (अदेरा॰21.2)
चूहा-चुटरी     (चूहा-चुटरी नियन लोग पटापट मर रहलन हे बाकि कुछ करइत न बनइत हे ।)    (अदेरा॰20.25)
चेला-चाटी     (अपन चेला-चाटी के जमात बान्हले आवइत देखइते बिरहस्पति बूझ गेलन कि कोई पेंचदार मसला हे । पौंलग्गी-असिरबादी के बाद कुसल-छेम पुछलन तो एक देओता बोललन - "सब तो कुसल हे गुरु महराज जी, बाकि एक्के बात के बड़ी कष्ट हे । अग्याँ होय तो अरज कइल जाओ ।")    (अदेरा॰28.14)
छँहकी (दे॰ छहँकी)     (रिपुंजय इनकर मुखड़ा पर गौर कयलन कि कहीं गोसाय के छँहकी तो न हे । बाकि कोई अनेसा न पा के सहियार सहियार के समझावे लगलन ।)    (अदेरा॰8.20)
छकरित (= छपित; आश्चर्यचकित)     (सब कोई जहाँ के तहाँ माथा पर हाथ धइले बइठल हे कि अब खाय-ओय कइसे बनत ! सब कोई एक दूसर के दसा देख देख के छकरित रह गेल ।; अब सब बात तो अनहिनियें होइत हे तो ई तोरा काहे छकरित कइले हे ।)    (अदेरा॰32 (क).8; 32 (च).17)
छछनना     (एक मुट्ठी भर अन्न ला लोग छछने, एक चिरु जल ला केतना कुइआँ के कनेटा हुलके । चिरईं चुरगुनी भाग के जंगल में सरन लेलन, अदमी मांस खाय लगलन ।)    (अदेरा॰1.5)
छटपट्टी (= छिटपिट्टी; छटपटाहट)     (नजीके पार्वती जी हलन । इनकर छटपट्टी देख के मन में संका होयल । पुछलन - का बात हे ?)    (अदेरा॰32 (च).7)
छहँकी (= छँहकी)     (पंडितराज, तब तो एकर माने ई हे कि अपने हमरा खड़जंतरी लोग के गोड़ पर तरुआर रक्खे कहइत ही । - एकदम न, राजन हमरा गलती न समझल जाय । हमरा कहना हे कि जे औताहर उपद्दर के छहँकी बुझा रहल हे, ओकरा हठ धर्मी तेयाग के बात-समझौता से तय-तमान कर लेल जाय ।)    (अदेरा॰54.30)
छिछ (दे॰ छीछ) (~ काटना)     (पारवती जी छिछ काट के छटकइत बोललन - फरके, फरके, फरके !! तनि देखऽ ! पसेना से देह के भभूत तो लसिआयल हइन - सब अस्तर-बस्तर लेसारतन !)    (अदेरा॰32 (ज).2)
छीछ (~ काट के भागना)     (अपने तो जानइते ही कि हमर गोड़ में चकरी लगल हे । अपन चकरचाल में हम देखली कि महापुरुष रीपुंजय अपन काशी छेत्र में तपस्या कर रहलन हे । इनकर बल पराक्रम के आगू सब बैरी पनाह माँगऽ हल, संकट समस्या तो छीछ काट के भागऽ हल ।)    (अदेरा॰5.28)
छुच्छे (= केवल, खाली)     (ई सुन के बरम्हा जी के मन तो कयलक कि झपट के गेरा में लटपटा जाऊँ बाकि उहाँ पहिलऽहीं से साँप लटपटायल देख के इनकर जोस ठंढा गेल आउ छुच्छे परनाम करके बिदा लेलन ।)    (अदेरा॰13.13)
छोटकुलवन     (जब बड़कन-बड़कन के ई हाल हे तो छोटकुलवन के का कहल जाओ ।)    (अदेरा॰4.31)
छोट-मोट (= छोटा-मोटा)     (ई लोग बड़ी बौखलायल हलन आउ अपना में मिल के अपन बात कइसहूँ जरूर राजा भीर पहुँचावे ला सोंच लेलन हल ।)    (अदेरा॰15.6)
जइसहीं (= जइसीं; जैसे ही) (~ ... तइसहीं)     (जइसहीं जेवरिया चुनिन्दा लोग के सभा सुरु होयल तइसहीं सभा-भवन के बहरी बड़ी जोड़ से गुदाल होयल - "देवी-देओता बोलावल जाथ", "रिपुंजय राज नास हो", "धरम करम संकट में", "देवाधिदेओ उमानाथ की जय" ।; गनेस जी कहलन - न ! खाली करम के बल पर मुक्ति न मिल सके । हाँ, सरग के भागी औसो के होयत, बाकि सरग के सुख भोगइत भोगइत जइसहीं पुन्न ओरिआयल कि फिन ओकरो मिरितलोक में जलम धारन करे परत ।)    (अदेरा॰15.8; 45.23)
जगुन (= जगह; पास, निकट)     (कुछ लोग के विचार हल कि ई सब जतन से साइते कुछ फल निकले, अच्छा होय कि ई देस छोड़ के कहीं अइसन जगुन चलल जाय जहाँ ई दुरभिछ के परभाव न होय आउ जहाँ अन-जल सुगम से मिल जाय ।)    (अदेरा॰22.8)
जजमान (= यजमान)     (हमरा अब ई बात के पूरा बिस्वास हो गेल हे कि अपने आगम-निगम जानऽ ही ।/ जोतिसी के भेस में बइठल गनेस जी मनेमन गदगर रहलन हे । अपन परभाओ के आउ जोड़गर बनावे ला नजर गिरावइत बोललन - हँ-हँ-हँ-हँ । हम का जानम ! एही जरी-मनी अच्छर ग्यान हे, आउ सब अपने अइसन भगत जजमान सब के सरधा परेम हे, आउ का ।)    (अदेरा॰48.4)
जट्टा (= जटा)     (अदमी मांस खाय लगलन । ओहू मोहाल भेल तो कोई जट्टा छोड़ के साधु बन गेल आउ भिच्छाटन  ला अंते के राह धयलक, कोई समुन्दर किंछारे कोई गुफा में बास कयलक, तो कोई दिआरा में घर बसौलक ।; कोई परतीत करत कि ई ओही हथ जिनकर जट्टा से तापहरनी गंगा निकसलन हे आउ सेई ताप से अइसन तपइत हथ कि हरिचन्नन के भी कोई असर न हो रहल हे ।)    (अदेरा॰1.8; 32 (घ).30)
जतन (= यत्न)     (अभी तो खाली एही जतन कयल जायत कि कइसहूँ प्रान बचे । दोसर ई कि हम चाहब कि नियम बान्ह के अपने लोग कुछ जन कारज करी ।)    (अदेरा॰20.2)
जन-फरजन     (सिरजन के काम हे हम्मर, नाम लुटले हथ शंकर । कोई जन-फरजन चाहलक, भोला के जल-बेलपत्तर चढ़ौलक, दूध ढारलक । भोला ढर गेलन, कोख पवित्तर !)    (अदेरा॰3.16)
जबरजस्ती (= जबरदस्ती)     (कुछ लोग ठीक एकर उल्टी बात बोललन कि अइसन संकट काल में धरम के पचड़ा में पर के जनता में आउ असंतोष न फैलावल जाय, आउ ई समस्या में देवी-देओता के जेउ सहारा हे ओकरो जबरजस्ती छीन के जनता के आउ दुखी न बनावल जाय ।)    (अदेरा॰21.30)
जमउअल     (सरग में तो सब देओतन एक पर एक । रूप-गुन, विद्या-बुद्धि, बल-पराकरम में अपने अपने चूर, कोई के कोई लगावे न । अइसन में उ लोग के मानुष छोड़ के आउ कउन मुल्ला फँसे अपन जमउअल ला ।)    (अदेरा॰27.30)
जरनी (~ बरना)     (सरग में तो दोसरा के देखके जरे ओला, गोतिया के गलावे ओला इन्दर हथ, धरती पर अइसन कोई न रहल जेकरा कोई के देख के जरनी बरे ।)    (अदेरा॰27.3)
जरिक्को (= जरा भी)     (पहिले के आयल लोग नियन ई लोग भी इहईं बस गेलन । अब जरिक्को देरी होय पर सिउ जी तुरते उबिया जाथ ।)    (अदेरा॰41.25)
जरी (= तनी, जरा, थोड़ा-सा)     (एक्के बात ला उ लोग जरी दुखी हथ कि ऊ लोग के अनादर करके कासीपुरी से निकाल बाहर कइल गेल हे ।)    (अदेरा॰57.18)
जरी-मनी     (हमरा अब ई बात के पूरा बिस्वास हो गेल हे कि अपने आगम-निगम जानऽ ही ।/ जोतिसी के भेस में बइठल गनेस जी मनेमन गदगर रहलन हे । अपन परभाओ के आउ जोड़गर बनावे ला नजर गिरावइत बोललन - हँ-हँ-हँ-हँ । हम का जानम ! एही जरी-मनी अच्छर ग्यान हे, आउ सब अपने अइसन भगत जजमान सब के सरधा परेम हे, आउ का ।)    (अदेरा॰48.3)
जहिया (= जहिना) (~ ... तहिया)     (हमनी जहिया से धरती के राज तेयाग के कासी से मंदराचल पर अइली हे तहिया से अइसन बुझाइत हे कि हमनी के बनवास हो गेल हे ।)    (अदेरा॰28.19)
जारना-खोरना     (जब पेट में भूख के अगिन धधकऽ हे तो ओकर जीभ लपलपा के गियारी पार करइत ब्रह्मांड में पहुँचऽ हे आउ मगज के सब अक्किल-ग्यान जार खोर के राख कर दे हे ।)    (अदेरा॰4.18)
जिनगी (= जिन्दगी, जीवन)     (जुद्ध करइत गिर गेली तो वीरगति पायम, ई नरकी जिनगी से निकल जायम, आउ जो जीत गेली तो एहू राज के जिनगी में सुख आउ आनन्द बहुर जायत ।; बाकि ई कइसे हो सकऽ हे महाराज ! दुनियाँ में एत्ता बिसय हे ओकर एकाधे गो के ग्यान परापित करइत जिनगी गुदस्त हो जायत ।)    (अदेरा॰22.15, 16; 46.21)
जीनी-मरनी     (ऐसे आउ कोई देओता धरती के ई दुरभिछ दूर करे ला कुछ करथ इया न, हमरा ला तो जीनी-मरनी के सवाल हे । जइसे होय कुच्छो तो करहीं परत ।)    (अदेरा॰4.21)
जीमन (= जीवन)     (बानप्रस्ती बन के जीमन में रमल हथ ।; अच्छा, बतावऽ इनकर परिवारी जीमन कइसन हे ?; अगर ई लोग न रहथ तो संसारी सुख परापित कइलो पर बेअग्गर रहऽ हे, जीमन के आनन्द खतम हो जाहे ।)    (अदेरा॰31.21, 29; 55.22)
जीमन-मरन (~ के सवाल)     ("महाराज" पुजेरी जी विरोधी भाव से बोललन, "अपने खुद्दे उनका सामने जायल जाय, आउ उनकर गोहार सुनल जाय । पूरा पुजेरी जमात के जीमन-मरन के बात हे, हिन्दू धरम के रच्छा के सवाल हे ! ऊ सब हम्मर कहल न अँगारतन । अपनऽहीं के जाहूँ के चाही ।")    (अदेरा॰15.27)
जुकती (= युक्ति, उपाय)     (ई समस्या पर विचार करे ला एक दिन कुछ देओतन जुटान कइलन । सब अप्पन-अप्पन जुकती बतौलन बाकि बर्हमा जी के देल बरदान के काट करे वाला कोई पेंच न निकलल ।)    (अदेरा॰28.5)
जुकुत (= जुकुर; लायक, योग्य)     (राजा समझ गेलन कि ई बर्हामन देओता चापलूसी से कुछ काम निकालल चाहइत हथ से कहलन - अइसन का होयत, बाकि कही न, हम कउन जुकुत ही ।)    (अदेरा॰40.3)
जुकुर (= लायक, योग्य)     (काशी के व्यवस्था के ई नियम हल कि जेतना लोग कमाय जुकुर हथ से सब खेत-बाध में, नदी-तलाओ में, अहेर में मेहनत करथ आउ बाँट-चुट के खाथ ।)    (अदेरा॰9.4)
जुक्ती (= युक्ति, उपाय)     (ई बात सुन के बरम्हा जी के तो खुशी के ठेकाने न रहल । आनन्द से पागल होके विष्णु जी के अकवार में लटपटा गेलन आउ कहलन - "धन्य ! अइसन जुक्ती आउ के बताबित !" बाकि अब रात कम हल से बिदा लेके भागलन सिउ जी देने ।)    (अदेरा॰12.1)
जुगती (= युक्ति, उपाय)     (सिउजी के ई जुगती से सुरूजदेओ के मन तो न भरल, बाकि मालिक के मरजी । खिलाफी बतकुच्चन करके अपन मूड़ी कुचवाओ । माथा झुका के कहलन - जे अग्याँ, जाही । देखी, अपन बौसाओ भर तो बाज नहियें आयम ।)    (अदेरा॰34.17)
जुटान     (ई समस्या पर विचार करे ला एक दिन कुछ देओतन जुटान कइलन । सब अप्पन-अप्पन जुकती बतौलन बाकि बर्हमा जी के देल बरदान के काट करे वाला कोई पेंच न निकलल ।)    (अदेरा॰28.4)
जेवार     (अदमी जानवर बन गेलन, जानवर खुरी रगड़ रगड़ के मरे लगलन । केतना गाँव-गिराँव तो सच्छात मसान बन गेल । जेवार के जेवार उजाड़ हो गेल, न कोई कुत्ते रोवे ला रहल, न सियारे हुआ हुआ करे ला ।; पहिले हरेक गाँव में एगो मुखिया चुनलन । फिन कई गाँव के मुखियन मिल के महाल से एक अदमी के चुनलन आउ तब महाल के मुखियन मिल के जेवार से एक आदमी सभा में पहुँचलन ।)    (अदेरा॰1.14; 14.29)
जोड़ (= जोर)     (जइसहीं जेवरिया चुनिन्दा लोग के सभा सुरु होयल तइसहीं सभा-भवन के बहरी बड़ी जोड़ से गुदाल होयल - "देवी-देओता बोलावल जाथ", "रिपुंजय राज नास हो", "धरम करम संकट में", "देवाधिदेओ उमानाथ की जय" ।)    (अदेरा॰15.9)
जोम (जोर आउ ~ से)     (देओतन के कोई काम अइसन न हे जेकरा धरती के ऊ राजा मानुस लोगिन के जोर आउ जोम से न कर लेइत हे ।)    (अदेरा॰32 (च).21)
जोस-खरोस     (परजा के सुख-दुख के खोज-पुछार होय लगल । सब एही समझलन कि नया राज लोग के जिनगी में नया आस-विस्वास, नया जोस-खरोस ले के आयल हे ।)    (अदेरा॰25.8)
जौर (= साथ, इकट्ठा, एकत्र)     (सब भनसारी भानस के दुअरिये पर जौर होके राजा के अगवानी ला अपन मन में ढाढ़स बान्हे लगलन । राजा ई लोग के आज के बरताव देख के दूरे से गम गेलन कि आज कोई गड़बड़ी हे ।)    (अदेरा॰32 (क).23)
जौरे (= के साथ में)     (विष्णु जी । ई तो अपन छीर-सागर में शेषनाग के गलइचा पर लछमी जी जौरे मस्त होके परल हथ । दुन्नो बेकती सागर से ले ले के दूध पिअऽ हथ, डँड़िया हथ । इनका का फिकिर ।)    (अदेरा॰2.12)
झखुरा     (कोई कहे कि नगर पर चील्ह या गीध देखली तो कहथ कि समझऽ नगर के रहताहर लोग पर आफत हे । कोई जो झखुरा लगौले लँगटे तिरिया के सपना देखे तो समझावथ कि तोहर घर से लछमी के विदाई हो ।)    (अदेरा॰43.30)
झलकाना (= चमकाना)     (राज के भितरी हालत के तो जइसे थोड़िके दिन में माँज-माँज के अइसन झलका देलन कि देखनिहार के नयन जुड़ा जाय ।)    (अदेरा॰26.12)
झहरना     (दुरदिन के रास जे उदासी, जे हरासी के फुल्ली लोगिन के मानस पर जम गेल हल से इनकर भाषण के झिकोरा से जइसे झहर-झहर के उड़े लगल आउ तरे से विमल विचार के मेहराब रसे-रसे चकमकाय लगल ।)    (अदेरा॰21.19)
झाँटना     (पहिले के आयल लोग नियन ई लोग भी इहईं बस गेलन । अब जरिक्को देरी होय पर सिउ जी तुरते उबिया जाथ । संकुकर्न आउ महाकाल के गेला कुच्छे दिन होयल कि घंटाकर्न आउ महोदर के पीठ ठोक के चलता कइलन । बाकि ई लोग भी ओहे राह धइलन । अब सिउजी मूड़ी झाँटथ आउ कहथ कि हमर गनो सब पिछलत्ती दे देलन !)    (अदेरा॰42.1)
टुंगना     (एही हमर कसूर हो सकऽ हे कि अपने तपोबल आउ पवित्तर लच्छ के आगू देओता के टुंगना समझली । बाकि अब हम ई सब जंजाल से निकसल चाहऽ ही । अपने जइसन उपदेस दी, हम करी !)    (अदेरा॰54.17)
ठंढाना (= ठंढा होना या पड़ना)     (ई सुन के बरम्हा जी के मन तो कयलक कि झपट के गेरा में लटपटा जाऊँ बाकि उहाँ पहिलऽहीं से साँप लटपटायल देख के इनकर जोस ठंढा गेल आउ छुच्छे परनाम करके बिदा लेलन ।)    (अदेरा॰13.13)
डँड़ियाना     (विष्णु जी । ई तो अपन छीर-सागर में शेषनाग के गलइचा पर लछमी जी जौरे मस्त होके परल हथ । दुन्नो बेकती सागर से ले ले के दूध पिअऽ हथ, डँड़िया हथ । इनका का फिकिर ।; उ सुझाओ रखलन - देखऽ, ई जे हमनी के गन में चौंसठ गो जोगिनियन सब हथ ऊ खाली बरफे तोड़तन कि कुछ कामो अइतन । खाली खा हथ आउ डँड़िया हथ ।)    (अदेरा॰2.13; 32 (छ).31)
डंटा     (बरम्हा जी के छन मन आनन्द से गद्गद हो गेल । आदर आउ सन्मान से उपलाइत मधुर बानी में बोललन - "महामते रिपुंजय !" अइसन निसबद्दी में ई गंभीर बानी से रिपुंजय के ध्यान फट सिन् टूट गेल । आँख खुलइते आगू साच्छात बरम्हा जी के दरसन से गिलपिल हो गेलन आउ साष्टांग दंडवत में डंटा नियन गिर गेलन ।)    (अदेरा॰6.24)
डेरा-डंडा (= डेरा-डंटा)     (ई सब बात के नतीजा ई भेल कि धरम भठे लगल, अधरम के मन हरखित भेल । आठो सिद्धि जे आके इहाँ बसलन हल, सब एकाएकी अपन-अपन डेरा-डंडा खसकावे लगलन ।)    (अदेरा॰52.6)
ढनढनाना     (सउँसे काशी छेत्र जल बिनु रकटल । जे गंगा उपलायल चलऽ हल से जइसे दुबरा के सितुहिया सोता बन गेल । खेत-खरिहान धुरिया गेल, पेंड़-बगाध सूख के ढनढना गेल ।)    (अदेरा॰1.5)
ढहना-ढनमनाना     (पाँडे-पुरोहित के आदर-मान अलोप हो गेल । हवन-कुंड भस गेल, जग्ग-मंडप ढह-ढनमना गेल । देवी-देओता के भोजन छाजन कइसे चले ? सब रसे-रसे दुबराय लगलन ।; रोना बना के कोई राज पर चढ़ाई करे के बात तो एकदम पगलपाना होयत । एक तो अपन स्वारथ ला दोसर के लूट-पाट करना, राज हड़पना सरासरी अनर्थ आउ पाप के काम होयत, दोसरे अइसन राज भी होय जहाँ एतना उपज होय कि जेकर धन-धान से पूरा एगो दोसर राज के भरन-पोषण हो सके, आउ तेसरे ओइसन समरिध राज हमनी अइसन भुक्खा-कंगाला ढहित-ढनमनाइत राज से हार जाय ।)    (अदेरा॰1.18; 23.18)
ढाही     (मरद ओही जे आफत से ढाही लेवे ला चोबिसो घंटा ठेहुना रोप के तइयार रहे । अपने लोग कइसन घनघोर संकट के भउँरी से देस के निकाल के इहाँ तक ले अइली हे, से का तुरते में बिसार देली !)    (अदेरा॰32 (ग).15)
ढिल्ला (= ढीला)     (राजा के ई उपाय सुफल हो गेल आउ चौंसठो जोगिनिन नाक रगड़-रगड़ के रह गेलन बाकि कोई के भरमा न सकलन, राजा के सासन के कोई पेंच ढिल्ला न कर सकलन ।)    (अदेरा॰33.14)
ढेर (= बहुत, अधिक, अनेक, कई)     (ढेर जोगिनी तो जादू-टोना आउ जंतर-मंतर के चलनसार करे लगल, कोई कहे कि वसीकरन मंतर जानऽ ही, तो कोई कहे कि अदमियें उड़ावे के जादू करऽ ही, कोई गरभ-धरउनी बनल, तो कोई गरभ-गिरउनी ।)    (अदेरा॰32 (झ).29)
तइसहीं (= तइसीं; वैसे ही) (जइसहीं ... ~)     (जइसहीं जेवरिया चुनिन्दा लोग के सभा सुरु होयल तइसहीं सभा-भवन के बहरी बड़ी जोड़ से गुदाल होयल - "देवी-देओता बोलावल जाथ", "रिपुंजय राज नास हो", "धरम करम संकट में", "देवाधिदेओ उमानाथ की जय" ।)    (अदेरा॰15.8)
तक्खड़-पक्खड़ (~ करना)     (कहलन - अपने एकदम निचिन्त रहूँ, हमनी जइते अइसन बान मारम कि परजा का, राजा के भी सब करम-धरम के तक्खड़-पक्खड़ कर देम । हमनी के धन भाग कि हमनियों के ई सेवा के मोका देल गेल ।)    (अदेरा॰32 (ज).31)
तखेयान     (पार्वती जी के मन में एक बात चमक गेल । कहलन - हमर सुझाओ पर जो तखेयान कइल जाय तो हम कुछ कही !)    (अदेरा॰32 (छ).27)
ततलब्जी     (गुह्मक लोगिन राजा के भेदिया बन के परजा में घुलमिल के रहऽ हलन आउ बाते बात के खबर राजा के कान तक पहुँचावऽ हलन जे में जइसहीं तनिक्को गड़बड़ी के भनक लगल कि ततलब्जी ओकर उपचार कइल गेल ।; का कहूँ, आज अइसन देह में लहर ओहू घड़ी न बुझा हल जउन घड़ी हलाहल पान कइली हल । अब तो चनरमा के अमरित बरसावे से भी ई लहर पझाइत न हे । जो हमर भल चाहऽ तो तत्लब्जी कोई जतन करऽ ।)    (अदेरा॰26.15; 38.15)
तत्थ (= तथ्य)     (पंडितराज, अपने जे बात कहली ओकरा में हमरा बहुत कुछ तत्थ बुझा हे ।)    (अदेरा॰57.9)
तनी (= जरा, थोड़ा)     (कइसन मौज काटइत ह अपने आ हमरा कासीपुरी से निकलवा के तनी खोजो पुछार न करऽ कि सिउ मरइत हथ कि जीअइत ।)    (अदेरा॰38.3)
तनी-मनी     (पढ़ुआ लइकन तो हर साल माघ सिरी पंचमी के इनकर पूजा बड़ी हाम-हुम से करऽ हथ । बाकि हमरा तो साइते कोई जानऽ हे । कुछ पढ़ताहर लिखताहर लोग कभी काल तनी-मनी इयाद कर ले हथ ।; हमरा अब तनी-मनी अइसने के अंदेसा बुझाइत हे, साइत दिवोदास अब अपना के सरबसक्तीमान समझे लगल हे ।)    (अदेरा॰4.13; 38.29)
तबहियें (~ तक = तभी तक)     (कोई भी राजा इया राज-व्यवस्था कोई बेकती के अपन धरम-करम में टाँग न अड़ा सके, अइसन करे पर बेकती के असल आजादी खतम हो जाहे । हाँ, बाकि ई तबहियें तक जब तक कि कोई के संबंध ओतने तक रहे जेतना से ओकरा लाभ हो सके ।)    (अदेरा॰19.3)
तय-तमन्ना     (दुन्नों दने के सद्भावना के ओजह से बात के तय-तमन्ना बड़ी औसान हो गेल ।)    (अदेरा॰17.8)
तय-तमान (= तय-तमन्ना)     (पंडितराज, तब तो एकर माने ई हे कि अपने हमरा खड़जंतरी लोग के गोड़ पर तरुआर रक्खे कहइत ही । - एकदम न, राजन हमरा गलती न समझल जाय । हमरा कहना हे कि जे औताहर उपद्दर के छहँकी बुझा रहल हे, ओकरा हठ धर्मी तेयाग के बात-समझौता से तय-तमान कर लेल जाय ।)    (अदेरा॰54.31)
तरा (= तरह)     (आउ ई नाम के साथे कोई न कोई तरा सिउ जी भी आइये जा हथ । काली जी के मुरती में तो जरूर रहऽ हथ, गोड़े तर सही ।)    (अदेरा॰4.5)
तरी (= तरह)     (ई तरी बड़ी बात रक्खल गेल जे में भाषण में एक दिन समाप्त हो गेल । रात भर राजा ई सब सुझाओ पर गौर करइत रहलन । बिहान भेला पर कुछ बूढ़-पुरनियाँ आउ ग्यानी-मानी लोग के राय लेके एगो खाका तइयार कइलन कि कउन-कउन तरी से राजकाज चले आउ कउन-कउन काम कइसे-कइसे पूरा कइल जाय ।)    (अदेरा॰22.25, 28)
तलाजमा     (ई सब में मदद करताहर जोगिनिन सब हइये हलन । जे बात गनेस कहथ ओकरा में हुँकारी भरे वालिन के कमी रहबे न कइल । गनेस कुछ कह के चल जाथ तब ई लोग उनका तरफ से बहस करथ आउ अपन जिनगी से तलाजमा दे दे के बिसवास दिआवथ । काम आगे मुहें सरक चलल । एकर पाछू में ओकर लुतरी जड़ देली आउ ओकर पाछू में एकर, हो गेल बात-बात में बेटहो-पुतहो ।)    (अदेरा॰44.19)
तहईं (= वहीं)     (आजकल जइसे बिना तार के तार चल जाहे ओइसहीं सब जोगिनियन के खट-सिन पता चल गेल कि सिउजी के बोलहटा हे । सब जहाँ हलन तहईं से फटाफट एकाएकी आवे लगलन ।)    (अदेरा॰32 (ज).11)
तहाबोर (= तराबोर)     (अकाल दुरभिछ में भी जब तक दूध रहल, लोग इनका दूध से तहाबोर करइत जाहे कि अइसहूँ औढ़रदानी ढरथ आउ बरखा देथ बाकि ई कहिया बरखा बरखौलन कि अब बरखौतन हल ।)    (अदेरा॰2.25)
तहिया (= तहिना) (जहिया ... ~)     (हमनी जहिया से धरती के राज तेयाग के कासी से मंदराचल पर अइली हे तहिया से अइसन बुझाइत हे कि हमनी के बनवास हो गेल हे ।)    (अदेरा॰28.20)
तितकी     (बिहने पहर राजा के भनसा में भनसारी लोग खाय बनावे ला आग जरावे लगलन तो ल न, उ तो तितकियो न धरे ! ई का भेल !)    (अदेरा॰32 (क).2)
तिनकउड़िया     (हथ इ लोग धुरफंदी, से से उलट-फेर करके समाज के, राज के, इहाँ तक कि धरम-करम के बेवस्था भी हथिया लेलन हे । धरती के सब बेवस्था ई तिनकउड़िया जमात चला रहल हे आउ सत्तवादी, इमनदार, चलित्तरमान लोग इ हुड़दंगी के भउँरी में पर के चाहे तो बूड़ गेलन चाहे अपन सत्त के जीवन के बचावे ला किनारा लगलन, हयरा नियन जंगल के सरन लेलन ।)    (अदेरा॰8.10)
तुरते (= तुरत ही)     (मरद ओही जे आफत से ढाही लेवे ला चोबिसो घंटा ठेहुना रोप के तइयार रहे । अपने लोग कइसन घनघोर संकट के भउँरी से देस के निकाल के इहाँ तक ले अइली हे, से का तुरते में बिसार देली !; पहिले के आयल लोग नियन ई लोग भी इहईं बस गेलन । अब जरिक्को देरी होय पर सिउ जी तुरते उबिया जाथ ।)    (अदेरा॰32 (ग).17; 41.25)
तुरी (= बार)     (ई सब बात सुन के विष्णु जी एक तुरी बरम्हा जी के उदास आउ सोंच में डुबल मुखड़ा पर गौर से नजर फेरलन आउ एकबयक ठठा के हँस देलन ।)    (अदेरा॰11.15)
तोड़ना-कबारना     (अदमी सब तो अप्पन-अप्पन पेट के फिकिर में हलन ओहू न हो रहल हल, फिन ई लोग के खोज-खबर के करे ? अपने से तो ई लोग फल-फूल भी तोड़-कबार के न खा सकऽ हलन ।)    (अदेरा॰1.21)
थुम्ही     (बरम्हा जी के बुझायल कि डूबइत पानी में जे केला के थुम्ही धरायल हल से पिछुल गेल आउ फिनो उजबुजाय लगलन ।)    (अदेरा॰12.22)
थोड़िके (~ दिन में; ~ देरी में)     (ई घड़ी के अकाल से तो एही बुझाइत हे कि थोड़िके दिन में धरती एकदम्मे मसान बन जायत ।; सब जहाँ हलन तहईं से फटाफट एकाएकी आवे लगलन । थोड़िके देरी में मंदिल के भितरी-बाहरी चौंसठो जोगिनियन से ठसाठस भर गेल ।)    (अदेरा॰12.25; 32 (ज).11)
दईंत (= दैत्य)     (सिउजी देखलन कि सामने रथ खड़ा हे आउ ओकर पाछे जुलूस बना के सब देओता-देवी, गन, चामुंडा, .... सिउ के भगत दानो आउ दईंत, गन्धर्व, जक्छ, राच्छस, विद्याधर, अप्सरा, गउ, गरुड़ - सब ठाड़ हथ, साथे बर्हमग्यानी मुनी आउ गिरहस्त लोग भी आयल हथ ।)    (अदेरा॰64.9)
दने (= दन्ने; तरफ, ओर)     (अइसने राजा के कहल जाहे अधिनायक । बाकि अइसने अधिनायक ठकुरसोहाती बात में अझुरा हे, आउ अपने-अपने अधरम के मारग दने सरके लगऽ हे ।)    (अदेरा॰38.26)
दन्ने (= दने; तरफ, ओर)     (फरके से काशी जी पर नजर परइते सब जोगिनिन के मने हरखित हो गेल । नगर के चारो दन्ने लुहलुह हरिअर खेत-बाध देख के लगल कि उतर के ओकरे में लोट-पोट करे लगथ ।; ई सब होइते हल कि गरुड़ जी आके दंडवत कइलन आउ महादे जी के आवे के खबर सुनौलन । ई खबर से बिस्नुजी खुसी से चारो दन्ने निहारे लगलन आ पुछलन कि ऊ कन्ने हथ ।; एक दन्ने से, धरती पर आयल बाकी सब देओता भी जमात बान्हले सिउजी के अगवानी ला चलल आवइत हलन ।)    (अदेरा॰32 (झ).8; 60.22, 24)
दबोचाना     (भनसारी लोग अब एकदम थरथराये लगलन । लगल जइसे भुक्खल बाघ के पंजा में दबोचा गेलन ।)    (अदेरा॰32 (ख).3)
दर-दुनिया     (जिनगी भर जउन बात के उपदेस हम देइत रहली से बात तो अपने अपन जीवन में उतार चुकली । दर-दुनिया के मोह-माया के बंधन से छूट गेली तो अब बाकी का रहल । मोक्छ तो एकरे न कहल जाहे ।)    (अदेरा॰52.29)
दरब (= द्रव्य)     (पुजेरी-परोहित लोग के ई बात के पूरा अधिकार रहत कि अपन विचार आउ ग्यान के मोताबिक भगवान के उपासना करथ, बाकि ई न होय कि ऊ आउ लोग के ई बात पर मजबूर करथ कि गउर गणेश के सोना-चानी चढ़ावऽ न तो कारजे सुफल न होयतो, पुजेरी जी के एतना दरब से पैरपूजी करऽ न तो पिंडदान न होतो, पुरखन नरके में पड़ल रहतथू, सिउलिंग के दूध से डुबावऽ न तो बरखे न होतो, देवी मइया के नाम पर पठरू पीटऽ न तो पुतर-रतन परापिते न होतो ।)    (अदेरा॰19.14)
दरमान (= दरबान, द्वारपाल)     (अगर जो हमरा में तप के घुन्नी भर भी बल होयत तो देओतन के सुझा देम कि उनका बिना भी अदमी अपन बाहुबल से कइसे दुनियाँ चला ले हे । एतना कह के उठवे कइलन हल कि एगो दरमान खबर लैलक कि नगर के लोग भी ई आफत से घबड़ा के भेंट करे अइलन हे ।)    (अदेरा॰32 (ग).5)
दहिना (= दाहिना; दायाँ)     (ई सब बात होयला पर सिउजी बिस्नुजी के बोलाके अपन सिंहासन के बामा दने बइठइलन आउ बर्हमाजी के अपन दहिना दने ।)    (अदेरा॰61.15)
दानो (= दानव, दैत्य)     (सिउजी देखलन कि सामने रथ खड़ा हे आउ ओकर पाछे जुलूस बना के सब देओता-देवी, गन, चामुंडा, .... सिउ के भगत दानो आउ दईंत, गन्धर्व, जक्छ, राच्छस, विद्याधर, अप्सरा, गउ, गरुड़ - सब ठाड़ हथ, साथे बर्हमग्यानी मुनी आउ गिरहस्त लोग भी आयल हथ ।; परतच्छ बोललन - दिवोदास अइसन धरमात्मा आउ जोग राजा, का दानो का मानुष, का देओ - कोई में न होयत ।)    (अदेरा॰64.8; 67.7)
दिवाला (~ बोलना)     (जउन दिन आदमजात ई समझे लगत कि हमहीं सरब सक्तीमान ही, हमरा से उपरे कोइ न हे, ओही दिन ओकर दिवाला बोल जायत आउ ओकर मंगल के किरिंग तब तक न फूटत जब तक उ भगमान के सरनागत न लगत, अध्यातम के सहारा न लेत ।)    (अदेरा॰36.18)
दुनियाँ     (अगर जो हमरा में तप के घुन्नी भर भी बल होयत तो देओतन के सुझा देम कि उनका बिना भी अदमी अपन बाहुबल से कइसे दुनियाँ चला ले हे ।)    (अदेरा॰32 (ग).4)
दुबराना (= दुबला होना)     (घोर अकाल ! कई बच्छर से बून-पानी बिन सुखारे सुखार । सउँसे काशी छेत्र जल बिनु रकटल । जे गंगा उपलायल चलऽ हल से जइसे दुबरा के सितुहिया सोता बन गेल ।; पाँडे-पुरोहित के आदर-मान अलोप हो गेल । हवन-कुंड भस गेल, जग्ग-मंडप ढह-ढनमना गेल । देवी-देओता के भोजन छाजन कइसे चले ? सब रसे-रसे दुबराय लगलन ।)    (अदेरा॰1.3, 19)
दुहारी     (बरम्हा जी विष्णु जी के दुहारी पर पहुँचलन तो केबाड़ी बंद । हाँक पारलन, सिकड़ी खटखटौलन तो ओने से आके लछमी जी केबाड़ी खोललन ।)    (अदेरा॰10.29)
दूत-उत     (अइसने गाढ़ में अप्पन-आन के होहे पहचान । अब अप्पन नाता-गोता के दूत-उत बना के भेजी तो लोग एही कहत कि अपपन चीन्हऽ हथ ।)    (अदेरा॰41.6)
देओतई (= देवत्व)     (ई लोग तो डर के मारे अपन मंदिल से निकलवो न करथ कि कहीं भुखायल गिरोह के पाला में पर गेलन तो समझऽ कि देओतइये झर जाय ।)    (अदेरा॰5.2)
देओता (= देवता)     (जब तक हमनी परतच्छ ही तब तक तो जब न तब मानुष लोग आवइते रहतन आउ ओही लोग कुछ करे ला तंग करइत रहतन । से से आज से हम एही निहचय करऽ ही कि हम आउ सब देओता मानुष लोग के परतच्छ देखार न होयम ।)    (अदेरा॰67.26)
देओता-देवी (= देवता-देवी)     (अब से उनकर अलावे आउ कोई के हुकुम न चलत । देओता-देवी के न कोई हुकुम मानल जायत न उनका कोई बात के अधिकारी समझल जायत ।)    (अदेरा॰13.31)
देखाउर     (साधारन लोग अगम, अगोचर परब्रहम परमेस्वर के धेयान में न ला सके । ऊ कुछ देखाउर चीज खोजऽ हे जेकरा अलम बना के परलोक के बात सोंचे आउ मुक्ति पावे ।)    (अदेरा॰55.19)
देने (= दने, दन्ने; तरफ, ओर)     (ई बात सुन के बरम्हा जी के तो खुशी के ठेकाने न रहल । आनन्द से पागल होके विष्णु जी के अकवार में लटपटा गेलन आउ कहलन - "धन्य ! अइसन जुक्ती आउ के बताबित !" बाकि अब रात कम हल से बिदा लेके भागलन सिउ जी देने ।)    (अदेरा॰12.2)
दोसर (= दूसरा, अन्य)     ( इनका तो अप्पन तन के फिकरे न हे कि का पेन्हूँ, का ओढ़ूँ, इया का खाऊँ । तो दोसर के का कहल जाओ ।; सच्चा नेता जे उपरे से सोभाओ आउ बेहवार में रुई के फाहा नियन कोमल रहे आउ भितरे से नियम आउ चाल-चलन में नरियल नियन कठोर ! सब के लेखा-जोखा हमरा भिजुन हे । दोसर कोई के राज देल गेल तो सब घोर-मट्ठा करके रख देत ।)    (अदेरा॰2.24; 8.1)

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