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Thursday, August 15, 2013

97. "झारखंड मागधी" (वर्ष 2012: अंक-1) में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



झारमा॰ = तिमाही "झारखंड मागधी"; सम्पादक - श्री धनंजय श्रोत्रिय, नई दिल्ली/ पटना

जनवरी-मार्च 2012,  अंक-1 से तिमाही के रूप में । कुल 82 पृष्ठ ।

ठेठ मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर पृष्ठ संख्या, आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति संख्या दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (‘मगही पत्रिका के अंक 1-21 एवं बंग मागधीके अंक 1-2 तक संकलित शब्द के अतिरिक्त) - 261

ठेठ मगही शब्द ( से तक):
1    अकबकाल (राजशिखा हँसइत राधा के इसारा करइत कहलक - "एकरे से पुछ ल ने कि हमर माय के हे ?"/ शंकर अकबकाल माय-बेटी के देख रहल हल । तभिये कोमल सन मीठ अवाज में मुसकावत राधा जी बोललन - "तोहरा कइसन लग रहल हे कि हम राजशिखा के मम्मी नञ् ही ? अजी हमर बड़ बेटी पिंकी ससुरार बस रहल हे, पानी पवइया हे ।")    (झारमा॰12:1:46.21)
2    अकसरुआ (सर ! बाबूजी के मरला के बाद हम त अपनेहीं के बाप समझलियै आउ अपनेहीं बाप के प्यार देते अइलथिन सब दिन । अब माय कहऽ हे कि हमरा से अकसरुआ रहल नञ् जयतौ, जल्दी से कनियाय लाव - पोता-पोती देखूँ आउ गंगा नहाँव ।)    (झारमा॰12:1:28.9)
3    अजाद (= आजाद) (नैयायिक महिम भट्ट के कहनाम हे कि कवि जब अप्पन खास सिरजनात्मक मनःस्थिति के अनुकूल शब्द अउ अर्थ के फिकिर करइत धेयान में डूबऽ हे त अचक्के ओहमें एगो अइसन भीतरी रोसनी लौकऽ हे जे वस्तुअन के सार रूप के छू ले हे । ऊ पल चिजोरवन जत्ते साफ अउ सही झलके हे ओत्ते सधारन पल में नञ् । सचमुच ऊ पल के ऊ सिरजनहार होवऽ हे, कारन ऊ अजाद अउ छुट्टा होवऽ हे ।)    (झारमा॰12:1:16.35)
4    अजादी (= आजादी) (नैयायिक महिम भट्ट के कहनाम हे कि कवि जब अप्पन खास सिरजनात्मक मनःस्थिति के अनुकूल शब्द अउ अर्थ के फिकिर करइत धेयान में डूबऽ हे त अचक्के ओहमें एगो अइसन भीतरी रोसनी लौकऽ हे जे वस्तुअन के सार रूप के छू ले हे । ऊ पल चिजोरवन जत्ते साफ अउ सही झलके हे ओत्ते सधारन पल में नञ् । सचमुच ऊ पल के ऊ सिरजनहार होवऽ हे, कारन ऊ अजाद अउ छुट्टा होवऽ हे । ई अजादी अउ छुट्टापन रचनाकार के खासियत मानल गेल हे ।)    (झारमा॰12:1:16.35)
5    अठमी (सुलतनियाँ के माय ओकरा जलमाके खुदा के नगीच चल गेल । करीम मियाँ बड़ी मोसकिल से अस्पताल से सुलतनियाँ के लैलक हल । सुलतनियाँ माय के दूध नञ् चाखलक बाकि बाप के छाती से सटके कभी-कभार ओकर लोर जरूरे चाट लेलक । सुलतनियाँ करीम के अठमी बेटी हल ।)    (झारमा॰12:1:40.9)
6    अदमदाना (खाना खइते-खइते मेनका के मन अदमदाय लगल, माथा भारी । रसे-रसे ऊ अलसाय लगल । ऊ तक्षक से पुछलक, "तूँ हमरा साथ कुछ फरेब त नञ् कइलऽ तक्षक ? हमर माथा घूमब करऽ हे ।")    (झारमा॰12:1:62.34)
7    अधछेहर (रचना में विज्ञान या गणित के फरमुला के सच्चाई न होवे हे अउ न दर्शन के तार्किक सच्चाई रचताहर ई तथ्य के खूब जानऽ हे । नञ् तो ऊ एक्के गो रचना लिखके चुक्को-मुक्को बैठ जात हल । ऊ बार-बार लिखे हे ई लेल कि हरसठे ओकरा कुछ अधछेहर मालूम होवऽ हे जेकरा ऊ बार-बार पूरा करे ले दिमागी कसरत करऽ हे ।)    (झारमा॰12:1:15.32-33)
8    अनठियाना (डाक्टर मना करलन आउ सलाह देलन - "कुछ दिन के बाद औपरेसन कराथिन, स्वास्थ्य ठीक रहतन ।"/ समय बीतल । आलसी मन बेईमान होवे हे । डाक्टर के कथन के पालन नञ् करल गेल । अजय के मन ऊब गेल । सुनैना अनठिया देलक । पति आउ पत्नी के बीच हल्का-फुल्का तनाव रहे लगल ।)    (झारमा॰12:1:37.21)
9    अनोर ("ई तो धन्न कहो, बेचारी सलमा के । बड़ बहीन ... माय बनके कुल के पोस रहलइ हे । आउ ओज्जै पर देखहो ने, छोटकी बहिनी के । अरे मीरा ! रकसीनी हइ । जेकर घर जइतइ अनोरे कर देतइ । पकिया कुंजड़इनी हइ । एक्को बतिया भुइयाँ गिरइ ले नञ् दे हइ । ... चट्ट सनी जवाब ... ।")    (झारमा॰12:1:41.5)
10    अन्हरउखे (अन्हरउखे मुँहझपुए ओकर बिदागरी हो रहल हे । राम-राम के बेला में काने के अवाज सुनके नीन टूट गेल । पछियारी छज्जा पर निकसलूँ, तउ देखलूँ - सुलतनियाँ सभे के गियारी में लपटके कान रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:42.8)
11    अपसुइया ("माने कि हमरा पहिल बेटी पंदरहे साल में हो गेल हल, चौदह बरिस में बिआह अउ पंदरह में बुतरू ।" अंजुरी पर गिनाइत राधा जी बेखटक बोल देलन ।/ शंकर के मुँह फटल के फटल रह गेल अउ ऊ उनकर सउँसे देह के मुआयना करइत बोलल - "तोहर देह के बनावट से तऽ अइसन लग रहल हे कि अभी अपसुइये हऽ मुदा तों तऽ नानी बने वलऽ हऽ । ई हम की, कोय भी नञ् कह सकऽ हे तोहर काद-काठी देखके ।")    (झारमा॰12:1:47.14)
12    अमरलत्तड़ (सुनके हमरा तो लगे लगल कि ई में सबसे दोसी हमहीं हूँ । बाऊजी के ई अमरलत्तड़ तर छोड़ देनूँ हे । जे इनका से हरियर हो रहलइ हे, उहे सब इनका खतम कर रहलइ हे । हमर घरवली भी जइसे हमर मुँह के बात कह देलकइ - "बाऊजी, हमरा से जे नीमक-सतुआ बनतो, से खिलइबो । चलऽ, नवदवे में रहिहऽ ।")    (झारमा॰12:1:54.8)
13    अरहाना (दे॰ अर्हाना) ("नञ् दीदीया, ई माय न हउ, डायन हउ । हमर बाबा के टोना कर देलकउ हे । फुटलको आँख नञ् सोहवो हइ हमरा । अपने महतमाइन नियन बइठल रहतो, आउ हमरा अरहइतइ ... । मंगजरउनी के मंगिया पर एक चिपड़ी इंगोरा नञ् धर देबइ ।")    (झारमा॰12:1:41.17)
14    अरियाना ("ऐं गे सुलो, काहे ले मइया के पिटवा देलहीं ?" एक दिन पुछलथिन गीता मस्टरनी । - "नञ् ने जानो हथिन, मस्टरनी जी ... " / सुलतिनयाँ शुरू हो गेलो तउ अरिया के तोरे हटे पड़तो । ओकर मुँह में अंगरेजी बाजा हल ... बिना बैटरीवला लाउडीस्पीकर ।)    (झारमा॰12:1:42.3)
15    अलागम (राजा नगीच जाके बोलला - "हे महात्मन् ! हम पियासल ही । हमरा चुरू भर पानी पिला दऽ ।"/  ध्यानस्थ रिसि के तरफ से कोय जवाब न आल । राजा तिलमिला गेला । उनखर तरवा के धूर कपार चढ़ि गेल । ई सब से अलागम रिसि आत्मा-परमात्मा के मिलन से मिलल परमानंद में मगन हला ।")    (झारमा॰12:1:57.19)
16    अलोधन (मेनका के तन से वस्त्र केला के छिलका-सन उतरऽ लगल । दुधिया बल्ब के रोशनी मंद-मंद मुस्कुरा रहल हल आउ छत से चिमकल आधुनिक कैमरा एक्कक दिरिस उतारि रहल हल । देखते-देखते मेनका के जोगावल अलोधन लुटि गेल, जेकरा ऊ बड़ी जतन से केकरो ले बचइले हल ।; ऊ लगातार भुताह नियन हँसइत जा हल । ऊ ताली पीट-पीट के हँसऽ लगल । ई देखि के तक्षक के नीन परा गेल । ऊ मेनका के झकझोरइत पुछलक, "उमताह-सन काहे हँसि रहली हे ? कउन अलोधन पा लेली ? कइसन खुशी में पागल हो रहली हे ?")    (झारमा॰12:1:63.16, 66.9)
17    अल्ल सुबह (आउ गाड़ी में मेनका गाछ से टूटल डेहरी-सन तक्षक के गोदी में लुढ़कि गेल । गाड़ी हवा से बात करे लगल । तक्षक के नजर में मेनका अल्ल सुबह ओस से नहाल गुलाब सन सुंदर, पवित्र आउ आकर्षक लगि रहल हल ।)    (झारमा॰12:1:63.4)
18    इंतहान (= इम्तहान, परीक्षा) (किरनी के माय से बाऊजी के बातचीत तहिया से हल, जहिया से उनकर मालिक एहे विभाग में बाऊजी के साथ काम करऽ हला । विभागीय इंतहान पास करके दुनहुँ एके साथ डाकिया से क्लर्की में आ गेला हल । बाद में बाऊजी डाकपाल बनके शेखपुरा चल गेला । उनकर मालिक अपन बिमारी के चलते इंतहान पास नञ् कर सकला आउ नवादा में रह गेला ।)    (झारमा॰12:1:52.10, 12)
19    इलजाम (दे॰ 'अजलेम', 'इजलेम') ("एहाँ छोड़के ... सीधे-सीधे कहो ने, ई मंगजरौनी के छोड़के । अजबे कलजुग हे कि अदमी बुढ़ारी में भी नुक्का-चोरी खेले में नञ् सरमा हे ।"/ सुनके गोस्सा से फट गेनूँ हम - "मंझली, खबरदार जे हमर बाऊजी पर कोय इलजाम लगयलऽ तो ।"/ छोटकी भी कब चुप रहता हल - "एकरा में इलजाम के की बात हइ ? आखिर हमर घर के मामला में एकर एतना दखल देवे के की जरूरत हइ ? की ई हमर माय हइ ?")    (झारमा॰12:1:54.17, 19)
20    इसटाट (हाँ, ई बात त हे । बात जरी ठो रहे या बड़का गो, सुलतनियाँ के नरेटी के भोंभा इसटाट हो जाहे । सँउसे टोला-महल्ला जान जइतो कि आझ जरूरे कोय बात हे ।)    (झारमा॰12:1:40.5)
21    उखबिक्खी (रचना के जलम बाहरी दबाव में न भितरिया मजबूरी में होवो हइ । अपने सब सोचम कि भितरिया मजबूरी भी त आखिर बाहरी दबावे के परिनाम हे । मुदा दुनहुँ में तफरका हे । बाहरी दबाव जहाँ भीतरी मजबूरी बन जाहे उहँय रचना के जलम होवो हइ । जब तलक भीतरी मजबूरी बनके ऊ रचनाकार के मन उखबिक्खी न ला देहे तब तलक रचना असंगत हे ।)    (झारमा॰12:1:14.10)
22    उधिर (= ओद्धिर; उधर) (उधिर मुन्नी बाई के अत्याचार, भँड़ुअन के पिटाई, बिजली के करेंट से रोज-रोज के सेंकाय, उधड़ल बदन पर बिजली के तारवला बेंत से पिटाय के बाद मेनका टूट गेल । ओकर ना-नुकुर, हील-हुज्जत, आमरण अनशन, सब हथियार बेकार हो गेल ।)    (झारमा॰12:1:64.20)
23    उपरउला (दे॰ उपरउका) (सड़क के दुइयो पट्टी उँचगर-उँचगर इमारत असमान छूए के जतन में घेंच तान के ठाढ़ हे । ई भव्य भवन देखे में घेंच उठइलऽ कि दरद करे लगतो, मुदा मकान के उपरउला तल्ला के दर्शन नञ् ।)    (झारमा॰12:1:55.10)
24    उपरका (हलाँकि अधिकांश के ई मालूम नञ् हल कि आइटियन कौन चिरैं के नाम हे । बाकि बेटा-बेटी से इजहार कैला पर ओकरा पता चल जा हल कि मनोज इंजीनियर में भी उपरका दरजा के इंजीनियर बने के पढ़ाय कर रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:27.31)
25    उमताह (ऊ लगातार भुताह नियन हँसइत जा हल । ऊ ताली पीट-पीट के हँसऽ लगल । ई देखि के तक्षक के नीन परा गेल । ऊ मेनका के झकझोरइत पुछलक, "उमताह-सन काहे हँसि रहली हे ? कउन अलोधन पा लेली ? कइसन खुशी में पागल हो रहली हे ?")    (झारमा॰12:1:66.9)
26    ऊपर-झापर (ऊपर-झापर देखला से अइसन बुझा हे कि रचनाकार जिनगी अउ काम से भगेड़ु बने ले चाहऽ हथ मुदा असल में ऊ भगेड़ुपन नञ् हे बलुक जादे सार्थक ढंग से ओकरा धरऽ हे ।)    (झारमा॰12:1:19.4)
27    एँगारी (ऊख के ~) (ओकर वजन घटइत गेल । भूख खतम, चेहरा पर के मुस्कान पुनिया के चान नियन अलोपित, गुल-थुल शरीर सूखके सिरकंडा । तरह-तरह के रोग के शिकार । बीमारी से लड़े के क्षमता ऊख के एँगारी लेखा बिलाइत गेल । केल्हुआड़ी में ऊख के रस लेखा रोग निरोधक क्षमता चूअइत गेल आ शरीर चपुआ लेखा सूखइत गेल ।)    (झारमा॰12:1:24.6)
28    एत्ती (~ घड़ी) (बुतरू पैदा करे में जौन पीड़ा परसौत घर में माय अनुभो करऽ हे ओही दरद रचनाकार रचना के जलम देवे में अनुभो करऽ हथ । एत्ती घड़ी हमरा कविवर रामनरेश पाठक के एगो गीत 'छोलऽ मुआर' याद आवइत हे ।)    (झारमा॰12:1:16.9)
29    एलौंस (= अनाउंस, announce) (फेन ऊ हमरा लेले सउँसे बोगी में पुछलन कि ई किनखर बुतरू हे । कोय नञ् बोलल तऽ पलेटफारम पर उतरके एलौंस करवइलन, तइयो कोय नञ् आगू आल ।)    (झारमा॰12:1:48.17)
30    ओंठगाना (आखिर ईश्वर के मरजी, संयोग से एगो लड़की के बाप भाग पर ओंठगाके अपन लड़की के बिआह ला तैयार हो गेलन । सोचलन कि पुरुष के भाग न जाने कब खुल जाए । रमेसर के माय-बाप अपन इकलौता बेटा के बिआह करे ला खुशी-खुशी तैयार हो गेलन ।)    (झारमा॰12:1:43.24)
31    ओकी-डोकी (~ लगना = उल्टी महसूस होना)     (झारमा॰12:1:7.4)
32    ओखरी (= उखरी, उखड़ी; ऊखल) (नोवामुंडी (चाइबासा) लोहा के खदान । पहाड़ी इलाका । पहाड़ी के तराई में आदिवासी समुदाय के खुबसूरत मकान । कहीं खपड़ा, कहीं बाँस के खपाची, कहीं-कहीं झर-झलासी से नमूनादार छावल । माटी के देवाल । देवाल चिकन-चाकन, पलास्टर झूठ । बाघ, भालू, हरिन, हाथी, खरगोश, गाछ-बिरिछ, साँप-नेउर, तीर-धनुष, ओखरी में मुंगड़ा से धान कूटइत नारी, हरिन के पाछे तीर-धनुष के साथे दउड़इत राम, परबत के बरफीला चोटी पर पद्मासन पर धेयान लगौले बम भोला, झील-झरना, नदी-तालाब आदि तरह-तरह मट्टी से लिपल-पोतल पहाड़ी आदिवासी के कला-संस्कृति के बखान कर रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:21.4)
33    ओज्जै (दे॰ ओज्जइ) ("ई तो धन्न कहो, बेचारी सलमा के । बड़ बहीन ... माय बनके कुल के पोस रहलइ हे । आउ ओज्जै पर देखहो ने, छोटकी बहिनी के । अरे मीरा ! रकसीनी हइ । जेकर घर जइतइ अनोरे कर देतइ । पकिया कुंजड़इनी हइ । एक्को बतिया भुइयाँ गिरइ ले नञ् दे हइ । ... चट्ट सनी जवाब ... ।")    (झारमा॰12:1:41.4)
34    ओतिए (~ घड़ी = उसी क्षण) (अमरता के इच्छा रचताहर में होवऽ जरूर हे मुदा जौन समय में ऊ रचना के मनःस्थिति से गुजरे हे ओतिए घड़ी ओकर कोय इच्छा न होवऽ हे । ओती घड़ी एक्के गो इच्छा ओकर मन में उपजऽ हे कि जे ऊ रच रहल हे ऊ जादे दमगर अउ अर्थवान बने ।)    (झारमा॰12:1:13.19)
35    ओती (~ घड़ी = उस क्षण) (अमरता के इच्छा रचताहर में होवऽ जरूर हे मुदा जौन समय में ऊ रचना के मनःस्थिति से गुजरे हे ओतिए घड़ी ओकर कोय इच्छा न होवऽ हे । ओती घड़ी एक्के गो इच्छा ओकर मन में उपजऽ हे कि जे ऊ रच रहल हे ऊ जादे दमगर अउ अर्थवान बने ।)    (झारमा॰12:1:13.19)
36    ओत्ते (जत्ते ... ओत्ते = जितना ... उतना ही) (नैयायिक महिम भट्ट के कहनाम हे कि कवि जब अप्पन खास सिरजनात्मक मनःस्थिति के अनुकूल शब्द अउ अर्थ के फिकिर करइत धेयान में डूबऽ हे त अचक्के ओहमें एगो अइसन भीतरी रोसनी लौकऽ हे जे वस्तुअन के सार रूप के छू ले हे । ऊ पल चिजोरवन जत्ते साफ अउ सही झलके हे ओत्ते सधारन पल में नञ् ।)    (झारमा॰12:1:16.34)
37    ओधमानी (पैंतीस साल तक डाक बाबू के नौकरी करके रिटैरमेंट के बाद अपन बाल-बुतरू, नाती-पोता आउ दुनहुँ परानी के साथ जिनगी के सुख लेवे खातिर सउँसे जुआनी ऊ एगो खोंथा बनावे में लगा देलका हल । आज ओहे खोंथा के बाहर, ओसारा के करगी बिगल-फेंकल चीज नियन ढील ओधमानी वाला खटोला पर उनकर दिन-रात गुजरे लगल जेकर अगल-बगल घर के फालतू समान के ढेर हल - बाऊजी जइसन ।)    (झारमा॰12:1:51.5-6)
38    ओनहीं (= ओधरे; उधर ही) (बेचारा रमेसर लाज के मारे गाँव-जेवार के केहु के सामने मुँह न देखावे, लुकायल चले । जने चले ओनहीं 'रमेसर बहु दूसर जौरे निकल गेलइ' के चरचा होवे लगइ ।)    (झारमा॰12:1:44.13)
39    औना-पथारी (~ लगना = अचानक बहुत ज्यादा प्राप्त होना)     (झारमा॰12:1:7.5)
40    कछटना (गाड़ी खुलते मातर तक्षक बोलल, "तोहर अधूरा कहानी हमरा चैन लेवे न दे रहल हे । ओकर शेष हिस्सा सुनले बिना मन कछटइत रहऽ हे, सुनावऽ ।")    (झारमा॰12:1:59.6)
41    कजा (= कज्जा; कहाँ) (डलेवर सीट पर बइठल जुआन छौंड़ तुरी-तुरी हौरन बजा रहल हल । मेनका के ओकर चेहरा पहचानल लगल, बकि याद न आ रहल हल कि एकरा कब कजा देखली हे ।)    (झारमा॰12:1:56.11)
42    कटर-मटर (नरेश के विवश होके पत्नी बिहुला के बात माने पड़ल । राधा अभी दसमा कलास में गेवे कइल हल कि एगो गाम झासा में थोड़े-बहुत कटर-मटर लेबर कलास लड़का से बिआह गौना कर देलक । जखने राधा के उमर होल हल चौदह । घर-गिरहस्ती से अनजान ससुराल में बरतन-वासन करे लगल ।)    (झारमा॰12:1:50.1)
43    कटान (~ लगना = नदी या बाड़ के किनारे के भू-भाग का धारा के प्रभाव में आ जाना)     (झारमा॰12:1:7.7)
44    कनाना (= रुलाना) (शंकर ठिसुआ गेल । शंकर सोचे लगल कि हमरे बोली से न दुख भेल जे कन रहल हल राधा । सायत हम गलत बोल देली । हमरा कुछ नञ् बोले के चाही । चुप होवे ले कइसे बोल सकऽ ही, हमहीं कनइनूँ, हमहीं चुप कइसे करी ?)    (झारमा॰12:1:47.24)
45    कपटी (वासना आउ भूख जतने वेग से जागऽ हे, ओतने वेग से शांत भी हो जा हे । जिनखा कपटी में चाय पीये के चस्का हे, ऊ सोना के गिलास भी जादे दिन तक होंठ से लगइले नञ् रहि सकऽ हथ । तक्षक पर सवार वासना के नशा उतरि गेल त मेनका के ठेकाना लगावइ के तरकीब सोंचऽ लगल ।)    (झारमा॰12:1:64.13)
46    कबकब्बी (~ लगना = खीज महसूस होना)     (झारमा॰12:1:7.9)
47    कमलबाय (= पीलिया रोग) (अब केतना गिनइयो - जेतना रोग ओतना डाक्टर । लेकिन देहात ! देहात में विदेशी मौत अइसन एके गो डाक्टर कैंसर से कमलबाय तक सब ठीक कर दे हथ ।)    (झारमा॰12:1:30.3)
48    करगी (पैंतीस साल तक डाक बाबू के नौकरी करके रिटैरमेंट के बाद अपन बाल-बुतरू, नाती-पोता आउ दुनहुँ परानी के साथ जिनगी के सुख लेवे खातिर सउँसे जुआनी ऊ एगो खोंथा बनावे में लगा देलका हल । आज ओहे खोंथा के बाहर, ओसारा के करगी बिगल-फेंकल चीज नियन ढील ओधमानी वाला खटोला पर उनकर दिन-रात गुजरे लगल जेकर अगल-बगल घर के फालतू समान के ढेर हल - बाऊजी जइसन ।)    (झारमा॰12:1:51.5)
49    कल्हैं (= कल ही) (सँउसे देह पर भगजोगनी के चादर लपेटले, ई सुलतनियाँ एके दिन में एतना बदल कइसे गेलइ ? कल्हैं तो गोखला के बेटवा से लड़ गेलइ - "अरे भंगलाहा, तरमनमा में धर अइबउ  रे ! बप्पा कुछ बिगाड़वे नञ् करतउ, तों की अइलें हें बिख छाँटे ?")    (झारमा॰12:1:39.13)
50    कसैन्हा (~ लगना = स्वाद में कसाय लगना)     (झारमा॰12:1:7.10)
51    कारी (= काली) (बाद में टोला-पड़ोस वला नाम धइलक 'कारी' काहे कि पूरे परिवार इहे रंग के हल । ई लेल रंग के हिसाब से कारी नाम जँचल भी । बिहुला, नरेश, आभा, राकेश के एक रंग 'करिया' अउ सबसे अलग राधा गोर - एकदम दपदप !)    (झारमा॰12:1:49.28)
52    किरिन (ठीके-ठीक दुपहरिया हे, ऊ भी जेठ के । सूरज आग उगल रहल हे । मार्तंड देव के प्रचंड किरिन से दग्ध वसुधा तवल तावा नियन लहलह हे ।)    (झारमा॰12:1:55.17)
53    कुंजड़इनी (पकिया ~) ("ई तो धन्न कहो, बेचारी सलमा के । बड़ बहीन ... माय बनके कुल के पोस रहलइ हे । आउ ओज्जै पर देखहो ने, छोटकी बहिनी के । अरे मीरा ! रकसीनी हइ । जेकर घर जइतइ अनोरे कर देतइ । पकिया कुंजड़इनी हइ । एक्को बतिया भुइयाँ गिरइ ले नञ् दे हइ । ... चट्ट सनी जवाब ... ।")    (झारमा॰12:1:41.5)
54    कुंजरघउर (एकरे न कुंजरघउर कहऽ हइ । खाय के ठेकाना नञ् हो, बाकि खटिया उपास नञ् रहे के चाही ... दुर ... सुते के जग्गह नञ् आउ खटिया ... । कज्जा बिछइवऽ खटिया ? खुदा के करम ... अप्पन करनी दइवा के दोस ।" ओने से झनकली मकनपुरवली ।)    (झारमा॰12:1:40.35)
55    कुकुअत (~ लगना = अस्थिरचित्तता महसूस होना)     (झारमा॰12:1:7.12)
56    कुट्टी-कुट्टी (एक दिन छोट-मोट बात पर मनोज के घर से चौधरी टिक्कर सिंह के घर से भिड़ा-भिड़ी हो गेल । फौज के जोश ! मोहन सिंह टिक्कर सिंह के भाय-गोतिया के भदार के रख देलन । आठ दिन तक शांति रहल । फेर एक दिन टिक्कर सिंह के गैंग, मोहन सिंह के धोखा से पकड़के काटके कुट्टी-कुट्टी कर देलक ।)    (झारमा॰12:1:27.16)
57    कुद्दी (~ लगना = अलग-अलग लोगों के लिए हिस्सा विभक्त हो जाना)     (झारमा॰12:1:7.14)
58    केंकियाना (मोटरगाड़ी के भारी जाम सड़क पर ई तरह जमकल हे कि पैदल पाँव चलेवला मोसाफिर के भी निकलइ के जुगाड़ नञ् मिल रहल हे । गाड़ी के चक्के नियन अदमी के पाँव भी जाम हो गेल हे । अदमी खोजे दाव, मच्छी खोजे घाव । अइसने में मनचला छौंड़न फिराक में रहऽ हे । ओकर पौ बारह ! केंकियायत रहे छौंड़िन ... कोय ध्यान नञ् ।)    (झारमा॰12:1:55.21)
59    केंबाची (मेहरारू बसंती चान के चेहरा में साट लेल अतना सुंदर ! गठल-गठल शरीर, ताड़ के कोआ लेखा आँख, पान के पात लेखा पातर-पातर ओठ, सुराहीदार गरदन, बाँस के केंबाची लेखा लचकइत कमर ओकरा ला बिख भरल गागर बन गेल ।)    (झारमा॰12:1:22.5)
60    कोआ (= कोवा; ताड़ के फल के अंदर का गुद्दा) (मेहरारू बसंती चान के चेहरा में साट लेल अतना सुंदर ! गठल-गठल शरीर, ताड़ के कोआ लेखा आँख, पान के पात लेखा पातर-पातर ओठ, सुराहीदार गरदन, बाँस के केंबाची लेखा लचकइत कमर ओकरा ला बिख भरल गागर बन गेल ।)    (झारमा॰12:1:22.4)
61    कोना (दे॰ कोनियाँ) (~ भीतर धरके कुहकना) (जाने कौन भावावेश में हमरो मुँह से निकलिये गेल - "हाँ, हमर माय हे ई । ... आउ सुनलें तोहनी, इनका हम बहुत पहिले से माय मान रहलिये हे आउ सच्चो-मुच्चो के माय बनाके रहबइ । तोहनी बाले-बच्चे टीभी तर बैठके ठिठियैते रहमहीं आउ बुढ़वा बेचारा कोना भीतर धरके कुहकते रहतइ । हम अइसन नञ् होवे देबइ ।")    (झारमा॰12:1:54.25)
62    कोनियाँ (~ भीतर/ भित्तर) ("बउआ दादा हो कक्का - लालमी मिलतो चार अने फक्का ।"/ माथा पर बट्टा उठइले ऊ कहऽ हल - 'माथा पर टोकरी - के पूछे नौकरी' । हरेक टेर में कविता के टेक । घर के कोनियाँ भीतर में सुटकल नउकी दुलहिन भी खिड़की में लगल झलदार परदा हटाके करीम्मा के हुलके लगऽ हल । दिरैंची-भुड़की के ऊ पट्टी से चूड़ी के खनखनाहट से छेउँकल मुसकी के गंध से करीम्मा के टहकार आउ बढ़ जा हल ।)    (झारमा॰12:1:40.27)
63    खखोरन (सुलतिनयाँ शुरू हो गेलो तउ अरिया के तोरे हटे पड़तो । ओकर मुँह में अंगरेजी बाजा हल ... बिना बैटरीवला लाउडीस्पीकर । से सुलतनियाँ कहलक - "कबूल हइ ।" अवाज में लगे नीमीवला केतारी के रस पाक पर हे ... सोन्ह ... महमह ... कड़ाह पर के खखोरन के चूरा ... गरमागरम ।)    (झारमा॰12:1:42.6)
64    खपाची (नोवामुंडी (चाइबासा) लोहा के खदान । पहाड़ी इलाका । पहाड़ी के तराई में आदिवासी समुदाय के खुबसूरत मकान । कहीं खपड़ा, कहीं बाँस के खपाची, कहीं-कहीं झर-झलासी से नमूनादार छावल ।)    (झारमा॰12:1:21.2)
65    खयले-बिनखयले (हड़ताल के कारण खदान में तालाबन्दी के शिकार बेचारा लामागुड़ी लकड़ी के गट्ठर ले जाके हटिया में बेचल करे बाकि हड़िया में लौटित खानी सब लुटा जाय । डगमगाइत घर आवे । खयले-बिनखयले जमीन पर लेट के बिहान कर देवे । फिन जंगल में जाके लकड़ी काटे, हटिया जाए, हड़िया पिए, डोलइत-डालइत घर आवे ।)    (झारमा॰12:1:22.10)
66    खाना-बुतात (पेट के आग इनसान के धरम-करम भकोस जाहे । बसंती पेट के आग में जर रहल हे । लइकन के न बढ़िया खाना-बुतात, न कपड़ा-लत्ता, न पढ़ाई-लिखाई ।)    (झारमा॰12:1:22.18)
67    खासमखास (छठी शताब्दी में आचार्य भामह काव्य हेतु पर विचार करइत 'प्रतिभा' के काव्य-रचना के ओजह मानलन हे । 'प्रतिभा' ऊ एगो खासमखास भीतरी तागत हे, जेहमें उद्भावना अउ रचना के विरल क्षमता होवऽ हे ।)    (झारमा॰12:1:12.7)
68    खोसामद (= खुशामद) (आज तीस तारीख हइ । भोरे-भोरे घी लगल रोटी आउ रामतोड़इ के तरकारी के साथ एक कटोरा दूध भी मिल गेल हल । हाथ में पानी के लोटा लेके पोता बार-बार खोसामद कर रहल हल - "बाबा, अब उठ जा । हथवा धो लऽ । दुधवा में कुछू पड़ जइतो ।")    (झारमा॰12:1:51.21)
69    खौंतना (आउ ऊहे जाम में फँसल हे मेनका । दुधिया गोराय धूप से तपिके गुलाबी हो गेल हे । ओकर अंग-अंग से जुआनी के मध टपक रहल हे । छौंड़न के धक्कम-धुक्की से ऊ आजिज हे । मने-मन ऊ विधाता पर खौंत रहल हे - रूप देलऽ रानी के, घर देलऽ भिखारी के ।)    (झारमा॰12:1:56.4)
70    गजड़ा (= गाजर) (करीम पेशा से कुंजड़ा हे । दिन भर तरकारी, फल, गजड़ा, मुरई बेचके घर चलाना ममूली बात हइ ?)    (झारमा॰12:1:40.19)
71    गप्स (~ लगना) (= कपड़े आदि का गाढ़ा होना)     (झारमा॰12:1:7.17)
72    गरारा (= लड़कियों का एक प्रकार का ढीला पायजामा) (न ... ई ऊ त नञ् हो सकऽ हे । कहाँ ऊ सुलतनियाँ ! कहाँ ई सुलतनियाँ ? चमचमाल गरारा आउ दमदमाल ओढ़नी ओढ़के सिकुड़ल, मुड़ी झुकइले, ई सुलतनियाँ तो नहिएँ हो सकऽ हे । सँउसे देह पर भगजोगनी के चादर लपेटले, ई सुलतनियाँ एके दिन में एतना बदल कइसे गेलइ ?)    (झारमा॰12:1:39.7)
73    गस्ती (~ लगना = मूर्च्छा आना)     (झारमा॰12:1:7.18)
74    गाँव-घर (अइसहीं करत-करत ऊ गाँव के एगो मनचला लड़का के फँसा लेलक । कुछ दिन बाद ओकरा जौरे भाग के बिआहो कर लेलक । बेचारा रमेसर के इज्जत मट्टी में मिल गेल । गाँव-घर हँसे लगल कि ई पढ़ल-लिखल बाबू हथ । एगो औरत न सम्हललइन, छोड़के दुसरा जौरे भाग गेलइन ।)    (झारमा॰12:1:44.9)
75    गारा (~ लगना = खाते समय सत्तू आदि खाद्य-पदार्थ का गले से अटक जाना)     (झारमा॰12:1:7.20)
76    गिनाना (एक दशक पहिले बिहार के भूमि के भूगोल खंड-खंड हो गेल । ... दुनियाँ में कल जौन बिहार अप्पन खनिज संपदा ले जानल जा हल, देखते-देखते दुनिया के गरीब से गरीब राज्य में गिनाय लगल ।)    (झारमा॰12:1:5.8)
77    गिरहत (= गिरहस; गृहस्थ) (जइसे जजात चरे के अंदेशा से गिरहत खेत के मचान पर टीन बजावे हे, डपाठी पटके हे, उहे हाल हल सुलतनियाँ के । सतेली माय के पिटा गेला से एकर मन ठंढाऽ जा हल । पता नञ् ... ई ठंढई के की कारण हल ।)    (झारमा॰12:1:41.33)
78    गिलटामन (~ लगना = गिजबिजा लगना, कुत्ते-बिल्ली आदि के बच्चों को बार-बार छूने के कारण उनके रोएँ का बिखर जाना)     (झारमा॰12:1:8.1)
79    गुलथुल ("चाची तू गोइठा लेखा सूखल काहे जाइत हऽ ? तीन साल पहिले तोरा हम गुलथुल देखके बड़ी खुशी होली बाकि आझ हमरा सामने एगो सवाल ठार हो गेल ।" मंझवेकर समझ के भी पचवले हथ ।; ओकर वजन घटइत गेल । भूख खतम, चेहरा पर के मुस्कान पुनिया के चान नियन अलोपित, गुल-थुल शरीर सूखके सिरकंडा । तरह-तरह के रोग के शिकार । बीमारी से लड़े के क्षमता ऊख के एँगारी लेखा बिलाइत गेल । केल्हुआड़ी में ऊख के रस लेखा रोग निरोधक क्षमता चूअइत गेल आ शरीर चपुआ लेखा सूखइत गेल ।)    (झारमा॰12:1:23.1, 24.5)
80    गोराय (अइसने में मनचला छौंड़न फिराक में रहऽ हे । ओकर पौ बारह ! केंकियायत रहे छौंड़िन ... कोय ध्यान नञ् । ढेर भेल तऽ उलटके ताकलको आउ विवशता पर अपना के छोड़ देलको ।/ आउ ऊहे जाम में फँसल हे मेनका । दुधिया गोराय धूप से तपिके गुलाबी हो गेल हे । ओकर अंग-अंग से जुआनी के मध टपक रहल हे । छौंड़न के धक्कम-धुक्की से ऊ आजिज हे ।)    (झारमा॰12:1:56.2)
81    घिचना (= खिंचना) (मनोज के माय मरदाना के पेंशन आउ सरकार के थोड़े-थाक सहयोग के बल पर तीनों बेटी आउ फोहा बुतरू के पाले लगलन । भगवान तो परीक्षा ले हथ । एक दिन ओकर बेटा के हाथ-गोड़ घिचे लगल, डाक्टर हीं गेला पर मालूम होल कि ऊ फलिस्ता के पोलियो मार देलक हे ।)    (झारमा॰12:1:27.21)
82    घुमनी (~ लगना = चक्कर आना)     (झारमा॰12:1:8.9)
83    घुमारी (~ लगना = चक्कर आना)     (झारमा॰12:1:8.9)
84    घूमब (खाना खइते-खइते मेनका के मन अदमदाय लगल, माथा भारी । रसे-रसे ऊ अलसाय लगल । ऊ तक्षक से पुछलक, "तूँ हमरा साथ कुछ फरेब त नञ् कइलऽ तक्षक ? हमर माथा घूमब करऽ हे ।")    (झारमा॰12:1:63.1)
85    घेंच (= घेंची, गरदन) (सड़क के दुइयो पट्टी उँचगर-उँचगर इमारत असमान छूए के जतन में घेंच तान के ठाढ़ हे । ई भव्य भवन देखे में घेंच उठइलऽ कि दरद करे लगतो, मुदा मकान के उपरउला तल्ला के दर्शन नञ् ।)    (झारमा॰12:1:55.9, 10)
86    चउड़गर (पटना के करेजा - अशोक राजपथ । गाँधी मैदान के उत्तर छोर से पूरब तरफ बढ़ऽ कि देखऽ एकर तमाशा ! चिक्कन छहछह, साफ-सुत्थर, चउड़गर फइलल सड़क के भुइयाँ खोजलो पर नजर नञ् पड़तो । कार-कार टेंपू से सउँसे सड़क तोपल ।)    (झारमा॰12:1:55.2)
87    चकुन्ना (~ लगना = किसी लड़की को मोटापा बढ़ जाना)     (झारमा॰12:1:8.12)
88    चपाठ (दे॰ चपाट) (~ लगना = मूर्ख दिखना, गँवार लगना)     (झारमा॰12:1:8.13)
89    चपुआ (= ईख के सीठी, खोहिया, खोइया) (ओकर वजन घटइत गेल । भूख खतम, चेहरा पर के मुस्कान पुनिया के चान नियन अलोपित, गुल-थुल शरीर सूखके सिरकंडा । तरह-तरह के रोग के शिकार । बीमारी से लड़े के क्षमता ऊख के एँगारी लेखा बिलाइत गेल । केल्हुआड़ी में ऊख के रस लेखा रोग निरोधक क्षमता चूअइत गेल आ शरीर चपुआ लेखा सूखइत गेल ।)    (झारमा॰12:1:24.8)
90    चमकाना (मुँह ~) (एक दिन तो समसावली कह देलखिन - "जहिया से कारो मियाँ नयकी के लैलखिन हे, इनखर दिमगवे असमान पर रहऽ हइ ।" - "असमान पर की रहतइ ? ई अजलत के कोकलत कइलकइ हे कि .. । ई उमर में एतना ढेना-ढेनी के रहते बुढ़ारी में घिढारी ... ? बड़की बिआहे जुकुर हो गेलइ, बाकि अभी त एकरे सबुर नञ् हइ ... ।" मुँह चमका के कहलकी नोमावली ।)    (झारमा॰12:1:40.34)
91    चमचमाल (न ... ई ऊ त नञ् हो सकऽ हे । कहाँ ऊ सुलतनियाँ ! कहाँ ई सुलतनियाँ ? चमचमाल गरारा आउ दमदमाल ओढ़नी ओढ़के सिकुड़ल, मुड़ी झुकइले, ई सुलतनियाँ तो नहिएँ हो सकऽ हे । सँउसे देह पर भगजोगनी के चादर लपेटले, ई सुलतनियाँ एके दिन में एतना बदल कइसे गेलइ ?)    (झारमा॰12:1:39.6)
92    चरगोड़वा (गुड्डी हमरे साथ इनफोसिस में काम करऽ हइ । हमरा नीयन विकलांग नञ् हइ । पता नञ् हमर कौन गुन भा गेलइ ओकरा, जे दू हाथ-गोड़ वाला के छोड़के ई चरगोड़वा के पसंद कैलकै आइटीयन होके । जानऽ हखिन सर, गुड्डी टिक्कर सिंह के सगा साढ़ू के बेटी हइ ।)    (झारमा॰12:1:28.13)
93    चहकना (कल्हैं तो गोखला के बेटवा से लड़ गेलइ - "अरे भंगलाहा, तरमनमा में धर अइबउ  रे ! बप्पा कुछ बिगाड़वे नञ् करतउ, तों की अइलें हें बिख छाँटे ?"/ ओने से गोखला आ रहलइ हल । कहलकइ - "की बात हलउ ? काहे ले चहक रहलहीं हे ?")    (झारमा॰12:1:39.20)
94    चाँड़ा (~ लगना = हल के साथ लगाई गई नालीदार जुगाड़ के साथ बीज को जुताई के समय बुआई के लिए लगातार जमीन में डालना)     (झारमा॰12:1:8.14)
95    चिकन-चाकन (नोवामुंडी (चाइबासा) लोहा के खदान । पहाड़ी इलाका । पहाड़ी के तराई में आदिवासी समुदाय के खुबसूरत मकान । कहीं खपड़ा, कहीं बाँस के खपाची, कहीं-कहीं झर-झलासी से नमूनादार छावल । माटी के देवाल । देवाल चिकन-चाकन, पलास्टर झूठ ।)    (झारमा॰12:1:21.3)
96    चित्त (= चित) (की करइ बेचारी ? माय के मुँह नञ् देखलकइ, होस भेलइ तउ सतेली माय, बाप के दिन भर फुरसते नञ् रहो हइ । साँझ होलो तउ ताड़ी पीके चित्त ... ।")    (झारमा॰12:1:41.8)
97    चिन्हल (अपन तिनचकवा स्कूटर जब एगो नौजवान, हमर घर के सामने लगैलक त हम थोड़े देर तक ओकरा निहारते रहली, पहचाने के कोरसिस करते रहली बाकि पहचान नञ् सकली । हलाँकि छहँक से लग रहल हल कि ई नौजवान हमर चिन्हल हे ।)    (झारमा॰12:1:26.3)
98    चिपड़ी (दे॰ चिपरी) ("नञ् दीदीया, ई माय न हउ, डायन हउ । हमर बाबा के टोना कर देलकउ हे । फुटलको आँख नञ् सोहवो हइ हमरा । अपने महतमाइन नियन बइठल रहतो, आउ हमरा अरहइतइ ... । मंगजरउनी के मंगिया पर एक चिपड़ी इंगोरा नञ् धर देबइ ।")    (झारमा॰12:1:41.17)
99    छरबिन्हा (पटना के करेजा - अशोक राजपथ । गाँधी मैदान के उत्तर छोर से पूरब तरफ बढ़ऽ कि देखऽ एकर तमाशा ! चिक्कन छहछह, साफ-सुत्थर, चउड़गर फइलल सड़क के भुइयाँ खोजलो पर नजर नञ् पड़तो । कार-कार टेंपू से सउँसे सड़क तोपल । टेंपू सले-सले अइसन सड़क जइसे छरबिन्हा के जमात जमीन पर रेंग रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:55.4)
100    छहछह (चिक्कन ~) (पटना के करेजा - अशोक राजपथ । गाँधी मैदान के उत्तर छोर से पूरब तरफ बढ़ऽ कि देखऽ एकर तमाशा ! चिक्कन छहछह, साफ-सुत्थर, चउड़गर फइलल सड़क के भुइयाँ खोजलो पर नजर नञ् पड़तो । कार-कार टेंपू से सउँसे सड़क तोपल ।)    (झारमा॰12:1:55.2)
101    छाव (रमेसर के फूटल भाग चकनाचूर हो गेल । ऊ नइकी बहुरिया बिआहे रात से अपन छाव देखावे लगल । रोज नया-नया क्रीम पाउडर के माँग करे । हल तो गरीब घर के बेटी बकि कुछ-न-कुछ करामात करके रोज घर में कल्लह करे ।)    (झारमा॰12:1:43.31)
102    छुटगर (ऊ पल चिजोरवन जत्ते साफ अउ सही झलके हे ओत्ते सधारन पल में नञ् । सचमुच ऊ पल के ऊ सिरजनहार होवऽ हे, कारन ऊ अजाद अउ छुट्टा होवऽ हे । ई अजादी अउ छुट्टापन रचनाकार के खासियत मानल गेल हे । अजाद अउ छुटगर रहके ही ऊ रचे हे अउ वस्तुअन के अर्थ देइत अर्थ के तलासे हे ।)    (झारमा॰12:1:17.1)
103    छुट्टापन (नैयायिक महिम भट्ट के कहनाम हे कि कवि जब अप्पन खास सिरजनात्मक मनःस्थिति के अनुकूल शब्द अउ अर्थ के फिकिर करइत धेयान में डूबऽ हे त अचक्के ओहमें एगो अइसन भीतरी रोसनी लौकऽ हे जे वस्तुअन के सार रूप के छू ले हे । ऊ पल चिजोरवन जत्ते साफ अउ सही झलके हे ओत्ते सधारन पल में नञ् । सचमुच ऊ पल के ऊ सिरजनहार होवऽ हे, कारन ऊ अजाद अउ छुट्टा होवऽ हे । ई अजादी अउ छुट्टापन रचनाकार के खासियत मानल गेल हे ।)    (झारमा॰12:1:17.1)
104    छेंका (= छेका; विवाह पक्का करने के लिए वर या वधू को विधिवत् उपहार और आशीष तथा वर पक्ष को अग्रिम देने का रस्म) (लड़की सबके पसंद आवऽ हे । छेंका अउ शादी के तारीख भी रंजीत बाबू तय कर दे हथ ।)    (झारमा॰12:1:35.20)
105    छेउँकल (= छौंकल; छौंका हुआ) ("बउआ दादा हो कक्का - लालमी मिलतो चार अने फक्का ।"/ माथा पर बट्टा उठइले ऊ कहऽ हल - 'माथा पर टोकरी - के पूछे नौकरी' । हरेक टेर में कविता के टेक । घर के कोनियाँ भीतर में सुटकल नउकी दुलहिन भी खिड़की में लगल झलदार परदा हटाके करीम्मा के हुलके लगऽ हल । दिरैंची-भुड़की के ऊ पट्टी से चूड़ी के खनखनाहट से छेउँकल मुसकी के गंध से करीम्मा के टहकार आउ बढ़ जा हल ।)    (झारमा॰12:1:40.29)
106    छेहर (~ लगना = फसल की पाँत का उपयुक्त मात्रा से ज्यादा दूर पर होना; कपड़े का झीना दिखना)     (झारमा॰12:1:8.20)
107    जड़इया (= जाड़ा)     (झारमा॰12:1:8.22)
108    जब्बड़ (= जब्बर, जबर, बलवान, बरियार; निम्मन, बढ़ियाँ) ("अपन बप्पे से पूछहीं ने ।" - "हे गे ... हम बढ़ियाँ से पूछ रहलिअउ हे, आउ तों सहजा रहले हें ?" - "हमहुँ तो बढ़ियें से बोल रहलिअउ हे । ओकरे से पुछहीं ने ।" - "एतना जब्बड़ आउ बदमास तो देखबे नञ् कइलूँ हे । बाते-बात में मथवे पर चढ़ जइतो ।")    (झारमा॰12:1:40.3)
109    जमकल (मोटरगाड़ी के भारी जाम सड़क पर ई तरह जमकल हे कि पैदल पाँव चलेवला मोसाफिर के भी निकलइ के जुगाड़ नञ् मिल रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:55.18)
110    जीह (= जीभ) (आउ ऊहे जाम में फँसल हे मेनका । दुधिया गोराय धूप से तपिके गुलाबी हो गेल हे । ओकर अंग-अंग से जुआनी के मध टपक रहल हे । छौंड़न के धक्कम-धुक्की से ऊ आजिज हे । मने-मन ऊ विधाता पर खौंत रहल हे - रूप देलऽ रानी के, घर देलऽ भिखारी के । घाम पोछइत ओकर रूमाल भींगके बोथ ! खीजल मूड़ी घुमावऽ हे तऽ देखऽ हे वासना के पिआसल नजर ओकरा निंगल जाय ले जीह लपलपा रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:56.6)
111    जुद्ध (= युद्ध) (रचना जादे कड़र काम हे, एकरा ला कभी-कभी रात-रात भर नीन उड़ जाहे । हम त रचना के एगो जुद्धे मानऽ ही ।)    (झारमा॰12:1:16.8)
112    जोड़ीदम्मा (= हमउम्र)     (झारमा॰12:1:8.24)
113    जौन (= जो, जिस) (अमरता के इच्छा रचताहर में होवऽ जरूर हे मुदा जौन समय में ऊ रचना के मनःस्थिति से गुजरे हे ओतिए घड़ी ओकर कोय इच्छा न होवऽ हे । ओती घड़ी एक्के गो इच्छा ओकर मन में उपजऽ हे कि जे ऊ रच रहल हे ऊ जादे दमगर अउ अर्थवान बने ।; रचना जादे कड़र काम हे, एकरा ला कभी-कभी रात-रात भर नीन उड़ जाहे । हम त रचना के एगो जुद्धे मानऽ ही । बुतरू पैदा करे में जौन पीड़ा परसौत घर में माय अनुभो करऽ हे ओही दरद रचनाकार रचना के जलम देवे में अनुभो करऽ हथ ।)    (झारमा॰12:1:13.18, 16.8)
114    झपना (= ढक्कन) (सभे के ताना के कारन भी हल । ऊ पेनसन के पैसा से कोय सूट खरीदेवला हल । कोय अपन भित्तर में पंखा लगवेवला हल । सबके फरमाइस जुटल हल ऊ पेनसन के पैसा से । बाकि अब तो सबके सपना में झपना लग गेल हल ।)    (झारमा॰12:1:53.17)
115    झरझराना (हम्मर आँख से लोर तोहर सुन्नर बात सुनके झरझरा गेल ।)    (झारमा॰12:1:48.1)
116    झरझरिया (अन्हरउखे मुँहझपुए ओकर बिदागरी हो रहल हे । ... सबसे अचरज के बात आउ देखलुँ ... विश्वास नञ् भेल ... आँख रगड़के साफ कयलूँ - सुलतनियाँ अपन सतेली माय के छाती में सट्टल भोकार पार रहल हल । झरझरिया डी.एम.यू. हौरन पर हौरन मार रहल हल बाकि सुलतनियाँ आउ ओकर सतेली माय के बिलगावे के हिम्मत केकरो नञ् हल ।)    (झारमा॰12:1:42.15)
117    झर-झलासी (झलासी = सरपत) (नोवामुंडी (चाइबासा) लोहा के खदान । पहाड़ी इलाका । पहाड़ी के तराई में आदिवासी समुदाय के खुबसूरत मकान । कहीं खपड़ा, कहीं बाँस के खपाची, कहीं-कहीं झर-झलासी से नमूनादार छावल ।)    (झारमा॰12:1:21.3)
118    झलदार ("बउआ दादा हो कक्का - लालमी मिलतो चार अने फक्का ।"/ माथा पर बट्टा उठइले ऊ कहऽ हल - 'माथा पर टोकरी - के पूछे नौकरी' । हरेक टेर में कविता के टेक । घर के कोनियाँ भीतर में सुटकल नउकी दुलहिन भी खिड़की में लगल झलदार परदा हटाके करीम्मा के हुलके लगऽ हल । दिरैंची-भुड़की के ऊ पट्टी से चूड़ी के खनखनाहट से छेउँकल मुसकी के गंध से करीम्मा के टहकार आउ बढ़ जा हल ।)    (झारमा॰12:1:40.28)
119    झुरायल (सरकारी गैर-सरकारी दुन्नों तरह के सहयोग से एड्स पर काबू पावे ला काम शुरू हो गेल । दुर्भाग्य से बसंती के पति लामागुड़ी आउ उनकर दुन्नो बेटा शंकरगुड़ी आउ मेदनीगुड़ी भी एकर संक्रमण के शिकार हो गेलन । शंकर आउ मेदनी तो इलाज से ई रोग से मुक्त हो गेलन बाकि लामागुड़ी आउ बसंती झुरायल हथ ।)    (झारमा॰12:1:25.9)
120    टघड़ना (= टघरना) (राधा के आँख लोराऽ रहल हल । नीचे टघड़-टघड़ के गिर रहल हल - टुप-टुप-टुप । शंकर के भी आँख डबडबा गेल हल अउ आँसू पोछइत कहलक - "राधा जी, तों अभागिन नञ् हऽ, सुहागिन हऽ, सुहागिन । जब तक अपन करम-धरम पर अडिग रहबऽ - सुहागिन रहबऽ, सुहागिन ।")    (झारमा॰12:1:50.28)
121    टन्नक (= स्पष्ट और तेज) (करीम पेशा से कुंजड़ा हे । दिन भर तरकारी, फल, गजड़ा, मुरई बेचके घर चलाना ममूली बात हइ ? एतना लमहर परिवार ... बाकि धन्न कही करीम के करेजा ! कहियो मुँह मलीन नञ् । हाँ जवाबदेही के भार से ओकर कद तनी छोट हो गेल हे । बाकि मुँह एतना टन्नक आउ रसदार कि मत कहऽ ।)    (झारमा॰12:1:40.22)
122    टरेन (= ट्रेन) ("हम टरेन पर से उठावल गेली, हमर कोय माय-बाप नञ् हे । अनाथ ही हम अनाथ ।" अबरी सच्चो राधा के आँख लोराऽ गेल ।)    (झारमा॰12:1:48.6)
123    टीभी (= TV, टेलिविज़न) (जाने कौन भावावेश में हमरो मुँह से निकलिये गेल - "हाँ, हमर माय हे ई । ... आउ सुनलें तोहनी, इनका हम बहुत पहिले से माय मान रहलिये हे आउ सच्चो-मुच्चो के माय बनाके रहबइ । तोहनी बाले-बच्चे टीभी तर बैठके ठिठियैते रहमहीं आउ बुढ़वा बेचारा कोना भीतर धरके कुहकते रहतइ । हम अइसन नञ् होवे देबइ ।")    (झारमा॰12:1:54.25)
124    टोप (= सिलाई; तोप, सिलाई में कपड़े का एक बार सूई द्वारा सीवन या सिवन की दूरी; घाव आदि के कारण हुआ सूजन, बुखार या दर्द)     (झारमा॰12:1:8.27)
125    टोला-महल्ला (हाँ, ई बात त हे । बात जरी ठो रहे या बड़का गो, सुलतनियाँ के नरेटी के भोंभा इसटाट हो जाहे । सँउसे टोला-महल्ला जान जइतो कि आझ जरूरे कोय बात हे ।)    (झारमा॰12:1:40.5)
126    ठंढई (जइसे जजात चरे के अंदेशा से गिरहत खेत के मचान पर टीन बजावे हे, डपाठी पटके हे, उहे हाल हल सुलतनियाँ के । सतेली माय के पिटा गेला से एकर मन ठंढाऽ जा हल । पता नञ् ... ई ठंढई के की कारण हल ।)    (झारमा॰12:1:41.35)
127    ठंढाना (जइसे जजात चरे के अंदेशा से गिरहत खेत के मचान पर टीन बजावे हे, डपाठी पटके हे, उहे हाल हल सुलतनियाँ के । सतेली माय के पिटा गेला से एकर मन ठंढाऽ जा हल । पता नञ् ... ई ठंढई के की कारण हल ।; आझ छोटकी के मन भी ठंढाऽ रहल हल रसे-रसे, जइसे ओकर पिआसल मन पर कोय ठंढा पानी गिरा रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:41.34; 42.18)
128    ठिठियाना (जाने कौन भावावेश में हमरो मुँह से निकलिये गेल - "हाँ, हमर माय हे ई । ... आउ सुनलें तोहनी, इनका हम बहुत पहिले से माय मान रहलिये हे आउ सच्चो-मुच्चो के माय बनाके रहबइ । तोहनी बाले-बच्चे टीभी तर बैठके ठिठियैते रहमहीं आउ बुढ़वा बेचारा कोना भीतर धरके कुहकते रहतइ । हम अइसन नञ् होवे देबइ ।")    (झारमा॰12:1:54.25)
129    डगडरनी (जइसहीं आभा के गोड़ पर नजर पड़ल कि राधा दहाड़ मार के मइया बिहुला से लपट के कन्ने लगल । पछाड़ खा-खा के लोटे लगल । ई देख डगडरनी पुछलक - "ई के हे ? एतना सुत्थर लड़की ?" - "ई हमर सौतेली बेटी राधा हे", बिहुला बोल उठल । - "सौतेली, ईहे से तऽ तोर कउनो परिवार से नञ् मिलऽ हे ।" डगडरनी बोलल ।)    (झारमा॰12:1:50.7, 10)
130    डपाठी (जइसे जजात चरे के अंदेशा से गिरहत खेत के मचान पर टीन बजावे हे, डपाठी पटके हे, उहे हाल हल सुलतनियाँ के । सतेली माय के पिटा गेला से एकर मन ठंढाऽ जा हल । पता नञ् ... ई ठंढई के की कारण हल ।)    (झारमा॰12:1:41.33)
131    डलेवर (= डलइवर; ड्राइवर, चालक) (डलेवर सीट पर बइठल जुआन छौंड़ तुरी-तुरी हौरन बजा रहल हल । मेनका के ओकर चेहरा पहचानल लगल, बकि याद न आ रहल हल कि एकरा कब कजा देखली हे ।)    (झारमा॰12:1:56.9)
132    डाँड़ा (= प्रसव के समय किसी अनुभवी द्वारा जच्चे का सहयोग)     (झारमा॰12:1:8.29)
133    डाक (~ लगना = तीव्र नशे के प्रभाव में आना)     (झारमा॰12:1:8.30)
134    डिंड़ी (दे॰ डिड़ी; मटर आदि पौधों की फली)     (झारमा॰12:1:8.32)
135    डेहरी (= डेहुरी, डेहुड़ी; डाली) ("तोरा भरम हो रहलो हे हमरा प्रति । चलऽ, हम तोहरा घर पहुँचा देही", तक्षक बोलल । आउ गाड़ी में मेनका गाछ से टूटल डेहरी-सन तक्षक के गोदी में लुढ़कि गेल ।)    (झारमा॰12:1:63.3)
136    ढहती (= कटान; अधोपतन)     (झारमा॰12:1:9.1)
137    ढेना-ढेनी (एक दिन तो समसावली कह देलखिन - "जहिया से कारो मियाँ नयकी के लैलखिन हे, इनखर दिमगवे असमान पर रहऽ हइ ।" - "असमान पर की रहतइ ? ई अजलत के कोकलत कइलकइ हे कि .. । ई उमर में एतना ढेना-ढेनी के रहते बुढ़ारी में घिढारी ... ? बड़की बिआहे जुकुर हो गेलइ, बाकि अभी त एकरे सबुर नञ् हइ ... ।" मुँह चमका के कहलकी नोमावली ।)    (झारमा॰12:1:40.33)
138    तनखाह (= वेतन) (अजय के घर के बजट प्रभावित होवे लगल । उनकर तनखाह कम हल । साप्ताहिक छुट्टी में ऊ बराबर घर आ जा हलन । अब ऊ महीना में एक या दू बार आवे लगलन ।)    (झारमा॰12:1:36.22)
139    तनी-मनी (सुलतनियाँ करीम के करम पर रसे-रसे कुलबुलाय लगल । इहे तरी ऊ चर-पाँच बरीस के हो गेल । करीम दुसरकी बिआह कर लेलक । सुलतनियाँ के लगे कि बाप के पिआर बँटे लगल हे । शुरू में तनी-मनी, बाद में उहे पलड़ा नेउत होवे लगल । सतेली बहीन फिन आ गेल । सुलतनियाँ परेसान !)    (झारमा॰12:1:40.17)
140    तरास (= जल्द न बुझने वाली प्यास)    (झारमा॰12:1:9.2)
141    तितकट (= तिक्त और कसाय)     (झारमा॰12:1:9.4)
142    तिनचकवा (अपन तिनचकवा स्कूटर जब एगो नौजवान, हमर घर के सामने लगैलक त हम थोड़े देर तक ओकरा निहारते रहली, पहचाने के कोरसिस करते रहली बाकि पहचान नञ् सकली । हलाँकि छहँक से लग रहल हल कि ई नौजवान हमर चिन्हल हे ।)    (झारमा॰12:1:26.1)
143    तीखगर (रचना के लड़ाय जादे दमदार होवऽ हे । सही रचनाकार के भीतर हरसट्ठे तीखगर बेचैनी या अकुलाहट होवऽ हे जे सही रूप में बाहर आवे ले चाहऽ हे ।)    (झारमा॰12:1:18.17)
144    तोपल (पटना के करेजा - अशोक राजपथ । गाँधी मैदान के उत्तर छोर से पूरब तरफ बढ़ऽ कि देखऽ एकर तमाशा ! चिक्कन छहछह, साफ-सुत्थर, चउड़गर फइलल सड़क के भुइयाँ खोजलो पर नजर नञ् पड़तो । कार-कार टेंपू से सउँसे सड़क तोपल ।)    (झारमा॰12:1:55.3)
145    थँउसल ("चाची तू गोइठा लेखा सूखल काहे जाइत हऽ ? तीन साल पहिले तोरा हम गुलथुल देखके बड़ी खुशी होली बाकि आझ हमरा सामने एगो सवाल ठार हो गेल ।" मंझवेकर समझ के भी पचवले हथ ।/ "बबुआ हो, शरीर पोसा हे दूध-घीव से, फर-फरहरी से । चिंता-फिकिर के तराई में जी रहल ही । कपार पे सौ मन के बोझा । देह थँउसल जाइत हे । दिल-दिमाग बस में थोड़े हे !" कहइत-कहइत आँख याचना भरल लोर से डबडबा गेल ।)    (झारमा॰12:1:23.5)
146    थरथर्री (= कँपकँपी)     (झारमा॰12:1:9.6)
147    थरमामेटर (सुनते ऊ हमरा पर खिसिया गेलन । "तू बड़का डाक्टर हऽ । नाम में लिखऽ हऽ डाक्टर ! आउ न आला हवऽ रोजी, न थरमामेटर । के गो रोगी देखलऽ हे आझ तक ?")    (झारमा॰12:1:30.12)
148    थोड़े-थाक (मनोज के माय मरदाना के पेंशन आउ सरकार के थोड़े-थाक सहयोग के बल पर तीनों बेटी आउ फोहा बुतरू के पाले लगलन । भगवान तो परीक्षा ले हथ । एक दिन ओकर बेटा के हाथ-गोड़ घिचे लगल, डाक्टर हीं गेला पर मालूम होल कि ऊ फलिस्ता के पोलियो मार देलक हे ।)    (झारमा॰12:1:27.19)
149    दमदमाल (न ... ई ऊ त नञ् हो सकऽ हे । कहाँ ऊ सुलतनियाँ ! कहाँ ई सुलतनियाँ ? चमचमाल गरारा आउ दमदमाल ओढ़नी ओढ़के सिकुड़ल, मुड़ी झुकइले, ई सुलतनियाँ तो नहिएँ हो सकऽ हे । सँउसे देह पर भगजोगनी के चादर लपेटले, ई सुलतनियाँ एके दिन में एतना बदल कइसे गेलइ ?)    (झारमा॰12:1:39.7)
150    दमदार (रचना के लड़ाय जादे दमदार होवऽ हे । सही रचनाकार के भीतर हरसट्ठे तीखगर बेचैनी या अकुलाहट होवऽ हे जे सही रूप में बाहर आवे ले चाहऽ हे ।)    (झारमा॰12:1:18.17)
151    दलदल्ली (= कँपकँपी)     (झारमा॰12:1:9.10)
152    दाव (अदमी खोजे ~, मच्छी खोजे घाव) (मोटरगाड़ी के भारी जाम सड़क पर ई तरह जमकल हे कि पैदल पाँव चलेवला मोसाफिर के भी निकलइ के जुगाड़ नञ् मिल रहल हे । गाड़ी के चक्के नियन अदमी के पाँव भी जाम हो गेल हे । अदमी खोजे दाव, मच्छी खोजे घाव । अइसने में मनचला छौंड़न फिराक में रहऽ हे । ओकर पौ बारह ! केंकियायत रहे छौंड़िन ... कोय ध्यान नञ् ।)    (झारमा॰12:1:55.20)
153    दिढ़ (= दृढ़) (ऊ लपकि के अपन पिताश्री के गियारी से मरल साँप उतारि के फेंक देलन आउ दिढ़ आवाज में कहलन, "ई करतूत जिनखर भी होवत, उनखा हम ऊ सजाय देब कि फिन उनखर खानदान में अइसन दुस्साहस करे के हिम्मत कोय नञ् करि सके ।")    (झारमा॰12:1:57.34)
154    दिरैंची-भुड़की ("बउआ दादा हो कक्का - लालमी मिलतो चार अने फक्का ।"/ माथा पर बट्टा उठइले ऊ कहऽ हल - 'माथा पर टोकरी - के पूछे नौकरी' । हरेक टेर में कविता के टेक । घर के कोनियाँ भीतर में सुटकल नउकी दुलहिन भी खिड़की में लगल झलदार परदा हटाके करीम्मा के हुलके लगऽ हल । दिरैंची-भुड़की के ऊ पट्टी से चूड़ी के खनखनाहट से छेउँकल मुसकी के गंध से करीम्मा के टहकार आउ बढ़ जा हल ।)    (झारमा॰12:1:40.28)
155    देर-सबेर (तक्षक फेन मिले के जुगाड़ खोज रहल हल । खोजला से देर-सबेर जब भगवान के दर्शन हो जाहे त इंसान त इंसाने हे, ओकरो में पड़ोसिया ।)    (झारमा॰12:1:58.34)
156    देवास (= भक्त द्वारा दैवी आसक्ति के लिए आराध्य का आवाहन)     (झारमा॰12:1:9.16)
157    दोसतियारे (किरनी के माय से बाऊजी के बातचीत तहिया से हल, जहिया से उनकर मालिक एहे विभाग में बाऊजी के साथ काम करऽ हला । विभागीय इंतहान पास करके दुनहुँ एके साथ डाकिया से क्लर्की में आ गेला हल । बाद में बाऊजी डाकपाल बनके शेखपुरा चल गेला । उनकर मालिक अपन बिमारी के चलते इंतहान पास नञ् कर सकला आउ नवादा में रह गेला । दुनहुँ के दोसतियारे तइयो कायम रहल ।)    (झारमा॰12:1:52.13)
158    धउँक (= धौंक; ताप, गरमी; लू, गरम हवा का झोंका; भाँथी द्वारा दिया हुआ हवा का झोंका)     (झारमा॰12:1:9.18)
159    धड़फड़ी (= जल्दबाजी)     (झारमा॰12:1:9.19)
160    धुनियाल (तक्षक के वासना सागर-सन लहरा रहल हल । गाड़ी कलकत्ता के राह में धुनियाल जा रहल हल आउ ई सब से गाफिल मेनका तक्षक के गोदी में बेसुध पड़ल हल ।)    (झारमा॰12:1:63.6)
161    नइकी (रमेसर के फूटल भाग चकनाचूर हो गेल । ऊ नइकी बहुरिया बिआहे रात से अपन छाव देखावे लगल । रोज नया-नया क्रीम पाउडर के माँग करे । हल तो गरीब घर के बेटी बकि कुछ-न-कुछ करामात करके रोज घर में कल्लह करे ।)    (झारमा॰12:1:43.31)
162    नउकी (= नयकी; नई) ("बउआ दादा हो कक्का - लालमी मिलतो चार अने फक्का ।"/ माथा पर बट्टा उठइले ऊ कहऽ हल - 'माथा पर टोकरी - के पूछे नौकरी' । हरेक टेर में कविता के टेक । घर के कोनियाँ भीतर में सुटकल नउकी दुलहिन भी खिड़की में लगल झलदार परदा हटाके करीम्मा के हुलके लगऽ हल । दिरैंची-भुड़की के ऊ पट्टी से चूड़ी के खनखनाहट से छेउँकल मुसकी के गंध से करीम्मा के टहकार आउ बढ़ जा हल । एक दिन तो समसावली कह देलखिन - "जहिया से कारो मियाँ नयकी के लैलखिन हे, इनखर दिमगवे असमान पर रहऽ हइ ।")    (झारमा॰12:1:40.27)
163    नगिचाना (= नगीच आना; पास पहुँचना) (जइसे-जइसे मौत के तिथि नगिचाल जाहे, परीक्षित भय के अथाह गर्त्त में गिरइत जाहे ।)    (झारमा॰12:1:59.34)
164    नयकी (= नउकी; नई) ("बउआ दादा हो कक्का - लालमी मिलतो चार अने फक्का ।"/ माथा पर बट्टा उठइले ऊ कहऽ हल - 'माथा पर टोकरी - के पूछे नौकरी' । हरेक टेर में कविता के टेक । घर के कोनियाँ भीतर में सुटकल नउकी दुलहिन भी खिड़की में लगल झलदार परदा हटाके करीम्मा के हुलके लगऽ हल । दिरैंची-भुड़की के ऊ पट्टी से चूड़ी के खनखनाहट से छेउँकल मुसकी के गंध से करीम्मा के टहकार आउ बढ़ जा हल । एक दिन तो समसावली कह देलखिन - "जहिया से कारो मियाँ नयकी के लैलखिन हे, इनखर दिमगवे असमान पर रहऽ हइ ।")    (झारमा॰12:1:40.30)
165    नरेटी (हाँ, ई बात त हे । बात जरी ठो रहे या बड़का गो, सुलतनियाँ के नरेटी के भोंभा इसटाट हो जाहे । सँउसे टोला-महल्ला जान जइतो कि आझ जरूरे कोय बात हे ।)    (झारमा॰12:1:40.4)
166    नाती-पोता (अन्हरउखे मुँहझपुए ओकर बिदागरी हो रहल हे । राम-राम के बेला में काने के अवाज सुनके नीन टूट गेल । पछियारी छज्जा पर निकसलूँ, तउ देखलूँ - सुलतनियाँ सभे के गियारी में लपटके कान रहल हे । मकनपुरवली से, नोमावली से, मांझो से, सिटीनगरवली से, हलीम के कनिआय से, गोरकावली से, हबुवली से ... आउ ओकरो से जेकर बेटा-भतार के ई रोज तरमन्ना पहुँचावो हल, जेकर मांग-कोख जारो हल, जेकर नाती-पोता के काया फाड़ो हल ।)    (झारमा॰12:1:42.12)
167    निरबंसी ("हम्मे तो कहऽ हियो दीदी कि बाऊजी सब पैसवा ओहे निरबंसी के दे देलथू होत, आउ एहाँ डरामा कर रहलथू हे ।" संझली अलगे अन्दाजा लगा रहलइ हल ।)    (झारमा॰12:1:53.13)
168    निहचित (= निश्चित) (ई अर्थ के खोज हीं रचना के ओजह हे । निहचित रूप से ई तलास रचताहर करऽ हइ ।)    (झारमा॰12:1:13.12)
169    नीमक-सतुआ (सुनके हमरा तो लगे लगल कि ई में सबसे दोसी हमहीं हूँ । बाऊजी के ई अमरलत्तड़ तर छोड़ देनूँ हे । जे इनका से हरियर हो रहलइ हे, उहे सब इनका खतम कर रहलइ हे । हमर घरवली भी जइसे हमर मुँह के बात कह देलकइ - "बाऊजी, हमरा से जे नीमक-सतुआ बनतो, से खिलइबो । चलऽ, नवदवे में रहिहऽ ।")    (झारमा॰12:1:54.10)
170    नुक्का-चोरी (= लुका-छिपी) ("बाकि बेटा, एहाँ ... एहाँ कइसे छोड़के ... ।"  बाऊजी, एतना होवे के बाद भी अपन घर छोड़के नञ् जाय ले चाह रहलथीं हल । ई उमरे अइसन होवऽ हइ कि अदमी अपन जनम आउ करमभूमी से चिपकल रहे चाहऽ हइ । बाकि नयकी पीढ़ी एकरा ओहे नाम दे दे हइ, जे मंझली दे रहलइ हल - "एहाँ छोड़के ... सीधे-सीधे कहो ने, ई मंगजरौनी के छोड़के । अजबे कलजुग हे कि अदमी बुढ़ारी में भी नुक्का-चोरी खेले में नञ् सरमा हे ।")    (झारमा॰12:1:54.16)
171    नेउत (सुलतनियाँ करीम के करम पर रसे-रसे कुलबुलाय लगल । इहे तरी ऊ चर-पाँच बरीस के हो गेल । करीम दुसरकी बिआह कर लेलक । सुलतनियाँ के लगे कि बाप के पिआर बँटे लगल हे । शुरू में तनी-मनी, बाद में उहे पलड़ा नेउत होवे लगल । सतेली बहीन फिन आ गेल । सुलतनियाँ परेसान !)    (झारमा॰12:1:40.17)
172    नैन-नक्स (शंकर राधा के देखइत दंग रह गेल । अठारह बरिस के राजशिखा से जादे सुन्नर लग रहल हल ओकर माय राधा । नैन-नक्स एकदम परी जइसन, नञ् लंबा नञ् नाट, नञ् दुब्बर-पातर, पूरा देह एकदम सुडौल । बिन सुरमा के आँख हरिन अइसन, केश एकदम करिया भुजंग, सउँसे देह सरदर बराबर - सुडौल ।)    (झारमा॰12:1:46.4)
173    पँवरना (मंझवेकर ऊ लोग के भावना के भीतर पँवरे लगल । ई लोग के कल्याण इहे लोग के हाथ से करवाना जरूरी हे तब ई लोग के विश्वास जमत ।)    (झारमा॰12:1:23.16)
174    पचमा (= पाँचवाँ) (बड़ बेटी पिंकी के इन्टर पास कराके बिआह कर देलक हल । दोसर राजशिखा इन्टर में पढ़ रहल हल अउ छोट बेटी पचमा में ।)    (झारमा॰12:1:50.26)
175    पछानल (दुइयो कौफी हाउस में आधा घंटा समय बितइलक आउ विक्टोरिया मेमोरियल होते पार्क दने मुड़ल कि पछानल कार ड्राइव करइत तक्षक पर नजर पड़ि गेल ।)    (झारमा॰12:1:65.11)
176    पटोर (~ लगना = पथार लगना)     (झारमा॰12:1:9.24)
177    पढ़ौनी (आगे बढ़के मनोज के उठावे के कोरसिस करे लगली त ऊ दहिना हाथ के चप्पल निकालके हमर दुनहुँ गोड़ छूके अपन निरार से लगावे लगल । ई देखके हम निहाल हो गेली । पत्नी के मुँह से बेर-बेर सुने ले मिलऽ हल - 'गया मर्द जो करे पढ़ौनी, गयी औरत जो करे पिसौनी' ।)    (झारमा॰12:1:27.7)
178    पतिया (= पातक; ~ लगना = गो-वध का पातकी होना)     (झारमा॰12:1:9.25)
179    पथार (= ढेर; समूह; कच्ची ईंट ढालने और सुखाने का स्थान; ~ परल/ लगल आम = पेड़ से गिरे-बिखरे अनेक आम)     (झारमा॰12:1:9.24)
180    परपराना (= मिरचाई, दवा, नमक आदि चीज के प्रभाव से घाव या कटे हुए भाग में चुनचुन्नी होना)     (झारमा॰12:1:9.28)
181    परान (= प्राण) (कुछ देर की, बहुतो देर तक कोय जवाब नञ् सुने के बाद बाऊजी अंगना में गोड़ बढ़ा देलका - "छोटू, अरे एक लोटा पानी चाही बेटा ।" ... की जाने किधर से मंझली के फुँफकार सुनाय पड़ल - "मिल रहलो हे पानी, जरी सबर नञ् कर सकलऽ हल ? बेटी-पुतहु के घर हइ अउ हनहना के घुँसल जा रहलऽ हऽ । जरी सा देर में कि परान जा रहलो हल ?" ... सुनके, बाऊजी उलटे गोड़ भितर में आके अपन खटोला पर पसर गेला । सोंचे लगला, केतना अच्छा होत हल कि सचे-मुचे परान चल जात हल । कम-से-कम ई नरक से छुटकारा तो मिल जात हल ।)    (झारमा॰12:1:51.16, 18)
182    पहिलकी (रमेसर के पहिले 30 हजार के महीना मिलल अउ बाद में कंपनी के मालिक रमेसर के काम से खुश होके 50 हजार के महीना देवे लगल । एगो विदेशी मैडम जे ओही कंपनी में 40 हजार के महिन्ना के नौकरी करऽ हल जेकरा से बिआहो हो गेल । विदेश में त 'काम पियारा हे, चाम न' ।  कुछ दिन बाद जब रमेसर के पहिलकी औरत के रमेसर के आमदनी के पता चलल तो ऊ मनचली इनकर कमाई में हिस्सा लेवे ला तरह-तरह के उपाय करे लगल ।; आवते पहिलकी औरत उनकर कमाई के आधा हिस्सा मांगे लगल ।)    (झारमा॰12:1:45.4, 7)
183    पिआसल (= पियासल, प्यासा) (आउ ऊहे जाम में फँसल हे मेनका । दुधिया गोराय धूप से तपिके गुलाबी हो गेल हे । ओकर अंग-अंग से जुआनी के मध टपक रहल हे । छौंड़न के धक्कम-धुक्की से ऊ आजिज हे । मने-मन ऊ विधाता पर खौंत रहल हे - रूप देलऽ रानी के, घर देलऽ भिखारी के । घाम पोछइत ओकर रूमाल भींगके बोथ ! खीजल मूड़ी घुमावऽ हे तऽ देखऽ हे वासना के पिआसल नजर ओकरा निंगल जाय ले जीह लपलपा रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:56.6)
184    पिटोरा (= डिंड़ी)     (झारमा॰12:1:10.2)
185    पियासल (राजा नगीच जाके बोलला - "हे महात्मन् ! हम पियासल ही । हमरा चुरू भर पानी पिला दऽ ।"; परीक्षित बुदबुदइलन - "अइसने सब ढोंगी मुनि धरम के बरबाद कइले हे । जे भूखल के अन्न आउ पियासल के पानी देके परोपकार के पुन्य नञ् कमा सकऽ हे, ऊ तप, योग, जप, ध्यान की करत ?")    (झारमा॰12:1:57.17, 22)
186    पिसौनी (आगे बढ़के मनोज के उठावे के कोरसिस करे लगली त ऊ दहिना हाथ के चप्पल निकालके हमर दुनहुँ गोड़ छूके अपन निरार से लगावे लगल । ई देखके हम निहाल हो गेली । पत्नी के मुँह से बेर-बेर सुने ले मिलऽ हल - 'गया मर्द जो करे पढ़ौनी, गयी औरत जो करे पिसौनी' ।)    (झारमा॰12:1:27.7)
187    पूँज (= वर्षा से बचाने के लिए बाली सहित कटी हुई फसल की छावणी जैसी बनाई हुई राशि; गाँज; ढेर)     (झारमा॰12:1:10.3)
188    पेनसन (= पेंशन, pension) (बाऊजी जानऽ हला कि एगो पेनसन के दिन हीं उनका मान-आदर जमके होवो हल, फिर बिहान होवे के साथ हीं उनकर जिनगी में ओहे अन्हार समा जा हल - पूरे उनतीस दिन खातिर। पेनसन उठवे के दिन एगो आउ खास बात होवऽ हल । ऊ ई कि ऊ दिन बाऊजी अपन पुरान संगी-साथी से मिल-बतिया ले हला । एक-दूसरे से अपन-अपन सुख-दुख बतिया के मन हलका कर ले हला ।)    (झारमा॰12:1:52.2, 5)
189    पेनसनधारी (सौंसे जिनगी हम बाल-बुतरू के सुख लागी अपन दुख उठवेवला बाऊजी के जिनगी में हरियरी उगावे के खियाल लेके बड़ी मोसकिल से किरनी के माय आ बाऊजी के राजी करे के बाद, एक दिन सभे पेनसनधारी आउ पोसमासटर साहेब के सहयोग से ओखनी के सामने हम कराइए देलूँ - बाऊजी के बियाह ।)    (झारमा॰12:1:54.29)
190    पोसमासटर (= पोस्टमास्टर) (सौंसे जिनगी हम बाल-बुतरू के सुख लागी अपन दुख उठवेवला बाऊजी के जिनगी में हरियरी उगावे के खियाल लेके बड़ी मोसकिल से किरनी के माय आ बाऊजी के राजी करे के बाद, एक दिन सभे पेनसनधारी आउ पोसमासटर साहेब के सहयोग से ओखनी के सामने हम कराइए देलूँ - बाऊजी के बियाह ।)    (झारमा॰12:1:54.29)
191    पोसाना ("चाची तू गोइठा लेखा सूखल काहे जाइत हऽ ? तीन साल पहिले तोरा हम गुलथुल देखके बड़ी खुशी होली बाकि आझ हमरा सामने एगो सवाल ठार हो गेल ।" मंझवेकर समझ के भी पचवले हथ ।/ "बबुआ हो, शरीर पोसा हे दूध-घीव से, फर-फरहरी से । चिंता-फिकिर के तराई में जी रहल ही । कपार पे सौ मन के बोझा । देह थँउसल जाइत हे । दिल-दिमाग बस में थोड़े हे !" कहइत-कहइत आँख याचना भरल लोर से डबडबा गेल ।)    (झारमा॰12:1:23.4)
192    फकाना (= फँकाना; 'फाँकना' का प्रे॰ रूप) (गाँव में एगो वैद्य जी हलन । चौंके के बात न हे । पहिले वैदे जी होअ हलन जे सब रोग देखऽ हलन । बोखार होवे चाहे माथा में बाय, कबज होवे चाहे पखाना, दाँत के रोग होवे चाहे गोड़ के । सभे के इलाज ऊ वैदे जी करऽ हलन । पंच सकार फकैलन कि पेट साफ । सभे रोग ओकरे से ठीक हो गेलो ।)    (झारमा॰12:1:29.3)
193    फक्का (= फाँका, फल का टुकड़ा) ("बउआ दादा हो कक्का - लालमी मिलतो चार अने फक्का ।"/ माथा पर बट्टा उठइले ऊ कहऽ हल - 'माथा पर टोकरी - के पूछे नौकरी' । हरेक टेर में कविता के टेक ।)    (झारमा॰12:1:40.25)
194    फटफट (आझ छोटकी के मन भी ठंढाऽ रहल हल रसे-रसे, जइसे ओकर पिआसल मन पर कोय ठंढा पानी गिरा रहल हे । जइसहीं डी.एम.यू. आगु बढ़ल, छोटकी तड़प के कहलक - "बेटी ! ..."  आउ ओकर अवाज फटफटिया के फटफट में दफन हो गेल ।)    (झारमा॰12:1:42.21)
195    फर-फरहरी (= फल-फलहरी, फल-फल्हेरी) ("चाची तू गोइठा लेखा सूखल काहे जाइत हऽ ? तीन साल पहिले तोरा हम गुलथुल देखके बड़ी खुशी होली बाकि आझ हमरा सामने एगो सवाल ठार हो गेल ।" मंझवेकर समझ के भी पचवले हथ ।/ "बबुआ हो, शरीर पोसा हे दूध-घीव से, फर-फरहरी से । चिंता-फिकिर के तराई में जी रहल ही । कपार पे सौ मन के बोझा । देह थँउसल जाइत हे । दिल-दिमाग बस में थोड़े हे !" कहइत-कहइत आँख याचना भरल लोर से डबडबा गेल ।)    (झारमा॰12:1:23.4)
196    फुजियाना (= फुज्जी लगना) (मुख्य मंत्री के साथे सिविल सर्जन आके समारोह के उद्घाटन कैलन । पतझर में मधुमास आ गेल । सूखल गाछ-बिरिछ फुजिआय लगल । सबके चेहरा पर आनंद के रेखा झलके लगल ।)    (झारमा॰12:1:23.27)
197    फुटलका ("नञ् दीदीया, ई माय न हउ, डायन हउ । हमर बाबा के टोना कर देलकउ हे । फुटलको आँख नञ् सोहवो हइ हमरा । अपने महतमाइन नियन बइठल रहतो, आउ हमरा अरहइतइ ... । मंगजरउनी के मंगिया पर एक चिपड़ी इंगोरा नञ् धर देबइ ।")    (झारमा॰12:1:41.16)
198    फोहा (~ बुतरू) (मनोज के माय मरदाना के पेंशन आउ सरकार के थोड़े-थाक सहयोग के बल पर तीनों बेटी आउ फोहा बुतरू के पाले लगलन । भगवान तो परीक्षा ले हथ । एक दिन ओकर बेटा के हाथ-गोड़ घिचे लगल, डाक्टर हीं गेला पर मालूम होल कि ऊ फलिस्ता के पोलियो मार देलक हे ।)    (झारमा॰12:1:27.20)
199    बउराना (पहाड़ लेखा दिन बइसाख में हो हे । बइसाख में सब कुछ बउराऽ जाहे, नदी-ताल सूख जाहे । झरना बहऽ भी हे तो लोर लेखा ।)    (झारमा॰12:1:22.15)
200    बन्हल (अमदी के तागत सिमटल हे, ई लेल ओकर अनुभो अउ ज्ञान भी एगो सीमा में बन्हल रहऽ हे ।)    (झारमा॰12:1:15.23)
201    बपखउकी (दे॰ बपखौकी) (ओने से छोटकी भिड़के अखाड़ा में कूद गेलइ - "देख गे बपखउकी, बुतरू बूझके बरदास करले हियौ । जे हमर सैतिन हलइ, से तो अल्ला के पियारा हो गेलइ, ई हमर सैतिन बने ले आल हे ।")    (झारमा॰12:1:41.19)
202    बयना (दे॰ बैना, बइना) (एगो पौरुषवान हमरा नया विषाणु दे गेल, जेकर नाम हे एच.आई.वी. पोज़िटिव, माने एड्स । हम आनंदित हो गेली ऊ नया विषाणु पाके, काहे कि हम ऊ उपहार तोहरा देवे चाहऽ हली । बयना पचावल नञ् जाके लौटावल जाहे ।)    (झारमा॰12:1:66.9)
203    बाँटी (~ लगना = बकरे आदि का काटा जाना एवं उसके मांस का हिस्सेदारों के बीच मूल्य के अनुसार हिस्सा लगना)     (झारमा॰12:1:10.8)
204    बिगल-फेंकल (पैंतीस साल तक डाक बाबू के नौकरी करके रिटैरमेंट के बाद अपन बाल-बुतरू, नाती-पोता आउ दुनहुँ परानी के साथ जिनगी के सुख लेवे खातिर सउँसे जुआनी ऊ एगो खोंथा बनावे में लगा देलका हल । आज ओहे खोंथा के बाहर, ओसारा के करगी बिगल-फेंकल चीज नियन ढील ओधमानी वाला खटोला पर उनकर दिन-रात गुजरे लगल जेकर अगल-बगल घर के फालतू समान के ढेर हल - बाऊजी जइसन ।)    (झारमा॰12:1:51.5)
205    बिग्गल (ऊ अपना बेवस्त्र शरीर आउ बिग्गल कपड़ा देखलक त ओकर माथा में सब बात साफ हो गेल ।)    (झारमा॰12:1:63.20)
206    बेटी-पुतहु (कुछ देर की, बहुतो देर तक कोय जवाब नञ् सुने के बाद बाऊजी अंगना में गोड़ बढ़ा देलका - "छोटू, अरे एक लोटा पानी चाही बेटा ।" ... की जाने किधर से मंझली के फुँफकार सुनाय पड़ल - "मिल रहलो हे पानी, जरी सबर नञ् कर सकलऽ हल ? बेटी-पुतहु के घर हइ अउ हनहना के घुँसल जा रहलऽ हऽ । जरी सा देर में कि परान जा रहलो हल ?")    (झारमा॰12:1:51.15)
207    बौसाह (= ऊर्जा) (कविवर विष्णुदेव प्रसाद सजल 'आगरो' कविता में अप्पन भीतरी बेचैनी के उगले में बाज न अइलन । कारन सोइया बड़गो धार बन अप्पन बौसाह समाज के सामने दिखावे ले चाहइत हे ।)    (झारमा॰12:1:18.20)
208    भँवारी (फिन जंगल में जाके लकड़ी काटे, हटिया जाए, हड़िया पिए, डोलइत-डालइत घर आवे । बेचारी बसंती देख-देख के माथा पिटे । लइकन-फइकन अपन बचपन में मस्त । खेले-कूदे, खाए-पीए, सो जाय । ईंट भट्टा घर खेल के मैदान । लइकन के जिनगी एही भँवारी से गुजरे लगल । बाकि बसंती के जीवन पहाड़ अइसन ।)    (झारमा॰12:1:22.13)
209    भंगलाहा (सँउसे देह पर भगजोगनी के चादर लपेटले, ई सुलतनियाँ एके दिन में एतना बदल कइसे गेलइ ? कल्हैं तो गोखला के बेटवा से लड़ गेलइ - "अरे भंगलाहा, तरमनमा में धर अइबउ  रे ! बप्पा कुछ बिगाड़वे नञ् करतउ, तों की अइलें हें बिख छाँटे ?")    (झारमा॰12:1:39.14)
210    भंभोड़ना (= भंभोरना) (तक्षक हड़बड़ा के जागल आउ दबोच लेलक । पानी बिन मछली जइसन मेनका छटपटाइत दाँत-नख से तक्षक के देह भंभोड़ऽ लगल । गाल पर जोरदार थप्पड़ से तक्षक के पुर्जा-पुर्जा झनझना गेल ।)    (झारमा॰12:1:63.24)
211    भगजोगनी (= जुगनू) (न ... ई ऊ त नञ् हो सकऽ हे । कहाँ ऊ सुलतनियाँ ! कहाँ ई सुलतनियाँ ? चमचमाल गरारा आउ दमदमाल ओढ़नी ओढ़के सिकुड़ल, मुड़ी झुकइले, ई सुलतनियाँ तो नहिएँ हो सकऽ हे । सँउसे देह पर भगजोगनी के चादर लपेटले, ई सुलतनियाँ एके दिन में एतना बदल कइसे गेलइ ?)    (झारमा॰12:1:39.10)
212    भतिया (= बतिया)     (झारमा॰12:1:10.10)
213    भाय-बंधु (अपने सब मगहीप्रेमी भाय-बंधु के सहजोग रहतै तब 'मगही पत्रिका परिवार' के बैनर तले निकालल जायवली 'मगही पत्रिका' (द्वैमासिक), 'बंग मागधी' (त्रैमासिक) आउ ई 'झारखंड मागधी' (त्रैमासिक) तीनों पत्रिका मगही के परचार-परसार में जादा से जादा जोगदान देतै ।)    (झारमा॰12:1:6.8)
214    भाव-बट्टा (जब पेट शांत होएल तब फिर दाँत तंग करे लगल । अबरी कोई के हम न मानेवाला हली । सीधे चीना डाक्टर के पास गेली । डाक्टर देखलक आउ भाव-बट्टा करे लगल ।; "हाँ ! हाँ !! सुन लऽ । तीन दाँत के एक सौ चालीस रुपइया आउ डेढ़ सौ में सभे दाँत उखाड़ देबो । अब तूँ सोंचके निरनय करऽ ।" / हम तो सुनके भौंचक हो गेली । का हो गेल ? / ई भाव-बट्टा में हमर गोड़ न जमल आउ हम झूठ बोलके भागली कि गारजियन के बोलाके आवऽ ही ।)    (झारमा॰12:1:31.1, 16)
215    भिड़ा-भिड़ी (मनोज के बाबूजी फौज में हलन । दुर्भाग्यवश छुट्टी काटे ल घर अयलन, जहिया गाँव जल रहल हल । शासन नाम के कोय चिड़ियाँ गाँव में निवास नञ् करऽ हल । एक दिन छोट-मोट बात पर मनोज के घर से चौधरी टिक्कर सिंह के घर से भिड़ा-भिड़ी हो गेल । फौज के जोश ! मोहन सिंह टिक्कर सिंह के भाय-गोतिया के भदार के रख देलन ।)    (झारमा॰12:1:27.13)
216    भितरउला (हर तल्ला पर लमहर-लमहर खिड़की में लगल शीशा आउ फाइबर से रंगबिरंगा किबाड़ खुलल हिलइत राहगीर के बोलावइत प्रतीत होवे हे । पल्ला के बीच चटकदार रंगीन मोटगर परदा भितरउला दिरिस के रहस्यात्मक बना रहल हे । ई सड़क पर किताब के ढेर मनी नामी-गिरामी दुकान हे, जेकरा आगू सहेर के सहेर लड़का-लड़की जायत-आवइत ओइसने लगइ हे जइसन छत्ता पर मधुमक्खी ।)    (झारमा॰12:1:55.13)
217    भुताह (ऊ लगातार भुताह नियन हँसइत जा हल । ऊ ताली पीट-पीट के हँसऽ लगल । ई देखि के तक्षक के नीन परा गेल । ऊ मेनका के झकझोरइत पुछलक, "उमताह-सन काहे हँसि रहली हे ? कउन अलोधन पा लेली ? कइसन खुशी में पागल हो रहली हे ?")    (झारमा॰12:1:66.7)
218    भोंभा (हाँ, ई बात त हे । बात जरी ठो रहे या बड़का गो, सुलतनियाँ के नरेटी के भोंभा इसटाट हो जाहे । सँउसे टोला-महल्ला जान जइतो कि आझ जरूरे कोय बात हे ।)    (झारमा॰12:1:40.4)
219    भोकन्ना (~ लगना = बच्चों में मोटापा दिखना)     (झारमा॰12:1:10.13)
220    भोरे-भोरे (= भोरगरहीं; सुबह-सुबह ही) (आज तीस तारीख हइ । भोरे-भोरे घी लगल रोटी आउ रामतोड़इ के तरकारी के साथ एक कटोरा दूध भी मिल गेल हल । हाथ में पानी के लोटा लेके पोता बार-बार खोसामद कर रहल हल - "बाबा, अब उठ जा । हथवा धो लऽ । दुधवा में कुछू पड़ जइतो ।")    (झारमा॰12:1:51.20)
221    मंगजरउनी ("नञ् दीदीया, ई माय न हउ, डायन हउ । हमर बाबा के टोना कर देलकउ हे । फुटलको आँख नञ् सोहवो हइ हमरा । अपने महतमाइन नियन बइठल रहतो, आउ हमरा अरहइतइ ... । मंगजरउनी के मंगिया पर एक चिपड़ी इंगोरा नञ् धर देबइ ।")    (झारमा॰12:1:41.17)
222    मंगजरौनी (दे॰ मंगजरउनी) ("बाकि बेटा, एहाँ ... एहाँ कइसे छोड़के ... ।"  बाऊजी, एतना होवे के बाद भी अपन घर छोड़के नञ् जाय ले चाह रहलथीं हल । ई उमरे अइसन होवऽ हइ कि अदमी अपन जनम आउ करमभूमी से चिपकल रहे चाहऽ हइ । बाकि नयकी पीढ़ी एकरा ओहे नाम दे दे हइ, जे मंझली दे रहलइ हल - "एहाँ छोड़के ... सीधे-सीधे कहो ने, ई मंगजरौनी के छोड़के । अजबे कलजुग हे कि अदमी बुढ़ारी में भी नुक्का-चोरी खेले में नञ् सरमा हे ।")    (झारमा॰12:1:54.15)
223    मंगिया (< मांग + 'आ' प्रत्यय) ("नञ् दीदीया, ई माय न हउ, डायन हउ । हमर बाबा के टोना कर देलकउ हे । फुटलको आँख नञ् सोहवो हइ हमरा । अपने महतमाइन नियन बइठल रहतो, आउ हमरा अरहइतइ ... । मंगजरउनी के मंगिया पर एक चिपड़ी इंगोरा नञ् धर देबइ ।")    (झारमा॰12:1:41.17)
224    ममूली (= मामूली) (करीम पेशा से कुंजड़ा हे । दिन भर तरकारी, फल, गजड़ा, मुरई बेचके घर चलाना ममूली बात हइ ?)    (झारमा॰12:1:40.20)
225    मरुआना (तक्षक फुफकारइत फन फइलइले काल बनल विकराल हो गेल । ऊ मलकि के पीपल के जड़ पर कौर मारलक । ओकरा बिख वमन करइते गाछ मुरझाय लगल आउ कुच्छे देरी में मरुआके सूखि गेल ।)    (झारमा॰12:1:61.3)
226    मरुआल (धन्वंतरी जी क्षण भर सोंचलन, मुसकइलन आउ अपन आँख पीपल के जड़ पर गड़ा देलन । देखते-देखते गाछ हरियाय लगल । नजर जने-जने जाय, बहार आ जाय । थोड़के देरी में जे गाछ मरुआल सूखल हल, हरियर कचूर भे गेल ।)    (झारमा॰12:1:61.8)
227    मसूस (= महसूस) (सब दिन तो बाऊजी पुरान संगी-साथी से मिले-बतियावे, पेनसन लेवे आउ किरन के माय से सुख-दुख बतियावे के बाद मन हलका मसूस करऽ हला, बकि आज ऊ बात नञ् हल । आज बाऊजी के बात पता चलल कि किरन आउ ओकर दुलहा के ओकर माय आउ हमर बाऊजी के मेल-जोल अच्छा नञ् लगऽ हे ।)    (झारमा॰12:1:52.27)
228    मिलना-बतियाना (पेनसन उठवे के दिन एगो आउ खास बात होवऽ हल । ऊ ई कि ऊ दिन बाऊजी अपन पुरान संगी-साथी से मिल-बतिया ले हला । एक-दूसरे से अपन-अपन सुख-दुख बतिया के मन हलका कर ले हला ।; सब दिन तो बाऊजी पुरान संगी-साथी से मिले-बतियावे, पेनसन लेवे आउ किरन के माय से सुख-दुख बतियावे के बाद मन हलका मसूस करऽ हला, बकि आज ऊ बात नञ् हल । आज बाऊजी के बात पता चलल कि किरन आउ ओकर दुलहा के ओकर माय आउ हमर बाऊजी के मेल-जोल अच्छा नञ् लगऽ हे ।)    (झारमा॰12:1:52.6, 26)
229    मुँहझपुए (अन्हरउखे मुँहझपुए ओकर बिदागरी हो रहल हे । राम-राम के बेला में काने के अवाज सुनके नीन टूट गेल । पछियारी छज्जा पर निकसलूँ, तउ देखलूँ - सुलतनियाँ सभे के गियारी में लपटके कान रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:42.8)
230    मुरई (= मूली) (करीम पेशा से कुंजड़ा हे । दिन भर तरकारी, फल, गजड़ा, मुरई बेचके घर चलाना ममूली बात हइ ?)    (झारमा॰12:1:40.19)
231    मुसकी (= मुस्कान) ("बउआ दादा हो कक्का - लालमी मिलतो चार अने फक्का ।"/ माथा पर बट्टा उठइले ऊ कहऽ हल - 'माथा पर टोकरी - के पूछे नौकरी' । हरेक टेर में कविता के टेक । घर के कोनियाँ भीतर में सुटकल नउकी दुलहिन भी खिड़की में लगल झलदार परदा हटाके करीम्मा के हुलके लगऽ हल । दिरैंची-भुड़की के ऊ पट्टी से चूड़ी के खनखनाहट से छेउँकल मुसकी के गंध से करीम्मा के टहकार आउ बढ़ जा हल ।)    (झारमा॰12:1:40.29)
232    रामतोड़इ (दे॰ रमतोड़ईं) (आज तीस तारीख हइ । भोरे-भोरे घी लगल रोटी आउ रामतोड़इ के तरकारी के साथ एक कटोरा दूध भी मिल गेल हल । हाथ में पानी के लोटा लेके पोता बार-बार खोसामद कर रहल हल - "बाबा, अब उठ जा । हथवा धो लऽ । दुधवा में कुछू पड़ जइतो ।")    (झारमा॰12:1:51.20)
233    रिटैरमेंट (= रिटायरमेंट, retirement) (पैंतीस साल तक डाक बाबू के नौकरी करके रिटैरमेंट के बाद अपन बाल-बुतरू, नाती-पोता आउ दुनहुँ परानी के साथ जिनगी के सुख लेवे खातिर सउँसे जुआनी ऊ एगो खोंथा बनावे में लगा देलका हल ।)    (झारमा॰12:1:51.3)
234    रेकना ("लोग कहऽ हथ कि हम एगो इक्सपिरेस बोगी में तौलिया में लिपटल रेक रहली हल कि एगो अदमी ओजा बैठे ले आल । हमरा रेकइत देखके कहलक - 'किनखर बुतरू हो जे एतना रेक रहलो हे ?' ")    (झारमा॰12:1:48.10, 11, 12)
235    लगल-भिड़ल (राजेश मंझवेकर सात दिन ले खाट से न उठलन । उनका अतना सदमा पहुँचल कि खुद डिप्रेशन के शिकार हो गेलन । छव महीना तक उनकर इलाज चलल । लामागुड़ी रात-दिन उनकर सेवा में लगल-भिड़ल रहल ।)    (झारमा॰12:1:25.30)
236    ललिआयल ("झरना लेखा खिलखिलाइत रहऽ, सेमर के फूल लेखा ललिआयल रहऽ, सिरिस के फूल लेखा उजिआइत रहऽ ।" बसंती पढ़ल पंडित लेखा मंतर लेखा आशीर्वाद देइत चल गेल ।)    (झारमा॰12:1:22.30)
237    लाउडीस्पीकर (= लउडीस्पीकर; लाउड-स्पीकर) ("ऐं गे सुलो, काहे ले मइया के पिटवा देलहीं ?" एक दिन पुछलथिन गीता मस्टरनी । - "नञ् ने जानो हथिन, मस्टरनी जी ... " / सुलतिनयाँ शुरू हो गेलो तउ अरिया के तोरे हटे पड़तो । ओकर मुँह में अंगरेजी बाजा हल ... बिना बैटरीवला लाउडीस्पीकर ।)    (झारमा॰12:1:42.5)
238    लाही (= पौधों में लगनेवाला लाख, लाह; काले रंग का उड़नेवाला छोटा कीड़ा, जो फसल को बरबाद कर देता है)     (झारमा॰12:1:10.23)
239    लिपल-पोतल (नोवामुंडी (चाइबासा) लोहा के खदान । पहाड़ी इलाका । पहाड़ी के तराई में आदिवासी समुदाय के खुबसूरत मकान । कहीं खपड़ा, कहीं बाँस के खपाची, कहीं-कहीं झर-झलासी से नमूनादार छावल । माटी के देवाल । देवाल चिकन-चाकन, पलास्टर झूठ । बाघ, भालू, हरिन, हाथी, खरगोश, गाछ-बिरिछ, साँप-नेउर, तीर-धनुष, ओखरी में मुंगड़ा से धान कूटइत नारी, हरिन के पाछे तीर-धनुष के साथे दउड़इत राम, परबत के बरफीला चोटी पर पद्मासन पर धेयान लगौले बम भोला, झील-झरना, नदी-तालाब आदि तरह-तरह मट्टी से लिपल-पोतल पहाड़ी आदिवासी के कला-संस्कृति के बखान कर रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:21.7)
240    वजनगर (काश ! इलाका के वजनगर बुद्धिजीवी के कभी ई पल देखे के मौका लगत हल, निहाल होवे के मौका लगत हल, तब मास्टर समाज के, दोयम दरजा के बुद्धिजीवी नञ् समझल जात हल ।)    (झारमा॰12:1:27.8)
241    संझला ("मुनिया के मइया, करुआ के बाऊ, मिसिर बाबा सभे तो पेनसनमा लेके चल अइलथीं । कहाँ किनको साथ कुछ होलइ, तोहरे साथ काहे होलो ?" संझला बिफर रहलइ हल । छोटका तो सरासरी बाऊए जी के दोस दे रहलइ हल ।)    (झारमा॰12:1:53.5)
242    संझली ("हम्मे तो कहऽ हियो दीदी कि बाऊजी सब पैसवा ओहे निरबंसी के दे देलथू होत, आउ एहाँ डरामा कर रहलथू हे ।" संझली अलगे अन्दाजा लगा रहलइ हल ।)    (झारमा॰12:1:53.14)
243    सचे-मुचे (की जाने किधर से मंझली के फुँफकार सुनाय पड़ल - "मिल रहलो हे पानी, जरी सबर नञ् कर सकलऽ हल ? बेटी-पुतहु के घर हइ अउ हनहना के घुँसल जा रहलऽ हऽ । जरी सा देर में कि परान जा रहलो हल ?" ... सुनके, बाऊजी उलटे गोड़ भितर में आके अपन खटोला पर पसर गेला । सोंचे लगला, केतना अच्छा होत हल कि सचे-मुचे परान चल जात हल । कम-से-कम ई नरक से छुटकारा तो मिल जात हल ।)    (झारमा॰12:1:51.18)
244    सच्चो-मुच्चो (= सचे-मुचे, सच्चे-मुच्चे) (जाने कौन भावावेश में हमरो मुँह से निकलिये गेल - "हाँ, हमर माय हे ई । ... आउ सुनलें तोहनी, इनका हम बहुत पहिले से माय मान रहलिये हे आउ सच्चो-मुच्चो के माय बनाके रहबइ । तोहनी बाले-बच्चे टीभी तर बैठके ठिठियैते रहमहीं आउ बुढ़वा बेचारा कोना भीतर धरके कुहकते रहतइ । हम अइसन नञ् होवे देबइ ।")    (झारमा॰12:1:54.24)
245    सतेली (= सौतेली) (अन्हरउखे मुँहझपुए ओकर बिदागरी हो रहल हे । ... सबसे अचरज के बात आउ देखलुँ ... विश्वास नञ् भेल ... आँख रगड़के साफ कयलूँ - सुलतनियाँ अपन सतेली माय के छाती में सट्टल भोकार पार रहल हल । झरझरिया डी.एम.यू. हौरन पर हौरन मार रहल हल बाकि सुलतनियाँ आउ ओकर सतेली माय के बिलगावे के हिम्मत केकरो नञ् हल ।)    (झारमा॰12:1:42.14, 15)
246    सबुर (= सबूर, सबर, सब्र) (एक दिन तो समसावली कह देलखिन - "जहिया से कारो मियाँ नयकी के लैलखिन हे, इनखर दिमगवे असमान पर रहऽ हइ ।" - "असमान पर की रहतइ ? ई अजलत के कोकलत कइलकइ हे कि .. । ई उमर में एतना ढेना-ढेनी के रहते बुढ़ारी में घिढारी ... ? बड़की बिआहे जुकुर हो गेलइ, बाकि अभी त एकरे सबुर नञ् हइ ... ।" मुँह चमका के कहलकी नोमावली ।)    (झारमा॰12:1:40.34)
247    सम्हलना (अइसहीं करत-करत ऊ गाँव के एगो मनचला लड़का के फँसा लेलक । कुछ दिन बाद ओकरा जौरे भाग के बिआहो कर लेलक । बेचारा रमेसर के इज्जत मट्टी में मिल गेल । गाँव-घर हँसे लगल कि ई पढ़ल-लिखल बाबू हथ । एगो औरत न सम्हललइन, छोड़के दुसरा जौरे भाग गेलइन ।)    (झारमा॰12:1:44.10)
248    सरदर (शंकर राधा के देखइत दंग रह गेल । अठारह बरिस के राजशिखा से जादे सुन्नर लग रहल हल ओकर माय राधा । नैन-नक्स एकदम परी जइसन, नञ् लंबा नञ् नाट, नञ् दुब्बर-पातर, पूरा देह एकदम सुडौल । बिन सुरमा के आँख हरिन अइसन, केश एकदम करिया भुजंग, सउँसे देह सरदर बराबर - सुडौल ।)    (झारमा॰12:1:46.6)
249    सर-समाचार (सर-समाचार पुछली, ओकर बाद बुलबुल से भइया ले चाय-नस्ता लावे ले कहली ।)    (झारमा॰12:1:28.5)
250    सर्वस (= सर्वस्व) (मेनका, तूँ तक्षक के ललकारलऽ हे, मरल तक्षक के जिअइलऽ हे । हम कहानी न जानऽ ही कि ऊ तक्षक परीक्षित के डँसलक कि नञ्, बकि ई तक्षक तोरा डँसत, जरूर डँसत । डंड में तक्षक के सर्वस दाव पर लगि जाय बकि डँसे से बाज न आवत मेनका ।)    (झारमा॰12:1:58.20)
251    सलाहियत ("देखीं सुलो, अब त इहे मइया काम देतउ ने । काहे ला एकरा से तकरार करऽ हें । सलाहियत से रह । हमनी के कउनो जिंदगी भर रहे के थोड़े हइ ।")    (झारमा॰12:1:41.14)
252    साँप-नेउर (नोवामुंडी (चाइबासा) लोहा के खदान । पहाड़ी इलाका । पहाड़ी के तराई में आदिवासी समुदाय के खुबसूरत मकान । कहीं खपड़ा, कहीं बाँस के खपाची, कहीं-कहीं झर-झलासी से नमूनादार छावल । माटी के देवाल । देवाल चिकन-चाकन, पलास्टर झूठ । बाघ, भालू, हरिन, हाथी, खरगोश, गाछ-बिरिछ, साँप-नेउर, तीर-धनुष, ओखरी में मुंगड़ा से धान कूटइत नारी, हरिन के पाछे तीर-धनुष के साथे दउड़इत राम, परबत के बरफीला चोटी पर पद्मासन पर धेयान लगौले बम भोला, झील-झरना, नदी-तालाब आदि तरह-तरह मट्टी से लिपल-पोतल पहाड़ी आदिवासी के कला-संस्कृति के बखान कर रहल हे ।)    (झारमा॰12:1:21.4)
253    सिरकंडा (= सरकंडा) (ओकर वजन घटइत गेल । भूख खतम, चेहरा पर के मुस्कान पुनिया के चान नियन अलोपित, गुल-थुल शरीर सूखके सिरकंडा । तरह-तरह के रोग के शिकार । बीमारी से लड़े के क्षमता ऊख के एँगारी लेखा बिलाइत गेल । केल्हुआड़ी में ऊख के रस लेखा रोग निरोधक क्षमता चूअइत गेल आ शरीर चपुआ लेखा सूखइत गेल ।)    (झारमा॰12:1:24.6)
254    सीझल (मेनका सीट पर बइठ के दरवाजा बंद करि लेलक । एसी चालू हल । धूप के सीझल मेनका के ओइसने राहत मिलल, जइसन रेगिस्तान के रउद से परेशान हिरनी के ओएसिस (मरूद्यान) के गोदी में ।)    (झारमा॰12:1:56.25)
255    सुरिआह (हमरा तो बस आदरजोग घमंडी राम जी, निराला जी आउ वीणा दी नियन सुरिआह गारजीयन चाही आउ मिथिलेश जी, उमेश जी आउ भाय विनोद नियन दहिनबाँह - राँचीवला रोप-वे पर चढ़बइ आउ 'जय मगही !' 'जय मगही !!' के जयकार लगैते पूरा झारखंड निहारले मंजिल तक पहुँच जैबै ।)    (झारमा॰12:1:6.5)
256    हड़िया (= हाँड़ी; भात सड़ाकर बनाई गई शराब, जो संथालों का एक प्रिय पेय है) (हड़ताल के कारण खदान में तालाबन्दी के शिकार बेचारा लामागुड़ी लकड़ी के गट्ठर ले जाके हटिया में बेचल करे बाकि हड़िया में लौटित खानी सब लुटा जाय । डगमगाइत घर आवे । खयले-बिनखयले जमीन पर लेट के बिहान कर देवे । फिन जंगल में जाके लकड़ी काटे, हटिया जाए, हड़िया पिए, डोलइत-डालइत घर आवे ।; बिरसा गाँव बसावल गेल । गाँव के लोग मनरेगा कार्यक्रम के तहत काम करे लगलन । लामागुड़ी हड़िया के फोड़-फाड़ देलन । नशा मुक्ति अभियान के ऊ संयोजक बन गेलन ।)    (झारमा॰12:1:22.9, 11, 23.35)
257    हनहनाना (कुछ देर की, बहुतो देर तक कोय जवाब नञ् सुने के बाद बाऊजी अंगना में गोड़ बढ़ा देलका - "छोटू, अरे एक लोटा पानी चाही बेटा ।" ... की जाने किधर से मंझली के फुँफकार सुनाय पड़ल - "मिल रहलो हे पानी, जरी सबर नञ् कर सकलऽ हल ? बेटी-पुतहु के घर हइ अउ हनहना के घुँसल जा रहलऽ हऽ । जरी सा देर में कि परान जा रहलो हल ?")    (झारमा॰12:1:51.16)
258    हलकान (एक दशक पहिले बिहार के भूमि के भूगोल खंड-खंड हो गेल । कुछ लोग के जीत के एहसास होल त हमन्नी नियन अदमी के करेजा फट गेल, मन हलकान हो गेल, शरीर बेजान हो गेल, बिहार बरबाद हो गेल ।)    (झारमा॰12:1:5.5)
259    हुलियामन (= उल्टी महसूस होना)     (झारमा॰12:1:10.29)
260    हेल-मेल (हम्मर चउगिरदी संसार जत्ते समझ में आवऽ हे ओकरा अलावे भी बहुत कुछ हे, ई लेल ओकरा प्रति हमर एगो जिज्ञासा के भाव होवो हे । लेखक या रचनाकार पढ़वैयन के ऊ दुनियाँ से हेल-मेल करावऽ हे जे ओकरा चारो दने हे मुदा ओकर आँख से ओझल हे ।)    (झारमा॰12:1:15.17)
261    हौरन (= हॉर्न, horn) (अन्हरउखे मुँहझपुए ओकर बिदागरी हो रहल हे । ... सबसे अचरज के बात आउ देखलुँ ... विश्वास नञ् भेल ... आँख रगड़के साफ कयलूँ - सुलतनियाँ अपन सतेली माय के छाती में सट्टल भोकार पार रहल हल । झरझरिया डी.एम.यू. हौरन पर हौरन मार रहल हल बाकि सुलतनियाँ आउ ओकर सतेली माय के बिलगावे के हिम्मत केकरो नञ् हल ।)    (झारमा॰12:1:42.15)
 

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