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Saturday, October 03, 2020

वेताल कथा (चान मामूँ) - 4. आत्म-बलिदान

 वेताल कथा (चान मामूँ) - 4. आत्म-बलिदान

(चंदामामा- जनवरी 1956, पृ॰18-24; वेतालपञ्चविंशति, कथा सं॰15; बैताल पचीसी, कहानी संख्या 16)


[18] विक्रम फेर पेड़ पर से लाश के उतारके, कन्हा पर डालके श्मशान तरफ चललइ। लाश में स्थित वेताल अट्टहास करते कहलकइ - "राजा! तोहरा देखके हमरा जीमूतवाहन के कथा आद आ रहलो ह। समय काटे लगी ई कहानी सुनावऽ हियो। सुन्नऽ।" ऊ ई कथा सुनइलकइ -

हिमालय पर्वत पर, कांचननगर के परिपालन करते जीमूतकेतु नाम के राजा हलइ। ऊ राजा के महल के आँगन में एगो कल्प-वृक्ष हलइ। ऊ वृक्ष के कृपा से राजवंश के लोग के सम्पूर्ण इच्छा पूरा हो जा हलइ।

जीमूतकेतु के लड़का के नाम हलइ जीमूतवाहन। जब ऊ बड़गो होलइ त राजा वैभव के साथ ओकरा युवराज [19] बनइलकइ। ओहे बखत मन्त्री सब जीमूतवाहन से कहलकइ - "युवराज! अपने के वंश खातिर कल्प-वृक्ष के होना कल्याणकारी हइ। ई अपने के पूर्वज लोग के सहायता करते अइले ह! अपनहूँ ऊ कल्प-वृक्ष के प्रार्थना करके अपन सब इच्छा के पूरा कर सकऽ हथिन।"

एतना सुनतहीं जीमूतवाहन के प्रसन्न होवे के बात अलगे, ऊ चिन्तित होके सोचे लगलइ - "अफसोस हइ, हमर पूर्वज सब, कल्प-वृक्ष के होतहूँ, हमेशे अपन स्वार्थ के परवाह करते गेलथिन, परोपकार कभियो नञ् कइलथिन। ई जीवन में परोपकार के अलावा सब कुछ क्षणभंगुर ही तो हइ। ऊ सब, जे कल्प-वृक्ष के अप्पन समझऽ हलथिन, अब काहाँ हथिन? कम से कम हम तो ई कल्प-वृक्ष के स्वार्थ लगी उपयोग नञ् करबइ।"

ई तरह सोचके, जीमूतवाहन कल्प-वृक्ष बिजुन जाके प्रार्थना कइलकइ - "देव! नञ् मालुम, केतना पीढ़ी से, जे कुछ हमर पूर्वज लोग मँगलथिन, अपने उनकन्हीं के देते अइलथिन हँऽ। कभियो अपने नञ् नञ् कइलथिन। हमर अपने से एक्के प्रार्थना हइ। ई संसार में जेतना अनाथ आउ अभागल हइ, ऊ सब के इच्छा पूरा करथिन, आउ ओकन्हीं के कोय चीज के कमी नञ् होवे देथिन।"

तुरते कल्प-वृक्ष अदृश्य हो गेलइ। भूमि पर निम्मन बारिश होलइ, खूब फसल होलइ आउ संसार में कोय दरिद्र नञ् रहलइ।

जब रिश्तेदार लोग के मालुम होलइ कि जीमूतकेतु आउ जीमूतवाहन के पास कल्प-वृक्ष नञ् हइ, त ऊ सब अइन सेना लेके कांचननगर पर आक्रमण करे लगी निकस पड़लइ। जीमूतकेतु ओकन्हीं के मुकाबला करे खातिर प्रयास करे लगलइ। लेकिन जीमूतवाहन अपन पिता से निवेदन कइलकइ - "पिता जी! [20] ई युद्ध से कीऽ लाभ? कीऽ ई राज्य खातिर रिश्तेदार लोग के हत्या करना उचित हइ? थोड़े दिन ओकन्हिंएँ के राज्य करे देथिन। हम सब कहीं आउ जाके इह आउ पारलौकिक सुख प्राप्त करे के प्रयास करिअइ।"

"जइसन तोर मर्जी। जब तोहरे राज्य के इच्छा नञ् हको त भला हम काहे लगी युद्ध करके लोग के खून-खराबा करू?"

जीमूतवाहन रिश्तेदार लोग के राज्य सौंप देलकइ। अपन माता-पिता के साथ लेके, ऊ दक्षिण समुद्र के किनारे स्थित मलय पर्वत पर चल गेलइ। हुआँ ऊ एगो आश्रम भी बना लेलकइ। ऊ पर्वत पर सिद्ध जाति के लोग रहल करऽ हलइ। ऊ जाति के राजा के पुत्र मित्रावसु से जीमूतवाहन के स्नेह हो गेलइ।"

एक दिन जीमूतवाहन घूमते-घूमते, पार्वती मन्दिर बिजुन पहुँचलइ। मन्दिर में वीणा के साथ केकरो पार्वती-पाठ करे के ध्वनि सुनाय पड़लइ। अन्दर जाके देखला पर एगो सुन्दर युवती देखाय देलकइ। ऊ ओकर सहेली से मालुम कर लेलकइ कि ऊ मित्रावसु के बहिन हइ, आउ ओकर नाम मलयवती हइ। सहेली [21] मलयवती के जीमूतवाहन के परिचय देलकइ। मलयवती कुछ संकोच में पड़ गेलइ। ओकरा समझ में नञ् अइलइ कि जीमूतवाहन के कइसे स्वागत कइल जाय। ओहे से पूजा लगी लावल फूल में से एगो ले लेलकइ आउ ओकरा जीमूतवाहन के गला में डाल देलकइ। लेकिन तुरते जीमूतवाहन अपन गला से निकासके ओक्कर गला में डाल देलकइ। मित्रावसु दिल खोलके हँसलइ, जब ओकरा ई घटना के बारे पता चललइ। ओकरा मालुम हो गेलइ कि नवयुवक आउ मलयवती एक दोसरा के प्रेम करऽ हइ, त ऊ ओकन्हीं के विवाह कर देलकइ।

कुछ समय गुजर गेला के बाद, एक दिन जीमूतवाहन आउ मित्रावसु पर्वत से नीचे उतरके समुद्र तरफ जा रहले हल। जब ओकन्हीं जा रहले हल, त जीमूतवाहन हड्डी के कइए गो ढेर देखलकइ आउ अपन मित्र के एकरा बारे पुछलकइ।

"तोरा गरुड़ आउ नाग के बीच घोर दुश्मनी के बारे पता हको", मित्रावसु उत्तर देलकइ। "घृणा से अन्धा होके गरुड़ नाग लोग के एतना बरबाद करे लगलइ कि वासुकि, नाग लोग के राजा, गरुड़ के साथ सन्धि करे पड़लइ जेकरा अनुसार एक नाग रोज गरुड़ के पास खाय लगी भेजल जा हलइ। ई सब ढेर ऊ अभागल नाग के हइ जेकरा गरुड़ सन्धि के अनुसार रोज दिन खइलके ह।"

[22] जब ऊ ई बात सुनलकइ, त जीमूतवाहन के नाग लोग पर दया आ गेलइ। "ई गरीब जाति पर कइसन विपत्ति हइ! ऊ सोचलकइ। "ई वासुकि कायर होतइ, नञ् तो ऊ अपन दुश्मन के अपन लोग के दिन पर खाय नञ् देते हल। ऊ अइसन वहशी समझौता करे के पहिले खुद के गरुड़ के सामने खाय लगी समर्पित कर देते हल! कीऽ गरुड़ खुद एगो निर्दय कमीना नञ् हइ, जे एक नाग रोज खा हइ आउ एगो नाग जाति के दुर्गति कर देलके ह?"

"अब वापिस चल्लल जाय?" मित्रावसु आखिर बोललइ। "घर से अइला बहुत देर हे गेलइ।"

"तूँ पहिले जा", जीमूतवाहन बोललइ। "हम जल्दीए आ जइबो। हम ई जगह के आउ निम्मन से देखे लगी चाहऽ हिअइ।"

वस्तुतः जीमूतवाहन वापिस जाय लगी नञ् चाहऽ हलइ। ऊ आझ लगी गरुड़ के भोजन बन्ने के फैसला कर लेलकइ, आउ ई तरह कम से कम एक अभागल नाग के जान बचावे के। अपन साला के भेजला के बाद, ऊ, ऊ शिला तरफ बढ़लइ जेकरा पर गरुड़ नाग लोग के खा हलइ।

तुरते ओकरा विलाप सुनाय देलकइ आउ एगो नाग औरत आउ ओकर बेटवा के शिला तरफ अइते देखलकइ। "आह, बेटा शंखचूड़! हमर कीऽ हालत होत जब तूँ चल जइमँऽ?" बुढ़िया अम्मोढेकार कन रहले हल।

"मत रो, माय", युवक नाग ओकरा सलाह देलकइ। "एकरा से कोय फयदा नञ्! अब घर लौट जो। हमर समय समाप्त हो गेलउ आउ अगर तूँ हियाँ परी ठहरमँऽ, त तोरा हमरा जान मारल आउ खाल जाय देखे पड़तउ।"

"निम्मन माय", जीमूतवाहन आगू बढ़के बुढ़िया के कहलकइ, "तूँ अपन लड़का खातिर मत रोवऽ। आझ हम तोर लड़का के जगह पर [23] गरुड़ के आहार बनके जइबो। तूँ अपन लड़का के लेके अराम से अपन घर चल जा।"

बुढ़िया एकाएक आनन्दाश्रु बहइते कहे लगलइ - "बेटा! तूँ केतना निम्मन बात कह रहलऽ ह! लेकिन जे अइसन बात कह सकऽ हइ, ऊ कीऽ हमर बेटा के बराबर नञ् हइ? कीऽ तोरा मर गेला पर हमरा दुख नञ् होतइ? अइसन मत करऽ बेटा, मत करऽ। ई तो बड़गो अन्याय होतइ।"

शंखचूड़ अपन माय के हुआँ से जल्दी से चल जाय लगी कहलकइ। आउ ऊ गरुड़ के आवे से पहिले, गोकर्ण के प्रार्थना करे चल गेलइ। शंखचूड़ के वापिस आवे के पहिलहीं मँड़रइते आ पहुँचलइ। ओकरा अइते देखके जीमूतवाहन शिला के पास खड़ी हो गेलइ। गरुड़ ओकरे नाग समझके खाय लगलइ। लेकिन गरुड़ के एक बात के अचरज होलइ। ऊ बात ई हलइ कि ऊ नाग बाकी नाग नियन मरे से नञ् डर रहले हल। ओकर मुख पर सिवाय शान्त भावना के आउ कुछ नञ् हलइ। एकरा में कीऽ रहस्य हइ, ई गरुड़ के बिलकुल समझ में नञ् अइलइ।

जल्दीए शंखचूड़ दौड़ल-दौड़ल अइलइ आउ कहे लगलइ - "गरुड़! ठहरऽ, ठहरऽ! ऊ नाग नञ् हको। हम नाग हियो। ओकरा मत खाहो। तूँ हमरे खा। ठहरऽ, ठहरऽ।" ऊ अइसीं चिल्लाब करऽ हलइ।

गरुड़ हैरान होल जीमूतवाहन दने तकलकइ आउ पुछलकइ - "अगर तूँ नाग नञ् हीं, त तूँ हियाँ परी काहे लगी अइल्हीं आउ हमर आहार बन रहल्हीं हँऽ?"

"तोर हृदय पत्थर के हउ। ओहे से बिन कुछ सोचले-विचारले एक नाग रोज अपन पेट में रख ले हीं। लेकिन हम जानऽ [24] ही कि जीवन के केतना मूल्य हकइ। ओहे से, एक नाग के प्राण-दान करे के उद्देश्य से हम ई काम कइलिए ह। एकरा में आउ कोय बात नञ् हइ।" जीमूतवाहन कहलकइ।

गरुड़ के पश्चात्ताप होलइ। ऊ कहलकइ - "महात्मा! हम अनजान में बड़गो अपराध कइलिए ह। हमरा क्षमा कर देथिन।"

"रोज जान-बूझके अपराध करे वला के कइसे क्षमा कइल जा सकऽ हइ? रोज जे नाग के खा हीं, कीऽ ऊ सब हमरा नियन प्राणी नञ् हइ?" जीमूतवाहन पुछलकइ।

"हम अब कभी नाग लोग के पीछा नञ् करबइ। हमरा क्षमा कर देथिन।" गरुड़ कहलकइ। शंखचूड़ के प्राण बच गेलइ। जीमूतवाहन घर चल गेलइ।

ई कथा सुनइला पर वेताल पुछलकइ - "राजा! ई दुन्नु में कउन बड़ा हइ? शंखचूड़ के बदले अपन प्राण के आहुति देवे वला जीमूतवाहन, या जीमूतवाहन के मरे से बचावे वला शंखचूड़? अगर तूँ एकर उत्तर जानतहूँ नञ् बतइलइ, त हम तोर सिर फोड़ देबो।"

विक्रम उत्तर देलकइ - "जीमूतवाहन प्राणीमात्र पर दया करऽ हलइ। ऊ प्राण-दाण खातिर, आत्म-बलि के अपन कर्तव्य समझऽ हलइ। शंखचूड़ लगी नञ् त ऊ कोय आउ खातिर अपन बलि दे देते हल। ऊ स्वेच्छापूर्वक मरते हल। लेकिन शंखचूड़ के मरना स्वेच्छानुसार नञ् हलइ। ऊ जबरदस्ती मारल जइते हल। अगर ऊ तहिया बच जइते हल त ऊ मृत्यु से भी बच जइते हल। ई जानतहूँ ऊ जीमूतवाहन के प्राण-रक्षा कइलकइ। ओहे से निस्सन्देह शंखचूड़ बड़ा हइ।"

ई तरह राजा के मौनभंग होतहीं वेताल लाश के साथ उड़के ओहे पेड़ पर जाके फेर से लटक गेलइ।




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