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Monday, May 06, 2019

मैथिली (लघु) उपन्यास - "पुनर्विवाह" (1926) - भाग-1


मैथिली उपन्यास "पुनर्विवाह" (1926)
उपन्यासकार - जनार्दन झा 'जनसीदन' (1872-1951)
मगही अनुवाद - नारायण प्रसाद
[*27]
पूर्वार्ध
1
कलाधर - रूप बड़गो कि गुण ?
दिवाकर - हम पहिले रूपे के बड़गो समझऽ हलुँ, लेकिन अब कुछ दिन से ई धारणा बदल गेल ह ।
कलाधर - बदले के कारण ?
दिवाकर - जब तक विवाह नञ् भेल हल, रूपवती स्त्री के देखके मन में होवे जे हमरो अइसन सुन्दर स्त्री से विवाह होत हल त मनुष्य जीवन के सफल समझतूँ हल । ईश्वर के कृपा से ई मनोरथ पूरा तो भेल । लेकिन मन के धारणा जे पहिले हल से बदल गेल ।
कलाधर - मित्र ! आद हको ? एक दिन विद्यालय से आवे घड़ी हमरा तोहरा साथ एहे विषय पर विवाद होलो हल । तोहरा केतनो समझाके कहलियो कि गुण के महत्त्व रूप से अधिक हइ, लेकिन तूँ स्त्री खातिर रूपे के प्रधानता देते रहलहो । तूँ एहो बोलते रहलहो कि सुन्दर स्त्री स्वभाव से गुणवती होवऽ हइ । कउनो कवि के कथन हइ जे ‘यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति[1] । एकरा पर तोहरा पक्का विश्वास हलो । लेकिन कवि के ई उक्ति सगरो लागू नञ् हो सकऽ हइ, से हम अनेक उदाहरण द्वारा तोहरा समझइलियो । लेकिन तूँ नञ् मानलऽ, तोहर मन में रूप के संग गुण रहे के पक्का विश्वास जमल हलो, से नञ् रहलो । हम ई नञ् कहऽ ही जे रूपवती स्त्री गुणवती नञ् होवऽ हइ । जेकरा में रूप गुण दुन्नु हइ से तो हर तरह से प्रशंसा के पात्र हइ । रूप के संग गुण होना, सोना में सुगन्ध होवे के बराबरे समझे के हइ । तखनी सौन्दर्य रहित गुणवती स्त्री गुणहीन रूपवती स्त्री से अवश्य नीक, एकरा में सन्देह नञ् ।
दिवाकर – ‘फलेन परिचीयते[2] अब हमरा तोहरे कहना सच लगऽ हको । हमर ऊ दिन के समझ भ्रमात्मक हल ।
कलाधर - रूप सर्वदा स्थिर रहे वला वस्तु नञ् हइ । थोड़हीं दिन में कुम्हलाके ऊ मलीन हो जा हइ । विकसित फूल के स्थिति आउ रूप में कुछ [*28] भेद नञ् । जे फूल एक दिन अपन प्रफुल्लता के कारण हृदय के आकर्षित करऽ हइ, दू दिन बाद मुरझा गेला पर चित्त के आकर्षित करे के स्थान में खाली खेद पैदा करऽ हइ। लेकिन गुण में ई क्षमता नञ् पावल जा हइ । ओकर दिन-दिन उत्कर्ष होवहीं के सम्भावना ।
दिवाकर - एतना दिन के बाद अब हमहुँ निश्चित रूप से बुझलुँ जे गुण रहित रूप, महकारी[3] के फल के सिवाय आउ कुछ नञ् ।
कलाधर - ज्योतिषी भाय के स्त्री कउन रूपवती हथिन, लेकिन गुण के कारण सगरो उनकर प्रशंसा होवऽ हइ । एक दिन हम उनकर आंगन गेल रहिअइ । काकी से पुछलिअन - कहु, पुतोह के शील स्वभाव कइसन ? कहलन जे हे बाबू, स्वभाव के वर्णन की करिअन, साक्षात् लक्ष्मी हथी । अइसन पुतोह भगवान सबके दे । अइतहीं आशश्रम (परिवार) के सब भार उठा लेलन । दू बरिस से काहाँ की होवऽ हइ से बझवो नञ् करऽ हिअइ । एक बरिस के बुतरू कोर में हन तइयो खाना बनावे के काम करना-धरना, सबके खिलाना-पिलाना । कखनियों बैठल नञ् देखऽ हिअइ । हमर सेवा-शुश्रूषा जइसन करऽ हथिन ओकरा से बुझऽ हिअइ । रड़िनियो के कहियो कउनो छोट बात कहते नञ् सुनलिए ह । दोसरो पुतोह के अइला दू बरिस हो गेलइ । देखे-सुने में मूर्ख नञ्, लेकिन रंगल-ढंगल माटी के मूर्तिए (नियन सुंदर लेकिन कोय काम के नञ्)। खेर्ह के भी दुख देतइ ओहो नञ् । अपन मन से कुछ करतइ से सब नञ् । जखनी देखबइ तखनी पड़ले । जखनी अपन दिमाग में कुछ नञ् सुझइ त दोसर के अर्हइलो पर कुछ नञ् करतइ । एक कान से सुनतइ, दोसर कान दने बहरा जइतइ । कोय बात के चिन्ता नञ् । भगवान अइसन गोतनी देलथिन ओकरा चलते, जइसन करऽ हथिन, छज जा हइ । कान-कान कोय नञ् सुनऽ हइ । अगर जेठ, जेकर देवकी के भौजी के भौजी नियन स्वभाव रहते हल त आंगन में दिन-रात दुरर्थ होते रहते हल ।
एतने में भौजी पान-सुपारी पनबट्टी में देके बुतरू के हाथ से पठइलन ।
हम बुतरू के गोदी में लेके काकी के कहलिअन, धन्य तोहर भाग्य जे अइसन पुतोह पइलऽ । आझकल तो एकाधे गो के अइसन पुतोह भेटत जेकर प्रशंसा सास के मुँह से सुनबइ । नञ् तो घर-घर में सास-पुतोह के झगड़ा खाना-पीना नियन एक ठो आवश्यक विषय हो गेल ह । सास से भेंट भेला पर भर ठाकी पुतोह के दोष। पुतोह से भेंट होत त टेहुना भर सास के दोष कहके सुनइतइ । कभी-कभी आँचर से आँख ओहो पोछतइ आउ ओहो । भाग्य के दोष दुन्नु गोटा देथी, तखनी दोष केकर एकर निर्णय होना कठिन । प्राण बच्चे के संभव तखनी अगर सास के सुर में [*29] सुर मिलाके पुतोह के निन्दा भर हिंछा कहके सुनइबइ, आउ पुतोह के समीप अधिक त एतनो अवश्य कह दिअइ जे बूढ़ी अब आँख मूनके चल देथी ओकरे में नीक हलइ । उनका अब घर-द्वार से की मतलब । आन घर के की बात । हमरो आंगन में ई चरखा चलतहीं रहऽ हइ । की कइल जाय । सुनते-सुनते कान बहिर भे गेल । डरे कुछ बोली नञ् निकसऽ हके । जेकरा चुप रहे कहऽ हिअइ ऊ मुद्दई (अभियोग लगौनिहार, वादी) के रूप में समझऽ हइ । आंगन में अधिक लोक नञ्, सेकरा पर ई विषय । जे-जे घर में दु-चार सास-पुतोह के एकत्र वास, ऊ घर के तो बाते नञ् कहल जाय । हुआँ जे नञ् हो, से आश्चर्य । ई कहके जखनी हम विदा भेलुँ तखनी काकी कहलन, बीच-बीच में अइते-जइते रहऽ । दिवाकर बाबू के देखला बहुत दिन भे गेल । भेंट हो त उनका एक बेरी एन्ने पठा दिहो ।
दिवाकर - काकी से भेंट करे के इच्छा त हमरो बहुत दिन से होब करऽ हइ, लेकिन की करूँ ? आंगन के काज से फुरसत हो, तखनी कहूँ जाँव । बाबू गामहीं पर न हथी । माय अधिकतर समय तकलीफ में रहऽ हथी, बुढ़ारी के देह भेलइ । बहिन जब हियाँ हले त निश्चिन्त हलुँ । ऊ जे दिन से गेल हथी, ऊ दिन से परिवार के सब भार हमरे कपार पर चढ़ल । आंगन में हथी, उनका कोय बात के चिन्ता नञ्, भर दिन सखी-सहेली संग ताश-ताश खेलते रहऽ हथी । कभी निम्मन खराब लगी कहिअइ त कहऽ हथी जे हमरा नैहर पठा दऽ, नञ् त हम इनारा-पोखर में डूब मरम । जहर भेटत हल त खाके सुत रहतूँ हल । कहू अइसन ठाम हम की करू । जे रूप के हम अमृत समझऽ हलुँ, से अब जहरो से बढ़ल भयंकर लगऽ हके । गुणवती स्त्री के मुँह से अइसन कुबुद्धि भरल वाक्य सुने में नञ् अइतइ । लेकिन गरमे पड़ल ढोल त बजावे में कुशल । जेकर पाणिग्रण कर चुकल हिअइ, तेकर निर्वाह त कउनो तरह करहीं पड़तइ । माय दोसर विवाह करे लगी कहऽ हथी, लेकिन हम उनकर ई आज्ञा के पालन करे में असमर्थ ही । बाबूजी के मुछह से कहियो अइसन तरह के प्रस्ताव नञ् सुनलुँ हँ । उनकर विचार के बिना सहसा हम कउनो काम करूँ, से उचित नञ् ।
कलाधर - ई तोहर विचार सर्वथा उत्तम हको । मनलिअइ दोसर वुवाह करम, लेकिन ऊ इनका से नीके होतइ एकर कउन गारंटी । हो सकऽ हइ, ऊ इनको से बेलूरी होथी ।त अखनी जे दुख हइ ओकर मात्रा कइएक गुना बढ़ जात । जेकरा से ई सुधरथी सेहे उपाय करूँ । नैहर में कन्या के नीक शिक्षा नञ् भेलइ, ई सब होना आश्चर्य के विषय नञ् । अनपढ़ स्त्री जे नञ् करइ से अचरज ।
दिवाकर - अब बुझते-बुझते बुझलुँ जे स्त्री के सर्वोपरि गुण होवऽ हइ पति [*30] भक्ति । जे स्त्री के ऊ नञ् हइ, ओकरा आन गुण चाहे सुन्दरता रहलहीं से की ? स्त्री-पुरुष में परस्पर प्रेम नञ् रहइ, गृहस्थी के सुखे की ?
कलाधर - स्त्री-पुरुष में परस्पर प्रेम तबहिएँ तक स्थिर रह सकऽ हइ जब तक दुन्नु के चरित्र शुद्ध रहइ आउ दुन्नु के व्यवहार निश्छल रहइ । ई जाहाँ नञ् हुआँ "मुँह देखे की प्रीति ।"
दिवाकर - बेस, अब साँझ भेल । काम नञ् रहत हल त कुछ बखत एत्ते बैठके आउ गप करते जइतूँ हल।
दुन्नु गोटा अपन-अपन घर दने चल गेला ।
2

कलाधर - कहू मित्र ! ज्योतिषी भाय के घर दने जाय के अवसर मिलल कि नञ् ?
दिवाकर - सपरते-सपरते तीन महिन्ना पर कल्हे काकी से भेंट करे लगी गेल हलुँ । ज्योतिषी भाय के स्त्री कुछ दिन से बेमार हथिन । बेमारी पुछला पर कहलन जे लक्षण से बुझल जा हइ जे परसौती भे गेल हन। खुद जाहाँ तक औषधि जानऽ हलुँ, देलिअन । आनो कोय देवे लगी कहऽ हइ । देलिअन, लेकिन फयदा कुछ देखे में नञ् आबइ । देह दिनो-दिन दुबरइले जा हइ । एहू हालत में क्षण भर बैठथी त से नञ् । आंगन-घर के कुच्छो काम पहिले जे करऽ हलथी से अभियो करऽ हथी । सेकरा पर हम कहलिअन जे जब तक ऊ दुखी हथी तब तक छोटकी भौजी के रसोई करे लगी काहे नञ् कहऽ हथिन । कहलन, उनका कउनो लूर-भास नञ् हन । भर दिन हाथ-गोड़ मोड़ले रहऽ हथी । मुँह धोवे कहबन त मुँह धोथी । खाय कहबन त खइथी । बुतरू के भर दिन हमहीं गले लगइले रहऽ हिअइ । जयनाथ के कहऽ हिअन जे कउनो बड़गो डाक्टर से देखाहुन, त ऊ कहऽ हथी जे ई सब दुख स्त्री लोग के होतहीं रहऽ हइ । खटाय मिरचाय खाय लगी छोड़ देथी, सब अपनहीं छूट जइतन । दू टका  वैद के देवे पड़तन । ओहे से केतनो कहऽ हिअइ, काने नञ् दे हथी, से नीक नञ् करऽ हथी । हम कहलिअन, जयनाथ भाय ध्यान नञ् दे हथी, से नीक नञ् करऽ हथी । दुख बढ़ जइतइ त पाछे पछतइता। एकदम इतना कंजूसी कउन काम के । मासे-मास ज्योतिषी भाय टका पठावऽ हथी, भौजी के बेमारी में दस टका खरच करहीं पड़तन, त कउन भारी [*31] बात हइ, जान के खातिर लोग की नञ् करऽ हइ । जेकरा अपना उपाय नञ् रहऽ हइ, से अनको से करजा-पैंचा लेके दवा-दारू करऽ हइ । ज्योतिषी भाय के आवे खातिर चिट्ठी लिखके पठइहो।
काकी कहलन - एक-दू गोटा ! कै गोटा चिट्ठी पठइलथिन हँ । दुखवो के हाल लिखवा देलिए ह । ऊ लिखऽ हथी, जब तक अनुष्ठान समाप्त नञ् होत तब तक गाम नञ् आ सकऽ ही । छो मास लगी कोय भार देलन हल जेकरा में चार मास बीत गेल, अब दू मास आउ बाकी बच्चल हइ, सावन तक गाम अइता । पाँच टका रोज दक्षिणा दे हन, से छोड़ना बड़ भारी बुझा हइ । हियाँ कोय मरइ चाहे जिअइ तेकरा से उनका की ? टका फेर कमा लेता, लेकिन लोक अइसन नञ् भेटतन से हम तोहरा कहके रखऽ ही । हम सान्त्वना देते कहलिअन - कउनो चिन्ता नञ्, दुख-सुख शरीर में होतहीं रहऽ हइ, "शरीरं व्याधि मन्दिरम्", संयम से रहथी, समय पर औषधि खाथी । हम रोग के लक्षण सब ज्योतिषी भाय के लिखके पठाब करऽ हिअइ । वैद्यनाथ धाम में बहुतो डाक्टर-वैद्य हइ, केकरो से औषध लेके पठा देथिन । तूँ चिन्ता मत करऽ । हमर दाइ एक बरिस से बेमार हलइ, अब नीक भेल जा हइ । ई कहके हम चल देलुँ । वास्तव में जयनाथ भाय बड़ अनुचित काम करऽ हथी जे वैद्य से नञ् देखावऽ हथिन, हम कहलिअन लेकिन काकी से हमरा ऊ सम्बन्ध में गप करते देखियो के कधरो टर गेलन ।
कलाधर - बाबू ! कंजूसो बहुत देखल हइ, लेकिन जयनाथ नियन एतना संकीर्ण हृदय के लोक कहूँ देखे में नञ् आवऽ हइ । बात तो बोलऽ हइ खूब सीटके, लेकिन करे के बेरी में "विष्णुर्विष्णुरहरिर्हरिः" । बिहान चलहू हम तूँ दुन्नु गोटा उनका समझाके कहबन । अगर नञ् मानता त एगो रजिस्ट्री चिट्ठी ज्योतिषी भाय के लिखके पठइबन । कउन पंडा के मकान में हथी ?
दिवाकर - से हमरा बुझल हइ । धर्मदत्त पण्डा के मकान में उनकर डेरा हइ । दोसरो मन्दिर के पता से चिट्ठी पहुँच सकऽ हइ ।
कलाधर - जयनाथ से भेट एक बजे दिन तक होत । लगभग बारह बजे तक तो ऊ खेतवे में रहऽ हइ । बज्र बनिहार नियन कमाय करऽ हइ, घास छिल्लऽ हइ । कोय बात के कमी नञ् हइ तइयो भर दिन हाय-हाय करते रहऽ हइ ।
दिवाकर - मित्र, पैसा के महत्त्व कोय-कोय समझऽ हइ। हम तूँ जे एतना अभाव में [*32] जिनगी गुजारऽ हो सेकर कारण पैसा के कदर नञ् करना हइ । कर्तव्य के चलते कुछ अधिक खरच करहीं पड़ऽ हइ । जयनाथ भाय के आंगन में एक दिन भौजी धान से मछली किनलथिन, मछली आगू में देखके आउ ई समझके जे ई किनल गेल ह, झट मछली के कटोरा उलट देलन आउ आसन पर से ई बोलते उठ गेला जे मछली खाय के इच्छा भेलो हल त हमरा कहला से हम पोखर से मरवाके ला देतियो हल । एतना फजूलखर्ची जे घर में हो से घर कइसे चलत । भौजी के आँख से लोर टप-टप गिरे लगलइ । से जयनाथ उनका औषधि में दस-पाँच टका खरच करता ई तो असम्भव बुझल जा हइ ।
कलाधर - हम लोगन कउनो कुमार्ग में तो खरच करवे नञ् करऽ हिअइ, तखनी उचित के त्याग करबइ ओहो नञ् हो सकऽ हइ । ओकरा लगी अभाव में रहिअइ चाहे जे रहिअइ ।
दिवाकर - कठिन समय बीत रहल ह, जेकरा चलते हमरा नियन आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोग के मर्यादा बचाना कठिन हइ ।
कलाधर - बेस, त अब जा हियो ।
दिवाकर कुछ दूर तक उनका अरिआत गेला फेर अपन दलान पर अइला ।
3
विशेषरानी के हालत दिन-दिन खराबे होते गेलइ । हलाँकि उनकर स्वामी ज्योतिषी भवनाथ झा वैद्यनाथो से कुछ औषधि डाक से पठा दे हलथिन, लेकिन ओहूँ से कुछ लाभ नञ् भेलइ । अब चलहूँ-फिरहूँ के सामर्थ्य शरीर में नञ् रहलइ । कुछ दिन से शय्यागत (bed-ridden) होल पड़ल रहऽ हथी । हमेशे देह में सूक्ष्म ज्वर बनले रहऽ हइ । उनका अब अपनहुँ बुझाय लगले ह जे रोग असाध्य भेल जा हइ । कखनहुँ जयनाथ ई बोल देथिन जे कुपथ्य से रोग बढ़ गेले ह, तखनी उनकर मन में बड़ी पीड़ा होवऽ हइ । लगऽ हइ कि जइसे कोय हृदय में बरछी भोंक रहल ह । एकरो से बढ़के उनकर हृदय दू बात के सोच से सतत दग्ध होते रहऽ हलइ। एक तो स्वामी के दर्शन मरहुँ बखत तक नञ् होल, दोसर उनकर पीछू तीन बरिस के अबोध बुतरू के रक्षा के करत ? एहे चिन्ता से ऊ दिन-रात शोकाकुल रहऽ हलन । कखनहुँ बुतरू के छाती से लगाके अधीर होके कन्ने लगथी । अनेक तरह के आश्वासन देलो पर उनकर आँख के लोर नञ् सुक्खइ । [*33] भर दिन बुतरू के कंठ से लगइले मौत के इंतजार में दिन बिता रहला हल । सावने से स्वामी के राह तकते-तकते आन्हर हो गेलथिन । लेकिन भवनाथ के चाणक्य के ई श्लोक "दारान् रक्षेद्धनैरपि"[4] पुरश्चरण के टका देखके विस्मृत हो गेलइ । उनका एक दोसर यजमान भेट गेलन आउ कहलकन जे दू मास हमर पूजा कर दऽ । कार्य सिद्ध भेला पर हम दक्षिणा के अलावे पाँच बीघा भूमि ब्रह्मोत्तर देबो । ऊ लोभ से बेचारे अब तक ओत्ते रह गेला । जयनाथ चिट्ठी में लिख देलथिन जे कउनो अन्देसा नञ्, भौजी पहिले से अब कुछ नीके हथी, एही से उनकर मन में कुछ सन्तोष हो गेले ह । लेकिन कखनी कलाधर बाबू के रजिस्ट्री चिट्ठी पइलन तखनी से मन छटपटाय लगलइ । करता की । कभी भाय पर गोस्सा आ जाय जे पहिलहीं अगर सच-सच बात लिखके पठा देत हल त दोसर पुरश्चरण नञ् गछके गामे चल जइतूँ हल । लेकिन अब तो "स्थातुं गन्तुं द्वयमपि सखे नैव शक्तो द्विरेफः"[5] । एक दिन सपना में देखलन जे स्त्री गोड़ दबा रहल हथी आउ कह रहलथी ह जे अबरी तूँ बाबाधाम जइबऽ त हमहूँ साथे जाम । तूँ हुआँ जा ह त सब विसर जा ह । बिन पूरा बरिस बितइले गाम नञ् आवऽ ह । बुतरुओ के अबरी साथे लेले जाम । तोहरा टका होते रहे के चाही । बहू-बेटी के मोह तक्के में घड़ी घंटा के शब्द सुनके नीन खुल गेलन । "जय वैद्यनाथ" कहके उठ बैठला । कुछ बखत व्याकुल होल सोचे लगला जे की करूँ । गाम जाना बिलकुल उचित हके । निश्चय कइलन जे आझ साँझ के समय ट्रेन से गाम जाम । स्नान-पूजा करके जखणीडेरा पर अइला तखनी देखलन जे बाबू महेश्वर सिंह के सिपाही बैठल हइ । प्रणाम करके चिट्ठी आउ100 टका के एगो नोट हाथ में देके कहलकइ जे 'बाबू साहेब कल या परसों आवेंगे । आपको यह रुपया डेरा के इंतजाम के लिए दिया है । उनके वास्ते एक अच्छा मकान आप ठीक कर रखें।' ज्योतिषी के मन के भावना मनहीं में रह गेल, की करता, लचार होल रहहीं पड़लन । कार्तिक अमावस्या से तीन दिन पहिले ऊ गाम पहुँचला । उनका ई धारणा नञ् रहइजे स्त्री के ई अवस्था में देखता । हलाँकि उनका स्त्री पर प्रेम हलइ, लेकिन लाभ के वशीभूत होके भइयो प्रेम वियोग शृंगार द्वारा पुष्ट करे लगला । एन्ने स्त्री पति के ध्यान करते स्वर्गलोक हाय के तैयारी कर रहलथिन हल । विशेषरानी पति के आगमन सुनके फुरफुराके उठ बैठलथी । ऊ पल उनका लगलइ जे उनकर आधा दुख छूट गेल होवे । लेकिन शरीर में ओतना सामर्थ्य नञ् जे पति के दर्शन खातिर उठके चौकठियो तक जाथी । एक बेरी साहस करके उठे लगलथी, लेकिन तलमलाके सेज पर गिर पड़लथी ।
[*34] भवनाथ माय के प्रणाम करके हाथ-गोड़ धोके जखनी स्थिर भेला तखनी माय के कहला पर अपन शय्यागत स्त्री के देखे लगी गेला । उनका घर में प्रवेश करते देखके उनकर स्त्री साहस करके कउनो तरह से खाट से ससरके निच्चे बैठला । आँख से झरझर लोर गिरे लगलइ । स्वामी कहलथिन - 'कन्नऽ ह काहे लगी ? तोहर दुख जल्दी छूट जइतो ।' विशेषरानी स्वामी के गोड़ पर माथा रखके बहुत देर तक चुप रहलथी । बाद में जब स्वामी उठाके बैठइलथिन तखनी ऊ गद्गद् कंठ से कहे लगलथिन, "तूँ हमरा विसार देलऽ से हमर कर्म के दोष हके । दू-एक दिन के बाद अइतऽ हल त भेटो नञ् होतो हल । हमर प्राण केवल तोहर दर्शन खातिर अटकल हलो । अब हम खुशी से मर सकम । हमरा से कहियो कउनो तरह के अपराध होलो होत त ओरा क्षमा कर दीहऽ ।" एतना कहके दुन्नु हाथ से पति के गोड़ पकड़ लेलन । भवनाथ अधीर हो गेला । आँख से टप-टप लोर गिरे लगलइ । कंठ रूद्ध हो गेलइ । लाख बोले के चेष्टा कइलन लेकिन कुच्छो बोली नञ् निकसलइ । केवल स्त्री के दुन्नु व्यथित हाथ के कइसूँ अपन गोड़ पर से हटाके हाथ में रखले रहला ।
स्त्री धैर्य धारण करके कहलथिन - विवाह में हमर हाथ पकड़लहु, तेकर निर्वाह एतना दिन कइलुँ । अब हाथ पकड़ऽ हऽ, जेकरा में हमर उद्धार हो से करबो । जेकरा में हमर मनोरथ भंग नञ् हो, से करबो । ई कहते ठोर पर हँसी के झलक आउ मुँह पर एक प्रकार के दिव्य कान्ति आ गेलइ । कहलथिन जे तूँ अपन हाथ हमर माथा पर रख दऽ, सेरा से सभ दुख छूट जात ।
भवनाथ झट अपन हाथ अपन दहिना हाथ स्त्री के माथा पर रखके श्रीराम रक्षा कवच पढ़े लगला । पाठ समाप्त भेला पर स्त्री कहलथिन अब हमर सब मनोरथ पूरल, एक ठो हमर बात रखऽ त हम कहियो ।
भवनाथ - अवश्य रखबो, कहे के हको से कहऽ ।
एतने में एगो नो-दस बरिस के बालिका उनकर बालक के गोदी में लेले ऊ घर में अइलइ । बुतरू माय लगी कन रहले हल, जखनी कउनो तरह चुप नञ् भेलइ तखनी कहलन जे प्रतिज्ञा करऽ जे हमर बात टारबऽ त नञ् । जे हम कहम से मानबऽ ने । भवनाथ शपथपूर्वक प्रतिज्ञा कइलन, कहलथिन अवश्य मानबो । तखनी उनकर स्त्री अपन गोदी से बुतरू के पति के गोदी में देके कहलथिन जे हम मर जइयो त दोसर विवाह नञ् करबऽ । “पुत्र प्रयोजना भार्या ।” [6] भगवान जखनी दे देलन तखनी अब लम्पट [*35] रहतऽ हल त हम अनुरोध कभियो नञ् करतियो हल । लेकिन हम तोहरा सत्यनिष्ठ, जितेन्द्रिय समझिए के दोसर विवाह नञ् करे के आग्रह प्रकट कइलियो ह । ई बुतरू के पालन-पोषण करिहोक, जेकरा में एकरा माय के मरे के दुख नञ् महसूस होवे, से करिहोक । भवनाथ 'एवमस्तु' कहके कहलथिन, तूँ अइसे जी काहे लगी हारऽ हऽ । ई कहे के तो अखनी कउनो अवसर नञ् हल ।
विशेषरानी - अब हमर देह में की हके, जे दिन, जे पहर ही, से ही । कखनी आँख मूनके चल देम, तेकर कउन ठेकाना । ओहे कहे लगी हमर मन छटपटाब करऽ हल । अब मन हल्लुक भेल । छाती पर के बोझ उतर गेल । देखिहऽ, अपन प्रतिज्ञा के निमाहिहऽ ।
भवनाथ - जरूर, जरूर निमाहबो । श्रीवैद्यनाथ साक्षी हथी ।
ई सुनके स्त्री के मन में 'यत्परो नास्ति'[7] हर्ष भेलइ ।
एहे समय में जयनाथ दुआरी पर आके कहलथिन, भाय जी, दलान पर लोग सब भेंट करेलगी आल हथुन । ज्योतिषी झट घर से बाहर होके दलान पर गेला ।
4
जे दिन भवनाथ झा गाम अइला, ऊ दिन रात में विशेषरानी के चेष्टा बहुत नीक सन सबके देखे में अइलइ । सबके आशा भेलइ जे अब इनकर दुख दूर हो जइतइ । लेकिन भोर भेला पर उनकर रोग एकाएक बढ़ गेलइ । सबके हृदय में जे कुछ नीक के आशा हलइ से निराशा में विलीन हो गेलइ । ज्योतिषी अत्यन्त आतुर होके कलाधर बाबू के डाक्टर बोलाके लावे खातिर दरभंगा पठइलथिन । बारह बजे दिन के ट्रेन से ऊ दरभंगा गेला । तीन बजे सुशील बाबू डाक्टर के लेले गाम पहुँचला । ज्योतिषी के दलान पर लोग सब के भीड़ लग गेल । डाक्टर साहेब तीन-चार अदमी के साथे भीतर गेला, आउ लोग दलाने पर रहल । डाक्टर साहेब विशेषरानी के रोग के जाँच यन्त्र द्वारा करके संतप्त स्वर में कहलथिन - "आपलोग जब रोग असाध्य हो जाता है तब डाक्टर को बुलाते हैं । यह कितने दिन से बीमार है ?"
जयनाथ झा कहलथिन - बेमार तो छो मास से है, कल्हे तक ठीके थी, आझ से बेमारी बढ़ गया है । [*36] डाक्टर - इसके पहले किसका दबाइ होता था ?
जयनाथ गोँ गोँ करे[8] लगला । थूक घोंटके कहलथिन - दबाइ, दबाई तो बहुत खाया है । हमारे गाँव के लगले चेताराम भगत एक कोयरी बड़ा नामी बैद है, वो ही दवाई करता था ।
डाक्टर - उसको काहे नहीं बुलाकर दिखाया, वह जल्द आराम कर देगा । हमको नाहक लाया । हम इस बिमारी को अच्छा नहीं करने सकता । अफसोस ।
जयनाथ हाथ जोड़के कहलथिन - हजूर, आप साक्षात् धन्वन्तर हैं । आप कृपा करके औषध दीजिये, आपके हाथ में यश है । जरूर इनका दुख आराम हो जायेगा ।
डाक्टर - नहीं बाबा, मेरे हाथ में कुछ नहीं है । सब कुछ उस भगत के हाथ में है । वह बड़ा नामी वैद है । हम तो कछ पढ़ा-लिखा नहीं है ।
जयनाथ झा लजाल कहलथिन - हम सब देहाती आदमी हैं, इसी से बेर पर धोखा खा जाते हैं । अब आप इनको ठीक कर दीजिये ।
डाक्टर - "आप कुछ नहीं समझता है ।" ओसारा पर आके कहलथिन - "इसका फेफड़ा सड़ गया । अब हम इसको नहीं बचाने सकते । अलबत्ता हाम दवाइ दे सकता है । आपलोगों के भाग्य से जी जाय, तो जी जाय ।" एतना कहके बेग में से तीन-चार ठो शीशी बाहर करके एगो खाली शीशी में सब में से थोड़ा-थोड़ा अर्क मिलाके बारह खोराक औषध बनाके देलथिन, कहलथिन - "चार-चार घंटे पर दवाइ पिलाना" आउ एक ठो उज्जर चूर्ण गाय के दूध में मिलाके पीए लगी देलथिन जे पीला से देह में कुछ ताकत होतइ ।
कलाधर बाबू पान-सुपारी पनबट्टी में लाके डाक्टर के आगू में रखके कहलथिन - हमलोग आपका सत्कार क्या लेकर करें, बहुत गरीब हैं ।
डाक्टर - आपलोग ब्राह्मण हैं, हमारे गुरु हैं । हाम सत्कार नहीं, आशीर्वाद चाहते हैं । पनबट्टी में से दू खिल्ली पान लेके "अच्छा, अब हम चलते हैं", कहके बाहर अइला । "दवाइ फायदा करने पर परसों फिर किसी को मेरे पास भेज दीजियेगा ।"
कलाधर कहलथिन - अब साँझ होने में विलम्ब नहीं है । इस गरीब के यहाँ आतिथ्य स्वीकार करें ।
डाक्टर हँसके कहलथिन - "क्षमा कीजिये ।"
[*37] फीस आउ दवाय के दाम लेके मोटर पर चढ़के दरभंगा वापस गेला ।
तीन-चार खोराक औषध पीला पर विशेषरानी के कुछ चैतन्य हो अइलइ । आँख खोलके चारो दने इच्छा के दृष्टि से तक्के लगला । सास के गोदी में बुतरू के देखके हात के इशारा से पास में देवे के आशय जनइलथिन । सास बुतरू के खाट पर रखके हाथ से धइले रहलथिन । मरणासन्न माता दुन्नु हाथ से बुतरू के मुँह हसोतके, चुम्मा लेते एक बेरी करुण दृष्टि से स्वामी के मुँह दने देखइलन । सास पुछलथिन, भुक्खल लगऽ हकऽ ? हाथ से नञ् के संकेत करके जल मँगलथिन । दू घोंट जल पीके आँख मुनलन, से मुनले रहलन । अमावस्या दिन आध पहर दिन उठते-उठते विशेषरानी तीन बरिस के बुतरू के छोड़के हमेशे लगी बिदा हो गेलथी । ज्योतिषी जी के घर रमणीरत्न से शून्य भेला के कारण अन्धकारमय भे गेलइ । कन्ना-रोहट होवे लगल। पूरे गाम में शोक व्याप गेलइ । तीन बरिस के बुतरू के मातृहीन देखके केकर आँख में लोर नञ् भर अइलइ ! भवनाथ स्त्री के वियोग-व्यथा से विकल भे गेला । दस दिन तक खाली दूध पीके रहला ।
ओकर बाद स्त्री के श्राद्ध आदि क्रिया विधिवत् करके शोकाकुल चित्त से समय बितावे लगला । प्राण के सहारा ऊ तीन बरिस के बुतरू हलइ । ओकरे मुँह देखके कइसूँ धीरज धातण करके सब सुख के परित्याग कर देलन ।




[1] यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति - सम्पूर्ण श्लोक ई प्रकार हइ -
या तूत्तरोष्ठेन समुन्नतेन रूक्षाग्रकेशी कलहप्रिया सा ।
प्रायो विरूपासु भवन्ति दोषाः यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति ॥ बृहत्संहिता, अध्याय 69, श्लोक 23.
अर्थात्, उभरल उपरौला होठ वली स्त्री, जेकर केश के अग्र भाग रूक्ष होवऽ हइ, ऊ झगड़ालू होवऽ हइ । प्रायः विरूप स्त्री में दोष पावल जा हइ, जबकि सुन्दर आकृति वली स्त्री में गुण ।
[2] फलेन परिचीयते - सम्पूर्ण श्लोक ई प्रकार हइ -
एका भूरुभयोरैक्यमुभयोर्दलकाण्डयोः ।
शालिश्यामाकयोर्भेदः फलेन परिचीयते ॥
सुभाषितरत्नभाण्डागार (सं॰ काशीनाथ शर्मा), प्रकरण 5, श्लो॰86.
अर्थात्, चावल आउ सावाँ एक्के जमीन में बढ़ऽ हइ, दुन्नु के पत्ता आउ डंठल एक्के नियन होवऽ हइ, लेकिन फल से भेद पता चल जा हइ ।
[3] महकारी - एगो वृक्ष जेकर फल अखाद्य होवऽ हइ ।
[4] “दारान् रक्षेद्धनैरपि” - "धन से भी पत्नी के रक्षा करे के चाही" - चाणक्यनीतिदर्पण, अध्याय-1, श्लो॰6.
[5] “स्थातुं गन्तुं द्वयमपि सखे नैव शक्तो द्विरेफः” - "हे मित्र, (केतकी पुष्प में फँसल आउ ओकर काँटा से बिंधल) मधुमक्खी ठहरे आउ (उड़के) जाय दुन्नु में असमर्थ (होवऽ हइ)" - सुभाषितरत्नभाण्डागार (सं॰ काशीनाथ शर्मा), संकीर्णप्रकरण, श्लो॰366.
[6] पुत्र प्रयोजना भार्या - पत्नी पुत्र पैदा करे लगी होवऽ हइ ।
[7] यत्परो नास्ति - जेकरा से बढ़के आउ कुछ नञ् हइ ।
[8] गोँ-गोँ करना - अस्पष्ट स्वर में बोलना; गलत होते देखके साफ-साफ नहीं बोल पाना; गोलमटोल अस्पष्ट उत्तर देना।

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